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समयसार
१६६
शीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणा-ज्ञानात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एषोऽहं रज्ये इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणः कर्ता प्रतिभाति।
ज्ञानात्तु न कर्म प्रभवतीत्याहपरमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो। सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि।। ९३ ।।
परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन्। स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारको भवति।। ९३ ।।
शीत-उष्णकी भाँति ( अर्थात् जैसे शीत-उष्णरूपसे आत्मा के द्वारा परिणमन करना अशक्य है उसीप्रकार), जिस रूप आत्मा के द्वारा परिणमन करना अशक्य है ऐसे रागद्वेषसुखदुःखादिरूप अज्ञानात्मा के द्वारा परिणमित होता हुआ (परिणमित होना मानता हुआ), ज्ञानका अज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं अज्ञानमय होता हुआ, 'यह मैं रागी हूँ (अर्थात् यह मैं राग करता हूँ)' इत्यादि विधिसे रागादि कर्मका कर्ता प्रतिभासित होता है।
भावार्थ:-रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मके उदयका स्वाद है; इसलिये वह, शीत-उष्णताकी भाँति, पुद्गलकर्मसे अभिन्न है और आत्मासे अत्यंत भिन्न है। अज्ञानके कारण आत्माको उसका भेदज्ञान न होनेसे वह यह जानता है कि यह स्वाद मेरा ही है; क्योंकि ज्ञानकी स्वच्छता के कारण रागद्वेषादिका स्वाद, शीतउष्णताकी भाँति, ज्ञानमें प्रतिबिंबित होने पर, मानों ज्ञान ही रागद्वेष हो गया हो इसप्रकार अज्ञानी को भासित होता है। इसलिये वह यह मानता है कि 'मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ, मैं क्रोधी हूँ, मैं मानी हूँ' इत्यादि। इसप्रकार अज्ञानी जीव रागद्वेषादिका कर्ता होता है।
अब यह बतलाते हैं कि ज्ञानसे कर्म उत्पन्न नहीं होता:परको नहीं निजरूप अरु, निज आत्मको नहिं पर करे । यह ज्ञानमय आत्मा अकारक कर्मका ऐसे बने ।। ९३।।
गाथार्थ:- [ परम् ] जो परको [आत्मानम् ] अपनेरूप [ अकुर्वन् ] नहीं करता [च ] और [ आत्मानम् अपि ] अपने को भी [ परम् ] पर [ अकुर्वन् ] नहीं करता [ सः] वह [ ज्ञानमयः जीवः ] ज्ञानमय जीव [ कर्मणाम् ] कर्मोंका [ अकारकः भवति ] अकर्ता होता है अर्थात् कर्ता नहीं होता।
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