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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव निकले रहते हैं जो इसे मखमली बना देते हैं । इन अंकुरों के कोशाओं से एक स्वच्छ
और पिच्छिल तरल निकलता है जिसे सन्धिश्लेष्मा' या श्लेषकर कहते हैं निकल कर सन्धि भाग का अभ्यंजन या उपस्नेहन (lubrication ) करता रहता है। यह सन्धिश्लेष्मकला सम्पूर्ण अस्थि के ऊपर लगी स्नायु आटोपिका ( capsule ) के भीतर आस्तर लगा देती है तथा यदि सन्धि के भीतर कोई पेशी कण्डरा भी आ जाती है तो उस पर भी बाहुप ( sleeve ) बनकर छा जाती है। इस प्रकार इस कला द्वारा सन्धायी भागों को छोड़ शेष सम्पूर्ण भाग सन्धि के अवकाश स्थल में भी पृथक रखे जाते हैं। यह कला सन्धायीकास्थि के किनारों पर आकर समाप्त हो जाती है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि सन्धायीकास्थि पर इस कला का आवरण बिल्कुल नहीं होता। सन्धिश्लेष्मधराकलागुहा ( synovial cavity ) के भीतर ये भाग पड़े हुए सन्धि की स्वाभाविक क्रियाओं को सम्पन्न करते रहते हैं। ___कहीं कहीं सन्धिश्लेष्मधराकला सन्धि के आगे ही निकल कर समीपवर्ती कण्डराओं को भी आच्छादित कर लेती है जिनकी पेशियाँ सन्धि-क्रिया में प्रत्यक्ष भाग लेती हैं। ऐसी अवस्था में सन्धि के साथ जो इनका सम्बन्ध होता है वह बहुत छोटे छिद्र जैसा होता है । जब सन्धि में पाक हो जाता है तो वह भी फूल जाता है और शोथ हो जाता है । यदि सन्धि में अधिक तरल एकत्र हो जाता है तो वह इन स्थानों में भी भर जाता है । छिद्र से सम्बद्ध ये स्थान श्लेष्मधरकलापुटक ( bursae ) कहलाते हैं। जब इन कलापुटकों में तरल भर जाता है और वे फूल जाते हैं और यदि उनको कोई कण्डरा दो भागों में विभक्त कर देती है तो दो फूले हुए भाग देखे जाते हैं जिन्हें इधर उधर हटाया जा सकता है ये मोरेंट बेकर की ग्रन्थियाँ (morant baker's cysts ) कहलाती हैं। __श्लेष्मधराकला को रक्त पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है फिर भी यह उपसर्ग से जितनी पीडित होती हुई देखी जा सकती है वह सर्वविदित है। इस कला के अंकुर कभी कभी अतिचयित होकर बड़े हो जाते हैं और लाइपोमा आर्बोरेसेन्स ( lipoma arborescence ) कहलाते हैं। उनमें विहास, चूर्णीयन अथवा पृथक्करण कुछ भी मिल सकता है । सन्धायीकास्थि को बहुत कम रक्त मिलता है इसे उससे लग्न अस्थि से लसीका (lymph) तथा लस ( serum ) प्राप्त होते हैं जिनके द्वारा उसका पोषण होता है । श्लेष्मधराकला के श्लेष्मा से भी उसका पोषण होता है। जब तक सन्धायीकास्थि पूर्णतया संलग्न रहती है उपसर्ग का प्रतिरोध करती है पर जब सन्धिपाक की अवस्था में पीडन के स्थानों पर यह वियोजित ( disintegrated ) हो जाती है तब कास्थि तथा उससे लगी अस्थि में भी उपसर्ग लग जाता है। कास्थि छोटे छोटे सिध्मों में नष्ट होकर उखड़ जाती है और श्वेत शल्कल (flakes) बनाती है जो तीव्र व्रणशोथ में विशेष करके दिखलाई देते हैं।
१ सन्धिस्थस्तु श्लेष्मा सर्वसन्धिसंश्लेषात् सर्वसन्ध्यनुग्रहं करोति-सुश्रुत २ पर्वस्थोऽस्थि सन्धिश्लेषणात् श्लेषक इति-वृद्धवाग्भट
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