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समयसार
रागद्वेषमोहा न सन्ति सम्यग्दृष्टेः, सम्यग्दृष्टित्वान्यथानुपपत्तेः। तदभावे न तस्य
द्रव्यप्रत्ययाः पुद्गलकर्महेतुत्वं बिभ्रति, द्रव्यप्रत्ययानां पुद्गलकर्महेतुत्वस्य
रागादिहेतुत्वात्। ततो हेतुहेत्वभावे हेतुमदभावस्य प्रसिद्धत्वात् ज्ञानिनो नास्ति बन्धः ।
[ चतुर्विकल्प हेतु: ] ( मिथ्यात्वादि ) चार प्रकारके हेतु [ अष्टविकल्पस्य ] आठ प्रकारके कर्मोंको [ कारणं ] कारण [ भणितम् ] कहे गये हैं, [च] और [ तेषाम् अपि ] उनके भी [ रागादय: ] ( जीवके ) रागादि भाव कारण हैं; [ तेषाम् अभावे ] इसलिये उनके अभावमें [ न बध्यन्ते ] कर्म नहीं बँधते । ( इसलिये सम्यग्दृष्टिके बंध नहीं हैं। )
टीका:-सम्यग्दृष्टिके रागद्वेषमोह नहीं हैं क्योंकि सम्यग्दृष्टित्वकी अन्यथा अनुपपत्ति है (अर्थात् रागद्वेषमोहके अभावके बिना सम्यग्दृष्टित्व नहीं हो सकता ); रागद्वेषमोहके अभावमें उसे ( सम्यग्दृष्टिको ) द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मका (अर्थात् पुद्गलके बंधनका) हेतुत्व धारण नहीं करते क्योंकि द्रव्यप्रत्ययोंके पुद्गलकर्मके हेतुत्व के हेतू रागादिक हैं; इसलिये हेतूके हेतूके अभाव में हेतूमानका ( अर्थात् कारणका जो कारण उसके अभावमें कार्यका) अभाव प्रसिद्ध है इसलिये ज्ञानीके बंध नहीं है।
भावार्थ:-यहाँ, रागद्वेषमोहके अभावके बिना सम्यग्दृष्टित्व नहीं हो सकता ऐसा अविनाभावी नियम बताया है सो मिथ्यात्वसंबंधी रागादिका अभाव समझना चाहिये। मिथ्यात्वसंबंधी रागादिको ही रागादि माना गया है। सम्यग्दृष्टि होनेके बाद जो कुछ चारित्रमोहसंबंधी राग रह जाता है उसे यहाँ नहीं लिया है; वह गौण है। इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके भावास्रवका अर्थात् रागद्वेषमोहका अभाव है । द्रव्यास्रवोंको बंधका हेतु होनेमें हेतुभूत जो रागद्वेषमोह है उनका सम्यग्दृष्टिके अभाव होनेसे द्रव्यास्रव बंधके हेतु नहीं होते, और द्रव्यास्रव बंधके हेतु नहीं होते इसलिये सम्यग्दृष्टिके -ज्ञानीके - बंध नहीं होता ।
सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहा जाता है वह योग्य ही है। 'ज्ञानी' शब्द मुख्यतया तीन अपेक्षाओंको लेकर प्रयुक्त होता है :- ( १ ) प्रथम तो, जिसे ज्ञान हो वह ज्ञानी कहलाता है; इसप्रकार सामान्य ज्ञानकी अपेक्षासे सभी जीव ज्ञानी हैं । (२) यदि सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाये तो सम्यग्दृष्टिको सम्यग्ज्ञान होता है इसलिये उस अपेक्षासे वह ज्ञानी है, और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है। (३) संपूर्ण ज्ञान और अपूर्ण ज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाये तो केवली भगवान ज्ञानी हैं और छद्मस्थ अज्ञानी है क्योंकि सिद्धांतमें पाँच भावोंका कथन करने पर बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव कहा है। इसप्रकार अनेकांतसे अपेक्षाके द्वारा विधिनिषेध निर्बाधरूपसे सिद्ध होता है; सर्वथा एकांतसे कुछ भी सिद्ध नहीं होता ।
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