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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates संवर अधिकार ज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते सोऽज्ञानमयागावादज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसन्तानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति। अतः शुद्धात्मोपलम्भादेव संवरः। (मालिनी) यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते। तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति।।१२७ ।। वह, 'अज्ञानमय भावमेंसे अज्ञानमय भाव ही होता है' इस न्यायके अनुसार आगामी कर्मोंके आस्रवणका निमित्त जो रागद्वेषमोहकी संतति उसका निरोध न होनेसे , अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है। अत: शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे ( अनुभवसे) ही संवर होता है। भावार्थ:-जो जीव अखंडधारावाही ज्ञानसे आत्माको निरंतर शुद्ध अनुभव किया करता है उसके रागद्वेषमोहरूपी भावास्रव रुकते हैं इसलिये वह शुद्ध आत्माको प्राप्त करता है; और जो जीव अज्ञानसे आत्माका अशुद्ध अनुभव करता है उसके रागद्वेषमोहरूपी भावास्रव नहीं रुकते इसलिये वह अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है। अतः सिद्ध हुआ कि शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे ( अनुभवसे ) ही संवर होता है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ यदि ] यदि [ कथम् अपि ] किसी भी प्रकार से ( तीव्र पुरुषार्थ करके ) [धारावाहिना बोधनेन ] धारावाही ज्ञानसे [ शुद्धम् आत्मानम् ] शुद्ध आत्माको [ ध्रुवम् उपलभमानः आस्ते ] निश्चलतया अनुभव किया करे [ तत् ] तो [ अयम् आत्मा ] यह आत्मा, [ उदयत्-आत्म-आरामम् आत्मानम् ] जिसका आत्मानंद प्रगट होता जाता है ( अर्थात् जिसकी आत्मस्थिरता बढ़ती जाती है) ऐसे आत्माको [ पर-परिणतिरोधात् ] परपरिणतिके निरोधसे [शुद्धम् एव अभ्युपैति] शुद्ध ही प्राप्त करता है। भावार्थ:-धारावाही ज्ञानके द्वारा शुद्ध आत्माका अनुभव करनेसे रागद्वेषमोहरूप परपरिणतिका (भावास्रवोंका) निरोध होता है और उससे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है। धारावाही ज्ञानका अर्थ है प्रवाहरूपज्ञान-अखण्ड रहनेवाला ज्ञान। वह दो प्रकार कहा जाता है:-एक तो, जिसमें बीचमें मिथ्याज्ञान न आये ऐसा सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान है। दूसरा, एक ही ज्ञेयमें उपयोगके उपयुक्त रहनेकी अपेक्षासे ज्ञानकी Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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