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आगम विषय कोश-२
अनशन
भावावेश नहीं होता। पूर्ण शांत और समाहित चित्त की अवस्था कर अपनी धृति और संहनन के अनुरूप भक्तपरिज्ञा या अन्य में इस मरण का वरण किया जाता है। ..."मुनि को जब यह अनशन ग्रहण करता है। लगे कि इस शरीर के द्वारा नए-नए गुणों की उपलब्धि हो
७. भक्तपरिज्ञा : सपराक्रम-अपराक्रम रही है, तब तक वह जीवन का बृंहण करे। जब कोई विशेष
सपरक्कमे य अपरक्कमे य वाघाय आणुपुव्वीए। गुण की उपलब्धि न हो, तब वह परिज्ञापूर्वक इस शरीर को त्याग दे। शरीर-व्युच्छेद के लिए आहार का त्याग किया जा
सुत्तत्थजाणएणं, समाहिमरणं तु कायव्वं ॥
भिक्ख-वियारसमत्थो, जो अन्नगणं च गंतु वाएति। सकता है। .... अनशन रुग्ण अवस्था में ही नहीं, किसी बाधा के न होने पर भी किया जा सकता है। यह विधान
एस सपरक्कमो खलु, तव्विवरीतो भवे इतरो॥ केवल मुनि के लिए ही नहीं, श्रावक के लिए भी है। इस
(व्यभा ४२२४, ४२२५) समाधिमरण को उत्तरवर्ती आचार्यों ने मृत्यु-महोत्सव कहा भक्तपरिज्ञा के दो भेद हैं-सपराक्रम और अपराक्रम। है।... व्यक्ति को जीवन की आकांक्षा और मरण के भय से इनके दो-दो भेद हैं-व्याघातिम और निर्व्याघातिम। मुक्त रहना चाहिए, किन्तु संयमपूर्ण जीवन और समाधिमरण व्याघात उपस्थित होने पर या न होने पर भी सूत्र और की आकांक्षा करणीय है।-भ २/४९ का भाष्य)
अर्थ के ज्ञाता मुनि को समाधिमृत्यु का वरण करना चाहिए। ६. आनुपूर्वी अनशन का विधि-क्रम
जो अपने या दूसरे के लिए भिक्षाचर्या करने में तथा पवज्जा सिक्खावय. अस्थरगहणंच अणियतोवायो। विचारभूमिगमन में समर्थ हो अथवा अन्य गण में जाकर निष्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिती चेव वाचना दे सकता हो, वह भक्तपरिज्ञा का इच्छुक हो तो
पव्वज्ज अब्भुवगओ सिक्खापदं ति सुत्तं गहियं, उसका मरण सपराक्रम कहलाता है। इसके विपरीत असमर्थ अत्थो सुओ बारस समाओ देसदंसणं कयं, सीसा का मरण अपराक्रम है। निप्फातिआ, एसा अव्वोच्छित्ती। ताहे जइ दीहाऊ ० श्रमणोपासक द्वारा अनशन संघयणधितिसंपण्णो य ताहे अप्पाणं तवेण. सत्तेण. सेणं समणोवासए बहूणि वासाणि समणोवासगसुत्तेण, एगत्तेण, बलेण य पंचहा तुलेऊण जिणकप्पं परियागं पाउणति, पाउणित्ता आबाहंसि उप्पण्णंसि वा अहालंदं सुद्धपरिहारं पडिमं वा पडिवज्जइ।अह अप्पाऊ, अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खाइ, पच्चक्खाइत्ता विहारस्स वा अजोग्गो, ताहे अब्भुज्जयमरणं तिविहं बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते वियालेऊण अप्पणो धितिसंघयणाणुरूवं भत्तपरिन्नं समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसुदेवलोएसु परिणओ। (निभा ३८१३ चू) देवत्ताए उववत्तारो भवति।
(दशा १०/३१) एक व्यक्ति प्रवजित होता है। वह मुनि बनकर बारह श्रमणोपासक (श्रावक)बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकवर्ष सूत्रग्रहण, बारह वर्ष अर्थग्रहण और बारह वर्ष देशाटन पर्याय का पालन करता है, पालन कर बाधा उत्पन्न होने पर कर शिष्यनिष्पादन द्वारा गण की परम्परा को अविच्छिन्न या न होने पर बहत भक्तों (भोजन के समय) का प्रत्याख्यान करता है। यदि वह दीर्घायु है, धुतिसंहननसंपन्न है तो तप,
करता है, प्रत्याख्यान कर अनशन के द्वारा भक्तछेदन कर, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच तुलाओं से अपने आलोचना-प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में आपको तोलता है, तोलकर जिनकल्प, यथालंद, शुद्धपरिहार काल कर देवलोक में देवरूप में उपपन्न होता है। (परिहारविशुद्धि) अथवा प्रतिमा को स्वीकार करता है। (तिर्यंच द्वारा अनशन-संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक
यदि वह अल्पायु है और विहार करने में असमर्थ है, जलचर, स्थलचर और खेचर जीव जातिस्मरण ज्ञान को तब त्रिविध अभ्युद्यत मरण (भक्तपरिज्ञा आदि) का विमर्श प्राप्त कर पांच अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं, बहुत सारे
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