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आगम विषय कोश-२
अनशन
० परीषह-पराजित को प्रेरणा
भाष्यकार का कथन है कि जो व्यक्ति अनशन करना * असाध्य रोगी को अनशन की प्रेरणा द्रवैयावृत्त्य चाहता है, उसके चरमकाल में आहार की अतीव तृष्णा उत्पन्न २८. निर्बाध अनशन हेतु पर्यालोचन : देव-संकेत होती है। अत: अनशन से पूर्व उस आहारकांक्षा का व्यवच्छेद २९. स्कन्दक के शिष्यों की समाधिमृत्यु
करने के लिए, अनशनकर्ता को जो अत्यंत प्रिय आहार आदि
हो, उसे लाकर देना चाहिए। उसका परिभोग कर लेने पर १. अनशन से पूर्व संलेखना
उसकी आकांक्षा शांत हो जाती है। उसमें वैराग्य बढ़ता है। वह अज्जो संलेहो ते, किं कतो न कतो त्ति एवमुदियम्मि। सोचता है-संसार में ऐसा कौन-सा भोग्य पदार्थ है, जिसका मैंने भंतुं अंगुलि दावे, पेच्छह किं वा कतो न कतो॥ उपभोग नहीं किया है। खाने के पश्चात् पवित्र आहार अपवित्रता न हु ते दव्वसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं। में परिणत हो जाता है-इस तथ्य का ज्ञाता मुनि आहारसंज्ञा से कीस ते अंगुली भग्गा?, भावं संलिहमाउर! । मुक्त होकर सुखपूर्वक ध्यान में लीन हो जाता है। इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु।
३. अनशन दुराराध्य : राधावेध दृष्टांत न चेयं ते पसंसामी, किसं साधुसरीरगं॥
__..."उत्तिमढे, चंदगवेज्झसरिस..." । (व्यभा ४२९०, ४२९१, ४२९४)
चक्राष्टकमुपरिपुत्तलिकाक्षिचन्द्रिकावेधवत् दुराअनशनेच्छु शिष्य की परीक्षा के लिए गुरु ने पूछा- राध्यमनशनम्।
(निभा ३४२४ चू) आर्य! तुमने संलेखना की या नहीं? शिष्य ने क्रोधावेश में
अनशन चन्द्रवेध्य (राधावेध) के समान दराराध्य है। अपनी अंगुलि तोड़कर दिखाते हुए कहा-आर्यवर ! देखो,
चन्द्रकवेधक का अर्थ है आठ अर वाले चक्र के ऊपर पत्तलिका कहीं रक्त और मांस दिखता है ? अब आप ही बताएं कि मैंने
की अक्षिचन्द्रिका को बींधना। संलेखना की या नहीं?
४. पंडितमरण के प्रकार गुरु ने कहा-मैंने द्रव्यसंलेखना के विषय में नहीं पूछा
__पंडितमरणे है। यह तो तुम्हारे कृश शरीर को देखकर प्रत्यक्षतः जान रहा हूं। फिर तुमने अंगुलि को भग्न क्यों किया? मैं तो भावसंलेखना
भत्तपरिण्णा इंगिणि, पादोपगमे य णायव्वे ॥ के विषय में जानना चाहता हूं। तुम क्रोध के वशीभूत होकर
(निभा ३८११) आतुर मत बनो।
पंडितमरण के तीन प्रकार हैं-भक्तपरिज्ञा. इंगिनी और , वत्स! तुम अपनी इन्द्रियों को जीतो, कषायों को कृश प्रायोपगमन अनशन। करो और ऋद्धि, रस, सात-इस त्रिविध गौरव से मुक्त बनो। ० अभ्युद्यत मरण मैं तुम्हारे इस कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करता।
...अब्भुज्जयमरणं पुण, पाओवग-इंगिणि-परिन्ना॥ * संलेखना का क्रम, अतिचार आदि द्र श्रीआको १ संलेखना
(बृभा १२८३) २. आहारकांक्षा की छेदनविधि
प्रायोपगमन, इंगिनी और भक्तपरिज्ञा-इस अनशनत्रयी तस्स य चरिमाहारो, इट्ठो दायव्व तण्हछेदट्ठा। को अभ्युद्यत मरण कहा गया है। सव्वस्स चरिमकाले, अतीवतण्हा समुप्पज्जे ॥ (भ २/४९ में पंडितमरण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैंकिं च तन्नोवभुत्तं मे, परिणामासुई सुई। प्रायोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान । पंडितमरण का एक प्रकार दिट्ठसारो
सुहं
झाति ॥ इंगितमरण भी है। यह भक्तप्रत्याख्यान का ही एक प्रकार है। (व्यभा ४३२४, ४३२८) इसलिए इसका पृथक् निर्देश नहीं है। जयाचार्य ने इस प्रसंग
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