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अनशन
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शीलव्रत आदि के द्वारा अपने आपको भावित कर अनशनपूर्वक मरकर उत्कर्षतः सहस्रारकल्प तक उत्पन्न हो जाते हैं । - औ सू १५६, १५७)
८. इंगिनी अनशन : तुला, संहनन, श्रुत
""पंच तुलेऊण य तो, इंगिणिमरणं परिणतो य ॥ (व्यभा ४३९१) इंगिणीए आयवेयावच्चं परो न करेइ, णियमा चउव्विहाहारविरई । जड़ बहिं पडिवज्जइ तो अणीहारिमं, अह गच्छे तो णीहारिमं । पढमबिइयसंघयणी पडिवज्जइ, जे अहीयं णवमपुव्वस्स तइयं आयारवत्थं एक्कारसंगी वा पडिवज्जइ, धितीए वज्जकुड्डसमाणो सव्वाणि उवसग्गाणि अहियासेइ । (निभा ३८१७ की चू)
मुनि तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल - इन पांच तुलाओं द्वारा अपने आपको तोलकर इंगिनीमरण स्वीकार करता है । वह स्थान, शयन आदि कार्य स्वयं करता है, दूसरा व्यक्ति उसकी सेवा नहीं कर सकता। स्वीकर्त्ता नियमतः चतुर्विध आहार से विरत होता है। गच्छ में स्वीकार करना निर्धारिम और अन्यत्र बाहर स्वीकार करना अनिर्धारिम अनशन है।
वज्रऋषभनाराच अथवा ऋषभनाराच संहनन वाला, नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु या ग्यारह अंगों का अध्येता और वज्रकुड्य के समान धृतिसम्पन्न मुनि इसे स्वीकार करता है। तथा सब उपसर्गों को सहन करता है। संघयणधितीजुत्तो, नवदसपुव्वा सुतेण अंगा वा । संहनने तु त्रयाणामाद्यानामन्यतमेन धृत्या च (व्यभा ४३९४ वृ) वह वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच और नाराच- - इनमें से किसी एक संहनन तथा धृति से सम्पन्न होता है । वह नौ या दस पूर्वी अथवा ग्यारह अंगसूत्रों का ज्ञाता होता है।
युक्तः ।
९. भक्तपरिज्ञा और इंगिनीमरण में अंतर
आयप्परपडिकम्मं, भत्तपरिण्णाय दो अणुण्णाता । परिवज्जिया य इंगिणि, चउव्विधाहारविरती य ॥
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आगम विषय कोश - २
ठाण - निसीय- तुयट्टण, इत्तरियाई जधासमाधीए । सयमेव य सो कुणती, उवसग्गपरीसहऽहियासे ॥ (व्यभा ४३९२, ४३९३ ) भक्तपरिज्ञा- इसमें अनशनकर्त्ता स्वयं अपना परिकर्म कर सकता है, दूसरों से भी करवा सकता है। इसमें तीनों या चारों आहारों का त्याग किया जाता है। इंगिनीमरण - इस अनशन में दूसरों से परिकर्म नहीं करवाया जा सकता। स्थान, निषीदन और शयन वह स्वयं ही यथासमाधि करता है । इसमें चारों आहारों का परित्याग अनिवार्य है। अनशनकर्त्ता उपसर्ग और परीषहों को सहन करता है। १०. प्रायोपगमन अनशन : पादप-मेरु दृष्टांत
पादोवगमं भणियं, समविसमे पादवो जहा पडितो । नवरं परप्पओगा, कंपेज्ज जधा चलतरुव्व ॥ तसपाणबीयरहिते, विच्छिन्नवियारथंडिलविसुद्धे । निद्दोसा निद्दोसे उवेंति अब्भुज्जयं मरणं ॥ पुव्वावरदाहिणउत्तरेहि वातेहि आवयंतेहिं । जह न वि कंपति मेरू, तथ ते झाणाउ न चलंति ॥
(व्यभा ४३९५, ४३९६, ४४०० )
जैसे सम-विषम भूमि पर गिरा हुआ पादप उसी रूप में अवस्थित रहता है, वैसे ही प्रायोपगमनप्रतिपन्न मुनि खंड़े, बैठे या लेटे - जिस मुद्रा में अनशन स्वीकार करता है, जीवनपर्यंत उसी मुद्रा में निष्प्रकंप रहता है।
वायु आदि से प्रेरित वृक्ष की भांति केवल पर-प्रयोग से वह प्रकम्पित हो सकता है, स्वप्रयोग से नहीं।
वह त्रस, प्राण और बीज से रहित विस्तृत विशुद्ध स्थण्डिल में अभ्युद्यतमरण स्वीकार करता है। वह मुनि ध्यान से वैसे ही विचलित नहीं होता, जैसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा से आने वाली हवाओं से मेरुपर्वत प्रकम्पित नहीं होता ।
णिच्चलणिप्पडिकम्पो, णिक्खिवति जं जहि जहा अंगं । ( निभा ३८१८)
प्रायोपगमन अनशन करने वाला अनशन काल में नियमतः निष्प्रतिकर्म और निश्चल होता है। वह जिस
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