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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आस्रव अधिकार २७१ (अनुष्टुभ् ) सर्वस्यामेव जीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ। कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः।। ११७ ।। सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स। उवओगप्पाओगं बंधते कम्मभावेण।।१७३ ।। होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा। सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं।। १७४ ।। 'बुद्धिपूर्वक' और 'अबुद्धिपूर्वक' का अर्थ इसप्रकार है:-जो रागादिपरिणाम इच्छा सहित होते हैं सो बुद्धिपूर्वक हैं और जो रागादिपरिणाम इच्छा रहित परनिमित्त की बलवत्तासे होते हैं सो अबुद्धिपूर्वक हैं। ज्ञानीके जो रागादिपरिणाम होते है सो वे सभी अबुद्धिपूर्वक ही हैं; सविकल्प दशामें होनेवाले रागादिपरिणाम ज्ञानीको ज्ञात तो हैं तथापि अबुद्धिपूर्वक हैं क्योंकि वे बिना ही इच्छाके होते हैं। (पण्डित राजमल्लजीने इस कलशकी टीका करते हुए 'बुद्धिपूर्वक' और अबुद्धिपूर्वक' का अर्थ इसप्रकार किया है:-जो रागादिपरिणाम मनके द्वारा, बाह्य विषयोंका अवलंबन लेकर प्रवर्तते हैं, और जो प्रवर्तते हुए जीवको निजको ज्ञात होते हैं तथा दूसरोंको भी अनुमानसे ज्ञात होते हैं वे परिणाम बुद्धिपूर्वक हैं; और जो रागादिपरिणाम इंद्रिय-मनके व्यापारके अतिरिक्त मात्र मोहोदय निमित्तसे होते हैं तथा जीवको ज्ञात नहीं होते वे अबुद्धिपूर्वक हैं। इन अबुद्धिपूर्वक परिणामोंको प्रत्यक्ष ज्ञानी जानता है और उनके अविनाभावी चिह्नोंसे वे अनुमानसे भी ज्ञात होते हैं)।११६ । अब शिष्यकी आशंकाका श्लोक कहते हैं :--- श्लोकार्थ:- [ सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां] ज्ञानीके समस्त द्रव्यास्रवकी संतति विद्यमान होने पर भी [ कुतः] यह क्यों कहा है कि [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ नित्यम् एव ] सदा ही [ निरास्रवः ] निरास्रव है ?'- [इति चेत् मतिः ] यदि तेरी यह मति (आशंका) है तो अब उसका उत्तर कहा जाता है। ११७। अब, पूर्वोक्त आशंकाके समाधानार्थ गाथा कहते हैं: जो सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय , वर्तते सुदृष्टिके। उपयोगके प्रायोग्य बंधन, कर्मभावोंसे करे ।। १७३।। अनभोग्य रह उपभोग्य जिस विध होय उस विध बाँधते । ज्ञानावरण इत्यादि कर्म जु सप्त-अष्ट प्रकारके ।। १७४।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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