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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः।
( नर्दटक )
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः
स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत्। न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ।। २९९ ।। (पृथ्वी)
बहिर्लुठति यद्यपि स्फुटदनन्तशक्तिः स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम्। स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ।। २१२ ।।
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चेष्टारूप कर्मके आत्मपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, और एकद्रव्यत्वके कारण उसने अनन्य होनेसे तन्मय है; इसलिये परिणाम - परिणामीभावसे वहीं कर्ता - कर्मपनका और भोक्ता - भोग्यपनका निश्चय है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ननु परिणामः एव किल विनिश्चयतः कर्म ] वास्तवमें परिणाम ही निश्चयसे कर्म हैं, और [ सः परिणामिनः एव भवेत्, अपरस्य न भवति ] परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं ( क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता ); [ इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति ] और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, [ च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न ] तथा वस्तुकी एकरूप ( कूटस्थ ) स्थिति नहीं होती ( क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधासहित है); [ ततः तद् एव कर्तृ भवतु ] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्मका कर्ता है ( - यह निश्चय - सिद्धांत है ) । २११ ।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते है:
श्लोकार्थ:- [स्वयं स्फुटत्-अनन्त-शक्तिः] जिसको स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है ऐसी वस्तु [ बहि: यद्यपि लुठति ] अन्य वस्तुके बहार यद्यपि लोटती है [ तथापि अन्य-वस्तु अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति ] तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तुके भीतर प्रवेश नहीं करती, [ यतः सकलम् एव वस्तु स्वभाव - नियतम् इष्यते ] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने अपने स्वभावमें निश्चित हैं ऐसा माना जाता है।
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