Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 16 Jivajivabhigam Mool evam Vrutti Part 1
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
Catalog link: https://jainqq.org/explore/035016/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम लगनमो नमो निम्मलदसणस्स गम 33 पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नम: (भाग सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि आगम १४ “जीवाजीवाभिगम” मूलं एवं वृत्ति: [1] मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से ' 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता EURSHAHARMARRASSH श्री आगम मंदिर पालिताणा R S HANTINENSHIME Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता EmotiawaatwwPOHIPune म पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275 ~3~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आजम आजम आम आगम GEMEN आजम STTTAT SAIMER wens insiler HIQUE आजम आजम आजम आजमा आजम 3. राज 370TH है। आजम आजम आजम F आजम के आगम BATSTA CIT BRIGHT HIGHE आगम आजम PEDIA आगन आजम आजम आजम आगम आगम वाचना शताब्दी वर्ष भन ~4~ 36317 आजम BOTH 341-171 आगम आवा आजम आम आगम आगम आगम आज आलम आगम आज HINDIS SAINT & SHOE आगम वाणग उनम आराम आजम आलास dhead Sant's saty 39 Shane 6473741 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-१६] श्री जीवाजीवाभिगम (उपांग)सूत्रम्-३ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं वृत्ति: (भाग-१) मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः] [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१६ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | . सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... . -.. -.. -.. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालने हो ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हए तिसरे गच्छाधिपति थे पज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसरीश्वरजी. जो एक | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी । भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना : | कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण : बारबार चालु हो गया- “ अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर..... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और । शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० : | समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णो के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के | : शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। ... मुनि दीपरत्नसागर... -.. -.. -.. -.. -.. -.. . - .. - .. ~7~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे। समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते : है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय | मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है। समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का : वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने | जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय : दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। ... मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यास, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ३४४ मूलाका: २७२+९३ गाथा:] जीवाजीवाभिगम (उपांग) सत्रस्य विषयानक्रम दीप-अनुक्रमा: ३९८ मूलांक: विषय: पृष्ठांक: । । मूलांक: | विषय: पृष्ठांकः । मूलांक: विषय: | पृष्ठांक: ००१ | प्रथमा- विविधा प्रतिपत्ति । ०११ १४० मनुष्याधिकार: २९६ ३२४ वैमानिक देवाधिकार: जीवाभिगमस्य द्विविधे भेदे | मनुष्यस्य वैविध्यं उद्देशक: । एवं २ अजीवाभिगमस्य दविविधेभेदे | एकोरुकद्वीप-वर्णनं, आभासिक सौधर्मादिकल्पस्य विमानानि, पृथिव्यादि जीवानाम् वर्णनं | आदि द्विपस्य स्थानादि वर्णनं | बाहल्यं, संस्थानं, उच्चत्वं, ०५२ | दवितिया- त्रिविधा प्रतिपत्ति | ११३ १५२ | देवाधिकार; ३२६ वर्ण, प्रभा,गन्ध: स्पर्शः,रचना | संसारिजीवानाम त्रैविध्यं-- | देवानाम् चतुर्विधत्वं भवनवासी सौधर्मादि देवानाम संघयणं, | --स्त्री, पुरुषः, नपुंसकम् | देवानाम् भवनं, पर्षदा, देव-देवी संस्थानं, वर्णादिः, पुदगल:, तृतीया- चतुर्विधा प्रतिपत्ति । | संख्या, स्थिति:, व्यंतर-वर्णनं आहार,अवधिज्ञानं, समुदघात | नैरयिका: उदेशक: १ १८६ द्वीप-समुद्रः वेदना, ऋद्धिः, काम-भोग:, | नैरयिकस्य नाम्नं एवं गोत्रं स्थानं. संख्या, संस्थानं, जम्बू गत्यागति:, स्थिति: नरक-वर्णनं, नरकावासे गति द्वीपस्य वर्णनं, विजयदेवस्य | चतुर्थी- पञ्चविधा प्रतिपत्ति | -आगति, नरकस्य अल्पबहत्वं | अधिकार:, सुधर्मा आदि सभा:, संसारिजीवस्य पञ्चविधत्व | नैरयिका: उदेशक: २ + ३ । २१३ + लवणसमुद्र-वर्णनं, जंबूद्वीपस्य ३४६ | पञ्चमी- षड्विधा प्रतिपत्ति | नरकस्य नाम्नं-आकार: , - अन्तर्गत दवीपस्य अधिकार: । | संसारिजीवस्य षविधत्वं |-वेदना, संस्थानं, वर्ण, गन्धं, | धातकीखण्ड-कालोदसमुद्र-पुष्कर | षष्ठी- सप्तविधा प्रतिपत्ति -स्पर्श, पुदगल:, संहननं, | वरद्वीप-मानुषोत्तरपर्वत आदि संसारिजीवस्य सप्तविधत्वं | -आहार, लेण्या, ज्ञानं, अज्ञानं | द्वीप-समुद्रानाम् अधिकार: | सप्तमी अष्टविधा प्रतिपत्ति -योग, उपयोग, इत्यादि. | इन्द्रियविषयाधिकार: संसारिजीवस्य अष्टविधत्वं | तिर्यञ्चयोनिक: उदेशक: १. । २७१ | पञ्च-इन्द्रियस्य विषया: ३६७ अष्टमी नवविधा प्रतिपत्ति तिर्यञ्चयोनिकजीवानाम् भेदा: ३०७ ज्योतिष्क उद्देशक: | संसारिजीवस्य नवविधत्वं | तिर्यञ्चयोनिक: उदेशक: २- | २८७ | देवगति, वैक्रियशक्ति:, चन्द्र | नवमी- दशविधा प्रतिपत्ति -संसारिजीवानाम् षडविधत्वं | सूर्यपरिवारः, ज्योतिष्कदेवस्य | संसारिजीवस्य दशविधत्वं | -पृथ्वीजीवानाम् षडविधत्वं गतिक्षेत्र:, अन्तरं, नक्षत्रवर्णनं ३६९ | सर्वजीव-प्रतिपत्ति जीवानाम् संस्थिति-कालादिः | संस्थानं,अग्रमहिषी,अल्पबहत्व । | (अन्तर) प्रतिपत्ति २ - १० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ["जीवाजीवाभिगम' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “जीवाजीवाभिगम सूत्रम्” के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में देवचंद्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धार द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? . आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर प्रतिपत्ति, उद्देशक, मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौन सी प्रतिपत्ति, उद्देशक, मूलसूत्रादि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक प्रतिपत्ति, उद्देशक, मूलसूत्र आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है । शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१६ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-: प्रतिपत्ति : -], ------------------------- उद्देशक:-,----------------------मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रेष्ठिदेवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोदारे-ग्रन्थाङ्क: ॥ अहम् ॥ श्रीचतुर्दशपूर्वधरश्रुतस्थविरविहितं । श्रीमन्मलयगिर्याचार्यप्रणीतविवृत्तियुतं । श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्रम् (तृतीयमुपाङ्गम्) प्रणमत पदनखतेजःप्रतिहतनिःशेषनम्रजनतिमिरम् । वीर परतीर्थियशोद्विरदघटाध्वंसकेसरिणम् ॥१॥ प्रणिपल गुरून जीवाजीवाभिगमस्य विवृत्तिमहमनपाम् । विदधे गुरूपदेशात्प्रबोधमाधातुमल्पधियाम् ॥२॥ इह रागद्वेषायभिभूतेन सांसारिकेण सत्वेनाविषप्रशारीरमानसिकदुःखोपनिपातपीडितेन तदपनोदाय हेयोपादेयपदार्थपरिहाने | यत्न आस्पेयः, स च विशिष्टविवेकप्रतिपत्तिमन्तरेण न भवति, विशिष्टश्च विवेको न प्राप्ताशेषातिशयकलापाप्तोपदेशमृते, आप्तश्च राग L-11-2014 जी०व०१ वृत्तिकार-रचिता जीवाजीवाभिगमस्य भूमिका ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : ।-1, -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं -1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: शास्त्रभूमिका प्रत श्रीजीवा- द्वेषमोहादिदोषाणामात्यन्तिकप्रक्षयात् , स चात्यन्तिकः प्रक्षयो दोषाणामईत एव, अत: प्रारभ्यतेऽईदचनानुयोगः, तत्राचारादिशास्त्राजीवाभिणामनुयोगः पूर्वसूरिभिर्व्यासादिप्रकारैरनेकधा कृतस्ततो न तदन्वाख्याने समस्ति तथाविधं प्रयाससाफल्यम्, अतो यदस्ति तृतीयाङ्गस्य मलयगि-15 स्थाननाम्नो रागविषपरममत्ररूपं द्वेषानलसलिलपूरोपमं तिमिरादित्यभूतं भवाब्धिपरमसेतुमहाप्रयनगम्यं निःश्रेयसावाप्त्यवन्ध्यरीयावृत्तिः शक्तिकं जीवाजीवाभिगमनामकमुपाङ्गं पूर्वटीकाकृताऽतिगम्भीरमल्पाक्षराख्यातम्, अत एव मन्दमेधसामुपकारायाप्रभविष्णु,तस्य तेषा मनुग्रहाय सविस्तरमन्वाख्यानमातन्यते । तत्र जीवाजीवाभिगमाध्ययनप्रारम्भप्रयासोऽयुक्तः, प्रयोजनादिरहितत्वात् , कण्टकशाखामर्द नादिवत् , इत्याशकाऽपनोदाय प्रयोजनादिकमादाबुपन्यसनीयम् , उक्तं च-"प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादित्रितयं स्फुटम् । मङ्गलं | दाचैव शास्त्रादौ, वाफ्यभिष्टार्थसिद्धये ॥१॥” इति, तत्र प्रयोजनं द्विधा-परमपरं च, पुनरेकै द्विविध-कर्तृगतं श्रोतृगतं च, तत्र द्रव्या स्तिकनयमतपर्यालोचनायामागमस्य नित्यत्वात्कर्तुरभाव एव, तथा चोक्तम्-'नेपा द्वादशाङ्गी कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति । न कदाचिन्न भविष्यति, ध्रुवा नित्या शाश्वती"त्यादि, पर्यायास्तिकनयमतपर्यालोचनायां चानित्यत्वावश्यंभावी तत्सद्भावः, तत्त्वपर्यालोचनायो तु सूत्रार्थोभयरूपत्वादागमस्यार्थापेक्षया नित्यलात् सूत्रापेक्षया चानित्यत्वात्कथञ्चित्कर्तृसिद्धिः, तत्र सूत्रकर्तुः परमपवर्गप्राप्तिः अपरं सत्त्वानुग्रहः, तदर्थप्रतिपादकस्याहतः किं प्रयोजनमिति चेद् , उच्यते, न किञ्चित् , कृतकृत्यत्वाशगवतः, प्रयोजनमन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासो निरर्थक इति चेत्, न, तस्य वीर्थकरनामफर्मविपाकोदयप्रभवत्वात् , उक्तं च-तं च कहं वेइजइ ?, अगिलाए धम्मदेसणाए उ" इति, ओतृणामनन्तरं प्रयोजनं विवक्षिताध्ययनार्थपरिज्ञानं, परं नि:श्रेयसपदं, विवक्षिताध्ययनसम्यगावगमतः १तच कौ वैयते । अग्लान्या धर्मदेशनयैव (नादिभिः) Jatichan वृत्तिकार-रचिता जीवाजीवाभिगमस्य भूमिका ~ 12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : ।-1, -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं -1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - --00 संयमप्रवृत्त्या सकलकर्मक्षयोपपत्तेः, ततः प्रयोजनवान् अधिकृताध्ययनप्रारम्भप्रयासः, अभिधेयं जीवाजीवस्वरूपं, तच्चाधिकृताध्ययसाननानो यथार्थत्वमात्राप्यवगतं १, सम्बन्धन द्विधा-उपायोपेवभावलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणश्न, तत्रायसोनुसारिणः प्रति, सयथा-13 वचनरूपापन्नं प्रकरणमुपायस्वत्परिज्ञानं चोपेयं, गुरुपर्वक्रमलक्षणः केवलश्रद्धानुसारिणः प्रति, स चैवम्-अर्थतो भगवता बर्द्धमानस्वामिना जीवाजीवाभिगम उक्तः, सूत्रतो द्वादशस्वङ्गेषु गणधरैः, ततोऽपि मन्दमेधसामनुग्रहायातिशायिभिश्चतुर्दशपूर्वधरैस्तृतीयस्मादङ्गादाकृष्य पृथगध्ययनत्वेन व्यवस्थापितः, अमुमेव सम्बन्धमनुविचिन्य स्थविरा भगवन्तः प्रज्ञापितवन्त इति प्रतिपादयिष्यति २, इदं | च जीवाजीवाभिगमाख्यमध्ययनं सम्यगज्ञानहेतुलात् अत एव (च) परम्परया मुक्तिपदप्रापकत्वाच्छ्रेयोभूतम् अतो मा भूदत्र विघ्न इति विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्याणां मङ्गलबुद्धिपरिग्रहाय खतो मङ्गलभूतेऽप्यस्मिन् मङ्गलमुपन्यखते, तच्चादिमध्यावसानभेदात्रिधा, तत्रादिमङ्गलम् इह खलु जिणमय' मित्यादि, अत्र जिननामोत्कीर्तन मङ्गलं, मङ्गलं प नामादिभेदाचतुर्धा, सदं नोआग-IN मतो भावमङ्गलम् , एतच्चाधिकृताध्ययनार्थपारगमनकारणं, मध्यमङ्गलं द्वीपसमुद्रखरूपकथनं, निमित्तशाखे हि द्वीपसमुद्रनामग्रणं परममङ्गलमिति निवेदितं, तथा च द्वीपसमुद्रादिनामग्रगाधिकारे तत्रोक्तम्-"जो' जं पसत्वमत्थं पुच्छइ तस्सऽत्थसंपत्ती" इत्यादि, | एतच्चाधिकृताध्ययनार्थस्थिरीकरणहेतुः, अवसानमङ्गलं "दसविहा सम्बजीवा" इत्यादिरूपं, सर्वजीवपरिज्ञानहेतुलेन माङ्गलिकत्वात् , तव शिष्यपशिष्यसन्तानाम्यवच्छेदार्थम् , उक्तंच-"तं मंगलमाईए मज्झे पजतए य सत्थस्स । पढम सुचत्वाविग्धपारगमणाय निदिई १ यो यं प्रशस्तमर्थ पृच्छति तस्यार्थसंप्राप्तिः, २ तम्मङ्गलमादी मध्ये पर्यन्ते च शास्त्रस्य । प्रथमं सूत्रार्थस्यानिभेन पारयमनाय निर्दिष्टम् ॥ १॥ - 900CRC वृत्तिकार-रचिता जीवाजीवाभिगमस्य भूमिका ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम". प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवा-४॥ १॥ तैस्सेब उ थिजस्थं मझिमयं अंतिमंपि तस्सेव । अय्बोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइक्सस्स ॥ २॥" अथ कथं सफलजीवाभिः मेवेदमध्ययनं खतो मालभूतम् ?, उच्यते, निर्जरार्थत्वात्तपोवत् , निर्जरार्थता च सम्यगज्ञानरूपत्वान् , उक्तं च-"ज अण्णाणी कम्म|| मिका मलयगि- खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिर्हि गुत्तो खवेइ ऊसासमेतेणं ॥१॥" मङ्गलशब्दव्युत्पत्तिश्वेयम्-उख णख बस मखेरीयावृत्तिः यादि पण्डकधातुः, मङ्गयतेऽधिगम्यते हितमनेनेति मङ्गलम् , अथवा नङ्ग इति धर्मस्याख्या तं लाति-आदते इति मङ्गलं, तथा चास्मिन्नध्ययने मनसि भावतः परिणगति समुपजायते सुविशुद्धसम्यग्दर्शनादिको भावधर्मः, उक्तं च-"मंगिंजएऽधिगम्मइ जेण हियं|४. ॥२॥ वेण मंगल होइ । अहवा मंगो धम्मो तं लाति तयं समादत्ते ॥१॥” इति, यदिवा मां गालयति-अपनयति भवादिति मङ्गलं, मा भूद गलो-विघ्नो गालो वा-नाशः शास्त्रस्थास्मादिति मङ्गलं, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः ३॥ तदेवं प्रयोजनादित्रितयं मङ्गलं चोपदर्शि-1, तम्, अधुनाऽनुयोगः प्रारभ्यते, अधानुयोग इति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, सूत्रपाठानन्तरमनु-पश्चात् सूत्रस्यार्थेन सह योगी-घटना-17 नुयोगः, सूत्राध्ययनात्पश्चादर्थकथनमिति भावना, यद्वाऽनुकूल:-अविरोधी सूत्रस्यार्थेन सह योगोऽनुयोगः, तत्रेवमादिसूत्रम् ॥ ऐं नमः ॥ इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं जिणाणुलोमं जिणप्पणीतं जिणपरूवियं जिणक्वार्य जिणाणुचिन्नं जिणपण्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थं अणुब्बीइए तं सद्दहमाणातं पत्तियमाणा तं रोएमाणा घेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणाममज्झयणं पण्णवइंसु (सू०१) ॥२ ॥ १ तस्यैव तु सर्या मधममन्समपि तस्यैव । अन्युच्छितिनिमित्तं शिष्यप्रशिष्यादिवंशे ॥ २ ॥२ यदहानी फर्म क्षपयति बहुफाभिवर्षकोटीभिः । तज्ज्ञानी | Kानिमितः क्षपयत्युकासमात्रेण ॥१॥ ३ मन्यतेऽधिगम्यते येन हितं तेन मालं भवति । अथवा मझो धर्मसं पाति तक समादते ॥१॥ CARRA वृत्तिकार-रचिता जीवाजीवाभिगमस्य भूमिका अत्र प्रथमा (द्विविधा) प्रतिपत्ति: आरभ्यते ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 'इह' अस्मिन् प्रवचने खलुशब्दोऽवधारणे इहैव प्रवचने न शेषेषु शाक्यादिप्रवचनेषु, अथवा 'इहेति मनुष्यलोके, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, 'जिनमत' मिति रागादिशत्रून् जयति सा (इति) जिन:, स च यद्यपि छास्थवीतरागोऽपि भवति तथाऽपि तस्य तीर्थप्रवर्त्तकत्वायोगादुत्पन्न केवलज्ञानस्तीर्थकृदभिगृह्यते, सोऽपि च वर्द्धमानस्वामी, तस्य वर्त्तमानतीर्थाधिपतित्वात् तस्य जिनस्य- वर्द्धमानखा| मिनो मतम् - अर्थतस्तेनैव प्रणीतत्वादाचारादि दृष्टिवादपर्यन्तं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं, कथम्भूतं वर्द्धमानस्वामिजिनमतमित्याह -- 'जिनानुमतं' जिनानाम् अतीतानागतवर्त्तमानानामृषभपद्मनाभसी नन्वरस्वामिप्रभृतीनामनुमतम् - आनुकूल्येन संमतं वस्तुतत्त्वमपवर्गमार्ग च प्रति | मनागपि विसंवादाभावादिति जिनानुमत्तम्, एतेन सर्वेषामपि सीर्यकृतां परस्परमविसंवादिवचनता प्रवेदिता, पुनः कथम्भूतमित्याह- 'जिनानुलोमं' जिनानाम्-अवध्यादिजिनानामनुलोमम्-अनुकूलमनुगुणमिति भावः, एतद्वशादवयादिजिनत्वप्राप्तेः तथाहियथोक्तमिदं जिनमतमासेचमानाः साधवोऽवधिमनः पर्याय केवलला भमासादयन्त्येवेति, तथा 'जिनप्रणीतं' जिनेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना प्रणीतं समस्वार्थसङ्मयात्म कमातृकापदत्रयप्रणयनाजिनप्रणीतं, भगवान् हि वर्द्धमानस्वामी केवलज्ञानावातावादी बीजबुद्धिखादिपरमगुणकलितान् गौतमादीन् गणधारिणः प्रत्येतन्मातृकापदत्रयमुक्तवान् "उप्पने इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा" इति एतच पदत्रयमुपजीव्य गौतमादयो द्वादशाङ्गं विरचितवन्तस्ततो भवत्येवज्जिनगतं जिनप्रणीतमिति, एतेनागमस्य सुत्रतः पौरुषेयत्वमावेदितं, | पुरुषव्यापारमन्तरेण वचनानामसंभवात् न खलु पुरुषव्यापारमन्तरेण नमसि ध्वनन्तः शब्दा उपलभ्यन्त इति, तेन यदवादि परैः 'वचनाजिनसंयुद्धिस्तन्नैरर्थक्यमन्यथा । अपौरुषेयमेवेदं धर्माधर्मनिबन्धनम् ॥ १ ॥ इति तदपास्तमवसेयमिति तत्र मा भूत्कस्वाप्येवमाशङ्का-यथेदम विज्ञातार्थमेव तत्त्वतः साक्षात्सर्वज्ञादपि श्रवणे सर्वज्ञविवक्षाया अत्यक्षत्वेन ग्रहणाभावे विवक्षितशब्दार्थ परि For P&Pase Cnly ~ 15~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३ ॥ Ja Ekemon | ज्ञानायोगात् केवलं म्लेच्छस्ये वाऽऽयक्तानुभाषणमात्रमिदमिति, तथा चोक्तमपरैः – “आर्याभिप्रायमज्ञात्वा, म्लेच्छवाग्योग तुल्यता | सर्वज्ञादपि हि श्रोतुस्तदन्यस्यार्थदर्शने ॥ १ ॥ तत आह- 'जिनप्ररूपितं ' जिनेन - भगवता बर्द्धमानस्वामिना यथा श्रोतॄणामधिगमो भवति तथा सम्यक्प्रणयनक्रियाप्रवर्त्तनेन प्ररूपितं किमुक्तं भवति ? - यद्यपि नाम श्रोता न भगवद्विवक्षां साक्षादधिगच्छति तथाऽप्यनादिरयं शाब्दो व्यवहारः साक्षाद्विवक्षाग्रहणमन्तरेणापि भवति यथासङ्केतं शब्दार्थावगमो बालादीनां तथा दर्शनात्, अन्यथा सकलशाब्दव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः, चित्रार्था अपि शब्दा भगवतैव सङ्केतिताः प्रस्तावौचित्यादिना च नियतमर्थ प्रतिपादयन्ति तत- ५ चित्रार्थशब्दश्रवणेऽपि भवति यथाऽवस्थितार्थावगमो, न चान्यथाऽवबुध्यमानांस्तान्न निषेधति, अविप्रतारकत्वात् न चोपेक्षते, तीर्थप्रवर्त्तनाय प्रवृत्तत्वात् ततो गणभृतां साक्षात् परम्परया शेषसूरीणामपि यथाऽवस्थितार्थावगम इति नेदमविज्ञातार्थमिति, अन्ये खाहु:भगवान प्रवचनप्रयासमाधत्ते, केवलं तत्पुण्यप्राग्भारवशादेव श्रोतॄणां प्रतिभास उपजायते यथा - इत्थमित्थं भगवान् तस्त्वमाचष्टे, उक्तं च- " तदाधिपत्यादाभासः, सत्त्वानामुपजायते । स्वयं तु यत्नरहितञ्चिन्तामणिरिव स्थितः ॥ १ ॥” इति, तन्मतविकुट्टनार्थमाह - 'जिनाख्यातं ' जिनेन -भगवता बर्द्धमानस्वामिना प्रकृष्टपुण्यसंभारविपाकोदयतस्तथा व्यापारयोगेन आख्यातं कथितं जिना - ख्यातं, साक्षात्कथनव्यापारोपलम्भेऽपि यदि तदाधिपत्यमात्रात्तथाप्रतिभास: श्रोतॄणामित्यभ्युपगम्यते ततोऽन्यत्रापि तथाकल्पनाप्रसङ्गः तथा च प्रत्यक्षविरोध इति यत्किच्चिदेतद् भगवांश्चाख्यातवान् सम्यग् योग्येभ्यः श्रोतृभ्यो नायोग्येभ्यः, अमूडलक्षत्वात्, सम्यग्योग्यश्च श्रोता ओतृलक्षणोपेतः, श्रोतृलक्षणानि चामूनि—“मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, जात्यादिगुणसंगतः । श्रुतकृच यथाशक्ति, | श्रोता पात्रमिति स्मृतः ॥ १ ॥” ततः फलवदेवेदं जिनाख्यातमित्या वेदयन्नाह - 'जिनानुचीर्ण' जिना इह हिताध्यनिवर्धक योगसिद्धा For P&Pase Cinly ~16~ अध्ययन प्रामाण्यं सू. १ ॥ ३ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम". प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: | गणधारिणः परिगृह्यन्ते, विचित्रार्थत्वात्सूत्राणां, ततोऽयमर्थ:-जिनैः-हितात्यनिवर्तकयोगसिद्धैर्गणधारिभिरनुचीर्ण-सम्यक् तदर्थाचगमासनशक्तिग निवर्त्तकसमभावप्राप्त्या धर्ममेघनामकसमाधिरूपेण परिणमितं जिनानुचीर्णम् , अत एव तथारूपसमाधिभावत: समु सितातिशयविशेषभावेन तेषां तथा सूत्रकरणशक्तिरिति दर्शयन्नाह-'जिनमज्ञप्तं' जिन:-हिसात्यनियर्तकयोगिभिः प्रज्ञान-तवन्यसत्त्वानुग्रहाय सूत्रत आचाराद्यङ्गोपाङ्गादिभेदेन रचितं जिनप्रज्ञप्तम् , उक्तं च-"अत्थं भासइ अरिहा सुत्वं गंथति गणहरा निउणं । सासणस हियद्वाए तओ सुत्तं पवत्तई ॥ १ ॥” इति, इदं च हितप्रवृत्तादिरूपेभ्यो जिनेभ्यो देशनीवं, तेषामेव सम्यग्विचेययोगसाभावतो हिताविघातकरणात् , इत्येतदुपदर्शयन्नाह -'जिनदेशितं जिना इह हितप्रवृत्तगोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायत्रिमुखादयः परि गृह्यन्ते, तथा मूलटीकाकृता व्याख्यानात् , जिनेभ्यो-हितप्रवृत्तादिरूपेभ्य: शुश्रूषादिभिव्यक्तभावेभ्यो देशितं-कथितं गणधरैरपि | जिनदेशितं, तथा च जम्बूस्वामिप्रभृतय एवंविधा एवेति निरूपणीयमेतत् , अथ प्रकृतिसुन्दरमिदमिति कस्यादजिनेभ्योऽपि नोपदिश्यते ?, उच्यते, तेषां स्वतोऽसुन्दरत्वेनानर्थोपनिपातसम्भवात् , दृष्टं च पात्रासुन्दरतया स्वतः सुन्दरमपि रविकरायुलूकादीनामन य, आह च-उंजियव्वं धीरेण हियं जं जस्स सव्वहा । आहारोवि हु मच्छस्स न पसत्थो गलो भुवि ॥ १॥" अस्वार्थस्य संदर्शनायाह-'जिनप्रशस्त जिनाना-गोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखहितप्रवृत्चादिभेदानां प्रशस्त-निरुजपध्यान्नवत् उचितसेव|नया हितं जिनप्रशस्तम् , एवंभूतं जिनमतम् 'अनुविचिन्त्य' औत्पत्तिक्यादिभेदभिन्नया बुझ्या पर्यालोच्य 'तत्' जिनमतं 'श्रद्दधानाः अर्थ भाषतेऽईन् सूत्र अनन्ति गणधरा निपुणम् । शासनस्य हितार्थ ततः सूत्र प्रवर्तते ॥ १ ॥२ प्रयोक्तव्यं धीरेय हित मद्यस्य सर्वथा । आहारोऽपि च | मत्स्यस्य न प्रशस्तो गरो भुवि ॥5॥ ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम". प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवा-18 यद्यपि नाम कालवैगुण्यतो मेधादिगुणहीनाः प्राणिनस्तथाऽप्यतः स्वल्पमप्यधिगतं भवच्छेदायेत्याईचित्ततया मन्यमानाः, तथा 'तत् अभिगमजीवाभि- जिनमतमेव 'प्रीयमाणाः" असङ्गशक्तिपीत्या पश्यन्तः, तथा 'तत्' जिनमतमेव रोचयन्तः' सामीभावेनानुभवन्तः, क एते इत्याह-स्थ-II भेदो मलयगि- विरा भगवन्तः' तत्र धर्मपरिणत्या निवृत्तासमक्षसक्रियामतयः स्थविरा इव स्थविराः, परिणतसाधुभावा आचार्या इति गर्भः, 'भग- स.२ रीयावृत्तिवन्तः' भुतैश्चर्यादियोगाद् भगवन्तः कषायादीनिति भगवन्तः पृषोदरादित्वानकारलोपः, 'जीवाजीवाभिगमं नाम' नाना जीवाजीवा-18 भिगम, नामन् शब्दस्यानाध्ययलात्ततः परस्य तृतीवैकवचनस्य लोपः, जीवानाम्-एकेन्द्रियादीनाम् अजीवाना-धर्मास्तिकायादीनाम भिगमः-परिच्छेदो यस्मिन् तत् जीवाजीवाभिगमम् , इदं चान्वर्थप्रधानं नाम यथा ज्वलतीति ज्वलन इत्यादि, किं तदित्याह-अधी४ यत इति 'अध्ययन विशिष्टार्थध्वनिसंदर्भरूपं 'प्रज्ञापितवन्तः' प्ररूपितवन्तः, एतेन गुरुपर्वक्रमलक्षणः सम्बन्धः साक्षादुपदर्शितः, एतदुपदर्शनादभिधेयादिकमपि सिद्धं यथोक्तमनन्तरमिति फतं प्रसङ्गेन ॥ से कितं जीवाजीवाभिगमे ?, जीवाजीवाभिगमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-जीवाभिगमे य अजी वाभिगमे य॥ (सू०२) &l अथास्व सूत्रस किमैदम्पर्यम् ?, उच्यते, प्रश्नसूत्रमिदम्, एतशादावुपन्यस्यन्निदं ज्ञापयति-पृच्छतो मध्यस्थस्य बुद्धिमतो भगवदह दुपदिष्टतत्त्वस्य तत्त्वप्ररूपणा कार्या नान्यस्येति, अक्षरगमनिका वेवम्-सेशब्दो मगधदेशप्रसिद्धो निपातोऽथशब्दायें, अथशब्दश्च | प्रक्रियाद्यर्थाभिधायी, उक्तं च-अथ प्रक्रियाप्रमानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेवि"ति, इह तूपन्यासे, किंशब्दः परप्रश्रे, स| ॥ ४॥ चाभिधेययथावत्स्वरूपानि ते नपुंसकलिङ्गतया निर्दिश्यते, तथा चोक्तम्-"अव्यक्ते गुणसन्दोहे नपुंसकलिङ्गं प्रयुज्यते" ततः पुन - - ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम". प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक हरर्थापेक्षया यथाभिधेवमभिसंबध्यते इति, अथ 'किं तज्जीवाजीवाभिगम' इति, अथवा प्राकृतशैल्या 'अभिधेयवल्लिङ्गवचनानि भव न्तीति न्यायात् किं तदिति-कोऽसावित्यसिन्नर्थे द्रष्टव्यं, ततोऽयमर्थ:-कोऽसौ जीवाजीवाभिगम: ? इति, एवं सामान्येन केनचित्यो । कृते सति भगवान गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनादराधानार्थ किञ्चितात्युच्चार्याह-'जीवाजीवाभिगमः अनन्तरोदितशब्दार्थः द्विविधः'। हिप्रकारः प्रज्ञप्तस्तीर्थकरगणधरैः, अनेन चागृहीतशिष्याभिधानेन निर्वचनसूत्रेणैतदाह-न सर्वमेव सूत्र गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं किन्तु किञ्चिदन्यथापि, केवलं सूत्र बाहुल्येन गणधरैईब्ध स्तोकं शेषैः, यत उक्तम्-'अत्थं भासइ अरिहा" इत्यादि, 'तद्यथेति | वक्ष्यमाणभेदकथनोपन्यासार्थः, स जीवाजीचाभिगमो यथा द्विविधो भवति तथोपन्यस्थत इति भावः, जीवाभिगमश्चाजीवाभिगमश्च, चशब्दौ वस्तुतत्त्वमङ्गीकृत्य द्वयोरपि तुल्यकक्षतोद्भावनायौं, आह-जीवाजीवाभिगमः प्रभसूत्रे संवलित उपन्यस्ततं तथैवोचार्यासंवलितनिर्वचनाभिधानमयुक्तं, असंवलिते संवलितविधानायोगात् , नैष दोषः, प्रश्नसूत्रेऽप्यसंवलितस्यैवोपन्यासात् , भिन्नजातीययोरेकलायोगात् ।। तत्र यद्यपि यथोदेशस्तथा निर्देश' इति न्यायोऽस्ति, तथाऽप्यल्पतरवक्तव्यत्वात् प्रथमतोऽजीवाभिगममभिधित्सुस्तत्प्रश्नसूत्रमाह से किं तं अजीवाभिगमे?, अजीवाभिगमे दुविहे पन्नते, तंजहा-कविअजीवाभिगमे य अरूविअजीवाभिगमे य ॥ (सू०३) से किं तं अरूविअजीवाभिगमे ?, अरूविअजीवाभिगमे दसविहे प०, तंजहा-धम्मस्थिकाए एवं जहा पण्णवणाए जाव सेत्तं अरुबिअजीवाभिगमे (सू०४)। से किं तं रूविअजीवाभिगमे ?, रूविअजीवाभिगमे चउब्बिहे पण्णत्ते, तंजहा-खंधा खंधदेसा अनुक्रम अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [३-५] दीप अनुक्रम [३-५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [ १ ], - उद्देशक: [ - ], - मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ५ ॥ धप्पएसा परमाणुपोग्गला, ते समासतो पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-वण्णपरिणया गंध रस० फास० संठाणपरिणया, एवं ते ५ जहा पण्णवणाए, सेत्तं रूविअजीवाभिगमे, सेत्तं अजीवाभिगमे (सू० ५ ) अथ कोऽसौ अजीवाभिगमः ?, सूरिराह-अजीवाभिगमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रूप्यजीवाभिगमोऽरूप्यजीवाभिगमञ्च, रूपमेपामस्तीति रूपिणः, रूपग्रहणं गन्धादीनामुपलक्षणं, तद्व्यतिरेकेण तस्यासम्भवात् तथाहि - प्रतिपरमाणु रूपरसगन्धस्पर्शाः उक्तं च - "कारणमेव तदन्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्ग ॥ १ ॥ " एतेन यदुच्यते कैश्चित् "भिन्ना एव रूपपरमाणबो भिन्नाश्च पृथक् पृथग् रसादिपरमाणव' इति, तद्पास्तमवसेयं, प्रत्यक्षवाधितत्वात् तथाहि -य एवं नैरन्तर्येण कुचकलशोपरिनिविष्टा रूपपरमाणव उपलब्धिगोचरास्तेष्वेवाव्यवच्छेदेन सकलेष्वपि स्पर्शोऽप्युपलभ्यते, य एव च घृतादिरसपरगाणयः कर्पूरादिगन्धपरमाणयो वा तेष्वेव नैरन्वर्मेण रूपं स्पर्शश्चोपलब्धिविषयः, अन्यथा सान्तरा रूपादयः प्रतीतिपधमित्रियुः, न च सान्तराः प्रतीयन्ते तस्मादव्यतिरेकः परस्परं रूपादीनामिति, रूपिणश्च तेऽजीवाश्च रूप्यजीवास्तेषामभिगमो रूप्यजीवाभिगमः पुगलरूपाजीवाभिगम इतियावत् पुद्गलानामेव रूपादिमत्त्वात्, रूपव्यतिरिक्ता अरूपिणो-धर्मास्तिकायादयस्ते च तेऽजीवाश्वारूप्यजीवास्तेषामभिगमोऽरूप्य जीवाभिगमः ॥ ३ ॥ तत्रारूपिणः प्रत्यक्षाद्यविषयाः केवलमागमप्रमाणगम्यास्तत्त्वत इति प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहसुगमं, सूरिराह - 'अरुवी 'त्यादि । अरूप्यजीवाभिगमः 'दशविधः' दशप्रकार: प्रज्ञप्तः, तदेव दशविधत्वमाह-तंजहेत्यादि, 'तद्यथे 'ति वक्ष्यमाणभेदकथनोपन्यासार्थः, धर्मास्तिकायः, 'एवं जहा पण्णवणाए' इति 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञापनायां तथा अजीवाभिगमस्य प्ररूपणा For Pa & Personalise Cle ~20~ अजीवा भिगमः सु. ३-४-५ ॥ ५ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" -: प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३-५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: CA4 प्रत सूत्रांक [३-५] %AC% C दीप वक्तव्यं तावद् यावत् 'सेत्तं असंसारसमापन्नजीवाभिगमे' इति, तश्चैवम्-'धम्मस्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे धम्मस्थिकायस्स पएसा अधम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकायस्स देसे अधम्मत्विकायस्स पएसा आगासस्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे आगासस्थिकायस्स | पएसा अद्धासमये" इति, तत्र जीवानां पुद्गलानां च स्वभावत एव गतिपरिणामपरिणतानां तत्स्वभावधारणापोषणाद्धर्मः अस्तय:-प्रदेशा| स्तेषां काय:-सङ्घात: "गण काए य निकाए खंधे बग्गे तहेव रासी य" इति वचनात् अस्तिकाय:-प्रदेशसक्षात इत्यर्थः, धर्मश्चा-1 सावस्तिकायश्च धर्मास्तिकाय:, अनेन सकलधर्मास्तिकायरूपमवयविद्रव्यमाह, अवययी च नाम अवयवानां तथारूप: ससातपरिणामविशेष एव, न पुनरवयवद्रव्येभ्यः पृथगर्थान्तरद्रव्यं, तस्यानुपलम्भात् , तन्तव एव हि आतानवितानरूपसङ्घातपरिणामविशेषमापन्ना | लोके पटव्यपदेशभाज उपलभ्यन्ते, न तदतिरिक्तं पटाख्यं नाम द्रव्यम् , उक्तं चान्यैरपि-"तन्त्यादिव्यतिरेकेण, न पटायुपलम्भनम् । तन्वादयोऽविशिष्टा हि, पटादिव्यपदेशिनः ॥ १॥" कृतं प्रसङ्गेन, अन्यत्र धर्मसङ्ग्रहणिटीकादावेतद्वादस्य चर्षितत्वात् , तथा तस्यैव बुद्धिपरिकल्पितो व्यादिप्रदेशासको विभागो धर्मास्तिकायस्य देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशा:-प्रकृष्टा देशाः प्रदेशाः, प्रदेशा | निर्विभागा भागा इति, ते चासयेयाः, लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्तेषाम् , अत एव बहुवचनं, धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतोऽधर्मास्तिकाय:, किमुक्तं भवति ?-जीवानां पुद्गलानां च स्थितिपरिणामपरिणतानां तत्परिणामोपटुम्भकोऽमूत्तोंऽसङ्ख्यातप्रदेशामकोऽधर्मास्तिकाय:, अधमास्तिकायस्य देश इत्यादि पूर्ववत्, तथा आ-समन्तात्सर्वाण्यपि द्रव्याणि काशन्ते-दीप्यन्तेऽत्र व्यवस्थितानीत्याकाशम्, अस्तयःप्रदेशास्तेषां कायोऽस्तिकायः, आकाशं च तदस्तिकायश्चाकाशास्तिकायः, आकाशास्तिकायस्य देश इत्यादि प्राग्वत् , नवरमस्य प्रदेशा | अनन्ताः, अलोकसानन्तत्वात, 'अदासमय' इति, अद्धति कालस्याख्या, अद्धा चासौ समयश्चाद्धासमयः, अथवाऽद्धायाः समयो E अनुक्रम [३-५]] %E3%%% अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-3 प्रतिपत्ति : [१].-------------------------उद्देशक: -1,---------------------- मूलं [३-५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-५] अजीवाभिगमः सू. ३-४५ मलयनि 2 श्रीजीवा- निर्विभागो भागोऽवासमयः, अयं चैक एव वर्तमानः परमार्थतः सन् नातीतानागताः, तेषां यथाक्रमं विनष्टानुत्पन्नत्वात् , ततः काय- जीवाभि वाभावाद्देशप्रदेशकल्पनाविरहः, अथाकाशकाली लोकेऽपि प्रतीताविति तो अद्धातुं शक्येते, धर्माधर्मास्तिकायौ तु कथं प्रत्येतव्यौ ? | येन तद्विषया श्रद्धा भवेत् , उच्यते, गतिस्थितिकार्यदर्शनात्, तथाहि-यद् यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्तवेतुकमिति व्यवहर्त्तव्यं, रीयावृत्तिः यथा चक्षुरिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि चाक्षुषं विज्ञानं, तथा च जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थितिपरिणामपरिणतानामपि गतिस्थिती यथाक्रमं धर्माधर्मास्तिकायान्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यौ, तस्मात्ते तद्धेतुके, न चायमसिद्धो हेतुः, तथाहि-जीवानां पुगलानां च गतिस्थितिपरिणामपरिणतानामपि गतिस्थिती न तत्परिणमनमानहेतुके, तन्मात्रहेतुकतायामलोकेऽपि तत्प्रसक्तेः, अथ न तत्परिणमनमात्रं हेतुः किन्तु विशिष्टः परिणामः, स चेत्थंभूतो यथा लोकमात्रक्षेत्रस्यान्तरेऽत्र गतिस्थितिभ्यां भवितव्यं न बहिः प्रदेशमात्रमध्यधिक, ननु स एवेत्थम्भूतो विशिष्टपरिणाम आकालं जीवानां पुद्गलानां चोत्कर्षतोऽप्येत्तावत्प्रमाण एवाभूद् भवति भविष्यति वा न तु कदा18 चनाप्यधिकतर इत्यत्र किं नियामक ?, यथा हि किल परमाणोर्जघन्यत: परमाणुमात्रक्षेत्रातिक्रममादिं कृत्वोत्कर्षतचतुर्दशरज्वामकमपि क्षेत्रं यावद् गतिरुपजायते तथा परतोऽपि प्रदेशमात्रमप्यधिका किं न भवति ?, तस्मादवश्यमत्र किश्चिन्नियामकमपरं वक्तव्यं, तच धर्माधर्मास्तिकायावेव नाकाशमात्रम् , आकाशमात्रस्थालोकेऽपि सम्भवात् , नापि लोकपरिमितमाकाशम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् , तथाहि-जीवानां पुद्गलानां चान्यत्र गतिथियोरभावे सिद्धे सति विवक्षितस्य परिमितस्याकाशस्य लोकलसिद्धिः, तत्सिद्धौ चान्यत्र जीवपुद्गलानां गतिस्थित्यभावसिद्धिरित्येकाभावेऽन्यतरस्याप्यभावः, अथ किमिदमसंबद्धमुच्यते?, यत् लोकलेन सम्प्रति व्यवड़ियते क्षेत्रं, तावन्मात्रस्यैवाकाशखण्डस्य गतिस्थित्युपष्टम्भकस्वभावो न परस्य प्रदेशमात्रस्यापि ततो न कश्चिद्दोषः, ननु तावन्मात्रस्यैवाकाशस्य दीप अनुक्रम [३-५]] % ACCOREGACCORRESCORT २५%- VI ॥६ अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" -: प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३-५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-५] दीप दास स्वभावो न परस्य प्रदेशमात्रस्यापीत्यत्रापि सुधियः कारणान्तरं मृगयन्ते, आकाशवमात्रखोभयत्रापि तुल्यत्वात् , विशेषणमन्तरेण पाच वैशिष्टायोगान् , कारणान्तरं धर्माधर्मास्तिकायभावाभावावेष नापरमिति स्थितम् , अन्यच्च-तावन्मात्रस्याकाशखण्डस्य स स्वभावो न परस्पेत्यपि कुत: प्रमाणात्परिकल्प्यते !, आगमप्रमाणादिति चेत् तथाहि-तावत्येवाकाशखण्डे जीवानां च पुद्गलानां च गतिस्थितिमतां गतिस्थिती तत्र तत्र व्यावयेते न परत इति, यद्येवं तांगमप्रामाण्यवलादेव धर्माधर्मास्तिकायावपि गतिथितिनिवन्धनमिष्येयातां ॐ किमाकाशखण्डस्य निर्मूलस्वभावान्तरपरिकल्पनाऽऽयासेनेति कृतं प्रसङ्गेन । अथामीषाभित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनम् ?, उच्यते, इह धर्मास्तिकाय इति पदं गङ्गलभूतम् , आदौ धर्मशब्दान्वितत्वात् , पदार्थप्ररूपणा च सम्प्रत्युक्षिप्ता वर्चते, ततो मङ्गलार्थमादौ धर्मास्तिकायस्योपादानं, धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतश्चाधर्मासिकाय इति तदनन्तरमधर्मास्तिकायस्थ, द्वयोरपि चानयोराधारभूतमाकाशमिति तदनन्तरमाकाशास्तिकायस्थ, यतः पुनरजीवसाधादवासमयस्य, अथवा इह धर्माधर्मासिकायौ विभू न भवतः, तद्विभुलेन तत्सामध्यंतो | जीवपुद्गलानामस्खलितप्रचारप्रवृत्तेर्लोकव्यवस्थाऽनुपपत्तेः, अस्ति च लोकालोकव्यवस्था, तत एतावविभू सन्तौ यत्र क्षेत्रे समवगादौ तावत्प्रमाणो लोकः, शेषस्त्वलोक इति सिद्धम् , उक्तं च-"धर्माधर्मविभुखात्सर्वत्र च जीवपुद्गलविचारान् । नालोकः कश्चित्स्यान्न च संमतमेतदार्याणाम् ॥ १॥ तस्माद्धर्माधर्माववगाढी व्याप्य लोकखं सर्वम् । एवं हि परिच्छिन्नः सियति लोकस्तदविभुत्वात् ।। २।। हातात एवं लोकालोकव्यवस्थाहेतू धर्माधर्मास्तिकायावित्यनयोरादावुपादानं, तत्रापि माङ्गलिकत्वात् प्रथमतो धर्मास्तिकायस्य, तत्प्रतिप खात् ततोऽधर्मास्तिकायस्य, ततो लोकालोकन्यापित्वादाकाशास्तिकायस्थ, तदनन्तरं लोके समयासमयक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वादद्धासमजी०५०२ यस्य, एवमागमानुसारेणान्यदपि युक्त्यनुपाति वक्तव्यमित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, अत्रोपसंहारवाक्यं-सेत्तं अरूविअजीवाभि अनुक्रम [३-५]] Joice अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-3 प्रतिपत्ति : [१].-------------------------उद्देशक:-,---------------------- मूलं [३-५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-५] श्रीजीवा- Kगमे । अत कई मिदं सूत्रम्-से किं तं रूविअजीवाभिगमे, रूविअजीवाभिगमे चउबिहे पण्णत्ते, तं०-खंधा खंधदेसा खंधपएसा जीवाजीजीवाभि० परमाणुपुरगला' इह स्कन्धा इत्यत्र बहुवचनं पुद्गलस्कन्धानामनन्तलख्यापनार्थ, तथा चोक्तम्-“दबतो पुग्गलत्थिकाए गं वाभि. मलयगि- अनन्ते" इत्यादि, स्कन्धदेशाः' स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणाममजहां बुद्धिपरिकल्पिता ह्यादिप्रदेशात्मका विभागाः, अत्रापि बहु- II जीवाभिरीयावृत्तिः वचनमनन्तप्रदेशिकेषु स्कन्धेषु स्कन्धदेशानन्तत्वसंभावनाथै, 'स्कन्धप्रदेशाः' स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणाममजहतां प्रकृष्टा देशा:-नि-18 गमः विभागा भागाः परमाणव इत्यर्थः, 'परमाणुपुद्गलाः स्कन्धलपरिणामरहिता: केवला: परमाणवः ।। अत ऊर्द्ध सूत्रमिदम्-ते समा सतो पंचविधा पन्नत्ता, तंजहा-धण्णपरिणया गंधपरिणता रसपरिणता फासपरिणता संठाणपरिणता, तत्थ णं जे वण्णपरिणया ते दिपंचबिहा पन्नत्ता, तंजहा-कालवण्णपरिणता नीलवण्णपरिणता इत्यादि तावद् यावत् 'सेत्तं रूविअजीवाभिगमे, सेत्तं अजीवाभिगमे ।। से किं तं जीवाभिगमे ?, जीवाभिगमे दुविहे पण्णते, तंजहा-संसारसमावण्णगजीवाभिगमे य असंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य (सू०६) से किं तं असंसारसमावण्णगजीवाभिगमे १, २ दुविहे पण्णत्ते, जहा-अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य परंपरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य । से किं तं अणंतरसिद्धासंसारसमावणगजीवाभिगमे १, २ पपणरसविहे पण्णत्ते, तंजहा-लिस्थसिद्धा जाव अणेगसिद्धा, सेत्तं अणंतरसिम्हा । से किं तं परंपरसिद्धा M ॥ ७॥ संसारसमावण्णगजीवाभिगमे, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-पढमसमयसिद्धा दुसमय CATEGARMA दीप अनुक्रम [३-५]] अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६-७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: M प्रत सूत्रांक [६-७] SEARC -50-4 सिद्धा जाव अर्णतसमयसिद्धा, से तं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे, सेतं असं सारसमावण्णगजीवाभिगमे (सू०७) हा संसरणं संसारो-नारकतिर्यानरामरभवभ्रमणलक्षणस्तं सम्यग-एकीमावेनापन्ना:-प्राप्ताः संसारसमापना:-संसारवर्तिनस्ते च ते जीवाश्च तेषामभिगमः संसारसमापन्नजीवाभिगमः, तथा न संसारोऽसंसार:-संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्ष इत्यर्थः तं समापन्ना असंसारसमापन्नास्ते च ते जीवाश्च तेषामभिगमोऽसंसारसमापन्नजीवाभिगमः, चशब्दो उभयेषामपि जीवानां जीवलं प्रति तुल्यकक्षतासूचको, तेन ये विध्यातप्रदीपकल्पं निर्वाणमभ्युपगतवन्त: ये च नवानामालगुणानामत्यन्तोच्छेदेन ते निरस्ता द्रष्टव्याः, तथाभूतमोक्षाभ्युपगमे तदर्थ प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, न खलु सचेतनः स्खवधाय कण्ठे कुठारिका व्यापारवति, दुःखितोऽपि हि जीवन कदाचिद् भद्रमायात् मृतेन तु निर्मूलमपि हस्तिताः सम्पद इति, इह केवलान् अजीवान् जीवांश्चानुश्चार्याभिगमशब्दसंबलितप्रोऽभिगमव्यतिरेकेण प्रतिपत्तेरसम्भवतस्तेषामभिगमगम्यताधर्मख्यापनार्थः तेन 'सदेवेदमित्यादि सद्वैताद्यपोह उक्तो बेदितव्यः, सदद्वैताद्यभ्युपगमेऽभिगमगम्यसारूपधर्मायोगतः प्रतिपत्तेरेवासम्भवात् । तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतोऽसंसारसमापन्नजीवाभिगमसूत्रम्-से किं तं असंसारसमावनजीवाभिगमे, २ दुविहे पं०, ०-अनंतरसिद्धअसंसारसमावनजीवाभिगमे परंपरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवाभिगमे य' इत्यादि तावद्वाच्यं यावदुपसंहारवाक्यं सत्तं असंसारसमापन्नजीवाभिगमें अस्य व्याख्यानं प्रज्ञापनाटीकातो वेदितव्यं, तत्र सविस्तरमुक्तखात् ।। सम्प्रति संसारसमापन्नजीवाभिगममभिषित्सुतत्पसूत्रमाह से किं तं संसारसमावन्नजीवाभिगमे?, संसारसमावण्णएसु णं जीवेसु इमाओ णव पडिवत्तीओ दीप अनुक्रम [६-७] ORUSSAGACCORMANCASA56-5 -% JaEcy जीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः एवमाहिति, तं०-एगे एबमाहंसु-दुविहा संसारसमावषणगा जीवा पं०, एगे एवमाहंसु-तिविहा जीवाजीसंसारसमावण्णगा जीवा पं०, एगे एवमाहंसु-चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०, एगे वाभि० एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०, एतेणं अभिलावेणं जाव दसविहा संसार- प्रतिपत्तिः समावण्णगा जीवा पण्णत्ता (सू०८) सूरिराह-संसारसमापनेषु णमिति वाक्यालङ्कारे जीवेषु 'इमाः' वक्ष्यमाणलक्षणा 'नव प्रतिपत्तयो' द्विपत्यवतारमादौ कला | दशप्रत्यवतारं यावद् ये नव प्रत्यवतारास्तद्रूपाणि प्रतिपादनानि संवित्तय इतियावत् 'एवं' वक्ष्यमाणया रीत्याऽऽख्यायन्ते पूर्वसूरिभिः इह प्रतिपत्त्याख्यानेन प्रणालिकयाऽर्थाख्यानं द्रष्टव्यं, प्रतिपत्तिभावेऽपि शब्दादर्थे प्रवृत्तिकरणात् , तेन यदुरूयते शब्दाद्वैतवादिभिः'शब्दमात्रं विश्व'मिति, तदपास्तं द्रष्टव्यं, तदपासने चेयमुपपत्ति:-एकान्तैकस्वरूपे वस्तुन्यभिधानद्वयासम्भवात् भिन्नप्रवृत्तिनिमित्ताभावात् , ततश्च शब्दमानमित्येव स्वात् न विश्वमिति, प्रणालिकयाऽर्थाभिधानमेवोपदर्शयति, तद्यथा-एके आचार्या एवमाख्यातवन्त:द्विविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रशताः, एके आचार्या एबमाण्यातवन्त:-त्रिविधाः संसारसमापन्ना जीवाः, एवं यावदशविधा इति, इह एके इति न पृथग्मतावलम्बिनो दर्शनान्तरीया इव केचिदन्ये आचार्याः, किन्तु य एवं पूर्व द्विप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमाना एवमुक्तवन्तः यथा द्विविधाः संसारसमापन्ना जीवा इति त एव त्रिप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमानाः, द्विपत्यवतारविवक्षामपेक्ष्य त्रिप्रत्यवतारविवक्षाया अन्यत्वात् , विवक्षावतां तु कथञ्चिद् भेदादन्य इति वेदितव्याः, अत एवं प्रतिपत्तय इति परमार्थतोऽनुयोगद्वाराणीति || SIM ॥८॥ प्रतिपत्तव्यम्, इह य एव द्विविधास्त एव त्रिविधास्त एव चतुर्विधा याबद्दशविधा इति तेषामनेकस्वभावतायां तत्तद्धर्मभेदेन तथा 24.1092k 27 ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम". प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - - - तथाऽभिधानता युज्यते, नान्यथा, एकान्तकस्वभावतायां तेषां वैचित्र्यायोगतस्तथा तथाऽभिधानप्रवृत्तेरसम्भवात् , एवं सति "अष्टविकल्पं दैवं तिर्यग्योनं च पञ्चधा भवति । मानुष्यं चैकविधं समासतो भौतिकः सर्गः ॥१॥" इति वाड्यानमेव, अधिष्ठातृजीवानामेकरूपत्वाभ्युपगमेन तथारूपवैचित्र्यासम्भवादिति, एवमन्येऽपि प्रवादास्तथा तथा वस्तुवैचित्र्यप्रतिपादनपरा निरस्ता द्रष्टव्याः, सर्वथैकस्वभावत्वाभ्युपगतौ वैचित्र्यायोगात् ।। सम्प्रत्येता एवं प्रतिपत्तीः क्रमेण व्याचिख्यासुः प्रथमत आद्यां प्रतिपत्ति विभावयिषुरिदमाह तत्थ(ण) जे एवमाहंसु 'दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पं० ते एवमाहंसु-तं०-तसा चेव थावरा चेव ।। (सू०९) I 'तत्र' तेषु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये ये द्विश्त्यवतारविवक्षायां वर्तमाना एवं व्याख्यातवन्त:-द्विविधाः संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञप्ता इति ते 'णम्' इति वाक्यालकारे 'एवं' वक्ष्यमाणरीत्या द्विविधत्वभावनार्थमाख्यातवन्तः, 'तद्यथे त्युपन्यस्तद्वैविध्योपदर्शनार्थः, त्रसाश्चैव स्थावराश्चैव, तत्र त्रसन्ति-उष्णायभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ति गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति प्रसाः, अनया च व्युत्पत्त्या प्रसासनामकर्मोदयवर्तिन एवं परिगृह्यन्ते, न शेषाः, अथ शेषैरपीह प्रयोजनं, तेषामप्यमे वक्ष्यमाणत्वात् , तत एवं व्युत्पत्ति:-वसन्ति-अभिसन्धिपूर्वकमनभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्द्धमधस्तिर्यक् चलन्तीति त्रसा:-तेजोवायबो द्वीन्द्रियादयश्च, उष्णासद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः सन्तस्तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावरा:-पृथिव्यादयः, चशब्दो स्वगतानेकभेदसमुण्यार्थों, एवकारानववधारणार्थी, अत एव संसारसमापनका जीवाः, एतव्यतिरेकेण संसारिणामभावात् ॥ तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतः स्थावरानभिधित्सु स्तत्प्रभसूत्रमाह - - अनुक्रम - [८] - - - | जीवानाम् द्विविध-भेदा: ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: जीवाजी वाभि० प्रतिपत्तिः प्रत सूत्रांक GOS [१०] श्रीजीवा से किं तं थावरा?, २ तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया १ आउक्काइया २ वणस्सइकाइया जीवाभि० ३ ॥ (सू०१०) मलयगि अथ के ते वावराः, सूरिराह-स्थावरात्रिविधाः प्रज्ञाप्ताः, तद्यथा-पृथिवीकाया एव पृथिवीकाविकाः, आपलात्स्वार्थे इकप्रत्ययः, रीयावृत्तिः आपो-वास्ताश्च प्रतीता: ता एव काय:-शरीरं येषां ते अप्कायाः अपकाया एवाप्कायिकाः, वनस्पति:-लतादिरूपः प्रतीतः स एव | ॥९॥ BI काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः, सर्वत्र बहुवचनं बहुखण्यापनार्थ, तेन 'पृथिवी देवते' त्यादिना यत्तदेकजीवलमात्रप्रतिपादनं तदपातम्यसेयं, यदि पुनस्तदुधिष्ठात्री काचनापि देवता परिकरुप्यते तदानीमेकलेऽप्यविरोधः। भइह सर्वभूताधारः पृथिवीति प्रथम पृथिवीकायिकानामुपादानं, तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितवादप्कायिकाना, तदनन्तरं "जत्थ जलं तत्थ | 8 वर्ण" इति सैद्धान्तिकवस्तुप्रतिपादनार्थ बनस्पतिकायिकानामिति, इह त्रिविधत्वं स्थावराणां तेजोवायूनां लदच्या स्थावराणामपि सतां 3 गतित्रसेष्वन्तर्भावविवक्षणात्, तथा च तत्त्वार्थसूत्रमप्येवं व्यवस्थितं "पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरा: ॥ तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च | सा:" (तत्त्वा० अ० २ सू० १३-१४ ) इति, तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमतः पृथिवीकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किंतं पुढविकाइया?,२दुविहा पं०,०-सुहमपुढविक्काइया य वायरपुढविकाइयाय ॥ (सू०११) अथ के ते पृथिवीकायिका:?, सूरिराह-पृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकाबिकाश्च बदरपृथिवीकायिकाश्च, तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मा बादरनामकर्मोदयात्तु बादराः, कर्मोदयजनिते खल्वेते सूक्ष्मवादरले, नापेक्षिके बदरामलकयो अनुक्रम [१०] ॥९ ॥ स्थावरजीवस्य त्रिविध-भेदा:, अथ पृथ्विकायिकानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] GANACOCCASSOC WIरिख, सूक्ष्माश्च ते पृथिवीकायिकाश्च सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, बादराश्च ते पृथिवीकाविकाच बादरपृथिवीकायिकाः, पशब्दी स्वगतानेकभेदसूचकौ, सूक्ष्मा: सकललोकवर्त्तिनो बादराः प्रतिनियतैकदेशधारिणः । तत्र सूक्ष्मपृथिवीकारिकप्रतिपादनार्थमाह से कितं सहमपदविकाया?, २ विहा पं० सं०-पज्जतगा य अपज्जत्तगा य॥ (सू०१२) अध के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिका: १, सूरिराह-सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्चापर्याप्तकाच, तत्र पर्यातिर्नामाहारादिपुद्गलपहणपरिणमनहेतुरालनः शक्तिविशेषः, स च पुगलोपचयादुपजायते, किमुक्तं भवति-उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्संपर्कतस्तद्रूपतया जातानां यः शक्तिविशेष आहारादिपुद्गलखलरसरूहैपतापादनहेतुर्वथोदरान्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः सा पर्याप्तिः, सा च घोडा, तद्यथा-आहारपर्याप्तिः १ शरीरपर्याप्तिः २ इन्द्रियपर्याप्तिः ३ प्राणापानपर्याप्तिः ४ भाषापर्याप्तिः ५ मनःपर्याप्तिश्च ६, तत्र यया बाद्य| माहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्याप्तिः १, यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽखिमजाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः २, यया धातुरूपतया परिणमितभाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः ३, यया पुनरुच्छासप्रायोग्यवर्गणापुद्गलानादायोच्छासरूपतया परिणमण्यालम्ब्य च मुञ्चति सा. उच्छासपर्याप्तिः ४, यया तु भाषापायोग्यान पुद्गलानादाय भाषाखेन परिणमच्यालम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्ति: ५, यया पुनर्मन:प्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः ६, एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां सब्जिवर्जाना द्वीन्द्रियादीनां संज्ञिनां च चतुपञ्चपट्सङ्ख्या भवन्ति, उत्पत्तिप्रथमसमये एव च एता यथायथं सर्वा अपि युगपन्निष्पादयितुमारभ्यन्ते क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति, SONG अनुक्रम [११] ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] दीप श्रीजीवा- तद्यथा-प्रथममाहारपर्याप्तिस्ततः शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि, आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पत्तिमुपगच्छति, शेषास्तु जीवाजीजीवाभिमा प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेन, अधाहारपर्याप्तिः प्रथमसमय एव निष्पद्यत इति कथमवसीयते ?, उच्यते, इह भगवताऽऽर्यश्यामेन प्र- वाभि० मलयगि- ज्ञापनायामाहारपदे द्वितीयोद्देशके सूत्रमिदमपाठि-"आहारपजत्तीए अपजत्तए णं भंते ! कि आहारए अणाहारए, गोयमा! प्रतिपत्तिः रीयावृत्तिः नो आहारए अणाहारए" इति, तत आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तो विग्रहगतावेवोपपद्यते नोपपातक्षेत्रमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रसमागतस्य । प्रथमसमय एवाहारकत्वात् , तत एकसामायिकी आहारपर्याप्तिनिर्वृत्तिः, यदि पुनरुपपातक्षेत्रसमागतोऽप्याहारपर्याप्त्या अपर्याप्तः स्या॥१०॥ त्तत एवं व्याकरणसूत्रं पठेत्-"सिय आहारए सिय अणाहारए" यथा शरीरादिपर्याप्तिषु "सिय आहारए सिय अणाहारए" इति, सर्वांसामपि च पर्याप्तीनां पर्याप्तिपरिसमाप्तिकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः, अभ्रादिभ्य' इति मत्वथीयो-18 |ऽप्रत्ययः, पर्याप्ता एव पर्याप्तकाः, ये पुनः वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्ताः अपर्याप्ता एवापर्याप्तकाः, से द्विधा-लब्ध्या करणैश्च, तत्र येऽपर्याप्तका एव म्रियन्ते ते लब्ध्याऽपर्याप्तकाः, ये पुनः करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावनिर्वर्त्तयन्ति अथचावश्य निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः संप्राप्ताः ॥ सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय शेषवक्तव्यतासङ्ग्रहार्थमिदं सङ्ग्रहणिगाथाद्वयमाह -सरीरोगाहणसंघयण संठाणकसाय तह य हुँति सन्नाओ । लेसिदियसमुग्धाए सन्नी वेए य पजती ॥१॥ विट्ठी सणनाणे जोगुवओगे | तहा किमाहारे । उववायठिई समुग्घाय चवणगइरागई चेव ॥२॥ अस्य व्याख्या-प्रथमत: सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां शरीराणि वक्तव्यानि, तदनन्तरमवगाहना, ततः संहननं, तदनन्तरं संस्थानं, ततः कषायाः, ततः कति भवन्ति सज्ञा:इति वक्तव्यं, ततो लेश्याः, ॥१०॥ तदनन्तरमिन्द्रियाणि, तत: समुद्घाताः, ततः किं सज्जिनोऽसब्जिनो वा? इति वक्तव्यं, तदनन्तरं वेदो वक्तव्यः, ततः पर्याप्तयो| अनुक्रम [१२-१३] |★ एते द्वे गाथे अन्यत्र मूल-सूत्र रूपेण संपादिते, तत् कारणात् मयाऽपि एवं कृतं ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % 5 प्रत सूत्रांक A [१२] यथा कति पर्याप्तयः सूक्ष्मपृथिवीकायिकानाम् ? इत्यादि, पर्याप्तिग्रहणमुपलक्षणं तेन तत्प्रतिपक्षभूता अपर्याप्तयोऽपि वक्तव्या इति द्रष्टव्यं, तदनन्तरं दृष्टिवक्तव्या, ततो दर्शनं, तदनन्तरं ज्ञानं, ततो योगः, तत उपयोगः, तथा किमाहारमाहारयन्ति सूक्ष्मपुथिबीका यिकाः ? इत्यादि वक्तव्यं, तदनन्तरमुपपातः, ततः स्थितिः, तत्त: समुद्रात: समुद्घातमधिकृत्य मरणं वक्तव्यमित्यर्थः, तदनन्तरं यवनं, 13 ततो गत्यागती इति, इति सर्वसापया त्रयोविंशतिौराणि, तत्र प्रथमद्वारव्याख्यानार्थमाह तेसि भंते! जीवाणं कतिसरीरया पपणत्ता, गोयमा! तओ सरीरगा पं०, तं०-ओरालिए तेथए कम्मए।तेसिणं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पं०, गो! जहन्नेणं अंगुलासंखेजतिभागं उकोसेणवि अंगुलासंखेजतिभागंतेसिणं भंते! जीवाणं सरीरा किंसंघयणा पण्णत्ता?, गोयमा! छेचट्ठसंघयणा पण्णत्ता ॥ तेसि णं भंते ! सरीरा किंसंठिया पं०१, गोयमा! मसूरचंदसंठिता पण्णत्ता ॥ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति कसाया पण्णत्ता ?, गोयमा! चत्तारि कसाया पणत्ता, तंजहा-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोहकसाए ॥ तेसि भंते ! जीवाणं कति सपणा पपणत्ता?, गोयमा! चत्तारि पण्णता, तंजहा-आहारसण्णा जाव परिग्गहसन्ना ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेसाओपण्णत्ताओ ?. गोयमा ! तिन्नि लेस्सा पन्नत्ता, तंजहा-किण्हलेस्सा नीललेसा काउलेसा ।। तेसिणं भंते ! जीवाणं कति इंदियाई पण्णत्ताई?, गोयमा ! एगे फासिदिए पण्णत्ते॥ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ समुग्घाया पण्णता, तंजहा % दीप अनुक्रम [१२-१३] %AE%E0 ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [१], • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ११ ॥ * - * 64 66% %%%%%%%%% वेयणासमुग्धाते कसायसमुग्धाए मारणंतिय समुग्धाए ॥ ते णं भंते! जीवा किं सन्नी असन्नी ?, गोयमा ! नो सन्नी असन्नी ॥ ते णं भंते! जीवा किं इस्थिवेया पुरिसवेया णपुंसगवेया ?, गोयमा ! णो इत्थिवेया णो पुरिसवेषा णपुंसगवेया ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं कति पज्जत्तीओ पण्णताओ ?, गोयमा ! चत्तारि पनसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारपत्ती सरीरपज्जत्ती इंदियपज्जती आणपाशुपज्जती । तेसि णं भंते! जीवाणं कति अपनतीओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! चत्तारि अपजत्तीओ पण्णसाओ, तंजहा-आहारअपज्जत्ती जाव आणापाणुअपनन्ती ॥ ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्टी सम्मामिच्छादिट्ठी ?, गोयमा ! णो सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी नो सम्ममिच्छादिट्ठी ॥ ते णं भंते! जीवा किं चक्खुदंसणी अचक्रदंसणी ओहिदंसणी केवलसणी ?, गोयमा ! नो चक्खुदंसणी अचऋतुदंसणी नो ओहिदंसणी नो केवलसणी ॥ ते णं भंते! जीवा किं नाणी अण्णाणी?, गोयमा ! नो नाणी अण्णाणी, नियमा दुअण्णाणी, तंजा-मतिअन्नाणी सुयअण्णाणी य ॥ ते भंते! जीवा किं मणजोगी वयजोगी कायजोगी ?, गोयमा ! नो मणजोगी नो वयजोगी कायजोगी ॥ ते णं भंते! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवता ? गोयमा ! सागारोवउत्सावि अणागारोवउत्तावि ।। ते णं भंते! जीवा किमाहारमाहारैति ?, गोयमा ! दवतो अनंतपदेसियाई खेतओ असंखेज्जपदेसोगाढाई कालओ अन्नयर For P&Pase City ~32~ जीवाजीवाभि० प्रतिपत्तिः १ ॥ ११ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -44-%--" प्रत सूत्रांक 1 +9 [१३]] दीप समयद्वितीयाई भावतो वण्णवं(म)ताई गंधर्व (म)ताई रसव (म)ताई फासव(म)बाई ॥ जाई भावओ वण्णमंताई आग, ताई कि एगवपणाई आ० दुवपणाई आकतिवण्णाई आ० चउवपणाई आ० पंचवण्णाई आ०१, गोयमा! ठाणमग्गणं पडच एगवण्णाइंपि दुवपणाईपि तिवण्णाईपिचउवण्णाइंपि पंचवण्णाईपि आ०, विहाणमग्गणं पडुश्च कालाईपि आ० जाव सुकिलाईपि आ०, जाई वपणओ कालाई आ० ताई किं एगगुणकालाई आ० जाव अणंतगुणकालाई आ०१, गोयमा! एगगुणकालाईपि आ० जाव अणंतगुणकालाइंपि आ० एवं जाव सुकिलाई ॥ जाई भावतो गंधमंताई आताई किं एगगंधाई दुगंधाई आ०?, गोयमा! ठाणमग्गणं पउस एगगंधाइंपि आ. दुगंधाइंपि आ०, विहाणमग्गणं पहुंच सुम्मिगंधाइंपि आ० मुग्भिगंधाइंपि आ०, जाई गंधतो सुन्भिगंधाई आ० ताई कि एगगुणसुम्भिगंधाई आ० जाय अर्णतगुणसुरभिगंधाई आ०?, गोयमा! एगगुणसुन्भिगंधाइंपि आ० जाव अणंतगुणसुदिभगंधाइंपि, आ० एवं दुन्भिगंधाईपि ॥ रसा जहा वण्णा || जाई भावतो कासवं(म)ताई आ० ताई किं एगफासाई आ० जाव अट्ठफासाई आ०?, गोयमा ! ठाणभग्गणं पडु नो एगफासाई आ० नो दुफासाई आoनो तिफासाई आ० चउफासाई आ० पंचफासाइपि जाय अट्ठफासाइंपि आ०, विहाणमग्गणं पडुच कक्खडाइपि आ० जाच लुक्खाइपि आ०, जाई फासतो कक्खडाई आ० अनुक्रम [१४] ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः जीवाजीवाभि. प्रतिपत्तिः सूत्रांक [१३]] ताई किं एगगुणकक्खडाई आ० जाच अणंतगुणकक्खडाई आ०१, गोषमा! एगगुणकक्खडाइंपि आ० जाव अर्णतगुणकक्खडाइंपि आ० एवं जाव लुक्खा णेयब्वा । ताई भंते ! किं पुट्ठाई आ० अपुट्ठाई आ०१, गोयमा! पुढाई आ० नो अपुट्ठाई आ०, ताई भंते! ओगाढाई आ० अणोगाढाई आ०?, गोयमा! ओगाढाई आ० नो अणोगाढाई आ०, ताई भंते! किमणतरोगाढाई आ० परंपरोगाढाई आ०?, गोयमा! अणंतरोगाढाई आoनो परंपरोगाढाई आ०, ताई भंते ! किं अणूई आ० वापराई आ०१, गोयमा! अणूइंपि आ० थायराइंपि आहारैति, ताई भंते ! उर्दु आ० अहे आतिरियं आहारैति?, गोयमा! उहृपि आ. अहेवि आ.तिरियपि आ०, ताई भंते ! किं आई आ० मझे आ० पजवसाणे आहारैति?, गोयमा आदिपि आ० मजोषि आ० पजवसाणेवि आ०, ताई भंते! किं सविसए आ. अविसए आ०?, गोयमा! सविसए आ० नो अविसए आ०, ताई भंते। किं आणुपुर्दिव आ० अणाणुपुलिंब आहारैति?. गोयमा! आणुपुब्धि आहारैति नो अणाणुपुचि आहारैति, ताई भंते! किं तिदिसिं आहारैति चउदिसिं आहारैति पंचदिसिं आहारैति छदिसिं आहारैति ?, गोयमा! निव्वाघाएणं छदिसिं, वाघातं पटुच सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, उस्सन्नकारणं पहुच वणतो काला नीला जाव सुकिलाई, गंधतो सुन्भिगंधाई दुग्भिगंधाई, रसतो जाय तित्तमहुराई, फासतो अनुक्रम [१४] ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३]] दीप कक्खडमउयजाव निद्धलुक्खाई, तेसिं पोराणे वण्णगुणे विप्परिणामइसा परिपालइत्ता परिसाइइत्ता परिविद्धंसइत्ता अण्णे अपुब्वे वण्णगुणे गंधगुणे जाव फासगुणे उप्पाइत्ता आतसरीरओगाढा पोग्गले सबप्पणयाए आहारमाहारेंति ॥ ते णं भंते ! जीवा कतोहिंतो उवषजति? किं नेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खमणुस्सदेवेहिंतो उववर्जनि?, गोयमा! नो नेरइएहिंतो उबवजति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उयवति मणुस्सहिंतो उववजंति, नो देवेहिंतो उचवज्जति, तिरिक्खजोणियपज्जत्तापज्जत्तेहिंतो असंखेजवासाउयवबेहिंतो उवचजति, मणुस्सेहिंतो अकम्मभूमिगअसंखेजवासाउयवजेहिंतो उववजंति, वकंतीउववाओ भाणियल्वो ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोथमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं ॥ ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घातेणं किं समोहया मरति असमोहया मरंति ?, गोयमा ! समोहयावि मरंति असमोहयावि मरंति ॥ ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उब्वहिता कहिं गच्छति ? कहिं उववजति ?-किं नेरइएसु उववनंति निरिक्खजोणिएसु उ० मणुस्सेसु उ० देवेसु उवव० ?, गोयमा ! नो नेरइएसु उववर्जति तिरिक्खजोणिएसु उ० मणुस्सेसु उ० णो देवेसु उवव० । किं एगिदिएसु उववर्जति जाव पंचिंदिएसु उ०, गोयमा! एगिदिएसु उववजंति जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएम उववजंति, असंखेजवासाउयवज्जेसु पजत्सापजसएसु उव०, मणुस्सेसु अ अनुक्रम [१४] जी०च०३ ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [१३]] ॥१३॥ CCOCCA कम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउयवजेसु पजत्तापञ्जत्तएसु उब० ॥ ते णं भंते ! जीवा १प्रतिपत्तौ कतिगतिका कतिआगतिका पण्णता ?, गोयमा ! दुगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेजा सूक्ष्मपृपण्णत्ता समणाउसो, सेत्तं सुहमपुढविक्काइया ।। (सू०१३) ध्वीकाः 'तेषां सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां णमिति वाक्यालङ्कारे 'भदन्त !' परमकल्याणयोगिम् ! कति शरीराणि प्रज्ञप्तानि ?, अथ कः कमेव-131 सू०१३ माह ?, उच्यते, भगवान् गौतमो भगवन्तं श्रीमन्महावीरं, कथमेतद् विनिश्चीयते इति घेद्, उच्यते, निर्वचनसूत्रात्, ननु गौतमोऽपि भगवान उपचितकुशलमूलो गणधरतीर्थकरभाषितमातृकापवयश्रवणमात्रावातप्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमश्चतुर्दशपूर्वविद् विवक्षितावार्थपरिजानसमन्वित एव ततः किमर्थं पृच्छति ?, तथाहि-न चतुर्दशपूर्वविदः प्रज्ञापनीयं किश्चिदविदितमस्ति, विशेषतः सर्वाक्षरसं-18 निपातिनः संभिन्नश्रोतसो भगवतो गणभृत: सर्वोत्कृष्टश्रुतलन्धिसमन्वितस्य गौतमय, उक्तं च "संखातीते वि भबे साहइ जं था| परो उ पुच्छेना । न य णं अणाइसेसी वियागई एस छउमस्थो ॥ १॥" उच्यते, शिष्यसंप्रत्ययार्थ, तथाहि-जानन्नेव भगवान् अन्यत्र विनेयेभ्यः प्रतिपाद्य तत्संप्रत्ययनिमित्तं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छतीति, अथवा गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं किञ्चित्सूत्रमिती-18 स्थमधिकृतसूत्रकारः सूत्रं रचितवान् , यदिवा संभवति भगवतोऽपि स्वल्पोऽनाभोगः छद्मस्थत्वादिति पृच्छति, उक्तं च न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥१॥” इति कृर्व प्रसङ्गेन, प्रस्तुवमुच्यते, भगवानाह-गोयमेयावि, अनेन लोकप्रथितमहागोत्रविशिष्टाभिधायकनामश्रणध्वनिनाऽऽमन्त्रयन्निदं ज्ञापयति-प्रधानासाधारणगुणेनोत्साह X ॥१३॥ पसंख्मातीतानपि भवान् साधयति यदा परः पृच्छेत् । न चानतिशायी विजानात्येष छपस्था (इति) ॥१॥ %85%% अनुक्रम [१४] ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * F प्रत सूत्रांक 2 [१३]] दीप विनेयस्य धर्मः कथनीयः, इत्यमेव सम्यातिपत्तियोगादिति, त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, इह शरीराणि पश्च भवन्ति, तद्यथा-औदारिक वैक्रियमाहारकं तैजसं कार्मणं च, तत्रोदारं-प्रधानं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीराण्यधिकस, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्यापि अनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा उदारं सातिरेकयोजनसहनमानत्वात् शेषशरीरापेक्षया धृहत्प्रधान, बृहत्ता चास्य वैकियं प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथोत्तरवैक्रियं योजनलक्षमानमपि लभ्यते, उदारमेव औदारिक, विनयादिपाठादिकण १, तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं, तथाहि-तदेकं भूलाउनेकं भवति अनेक भूत्या एकं तथाऽणु भूत्वा महद्भवति महच्च भूखाऽणु तथा खचरं भूला भूमिचरं भवति भूमिचरं भूत्वा खचरं तथा दृश्यं भूत्वाऽदृश्यं भवति अवश्यं भूखा दृश्यमिति, तच द्विविधम्-औपपातिक लब्धिप्रत्ययं च, तत्रौषपातिकमुपपातजन्मनिमित्तं, तच्च देवनारकाणां, लब्धिप्रत्ययं तिर्यग्मनुष्याणां २, तथा चतुर्दशपूर्वविदो तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पची सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाहियते-निर्वय॑ते इत्याहारक, 'बहुलक'| मिति वचनात्कर्मणि बुन्, यथा पादहारक इत्यत्र, उक्तं च- कंजंमि समुप्पन्ने सुयकेवलिणा बिसिहलद्धीए । जं एत्थ आहरिजइ भणंति आहारगं तं तु ॥ १॥" कार्य चेदम्-'पाणिदयरिशिदसण सुहुमपयस्थावगाहहे वा । संसयवोच्छेयर्थ गमणं जिणपायमूलंमि ॥१॥" एतचाहारकं कदाचनापि लोके सर्वथाऽपि न भवति, तचाभवनं जघन्यत एकं समयमुत्कर्षत: षण्मासान यावत् , उक्तं च-आहारगाइ लोगे छम्मासा जा न होतिवि कयाई । उकोसेणं नियमा एक समय जहन्नेणं ॥ १॥" आहारकं च शरीरं १ कार्ये समुत्ने श्रुतकेवलिना विशिष्टलम्या । यदनाहियते भगन्याहारकं तत्तु ॥1॥३प्राणिदयारद्धिदर्शनसूक्ष्मपदार्थावपाहहेतचे बा । संशययुच्छेदाधे गमनं जिनपावमूले ॥1॥ आहारकादयो नियमाओके षण्मासान् यावत्र भवन्त्यपि कदाचित् । उत्कृयतो नियमाद एक समयं जयन्येन ॥१॥ अनुक्रम [१४] ACASESCABCC8 ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक थ्वीकायाः सू०१३ - -- श्रीजीवा- क्रियशरीरापेक्षयाऽत्यन्तशुभं खच्छस्फटिकशिलेव शुभ्रपुगलसमूहात्मकं ३, तथा तेजसां-तेजःपुद्गलानां विकारस्तैजसं 'विकार' इत्यम् जीवाभिएतत् औष्मलिङ्गं भुक्ताहारपरिणमनकारणं, ववच विशिष्टतपःसमुत्थलब्धिविशेषस्व पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः, उक्तं च-सव्वस्स उम्हमलयगि- सिद्धं रसाइआहारपाकजणगं च । तेवगलद्धिनिमित्तं च तेयर्ग होइ नायव्वं ॥ १॥" ४, तथा कर्मणो जातं कर्मजं, किमुक्तं भवति- रीयावृत्तिः कर्मपरमाणव एवात्मप्रदेशैः सह श्रीरनीरवदन्योऽन्यानुगताः सन्तः शरीररूपतया परिणताः कर्मजं शरीरमिति, अत एवैतदन्यत्र का- मणमित्युक्तं, कर्मणो विकारः कार्मणमिति, तथा चोक्तम्- कैम्मविकारो कम्मणमढविहविचित्तकम्मनिष्फन । सन्वेसि सरीराणं | कारणभूयं गुणेयर्व ॥१॥" अन्न 'सव्वेसिमिति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं-बीजभूतं कार्मणं शरीरं, न खल्वा-| मूलमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चरोहवीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावः, इदं च कर्मजं शरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसङ्क्रान्तौ साधकतमं| कारणं, तथाहि-कर्मजेनैव वपुषा तैजससहितेन परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति, ननु यदि तैजससहितकार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं संकामति तर्हि स गच्छन्नागन्छन् कस्मान दृष्टिपथमवतरति ?, उच्यते, कर्मपुद्गलानां तैजसपुद्गलानां चातिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् , तथा च परतीधिकैरप्युक्तम्-"अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते । निष्कामन प्रविशन वाऽपि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥१॥" एतेषां पञ्चानां शरीराणां मध्ये यानि त्रीणि शरीराणि सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां तानि नामप्राहमुपदर्शयति-तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, वैक्रियाहारके तु तेषां न संभवतो, भवखभायत एवं तल्लब्धिशून्यत्वात् । १ सर्वस्याष्ण्वसिद्ध रसाबाहारखाकान च। तेजोलब्धिनिमित्तं च तै जसं भवति ज्ञातव्यम् ॥१॥ २ कर्मविकारः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नम् । स.! वेषो शारीराणां कारणभूतं मुणितव्यं ॥१॥ अनुक्रम [१४] ॥ १४ ॥ ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक:-1,---------------------- मुलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३]] LOGANGANAGAR दीप | अधुनाऽवगाहनाद्वारमाह-'तेसिणं भंते ! इत्यादि सुगम, नवरं जघन्यपदोत्कृष्टपदयोस्तुल्यश्रुतावपि जघन्यपदादुत्कृष्टपदमधिकमवसातव्यम् ॥ संहननद्वारमाह-तेसिणमित्यादि, तेषां भदन्त ! जीवानां शरीरकाणि किंसंहननानि प्रज्ञप्तानि', संहनन नामास्थिनिचयरूपं, तच पोढा, तद्यथा-बजरषभनाराचं ऋषभनाराचं नाराचमर्द्धनाराचं कीलिका छेदवर्ति च, तत्र वर्ण-कीलिका षभ:-परिवेष्टनपट्टः नाराचस्तूभयतो मर्कटबन्धः ततश्च योरस्भोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिं गच्छता तृतीयेनारमा परिवेष्टितयो|रुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकास्य वचनामकमस्थि यत्र भवति तद्वजऋषभनाराचसझं प्रथम संहननं १, यत्पुनः कीलिकारहित |संहननं तत् ऋषभनारा द्वितीयं संहननं २, तथा यत्रासभोमर्कटवन्ध एव केवलसन्नाराचसशं तृतीयं संहननं ३, यत्र पुनरेकपावे मर्कटबन्धो द्वितीये च पाचँ कीलिका तदर्द्धनाराचं चतुर्थ संहननं ४, तथा यत्रास्थीनि कीलिकामात्रयद्धानि तरकीलिकाख्यं पचर्म संहननं ५, तथा यत्रास्थीनि परस्परं छेवेन वर्तन्ते न कीलिकामानेणापि बन्धस्तत् षष्ठं छेदवति, तश प्रायो मनुष्यादीनां नित्यं स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परिशीलनामपेक्षते ६, इत्यं षोढा संहननसम्भवे संशय:-तेषां शरीराणि किंसंहननानि प्रज्ञप्तानि ? इति, भगवानाह -गौतम! छेदवर्तिसंहननानि प्रज्ञतानि, अयमत्राभिप्राय:-यद्यपि सूक्ष्मपृथिवीकाविकानामस्थ्यभावस्तथाऽप्यौदारिकशरीरिणामस्थ्यासकेन संहननेन यः शक्तिविशेष उपजायते सोऽप्युपचारासंहननमिति व्यवहियते, शक्तिविशेषश्चात्यन्तमल्पीयान् सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामप्यस्यौदारिकशरीरित्वात् , जपम्यश्च शक्तिविशेषश्छेदवसिंहननविषय इति तेषामपि छेदवर्तिसंहननमुक्तम् ॥ गर्न संहननद्वारं, सम्प्रति संस्थानद्वारमाह-'तेसिणं भंते!' इत्यादि सुगम, नवरं 'मसूरगचंदसंठिया' इति, मसूरकाख्यस्य-धान्यविशेषस्य यश्चन्द्राकृति | दलं स मसूरकचन्द्रस्तदनुसंखितानि मसूरकचंद्रसंस्थितानि, अत्राय भावार्थ:-इह जीवानां षट् संस्थानानि, तानि च समचतुरस्रादीनि 2 . 6 अनुक्रम [१४] 2 - 4%A4 ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१३] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा वक्ष्यमाणलक्षणानि तेषामाद्यानि पच संस्थानानि मसूरचन्द्रकाकारे न संभवन्ति, तल्लक्षणायोगात् तत इदं मसूरचन्द्रकाकारं संस्थानं जीवाभि० हुण्डं प्रतिपत्तव्यं, सर्वत्रासंस्थितत्वरूपस्य तलक्षणस्य योगान्, जीवानां संस्थानान्तराभावाच आह च मूलटीकाकारः- “संस्थानं म मलयगि सूरचन्द्रकसंस्थितमपि हुण्डं, सर्वत्रासंस्थितत्वेन तलक्षणयोगात्, जीवानां संस्थानान्तराभावाने "ति ॥ गवं संस्थानद्वारमधुना कषायरीयावृत्तिः १ द्वारमाह-'तेसिणं भंते!' इत्यादि, तेषां भदन्त ! सूक्ष्मपृथ्वी कायिकानां कति कषायाः प्रज्ञताः १, तत्र कषाया नाम कथ्यन्ते-हिंस्यन्ते ।। १५ ।। परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कपः - संसारस्तमयन्ते गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः क्रोधादयः परिणामविशेषाः तथा चाह-'गोयमेत्यादि सुगमं, नवरं कोधः - अप्रीतिपरिणामः मानो गर्वपरिणामः माया निकृतिरूपा लोभो गालक्षणः, एते च क्रोधादयोमीषां मन्दपरिणामतयाऽनुपदर्शितबाह्यशरीरविकारा एवानाभोगतस्तथा तथा वैचित्र्येण भवन्तः प्रतिपत्तव्याः ॥ गतं कषायद्वारं, सज्ञाद्वार माह- 'तेसिणमित्यादि सुगमं, नवरं सज्ञानं सब्जा, सा च द्विधा - ज्ञानरूपानुभवरूपा च तत्र ज्ञानरूपा मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदात्पश्वप्रकारा, तत्र केवलसज्ञा क्षाबिकी शेषास्तु क्षायोपशमिक्यः, अनुभवसज्ञा- स्वकृतासातावेदनीयादिकर्मविपाकोदयसमुत्था, इह प्रयोजनमनुभवसन्ज्ञया, ज्ञानसज्ञायास्तद्वारेण परिगृहीतत्वात्, तत्राहारसज्ञा नाम आहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयप्रभवः खल्वासपरिणामविशेषः, एषा चासात वेदनीयोदयादुपजायते, 'भयसम्ज्ञा' भयवेदनीयोदय जनित त्रास परिणामरूपा, 'परि ग्रहसज्ञा' लोभविपाकोदयसमुत्थमूर्छा परिणामरूपा, 'मैथुनसज्ज्ञा' वेदोदयजनिता मैथुनाभिलाषः, एताश्चतस्रोऽपि मोहनीयोदयप्रभवाः, एता अपि सूक्ष्मपृथ्वीकायिकानामव्य करूपाः प्रतिपत्तव्याः ॥ गतं सज्ञाद्वारमधुना बेश्याद्वारमाह-'तेसिण' मित्यादि सुगमं, नवरं लिश्यति लिप्यते आसा कर्मणा सहानवेति लेश्या कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादासनः शुभाशुभपरिणामः उक्तं च- "कृष्णादि Ja Eden For P&P Cy ~40~ १ प्रतिपत्तौ सूक्ष्मपुपृथ्वीकायाः सू० १३ ।। १५ ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१३] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः द्रव्यसाचिव्यात्परिणामो व आसनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ १ ॥ सा च षोढा, तयथा कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुकुलेश्या च, आसां च स्वरूपं जम्बूफलखादकषट्पुरुषदृष्टान्तेनैवावसातव्यम् - "पंथाओ परिभट्ठा छप्पुरिसा अडविमण्यारंमि । जंबूतरुस्त देट्ठा परोप्परं ते विचितेति ॥ १ ॥ निम्मूढसंधसाला गोच्छे पक्के य पडियसडियाई । जह एएसिं भावा तह लेसाओवि नावव्या ॥ २ ॥" अमीषां च सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामति संष्टिपरिणामत्वाद्देवेभ्य: सूक्ष्मेष्वनुत्पादाचाद्या एव तिस्रः कृष्णनीलकापोतरूपा लेश्याः, न शेषा इति ॥ गतं लेश्याद्वारमिदानीमिन्द्रियद्वारमाह - 'तेसिण 'मित्यादि, इन्द्रियं नाम 'इदु परमैश्वर्ये' 'उदितः' इति नम्, इन्दनादिन्द्रः- आमा सर्वोपलब्धिरूपपरमैश्वर्ययोगात् तस्य लिनं चिहमविनाभावि इन्द्रियम् 'इन्द्रियमिति निपातनसूत्राद्रूपनिष्पत्तिः, तस्यच्चवा, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियं चक्षुरिन्द्रियं जिहेन्द्रियं प्राणेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रियं च, एकैकमपि द्विधा-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च द्रव्येन्द्रियं द्विधा- निर्वृत्तिरूपमुपकरणरूपं च तत्र निर्वृत्तिर्नाम प्रतिवि शिष्टः संस्थानविशेष:, साऽपि द्विधा बाह्याभ्यन्तरा च तत्र वाह्य कर्णपटिकादिरूपा, सा च विचित्रा न प्रतिनियतरूपतया निर्देष्टुं शक्यते, तथाहि मनुष्यस्य श्रोत्रे नेत्रयोरुभयपार्श्वतो भाविनी भुवावुपरितनश्रवणबन्धापेक्षया समे, वाजिनो नेत्रयोरुपरि तीक्ष्णे चाभागे इत्यादि, अभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः सर्वेषामप्येकरूपा, तामेवाधिकृत्य चामूनि सूत्राणि प्रावर्त्तिषत — “सोईदिए णं भंते! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ?, गोयमा कलंबुयासंठाणसंठिए पन्नत्ते, चक्खिदिए णं भंते! किंसंठाणसंठिए पत्ते १, गोयमा ! मसूरचंद ठाणसंठिए पत्ते, १ पथः परिभ्रष्ठाः पद् पुरुषा] अटवीमध्यभागे जम्बूतरोरधस्वात् परस्परं ते विचिन्तयन्ति ॥ १ ॥ निर्मूलं स्कन्धं शाखां प्रशास गुच्छान् ( छित्वा ) पकानि पतितशदितानि ( भक्षयामः । यथैतेषां भावास्तथा लेश्या अपि ज्ञातव्याः ॥ २ ॥ For P&Praise City ~ 41~ y Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक पतिपत्ती सूक्ष्मपृथ्वीकायाः सू०१३ [१३]] * श्रीजीवा- पाणिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पन्नत्ते, गोयमा ! अइमुत्तसंठाणसंठिए पन्नते, जिम्भिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पन्नत्ते, जीवाभिगोयमा! खुरप्पसंठाणसंठिए पन्नते, फासिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णते?, गोयमा! नाणासंठाणसंठिए पन्नत्ते ॥” इति, ह मलयगि- स्पर्शनेन्द्रियनिवृत्तः प्रायो न बाह्याभ्यन्तरभेदः, तत्त्वार्थमूलटीकायामनभ्युपगमात् , उपकरणं नाम खगस्थानीयाया बायनिर्वृत्तो रीयावृत्तिः खन्नधारास्थानीया स्वछतरपुरलसमूहात्मिकाऽभ्यन्तरा निर्वृचिस्तस्याः शक्तिविशेषः, इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमान्तरनिर्वृत्तेः कथशि- दर्थान्तरं, शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिद्देदात् , कथविक्रेदश्च सत्यामपि तस्यामान्तरनिर्वृत्तौ द्रव्यादिनोपकरणस्योपधातसम्भवात् , तथाहि -सल्यामपि कदम्बपुष्पाद्याकृतिरूपायामान्तरावां निवृत्ती महाकठोरतरपनगर्जितादिना शक्त्युपपाते सति न परिकछेत्तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति, भावेन्द्रियमपि द्विधा-लब्धिरुपयोगश्च, तत्र लब्धिः श्रोत्रेन्द्रियादिविषयस्तदावरणक्षयोपशमः, उपयोगः स्वस्व विषये लब्भ्यनुसारेणासन: परिच्छेदव्यापारः, तत्र यद्यपि द्रव्यरूपं भावरूपं चेत्थमिन्द्रियमनेकप्रकारं तथाऽपीह बाघनिर्वृत्तिरूपमिन्द्रियं | पृष्टमवगन्तव्यं, तदेवाधिकृत्य व्यवहारप्रवृत्तेः, तथाहि-बकुलादयः पञ्चेन्द्रिया इव भावेन्द्रियपञ्चकविज्ञानसमन्विता अनुमानतः प्रतीयन्ते तथाऽपि न ते पञ्चेस्त्रिया इति व्यवहियन्ते, बाह्येन्द्रियपञ्चकासम्भवात् , उक्तं च-पवेदिओ उ बउलो नरो व सम्बविसओवलंभाओ । तहकि न भण्णइ पंचिंदिउ त्ति बझिदियाभावा ॥१॥" ततो द्रव्येन्द्रियमधिकृत्य निर्वचनसूत्रमाह-'गोयमें त्यादि सुगमम् ॥ गतमिन्द्रियद्वारमधुना समुद्घातद्वार, तत्र समुद्घाता: सप्त, तद्यथा-वेदनासमुद्घात: १ कषायसमुद्घात: २ मारणसमुद्घातः ३ वैक्रियसमुद्रातः ४ तैजससमुद्घात: ५ आहारकसमुद्घात; ६ केवलिसमुद्घातश्च ७, तत्र वेदनायाः समुद्घातो वेदनासमुद्घातः, १ पोनिय एव बकुलो नर इन सर्वविषयोपलम्भात् । तथापि न भव्यते पञ्चेन्द्रिय इति बानियाभावात् ॥१॥ CASSESCACACACANCY RS24 अनुक्रम [१४] ~ 42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३]] स चासातवेदनीयकर्माश्रयः १, कषायेण-कषायोदयेन समुद्घातः कषायसमुद्घातः, स च कषायचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः २, मरणे भवो मारणः, स चासो समुद्घातश्च मारणसमुद्घातः ३, वैकिये प्रारभ्यमाणे समुद्धातो वैक्रियसमुद्यातः, स च वैक्रियशरी-XII रनामकर्माश्रयः ४, (जसेन हेतुभूतेन समुद्घातस्तैजससमुद्घातः तैजसशरीरनामकर्माश्रयः) ५, आहारके प्रारभ्यमाणे समुद्घान आहारकसमुद्घातः, स चाहारकशरीरनामकर्माश्रयः ६, केवलिनि अन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदे समुद्घातः केवलिसमुद्घातः | ७ । अथ समुद्धात इति कः शब्दार्थ:?, उच्यते-समिति-एकीभावे उत्-प्राबल्ये एकीभावेन प्राबल्येन धात: समुद्घात:, केन सह | एकीभावगमनम् ! इति चेद्, उच्यते, अर्थाद्वेदनादिभिः, तथाहि-यदा आमा वेदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानप-| रिणत एव भवति नान्यज्ञानपरिणतः, प्राबल्येन घातः कथम् ? इति चेत्, उच्यते, इह वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादि-15 कर्मपुद्गलान् कालान्तरानुभवयोग्यानुद्दीरणाकरणेनाकृष्योदयावलिकायां प्रक्षिप्यानुभूयानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशेभ्यः शातयतीति भावः, तत्र वेदनासमुद्घातगत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-वेदनाकरालितो जीवः स्वप्रदेशाननन्तानन्तकर्मपरमाणुवेष्टितान् शरीरावहिरपि विक्षिपति, तैश्च प्रदेशैवेदनजघनादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो बिस्तरतश्च शरीरमात्रं क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहूत यावदवतिष्ठते, तस्मिंश्चान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातवेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति , कषायसमुद्घातसमुद्धत: कषायाख्वचारित्रमोहनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-कषायोदयसमाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य तैर्वदनोदरादिरप्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामविस्तराभ्यां देहमानं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्त्तते, तथाभूतश्च प्रभूतकषायकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, एवं मरणसमुद्घातगत आयुःकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, वैक्रियसमुद्घातगत: पुनर्जीवः स्त्रप्रदेशान् शरीरावहिनिष्काश्य शरीरवि अनुक्रम [१४] ~ 43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] I दीप श्रीजीवा- साकम्भवाहल्यमानमायामत: सत्येययोजनप्रमाणं दण्ड निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान क्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्नदान प्रतिपक्षा जीवाभि. शातयति, तथा चोक्तम्-'वेउब्बियसमुग्घाए णं समोहणइ २ ता संखिजाई जोयणाई दंडं निसिरह, निसिरिता अहाबायरे पुग्गले मलयगि-1 परिसाडेइ" इति, तैजसाहारकसमुद्घातौ वैक्रियसमुद्घातवदवसातव्यो, केवलं तैजससमुद्घातगतस्तैजसशरीरनामकर्मपुद्गलपरिशातं |वीकायाः रीयावृत्तिः 18 करोति, आहारकसमुद्घातगत आहारकशरीरनामकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, केवलिसमुद्घातसमुद्धतस्तु केवली सदसवेंदनीयशुभाशुभना-IMIT मोचनीचैर्गोत्रकर्मपुद्गलपरिशात (करोति), केवलिसमुद्घातबर्जाः शेषाः षडपि समुद्धाता: प्रत्येकमान्तरितिकाः, केवलिसमुद्घात: पुन-1 ॥१७॥ Pष्टसामयिकः, उक्तं च प्रज्ञापनायाम् -'वेयणासमुग्धारण कइसमइए पण्णचे ?, गोयमा ! असंखेजसमइए अंतमुहुत्ते, एवं जाव आहार8|गसमुचाए । केवलिसमुग्घाए ण भंते ! कइसमइए पणते ?, गोयमा ! अट्ठसमइए पण्णत्ते ।।" इति, तदेवमनेकसमुद्घातसम्भवे सूक्ष्म-18 दापूथिवीकाविकानां तान् पृच्छति-तेसिण भंते' इत्यादि सुगम, नवरं वैक्रियाहारकतैजसकेवलिसमुद्घाताभावो वैक्रिया दिलब्ध्यभावात् ।। गतं समुद्घातद्वारं, सम्प्रति सज्ञिद्वारमाह-'ते ण भंते' इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः णमिति वाक्यालङ्कारे भवन्त ! किं स६|| जिनोऽसब्जिनो वा ?, सज्ञान सम्झा-भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं सा विद्यते येषां ते सब्जिन:-विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः, यथोक्तमनोविज्ञानविकला असजिनः ?, अत्र भगवा निर्वचनमाह-गौतम! नो सब्शिनः, किन्त्वसब्जिनः, विशिष्टमनोलमध्यभावात् , हेतुवादोपदेशेनापि न सम्झिनः, अभिसंधारणपूर्विकायाः करणशक्तेरभावात् , इहासजिन इत्येव सिद्धे नो सभिजन इति प्रतिषेधः प्रतिषेधप्रधानो विधिरयमिति ज्ञापनार्थः, प्रतिपायव प्रकृतिसावधलादिति । गतं सब्जिदारं, वेदनाद्वारमाह | ॥१७॥ -ते णं भंते ! इत्यादि । इत्थिवेयगा' इति खियाः वेदो येषां ते स्त्रीवेदकाः, एवं पुरुषवेदका नपुंसकवेदका इत्यपि भावनीयं, तत्र अनुक्रम [१४] ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३]] 60% दीप खियाः पुंस्वभिलाष: स्त्रीवेदः, पुंसः खियामभिलाषः पुंवेदः, उभयोरप्यभिलायो नपुंसकवेदः, भगवानाह-गौतम! न स्त्रीवेदका न। 31 पुरुषवेदकाः, नपुंसकवेदकाः संमूछिमत्वात् , 'नारकसमूछिमा नपुंसका' इति भगवचनम् ॥ पर्याप्तिद्वारमाह-"तेसिणं भंते'। इत्यादि, सुगम, पर्याप्तिप्रतिपक्षा अपर्याप्तिस्तन्निरूपणार्थमाह-'तेसि णं भंते!' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरं चतस्रोऽप्यपर्याप्तयः करणापेक्षया द्रष्टव्याः, लब्ध्यपेक्षया खेकैव प्राणापानापर्याप्तिः, यस्मादेवमागमः-इह लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमासावेव नियन्ते नार्वाक्, यत आगामिभवायुर्वद्धा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तानामेव बन्धमायातीति ॥ सप्रति दृष्टिद्वारमाह-'ते णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं सम्यग्-अविपरीवा दृष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते सम्यग्दृष्टयः, मिध्या-विपर्यस्ता दृष्टियेषां भक्षितहत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् मिध्यादृष्टयः, एकान्तसम्यपूपमिध्यारूपप्रतिपत्तिविकला: सम्यग्मिध्यादृष्टयः, निर्वचनसूत्रं-गोयमे त्यादि, सुगर्म, नवरं सम्यग्दृष्टित्वप्रतिषेधः सासादनसम्यक्त्वस्यापि तेषामसम्भवात् , सासा|दनसम्यकलवता तन्मध्ये उत्पादाभावात् , ते यतिसंक्लिष्टपरिणामाः, सास्वादनसम्यक्त्वपरिणामस्तु मनाक् शुभ इति तन्मध्ये सासादनसम्यक्त्ववतामुत्पादाभावः, अत एव सदा संकिष्टपरिणामलातेषां सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वपरिणामोऽपि न भवति, नापि सम्यग्मिथ्यादृष्टिः सन् तन्मध्ये उत्पद्यते, "न सम्ममिल्छो कुणइ काले" इति वचनात् ॥ गतं दृष्टिद्वारमधुना दर्शनद्वारमाह-दर्शनं नाम सामान्यविशेषासके वस्तुनि सामान्यावयोधः, तचतुर्धा, तद्यथा-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं च, तत्र सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि चक्षुषा दर्शनं रूपसामान्यपरिच्छेदश्चक्षुर्दर्शनम् , अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् , अवधिरेव दर्शनरूपिसामान्यग्रहणमवधिदर्शनं, केवलमेव दर्शनं-सकलजगद्वाविवस्तुसामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं, तत्र किमेषां दर्शनमिति | ४. % अनुक्रम [१४] ~45~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१३] श्रीजीवा- जिज्ञासुः पुच्छति-'ते णं भंते' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरमचक्षुर्दर्शनिवं स्पर्शनेन्द्रियापेक्षया, शेषदर्शनप्रतिषेधः सुज्ञानः ॥ गतं दर्शन- प्रतिपत्ता जीवाभि०द्वारं, ज्ञानद्वारमाह-'ते णं भंते जीवा' इत्यादि, अज्ञानत्वं मिथ्यादृष्टित्वात् , तदपि चाज्ञानत्वं मत्यज्ञान ताज्ञानापेक्षया, तथा चाह सूक्ष्मपृमलयगि- -नियमा दुअण्णाणी' त्यादि पाठसिद्धं, नवरं तदपि मत्यज्ञानं श्रुवाहानं च शेषजीवबादरादिराश्यपेक्षयाऽत्यन्तमल्पीयः प्रतिपत्तव्यं, थ्वीकायाः रीयावृत्तिः यत उक्तम्---"सर्वनिकृष्टो जीवस्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः ।। १ ।। तस्मात्प्रभृति सू०१३ ज्ञानविवृद्धिद्देष्टा जिनेन जीवानाम् । लब्धिनिमित्तैः करणैः कायेन्द्रियवाग्मनोदृग्भिः ॥२॥" योगद्वारमाह-'ते णं भंते' इत्यादि ॥१८॥ |पाठसिद्धम् ।। गतं योगद्वारमधुनोपयोगद्वारं, सत्रोपयोगो द्विविधः-साकारोऽनाकारश्व, तत्राकार:-प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः "आगारो उ विसेसों" इति वचनात् , सह आकारो यस्य येन वा स साकारो-ज्ञानपञ्चकमज्ञानत्रिकं, यथोक्ताकारविकलोऽनाकारः, स चक्षुर्दर्शनादिको दर्शनचतुष्टयासकः, उक्तं च ज्ञानाज्ञाने पञ्च त्रिविकल्पे सोऽष्टधा तु साकारः । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलग्विषयसषनाकारः ॥ १॥" तत्र क एषामुपयोगः ? इति जिज्ञासुः पृच्छति-'ते णं भंते !' इत्यादि निगदसिद्ध, नवरं साकारोपयोगोपयुक्ता मत्यज्ञानश्रुताज्ञानोपयोगापेक्षया, अनाकारोपयोगोपयुक्ता अचक्षुर्दर्शनोपयोगापेक्षयेति ॥ साम्प्रतमाहारद्वारमाह-ते ण भंते इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपूथिवीकायिका: णमिति वाक्यालकारे भदन्त ! जीवाः किमाहारमाहारयन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'द्रव्यतो' द्रव्यस्वरूपपर्यालोचनायामनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि, अन्यथा ग्रह्णासम्भवात् , न हि सङ्ख्यातप्रदेशामका असयातप्रदेशात्मका वा स्कन्धा | जीवस्य ग्रहणप्रायोग्या भवन्ति, क्षेत्रत्तोऽसङ्ख्यातनदेशावगाढानि, कालतोऽन्यतरस्थितिकानि-जघन्य स्थितिकानि मध्यमस्थितिकानि उ||त्कृष्टस्थितिकानि चेति भावार्थः, स्थितिरिति चाहारयोग्यस्कन्धपरिणामत्वेऽवस्थानं प्रत्येतव्यम् , आह च मूलटीकाकार:-काल-15 पूरब अनुक्रम REAKISCESS [१४] 24-24 ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप तोऽन्यतरस्थितीनि तद्भावावस्थानेन जघन्यादिरूपां स्थितिमधिकृत्ये"ति, भावतो वर्णवन्ति गन्धवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति च, प्रति-| परमाण्वेकैकवर्णगन्धरसद्विस्पर्शभावात् , "एवं जहा पण्णवणाए" इत्यादि, ''एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमे | आहारपदे प्रथमोदेशके तावद्वक्तव्यं यावत् "सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसि"मिति, तचैवम्-'जाई भावतो वण्णमताई आहारेति ताई किं एगवण्णाई आहारेंति जाव पंचवण्णाई आहारेंति', गोवमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाईपि आहारेंति | जाव पंचवण्णाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाइंपि आहारेंति जाव सुकिल्लवण्णाइपि आहारेंति, जाई कालवण्णाईपि | आहारेंति ताई कि एगगुणकालाई आहारेंति जाव दसगुणकालाई आहारैति संखिजगुणकालाई आहारति असंखेजगुणकालाई आहारैतिर अणंतगुणकालाई आहारेति ?, गोयमा! एगगुणकालाईपि आहारेंति जाव अणंतगुणकालाइंपि आहारेंति एवं जाव मुक्लिाइंपि आहारेंति, एवं गंधतोबि रसवोवि ॥ जाई भावतो फासमंताई आहारेंति ताई कि एगफासाई आहारेंति दुफासाई आहारेंति जाव अट्ठ फासाई आहारेंति?, गोयमा! ठाणमग्गणं पडुश्च नो एगफासाई आहारेंति नो दुफासाई आहारेंति नो तिफासाइपि आहारेति चउ४ फासाइंपि आहारेंति जाव अट्ठफासाइपि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुन कक्खडाईपि आहारति जाव लुक्खाईपि आहारेति ॥ जाई | फासतो कक्खडाईपि आहारेंति ताई किं एगगुणकक्खडाई आहारेति जाव अर्णतगुणकक्खडाइपि आहारेंति ?, गोयमा! एगगुणकक्खहाइपि आहारेंति जाव अर्णतगुणकक्खडाईपि आहारेंति, एवं अट्ठवि फासा भाणियब्वा जाव अणंतगुणलुक्खाइपि आहारेति ॥ जाई भंते ! अर्णतगुणलुक्खाई आहारेति साई भंते ! किं पुट्ठाई आहारैति अपुढाई आहारेंति ?, गोयमा! पुट्ठाई आहारेंति नो अपुढाई | जीच०४ाहारैति, जाई पुट्ठाई आहारेंति साई भंते ! किं ओगाढाई आहारेंति अगोगाढाई आहारेंति ?, गोयमा! ओगाढाई आहारेंति नो| अनुक्रम [१४] JatacamiRE ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [१], • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १९ ॥ अणोगाढाई आहारेंति, जाई भंते! ओगाढाई आहारैति ताई किं अनंतरोगाढाई आहारैति परंपरोगाढाई आहारैति १, गोयमा ! अनंतरोगाढाई आहारैति नो परंपरोगाढाई आहारैति, ताई भंते! किं अणूई आहारैति बायराई आहारैति ?, गोयमा ! अणूइंपि आहारैति वायराईपि आहारेंति, जई भंते! अणूई आहारैति ताई भंते! किं उ आहारैति अहे आहारैति तिरियं आहारेति ?, गोयमा ! उपि आहारैति अहेवि आहारैति तिरियंपि आहारैति, जाई भंते! उपि आहारेंति अहेव आहारैति तिरियंपि आहारैति ताई कि आई आहारेति मध्झे आहारैति पावसाणे आहारेति ?, गोयमा ! आईपि आहारेति मज्झेवि आहारैति पावसाणे (वि) आहारेति, जाई भंते! आईपि आहारेति जान पज्जबसाणेवि आहारैति ताई किं सविसए आहारति अविसए आहारेंति ?, गोयमा ! सविसए आहारेंति नो अविसए आहारैति, जाई भंते! सविसए आहारेति ताई किं आणुपुवि आहारैति अणाणुपुवि आहारेति ?, गोयमा ! आणुपुर्निय आहारेंति नो भणाणुपुवि आहारैति जाई भंते! आणुपुवि आहारेति ताई किं विदिसि आहारैति चउदिसि आहारेति पंचदिसि आहारैति हरिसिं आहारैति ?, गोयमा ! निव्वाघापणं छद्दिसिं, वाघायं पहुच सिय तिदिसिं सिय चउदिसि (सिय) पंचदिसिमिति ॥" अस्य व्याख्या - "जाई भावतो वण्णमंताई" इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम्, भगवानाह - गौतम! 'ठाणमग्गणं पडुथेति तिष्ठन्ति विशेषा अस्मिन्निति स्थानं सामान्यमेकवर्ण द्विवर्ण त्रिवर्णमित्यादिरूपं तस्य मार्गेणम्-अन्वेषणं तत्प्रतीत्य, सामान्यचिन्तामाश्रित्येति भावार्थ:, एकवर्णान्यपि द्विवर्णान्यपीत्यादि सुगमं, नवरं तेषामनन्तप्रदेशिकानां स्कन्धानामेकवर्णत्वं द्विवर्णत्वमित्यादि व्यवहारनयमतापेक्षया, निश्चयनयमतापेक्षया खनन्तप्रादेशिक स्कन्धोऽल्पीयानपि पञ्चवर्ण एव प्रतिपत्तव्यः, 'विहाणमग्गणं पदुमेत्यादि यावद् [विधानं - विशेषः, ] विविक्तम्- इतरव्यवच्छिन्नं धानं पोषणं स्वरूपस्य यत्तत्प्रतीत्य सामान्यचिन्तामाश्रित्येति शेषः कृष्णो नील इत्यादि प्रति For P&Praise Cly ~48~ १ प्रतिपत्ती सूक्ष्मपृथ्वीकायाः सू० १३ ॥ १९ ॥ my w Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१३] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः नियतो वर्णविशेष इतियावत् तस्य मार्गणं तत्प्रतीत्य कालवर्णान्यप्याहारयन्तीत्यादि सुगमं, नवरमेतदपि व्यवहारतः प्रतिपत्तव्यं, नि| श्रयतः पुनरवश्यं तानि पञ्चवर्णान्येव || 'जाई वण्णतो कालवण्णाई' इत्यादि सुगमं यावदनन्तगुणसुकिलाईपि आहारयन्ति एवं गन्धरसस्पर्शविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि || 'जाई भंते! अनंतगुणलुक्खाई' इत्यादि, यानि भदन्त ! अनन्तगुणरूक्षाणि, उपलक्षणमेतत्-एकगुणकालादीन्यप्याहारयन्ति तानि स्पृष्टानि - आल प्रदेश स्पर्शविषयाण्याहारयन्ति उतास्पृष्टानि ?, भगवानाह स्पृष्टानि नो अस्पृष्टानि, तत्रालप्रदेशैः संस्पर्शनमात्मप्रदेशावगाढक्षेत्राहिरपि संभवति ततः प्रनयति- 'जाई भंते इत्यादि, यानि भदन्त ! स्पृष्टान्याहारयन्ति तानि किमवगाढानि - आत्मप्रदेशैः सहैकक्षेत्रावस्थायीनि उतानवगाढानि - आत्मप्रदेशावगाहक्षेत्राद्वहिरवस्थतानि ?, भगवानाह - गौतम ! अवगाढान्याहारयन्ति नानवगाढानि । यानि भवन्त ! अवगाढान्याहारयन्ति तानि किमनन्तरावगाढानि ?, किमुक्तं भवति ? - वेष्वासप्रदेशेषु वान्यव्यवधानेनावगाढानि तैरात्मप्रदेशैस्तान्येवाहारयन्ति उत परम्परावगाडानि - एकद्वित्रायासप्रदेशै व्यवहितानि ?, भगवानाह - गौतम ! अनन्तरावगाढानि न परम्परावगाढानि । यानि भदन्त ! अनन्तरावगाढान्याहारयन्ति तानि भदन्त ! अनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि किमणूनि-लोकान्याहारयन्ति उत बादराणि प्रभूतप्रदेशोपचितानि ?, भगवानाह - अणून्यप्याहारयन्ति बादराण्यध्याहारयन्ति इहाणुत्ववादरले तेषामेवाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकत्वबाहुल्यापेक्षया प्रज्ञापनामूलटीका| कारेणापि व्याख्याते इत्यस्माभिरपि तथैवाभिहिते । यानि भदन्त ! अणून्यपि आहारयन्ति तानि किमूर्ध्वप्रदेशस्थितान्याहारयन्ति अधस्तिर्यग्वा ?, इहोोधस्तिर्यक्त्वं यावति क्षेत्रे सूक्ष्मपृथिवीकायिकोऽवगाढस्तावत्येव क्षेत्रे तदपेक्षया परिभावनीयं भगवानाह - ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति ऊर्ध्वप्रदेशावगाढान्यप्याहारयन्ति एवमधोऽपि तिर्यगपि । यानि भदन्त ! ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति अधोऽप्याहारयन्ति तिर्य For P&Praise Cnly ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २० ॥ | गप्याहारयन्ति तानि किमादाबाहारयन्ति मध्ये आहारयन्ति पर्यवसाने आहारयन्ति १, अयमत्राभिप्रायः - सूक्ष्मपृथिवीकायिका हानन्तप्रादेशिकानि द्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त्तं कालं यावदुपभोगोचितानि गृह्णन्ति, ततः संशयः किमुपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहूर्त प्रमाणस्यादीप्रथमसमये आहारयन्ति उत मध्ये-मध्यसमयेषु आहोश्वित् पर्यवसाने - पर्यवसानसमये ?, भगवानाह - गौतम! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति, किमुक्तं भवति ? - उपभोगोचित कालस्यान्तर्मुहूर्त्त प्रमाणस्यादिमध्यावसानसमयेऽप्याहारयन्तीति । यानि भदन्त ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किं स्वविषयानि - स्वोचिताहारयोग्यान्याहारयन्ति उताविषयानि खोचिता- ४ हारायोग्यान्याहारयन्ति ?, भगवानाह - गौतम! स्वविषयाण्याहारयन्ति नो अविषयाणि । यानि भदन्त ! स्वविषयाण्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमानुपूर्व्याऽऽहारयन्ति अनानुपूर्व्या ?, आनुपूर्वी नाम यथाऽऽसनं तद्विपरीताऽनानुपूर्वी, भगवानाह - गौतम! आनुपूर्व्या, सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे वेदितव्या प्राकृतत्वात् यथाऽऽचाराङ्के "अगणि पुट्ठा" इत्यत्र, आहारयन्ति, नो अनानुपूर्व्या ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्या, यथाssसनं नातिक्रम्याहारयन्तीति भावः । यानि भदन्त ! आनुपूर्व्याऽऽहारयन्ति तानि भदन्त ! किं 'तिदिसं ति तिस्रो दिशः समा | हतास्त्रिदिक् तस्मिन् व्यवस्थितान्याहारयन्ति चतुर्दिशि पश्चदिशि दिशि वा, इह लोकनिष्कुटपर्यन्ते जधन्यपदेऽपि [-जीवावगाहक्षेत्रं-] त्रिदिग्व्यवस्थितमेव प्राप्यते न द्विदिग्व्यवस्थितमेकदिग्व्यवस्थितं वा अतस्त्रिदिश्यारभ्य प्रभः कृतः, भगवानाह - गौतम! 'निव्वाघापूर्ण छद्दिसि'मित्यादि, व्याघातो नामालोकाकाशेन प्रतिस्खलनं व्याघातस्याभावो निर्व्यापातं 'शब्दप्रधादावव्ययं पूर्वपदार्थे नित्यमव्ययीभाव' इत्यव्ययीभावः 'तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पेनाम्भावविधानात् पक्षेऽत्राम्भावः, नियमाद्- अवश्यतया पदिशि व्यवस्थितानि, षड्भ्यो दिग्भ्य आगवानीति भावः, द्रव्याण्याहारयन्ति, व्याघातं पुनः प्रतीय लोकनिष्कुटादौ स्यात्कदाचित्रिदिशि-तिसृभ्यो दिग्भ्य For P&Praise Cly ~50~ १ प्रतिपत्तौ सूक्ष्मट७ वीकायाः सू० १३ ॥ २० ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [१], • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Jar in आगतानि, कदाचित् चतसृभ्यः कदाचित्पच्चभ्यः काऽत्र भावना ? इति चेदुच्यते-इह लोक निष्कुटे पर्यन्तेऽधस्त्यप्रतराग्नेयकोणावस्थितो यदा सूक्ष्मपृथिवीकायिको वर्त्तते तदा तस्याधस्ताद्लोकेन व्याप्तत्वात् अधोदिक्पुद्गलाभाव: आग्नेयकोणावस्थितत्वात् पूर्वदिकपुद्गलाभावो दक्षिणदिकुपुद्गलाभावश्च, एवमघः पूर्वदक्षिणरूपाणां तिसृणां दिशामलोकेन व्यापनात् ता अपास्य या परिशिष्टा ऊर्ध्वाऽपरोत्तरा च दिगव्याहता वर्त्तते तत आगतान् पुद्रढानाहारयन्ति यदा पुनः स एव पृथिवीकायिकः पश्चिमां दिशमनुसृत्य वर्त्तते तदा पूर्वी दिग भ्यधिका जाता, द्वे च दिशौ दक्षिणाधस्त्यरूपे अलोकेन व्याहते इवि स चतुर्दिगागतान् पुद्गलानाहारयति यदा पुनरुर्ध्वं द्वितीयादिप्रतरगतपश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति तदाऽवस्त्यापि दिगभ्यधिका उभ्यते, केवला दक्षिणैवैका पर्यन्तवर्त्तिनी अलोफेन व्याहतेति पवदिगागतान् पुलानाहारयति । 'वण्णतो' इत्यादि वर्णतः कालनीललोहितहारिद्रशुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि वा, रसतस्तिकानि यावन्मधुराणि स्पर्शतः कर्कशानि यावद्र्क्षाणि तथा तेषामाहार्यमाणानां पुगलानां 'पुराणान्' अप्रेतनान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् 'विपरिणामइत्ता परिपालइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसत्ता' एतानि चत्वार्यपि पदान्येकार्थिकानि विनाशार्थप्रतिपादकानि नानादेशज विनेयानुग्रहार्थमुपात्तानि, विनाशः किमित्याह-अन्यान् अपूर्वान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् उत्पाद्यात्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुत्रवान् 'सव्यप्पणयाए' सर्वाअना - सर्वैरेवासप्रदेशेराहारमाहाररूपान् पुद्गलानाहारयन्ति || गतमाहारद्वारं, साम्प्रतमुपपात द्वारमाह - 'ते णं भंते' इत्यादि, ते मदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः 'कुतः' केभ्यो जीवेभ्य उद्धृत्योत्पद्यन्ते १, किं नैरविकेभ्यः ? इत्यादि प्रतीतं, भगवानाह - गौतम! नो नैरविक्रेभ्य इत्यादि पाठसिद्धं नवरं देवनैरविकेभ्य उत्पादप्रतिपेधो देवनैरविकाणां तथाभवस्वभावतया तन्मध्ये उत्पादासम्भवात्, 'जहा वर्कतीए' इति, यथा प्रज्ञापनायां व्युत्कान्तिपदे तथा Fir P&Praise City ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवा- वक्तव्यं, तथैवम्-तिर्यग्योनेभ्योऽप्युत्पादः पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्तभ्यो वा केवलमसमातवर्षायुष्कबर्जितेभ्यः, मनुष्येभ्योऽप्यकर्मभूमिजान्तर- १ प्रतिपत्ती जीवाभि र द्वीपजाससातवर्षायुष्ककर्मभूमिजव्यतिरिक्तेभ्यः पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्तेभ्यो वेति ।। गतमुपपातद्वारमधुना स्थितिद्वारमाह-'तेसि णं भंते ! सूक्ष्ममलयगि- IN इत्यादि सुगम, नवरं जघन्यपदादुस्कृष्टपदमधिकमवसेवम् ।। गतं स्थितिद्वारमधुना समुद्घातमधिकृत्य मरणं विचिन्तयिषुरिदमाह-' ते वीकायाः रीयावृत्तिःणं भंते जीवा' इत्यादि सुगमम् , उभयथाऽपि मरणसम्भवात् ।। च्यवनद्वारमाह-'ते णं भंते जीवा' इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपूथ्वीका-15 सू०१३ गायिका भदन्त ! जीवा अनन्तरमुत्य सूक्ष्मपृथिवीकायिकभवादानन्तर्वेणोद्धृत्येति भावः क गच्छन्ति ?-कोरपद्यन्ते ?, एतेनासनो ॥२१॥ गमनधर्मकता पर्यायान्तरमधिकृत्योत्पत्तिधर्मकता च प्रतिपादिता, तेन ये सर्वगतमनुत्पत्तिधर्मकं चालानं प्रतिपन्नास्ते निरस्ता द्रष्टव्यात, सथारूपे सत्यात्मनि यथोक्तप्रभार्थासम्भवात्, कि नेरइएसु गच्छन्ति'? इत्यादि सुप्रतीतं, भगवानाह-'नो नेरइएम् गच्छन्ति। इत्यादि पाठसिद्धं 'जहा वकंतीए' इति, यथा प्रज्ञापनायां व्युत्कान्तिपदे च्यवनमुक्तं तथाऽऽत्रापि वक्तव्यं, तधोत्पादवदू भावनीयमिति ।। गतं च्यवनद्वारमधुना गयागतिद्वारमाह-'ते णं भंते जीवा' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवाः 'कतिगतिकाः? कति गतयो येषां । ते कतिगतिकाः, 'कत्यागतिकाः कतिभ्यो गतिभ्य आगतिर्वेषां ते कत्यागतिकाः, भगवानाह-गौतम! यागतिका नरकगतेदेवगतेश्च सूक्ष्मपुत्पादाभावात् , द्विगतिका नरकगतौ देवगतौ च तत उत्तानामुत्पादाभावात् , 'परीत्ता' प्रत्येकशरीरिणः, असल्येया असोय लोकाकाशप्रदेशप्रमाणखात् प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकद्भिः, अनेन सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनतामाह, हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! 151'से सुहुमपुढविकाइया' त एते सूक्ष्मपृथिवीकायिका उक्ताः । उक्ताः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, अधुना बादरपृथिवीकायिकान- ॥२१॥ भिधित्सुराह अनुक्रम [१४] ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] से किं तं वायरपुढविकाइया ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सण्हवायरपुढषिकाइया य खरवायर पुढविक्काइया य (सू०१४॥ 'से किं तमित्यादि, अथ के ते बादरपृथिवीकायिका: १, सूरिराह-वादरपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-लक्ष्णचादरपू-| थिवीकायिकान खरबादरपृथिवीकायिकाश्च-लक्ष्णा नाम चूर्णितलोष्ट कल्पा मृदुपृथवी तदात्मका जीवा अप्युपचारत: लक्ष्णाः ते च ते वादरपृथिवीकाविकाश लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, अथवा लक्ष्णा चासौ बादरपृथिवी च सा काय:-शरीरं येषां तेलक्षणवादरपृथ्वीकायाः त एवं स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानात् लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, खरा नाम पृथिवी सङ्घातविशेष काठिन्यविशेष बाऽऽपन्ना तदासका जीवा अपि खरा: ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च खरबादरपृथिवीकायिकाः, अथवा पूर्ववत्प्रकारान्तरेण स-1 मासः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ ॥ से किं तं सहवायरपुढविक्काइया ?, २ सत्तविहा पण्णत्ता, तंजहा-कण्हमत्तिया, भेओ जहा पषणवणाए जाव ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य । तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीरमा पपणत्ता ? गोयमा ! तओ सरीरगा पं०, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, तं चेव सव्वं नवरं चत्तारि लेसाओ, अवसेसं जहा सुहमपुढविकाइयाणं आहारो जाव णियमा छरिसि, उववातो तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेहितो, देवहिं जाव सोधम्मेसाणेहितो, ठिती जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई । ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमु RSSCRECR- 53 अनुक्रम [१५] ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१६] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१५] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २२ ॥ verer किं समोहया मरंति असमोहता मरंति ?, गोयमा ! समोहतावि मरंति असमोहतावि मरंति । ते णं भंते! जीवा अनंतरं उब्वहित्ता कहिं गच्छति ? कहिं उववजंति ? - किं नेरइएस उवव ंति १०, पुच्छा, नो नेरइएस उववज्रंति तिरिक्खजोणिएस उववज्जति मणुस्सेसु उ० नो देवेस उव०, तं चैव जाव असंखेज्जवासाउवज्जेहिं । ते णं भंते! जीवा कतिगतिया कति आगतिया पणती ?, गोयमा ! दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेज्जा य समणाउसो !, से तं वायरपुढविकाइया । सेतं पुढविकाइया ॥ ( सू० १५ ) 'से किं त' मिलादि, अथ के ते क्षणवादरपृथिवीकायिका: १, सूरिराह-लक्ष्णचादरपृथिवीकायिकाः सप्तविधा: प्रचप्ताः, तदेव सप्तविधत्वं दर्शयन्ति तद्यथा कृष्णमृत्तिका इत्यादि 'भेदो भाणियध्वो जहा पण्णवणाए जाव तत्थ नियमा असंखिज्जा' इति, भेदो बा दरपृथिवीकायिकानां द्विविधानामपि तथा भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां स च तावद् यावत् "तरथ नियमा असंखेज्जा" इति पदं, स |चैवम् — किण्हमत्तिया नीलमत्तिया लोहियमत्तिया हालिद्दमत्तिया सुकिलमतिया पंडुमत्तिया पणगमचिया, सेचं सण्वायरपुढवि काइया । से किं तं खरबायरपुढविकाइया ?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजद्दा पुढवी य सकरा वालुवा य उबले सिला य लोणूसे तंबा य तय सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥ १ ॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण पवाले । अब्भपडलम्भवालय वायरकाये मणिविहाणा || २ || गोमेजए य रुपए अंके फलिछे य लोहियक्खे य । मरगयमसारगडे भुयमोयगईदनीले य || ३ || चंदणगेरुयहंसे पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे । चंदप्पभवेरुलिए जलकंते सूरकंते य ॥ ४ ॥ जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासतो दुबिहा For P&Praise City ~ 54~ १ प्रतिपत्तौ श्लक्ष्णखर बादरपृथ्वीकायौ सू० १४ १५ ॥ २२ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१६] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१५] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पण्णत्ता, तंजहा- पज्जत्तना य अपजत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपन्ना, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एएसिणं वण्णादेसेणं गंधासेणं रसाएसेणं फासाएसेणं सहस्रसम्गसो विहाणारं संखिजाई जोणिप्पमुहसय सहस्साई पत्तगनिस्साए अपजत्तगा वक्कमंति जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्जा" इति अस्य व्याख्या कृष्णमृत्तिका कृष्णमृत्तिकारूपा, एवं नीललोहितहारिद्रशुकुभेदा अपि वाच्या:, पाण्डुमृत्तिका नाम देशविशेषे या धूलीरूपा सती पाण्डू इति प्रसिद्धा तदालका जीवा अप्यभेदोपचारात्पाण्डुमृत्तिकेत्युक्ताः, 'पणगमत्तिया' इति नयादिपूरलाविते देशे नयादि पूरेऽपगते यो भूमौ लक्ष्णमृदुरूप जलमलोऽपरपर्यायपङ्कः स पनकमृत्तिका त | दामका जीवा अध्यभेदोपचारात्पनकमृत्तिकाः, सेत्तमित्यादिनिगमनं सुगमम् ॥ 'से किं तमित्यादि ॥ अथ के ते खरचादर पृथिवीकायिका: ?, सूरिराह - खरबादरपृथिवीका विका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, चत्वारिंशद्भेदा मुख्यतः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः तानेव चत्वारिंशद्भेदानाह, तंजहा - 'पुढवी 'त्यादिगाथाचतुष्टयम् । पृथिवीति 'भामा सत्यभामावत्' शुद्धपृथिवी नदीतटमित्यादिरूपा १, चशब्द उचरापेक्षया समुच्चये, शर्करा - लघूपल कलरूपा २, बालुका - सिकता ३, उपलः - टङ्काद्युपकरणपरिकर्मणायोग्यः पाषाणः ४, शिलाघटनयोग्या देवकुलपीठाद्युपयोगी महान पाषाणविशेषः ५, लवणं-सामुद्रादि ६, ऊपो यद्वशादूषरं क्षेत्रम् ७, अवस्ताम्रत्रपुसीसकरूप्यसुवर्णानि - प्रतीतानि १३, वज्रो-हीरकः १४, हरिताहिकुलमनःशिलाः प्रतीताः १७, सासगं पारदः १८, अञ्जनं सौवीराअनादि १९, प्रवालं विद्रुमः २०, अभ्रपटलं - प्रसिद्धम् २१, अभ्रवालुका - अभ्रपटलमिश्रा बालुका २२, 'वायरकाए' इति बादरपृथिवीकायेऽमी भेदा इति शेषः, 'मणिविहाणा' इति चशब्दस्य गम्यमानत्वात् मणिविधानानि च मणिभेदाच बादरपृथिवी काय भेदवेन ज्ञातव्याः, तान्येव मणिविधानानि दर्शयति- 'गोमेजए य' इत्यादि, गोमेज्जकः २३, 'चः' समुचये, रुचकः २४ अङ्क: २५ For P&Pernalise Caly ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- स्फटिकः २६ 'चः' पूर्ववत्, लोहिताक्षः २७ मरकत: २८ मसारगल्लः २९ भुजमोचक: ३० इन्द्रनीलश्च ३१ चन्दन(:) ३२ गैरिकः प्रतिपत्ती जीवाभि०३३ हंसगर्भ: ३४ पुलकः ३५ सौगन्धिकश्व ३६ चन्द्रप्रभः ३७ वैडूर्यः ३८ जलकान्त: ३९ सूर्यकान्तश्च ४०, तदेवमायया गा- वादरपृमलयगि- थया पृथिव्यादयश्चतुर्दश भेदा उक्ता: द्वितीयगाथयाऽष्टौ हरितालादयः तृतीयगाथया गोमेजकादयो दश तुर्यगाथयाऽष्टाविति, स- वीकायाः रीयावृत्तिः सङ्ख्या चत्वारिंशत् , 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा मणिभेदा:-पद्मरागादयस्तेऽपि खरवादरपृथिवीका-18 | सू०१५ ॥२३॥ विकलेन वेदितव्याः । ते समासतो' इत्यादि, ते बादरपृथिवीकायिकाः 'समासतः" सङ्केपेण द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाश, तत्र येऽपर्याप्तकाते स्खयोग्या: पर्याप्तीः साकस्येनासंप्राप्ताः अथवाऽसंप्राप्ता इति विशिष्टान् वर्णादीननुपगताः, तथाहि 31-वर्णादिभेदविवक्षायामेते न शक्यन्ते कृष्णादिना भेदेन व्यपदेष्टु, किं कारणमिति-चे, उच्यते, इह शरीरादिपर्याप्तिषु परिपूर्णासु सतीषु बादराणां वर्णादिभेदः संप्रकटो भवति नापरिपूर्णासु, ते चापर्याप्सा उल्लासपर्याप्त्या अपर्याप्ता एव नियन्ते, ततो न स्पष्टो ब दिविभाग इत्यसंप्राप्ता इत्युक्तम् , अन्ये तु व्याचक्षते-सामान्यतो वर्णादीनसंप्राप्ता इति, तश्च न युक्तं, यतः शरीरमात्रभाविनो वर्णादयः, शरीरं च शरीरपर्यास्या संजातमिति । 'तत्थ णमित्यादि, तत्र येते पर्याप्तका:-परिसमाप्तसमस्तस्सयोग्यपर्याप्तयसे वर्णादेशेन-वर्णभेदविवक्षया एवं गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन सहस्रायश:-सहस्रसङ्घषया विधानानि-भेदाः, तद्यथा-वर्णाः कृष्णादिभेदारपञ्च गन्धौ सुरभीतरभेवाही रसास्तिक्तादयः पञ्च स्पर्शा मृदुकर्कशादयोऽष्टी, एकैकस्मिन वर्णादौ तारतम्यभेदेनाने केऽवान्तरभेदाः, तथाहि-भ्रमरकोकिलकजलादिपु तरतमभावात् कृष्णः कृष्णतर: कृष्णतम इत्यादिरूपतयाऽनेके कृष्णभेदाः, एवं नील दिष्वप्यायोज्यं, तथा गन्धरसस्पर्शेष्वपि, तथा परस्परं वर्णानां संयोगतो धूसरकवुरलादयोऽनेकसचयाभेदाः, एवं गन्धादीनामपि परस्परं गन्धादिभिः | [१६] CACANCES 4 ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१६] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [१५] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Ehem समायोगात्, ततो भवन्ति वर्णायादेशः सहस्रामशो भेदाः, 'संसिनाई जोणिप्पमुहसय सहस्साई ति समेयानि योनिप्रमुखाणि योनिद्वाराणि शतसहस्राणि, तथाहि एकैकस्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्शे च संवृता योनिः पृथिवीकायिकानां सा पुनस्त्रिधा - सचिताऽचित्ता मिश्रा च पुनरेकैका त्रिधा - शीता उष्णा शीतोष्णा, शीतादीनामपि प्रत्येकं तारतम्यभेदादनेकभेदत्वं केवलमेकविशिष्टवर्णादियुक्ताः सयातीता अपि स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनिजातिमधिकृत्यैकैव योनिर्गण्यते, ततः सङ्ख्येयानि पृथ्वीकायिकानां योनिशतसहस्राणि भवन्ति तानि च सूक्ष्मबादरगतसर्वसाया सप्त, 'पज्जत्तगनिस्साए' इत्यादि, पर्याप्तकनिश्रयाऽपर्याप्तका व्युत्क्रामन्तिउत्पद्यन्ते कियन्तः ? इत्याह-यत्रैकः पर्याप्तकस्तत्र नियमात्तनिश्रया असज्ञेया:- सङ्ख्यातीता अपर्याप्तकाः । 'एएसि णं भंते! जीवाण| मित्यादिना शरीरावगाहनादिद्वारकलापचिन्तां करोति सा च पूर्ववत्, तथा चाह' एवं जो चेत्र सुहुमपुढविकाइयाणं गमो सो चैव भाणियव्वो इति, 'नवर' मित्यादि, नवरमिदं नानात्वं लेश्याद्वारे चतलो लेश्या वक्तव्याः, तेजोलेश्याया अपि सम्भवात्, तथाहि -व्यन्तरादय ईशानान्ता देवा भवनविमानादावति मूर्च्छयाऽऽलीयरत्नकुण्डलादावप्युत्पद्यन्ते, ते च तेजोलेश्यावन्तोऽपि भवन्ति, यहेश्यश्च म्रियते अग्रेऽपि तद्धेश्य एवोपजायते "जोसे मरह तलेसे उबवजह" इति वचनात् ततः कियत्कालमपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्यावन्तोऽप्यवाप्यन्ते इति चतस्रो वक्तव्याः, आहारो नियनात् षदिशि, बादराणां लोकमध्य एवोपपातभावात् उपपातो देवेभ्योऽपि यादरेषु तदुत्पादविधानात् स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि देवेभ्योऽप्युत्पादात् ज्यागतयो द्विगतयः पूर्ववत् एतेऽपि च 'परीक्षा' प्रत्येकशरीरिणोऽसङ्ख्याः प्रज्ञप्ताः हे भ्रमण ! हे आयुष्मन् !, 'सेरा' मित्याद्युपसंहारवाक्यम् ॥ उक्ताः पृथ्वीकायिकाः, अधुनाऽकायिकानभिधित्सुरिदमाह– For P&Praise Cly ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती | सूक्ष्मबादराष्का ययोः सू०१६१७ श्रीजीवा- से किं तं आउक्काइया ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-मुहुमाउकाइया य बायराउकाइया य, जीवाभिः मुहुमआऊ. दुविहा पपणत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य ।तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरी रया पण्णत्ता ?, गोयमा! तओ सरीरया पण्णता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, जहेच सुहुमपुढविकाइयाणं, णवरं थिबुगसंठिता पण्णत्ता, सेसं तं चेव जाच दगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेजा पण्णता । से तं सुहुमआउकाइया ।। (सू०१६) ॥२४॥ अथ के तेऽपकायिका:१, सूरिराह-अपकायिका द्विविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्माप्कायिकाश्च बादराप्कायिकाच, तत्र सूक्ष्माः सर्वलोतिकव्यापिनो बादरा घनोदध्यादिभाविनः, चशब्दो खगतानेकभेदसूचकौ। 'से किं तं सुहमआउकाइया?" इत्यादि सूक्ष्मपृथिवीकायिकवनिरवशेष भावनीय, नवरमिदं संस्थानद्वारे नानालं, तदेवोपदर्शयति-ते सिणं भंते! जीवाणं सरीरया किं संठिया? इत्यादि पाठसिद्धम्।। से किं तं बायरआउक्काइया?,२ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-ओसा हिमे जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, तं चेव सव्वं णवरं थिबुगसंठिता, चत्तारि लेसाओ, आहारो नियमा छद्दिसिं, उववातो तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेहि, ठिती जहमेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसं सत्तवाससहस्साई, सेसं तं चेव जहा वायरपुतविकाइया जाव दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेजा पन्नत्ता समणाउसो!, सेत्तं वायरआऊ, सेतं आउकाइया । (सू०१७॥) XACHES RSSCRICA ASEA5%82%E3% अनुक्रम [१७] Mil॥२४॥ अथ अप्कायिकानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- - प्रत सूत्रांक [१७]] 15%2525-4552 - 'से किं तमित्यादि, अथ के ते बादराकायिका: ?, सूरिराह-बाराकायिका अनेकविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-"ओसा हिमे महिया जाव तत्थ नियमा असंखेजा" इति, यावरकरणादेवं परिपूर्णपाठो द्रष्टव्यः-"करगे हरतणू सुखोदए सीओदए खट्टोदए खारोदए | अंबिलोदए लवणोदए वरुणोदए खीरोदए खोओदए रसोदए जे यावन्ने तहप्पगारा, वे समासतो दुविहा पण्णत्ता, संजहा-पञ्चत्तगा य अपजत्तगा थ, तत्थ णं जे ते अपजतगा एएसिणं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसाएसेणं फासापसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिजाई || जोणिप्पमुह्सयसहस्साई पजत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा” इति, अस्य व्याख्या-अवश्याय:ब्रहः, हिमं-स्त्यानोदकं, महिका-गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्ष, करको-पनोपलः, हरतनुः यो भुवमुद्भिय गोधूमाकरतृणामादिषु बद्धो विन्दुरुपजायते, शुद्धोदकम्-अन्तरिक्षसमुद्भवं नद्यादिगतं वा, तच्च स्पर्शरसादिभेदादनेकभेदं, तदेवानेकभेदत्वं दर्शयति-शीतोदक-नदीतडागावटबापीपुष्करिण्यादिषु शीतपरिणामम् , उष्णोदकं-स्वभावत एवं कचिनिझरादावुष्णपरिणाम, क्षीरोदकम्-ईषलवणपरिणाम | यथा लाटवेशादी के चिवटेषु, खट्टोदकम्-ईषदम्लपरिणामम् , आम्लोदकम्-अतीव स्वभावत एवाम्लपरिणाम कातिकवत् , लव-17 णोदकं लवणसमुद्रे, वारुणोदकं वारुणसमुद्रे, क्षीरोदक क्षीरसमुद्रे, क्षोदोदकमिक्षुरससमुद्रे, रसोदक पुष्करवरसमुद्रादिषु, येऽपिET चान्ये तथाप्रकारा रसस्पर्शादिभेदाद् घृतोदकादयो बादराकाथिकास्ते सर्वे बादराप्कायिकतया प्रतिपत्तव्याः, 'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वत् नवरं सख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणीत्यत्रापि सप्त वेदितव्यानि । तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ सरीरगा' १ इत्यादिजी० च०५द्वारकलापचिन्तायामपि बादरपृथिवीकायिकगमोऽनुगन्तव्यो, नवरं संस्थानद्वारे शरीरकाणि स्तिबुकसंस्थानसंस्थितानि बक्तव्यानि, - अनुक्रम [१८] ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७-१८] दीप अनुक्रम [१९-२०] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ (मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [१], • उद्देशक: [ - ], मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ।। २५ ।। स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः सप्त वर्षसहस्राणि शेषं तथैव, उपसंहारमाह--- 'सेत्त' मित्यादि ॥ उक्ता अष्कायिकाः, सम्प्रति वनस्पतिकायिकानाह से किं तं वणस्सइकाइया १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा -- सुहमवणस्सइकाइया य बायरवणस्सइकाइया य ॥ (सू० १७) । से किं तं सुहुमवणस्सइकाइया १, २ दुविहा पण्णत्ता, संजहा—पज्ज ताय अपनाय तव णवरं अणित्थंत्थ (संठाण) संठिया, दुगतिया दुआगतिया अपरित्ता अनंता, अवसेसं जहा पुढविकाइयाणं, से तं सुहुमवणस्सइकाइया ॥ ( सू० १८ ) 1 अथ के ते वनस्पतिकायिका: ?, सुरिराह-वनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा— सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाच बादरवनस्पतिकायिकाच चशब्दों स्वगतानेकभेदसूचकौ ॥ 'से किं तमित्यादि, अथ के ते सूक्ष्मवनस्पतिकायिका: १, सूरिराह-सूक्ष्मवनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रशप्ताः-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, 'तेसि णं भंते! कति सरीरंगा' इत्यादिद्वारकलापचिन्तनं सूक्ष्मपृथिवीकायिकवद्भावनीयं, नवरं संस्थानद्वारे 'सरीरगा अपित्थंत्यसंठाणसंठिया पण्णत्ता' इति, इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थमनित्थंस्थम् अनियताकारमित्यर्थः तच्च तत्संस्थानं तेन संस्थितानि -अनियतसंस्थान संस्थितानि गत्यागतिद्वारसूत्रपर्यन्ते 'अपरित्ता अनंता पन्नत्ता' इति वक्तव्यम्, 'अपरीत्ता' अप्रत्येकशरीरिण: अनन्तकायिका इत्यर्थः, अत एवानन्ता: प्रज्ञप्ताः श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'सेत्त' मित्यादि उपसंहारवाक्यम् ॥ से किं तं बायरवणस्स इकाइया १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - पत्तेयसरीरवापरवणस्सतिकाइया For P&P Cy मूल-संपादने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू० १७' क्रम द्वि- वारान् मुद्रितं अथ वनस्पतिकायिकानाम् भेदाः प्ररूप्यते ~60~ १ प्रतिपत्तौ वनस्पति भेदी सू० १७ सूक्ष्मवनस्पतिः सू० १८ ॥ २५ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१९-२०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२०] गाथा: य साधारणसरीरबायरवणस्सइकाइया य॥(सू० १९) । से किं तं पत्तेयसरीरयादरवणस्सतिकाइया?, २ दुवालसविहा पपणत्ता, तंजहा-रुक्खा गुच्छा गुम्मा लता य वल्ली य पब्वगा चेव । तणवलयहरितओसहिजलरुहकुहणा य बोद्धब्वा ॥१॥से किं तं रुक्खा, २ विहा पण्णत्ता, तंजहा-एगडिया य बहुबीया यासे किं तं एगडिया?,२ अणेगविहा पण्णता, तंजहा-निबंधजंबुजाव पुण्णागणागरुक्खे सीवपिण तथा असोगे य, जे यावण्णे तहप्पगारा, एतेसिणं मूलावि असंखेजजीविया, एवं कंदा खंधा तया साला पवाला पत्ता पत्तेयजीवा पुप्फाई अणेगजीवाई फला एगडिया, सेत्तं एगढिया। से किं तं बहुबीया ?, २ अणेगविधा पपणत्ता, तंजहा-अत्थियतेंदुयउंघरकविढे आमलकफणसदाडिमणग्गोधकाउंबरीयतिलयलज्यलोद्धे धचे, जे याचपणे तहप्पगारा, एतेसिणं मूलावि असंखेजजीविया जाव फला बहुबीयगा, सेत्तं बहुयीयगा, सेतं रुक्खा, एवं जहा पण्णवणाए तहा भाणियब्ब, जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं कुहणा-नाणाविधसंठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता । खंधोवि एगजीवो तालसरलनालिएरीणं ॥१॥ 'जह सगलसरिसवाणं पत्तेयसरीराण' गाहा ॥२॥'जह वा तिलसकुलिया' गाहा ॥ ३ ॥ सेतं पसेयसरीरवायरवणस्सइकाइया ।। (सू०२०) 'से कि तमित्यादि, अथ के ते बादरवनस्पतिकायिका: १, सूरिराह-बादरवनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रत्येक दीप अनुक्रम [२१-२८] JaEcuamala Scा ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं [१९-२०] +गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२०]] गाथा: श्रीजीवा शरीरबादरवनस्पतिकायिकाश्व साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिकाश्च, चशब्दौ पूर्ववत् ॥ 'से किं तमित्यादि, अथ के ते प्रत्येक- प्रतिपनी जीवाभि शरीरबादरवनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह-प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिका द्वादशविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-रुक्खा इत्यादि, वृक्षा:-IATION मलयगि- चूतादयः गुच्छा-वृन्ताकीप्रभृतयः गुल्मानि-नयमालिकाप्रभृतीनि लता:-पम्पकलतादयः, इह येषां स्कन्धप्रदेशे विवक्षितोज़शा- स्पतिभेटी रीयावृत्तिः दिखाव्यतिरेकेणान्यत् शाखान्तरं तथाविधं परिस्थूरं न निर्गच्छति ते लता इति व्यवह्नियन्ते, ते च चम्पकाद्य इति, वयः कूष्मा- स०१९ ण्डीत्रपुषीप्रभृतयः पर्वगा-इक्ष्वादयः तृणानि-कुशजु जकार्जुनादीनि वलयानि-केतकीकदल्यादीनि तेषां हि त्वग् वलयाकारेण प्रत्येकान॥२६॥ व्यवस्थितेति हरितानि-तन्दुलीयकवस्तुलप्रभूनीनि औषधयः-फल पाकान्ता: ताश्च शास्यादयः जले रहन्तीति जलरुहा:-उदका- पतिः वकपनकादयः कुहणा-भूमिस्फोटाभिधानास्ते चायकायप्रभृतयः, एवं भेदो भाणियब्वो जहा पन्नवणाए' इत्यादि, 'एवम्' उक्तेन | प्रकारेण चादरप्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिकानां भेदो वक्तव्यो यथा प्रज्ञापनायाम, इह तु अन्धगौरवभयान लिख्यते, स च किं थाविद् वक्तव्यः ? इत्याह-जह वा तिलसकुलिया' इत्यादि, अस्थाश्व गाथाया अयं सम्यन्धः-इह यदि वृक्षादीनां मूलादयः प्रत्येकम नेकप्रत्येकशरीरजीवाधिष्ठितास्तत: कथमेकखण्डशरीराकारा उपलभ्यन्ते , तत्रेयमुत्तरगाथा-"जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्लाण ट्टिया बट्टी । पत्तेयसरीराणं तह होति सरीरसंघाया ॥ १॥" अस्या व्याख्या-यथा सकलसर्षपाणां श्लेषमित्राणां-लेषद्रव्यविमिश्रितानां वलिता वतिरेकरूपा भवति, अथ च ते सकलसर्पपाः परिपूर्णशरीराः सन्त: पृथक् पृथक् स्वस्वावगाहनयाऽवतिष्ठन्ते, Cl'तथा' अनयैवोपमया प्रत्येकशरीरिणां जीवानां शरीरसङ्घाताः पृथक्पृथक्वखावगाहना भवन्ति, इह लेषद्रव्यस्थानीय रागद्वेषो H ॥२६॥ पचितं तथाविधं स्वकर्म सकलसर्षपस्थानीयाः प्रत्येकशरीराः, सकलसर्पपाहणं वैविक्यप्रतिपत्त्या पृथक्पृथकवखावगाहप्रत्येकशरीरवै दीप अनुक्रम [२१-२८] New ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -,---------------------- मूलं [१९-२०] +गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: A प्रत सूत्रांक [१९-२०] गाथा: सावित्यप्रतिपत्त्यर्थम् , अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह-“जह वा तिलसकुलिया" इत्यादिरधिकृतगाथा, वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसूचने, यथा तिलसकलिका तिलप्रधाना पिष्टमयी अपूपिका बहुभिस्तिलैमिश्रिता सती यथा पृथक्पृथकखवावगाहतिलासिका भवति कथ-| विदेकरूपा च 'तथा' अनयैवोपमया प्रत्येकशरीरिणां जीवानां शरीरसङ्घाताः कथञ्चिदेकरूपाः पृथपथकस्वस्वावगाहनाश्च भवन्ति, दउपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि सुगमम् ॥ सम्प्रति साधारणवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया?, २ अणेगविधा पपणत्ता, तंजहा-आलुए मूलए सिंगवेर हिरिलि सिरिलि सिस्सिरिलि किट्टिया छिरिया छिरियविरालिया कण्हकदे वजकंदे सूरणकंदे खल्लडे किमिरासि भ मोत्थापिंडे हलिद्दा लोहारी णीहु[ठिहाथिभु अस्सकपणी सीहकन्नी सीउंदी मूसंढी जे यावणे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य ।तेसि भंते! जीवाणं कति सरीरगा पपणसा?, गोयमा तओ सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, तहेव जहा बायरपुढविकाइयाणं, णवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं सातिरेगजोयणसहस्सं, सरीरगा अणित्धंत्यसंठिता, ठिती जहनेणं अंतोमुहुरतं उकोसेणं दसवाससहस्साई, जाय दुगतिया तिआगतिया परित्ता अर्णता पण्णत्ता, सेत्तं वायरवणस्सइकाइया, सेत्तं थावरा ॥ (सू०२१) 'से किं त'मित्यादि, अथ के ते साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिका: १, सूरिराह-साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिका अनेक CC +C+ REAXXSSSSSSAX दीप अनुक्रम [२१-२८] + ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक:-1, ---------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] पीप श्रीजीवा- विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'आलुए' इत्यादि, एते आलुकमूलकशृङ्गबेरहिरिलिसिरिलिसिस्सिरिलिकिट्टिकाक्षीरिकाक्षीरबिडालिकाक-10 प्रतिपत्ती जीवाभि. 18ष्णकन्दवनकन्दसूरणकन्दखल्लूट( कृमिराशि )भद्रमुस्तापिण्डहरिद्रालौहीस्नुहिस्तिभुअश्वकीसिंहकर्णीसि कुंडीमुषण्डीनामानः साधारण-18 साधारणमलयगिवनस्पतिकायिकभेषाः केचिदतिप्रसिद्धत्वात्केचिद्देशविशेषारस्वयमवगन्तव्याः, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चाम्ये तथाप्रकारा: बादरवन० रीयावृत्तिः सू० २१ एवंप्रकारा अवकपनकसेवालादयस्तेऽपि साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिका: प्रतिपत्तव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि, 'ते' बादरव-| ॥२७॥ नस्पतिकायिकाः समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाच, 'जाव सिय संखेजा' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णः RAI पाठो द्रष्टव्यः-तत्थ णं जे से अपजत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पजत्तगा तेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसाएसेणं | फासाएसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिजाई जोणिप्पमुहसबसहस्साई पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ सिय| संखिजा सिय असंखेजा सिय अणंता" इति, एतत्माग्वत् , नवरं यत्रैको बादरपर्याप्तस्तत्र तन्नित्रयाउपर्याप्ताः कदाचित्सङ्ख्येयाः कदा-11 || चिदसवेयाः कदाचिदनन्ताः, प्रत्येकतरवः सोया असङ्ख्या वा, साधारणास्तु नियमादनन्ता इति भावः । 'तेसि णं भंते ! कइ-15 सरीरगा?' इत्यादिद्वारकलापचिन्तनं बादरपृथिवीकायिकवत् , नवरं संस्थानद्वारे नानासंस्थानसंस्थितानीति वक्तव्यम् । अवगाहना द्वारे 'उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्स'मिति, तच्च सातिरेकं योजनसहस्रमवगाहनामानमेकस्य जीवस्य बाह्यद्वीपेषु वल्ल्यादीनां समु8 गोतीर्थेषु च पदानालादीनां, तदधिकोच्छ्यमानानि पनानि पृथिवीकायपरिणाम इति वृद्धाः । स्थितिद्वारे उत्कर्पतो दश वर्षसहस्राणि | वक्तव्यानि, गत्याग तिसूत्रानन्तरं 'अपरीत्ता अणंता' इति वक्तव्यं, तत्र 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसहयेयाः 'अपरीत्ता' अप्रत्येकक्षरीरि अनुक्रम [२९] दादीपेष वल्ल्यादीनां समु-रा॥२७॥ ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 1 प्रत सूत्रांक % [२१] णोऽनन्ताः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं बादरवणस्सइकाइया, सेत्तं थावरा' इति सुगमम् ॥ उक्ताः स्थावराः, सम्प्रति त्रसप्रतिपादनार्थमाह। सेकिंतं तसा?,२तिविहा पपणत्ता,तंजहा-तेउकाइया वाक्काइया ओराला तसा पाणा ॥ (सू०२२)। | अथ के ते त्रसा: ?, सूरिराह-प्रसाखिविधा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तेजस्काविका वायुकायिका औदारिकत्रसाः, तत्र तेज:-अग्निः काय:-शरीरं येषां ते तेजस्कायास्त एव खार्थिकेकप्रत्ययविधानात्तेजस्कायिकाः, वायु:-पवन: स कायो येषां ते वायुकायास्त एव वायुकायिकाः, उदारा:-फारा उदारा एव औदारिकाः प्रत्यक्षत एव स्पष्टत्रसखनिबन्धनाभिसन्धिपूर्वकगतिलिङ्गतयोपलभ्यमानखात्, तत्र त्रसा द्वीन्द्रियादयः 'औदारिकत्रसा' स्थूरत्रसा इत्यर्थः । तत्र तेजस्कायिकप्रतिपादनार्थमाह से किंतं तेउकाइया ?,२दुविहा पण्णत्ता,तंजहा-मुहुमतेउकाइयायवादरतेउक्काइया य॥ (सू०२३) से किंतं सुहमतेउकाइया?,२ जहा मुहमपुढविकाइया नवरं सरीरगा सूहकलावसंठिया, एगगइया दुआगइआ परित्ता असंखेजा पण्णत्ता, सेसंतं चेव, सेत्तं सुहमतेउकाइया॥ (सू०२४) से किं ते वादरतेउकाइया ?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-इंगाले जाले मुम्मुरे जाव सूरकतमणिनिस्सिते, जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य । तेसिणं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णता?, गोयमा तओ सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, सेसं तं चेव, सरीरगा सूइकलावसंठिता, तिन्नि लेस्सा, ठिती अनुक्रम 9CM [२९] - ĐT सजीवस्य त्रिविध-भेदाः, तेउकायिक एवं वायकायिक-जिवानाम् त्रस-रूपेण प्ररुपणा अथ तेजस्कायिकानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~65~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -,----------------------मूलं [२३-२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्ती त्रसभेदाः ०२२ प्रत सूत्रांक [२३-२५] ॥२८॥ सू०२३२४-२५ दीप अनुक्रम [३१-३३] श्रीजीवा- जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उफोसेणं तिन्नि राईदियाई तिरियमणुस्सेहितो उववाओ, सेसं तं चेव एगजीवाभि० गतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, सेत्तं तेउकाइया । (सू०२५) मलयगि- अथ के ते तेजस्कायिकाः , तेजस्कायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मतेजस्कायिकाच बादरतेजस्कायिकाच, चशब्दौ पू- रीयावृत्तिःवत् ॥ अथ के ते सूक्ष्मतेजस्कायिका: ?, सूरिराह-सूक्ष्मतेजस्कायिका इत्यादि सूत्रं सर्व सूक्ष्मपृथिवीकायिकवद् वक्तव्यं, नवरं संस्थानद्वारे शरीराणि सूचीकलापसंस्थितानि वक्तव्यानि, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्धृत्य तिर्यग्गतावेवोत्पद्यन्ते, न मनुष्यगतौ, तेजोवायुलाभ्योऽनन्तरोद्धृतानां मनुष्यगतावुत्पादप्रतिषेधात् , तथा चोक्तम्-"सत्तैमिमहिनेरइया तेऊ वाऊ अर्णतरुम्वट्टा । नवि पावे माणुस्स तहेवऽसंखाउया सब्वे ॥१॥" गत्यागतिद्वारे द्वयागतयः, तिर्यग्गतेर्मनुष्यगतेश्च तेषूत्पादात्, एकगतयोऽनन्तरमुत्तानां तिर्यग्गतावेव टू गमनात्, शेषं तथैव, उपसंहारवाक्यं 'सेत्तं सुहुमतेउकाइया' ।। पादरतेजस्कायिकानाह-अथ के ते बादरतेजस्कायिका: सूरिराह-बादरतेजस्कायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--"इंगाले जाव तत्थ नियमे"त्यादि यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठः-1-11 गाले जाला मुम्मुरे अच्ची अलाए सुद्धागणी उक्का विजू असणि निग्याए संघरिससमुट्ठिए सूरकतमणिनिस्सिए, जे बावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्य गं जे ते पज्जत्तगा एएसिणं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिजाई जोणिप्पमुहस-10 यसहस्साई पजत्तगनिस्साए अपनत्तगा बकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति, अस्य व्याख्या-'अङ्गार १ सप्तमीमहीनैरयिकाः तेजो वायुः अनन्तरोवृत्ताः । नैव प्राप्नुवन्ति मानुष्यं तथैवासंख्यायुषः स ॥१॥ ॐ en ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३-२५] दीप अनुक्रम [३१-३३] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], • उद्देशक: [-], • मूलं [२३-२५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः बिगतधूमज्वालो जाज्वल्यमानः खदिरादिः, 'ज्वाला' अनलसंबद्धा दीपशिखेत्यन्ये, 'मुर्मुरः' कुम्फुकान्नौ भस्मामिश्रितोऽग्निकणरूपः 'अर्चिः' अनलाप्रतिबद्धा ज्वाला, 'अलातम्' उल्मुकं, 'शुद्धाग्निः' अयःपिण्डादौ, 'उल्का' चुडुली 'विद्युत्' प्रतीता, 'अशनि: आकाशे पतन्नप्रिमयः कणः, 'निर्घातः' वैक्रियाशनिप्रपातः 'संघर्षसमुत्थितः ' अरण्यादिकाष्ठनिर्मथनसमुत्थः, 'सूर्यकान्तम| णिनिश्रितः' सूर्यखरकिरणसंपर्के सूर्यकान्तमणेर्यः समुपजायते, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः एवंप्रका | रास्तेजस्का विकास्तेऽपि वादरतेजस्कायिकतया वेदितव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि प्राग्वत्, शरीरादिद्वारकलापचिन्ताऽपि सूक्ष्मतेजस्कायिकवत्, नवरं स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि रात्रिन्दिवानि, आहारो यथा वादरपृथ्वीकायिकानां तथा वक्तव्यः, उपसंहारमाह- 'सेतं तेडकाइया' ॥ उक्तास्तेजस्कायिकाः सम्प्रति वायुकायिकानाह— से किं तं वाकाइया १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - सुहमवाउकाइया य बादरवाङकाइया प सुहुमवाक्काया जहा तेडक्काइया णवरं सरीरा पडागसंठिता एगगतिया दुआगतिया परित्ता असंखिज्जा, सेन्तं सुहुमवाडकाइया । से किं तं बादरवाउक्काइया १, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा - पाईणवाए पडीणवाए, एवं जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - पज्जता य अपात्ता य । ते सि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा । चतारि सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए बेउच्चिए तेयए कम्मए, सरीरगा पडागसंठिता, चत्तारि समुग्धाता - वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्धाए मारणंतिय समुग्धाए वेडव्वियसमुग्धाए, अथ वायुकायिकानाम् भेदाः प्ररूप्यते For P&Pale City ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [२६] -* टीप आहारो णिवाघातेणं छद्दिसिं वाघायं पडच सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, स्व पवासासय पचादास, उ. प्रतिपत्ती पातो देवमणुयनेरइएमु णत्थि, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि वाससहस्साई, सेसं वायुकायः तं चेव एगगतिया दुआगइया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता समणाउसो, सेतं बायरवाक, सेतं सू० २६ वाउक्काइया। (सू०२६) अथ के ते वायुकायिकाः १, सूरिराह-वायुकाविका द्विविधा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मवायुकायिकाच बादरवायुकायिकाच, च-15 शब्दी प्राग्वत् , तत्र सूक्ष्मवायुकायिकाः सूक्ष्मतेजस्कायिकवद्वक्तव्याः, नवरं संस्थानद्वारे तेषां शरीराणि पताकासंस्थानसंस्थितानि | वक्तव्यानि, शेषं तथैव, बादरवायुकायिका अपि एवं चैव-सूक्ष्मतेजस्कायिकवदेव, नवरं भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स || चैवम्-"से किं तं वायरवाउकाइया ?, बायरवाउकाइया अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-पाईणवाए पडीणवाए दाहिणवाए उदीणवाए उड़वाए अहेवाए तिरियवाए विदिसिवाए बाउभामे बाउकलिया मंडलियावाए उकलियावाए गुंजावाए झंझावाए संवट्टगवाए घणवाए तणुवाए सुद्धवाए, जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासत्तो दुविहा पण्णता, तंजहा-पजत्तगा व अपजत्तगा य, तत्थ णे जे ते अपवत्तगा ते गं असंपत्ता, तत्थ जे ते पजत्तगा एएसि वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासाएसेणं सहस्सम्गसो विहाणाई सं-1 खेजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई, पञ्चत्तगनिस्साए अपजत्तगा बक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति, अस्य व्याख्या - |-पाईणवाए' इति, य: प्राच्या दिश: समागच्छति वात: स प्राचीनवातः, एवंमपाचीनो दक्षिणवात उदीचीनवातश्च वक्तव्य:,8॥२९ ऊर्ध्वमुद्रच्छन् यो वाति वातः स ऊर्बवातः, एवमधोवाततिर्यग्वातावपि परिभावनीयो, विदिग्वातो यो विदिग्भ्यो वाति, वातो अनुक्रम [३४] JatacamIKA ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [३४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], • मूलं [२६] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Ekem म:- अनवस्थितो वातः, वातोत्कलिका समुद्रस्येव वातस्योत्कलिका वातमण्डलीवात उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्र यो वातः, मण्डलिकावातो मण्डलिकाभिर्मूलत आरभ्य प्रचुरतराभिः सम्मिश्र यो वातः, गुखावतो यो गुञ्जन् शब्दं कुर्वन् वाति, झझावात: समृष्टिः, अशुभनिष्ठुर इत्यन्ये, संवर्त्तकवातस्तृणादिसंवर्त्तनस्वभाव:, घनवातो धनपरिणामो वातो रत्नप्रभापृथिव्याद्यधोवर्त्ती, तनुवातो - विरलपरिणामो घनवातस्याधः स्थायी, शुद्धवातो मन्दस्तिमितो यस्तिदृत्यादिगत इत्यन्ये, 'ते समासतो' इत्यादि प्राग्वत्, तथा | शरीरादिद्वार कलापचिन्तायां शरीरद्वारे चत्वारि शरीराणि औदारिकवैक्रियतैजसकार्मणानि चत्वारः समुद्घाताः - वैक्रियवेदनाकषायमारणान्तिकंरूपाः, स्थितिद्वारे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त वक्तव्यमुत्कर्षतस्त्रीणि वर्षसहस्राणि आहारो निर्व्यापातेन षदिशि, व्याघातं प्रतीत्य स्यात्रिदिशि स्याच्चतुर्दिशि स्यात्पञ्चदिशि, लोकनिष्कुटादावपि बादरवात कायस्य सम्भवात् शेषं सूक्ष्मवातकायवत्, उपसंहारमाह- 'सेतं वाउकाइया' इति । उक्ता बातकायिकाः, सम्प्रत्यौदारिका सानाह— से किं तं ओराला तसा पाणा १, २ चउव्विहा पण्णत्ता, तंजा - बेइंदिया तेइंद्रिया चउरिंदिया पंचेंदिया ॥ (सू० २७) अथ के वे औदारिकत्रसाः १, सूरिराह - औदारिकत्र साश्चतुर्विधाः श्रताः, तद्यथा - द्वीन्द्रियात्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः, तत्र द्वे स्पर्शनरसनरूपे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः, त्रीणि स्पर्शनरसनम्राणरूपाणि इन्द्रियाणि येषां वे त्रीन्द्रियाः, चत्वारि स्पर्शनरसनत्राणचक्षूरूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः, पञ्च स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्ररूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः ॥ तत्र द्वीन्द्रियप्रतिपादनार्थमाह- औदारिक-सजीवानाम् चतुर्विध-भेदा: For P&Praise Cly ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३६] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [२८] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३० ॥ से किं तं इंदिया १, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा - पुलाकिमिया जाव समुहलिक्खा, जे यावण्णे तपगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - पञ्जन्ता य अपलत्ता य । तेसिणं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तंजा - ओरालिए तेयए कम्मए । तेसि णं भंते! जीवाणं के महालिया सरीरओगाहणा पण्णत्ता ?, जहनेणं अंगुलासंखेज्जभागं उकोसेणं बारसजोयणाई छेवट्टसंघयणा हुंडसंठिता, चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिणि लेसाओ, दो इंदिया, तओ समुग्धाता - वेयणा कसाया मारणंतिया, नोसन्नी असनी, नपुंसक वेदगा, पंच पत्तीओ, पंच अपज्जत्तीओ, सम्मद्द्द्विीवि मिच्छदिट्ठीवि नो सम्ममिच्छदिट्ठी, णो ओहिदंसणी णो चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी नो केवलदंसणी । ते णं भंते! जीवा किं णाणी अण्णाणी, गोयमा ! णाणीवि अण्णाणीवि, जे गाणी ते नियमा दुण्णाणी, तंजहा - आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी य, जे अन्नाणी ते नियमा दुअण्णाणी-मतिअण्णाणी य सुअण्णाणी य, नो मणजोगी वहजोगी कायजोगी, सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि, आहारो नियमा छद्दिसिं, उववातो तिरियमनुस्सेसु नेरइयदेव असंखेज्जवासाज्यवज्जेसु, ठिती जहनेणं अंतोमुत्तं उकोसेणं बारस संबच्छराणि, समोहताबि मरंति असमोहतावि मरंति, कहिं For P&Praise Chly अथ द्वि-इन्द्रियजीवानाम् भेदाः प्ररुप्यते ~70~ १ प्रतिपत्ती त्रसभेदाः (सू० २७) द्वीन्द्रियाः सू० २८ ॥ ३० ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३६] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [१], • उद्देशक: [ - ], - मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० च०६ . गच्छति ?, नेरइयदेव असंखेज्जवासाउअवज्जेसु गच्छति, दुगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेजा, सेसं बेइंदिया || (सू० २८ ) 'से किं त' मित्यादि, अथ के ते द्वीन्द्रियाः ?, सूरिराह - द्वीन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - 'पुलाकिमिया जाब समुहलिक्खा' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठो द्रष्टव्यः -- "पुला किमिया कुच्छिकमिया गंडयलगा गोलोमा नेउरा सोमंगलगा वंसीमुहा सूईमुहा गोजलोया जलोया जालासा संखा संखणगा घुला खुल्ला बराडा सोत्तिया मोतिया कहुयावासा एगतोवत्ता दुहतोवत्ता नंदियावत्ता संयुक्का माइवाहा सिप्पिसपुडा चंदणा समुद्दलिक्खा इति" अस्य व्याख्या - 'पुलाकिमिया' नाम पायुप्रदेशोत्पन्नाः कृमयः 'कुक्षिक्रमयः' कुक्षिप्रदेशोत्पन्नाः 'गण्डोयलका:' प्रतीताः 'शङ्खा:' समुद्रोद्भवास्तेऽपि प्रतीताः 'शङ्खनका त एव लघव: 'घुल्ला:' बुल्लिका: 'खुल्ला:' लघवः शङ्खाः सामुद्रशङ्गाकाराः 'बराटा:' कपर्दा 'मातृवाहा: ' कोद्रवाकारतया ये कोद्रवा इति प्रतीताः 'सिप्पिसंपुढा' संपुटरूपाः शुक्तय: 'चन्दनका:' अक्षाः, शेषास्तु यथासम्प्रदायं वाच्या, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः - एवंप्रकाराः मृतककलेवरसम्भूतकृम्यादयस्ते सर्व्वे द्वीन्द्रिया ज्ञातव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि, ते द्वीन्द्रियाः 'समासतः' सङ्क्षेपेण द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा अपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च शरीरद्वारेऽमीषां त्रीणि शरीराणि औदारिकं तैजसं कार्मणं च, अवगाहना जघन्यतोऽङ्गुछासङ्ख्येयभागमात्रा उत्कृष्टा द्वादश योजनानि संहननद्वारे छेदवर्त्तिसंहननिनः, अत्र संहननं मुख्यमेव द्रष्टव्यम् अस्थिनिचयभावात्, संस्थानद्वारे हुण्डसंस्थाना, कपायद्वारे चत्वारः कपायाः सज्जाद्वारे चतस्र आहारादिका: सञ्ज्ञाः, लेश्याद्वारे आयास्तिस्रो लेश्याः, इन्द्रियद्वारे द्वे इन्द्रिये, तद्यथा-स्पर्शनं रसनं च समुद्घातद्वारे त्रयः समुदूधाताः, च For P&Pase City ~71~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप श्रीजीवा- यथा-वेदनासमुद्घातः कषायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातश्च, सज्ञाद्वारे नो सम्झिनोऽसझिनः, वेदद्वारे नपुंसकवेदाः, प्रतिपत्ती जीवाभिक संमूछिमखात्, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयः, दृष्टिद्वारे सम्यग्दृष्टयो मिध्यादृष्टयो वा, न सम्यग्मिध्यादृष्टयः, कथम् द्वीन्द्रियाः मलयगि-15 इति चेत् उच्यते, इह घण्टाया वादितावां महान् शब्द उपजायते, तत उत्तरकालं हीयमानोऽवसाने लालामात्रं भवति, एवममुना सू०२८ रीयावृत्तिः घण्टालालान्यायेन किञ्चित्सास्वादनसम्यक्त्वशेषाः केचिद् द्वीन्द्रियेषु मध्ये उत्पद्यन्ते, ततोऽपर्याप्तावस्थायां कियत्कालं सास्वादनस म्यक्त्वसम्भवात् सम्यग्दृष्टित्वं, शेषकालं मिध्यादृष्टिता, यत्तु सम्यग्मिध्यादृष्टित्वं तन्न संभवति, तथाभवखभावतया तथारूप॥३१॥ II परिणामायोगात , नापि सम्यग्मिध्यादृष्टिः सन् तत्रोत्पद्यते 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् , दर्शनद्वारं प्राग्वत् , ज्ञा नद्वारे ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि, तत्र ज्ञानिलं सास्वादनसम्यक्त्वापेक्षया, ते च ज्ञानिनो नियमाद् द्विज्ञानिनो, मतिश्रुतज्ञानमात्रभावात् , अज्ञानिनोऽपि नियमाद् द्वयज्ञानिनो, मत्यज्ञान ताज्ञानमात्रभावात् , योगद्वारे न मनोयोगिनो वाग्योगिनोऽपि काययोगिनोऽपि, उपयोगद्वार पूर्ववत् , आहारो नियमान् षड्दिशि, सनाड्या एवान्तीन्द्रियादीनां भावात् , उपपातो देवनारकासातव युष्कवर्जेभ्यः शेषतिर्यग्मनुष्येभ्यः, स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वादश वर्षाणि, समवहतद्वारं प्रागिक, व्यवनद्वारे देवना|रकासयातवर्षायुष्कवर्जितेषु शेषेषु तिर्यग्मनुष्येष्वनन्तरमुद्धृत्य गमनम् , अत एव गत्यागतिद्वारे व्यागतिका द्विगतिकाः तिर्यग्मनुष्वगत्यपेक्षया, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणः, असङ्ख्येया घनीकृतस्य लोकस्य या अर्ध्वाध आयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽसधेययोजनकोटाको-15 टीप्रमाणाकाशसूचिगतप्रदेशराशिप्रमाणा: तावत्प्रमाणत्वात् , प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं बेइंदिया। उक्ता द्वीन्द्रिया:, अधुना त्रीन्द्रियानाह कन्न E अनुक्रम [३६] ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक से किं तं तेइंदिया ?, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा-ओवइया रोहिणीया हस्थिसोंडा, जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुबिहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य, तहेव जहा बेइंदियाणं, नवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई, तिन्नि इंदिया, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगूणपण्णराइंदिया, सेसं तहेव, दुगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं तेइंदिया ॥ (सू० २९) अथ के ते त्रीन्द्रिया:?, सूरिराह-त्रीन्द्रिया अनेकविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-'भेदो जहा पण्णवणाएं' भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स चैवम्-"उवयिया रोहिणिया कुंथूपिवीलिया उद्देसगा उद्देहिया उकलिया तणहारा कद्वहारा पत्तहारा मालुया पत्तहारा तणबेंटका टू पत्तवेंटया फलवेंटया तेम्बुरुमिंजिया तउसमिजिया कप्पासद्विमिंजिया झिलिया झिंगिरा झिगिरिडा बाहुया, [पन्थानम् १०००] मुरगा सोवस्थिया सुयवेंटा इंदकाइया इंदगोवया कोत्थलबाहगा हालाहला पिसुया तसवाइया गोन्ही हथिसोंडा ॥” इति, एते च केचिदतिप्रतीताः केचिद्देशविशेषतोऽवगन्तव्याः, नवरं 'गोम्ही कण्हसियाली, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' एवंप्रकारास्ते सर्वे श्रीन्द्रिया ज्ञातव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि समस्तमपि सूत्र द्वीन्द्रियवत्परिभावनीयं, नबरमवगाहनाद्वारे उत्कर्षतोऽवगाहना त्रीणि गव्यूतानि । इन्द्रियद्वारे त्रीणि इन्द्रियाणि । थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्वमुत्कर्षत एकोनपश्चाशद् रात्रिन्दिवानि, शेषं तथैव, उपसंहारमाह-सेत्तं तेईदिया ।।' उक्तास्त्रीन्द्रियाः, सम्प्रति चतुरिन्द्रियप्रतिपादनार्थमाह से किं तं चउरिदिया ?, २ अणेगविधा पपणत्ता, तंजहा-अंधिया पुत्तिया जाव गोमयकीडा, जे अनुक्रम [३७] त्रि एवं चतुर-इन्द्रियजीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत न्द्रियाः सुत्राक [३०] श्रीजीवा- यावणे तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, तेसि णं प्रतिपत्ती जीवाभि भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता, गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ता तं चेव, णवरं सरी त्रिचतुरिमलयगि- रोगाहणा उकोसेणं चत्सारि गाउयाई, इंदिया चत्तारि, चक्खुदसणी अचक्खुदसणी, ठिती जुरीयावृत्तिः । कोसेणं छम्मासा, सेसं जहा तेइंदियार्ण जाव असंखेजा पपणत्ता, से तं चउरिदिया ॥ (सू०३०) सू० २९अथ के ते चतुरिन्द्रिया:?, सूरिराह-चतुरिन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-"अंधिया पुत्तिया मच्छिया मगसिरा 1॥३२॥ कीडा पयंगा टेंकणा कुम्हा कुकुडा नंदावत्ता झिगिरिडा किण्हपत्ता नीलपत्ता लोहियपत्ता हालिहपत्ता सुकिलपसा पित्तपक्सा विचि-पापश्चान्द्रयाः तपक्खा ओहंजलिया जलचारिया गंभीरा नीणिया तंतवा अच्छिरोडा अच्छिवेहा सारंगा नेउरा डोला भमरा भरिलि जरला विरङ्गया | सू०११ पत्तविच्छुया छाणविच्छुया जलबिच्छुया सेइंगाला कणगा गोमयकीडगा” एते लोकतः प्रत्येतन्याः, जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' एवंप्रकारास्ते सर्वे चतुरिन्द्रिया विज्ञेयाः, 'ते समासतो' इत्यादि सकलमपि सूत्र द्वीन्द्रियवदावनीयं, नवरमवगाहनाद्वारे उत्कर्षतोऽवगाहना चत्वारि गब्यूतानि । इन्द्रियद्वारे स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्लक्षणानि चलारीन्द्रियाणि । स्थितिद्वारे | उत्कर्षत: स्थितिः षण्मासा:, शेषं तथैव, उपसंहारमाह-'सेत्तं चउरिंदिया । सम्प्रति पञ्चेन्द्रियान् प्रतिषिपादयिषुराह से किं तं पंचेदिया?, २ चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-रेतिया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा ॥ (सू०३१) अथ के ते पञ्चेन्द्रियाः १, सूरिराह-पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नैरयिकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः, तत्र अयम् CASSES टीप अनुक्रम [३८] ॥३२॥ + JaEleme अथ पञ्च-इन्द्रियजीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३९] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [१], • उद्देशक: [ - ], - मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः इष्टफलं कर्म निर्गतमयं येभ्यस्ते निरया - नरकावासास्तेषु भवा नैरयिकाः, अध्यामादेराकृतिगणत्वादिकण्प्रत्ययः । तिर्यगिति प्रायस्तिर्यगलोके योनयस्तिर्यग्योनयस्तत्र जातास्तिर्यग्योनिजाः, यदिवा तिर्यग्योनिका इति शब्दसंस्कारः, तत्र तिर्यगिति प्रायस्तिर्यग्लोके योनयः - उत्पत्तिस्थानानि येषां ते तिर्यग्योनिकाः । मनुरिति मनुष्यस्य सम्झा, मनोरपत्यानि मनुष्याः, जातिशब्दोऽयं राजन्यादिशब्दवत् । दीव्यन्तीति देवाः । तत्र नैरविकप्रतिपादनार्थमाह- से किं तं नेरइया १, २ सन्तविहा पण्णत्ता, तंजहा - रयणप्पभापुढविनेरइया जाव अहे सत्तमपुढविनेरइया, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं०-पत्ता य अपजत्ता य । तेसि णं भंते । जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ सरीरया पण्णत्ता, तंजा - वेडव्विए तेयए कम्मए । तेसि णं भंते! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुविहा सरीरोगाहणा पण्णता, तंजहा-भवधारणिजा व उत्तरवेउब्विया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणेणं अंगुलस्स असंखेजो भागो उक्कोसेणं पंचधणुसयाई, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउग्विया सा जपणेणं अंगुलस्स संखेज्जतिभागं उक्कोसेणं धणुसहस्सं । तेसिणं भंते! जीवाणं सरीरा किंसंघयणी पण्णत्ता ?, गोयमा ! छण्हं संघपणाणं असंघपणी, णेवट्टी णेव छिरा णेव पहारु णेव संघयणमत्थि, जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया असुभा अमणुण्णा अमणामा ते तेर्सि संघातत्ताए परिणमति । तेसि णं भंते! जीवाणं सरीरा किंसंदिता पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुविहा अथ नैरयिक-जीवानाम् भेदाः प्ररुप्यते For P&Pase City ~75~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलय गिरीयावृत्तिः [३२] ॥३३॥ पपणत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्बिया य,तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया, . १ प्रतिपत्तौ तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया तेवि हुंडसंठिता पण्णत्ता, चत्तारि कसाया चत्तारि सण्णाओं नारकाः सू०३२ तिण्णि लेसाओ पंचेंदिया चत्तारि समुग्धाता आइल्ला, सन्नीवि असन्नीवि, नपुंसकवेदा, छप्पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, तिविधा दिट्ठी, तिन्नि दंसणा, णाणीवि अपणाणीवि, जे णाणी ते नियमा तिन्नाणी, तंजहा-आभिणियोहियणाणी सुतणाणी ओहिनाणी, जे अण्णाणी ते अत्धेगतिया दुअण्णाणी अत्थेगतिया तिअण्णाणी, जे य दुअण्णाणी ते णियमा मइअण्णाणी सुयअपणाणी य, जे तिअण्णाणी ते नियमा मतिअण्णाणी य सुयअपणाणी य विभंगणाणी घ, तिविधे जोगे, दविहे उवओगे, छहिसिं आहारो, ओसणं कारणं पडच वण्णतो कालाई जाव आहारमाहारैति, उववाओ तिरियमणुस्सेसु, ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तित्तीसं सांगरोवमाइं, दुविहा मरंति, उव्वद्दणा भाणियव्वा जतो आगता, गवरि संमुच्छिमेसु पडिसिद्धो, दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेना पण्णत्ता समणाउसो, से तं नेरइया ॥ (सू०३२) अथ के ते नैरविका: ', सूरिराह-रयिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-रत्नप्रभापूथिवीनरयिका यावत्करणात शर्कराप्रभाथियी-IXII || नरयिकाः बालुकाप्रभावृथिवीनैरयिकाः पङ्कप्रभाविवीनैरयिकाः धूमप्रभापृथिवीनैरयिका: तमःप्रभापृथिवीनैरयिका इति परिग्रहः । अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकाः, ते समासतो' इत्यादिपर्याप्तापर्याप्तसूत्र सुगमम् ॥ शरीरादिद्वारप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि णं भंते !' इत्यादि, अनुक्रम [४०] JiaticX ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] Clसुगम नवरं भवप्रत्ययादेव तेषां शरीरं वैक्रियं नौदारिकमिति बैक्रियतैजसकार्मणानि त्रीणि शरीराण्युक्तानि । अवगाहना तेषां द्विधा भवधारणीया उत्तरवैकुर्विकी च, तत्र यया भवो धार्यते सा भवधारणीया, बहुलवचनात्करणेऽनीयप्रत्ययः, अपरा भवान्तरवैरिनारक-1 प्रतिघातनार्थमुत्तरकालं या विचित्ररूपा वैक्रयिकी अवगाहना सा उत्तरवैकुर्विकी, तत्र या सा भवधारणीया सा जपन्यतोऽङ्गलासमयेयभागः, स चोपपातकाले वेदितव्यः, तथाप्रयत्नभावात् , उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतानि, इदं चोत्कर्षतः प्रमाणं सप्तमपृथिवीमधिकृत्य वेदितव्यं, प्रतिप्रथिवि तूत्कर्षतः प्रमाणं सहणिटीकातो भावनीवं, तत्र सविस्तरमुक्तत्वात् , उत्तरवैकुर्विकी जघन्यतोऽङ्गलसहयेयभागो न त्वसयेयभागः, तथाप्रयाभावात् , उत्कर्षतो धनु:सहस्रमिति, इदमप्युत्कर्षपरिमाणं सप्तमनरकपृथिवीमधिकृत्य वेदितव्यं, प्रतिपथिवि तु सङ्ग्रहणिटीकातः परिभावनीयं, संहननद्वारे 'तेसि णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! षण्णां संहनना नामन्यतमेनापि संहननेन तेषां शरीराण्यसहननानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, कस्मादसंहननानि ' इति चेद् अत आह-ने४ वट्ठी' इत्यादि, नैव तेषां शरीराणामस्थीनि, नैव शिरा-धमनिनाइयो, नापि स्नायूनि-शेषशिराः, अस्थिनिचयात्मकं च संहननमतोs& स्थ्यायभावादसंहननानि शरीराणि, इयमत्र भावना-इह तत्त्ववृत्त्या संहननमस्थिनिचयामक, यत्तु प्रागेकेन्द्रियाणां सेवार्तसंहननमभ्य धायि तदादारिकशरीरसम्बन्धमात्रमपेक्ष्यौपचारिक, देवा अपि बदन्यत्र प्रज्ञापनादौ वनसंहननिन उच्यन्ते तेऽपि गौणवृत्त्या, तथाहि-इह बादशी मनुष्यलोके चक्रवर्त्यादेविशिष्टवर्षभनाराचसंहननिनः सकलशेषमनुष्यजनासाधारणा शक्ति: "दोसोला बत्तीसा सब्वबलेणं तु संकलनिबद्ध"मित्यादिका, ततोऽधिकतरा देवानां पर्वतोत्पाटनादिविषया शक्तिः श्रूयते न च शरीरपरिक्लेश इति तेऽपि वकसंहननिन इव वनसंहननिन उक्ता न पुनः परमार्थतस्ते संहननिनः, ततो नारकाणामस्थ्यभावात्संहननाभावः, एतेन योऽपरिणतभग अनुक्रम [४०] ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: लिइति सामानारकार प्रत सूत्रांक [३२] श्रीजीवा- 1वसिद्धान्तसारो वावदूकः सिद्धान्तबाहुल्यमामनः ख्यापयन्ने प्रललाप-'सुत्ते सत्तिविसेसो संघयणमिहऽद्विनिचयो"ति, इति सोऽपा- मातपत्ता जीवाभिकीर्णो द्रष्टव्यः, साक्षादत्रैव सूत्रे अस्थिनिश्चयात्मकस्य संहननस्याभिधानात् , अध्यभावे संहननप्रतिषेधादिति । अपरस्त्वाह-नैरयिकामलयगि- णामस्थ्यभावे कथं शरीरबन्धोपपत्तिः१, नैष दोषः, तथाविधपुद्गलस्कन्धवत् शरीरबन्धोपपत्तेः, अत एवाह-'जे पोग्गला अणिहासू० ३२ रीयावृत्तिःला इत्यादि, ये पुद्गला: 'अनिष्टाः' मनस इच्छामतिक्रान्ताः, तत्र किश्चित्कमनीयमपि केषाश्चिदनिष्टं भवति तत आह-न कान्ता: अ-| कान्ता-अकमनीयाः, अत्यन्ताशुभवर्णोपेतत्वात् , अत एव न प्रियाः, दर्शनापातकालेऽपि न प्रियबुद्धिमालन्युत्पादयन्तीति भावः, ॥३४॥ 'अशुभाः' अशुभरसगन्धस्पर्शालकत्वात् , 'अमनोशा:' न मनःप्रहादहेतवो, विपाकतो. दुःखजनकलात् , अमनापा:-- जातुचिदपि भोज्यतया जन्तूनां मनास्याप्नुवन्तीति भावः, ते तेषां 'सङ्घातत्लेन' तधारूपशरीरपरिणतिभावेन परिणमन्ति । संस्थानद्वारे तेषां शरीराणि भवधारणीयानि उत्तरवैकुर्विकाणि च हुण्डसंस्थानानि वक्तव्यानि, तथाहि-भवधारणीयानि तेषां शरीराणि भवस्वभावत एवं निर्मूलबिलुप्तपक्षोत्पाटितसकलपीवादिरोमपक्षिशरीरकवदतिबीभत्सहुण्डसंस्थानोपेतानि, यान्यप्युत्तरवैक्रियाणि तानि यद्यपि शुभानि वयं विकुर्विष्याम इत्यभिसन्धिना विकुक्तुिमारभन्ते तथाऽपि तानि तेषामत्यन्ताशुभतथाविधनामफर्मोदयतोऽतीवाशुभतराण्युप-18 जायन्ते इति तान्यपि हुण्डसंस्थानानि । कषायद्वारं सज्ञाद्वारं च प्राग्वत्, लेश्याद्वारे आद्यास्तिस्रो लेश्याः, तत्राययोईयोः पृथिव्योः कापोतलेश्या, तृतीयस्यां पृथिव्यां केधुचिन्नरकावासेषु कापोतलेश्या शेषेषु नीललेश्या, चतुयो नीललेश्या, पञ्चम्यां केषुचिन्नरकावासेषु नीललेश्या, शेषेषु कृष्णलेश्या, षष्ठयां कृष्णलेश्या, सप्तम्यां परमकृष्णलेश्या, उक्तश्च व्याख्यामज्ञप्ती-काऊ य दोसु तइ-1 C ॥३४॥ १ कापोती व इयोस्तृतीयस्यां मिश्रा नीला चतुर्यो । पाम्या मिधा कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥१॥ AGRA अनुक्रम [४०] JENDER ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CSCkA [३२] याऐं मीसिया नीलिया चउत्थीए पंचमियाए । मीसा कण्हा तत्वो परमकण्हा ॥ १॥" इन्द्रियद्वारे पञ्च इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राण-- चक्षुःोत्रलक्षणानि । समुद्घातद्वारे चत्वारः समुद्घाता:-वेदनासमुद्धातः कषायसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातो मारणान्तिकसमुघातश्च । सब्जिद्वारे सब्जिानोऽसािनश्च, तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तिकेभ्य उत्पन्नास्ते सम्झिन इति व्यपदिश्यन्ते, ये तु संमृच्छंनजे-1 भ्यस्तेऽसब्ज्ञिनः, ते च रत्नप्रभायामेवोत्पद्यन्ते न परतः, अनाशयाशुभक्रियाया दारुणाया अध्यनन्तरविपाकिन्या एतावन्मात्रफलखात्, अत एवाहुर्घद्धा:-अस्सन्नी खलु पढमं दो व सिरीसवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्थि उरगा पुण पंचमि पुढवि ।।१।। छटुिं य इस्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढविं । एसो परमोगाओ योद्धब्बो नरय पुढवीसु ॥२॥" वेदद्वारे नपुंसकवेदाः । पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयः । रष्टिद्वारे त्रिविधदृष्टयोऽपि, तद्यथा-मिध्यादृष्टयः सम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयश्व, दर्शनदि द्वारे त्रीणि दर्शनानि, तयथा-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं च । ज्ञानद्वारे झानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि, तत्र ये शानिनस्ते नियमा विज्ञानिनः, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, वेऽत्राज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, एष चात्र भावार्थ:-ये नारका असञ्जिनस्तेऽपर्याप्तावस्थायां षज्ञानिन: पर्याप्तावस्थायां तु व्यज्ञानिन: सब्जिनस्तूभय्यामप्यवस्थायां दव्यज्ञानिनः, असजिभ्यो पुत्पद्यमानास्तथाबोधमान्द्यादपर्याप्तावस्थायां नाव्यक्तमप्यवधिमानुवन्तीति । योगोपयोगाहारद्वाराणि प्रतीतानि । उपपातो यथा व्युत्क्रान्तिपदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यन्मनुष्येभ्योऽसङ्ख्यातवर्षायुष्कवर्जेभ्यो वक्तव्यो, १ असंक्षिनः खल प्रथमा द्वितीयां च सरीरुपास्तृतीयां पक्षिणः । सिंहा यान्ति चतुर्थी उरगाः पुनः पञ्चमी पृथ्वीम् ॥ १॥ षष्टी व श्रियः मरस्या मनुष्याच सप्तमी पृथ्वीम् । एष परम उत्पादो बोदव्यो नरकपृथ्वीषु ॥२॥ अनुक्रम [४०] ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] दीप श्रीजीवा- SIन शेषेभ्य इति भावः । स्थितिर्जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । समुद्धातमधिकृत्य मरणचिन्ता प्राग्वत् ।।१ प्रतिपत्ती जीवाभि. उद्वर्तनाचिन्ता यथा व्युत्क्रान्तिपदे प्रज्ञापनायां कृता तथा बक्तव्या, अनन्तरमुद्धृत्य सब्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यानुष्येष्वसङ्ख्यातवर्षायुष्क- पञ्चेन्द्रियमलयगि- वर्जितेष्वागच्छन्तीति भावः, अत एव गत्यागतिद्वारे दूधागतिका द्विगतिकाः, 'परीत्ताः' प्रत्येकशीरिणोऽसयेयाः प्राप्ताः, हे श्रमण ! हे तिर्यग्भेदाः रीयावृत्तिः आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं नेरइया' । उक्ता नैरयिकाः, सम्प्रति तिर्यक्ष चेन्द्रियानाह | सू० ३३ से किं तं पंचेंदियतिरिक्खजोणिया?, २ दुविहा पण्णता, तंजहा-समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्ख जोणिया य गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य ॥ (सू०३३) 81 अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, सूरिराह-पथेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिवन्यो-| निका गर्भव्युत्क्रान्तिकपचेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, तत्र संमूर्छनं समूच्छों-गर्भोपपातव्यतिरेकेणैव यः प्राणिनामुत्पादस्तेन निर्वृत्ताः सं मूछिमाः, 'भावादिम' इति इमप्रत्ययः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्ने व्युत्क्रान्तिः-उत्प४ तिर्येषां यदिवा गर्भाद्नार्भवशाद व्युत्क्रान्ति:-निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, से च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानेति विशेषसमासः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ ॥ से किं तं समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया?.२तिविहा पपणसा, तंजहा-जलपरा धलपरा खहयरा ॥ (सू०३४)। से किं तं जलयरा ?, २ पंचविधा पपणत्ता, तंजहा-मच्छगा कच्छभा मगरा गाहा सुसुमारा । से कि तं मच्छा, एवं जहा पण्णवणाए जाव जे यावणे तहप्पगारा, अनुक्रम [४०] ACCESSAR ॥३५॥ अथ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक-जीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३४-३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: %EX % % प्रत सूत्रांक [३४-३५] % दीप ते समासतो दुविहा पपणत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपजत्ता य । तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा ! तओ सरीरया पपणत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं छेवट्ठसंघयणी हुंडसंठिता, चत्तारि कसाया, सपणाओवि ४, लेसाओ ५, इंदिया पंच, समुग्घाता तिणि णो सण्णी असण्णी, णपुंसकवेदा, पजत्तीओ अपज्जत्तीओ य पंच, दो दिडिओ, दो दसणा, दो नाणा दो अन्नाणा, दुविधे जोगे, दुविधे उवओगे, आहारो छदिसिं, उववातो तिरियमणुस्सेहिंतो नो देवेहितो नो नेरइएहितो, तिरिएहितो असंखेजवासाउवोसु, अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउअवजेसु मणुस्सेसु, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी, मारणतियसमुग्धातेणं दुबिहावि मरंति, अणंतरं उत्र्यद्वित्ता कहिं ?, नेरइएसुवि तिरिक्खजोणिएसुवि मणुस्सेसुवि देवेसुवि, नेरइएसु रयणप्पहाए, सेसेसु पडिसेधो, तिरिएसु सब्बेसु उवयजंति संखेज्जवासाउएसुवि असंखेजवासाउएसुवि चप्पएसु पक्खीसुवि मणुस्सेसु सब्बेसु कम्मभूमीसु नो अकम्मभूमीएसु अंतरदीवएसुविसंखिज्जयासाउएसवि असंखिजवासाउएमुवि देवेसु जीव वाणमंतरा, चउगइया दुआगतिया, परित्ता असंखेजा पण्णत्ता । से तं जलयरसमुच्छिमपंचेदियतिरिक्खा ।। (सू० ३५) अथ के ते संमूरिछमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: १, सूरिराह-संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानिविधाः प्रज्ञप्ताः, तयथा-जलचराः % अनुक्रम [४२-४३] PLACEXCXMAR ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [३४-३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४-३५] E % दीप अनुक्रम [४२-४३] श्रीजीवा- स्थलचराः खचराः, तत्र जले चरन्तीति जलचराः, एवं स्थलचरा खचरा अपि भावनीवाः ।। अथ के ते जलचरा:?, सूरिराह-जल- १ प्रतिपत्ती जीवाभिचराः पञ्चविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-मत्स्याः कच्छपा मकरा पाहा: शिशुमारा:, 'एवं मेओ भाणियब्यो जहा पण्णवणाए जाव सुसुमारासमच्छिममलयगि-18 | एगागारा पन्नत्ता' इति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण मत्स्यादीनां भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स च तावद् यावत् "सिसुमारासमूच्छिमरीयावृत्तिः एगागारा इतिपदं, स चैवम-से किं तं मच्छा, मच्छा अणेगविहा पण्णता, तंजहा-सहमच्छा खवलमच्छा जुगमच्छा भिभिय- जलचराः मच्छा हेलियमच्छा मंजरियामच्छा रोहियमच्छा हलीसागारा मोगरावडा वडगरा तिमीतिमिगिलामच्छा तंदुलमन्छा कणिकमाछा सु०३५ सिलेच्छियामच्छा लंभणमच्छा पडागा पडागाइपडागा, जे यावण्णे तहप्पगारा, से तं मच्छा । से किं तं कच्छभा?, कच्छभा दुविहा। पण्णत्ता, तंजहा-अढिकन्छभा य मंसलकच्छभा य, से तं कच्छभा । से किं तं गाहा ?, गाहा पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-दिली वेढगा मुदुगा पुलगा सीमागारा, सेत्तं गाहा । से किं तं मगरा?, मगरा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सोडमगरा व मट्ठमगरा य, सेतं मगरा । से किं तं सुसुमारा?, २ एगागारा पण्णत्ता, सेत्तं सुसुमारा" इति, एते मत्स्यादिभेदा लोकतोऽवगन्तव्याः, 'जे यावष्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' उक्तप्रकारा मत्स्यादिरूपाः, ते सर्वे जलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्रष्टव्याः । 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्र सुगम, शरीरादिद्वारकदम्बकमपि चतुरिन्द्रियवद्भावनीयं, नवरमवगाहनाद्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासहयेयभागमात्रा, उत्कर्षतो योजनसहस्रम् । इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियाणि । सज्जिद्वारे नो सम्झिनोऽसब्जिनः, संमूछिमतया समनस्कत्वायो ॥३६॥ गात् । उपपातो यथा व्युत्क्रान्तिपदे तथा वक्तव्यः, तिर्यग्मनुष्येभ्यो ऽससवातवर्षायुष्कवयेभ्यो वाच्य इति भावः । स्थिति धन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत: पूर्वकोटी । च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्स्य चत्तमृध्वपि गतिपूत्पद्यन्ते, तत्र नरकेषु रत्नप्रभायामेव, तिर्यक्षु सर्वेष्वेव, मनु ~82~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३४-३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: E प्रत सूत्रांक [३४-३५] %A % व्येषु कर्मभूमिजेषु, देवेषु व्यन्तरभवनवासिपु, तदन्येष्वसङ्ग्यायुष्काभावात् , अत एव गयागतिद्वारे चतुर्गतिका व्यागतिकाः, 'पपरीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसोया: प्रज्ञता: हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-सेत्तं समुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजो[णिया' । उक्ता: संमूछिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, सम्प्रति संमूछिमस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं थलयरसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया?.२ विहा पण्णता, तंजहा-चप्पयथलपरसंमुकिछमपंचेदियतिरिक्खजोणिया परिसप्पसंमु० ॥ से तिं थलयरचउप्पयसमुच्छिम०१, २ चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-एगखुरा दुखुरा गंडीपया सणफया जाव जे यावणे तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्सा य अपजत्ता य, तओ सरीगा ओगाहणा जहणेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उक्कोसेणं गाज्यपहत्तं ठिती जहणणं अंतोमुहुरतं उकोसेणं चउरासीतिवाससहस्साई, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता, सेत्तं थलयरचउप्पदसंमु० से किं तं थलयरपरिसप्पसंमुच्छिमा?,२ दुविहा पण्णता, तंजहा-उरगपरिसप्पसमुच्छिमा भुयगपरिसप्पसंमुच्छिमा। से किं तं उरगपरिसप्पसंमुच्छिमा?,२ चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-अही अयगरा आसालिया महोरगा । से किं तं अही?, अही विहा पण्णत्ता, तंजहा-दब्बीकरा मलिणो य । से किं तं दब्वीजी०स०७ करा?, २ अणेगविधा पण्णता, तंजहा-आसीविसा जाव से तं व्धीकरा । से किं तं मउ - दीप अनुक्रम [४२-४३] - --- - - - ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्तौ प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः | पञ्चेन्द्रिय सूत्रांक तिर्यश्चः [३६] सू० ३६ लिणो?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-दिव्वा गोणसा जाव से तं मउलिणो, सेत्तं अही । से किं तं अयगरा?, २ एगागारा पण्णत्ता, से तं अयगरा । से कितं आसालिया?, २ जहा पण्णवणाए, से तं आसालिया । से किं तं महोरगा?, २ जहा पण्णवणाए, से तं महोरगा । जे यावणे तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य तं चेव, णवरि सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्सऽसंखेज. कोसेणं जोयणपुहुतं, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उफोसेणं तेवपणं वाससहस्साई, सेसं जहा जलयराणं, जाव चउगतिया दुआगतिया परिसा असंखेज्जा, सेतं उरगपरिसप्पा॥से किं तं भुयगपरिसप्पसमुच्छिमथलयरा ?,२ अणेगविधा पपणत्ता, तंजहा-गोहा णउला जाव जे यावन्ने तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पपणत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपजत्ता य, सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलाखेज़ उक्कोसेणं घणुपुहत्तं, ठिती उकोसेणं वायालीसं वाससहस्साई सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परिसा असंखेजा पपणत्ता, से तं भुयपरिसप्पसमुच्छिमा, से तं थलयरा ।। से किं तं खहयरा ?, २ चउविहा पण्णत्ता, तंजहा-चम्मपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विततपक्खी । से किं तं चम्मपक्खी ?, २ अणेगविधा पपणत्ता, तंजहा वग्गुली जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं चम्मपक्खी। से कितं लोमपक्खी ?, २ अणेगविहा पपणत्ता, तंजहा-लंका कंका जे यावन्ने तहप्पकारा, से अनुक्रम [४४] ॥३७॥ ~84 ~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -10-4 प्रत 2-% सूत्रांक 6-0-% [३६]] तं लोमपक्खी । से किं तं समुग्गपक्खी ?, २एगागारा पण्णत्ता जहा पण्णवणाए, एवं विततपक्खी जाच जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, णाणतं सरीरोगाहणा जह० अंगु० असं० उक्कोसेणं धणुपुहुसं ठिती कोसेणं यावत्तरि वाससहस्साई, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं खयरसमुच्छिमतिरिक्खजोणिया, सेतं समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ॥ (मू० ३६) अथ के ते संमूछिमस्थलचरपोन्द्रियतिर्यायोनिकाः?, सूरिराह-स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञता:, तद्यथा-चतुष्पदखलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच परिसर्पस्थलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, तत्र चलारि पदानि येषां ते चतुष्पदाःअश्वाद्यः ते च ते सलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुष्पदस्खलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, उरसा भुजाभ्यां वा परिसर्प-18 न्तीति परिसर्पा:-अहिनकुलादयस्ततः पूर्ववत्समासः, चशब्दो खखगतानेकभेदसूचकी, तदेवानेकविधवं क्रमेण प्रतिपिपादयिधुराहअथ के ते चतुष्पदस्थलचरसंमूछिमपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ?, सूरिराह-चतुष्पदखलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः | प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'जहा पण्णवणाए' इति, यथा प्रज्ञापनायां प्रज्ञापनाख्ये प्रथमे पदे भेदास्तथा वक्तव्या यावत् 'ते समासतो दु-1 विहा पण्णत्ता' इत्यादि, ते चैवम्-"एगखुरा दुखुरा गंडीपया सणप्फया । से किं तं एगखुरा, एगखुरा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अस्सा अस्सतरा घोडा गहमा गोरखुरा कंदलगा सिरिकंदलगा आवत्ता जे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं एगखुरा । से किं वं दुखुरा ?, दुखुरा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-उट्टा गोगा गवया महिसा संवरा वराहा अजा एलगा रुरू सरभा चमरी कुरंगा गोक अनुक्रम [४४] ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६]] % श्रीजीवा णमाई, सेत्तं दुखुरा । से किं तं गंडीपया ?, गंडीपया अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थी हस्थिपूयणा मंकुणहत्थी खग्गा गंडा, १प्रतिपत्तौ जीवाभिजे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं गडीपया । से किं तं सणफया', २ अणेगबिहा पण्णता, तंजहा-सीहा बग्घा दीदिवा अच्छा तरच्छा समूच्छिममलयगि- परस्सरा सीयाला सुणगा कोकतिया ससगा चित्तगा चित्तलगा, जे यावण्णे तहप्पकारा ॥" इति, तत्र प्रतिपदमेकः खुरो येषां ते 4 पश्चेन्द्रियरीयावृत्तिः एकखुरा:-अश्वादयः, प्रतिपादं द्वौ खुरौ-शफौ येषां ते द्विखुरा-उष्ट्रादयः, तथा च तेषामेकैकस्मिन् पादे द्वौ द्वौ शफी दृश्येते, गण्डीवतियश्चः पदं येषां ते गण्डीपदा:-हस्त्यादयः, सनखानि-दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषां ते सनखपदा:-धादयः, प्राकृतत्वाच 'सणफया' सू० ३६ ॥३८॥ इति सूत्रे निर्देश:, अश्वादयस्लेत दाः केचिदतिप्रसिद्धत्वात्स्वयमन्ये च लोकतो वेदितव्याः, नवरं सनखपदाधिकारे द्वीपका:-चित्रका अच्छा:-कक्षाः परासरा:-सरभाः कोकन्तिका-लोमठिकाः चित्ता चित्तलगा आरण्यजीवविशेषाः, शेषास्तु सिंहव्याधतरक्षशृगालशुनFolककोलशुनशशकाः प्रतीताः, ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्र शरीरादिद्वारकलापसूत्रं च जलचरवद्भावनीयं, नवरमवगाहना द्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गलासयेयभागप्रमाणा उत्कृष्टा गम्यूतपृथक्त्वं स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतश्चतुरशीति वर्षसहस्राणि, शेषं तथैव, उपसंहारमाह-'सेत्तं चउप्पयथलयरसमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' ।। अथ के ते परिसर्पस्खल घर-1 संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: १, २ द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'एवं भेदो भाणियब्बो' इति, एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञासपनायां तथा भेदो वक्तव्यो यावत् 'पज्जत्ता य अपज्जत्ता य स चैवम्-'जहा-उरपरिसप्पथलयरसमुछिमपोन्दियतिरिक्खजो*णिया व भुवपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपश्चिदियतिरिक्सजोणिया य" सुगम, नवरम् उरसा परिसर्पन्तीत्युर:परिसर्पा:-सादयः, भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिसी-नकुलादयः, शेषपदसमासः प्राग्वत्, “से कि त उरपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपश्चिदियविरि -% अनुक्रम [४४] ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [४४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], • मूलं [ ३६ ] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः क्खजोणिया ?, उरपरिसप्पथलवर संमुच्छिमपचिदियतिरिक्खजोणिया चउब्विहा पन्नचा, संजहा-अही अयगरा आसालिया महो रंगा से किं तं अही ?, अहो दुबिहा पण्णत्ता, संजहा-दब्बीकरा य मउलियो य से किं तं दढ़वीकरा ?, दब्बीकरा अणेगविहा पन्नत्ता, संजहा- आसीविसा दिट्ठीविसा उग्गविसा भोगविसा तथाविसा लालाविसा निस्सास विसा कण्ड्सप्पा सेवसप्पा काकोदरा दुम्भपुष्का कोलाहा सेलेसिंदा, जे चावण्णे तहत्यगारा, सेतं अही । से किं तं अयगरा ?, अयगरा एगागारा पन्नत्ता, सेचं अयगरा से किं तं आसालिया ?, कहि णं भंते! आसालिगा संमुच्छइ ?, गोयमा ! अंतो मणुस्सखे ते अढाइ दीवेसु निव्वाधारणं पन्नरससु कम्मभूमीसु, वाघायें पहुच पंचसु महाविदेहेसु चक्कवट्टिसंधावारेसु बलदेवखंधावारेसु वासुदेवखंधावारेसु मंडलियखंधावा| रेसु महामण्डलियखंधावारेसु गामनिवेसेसु नगरनिवेसेसु खेडनिवेसे कब्बड० मडवनिवेसेसु दोणमुहनिवेसेसु पट्टणनिवेसेसु आगरनिवेसेलु आसमनिवेसेसु रायहाणिनिवेसेसु, एएसि णं चेत्र विणासेसु, एत्थ णं आसालिया संमुच्छइ, जहनेगं अंगुलस्त असंखेज्जइभागमित्ताए ओगाहणाए, उच्कोसेणं वारस जोयणाई, तदागुरूवं च णं विक्खभवादलेणं भूमिं दालित्ता संमुच्छर, असण्णी मिच्छदिट्ठी अन्नाणी अंतोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं करेइ, सेत्तं आसालिया से किं तं महोरगा ?, महोरगा अणेगविहा पण्णत्ता, संजहा अस्थेगइया अंगुलंपि अंगुलपुहुत्तियावि विहस्थिपि विहस्थिपुहत्तियावि स्वर्णपि रवणिपुहुतियावि कुछिपि कुच्छित्तियावि धणुर्हपि धणुहपुहत्तियावि गाडयपि गाउयपुहत्तियावि जोयपि जोयणपुहत्तियावि जोयणसपि जोयणसयपुहत्तियावि, ते णं थले जाया जलेऽवि चरंति थलेऽवि चरंति, ते णत्थि इहूं बाहिरए दीवसमुद्देसु हवंति, जे यावण्णे तप्पगारा, सेत्तं महोरगा ।" इति अस्य विपमपदव्याख्या" दुब्बीकरा य मंडलियो य इति वदफणा तत्करणशीला दर्वीकराः, मुकुलं-फणाविरहयोग्या For P&Praise Cnly ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगि- रीयावृत्तिः ॥ शरीरावयव विशेषाकृतिः सा विद्यते येषां ते मुकुलिन:-रूफटाकरणशक्तिविकला इत्यर्थः, अत्रापि चशब्दो खगतानेकभेदसूचकी, 'भा- १प्रतिपत्ती सीविसा' इत्यादि, आस्यो-दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आसीविषाः, उक्तं च-" आसी दाढा तग्गयविसाऽऽसीविसा मुणेयब्वा" संमूछिमइति, दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः, उमं विषं येषां ते उपविषा:, भोगः-शरीरं तत्र सर्वत्र विषं येषां ते भोगविषाः, त्वचि- विपञ्चेन्द्रिययेषां ते त्वग्विषाः, प्राकृतत्वाच 'तयाविसा' इतिपाठः, लाला-मुखात् श्रावस्तत्र विषं येषां ते लालाविषाः, निश्वासे विष येषां ते तियञ्चः | निश्वासविषाः कृष्णसर्पादयो जातिभेदा लोकतः प्रत्येतव्याः। 'से किं तं आसालिगा' इत्यादि, अथ का सा आसालिगा, एवं शिष्येण सू०३६ प्रश्ने कृते सति सूत्रकृद् यदेवासालिकाप्रतिपादकं गौतमप्रमभगवनिर्वचनरूपं सूत्रमस्ति तदेवागमबहुमानतः पठति-कहि गं भंते ! इत्यादि, क णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! आसालिगा संमूर्छति, एषा हि गर्भजा न भवति किन्तु संमूछिमैच || तत उक्तं संमूर्छति, भगवानाह-गौतम ! अन्त:-मध्ये मनुष्यक्षेत्रस्य न बहिः, एतावता मनुष्यक्षेत्रादहिरस्या उत्पादो न भवतीशि| प्रतिपादितं, तत्रापि मनुष्यक्षेत्रे सर्वत्र न भवति किन्तु अर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु, अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽर्द्धतृतीयाः, अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः तेषु, एतावता लवणसमुद्रे कालसमुद्रे वा न भवतीत्यावेदितं, 'निर्व्याधातेन' व्याघातस्याभावो नियाघातं तेन, यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चस्वैरावतेषु सुषमसुषमादिरूपोऽतिदुषमादिरूपश्च कालो व्याघातहेतुत्वाद् व्याघातो न भवति तदा पञ्चदशसु कर्मभूमिषु संमूर्च्छति, व्याघातं प्रतीत्य, किमुक्तं भवति ?-यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चखैरावतेषु यथोक्तरूपो व्याघातो भवति ततः | पञ्चसु महाविदेहेषु संमूर्छति, एतावता त्रिंशत्यप्यकर्मभूमिघु नोपजायत इति प्रतिपादितं, पञ्चदर्शसु कर्मभूमिषु पञ्चसु महाविदेहेषु सर्वत्र न संमूर्छति किन्तु चक्रवर्तिस्कन्धावारेषु बलदेवस्कन्धावारेषु वासुदेवस्कन्धाबारेषु माण्डलिक:-सामान्यराजाऽल्पर्धिकः, अनुक्रम [४४] मल्ल ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६]] SSCRECRACK महामाण्डलिकः स एवानेकदेशाधिपतिस्तरस्कन्धावारेषु, प्रामनिवेशेषु इत्यादि, असति बुझादीन गुणानिति यदिवा गम्यः शास्त्रप्र-| सिद्धानामष्टादशानां कराणामिति प्रामः, निगमः-प्रभूततरवणिग्वर्गावासः, पांसुप्राकारनिबद्धं खेटं, क्षुल्लाकारवेष्टितं कर्बटम् , अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामरहितं मडम्ब 'पट्टण'त्ति पट्टनं पत्तनं वा, उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात् , तत्र यन्नौभिरेव गम्यं तत्पट्टनं यत्पुनः शकटैोटकैनोंभिर्वा गम्यं तत्पत्तनं यथा भरुकच्छम् , उक्तं च-पत्तनं शकदैर्गम्यं, घोटकैनौभिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्यं, पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥१॥" द्रोणमुखं-प्रायेण जलनिर्गमप्रवेशम् , आकरो-हिरण्याकरादिः आश्रम:-तापसावसयोपलक्षित आश्रयः, संबाधो-यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः, राजधानी-राजाधिष्ठानं नगरम् , 'एएसि ग' मित्यादि, एतेषां चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामेव विनाशेषूपस्थितेषु 'एत्थ णं ति एतेषु चक्रवर्तिस्कन्धावारादिषु स्थानेष्वासालिका संमूर्च्छति, सा च जघन्यतोऽमुलासवयेयभागमात्रयाऽवगाहनया समुत्तिष्ठतीति योगः, एतयोत्पादप्रथमसमये वेदितव्यम् , उत्कर्षतो द्वादश योजनानि-द्वादशयोजनप्रमाणयाऽवगाहनया 'तदनुरूप' द्वादशयोजनप्रमाणानुरूपं विक्खंभवाहल्लेणीति विष्कम्भा याहल्यं च विष्कम्भवाहल्यं, स-16 माहारो द्वन्द्वः, तेन, विष्कम्भो-विस्तारो बाहल्यं च स्थूलता, भूमि दालित्ता गं' विदार्य समुत्तिष्ठति, चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामधस्ताद् भूमेरन्तरुत्पद्यत इति भावः, सा चासब्जिनी-अगनस्का संमूछिमत्वात् , मिथ्याष्टिः सासादनसम्यक्त्वस्यापि तस्या अस-1 म्भवात् , अत एवाज्ञानिनी, अन्तर्मुहूर्तावायुरेव कालं करोति । 'अत्थेगइया अंगुलंपी'त्यादि, अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनाभिधायी, ततो-ly ऽयमर्थ:-सन्त्येककाः केचन महोरगा येऽसलमपि शरीरावगाहनया भवन्ति, इहाङ्गुलमुच्छ्याङ्गुलमवसातव्यं, शरीरप्रमाणस्य चि-| न्यमानखात्, सन्त्येकका बेहुलप्पथक्विका अपि-पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरानवभ्य इति परिभाषा अङ्गुलपृथक्लं शरीरावगाहनमानमे अनुक्रम [४४] ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६]] श्रीजीवाजीवाभिः मलयगिरीयावृत्तिः ॥४०॥ पामस्तीलङ्गलपृथक्खिकाः, 'अतोऽनेकस्वरादि' तीकप्रत्ययः, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं द्वादशाङ्गुलप्रमाणा विवस्तिः, द्वि-18/१प्रतिपत्तौ वितस्तिप्रमाणा रनिहस्त:, कुक्षिहितमाना, धनुर्हस्तचतुष्टयप्रमाणं, गम्यूतं द्विधनुःसहस्रप्रमाण, चत्वारि गव्यूतानि योजनम् समूच्छिमपतथापि वितस्त्यादिकमुच्छ्याङ्गुलापेक्षया प्रतिपचव्यं, 'ते णमित्यादि, 'ते' अनन्तरोदितस्वरूपा महोरगाः स्थलचरविशेषत्वात् स्थले पञ्चेन्द्रियनायन्ते स्थले च जाताः सन्तो जलेऽपि स्थल इव चरन्ति स्थलेऽपि चरन्ति, तथास्वाभाव्यात् , यद्येवं ते कस्मादिह न दृश्यन्ते ? तिर्यञ्चः इत्याशङ्कायामाह-ते नत्थि इह' इत्यादि, 'ते' यथोदितस्वरूपा महोरगाः 'इह' मानुषक्षेत्रे 'नत्यित्ति न सन्ति, किन्तु बाह्येषु द्वीप-| सू० ३६ समुद्रेषु भवन्ति, समुद्रेष्वपि च पर्वतदेवनगर्यादिषु स्खलेषुत्पद्यन्ते न जलेषु, तत इह न दृश्यन्ते । जे यावणे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये तथाप्रकारा अङ्गुलदशकादिशरीरावगाहमानास्तेऽपि महोरगा ज्ञातव्याः, उपसंहारमाह-सेत्तं महोरगा, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः उक्तरूपासादिरूपास्ते सर्वेऽपि उर:परिसर्पस्थलचरसमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्रष्टव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्र शरीरादिद्वारकदम्पकं च जलचरवद्भावनीयं, नबरमवगाहना जघन्यतोऽनुलासयेयभागप्रमाणा उत्कर्षतो योजनपृथक्लं, स्थितिद्वारे जघन्यत: स्थितिरन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतविपश्चाशवर्षसहस्राणि, शेषं तथैव ॥ भुजपरिसर्पप्रतिपादनार्थमाह-से किं तमित्यादि, अथ के ते भुजपरिसर्पसंमूछिमस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: १, सूरिराह-भुजपरिसर्पसंमूर्लिछमस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका अनेकविधा: प्रज्ञप्ताः, 'तह चेव भेओ भाणियव्यों' इति, यथा प्रज्ञापनायां तथैव भेदो वक्तव्यः, स चैवम्-"तंजहा-गोहा नउला सरडा सम्मा सरंडा सारा खारा घरोलिया विस्तंभरा मंसा मंगुसा पयलाया छीरवि-18॥४०॥ रालिया जाहा चउपाइया" एते देशविशेषतो वेदितव्याः, 'जे यावण्णे तहप्पगारा येऽपि चान्ये 'तथाप्रकारा:' उक्ताकारा गोधा अनुक्रम [४४] ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६]] दिस्वरूपास्ते सर्वे भुजपरिसर्या अवसातव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि सूत्रकदम्बकं प्राग्वद्भावनीवं, नबरमवगाहना जघन्यतोऽहुलास-1 पेयभागप्रमाणा उत्कर्षतो धनुःपृथक्वं, खितिर्जधन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वाचवारिंशद्वर्षसहस्राणि, शेषं जलपरवद्रष्टव्यम् , उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि सुगमम् ।। खचरप्रतिपादनार्थमाह-अथ के ते संमूछिमखचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका:?, सूरिराह-संमू-1 छिमखचरपचेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भेदो जहा पण्णवणाए' इति, भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स चैवम्-"चम्मपक्षी लोमपक्खी समुन्गपक्सी विततपक्खी । से किं तं चम्मपक्खी !, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-वगुली | |जलोया अडिला भारुडपक्खी जीवंजीवा समुदवायसा कण्णत्तिया पक्खिविराली, जे यावण्णे तहप्पगारा, से तं चम्मपक्खी । से किं लोमपक्खी ?, लोमपक्सी अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-दका कंका कुरला वायसा चकवागा हंसा कलहंसा पोयहंसा राय-| हंसा अढा सेडीवडा वेलागया कौंचा सारसा मेसरा मयूरा सेयवगा गहरा पोंडरीया कामा कामेयगा वंजुलागा तित्तिरा वगा लावगा कपोया कपिंजला पारेषया चिडगा वीसा कुकुडा सुगा बरहिगा मयणसलागा कोकिला सण्हावरण्ागमादी, से तं लोमपक्खी । से किं तं सगुग्गपक्खी !, समुग्गपक्खी एगागारा पण्णत्ता, ते णं नस्थि इई, बाहिरएसु दीवसमुद्देसु हति, से तं समुग्गपक्खी । से किं तं विततपक्खी ?, विततपक्खी एगागारा पण्णत्ता, ते णं नत्थि इह, बाहिरएम दीवसमुदेसु भवंति, से तं विततपक्खी" इति पाठसिद्धं नवरं 'चम्मपक्खी' इत्यादि, चर्मरूपी पक्षौ चर्मपौ तौ विद्यते येषां ते चर्मपक्षिणः, लोमानको पक्षी लोमपक्षी तौ विद्यते येषां ते लोमपक्षिणः, तथा गच्छतामपि समुद्भवस्थितौ पक्षी समुद्गकपक्षी तद्वन्तः समुद्कपक्षिणः, वितती-नियमनाकुश्चिती पक्षी विततपक्षौ तद्वन्तो विततपक्षिणः 'ते समासतों' इत्यादि सूत्रकदम्बकं जलचरबद्भावनीयं, नवरमवगाहना उत्क अनुक्रम [४४] ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक R-555 श्रीजीवा-18||तो धनु:पृथक्लं, स्थितिरुत्कर्षतो द्वासप्ततिवर्षसहस्राणि । तथा चात्र कचित्पुस्तकान्तरेऽवगाहनास्थियोपैयाक्रम साहणिगाथे-जो- 1 प्रतिपत्ती जीवाभि दयणसहस्सगाउयपुहत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं । दोण्डंपि धणुपुहत्तं समुच्छिमवियगपक्खीणं ॥ १ ॥ संमुच्छ पुम्बकोडी चउरासीई भवे समूच्छिममलयगि- सहस्साई । सेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं ॥२॥" व्याख्या-संमूछिमाना जलचराणामुत्कृष्टाऽवगाहना योजनसहस्र, चतु-| पञ्चेन्द्रियरीयावृत्तिः पदानां गन्यूतपृथक्लम् , उर:परिसर्पाणां योजनपृथक्त्वं । दोण्हं तु'इत्यादि, दयानां संमूछिमभुजगपक्षिणां-संमूछिमभुजगपरिसर्प- तियश्चः पक्षिरूपाणां प्रत्येकं धनुःपृथक्त्वं, तथा संमूञ्छिमाना जलचराणामुत्कृष्टा स्थितिः पूर्वकोटी चतुष्पदानां चतुरशीतिवर्षसहस्राणि, उर:परि | सू० ३६ ॥४१॥ सर्पाणां त्रिपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि, भुजपरिसर्पाणां द्वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्राणि, पक्षिणां द्वासप्ततिवर्षसहस्राणि, उपसंहारमाह-'सेत्ती गर्भजक समुच्छिमखहयरपश्चिंदियतिरिक्खजोणिया' । उक्ताः संमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनयः, सम्प्रति गर्भव्युत्क्रान्तिकान् पञ्चेन्द्रिय- तियञ्चः तिर्यग्योनिकानाह सू०३७ से किं तं गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ?,२तिविहा पण्णता, तंजहा-जलयरा थलयरा खहयरा ॥ (सू० ३७) 'सेकिंत'मित्यादि, अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: , सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्तिकपोन्द्रियतिर्थयोनिकाखिविधाः | ॥४१॥ प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जलचरा: खलचरा: खचराश्च । तत्र जलचरप्रतिपादनार्थमाह से किं तं जलपरा, जलयरा पंचविधा पण्णत्ता, तंजहा-मच्छा कच्छभा मगरा गाहा सुंसुमारा, . %A4%95 अनुक्रम [४४] X4CREx ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] सम्वेसिं भेदो भाणितब्बो तहेव जहा पण्णवणाए, जाव जे यावपणे तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पण्णता, तंजहा-पजत्ता य अपजत्ता य, तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिए वेउविए तेयए कम्मए, सरीरोगाहणा जहन्नेर्ण अंगुलस्स असंखेज० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं छव्विहसंघयणी पण्णत्ता, तंजहा -वइरोसभनारायसंघयणी उसभनारायसंघयणी नारायसंघयणी अद्धनारायसंघयणी कीलियासंघयणी सेवसंघयणी, छब्विहा संठिता पण्णत्ता, तंजहा-समचउरंससंठिता णग्गोधपरिमडल. साति खुज० वामण हुंड०, कसाया सव्वे सपणाओ ४ लेसाओ ६ पंच इंदिया पंच समुरघाता आदिल्ला सण्णी नो असणी तिविधवेदा छप्पजत्तीओ छअपज्जत्तीओ दिट्ठी तिविधावि तिणि दसणा णाणीवि अण्णाणीवि जे णाणी ते अत्धेगतिया दुणाणी अत्धेगतिया तिन्नाणी, जे दुनाणी ते नियमा आभिणियोहियणाणी य सुतणाणी य, जे तिनाणी ते नियमा आभिणिबोहियणाणी सुत० ओहिणाणी, एवं अण्णाणीवि, जोगे तिबिहे उवओगे दुविधे आहारो छदिसिं उबवातो नेरइपहिं जाव अहे सत्तमा तिरिक्खजोणिएसु सब्बेसु असंखेजवासाउयवज्जेसु मणुस्सेसु अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउयवज्जेसु देवेसु जाव सहस्सारो, ठिती जहपणेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुब्वकोडी, दुविधावि मरंति, अणंतरं उब्वहित्ता नेरइएसु जाव अहे अनुक्रम [४६] ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 2 प्रत - श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती गर्भज । जलचर तिर्यञ्चः सूत्रांक 3- [३८] ॥४२॥ K- सत्तमा तिरिक्खजोणिएमु मणुस्सेसु सव्येसु देवेसु जाच सहस्सारो, चउगतिया चउआगतिया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता, से तं जलयरा ॥ (सू० ३८) 'भेदो भाणियय्वो तहेव जहा पण्णवणाएं' इति भेदस्तथैव मत्स्यादीनां वक्तव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स च प्रागेवोपदर्शितः, 'ते | समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं पाठसिद्ध, शरीरादिद्वारकदम्बकसूत्र संमूच्छिमजलचरवद्भावनीयं, नवरमत्र शरीरद्वारे पलारिश रीराणि वक्तव्यानि, गर्भव्युतकान्तिकानां तेषां वैक्रियस्यापि सम्भवात् , अवगाहनाद्वारे उत्कर्पतोऽवगाहना योजनसहस्रम् । संहननचिन्वायां पडपि संहननानि, तत्वरूपप्रतिपादक चेदं गाथाद्वयम्-'वजेरिसहनारायं पढमं बीयं च रिसहनारायं । नारायमद्धनाराय कीलिया तह य छेवढं ॥ १ ॥ रिसहो य होइ पट्टो वजं पुण कीलिया मुणेयव्वा । उभयो मक्कडबंधो नारायं तं वियाणाहि ॥ २॥" संस्थानचिन्तायां पडपि संस्थानानि, तान्धमूनि-समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं सादि वामनं कुब्ज हुण्डमिति, सत्र समाः-सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽसय:-चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यत्र तत्समचतुरस्र, समासान्तोऽत्प्रत्ययः, अत। एवैतदन्यत्र तुल्यमिति व्यवहियते, तथा न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य, यथा न्यग्रोध उपरि संपूर्णप्रमाणोऽधस्तु हीन: तथा यत्संस्थान नाभेरुपरि संपूर्णमधस्तु न तथा तन्यप्रोधपरिमण्डलम् , उपरि विस्तारबहुलमिति भावः, तथाऽऽदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्तत इति सादि, उत्सेधबहुलमिति भावः, इह यद्यपि १वमर्षभनारा प्रथम द्वितीयं च ऋषभनाराचम् । नाराचमर्धनाराचं की लिका तथा च सेवार्तम् ॥ १॥ अपभश्च भवति पहः वयं पुनः कीलिका ज्ञातव्या । उभयतो मर्कटवन्धो नाराचं तत् विजानीहि ॥ २॥ अनुक्रम [४६] In४२॥ ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक --44% [३८] % -%A5 . सर्व शरीरमादिना सह वर्तते तथाऽपि सादिल विशेषणान्यथाऽनुपपत्त्या विशिष्ट एवं प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह लभ्यते, तत उतम्-उत्सेधबहुलमिति, इदमुक्तं भवति-यरसंस्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपन्नमुपरि च हीनं सत्सादीति, अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र | साचीति प्रवचनवेदिन: शाल्मलीतरुमाचक्षते, तत: साचीव यत्संस्थानं, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धकाण्डमतिपुष्टमुपरि च न तदनु| रूपा महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्वाधोभागः परिपूर्णों भवति उपरितनभागस्तु नेति, तथा यन्त्र शिरोपीवं हस्तपादादिक यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उरउदरादि च मण्डलं तत्कुब्ज संस्थान, यन्त्र पुनरुदरादि प्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिकं च हीनं तद्बामनं, यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तत् हुण्डम् , उक्तन- समचउरसे नग्गोहमंडले साइ खुज वामणए । हूंडेवि य संठाणे जीवाणं छम्मुणेयन्वा ॥१॥ तुलं वित्थडबहुलं उस्सेहबहुं च मडहकोठं च । हेडिल कायमडहं सव्वत्थासंठियं ९८ ॥२॥" लेश्याद्वारे षडपि लेश्याः, शुकृलेश्याया अपि सम्भवात् , समुद्घाता: पञ्चा, वैक्रियसमुद्घातस्यापि सम्भवात् , सब्जिद्वारे सब्जिनो नो अ सम्झिनः, वेदद्वारे त्रिविधवेदा अपि, स्त्रीपुरुषयोदयोरप्यमीषां भावात्, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयो, भाषामनःपर्यात्योरेकलेन वि४ वक्षणात् , अपर्याप्तिचिन्तायां पञ्चापर्याप्तयः, दृष्टिद्वारे त्रिविधदृष्टयोऽपि, तद्यथा-मिथ्यादृष्टयः सम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयश्च, दर्शनद्वारे त्रिविधदर्शना अपि, अवधिदर्शनस्यापि केषाश्चिद्भावात् , ज्ञानद्वारे त्रिज्ञानिनोऽपि, अवधिज्ञानस्यापि केपाश्चिद्भावात् , अज्ञानचिन्तायामज्ञानिनोऽपि, विभङ्गस्यापि केषाञ्चित्सम्भवात् , अवधिविभङ्गौ च सम्यग्मिथ्यादृष्टिभेदेन प्रतिपत्तब्यौ, उक्तश्च-स १ समचतुरस्त्रं न्यग्रोधपरिमण्डतं सादि कुजं वामनम् । हुण्डमपि च संस्थान जीयानां षद् ज्ञातव्यानि ॥ १॥ तुल्यं बहुविस्तारं उत्सेपबहुलं च मङमकोई च । अधस्तानकायमध्भ सर्वत्रासंस्थित हुण्डम् ॥ २ ॥ अनुक्रम [४६] Sonkskic SECRE जी००८ ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्ती गर्भजल चराः प्रत सूत्रांक [३८] सू० ३८ श्रीजीवा- म्यग्दृष्टानं मिध्यादृष्टेविपर्यासः" इति, उपपातद्वारे उपपातो नैरयिकेभ्यः सप्तपृथ्वीभाविभ्योऽपि, तिर्यग्योनिकेभ्योऽप्यसक्ल्यातवर्षा-1 जीवाभि युष्कवर्जेभ्यः सर्वेभ्योऽपि, मनुष्येभ्योऽकर्मभूमिजान्तरद्वीपजासपातवर्षायुष्कवर्जकर्मभूमिभ्यो, देवेभ्योऽपि यावत्सहस्रारात्, परतः मलयगि-1 प्रतिषेधः, स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्नुहूर्त्तगुत्कर्षतः पूर्वकोटी, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्धृत्य सहस्रारात्परे ये देवास्तान वर्जयित्वा रीयावृत्तिःला शेषेषु सर्वेष्वपि जीवस्थानेषु गच्छन्ति, अत एव गत्यागतिद्वारे चतुरागतिकाश्चतुर्गतिकाः, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसोयाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं जलयरा गम्भवतियपश्चिंदियतिरिक्खजोणिया' ॥ सम्प्रति स्थलचरप्रतिपा॥४३॥ 18 दनार्थमाह से किं तं थलयरा?, २ दुविहा पणत्ता, तंजहा-चप्पदा य परिसप्पा य से किं तं चप्पया?, २चउम्विधा पण्णत्ता, तंजहा-एगक्खुरा सो चेव भेदो जाव जे यावन्ने तहप्पकारा ते समासतो दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपवत्ता य, चत्तारि सरीरा ओगाहणा जहन्ने] अंगुलस्स असंखेज उकोसेणं छ गाउयाई, ठिती उकोसेणं तिन्नि पलिओमाई नवरं उबहित्ता नेरइएमु चउत्थपुढविं गच्छंति, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया चउआगतिया परित्ता असंखिजा पपणत्ता, से तं चउप्पया।से किं तं परिसप्पा?,२ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-उरपरिसप्पा य भुयगपरिसप्पा य, से किं तं उरपरिसप्पा?,२ तहेव आसालियबजो भेदो भाणियब्बो, (तिपिण) सरीरा, ओगाहणा जहरणेणं अंगुलस्स असंखे० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, ठिती जहन्ने] अनुक्रम [४६] ॥४३॥ ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक |[३९-४०] दीप अनुक्रम [४७-४८] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) • उद्देशक: [-], - मूलं [३९-४०] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः अंतमुत्तं उकोसेणं पुष्वकोडी उब्वहित्ता नेरइएस जाव पंचमं पुढविं ताव गच्छति, तिरिक्खम सेसु सब्बे, देवेसु जाव सहस्सारा, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया बउआगइया परित्ता असंखेज्जा से तं उरपरिसप्पा से किं तं भुयगपरिसप्पा १, २ भेदो तहेब, चत्तारि सरीरगा ओगाहणा जहनेणं अंगुलासंखे० उक्कोसेणं गाउयपुत्तं ठिती जनेणं अंतोमुहुतं उकोसेणं पुब्बकोडी, सेसेस ठाणेसु जहा उरपरिसप्पा, णवरं दोघं पुढविं गच्छति से तं भुयपरिसप्पा पण्णत्ता, सेतं थल || (सू० ३९ ) । से किं तं खहयरा १, २ चउच्चिहा पण्णत्ता, तंजहा—चम्मपक्खी तव भेदो, ओगाणा जहनेणं अंगुलस्स असंखे उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं, ठिती जहनेणं अंतोमहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजति भागो, सेसं जहा जलयराणं, नवरं जाव तचं पुढविं गच्छेति जाव से तं खयरगन्भवतिय पंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया, से तं तिरिक्खजोणिया | ( सू० ४० ) स्थलचरगर्भव्युत्क्रान्तिकानां भेदोपदर्शकं सूत्रं यथा संमूच्छिमस्थलचराणां नवरमत्रासालिका न वक्तव्या, सा हि संमूच्छिमेव न गर्भव्युत्क्रान्तिका, तथा महोरगसूत्रे "जोयणसपि जोयणसयहुतियावि जोयणसहस्संपि" इत्येतदधिकं वक्तव्यं, शरीरादिद्वारकदम्बकसूत्रं तु सर्वत्रापि गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचराणामिव नवरमवगाहनास्थित्युद्वर्त्तनासु नानात्वं तत्र चतुष्पदानामुत्कृष्टाऽवगाहना षड् गव्यूतानि, स्थितिरुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, उद्वर्त्तना चतुर्थपृथिव्या आरभ्य यावत्सहस्रारः, एतेषु सर्वेष्वपि जीवस्थानेष्वनन्तरमुहृत्त्योत्पद्यन्ते, उरः परिसर्पाणामुत्कृष्टावगाहना योजनसहस्रं, स्थितिरुत्कर्षतः पूर्वकोटी, उद्वर्त्तना पथामप्रथिव्या आरभ्य यावत्सह For P&Praise Cinly ~97~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -,----------------------मूलं [३९-४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९-४०] दीप श्रीजीवा- सारः, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेष्वनन्तरमुद्धृत्त्योत्पद्यन्ते । भुजपरिसर्पाणामुत्कृष्टाऽवगाहना गव्यूतपृथक्वं, स्थितिरुत्कर्षस: पूर्वकोटी, १ प्रतिपत्तौ जीवाभिउद्वर्तनाचिन्तायां द्वितीयपृथिव्या भारभ्य यावत्सहस्रारः, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेषूत्पादः ॥ खचरगर्भव्युत्क्रान्तिकपचेन्द्रियमेदो स्थलचरमलयगि- यथा संमूछिमखचराणां, शरीरादिद्वारकलापचिन्तनं गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरवत् , नवरमवगाहनास्थित्युद्वर्तनासु नानात्वं, तत्रोत्कर्ष-18 खेचरागरीयावृत्तिः सोऽवगाहना धनुष्पृथक्वं, जघन्यतः सर्वत्राप्यनुलासवधेयभागप्रमाणा, स्थितिरपि जघन्यत: सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽत्र पल्योपमा सोयभागः, उद्वर्त्तना तृतीयपृथिव्या आरभ्य यावत्सहस्रारः, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेषूत्पादः, कचित्पुस्तकान्तरेऽवगाहनास्थित्यो- सू०३९॥४४॥ यथाक्रमं सङ्कह णिगाथे-"जोयणसहस्स छग्गाउयाइ तत्तो व जोयणसहस्सं । गाउयपुहुत्त भुयगे धणुयपुहुत्तं च पक्खीसु ॥१॥ ४० गम्भंमि पुथ्वकोडी तिन्नि य पलिओवमाई परमाउं । उरभुयग पुखकोडी पलियअसंखेजभागो य ॥२॥" अनयोाख्या गर्भव्यु कान्तिकानामेव जलचराणामुत्कृष्टावगाहना योजनसहस्रं, चतुष्पदानां षड् गन्यूतानि, उर:परिसर्पाणां योजनसहस्रं, भुजपरिसर्पाणां | ४|| गव्यूतपृथकलं, पक्षिणां धनुष्पथक्त्वं । तथा गर्भव्युत्कान्तिकानामेव जलचराणामुस्कृष्टा स्थिति: पूर्वकोटी, चतुष्पदानां त्रीणि पल्योपहै मानि, उरगाणां भुजगानां च पूर्वकोटी, पक्षिणां पल्योपमासयेयभाग इति ।। उत्पाविधिस्तु नरकेष्वस्मानाथाद्वयादवसेयः-"अस्सण्णी खलु पढमं दोश्चं च सरीसवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्धि उरगा पुण पंचमि पुढवि ॥ १॥ छष्टिं च इस्थियाउ मच्छा मणुया सय सत्तमि पुढवि । एसो परमुषवाओ बोद्धन्चो नरयपुढवीसु ॥ २॥" उक्ताः पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चः, सम्प्रति मनुष्यप्रतिपादनार्थमाह M ॥४४॥ १असंझिनः खलु प्रथमो द्वितीया च सरीरापास्तृतीयां पक्षिणः । सिंहा यान्ति चतुर्थी मुरगाः पुनः पञ्चमी पृथ्वीम् ॥ १॥ षष्ठीच नियः मत्स्या मनुष्याच सप्तमी पृथ्वी यावत् । एष परम उत्पातो बोद्धव्यो नारकपुथ्वीषु ॥२॥ अनुक्रम [४७-४८] ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] से किं तं मणुस्सा?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-समुच्छिममणुस्सा य गम्भवकंतियमणुस्सा य ॥ कहिणं भंते ! समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति?, गोयमा! अंतो मणुस्सखेले जाव करेंति । तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णता?, गोयमा! तिन्नि सरीरगा पन्नत्ता, संजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, सेतं समुच्छिममणुस्सा । से किं तं गम्भवतियमणुस्सा ?, २ तिबिहा पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमया अकम्मभूमगा अंतरदीवजा, एवं माणुस्सभेदो भाणियब्यो जहा पण्णवणाए तहा णिरवसेसं भाणियब्वं जाव छउमत्था य केवली य, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा -पजत्ता य अपजत्ता य । तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरा प० ?, गोयमा! पंच सरीरया, तंजहा-ओरालिए जाव कम्मए । सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलअसंखेज उक्कोसेणं तिपिण गाउयाई छच्चेव संघयणा छस्संठाणा । तेणं भंते ! जीवा किं कोहकसाई जाव लोभकसाई अकसाई, गोयमा! सब्वेवि । ते णं भंते! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता० लोभसन्नोवउत्तानोसन्नोवउत्ता?, गोयमा! सम्बेवि । ते ण भंते! जीवा किं कण्हलेसा य जाव अलेसा, गोयमा! सम्येवि । सोइंदियोचउत्ता जाव नोइंदियोवउत्तावि, सब्वे समुग्धाता, तंजहा-वेयणासमुग्घाते जाव केवलिसमुग्याए, सन्नीवि नोसन्नी असन्नीवि, इथिवेयायि जाव अवेदावि, पंच पजत्ती. तिविहावि विट्ठी, चत्तारि दंसणा, णाणीवि अण्णाणीचि, जेणाणी ते अस्थगतिया दणाणी अनुक्रम [४९] अथ मनुष्य-जीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥४५॥ प्रतिपत्ती मनुष्याः सू०४१ प्रत सूत्रांक [४१] अत्थेगतिया तिणाणी अत्थेगइया चउणाणी अत्थेगतिया एगणाणी, जे दुष्णाणी ते नियमा आभिणियोहियणाणी सुतणाणी य, जे तिणाणी ते आभिणियोहियणाणी सुतणाणी ओहिणाणी य, अहया आभिणिचोहियणाणी सुयनाणी मणपजवणाणी य, जे चउणाणी ते णियमा आभिणिबोहियणाणी सुत. ओहि मणपजवणाणी य, जे एगणाणी ते नियमा केवलनाणी, एवं अनाणीवि दुअन्नाणी तिअण्णाणी, मणजोगीवि वइकायजोगीवि अजोगीवि, दुविहउवओगे, आहारो छरिसिं, उववातो नेरइएहिं अहे सत्तमवज्जेहिं तिरिक्खजोणिएहितो, उववाओ असंखेजवासाउयवजेहिं मणुएहिं अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउयवजेहिं, देवेहिं सब्वेहि, ठिती जहन्नेणं अतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई, दुविधावि मरंति, उब्वहित्ता नेरइयादिसु जाव अणुत्तरोववाइएसु, अत्धेगतिया सिझंति जाव अंतं करेंति । ते णं भंते! जीवा कतिगतिया कइआगइया पपणत्ता ?, गोयमा! पंचगतिया चउआगतिया परित्ता संखिजा पपणत्ता, सेत्तं मणुस्सा ।। (सू०४१) अथ के ते मनुष्या:?, सूरिराह-मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमूछिममनुष्याश्च गर्भब्युकान्तिकमनुष्याच, पशब्दी 8 खगतानेकभेदसूचकौ । तत्र संमूरिछमगनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! संमूछिममनुष्याः संमूर्च्छन्ति, भगवानाह-गौतम! 'अंतो मणुस्सखेचे जाव करेंति' इति, अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्ण: पाठ:-"अंतो मणुस्सखेते पणयाली अनुक्रम [४९] का॥४५॥ ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: म प्रत सूत्रांक [४१] साए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवेसु गम्भवतियमणुस्साणं चेव उफारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएसु वा तेसु वा पित्तेसु का सोजिएसु वा सुकेसु वा सुकपोग्गलपरिसाडेसु वा कगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सब्वेसु चेव असुइटाणेसु, एत्थ णं संभुमिछममणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखेजइभागमेत्ताए ओगाहणाए असन्नी मिच्छादिट्ठी सञ्चाहिं पजनीति अपजतगा अंतोमुहत्ताउया चेव कालं करेंति " एतच्च निगदसिद्धम् ॥ सम्प्रति शरीरादिद्वारप्रतिपादनार्थमाह-तेसि णं| दाभते! शरीराणि त्रीणि औदारिकतैजसकार्मणानि, अवगाहना जघन्यत उत्कर्षतश्चाङ्गलासमयभागप्रमाणा, संहननसंस्थानकषायलेश्या द्वाराणि यथा द्वीन्द्रियाणां, इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियाणि, सब्जिद्वारवेदद्वारे अपि द्वीन्द्रियवत् , पर्याप्तिद्वारेऽपर्याप्तयः पश्चा, दृष्टिदर्शनज्ञानयोगोपयोगद्वाराणि (यथा) पृथिवीकायिकानां, आहारो यथा द्वीन्द्रियाणां, उपपातो नैरयिकदेवतेजोबाय्वसङ्ख्यातवर्षायुष्कबर्जेभ्यः, स्थितिर्जघन्यत उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणा, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टमधिकं वेदितव्यं, मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता अपि नियन्ते असमवहताश्च, अनन्तरमुद्धृत्य नैरयिकदेवासद्ध्येयवर्षायुष्कवर्जेषु शेषेषु स्थानेषूत्पद्यन्ते, अत एव गत्यागतिद्वारे व्यागतिका द्विगतिकास्तियमनुष्यगत्यपेक्षवा, 'परीत्ता:' प्रत्येकशरीरिणोऽसयेयाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं समुच्छिममगुस्सा'। उक्ताः संमूछिममनुष्याः, अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यानाहू-अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याः ?, सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याखिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कनभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपजाः, तत्र कर्म-कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठान वा कर्मप्रधाना भूमियेषां ते कर्मभूमाः आर्षत्वात्समासान्तोऽप्रत्ययः, कर्मभूमा एवं कर्मभूमकाः, एवमकर्मा-यथोक्तकर्म विकला भूमिपेषां तेऽ अनुक्रम [४९] 54 ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: | मनुष्याः प्रत सूत्रांक [४१] श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥४६॥ कर्मभूमास्त एवाकर्मभूमकाः, अन्तरशब्दो मध्यवाची, अन्तरे-लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपास्तद्गता अन्तरद्वीपगाः, 'एवं माणुस्सभेयो भाणियब्यो जहा पण्णवणाए' इनि, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण मनुष्यभेदो भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स चातिबहुप्रन्थ है। इति तत एव परिभावनीयः, 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्र पाठसिद्धं, शरीरादिद्वारकलापचिन्तायां शरीरद्वारे पञ्च शरीराणि, सू०४१ तद्यथा-औदारिक क्रियमाहारकं तैजसं कार्मणं च, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् , अवगाहनाद्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासङ्खयेयभागमात्रा उत्कर्षतस्त्रीणि गव्यूतानि, संहननद्वारे षडपि संहननानि, संस्थानद्वारे पडपि संस्थानानि, कषायद्वारे क्रोधकथायिणोऽपि | मानकषाविणोऽपि मायाकषायिणोऽपि लोभकषायिणोऽपि अकषायिणोऽपि, वीतरागमनुष्याणामकथायित्वात् , सञ्जाद्वारे आहारसजोपयुक्ता भयसझोपयुक्ता मैथुनसम्झोपयुक्ता लोभसञोपयुक्ताः, नोसंज्ञोपयुक्ताश्च निश्चयतो बीतरागमनुष्याः, व्यवहारतः सर्व एव || चारित्रिणो, लोकोत्तरचित्तलाभात्तस्य सज्ञादशकेनापि विप्रयुक्तत्वात् , उक्तश्च-"निर्वाणसाधकं सर्व, शेयं लोकोत्तराश्रयम् । सम्झा लोकाश्रया सर्वाः, भवाङ्करजलं परम् ॥१॥” लेश्याद्वारे कृष्णलेश्या नीललेश्या: कापोतलेश्यास्तेजोलेश्या: पद्मलेश्याः शुकलेश्या | अलेश्याश्च, तत्रालेश्याः परमशुकुध्यायिनोऽयोगिकेवलिनः । इन्द्रियद्वारे श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ता यावत्स्पर्शनेन्द्रियोपयुक्ता नोइन्द्रियोपयु-1 काच, तत्र नोइन्द्रियोपयुक्ताः केवलिनः, समुदूधातद्वारे सप्तापि समुद्घाताः, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवान् , समुतूधातसङ्गाहिका पेमा | गाथा-"येणकसायमरणंतिए य बेम्बिए य आहारे । केवलियसमुग्धाए सत्त समुग्धा इमे भणिया ॥१॥” सब्जिद्वारे सब्जिनोऽपि नोसज्ञिनोअसज्ञिनोऽपि, तत्र नोसज्ञिनोअसब्जिनः केवलिनः । वेद्वारे स्त्रीवेदा अपि पुरुषवेदा अपि नपुंसकवेदा | १ पैदनः कषायः मारणान्तिकब वैकयिकथाहारकः । कैवलिकः समुन्षातः सप्त समुदपाता इमे भगिताः ॥१॥ अनुक्रम K444444 [४९] REI४६॥ ~102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] अपि अवेदाः-सूक्ष्मसम्परायादयः, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयः, भाषामनःपर्यास्योरेफलेन विवक्षणात्, इष्टिद्वारे त्रिवि-18 धदृष्टयः, तद्यथा-केपिन्मिभ्यारष्टयः केचित्सम्यग्दृष्टयः केचित्सम्यग्मिध्यादृष्टयः, दर्शनद्वारे चतुर्विधदर्शनाः, तद्यथा-चक्षुर्दर्शना & अचक्षुर्दर्शना अवधिदर्शना: केवलदर्शना:, ज्ञानद्वारे ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र मिध्यादृष्टयोऽज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयो ज्ञानिनः, 'नाणाणि |पंच तिण्णि अण्णाणाणि भयणाते' इति, ज्ञानानि पञ्च मतिज्ञानादीनि, अज्ञानानि त्रीणि मत्यज्ञानादीनि, तानि भजनया वक्तव्यानि, सा च भजना एवम्-केचिहिज्ञानिनः केचित्रिज्ञानिनः केचिश्चतु निनः केचिदेकज्ञानिनः, तत्र ये द्विज्ञानिनस्ते नियमादाभिनिबोधिCशानिनः श्रुतज्ञानिनश्च, ये विज्ञानिनसे मतिज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, अथवाऽऽभिनियोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्च, अवधिज्ञानमन्तरेणापि मनःपर्यवज्ञानस्य सम्भवात्, सिद्धनाभृतादौ तथाऽनेकशोऽभिधानात् , ये चतु निनस्ते, द आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्च, ये एकज्ञानिन केवलज्ञानिनः, केवलज्ञानसद्भावे शेषज्ञानाप गमात् , "नटुंमि उ छाउमस्थिए नाणे” इति वचनात् , ननु केवलज्ञानप्रादुर्भावे कथं शेषज्ञानापगम: ?, यावता यानि शेषाणि मत्यादीनि ज्ञानानि खखावरणक्षयोपशमेन जायन्ते ततो निर्मूलस्वस्वावरणविलये तानि सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत् , उक्तश्च-आवरणदेसविगमे जाई विजंति मइसुयाईणि । आवरणसव्वविगमे कह ताई न होंति जीवस्स? ॥ १॥" जरुयते, इह यथा जात्यस्य मरकतादिमणेमलोपदिग्धस्य यावन्नाद्यापि समूलमलापगमस्तावद् यथा यथा देशतो मलविलयस्तथा तथा देशतोऽभिव्यत्तिरुपजायते, |सा च कचित्कदाचित्कथञ्चिलवतीत्यनेकप्रकारा, तथाऽऽत्मनोऽपि सकलकालकलाकलापावलम्बिनिखिलपदार्थसार्थपरिच्छेदकरणकपार १नटे तु छापरिक्षके शान. २ आवरणदेशविगमे यदि तानि भवन्ति मतिधुतादीनि । सर्वोचरणपिगमे कथं तानि न भवन्ति जीवस्य । ॥1॥ अनुक्रम CAREGACASSACX [४९] ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्ती मनुष्याः प्रत सूत्रांक [४१] श्रीजीवा- मार्थिकस्वरूपस्याप्यावरणमलपटलतिरोहितस्य यावन्नाद्यापि निखिलकर्ममलापगमस्तावद् यथा यथा देशतः कर्ममलोच्छेदस्तथा तथा जीवाभिरतस्य विशप्तिरुज्जम्भते, सा च कचित्कदाचित्कथञ्चिदनेकप्रकारा, उक्तश्च-"मलविद्धमओयक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः । कर्मविद्धामविश- मल यगि- प्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः ॥ १॥" सा चानेकप्रकारता मतिश्रुतादिभेदेनावसेथा, ततो यथा मरकतादिमणेरशेषमलापगमसम्भवे समरीयावृत्तिः स्तास्पष्टदेशव्यक्तिव्यवच्छेदेन परिस्फुटरूपैकाभिव्यक्तिरुपजायते तद्वदात्मनोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्रप्रभावतो नि:शेषावरणप्रहाणावशेषदे शज्ञानव्यवच्छेदेनैकरूपाऽतिपरिस्फुटा सर्ववस्तुपर्याचप्रपञ्चसाक्षात्कारिणी विज्ञप्तिरुल्लसति, उक्तञ्च- यथा जात्यस्य रत्नस्य, निःशेष॥४७॥ मलहानितः । स्फुटैकरूपाऽभिव्यक्तिर्विज्ञप्तिस्तदात्मनः ॥ १॥” इति, येऽज्ञानिनस्ते दूधज्ञानिनरुयज्ञानिनो वा, तब ये व्रषज्ञानिनस्ते | मत्यज्ञानिनः श्रुताशानिनः, ये ग्यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताहानिनो विभङ्गशानिनश्च । बोगद्वारे मनोयोगिनो वाग्योगिनः काययोगिनोऽयोगिनश्च, तत्रायोगिनः शैलेशीमवस्था प्रतिपन्नाः, उपयोगद्वारमाहारद्वारं च द्वीन्द्रियवत् , उपपात एतेष्वधःसप्तमनरकादिव जेभ्यः, उक्तश्च-सत्तममहिनेरइया तेऊ वाऊ अणंतरुबट्टा । नवि पावे माणुस्सं तहेवऽसंखाउया सव्वे ॥१॥” इति, स्थितिद्वारे ४ जघन्यत: स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, समुद्घातमधिकृय मरणचिन्तायां समवहता अपि म्रियन्ते असमवहता अपि, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुत्य सर्वेषु नैरविकेषु सर्वेषु च तिर्यग्योनिषु सर्वेषु मनुष्येषु सर्वेषु देवेष्वनुत्तरोपपातिकपर्यवसानेषु गच्छन्ति, 'अस्थेगइया सिझंति जाव अंतं करेंति' इति, अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनार्थः, सन्त्येकका चे निष्ठितार्थाः भवन्ति यावत्करणात् "बु-12 | झंति मुचंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंती"ति द्रष्टव्यं, तत्राणिमाद्यैश्वर्याप्या तथाविधमनुष्यकृत्यापेक्षया निष्ठितार्था इति, अ सप्तममहीनायिकाः तेजस्कायिका वायुकायिका अनन्तरोवृत्ताः । नैव प्राप्नुवन्ति मानुष्यं तथैवासंख्येयवर्षायुष्काः सर्वे ॥१॥ अनुक्रम [४९] Kा॥४७॥ ~ 104~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [४९] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [४१] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सर्वविदोऽपि कैचित्सिद्धा इष्यन्ते ततो मा भूत्तेषु संप्रत्यय इति तदपोहायाह — 'बुध्यन्ते' निरावरणलात्केवलावबोधेन समस्तं वस्तुजातम् एते चासिद्धा अपि भवस्थ केवलिन एवंभूता वर्त्तन्ते तत्र मा भूदेतेष्वेव प्रतीतिरित्याह- 'मुच्यन्ते' पुण्यापुण्यरूपेण कृच्छ्रेण क मेणा, एतेऽपि चापरिनिर्वृत्ता एवं परैरिष्यन्ते 'मुक्तिपदे प्राप्ता अपि तीर्थनिकारदर्शनादिहागच्छन्तीति वचनात् ततो मा भूतगोचरा मन्दमतीनां धीरित्याह 'परिनिर्धान्ति' विध्यातसमस्त कर्महुतवहपरमाणयो भवन्तीति किमुक्तं भवति ? - सर्वदुःखानां शारीरमानसभेदानामन्तं विनाशं कुर्वन्ति, अत एव गत्यागतिद्वारे चतुरागतिकाः पञ्चगतिकाः, सिद्धगतावपि गमनात्, 'परीक्षा' प्रत्येकशरीरिणः 'सङ्ख्या:' पेयकोटीप्रमाणत्वात् प्रज्ञताः, श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह - 'सेत्तं मणुस्सा' ॥ अधुना देवानाह से किं तं देवा, देवा चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा - भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया बेमाणिया । से किं तं भवणवासी १, २ दसविधा पण्णत्ता, तंजहा - असुरा जाव धणिया, से तं भवणवासी । से किं तं वाणमंतरा१, २ देवभेदो सब्बो भाणियच्यो जाय ते समासतो दुबिहा पण्णत्ता, तंजा - पत्ता य अपजत्ता य, तओ सरीरगा-वेडब्बिए तेयए कम्मए । ओगाहणा दुविधाभवधारणिजाय उत्तरवेउब्विया य, तत्थ णंजा सा भवधारणिजा सा जहन्त्रेणं अंगुलस्स असंखेलभागं उक्कोसेणं सत्त रयणीओ, उत्तरवेडब्विया जहनेणं अंगुल संखेजति उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं, सरीरगा छण्हं संघयणाणं असंघयणी शेवट्टी णेव छिरा णेव पहारू नेव संघयणमत्थि, जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसिं संघायत्ताए परिणमंति, किंसंठिता?, गोयमा ! दुबिहा प अथ देव-जीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते For P&False City ~ 105~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्तौ प्रत देवाः सू०४२ सूत्रांक [४२] श्रीजीवा-18 पणसा, तंजहा-भवधारणिवा य उत्तरवेब्विया य, तस्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते णं समचजीवाभि उरससंठिया पणत्ता, तत्ध णं जे ते उत्तरवेउब्बिया ते णं नाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता, चमलयगिरीयावृत्तिः त्तारि कसाया चत्तारि सपणा छ लेस्साओ पंच इंदिया पंच समुग्घाता सन्नीवि असन्नीवि इ. स्थिवेदावि पुरिसबेदावि नो नपुंसगवेदा, पज्जत्ती अपज्जत्तीओ पंच, दिट्ठी तिन्नि तिण्णि दंसणा, ॥४८॥ णाणीवि अपणाणीवि, जे नाणी ते नियमा तिण्णाणी अण्णाणी भयणाए, दुविहे उवओगे ति विहे जोगे आहारो णियमा छदिसिं, ओसन्नकारणं पडुच वण्णतो हालिहसुकिल्लाई जाव आहारमाहारेंति, उववातो तिरियमणुस्सेसु, ठिती जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, दुविधावि मरंति, उब्वहित्ता नो नेरइएसु गच्छंति तिरियमणुस्सेसु जहासंभवं, नो देवेसु गच्छति, दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेचा पण्णत्ता, से तं देवा, से तं पंचेंदिया, सेत्तं ओराला तसा पाणा ॥ (सू०४२) अथ के ते देवाः १, सूरिराह-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाच, 'एवं भेदो भाणियवो जहा पन्नवणाए' इति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण भेदो भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स चैवम्-" से किं तं भवणवासी, भवणवासी दसविहा पन्नत्ता" इत्यादिरूपस्तत एव सव्याख्यान: परिभावनीयः, 'ते समासतो दुविहा पण्णत्ता-पज्जत्तगा य TAASANACEANICAL अनुक्रम [५०] ॥४८॥ ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४२] 25 अपज्जत्तगा य' एषामपर्याप्तत्वमुत्पत्तिकाल एव द्रष्टव्यं न वपर्यातिनामकदियतः, उक्तञ्च-नारयदेवा तिरियमणुवगम्भजा जे| असंखवासा ऊ । एर उ अपजत्ता उबवाए चेव बोद्धव्या ॥ १॥” इति, शरीरादिद्वारचिन्तायां शरीरद्वारे त्रीणि शरीराणि वैक्रिय तैजसं | कार्मणं च, अवगाहना भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासयेयभागमात्रा उत्कर्षतः सप्तहस्तप्रमाणा, उत्तरवैक्रिया जधन्यतोऽङ्गलसलपेयभागप्रमाणा उत्कर्षतो योजनशतसहस्र, संहननद्वारे षण्णां संहननानामन्यतमेनापि संहननेनासंहननिनः, कुतः इत्याह-'नेवट्ठी | इत्यादि, यतो नैव तेषां देवानां शरीरेष्वस्थीनि नैव शिरा नापि स्नायूनि संहननं पास्थिनिचयासकमतोऽस्थ्यादीनामभावात्संहननाभाव:, किन्तु 'जे पोग्गला' इत्यादि, ये पुद्गला इष्टा:-मनस इच्छामापन्नाः, तत्र किश्चिदकान्तमपि केपाश्चिदिष्टं भवति तत आह'कान्ता:' कमनीयाः शुभवर्णोपेतत्वात् , यावत्करणात् 'पिया मणुना मणामा' इति द्रष्टव्यं, तत्र यत एवं कान्ता अत एव प्रिया:-सदैवालनि प्रियबुद्धिमुत्पादयन्ति, तथा शुभाः' शुभरसगन्धस्पर्शात्मकत्वात् 'मनोज्ञाः' विपाकेऽपि सुखजनकतया मनःप्रहादहेतुत्वात् | मनापाः' सदैव भोज्यतया जन्तूनां मनांसि आप्नुवन्ति, इत्यम्भूता: पुद्गलास्तेषां शरीरसङ्घाताय परिणमन्ति । संस्थानद्वारे भवधारणीया तनु: सर्वेषामपि समचतुरस्र संस्थाना उत्तरवैक्रिया नानासंस्थानसंस्थिता, तस्या इच्छावशत: प्रादुर्भावात् , कषायाश्चत्वारः, सज्ञाश्चतस्रो, लेश्याः पड्, इन्द्रियाणि पच, समुद्घाताः पञ्च, वेदनाकषायमारणान्तिकवैक्रियतेजससमुद्घातसम्भवात् । सज्ञिद्वारे | सब्जिनोऽपि असब्जिनोऽपि, ते च नैरयिकवद्भावनीयाः, वेदद्वारे स्त्रीवेदा अपि पुरुषवेदा अपि नो नपुंसकवेदाः, पर्याप्तिद्वारं दृष्टिद्वारं दर्शनद्वारं च नैरयिकवत् । ज्ञानद्वारे ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि चेति विकल्पोऽसज्ञिमध्यः, तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्रिज्ञा १ नारका देवाः तिर्यअनुजा गर्भन्युकान्ता येऽसञ्जयवर्षायुष्काः । एते तु अपर्याप्ता उपपात एष बोद्धव्याः ॥१॥ SEXSS4%AR- अनुक्रम [५०] kichkk% जी००९ ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [५० ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [४२] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति * सू० ४२ निनः, तद्यथा-आभिनियोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनःश्च तत्र येऽज्ञानिनस्ते सन्त्येकका ये उपज्ञानिनः सन्त्येकका ये व्यज्ञानिनः, तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमान्मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, ये व्यज्ञानिनस्ते नियमान्मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश, अयं च पज्ञानिनख्यज्ञानिनो वेति विकल्पः असब्जिमध्याद् ये उत्पद्यन्ते तान् प्रति द्रष्टव्यः, स च नैरविकवद्भावनीयः । उपयोगा- ४ हारद्वाराणि नैरयिकवत् उपपातः सव्यसन्जिपचेन्द्रियतिर्यग्गर्भजमनुष्येभ्यो न शेषेभ्यः । स्थितिर्जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्क 12 तस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, समुद्घातमधिकृत्य मरणचिन्तायां समवहता अपि त्रियन्ते ऽसमवहता अपि । च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्दल पृथिव्याम्बुवनस्पतिकायिकगभैव्युत्क्रान्तिकस ख्यातवर्षायुष्कतिर्यक्पचयेन्द्रियमनुष्येषु गच्छन्ति न शेषजीवस्थानेषु, अत एव गत्याग|तिद्वारे यागतिका द्विगतिकाः, तिर्यग्मनुष्यरात्यपेक्षया, 'परीत्ता:' प्रत्येकशरीरिणोऽसया: प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसं हारमाह- 'सेतं देवा' सर्वोपसंहारमाह-'सेत्तं पंचेंदिया, सेत्तं ओराला तसा पाणा' मुगमम् ॥ सम्प्रति स्थावर भावस्य त्रसभावस्य च भवस्थितिकालमानप्रतिपादनार्थमाह ॥ ४९ ॥ श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः थावरस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोधमा ! जनेणं अंतोमुत्तं उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता । तसस्स णं भंते! केवतियं कालं किती पण्णत्ता ? गोयमा जहणेणं अंतोमुह उफोसे तेत्तीसं सागरोबमाई ठिती पण्णत्ता । थावरे णं भंते! थावरत्ति कालतो केव चिरं होति ?, जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं अनंताओ उस्सप्पिणिओ (अवसप्पिणीओ) कालतो खेत्ततो अनंता लोया असंखेज्जा पुग्गलपरिया, ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असं For P&Pale City ~108~ १ प्रतिपत्ती देवाधि कारः ॥ ४९ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति - - --- - प्रत सूत्रांक 4COCKCXCX - - [४३] -- - दीप खेजतिभागो ॥ तसे णं भंते ! तसत्ति कालतो केवञ्चिरं होति?, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओ (अवसप्पिणीओ) कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा। थावरस्स णं भंते ! केवतिकालं अंतरं होति?, जहा तससंचिट्ठणाए ॥ तसस्स णं भंते ! केवतिकालं अंतरं होति ?, अंतोमुत्तं उक्कोसेणं वणस्सतिकाले । एएसिणं भंते! तसाणं थावराण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सब्वत्थोवा तसा थावरा अणंतगुणा, सेतं दुविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ॥ दुविहपडिवत्ती समत्ता (सू०४३) जघन्यतोऽन्तर्मुहूगुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, एतच्च पृथिवीकायमधिकृत्यावसातव्यम् , अन्यस्य स्थावरकायस्योत्कर्षत एता-18 वत्या भवस्थितेरभावात् ।। त्रसकायस्व जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, एतच देवनारकापेक्षया द्रष्टव्यम् , अन्यस्य सकायस्पोत्कर्षत एतावत्प्रमाणाया भवस्थितेरसम्भवान् ॥ सम्प्रत्येतयोरेव कायस्थितिकालमानमाह-स्थावरे 'णम्' इति वाक्यालकारे | | स्थावर इति' स्थावर इत्यनेन रूपेण स्थावरत्वेनेति भावः, कालत: किवचिरं भवति', भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो-IN |ऽनन्त कालं, तमेवानन्तं कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपवति-अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, किमुक्तं भवति ?-अनन्त लोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकापहारेण यावत्योऽनन्ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति, एतासामेव पुद्गलपरावर्ततो मानमाह-असद्धयेया: पुद्गलपरावर्ताः, असोयेषु पुद्गलपरावर्तेषु क्षेत्रत इति पदसानिध्यात्क्षेत्रपुद्गलपरा - - अनुक्रम [५१] - ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति - प्रतिपत्तौ प्रत - - सूत्रांक [४३] वरस्थित्यन्तरे सू०४३ दीप - श्रीजीवा- बसेषु यावत्यः संभवन्ति अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यस्तावत्य इति भावः, इहासयमसद्धयेयभेदासकमतः पुगलपरावर्तगतमसो- जीवाभियत्वं निर्धारयति-ते णमित्यादि, ते णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गलपरावर्त्ता आवलिकाया असङ्ख्येयो भागः, आवलिकाया असङ्खयेयमलयगि-18 तमे भागे यावन्त: समयास्तावत्प्रमाणा इत्यर्थः, एतच्च बनस्पतिकायस्थितिमङ्गीकृत्य वेदितव्यं, न पृथिव्यम्बुकायस्थितिव्यपेक्षया, तयोः रीयावत्तिा कायस्थितेरुत्कर्षतोऽप्यसवयेयोसर्पिणीप्रमाणत्वात् , तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम्-"पुढविकाइए णं भंते ! पुढविकाइयत्ति कालओ| केबच्चिर होइ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तमुकोसेणं असंखिज्नं कालं असंखिजाओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणीओ कालो, खेत्तओ असं साप्पणीओ कालओ, खेत्तओ अस- ॥५०॥ खिजा लोगा, एवं आउकाएवि" इति, या तु वनस्पतिकायस्थितिः सा यथोक्तप्रमाणा तत्रोक्ता "वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइका यति कालओ कियचिरं होइ?, गोथमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्वं उकोसेणं अणतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, का खित्तओ अणंता लोगा असंखिजा पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखिजइभागो" इति । एषोऽपि च बनस्पतिकायस्थितिकालः सांव्यवहारिकजीवानधिकृत्य प्रोच्यते, असांव्यवहारिकजीवानां तु कायस्थितिरनादिरखसेवा, तथा चोक्तं विशेषणवत्याम्-अस्थि | अणंता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामी । तेवि अर्णवाणंता निगोयवासं अणुवसति ॥ १॥" साऽपि तेषामसांव्यवहारिकजीवानामनादिः कायस्थितिः केपाश्चिदनादिरपर्यवसाना, ये न जातुचिदसांव्यवहारिकराशेरुदृत्य सांव्यवहारिकराशौ निपतिष्यन्ति, केषाचिदनादिः सपर्यवसाना, ये असांव्यवहारिकराशेरुद्धृत्य सांव्यवहारिकराशौ निपतिष्यन्ति । अथ किमसांव्यवहारिकराशेर्विनिर्गत्य सांव्यवहारिकराशावागच्छन्ति ? येनैवं प्ररूपणा क्रियते, उच्यते, आगच्छन्ति, कथमवसीयते ? इति चेदुच्यते-पूर्वाचार्योपदेशात् , १ सन्त्यनम्ता जीवा वैनं प्राप्त सादिपरिणामः । वेऽप्यनन्तानन्ता नियोदवासमनुवसन्ति ॥१॥ - अनुक्रम [५१] - ॥५०॥ ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४३] दीप तथा चाह दुःषमान्धकारनिमनजनप्रवचनप्रदीपो भगवान् जिनभद्रगणिः क्षमाश्रमणो विशेषणवत्याम्-सिंांति अन्तिया किर| इह संववहारजीवरासिमझाओ । इति अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि ॥ १॥" इति कृतं प्रसङ्गेन । सम्प्रति उसकायस्थ कायस्थितिमानमाह-'तसे णं भंते' इत्यादि, तसे'ण'मिति पूर्ववत् 'प्रस इति' अस इत्यनेन पर्यायेण कालत: 'कियविर' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसयेवं कालम् , एनमेवासायं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असंखिजाओ'इत्यादि, असाया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालत:, क्षेत्रतोऽसोया लोका असोयेषु लोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकापहारे यावलोऽसहमेया उत्सर्पिण्यवसपिण्यो भवन्ति तावत्य इति भावः, इयं चैतावती कायस्थिविर्गतित्रसं तेजस्कायिक वायुकायिक चाधिकृत्यावसेया न तु लब्धित्रसं, लब्धित्रसस्य कायस्थितेरुत्कर्षतोऽपि कतिपयवर्षाधिकसागरोपमसहस्रद्वयप्रमाणत्वात् , तथा चोक्त प्रज्ञापनायाम-तिसकाए गं भंते! तसकायत्ति कालतो कियच्चिर होइ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं दो। सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई" तथा "तेउकाइए गं भंते ! तेउकाइएत्ति कालतो केवगिरं होति', गोयमा! जहन्नेग अंतोमुहुत्तं उकोसेणं असंखेज कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोगा, एवं बाउकाइयावि" इति ॥ सम्प्रति स्थावरलस्यान्तरं विचिन्तयिपुराह-थावरस्सणं भंते ! अंतर'मित्यादि सुगम नवरमसोया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, पाक्षेत्रतोऽसाझया लोकाः, इत्येतावत्प्रमाणमन्तरं तेजस्कायिकवायुकायिकमध्यगमनेनावसातव्यम् , अन्यत्र गतावेतावप्रमाणस्यान्तरस्यासम्भवात् ॥'तसस्स णं भंते! अंतर'मित्यादि सुगमं नवरम् 'उकोसेणं बणस्सइकालो' इति, उत्कर्षतो बनस्पतिकालो वक्तव्यः, स चै १सिध्यन्ति यावन्तः फिलेह संव्यवहारराशिमध्यात् । आयान्ति अनादिवनस्पतिराशेः तावन्तस्तस्मिन् ॥ १॥ अनुक्रम [५१] ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [५१] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [४३] प्रतिपत्ति: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ५१ ॥ Je Eaton वम् "उकोसेणं अनंतमर्णताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अनंता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेइभागो" इति एतावत्यमाणं चान्तरं वनस्पतिकाय मध्यगमनेन प्रतिपत्तव्यम् अन्यत्र गतावेतावतोऽन्तरस्यालभ्यमानलात् ॥ सम्प्रयरूपबहुत्वमाह-एतेषां भदन्त ! जीवानां त्रसानां स्थावराणां च मध्ये कतरे कतमेभ्योऽल्पा वा बहवो वा कतरे कतरैस्तुख्या वा?, अत्र सूत्रे विभक्तिपरिणामेन तृतीया व्याख्येया, तथा कतरे कतरेभ्यो ऽल्पा बहुकास्तुल्या विशेषाधिका वा?, भगवानाद-गौतम! सर्वलोकानसाः, असङ्ख्यातत्वमात्रप्रमाणत्वात् स्थावरा अनन्तगुणाः, अजयन्योत्कृष्टानन्तानन्तसङ्ख्यापरि माणत्वात् उपसंहारमाह- 'सेत्तं दुविहा संसारसमावन्ना जीवा' इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाजीवाभिगमटीकायां द्विविधा प्रतिपत्तिः समाप्ता ॥ For a&Focal Use Chil अत्र प्रथमा (द्विविधा) प्रतिपत्तिः परिसमाप्ता ~ 112~ १ प्रतिपत्तौ त्रसादे:स्थित्यादि सू० ४३ ॥ ५१ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [४४-४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति अथ त्रिविधाख्या द्वितीया प्रतिपत्तिः प्रत सूत्रांक [४४-४५] दीप अनुक्रम [५२-५३] तदेयमुक्ता द्विविधा प्रतिपत्तिः, सम्प्रति त्रिविधा प्रतिपत्तिरारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् तत्थ जे ते एवमाहंसु तिविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ते एवमासु, तंजहा-इत्थि पुरिसा णपुंसका ॥ (सू०४४)। से किं तं इत्धीओ?,२ तिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-तिरिक्खजोणियाओ मणुस्सित्थीओ देवित्थीओ।से किं तं तिरिक्खजोणिणित्थीओ?, २तिविधाओ पण्णसा, तंजहा-जलयरीओ बलयरीओ, खयरीओ।से किं तं जलयरीओ?.२ पंचविधाओ पपणत्ताओ, तंजहा-मच्छीओ जाव सुंसुमारीओ। से किं तं थलयरीओ?, २ दुविधाओ पण्णता, तंजहा-चप्पदीओ य परिसप्पीओ य । से किं तं चउपपदीओ?, २ चउविधाओ पपणत्ता, तंजहा-एगखुरीओ जाव सणफईओ। से किं तं परिसप्पीओ ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहाउरपरिसप्पीओय भुजपरिसप्पीओ यासे किं तं उरगपरिसप्पीओ?.२तिविधाओ पपणत्ता, तंजहा-अहीओ अहिगरीओ महोरगाओ, सेत्तं उरपरिसप्पीओ । से कितं भुयपरिसप्पीओ?, २ अणेगविधाओ पण्णता, तंजहा-सेरडीओ सेरंधीओ गोहीओ णउलीओ सेधाओ अथ दवितिया (त्रिविधा) प्रतिपत्ति: आरभ्यते जीवानाम् भेदा: त्रिविध-स्वरुपेणम् , स्त्रिया: त्रैविध्यम् ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: -1, ----------------------मूलं [४४-४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [२] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४४-४५] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥५२॥ र प्रतिपत्ती जीवास्त्रिPI भेदाः सू०४४ स्त्रीभेदाः सू०४५ दीप अनुक्रम [५२-५३] सपणाओ सरडीओ सेरंधीओ भावाओ खाराओ पचण्णाइयाओ चउप्पइयाओ मुसियाओ मुगुसिओ घरोलियाओ गोव्हियाओ, जोव्हियाओ बिरचिरालियाओ, सेसं भुगपरिसप्पीओ। से किं तं खहयरीओ?,२चउविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-चम्मपक्खीओ. जाव सेत्तं खहयरी ओ. सेतं तिरिक्खजोणिओ॥ से किं तं मणुस्सिओ?, २तिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमियाओ अकम्मभूमियाओ अंतरदीवियाओ। से किं तं अंतरदीविपाओ १.२ अट्ठावीसतिचिधाओ पपणत्ता, तंजहा-एगूरूइयाओ आभासियाओ जाव सुद्धदंतीओ, सेसं अंतरदी०॥ से किं तं अकम्मभूमियाओ?, २ तीसविधाओ पपणत्ता, तंजहा-पंचसु हेमवएसु पंचसु एरण्णवएसु पंचसु हरिवंसेसु पंचसु रम्मगवासेसु पंचसु देवकुरासु पंचसु उत्तरकुरासु, सेत्तं अकम्मा। से किंतं कम्मभूमिया ?, २ पपणरसविधाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पंचसु भरहेसु पंचसु एरवएसु पंचसु महाविदेहेसु, सेतं कम्मभूमगमणुस्सीओ, सेत्तं मणुस्सित्थीओ ॥ से किं तं देवित्थियाओ ?, २चउब्विधा पणत्ता, तंजहा-भवणवासिदेवित्थियाओ वाणमंतरदेवित्थियाओ जोतिसियदेवित्थियाओ वेमाणियदेवित्थियाओ । से किं तं भवणवासिदेवित्थियाओ?, २दसविहा पण्णता, तंजहा-असुरकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ जाव थणितकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ, से तं भवणवासिदेवित्थियाओ। से किंत वाणमंतरदेवित्थियाओ?.२ अट्ट ॥५२॥ Jamacisi ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग ਸ प्रत सूत्रांक [४४ ४५] दीप अनुक्रम [५२ ५३ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ (मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], मूलं [४४-४५] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति विधाओ पण्णत्ता, तंजहा- पिसायवाणमंतरदेवित्थिवाओ जाव से तं वाणमंतरदेवित्थियाओ । से किं तं जोतिसियदेवित्थियाओ ?, २ पंचविधाओ पण्णत्ता, तंजहा चंदविमाणजोतिसिदेवत्थियाओ सूर०ग० नक्खत० ताराविमाणजोनिसियदेवित्थियाओ से त्तं जोतिसियाओ । से किं तं मणिदेवित्थियाओ?, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा- सोहम्मकप्पवेमाणियदेविस्थियाओ ईसाणकपवेमाणियदेवित्थिगाओ, सेत्तं वैमाणित्थीओ ॥ (सू० ४५ ) 'सूत्र' तेषु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये ये आचार्या एवमाख्यातवन्तः - विविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्तास्त एवमाख्यातवन्तः तयथा - स्त्रियः पुरुषा नपुंसकानि, इह ख्यादिवेदोदयाद् योन्यादिसङ्गताः स्यादयो गृह्यन्ते, तथा चोक्तम् — “योनिर्मृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धताऽऽवता स्वनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि सप्त बीले प्रचक्षते ॥ १ ॥ मेहनं खरता दागे, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता । स्त्रीकामितेति लिङ्गानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते || २ || स्तनादिश्मनुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुमहानलसुद्दीपितम् ॥ ३ ॥” तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति खीयतामाह-'से किं तमित्यादि, अथ कास्ताः स्त्रियः ?, सूरिराह-त्रियस्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथातिर्यग्योनिस्त्रियो मनुष्यस्त्रियो देवस्त्रियश्च । 'से किं तमित्यादि, तिर्यग्योनित्रियस्त्रिविधाः, तद्यथा - जलचर्य: स्थलचर्यः खचर्यश्च । 'से किं तमित्यादि । मनुष्यत्रियोऽपि त्रिविधास्तद्यथा - कर्मभूमिका अकर्मभूमिका अन्तरद्वीपिकाश्च । 'से किं तमित्यादि, देवस्त्रियश्चतुर्विधास्तद्यथा-भवनवासिन्यो व्यन्तयों ज्योतिष्क्यो वैमानिक्यश्च ॥ सम्प्रति स्त्रिया भवस्थितिमानप्रतिपादनार्थमाह इत्थी णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोधमा । एगेणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोतं For F&P ~ 115~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति -- - प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- उकोसेणं पण्णपन्न पलिओवमाई एकेणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं णव पलिओवमाई प्रतिपत्ती जीवाभि० एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतो स्त्रीवदमलयगि- मुहुत्तं उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई ।। (सू०४६) स्थित्यादि रीयावृत्तिः । 'इत्थी णं भंते' इत्यादि, स्त्रिया भदन्त ! कियन्तं कालं स्थिति: प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-गौतम! एकेनादेशेन' आदेशशब्द इह प्रका-15सू०४६ दरवाची "आदेसो त्ति पगारों" इति वचनात् , एकेन प्रकारेण, एक प्रकारमधिकृत्येति भावार्थः, जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम् , एतत्तिर्यग्मनु ध्यस्यपेक्षया द्रष्टव्यम् , अन्यत्रैतावतो जघन्यस्यासम्भवान्, उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतदीशानकल्पापरिगृहीतदेव्यपेक्षम्। तथैकेनादेशेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम् एतत्तथैवोत्कर्पतो नब पल्योपमानि, एतदीशानकल्प एव परिगृहीतदेव्यपेक्षम् । तथा एकेनादेशेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , एतत्प्राग्वत् , उत्कर्षतः सप्त पल्योपमानि, एतत्सौधर्मकल्पे परिगृहीतदेवीरविकृत्व । तथा एकेनादेशेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: पञ्चाशत्पल्योपमानि, एतत्सौधर्मकल्प एवापरिगृहीतदेव्यपेक्षम , उक्तञ्च सजहण्याम-परिग्गहेयराणं सो-IN हम्मीसाण पलियसाहीयं । उकोस सत्त पन्ना नत्र पणपन्ना य देवीणं ॥ १॥" तदेवं सामान्यतः खीणां जपन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिमानमुक्त, सम्प्रति तिर्यकयादिभेदानधिकृत्याह तिरिक्खजोणिस्थीर्ण भंते ! केवलियं कालं ठिती पण्णत्ता?.गो जहन्नेणं अंतोमहत्तं उकोसेर्ण तिपिण पलिओवमाई। जलयरतिरिक्खजोणित्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णता, गोयमा! जहन्नेणं ॥५३॥ परिग्रहीतेतराणा साधर्मशानानो पस्योपमं साधिकम् । उत्कृष्टतः सप्त पञ्चाशत् नव पञ्चपञ्चाशन पायोपमानि देवीनाम् ॥१॥ अनुक्रम [१४] SAGAR ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत CREAKER सूत्रांक [४७] अंतो० उको पुवकोडी। चउप्पदधलयरतिरिक्खजोणित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता, गो. जहा तिरिक्खजोणित्थीओ। उरगपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसं पुचकोडी । एवं भयपरिसप्पः । एवं खहयरतिरिक्खिस्थीणं जहन्नेणं अंतोमुहुसंउको पलिओवमस्स असंखेजतिभागो।मणुस्सित्थीण भंते ! केवतियं कालं ठिती पणता?, गोयमा ! खेत्तं पहुंच जह०.अंतो उन्को तिषिण पलिओवमाई, धम्मचरणं पड़च्च जह अंतो० उक्कोसेणं देखणा पुन्यकोडी । कम्मभूमयमणुस्सिस्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! खित्तं पडुच्च जहन्ने गं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिन्नि पलिओचमाई धम्मचरणं पहुंच जहन्नेणं अंतोमुहुतं उकोसेणं देसूणा पुष्यकोडी । भरहेरवयकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता, गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेर्ण तिन्नि पलिओयमाई, धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंगोमु० उक्कोसेणं देसूणा पुष्यकोडी । पुब्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता?. गोयमा! खेत्तं पडुञ्च जहन्नेणं अंतो उक्कोसेणं पुव्वकोडी, धम्मचरणं पहुंच जहन्नेणं अंतोमुहतं उकोसेणं देसूणा पुचकोडी । अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जम्मणं पडुच जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवप्नं पलिओवमस्स असंखेजतिभागऊणगं उक्को अनुक्रम [५] MANCE ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः Pics पर प्रतिपत्ती तिर्वक्खी|| स्थित्यादि सू०४७ सूत्रांक दि ॥ ५४॥ % सेणं तिन्नि पलिओवमाई, संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेणं देमूणा पुब्वकोडी । हेमवएरण्णवए जम्मणं पटुब जहन्नेणं देसूर्ण पलि ओवमं पलिओवमस्स असंखेजहभागेण ऊणगं पलिओवर्म संहरणं पहुच जहनेणं अंतोमुहतं उकोसेणं देसूणा पुवकोडी । हरिवासरम्मयवासअकम्मभूमगमणुस्सित्थी भंते ! केवइयं कालं ठिई पपणत्ता?, गोयमा! जम्मणं पडुच जहनेणं देसणाई दो पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणयाई उको दो पलिओवमाई, संहरणं पहुंच जहा अंतो० उको० देसूणा पुवकोडी । देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सिस्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिई पण्णता?, गोयमा! जम्मणं पडच जहन्नेणं देसूणाई तिष्णि पलि ओवमाई पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणयाई उक्को तिन्नि पलिओवमाई, संहरणं पहुंच जहन्नेणं अंतोमहक उको० देसूणा पुब्बकोडी । अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं 'भंते ! केवतिकालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जम्मणं पडुच जहन्नेगं देसूर्ण पलिओवमस्स असंखेजइभार्ग पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणयं उको पलिओवमस्स असंखेजाभागं सं. हरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमु० उक्को० देसूणा पुब्बकोडी ॥ देविस्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्को सेणं पणपन्नं पलिओवमाई । 'भवणवासिदेवित्थीणं भंते!, जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई । एवं असुरकु अनुक्रम [१५] E0 CACAL % ॥५४॥ - ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४७]] मारभवणवासिदेवित्थियाए, नागकुमारभवणवासिदेवित्थियाएवि जहन्नेणं दसवाससहस्साई उकोसेणं देसूणाई पलिओवमाई, एवं सेसाणवि जाव थणियकमाराणं । वाणमंतरीणं जहनेणं दसवाससहस्साई उक्कोसं अद्धपलिओवमं । जोइसियदेवित्धीणं भंते! केवइयं कालं ठिती पपणत्ता?, गोयमा! जहणेणं पलिओवर्म अट्ठभागं उक्कोसेणं अपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अभहियं, चंदविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहन्नेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं तं चेव, सूरविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहन्नेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवर्म पंचहिं वाससएहिमन्भहियं, गहविमाणजोतिसियदेवित्धीणं जहणेणं चउभागपलिओवम उकोसेणं अद्धपलिओवमं, णक्खत्तविमाणजोतिसियदेवित्थीणं जहण्णेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं चउभागपलिओवमं साइरेग, ताराविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहन्नेणं अट्ठभागं पलिओवम उक्को सातिरेगं अट्ठभागपलिओवमं । वेमाणियदेवित्थियाए जहपणेणं पलि ओवम उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाई, सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती प०?, जहण्णेणं पलिओवम उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई, ईसाणदेविस्थीर्ण जहण्णेणं सातिरेग पलिओवम उकोसेणं णव पलिओवमाई ॥ (सू ४७) 'तिरिक्खजोणिइत्थियाणं भंते! इत्यादि, उत्कर्षवत्रीणि पल्योपमानि, देवकुर्वादिषु चतुष्पदवीरधिकृत्य, जलचरस्त्री अनुक्रम (५५) जी०च०१० JEscा ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४७] श्रीजीवा- णामुत्कर्षतः पूर्वकोटी, स्थलचरस्त्रीणां यथा औषिकी, त्रीणि पल्योपमानीत्यर्थः । खचरीणामुत्कर्षतः पल्योपमासख्येयभागः, १२ प्रतिपत्ती जीवाभि मनुष्यत्रीषु क्षेत्रं प्रतीत्य-क्षेत्राश्रयणेनेतिभावः, जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो देवकुर्वादिषु भरतादिष्वपि एकान्तसुषमादिकाले त्रीणि | तिर्यक्मलयगि- हापल्योपमानि, 'धर्मचरण चरणधर्मसेवनं प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्, एतच तद्भवस्थिताया एव परिणामवशतः प्रतिपातापेक्षया ख्यादिरीयावृत्तिः हा द्रष्टव्यं, चरणधर्मस्व मरणमन्तरेण सर्वस्तोकतयाऽप्येतावन्मात्रकालावस्थानभावात्, तथाहि-काचित्खी तथाविधक्षयोपशमभावतः सर्व-18|| स्थितिः विरति प्रतिपद्य तावन्मात्रक्षयोपशमभावादन्तर्मुहूर्त्तानन्तरं भूयोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टित्वं मिथ्यात्वं वा प्रतिपद्यते इति, अथवा धर्म- सू०४७ ॥५५॥ चरणमिह देशचरणं प्रतिपत्तव्यं न सर्वचरणं, देश चरणप्रतिपत्तिस्तु जघन्यतोऽप्यान्तर्मुहूर्तिकी, तस्या भङ्गाबहुलत्वात, अयोभयचरणसम्भवे किमर्थ मिह देशचरणं परिगृह्यते ?, उच्यते, देशचरणपूर्वकं प्राय: सर्वचरणमिति ख्यापनार्थम्, अत एवोक्तं वृद्धैः-सम्मतिमि उ लढे पलिबपुहुत्तेण सायओ होइ । चरणोवसमखयाणं सागरसंखंतरा होंति ॥ १॥" एवं "अप्परिवडिए"इत्यादि, उत्कर्षतो देशोना। पूर्वकोटी, अष्टसांवत्सरिक्याश्वरगधर्मप्रास्त दूबै चरमान्तर्मुहूर्त यावप्रतिपतितपरिणामभावात्, पूर्वपरिमाणं चेदम्-"पुवस्स उ परिमाण सयरिं खलु होति कोडिलक्खाओ । छप्पणं च सहस्सा बोद्धब्बा वासकोडीणे ॥ १॥ (७०५६००००००००००) सम्प्रति कर्मभूमिकादिविशेषत्रीणां वक्तव्यतामाह-अक्षरगमनिका सुगमा, भावार्थस्त्वयम्-कर्मभूमिकमनुध्यत्रीणां क्षेत्रं कर्मभूमिकासामान्यलक्षणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, तानि च भरतैरावतेषु सुषमसुषमालक्षणेऽरके वेदितव्यानि, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भावना चान प्रागिब दृष्टव्या, एवमुत्तरसूत्रदयेऽपि ॥ अत्रैव विशे- ॥५५॥ सम्यक्त्वे तु लम्बे पल्योपमपृथक्त्वेन श्रावको भवति । चारित्रमोहोपशमक्षयाणां सागराः संख्याता मन्तरं भवति ॥ १ ॥ अनुक्रम [१५] RECENAMASC NACSC+SAAS ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४७] पचिन्तां चिकीर्षुराह-सुगम, नवरं भरतैरावतेषु त्रीणि पल्योपमानि सुषमसुषमायां, पूर्व विदेहेषु क्षेत्रत: पूर्वकोटी, तत ऊर्च तत्र तथा| क्षेत्रखाभाब्यादायुषोऽसम्भवात् , अकम्मभूमिगेत्यादि, जन्म प्रतीत्येति-अकर्मभूमिपूत्पत्तिमाश्रित्य जघन्यतो देशोनं पल्योपर्म, तचा भागानगूनमपि देशोनं भवति ततो विशेषस्थापनायाह-पल्योपमस्वासङ्खयेयभागेनोनं, एतन हैमवतहरण्यवतक्षेत्रापेक्षया द्रष्टव्यं, तत्र जपन्यत: स्थितेरेतावत्प्रमाणायाः सम्भवात् , उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि, तानि च देवकुरूत्तरकुर्वपेक्षया, 'संहरणं पडुच्चे'त्यादि, संहमारण नाम कर्मभूमिजायाः खियोऽकर्मभूमिपु नयनं तत्प्रतीत्य' तदाश्रित्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, इयमत्र भावना -इह कर्मभूमिकाऽप्यकर्मभूमिषु संहृता अकर्मभूमिकेति व्यवहियते, तत्क्षेत्रसम्बन्धभावात् , यथा लोके कश्चिन्मगधादिदेशात्सुरा ट्रान प्रति प्रस्थितो गिरिनगरेषु निवासं कल्पयितुकामः सुराष्ट्रपर्यन्तग्रामप्राप्तः सन् समुत्पद्यमानेषु तथाविधेषु प्रयोजनेषु सौराष्ट्र इति । ४ व्यवहियते, तद्वदधिकृताऽपि, तत्र च संहृता सती काचिदन्तर्मुहूर्त जीवति ततोऽपि वा भूयोऽपि संहियते काचित्पूर्वकोट्यायुष्का यावजीवमपि तत्रावतिष्ठते ततो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुक्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति, आह-भरतैरावतान्यपि कर्मभूमौ वर्तन्ते तत्र माकान्तसुषमादौ त्रीण्यपि पस्योपमानि स्थितिरस्या भवति संहरणं च संभवति तत्कथं देशोना पूर्वकोटी भण्यते ? इति, अत्रोच्यते, कर्मकालविवक्षयाऽभिधानान् , तस्य चैतावन्मात्रत्वादिति । हैमवतहरण्यवताकर्मभूमिकमनुष्यस्त्रीणां जन्मतो जघन्येन देशोनं पल्योपमं पस्योपमासङ्घचेयभागेन न्यूनमुत्कर्षत: परिपूर्ण पस्योपमं, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहू गुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भावना प्रागिव ।। एवं 'हरिवासरम्मए' इत्यायपि सूत्रत्रयं भावनीयं, नवरं हरिवर्षरम्यकयोर्जन्मतो जघन्येन द्वे पल्लोपमे पल्योपमासङ्खधेयभागन्यूने उत्कर्षतः परिपूर्णे द्वे पल्योपमे । देवकुरुत्तरकुरुषु जन्मतो जघन्येन त्रीणि पल्योपमानि पल्योपमासङ्घपेयभागहीनानि उ % अनुक्रम % [५] % % % ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [ ५५ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [ ४७ ] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ।। ५६ ।। त्कर्षत: परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, अन्तरद्वीपेषु जन्मतो जघन्येन देशोनः पत्योपमासवेयभागः क्रियता देशेनोनः पत्योपमा सङ्घयेयभाग ? इति चेदत आह-पस्योपमासङ्ख्येयभागेनोनः किमुक्तं भवति ? - उत्कृष्टपस्योपमासङ्ख्येयभागप्रमाणादायुषो जघन्यमायुः पस्योपमासङ्घधेयभागन्यूनं नवरमूनताहेतुः पत्योपमासङ्ख्येयो भागोऽतीव स्तोको द्रव्य, संहरणमधिकृत्य सर्वत्रापि जघन्यत उत्क तच तावदेव प्रमाणम् ॥ सम्प्रति देवखीवक्तव्यतामाह-अक्षरगमनिका सुगमा तात्पर्यमात्रमुच्यते देवत्रीणां सामान्यतो जघन्यतः स्थितिर्देश वर्षसहस्राणि तानि च भवनपतिव्यन्तरीरधिकृत्य वेदितव्यानि उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पस्योपमानि एतानि वैशानदेवीरधिकृत्य प्रतिपत्तव्यानि । विशेषचिन्तायां भवनवासिदेव्यः सामान्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतोऽर्द्धपश्चमानि-साद्धनि चत्वारिं पस्योपमानि एतानि च भवनवासिविशेपासुरकुमारदेवीरधिकृत्य, अत्रापि विशेषचिन्तायामसुर कुमारदेवीनां सामान्यतो जघन्येन दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतोऽर्द्धमानि पत्योपमानि नागकुमारभवनवासिदेवस्त्रीणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतो देशोनं पस्योपमम्, एवं शेषाणां यावत्स्तनितकुमारीणां व्यन्तरीणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतोऽर्द्ध पल्योपमं ज्योतिषस्त्रीणां जघन्येनाष्टभागपस्योपममुत्कर्षतोऽर्द्ध पस्योपमं पञ्चाशता वर्षसहस्रैरभ्यधिकम् अत्रापि विशेषचिन्तायां चन्द्रविमानवासिज्योतिषस्त्रीणां जधन्यतञ्चतुर्भागमात्रं पल्योपममुत्कर्षतोऽर्द्धपस्योपमं पञ्चाशता वर्षसहसैरधिकं सूर्यविमानवासिज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतश्चतुर्भागमात्रं पल्योपममुत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपमं वर्षशतपञ्चकाभ्यधिकं ग्रहविमानवासिज्योतिष्क देवीनां जघन्यतश्चतुर्भागमात्रं पस्योपमं उत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपमं, नक्षत्रविमानज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतञ्चतुर्थभागमात्र पस्योपममुत्कर्षतः सातिरेकं चतुर्थभागमात्रं पत्थोपमं ताराविमानज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतोऽष्टभागमात्रं पस्योपममुत्कर्षतस्तदेवाष्टभागमात्रं पल्योपमं सातिरेकं । सामान्यतो वैमानिक देवखीणां जघन्यतः For P&Praise Cly ~122~ २ प्रतिपत्ती तिर्यक्यदिस्थितिः ४सू० ४७ ॥ ५६ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [२] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४७] INपल्योपममुत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, विशेषचिन्तायां सौधर्मकल्पवैमानिकदेवीन जघन्यतः पल्योपममुत्कर्षतः सप्त पल्योपकामानि, अत्रापीदं स्थितिपरिमाणं परिगृहीतदेवीनामवगन्तव्यं, अपरिगृहीतदेवीनां जघन्यत: पल्योपममुत्कर्षतः पञ्चाशत्पल्योपमानि, 12 शानकस्पवैमानिकदेवीना जघन्यतः सातिरेक पल्योपममुत्कर्पतो नव पल्योपमानि, अत्रापीदं स्थितिपरिमाणं परिगृहीतदेवीनामवMगन्तव्यं, अपरिगृहीतदेवीनां जघन्यत: सातिरेक पल्योपमभुत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतच सूत्रं समस्तमपि कापि साक्षाद् दश्यते कचिचैवमतिदेश:-"एवं देवीणं ठिई भाणियव्या जहा पण्णवणाए जाव ईसाणदेवीण"मिति ।। सम्प्रति स्त्री नैरन्तर्येण स्त्रीसाखममुश्चन्ती कियन्तं कालमवतिष्ठते ? इति जिज्ञासायां सूत्रकृतत्कालापेक्षया ये पञ्चादेशाः प्रवर्तन्ते सानुपदर्शयितुमाह इत्थी णं भंते ! इस्थित्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! एक्केणादेसेणं जहन्नेणं एक समयं उकोस दसुत्तरं पलिओवमसयं पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियं । एकणादेसेणं जहन्ने] एक समयं उकोसेणं अट्ठारस पलिओवमाई पुवकोडीपुहुत्तमम्भहियाई । एक्केणादेसेणं जहणणं एक समयं उक्कोसेणं चउद्दस पलिओवमाई पुब्बकोडिपुहुत्तमम्भहियाई । एकणादेसेणं जह० एक समयं उक्को पलिओवमसयं पुब्बकोडीपुहुत्तमभहियं । एक्कणादेसेणं जहणणं एक समयं उक्को० पलिओवमपुहुतं पुथ्वकोडीपुहुत्तमम्भहियं ॥तिरिक्खजोणित्थीणं भंते ! तिरिक्खजोणित्थित्ति कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडी पुटुत्तमम्भहियाई, जलयरीए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुब्वकोडिपुहुत्तं । चउप्पदयलयरतिरिक्खजो जहा ओहिता ति अनुक्रम [५] * ** ~123~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः र प्रतिपत्ती सामाश्यविशेषत| या स्त्रीत्वस्थितिः सू०४८ रिक्ख०, उरगपरिसप्पीभुयगपरिसप्पित्थी णं जधा जलयरीणं, स्वयरि० जहाणेणं अंतोमुहुर्त उको पलिओवमस्स असंखेजतिभागं पुष्चकोडिपुहुत्तमम्भहियं ॥ मणुस्सित्थी णं भंते! कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! खेत्तं पडुच जहणेणं अंतोमुहत्तं उक्को तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडिपुटुत्तमन्भहियाई, धम्मचरणं पडुच जह. एकं समयं उक्को देसूणा पुन्यकोडी, एवं कम्मभूमियावि भरहेरवयावि, णवरं खेत्तं पडुच जह० अंतो उक्को तिन्नि पलिओवमाई देसूणपुष्वकोडीअमहियाई, धम्मचरणं पहुंच जह एक समयं उको देसूणा पुब्वकोडी। पुम्वविदेहअवरविदेहित्थी णं खेत्तं पडच जह• अंतो. उको पुच्चकोडीपुरत्तं, धम्मचरणं पडच जहा एक समयं उकोसणं देसूणा पुब्बकोडी ॥ अकम्मभूमिकमणस्सित्थी णं भंते! अकम्मभूम कालओ केवचिरं होइ' गोयमा! जम्मणं पडुच जह० देसूर्ण पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणं उको तिषिण पलिओवमाई। संहरणं पहुंच जह० अंतो० उकोसेणं तिनि पलिओवमाई देसूणाए पुब्बकोडिए अन्भहियाई। हिमवतेरपणवते अकम्मभूमगमणुस्सिस्थीर्ण भंते ! हेम. कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! जम्मणं पडुच्च जह० देसूर्ण पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणगं, उको पलिओवमं । साहरणं पडुच्च जह• अंतोमु० उको० पलिओवर्म देसूणाए पुब्बकोडीए अन्भहियं । हरिवासरम्मयअकम्मभूमगमणुस्सित्थी गं भंते, जम्मणं पहुच जह अनुक्रम [१६] ॥ ५७॥ ~124~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] दीप देसूणाई दो पलिओवमाइं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणगाई, उक्को दो पलिओवमाई। संहरणं पडुच जह० अंतोमु० उक्को दो पलिओवमाई देसूणपुव्वकोडिमभहियाई । उत्तरकुरुदेवकुरूणं, जम्मणं पडुच जहन्नेणं देमूणाई तिन्नि पलिओवमाई पलितोचमस्स असंखेजभागेणं ऊणगाई उको तिन्नि पलिओवमाई । संहरणं पहुच जह• अंतोमु० उक्को तिनि पलिओवमाई देसणाए पुब्बकोडिए अब्भहियाई। अंतरदीवाकम्मभूमकमणुस्सित्थी, २ जम्मणं पडच जह देसूर्ण पलिओवमस्स असंखेजतिभागं पलिओबमस्स असंखेजतिभागेण ऊर्ण उदो० पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं । साहरणं पडुच जह० अंतोमु० उक्को पलिओवमस्स असंखेजतिभागं देसूणाए पुवकोडीए अन्भहियं ॥ देविस्थी णं भंते! देविस्थिति काल, जच्चेव संचिट्ठणा ॥ (सू०४८) एकेनादेशेन जघन्यत एक समयं यावदवस्थानमुत्कर्षतो दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकम् , एकसमयं कथम् ।। इति चेदुच्यते-काचिद् युवतिरुपशमश्रेण्या वेदत्रयोपशमनादवेदकत्वमनुभूय ततः श्रेणे: प्रतिपतन्ती स्त्रीवेदोदयमेकं समयमनुभवति, सतो द्वितीये समये कालं कृत्वा देवेपूत्पद्यते तत्र च तस्याः पुंस्त्वमेव न स्त्रीत्वं, तत एवं जघन्यतः स्त्रीवं समयमात्र, Mसम्प्रति पूर्वकोटिपृथक्वाभ्यधिकशोत्तरपल्योपमशतभावना क्रियते-कश्चिजन्तु रीषु तिरधीषु वा पूर्वकोट्यायुधकासु मध्ये पविषान् भवाननुभूय ईशाने कल्पे पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुकास्वपरिगृहीतदेवीपु मध्ये देवीवेनोत्पद्यते ततः स्वायु: CASSACSCAREX अनुक्रम [५६] -5-54-4-5 ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] श्रीप श्रीजीवा-1 आये तस्मात्स्थानाद् भूयोऽपि नारीषु तिरधीषु वा मध्ये पूर्वकोट्यायुष्षुरुत्पन्नस्ततो भूयो द्वितीय वारमीशानदेवलोके पचपञ्चाशत्पल्यो- प्रतिपत्ती जीवाभि० पमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीलेनोपजातस्ततः परमवश्यं वेदान्तरमवगच्छति, एवं दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्षको- सामान्यमलयगि- टिपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते, अत्र पर आह-ननु यदि देवकुरुत्तरकुर्वादिपु पस्योपमत्रयस्थितिकासु खीषु मध्ये समुत्पद्यते ततोऽधि- विशेषतरीयावृत्तिः काऽपि स्त्रीवेदस्यावस्थितिलभ्यते, वत: किमित्येतावदेवोपदिष्टा?, तयुक्तम् , अभिप्रायापरिज्ञानात् , तथाहि-न तावदेवीभ्यश्युत्वाऽसये- या स्त्रीत्व यवर्पायुषकासु खीषु मध्ये स्त्रीत्वेनोत्पद्यते, देवयोनेऋयुतानामसयेयवर्षायुष्केषु मध्ये उत्पादप्रतिषेधात् , नाप्यसयेयवर्षायुप्का सती|| स्थितिः ॥५८॥ उत्कृष्टायुष्कासु देवीषु जायते, यत उक्तं प्रज्ञापनामूलटीकायाम्-"जतो असंखेजवासाउया उक्कोसिय ठिई न पाइ" इति, ततो सू०४८ यथोक्तप्रमाणैव स्त्रीवेदस्योत्कृष्टाऽवस्थितिरवाप्यते । द्वितीयेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कृष्टतोऽष्टादश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्र समयभावना सर्वत्रापि प्राग्वत् , अष्टादश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि एवं-नारीषु तिरधीषु वा पूर्वकोटीप्रमाणायुष्कासु मध्ये कश्चिजन्तुः पञ्चषान् भवाननुभूय पूर्वप्रकारेणेशानदेवलोके वारद्वयमुत्कृष्टस्थितिकासु देवीषु मध्ये समुत्पद्यमानो नियमतः परिगृहीताखेवोत्पद्यते नापरिगृहीतासु, तत एवं द्वितीयादेशवादिमतेन त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानमष्टादश पस्योपमानि | पूर्वकोटिपूथक्वं च । तृतीयेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कर्षतश्चतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्वाभ्यधिकानि, तानि चैवं-पूर्वप्रकारेण सौधर्मदेवलोके परिगृहीतदेवीषु सप्तपस्योपमप्रमाणोत्कृष्ठायुष्कासु मध्ये बारवयं समुत्पद्यते तत्र(त) एवं तृतीयादेशवादिमतेन | खीवेदपोत्कृष्टमवस्थानं चतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्लं च । चतुर्वेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कर्षतः पल्योपमशतं पूर्वको- IPL॥५८॥ टिपृथक्त्वाभ्यधिकं, कथम् ? इति चेदुच्यते, नारीषु तिरश्धीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु पञ्चषान् भवाननुभूय पूर्वप्रकारेण सौधर्मदेवळोके अनुक्रम [१६] ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ----------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] दीप पञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कास्थपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीवेनोत्पद्यते, तत एवं चतुर्थादेशवादिमतेन पस्योपमशतं पूर्वकोटिपृथ-in क्वाभ्यधिक भवति । पयामेनादेशेन अपन्यत एक समयमुत्कर्षत: पल्योपमथक्लं पूर्वकोटिपृथक्वाभ्यधिक, तबैव-नारीषु तिरश्चीपुर। वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये सप्त भवाननुभूयाष्टमभवे देवकुर्वादिषु त्रिपस्योपमस्थिविकासु स्त्रीषु मध्ये स्त्रीत्लेन समुत्पद्यते, ततो मृला सौधर्मदेवलोके जघन्यस्थितिकासु देवीषु मध्ये देवीलेनोपजायते, तदनन्तरं चावश्यं वेदान्तरमधिगच्छति, ततः पञ्चमादेशवादिमतेन स्त्रीवेदस्यावस्थानं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिक पल्योपमपृथक्त्वं, ते ह्येवमाहुर्नानाभवप्रमाणद्वारे-यदि बीवेदस्योत्कृष्टभवस्थानं चिन्त्यते तत इत्थमेतावदेव लभ्यते, नाधिकमन्यथा चेति । अमीपां च पञ्चानामादेशानामन्यतमादेशसमीचीनतानिर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः सर्वोक्तश्रुतलब्धिसंपन्नैर्वा कर्तुं शक्यते, ते च सूत्रकृत्प्रतिपत्तिकाले नासीरन्निति सूत्रकृन्न निर्णयं कृतवानिति । तदेवं सामान्यतः स्त्री स्त्रीत्वं नरन्तयेणामुञ्चन्ती यावन्तं कालमवतिष्ठते तावत्कालप्रमाणमुक्तम् । इदानी तिर्यस्त्रियास्तिर्यकत्रीत्वमजहत्याः कालमानं विचिन्तयिषुरिदमाह-तिरिक्खजोणिइथिएणं भंते !, इत्यादि, तिर्यकली णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! विर्यकस्त्रीति कालतः कियचिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्रान्तर्मुहूर्त कस्याश्चित्तावत्प्रमाणायुसकतया तदनन्तरं सूत्वा वेदान्तराधिगमाद्विलक्षणमनुष्यभवान्तराधिगमावा, कधमुत्कर्षतस्रीणि पल्योपमानि पूर्वकाटीपृथक्त्वाभ्वधि कानि ? इति चेदुच्यते-इह नराणां तिरश्चां चोत्कर्पतोऽष्टौ भवाः प्राप्यन्ते नाधिकाः, "नरतिरियाणं सत्तभवा" इति वचनात् , तत्र सप्त भवाः सयवर्षायुषोऽष्टमस्त्वसङ्ग्येयवर्षायुरेव, तथाहि-पर्याप्तमनुध्याः पर्याप्तसम्झिपञ्चेन्द्रियतिर्ययो वा निरन्तरं यथासाय सप्त पर्याप्तमनुष्यभवान् सप्त पर्याप्तसद्धिपञ्चेन्द्रियतिर्यगभवान् वाऽनुभूय यद्यष्टमे भवे भूयः पर्याप्तमनुष्याः पर्याप्तसज्ञिपञ्चेन्द्रियनि अनुक्रम [५६] -- - 4444 ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] स्थितिः श्रीप श्रीजीवा-15ञ्चो वा समुत्पयन्ते ततो नियमादसहदेववर्षायुष एव न साजपेयवर्षायुषः, असल्यवर्षीयुषश्च मृत्ला नियमतो देवलोकेषत्पद्यन्ते, ततो प्रतिपसौ जीवाभिनवमोऽपि मनुष्यभवः सब्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भयो वा निरन्तरं न लभ्यते, अत एव च पाश्चासाः सप्त भवा निरन्तरं भवन्तः सोय- सामान्यमलयगि- वर्षायुष एवोपपद्यन्ते नैकोऽप्यसयवर्षायुः, असायेयवर्घायुर्भवानन्तरं भूयो मनुष्यभवस्य तिर्यग्भवस्य वाऽसम्भवात , तत्र यदा उ- विशेषतरीयावृत्तिः त्कर्षतस्तिर्यक्सीवेदसहिताः पाश्चात्याः सप्तापि भवा पूर्वकोट्यायुषो लभ्यन्ते अष्टमस्तु भवो देवकुर्वादिषु तदा भवन्त्युत्कर्षतस्त्रीणि प- या स्त्रीत्व ल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि तिर्यकत्रीत्वस्वावस्थानम् । अत्रैव विशेषचिन्तां चिकीर्षुराह-'जलयरीए' इत्यादि, जलचर्याः स्त्रिया जलचरस्त्रीत्वेन निरन्तरं भवन्त्या जघन्यतोऽवस्थानमन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं, सप्तपूर्वकोट्यायुभवानन्तरं जलचरखी-ग | सू०४८ गामवश्यं जलचरखीत्वकयुतिभावात् , 'चउपयधलयरीए जहा ओहियाए' इति, चतुष्पदस्थलचरस्त्रिया यथा औधिक्यास्तिर्यकत्रिया हा उक्तं तथा द्रष्टष्य, तथैवम्-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त तत ऊर्व तद्भावपरित्यागसम्भवान् , उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि पूर्वकोटिपथक्वाभ्यVIधिकानि, तानि च प्रागिव भावनीयानि । उर:परिसर्पस्थलचरखिया भुजपरिसर्पस्थल परस्त्रियाश्च यथा जलचरखियास्तथा वक्तव्यं, | तचैव-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपुथक्वं तश्च पूर्ववद्भावनीयम् । खचरखिया जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः पल्योपमासाये-18 यभागः पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिक उत्कर्षतोऽवस्थानमिति । तदेवमुक्तं तिर्यक्तिया: सामान्यतो विशेषतश्च अवस्थानमानं, सम्प्रति मनुष्यस्त्रिया आह-'मणुस्सिधियाए' इत्यादि, मनुष्यस्त्रियाः सामान्यतो यथा औधिक्यास्तियक्खियाः, तश्चैव-जधन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, शानि च सामान्यतस्तिर्यतीबद्भावनीयानि । कर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः क्षेत्र प्रतीत्य | सामान्यत: कर्मक्षेत्रमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तत ऊर्व तझावपरित्यागसम्भवात् , उत्कर्षतश्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वा अनुक्रम [१६] ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] SANSAR भ्यधिकानि, तत्र सप्त भवा महाविदेहेपु अष्टमो भवो भरतैरावतेष्वेकान्तसुषमादौ त्रिपल्योपमप्रमाण इति, 'धर्मचरणं प्रतीत्य' चा5 रित्रासेवनमाश्रिता जघन्येनैकं समयं, सर्वविरतिपरिणामस्य तदावरणकर्मक्षयोपशमवैविध्यत: समयमेकं सम्भवात् , तत ऊर्य मरताणतः प्रतिपातभावात् , उत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, समग्रचरणकालस्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रप्रमाणत्वात् । भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्य खियाः स्त्रीले क्षेत्र प्रतीत्य' भरतायेवाश्रित्य जयन्येनान्तर्मुहूर्त तच प्राग्वद्भावनीयम् , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वको ट्याऽभ्यधिकानि, तानि चैर्व-पूर्व विदेहमनुष्यत्री अपरविदेहमनुष्यखी वा पूर्वकोट्यायुष्का केनापि भरतादावेकान्तसुषमादौ संहता, द सा च यद्यपि महाविदेहक्षेत्रोत्पन्ना तथाऽपि प्रागुक्तमागधपुरुषदृष्टान्तबलेन भारौरावतीया वेति व्यपदिश्यते, तसः सा भारत्यादि व्यपदेशं प्राप्ता पूर्वकोटिं जीवित्ला वायुःक्षयतस्तत्रैव भरतादावेकान्तसुषमाप्रारम्भे समुत्पन्ना, तत एवं देशोनपूर्वकोटबभ्यधिक पल्योपमत्रयमिति । धर्मचरण प्रतीतय कर्मभूमिजखिया इव भावनीयं, जघन्यत एक समयमुस्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी यावन , पूर्व विदेहापर-18 विदेहकर्मभूमिजमनुष्यस्त्रियास्तु क्षेत्रमधिकृय जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तच्च सुप्रतीतं, प्राग्भावितत्वात् , उत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्वं, तत्रैव भूय उत्पत्या, धर्मचरणं प्रतीत्य समागतकर्मभूमिजत्रिया इव वक्तव्यं, जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटि यावदिति भावार्थः ।। उक्ता सामान्यतो विशेषतश्च कर्मभूमिकमनुष्यत्रीवक्तव्यता, साम्प्रतमकर्मभूमकमनुष्यत्रीवक्तव्यतां चिकीर्षुः प्रथमत: सामा-14 न्येनाह–'अकम्मभूमिगमणुस्सित्थी णं भंते !' इत्यादि, अकर्मभूमकमनुष्यस्त्री, णमिति वाक्यालकारे, अकर्मभूमिकमनुष्यतीति कालत: कियशिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम ! 'जन्म' तत्रैव सम्भूतिलक्षण 'प्रतीत्य' आश्रित्य जघन्येन पल्योपमं देशोनं, अष्टभागायूनमपि देशोनं भवति ततो विशेषस्थापनायाह-पल्योपमस्यासयभागोनं जघन्यतः उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, संहरणं प्रतीत्य -CRE अनुक्रम [१६] 1-964 ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] टीप श्रीजीवा- जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमन्तर्मुहूर्तायु:शेषायाः संहतिभावात् , उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि, कथम् । इति प्रतिपनी जीवाभि मादुच्यते-काचित्पूर्व विदेहमनुध्यत्री अपरविदेहमनुष्यत्री वा देशोनपूर्वकोट्यायुःसमन्विता देवकुर्वादौ संहता, सा च पूर्वरष्टाम्तवलेन सामान्यमलयगि- ISI देवकुर्वादिका जाता, ततः सा देशोना पूर्वकोटिं जीवित्वा मृत्वा च तत्रैव त्रिपल्योपमायुष्का समजनि, तत एवं देशोनपूर्वकोट्यधिक विशेषतरीयावृत्तिः लापल्योपमत्रयमिति, अनेन संहरणतो जघन्योत्कृष्टावखानकालमानप्रदर्शनेन न्यूनान्तर्मुहूर्त्तायुःशेषाया गर्भस्त्रिया वा न संहरणमिति या खीत्व प्रतिपादितम् , अन्यथा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षचिन्तायां पूर्वकोट्या देशोनता न स्यादिति । अकर्मभूमिकमनुष्यत्रीविषयामेव विशेष-18 स्थितिः ॥६ ॥ चिन्तां करोति-हेमवयेत्यादि, हैमवसरण्यवतह रिवर्परम्यकवर्षदेवकुरुत्तरकुर्वन्तरद्वीपिकाणां जन्म प्रतीत्य या यस्याः स्थितिस्ततस्तस्या | सू०४८ अवस्थानं वाच्यं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो या यस्या उत्कष्टा स्थितिः सा तस्या देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिका बतम्या, सा चैर्य-हमवतैरण्यवतयोमनुष्यत्री जन्म प्रतीत्य जघन्येन पस्योपमं पल्योपमासपेयभागन्यूनम् , उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्यो पर्म, संहरणमधिकृत्य जघन्वेनान्तर्मुहूर्तम् , अन्तर्मुहूर्त्तायुःशेषाया एव संहरणभावात् , उत्कर्षत: पस्योपमं देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यK||धिक, तप देशोनपूर्वकोट्यायुःसमन्वितायास्तत्र संहरणे तत्रैव च मृत्योत्पन्नाया भावनीयम् । हरिवपरम्पकयोर्जन्म प्रतीत्य जघन्येन । पल्योपमासमवेयभागन्यूने द्वे पल्योपमे, अंत्कर्षत: परिपूर्णे द्वे पल्योपमे । संहरणं प्रतीत्य जपन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षसो देशोनया पूर्वको ट्याऽभ्यधिके द्वे पल्योपमे, भावना प्रागिव । देवकुरूत्तरकुरुपु जन्म प्रतीत्य जघन्यतः पल्योपमासंख्येयभागम्यूनानि त्रीणि पल्योलापमानि, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि । संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि । अन्तरद्वीपेषु जन्म प्रतीय जघन्यत: पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यून पल्योपमासङ्ख्ययभागं यावत् उत्कर्षतः पल्योपमासङ्घषेयभागम् , अनुक्रम [१६] ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक:-1. ---------------------- मलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] एतावत्प्रमाणस्य तन्त्र जघन्यत उत्कर्षतच मनुष्याणामायुषः सम्भवान् , मरणानन्तरं च देवयोनावुत्पादान् । संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकं पल्योपमासङ्खचेयभागं यावन , भावनाऽत्र प्रागिव ।। उक्ता सामस्येन मनुष्यत्रीवक्तव्यता, सम्प्रति देवस्त्रीवक्तव्यतामाह-'देवित्थीण मित्यादि, देवीनां तथाभवस्वभावतया कायस्थितेरसम्भवात् यैव प्राक सामान्यतो विशेषतश्च भवस्थितिक्ता 'सेव संचिहणा भाणियब्वा तदेवावस्थानं वक्तव्यम् , अभिलापश्च 'देविस्थी णं भंते ! दवित्थीति कालतो केवच्चिर होइ?' इत्यादिरूपः सुधिया परिभावनीयः ॥ तदेवमुक्तं सामान्यतो विशेषतश्च स्त्रीवस्यावस्थानकालमानम् । इदानीमन्तरद्वारमाह इत्थीणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति?, गोयमा! जह० अंतोमु० उक्को अणंतं कालं, वणस्सतिकालो, एवं सब्वासिं तिरिक्खित्थीणं । मणुस्सिस्थीए खेत्तं पडुब जह. अंतो उको. वणस्सतिकालो, धम्मचरणं पडुच जहा एक समयं उक्को अणंतं कालं जाव अवठ्ठपोग्गलपरियई देसूर्ण, एवं जाव पुव्यविदेहअवरविदेहियाओ. अकम्मभूमगमगुस्सिस्थीणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति?, गोयमा! जम्मणं पडुच्च जहन्नं दसवाससहस्साई अंतोमुत्समभहियाई, उको० वणस्सतिकालो, संहरणं पडुच जह. अंतोमु० उक्को वणस्सतिकालो, एवं जाव अंतरदी वियाओ । देविस्थियाणं सब्वासिं जह• अंतो० उको वणस्सतिकालो ।। (सू०४९) स्त्रिया भदन्त ! अन्तरं कालत: कियश्चिरं भवति ?, स्त्री भूला स्त्रीला भ्रष्टा सती पुन: कियता कालेन स्त्री भवतीत्यर्थः, एवं दीप अनुक्रम [५६] जी०च०१२ ~131~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [२] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक ८ श्रीजीवा- गौतमेन प्रो कृते सति भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कथमिति चेदुच्यते-इह काचित्नी स्त्रीत्वान्मरणेन कयुखा भवान्तरेर प्रतिपत्ती जीवाभि पुरुषवेदं नपुंसकवेदं वाऽन्तर्मुहूर्तमनुभूय ततो मृत्वा भूयः खीवेनोत्पद्यते तत एव जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त भवति, उत्कर्षतो वनस्प- स्त्रीणाममलयगि- तिकाल:-असङ्खयेयपुगलपरावर्ताख्यो वक्तव्यः, तावता कालेनामुक्तौ सत्यां नियोगतः स्त्रीत्वयोगात् , स च वनस्पतिकाल एवं वक्तव्यः। न्तरं रीयावृत्तिः -अणताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालो, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरियट्ठा, ते गं पोग्गलपरियट्टा आव- सू०४९ लियाए असंखेजहभागो" इति, एवमौधिकतिर्यवीणां जलचरस्थलचरखचरस्त्रीणामौधिकमनुध्यत्रीणां च जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं ॥६१॥ 8 वक्तव्यम् , अभिलापोऽपि सुगमत्वात्स्वयं परिभावनीयः । कर्मभूमिकमनुष्य स्त्रियाः क्षेत्रं-कर्मभूमिक्षेत्रं प्रतीय जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षदतोऽनन्तं कालं वनस्पतिकालप्रमाणं यावत् , धर्मचरणं प्रतीय जघन्येनैकं समयं, सर्वजघन्यस्य समयत्वात् , उत्कणानन्तं कालं, देशोनमअपार्द्ध पुद्रलपराव यावत् , नातो अधिकतरारणलब्धिपातकालः, संपूर्णस्याप्यपापुद्रलपरावर्त्तस्य दर्शनलब्धिपातकालस्य तत्र तत्र प्रदेशे प्रतिपेधात् । एवं भरतैरावतमनुष्यखियाः पूर्व विदेहापरविदेहस्त्रियाच क्षेत्रतो धर्मचरणं चानित्य वक्तव्यम् । अकर्मभूमकमनुष्यखिया जन्म प्रतीयान्तरं जघन्येन दश वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, कथमिति चेदुच्यते-इह काचिदकर्मभूमिका स्त्री मृत्वा | जघन्यस्थितिषु देवेषूत्पन्ना, तत्र दश वर्षसहस्राण्यायुः परिपाख्य तत्क्षये च्युत्या कर्मभूमिपु मनुष्यपुरुषलेन मनुष्यस्त्रीवेन बोत्पद्यते, देवेभ्योऽनन्तरमकर्मभूमिपूत्पादाभावात् , अन्तर्मुहूसेन मृत्वा भूयोऽप्यकर्मभूमिजस्त्रीखेन जायत इति भवन्ति जबन्यतो दश वर्षसवाहनाण्यन्तर्मुहर्राभ्यधिकानि, उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तम् , अकर्मभूमिजत्रियाः कर्मभूशामिपु संरत्य तावता कालेन तथाविधबुद्धिपरावृत्त्या भूयस्तत्रैव नयनात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं, तावता कालेन कर्मभूम्यु अनुक्रम [७] ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत M सूत्रांक . (४९) त्पत्तिवत् संहरणस्यापि नियोगतो भावात् , तथाहि-काचिदकर्मभूमिका कर्मभूमौ संहता, सा च स्वायुःक्षयानन्तरमनन्तकालं वनहस्पत्यादिपु संसृत्य भूयोऽप्यकर्गभूमौ समुत्पन्ना तत: केनापि संहति यथोक्तं संहरणस्योत्कृष्ट कालमानम् । एवं हैमवतहरण्यवतहरि- वर्षरम्यकवर्षदेवकुरुत्तरकुर्वन्तरभूमिकानामपि जन्मतः संहरणतश्च प्रत्येकं जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरं वक्तव्यम् . सुत्रपाठोऽपि सुगमत्वास्वयं परिभावनीयः ॥ सम्प्रति देवस्त्रीणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह-'देवित्थियाणं भंते !' इत्यादि, देवखिया भदन्त ! अन्तरं कालतः | कियधिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! जवन्येनान्तर्मुहूर्त, कल्याश्चिदेवखिया देवीभवाच्युताया गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येपूत्पद्य पर्या प्तिपरिसमाप्तिसमनन्तरं तथाऽध्यवसायमरणेन पुनर्देवीवेनोत्पत्तिसम्भवात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च सुप्रतीत एवं । एवमसुमारकुमारदेव्या आरभ्य यावदीशानदेवनियामुस्कृष्टमन्तरं वक्तव्यं, पाठोऽपि सुगमत्वात्स्यवं परिभावनीयः ।। सम्प्रत्यल्पबहुलं वक्तव्यं, तानि च पञ्च, तद्यथा-प्रथमं सामान्येनाल्पबहुलं विशेषचिन्तायां द्वितीयं त्रिविधतिर्यस्त्रीणां तृतीयं त्रिविधमनुष्यस्त्रीणां चतुर्थे । चतुर्विधदेवस्त्रीणां पञ्च मिश्रस्त्रीणां, तत्र प्रथममल्पबहुत्वमभिधित्सुराह एतासि णं भंते! तिरिक्खजोणित्थियाणं मणुस्सित्थियाणं देवित्थियाणं कतरा २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सब्बत्योवा मणुस्सिस्थियाओ तिरिक्खजोणिस्थियाओ असंखेजगुणाओ देवित्थियाओ असंखिजगुणाओ॥ एतासि णं भंते! तिरिक्खजोणित्थियाणं जलयरीणं थलयरीणं खहयरीण य कतरा २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्लां वा विसेसाहिया वा', गोयमा! सव्वत्थोवाओ खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओं थलयरतिरिक्ख अनुक्रम [१७] KAR- 4564 ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि प्रत सूत्रांक प्रतिपत्ती स्त्रीणाम| पत्रहुत्वं मलयगिरीयावृत्तिः ।। ६२॥ जोणित्थियाओ संवेजगुणाओ जलयरतिरिक्ख० संखेजगुणाओ॥ एतासिणं भंते ! मणुस्सित्थीर्ण कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाण य कतरा २ हिंतो अप्पा या ४१,गोयमा! सब्यस्थोवाओ अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सिन्धियाओदेवकुरूत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सिस्थियाओ दोवि तुल्लाओ संखेजगु०, हरिवासरम्मयवासअकम्मभूमगमणुस्सिस्थियाओ दोषि तहाओ संखेनगु०, हेमवतेरपणवासअकम्मभूमिगमणुस्सिस्थियाओ दोवि तुल्लाओ संग्विजगु०, भरतेरवतवासकम्मभूमगमणुस्सि० दोवि तुल्लाओ संखिजगुणाओ, पुब्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि तुल्लाओ संखेजगुणाओ।। एतासि णं भंते ! देवित्थियाणं भवणवासीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं बेमाणिणीण य कयरा २ हिंतो अप्पा वा पहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सम्वत्थोवाओ वेमाणियदेवित्थियाओ भवणवासिदेवित्थियाओ असंखेजगुणाओ वाणमंतरदेवीयाओ असंखेजगुणाओ जोतिसियदेवित्थियाओ संग्वेजगुणाओ ॥ एतासि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणं जलयरीणंथलयरीणं खहयरीणं मणुस्सिस्थीयाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाणं देवित्थीणं भवणवासियाणं वाणमंतरीणं जोतिसियाण घेमाणिणीण य कयराओर हिंतो अप्पा वा बहुआ वा तल्ला वा विसे०?, गोयमा सव्वत्थोवा अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि संखे - अनुक्रम [१८] -- * ॥ ६२॥ * ~134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [५८] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [५० ] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति ज्वगुणाओ, हरिवासरम्भगवा सअ कम्मभूमगमणुस्मित्थियाओ दोऽवि संखेज्जगु०, हेमवतेरण्णवयवास अकम्मभूमग० दोऽवि संखेज्जगु०, भरहेरवतवासकम्मभूमगमणुस्सित्थीओ दोऽवि तुल्लाओ संखेज्जगु०, पुण्यविदेह अवरविदेहवास कम्मभूमगमणुस्सित्थि० दोऽवि संखेज्जगु०, बेमाणियदेवित्थियाओ असंखेज्जगु०, भवणवासिदेवित्थियाओ असंखेजगु०, खहयरतिरिक्खजो - णित्थियाओ असंखेजगु०, धलयरनिरिक्खजोणित्थियाउ संखिजगु०, जलयरतिरिक्खजोणित्थि - याओ संखेलगुणाओ, वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेल्नगुणाओ जोइसियदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ ॥ ( सू० ५० ) सर्वतो मनुष्यत्रियः सङ्ख्यातकोटाकोटीप्रमाणत्वात् ताभ्यस्तिर्यग्योनिक स्त्रियोऽसयेयगुणाः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं तिर्यक्त्रीणामतिबहुतया सम्भवात् द्वीपसमुद्राणां चासयेयत्वान्, ताभ्योऽपि देवस्त्रियोऽसयेयगुणाः, भवनवासिन्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवीनां प्रत्येक मसयेण्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । द्वितीयन स्पबहुत्वमाह - सर्वस्तोकाः खचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः ताभ्यः स्थलचर तिर्यग्योनिक स्त्रियः सङ्ख्यगुणाः खचरेभ्यः स्थलचराणां खभावत एव प्राचुर्येण भावात् ताभ्यो जलचरस्त्रियः सङ्ख्यगुणाः, लवणे कालोदे खयम्भूरमणे च समुद्रे मत्स्यानामतिप्राचुर्येण भावात् स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य च शेषसमस्तद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽतिप्रभूतवात् ॥ उकं द्वितीयमल्पबहुत्वम् अधुना तृतीयमाह - सर्वस्तोका अन्तरद्वीपका कर्मभूमिकमनुष्यस्त्रियः, क्षेत्रस्याल्पत्वात्, ताभ्यो | देवकुरुत्तरकुरुखियः सङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य सङ्ख्यगुणत्वान्, स्वस्थाने तु द्वय्योऽपि परस्परं तुल्याः समानप्रमाणक्षेत्रत्वात् ताभ्यो For P&Peralise Cinly ~135~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५०] दीप श्रीजीधा- हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सोयगुणाः, देवकुरूत्तरकुरुक्षेत्रापेक्षया हरिवर्षरम्यकक्षेत्रस्यातिप्रचुरत्वान् , स्वस्थानेऽपि २ प्रतिपत्ती जीवाभि य्योऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य समानखात , ताभ्योऽपि हैमवतैरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः ससपेयगुणाः, क्षेत्रस्याल्पलेऽप्यल्प- स्त्रीणाममलयगि- | स्थितिकतया बहूनां तत्र तासां सम्भवात् , स्वस्थाने तु दूय्योऽपि परस्परं तुल्याः, ताभ्योऽपि भरतैरावतकर्मभूमिकमनुष्यस्त्रियः सखये- पबहुत्वं रीयावृत्तिः यगुणाः, कर्मभूमितया स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण सम्भवात् , स्वस्थाने तु द्वय्योऽपि परस्परं तुल्याः, ताभ्योऽपि पूर्वविदेहापरवि-II देहकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सवेयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यादजितस्वामिकाल इव च स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण भावात् , स्वस्थाने तु - योऽपि परस्परं तुल्याः ।। उक्तं तृतीयमल्पबहुलम् , अधुना चतुर्थमाह-सर्वस्तोका वैमानिकदेवत्रियः, अङ्गालमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्य द्वितीय वर्गमूलं तस्मिन् तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावत्म(वान् प्र)देशराशिस्तावत्प्रमाणासु पनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो। नभःप्रदेशा द्वात्रिंशत्तमभागहीनास्तावत्प्रमाणत्वात्प्रत्येक सौधर्मशानदेवस्त्रीणां, ताभ्यो भवनवासिदेवखियोऽसपेयगुणाः, अङ्गुलमात्र-1 क्षेत्रप्रवेशराशेयप्रथम वर्गमूलं तस्मिन् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिभत्रिठाशत्तमभागहीनस्तावत्प्रमाणत्वात् , ताभ्यो व्यन्तरदेवखियोऽसङ्ख्येयगुणाः, सङ्ख्येययोजनप्रमाणकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि दयावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्योऽपि द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपनीते यच्छेपमवतिष्ठते तावत्प्रमाणत्वात्तासां, ताभ्यः सङ्ग्येय गुणा ज्यो तिष्कदेवस्त्रियः, पट्पश्चाशदधिकशतयाङ्गुलप्रमाणेकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्ये कस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्यो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपसारिते यावान प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणलात् ।। उक्तं चतुर्थमल्पबहुत्वम् , इदानी समसस्त्रीविषयं पञ्चममल्पबदुत्वमाह- ॥६३॥ सर्बस्तोका अन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्य खियः, ताभ्यो देवकुरूत्तरकुकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सणण्येयगुणा: ताभ्योऽपि हरिवर्षर अनुक्रम [१८] ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [५८] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [५० ] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति म्यकस्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः ताभ्योऽपि हैमवत हैरण्यवतस्त्रियः सख्येयगुणाः ताभ्योऽपि भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्य स्त्रियः सख्येयगुणाः ताभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहमनुष्य स्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः अत्र भावना प्राग्वत् ताभ्यो वैमानिकदेवस्त्रियोऽसङ्ख्ये गुणाः, अस येयश्रेण्याकाश प्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासां ताभ्यो भवनवासिदेवस्त्रियोऽसङ्ख्यातगुणाः अत्र युक्ति: प्रागेोक्ता ताभ्यः खचरतिवैग्योनिक स्त्रियोऽसयगुणाः. प्रतरासोय भागवन् सङ्ख्येयश्रेणिगता काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासां ताभ्यः स्थलचर तिर्यग्योनि कस्त्रियः, सोयगुण बृहत्तरप्रतरासयेय भागवत्यसले यणिगता काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ताभ्यो जलचर तिर्यग्योनिक स्त्रियः सख्येयगुणाः, बृहत्तमप्रसरास कुख्येयभागवस इथे य श्रेणिगता काशप्रदेश राशिप्रमाणत्वात् ताभ्यो व्यन्तरदेवस्त्रियः सख्येयगुणाः सख्येययोजन कोटा कोटीप्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्यो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपहृते यावान् राशिरव तिष्ठते तावत्प्रमाणत्वात् ताभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवस्त्रियः सख्यगुणाः एतच प्रागेव भावितम् ॥ इह स्त्रीखानुभावः स्त्रीवेदकोंदय इति स्त्रीवेदकर्मणो जघन्यत उत्कर्षतञ्च स्थितिमानमाह इत्थवेदस्स णं भंते! कम्मस्स केवइयं कालं बंघठिती पण्णत्ता?, गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स दिवो सत्तभागो [3] पलिओवमस्स असंखेज्ञनिभागेण ऊणो उक्को० पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ, पण्णरस वाससयाई अबाधा, अवाहणिया कम्मठिती कम्मणिसेओ ॥ इत्यिवेदे णं भंते! किंपगारे पणसे ?, गोयमा ! फुंफुअग्गिसमाणे पण्णत्ते, सेत्तं इत्थियाओ || (सू० ५१ ) 'स्त्रीवेदस्य' श्रीवेदनाम्रो णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त कर्मणः कियन्तं कालं बन्धस्थितिः प्रज्ञता ?, भगवानाह - गौतम! जघन्येन For P&Praise City ~ 137~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत प्रतिपत्ता स्त्रीवेदवन्धस्थितिः सूत्रांक - प्रकारच [१] सु०५१ ॥३४॥ पीप श्रीजीवा- सागरोपमस्य सार्द्धः सप्तभागः पल्योपमासाख्येयभागन्यूनः, कथमिति चेदुच्यते-इह स्त्रीवेदादीनां कर्मणां स्वस्मात् २ उत्कृष्ट स्थिति- जीवाभि || बन्धान मिथ्यात्वसत्कया उत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणया भागे हते यल्लभ्यते तत्पल्योपमासमयेयभागन्यून मलयगि- जघन्य स्थितिः "सेसाणुकोसाभो मिफछत्तुकोसएण जं लद्ध"मित्यादिवचनप्रामाण्यान , तत्र बीवेदस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः पञ्चदशसा- रीयावृत्तिः गरोपमकोटीकोट्यः, तासां मिथ्यात्वस्थित्या भागो व्हियते, शून्यं शून्येन पातयेत् जाता उपरि पञ्चदश अधस्तारसप्ततिः, अनयोश्च छेद्यच्छेदकराश्योर्दशभिरपवर्तना जात उपर्येकः सार्द्धः अधस्तात्सम आगतमेकसागरोपमस्य सार्द्धः सप्तभागः, पस्योपमासछ्येय भागन्यूनः क्रियते, इयं च व्याख्या मूलटीकाऽनुसारेण कृता, पञ्चसङ्ग्रहमनेनापीदमेव जयन्यस्थितिपरिमाणं केवलं पल्योपमाससाहयेयभागहीनं (न) वक्तव्यं, सम्मतेन "सेसाणुकोसाओ मिच्छत्तठिई जं लद्धं" इत्येतावन्मात्रस्यैव जपन्यस्थित्यानयनस्य करणस्य विद्य|मानखान्, कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणीकार स्वित्थं जघन्यस्थित्यानयनाय करणसूत्रमाह-वगुकोसठिईणं मिच्छत्तुकोसगेण जं लद्धं । सेसाणं तु जहण्णं पलियासंग्वेजगेणूर्ण ॥ १ ॥" अस्याक्षरगमनिका-इह ज्ञानावरणीयप्रकृतिसमुदायो ज्ञानावरणीयवर्ग इत्युच्यते, दर्शनावरणीय प्रकृतिसमुदायो दर्शनावरणीयवर्गः, वेदनीयप्रकृतिसमुदायो वेदनीयवर्गः, दर्शनमोहनीयप्रकृतिसमुदायो दर्शनमोहनीयवर्गः, चारित्रमोहनीयप्रकृतिसमुदायचारित्रमोहनीयवर्ग:, नोकषायमोहनीयप्रकृतिसमुदायो नोकषायमोहनीयवर्गः, नामप्रकृतिसमुदायो नामवर्गः, गोत्रप्रकृतिसमुदायो गोत्रवर्गः, अन्तरायप्रकृतिसमुदायोऽन्तरायवर्गः, एतेषां (च) वर्गाणां या आसीया आलीया उत्कृष्टा स्थितित्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यादिका तस्या मिथ्यात्वसत्कया उत्कृष्टया स्थित्या सप्रतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हृते सति यल्लभ्यते तत्पल्योपमासलयेयभागन्यून सत् उक्तशेषाणां निद्रादीनां प्रकृतीनां जघन्यस्थितेः परिमाणमिति, ततस्तन्मतेन स्त्रीवेदस्य ज अनुक्रम [१९] 2-5 ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५१] न्या स्थितिद्वौं सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनौ, तथाहि-नोकपायमोहनीयस्योत्कष्टा स्थितिविंशतिसागरोपम-15 kiकोटीकोट्यः, तासां मिथ्यावस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हियमाणे शून्यं शून्येन पातयेत् लब्धौ द्वौ साग-1 रोपमस्य सप्तभागौ तौ पल्योपमासळ्येयभागहीनौ कियते इति । उस्कृष्टा स्थितिः पञ्चदशसागरोपमकोटीकोट्या, इह स्थितिविधाकर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा अनुभवयोग्या च, तत्रेयं कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा द्रष्टव्या, अनुभवयोग्या पुनरबाधाहीना, (सा) च येषां कर्मणां यावत्यः सागरोपमकोटीकोट्यस्तेषां तावन्ति वर्षशतान्यबाधा, बीवेदस्य चाधिकृतस्योत्कृष्टा स्थितिः पञ्चदश सागरोपमकोटीकोट्यस्ततः पञ्चदश वर्षशताम्यबाधा, तथा चाह-पण्णरस वाससयाई अवाहा इत्ति, किमुक्तं भवति ?-स्त्रीवेदकर्म उत्कृष्टस्थितिकं बद्धं | सत्स्वरूपेण पञ्चदश वर्षशतानि यावन्न जीवस्य स्खविपाकोदयमादर्शयति नावकालमध्ये दलिकनिषेकस्याभावात् , तथा चाह-अ-15 बाहूणिया" इत्यादि, 'अबाधोना' अवाधाकालपरिहीना कर्म स्थितिरनुभवयोग्येति गम्यते, यतः 'अबाधोनः' अवाधाकालपरिहीन: कर्मनिषेक:-कर्मदलिकरचनेति ॥ सम्प्रति वीवेदकर्मोदय जनितो यः स्त्रीवेदः स किस्वरूपः । इत्यावेदयन्नाह-इधिवेए णं भंते। इत्यादि, स्त्रीवेदो णमिति पूर्ववत् भदन्त ! 'किंप्रकार:' किस्खम्पः प्रक्षमः', भगवानाह-गौतम ! फम्फुकाग्निसमानः, फुस्फुकशब्दो विदेशीत्वात्कारीषवचनस्ततः कारीपाग्निसमानः परिमलनमदनदाहरूप इत्यर्थः, प्रज्ञप्तः, उपसंहारमाह-'सेत्तं इथियाओ' ।। तदेयमुक्का: वियः, सम्प्रति पुरुषप्रतिपादनार्थमाह से किं तं पुरिसा, पुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-तिरिक्खजोणियपुरिसा मणुस्सपुरिसा देवपुरिसा॥ से किंतं तिरिक्खजोणियपुरिसा?,२तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-जलयरा धलयरा खयरा, अनुक्रम [१९] SHARE पुरुषस्य त्रैविध्यम् ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति 29- प्रत सूत्रांक [१२] दीप श्रीजीवा- इत्यिभेदो भाणितब्बो, जाव खहयरा, सेत्तं खयरा सेत्तं खयरतिरिक्खजोणियपुरिसा ॥से किं । ४ र प्रतिपत्ती जीवाभि० तं मणुस्सपुरिसा, २तिविधा पपणत्ता, जहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा, सेतं पुरुषभेदामलयगिमणुस्सपुरिसा ।। से किं तं देवपुरिसा, देवपुरिसा चउठिवहां पण्णत्ता, इत्थीभेदो भाणितब्बो धतिदेशः रीयावृत्तिः जाव सव्वट्ठसिद्धा (सू०५२) सू०५२ 'से किं तं पुरिसा' इत्यादि, अथ के ते पुरुषा:?, पुरुषास्त्रिविधाः प्रशप्राः, तद्यथा-तिर्यग्योनिकपुरुषा मनुष्यपुरुषा देवपुरुषाश्च ।। से किं तमित्यादि, अथ के ते तिर्यग्योनिकपुरुषाः, तिर्यग्योनिकपुरुषास्त्रिविधाः प्रज्ञाप्तास्तद्यथा-जलचरपुरुषाः स्थलचरपुरुषाः ६ खचरपुरुषाश्च । मनुष्यपुरुषा अपि त्रिविधास्तद्यथा-कर्मभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपकाश्च ॥ देवसूत्रमाह-से किं तमित्यादि। अथ के ते देवपुरुषा:?, देवपुरुषाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-भवनवासिनो वानमन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाच, भवनपतयोऽसुरादिभेदेन दशविधा वक्तव्याः, वानमन्तरा: पिशाचादिभेदेनराष्टविधाः, ज्योतिष्काश्चन्द्रादिभेदेन पञ्चविधाः, वैमानिकाः कल्पोपपबकल्पातीतभेदेन द्विविधाः, कल्पोपपन्नाः सौधर्मादिभेदेन द्वादशविधाः, कल्पातीता प्रैवेयकानुत्तरोपपातिकभेदेन द्विविधाः, तथा चाह-"जाव अणुत्तरोयवाइया" इति ।। उक्तो भेदः, सम्प्रति स्थितिप्रतिपादनार्थमाह पुरिसस्सणं भंते। केबतियं कालं ठिती पणता?. गोयमा! जह. अंतोम० उक्को० तेत्तीसं सागरोयमाई। तिरिक्वजोणियपुरिसाण मणुस्साणं जा चेव इत्थीणं ठिती सा चेव भणियब्वा ।। ता॥६५॥ देवपुरिसाणवि जाव सब्वट्ठसिद्धाणं ति।ताव ठिती जहा पण्णवणाए तहा भाणियव्वा ।। (सू०५३) अनुक्रम [६०] कर % ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५३] 'परिसस्स णं भंते' इत्यादि, पुरुषस्य ववभवमजहतो भदन्त! कियन्तं कालं यावस्थितिः प्राप्ता, भगवानाह-जपन्यतोऽन्तर्मु-1 हूर्त, तत ऊव मरणभावात् , उत्कर्षतखयविंशत्सागरोपमाणि, तान्यमुत्तरसुरापेक्षया द्रष्टव्यानि, अन्यस्यैतावत्याः स्थितेरभावात् । तिर्यग्योनिकानामौधिकानो जलचरागां स्थलचराणां खचराणां स्त्रिया या स्थितिरुक्का तथा वक्तव्या, मनुष्यपुरुषस्थाप्यौधिकस्य कर्मभूमिकस्य सामान्यतो विशेषतो भरतैरावतकस्य पूर्व विदेहापरविदेहकस्य अकर्मभूमस्य सामान्यतो विशेषतो हैमवतैरण्यरतफस्य हरिवर्परम्यकस्य । 18| देवकुरूत्तरकुरुकस्यान्तरद्वीपकल्य यैवालीये आलीये स्थाने खियाः स्थिति: सैव पुरुषस्यापि बक्तव्या, ताथा-सामानिकतिर्यग्योनिक-1 पुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि, जलचरपुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः पूर्वकोटी, चतुष्पदस्थलचरपुरु पाणां जयन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि, उर:परिसर्पस्थलचरपुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः पूर्वकोटी, एवं भुजपरि18 सर्पस्थलचरपुरुषाणां खचरपुरुषाणामपि जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तगुत्कर्पतः पल्योपमासयेयभागः, सामान्यतो मनुष्यपुरुषाणां जघन्यतोऽ तर्मुहूर्चमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, एतञ्च बाह्यलिङ्गप्रत्रज्याप्रतिपत्तिमरित्य वेदितव्यं, अन्यथा चरणपरिणामस्यैकसामायिकस्यापि सम्भवादेक समयमिति ब्रूयात् , अथवा देशचरणमधिकृत्येदं वक्तव्यं, देशचरणप्रतिपत्तेर्बहुलभङ्ग नया जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तसम्भवात् , तत्र सर्वचरणसम्भवेऽपि यदिदं देशचरणमधिकृलोक्तं वदेशचरणपूर्वकं प्रायः सर्वचरणमिति | हा प्रतिपत्त्यर्थ, तथा चोक्तम्-सम्मत्तंमि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होइ। चरणोवसमखयाणं सागर संखतरा होति ॥ १॥ इति, अत्र यदाद्यं व्याख्यानं तत्त्रीवेदचिन्तायामपि द्रष्टव्वं, यच स्त्रीवेदचिन्तायां व्याख्यातं तदनापीति, उत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी! १ सम्मतपे तु लये पल्पोपमधत्वेनैव श्रावको भवति । चरणोपशमक्षवाणां सागरोपमागि संख्यातानि अन्तरं भवन्ति ॥१॥ दीप अनुक्रम [६१] ~141~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५३] दीप श्रीजीवा- वर्षाष्टकादूर्ध्वगुत्कर्पतोऽपि पूर्वकोट्यायुष एव चरणप्रतिपत्तिसम्भवान् , कर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतस्त्रीणि प- प्रतिपत्तौ जीवाभि भास्योपमानि, चरणप्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य जपन्यतोऽन्समुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां क्षेत्रं प्रतीत्य पुरुषवेदवमलयगि- जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्वीणि पस्योपमानि, वानि च सुपमसुषमारके वेदितव्यानि, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो धस्थितिः रीयावृत्तिःतादेशोना पूर्वकोटी, पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकगनुष्यपुरुषाणां क्षेत्रं प्रतीय जघन्येनान्तर्महमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, धर्मचरणं सू०५३ प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी. सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्येन पल्योपमास॥ ६ ॥ यभागन्यूनमेकं पल्लोपमगुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुल्कण देशोना पूर्वकोटी, पूर्व विदेहकस्या-18 Cपरविदेह कस वाइफर्मभूमौ संहतस्य जघन्येनोत्कर्पत एतावदायुःप्रमाणसम्भवात् , हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्येन पल्योपमं पस्योपमासस्येयभागन्यूनमुत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपम, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो दे शोना पूर्वकोटी, भावना प्रागिव, हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूभकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीय जघन्यतो वे पल्योपमे पन्योपमासङ्ख्येयदाभागन्यूने उत्कर्षतः परिपूर्णे द्वे पल्योपमे, संहरण प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनु-13 प्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्यत: पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षत: परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, 3 संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, अन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतील जघन्येन देशोन-2 सपल्योपमासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः परिपूर्णपल्योपमासङ्ख्येयभागः, संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति ।। देवपुरिसाणमित्यादि, देवपुरुषाणां सामान्यतो जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, विशेषचिन्तायाम-19 अनुक्रम [६१] ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक सुरकुमारपुरुषाणां जपन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः सातिरेकमेकं सागरोपम, नागकुमारादिपुरुषाणां सर्वेषामपि जघन्यतो दश। वर्षसहस्राणि उत्कर्षतो देशोने द्वे पल्योपमे, व्यन्तरपुरुषाणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षत: पल्योपम, ज्योतिष्कदेवपुरुषाणां जघन्यतः पल्योपमस्याष्टमो भाग उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिक, सौधर्मकल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतः पल्योपममुत्करात: द्वे सागरोपमे ईशान-पन्थानम् २०००] कल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतः साधिकं पल्योपममुत्कर्षतो वे सागरोपमे सातिरेके सन कुमारकल्पदेवपुरुषाणां च जघन्यतो हे सागरोपमे उत्कर्षतः सप्त सागरोपमाणि माहेन्द्रकरूपदेवपुरुषाणां जघन्यतः सातिरेके द्वे सागरोपमे उत्कर्पतः सातिरेकाणि सप्त सागरोपमाणि ब्रह्मलोकदेवानां जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कर्पतो दश लान्तककल्पदेवानां जघन्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्पतश्चतुर्दश महाशुक्रकल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतचतुर्दश सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्तदश सहस्रारकस्पदेवानां जघन्येन समदश सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टादश आनतकल्पदेवानां जवन्यतोऽष्टादश सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनवि शतिः प्राणतकल्पदेवानां जघन्यत एकोनविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतो विंशतिः आरण कल्पदेवानां जघन्यतो विंशतिः सागरोपFIमाणि पस्कर्पत एकविंशतिः अभयुत कल्पदेवानां जघन्यत एकविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतो द्वाविंशतिः अवलनासनप्रैवेयकदेवानां | जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतत्रयोविंशतिः अधस्तनमध्यमवेयकदेवानां जघन्यतस्त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतचतुर्विशतिः अधस्तनोपरितनौबेयकदेवानां जघन्यतचतुर्विंशतिः मागरोपमाणि उत्कर्षवः पञ्चविंशतिः मध्यमाधस्तनधेयकदेवानां जघन्येन पञ्चविंशति: सागरोपमाणि उत्कर्पत: पद्दविंशतिः मध्यममध्यमत्रैचेयकदेवानां जघन्यतः पड्विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्यतः सप्तविंशतिः मध्यमोपरितनप्रैबेयकदेवानां जघन्येन सप्तविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टाविंशतिः उपरितनाधस्तनदेयकदेवानां जघजी०च०१२ CARRC-44 [५३] दीप अनुक्रम [६१] ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [५३] दीप अनुक्रम [६१] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [ ५३ ] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ६७ ॥ पुरुषभव न्येनाष्टाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनत्रिंशन् उपरितनमध्यमत्रैवेयकदेवानां जघन्येनैकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्पतत्रिंशत् उप२ प्रतिपंत्तौ रितनोपरितनमैवेयकदेवानां जघन्यतस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्षत एकत्रिंशत् सागरोपमाणि विजयवैजयन्तजयन्तापराजित विमानदेवानां जघन्येनै कत्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयत्रिंशन् सागरोपमाणि सर्वार्थसिद्धमहा बिमान देवानामजघन्योत्कृष्टुं त्रयस्त्रिंशत्साग- ॐ स्थितिः रोपमाणि कचिदेवं सूत्रपाठ: -- "देवपुरिसाण ठिई जहा पण्णवणाए ठिइपए तहा भाणियन्या" इति तत्र स्थितिपदेऽप्येवमेवोक्ता सू० ५३ | स्थितिरिति । उक्तं पुरुषस्य भवस्थितिमानमधुना पुरुषः पुरुषत्वममुञ्चन् कियन्तं कालं निरन्तरमवतिष्ठते इति निरूपणार्थमाह- * पुरुषवेदपुरिसे णं भंते! पुरिसे ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं अंतो० उक्को० सागरोध- स्यस्थितिः मसतपुहतं सातिरेगं । तिरिक्खजोणियपुरिसे णं भंते! कालतो केवधिरं होइ ?, गोयमा ! जहसु० ५४ नेणं अंतो० उको० तिनि पलिओ माई पुञ्वकोडिपुहुत्तमम्भहियाई, एवं तं चेव, संचिणा जहा इत्थीणं जाव खपरतिरिक्खजोणियपुरिसस्स संचिद्वणा । मणुस्सपुरिसाणं भंते! कालतो केचिरं होइ ?, गोमा ! स्तं पहुच जहन्ने० अंतो० उको तिन्नि पलिओ माई पुत्रको डिपुहुत्तमम्भहियाई, धम्मचरणं पडुच जह० अंतो० उक्कोसेणं देभ्रूणा पुञ्चकोडी एवं सव्वत्थ जाव पुत्र्वविदेह अवरविदेह, अकम्मभूमगमणुस्सपुरिसाण जहा अकम्मभूमकमणुस्सित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं जच्चैव ठिती सचैव संचिणा जाव सव्वहसिद्धगाणं || (सू० ५४ ) पुरुष णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! पुरुष इति पुरुषभावापरित्यागेन 'कियथिर' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह - गौतम Fir P&Perse City ~ 144~ 11 10 11 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [६२] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [ ५४ ] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तावतः कालादूर्ध्वं मृत्वा ख्यादिभावगमनादू, उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमशतपृथक्त्वं, सामान्येन तिर्यङनरामरभवेष्वेतावन्तं कालं पुरुषेष्वेव भावसम्भवात्, सातिरेकता कतिपय मनुष्य भवैर्वेदितव्या, अत ऊर्ध्वं पुरुषनामकर्मोदयाभावतो नियमत एव ख्यादिभावगमनात् । तिर्यग्योनिकपुरुषाणां यथा तिर्यग्योनिकस्त्रीणां तथा वक्तव्यं तचैवम् तिर्यग्योनिकपुरुषस्तिर्यग्योनिकपुरुषत्वमजहत् जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तदनन्तरं त्वा गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमात् उत्कर्षतस्त्रीणि पत्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्र पूर्वकोटिपृथक्लं सप्त भवाः पूर्वकोट्यायुपः पूर्वविदेहादी (यतः) त्रीणि पस्योपमान्यष्ट मे भवे देवकुरूत्तरकुरुपु, (यतः) विशेषचिन्तायां जलचरपुरुषो जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त तत ऊर्ध्व मरणभावेन तिर्यग्योन्यन्तरे गव्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमान् उत्कर्षत: पूर्वकोटिपृथक्त्वं, पूर्वकोट्यायुः समन्वितस्य भूयो भूयस्तत्रैव ज्यादिवारोत्पत्तिसम्भवात् । चतुष्पदस्थलचरपुरुषो जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्यो|पमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि तानि सामान्यतिर्यक्पुरुषस्यैव भावनीयानि । उरः परिसर्पस्थलचरपुरुषो भुजपरिसर्पखलचरपुरुषश्च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं तच जलचरपुरुषस्येव भावनीयं । खचरपुरुषो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त, अन्तर्मुहूर्त्तभावना सर्वत्रापि प्रागिव, उत्कर्षतः पूर्वकोटिप्रयत्वाभ्यधिकः पत्योपमासज्येयभागः, स च सत्र वारान् पूर्वकोटिस्थितिपूत्पश्राष्टमबारमन्तरद्वीपादिखचरपुरुषेषु पस्योपमासङ्ख्येयभागस्थितिपुत्पद्यमानस्य वेदितव्यः । 'मणुस्सपुरिसाणं जहा मणुस्सित्थीण' मिति, मनुष्यपुरुषायां यथा मनुष्यस्त्रीणां तथा वक्तव्यं तचैवं सामान्यतो मनुष्यपुरुषस्य क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूचे, तत ऊर्द्ध मृत्वा गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमात् उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटी पृथकत्वाभ्यधिकानि, तत्र सह भवाः पूर्वकोट्यायुषो महाविदेहेषु अष्टमस्तु देवकुर्वादिषु धर्मचरणं प्रतीत्य समयमेकं द्वितीयसमये मरणभावात् उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, उत्कर्षतोऽपि पूर्वकोट्यायुष For P&Pase Cinly ~ 145~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रतिपत्ता पुरुषस्यस्थितिः प्रत सूत्रांक सू०५४ [१४] E5%--- श्रीजीवा एक वर्षाष्टकादुई चरणप्रतिपत्तिभावान्, विशेषचिन्तायां सामान्यत: कर्मभूमकमनुष्यपुरुषः कर्मभूमिरूप क्षेत्र प्रतीत्य जघन्यतोS-II जीवाभिन्तर्मुहूर्तमुस्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि पूर्वकोटि पृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्रान्तर्मुहूर्त्तभावना प्रागिव, प्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्ला- मलयगि भ्यधिकानि सप्त वारान् पूर्वकोट्यायुःसमन्वितेषूत्पद्माष्टम बारमेकान्तसुषमायां भरतैरावतयोखिपल्योपमस्थितिपूत्पद्यमानस्य वेदित- रीयावृत्तिःव्यानि, धर्माचरणं प्रतीत्य जपन्यत एक समय, मविरतिपरिणामल्यै कसामयिकस्यापि सम्भवात् , उत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, समI चरणकालस्याप्यतावत एवं भावान् । भरतैरावल कर्मभूमकमनुष्यपुरुषोऽपि भरतैरावतक्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि | ४ पस्योपमानि देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकानि, तानि च पूर्वकोट्यायुःसमन्वितस्य विदेहपुरुषस्य भरतादी संहत्यानीतस्य भरतादिवासयोगाद् । भरतादिप्रवृत्तव्यपदेशलय भवायुःक्षये एकान्तसुपमाप्रारम्भे समुत्पन्नस्य वेदितव्यानि, धर्माचरणं प्रतीत्य जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, एतच द्वयमपि प्रागिव भावनीय, पूर्व विदेहापरविदेह कर्मभूमकमनुष्यपुरुष: क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः ४ पूर्वकोटिपृथक्त्वं, तश्च भूयो भूयस्तत्रैव समवारानुत्पत्या भावनीय, अत ऊर्द्ध खवश्यं गत्यन्तरे योन्यन्तरे वा संक्रमभावात् , धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी । तथा सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुपस्त दावमपरित्यजन जन्म प्रतीत्य जघन्यत एकं पल्योपमं पल्योपमाससयभागन्यूनमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, संहरणं प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तश्चान्तर्मुहीयुःशेषस्याकर्मभूमिषु संहृतस्य वेदितव्यं, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि, तानि च देशोनपूर्वकोट्यायुःसमवितस्योत्तरकुर्वादौ संहृतस्य तत्रैव मृत्बोत्पन्नस्य वेदितन्यानि, देशोनता च पूर्वकोट्या गर्भकालेन न्यूनत्वाद् , गर्भस्थितस्य संहरणप्रतिषेधात् । हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषो जन्म प्रतीय जघन्यत: पस्योपमासषेयभागन्यून पल्योपममुत्कर्षतः परिपूर्ण % दीप - अनुक्रम [६२] ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५४] दोपल्योपम, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकमेकं पस्योपमं, अत्र भावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं | कन्या । हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषो जन्म प्रतीत्य जघन्यतो वे पल्योपमे पस्योपमासयेयभागन्यूने, उत्कर्षतः परिपूर्णे | x पल्योपमे, जघन्यत उत्कर्षतश्च तत्रैतावत आयुषः सम्भवान् , संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त न्यूनान्तर्मुहूर्तायुषः संहरणाऽस-1 म्भवात् , उत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिके द्वे पल्वोपमे, भावनाऽत्र प्राग्वन् । देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यपुरुषः क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतः पल्योपमासयेयभागन्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षत: परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, संहरणमधिकृत्स जघन्यतो:न्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनपूर्वकोट्यधिकानि । अन्तरद्वीपकमनुष्यपुरुषो जन्म प्रतीत्य देशोनं पल्योपमासमयेयभागमुस्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमासयभागं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिसमभ्यधिक: पल्योपमासमयेयभागः ।। देवाणं जा चेव ठिई सा चेव संचिट्ठणा भाणियब्वा' देवानां चैव स्थितिः प्रागभिहिता सैव 'संचिट्ठणा' इति कायस्थितिर्भणितव्या, नन्वनेकभवभावाश्या कायस्थितिः सा कथमेकस्मिन् भवे भवति ?, नैष दोषः, देवपुरुषो देवपुरुषत्वापरित्यागेन कियन्तं कालं यावहै निरन्तरं भवति ? इत्येतावदेवात्र विवक्षितं, तत्र देवो मृलाऽऽनन्तर्येण भूयो देवो न भवति ततः 'देवाणं जा ठिई सा चेव संचिट्ठणा माणियव्वा' इत्यतिदेशः कृतः ।। तदेवमुक्तं सातत्येनावस्थानमिदानीभन्तरमाह परिसस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होह, गोयमा ! जह० एकं समयं उको० वणस्सतिकालो तिरिक्वज़ोणियपुरिसाणं जह अंतोमु० उक्को० वणस्सतिकालो एवं जाव ग्वयरतिरिक्वजोणियपुरिसाणं ॥ मगुस्सपुरिसाणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ?, गोयमा! खेत दीप अनुक्रम [६२] JaEcon| ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [५५] दीप अनुक्रम [ ६३ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [५५] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि. रीयावृत्तिः ॥ ६९ ॥ पड़च जह० अंतोमु० उको० वणस्सतिकालो, धम्मचरणं पडुच जह० एकं समयं उक्को० अणतं कालं अताओ उस्स० जाव अवहुपोग्गलपरियहं देणं, कम्मभूमकाणं जाव विदेहो जाव धम्मचरणे एको समओ सेसं जहित्थीणं जाव अंतरदीवकाणं || देवपुरिसाणं जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, भवणवासिदेवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो, जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो । आणतदेवपुरिसाणं भंते! केवतियं कार्ल अंतरं होइ ?, गोयमा ! जह० वासपुहुतं उक्को० वणस्सतिकालो, एवं जाव गेवेज्जदेवपुरिसस्सवि । अणुत्तरोववातियदेवपुरिसस्स जह० वासपुत्तं उको संखेजाई सागरोवमाई साइरेगाई || (सू० ५५ ) 'पुरिसरसणं' इत्यादि, पुरुषस्य णमिति वाक्यालङ्कारे पूर्ववत् भदन्त ! अन्तरं कालतः कियचिरं भवति ?, पुरुष: पुरुषत्वात्परिभ्रष्टः सन पुनः कियता कालेन तदवाप्नोतीत्यर्थः, तत्र भगवानाह - गौतम ! जघन्येनैकं समयं समयादनन्तरं भूयोऽपि पुरुषत्वमवाप्नोतीति भावः, इयमत्र भावना-यदा कचित्पुरुष उपशमश्रेणिगत उपशान्ते पुरुषवेदे समयमेकं जीवित्वा तदनन्तरं म्रियते तदाऽसौ नियमाद्देवपुरुबेपूत्पद्यते इति समयमेकमन्तरं पुरुषत्वस्य, ननु स्त्रीनपुंसकयोरपि श्रेणिलाभो भवति तत्कस्मादनयोरप्येवमेकः समयोऽन्तरं न भवति ?, उच्यते, खिया नपुंसकस्य च श्रेण्यारूढाववेदक भावानन्तरं मरणेन तथाविधशुभाध्यवसायतो नियमेन देवपुरुषत्वेनोत्पादातूः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स चैवमभिलपनीय: "अणंताओ उस्सप्पिणीओ ओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अनंता लोगा असंखेच्या पोगालपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइ भागो" इति ॥ तदेवं सामान्यतः पुरुषत्वस्यान्तरमभिधाय सम्प्रति तिर्यक्पुरुषविष For P&P Cy ~148~ २ प्रतिपत्तौ पुरुषवेद स्यान्तरं सू० ५५ ॥ ६९ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति * प्रत सूत्रांक [५५] %8064GS यमतिदेशमाह-जंतिरिक्खजोणित्थीणमंतर मित्यादि, यत्तिर्यग्योनिकस्त्रीणामन्तरं प्रागभिहितं तदेव तिर्यग्योनिकपुरुषाणामप्यविशे|षितं वक्तव्यं, तश्चैवम्-सामान्यतस्तिर्यकपुरुषस्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त तावत्कालस्थितिना मनुष्यादिभवेन व्यवधानात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽसङ्ख्येयपुद्रलपरावर्ताख्यः, तावता कालेनामुक्ती सत्यां नियोगत: पुरुषत्वयोगात् , एवं विशेषचिन्तायां जलचरपुरुषस्य स्थलचरपुरुषस्य खचरपुरुषस्यापि प्रत्येक जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं ॥ सम्प्रति मनुष्यपुरुषत्वविषयान्तरप्रतिपादनार्थमतिदेशमाह | - मणुस्सइत्थीणमंतरं तं मणुस्सपुरिसाण'मिति, यन्मनुष्यस्त्रीणामन्तरं प्रागभिहितं तदेव मनुष्वपुरुषाणामपि वक्तव्यं, तचैवम्-12 सामान्यतो मनुष्यपुरुषस्य जघन्यतः क्षेत्रमधिकृत्यान्तरमन्तर्मुहूर्त, तच्च प्रागिव भावनीयं, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यत एक समयं, चरणपरिणामात्परिभ्रष्टस्य समयानन्तरं भूयोऽपि कस्यचिचरणप्रतिपत्तिसम्भवात् , उत्कर्षतो देशोनापार्द्धपुलपरावतः, एवं भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य जन्म प्रतीत्य चरणमधिकृत्य च प्रत्येक जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं । सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तरं दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, अकर्मभूमकमनुष्यपुरुषत्वेन मृतस्य जघन्यस्थितिषु देवेपूत्पा[ने], ततोऽपि च्युत्वा कर्मभूमिषु बीवेन पुरुषलेन बोत्पद्य कस्याप्यकर्मभूमिलेन भूयोऽप्युत्पादात् , देवभवायुखाऽनन्तरमकर्मभूमिषु मनुष्यत्वेन तिर्यकसज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वेन वा उत्पादाभावा-19 दपान्तराले कर्मभूमिकेषु मृलोत्पादाभिधानं, उत्कर्षतो बनस्पतिकालोऽन्तर, सहरणं प्रतीय जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त, अकर्मभूमेः | कर्मभूमिपु संहत्यान्तर्मुहानन्तरं तथाविधबुद्धिपरावर्त्तादिभावतो भूयस्तत्रैव नयनसम्भवात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, एतावत: कालादूर्द्धमकर्मभूमिपूत्पत्तिवत् संहरणस्यापि नियोगतो भावान् । एवं हैमवतैरण्यवतादिष्वप्यकर्मभूमिषु जन्मतः संहरणतश्च जघन्यत RecX दीप अनुक्रम [६३] ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५५] श्रीजीवा-1|| उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं यावदन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषवक्तव्यता ।। सम्प्रति देवपुरुषाणामन्तरपतिपादनार्थमाह-'देवपुरिसस्स 18 प्रतिपना जीवाभिणं भंते!' इत्यादि, देवपुरुषस्य भदन्त ! कालत: कियश्चिरमन्तरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, देवभवायुखा गर्भ-1 पुरुषवेदमलयगि- व्युत्क्रान्तिकमनुष्येषूत्पद्य पर्याप्तिसमात्यनन्तरं तथाविधाध्यवसायमरणेन भूयोऽपि कस्यापि देवत्वेनोत्पादसम्भवान् , उत्कर्षतो वनस्प- स्थान्तरं रीयावृत्ति तिकालः, एवमसुरकुमारादारभ्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रारकल्पदेवपुरुषस्यान्तरं, आनतकल्पदेवस्यान्तरं जघन्येन वर्षपृथ-18 ०५५ क्वं, कस्मादेतावदिहान्तरमिति चेदुच्यते इह यो गर्भस्थः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः स शुभाध्यवसायोपेतो मृतः सन् आनतक-1|| ॥७ ॥ पादारतो ये देवास्तेपूत्पयते नानतादिषु, तावन्मात्रकालस्य तद्योग्याध्यवसायविशुलभावान् , ततो य आनतादिभ्ययुतः सन् भूयो-12 ऽप्यानतादिषूत्पत्स्यते स नियमाचारित्रमवाप्य, चारित्रं चाष्टमे वर्षे, तत उक्तं जघन्यतो वर्षपृथक्त्वम् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, एवं ||4|| प्राणतारणाच्युतकल्पौवेयकदेवपुरुषाणामपि प्रत्येकमन्तरं जघन्यत उत्कर्षतश्च वक्तव्यम् , अनुत्तरोपपातिककल्पातीतदेवपुरुषस्य जघन्यतोऽन्तरं वर्षपृथक्लमुत्कर्षतः सङ्ग्येयानि सागरोपमाणि सातिरेकाणि, तत्र सधेयानि सागरोपमाणि तदन्यवैमानिकेषु सङ्ख्येयवा-13 रोत्पत्त्या, सातिरेकाणि मनुष्यभरः, तत्र सामान्याभिधानेऽप्येतदपराजितान्तमवगन्तव्यं, सर्वार्थसिद्धे सकृदेवोत्पादतस्तत्रान्तरासम्भवान् , अन्ये त्वभिवधति-भवनवासिन आरभ्य आईशानादमरस्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त, सनत्कुमारादारभ्यासहस्रारानव दिनानि, आनतकल्पादारभ्याल्युतकल्पं यावन्नव मासाः, नवसु अवेयकेषु सर्वार्थसिद्धमहाविमानवर्जे ध्वनुत्तरविमानेषु च नव वर्षाणि, अवेयकान् यावत् सर्वत्राप्युत्कर्षतो वनस्पतिकालः, विजयादिषु चतुर्पु महाविमानेषु द्वे सागरोपमे, उक्तञ्च- आईसाणादमरस्स आईशानादन्तरममराणां हीनं मुहूर्तान्तः । आ सहस्रारात् अच्युतान, अनुत्तरात् दिनमासवर्षनवकम् ॥ १॥ स्थावरकाल उत्कृष्टः सर्वार्थ द्वितीयो नो का ॥ ७ ॥ पादः। द्वे सागरोषमे विजयादिषु. दीप अनुक्रम [६३] SSESEX Iandiacा ~150~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति मा-उपनाम का नि । प्रत सूत्रांक [५५] AGRAAAAA अंतरं हीणयं मुहुत्तंतो । आसहसारे अचुयणुत्तरदिणमासवासनब ॥ १॥ थावरकालुकोसो सवढे बीयओ न उववाओ। दो अ-1 द्रयरा विजयादिसु" इति । तदेवमुक्तमन्तरं, साम्प्रतमल्पबहुत्वं वक्तव्यं, तानि च पञ्च, तद्यथा-प्रथमं सामान्याल्पबहुलं, द्वितीय त्रिविधतिर्यकपुरुषविषय, तृतीयं त्रिविधमनुष्यपुरुषविषय, चतुर्थ चतुर्विधदेवपुरुपविषय, पञ्चमं मिश्रपुरुषविषयं, तन्त्र प्रथमं तावदभिधिस्सुराह अप्पाबहुयाणि जहेवित्थीणं जाव एतेसिणं भंते ! देवपुरिसाणं भवणवासीर्ण वाणमंतराणं जोसिसियाणं वेमाणियाण य कतरेरहिंतो अप्पा वा बहया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा?. गोयमा! सम्वत्थोवा वेमाणियदेवपुरिसा भवणवइदेवपुरिसा असंखे० वाणमंतरदेवपुरिसा असंखे०जोतिसिया देवपुरिसा संखेजगुणा ॥ एतेसि भंते ! तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जलयराणं धलपराणं ग्वहयराणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं अकम्मभूमकाणं अंतरदिव. देवपुरिसाणं भवणवासीणं वाणमन्तरार्ण जोइसियाणं चेमाणियाण सोधम्माण जाव सम्बट्ठसिद्धगाण य कतरे हितो अप्पा वा बहुगा वा जाव विमेसाहिया वा?, गोयमा! सम्वत्योषा अंतरदीवगमणुस्सपुरिमा देवकुरूत्तरकुरुअफम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दोषि संखेज. हरियासरम्मगवासअक० दोवि संखेजगुणा हेमवतहेरण्णबतवासअकम्म० दोवि संखि० भरहेरवतवासकम्मभूमगमणु दोवि संग्वे० पुब्वविदेहअवरविदेहकम्मभू० दोवि संखे० अणुत्सरोववा दीप अनुक्रम [६३] ~151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रतिपत्तो पुरुषाल्प प्रत बहुत्वं सूत्रांक [१६] श्रीजीवा-18 तियदेवपुरिसा असंखि० उवरिमगेविजदेवपुरिसा संखेज मज्झिमगेविजदेवपुरिसा संखेज हेद्विजीवाभि मगेविजदेवपुरिसा संखे० अच्चुयकप्पे देवपुरिसा संखे०, जाव आणतकप्पे देवपुरिसा संखेजा मलयगि- सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखे० महामुक्के कप्पे देवपुरिसा असंखे०जाव माहिंदे कप्पे देवरीयावृत्तिः पुरिसा असंखे० सर्णकुमारकप्पे देवपुरिसा असं० ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंवे० सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संखे० भवणवासिदेवपुरिसा असंग्वे० खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसा असंखे० धलयरतिरिक्वजोणियपरिसा संखे. जलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा असंखे० वाणमंतरदेव पुरिसा संखे०, जोतिसियदेवपुरिसा संखेजगुणा ।। (सू०५६) | पुरिसाणं भंते !' इत्यादि, सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः सङ्ख्येयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्यस्तिर्यग्योनिकपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, प्रतरासख्येयभागवय॑सङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तेषां, तेभ्यो देवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, बृहत्तरप्रतरासङ्ख्येयभागवय॑सख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तिर्यग्योनिकपुरुषाणां यथा तिर्यग्योनिकस्त्रीणां मनुष्यपुरुषाणां यथा मनुष्यस्त्रीणामल्पबहुत्वं (तथा) वक्तव्यं । सम्प्रति देवपुरुषाणामल्पबहु समाह-सर्वस्तोका अनुत्तरोपपातिकदेवपुरुषाः, क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागवाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्य उपरितनपैवेयकदेवपुरुषाः सङ्ख्येवगुणाः, बृहत्तरक्षेत्रपस्योपमासङ्ख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिमानत्वात् , कथमेतदवसेयमिति चेदुख्यते-विमानवाहुल्यान्, तथाहि-अनुत्तरदेवानां पच विमानानि, विमानशतं तूपरितनौवे N यकप्रस्तटे, प्रतिविमानं चास जनायेया देवाः, यथा चाधोऽधोवर्तीनि विमानानि तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण लभ्यन्ते, ततोऽवसी दीप अनुक्रम [६४] ७१।। ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति * प्रत सूत्रांक यते-अनुत्तरविमानवासिदेवपुरुषापेक्षया बृहत्तरक्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणा उपरितननैबेयकप्रसटे देवपुरुषाः। 3|(संख्येयगुणा) एवमुत्तरत्रापि भावना विधेया, तेभ्यो मध्यमवेयकप्रस्तटदेवपुरुषाः सहयगुणाः, तेभ्योऽप्यधस्तनौवेयकप्रस्तटदेव-18 पुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यच्युतकल्पदेवपुरुषाः सधेयगुणा:: तेभ्योऽप्यारभकल्पदेवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, यद्यप्यारणाच्युतकल्पौ समश्रेणीको समविमानसङ्ख्याको च तथाऽपि कृष्णपाक्षिकास्तथास्वाभाब्यात्याचुर्वेण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते । अथ | के ते कृष्णापाक्षिकाः ?, उच्यते, इह द्वये जीवाः, तद्यथा-कृष्णपाक्षिकाः गृहपाक्षिकाच, तत्र येषां किञ्चिदूनोऽपार्द्धपुद्गलपरावतः संसारस्ते शुकृपाक्षिकाः, इतरे दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपाक्षिकाः, उक्तञ्च-"जेसिमबडो पुगालपरियट्टो सेसओ व संसारो । ते | सुक्कपक्खिया खलु अहिर पुण कण्हपक्खीया ॥१॥" अत एव स्तोका: शुलपाक्षिकाः, अल्पसंसाराणां स्तोकानामेव सम्भवान् , बहवः कृष्णपाक्षिकाः, दीर्घसंसाराणामनन्तानन्तानां भावात् , अथ कथमेतदवसातव्यं यथा कृष्णपाक्षिकाः प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, उच्यते, तथास्वाभाव्यात् , तच्च तथास्वाभाव्यमेवं पूर्वीचार्ययुक्तिभिरुपबृंहितं-कृष्णपाक्षिकाः खलु दीर्घसंसार भाजिन उभयन्ते, दीर्घसंसारभाजिनाच बहुपापोदयात्, बहुपापोदयाश्च क्रूरकर्माणः, क्रूरकर्माणध प्रायस्तथाखाभाब्यात् सदभव४ सिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, यत उक्तम्-'पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धीयावि दाहिणिलेतु । नेरइयतिरियमणुया दासुराइठाणेसु गच्छति ।। १॥" ततो दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण कृष्णपाक्षिकाणां सम्भवादुपपद्यते-अच्युतकल्पदेवपुरुषापेक्षयाऽऽर १ येषामपार्थः पुनलपरावतः शेष एष संसारः । ते शुमपाक्षिकाः खलु अधिके पुनः कृष्णपाक्षिकाः ॥ १ ॥२ प्राय इह क्रूरकर्माणो भवसिद्धिका अपि दाक्षिNणात्येषु । भैरपिकतिर्वमनुजासुरादिस्थानेषु गच्छन्ति ॥१॥ 4-CRACTOR M [५६] दीप - 5 अनुक्रम 4 [६४] CARRORK -5%454 -25 ~153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [१६] श्रीजीया- कल्पदेवपुरुषाः सहयगुणाः, तेभ्योऽपि प्राणतकल्पदेवपुरुषाः सङ्ग्येयगुणा:, तेभ्योऽप्यानतकरूपदेवपुरुषाः सायगुणाः, अत्रापि|| प्रतिपनी जीवाभिप्राणत कस्पापेक्षया सहयगुणवं कृष्णपाक्षिकाणां दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्यण भावात् , एते च सर्वेऽप्यनुत्तरविमानवास्यादय आनत- पुरुषाल्प मलयगि-3 कल्पवासिपर्यन्तदेवपुरुषाः प्रत्येक क्षेत्रपल्योपमासययभागवर्तिनभ:प्रदेशराशिप्रमाणा द्रष्टव्याः, "आणयपाणयमाई पहस्सासं-12 बहुत्व रीयावृत्तिः दखभागो उ" इति वचनात् , केवलमसषयो भागो विचित्र इति परस्परं यथोक्तं समययगुणत्वं न विरुध्यते, आनतकल्पदवपुरु षेभ्यः सहस्रारकल्पवासिदेवपुरुषा असङ्ख्यगुणाः, घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसजपेयतमे भागे यावन्त आकाशप्र॥७२॥ देशासावरप्रमाणत्यात्तेषां, तेभ्योऽपि महाशुक्रकल्पवासिदेवपुरुषा असङ्खयेयगुणाः, वृहत्तरश्रेण्यससपेयभागाकाशप्रदेशराशिप्रमाणातत्वान, कथमेतत्प्रत्येयमिति चेदुच्यते-विमानवाहुल्यान् , तथाहि-पट् सहस्राणि विमानानां सहस्रारकल्पे चत्वारिंशत्सहस्राणि महाशुक्र, अन्यच्चाधोविमानवासिनो देवा बहुबहुतरा: स्तोकस्तोकतरा उपरितनोपरितनविमानवासिनस्तत उपपद्यन्ते सहस्रारकल्पदेवपुरुषेभ्यो महाशुक्रकल्पवासिदेवपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि लान्तककल्पदेवपुरुषा असलयेयगुणाः, वृहत्तमश्रेण्यसङ्ख्थेय|भागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणलान् , तेभ्योऽपि ब्रह्मलोककल्पवासिदेवपुरुषा असङ्ख्ययगुणाः, भूयोवृहत्तमश्रेण्यसाययभागवाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात, तेभ्योऽपि माहेन्द्रकल्पदेवपुरुषा असङ्घधेयगुणाः, भूयस्तरवृहत्तमनभःश्रेण्यसङ्ख्येयभागगताकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्यः सनत्कुमारकल्पदेवा असङ्ख्येवगुणाः, विमानबाहुल्यान, तथाहि-द्वादश शतसहस्राणि सनत्कुमारकल्पे विमाना ॥७२।। नामष्टौ शतसहस्राणि माहेन्द्रकल्पे अन्यच्च दक्षिणदिग्भागवत्ती सनत्कुमारकल्पो माहेन्द्रकल्पश्चोत्तरदिग्वौ दक्षिणस्यां च दिशि वहवः १ आनताणतादयः पयोपमस्यासंख्यो भागस्तु. दीप RADISEASEASOK अनुक्रम [६४] - ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत CMCNEE सूत्रांक [५६] समुत्पद्यन्ते कृष्णपालिकाः, तत उपपद्यन्ते माहेन्द्रकल्पासनत्कुमारकल्पे देवा अबधेयगुणाः, एते च सर्वेऽपि सहस्रारकल्पवासिदेबायः सनत्कुमारकल्पवासिदेवपर्यन्ता: प्रत्येकं स्वस्थाने चिन्यमाना बनी कृतलोकैकश्रेण्यसहयेयभागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणा द्रपृथ्याः, केवलं अण्यसत्ययभागोऽसामन्ययभेदभिन्नस्तत इत्थमसद्धयेषगुणतयाऽस्पबहुलमभिधीयमानं न विरोधभाक्, सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषेभ्य ईशानकल्पदेवपुरुषा असङ्ख्यगुणाः, अहुलमानक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धिनि द्वितीये वर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन | गुणिते याबान प्रदेशराशिस्तावत्सङ्ख्याकामु पनीकृतस्य टोकन्यैकमादेशिकीपु श्रेणिपु यावन्तो नभःप्रदेशास्तेषां यावान द्वात्रिंशनमो भागतावत्प्रमाणवान , नेभ्यः सौधर्मकल्पवासिदेवपुरुषाः सवषयगुणाः, विमानबाहुल्यान् , तथाहि-अष्टाविंशतिः शतसहस्राणि विमानानामीशान कल्पे द्वात्रिंशतसहनाणि सौधर्मकरूपे, अपि च दक्षिणदिग्वर्ती सौधर्मकरुप ईशान कल्पश्चोत्तरदिग्बनी, दक्षिगम्यां व दिशि बहवः प्णपाक्षिका उत्प पन्ते, तत ईशानकल्पासिदेवपुरुषेभ्यः सौधर्म कम्पवालिदेवपुरुषाः सहयगुणाः, नम्पियं| युक्तिः सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोरप्युक्ता, परं तत्र माहेन्द्रकल्पापेक्ष्या सनत्कुमारकल्पे देवा असवयेयगुणा का इह तु सीधर्मे कल्पे सवेषगुणातदेवकान, बने, तथास्तुस्वाभाव्यान्, एतजावसीयते प्रज्ञापनादौ सर्वत्र तथाभणनान , तेन्योऽपि भवनवानिदेवपुरुषा असल्ट्येयगुणाः, अलमानक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमे वर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते याबान प्रदेशराशिरूपजायते नायल्सयाकासु भनीकनमा दोकस्यै कप्रादेशिकीपु श्रेणिषु यावन्तो नभ:प्रदेशास्तेषां याबान द्वात्रिंशतमो भागलावलप्रमाणवान् , नेभ्यो यन्तरदेवपुरापा असहदेयगुणाः, सहयेययोजनकोटीकोटीप्रमाणैकग्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्ये कम्मिन प्रतरे भवन्ति तेषां यावान द्वात्रिंशनमो भागसावत्ममाणत्वान , नेभ्यः सयगुणा ज्योतिएकदेवपुरुषाः, पटप थाश इधिक शतदया Co-Oct- दीप अनुक्रम [६४] जोस०१३ ~155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५६] श्रीजीवा जलप्रमाणैकप्रादेशिकअणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकगिन प्रतरे भवन्ति तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तापत्प्रमाणत्वात् ।। स-1 प्रतिपत्ती जीवाभि म्प्रति पञ्चममल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते " इत्यादि. सर्व स्तोका अन्तरद्वीपकमनुष्यपुरुषाः, क्षेत्रम्य तोकत्वात् , तेभ्योऽपि पुरुषवेदिमलयगि-18 सादेवकुरूत्तरकुरुमनुष्यपुरुषाः सपेयगुणाः, क्षेत्रमा बहुत्वात् , स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्पकवर्षाक- | नामल्परीयावृत्तिः मभूमकमनुष्यपुरुषाः सोयगुणाः, क्षेत्रस्यातिबहुत्वात् , स्वस्थाने तु इये ऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य समानत्वान् । तेभ्योऽपि हैमवत- वहुवं हैरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः सङ्ख्येय गुणाः; क्षेत्रस्यात्पत्वेऽज्यल्पस्थितिकतया प्राचुर्येण लभ्यमानलात् . स्वस्थाने तु द्वयेऽपि पर- सू०५६ जास्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि भरतैरायतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः सङ्ग्यगगुणाः, अजितस्वामिकाले उत्कृष्टपदे (इव) स्वभावत एव भरतैरावतेपु [च] मनुष्यपुरुषाणामतिप्राचुर्येण सम्भवात् , स्वस्थाने च द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य तुल्यत्वान् , तेभ्योऽपि पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूगकमनुष्यपुरुषाः सञ्जय गुणाः, क्षेत्रबाहुल्यादजितस्वामिकाले इव स्वभावत एय मनुष्यपुरुषाणां प्राचुर्येण सम्भवात् , स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽनुत्तरोपपातिकदेवपुरुपा असहयगुणाः, श्रेत्रपल्योपमासाहयभागवाकाशप्रदेशप्र-18 माणत्वान् , तदनन्तरमुपरिवनौबेयकप्रस्तटदेवपुरुषा मध्यमवेयकप्रस्तटदेवपुरुषा अधस्तनौवेबकासददेवपुरुषा अच्युतकरूपदेवपापा आरणकल्पदेवपुरुषाः प्राणतकल्पदेवपुरुपा आनत कल्पदेवपुरुपा वथोत्तरं सोयगुणा:, भावना प्रागिब, तदनन्तरं सहसार| कस्पदव पुरुषा लान्तक कल्पदेवपुरुपा ब्रह्मलोककल्पदेवपुरुषा माहेन्द्रकल्पदेवपुरुषाः सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषा ईशानकल्पदेवपुरुषा यथो-I8i सानरमसोयगुणाः, सौधर्मकरूपदेयपुरुषाः सहयगुणाः, सौधर्मकल्पदेवपुरुपेभ्यो भवनवासिदेव पुरुषा असायेय गुणाः, भावना |3|| ॥७३॥ सर्वनापि प्रागिण, तेभ्यः खचरतिर्यग्योनिकपुरुपा असङ्ख्यगुणाः, प्रतरास चेयभागव_समयेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणवान् दीप अनुक्रम [६४] ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत 72% सूत्रांक [५६] तेभ्यः स्थलचरतियंग्योनिकपुरुषाः सहयगुणाः, तेभ्योऽपि जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः सञ्जयगुणा:, युक्तिरत्रापि प्रागिव, तेभ्योऽपि वानमन्तरदेवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, सहयवोजनकोटीप्रमाणैकप्रादेशिकणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेषांक यावान द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वान् , तेभ्यो ज्योतिष्कदेवपुरुषाः सङ्खयेयगुणाः, युक्ति: प्रागेवोक्ता ।। पुरिसवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं बंधहिती पण्णता?, गोयमा! जह० अट्ठ संवच्छराणि, उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीओ, दसवाससयाई अवाहा, अबाहणिया कम्मठिती कम्मणिसेओ ॥ पुरिसवेदे णं भंते! किंपकारे पण्णते?, गोयमा! वणदवग्गिजालसमाणे पण्णत्ते, सेत्तं पुरिसा ॥ (सू०५७) पुरुषवेदस्थितिर्जघन्यतोऽष्टौ संवत्सराणि, एतब्यूनस्य तग्निबन्धनविशिष्टाध्यवसायाभावतो जघन्यलेनासम्भवात् , उत्कर्षतो दश सागरोपमकोटीकोटयः, दश वर्षशतान्यवाधा, अबाधोना कर्मस्थिति: कर्मनिषेकः, अस्य व्याख्या प्राग्वत् ।। तथा पुरुषवेदो भदन्त ! किंप्रकार: प्रज्ञप्तः १, भगवानाह-गौतम ! वाग्निवालासमानः, प्रारम्भे तीत्रमदनदाह इति भावः, प्रज्ञाः ॥ व्याख्यातः पुरुषादाधिकारः, सम्पति नपुंसकाधिकारग्रस्तावः, तत्रेदमादिसूत्रम् से किं तं णपुंसका?, णपुंसका तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-नेरइयनपुंसका निरिक्वजोणियनपुंसका मणुस्सजोणियणपुंसका ॥ से किंत नेरडयनपंसका?, नेरइयनपुंसका सत्तविधा पण्णत्ता, तंजहारयणप्पभापुढबिनेरयनपुंसका सकरप्पभापुढविनेरइयनपुंसका जाव अधेसत्तमपुढविनेरइयणपुं दीप CAKACCASSES अनुक्रम [६४] नपुंसकस्य त्रैविध्यम् ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- सका, से तं नेरइयनपुंसका ॥ से किं तं निरिक्वजोगियणपुंसका?,२ पंचविधा पणत्ता, जहाजीवाभि एगिदियतिरिक्वजोणियनपुंसका, बेइंदि० ते इंदि० चउ० पंचेदियतिरिक्खजोणियणपुंसका ॥ से मलयागि- किं तं एगिदियतिरिक्वजोणियनपुंसका?, २ पञ्चविधा पण्णत्ता, तं० पु० आ० ते वा० ब० से तं रीयावृत्तिः एगिवियतिरिक्वजोणियणपुंसका ॥ से किं तं बेइंदियतिरिक्व जोणियणपुंसका?, २ अणेगविधा पपणत्ता, से तं बेइंदियतिरिक्वजोणिया, एवं तेइंदियावि, चरिंदियावि ॥ से किं तं पंचेंदिय॥ ७४॥ तिरिक्वजोणियणपुंसका?, २तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-जलयरा थलयरा खहयरा । से किं तं जलयरा १, २ सो चेव पुब्बुत्तभेदो आसालियवजितो भाणियब्वो, से तं पंचेंदियतिरिक्वजोणियणपुंसका। सो किं तं मणुस्सनपुंसका?, २ तिविधा पण्णता, तंजहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवका, भेदो जाव भा०॥ (मू०५८) 'से किं तं नपुंसगा' इत्यादि, अथ के ते नपुंसकाः, नपुंसकामिविधाः प्रज्ञाः , तद्यथा-नैरथिकनपुंसकातिर्यग्योनिकन-1 उसका मनुष्यनपुंस काश्च ।। नैरविकनपुंसकप्रतिपादनार्थमाहु-से कि तमित्यादि, अथ के ते नैरयिकनपुंसका: ?, पृथ्वीभेदेन सनविधा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रत्नप्रभागृथ्वीनरयिकनपुंसकाः शर्कराप्रभापृथ्वीनैरयिकनपुंसका: यावधःसप्तमपृथिवीनैरयिकनपुंसकाः, उपसंहारमाह-से तं नेरइयनपुंसका' । सम्प्रति तिर्यग्यो निकनपुंसकप्रतिपादनार्थमाह-'से किं तमित्यादि प्रभसूत्रं सुगमम् | भगवानाह-तिर्यन्योनिकनपुंसकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्राः, तद्यथा-एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यावत्पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकाः ।। प्रतिपत्ती पुरुषवेद | स्थिति नकारी सू ५७ नपुंसक भेदाः [५८] दीप अनुक्रम ACT [६६] ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1,---------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक एकेन्द्रियनपुंसकप्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-एकेन्द्रियतिर्यग्योनि कनपुंसकाः पञ्चविधाः प्रक्षमाः, तद्यथा-पृथिवी कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकास्तेजन्कायिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका वायुकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका बनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकाः, उपसंहारमाह-'मेतं एगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका' ॥ द्वीन्द्रिय-| नपुंसकप्रतिपादनार्थमाह-वेइंदिए'त्यादि, द्वीन्द्रियतिर्यग्बोनिक नपुंमका भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ता: १, भगवानाह-गौतम || | अनेकविधा: प्रज्ञतान्तद्यथा-पुलाकिमिया” इत्यादि पूर्ववत्ताबक्तव्यं यावच्चतुरिन्द्रियभेदपरिसमानिः । पञ्चेन्द्रियतिर्यग् योनिकन| पुंसका भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञाप्ता: , गौतम ! विविधाः प्रजपाः, लाथा-जलचराः खलचरा: बचराश्च, एते च प्राग्वत्सप्रभेदा वक्तव्याः, उपसंहारमाह से तं पंचिंदियतिरिक्ख जोणियण'मगा। 'से किं तमित्यादि, अब के ने मनुष्यनपुंसका:?, मनुलायनपुंसकाबिविधाः प्रक्षनाः, तबधा-कर्मभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपकान, एतेऽपि प्राग्वत्सप्रभेदा वक्तव्याः ।। तुको भेदः, सम्प्रति स्थितिप्रतिपादनार्थमाह पापुंसकस्सने ! केवलियं कालं ठिनी पणता?. गोयामा! जह. मो. 'उको तेसीसं सागरोबमाई रायनपुंसगस्स णं भंते ! केवनियं कालं ठिनी पण ता?, गोयमा ! जह० इमयामसहस्माई 'उको लेसीसं सागरोवमाई, सबसि टिनी भाणियवा जाव अधेस समापुनविनेरइया । निरिक्वजोणियणपुंसकस्स णं भने ! केवइयं कालं ठिनी प०, गोयमा !, जह• अंतो. उको पुवकोही । एगिंदियतिरिक्व जोणियणमक जह अंतो० को बावीसं वामसह दीप अनुक्रम [६६] ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि मलय गिरीयावृत्तिः र प्रतिपत्ती | नपुंसकस्थित्यन्तरे सू०५९ प्रत सूत्रांक [५९] स्साई, पुढविकाइयएगिंदियतिरिकप जोणियणपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ?, जह अंतो० उक्को चावीसं वाससहस्माई, सब्वेसिं एगिदियणपुंसकाणं ठिती भाणियब्वा, येइंदियतेइंदियचरिंदियणपुंसकाणं ठिती भाणितम्या । पंचिंदियतिरिक्वजोणियणपुंसकस्स f भंते ! केवतियं कालं ठिती पणता ?, गोयमा! जह अंतो उक्को पुचकोडी, एवं जलयरतिरिक्वच उप्पदयलयरउरगपरिसप्पभुयगपरिसप्पखहयरतिरिक्व० सम्वेसिं जह. अंतो० उको पुवकोडी । मणुस्मणपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! खेत्तं पटुच्च जह० अंतो० उको० पुन्चकोडी, धम्मचरणं पडुच्च जह० अंतो० उक्को० देसूणा पुव्यकोडी। कम्मभूमगभरहेरचयपुब्वविदेह अवरविदेहमणुस्मणपुंसकस्सवि तहेव, अकम्मभूमगमणुस्मणपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पाणता?, गोयमा! जम्मणं पडच जह० अंतो० उको अंतोमु० साहरणं पडच जह० अंतो. उक्को देमणा पुब्वकोडी, एवं जाव अंतरदीवकाणं ।। णपुंसग णं भंते ! णपुंसए त्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! जहन्नेणं एवं समयं उफो० तरुकालो । णेरइयणपुंसए णं भंते !, २ गोयमा! जह दस बाससहस्साई उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई, एवं पुढवीए ठिती भाणियब्वा । तिरिक्वजोणियणपुंसए णं भंते ! ति०१,२ गोयमा! जह अंतो उक्को वणस्सतिकालो, एवं एगिदियणपुंसकस्स णं, वणस्सतिकाइयस्सवि एवमेव, दीप अनुक्रम [६७] ॥७५ ~160~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक र [५९] सेसाणं जह अंतो० उक्को असंखिजं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालनो, खेत्राओ असंखेजा लोया । बेइंदियतेइंदियचउरिंदियनपुंसकाण य जह अंतो उको० संखेनं कालं । पंचिंदियतिरिक्वजोणियणपुंसए णं भंते !?, गोयमा! जह० अंतो उको पुब्बकोडिपुहुर्स । एवं जलयरतिरिक्खचउप्पदथलचरउरगपरिसप्पभुयगपरिसप्पमहोरगाणवि । मगुस्सणपुंसकस्स णं भंते ! ग्वेत्तं पहुंच जह• अतो. उको० पुब्बकोडिपुहुतं, धम्मचरणं पहुंच जह एक समयं उक्को० देसूणा पुरुषकोडी । एवं कम्मभूमगभरहेरचयपुव्वविदेहअवरविदेहेसुवि भाणियव्यं । अकम्मभूमकमणुस्सणपुंसए णं भंते ! जम्मण (पट्टच) जह० अंतो० उको मुहुक्तपुहत्तं, साहरणं पहुंच जह० अंतो. उको देसूणा पुवकोडी । एवं सब्बेसि जाव अंतरदीवगाणं ॥णपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ?, गोयमा! जह अंतो० उक्को सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं । णेरायणपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ?. जह० अंतो० उको तरकालो, रयणप्पभापुढवीनेरइयणपुंसकस्स जह. अंतो. उको तरुकालो, एवं सव्येसिं जाव अधेसत्तमा । तिरिक्वजोणियणपुंसकस्स जह० अंतो० उको सागरोवमसयपुहुसं सातिरेगं । एगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसकस्स जह० अंतो. उको दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, पुढविआउतेउवाऊणं जह. अंतो उक्को षणस्सइकालो । दीप अनुक्रम [६७] ~161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ५९ ] दीप अनुक्रम [६७] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [५९] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि मलयगियावृत्तिः ॥ ७६ ॥ सतिकाइयाणं जह० अंनो० को० असंखेनं कालं जाव असंग्वेज्ञा लोया, सेसाणं बेदियादीणं जाव वराणं जह० अंतो० उक्को० वणस्पतिकालो। मनुस्सपुंसकस्स येतं पहुंच जह० अंतो० उको० वणस्सतिकालो, धम्मचरणं पहुच जह० एवं समयं उक्को० अर्णनं कालं जावअवपोग्गल परियहं देणं, एवं कम्मभूमकस्सवि भरतेश्वनरस पुव्यविदेह अवरविदेहकस्सवि । अम्मभूमकरणपुंसकस्स णं भंते! केवनियं का० ?, जम्मणं पडुच जह० अंनो० उको वर्णसनिकालो, संहरणं पट्टच जह० अंतो० उको० वस्तनिकालो एवं जाव अंतरदीवगति ॥ (सू० ५९ ) 'नपुंसगस्स णं भंते!" इत्यादि सुगमं नत्ररमन्तर्मुनिर्यमनुष्यापेक्षा यं त्रयत्रिंशत्सागरोपमाणि सप्तमपृथिवीनार कापेक्षया ॥ तदेवं सामान्यतः स्थितिरुक्ता, सम्प्रति विशेषतस्तां विचिचिन्तविपुः प्रथमतः सामान्यतो विशेषतश्च नैरविकनपुंसकविपयामाह- 'नेरइयनपुंसगस्स णमित्यादि, सामान्यतो नैरथिकनपुंसकस्य जयम्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयत्रिशत्सागरोप माथि, विशेषचिन्तायां रनप्रभा पृथिवीनैरविकनपुंसकस्य जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षत एकं सागरोपमं शर्करापृथिवीरचिकनपुंकसस्य जघन्यत एकं सागरोपममुत्कर्षतस्त्रीणि सागरोपमाणि वालुकाप्रभा पृथिवीनैरविकनपुंसकस्य जघन्यतस्त्रीणि सागरोपमाणि ४ उत्कर्षतः सप्त पङ्कप्रभा पृथवीनैरचिकनपुंसकस्य जघन्यतः सप्त सागरोपमाथि उत्कर्षतो दश धूमप्रभा पृथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जघ न्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्षतः समदश तमः प्रमापृथिवीनैरविकनपुंसकस्य जघन्यतः सप्तदश सागरोपमाथि उत्कर्षतो द्वाविं For P&Penalise Cinly ~162~ २ प्रतिपत्तौ नपुंसक स्थित्यन्तरे सू० ५९ ॥ ७६ ॥ y Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५९] शतिः अधःसाभपृथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणे उत्कर्पतत्रयाविशन् , कचिदतिदेशसूत्र जहा प-- गणवणाए ठिइपदे तहे' त्यादि, नत्राप्येवमेवातिदेशव्याण्याऽपि कन्या । सामान्यततिर्वयोनिकनपुंसकस्य स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मु-11 हर्नमुत्कर्पत: पूर्वकोटी, सामान्यत एकेन्द्रियतिर्यन्योनिकनपुंसकस्य जपन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, विशेपचिलायां पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यम्बोनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुरकर्पतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि अकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनि-18 कनपुंसकस्य 'जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः सप्त वर्षसहस्राणि तेज:का विकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतभास्त्रीणि रात्रिन्दियानि वातकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जयन्यनोऽन्तर्मुहुर्तमुत्कर्पतस्त्रीणि वर्षप्तहस्राणि बनस्पतिकायिकैके४/न्द्रियतिर्थग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो दश वर्षसहमाणि । द्वीन्द्रियविर्यम्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमु कर्पतो द्वादश वर्याणि । त्रीन्द्रियतिर्यम्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पत एकोनप याशदू रात्रिन्दिवानि । चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः पश्मासाः । सामान्यतः पवेन्द्रियतिर्थयोनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुइतमुकर्पतः पूर्वकोटी, विशेषचिन्तायां जलचरस्य स्थलचरस्य वचरम्यापि पश्चेन्द्रियनिग्योनिकनपुंसकस्य जचन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी । सामान्यतो मनुष्यनपुंसकस्यापि जघन्यसोऽन्तर्मुहूर्नमुत्कर्षस: पूर्वकोटी, कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त मुत्कर्षत: पूर्वकोटी, 'धर्मचरणं वायवेपपरिकरिता मायाप्रतिपनिमङ्गीकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूरी तत ऊर्द्ध मरणादिभावात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्यकोटी, संवत्सराष्ट्रकादर्द्ध प्रतिपद्याजन्मपालनात्, भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य च क्षेत्रं धर्माचरणं च प्रतीन्य जघन्यत उन्कर्पतश्चैवमेव वक्तव्यम् । अकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकम्य | दीप अनुक्रम [६७] ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति सूत्रांक [५९] श्रीजीवा- जन्म प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तगुत्कर्पणाप्यन्तर्मुहूर्त्तम् , अकर्मभूमौ हि मनुष्या नपुंसकाः संमूर्तिहमा एव भवन्ति, न गर्भब्युल्का- २ प्रतिपत्ती जीवाभिकान्तिका: युगलधर्मिणां नपुंसकवाभावान् , संमूछिमाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तायुषः, केवलं जघन्यादुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्त बृहत्तर- नपुंसकवे. मलयगि- नवसेयं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्नमुत्कर्पतो देशोना पूर्यकोटी, संहरणादूर्ध्वमामरणान्तमवस्थानसम्भवान् , उत्कर्यतो देशोनता दतद्वत्स्थिरीयावृत्तिः पूर्वकोट्या गर्भान्निर्गतल्य संहरणसम्भवात् , एवं विशेषचिन्तायां हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य हरिवर्षरम्यकव-पात्यन्तरादि कर्मभूगकमनुष्यनपुंसकस्य देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकम्य अन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसकस्य च जन्म संहरणं च प्रतीत्यैव- सू०६० ॥ ७७ ॥ मेव वक्तव्यम् ।। सम्प्रति कायस्थितिमाह-'णपुंसगे भंते !' इत्यादि, नपुंसको भदन्त ! नपुंसक इत्यादि, सामान्यतस्त द्वेदापरित्यागेन कालतः कियनिरं भवति?, भगवानाह-गौतम ! जघन्यत एक समयमुत्कर्पतो वनस्पत्तिकालं, तत्रैकसमयता उपशमशेजिसमाप्तौ सत्यामवेदकले सति उपशमश्रेणीत: प्रतिपततो नपुंसकवेदोदयसमयानन्तरं कस्यचिन्मरणान् , तथा मृतस्य चावश्यं देवोत्पादे वेदोदयभावात् , बनस्पतिकाल:-आवलिकासयभागगतसमयराशिप्रमाणासाहयेयपुद्गलपरावर्त्तप्रमाणः । नैरयिकनपुंसककायस्थितिचिन्तायां यदेव सामान्यतो विशेषतश्च स्थितिमान जयन्यत उत्कर्पतचोक्तं तदेवावसातव्यं, भवस्थितिव्यतिरेकेण तत्रान्यस्याः कायस्थितेरसम्भवान् । सामान्यतस्तिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितिचिन्तायां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मृत्वा गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमान, उत्कर्षतो बनस्पतिकालः, विशेषचिन्तायामेकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितावपि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त भावना प्रा| ग्वन् , उत्कर्पतो बनस्पतिकालो यथोदितरूपः, तत्रापि विशेषचिन्तायां पुथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितौ जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसधेयकालोऽसयोत्सर्पिण्यबसर्पिणीप्रमाणः, तथा चाह-कोसेणमसंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पि दीप अनुक्रम [६७] ...अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमाकने एका स्खलना दृश्यते सू० ५९ स्थाने सू०६० इति मुद्रितं ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक CALC [५९] Vणीओसपिणीओ कालसो, खेत्ततो असंखिज्जा लोगा" एषमष्कायिकतेजःकायिकवायुकायिककायखितिष्यपि वक्तव्यं, बनस्पतिकावि कायस्थितौ तथा बक्तव्यं यथा सामान्यत एकेन्द्रियकायस्थिती । द्वीन्द्रियतिबन्योनिकनपुंसककाय स्थिती जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुस्क त: सह्यपेयः कालः, स च सहयेयानि वर्षसहस्राणि प्रतिपत्तव्यः । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियत्तिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थित्योरपि वक्तWilव्यम् । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकनपुंसककायस्थितौ जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: पूर्वकोटिपृथक्वं, तब निरन्तरं सप्तभवान् पूर्वकोट्यायुषो नपुंसकत्वेनानुभवतो वेदितव्य, तत प्रय खवश्यं वेदान्तरे विलक्षणभवान्तरे वा संक्रमात् , एवं जल चरस्थलचरखचरसामान्यतो मनुप्यनपुंसककायस्थितिष्वपि वेदितव्यं, कर्मभूमकमनुष्यनपुंसककायस्थिती क्षेत्रं प्रतीला जघन्यतोऽन्तर्मुस उत्कर्पतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं | भावना प्रागिव, धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्यत एक समयमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, अत्रापि भावना पूर्ववत् । एवं भरतैरावतकर्मभूम कमनुप्यनपुंसककायस्थिती पूर्वविदेहापरविदेहकर्माभूमकमनुष्यनपुंसककायस्थितौ च वाच्यं, सामान्यतोऽकर्मभूगफमनुष्यनपुंसककायदाखितिचिन्तायां जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, एतावत्यपि काले सकृदुत्पादान् , उत्कर्षतोऽन्तर्मुहुर्तगृथक्त्वं, तत ऊर्द्ध तत्र तथोत्पादा-14 भावात् , संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त तत ऊर्द्ध मरणादिभावान् उत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी । एवं हैमवतहरण्यवतहरिवर्परम्यकवर्षदेबकुरुत्तर कुर्वन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसककायस्थितिध्वपि वक्तव्यम् ॥ तदेवमुक्ता कायस्थितिः, साम्प्रतमन्दरमभिधित्मुरिदमाह नपुंसगस्स ण'मित्यादि, नपुंसकस्य णमिति वाक्यालकारे भदन्त ! अन्तरं कालत: कियचिरं भवति ?, नपुंसको भूला नपुंसकत्वात्प-1 परिभ्रष्टः पुनः कियता कालेन नपुंसको भवतीत्यर्थः, भगबानाह-गौतम! जघन्यतोऽन्तर्मुहत्त, एतावता पुरुषादिकालेन व्यवधानात | उत्कर्पत: सागरोपमशतपुथक्वं सातिरेक, पुरुषादिकालस्यैतावत एव सम्भवान् , तथा चात्र सङ्ग्रहणिगाथा-"इस्थिनपुंसा संचि दीप अनुक्रम [६७] ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [५९] श्रीजीवा-हाणेसु पुरिसंतरे य समओ उ । पुरिसनपुंसा संचिट्ठणंतरे सागर पुहुत्तं ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-संचिट्टणा नाम सानत्येनाव- प्रतिपत्तो जीवाभिस्थानं, तत्र स्त्रिया नपुंसकस्य च सातलोनावस्थाने पुरुपान्तरे च जघन्यत एफ: समयः तथा यथा प्रागभिहितम्-'इत्थीए णं भंते नसकवे. मलयगि- इत्थीति कालतो कियश्चिरं होर?, गोयमा ! एगेणं आदेसेणं जहरू गर्ग समय" इत्यादि नया-नपुंसगे गं भंते ! नपुंसगत्ति कालसोद स्थिरीयावृत्तिः कियचिरं होइ?, गोयमा ! जहरू गएकं समय" इत्यादि, तथा-"पुरिसस्स णं भंते ! अंतरं काढतो कियश्चिरं होइ?, गोयमा ! जह-18 त्यन्तरादि नेणं एवं समय" इत्यादि । तथा पुरुषस्य नपुंसकस्य यथाक्रमं संचिट्टणा-सातत्येनावस्थानमन्तरं चोत्कर्पतः सागरपृथक्वं' पदैक॥७ ॥ देशे पदसमुदायोपचारान् सागरोपमशतपृथक्त्वं, तथा च प्रागभिहितम्-पुरिसे गं भंते ! पुरिसेत्ति कारतो किरभिरं होइ', गो-18 यमा जदनेणं अंतोमुटुसं उगोसेण सागरोवमसयपुर सातिरेग" नपुंसकान्तरोत्कर्षप्रतिपाद वेदमेवाधिकृतं तत्सूत्रमिति । तथा| सामान्यतो नैरयिकनपुंसकमान्तरं शपन्यतोऽन्त महत्त, सप्तमनरकपृथिव्या ब्रह्मत्य तन्दुलमत्स्यादिभवेप्यन्तर्मुहू ने स्थित्वा भूयः सत्रमनरकपृथिवीगमनस्य श्रवणान् , उत्कर्पतो बनस्पतिकालः, नरकभवादुहृत्य पारम्पर्येण निगोदेषु मध्ये गत्वाऽनन्त कालमवस्थानात , एवं विशेषचिन्तायां प्रतिपुथिन्यपि बक्कलयं । तथा सामान्यचिन्तायां तिर्थयोनिकनपुंसकस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः मागरोपमशतपृथक्त्वं, सातिरेक खभावना प्रागिव, विशेषचिन्तायां सामान्यत एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्यान्तरमन्तर्मुहुर्त ताबता द्वीन्द्रियादिकालेन थ्यवधानात् , उत्कर्पतो वे सागरोपमसहने, सवयेयवाणि उसकायस्थितिकालस्य एकेन्द्रियत्वव्यवधायकखोत्कर्पतोऽन्येलायत एव सम्भवान् । पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जयन्यतोऽन्तर्मुहमुत्कर्षतो बनस्पतिकालः । एवमकायिकतेज:कायिकवायुका विकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकानामपि वक्तव्यं । वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्य दीप अनुक्रम [६७] ...अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमाकने एका स्खलना दृश्यते-सू० ५९ स्थाने सू०६० इति मद्रितं ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति R प्रत सूत्रांक ECORE [५९] 2 तोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽसलयेयं कालं यावत् , स चासयेयः कालोऽसोया उत्सपिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येया लोकाः, किमुक्तं भवति -असहयेयलोकाकाशप्रदेशानां प्रतिसमयमेकैकापहारे यावत्य उत्सपिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इत्यर्थः, वनस्पतिभवात्प्रच्युतस्यान्यत्रोत्कर्पत एतावन्तं कालमवस्थानसम्भवात् , तदनन्तरं संसारिणो नियमेन भूयो वनस्पतिकायिकत्वेनोत्पादभावात् । हीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकानां जलचरस्थलचरखचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकानां सामान्यतो मनुप्यनपुंसकस्य च जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, सचानन्तः कालो बनस्पतिकालो यथोक्तस्वरूपः प्रतिपत्तव्यः, कर्मभूभकमनुष्यनपुंसकस्यान्तरं क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो वनस्पतिकालः, धर्मचरणं प्रतीला जघन्यत एकं समयं यावत्, लन्धिपातस्य सर्वजघन्यस्यैकसामयिकत्वात् , उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं निर्धारयति-"अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तभो अणना होगा अवई पुग्गलपरियह देसूर्ण"मिति, एवं भरतैरावतपूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकानामपि क्षेत्रं धर्मचरणं च प्रतीत्य जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरं प्रत्येकं वक्तव्यम् । अकर्मभूमकमनुष्यनपुंसफस्य जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, एतावता गत्यन्तरादिकालेन व्यवधानभावान् , उत्कर्षतो बनस्पतिकालः, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तचैवं-कोऽपि कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकः केनाप्यकर्मभूमौ संहतः, स च मागधपुरुषरष्टान्तबलादकर्मभूमक इति ध्यपदिश्यते, ततः | कियरकालानन्तरं तथाविधबुद्धिपरावर्तनभावतो भूयोऽपि कर्मभूमौ संहतः, तत्र चान्तर्मुहूर्त धृत्वा पुनरप्यकर्मभूमावानीतः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः। एवं विशेषचिन्तायो हैमवतहरण्यवतरिवपरम्यकदेवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकानामन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसकस्य | च जन्म संहरणं च प्रतीला जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यम् । तदेवमुक्तमन्तरमधुनाऽस्पबहुखमाह दीप अनुक्रम [६७]] जी०व०१४ ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) ཡྻ सूत्रांक [६०] अनुक्रम [ ६८ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [ ६०] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि गयावृत्तिः ॥ ७९ ॥ " Ja Ekemon एसि णं भने शेरपुंसकाणं तिरिक्वजोणिय नपुंसकाणं मणुस्णपुंसकाण व कमरे कयरेहिन्तो जाव विमाहिया बा ?, गोयमा ! सव्वधोवा मणुस्मणपुंसका नेरइयनपुंसगा असंखेजगुणा fararastraणपुंसका अनगुणा ।। एतेसि णं भंते! रयणप्पापुढविणेरयणपुंस्काणं जाव अहे मत्तमपुढविणेरइयणपुंसकाय कमरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोगमा सम्वन्धोया अहे सत्तमपुविनेरइयणपुंसका छपुढविणेरयणपुंसका असंग्वेज़गुणा जाव ढोचपुढविणेरहयपुंसका असंखेागुणादमीसे रयणप्पभाग पुढवीए रयणपुंसका असंखेजगुणा ॥ एनेसिणं भंते! तिरिक्वजोणियणपुंसकाणं एगिंदियतिरिक्ग्वजोणियणपुंसकाणं पुढविकाइय जाव वस्मनिकाय एगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं बेइंद्रियतेइंद्रियचड रिंदियपंचेंद्रियतिरिक्ग्वजोणियणपुंसकार्ण जलयराणं धलपराणं खयराण य कतरेर हिन्तो जाव विसेसाहिया वा?, गोमा ! सव्वधोवा खयर तिरिकम्वजोणियणपुंसका, थलयतिरिक्वजोणियनपुंसका संवेज • जलयरतिरिवाजोणियनपुंसका संग्वेज चतुरिंदियतिरि० विसेसाहिया इंद्रियति० विसेसाहिया इंद्रियतिः विसेसा० तेउकाइयएगिदियतिरिक्त्या असंखेज़गुणा पुढविकाइयएगिंदियतिरिक्ग्वजोणिया विसेसाहिया, एवं आउवा उवणस्सतिकाइयएगिंदियतिरिक्ग्वजोणियणपुंसका अनंतगुणा ॥ एतेसि णं भंते! मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमिणपुंसकाणं अकम्मभूमिणपुंसकाणं अंत For P&Praise City •••अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने सूत्र क्रमाकने एका स्खलना दृश्यते— सू० ५९ स्थाने सू० ६० इति मुद्रितं ~168~ २ प्रतिपनी नपुंसका नामल्प बहु ०६० ।। ७९ ।। My Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६०] रदीवकाण य कतरे कयरोहितो अप्पा वा ४१, गोयमा! सब्वत्थोवा अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगा दोवि संग्वेजगुणा एवं जाब पुब्वविदेह अवरविदेहकम्म० दोवि संखेजगुणा ॥ एतेसिणं भंते ! णेरड्यणपुंसकाणं रयणप्पभापुढविनेरहयनपुंसकाणं जाव अधेसत्तमापुढविणेरइयणपुंसकाणं तिरिक्व जोणियणपुंसकाणं एगिद्रियतिरिकग्वजोणियाणं पुढविकाइयएगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं जाव वणस्सतिकाइय० येइंदियतेईदियचतुरिंदियपंचिंदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं वहयराणं मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमिकाणं अकम्मभूमिकाणं अंतरदीवकाण य कतरे २ हितो अप्पा ४, गोयमा! सव्व थोवा अधेससमपुढविणेरइयणपुंसका छटपुटविनेरइयनपुंसका असंग्वेज. जाव दोधपुढविणेरायणपुं० असंग्वे० अंतरदीवगमणुस्सणपुंसका असंग्वेज़गुणा, देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमिक० दोवि संग्वेजगुणा जाव पुब्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका दोवि मंग्वेजगुणा, रयणप्पभापुतविणेरइयणपुंसका असंग्वे० बहयरपंचेंदियतिरिक्वज़ोणियनपुंसका असं० थलयर० संग्विज. जलयर० संम्बिजगुणा चतुरिं दियतिरिक्वजोणिय. विसेसाहिया तेइंदिय० विसे बेइंदिय० विसे० तेउक्काइयएगिदिय० असं० पुढविकाइयएगिंदिय. विसेसाहिया दीप अनुक्रम [६८] ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति जीवाभि प्रत सूत्रांक [६०]] N-U दीप श्रीजीवा- आउक्काइय. विसेक बाउकाइय. विसेसा वणस्सइकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसका र प्रतिपत्ती अणंतगुणा ।। (सू०६०) नपुंसकामलयगि-1 'एएसि ण'मित्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका मनुध्यनपुंसकाः, श्रेण्यसहयभागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , रीयावृत्तिः । वानामल्पतेभ्योऽपि नैरयिकनपुंसका असपेयगुणाः, अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशौ तद्गतप्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशि- 1 बहत्वं वति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्पमाणखात्तेषां तेभ्यस्तिर्यग्योलिकनपुंसका ०६० अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तत्वान् ॥ सम्प्रति नैरयिकनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवीनैरबिकनपुंसकाः, अभ्यन्तरण्यसाधेयभागवत्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि पष्ठपृथिवीनैरयिकनपुंसका अ सधेयगुणाः, तेभ्योऽपि पश्चमपश्वीनैरविकनपुंसका असश्येयगुणाः, तेभ्योऽपि चतुर्थपृथिवीनैरयिकनपुंसका असहयगुणाः, -1 दभ्योऽपि तृतीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका असङ्खयेयगुणाः, तेभ्योऽपि द्वितीयथिवीनरविकनपुंसका असलयेयगुणाः, सर्वेषामप्येतेषां पूर्व पूर्वनैरयिकपरिमाणहेतुश्रेण्यसपेयभागापेक्षयाऽसहयेयगुणासखयेयगुणश्रेण्यसयभागवर्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणखात्, द्वितीयपृधिवीनैरविकनपुंसकेभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असोयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशौ तद्गतप्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु धनीकृतस्य लोकस्कप्रादेशिकी' भेणिपु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् , प्रतिपृथिवि च पूर्वोत्तरपश्चिम दिग्भाविनो नैरयिकाः सर्वस्तोकाः, तेभ्यो दक्षिणदिग्भाविनोऽसोयगुणाः, पूर्वपूर्वपृथिवीगतदक्षिणदिग्भाविभ्योऽप्युत्तरस्यामुत्तरस्यां पृथिव्यामसोयगुणाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनः, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम्-"दिसाणुवाएणं सव्व अनुक्रम % [६८] 2 IMI ८. *-%C र ~170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ----------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६०]] थोवा अहेसत्तमपुढविनेरइया पुरथिमपस्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणेहितो अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो छहाए | तमाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिमपश्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिहितो तमापुटविनेरइएहितो पंचमाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेनगुणा । दाहिणिल्लेहितो धूमप्पभापुढविनेरइएहितो चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरझ्या पुरथिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिल्लेहितो पंकप्पभापुढविनेरइएहितो तइयाए बालुयप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा,दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिलेहितो बालयप्पभापुढविनेरइएहितो दुइयाए सकरप्पभाए पुढवीए नेरझ्या पुरथिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिल्लेहिंतो सकरप्पभापुढवीनेरइएहिंतो इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा"। सम्प्रति तिर्यग्योनिकनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्लोकाः खचरपश्चेन्द्रियतियंग्योनिकनपुंसकाः, प्रतरासयभागव_सयेयणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणलान्, तेभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकनपुंसका: सायेयगुणाः, वृहत्तरप्रतरासयेयभागवय॑सोयनेणिगतनभ:प्रदेशराशिप्रमाणत्वान् , तेभ्योऽपि जलचरतिर्यग्बोनिकनपुंसकाः सङ्ख्येय गुणाः, बृहत्तमप्रतरासङ्ख्येयभागवय॑सश्रेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्योऽपि चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषादधिकाः, असङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणाकाशप्रदेशराशिप्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिपु यावन्तो नभःप्रदेशा*स्तावत्प्रमाणखान , तेभ्यखीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततरश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिय तिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततमणिगताकाशप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्यतेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अस-1 दीप अनुक्रम [६८] ~171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६०] श्रीजीवा- यगुणाः, मूक्ष्मवादरभेदभिन्नानां तेषामसहयेबलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वान् , तेभ्यः पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका। र प्रतिपनी जीवाभि विशेषाधिकाः, प्रभूतासभेवलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वान् , तेभ्योऽ कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासये- नपुंसकामलयगि यलोकाकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्योऽपि वायुकाविकैकेन्द्रियतिबग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततमास अपेयलोकाकाशपदेशराशिरीयावृत्तिः प्रमाण वान , तेभ्योऽपि वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतियग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । अधुना | बहुत्वं मनुष्यनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपजमनुष्यनपुंसकाः, एते च संमूर्छनजा द्रष्टव्याः, सू०६० गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यनपुंसकानां तत्रासम्भवान् , संहतास्तु कर्मभूमिजास्तत्र भवेयुरपि, तेभ्यो देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुं-IN सका: सञवगुणाः, तद्गतगर्भजमनुष्याणामन्तरद्वीपजगर्भजमनुष्येभ्यः सह्मषे यगुणत्वान, गर्भजमनुष्योचाराद्याश्रयेण च संमूछिममनुष्याणामुपादान, स्वस्थाने तु दयेऽपि परम्परं तुल्याः, एवं तेभ्यो हरिवर्षरम्यकथाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका सभाषे-1 यगुणाः स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः तेभ्योऽपि हैमवतहेरण्यवतवर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका: सोयगुणाः, स्वस्थाने तु येऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरावतवर्षकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः सङ्ग्ये यगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्यः पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका: सल्येयगुणाः, स्वस्थाने तु दूयेऽपि परस्परं तुल्याः, युक्तिः सर्वत्रापि तथैवानुससातव्या ।। सम्प्रति नैरयिकतिर्यग्मनुष्यविषयमल्पबहसमाह-एएसिणं भंते!' इत्यादि, सर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकनपुं-IN सकाः, तेभ्यः पाठपञ्चमचतुर्थतृतीयद्वितीयपुथिवीनरयिकनपुंसका यथोत्तरमसवयेयगुणाः, द्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसकेभ्योऽन्तरकी- पजमनुष्यनपुंसका असाधेयगुणाः, एतदसवयेय गुणत्वं संमूर्छनजमनुष्यापेक्षं, तेषां नपुंसकत्वावतावतां च तत्र संमूर्छनसम्भवान् , दीप अनुक्रम [६८] ॥८१ ~172~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ----------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६०]] तेभ्यो देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका हरिवर्षरम्य कवर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका | भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका यथोत्तरं सक्येयगुणाः, स्वस्थानचिन्तायां तु द्वयेऽपि ४ परस्परं तुल्याः, पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकेभ्यो ऽस्वां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानायां रमप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असोयगुणाः, सेभ्यः खचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असधेयगुणाः, तेभ्यः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्थग्योनिकनपुंसका जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं सहयगुणाः, जलचरपञ्चेन्द्रियनपुंसकेभ्यश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियतिर्यम् योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकेभ्यस्तेजस्कायिकैकेन्द्रियत्तिर्यग्योनिकनपुंसका असोयगुणाः, तेभ्यः पृथिव्यम्बुवायुतिर्यग्यो-18 निकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, वारवेकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकेभ्यो वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणा: युक्तिः सर्वत्रापि पागुतानुसारेण स्वयं भावनीया ।। सम्प्रति नपुंसकवेदकर्मणो बन्धस्थिति नपुंसकवेदस्य प्रकारं चाह णपुंसकवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पन्नत्ता ?, गोयमा! जह. सागरोवमस्स दोन्नि संतभागा पलिओयमस्स असंखेजतिभागेण ऊगा उको० वीसं सागरोचमकोटाको डीओ, दोपिण य वाससहस्साई अबाधा, अबाहणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। णपुंसकवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते', गोयमा! महाणगरदाहसमाणे पण्णत्ते समणाउसो!, से तं णपुंसका । (सू०६१) 'नपुंसकवेयस्स णं भंते! कम्मस्स' इत्यादि, प्राग्वद्भाबनीयं, नवरं महानगरदाहसमानमिति सर्वावस्थासु सर्वप्रकार, मदनदाह (:समान) दीप अनुक्रम [६८] Jan ~173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगि- रीयावृत्तिः सूत्रांक [६१] ॥८२॥ दीप अनुक्रम [६९] इत्यर्थः ॥ सम्प्रत्यष्टावल्पवहुत्वानि वक्तव्यानि, तद्यथा-प्रथमं सामान्येन तिर्यकत्रीपुरुषनपुंसकप्रतियद्धम् , एवमेव मनुष्यप्रतिबद्ध प्रतिपत्ती द्वितीय, देवसीपुरुषनारकनपुंसकप्रतिबद्धं तृतीय, सकलसम्मिरं चतुर्थ, जलचर्यादिविभागत: पञ्चम, कर्मभूमिजादिमनुष्यख्यादि- नपुंसके विभागतः षष्ठं, भवनवास्यादिदेव्यादिविभागतः सप्तम, जलचर्यादिविजातीयव्यक्तिण्यापकमष्टमं, तत्र प्रथममभिधित्सुराह बन्धएतेसिणं भंते ! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण य कतरेरहितो अप्पा वा ४?, गोयमा! सव्व- स्थितिः त्थोवा पुरिसा इत्थीओ संखि०णपुंसका अणंत। एतेसि णं भंते! तिरिक्खजोणिइत्थीणं तिरि प्रकारश्च क्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियणपुंसकाण य कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४?, गोयमा! सब्बरधोवा तिरिक्खजोणियपुरिसा तिरिक्खजोणिइत्थीओ असंखे०तिरिक्वजो०णपुंसगा अणंतगुणा ।। || वेदानामएतेसिणं भंते! मणुस्सित्थीणं मणुस्सपुरिसाणं मणुस्सणपुंसकाण य कयरे रहिन्तो अप्पा वा ४१, |ल्पबहुत्वं गोयमा! सब्व०मणुस्सपुरिसा मणुस्सित्थीओ संखे० मणुस्सणपुंसका असंखेजगुणा ।। एतेसिणं सू०६२ भंते ! देवित्थीणं देवपुरिसाणं ोरइयणपुंसकाण य कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४?, गोयमा ! सव्वत्थोवा णेरइयणपुंसका देवपुरिसा असं० देविस्थीओ संखेनगुणाओ॥ एतेसि णं भंते! तिरिक्खजोणिस्थीणं तिरिक्खजोणियपरिसाणं तिरिक्खजोकणपुंसकाणं मणुस्सित्धीणं मणुस्सपुरिसाणं मणुस्सनपुंसकाणं देवित्थीणं देवपुरिसाणं णेरइयणपुंसकाण य कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४?, गोयमा! सब्व ॥८ ॥ थोवा मणुस्सपुरिसा मणुस्सित्थीओ संखे० मणुस्सणपुंसका असं० रइयणपुंसका असं० तिरि स्त्री-पुरुष-नपुंसकानाम् अल्प-बहुत्वम् ~174~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति 45- प्रत सूत्रांक 5 [६२] क्वजोणियपुरिसा असं०तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज देवपुरिसा असं० देवित्थियाओ संखि. तिरिक्खजोणियणपंसका अणंतगुणा।। एतेसिणं भंते!तिरिक्खजोणिस्थीणं जलयरीणं थलयरीणं खयरीणं तिरिक्वजोणियपुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं तिरिक्खजो० णपुंसकाणं एगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं पुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजो० णपुंसकाणं जाव वणस्सतिकाइय० बेइंदियतिरिक्खजोणिणपुंसकाणं तेइंदिय० चउरिंदिय० पंचेदियतिरिक्ग्वजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खयराणं कतरे २ हितो जाब विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सब्बत्योवा ग्वहयरतिरिकग्वजोणियपुरिसा खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संग्वेज० थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियपुरिसा संखे० धलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिस्थियाओ संवे० जलयरतिरिक्वजो पुरिसा संखि० जलयरतिरिकग्नजोणिस्थीयाओ संखेजगु० बहयरपंचिंदियतिरिक्श्वजो० णपुंसका असंखे० बलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणि नपुंसगा संवि० जलयरपंचंदियतिरिक्ग्वजोणियनपुंसका संखे० चरिदियतिरि० विसेसाहिया इंदियणपुंसका विसेसादिया येइंदियनपुंसका विसेसा० तेउक्काइयएगिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका असं० पुढवि० णपुंसका विसेसाहिया आउ० विसेसाहिया वाउ० विसेसा वणप्फति० एगिन्दियणपुंसका अणंतगुणा ॥ एतेसि णं भंते! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवियाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं - दीप % अनुक्रम [७०] %* ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति NE प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरोयावृत्तिः सूत्रांक २ प्रतिपत्ती नपुंसके बन्ध| स्थितिः प्रकारश्च सू०६१ वेदानामल्पत्रहुन्वं -% [६२] ॥ ८३॥ अकम्मभूमकाणं अंतरदीवकाणं मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमाणं अकम्म० अंतरदीविकाण य कयरे २ हिन्तो अप्पा वा ४?, गोयमा! अंतरदीवगा नगुस्मित्थियाओ मणुस्सपुरिसाण] य एते णं दुन्नि य तुल्लावि सव्वत्थोवा देवकुमउत्तरकुमकम्मभूमगमणुस्सिन्थियाओ मणुस्सपुरिसा एते णं दोनिवि तुल्ला संखे हरिवासरम्मवासअकम्मभूमकमणुस्सित्थियाउ मणुस्सपुरिसा य एते सि] णं दोनिवि तुल्ला संखे० हेमवतहेरपणवतअकस्मभूमकमणुस्सिन्धियाओ मणुस्मपुरिसाण य दोवि तुल्ला मंग्वे० भरहेरवतकम्मभूमगमणुस्मपुरिसा होवि मंग्व० भरहेरवतकम्ममणुस्सित्थियाओ दोवि संग्वे० । पुम्वविदेह अबरविदेहकम्मभूमगमणुस्सपुरिला दोवि संग्वे० पुब्वविदेह अवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि संवा अंतरदीवगमणुस्सणपुंसका असंवे० देवकुमउत्तरकुरुकम्मभूमकमणुस्सणपुंसका दोषि संग्वेजगुणा [प] नहेव जाव पुरवविदेहकम्मभूमकमणुस्सणपुंसका दोबि संग्वेजगुणा ।। एतासि णं भंते! देवित्धीणं भवणवासीणीणं चाणमन्तरीणीर्ण जोइसिणीणं बेमाणिणीणं देवपुरिमाणं भवणवासिणं जाव चेमाणियाणं सोधम्मकाणं जाव गेवेजकाणं अणुत्तरोववातियाणं णेरडयणपंसकाणं रयणप्पभापदविणेरडयणपुंसगाणं जाव अहे. सत्तमपुढविनेरइय० कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा! सवयोवा अणुत्तरोववातियदेवपुरिसा उवरिमगेवेजदेवपुरिसा संग्वेजगुणा तं चेव जाव आणते कप्पे देवपुरिमा संखेज गुणा, दीप अनुक्रम [७०] 11८३॥ ~ 176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति - --- प्रत - सूत्रांक [६२] -- अहेसत्तमाए पुढवीए णेरहयणपुंसका असंग्वेज़गुणा, उट्ठीए पुढवीए नेरइय० असंग्वेज़गुणा म. हस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा महासुक्के कप्पे देवा असंखेनगुणा पंचमाए पुटपीए नेरइयणपुंसका असंग्वेजगुणा लंतए कप्पे देवा असंखेजगुणा चउत्थीए पुढवीए नेरदया अमंग्वेजगुणा बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेनगुणा तयाग पुढवीए नेरइय. असंखेजगुणा माहिद कप्पे देवयुरिसा असंखेजगुणा सणंकमारकाप्पे देवपुरिसा असंवेजगुणा दोचाए पुढवीए नेहया अमंग्वे. ज्जगुणा, इसाणे कप्पे देवपुरिसा असंवेागुणा ईसाणे कप्पे देविधियाओ संग्रजगुणाओ. मोधम्मे(कप्पे) देवपुरिमा संखेज लोधम्मे कप्पे देविस्थियाओ संग्वे भवगनासिदेवपुरिमा अपग्वेजगुणा भणयासिदेविस्थियागो मंग्वेलागुणाओ इमीगे रयणभापुतवीए रहया असंखेशाणा वाणमंतरदेवपुरिमा असंग्ले लागुणा वाणभनरदेविधियाओ मंग्वेलागुणाओ जोनिमियदेवपुरिमा संग्वेजगुणा जोनिसियदेरित्थियाओ मंग्वेक्षणा || नासिगं भने लिरिक्रजोणिधी जलपरीणं थलयरीणं वहयरीणं निरिच जोणियपुरिमाणं जलपराणं पर या यरा निरिटरवजोणियणपुसकाण पगिदियतिरिक्वजोणिपणपुनकाण पुराणिकाइयतिदिपछि जोपासका असत्यागिदिया जोलापुसकाणं जाव नगर निकाइय-मिनियनि- जोसका ईतिगदि को पाएमकाणं लेइदिपनि जोपासका वरिंद्रियनि जो नपुंसका गोटियलिए - दीप अनुक्रम - - [७०] -- - ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ८४॥ सूत्रांक २ प्रतिपत्ता नपुंसके बन्धस्थितिः प्रकारश्च सू०६१ सावेदानाम ल्पबहुत्वं [६२] जो णपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं मणुस्सित्धीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाण अंतरदीवियाणं मणुस्सपरिसाणं कम्मभूमियाणं अकम्म० अंतरदीवयाणं मणुस्सणघुसकाणं कम्मभूमिकाणं अकम्मभूमिकाणं अंतरदीवकाणं देविस्थीर्ण भवणवासिणीणं वाणमंतरीणीणं जोतिसिणीणं बेमाणिणीर्ण देव रिसाणं भवणवासिणीर्ण वाणमंतराणं जोतिसियाणं वेमाणियाणं सोधम्मकाणं जाय गवेजकाणं अणुत्तरोवधातियाण नेरइयणपुंसकाणं रयणप्पभापुरबिनेरहयनपुंसकाणं जाय अहेसत्तमपुढविणेरइयणपुंसकःण य कयरे २ हिन्तो अप्पा वा ४?, गोयमा! अंतरदीवअकम्मभूमकमणुस्सित्थीओ मगुस्सपुरिसा य, एते णं दोवि तुल्ला सव्वस्थोवा, देवकुमउत्तरकुरुकम्मभूमगमणुस्सइत्थीओ पुरिसा य एते णं दोवि तुल्ला संग्वे०एवं हरियासरम्मगवास एवं हेमवतहेरपणथयभरहरवयकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दोवि संग्वे० भरहेरयतकम्म० मणुस्सित्थीओदोवि संखे० पुब्वविदेह अवरविदेहकम्मभूमकमणुस्सपुरिसा दोषि संखे०, पुण्यविदेहअवरविहे. हकम्म०मणुस्सित्थियाओ दोवि संखे० अणुत्तरोववातियदेवपुरिसा असंखेजगुणा उपरिमगेवेजा देवपुरिसा संखे० जाव आणते कप्पे देवपुरिसा संग्व० अधेसत्तमाए पुढचीए नेरइयणपुंसका असंखे० छट्ठीए पुढवीए नेरइयनपुंसका असं० सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखे० महासुफे कप्पे देव० असं० पंचमाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असं० लंतए कप्पे देवपु० असं० चउत्थीए पुढवीए नेरइ. दीप -- अनुक्रम - [७०] kA ॥८४॥ ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६२] यनपुंसका असं वंभलोग कप्पे देवपुरिसा अमं० नचाए पुटवीए नेरइयण असं० माहिद कप्पे देवपु० असंखे० सर्णकुमारे कप्पे देवपुरिसा असं० दोचाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असं० अंनरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका असंवे० देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका दोवि संखे० एवं जाब विदहत्ति, ईमाणे कप्पे देवपुरिसा असं० ईसाणकप्पे देविस्थियाओ संग्खे. सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संग्वे. सोहम्मे कप्पे देवित्थियाओ संग्वेज भवणवासिदेवपुरिसा असंवेभवणवासिदेवित्थियाओ संखिजगुणाओ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयणपुंसका असं० ग्वयरतिरिकखजोणियपुरिसा संग्वेज़ गुणा खयरतिरिक्वजोणिस्थियाओ संग्वे० थलयरतिरिक्व जोणियपुरिसा संम्बे० थलयरतिरिक्वजोणित्थियाओ संग्वे. जलयरतिरिक्त पुरिसा संग्वे० जलयरतिरिकवजोणित्थियाउ संग्वे०, वाणमंतरदेवपुरिसा संग्वे० चाणमंतरदेविस्थियाओ संग्वे. जोतिसियदेवपुरिसा संखे. जोतिसियदेवित्थियाओ संग्वे० ग्वहयरपंचेंदियतिरिक्वजोणियणपुंसा संम्ब० घलयरणपुंसका संखे० जलयरणापुंसका संखे० चतुरिंदियणपुंसका विसेसाहिया तेइंदियः विसेसा घेईदिय० बिसेसा तेउकाइयएगिदियतिरिक्व जोणियणपुंसका असं पुढवी. विसेसा० आऊ बिसेसा वाऊ. विसेसा० वणप्फतिकाइयएगिदियतिरिकवजो० णपुंसका अणंतगुणा ।। (सू०६२) दीप 1 अनुक्रम [७०] 440 जी०५०१५ -%. ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति C-24 प्रत रीयावृत्तिः । सूत्रांक प [६२] श्रीजीवा 'एयासि णं भंते ! तिरिक्खजोणियइत्थीण' इत्यादि, सर्वस्तोकास्तिर्यपुरुषाः, तेभ्यस्तियस्त्रियः सोयगुणास्त्रिगुणत्वात् , प्रतिपत्ती जावामिताभ्यस्तिर्यगनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तानन्तलान् ।। सम्प्रति द्वितीयमल्पबहुत्वमाह-'एयासि णं भंते !' इत्यादि स्त्रीपुन्नपुंमलयगि सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः सहयेयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्यो मनुष्यस्त्रियः सख्येय गुणाः सप्तविंशतिगुणत्वान , ताभ्यो मनुष्वनपुंसका | सकाना असल्येयगुणाः श्रेण्यसापेयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणलान ॥ सम्प्रति तृतीयमल्पबहुवमाह-'एयासि णं भंते! देवित्धीण'मि- मल्यबहुत्व न्यानि मर्वम्तोका नैरयिकनपुंसका अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशी स्वप्रथमवर्गमूलन गुणिने यावान, प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु गतिषु धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकी श्रेणिपु यावन्तो नभःप्रदेशातावत्यमाणलान , तेभ्यो देवपुरुपा असहयगुणा असहयययोज-18 सू०६२ नकोटीकोटीप्रमाणायां सूचौ यावन्तो नभ:प्रदेशाताबरप्रमाणासु पनीकृतम्य लोकम्य एकप्रादेशिकीपु श्रेणिपु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणखान , तेभ्यो देवत्रियः सयेयगुणा द्वात्रिंशद्गणवान ।। सम्प्रति सकलमनिम चतुर्थमल्पबहुत्वमाह-एयासि ण'मित्यादि। सर्यम्तोका मनुष्यपुस्पालेभ्यो मनुष्यस्त्रियः सय गुणाः, ताभ्यो मनुष्यनपुंसका अमरबेयगुणाः, अत्र युक्तिः प्रागुक्ता, तेभ्यो | नैरबिकनपुंसका असहयगुणा असवश्रेण्याकामप्रदेशराशिप्रमाण लान, नेभ्यस्लिग्योनिकपुरूषा असामवेयगुणाः प्रतरासक्यभानावयंमायोणिगताकाशपदेशराशिप्रमाणत्वान् , तेभ्यस्तियरयोनिकम्निय: मध्ये यगुणास्त्रिगुणत्वाम् , नाभ्यो देवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणा:12 पभूननायतरासालेयभागवयस बरेय श्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणलान, तेभ्यो देवधियः सहव्यगुणा द्वात्रिंशगुणत्वात् , ताभ्यस्तिकार्ययोनिकनपुंसका अनन्तगुणा निगोदजीवानामनन्तानन्तवान् । सम्प्रति जलचर्या निविभाजनः पश्चममापबाह स्वमाह-'एयासि णं भंते ! इत्यादि, मनोकाः खचरपञ्चेन्द्रियतिबग्योनिकपुरूपाः, नेवः खचरतियग्योनिस्त्रियः सायगुणात्रिगुणलान , ताभ्यः स्थल दीप अनुक्रम [७०] ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [७०] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [६२] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति चरतिर्यग्योनिकपुरुषाः सङ्ख्यगुणाः, तेभ्यस्तत्त्रियः सत्यगुणात्रिगुणत्वात् ताभ्यो जलचर तिर्यग्योनिकपुरुषाः सङ्ख्यगुणाः, तेभ्यो जलचरतिर्यग्योनिक स्त्रियः सङ्ख्यगुणाखिगुणत्वात् ताभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः स्वलचरजलचर तिर्यग्योनि कनपुंसका यथाक्रमं येयगुणाः, ततचतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रिया यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततस्तेजः कायिकै केन्द्रियतिर्थंग्योनिकनपुंसका असङ्ख्यगुणाः, ततः पृथिव्यन्वायुकायिकै केन्द्रिय तिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततो वनस्पतिकायिकै केन्द्रिय तिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः ॥ सम्प्रति कर्मभूमिजादिमनुष्यख्यादिविभागतः पष्ठमल्पबहुत्वमाह-- 'एयासि णं भंते ।' इत्यादि, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपक मनुष्य स्त्रियोऽन्तर द्वीपक मनुष्यपुरुपाध, एते च इयेऽपि परस्परं तुल्याः, तत्रत्यस्त्री-दें। पुंसानां युगलधर्मोपेतत्वात् तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यत्रियो मनुष्यपुरुषाश्च सङ्घीयगुणाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, एवं हरिवर्षरम्यकपुरुषस्त्रियो हैमवतहैरण्ययतमनुष्यपुरुषस्त्रियञ्च यथोत्तरं सवगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः ततो भरतैरावतकर्म्मभूमकमनुष्या द्वयेऽपि सङ्ख्येयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरावतकमै भूमकमनुष्य- N त्रियो योऽपि सवेयगुणाः सप्तविंशतिगुणत्वान् खखाने तु परस्परं तुल्याः ताभ्यः पूर्वविदेहापर विदेह कर्म्म भूमक मनुष्य पुरुषा | द्वयेऽपि सोयगुणाः स्वस्थाने परस्परं तुल्याः तेभ्यः पूर्वविदेहापर विदेह कर्मभूमकमनुध्यत्रियो द्वय्योऽपि सहत्रेयगुणाः सप्तविंशतिगुणत्वात् स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः तेभ्योऽन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसका असङ्ख्येयगुणाः श्रेण्य होय भागगताकाशप्रदेशराशिममाणलात् तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि यगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ततो हरिवर्ष रम्यकवक भूमक मनुष्य नपुंसका द्वयेऽपि ज्ञेयगुणाः, सस्थाने तु परस्परं तुल्याः तेभ्यो हैमवत हैरण्यवता कर्मभूमकमनुष्य नपुंसका For P&Praise City ~ 181~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६२] श्रीजीवा- येऽपि सक्वेयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि सहयगुणाः, स्वस्थाने तु र प्रतिपत्तौ जीवाभि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि सवयेयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । सम्प्रति स्त्रीपन्नपंमलयगि- भवनवास्पादिदेव्यादिविभागत: सप्तममल्पबहुपमाह-एयासि णं भंते! देबित्थीणं भवणवासिणीण'मित्यादि, सर्वस्तोका अनु- सकानारीयावृत्तिः त्तरोयपातिका देवपुरुषाः, तत उपरितनप्रैवेयकमध्यमवेयकाधस्तनप्रैवेयकाच्युतारणप्राणतानतकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरं सोयेयगुणा: मल्पवहत्व ततोऽय:सप्तमपटपृथिवीनरयिकनपुंसकसहस्रारमहाशुक्रकल्पदेवपुरुषपचमथिवीनैरयिकनपुंसकलान्तककल्पदेवपुरुषचतुर्थपृथिवीनैरयिक- गतिषु नपुंसकनहालोककल्पदेवपुरुषतृतीयपृथिवीनरयिकनपुंसकमाहेन्द्रसनत्कुमारकल्पदेवपुरुपद्वितीयपृथिवीनैरबिकनपुंसका यथोत्तरमस येय गुणाः, तत ईशानकल्पदेवपुरुषा असषयगुणाः, तेभ्य ईशानकल्पदेवखियः सङ्ख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वान्, ततः सौधर्मकल्पदेव॥हापुरुषाः सद्धयेयगुणाः, तेभ्योऽपि सौधर्मकल्पदेवखियः साहयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वान् , तेभ्यो भवनवासिदेवपुरुषा असङ्ख्येय-16 गुणाः, तेभ्यो भवनवासिदेव्यः सहयेयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , ताभ्यो रत्नप्रभावां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असहये यगुणाः, तेभ्यो | वानमन्तरदेवपुरुषा असल्यगुणाः, तेभ्यो वानमन्तरदेव्यः सवेयगुणाः, ताभ्यो ज्योतिटकाः सपेयगुणाः, तेभ्यो ज्योतिष्क-] देवरिय: संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ॥ सम्प्रति विजातीयव्यक्तिव्यापकमष्टममरूपबहुत्वमाह-'एयासि णं भंते! इत्यादि, सर्वबास्तोका अन्तरद्वीपका मनुष्यखियो मनुष्य पुरुषाशस्वस्थाने तु द्वयेऽपि तुल्याः, युगलधर्मोपेतत्वात् , एवं देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमक हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकहैमवतहेरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यत्रीपुरुषा यथोत्तर सयेयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपिभ-I ॥८६॥ भारतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुपा द्वयेऽपि सहयेयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरसैरावतकर्मभूमकमनुव्यस्त्रियो द्वय्योऽपि | दीप अनुक्रम [७०] ~182~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [ ७०] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ (मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ - ], - मूलं [६२] प्रतिपत्ति: [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति सोयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः ताभ्यः पूर्वविदेहापर विदेकमै भूमकमनुष्य पुरुषा द्वयेऽपि सत्यगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो पूर्वविदेहापरविदेहकर्म्मभूमकमनुध्यस्त्रियो द्वय्योऽपि सङ्ख्यगुणाः, सप्तत्रिंशतिगुणत्वात्, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ताभ्योऽनुत्तरोपपातिको परित नत्रैवेयक मध्यम त्रैत्रेय काथ स्तनमैवेयकाच्युतारणप्राणतानतकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरं सङ्ख्यगुणाः, ततोऽधःसप्तमपष्ठथिवीनैरथिक (न०) सहस्रारकल्पदेवपुरुषमहाशुक्रकल्पदेवपुरुपपञ्चमप्रथिवीनैरयिक (न० ) लान्तक कल्पदेवपुरुषचतुर्थ पृथवी - 4 नैरयिकनपुंसक ब्रह्मलोक कल्पदेव पुरुषतृतीय पृथिवीनैरथिकनपुंसक माहेन्द्रकस्पसनत्कुमारकल्प देवपुरुषद्वितीय पृथिवी नैरयिकनपुंसकान्तरद्वीपक मनुष्यनपुंसका यथोत्तरमसयेयगुणाः, ततो देवकुरूत्तरकुर्वकम्मै भूम कहरिवर्ष रम्यक कर्म्मभूम कहै मंत्रतहैरण्यवताकर्म भूमक| भरतैरावतकमै भूमकपूर्वविदेहापर विदेहकर्म्मभूमकमनुष्यनपुंसका यथोत्तरं सत्यगुणाः स्ववस्थानेषु तु द्वये परस्परं तुल्याः, तत ईशान कल्पदेवपुरुषा असङ्ख्यगुणाः, तब ईशानकल्पदेवस्त्रियः सौधर्मकल्पदेवपुरुषाः सौधर्म्मकरूपदेवस्त्रियो यथोत्तरं सङ्ख्यगुणाः, ततो भवनवासिदेवपुरुषा असङ्ख्यगुणाः तेभ्यो भवनवासदेवस्त्रियः सक्षेयगुणाः, तेभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरविकनपुंसका असोयगुणाः, ततः खचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः खपरतिर्यग्योनिकखियः स्थलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः स्थलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियो जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषा जलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियो वानमन्तरा देवपुरुषा वानमन्तरदेवखियो ज्योतिष्कदेवपुरुषा ज्योतिष्कदेवस्त्रियो यथोत्तरं सोयगुणाः, ततः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असश्यगुणाः, ततः स्थलचरजलचरपचेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकाः क्रमेण सोयगुणाः, ततञ्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततस्तेजः कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असरेयगुणाः, ततः पृथिव्याशुकायिक तिथेयोनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततो बनस्पति For P&Praise Cnly ~ 183~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [२] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति २ प्रतिपत्ती वेदाना प्रत सूत्रांक स्थित्यादिः | सू०६३ अल्पबहुत्वं सू०६४ [६२] श्रीजीवा-1 कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तस्वात् ।। सम्प्रति स्त्रीपुरुषनपुंसकानां भवथितिमान कायस्थि- जीवाभि तिमानं च क्रमेणाभिधातुकाम आहमलयगि इत्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! एगेणं आएसेणं जहा पुम्बि भणियं, एवं रीयावृत्तिः पुरिसस्सवि नपुंसकस्सवि, संचिट्ठणा पुनरवि तिण्हपि जहापुचि भणिया, अंतरंपि तिण्हपि जहा॥८ ॥ पुचि भणियं तहा नेयव्वं ।। (सू०६३) 'इत्थीण भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, इत्यादि, एतत्सर्व प्रागुक्तवद्भावनीयम् , अपुनरुक्तता च प्राक् रुयादीनां पृथक् | अ लाखस्ताधिकारे स्थित्यादि प्रतिपादितमिदानी तु समुदायेनेति ।। सम्पत्ति स्त्री पुरुपनपुंसकानामल्पबहुलमाह-(एयासि पं भंते! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण व कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४ ?, सब्बयोवा पुरिसा इत्थीओ संखेनगुणा नपुंसका अर्णतगुणा) 'एयासिणं भंते! इत्थीणमित्यादि, सर्वस्तोकाः पुरुषाः रुवादिभ्यो हीनसयाकत्वात् , तेभ्यः खियः सख्येयगुणाः, ताभ्यो नपुंसका अनन्तगुणाः, एकेन्द्रियाणामनन्तानन्तसबोपेतत्वात् । इह पुरुषेभ्यः खियः सोयगुणा इत्युक्तं, तत्र का: खियः स्वजातिपुरुषापेक्षया कतिगुणा इति प्रभावकाशमाशय तन्निरूपणार्थमाह तिरिक्वजोणित्थियाओ तिरिक्खजोणियपुरिमेहितो तिगुणाउ तिरूवाधियाओ मणुस्सिस्थियाओ मणुस्सपुरिसेहिंतो सत्तावीसतिगुणाओ सत्तावीसयरूवाहियाओ देवित्थियाओ देवपुरिसेहिंलो बत्तीसइगुणाजो बत्तीसहरूवाहियाओ सेत्तं तिविधा संसारसमावणगा जीवा पण्णत्ता दीप अनुक्रम [७०] % ॥ ८७॥ 2154-56-564 ~184~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [२], -------------------------उद्देशक:-1, ---------------------- मूलं [६४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६४] ॥तिविहेसु होइ भेयो ठिई य संचिहणंतरऽप्पबहुं । वेदाण य बंधठिई बेओ तह किंपगारो उ । ॥१॥ से तं तिविहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता ॥ (सू०६४) 'तिरिक्खजोणिस्थीओ तिरिक्खजोणियपुरिसेहितो' इत्यादि, तिर्यग्योनिकत्रियस्तिर्ययोनिकपुरुपेभ्यस्त्रिगुणात्रिरूपाधिका: मनुष्यखियो मनुष्यपुरुषेभ्यः सप्तविंशतिगुणाः सप्तविंशतिरूपाधिकाः, देवपुरुपेभ्यो देवत्रियो द्वात्रिंशद्गुणा द्वात्रिंशपाधिका:, उक्तं च | वृद्धाचार्यैरपि--"तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इस्थिया मुणेयवा । सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया व ॥ १ ॥ बत्तीसगुणा बत्तीसरूवाहिया न होंति देवाणं । देवीओ पाणता जिगेहिं जियरागदोसेहिं ॥ २ ॥" प्रतिपच्युपसंहारमाह-'सेत्तं तिविहा संसारसमावनगा जीया पण्णत्ता' इति ॥ सम्प्रत्यधिकृतप्रतिपत्त्यर्थाधिकारसंग्रहगाथामाह-तिविहेसु होइ भेओ' | इत्यादि, त्रिविधेपु वेदेषु वक्तव्येषु भवति प्रथमोऽधिकारो भेदः ततः स्थिति: तदनन्तरं 'संचिढणे'ति सातत्येनावस्थानं तदनन्तरम-18 न्तरं ततोऽल्पबहुत्वं ततो वेदानां बन्धस्थिति: तदनन्तरं किंधकारो वेद इति ।। 5 गाथा दीप अनुक्रम [७२-७३] %256456 इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाजीवाभिगमटीकायां द्वितीया प्रतिपत्तिः समाता ॥२॥ इति वदत्रैविध्यनिरूपिका द्वितीया प्रतिपत्तिः ।। x - - - - - अत्र दवितिया (त्रिविधा) प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], -----------------------उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [६५-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [२] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [६५-६८] 11८11 दीप अनुक्रम [७४-८०] ACCANCE तदेवमुक्ता द्वितीया प्रतिपत्तिः, सम्प्रति तृतीयप्रतिपत्ययसरः, तत्रेदमा दिसूत्रम् प्रतिपत्तौ तत्थ जे ते एबमासु चउबिधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णता ते एवमाहेस, तंजहा-ने चतुर्धा जीरझ्या तिरिक्वजोणिया मणुस्सा देवा ॥ (१०३५)।से किं तं नेरहया ?.२ सत्तविधा पण्णत्ता, वाः सप्तधा तंजहा-पढमापुढविनेरइया दोचापुतविनेरइया तथापुढविनेर० चत्वापुढवीनेर पंचमापु० ने नारकाः रइ० छहापु• नेर० सत्तमापु० नेरइया ॥ (मू०६६)। पढमा णं भंते! पुढची किंनामा किंगोत्ता पृथ्वीनां पपणत्ता?, गोयमा! णामेणं घम्मा गोत्तणं रयणप्पभा। दोचा गंभंते! पुढवी किनामा किंगोत्ता नामगोत्र पपणत्ता?, गोयमा! णामेणं वंसा गोत्तेणं सकरप्पभा, एवं एतेणं अभिलावणं सब्बासि पुच्छा, बाहल्यं च णामाणि इमाणि सेलातव्वा(णि). (सेला तइया) अंजणा च उत्थी रिट्टा पंचमी मघाछट्टी माघवती सू०६५सत्तमा, (जाब) तमतमागोत्तणं पणत्ता।(मू०६७)।इमाण भंते! रयणप्पभापुढवी केवतिया वाहलेणं पण्णत्ता?, गोयमा! इमा णं रयाप्पभापुढवी असिउत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहलेणं पण्णत्ता, एवं एतेणं अभिलावणं इमा गाहा अणुगंतव्वा-आसीतं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसर्ग अत्तरमेव हिडिमिया ॥१॥ (सू०६८) 'तत्थ जे ते एवमाहेसु चउब्बिहा' इत्यादि, तत्र' तेषु दशसु प्रतिपत्तिमत्सु मध्ये येते आचार्या एवमाख्यातवन्तश्चतुर्विधाः ||Sneel संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमाख्यातबन्तस्तद्यथा-नैरविकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः ।। 'से किं तमित्यादि, अथ के ते EXA% अथ तृतिया (चतुर्विधा) प्रतिपत्ति: आरभ्यते तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक स्य प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: ... संसारिजीवानाम् चतुर्विधत्वं, सप्त-नरकपृथ्वि सम्बन्धी विविध-विषयाधिकारः ~186~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [६७-६८ ] दीप अनुक्रम [७४-८०] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [3] मूलं [६५-६८] ----- उद्देशकः [(नैरबिक)-१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्ति — प्रभा नैरविका: ?, सूरिराह-नैरयिकाः सप्तविधाः प्रज्ञयाः, तद्यथा- प्रथमायां पृथिव्यां नैरविकाः प्रथमपृथिवीनैरयिका इत्यर्थः एवं सर्वत्र भावनीयम् सम्प्रति प्रतिप्रथिवि नामगोत्रं वक्तव्यं तत्र नामगोत्रयोरयं विशेष:- अनादिकालसिद्धमन्वर्थरहितं नाम सान्त्रर्थ तु नाम गोत्रमिति, नत्र नामगोत्रप्रतिपादनार्थमाह 'इना णं ( पढमा णं) भंते! इत्यादि इयं भदन्त ! रत्नप्रभाप्रथिवी किंनामा' किमनादिकाल सिद्धार्थरहितनामा ? 'किंगोत्रा ?' किसन्यर्थयुक्तनामा ?, भगवानाह गौतम ! नान्ना धम्र्मेति प्रज्ञप्ता गोत्रेण रनतथा चान्यन्ति पूर्वसूरयः रवानां प्रभा बाहुल्यत्र सारखाप्रभः रत्नहुदेति भावः एवं शेपसूत्राण्यपि प्रतिष्टविवि प्रशनिर्वचनरूपाणि भावनीयानि, नवरं शर्करा प्रभादीनामिव मन्वर्थभावना -शर्कराणां प्रभा-बाहुल्यं यत्र सा शर्कराप्रभा एवं वालुका प्रभा पङ्कप्रभा इत्यपि आवनीयं तथा धूमस्येव प्रभा यस्याः सा धूनप्रभा तथा तमसः प्रभा बाहुल्यं यत्र सा उम:प्रभा समस्त मस्य-प्रकृतसः प्रभा बाहुल्यं यत्र सा तमतमप्रभा अत्र केपुस्तिकेषु सङ्ग्रहणगाथे- “धम्मा वंसा सेला अंजण रिहा घाय नाचवती सत्त पुडवीणं एएनामा उ नायवा । १ ।। रयणा सफर पाय का धूमादमा [4] तमतमाय । सच पुढवीणं एवं गोता सुवा२ ॥ अधुना प्रविधिविधाहुल्यमभिधित्सुराह 'इमा णं भंते!' इत्यादि इयं भदन्त रनप्रभा पृथिवी कायेन प्रमा?, अत्र गोत्रेण प्रनो नान्नो गोत्रं प्रधानतरं प्रधानेन च प्रयुपपन्नमिति न्यायप्रदर्शनार्थः उक्तव भगवानाह 'अशीत्युत्तरम्' अशीवियोजनसहस्राभ्यधिकं योजनशतसहस्रं बाहुल्येन प्रज्ञता । अत्र सङ्ग्रहणिगाथा"सीयं बत्तीसं अट्ठावीसं च होइ वीसं च । अहारस सोलसगं अड्डो न होना बाकू सदा तक" मिति, एवं सर्वाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि तरमेव हिडिमिया ॥ १ - For P&Peale City ~ 187 ~ Lam Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति AN-RS प्रत सूत्रांक [६९] - श्रीजीवा- इमाण भंते ! रयणप्पभापुढवी कतिविधा पण्णत्ता?, गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-वरकंडे प्रतिपत्तः जीवाभि. पंकबहुले कंडे आवघहुले कंडे ॥ इमीसे णं भंते ! रय० पुढ० खरकंडे कतिविधे पण्णसे?, गोयमा! पृथ्वीका मलयगि- सोलसविधे पण्णते, तंजहा-यणकंडे १ बइरेर वेझलिए ३ लोहितक्खे ४ मसारगल्ले ५ हंसगन्भे ६ Iण्डानि रीयावृत्तिः पुलए ७ सोयंधिए ८ जोतिरसे ९ अंजणे १० अंजणपुलए ११ रयते १२ जातरूवे १३ अंके १४ फलिहे १५ रितु १६ कंडे ॥ इमीमे णं भंते! रयणप्पभापुढवीए रयणकंडे कतिविधे पण्णते?, गोयमा! एगागारे पण्णसे, एवं जाव रिटे। इसीसे णं भंते! रयणप्पभापुढवीए पंकबहले कंडे कतिविधे पण्णते?, गोयमा! एकागारे पण्णत्ते। एवं आवबटुले कंडे कतिविधे पण्णत्ते?, गोयमा! एकागारे पण्णत्ते । सकरप्पभाग णं भंते! पुढवी कतिविधा पण्णता?, गोयमा! एकागारा पपणत्ता, एवं जाव अहेसत्तमा ।। (मु०६९) 'इमाणं भंते' इत्यादि इयं भदन्त ! रमप्रभा पृथिवी 'कतिविधा' कतिणकारा कतिविभागा प्रशता, भगवामाह-गौतम ! 'त्रि-1 विधा त्रिविभागा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-खरकाण्ड'मित्यादि, कार्ड नाम विशिष्टो भूभागः. खरं-कठिनं, पङ्कबहुलं ततोऽबहुलं चान्ध-1 पार्थतः प्रतिपत्तव्यं, क्रमश्चैतेपामेवमेव, तद्यथा-प्रथमं खरकाण्डं तदनन्तरं पङ्कबहुलं ततोऽबहुलमिति ।। 'इमीसे णं भंते' इत्यादि। Jxअवां भवन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सरकाण्डं कतिविध प्रज्ञानं ?, भगवानाह-गौतम! 'पोडशविध' षोडशविभागं प्रज्ञाम, तद्यथा ॥८९॥ II-'रयणे इति, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादू रखकाण्डं तब प्रथम, द्वितीयं वचकाण्ड, तृतीय वैडूर्यकाण्ड, चतुर्थ लोहितकाण्ड, दीप अनुक्रम [८१] - - - -- -- ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६९] दीप अनुक्रम [८१] पश्चर्म मसारगहकाण्ड, पाठं हंसगर्भकालं, सप्तमं पुलक काण्डम् , अष्टम सौगन्धिककाण्ड, नवमं ज्योतीरसकाण्ड, दशमम जनकाण्डम् , एकादशमजनपुलककाण्ई. द्वादशं रजतकाण्ड, त्रयोदशं जातरूपकाण्डं, चतुर्दशनकाण्ई, पञ्चदर्श स्फटिककाण्ड पोडशं| रिष्टरमकाण्ड, तत्र रत्नानि-कतनादीनि तत्वधान काण्डं रमकाण्ड, बसरवप्रधान काण्ड यत्रकाण्डम् . एवं शेपाण्यपि, एकैकं च काण्डं योजनसहस्रबाहल्यम् ॥ इमीसे णं भंते' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रनभायां पृथिव्यां रनकाण्ड 'कतिविध कतिप्रकारं | कतिविभागमिति भावः प्रज्ञात ?. भगवानाह-एकाकारं प्रज्ञा । एवं शेष काण्डविपयाण्यपि प्रश्ननिवेचनसूत्राणि क्रमेण भावनीयानि । एवं पङ्कवहुलाव्वालविषयाण्यपि । 'दोच्चा णं भंते' इत्यादि. द्वितीयाविधियी विपयाणि सूत्राणि पाठसिद्धानि । सन्त्रति प्रतिपृथिवि नरकावाससवाप्रतिपादनार्थमाह इमीसे णं भंते ! रथणप्पभाए पुनबीए केवइया निरयावाससयसहस्सा पण्णसा?, गोयमा! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णता. एवं गतेणं अभिलावेणं सन्यासिं पुण्छा, इमा गाहा अणुर्गतब्बा-तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसव तिषिण य हवंति। पंचूणरायसहस्सं पंचेच अणुत्तरा णरगा ॥१॥ जाव अहेसत्तमाए पंच अणुत्तरामहतिमहालया महाणरगा पण्णत्ता, संजहाकाले महाकाले रोरुए महारोरुए अपतिढाणे ॥ (मृ०७०) । अस्थि ण मंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुतवीए अहे घणोदधीति वा घणवातति वा तणुवातेति धा ओसंतरेति था?, हंता अस्थि, एवं जाव अहे सत्तमाए। (सू०७१) CARE ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७०-७१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७०-७१] गाथा श्रीजीवा-15 इमीसे णं भंते' इत्यादि, सुगम, नवरमियमत्र सवाणिगाथा-'तीसा य पण्णवीसा पणरस दस चैव सयसहस्साई प्रतिपनी जीवाभिOसिण्णेगं पंचूर्ण पंचेव अणुत्तरा निरया ॥१॥" अधःसप्तम्यां च पृथिव्यां कालादयो महानरका अप्रतिष्ठानाभिधख नरकस्य पू- निरयावा. मलयगि- दिक्रमेण, उक्तश्च-पुष्वेण होइ कालो अवरेणं अप्पट महकालो । रोरू दाहिणपासे उत्तरपासे महारोरू ॥ १॥" रत्नप्रभाविपु ससंख्या रीयावृत्तिःच तमःप्रभापर्यन्तासु पसु पूर्थिवीपु प्रत्येकं नरकावासा द्विविधाः, तद्यथा-आवलिकाप्रविष्टाः प्रकीर्णकरूपाश्व, तन्न रत्नप्रभायां - IHIथिव्यां त्रयोदश प्रसटाः, प्रस्तदा नाम वेश्मभूमिकाकल्पाः, तत्र प्रथमप्रस्तटे पूर्वादिषु चतमपु दिक्षु प्रत्येकमेकोनपञ्चाशत् नरका- अधोधनो६८॥ वासाः, चतसपु विदिशु प्रत्येकमष्टचत्वारिंशत, मध्ये च सीमन्तकाख्यो नरकेन्द्रकः, सर्वसञ्जयया प्रथमप्रस्तटे नरकावासानामावलि- दध्यादिः काप्रविष्ठानामेकोननवाधिकानि त्रीणि शतानि ३८५, शेपेषु च द्वादशसु प्रस्तटेषु प्रत्येकं यथोत्तरं दिक्षु यिविक्षु चैकैकनरकावासहा- स०७१ निभावाद् अष्टकाष्टकहीना नरकावामा द्रष्टव्याः, तत: सर्वसमपया रमप्रभायां पृथिव्यामावलिकानविष्टा नरकाबासाश्चतुश्चलारिंशच्छतानि त्रयविंशवधिकानि १४३३, शेपास्त्वे कोनशिलक्षाणि पञ्चनवतिसहस्राणि पथ शतानि समयष्टयधिकानि २५९५५६७ प्रकी-1 र्णकाः, तथा चोक्तम्-'सत्तट्ठी पंचसया पणनाइसहस्स लक्खगुणतीसं । रयणाए से ढिगया चोयालसया उ तित्तीसं ॥१॥" उभ-: यमीलने त्रिंशलक्षा नरकावासानां भवन्ति ३०००००० । शर्कराप्रभायामेकादश प्रस्तटाः, नरकपटलान्यधोऽधो द्वन्द्वहीनानी"ति बचनात् , तत्र प्रथमे प्रस्तटे चतम्पु दिक्षु पत्रिंशद आवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः, विदिक्षु पञ्चत्रिंशन् , मध्ये चैको नरकेन्द्रकः, सर्वसत्यया द्वे शते पञ्चाशील्यशिके १८५, शेपेषु तु देशसु पलटेषु प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽयकाष्ठकहानिः, प्रतिदिप्रतिविदिक्षु(कच) । एकैकनरकावासहानेः, ततस्तत्र सर्वसङ्ख्ययाऽऽवलिकाप्रविष्ठा नरकावासाः पविशतिशतानि पञ्चनवत्यधिकानि २६९५, शेपाश्चतुर्विंश दीप अनुक्रम [८२-८५] ॥९ ॥ ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७०-७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [२] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७०-७१] गाथा *%AC-KActr तिलक्षाः सप्तनवतिः सहस्राणि श्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि २४५७३०५ पुष्पावकीर्णकाः, उक्तभ-सत्ताणउन सहम्सा चढ-13 वीसं लक्ख तिसय पंचऽहिया । धीयाए सेदिगया छब्बीससया उ पगनउया ॥१॥" उभयमीलने पञ्चविंशतिलक्षा नरकावासानाम् | २५००००० । वालुकाप्रभायां नव प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां दिशि आवद्रिकाप्रविष्टा नरकाबासाः पञ्चविंशतिः विदिशि चतुर्विशतिः मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्वस साया सप्तनवतं शतं १९७, शेपेषु चाष्टसु प्रसटेषु प्रत्येकं कमेणाधोऽधोऽष्टकहानिः, तत्र च कारणं प्रागेवोक्तं, ततः सर्वसङ्ख्यया तत्रावलिकाप्रविष्टा नरकाबासाश्चतुर्दश शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि १४८५, शेषास्तु पुष्पावकीर्णकाश्चतुर्दश लक्षा अष्टनवतिः सहस्राणि पश्च शतानि पञ्चदशाधिकानि १४९८५१५, उक्तश्च-"पंचसया पन्नारा अडनवइसहस्स लक्ख चोदस य । तइयाए से ढिगया पणसीया चोइससया उ॥१॥” उभय मीलने पञ्चदश ला नरकापासानाम् १५००००० पङ्कप्रभायां सप्त प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे प्रत्येक दिशि षोडश षोडश आवलिकाप्रविष्टा नरकाबासाः विदिशि पञ्चदश पञ्चदश मध्ये चैको नरकेन्द्रका सर्वसशपया पञ्चविंशतिशतं १२५, शेषेषु षट्सु प्रस्तटेषु पूर्ववत् प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्टकहानिः, ततः सर्वसङ्ख्यया तत्रावलिकाप्रविष्टा नरकाबासाः सप्त शतानि सप्तोत्तराणि ७०७, शेषास्तु पुष्पावकीर्णका नव लक्षा नवनवतिः सहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके ९९९२९३, उक्तश्च-तेणउया दोण्णि सवा नवनउइसहस्स नव य लक्खा य । पकाए सेढिगया सत्त सया हुंति सत्तहिया ॥ १॥" उभयमीलने नरकाबासानां दश लक्षाः १०१०००० । धूमप्रभायां पञ्च प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां | दिशि नव नव आवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः, विदिशि अष्टौ अष्टौ मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्वसङ्ख्या एकोनसप्ततिः ६९. शेषेषु चतुर्पु प्रस्तटेषु पूर्ववत्प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्टकहानिः, ततः सर्वसङ्ख्या तत्रावलि काप्रविष्टा नरकाबासा द्वे शते पञ्चषश्न दीप अनुक्रम [८२-८५] जी०च०१३ Jantaci ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) सूत्रांक [७०-७१] སྒྲ , अनुक्रम [८२-८५] श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ९१ ॥ [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः) ----- उद्देशकः [(नैरबिक)-१], प्रतिपत्ति: [ ३ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्ति मूलं [७०-७१] Ja Eton in — धिके २६५, शेषाः पुष्पावकीर्णका द्वे लले नवनवतिः सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि २९९७३५, उक्तञ्च - "सत्तसया पणतीसा नवनवइ [य] सहस्स दो य लक्खा य । धूमाए सेडिगया पणसट्टा दो सया होंति ॥ १ ॥” सर्वसया तिस्रो लक्षा ३००००० नरकावासानाम् । तमः प्रभायां त्रयः प्रस्तटाः, तत्र प्रथमे प्रस्तटे प्रत्येकं दिशि चत्वारश्चत्वार आवलिकाप्रविष्टा नरकावासा विदिशि त्रयस्त्रयो मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्वसया एकोनत्रिंशत् २९ शेषयोस्तु प्रस्तटयोः प्रत्येकं क्रमेणाधोऽधोऽप्रकाष्टकहानि:, ततः सर्वसङ्ख्ययाऽऽवलिकाप्रविष्टा नरकावासास्त्रिषष्टिः ६३, शेषास्तु नवनवतिः सहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशदधिकानि पुष्पावकीर्णकाः ९९९३२, उक्त "नवनई व सहस्ता नव चैव सया हति बत्तीसा । पुढत्रीए छडीए पणगाणेस संखेवो ॥ १ ॥ उभयमीलने पञ्चोनं नरकावासानां लक्षम् ९९९९५ ॥ सम्प्रति प्रतिपृथिवि पनोदध्याद्यस्तित्वप्रतिपादनार्थमाह - 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! अस्याः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधो घनः - स्यानीभूतोदक उदधिनोदधिरिति या घनः पिण्डीभूतो बात: घनवात इति वा तमुवात इति या अवकाशान्तरमिति वा?, अवकाशान्तरं नाम शुद्धमाकाशं भगवानाह हन्त ! अस्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वाच्यं यावदधः समस्याः ॥ इमीसे णं भंते! रणपभाए पुढवीए खरकंडे केवतियं बाहल्लेणं पण्णसे ?, गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पुन्नत्ते । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाप पुढवीए रयणकंडे केवतियं बाहल्लेणं पन्नत्ते ?, गोयमा ! एक जोपणसहस्सं बालेणं पण्णसे, एवं जाव रिट्ठे । इमीसे णं भंते! र० पु० पंकबहु कंडे केवतियं बाहल्लेणं पन्नत्ते ?, गोयमा! चतुरसीतिजोपणसहस्सा बाहल्लेणं प For P&Peale City ~ 192 ~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः १ काण्डाद्य न्तरं सू०७२ ॥ ९१ ॥ w Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [८६] पणत्ते । इमीसे णं भंते ! रय पु० आवषहुले कंडे केवतिषं याहल्लेणं पन्नत्ते?, गोयमा! असीतिजोयणसहस्साई वाहल्लेणं पन्नत्ते । इभीसे णं भंते! रयणप्पभाए पु० घणोदही केवतियं बाहळेणं पन्नत्ते?, गोयमा! वीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पपणत्ते।इमीसे णं भंते ! रय० पु० घणवाए केवतियं बाहल्लेणं पन्नते?, गोयमा! असंग्वेजाई जोयणसहस्साई थाहल्लेणं पण्णसे, एवं तणुवातेवि ओवासंतरेऽवि । सकरप्प० भंते ! पु० घणोदही केवतियं बाहलेणं पण्णत्ते?, गोयमा! बीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते । सकरप्प० पु० घणवाते केवइए बाहरेणं पण्णते?, गोयमा! असंखे० जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते, एवं तणुवातेवि, ओवासंतरेवि जहा सकरप्प० पुरु एवं जाव अधेसत्तमा ॥ (सू०७२) 'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रमप्रभायाः पुथिव्याः सम्बन्धि यत्प्रथमं खरं-खराभिधानं काण्ड तत् कियद्वाहल्येन प्रशप्तम् , भगवानाह-गौतम! पोडश योजनसहस्राणि ।। 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रन-11 रत्नाभिधानं काण्डं तत् कियाहल्येन प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! एक योजनसहस्रं । एवं शेषाण्यपि काण्डानि वक्तव्यानि याविद् रिम-रिप्ताभिधानं काण्डम् । एवं पदबहुलाबहुलकाण्डसूत्रे अपि व्याख्येये, पक्कबहुलं काण्ड चतुरशीतियोजनसहस्राणि बाहल्येन, अबहुलं काण्डमशीतियोजनसहस्राणि, सर्वसङ्ख्यया रत्नप्रभाया वाहल्यमशीतिसहस्राधिकं लक्षं, तस्या अधो धनोदधिः विंशतियोजनसहस्राणि बाहल्येन, तस्याप्यधो धनवातोऽसोयानि योजनसहस्राणि बाहल्येन, तस्याप्यधोऽसयेयानि योजनसहस्राणि | % AR C- - ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति -- प्रत मलयगि सूत्रांक प्रतिपत्ती उद्देशः१ रत्नप्रभा काण्डादिद्रव्यस्व. सू०७३ [७] -- दीप अनुक्रम श्रीजीवातनुवातो बाइल्येन, तस्याप्यधोऽसयानि योजनसहस्राणि बाहल्येनावकाशान्तरम् । एवं शेषाणामपि पृथिवीनां घनोदध्यादयः प्रत्येकं जीवाभिकतावद्वक्तव्या यावद्धःसतम्याः ॥ इमीसेण भंते! रयणप्प० पु. असीउत्तरजोयण(सय)सहस्सवाहल्लाए श्वेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए रीयावृत्तिः अस्थि दवाई वणतो कालनीललोहितहालिहसुकिल्लाई गंधतो सुरभिगंधाई दुम्भिगंधाई रसतो ॥ ९२॥ तिराकडयकसायअंबिलमहराई फासतो कक्खडमा उयगरुयलहुसीत उसिणणिद्धलुक्खाई संठाणतो परिमंडलबदृतसच उरंसआययसंठाणपरिणयाई अन्नमन्नबद्धाई ।। अण्णमपणपुट्ठाई अण्णमपणओगाढाई अण्णामपणसिणे हपडिबद्धाई अपणमणघडत्ताए चिट्ठति ?, हंता अस्थि । इमीसेणं भंते ! रयणप्प भाए पु० खरकंडस्स सोलसजोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दव्याईवण्णओ काल जाव परिणयाई, हंता अस्थि । इमीसे णं रयणप्प० पु० रयणनामगस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिजातं चेव जाच हंता अस्थि, एवं जाब रिहस्स, इमीसे णं भंते ! रयणप्प. पु. पंकबहुलस्स कंडस्स चउरासीतिजोयणसहस्सथाहल्लस्स ग्वेत्से तं चेव, एवं आवषहुलस्सवि असीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स । इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० घणोदधिस्स वीसं जोयणसहस्सवाहल्लस खेत्तच्छेदेण तहेव । एवं घणवातस्स अंसखेजजोयणसहस्सबाहल्लस्स तहेव, ओवासंतरस्सवि तं चेव ॥ सक्करप्पभाए णं भंते! पु० यत्तीसुत्सरजोयणसतस -- [८६] - 3-2- ॥ ९२॥ 6 23 ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति -* 5 प्रत सूत्रांक [७३] PARIKSHA हस्सवाहल्लस्स खेत्तएण छिजमाणीए अस्थि दवाई वणतो जाव घडत्साए चिदति ?. हंता अस्थि, एवं घणोदहिस्स वीसजोयणसहस्सपाहल्लस्स घणवातस्स असंखेजजोयणसहस्सवाहलस्स, एवं जाव ओवासंतरस्स, जहा सकरप्पभाए एवं जाव अहेसत्तमाए ।। (मू०७३) 'इमीसे णं भंते' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यामशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायां क्षेत्रच्छेदेन-बुद्ध्या प्रतर-| काण्डविभागेन छिद्यमानायाम् , अस्तीति निपातोऽत्र बहुलवचनार्थगर्भः, सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुढानि, गन्धतः सुरभिगन्धीनि दुरभिगन्धीनि च, रसतस्तिक्तरसानि कदुकानि कषायाणि अम्लानि मधुराणि, स्पर्शत: कर्क शानि मृदूनि गुरुकाणि लघूनि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि माणि, संस्थानत: परिमण्डलानि वृत्तानि व्यवाणि चतुरस्राणि आयकतानि, कथम्भूतान्येतानि सण्यिपि ? इत्यत आह-'अन्नमनपुट्ठाई' इत्यादि, अन्योऽन्य-परस्परं स्पृष्टानि-स्पर्शमात्रोपेतानि, | तथाऽन्योऽन्यं-परस्परमवगाढानि यत्रैक द्रव्यमवगादं तत्रान्यपि देशतः कचित्सर्वतोऽवगाढ मित्यर्थः, तथाऽन्योऽन्य-परस्परं खेहेन प्रतिबद्धानि येनैकस्मिन चाल्यमाने गृह्यमाणे वाऽपरमपि चलनाविधर्मोपेतं भवति, एवम् 'अन्नोन्नघडताए चिट्ठति' इति, अन्योइन्य--परस्परं घटन्ते-संबध्नन्तीति अन्योऽन्यघटास्तद्भावोऽन्योऽन्यघटता तथा-परस्परसंवद्धतया तिष्ठन्ति, भगवानाह-'हंता अधि' 'हन्त !' इति प्रत्यवधारणे सन्त्येवेत्यर्थः । एवमस्यामेव रजनभायां पृथिव्यां खरकाण्डस्य षोडशयोजनसहस्रप्रमाणबाहल्यस्य, तदनन्तरं रनकाण्डस्य योजनसहस्रबाहत्यस्य, ततो बन्नकाण्डस्य यावद्रिष्टकाण्डम्य, तदनन्तरमस्यामेव रत्नप्रभावां पृथिव्यां पङ्कबहुलकाण्डस्य चतुरशीतियोजनसहस्रबाहल्यस्य, तदनन्तरमबहुलकाण्डस्याशीतियोजनसहस्रबाहल्यस्य, तदनन्तरमस्या एव रत्नप्रभाया घ दीप अनुक्रम [८७] ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७३] श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः - दीप अनुक्रम [८७] नोदधेयोजनविंशतिसहस्रप्रमाणबाहल्यस्य, ततोऽसङ्ख्यातयोजनसहस्रप्रमाणवाहल्यस्य धनवातस्य, तत एतावत्प्रमाणवाहल्यस्य तनु- ३ प्रतिपत्ती वातस्य, ततोऽवकाशान्तरस्य तावत्प्रमाणस्य । ततः शर्करानभायाः पृथिव्या द्वात्रिंशत्सहस्रोत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यपरिमाणायाः, | उद्देशः१ तस्या एवाधस्तादयोक्तप्रमाणवाहल्यानां घनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणाम् , एवं यावदधःसप्तम्याः पृथिव्या अष्टसहस्राधिक- रलप्रभा योजनशतसहस्रपरिमाणवाहस्थायाः, ततस्तस्या एवाध:सप्तमपृथिव्या अधस्तारक्रमेण मनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणां प्रम-18 दिसंस्थान निर्वचनसूत्राणि यथोक्तद्रव्यविषयाणि भावनीयानि ॥ सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह सू०७४ इमा णं भंते ! रयणप्प० पु० किंसंठिता पपणत्ता?, गोयमा! झल्लरिसंठिता पण्णता । इमीसे णं भंते ! रयणप्प. पु. खरकंडे किंसंठिते पपणते?, गोयमा! झल्लरिसंठिते पण्णत्ते । इमीसे णं भंते ! रयणप० पु० रयणकंडे किंसंठिते पण्णते?. गोयमा! झल्लरिसंठिए पण्णते। एवं जाबरिट्टे । एवं पंकबहुलेवि, एवं आवबहुलेवि घणोदधीचि घणवाएवि तणुवाएवि ओव'संतरेचि, सब्वे झल्लरिसंठिते पण्णत्ते । सकरप्पभा णं भंते ! पुढवी किंसंठिता पपणत्ता?, गोयमा! झल्ल. रिसंठिता पण्णत्ता, सकरप्पभापुढवीए घणोदधी किंसंठिते पण्णते?, गोयमा! मल्लरिसंठिते पणत्ते, एवं जाव ओवासंतरे, जहा सकरप्पभाए वत्तवया एवं जाव अहेसत्तमाएबि ।। (सू०७४) 'इमाणं भंते' इत्यादि, इयं प्रत्यक्षात उपलभ्यमाना णमिति बाक्यालङ्कती रमप्रभापृथिवी किमित्र संस्थिसा फिसंस्थिता प्रज्ञप्ता, भगवानाह-गौतम ! झल्लरीव संस्थिता अल्लरीसंस्थिता प्रज्ञप्ता, विस्तीर्णवलयाकारत्वान् ! एवमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाण्डं, तत्रापि -- - -- ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७४] दीप अनुक्रम [८८] NAGACASEXAOTOGA रत्नकाण्ड, ततो वन्नकाण्ड, ततो यावद् रिष्ठकाण्डं, तदनन्तरं पङ्कबहुलकाण्ड, ततो जलकाण्ड, तदनन्तरमस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधस्तारक्रमेण घनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणि यावदधःसप्तमीपृथिवी, तस्याश्चाधस्ताक्रमेण घनोदधिधनवाततनुबातावकाशान्तराणि झहरीसंस्थानानि वक्तव्यानि ॥ ननु चैताः सप्तापि पुथिव्यः सर्वासु दिक्षु किमलोकस्पर्शिन्य उत न? इति, उच्यते, नेति बेमः, यो तरा: इमीसे णं भंते ! रयणप्प. पुढवीए पुरथिमिल्लातो उपरिमंताओ केवतियं अबाधाए लोयंते पपणते?, गोयमा! दुवालसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं दाहिणिल्लातो पञ्चधिमिल्लातो उत्तरिल्लातो । सकरप्प० पु० पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो केवतियं अबाधाए लोयंते पपणते?, गोयमा! तिभागणेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं चउहिसिंपि। बालुयप्प० पु० पुरथिमिल्लातो पुच्छा, गोयमा! सतिभागेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं चउहिसिंपि, एवं सब्यासिं चउसुवि दिसासु पुच्छितव्वं । पंकप्पा चोदसहिं जोयणेहिं अयाधाए लोयंते पण्णत्ते । पंचमाए तिभागूणेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते । छट्ठीए सतिभागेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अयाधाए लोयंते पपणत्ते । सत्तमीए सो. लसहिं जोयणेहिं अवाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं जाव उत्तरिल्लातो ॥ इमीसे णं भंते! रयण पु० पुरथिमिले चरिमंते कतिविधे पपणत्ते?, गोयमा! तिविहे पण्णते, तंजहा-घणोदधिवलए ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७५]] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१४॥ दीप अनुक्रम घणवायवलए तणुवायवलए । इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० दाहिणिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णत्ते?, ३ प्रतिपत्ती गोयमा! तिविधे पण्णते, तंजहा,-एवं जाव उत्तरिल्ले, एवं सन्यासिं जाव अधेसत्तमाए उत्त- उद्देशः१ रिल्ले॥ (मू०७२) | रलप्रभा इमी से णं भंते' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'पुरथिमिल्लाओं' इति पूर्व दिग्भाविनश्वरमान्तात् 'केवइयाए दीनामइति कियत्याइबाधया- अपान्तरालरूपया लोकान्तोऽलोकावधिपरिच्छिन्न: प्रज्ञतः ?, भगवानाह-द्वादश योजनानि, द्वादशयोजनप्रमा-| |लोकावायेत्यर्थः, अवाधया लोकान्तः प्राप्तः, किमुक्तं भवति ?-रअप्रभाया: पृथिव्याः पूर्वखां दिशि चरमपर्यन्तात्परतोऽलोकार्वान् अपा- | धादि तरालं द्वादश योजनानि, एवं दक्षिणस्यामपरस्यामुत्तरख्यां चापान्तरालं वक्तव्यं, दिग्ग्रहणं चोपलक्षणं तेन सर्वासु विदिश्वपि यथोक्त-13 | सू०७५ मपान्तरालमवसातव्यं, शेषाणां तु पृथिवीनां सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्तादलोकः क्रमेणाधोऽधस्त्रिभागोनेन योजनेनाधिकै दशभियोजनैरवगन्तव्यः, तद्यथा-शर्करानभायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्तादलोकार्वागपान्तरालं त्रिभागोनानि त्रयोदश योजनानि, वालुकाप्रभायाः सत्रिभागानि प्रयोदश योजनानि, पङ्कप्रभाया: परिपूर्णानि चतुर्दश योजनानि, धूमप्रभायात्रिभागोनानि पश्चदश योजनानि, तम:प्रभायाः सन्निभागानि पञ्चदश योजनानि, अधःसप्तमधिण्याः परिपूर्णानि पोडश | योजनानि, सूत्राक्षराणि पूर्ववद्योजनीयानि ॥ अथामूनि रत्नप्रभादीनां द्वादशयोजनप्रमाणादीनि अपान्तरालानि किमाकाशरूपाणि उत पनोदध्यादिव्याप्तानि ?, उच्यते, घनोदश्यादिव्यातानि, तत्र कस्मिन्नपान्तराले कियान् घनोदध्यादिः ? इति प्रतिपादनार्थमाह-'इमी R IPil॥१४॥ से णं भंते' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रजप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वदिग्भावी 'चरमान्तः' अपान्तराललक्षण: 'कतिविधः' कतिप्रकार: [८९] ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७५] दीप अनुक्रम कति विभाग इत्यर्थः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञतः, तद्यथा-'घनोदधिवलयः' वलयाकारधनोदधिरूप इत्यर्थः. एवं! घनवात्तवलयसनुवातवलयश्च, इयमत्र भावना-सर्वासां पृथिवीनामधो यत्प्राग वाहल्येन घनोध्यादीनां परिमाणमुक्तं तन्मध्यभागे | द्रष्टव्यं, ते हि मध्यभागे यथोक्तप्रमाणबाहल्यास्ततः प्रदेशहान्या प्रदेशहान्या हीयमानाः स्वस्वपृथिवीपर्यन्तेषु तनुतरा भूखा स्वां स्थान पृथिवीं वलयाकारण बेष्ठयिला खिताः, अत एवामूनि वळयान्युच्यन्ते, तेषां च वलयानामुधैवं सर्वत्र खखपृथिव्यनुसारेण परिभा। वनीयं, तिर्यग्वाहवं पुनरपे वक्ष्यते, इदानीं तु विभागमात्रमेवापान्तरालस्य प्रतिपादयितुमिष्टमिति तदेवोक्तं, एवमस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः शेषासु दिक्षु, एवं शेपाणामपि पृथिवीनां चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकं २ विभागसूत्रं भणितव्यम् । सम्प्रति घनोदधिवलयस्य तिर्यवाहल्यमानमाह इमीसे णं भंते । रयणप्प० पुढवीए घणोदधिवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णसे?, गोयमा ! छ जोयणाणि वाहल्लेणं पण्णते। सकरप्प० पु० घणोदधिवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णते?, गोयमा! सतिभागाई छजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते । वालुयप्पभाए पुच्छा गोयमा तिभागूणाई सस जोयणाई बाहल्लेणं प० । एवं एतेणं अभिलावेणं पंकप्पभाए सत्त जोयणाई वाहल्लेणं पण्णत्ते । धूमप्पभाए सतिभागाई सत्त जोयणाई पपणत्ते । तमप्पभाए तिभागूणाई अट्ठ जोयणाई। तमतमप्पभाए अह जोयणाई। इमीसे णं रयणप्प० पु० घणवायवलए केवतियं वाहल्लेणं पण्णते?, गोयमा अद्भपंचमाई जोयणाई बाहल्लेणं । सकरप्पभाए पुच्छा, गोयमा! कोसूणाई पंच जोयणाई वाहल्लेणं पण्णत्ताई, HAMARRRRRRRROR [८९] JaEcI ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [30] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३/१ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [ ३ ], • उद्देशक: [ (नैरयिक)-१], • मूलं [ ७६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ ९५ ॥ एवं एतेणं अभिलावेणं वालुयप्पभाए पंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ताई, पंकप्पभाए सकोसाई पंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ताई। धूमप्पभाए अद्धछडाई जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ताई, तमप्पभाए कोसूणाई छोयणाई बाहल्लेणं पण्णसे, अहेससमाए छजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते || इमीसे गं भंते! गणप० पु० तवायवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ?, गोयमा ! छक्कोसेणं वाहणं पण्णत्ते, एवं एतेणं अभिलावेणं सकरप्पभाए सतिभागे छक्कोसे वाल्लेणं पण्णत्ते । वालुयप्पभाए ति भागणे सत्तकोसं पाहलेणं पण्णत्ते। पंकप्पभाए पुढवीए सप्तकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते । धूमप्पभाए सतिभागे सप्तकोसे । तमप्पभाष तिभागूणे अकोसे वाहणं पन्नत्ते । असत्तमाप पुढare अकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० घणोदधिवलयस्स छोपणबाहल्लम्स स्वेत्तच्छेषणं विजमाणस्स अस्थि दव्वाई वण्णतो काल जाव हंता अस्थि । सकरप्पभाएषां भंते! पु० घणोदधिवलयस्स सतिभागछजोयणबाहलस्स खेत्तच्छेदेणं छिजमाणस्स जाव हंता अस्थि एवं जाव अधेसत्तमाप जं जस्स बाहलं । इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० घणवातवलयरस अद्वपंचम जोयणबाहलस्स खेत्तछेदेणं छि० जाव हंता अस्थि, एवं जाव अहेसत्तमाए जस्स बाहलं । एवं वायवलयस्सवि जाव अधेसत्तमा जं जस्स बाहलं ॥ इमीसे णं भंते! रणप्पा पुढवी घणोदधिवलए किंसंठिते पण्णत्ते ?, गोयमा । बहे बलयागारसंठाणसंठिते For P&Praise City ~200~ ३ प्रतिपत्तौ | उद्देशः १ घनोदध्यादिवा हल्य सू० ७६ ॥ ९५ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [९०] पण्णत्ते ॥ जे णं इम रयणप्पभं पुढविं सब्बतो संपरिक्खिवित्ता णं चिट्टति, एवं जाव अधेसत्तमाए पु० घणोदधिवलए, णवरं अप्पणप्पणं पुढविं संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति । इमीसे रयणप्प० पु० घणवातवलए किंसंठिते पण्णत्ते?, गोयमा! वढे वलयागारे तहेव जाव जे णे इमीसे ण रयणप्प० पु० घणोदधिवलयं सवतो समंता संपरिक्खिचित्ताणं चिट्ठद एवं जाव अहेसत्तमाए घणवातवलए । इमीसे णं रयणप्प० पुतणुवातवलए किंसंठिते पण्णते?, गोयमा! बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव जेणं इमीसे रयणप्प० पु० घणवातवलयं सव्वतो समंता संपरिक्खिवित्ता गं चिट्ठा, एवं जाव अधेसत्तमाए तणुवातवलए ॥ इमा र्ण भंते ! रयणप्प० पु० के. वतिआयामविखंभेणं' पं० गोयमा! असंग्वेजाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं असंखेजाई जोषणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते, एवं जाव अधेसत्तमा ॥ इमा णं भंते। रयणप्प० पु० अंते य मजले य सम्बत्थ समा बाहल्लेणं पणत्ता?, हंता गोयमा! इमा णं रयण पु० अंते य मझे य सम्बत्थ समा बाहल्लेणं, एवं जाव अधेसत्तमा ॥ (सू०७६) 'इमीसे ण' मित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमान्ते घनोदधिवलयः कियाहल्येनतिर्यग्वाहल्येन प्रज्ञप्तः १, भगबानाह-गौतम ! घड् योजनानि वाहत्येन-तिर्यम्बाहल्येन प्रज्ञामः, तत ऊर्व प्रतिथिवि योजनस्य त्रिभागो वक्तव्यः, तद्यथा-दाराप्रभाया: सत्रिभागानि षड् योजनानि वालुकाप्रभायात्रिभागोनानि सप्त योजनानि पङ्कप्रभायाः परि कट ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत प्रतिपत्ती उद्देशः १ घनोदध्यादिवाहल्यं सूत्रांक [७६] %*-545 श्रीजीवा- पूर्णानि सप्त योजनानि धूमप्रभायाः सत्रिभागानि सप्त योजनानि तमःप्रभायात्रिभागोनान्यष्टौ योजनानि अधःसप्तमपृथिव्याः जीवाभि परिपूर्णान्यष्टौ योजनानि, सूत्राक्षराणि तु सर्वत्र पूर्ववद्योजनीयानि ॥ सम्प्रति घनवातबलयस्य तिर्यग्याहल्यपरिमाणप्रतिपादनार्थमलयगि- माह-'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनवातवलयस्तिर्यग्वाइल्येनार्द्धपञ्चमानि-सार्दानि चत्वारि योजरीयावृत्तिः नानि प्रज्ञप्तः, अत ऊर्य तु प्रतिपृथिवि गब्यूतं बर्द्धनीयं, तथा चाह-द्वितीयस्याः पृथिव्याः क्रोशोनानि पञ्च योजनानि, तृतीयस्याः पृथिव्याः परिपूर्णानि पञ्च योजनानि, चतुर्थ्याः पृथिव्याः सक्रोशानि पभा योजनानि, पञ्चम्याः पृथिव्या अर्घषतानि-सा नि | ॥१६॥ पञ्च योजनानि, पष्ठयाः पृथिव्याः कोशोनानि षड् योजनानि, सप्तम्याः पृथिव्याः परिपूर्णानि पल् योजनानि || सम्प्रति तनुवातवलयस्य तिर्यगवाहल्यपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते! इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्यास्त नुवातवलयः कियत्' किंप्रमाणं 'बाहल्येन' तिर्यग्वाहल्येन प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-पटक्रोशबाहल्येन प्रज्ञप्तः, अत ऊर्ध्वं तु प्रतिपृथिवि क्रोशस्य ४ निभागो वर्द्धनीयः, तथा चाह-द्वितीयस्था: पृथिव्याः सत्रिभागान् पट् कोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः, तृतीयस्याः पृथिव्याविभागोनान् | सप्त क्रोशान् चतुर्थ्याः पृथिव्याः परिपूर्णान् सप्त क्रोशान् पञ्चम्याः पृथिव्याः सत्रिभागान् सप्त क्रोशान् षष्ठयाः पृथिव्यात्रिभागोनान् अष्टौ कोशान् , अधःसप्तम्या: परिपूर्णान् अष्टौ कोशान् , उक्तश्च-"छच्चेव अद्धपंचमजोयणसड़े च होइ रयणाए । उदही | पणतणुवाया (उ)जहासंखेण निहिट्ठा ॥१॥ सतिभागगाउगाउयं च तिमागो गाउयस्स बोद्धब्बो । आइधुवे पक्खेवो अहो अहो जाव द सत्तमिया ॥२॥" एतेषां च त्रयाणामपि धनोदध्यादिविभागानामेकत्र मीलने प्रतिपृथिवि यथोक्तमपान्तरालमानं भवति ।। सम्प्रत्ये तेष्वेव घनोदध्यादिवलयेषु क्षेत्रच्छेदेन कृष्णवर्णाद्युपेतद्रव्यास्तित्वप्रतिपादनार्थमाह-इमीसे णं भंते! इत्यादि, पूर्ववदावनीय, | दीप अनुक्रम [९०] % ~202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक Nei [७६] दीप अनुक्रम प्रबाहल्यपरिमाणमपि धनोध्यादीनां प्रतिपुथिवि प्रागुक्तमुपयुज्य वक्तव्यम् ।। सम्प्रति धनोयादिसंस्थानप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे। लणं भंते!' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रजनभायाः पृथिव्या घनोदधिवलय: किमिव संस्थितः किंसंस्थितः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौ तम! 'वृत्त:' चक्रवालतया परिवर्तुलो बलयस्य-मध्यशुपिरस्य वृत्तविशेषस्याकार:-आकृतिर्वलयाकारः स इव संस्थानं वलयाकारसं| स्थानं तेन संस्थितो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः ॥ कयमेवमवगम्यते वलयाकारसंस्थानसंस्थित इति !, तत आह-जेण' मित्यादि, येन कारणेनेमा रत्नप्रभा प्रथिवी सर्वतः' सर्वासु दिन विदिक्षु च 'संपरिक्षिष्य' सामस्त्येन वेष्टयिला 'तिष्ठति' वर्तते तेन कारणेन | वलयाकारसंस्थानसंस्थितः प्राप्तः । एवं वनवातवलवसूत्रं तनुवातवलयसूत्रं च परिभावनीयं, नवरं बनवातवालयो घनोदधिवलयं संपरिक्षिप्येति वक्तव्यः, तनुवातवलयो बनवातवलयं संपरिक्षिप्येति । एवं शेषास्वपि पृथिवीषु प्रत्येक त्रीणि त्रीणि सूत्राणि भावनीयानि ।। 'इमा णं भंते !' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पुथिवी कियद् 'आयामविष्कम्मेन' समाहारो द्वन्दुः, आयामविष्कम्भाभ्यां प्रज्ञा ?, भगवानाह-असङ्ख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन, किमुक्तं भवति !-असत्येयानि योजनसहस्राणि आयामेन, असोयानि योजनसहस्राणि विष्कम्भेन च, आयामविष्कम्भयोस्तु परस्परमल्पबहुत्वचिन्तने तुल्यत्वं, तथाऽसोयानि योजनसह वाणि परिक्षेपेण' परिधिना प्रज्ञप्ता, एवमेकैका पृथिवी ताबद्वक्तव्या यावद्धःसप्तमी पृथिवी ॥ 'इमा णं भंते!' इत्यादि, इयं है भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी अन्ते मध्ये च सर्वत्र समा बाहल्येन' पिण्डभावेन प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतमेत्यादि सुगमम् । एवं क्रमेणैकैका पृथिवी तावद्वक्तव्या यावत्सप्तमी ।। इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० सव्वजीवा उबवण्णपुवा? सव्वजीवा उचवण्णा ?, गोयमा ! जी०च०१७ ॥ [२०] ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७७] श्रीजीवा- इमीसे गं रय पु० सवजीवा उववण्णपुवा नो चेव णं सव्वजीवा उपवपणा, एवं जाव प्रतिपत्तौ जीवाभि० अहेसत्तमाए पुढवीए ॥ इमा णं भंते! रयण पु० सबजीयेहिं विजढपुचा? सव्वजीवहिं चि- | उद्देशः १ मलयगि जढा ?, गोयमा ! इमा णं रयण पु० सव्वजीवहिं विजढपुवा नो चेव णं सब्वजीवविजढा, एवं रत्नप्रभा रीयावृत्तिः जाव अधेसत्तमा ॥ इमीसे णं भंते ! रयण पु० सव्वपोग्गला पविट्ठपुब्वा ? सवपोग्गला पविट्ठा ? तया सर्व॥९७॥ गोयमा ! इमीसे गं रयण पुढवीए सब्बपोग्गला पविठ्ठपुवा नो चेव णं सब्बपोग्गला पविट्ठा, जीवपुगएवं जाव अधेसत्तमाए पुढवीए । इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी सव्यपोग्गलेहिं विजढ- लोत्पादः पुव्वा सव्यपोग्गला विजढा?, गोयमा! इमा णं रयणप्पभा पु० सव्वपोग्गलोहिं विजढपुव्वा सू०७७ नो चेव णं सब्बपोग्गलेहिं विजढा, एवं जाव अधेसत्तमा । (सू०७७) ISI 'इमीसे ण भंते !' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रवप्रभायां पृथिव्यां सर्वजीवाः सामान्येन उपपन्नपूर्वा इति-उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण, तथा सर्वजीवा: 'उपपन्ना:' उत्पन्ना युगपद् ?, भगवानाह-गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वजीवाः सौव्यवहारिकजीवराश्य-15 न्तर्गता: प्रायोवृत्तिमाश्रिय सामान्येन 'उपपन्नपूर्वाः' उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण, संसारस्थानादित्वात् , न पुनः सर्वजीवा: 'उपपन्ना' उ-| त्पन्ना युगपत् , सकलजीवानामेककालं रत्नप्रभापृथिवीत्वेनोत्पादे सकलदेवनारकादिभेदाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, तथाजगत्वाभाव्यात् , एवमेकैकस्याः पृथिव्यास्तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तम्याः ।। 'इमा णं भंते !' इत्यादि, इयं च भदन्त ! रखप्रभापृथिवी 'स ॥९७॥ व्वजीवहिं विजढपुया' इति सर्वजीवैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, तथा सर्वजीवैर्युगपद् 'विजदा' परित्यक्ता, भगवानाह-गौतम! CCCCCC दीप अनुक्रम [११] ~204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१५], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७७] SACSEARCASSAGE इयं रत्नप्रभा पृथिवी प्रायोवृत्तिमाश्रित्य सर्वजीवैः सांव्यवहारिकैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, न तु युगपत्परित्यक्ता, सर्वजीवैः एककालपरित्यागस्यासम्भवात् तथानिमित्ताभावात् , एवं तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तमी पृथ्वी ।। 'इमीसे ण' मित्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्न-1 प्रभायां पृथिव्यां सर्वे पुद्गला लोकोदरविवरवर्तिनः कालक्रमेण 'प्रविष्टपूर्वाः' तद्भावेन परिणतपूर्वाः, तथा सर्वे पुद्गला: 'प्रविष्टा' एककालं तद्भावेन परिणताः ?, भगवानाह-गौतम! अस्यां रत्नप्रभायो पृथिव्यां सर्वे पुद्गलाः लोकवर्तिनः प्रविष्टपूर्वाः' तद्भावेन परि-15 णतपूर्वाः, संसारस्थानादित्वात् , न पुनरेककालं सर्वपुद्गलाः 'प्रविष्टाः' तद्भावेन परिणताः, सर्वपुद्गलानां तद्भावेन परिणतौ रत्नप्रभाव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रापि पुद्गलाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, तथाजगत्स्वाभाव्यात् । एवं सर्वासु पृथिवीधु क्रमेण वक्तव्यं यावदधःसप्तम्यां पृथिव्यामिति ॥ 'इमा णं भंते !' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गलैः कालक्रमेण 'विजढपुव्वा' इति परित्यक्तपूर्वा तथैव सर्वैः पुद्गलैरेककालं परित्यक्ता, भगवानाह-गौतम! इयं रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गलैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, संसारस्वानादिलात्, न पुन: सर्वपुरलैरेककालं परित्यक्ता, सर्वपुद्गलैरेककालपरित्यागे तखाः सर्वथा स्वरूपाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, तथाजगत्स्वाभाव्यतः शाश्वतखात्, एतच्चानन्तरमेव वक्ष्यति । एवमेकैका पृथिवी क्रमेण ताबद्वाच्या यावधःसप्तमी पृथिवी ॥ हमा णं भंते रयणप्पभा पढवी किं सासया असासया?, गोयमा सिय सासता सिय असासया ॥ से केणतुणं भंते! एवं वुचइ-सिय सासया सिय असासया ?, गोयमा! दवट्टयाए सासता, वपणपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपजवेहिं फासपजवेहिं असासता, से तेणढणं गोयमा! एवं बुबति-तं चेव जाव सिय असासता, एवंजाव अधेसत्तमा॥इमा णं भंते! रयणप्पभापु० कालतो XROSOROSSRO R दीप अनुक्रम [११] OC THE %* ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [७८] दीप अनुक्रम [९२] श्रीजीवा- केवचिरं होइ ?, गोयमा! न कयाइ ण आसि ण कयाइ णस्थि ण कयाइ ण भविस्सति ॥ ३ प्रतिपत्तौ जीवाभि भुवि च भवइ य भविस्सति य धुवा णियया सासया अक्खया अव्यया अवहिता णिचा एवं उद्देशः १ मलयगिजाव अधेसत्तमा ।। (सू०७८) रत्नप्रभारीयावृत्तिः 'इमा णं भंते ! इलादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी किं शाश्वती अशाश्वती ?, भगवानाह-गौतम ! स्यात्-कश्चित्कस्यापियाः शा॥९८॥ नयस्वाभिप्रायेणेत्यर्थः शाश्वती, स्थान-कथञ्चिदशाश्वती ॥ एतदेव सविशेष जिज्ञासः पृच्छति-से केणढेण'मित्यादि, सेशब्दोऽ-1|श्वतेतरते थशब्दार्थः स च प्रो, केन 'अर्थेन' कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते यथा स्यात् शाश्वती स्वादशाश्वतीति , भगबानाह-गौतम! 'दब्व- सू०७८ याए' इत्यादि, द्रव्यातया शाश्वतीति, तत्र द्रव्यं सर्वत्रापि सामान्यमुच्यते, द्रवति-नाच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति । वा व्यमितिव्युत्पत्तेर्द्रव्यमेवार्थ:-तात्त्विकः पदार्थो यस्य न तु पर्याया: स द्रव्यार्थ:-द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादको नयविशेषस्तद्भावो द्रव्याता तया द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादकनयाभिप्रायेणेतियावन् शाश्वती, द्रव्याथिकनयमतपर्यालोचनायामेवंविधस्य रत्नप्रभायाः पृथिव्या आकारस्य सदा भावात् , 'वर्णपर्यायैः कृष्णादिभिः 'गन्धपर्यायैः' सुरभ्यादिभिः 'रसपर्यायैः' तिक्तादिभिः 'स्पर्शपर्यायैः' - ठिनलादिभिः 'अशाश्वती अनित्या, तेषां वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालानन्तरं वाऽन्यथाभवनात् , अतावस्थ्यस्य चानित्यत्वात् , न चैवमपि भिन्नाधिकरणे नित्यखानित्यत्वे, द्रव्यपर्याययोमेंदाभेदोपगमात् , अन्यथोभयोरप्वसत्वापत्तेः, तथाहि-शक्यते वक्तुं परजापरिकल्पितं द्रव्यमसत् , पर्यायव्यतिरिक्तत्वात् , बाललादिपर्यायशून्यवन्ध्यासुतवत् , तथा परपरिकल्पिता: पर्याया असन्तः, द्रव्य-IR॥९८॥ व्यतिरिक्तत्वात् , बन्ध्यासुतगतबालत्वादिपर्यायवत् , उक्तश्च-"द्रव्यं पर्यायवियुत, पर्याया द्रव्यवर्जिताः । क कदा केन किंरूपा!, ॐ4 SEARINE ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७८] दीप अनुक्रम [९२] NEष्टा मानेन केन वा ॥१॥" इति कृतं प्रसङ्गेन, विस्तरार्थिना च धर्मसङ्ग्रहणिटीका निरूपणीया । 'से तेणडेण'मित्याद्युपसंहार माह, सेशब्दोऽथशब्दार्थः स चात्र वाक्योपन्यासे अथ 'एतेन अनन्तरोदितेन कारणेन गौतम! एवमुच्यते-स्यात् शाश्वती स्याददशावती, एवं प्रतिपुथिवि तावद्द्वक्तव्यं यावधःसप्तमी पृथिवी, इह यद् यावत्सम्भवास्पदं तच्चत्तावन्तं कालं शश्वद्भवति तदा तदपि । शाश्वतमुच्यते यथा तस्त्रान्तरेषु 'आकप्पट्ठाई पुढवी सासया' इत्यादि, ततः संशय:-किमेपा रमप्रभा पृथवी सकल कालावस्थायितया शाश्वती उतान्यथा यथा तत्रान्तरीयैरुच्यत इति ?, ततस्तदपनोदाथै पृच्छति-'इमा णं भंते' इत्यादि, इयं भदन्त ! रमप्रभा पृ-16 थिवी कालत: 'कियचिरं' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह-गौतम! न कदाचिन्नासीत्, सदैवासीदिति भावः, अनादित्वात् , तधा न कदाचिन्न भवति, सर्वदेव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः, अत्रापि स एव हेतुः, सदा भावादिति, तथा न कदाचिन्न भविष्यति, भविष्यचिन्तायां सर्वदेव भविष्यतीति भावः, अपर्यवसितत्वात् । तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय सम्प्र-15 हत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-'भुवि चेत्यादि, अभून् भवति भविष्यति च, एवं त्रिकालभाविलेन 'धुवा' भुवखादेव 'नियता' नियताब स्थाना, धर्मास्तिकायादिवन् , नियतलादेव च शाश्वती, शश्वद्भाव: प्रलयाभावात् , शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पद्मपौण्डरीकहद झान्यतरपुगलविचटनेऽप्यन्यतरपुद्गलोपचयभावात् , अक्षया अक्षयत्वादेव च अव्यया, मानुषोत्तराहिः समुद्रवत् , अव्ययखादेव 'अवस्थिता' खप्रमाणावस्थिता, सूर्यमण्डलादिवत् , एवं सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या जीवखरूपवत् , यदि वा धुवादयः शब्दा इन्द्रशकादिवत्पर्यायशब्दा नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपन्यता इत्यदोपः, एक्मेकैका पुथिवी क्रमेण तावद्वक्तव्या 3 यावदधासप्तमी ।। सम्प्रति प्रतिपृथिवीपु(वि)विभागतोऽन्तरं विचिन्तयिपुरिदमाह ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥१९॥ ४३ प्रतिपत्ती उद्देशः१ काण्डाद्यन्तरं सूत्रांक [७९] सू०७९ -BERS दीप अनुक्रम [इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो हेहिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पपणते?, गोयमा! असिउत्तरं जोयणसतसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णते । इमी से णं भंते ! रयण पु० उवरिल्लातो चरिमंताओ खरस्स कंडस्स हेहिल्ले चरिमंते एसणं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते?, गोयमा! सोलस जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढचीए उवरिल्लातो चरमंताओ रयणस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णसे, गोयमा! एकंजोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णते॥ इमीसे णं भंते ! रयण पु० उवरिल्लातो चरिमंतातो वइरस्स कण्डस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते, ?, गोयमा! एक जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे प० ॥ इमीसे णं रयण. पु. उवरिल्लाओ चरिमंताओ वइरस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं भंते ! केवतियं अबाधाए अंतरे प०?, गोयमा! दो जोयणसहस्साई इमीसे णं अवाधाए अंतरे पण्णत्ते, एवं जाव रिहस्स उबरिल्ले पन्नरस जोयणसहस्साई, हेहिल्ले चरिमंते सोलस जोयणसहस्साई । इमीसे भंते। रयणप्प० पु. उवरिल्लाओ चरिमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एस गं अबाधाए केवतियं अंतरे पपणते?, गोयमा! सोलस जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। हेडिल्ले चरिमंते एक जोयणसयसहस्सं आवबहुलस्स उवरि एक जोयणसयसहस्सं हेडिल्ले [९३] ॥१९॥ ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७९] चरिमंते असीउत्तरं जोयणसयसहस्सं । घणोदहि उवरिल्ले असिउत्तरजोयणसयसहस्सं हेडिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई । इमीसे णं भंते! रयण पुढ० घणवातस्स उवरिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई । हेडिल्ले चरिमंते असंखेजाई जोयणसयसहस्साई । इमीसे गं भंते! रयण पु० तणुवातस्स उवरिल्ले चरिमंते असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई अबाधाए अंतरे हेहिल्लेवि असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई, एवं ओवासंतरेवि ॥ दोच्चाए णं भंते! पुढचीए उचरिल्लातो चरिमंताओ हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते?, गोयमा! पत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । सकरप्प० पु० उवरि घणोदधिस्स हेडिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाधाए । घणवातस्स असंखेजाई जोयणसयसहस्साई पण्णताई। एवं जाय उवासंतरस्सवि जावऽधेसत्तमाए, णवरं जीसे जं वाहल्लं तेण घणोदधी संबंधेतब्बो बुद्धीए । सकरप्पभाए अणुसारेणं घणोदहिसहिताणं इमं पमाणं ॥ तचाएणं भंते ! अडयालीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं । पंकप्पभाए पुडवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । धूमप्पभाए पु० अट्टतीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं । तमाए पु० छत्तीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं । अधेसत्तमाए पु० अट्ठावीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं जाव अधेसत्तमाए । एस णं भंते! दीप अनुक्रम AAAAAAAAAAAAA [१३] ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः [७९] दीप अनुक्रम [९३] पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो उवासंतरस्स हेढिल्ले चरिमंते केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते?, प्रतिपत्ती गोयमा! असंखेजाई जोयणसयसहस्साई अबाधाए अंतरे पणत्ते ॥ (सू०७९) उद्देशः१ 'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्खा भवन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रजकाण्डस्य प्रथमस्य खरकाण्डस्य विभागस्य 'उवरिलात्' इति | काण्डाउपरितनाचरमान्तापरतो योऽधस्तनः 'चरमान्तः' चरमपर्यन्त: 'एस ण'मिति एतत्, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलात् , अन्तरं 'कि- अन्तर यत्' किययोजनप्रमाणम् 'अबाधया' अन्तरलव्याचातरूपया प्रज्ञप्तम् , भगवानाह-गौतम! एक योजनसहस्रम्' एक योजनसह-ICIR० ७९ सप्रमाणमन्तरं प्रज्ञप्तम् ॥ 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाचरमान्तात्परतो यो वनकाण्डस्योपरितनश्वरमान्त एतदन्तरं 'कियत्' किंप्रमाणमवाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! एक योजनसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञाम, रत्नकाण्डाधस्तनचरमान्तस्य वनकाण्डोपरितनचरमान्तस्य च परस्परसंलग्नतया उभयत्रापि तुल्यप्रमाणत्वभावात् ॥ 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पुधिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाचरमान्ताद् वनकाण्डस्य योऽधस्तनश्चरमान्त: एतदन्तरं कियद् अबाधया प्रज्ञप्तम् !, भगवानाह-गौतम! वे योजनसहने अवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्त, एवं काण्डे काण्डे द्वौ द्वावालापको वक्तव्यो, काण्डस्य चाधस्तने चरमान्ते चिन्यमाने योजनसहस्रपरिवृद्धिः कर्त्तव्या यावद् रिष्टस्य काण्डस्याधस्तने चरमान्ते चिन्त्यमाने षोडश योजनसहस्राणि अवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यम् ॥ 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाचरमान्तात्परतो यः पङ्कबहुलस्य काण्डस्योपरितनश्वरमान्तः एतत् 'कियत् किंप्रमाणमवाधयाऽन्तरं प्राप्तम् ।, भगवानाह-गौ-18॥१०॥ तम! पोडश योजनसहस्राणि अवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । 'इमीसे णमित्यादि, तस्यैव पङ्कबहुलस्य काण्डस्याधस्तनश्चरमान्त एकं यो-| % 5-45625 ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % %EC प्रत सूत्रांक [७९] % % जनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं । 'इमीसे णमित्यादि, अस्य भदन्त ! रवप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाचरमान्तात्परतोKisबहुलस्य काण्डस्य य उपरितनश्चरमान्त एतदन्तरं कियद् अवाधया प्रक्षप्तम् ?, भगबानाह-गौतम! एक योजनशतसहस्रमबाधया|ऽन्तरं प्रज्ञप्तं । 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्या भवन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाञ्चरमान्तात्परतोऽबहुलस्य काण्डस्य योऽधस्तनश्चरमान्त एतदन्तरं कियद् अवाधया प्रज्ञाप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रम् । धनोदधेरुपरितने। चरमान्ते पृष्टे एतदेव निर्वचनमशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रम् , अधस्तने पुष्टे इदं निर्वचनं-द्वे योजनशतसहस्र अबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । | धनवातस्योपरितने चरमान्ते पृष्टे इदमेव निर्वचनं, घनोदध्यवस्तनचरमान्तस्य धनवानोपरितनचरमान्तस्य च परस्परं संलग्नत्वात् ।। धनवातस्याधस्तने चरमान्ते पृष्ठे एतनिर्वचनम्-असङ्ख्येयानि योजनशतसहस्राण्यवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । एवं तनुवातस्योपरितने चर|मान्ते अधस्तने चरमान्ते अवकाशान्तरस्याप्युपरितनेऽधस्तने च चरमान्ते इत्थमेव निर्वचनं वक्तव्यम् , असपे यानि योजनशतसहस्राण्यवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति, सूत्रपाठस्तु प्रत्येकं सर्वत्रापि पूर्वानुसारेण स्वयं परिभावनीयः सुगमत्वात् ॥ 'दोच्चाए णे इत्यादि, द्वितीयस्या भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाञ्चरमान्तात्परतो योऽधस्तनश्वरमान्त एतत् 'कियत्' किंप्रमाणमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञतम् !, भगवानाह-गौतम ! द्वात्रिंशदुत्तरं' द्वात्रिंशरसहस्राधिक योजनशतसहलमवाधयाऽन्तरं प्राप्तम् । धनोदधेरुपरितने चरमान्ते पुष्टे एतदेव निर्वचनं द्वात्रिंशदुत्तरं योजनशतसहसम्, अधस्तने चरमान्से पृष्टे इदं निर्वचन--द्विपञ्चाशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् । एतदेव | | पनवातस्योपरितनचरमान्तपुच्छायामपि, बनवातस्वाधस्तनचरमान्तपच्छायां तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तनचरमान्तपुच्छासु। च यथा रमप्रभायां तथा वक्तव्यम् , असहयानि योजनशतसहस्राण्यवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यमिति भावः ।। 'तचाए । AASANSAR दीप अनुक्रम % % [९३] % % % ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्तौ उद्देशः१ रत्नप्रभादीनामल्प बहुता सू०८० [७९] ॥१०॥ ४ दीप अनुक्रम [९३] श्रीजीवा- भते।' इत्यादि, तृतीयस्या भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्ताद् अधस्तनश्चरमान्त एतदन्तरं कियद् अबाधया प्रज्ञप्तम् !, भग- जीवाभिदवानाह-गौतम ! अष्टाविंशत्युत्तरं शत(सहस्र)म्-अष्टाविंशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । एतदेव घनोदधेरुपरितन- मलयगि- चरमान्तपृच्छायामपि निर्वचनम् । अधस्तनचरमान्तपृच्छायामष्टाचत्वारिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञसमिति वक्त- रीयावृत्तिः व्यम् । एतदेव घनवातस्योपरितनचरमान्तपच्छायामपि । अधस्तनचरमान्तपुच्छायां तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तनचरमा- न्तपृच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा वक्तव्यम् । एवं चतुर्थपञ्चमषष्टसप्तमपृथिवीविषयाणि सूत्राण्यपि भावनीयानि ॥ इमा भंते! रयणप्पभा पुढवी दोचं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला विसेसाहिया संखेजगुणा? विस्थरेणं किं तुला विसेसहीणा संखेजगुणहीणा?, गोयमा! इमा णं रयण पु० दोचं पुढवीं पणिहाय बाहल्लेणं नो तुल्ला विसेसाहिया नो संखेजगुणा, वित्थारेणं नो तुल्ला विसेसहीणा णो संखेजगुणहीणा । दोचा णं भंते! पुढची तचं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला? एवं चेव भाणितव्वं । एवं तचा चउत्थी पंचमी छट्टी । छट्ठीणं भंते ! पुढवी सत्तमं पुढदि पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला विसेसाहिया संखेजगुणा?, एवं चेव भाणियब्वं । सेवं भंते!२। नेरइयउद्देसओ पढमो ॥ (सू०८०) 'इमा णं भंते !' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी द्वितीयां पृथिवीं शर्कराप्रभा 'प्रणिधाय' आभित्य 'बाहल्येन' पिण्डभावेन किं तुल्या विशेषाधिका सहयेयगुणा ?, वाहल्वमधिकृत्येदं प्रभत्रयम् , ननु एका अशीत्युत्तरयोजनलक्षमाना अपरा द्वात्रिंशदु CSCG ॥१०१॥ ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [९४] NROSCARSESSACTS त्तरयोजनलक्षमानेत्युक्तं ततस्तदर्थावगमे सत्युक्तलक्षणं प्रभत्रयमयुक्तं, विशेषाधिकेत्ति स्वयमेवार्थपरिज्ञानात् , सत्यमेतत् , केवलं शप्र-14 भोऽयं तदन्यमोहापोहार्थः, एतदपि कथमवसीयते ? इति चेत्स्वावबोधाय प्रश्नान्तरोपन्यासात् , तथा चाह-विस्तरेण-विष्कम्भेन कि ? तुल्या विशेषहीना सङ्ख्येयगुणहीना? इति, भगवानाह-गौतम! इयं रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीयां शर्कराप्रभापृथिवीं प्रणिधाय बाहल्येन न [च] तुल्या किन्तु विशेषाधिका नापि सङ्ख्येयगुणा, कथमेतदेवम् ? इति चेदुच्यते-दह रत्नप्रभा पृथिवी अशीत्युत्तरयोजनलक्षमाना, शर्कराप्रभा द्वात्रिंशदुत्तरयोजनलक्षमाना, तवान्तरमष्टाचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि ततो विशेषाधिका घटते न तुल्या नापि सब-15 यगुणा, विस्तरेण न तुल्या किन्तु विशेषहीना नापि सोयगुणहीना, प्रदेशादिङ्ख्या प्रवर्द्धमाने तावति क्षेत्रे शर्कराप्रभाया एवं [च]] वृद्धिसम्भवात् , एवं सर्वत्र भाषनीयम् ॥ [तृतीयप्रतिपत्तौ समासः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयः प्रारभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्-]] | सम्प्रति कस्यां पृथिव्यां कस्मिन् प्रदेशे नरकावासा: ? इत्येतत्प्रतिपादनार्थ प्रथमं तावदिदमाह कह णं भंते! पुढवीओ पण्णताओ?, गोयमा! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा ॥ इमीसे णं रयणप्प० पु० असीउत्तरजोयणसयसहस्सपाहल्लाए उवरि केवतियं ओगाहित्ता हेहा केवइयं वज्जित्ता मज्झे केवतिए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पपणत्ता?, गोयमा! इमीसे णं रयण पु० असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेद्वावि एगे जोयणसहस्सं बजेत्ता मज्झे अडसत्तरी जोयणसयसहस्सा, एस्थ णं रयणप्पभाए पु० नेरइयाणं तीसं निरयावाससयसहस्साई भवंतित्तिमक्खाया ॥ - - अत्र तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक स्य प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ तृतीय प्रतिपत्तौ “नैरयिक"स्य द्वितिय-उद्देशक: आरभ्यते ... सप्त-नरकावासानाम् विविध-विषयाधिकारः ~213~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१०२॥ [८१] दीप अनुक्रम [९५] ते ण णरगा अंतो वहा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णरएसु वेयणा, एवं एएणं अभिलावेणं उब ३ प्रतिपत्ती जुजिऊण भाणियव्वं ठाणप्पयाणुसारेणं, जत्थ ज बाहल्लं जत्थ जत्तिया वा नरयावाससयस- | उद्देशः १ हस्सा जाच अहेसत्तमाए पुढवीए, अहेसत्तमाए मज्झिमं केवतिए कति अणुत्तरा महइ महा- नरकावालता महाणिरया पण्णत्ता एवं पुच्छितब्वं वागरेयव्वंपि तहेव ।। (मू०८१) सस्थानं 'करणं भंते!' इत्यादि, कति भवन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ता: ? इति, विशेषाभिधानार्थमेतदभिहितम् , उक्तश्च-पुखभणियपि जय सू०८१ पुण भन्नई तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेहो य अणुण्णा कारण(हेउ)बिसेसोवलंभो था ॥१॥" भगवानाह-गौतम ! सम पुथिव्य: प्र-15 ज्ञप्ताः, तद्यथा-रनप्रभा यावत्तमस्तमप्रभा । 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त ! रमप्रभायाः पृथिव्या उपरि 'कियत्' किंप्रमाणम-16 वगाह्य-उपरितनभागात् कियद् अतिक्रम्येत्यर्थः अधस्तान् ‘कियत्' किंप्रमाणे वर्जयित्वा मध्ये 'कियति' किंप्रमाणे कियन्ति नर-1 कावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि', भगवानाह-गौतम ! अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्याया उपर्येकं योजनसहनमवगाह्याधस्तादेकं योजनसहनं वर्जयित्वा 'मध्ये' मध्यभागे 'अष्टसप्तत्युत्तरे' अष्टसप्ततिसहस्राधिके योजनशतसहसे 'अत्र' एतस्मिन् रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां योग्यानि त्रिंशन्नरकाबासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्च तीर्थकनिः, अनेन | सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनता प्रवेदिता । तेणं नरगा' इत्यादि, ते नरका 'अन्तः' मध्यभागे 'वृत्ता' वृत्ताकाराः 'बहिः' बहिर्भागे | 'चतुरस्राः' चतुरस्राकाराः, इदं च पीठोपरिवर्तिनं मध्यभागमधिकृत्य प्रोच्यते, सकलपीठाद्यपेक्षया तु आवलिकाप्रविष्टा वृत्तव्यनच- ॥१० ॥ १ पूर्वभाजितमाप यत् पुनर्भयते तत्र कारणमस्ति । प्रतियोऽनुशा कारणविशेषोपलम्भश्च ॥ १॥ मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते–'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~214~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] दीप अनुक्रम तुरनसंस्थानाः पुष्पावकीर्णास्तु नानासंस्थाना; प्रतिपत्तव्याः, एतचाप्रे स्वयमेव वक्ष्यति, हे खुरपसंढाणसंठिया" इति, अधः। भूमितले क्षुरप्रस्येव-प्रहरणविशेषस्व (इव) यत् संस्थानम्-आकारविशेषस्तीक्ष्णतालक्षणस्तेन संस्थिताः क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः, तथाहि-तेषु नरकावासेषु भूमितले ममृणवाभावत: शर्करिले पादेषु न्यस्थमानेषु शर्करामात्रसंस्पशेऽपि क्षुरप्रेणेव पादाः कृत्यन्ते, तथा "निश्चंधयारतमसा" नित्यान्धकाराः उद्द्योताभावतो यत्तमसेन-उमसा नित्यं-सर्वकालमन्धकारो येषु ते नित्यान्धकाराः, बत्रापवरकादिष्वपि तमोऽन्धकारोऽस्ति केवलं स बहिः सूर्यप्रकाशे मन्दतमो भवति नरकेषु तु तीर्थकरजन्मदीक्षादिकालव्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमन्युद्योतलेशस्याप्यभावतो जात्यन्धस्येव मेघच्छन्नकालार्द्धरात्र इवातीव बलतरो भवति, दक्ष उक्तं तमसानित्यान्धकाराः, तमश्च वत्र सदाऽवस्थितमुद्योतकारिणामभावान् , तथा चाह.-"ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा" व्यपगत: परिभ्रष्टो पहचन्द्रसूर्यनक्षत्र रूपाणाम् उपलक्षणमेतत्तारारूपाणां च ज्योतिष्काणां पन्था-मागों यत्र ते व्यपगतपहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिषकपथाः, तथा "मेयवसागर कापूयरुहिरमंसचिक्खिललित्ताणुलेवणतला" इति स्वभावतः संपन्नैर्मेदोवसापूतिकधिरमांसर्यशिक्खिलः-कर्दमस्तेन लिप्तम्-उप दिग्धम् अनुलेपनेन-सकृक्षितस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तल भूमिका येपा ते मेदोवशापूतिरुधिरमांसचिक्खिल्ललिप्तानुलेपनवला अत बाएवाशुचय:-अपवित्रा बीभत्सा दर्शनेऽप्यतिजुगुप्सोत्पत्तेः परमदुरभिगन्धा:-मृतगवादिकडेवरेभ्योऽन्यतीवानिष्ठदुरभिगन्धाः, 'का अगणिवन्नाभा" इति लोहे धम्यमाने यादृक् कपोतो-बहुकृष्णरूपोऽग्नेर्वर्णः, किमुक्तं भवति?-याशी बहुकृष्णवर्णरूपाऽग्निज्वाला विनिर्गच्छत्तीति, तादृशी भाभा-वर्णस्वरूपं येषां ते कपोताग्निवर्णाभाः, तथा कर्कश:-अतिदुस्सहोऽसिपत्रस्येव स्पशों येषां ते| कर्कशस्पर्शाः, अत एष 'दुरहियासा' इति दुःखेनाध्यास्यन्ते-सान्ते इति दुरण्यासा अशुभा दर्शनतो नरकाः, तथा गन्धजी०च०१८ [९५] ~215~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % प्रत RE5% सूत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [९५] श्रीजीवा- रसम्पर्शशदरशुभा-अतीवासातरूपा नरकेषु बेदना । एवं सर्वास्वपि पृथिवीबालापको बक्तव्यः, स चैवम्- सकरप्पभाए| प्रतिपत्ती जीवाभि भंते! पुरवीए, बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सपाहलाए उवरि केवश्यं ओगाहित्ता हेहा केवइयं वजेत्ता मज्झे चेव केवइए| उद्देशः १ मलयगि- केवइया गिरयात्राससयसहस्सा पण्णत्ता', गोयमा सकरप्पभाए णं पुढबीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उबरि एग जो- नरकाचारीयावृत्तिःलावणसहस्समोगाहित्ता हेडा एर्ग जोयणसहरसं बजेत्ता मझे तीसुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं सकरप्पभापुडविनेरइयाणं पण-18 बीसा नरयावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं, ते गं गरगा अंतो बट्टा जाप असुभा नरएम वेयणा । वालुयप्पभाए | तत्स्थानं च ॥१०॥ उभंते ! पुढचीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उबरि केवइयं ओगाहित्ता हेवा केवइयं बज्जित्ता माझे केवइए केवश्या निर-1 सू०८१ | यावाससयसहस्सा पण्णत्ता, गोषमा चालुयप्पभाए पुढबीए अट्ठावीसुत्तरजोषणमयसहस्सबारमाए बरि एगं जोयणसहसं ओअगाहित्ता हेष्टुं एगं गोषणराहसं बजिता, मझेर छब्बीमुत्तरे जोबणसयसहस्मे पत्थ णं बालुयप्पभापुटबिनेरइयाणं पण्णरस निरयाबासमयसहस्सा भदन्तीति मक्यायं, ते णं नरगा जाब असुभा नरगेसु वेयणा । पंकप्पभाए णं भंते ! पुढवीय वीमुत्तरजोयणमयसहमाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहिचा हेढा केवइयं प्रनिता मझे केवदार केबद्दया निरयावाससयसहम्सा पणता ?, गोवमा ! पंकप्पभाषणं पुढचीए वीसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहलाए उवरि एग जोयणसहसं ओगाहित्ता हिवावि एर्ग जोयणसहस्सं वजेत्ता मझे अट्ठारसुत्तरे जोयणसयसहस्से, पत्थ णं पंकप्पमा पुडविणेरइयाणं दम निरयावाससयसहस्सा निरयावासा भवतीति मक्खायं, ते णं सागरगा जाब असुभा नरगेसु बेयणा । धूमप्पभाए णं भंते ! पुढबीए अट्ठारसुत्तरजोयणसयसहलवाहलाए, डबरि केवइयं ओगाहेत्ता, हेडा केवयं बजित्ता मझे केवइए केवइया निरयावासमयसहस्सा पणता?, गोयमा धूमपभाए णं पुढवीए अट्ठारसुत्तरजोयणसबसह CA मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते–'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [ ९५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र- ३ / १ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [3] उद्देशकः (नैरयिक)-२], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः - मूलं [८१] -------------- स्वाहा उवरिं एवं जोयणसहस्समोगात्ता देहा एवं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसहस्से, एत्थ णं धूमप भापुढविनेरइयाणं तिनि नेरइयावाससय सहस्सा भवतीति मक्वायं ते णं णरगा अंतो वट्टा जाव असुभा नरंगेमु वेयणा इति [प्रन्धाश्रम् ३००० ]। तमप्पभाए णं भंते! पुढवीए सोलसुत्तर जोयणसयस हत्सवाहाए उबर केवतियं ओगाहेत्ता हा केवतियं वजेत्ता मझे केलिए केवतिया नरगावासस्यसहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तमप्पभाए णं पुढबीए सोलसुतरजोयणसय सहस्वाहा उवरिं एवं जोयणसहस्समोगात्ता देट्ठा एवं जोयणसयसहस्सं वजेत्ता मझे चोदसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं तमापुढविनेरइयाणं एगे पंचू नरगावासस्यसहस्ते भवन्तीति मक्वायं ते णं णरंगा अंतो वट्टा जाव असुभा नरगेस वेयणा । अहेसासमाए णं भंते! पुढबीए अट्टोत्तरजोयणस्य सहरसवाहलाए उवरिं कैवश्यं ओगाहेता हेद्रा केवइयं वजेत्ता मज्झे केवइए केवइया अणुतरा महइमहालया महा| नरगावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! अहेसत्तमाए पुडबीए अद्भुत्तर जोयणसयसहस्त्रबाहलाए उबरिं अद्धतेवणं जोयणसहस्साई जोगात्ता द्वात्रिं अद्धतेवरणं जोयणसहस्साई वजित्ता मध्ये तिसु जोयणसहस्से एत्थ णं आहेसत्तमपुडविनेरइयाणं पंच अणुसरा महइमहालिया महानिरया पण्णत्ता, तंजहा-काले महाकाले रोए महारो मझे अपट्टाणे, ते णं महानरगा अंतो बट्टा जाव असुभा महानरगेस बेयणा" इति । इदं च सकलमपि सूत्रं सुगमं तत्र बाहुल्यपरिमाणनरकावासयोग्यमध्यभागपरिमाणनरकावास सङ्ख्यानामिमाः सङ्ग्रहणिगाथा: "आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसगं अद्भुत्तरमेत्र हेद्विमया ॥ १ ॥ अनुत्तरं च तीसं छब्बीसं चेत्र सयसहस्सं तु । अट्ठारस सोलसगं चोदसमहियं तु बीए || २ || अद्धतिवण्णसहस्सा उवरिमहे वजिऊण तो भणिया । For P&Palle Cinly ~ 217~ w Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२] दीप दाहल्यं च सू०८२ श्रीजीवा- मझे विसु सहस्सेसु होति निरया तमतमाए ॥ ३ ॥ तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दस चेय सयसहस्साई । तिनि य पणेगं 4-1 प्रतिपत्ती जीवाभिाव अणुत्तरा निरया ॥४॥" पाठसिद्धाः ॥ सम्प्रति नरकावाससंस्थानप्रतिपादनार्थमाह उद्देशः १ मलयगि- इमीसे णमंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरका किंसंठिया पण्णत्ता ?, गोयमा! दविहा पपणत्ता, निरकावारीयावृत्तिः तंजहा-आवलियपविट्ठा य आवलियबाहिरा य, तत्थ णं जे ते आवलियपविठ्ठा ते तिविहा |साना स॥१०॥ पण्णत्ता, तंजहा-वहा तंसा चउरंसा, तत्थ णजे ते आवलिययाहिरा ते णाणासंठाणसंठिया स्थानं तपण्णता, तंजहा-अयकोढसंठिता पिढपयणगसंठिता कंडसंठिता लोहीसंठिता कडाहसंठिता थालीसंठिता पिहङगसंठिता किमियडसंठिता किन्नपुडगसंठिआ उडवसंठिया मुरवसंठिता मुयंगसंठिया नंदिमुयंगसंठिया आलिंगकसंठिता सुघोससंठिया दद्दरयसंठिता पणवसंठिया पडहसंठिया भेरिसंठिआ झल्लरीसंठिया कुतुंचकसंठिया नालिसंठिया, एवं जाव तमाए || अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए णरका किंसंठिता पणत्ता ?, गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-वहे य तंसा य ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका केवतियं बाहल्लेणं पपणत्ता?, गोयमा ! तिषिण जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता, तंजहा-हट्ठा घणा सहस्सं मझे झुसिरा सहस्सं उपि संकुइया सहस्सं, एवं जाव अहेसत्तमाए । इमीसेणं भंते! रयणप्प० पु० ।१०४॥ नरगा केवतिय आयामविक्रखंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णता, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, अनुक्रम [९६-९७] CACANCIALNEWS मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते–'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ACCRACK सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [९६-९७] तंजहा-संखेजवित्थडा य असंखेजवित्थडा य, तत्थ णं जेते संग्वेजवित्थडा ते णं संखेजाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं संखेजाई जोयणसहस्साई परिक्वेवेणं पण्णता तत्थ णं जे ते असंखेजवित्थडा ते असंखेजाई जोयणसहस्साई आयामविश्वंभेणं असंग्वेजाई जोयणसहस्साई परिक्खयेणं पण्णसा, एवं जाव तमाए, अहेसत्तमाए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा दुविहा पपणत्ता, तंजहा-संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडा य, तत्थ गंजे से संखेजवित्थडे से एक जोयणसयसहस्सं आयामविखंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए लिन्नि कोसे य अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलयं च किंचिविसेसाधिए परिक्वेवेणं पपणत्ता, तत्थ णं जे ते असंखेजवित्थडा ते णं असंग्वेजाई जोयणसयस हस्साई आयामविक्वंभेणं असंग्वेजाई जाव परिक्वेवणं पण्णत्ता (सू०८२) 'इमीसे गं भंते ! इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किमिव संखिताः किंसंस्थिताः प्रशता: ?, भगवानाहगौतम! नरका द्विविधाः प्रज्ञाः, तबधा-आवल्लिकाप्रविष्टाश्च आवलिकाबाहाश्च, चशब्दावुभयेषामप्यशुभवातुल्यतासूचकौ, आत्रलिकाप्रविष्टा नामाचासु दिनु समण्यवस्थिताः, आवलिकासु-श्रेणिषु प्रविष्ठा-व्यवस्थिता आवलिकाप्रविष्टाः, ते संस्थानमधिकृत्य त्रिविधा: प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-वृत्ताख्यसाधतुरमाः, तत्र येते आषलिकाबाह्यास्ते नानासंस्थानसंस्थिताः प्राप्ताः, तथथा-अय:कोष्ठोलोहमयः कोप्ठस्तद्वत्संस्थिता अयःकोप्टसंस्थिताः, 'पिपयणगसंठिया' इति यत्र सुरासंधानाय पिष्टं पच्यते तत्पष्टपचनकं तद्ध ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 25% प्रत जीवाभि सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [९६-९७] श्रीजीवा-नामखिना: 'पिपयणगसंठिया' अत्र सतहणिगाथे-"अयकोटुपिट्ठपयणगहलोहीकडाहसंठाणा । थाली पिहङग किण्ह (ग) उडए| प्रतिपत्ती मुरवे मुयंगे य ॥ १॥ नंदिमुइंगे आलिंग सुघोसे दद्दरे व पणवे य । पडहगझलरिभेरीकुसुधगनाडिसंठाणा ॥ २॥" कण्ड:- उद्देशः १ मलयगि- पाकस्थानं लोहीकटाही प्रतीतौ तद्वत्संस्थानाः स्थाली-उषा पिहर-यत्र प्रभूतजनयोग्य धान्यं पच्यते उटज:-तापसाश्रमो मुरजो- | नरकवारीयावृत्तिः16मरलविशेषः नन्दीमृदङ्गो-द्वादशबिधनूर्यान्तर्गतो मृदङ्गः, स च द्विधा, तद्यथा-मुकुन्दो मर्दलश्च, तत्रोपरि सङ्कचितोऽधो विसीणों म-| सानां संटाकुन्दः उपर्यधक्ष समो गईल; आलिङ्गो-गन्मयो मुरज: सुघोषो-देवलोकप्रसिद्धो घण्टाविशेष आतोषविशेषो वा दर्दरो-याय-II स्थानं न॥१०५॥ विशेषः पणयो-भाण्डानां पटहः परह: प्रतीतः, भेरी-टका, झहरी-पौवनद्धा बिसीर्णवलयाकारा, कुस्तुम्बकः-संप्रदायगम्यः, II नाही-घटिका, एवं शेषास्वपि पृथिवीपु ताबद्वक्तव्यं यावत्यष्ठयां, सूत्रपाठोऽप्येवम्-"सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीण नरका किंसं-1 हाठिया पन तारी, गोयगा! दुबिहा पन्नत्ता, तंजहा-आवलिकापविट्ठा य आवलियाबाहिरा य" इत्यादि । अधःसप्तमीविषयं सूत्र साक्षादुपदर्शयति--'अहेसत्तमाए णं भंते !' इत्यादि, अधःसनम्यां भदन्त ! पृथिव्यां नरका: "किंसंस्थिताः किमिय संस्थिताः। प्रज्ञता:', भगवानाह-गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वहे य तंसा य' इति, अधःसप्तम्यां हि पृथिव्यां नरका भावलिकाप्रविष्टा। एव न आवलिकाबाह्याः, आवलिकाप्रविष्टा अपि पश्च, नाधिकाः, तत्र मध्ये ऽप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रो वृत्तः, सर्वेपामपि नरकेभन्द्राणां वृत्तत्वात् , शेषास्तु चत्वारः पूर्वादिषु दिनु, ते च घ्यखाः, तन उक्तं वृत्तश्च न्यन्नाश्च ।। सम्पति नरकाबासाना बाहल्यप्रतिपाद नार्थमाह-'इमीसे णमित्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पुधियां नरका: कियद्वाहल्येन-वहलस्य भावो बाहल्य-पिण्डभाव दाउत्सेध इत्यर्थः तेन प्रज्ञापाः १, भगवानाह-गौतम : त्रीणि योजनसहमाणि थाहल्येन प्रामाः, ताथा-अधस्तने पादपीठे धना-निचिताः Gil१०५॥ मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते–'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२] दीप सहस्र-योजनसहसं, मध्ये-पीठस्योपरि मध्यभागे सुपिराः सहस्र-योजनसहस्रं. तत 'उप्पिति उपरि सङ्कुचिताः शिखराकृल्या सकोचमुपगता योजनसहलं, तत एवं सर्वस श्यया नरकावासानां त्रीणि योजनसहस्राणि वाहल्यतो भवन्ति, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां ताबद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्या, तथा चोक्तमन्यत्रापि-बेट्टा घणा सहस्सं उपि संकोचतो सहस्सं तु । मझे सहस्ल सुसिरा तिन्नि || सहस्सूसिया नरया ॥ १॥" सम्प्रति नरकावासानामायामविष्कम्भप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभावों पृथिव्यां नरकाः किंप्रमाणमायामविष्कम्भेन, समाहारो द्वन्दुस्तेनायामविष्कम्भाभ्यामित्यर्थः, कियत् 'परिक्षेपेण' परि-12 रयेण प्रज्ञप्ताः ?, भगवानाह-गौतम, द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सयेय विस्तृताच असल्वेचविस्तृताश्च, सोययोजनप्रमाणं विस्तृतविसरो येषां ते सध्ययविस्तृताः, एबमसडवेयं विस्तृतं येषां ते असञ्चयेयविस्तृता:. चशन्दी स्वगतानेकसचाभेदप्रकाशनपरौ, तत्र ये ते साहयेयविस्तृतास्ते सवयेयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन सत्येनानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण, तब ये तेऽसहयेयविस्तृताxस्तेऽसहयेयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेन असल्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञमानि, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं याव-18 षष्ठी पुथिवी, सूत्रपाठस्त्येवम्-सकरप्पभाए णं भन्ते पुडबीए नरगा केवइयं आयामविक्वंभेणं केवइवं परिरयणं पण्णता?, गोयमा दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा-संखेजवित्थडा य, असंखेजवित्थडा य” इत्यादि । 'अहेसत्तमाए णं भंते !" इत्यादि, अधःसप्तम्यां भदन्त ! पृथिव्या नरकाः कियदायामविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः?, भगवानाह-गौतम द्विविधाः प्रशमाः. तद्यथा-सोयविस्तृत एक:, |स चाप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रकोऽवसातव्यः, असोय विस्तृताः शेषाश्चत्वारः, तत्र योऽसौ सयेयविस्तृतोऽप्रतिष्ठानाभिधानो नर| केन्द्रकः स एक योजनशतसहनमायामविष्कम्भेन श्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिक त्रयः अनुक्रम [९६-९७] ~221~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२] दीप श्रीजीवा- कोशा अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदश अङ्गुलानि अर्धाङ्गुलं च किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् , इदं प परिक्षेपपरिमाण गणितभा-15 प्रतिपत्ती जीवाभिावनया जम्बूद्वीपपरिक्षेपपरिमाणबद्भावनीय, तत्र ये ते शेषाश्चत्वारोऽसयेयविस्तृतास्तेऽसपेयानि योजनसहस्राण्यायामविच्कम्भेनास Kउद्देशः १ मलयगि-INोयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्रानि ।। सम्पति नरकावासानां वर्णप्रतिपादनार्थमाह नरकावारीयावृत्तिः इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरया केरिसया बपणेणं पण्णत्ता ?, गोयमा ! काला का सानां लावभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णेणं पण्णता, गर्व जाब अधे- वर्णादि सत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढचीए णरका केरिसका गंधेणं पण्णता ?, गोयमा! से जहाणामए अहिमडेति वा गोमडेति वा सुणगमडेति वा मजारमडेति वा मणुस्समडेति वा महिसमडेति वा मूसगमडेति वा आसमडेति वा हत्थिमडेति वा सीहमडेति वा वग्घमडेति वा विगमडेति वा दीवियमडेति वा मयकुहियचिरविणटकुणिमवावण्णदुभिगंधे असुइविलीणविगयवीभत्थदरिसणिज्जे किमिजालाउलसंसत्ते, भवेयारवे सिया ?, णो इणढे समढे, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए गरगा एत्तो अणिट्टतरका चेच अकंततरका चेव जाव अमणामतरा चेव गंधेणं पण्णत्ता, एवं जाव अर्धसत्तमाए पुढवीए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० णरया केरिसया फासेणं पण्णत्ता?, गोयमा! से जहानामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलं ॥१०६॥ बचीरियापत्तेइ चा सत्तग्गेइ वा कुंतग्गेइ वा तोमरग्गेति वा नारायग्गेति वा मूलग्गेति वा लजु अनुक्रम [९६-९७] SAMACARSA मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते–'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [९८] लग्गेति वा भिंडिमालग्गेति वा सूचिकलावेति वा कवियच्छृति वा विंचुयकंटएति वा इंगालेति वा जालेति चा मुम्मुरेति वा, अञ्चिति वा अलाएति वा सुद्धागणीइ वा, भवे एतारूवे सिया?, णो तिणहे समझे, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढचीए णरगा एत्तो अणिदुतरा चेव जाव अम पामतरका चेव फासे णं पण्णात्ता, एवं जाव अधेसत्तमाए पुढवीए॥ (सू०८३) 'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका: कीदृशा वर्णेन प्रज्ञप्ता:?, भगवानाह-गौतम ! काला:, तत्र कोऽपि निष्प्रतिभतया मन्दकालोऽप्याशङ्कवेत ततस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-कालावभासाः' काल:-कृष्णोडधावभास:-प्रतिभाविनिर्गमो येभ्यस्ते कालावभासाः, कृष्णप्रभाफ्टलोपचिता इति भावः, अत एव 'गम्भीररोमहर्षाः' गम्भीर:-अती-| बोत्कटो रोमहर्पो-रोमोपों भयवशा वेभ्यस्ते गम्भीररोमहर्षाः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम ते कृष्णावभासा यदर्शनमात्रेणापि नारकजन्तूनां भयसम्पादनेन अनर्गलं रोमहर्षभुत्पादयन्तीति, अत एव भीमा-भयानका भीमखादेव उनासनकाः, उपास्यन्ते नारका । जन्तब एभिरिति उपासना उपासना एव उपासनकाः, फि बहुना?-वर्णेन' वर्णमधिकृत्य परमकृष्णाः प्रज्ञप्ताः, यत ऊबै न किमपि भयानक कृष्णमस्तीति भावः, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तम्याम् ॥ गन्धमधिकृत्याह-इमीसे णं भंते ! इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! नद्यथा नाम-'अहिमृत इति वा' अहिमृतो नाम मृताहिदेहः, एवं सर्वत्र भावISIनीय, गोमृत इति वा अश्वमृत इति वा मार्जारमृत इति वा हस्तिमृत इति वा सिंहमृत इति वा व्याघ्रमृत इति वा द्वीप:-चित्रका, दासर्वत्र अहिश्चासौ मृतश्च अहिमृत इत्येवं विशेषणसमासः, इह मृतकं सद्यःसंपन्नं न विगन्धि भवति तत आह-मयकुहियविणड 15 ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- कुणिमवावणे'सादि, गतः सन् कुधित:-पूतिभावमुपगतो मृतकुथितः, स चोच्छनावस्थामाप्रगतोऽपि भवति, न च स तथा विग-1 प्रतिपत्ती जीवाभि०Gधस्तत आह-विनष्टः उच्छूनावस्यां प्राप्य स्फुटित इति भावः, सोऽपि तथा दुरभिगन्धो न भवति तत आह-'कुणिमवावपण'चि | उद्देशः१ मलयगि-1 व्यापन्नं-विशरामभूतं कुणिमं-मांसं यस्य स तथा, ततो विशेषणसमासः, 'दरभिगन्धः' इति दुरभिः-सपामाभिमुख्येन दुष्टोनरकाबारीयावृत्तिः गन्धो यस्यासौ दुरभिगन्धः, अशुचिश्च विलीनो-मनसः कलिमलपरिणामहेतुः 'विगय' इति विगतं प्रनष्टं यदभिमुखतया प्राणिनां | PA साना लगत-नामनं यस्मिन , तथा वीभत्सया-निन्दया दर्शनीयो वीभत्सादर्शनीयः दत्तो विशेषणसमासः अशुचिविगतवीभत्सादर्शनीयः वर्णादि ॥१०॥ किमिजालाउलसंसत्ते' इति संसक्तः सन कृमिजालाकुलो जात: कृमिजालाकुलसंसक्तः, मयूरव्यंसकादित्वात्समासः संसक्तशब्दस्य च | सू०८३ परनिपातः, एतावत्युक्ते गौतम आह-भवे एयारूवे सिया?" इति, स्याद् भवेद्-भवेयुरेतद्रपा:-यथोक्तविशेषणविशिष्टा अहिमृतादिसारूपा गन्धनाधिकृता नरकाः, सूत्रे च बहुवचनेऽप्येकवचनं प्राकृतवान् , भगवानाह-गौतम ! 'नायमर्थः समर्थों' नायमर्थ उपपन्नो, यतोऽस्या रजप्रभायां पृधियां नरका इतो-यथोक्तविशेषणविशिष्टाहिमृतादेरनिष्टतरा एव, तत्र किश्चिदम्यमपि कस्याप्यनिष्टतरं भवति तत आह-अकान्ततरा एव-खरूपतोऽप्यकमनीयतरा एच, अभव्या एवेति भावः, तत्राकान्तमपि कस्यापि प्रियं भवति यथा गर्चाशूकरस्याशुचिः, तत आह-अप्रियतरा एव न कस्यापि प्रिया इति भावः, अत एवामनोज्ञतरा एव, अमनआपतरा एव गन्धमधिकृत्य प्रज्ञता:, नत्र मनोज-मनोऽनुकूलमात्रं यत्पुनः स्वविषये मनोऽयन्तमासक्तं करोति तन्मनआपम् , एकाथिका बा एते सर्वे शब्दाः शक्रेन्द्रपुरन्दरादिवम् नानादेशजविनेयजनानुग्रहार्थमुपात्ताः, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां ताबद्वत्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् ।। स्पर्शमधिकृत्याह-'इमीसे | १०७३ 'मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगनं, भगवानाह-गौतम! तद्यथा नाम-'असिपत्रमिति वा' असि:-सङ्गं तस्य पत्रमसिपत्रं सुरममिति त्रा - - [९८ - मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते–'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [82] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ (नैरयिक)-२], ----- - मूलं [८३] प्रतिपत्ति: [ ३ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः कदम्बचीरिकापत्रमिति वा, कदम्बचीरिका- तृणविशेषः, स च दर्भादयतीव देवकः, शक्ति:-प्रहरणविशेषस्तदप्रमिति वा कुन्ताप्रमिति बा. तोमराश्रमिति वा, भिण्डिमाल:-प्रहरणविशेषस्तदद्यमिति वा सूचीकलाप इति वा, वृश्चिकदंश इति वा, कपिकच्छूरिति बा, कपिकच्छुः कण्डूबिजनको बहीविशेष:, अङ्गार इति वा अङ्गारो-निर्धूमाभिः ज्वालेति वा, ज्वाला-अनलसंबद्धा, मुर्मुर इति वा, मुर्मुरः- कुम्कुकादौ मसृणोऽग्निः अधिरिति वा, अर्चि:-अनलविच्छिन्ना ज्याला. अलातम् - उल्मुकं शुद्धाग्निः - अयस्पिण्डाद्यनुगतोऽग्निर्विद्युदादिर्या, इतिशब्दः सर्वत्रापि उपमाभूतबस्तुस्वरूपपरिसमात्रिद्योतकः, बाशब्दः परस्परसमुजये, इह कस्यापि नरकस्य स्पर्शः शरीरावयवच्छेकोऽपरस्य भेइकोऽन्यस्य व्यथाजनकोsपरस्य दाहक इत्यादि ततः साम्यप्रतिपत्यर्थमपित्रादीनां नानाविधानामुपमानानामुपादानं, 'भधे एयारूवे सिया ?' इत्यादि प्राग्वत् ॥ सम्प्रति नरकावासानां महत्त्वमभिधित्सुराह इसीसे गं ने रयणभाष पुढवीए नरका केमहालिया पण्णत्ता ?, गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे २ सच्चदीवसमुद्दाणं सव्वमंतरए सच्चखुडाए वहे तेलावठाणसंठिने वट्टे रथचकवालसंाणसंठिनं हे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिते बट्टे पडिपुण्णचंदसंाणसंठित एवं जोयणसतसहस्सं आयाम जाव किंचिविसेसाहिए परिक्वेवेणं, देवे गं महिहीए जाय महाणुभागे जाव णामेव दणामेवतिकटु इमं केवलकप्पं जंबूद्दीवं २ तिर्हि अच्छरानिवापहिं तिसत्तक्रतो अणुपरिति णं यमागच्छेजा, से णं देवे ताए उक्किहाए तुरिताए चलाए चंदाए सिखाए उद्ध या जयणre [गाए] दिव्वाए दिव्वगतीए वीतिवयमाणे २ जणं एगार्ह वा दुयाहं वा For P&Pase City ~ 225~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८४] अनुक्रम [82] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ (नैरयिक)-२], ----- - मूलं [८४] प्रतिपत्ति: [ ३ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १०८ ॥ तिआहं वा उक्कोसेणं छम्मासेणं वीतिवएज्जा, अत्थेगतिए वीहवएज्जा अत्थेगतिए नो वीतिवएजा, महालता णं गोमा ! इमीसे णं रयणप्पभाष पुढवीए णरगा पण्णत्ता, एवं जाव अधेसमाए, वरं असत्तमा अत्थेगतियं नरगं वीइवइज्जा, अत्थेगइए नरगे नो वीतिवएजा || (सू० ८४) 'इमी से णमित्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्रप्रभायां पृथिव्यां नरका: 'किंमहान्तः' किंप्रमाणा महान्तः प्रज्ञमाः १, पूर्व ह्यसङ्ख्यविस्तुता इति कथितं तथासयत्वं नावगम्यत इति भूयः प्रनः अत एवात्र निर्वचनं भगवानुपमयाऽभिधत्ते, गौतम! अयमिति यत्र 4 संस्थिता वयं णमिति वाक्यालङ्कारे अप्रयोजनोच्छ्रितया रत्नमय्या जम्ब्वा उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां धातकीखण्डलवणादीनां सर्वाभ्यन्तरः- आदिभूतः 'सर्वक्षुल्लकः' सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको हखः सर्वक्षुकः तथाहि सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे धातकीखण्डादयो द्वीपा अस्माजम्बूद्वीपादारभ्य प्रवचनोक्तेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणायामविष्कम्भपरिचयः ततोऽयं शेषसर्वद्वीपसमुद्रापेक्षया सर्वलघुरिति तथा वृत्तो यतः 'तैलापूपसंस्थानसंस्थितः' तैलेन पकोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पकोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतेन पक इति तैलविशेषणं, तस्येव संस्थानं तैलापूपसंस्थानं तेन संस्थित तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यतः | पुष्कर कर्णिका संस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यतो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यतः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः, अनेकधोपमानोपमेयभावो नानादेशजविनेयप्रतिपत्यर्थः, एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे | योजनशते सप्तविंशे त्रयः क्रोशा अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदश अङ्गुलानि अर्द्धाढं च किञ्चिद्विशेपाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, परिक्षेपपरिमाणगणित भावना क्षेत्रसमासीकातो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीकातो वा वेदितव्या । 'देवे ण'मित्यादि, देवश्व णमिति वाक्याल For P&Praise City मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते— 'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~226~ ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः १ नरकावासानां महत्ता सु० ८४ ।। १०८ ।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [९८] कारे, 'महर्द्धिकः' महती ऋद्धिर्विमानपरिवारादिका यस्य स महर्द्धिकः, महती युतिः शरीराभरणविषया यस्य स महायुतिकः, महद् | बलं-शारीरः प्राणो यस्य स महाबलः, महद् यशः-ख्यातिर्यस्य स महायशाः, तथा 'महेसक्खें' इति महेश इति महान ईश्वर इयाख्या यस्य स महेशाख्यः, अथवा ईशनमीशो भावे घप्रत्यय ऐश्वर्यमित्यर्थः, 'ईशं ऐश्वर्य' इति वचनात् , तत ईशम्-ऐश्वर्यमात्मनः | | ख्याति--अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति-प्रथयति ईशाख्यः, महांश्चासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, कचित् 'महासोक्खे' इति पाठः, तत्र महत् सौख्यं यस प्रभूतसदोदयवशात्स महासौख्यः, अन्ये पठन्ति-'महासक्खे' इति तत्राय शब्दसंस्कारो-महाश्वाक्षः, इयं चात्र पूर्वाचार्यप्रदर्शिता व्युत्पत्ति:-आशुगमनादश्वो-मन: अक्षाणि-इन्द्रियाणि स्वविषयव्यापकत्वात् अश्वश्चाक्षाणि च अश्वाभाणि महान्ति अश्वाक्षाणि यस्यासौ महावाक्षः, तथा 'महाणुभागे' इति अनुभागो-विशिष्टवैक्रियादिकरणविषयाऽचिन्त्या शक्ति: 'भागोऽचिंता सत्ती' इति वचनान् , महान अनुभागो यस्य स महानुभागः, अमूनि महर्द्धिक इत्यादीनि विशेषणानि तत्सामर्थ्यातिशवप्रतिपादकानि यावदिति चप्पुटिकात्रयकरणकालावधिप्रदर्शनपरम, 'इणामेव इणामेवेतिकट्ट' एवमेव मुधिकया एवमेव 'मोरकुला मुहा य मुहियत्ति नायव्वा' इति वचनाद् अवज्ञयेति भावः, उक्तञ्च मूलदीकायाम् "इशामेव इणामेवेति कट्ट एवमेव मुधिकयाऽत्रज्ञयेति" 'इतिकृत्वे'लि हस्तदर्शितचप्पुटिकानयकरणमूचकं केवलकल्प-परिपूर्ण जम्बूद्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपातः, अप्सरोनिपातो नाम | चप्पुटिका, तत्र तिमभिचप्पुटिकाभिरिति द्रष्टव्यं, चप्पुटिकाच कालोपलक्षणं, ततो यावता कालेन तिम्रश्चप्पुटिका: पूर्यन्ते तावपात्कालमध्य इत्यर्थः, त्रिसप्तकृत्यः-एकविंशतिवारान अनुपरिवर्त्य-सामस्त्येन परिभ्रम्य 'हव्व' शीघमागच्छेन् , स इत्यम्भूतगमन शक्तियोग्यो देवः तया देवजनप्रसिद्ध्या उत्कृष्टया प्रशस्त विहायोगतिनामोदयात्प्रशस्तया शीघसंचरणात्वरितया लरा संजाताऽस्यामिति जी०च०१९|| ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- त्वरिता तया खरितया शीवतरमेव तथा प्रदेशान्तराक्रमणमिति, अपलेव चपला वया, क्रोधाविष्टस्येव अमासंवेदनान् चण्डेव चण्डा प्रतिपत्ती जीवाभितया, निरन्तरं शीतलगुणयोगान् शीशा तया शीघ्रया, परमोत्कृष्टवेगपरिणामोपेता जवना तया, अन्ये तु जितया विपक्षजेतृलेनेति उद्देशः २ मलयगि- व्याचक्षते, 'छेकया' निपुणया, वातोद्धृतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गति: सा उद्धृता तया, अन्ये लाहु:-उद्धृतया दातिशये- नरकावारीयावृत्तिः नेति, 'दिव्यया' दिवि-देवलोके भवा दिव्या तया देवगत्या व्यतित्रजन् जघन्यत: 'एकाहं वा एकमहर्यावन् , एवं व्यहं त्र्यमुत्क- सप्रमाणं पत: पण्मासान यावद् व्यतित्रजेत् , तत्रास्त्येतद् यदुत एककान् कांचन नरकान 'व्यतिव्रजेत्' उल्लव परतो गच्छेत् , तथाऽस्येतद् नरकावा॥१०९ 1: यदुत इत्थंभूतयापि गत्या षण्मासानपि यावन्निरन्तरं गच्छन् एककान् कांश्चन नरकान् 'न व्यतित्रजेत्' नोला परतो गच्छेन्, सशाश्वत अतिप्रभूताऽऽयामतया तेपामन्तस्य प्रानुभशस्यत्वान , एतावन्तो महान्तो गौतम! अवां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः प्रज्ञताः, एवमेकैा तरत्वे कस्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावद्धःसतम्यां, नबरमधासप्तन्यामेवं वक्तव्यम्-"अत्थेगइयं नरगं वीइवएना अत्यंगइए नरगे नो० ८५ वीइवएजा" अप्रतिष्ठानाभिवबैकस्य नरकस्य लक्षयोजनायामविष्कम्भतयाऽन्तस्य प्राप्तुं शक्यत्वात् शेषाणां च चतुर्णामतिप्रभूतासवे-15 ययोजनकोटीकोटीप्रमाणवेनान्तस्य प्राप्नुमशक्यत्वात् ।। सम्प्रति किमया नरका इति निरूपणार्थमाह इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किंमया पण्णत्ता?, गोयमा! सव्वबहरामया पण्णता, तत्थ णं नरएस बहवे जीवा य पोग्गला य अवकमति विउक्कमति चयंति उबवज्जति, सा- ID॥१०॥ सता गं ते णरगा दब्बट्टयाए वष्णपजवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपजवहिं असासया, एवं जाव अहेसत्तमाए ॥ (सू०८५) [९८ JaEcuamil ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत - सूत्रांक [८५] ) दीप अनुक्रम [९९] 'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रमप्रभायां पृथिव्यां नरका: 'किमया: फिविकारा: प्रज्ञता: ?, भगवानाह-गौतम, | 'सव्ववइरामया' इति सर्वासना वसमया: प्रज्ञप्ताः, वनशब्दस्य सूत्रे दीर्घान्तता प्राकृतत्वान् , 'तत्र च तेषु नरकेषु णभित्ति वाक्यालङ्कारे बहवो जीवाश्च खरवादरथिवीकायिकरूपाः पुद्गलाब 'अपकामन्ति' क्यबन्ते 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते, एतदेव शब्दद्वयं यथाक्रम पर्यायद्वयेन व्याचष्टे-'चयंति उववजंति' च्यवन्ते उत्पद्यन्ते, किमुक्तं भवति ?-एके जीवाः पुद्गलाश्च यथायोगं गच्छन्ति अपरे लागल्छन्ति, यस्तु प्रतिनियतसंस्थानादिरूप आकार: स तदवस्थ एवेति, अत एवाह-शाश्वता णमिति पूर्ववत् ते नरका द्रव्या तया तथाविधप्रतिनियतसंस्थानादिरूपतया वर्णपर्यायर्गन्धपर्याय रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायैः पुनरशाश्वताः, वर्णादीनामन्यथाऽन्यथाभव४ानान् , एवं प्रतिपृथिवि तावरक्तव्यं यावद्धःसप्तनी पुथिवी । साम्प्रतमुपपातं विचिचिन्तयिपुराह इमीसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कतोहिंतो उववजंति किं असणीहिंतो उबवजंति सरीसिवेहिंतो उववज्जति पक्वीहिंतो उववजंति चउप्पएहितो उववज्जति उरगेहिंतो उववजंति इत्थियाहिंतो उववज्जति मच्छमणुणांहतो उपवनंति?, गोयमा! असणीहिंतो उववज्जति जाव मच्छमणुएहिंतोवि उववज्जति,-असण्णी खलु पढम दोचं च सरीसिवा ततिय पक्खी। सीहा जति चउथी उरगा पुण पंचमी जति ॥१॥छद्धिं च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि जंति। जाव अधेसत्तमाए पुढवीए नेरहया णो असण्णीहिंतो उववति जाव णो हस्थियाहिंतो उबव१ (संसासु इमाए गाहाए अशुगंतव्या, एवं एतेणं अभिलायेणं इमा गाथा घोसेयन्या). 95% ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८६] + गाथा दीप अनुक्रम [१०० -१०२] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------ उद्देशकः [(नैरयिक)-२], - मूलं [८६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ११० ॥ Jan Eber जंति मच्छमणुस्सेहिंतो उबवजंति । इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० णेरतिया एकसमपूर्ण केवतिया उववजंति?, गोयमा ! जहपणेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखिज्ञा वा उबवजंति, एवं जाव अधेसत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पुढवीए रतिया समए समय अबहीरमाणा अबहीरमाणा केवनिकालेणं अवहिता सिता?, गोयमा! ते णं असंखेला समएसमए अवरमाणा अवहीरमाणा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसपिणीहिं अवहीरंति नो चेव पणं अवहिता सिता जाव अधेसत्तमाः ॥ दमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० रतियाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?, गोगमा ! दुबिहा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, तंजहा - भवधारणिजा य उत्तरवेउच्चियाय, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्ञा सा जहनेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उकोसेणं सत्त धणू निष्णि य रयणीओ छच अंगुलाई, तत्थ णं जे से उत्तरवेउब्विए से जह० अंगुलस्स संग्वेजतिभागं उक्को० पण्णरस धणू अड्डाइजाओ रथणीओ, दोचाए भवधारणिजे जहपणओ अंगुलासंखेज भागं उक्को० पण्णरस घणू अड्डाइजातो रयणीओ उत्तरवेउब्विया जह० अंगुलस्स संग्वेज्जभागं उक्को० एकतीसं धणूई एक्का रयणी, तथाए भवधारणिजे एकतीसं धणू एक्का रयणी, उत्तरवेउब्विया बासहिं धणूई दोण्णि रयणीओ, चउत्थीए भवधारणिजे वासह घ णू दोणि य रयणीओ, उत्तरवेउब्विया पणवीसं धणुसयं, पंचमीए भवधारणिजे पणवीसंघ For P&Praise Cinly ~230~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः २ उपपातः संख्या X वगाहना मानं सू० ८६ ★ ॥ ११० ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत णुसर्य, उत्तरवे. अहाइजाई धणुसयाई, छट्ठीए भवधारणिज्जा अढाइजाई धणुसयाई, उत्तरचेउब्विया पंचधणुसयाई, सत्तमाए भवधारणिता पंचधणुसयाई उत्तरवेउबिए धणुसहस्म ॥ सूत्रांक [८६] गाथा दीप अनुक्रम [१००-१०२] 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कुत उत्पदान्ते ?, किमसज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते सरीसृपेभ्य उत्पधन्ते पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्य उत्पयन्ते उरगेभ्य उत्पद्यन्ते स्त्रीभ्य उत्पद्यन्ते मत्स्यमनुष्येभ्य उत्पयन्ते ?, भगवानाह-गौतम असज्ञिभ्योऽध्युत्पद्यन्ते यावन्मत्स्यमनुष्येभ्योऽप्युत्पद्यन्ते, 'सेसासु इमाए गाहाए अणुगंतव्या' इति, 'शेषासु' शर्कराप्रभाविपु| पृथिवीवनया गाथया, जातायेकवचनं गाथाद्विकेनेत्यर्थः, उत्पद्यमाना अनुगन्तब्याः, तदेव गाथाद्विकमाह-'अस्सपणी खलु पढम मित्यादि, असज्ञिन:-संमूछिमपञ्चेन्द्रियाः खलु प्रथमां नरकपृथिवीं गच्छन्ति, खलुशब्दोऽवधारणे, तथा अवधारणमेवम्-असजिनः प्रथमामेव यावद् गच्छन्ति न परत इति, नतु त एव प्रथमामिति गर्भजमरीमपादीनागपि उत्तरपथिवीपटगामिनां तत्र *गमनात , एवमुप्तरत्राप्यवधारणं भावनीयम । 'दोचं च सरीसिवा' इति द्वितीयामेव शर्कराप्रभायां पृथिवीं यावद्दमछन्ति सरी-14 | सपा:-गोधानकुलादयो गर्भासुरकान्ता न परतः, तृतीयामेव गर्भजाः पक्षिणो गृध्रादयः, चतुर्थीमेव सिंहाः, पञ्चमीमेव गर्भजा | उरगाः, पष्ठीमेव नियः स्त्रीरश्नानगा महाराध्यवसायिन्यः, सममी यावद् गर्भजा मत्स्या मनुजा अतिक्रूराध्यवसायिनो महापापकारिणः, आलापका प्रतिधित्रि एवम् – सकरप्पभाए गं भंते ! पुढबीए नेरइया किं असण्णीहितो उबवजंति जाव मच्छमणुहितो उवत्रजति !, गोयमा ! नो असन्नीहितो उवव जति सरीसिबेहितो उबवनंति जान मच्छमणुस्सेहिं तो उववजति । बालुयप्पभाए गं भंते ! *-4-50 Jana ~231~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र- ३/१ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(नैरयिक)-२], (१४) ཉྩེཡྻོཝཱ ཏྠཱ + ཋལླཱཡྻ अनुक्रम -१०२] • मूलं [८६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि• रीयावृत्तिः ॥ १११ ॥ पुढवीर नेरश्या किं असण्णीहिंतो उववनंति जात्र मच्द्धमगुएहिंतो उबवजंति ?, गोत्रमा! तो असण्णीहिंतो उवजंति नो सरीसिवेहिंतो उबवजंति एक्सीहिंतो उववर्जति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उवयनंति" एवमुत्तरोत्तरपृथिव्यां पूर्वपूर्वप्रतिषेधसहितोत्तरप्रतिषेधस्तावदुक्तम्यो यावदधः सम्यां स्त्रीभ्योऽपि प्रतिषेधः, तत्सूत्रं चैवम् असत्तमाए णं भंते! पुढate नेरter fi reण्णीहिंतो अंति जाब मच्छमणुस्सेहिंतो ववजंति ?, गोयमा ! तो असण्णीहिंतो उववति जाय तो इत्थीहिंतो उवववंति मच्छमणुस्सेहिंतो | उबवजंति" ।। सम्प्रत्येकस्मिन् समये कियन्तोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारका उत्पयन्ते ? इति निरूपणार्थमाह । (इमीसेर्ण) 'रयणप्पभापुढविए नेरइया णं भंते!' इत्यादि स्त्रप्रभापृथिवीनैरविका भदन्त ! एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते ?, भगवानाह - गौतम ! ज धन्यतएको वा त्रयो वा उत्कर्षतः सोया असङ्ख्या वा एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम् ॥ सम्प्रति प्रतिसमय मे कैकनारकापहारे सकलनारकापहारकालमानं विचिचिन्तयिपुरिदमाह - रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते!" इत्यादि, रत्न- ५ प्रभापृथिवीनैरविका भदन्त ! समये समय एकैकसङ्ख्यया अपदियमाणाः २ किवता कालेन सर्वासनाऽपहियन्ते ?, भगवानाह गौतम ! * 'ते णं असंखेज्जा समए २ अवहीरमाणा' इत्यादि, ते रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका असङ्ख्यास्ततः समये समये एकेकसाया अपहियमाणा असङ्ख्याभिरुत्सपिण्यव सर्पिणीभिरपहियन्ते इदं च नारकपरिमाणप्रतिपश्यर्थं कल्पनामात्रं, 'नो चेव णं अवहिया सिया' इति न पुनरपडताः स्युः किमुक्तं भवति ? - न पुनरेवं कदाचनाप्यपहृता अभवन् नाप्यपयिन्ते नाप्यपहरिष्यन्त इति, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्रम्याम् ॥ सम्प्रति शरीरपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह- 'रयणप्पभापुढवी' इत्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त 'किंमहती' किंप्रमाणा महती शरीरावगाहना प्रज्ञता ?, 'जहा पण्णवणाए ओगाहण संठाणपदे' For P&Praise City ~ 232~ ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः २ उपपातः संख्या वगाहनामानं सू० ८६ ॥ १११ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 0-0 - सूत्रांक [८६] * गाथा इति, यथा प्रज्ञापनायामवगाहनासंस्थानाख्यपदे तथा वक्तव्या, सा चैव-द्विविधा रत्नप्रभापृथिवीनरयिकाणां शरीरावगाहना-भवधारणीया उत्तरवैक्रिया च, तत्र या सा भवधारणीया सा जघन्यतोऽङ्गुलासयभाग उत्कर्षतः सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् परिपूर्णान्यकुलानि, उत्तरक्रिया जघन्यतोऽङ्गलसोयभाग उत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्ताका वितस्ति:, शर्फराप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासवधेयभाग उत्कर्षतः पश्चदश धपि द्वौ हस्तावका क्तिस्तिः, उत्तरवैफिया जपन्यतोऽलसयेयभाग उत्कर्षत एकत्रिंशद्धपि एको हस्तः, चालुकाप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गलासमवेयभाग उत्कर्पत एकत्रिंशद्धपि एको हस्त:, 'उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गुलसहयेयभाग उत्कर्षतः सादीनि द्वापष्टिधनूंषि, पङ्कुप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गलासयभाग उत्कर्षतः सा नि द्वाषष्टिधनूंषि, उत्तरक्रिया जधन्यतोऽङ्गुलसयेयभाग उत्कर्षतः पञ्चविंशं धनुःशतं, धूमप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासयेयभाग उत्कर्षतः पञ्चविंशं धनुःशतं, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गलसरेयभाग उत्कर्षतोऽर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, तम:प्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गलासयेयभागमात्रा उत्कर्षतोऽर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गलस ये यभाग उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतानि, तमस्तम:प्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासद्धयेयभाग उत्कर्षत: पञ्च धनुःशतानि, उत्तरवैक्रिया जधन्यतोऽङ्गुलसङ्घयेयभाग, उत्कर्षतो धनुःसहसमिति । यदि पुनः प्रतिप्रस्तटे चिन्ता क्रियते तदैवमवगन्तव्या-तत्र जघन्या भवधारणीया सर्वत्राप्यङ्गलासयेयभागः, उत्तरवैक्रिया तु अङ्गुलसोयभागः, उक्तं च मूलटीकाकारेणान्यत्र- उत्तरवैक्रिया तु तथाविधप्रयत्राभावादाद्यसमयेऽप्यनुलसङ्ख्येयभागमात्रैवे"ति, उत्कृष्टा तु भवधारणीयाया रसप्रभाया: प्रथमे प्रस्तटे त्रयो हस्ता अत ऊध्र्व क्रमेण प्रतिप्रस्तटं सार्द्धानि पट्पञ्चाशदङ्गुलानि प्रक्षिप्यन्ते, तत एवं परिमाणं भवति, द्वितीये प्रस्तटे धनुरेकमेको हस्त: सार्द्धानि चाटावङ्गुलानि, तृतीये धनुरेक CARRCACAKACKS दीप अनुक्रम [१००-१०२] 1567 ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) ཙྪིཊྛཝོཝཱ སྒྲ + ཋལླཱཡྻ अनुक्रम -१०२] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ३ ], मूलं [८६] + गाथा ------ उद्देशक: [ (नैरयिक) -२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः उपपातः श्रीजीवा- त्रियो हस्ताः सप्तदशाङ्गुलानि चतुर्थे द्वे धनुषी द्वौ हस्ती सार्द्धमेकमङ्गुलं, पञ्चमे त्रीणि धनूंषि दशाङ्गुलानि षष्ठे त्रीणि धनूंषि द्वौ १३ प्रतिपत्ती जीवाभि० हस्ती सार्द्धन्यष्टादशाङ्गुलानि सप्तमे चत्वारि धनूंषि एको हस्तस्रीणि चाङ्गुलानि, अनुमे चत्वारि धनूंषि त्रयो हताः सार्द्धान्यका- उद्देशः २ मलयगि दशाङ्गुलानि, नवमे पञ्च धनूंषि एको हस्तो विंशतिरकुलानि दशमे षड् धनूंषि सार्द्धानि चत्वार्थकुलानि एकादशे पड़ धनूंषि द्वौ रीयावृत्तिः हस्ती त्रयोदशाङ्गुलानि, द्वादशे सप्त धनूंषि सार्द्धान्येकविंशतिरङ्गलानि, त्रयोदशे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः पट् च परिपूर्णाभ्यङ्गुलानि, ४ संख्याऽउक्तश्व – “श्यणाए पढमपयरे हत्थतियं देह उस्सए भणियं । छप्पन्नंगुलसड्डा पयरे पयरे हवइ बुडी || १ ||" वगाहना मानं ॥ ११२ ॥ ९ १० ११ १२ १३ शर्कराप्रभावां प्रथमे प्रस्तटे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः पद् बाङ्गलानि, प्र. १ २ ३ ४ ५ ६ ८ घ. ० १ १ २ ३ ३ ४ ४ ५ ६६७ ह. ३ १३२२ १३ १०२० अं.० ८ ।। १७९ ।। १०१८ || ३ | ११|| २०४ ।। १३,२१॥ ६ ३ ی अत ऊर्ध्व तु प्रतिप्रस्ट यो हस्ताखीणि चाकुलानि क्रमेण प्रक्षे- ४ सू० ८६ प्रव्यानि तत एवं परिमाणं भवति द्वितीये प्रस्तटेष्ट धनूंषि द्वौ इस्ती नव चाकुलानि तृतीये नव धनूंषि एको हस्तो द्वादश चाङ्गुलानि, चतुर्थे दश धनूंषि पश्चादशाङ्गुलानि पञ्चमे दश धनूंषि त्रयो हस्ता अष्टादशाङ्गुलानि, पष्ठे एकादश धनूंषि द्वौ हस्तावेकविंशतिरङ्गुलानि, सप्तमे द्वादश धनूंषि द्वौ हस्तौ अष्टने त्रयोदश धनूंषि एको हस्तस्त्रीणि चाङ्गुलानि, नवमे चतुर्दश धनूंषि षट् चालानि, दशमे चतुर्दश धनूंषि त्रयो हस्ता नव चाङ्गुलानि, एकादशे पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्ती एका वितस्तिः, उक्तञ्च "सो चैत्र व बीयाए पढने पयरंभि होइ उस्सेहो । हत्थ तिय विनि अङ्गुल पयरे पयरे य बुट्टी य ॥ १ ॥ एक्कारसमे पयरे पनरस धणूणि दोणि रथणोओ । वारस य ॥ ११२ ॥ अंगुलाई देहपमाणं तु विनेयं ॥ २ ॥" अत्र 'सो चैत्र य बीयाए' इति य एवं प्रथमपृथिव्यां त्रयोदशे प्रस्तटे उत्सेधो भणितो For P&Praise City ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] गाथा यथा सप्त धनूंषि त्रयो हस्ता: पट चालानीति स एव द्वितीयस्यां शराप्रभायां पृथिव्यां पथने प्रसटे उत्सेधो भवति, शेष सुगमम ।। 181१२३४५६८५१०११३. वायुकानभायाः प्रथमे प्रस्तटे पचव धनविही हस्ती द्वादश चाहटा नि, अत: ८ ९ १०१०१११२१३१४१४१५३. तु प्रतिपलटं सा हस्ताः माहानि चेकोनविंशतिरङ्गलानि कमेण प्रक्षIDI३२१०३२२१०३मग्यानि. सत एवं परिमाणं भवति-द्वितीय प्रखटे सनदश धपि द्वीला द६९ ११५१८२१० ३ ६ ५१२ अं. हस्ती सार्दानि समाङ्गलानि, तुनीये एकोनविंशतिर्धपि नौ हस्ती श्रीण्यङ्ग लानि, चतुर्थे एकविंशनियनषि को इल: माडीनि च द्वादिनिरङ्गलानिः ५ त्रयोविनिधनपि एको इस्तोऽष्टादश श चालानि, पष्टे पञ्चविंशतिर्धनार एको इम: मानि प्रयोदशामुदानि, समय मनविनिधभूपि एको जस्तो नव चाङ्ग लानि, अष्टमे एकोनविशन् धनंदि एको बदलः लाजनि चत्वार्य वानिक मजद एकत्रिगनधि एको हस्तः, 'उक्तश्च-"सो च य लक्ष्याए पढमे पयरंभिर उसेहो । मत बयणी अंगुल गुपची बड़ी या पयरे पयरे य तहा नवमे पत्यकाम होइ उस्ले हो । घायाणि एमवीनं एका ग्यणी व नायब्वा ।।२॥ अनार दो व य सश्याए पढमे पयरंमि होइन ममेटो' उनि य पद द्विगीया शकंरानभायामेकादशे प्रसटे उत्सेधः स एवं नाश्ता वालकाप्रसाचा प्रथमे प्रसटे भवति, शेष मुगनं । पापभायाः प्रथमे प्रलटे एकत्रिंशनपिएको हलः, तत तु प्रतिप्रश्न पत्र धनपि विंशतिरहुलानि क्रमेण प्रश्न व्यानि, ता परिमाणं भवनि-दितीय प्रस्तर पत्रिंशन पि एको सिंहानिरवानि, तृतीये एकचत्वारिंशजनपि ही हमी बापोडमालानि, चतुर्व पदय सारिशचनषि त्रयो दरला द्वादशाङ्गलानि, पमं विपासाउनषि अष्टावालानि, पठे सप्रपञ्चागबपि दीप अनुक्रम [१००-१०२] etik15KES -% ~235~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सत्राक [८६] गाथा श्रीजीवा-13ाएको हस्तश्चत्वार्यशालानि, मनमे द्वापष्ठिः धनपि द्वौ हसी, ज सो चेव च उत्थीए पढमे पयरमि होइ उस्सेहो । पञ्च धणु|||प्रतिपत्ती जीवाभि० वीस अंगुल पयरे पयरे य सुश्री य ॥ १॥ जा सत्तमय पर नेरयाणं तु होइ रस्नेहो । वासट्ठी धापाई योणि य रयणी य बो- उद्देशः २ मलयगि- ब्बा ॥ १॥" अवापि सो चेवे'त्यस्यार्थः पूर्वानुसारेण भावनीयः । श्रमप्रभायाः प्रथमे प्रस्तढे द्वापष्ट्रिर्धनगि दो हनी, तत ऊर्थ | उपपातः रीयावृत्तिःतु प्रतिप्रस्वटं पञ्चदश धपि सार्वहस्तद्वयाधिकानि क्रमेण प्रक्षेपव्यानि, तेनेदं परिमाणं भवति-द्वितीये प्रस्तटेऽयमप्रतिर्धपि एका संख्या: वितस्ति:, तृतीये निगवतिर्थनषि त्रयो हस्ताः, चनु नबोनरं धन:शत पेको हल एका बितस्तिः, पञ्चमे पञ्चविशं धनुःसतं, उक्तश्च वगाहना॥११३॥ सो नेव पंचमीत पहले पनि होइ उम्सेहो । पतरस भनिनो हासा पयरेसु बुही य ॥ १ ॥ तह पंचमए पयरे, उम्सेहो। मानं धणुसयं तु पणवीस ।" मोवेव य' इत्यस्यार्थोऽत्रापि पूर्ववन । नाप्रयायाः प्रबपे प्रस्तटे पञ्चविंशं धनुःशतं ततः परतरे तु अम्ल- ०८६ पटद्वये क्रमेण प्रत्येक सादामि द्वापनिवि प्रक्षेपथ्यानि, नन गर्च परिमार्ग बलि-द्विनीये मादसवाशीयधिक धनुःश, तृतीयेऽ-13 नूनीयानि धनुःगतानि, रा--"सो चेन य छट्ठीए पढने पयामि होउहो । बागडि पाणु य सहा पयरे पयरे य बुड़ी ॥१॥ (सहा य सत्तसीइ बीए पास कोई धायस) इटी लक्ष्यपपरे यो सय पाएमया होति ।।२।" समधियां पञ्च धनुःशतानि, उत्तरवैकिंवा तु सर्वत्रापि भवधारणीयापेक्षया द्विगुणप्रमाणावसातव्या ।। सम्प्रति संहननातिपादनाभ माह-- हदीसे भंते ! रयणप्प पु०परायाण सरीरया किंमंधयणी पधणसा?. गोपमा! छाई, संघयणाणं असंघयणा, णेवट्ठी पोय छिरा वि पहार व संघयणमस्थि, जे पोग्गला अणिहा जाव अमणामा ते तेसिं सरीरसंघायनाग परिणमंति, एवं जाव अधेमसमाए ।हमीसेणं भंते ! रयण दीप अनुक्रम [१००-१०२] -- ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८७]] पु० नेरतियाण सरीरा किंसंठिता पण्णत्ता,गोयमा विहा पण्णत्तातंजहा-भवधारगिजा य उ. तरवेउब्विया य, नत्थणं जेले भवधारणिज्जा ले इंडसंठिया पण्णत्ता,नत्थ णं जे ते उत्तरवेउविधा तेवि हुंटसंठिला पण्णता, एवं जाव अहे मत्तमा इमीसे णं भंते ! रयणपणेरतियाणं मरीरगा। करिसता यण्णणं पण्पत्ता?, गोयमा काला कालोभामा जाव परमकिण्हा वाण पत्ता, एवं जाव अहेससमाए । इमी से णं भंते ग्यण पु० नेरड्याणं सरीरया फेरिमया गंधणं पण्णत्ता?, गोयमा! से जहानामए अहिम इ वा तं चेव जाव आहेसत्तमा ॥ हमीने स्थण पुनेरयाणं सरीरया करिमया काणं पण्णता?, गोयसा! फरिनच्छचिचिच्छविया खरफझमझाम - सिरा फामेणं पण्णता, गवंशाच धनसमा (५०८७) 'रयणप्पयादि. रसप्रभाधिवीनरथिका भदन्त सिंहन निनः न संहनन संहननवन्त: प्रक्षना: , भगवानाह-गौतम 'छहं संघयणाण' मिलयादि प्राग्वन , यत्र प्रतिनिधि नाबढकव्यं यावद्धःसभनी । सम्पत्ति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-रयणप-18 मत्यादि, रमनभावृथिवीनैरयिकाणां भगवरोरमाणिनिसंस्थिताजि कन संस्थान संस्थानवन्ति प्रक्षयानि, भगवानाह-गौ-14 तम' रबप्रभाथिषीनरयिकाणां शरीराणि द्विविधानि प्रसपानि, तपथा-भवधारणीयानि उत्तरवैक्रियाणि च, तब यानि भवधारणी-1 यानि सानि तथाभवस्वाभायादवयं हुण्डनामकमादयतो हुण्डसंधानानि, यान्यपि चीत्तरक्रियरूपाणि तान्यपि यद्यपि शुभमहं वैसक्रिय करित्यागीति चिन्तयति धाइपि सभाभवाभाव्यतो हुसंस्थाननामक मंदियन उत्साहितस कलरोगपिच्छ कपोतपक्षिण इव हु-11251 दीप अनुक्रम [१०३] 1949 ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८७] श्रीजीवा-15 ण्डसंस्थानानि भवन्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रति नारकाणां शरीरेषु वर्णप्रतिपादनार्थमाह-रय- प्रतिपत्ती जीवाभि णप्पभे'यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! शरीरकाणि कीदृशानि वर्णेन प्रजातानि?, भगवानाह-गौतम! 'काला कालोभासा' उद्देशः२ मलयगि- इत्यादि प्राग्वत् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तमपृथिव्याम् ॥ अधुना गन्धप्रतिपादनार्थमाइ-रत्नप्रभापूधिवीनैरयिकागां नारकाणां रीयावृत्तिः भदन्त ! शरीरकाणि कीदृशानि गन्धेन प्रज्ञतानि ?, भगवानाह-गौतम! 'से जहानामए अहिमडे इ वा' इत्यादि प्राग्वत्, एवं पृ- संहननसं थिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तभ्याम् ॥ सम्प्रति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह-रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते' इत्यादि, स्थानग॥११४॥ रजप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! शरीरकाणि कीरशानि स्पर्शन प्रज्ञतानि ?, भगवानाह-गौतम! स्फटितच्छविविच्छवयः, इहैकत्रन्धाद्या दछविशब्दस्त्वग्वाधी अपरत्र छायावाची, ततोऽयमर्थः-स्फटितया-राजिशतसङ्कलया त्वचा विच्छवयो-विगतच्छाया: स्फटितच्छविवि च्छवयः, तथा खरम(राणि)-अतिशयेन परुषाणि खरपरुषाणि ध्यामानि-दग्धच्छायानि शुषिराणि-शुषिरशतकलितानि, ततः पयस्यापि पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, सुपकेष्टकाध्यामतुल्यानीतिभावः, स्पर्शन प्रज्ञप्तानि, एवं प्रतिपृथिवि तावद् यावदधःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रत्युच्छासप्रतिपादनार्थभाह इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रतियाणं केरिसया पोग्गला ऊसासत्साए परिणमंति?, गोयमा! जे पोग्गला अणिवा जाव अमणामा ते तेसिं ऊसासत्ताए परिणमंति, एवं जाव अहेसत्तमाए, एवं आहारस्सवि सत्समुचि ॥ इमीसे णं भंते! रयण पु० नेरतियाण कति लेसाओ ॥११४॥ पण्णत्ताओ?, गोयमा! एका काउलेसा पपणत्ता, एवं सकरप्पभाएऽवि, चालुपप्पभाए पुच्छा, दो दीप अनुक्रम [१०३] ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८८] लेसाओ पण्णताओ नं०-नीललेसा कापोतलेसा य, तत्थ जे काउलेसा ते बहुतरा जेणीललेस्सा पण्णता ते धोया, पंकप्पभाए पुच्छा, एका नीललेसा पण्णसा, धूमपभाए पुच्छा, गोयमा! दो लेस्साओ पण्णसाओ, तंजहा-किपहलेस्सा य नीललेस्सा य, ते बहुतरका जे नील लेस्सा, ते धोवतरका जे किण्हलेसा, तमाए पुच्छा, गोयमा! एका किण्हलेस्सा, अधेससमाए एका परमकिपहलेस्सा ॥ इमीसे णं भंते ! रयण पु० नेरच्या किं सम्मदिट्टी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी?, गोयमा! सम्नविट्ठीवि मिच्छदिट्टीवि सम्मामिच्छदिट्ठीचि, एवं जाब अहेसत्तमाए । इमीसे णमंते ! स्यण पुणेरतिया किं नाणी अण्णाणी?, गोयमा! णाणीवि अपणाणीवि, जे गाणी ते णियमा तिणाणी, तंजहा-आभिणियोधितणाणी सुयणाणी अवधिणाणी, जे अपणाणी ने अन्धेगतिया दुःअण्णाणी अत्धेगव्या तिअन्नाणी, जे अन्नागी ने णियमा मतिअनाणी य सुयअपणाणी य, जे तिअन्नाणी ते नियमा मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणीवि, सेसाणं गाणीवि अपणाणीवि निषिण जाव अधेसत्तमाए । इमीसे मंने! स्यणकिंमणजोगी वइजोगी कायजोगी?, तिपिणथि, एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसे गं भने ! रघणप्पभापु० नेरइया किं सागारोवउत्ता अणा श्रीकाकृद्धिः अत्र 'करपनापुरवीनेरइया कि नाणी अनामोर, गोबमा ! नाणीवि अन्नामाथि, जे नाणी ते निएमा तिनाये आमि. मुग. ओहित मा तेमियमा तिमाही मतिभनाणी विनंगनाणी. एवं'नानाप्राक वाचनारगतोऽनुगः. दीप अनुक्रम [१०४] र जी०स०२० नष्ट ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवा प्रत रीयावृत्तिः सूत्रांक [८८] गारोवसा?, गोयमा ! सागारोवउत्सावि अणागारोवत्तावि, एवं जाव अहेसत्तमाए पुढचीए । प्रतिपत्तः जीवाभि [मीसे गं भंते ! रयणप्प पुनेरहया ओहिणा केवतियं वसं जाणंति पासंति?, गोयमा! जमलयगि-18 होणं अडुगाउनाई 'उकोसेणं चत्तारि गाउयाई । सकरप्पभापु० जह० तिन्नि गाउयाई उको वारकाण अट्ठाई, एवं अद्धदगाउयं परिहायति जाब अधेसत्तमाए जहा अगाउयंउकोसेणं गाउयं] ॥ दमीसे णं भंने! रयणप्पमाए पुसदीए नेरतियाणं कति ममुग्याता पणता?, गोयना! चसारि ॥११५॥ रलेश्याहसमुग्धाता पणसा, संजहा-वेदणासमुम्चाए कसायसमुग्धाप मारणलियसमुग्धाप बेउब्विय- ष्टिज्ञानामनुग्याए, पयं जाव अहेसत्तमाए ।। (मू०८८) ज्ञानयोगो 'रयणेत्यादि, रत्नप्रभाधिवीनरयिकाणां भवन्त ! कीदृशाः पुद्रला उच्छामतया परिणमन्ति ?, भगवानाह-गौतम ! ये पुला। पयोगसमु. अनिष्ठा अकान्ता अप्रिया अ भा अमनोशा अमनापाः, अमीषा पदानां व्याख्यानं प्राग्वन , ते तेषां रत्नप्रभाधिवीनैरविकाणामु- द्घाताः कछासतया परिणमन्नि, एग प्रतिपूथिवि तावद्वक्तव्यं याबदधःसप्तम्याम् ।। साम्प्रतमाहारप्रतिपादनार्थमाह-रयणे'लादि, रत्नपासू०८८ भापृथिवीनरयिकाणां भदन्त । कीदृशाः पुदला आहारतया परिणमन्ति ?, भगवानाह-गौतम! ये पुरला अनिष्टा अकान्ता अप्रिया भाभा अमनोशा अमनापाने संपामाहारतथा परिणमन्ति, एवं प्रतिपृथिवि नावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् । इह पुस्तकेषु बहुधाऽन्यथापाठो दृश्यते, अन एवं वाचनाभेदोऽपि समपो दर्शयितुं न शक्यते, केवलं बहुपु पुस्तकेषु योऽविसंवादी पाठलप्रतिपत्त्यर्थ ॥११५॥ सुगमान्यप्यक्षराणि संस्कारमात्रंण विनियन्ते ऽन्यथा सर्वमेतदुत्तानार्थ सूत्रमिनि ॥ सम्मति लेश्याप्रतिपादनार्थमाह-'रयणे'सादि दीप अनुक्रम [१०४] -- --- -- ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मा. विशिक-च-३९ (मूल वृत्तिले ८ प्रत सूत्रांक रत्नप्रभागृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! कति लेश्याः प्रज्ञानाः १, भगवानाह-गौतम! कापोतलेइया प्रज्ञता, एवं शर्कराप्रभानरयिकाणामपि, नवर तेषां कापोतलेश्या समितरा बेदितव्या, वालुकाप्रमानैरयिकाणा लेश्ये, तद्यथा-नीललेश्या च कापोनलेश्या च, तत्र ते बहुतरा ये कापोतलेश्याः, उपरितनप्रस्तट वतिनां नारकाणा कापोतलेश्याकत्वात् तेषां चातिभूयस्कत्लान् , ते लोकतरा ये नीललेश्याकाः, पङ्कप्रभापृथिवीनरयिकाणामका नीललेश्या, सा च तृतीयपृथिवीगतनीललेझ्याऽपेक्षयाऽविशुद्धतरा, धूमप्रभावृथिवीनैरयिकाणां दू लेश्ये, तद्यथा-कृष्णलेल्या च नीललेश्या च, तत्र ते बहुतरा ये नीललेझ्याकाः, ते स्तोकतरा ये कृष्णलेश्याका:, भावना:त्रापि प्राग्वन , तम:प्रभावित्रीनरयिकाणां कृष्णलेश्या, सा च पञ्चमपृथिवीगतकृष्णलेश्याऽपेक्षयाऽविशुद्धतरा, अधःसप्रमपृथिवीनरयिकाणामेका परमकृष्णलेउया. च व्याख्याप्रज्ञप्ती-काऊ दोसु तइयाएँ मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकाहा ॥ १॥ सम्प्रति सम्यग्दृष्टित्वादिविशेषप्रतिपादनार्थमाह-रवणे त्यादि, रत्रप्रभाथिवीनैरयिका भदन्त ! कि सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयः सन्यग्मिध्यादृष्ट्यो वा ?, भगवानाह-गौतम! सम्यग्दृष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यग्मिध्यादृष्टयोपि, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वाच्यं यावत्तमस्तमायाम् ॥ सम्प्रति ज्ञान्यज्ञानिचिन्तां कुर्वनाह-रयणे त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरविका भदन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिन:, भगवानाह-गौतम! ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि, सम्यग्दृशां ज्ञानिलान्मिध्याहशामज्ञानित्वान् , तत्र वे ज्ञानिनले नियमाविज्ञानिनः, अपर्याप्रावस्थायामपि तेपामवधिज्ञानसम्भवान् . सज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्योपामुत्पादान , त्रिज्ञानित्वमेव भावयत्ति, तद्यथा-आभिनियोधिक ज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः, ये ऽशानिनस्ते 'अत्धेगइया' इति अस्तीतिनिपातोइत्र बहुवचनगर्भ: सन्त्येकका यज्ञानिनः सन्त्येककारुयज्ञानिनः, तत्र येऽसविज्ञपक्षेन्द्रियेभ्य उत्पद्यन्ते नेवामपर्याप्तावस्थायां विमङ्गा [८८] RANCSCARRC दीप अनुक्रम [१०४] 6 २- ~241~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१०४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ (नैरयिक)-२], ----- • मूलं [८] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगियावृत्तिः ।। ११६ ।। । Ja Eben सम्भवाद् ज्ञानिनः, शेपकालं तु तेपामपि प्रयज्ञानिता, सञ्ज्ञिपश्चेन्द्रियेभ्य उत्पन्नानां तु सर्वकालमपि व्यज्ञानदेव, अपर्याप्तावस्थायामपि तेषां विभङ्गभावात् तत्र ये वज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, ये व्यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुवाज्ञानिनो विभङ्गज्ञानि नञ्च । 'सक्करपभापुढवीत्यादि, शर्कराप्रभावृथिवीनैरयिका भवन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिनः ?, भगवानाह - गौतम ! ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनो-नारकाणां ऽपि तत्रापि सम्यग्दृशां मिध्यादृशां च भावान्, तत्र ये ज्ञानिनले नियमात्रिज्ञानिनः, तद्यथा-अभिनिवोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽ- श्वासाहावधिज्ञानिनश्च, येऽज्ञानिनस्ते नियमात्त्रयज्ञानिनः, सञ्चिपश्चेन्द्रियेभ्य एव तत्रोत्पादान् व्यज्ञानित्वमेव दर्शय[ती]ति, तद्यथा-मत्यज्ञानिनः हेरलेश्यादश्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, एवं शेपास्वपि पृथिवीषु वक्तव्यं तत्रापि सङ्क्षिपश्चेन्द्रियेभ्य एवोत्पादान् ॥ सम्प्रति योगप्रतिपादना- 柴 ष्टिज्ञानार्थमाह-'रवणप्पभे' यादि, स्त्रप्रभावित्रीनैरविका भदन्त ! किं ननोयोगिनो वाम्योगिनः काययोगिनः ?, भगवानाह - गौतम ! त्रि- 18 ज्ञानयोगीविधा अपि एवं प्रतिपृथिवि तावद्यावदवः सप्तम्याम् ॥ अधुना साकारानाकारोपयोगचिन्तां कुर्वन्नाह - ' रयणे यादि, रत्रप्रभा-पयोगसमुथिवीनैरयिका भदन्त ! किं साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताः १, भगवानाह - साकारोपयुक्ता अपि अनाकारोपयुक्ता अपि एवं तावद् यावदधः सप्तम्याम् || अधुना समुद्घातचिन्तां करोति — 'रवणेत्यादि, रत्नप्रभा पृथिवीनैरविकाणां भदन्त ! कति समुद्घाताः - ज्ञप्ता: ?, भगवानाह - गौतम! चत्वारः समुद्घाताः प्रज्ञमाः, तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कपायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातञ्च एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधः समभ्याम् ॥ सम्प्रति क्षुत्पिपासे चिन्तयति — दूघाताः * सू० ८९ इसीसे भंते! रयणप्पभा० पु० नेरतिया केरिसयं खुहत्पिवासं पञ्चणुभवमाणा विहरंनि?, गोयमा ! एगमेrrenterपुढविनेरनियस्स असम्भावणार सच्चोदधी वा सम्योगले वा For P&False City ~ 242~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः २ ॥ ११६ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] ENG-RECRolefiedeoCRECRECR-AC आसगंसि पक्विवेजा णो चेवणं से रयणप्प० पु० णेरतिए तित्ते वा सिता बितण्हे वा सिता, एरिसया णं गोयमा! रयणप्पभाए रतिया खुधप्पिवासं पचणुम्भवमाणा विहरति. एवं जाव अधेसत्तमाए । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पु० नेरतिया कि एकत्तं पभू विउवित्तए पुहुर्तपि पभू विउवित्तए?, गोयमा! एगत्तंपि पभू पुहुतंपि पनू विउवित्तए, एगत्तं विउब्वेमाणा पुगं महं मोगररूवं घा एवं मुसुंदिकरवत्तअसिसत्तीहलगतामुसलचकणारायकुंततोमरसूललउडभिंडमाला य जाच भिंडमालरूवं वा पुहत्तं विउश्वेमाणा मोग्गररूवाणि वा जाव भिंडमालरूबाणि वा ताई संखेजाई णो असंखेज्ञाई संबद्धाई नो असंबद्धाई सरिसाइं नो असरिसाइं विजव्वंति, विउव्यित्ता अपणमण्णस्स कार्य अभिहणमाणा अभिणमाणा वेषणं उदीरेंति उजलं विउल पगाद ककसं कडयं फरुसं निरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं, एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए । छट्टसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया यह महंताई लोहियकुंथूरूवाई वहरामहतुंडाई गोमयकीडसमाणाई विउच्वंति, विउब्वित्ता अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगमाणा खायमाणा स्वायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा २ अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा २ वेदणं उदी. रंति उज्जलं जाव दुरहियामं ॥इमीसे णं भंते। रयणप० पु० नेरच्या किं सीतवेदणं बेइंति उसिणदणं वेइंति सीउसिणवेदणं बवेति ?, गोथमा! णो सीयं बेदणं वेदेति उसिणं वेदणं दीप अनुक्रम [१०५] - - ~243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रत R३ प्रतिपत्त उद्देशः२ नारकाण क्षुत्तृडि क्रियावेदनाः सू०८९ सूत्रांक वेदेति नो सीतोसिणं, ते अप्पयरा उपहजोणिया वेदेति, एवं जाव वालुगप्पभाए, पंकप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! सीयपि वेदणं वेदति, उसिणंपि वेषणं वेयंति, नो सीओसिणवेयणं येयंति, ते बहतरगा जे उसिणं वेदणं वेदेति, ने धोवयरगा जे सीतं वेदणं वेइंति । धूमप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! सीतंपि बंदणं वेदेति उसिणंपि वेदणं वेदेति णो सीतो से बहतरगा जे सीयवेदणं वेदेति ते धोवयरका जे उसिणवेदणं वेदेति । तमाए पुच्छा, गोयमा! सीयं वेदणं वेदेति नो उसिणं (वेदण) वेदेति नो सीनोसिणं वेदणं वेदेति, एवं अहेसत्तमाए गवरं परमसीयं ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० जेरइया केरिसयं णिरयभवं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ?, गोयमा! ते णं तस्थ णिचं भीता णिचं तसिता णिचं छुहिया णिचं उब्बिग्गा निचं उपप्पुआ णिचं चहिया निचं परममसुभमउलमणुवई निरयभवं पचणुभवमाणा विहरंति, एवं जाव अधेसत्समाए णं पुढवीए पंच अणुसरा महतिमहालया महाणरगा पण्णत्ता, तंजहा-काले महाकाले रोरुप महारोगा अप्पतिहाणे, नत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरहिं दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किया अप्पनिट्ठाणे णरए रतियत्साए उववण्णा, तंजहा-रामे १, जमदग्गिपुत्ते, दढाउ २, लच्छतिपुत्ते, वसु.३, उवरिचरे, सुभमे कोरब्वे ४. यंभ ५, दत्ते चुलणिसुते ६, ते णं तत्थ नेरतिया जाया काला कालो० जाव परमकिव्हा वषणेणं पण्णता, तंजहा-ते गं तत्थ वेदणं वेदेति उज्जलं विउलं जाव दरहि CAKACCASGA4%A4 दीप -- अनुक्रम [१०५] - -- %e0 ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] यासं । उसिण घेदणिज्जेसु णं भंते ! पोरतिएमु णेरनिया केरिसयं उसिणवेदणं पञ्चणुम्भवमाणा विहरंति ? गोयमा! से जहाणामा कम्मारदारए सिता तरणे बलवं जुगर्व अप्पायंके विरग्गहत्थे दढपाणिपादपासपिटुंतरोग [संघाय] परिणए लंघणपवणजवणवग्गणपमद्दणसमस्थे तलजमलजुयलबहफलिहणिभवाह घणणिचितवलियवदृखंधे चम्मेहगाहणमुट्टियसमाहयणिचितगत्तगत्ते उरस्सयलसभण्णागए छए दक्खे पट्टे कसले णिणे महावी णिउणसिप्पोवगए एग महं अयपिंउँ उदगवारसमाणं गहाय तं ताविय ताविय कोहिन कोटित उभिदिय उम्भिदिय चुपिणय युपिणय जाब एगाहं वा दुयाहं वा निघाहं वा उकोमेणं अद्धमासं संहणेजा. से गं तं सीतं सीतीभूतं अओमएणं संदंसएणं गहाय असम्भावपट्टवणाग उसिणवेदणिजेनु णरएसु पक्विवेजा, सेणं तं उम्मिसियणिमिसियंतरेणं पुणरवि पद्धरिस्सामित्तिक पविरायमेव पासेजा पविलीणमेव पासेज्जा पविद्धत्यमेव पासेजा णो चेव णं संचाएति अविरायं वा अविलीणं वा अविद्वत्थं वा पुणरवि पक्षुद्धस्सिए । से जहा वा मत्तमातंगे पाग] कुंजरे सहिहायणे पढमसरयकालसमतंसि वा चरमनिदाघकालसमयंसि वा उपहाभिहए तपहाभिहए दवग्गिजालाभिहए आउरे मसिए पिवासिए दव्यले किलंत एकं महं पुक्खरिणिं पासेजा चाउकोणं समतीरं अणुपुब्वसुजायवप्पगंभीरसीतलजलं संछण्णपमत्तभिसमुणालं बहुउप्पलकुमुद दीप CARRORM अनुक्रम [१०५] ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ३ प्रतिपत्ती उद्देशः२ नारकाणा प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगि-1 रीयावृत्तिः ॥११८॥ क्रिया सूत्रांक [८९] बेदनाः णलिणसुभगसोगंधियपुंडरीय ( महापुंडरीय) सयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियं छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं अच्छविमलसलिलपुपर्ण परिहत्थभमंतमच्छकच्छम अणेगसउणगणमिहणयविरहयसन्नइयमहरसरनाइयं तं पासइ, तं पासित्ता तं ओगाइ, ओगाहिसा से णं नत्थ उण्हंपि पविणेजा तिण्हपि पविणेजा खुहंपि पबिणिज्जा जरंपि पवि० दाहंपि पवि०णिहाएज वा पपलाएज वा सतिं वा रतिं वा धिति वा मति वा उवलभेजा, सीए सीयभूए संकसमाणे संकस. माणे सायासोकग्वबहले यावि विहरिजा, एवामेब गोयमा! असम्भावपट्ठवणाए उसिणवेयणिजेहिंतो णरएहिंतो कुंभारागणी इवा रहए उव्वहिए समाणे जाई इमाई मगुस्सलोयसि भवंति (गोलियालिंगाणि वा सोंडियालिंगाणि या भिंडियालिंगाणि वा ) अयागराणि वा तंबागराणि चा तउयागरा० सीसाग० रुप्पागरा० सुवन्नागराणि वा हिरण्णागरा० कुंभारागणी इ वा मुसागणी वा इयागणी वा कवेल्ल्यागणी वा लोहारंवरिसे इ वा जंतवाहचुल्ली वा इंडियलिस्थाणि वा सोडियलि. लागणी ति वा, तिलागणी वा तुसागणी ति वा, तत्ताई समजोतीभूयाई फुल्लकिंसुयसमाणाई उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणाइं जालासहस्साई पमुच्चमाणाई इंगालसहस्साई पविकग्वरमाणाई अंतो२हुहुयमाणाई चिट्ठति ताई पासइ, ताई पासित्ता ताई ओगाहइ ताई ओगाहित्ता से णं तत्थ उहंपि पविणेजा तण्डंपि पविणेजा खुईपि पविणेजा %EXX दीप अनुक्रम [१०५] ॥११८॥ ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूल+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] जरंपि पविणेजा वाहपि पविणेजा णिहाएज वा पयलाएज वा सतिं वा रतिं वा धिई वा मतिं वा उवल भेजा, सीए सीयभूयए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्वयाहुले यादि विहरेजा, भवेयारूवे सिया?, णो इणढे समझे, गोयमा! उसिणवेइणिजेसु णरएसु नेरतिया तो अणितरियं चेव उसिणवेदणं पचणुभवमाणा विहरंति ॥ सीयवेदणि लु णं भंते णिरएसु रतिया केरिसयं सीयवेदणं पञ्चणुभवमाणा विहरंति?, गोयमा ! से जहाणामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगते एग मह अयपिंडं दगवारसमाणं गहाय ताविय नाविय कोट्टिय कोहिय जह० एकाहं या दुआई वा तियाहं वा उक्कोसे णं मासं हणेजा, सेणं तं उसिणं उसिणभूतं अयोमपणं संदसएणं गहाय असम्भावपट्ठवणाए सीयवेदणिज्जेसु णरासु पक्षिवेजा, से तं [उमिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पञ्चुरिस्सामीतिकटु पचिरायमेव पासेजा, तं चेव णं जाव णो चेव णं संचाएजा पुणरवि पद्धरित्तए, से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेव जाव सोक्खबहुले यावि विहरेजा एवामेव गोयमा! असम्भावपट्टवणाए सीतवेदणेहिंतो णरएहितो नेरलिए उबहिण समाणे जाई इमाई इहं माणुस्सलोग हति, तंजहा-हिमाणि वा हिमपुंजाणि चा हिमपडलाणि वा हिमपडलपुंजाणि वा तुसाराणि वा तुसारपुंजाणि वा हिमकुंडाणि वा हिमकुंटपुंजाणि वा सीताणि वा ताई पासति पासित्ता ताई ओगाहति ओगाहित्ता से णं तत्थ दीप अनुक्रम [१०५] 4%-k ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः " ॥११॥ सूत्रांक [८९] दीप अनुक्रम [१०५] सीतंपि पविणेजा तहपि प० खुहपि प० जरंपि प० दाहंपि प० निद्दापन वा पयलागल वा जाव प्रतिपर उसिणे उसिणभूए संकसमाणे मंकसमाणे सायासोकग्वबहुले यावि विहरेजा, गोयमा! सीयवेय उद्देशः णिजेसु नरएसु नेरतिया रातो अणिट्टयरियं चेव सीतवेदणं पचणुभवमाणा विहरति ।। (सू०८९) नारका रयणे'त्यादि, रमप्रभाविधीनरविका भदन्त ! कीशी क्षुध पिपासा (च) प्रानुभवन्तः प्रत्येकं बेदयमाना: 'विहरन्ति' अवति- क्षुत्ताड़ न्ति ?, भगवानाहगौतम! 'एगमेगरस मिलादि, एकैकस्य रअप्रभाषथिवीनैरयिकस्य 'असद्भाव(प्र)स्थापनया' असद्भावकल्प-शक्रिया नया ये केचन पुतला उदयश्चेति शेपः तान 'आस्यके' मुग्वे मवपुदलान सर्वाधीन प्रक्षिपेन् । तथाऽपि 'नो चेवणमित्यादि, नैव बदनाः रत्नप्रभापृथिवीनैरधिकः तृप्तो या वितृष्णो बा स्थान लेशतः अत्र प्रबलभस्मकण्याथ्युपेतः पुरुपो दृष्टान्तः । 'एरिसिया णमित्यादिसू०८१ ईटशी णमिति वाक्यालस्ती गौतम ' रत्नप्रभावृथिवीनैरयिकाः क्षुधं पिपामा प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं या-12 बधःसममी।। सम्पनि क्रियशक्ति विचिचिन्तयिपुरिदमार-'रयणप्पभे'यादि, रत्नप्रभाथिवीनैरविका भवन ! प्रतेक किम 'एकत्वम् एकं रूपं विकुक्तुिं प्रभवः उत 'पृथक्त्वं' पृथक्लाब्दो बहुवाची, आह च कर्मप्रकृतिसङ्घहणिचूर्णिकारोऽपि-"युहुत्तशब्दो यहुत्तवाई" इति, प्रभूतानि रूपाणि विकुक्तुिं प्रभवः', 'विकुर्व बिक्रियायाम्' इत्यागमप्रसिद्धो धानुरमित यस्य विकुर्वाण इति! प्रयोगस्ततो विकुवितुमित्युक्तं, भगवानाह-एकलमपि प्रभवो विकुवितुं पृथक्त्वमपि प्रभवो विकुपितु, सनक रूपं विकुर्वतो मुद्गररूपं वा मुद्गरः-प्रतीत: मुपण्डिस वा नुपण्डि:--पहरणविशेषः, करपत्ररूपं वा असिरूपं धा शक्तिरूपं बा हलनपं वा गदारूपं वा मुश-In लरूपं वा चक्ररूपं वा नाराचरूपं का अन्तरूपं या तोमररूपं का शुलरूपं वा लकुटरूपं वा भिण्डनालम्पं आ विकुर्वन्ति, करपत्रादयः । ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] दीप प्रतीताः, भिण्डमाल:-शस्त्रजातिविशेषः, अन सङ्ग्रह णिगाथा कचित्पुस्तकेपु-"मगर मुमुंटिकरकयअसिसत्ति हलं गयामुसलचका नारायकुंततोमरसूललउभिडिमाला य ॥१॥" गमार्था, नवरं करकयति नकचं करपत्रमियर्थः, पृथक्त्वं विकुर्वन्नो मुहररूपाणि वा यावन् | भिण्डमालरूपाणि बा, तान्यपि सदृशानि, (समानरूपाणि) नोऽसहशानि' (अ) समानरूपाणि, तथा 'समये यानि परिमितानि न 'अस-121 सहययानि' सख्यातीतानि, विसशकरणेऽसहयेय करणे वा शक्त्वभावात् , तथा 'संबद्धानि' वात्मनः शरीरसंलग्नानि 'नासंबद्धानि' न स्वशरीरापथग्भूतानि, खशरीरात्यग्भूतकरणे शत्यभावान , चिकुर्वन्ति, विकुवित्वाऽन्योऽन्यस्य कायमभिनन्तो बेतनामुदीरयन्ति। किंविशिष्टामिलाह-उज्जवला' दुःखरूपतया जानल्यमानां मुखलेशेनायकललितामिति भावः, 'विपुला सकलशरीरध्यापितया विसीणी 'प्रगाढा' प्रकर्षण मर्मप्रदेशच्यापितयाइतीयसमवगाढा कर्कशामिव कर्कशां किमुक्तं भवति ?-यधा कर्कशः पापाणसंघर्षः दारीरस्य खण्ठानि नोटयति एवमानप्रदेशान् त्रोटयन्तीव या वेदनोपजायत सा कर्कशा ता. कटुकामिव कटुको पित्तप्रकोपपरिकलितबपुपो रोहिणी-कद्रव्यभिवोपभुज्यमानमतिशयेनाप्रीतिजनिकामिति भावः, तथा 'परुषां मनसोऽतीव रौश्यजनिक निठुराम्' अश क्यप्रतीकारतया दुभेदां 'चण्ड' का रौद्राध्यवसायहेतु त्वान् 'तीव्राम्' अतिशायिनी 'दुःखां' दुःखरूपां 'दुर्गा दुर्लयामत एवं है।दुरविसह्याम् , एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावलञ्चम्याम् । 'छहसत्तमीसु णमित्यादि. पनुसतम्योः पुनः पृथिव्यों रयिकाः | बहूनि महान्ति गोगयकीटप्रमाणत्वात् . 'लोहितकुन्थुरूपाणि' आरक्तकुन्थुरूपाणि व श्रमवतुण्डानि, गोमयकीटसमानानि बिकुर्वन्ति, विकुविखा 'अन्योऽन्यस्य परम्परस्य 'कायं शरीरं समतुरङ्गा श्याचरन्तः समतुरायमाणाः, अश्वा इवान्योऽन्यमानहन्त इत्यर्थः, खायमाणा खायमाणा' भक्षयन्तो भनयन्तोऽन्तरन्त: 'अनुप्रवेशयन्तः अनुप्रविशन्त: 'सयपोरागकिमिया इव' शतपर्वकमय अनुक्रम [१०५] ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] क्रिया दीप अनुक्रम [१०५] श्रीजीवा- इव श्नुपर्वमय इन 'चालेमाणा चालेमाणा' शरीरस्य मध्यभागेन खंचरन्त: संचरन्तो वेदनामुदीरयन्त्युचलामित्यादि पावत् । प्रतिपत्ती जीवाभि०सम्पति क्षेत्रखशावजा वेदना प्रतिपादयति-'रयणे त्यादि, रमप्रभाथिवीनरविका भदन्त ! किं शीतां वेदनों मेदयन्ते उष्णा वेदना उद्देशः२ मलयगि- वेदयन्ते शीतोष्णां वा?, भगवानाह-गौतम! न शीता वेदनां वेदयन्ते किन्तु उपणां वेयनां वेदयन्ते, ते हि शीतयोनिका योनिस्था- नारकाणा रीयावृत्तिः नानां केवल हिमानीप्रख्यशीतपदेशामफलाम, योनिस्थानव्यतिरेकेण चान्यम् सर्वमपि भूम्यादि खादिराङ्गारादपि महाप्रवनमतस्ते उ प्णवेदनामनुभवन्ति, नापि शीतोष्णा बेदनां वेदयन्ते, शीतोष्णस्वभावतया बेदनाया नरकेपु मूलतोऽयसम्भवान् , एवं शर्कराप्रभा॥१२ ॥ वालुकाप्रभानरयिका अपि वक्तव्याः, पक्षमभाप्रथिवी नरयिकाच्छायाम् भगवानाह-गौतम! शीतामपि वेदनां वेदयन्ते नरकावासभे-18| वेदनाः देनोष्णामपि वेदनां वेदयन्ते नरकावासभेदेनव, न तु शीतोष्गा, तन्न ते बहुतरा ये उच्या वेदना वेदयन्ते, प्रभूततराणां शीतयोनि- सू० ८९ त्वात् , ते स्तोकतरा ये शीतां बेदना बेदयन्ते, अल्पतराणामुष्ण योनित्वान्, एवं धूममभायामपि वक्तव्यं, नवरं ते बहुतरा चे शीतवे दना वेदयन्ते, बहुनामुष्ण योनिलात् , ते लोकतरा ये उष्णवेदनां वेदयन्ते, अल्पत्तराणां शीलयानित्वात् , तमःप्रभापृथिवीनैरयिका-3 हाच्छायां भगवानाह-गीतम! शीतां वेदनां थेदयन्ते नोषणां नापि शीतोष्णां, तत्रत्यानां सर्वेपामुष्णयोनिलान् , योनिस्थानश्यतिरेकेण | चान्यस्य सर्वस्वापि नरकभूम्याईमहाहिमानीप्रख्यत्वात , एवं तमस्त मात्रमाथिवीनैरविका अपि वक्तव्या; नवरं परमां शीतवेदना वे दयन्ते इति वक्तव्यं, तमःप्रभाथिबीत: तमस्तमप्रभापृथिव्यां शीतवेदनाया अतिप्रवलत्वान् ।। सम्प्रति भवानुभवप्रतिपादनार्थमाहहरयणे'त्यादि, रमप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! कीदृशं नरकमवं प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमानाः 'विहरन्ति' अवतिष्ठन्ते ?, भगवा नाह-गौतम! रखप्रभाधिवीनैरयिका 'नित्यं सर्वकाल क्षेत्रखभावजमहानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः, सर्वत उपजातशत्वात् , % -96 ॥१२० 4-995 ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८९] दीप अनुक्रम [१०५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३/१ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], • उद्देशक: [ (नैरयिक)-२], मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० च० २१ Ja Ekerin तथा 'नित्यं' सर्वकालं स्वत एवाग्रेऽपि 'त्रस्ताः' परमाथार्मिक देवपरस्परोदीरितदुःखसंपातभयात्रासमुपपन्नाः, तथा 'नित्यं' सर्वकालं परमाधार्मिकैः परस्परं वा 'त्रासिताः' त्रातं प्राहिताः तथा 'नित्यमुद्विग्नाः' यथोक्तरूप दुःखानुभवतस्तद्गतावासपरासुखचित्ताः, तथा 'नित्यं' सर्वकालम् 'उपप्लुताः' उपप्लवेनोपेता न तु मनागपि रतिमासादयन्ति एवं 'नित्यं' सर्वकालं परममशुभम् 'अतुलम्' अशुभत्वेनानन्यसदृशम् 'अनुबद्धम्' अशुभत्वेन निरस्तरमुपचितं निरयभवं 'प्रत्यनुभवन्तः' प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति एवं पूथिव्यां पृथिव्यां तावद्वत्र्यं यावदधः सप्तमी, अस्यां चाधः सप्तम्यां क्रूरकर्माणः पुरुषा उत्पद्यन्ते नान्ये, तथा चास्यैवार्थस्य प्रदर्शनार्थ पश्च पुरुषान उपन्यस्थति- 'अहेसत्तमाए णमित्यादि, अधः सप्रम्यां पृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके 'इमे' अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च महापुरुषाः 'अनुत्तरैः' सर्वोत्तमप्रकर्षप्रानैः 'दण्डसमादानैः समादीयते कर्म्म एभिरिति समादानानि - कम्मोपादानहेतवः दण्डा एव-मनोदण्डादयः प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानानि दण्डसमादानानि तैः कालमासे कालं कृत्वोत्पन्नाः, तद्यथा-रानो जामदमसुतः पर्शुराम इत्यर्थः, दादादालः छातीसुतः, वसू राजा उपरिचरः स हि देवताऽधिष्ठिताकाशस्फटिक सिंहासनोपविष्टः सन्नाकाशस्फटिकमयस्य सिंहासनस्यादर्शनतो लोकेष्वेवं प्रसिद्धिमगमन् सत्यवादी किलैप वसुराजा न प्राणात्ययेऽप्यलीकं भापते ततः सत्वावर्जित देवताकृतप्रातिहार्थ एवमुपर्याकाशे चरतीति स चान्यदा हिंस्रवेदार्थरूपकस्य पर्वतस्य पक्षमभिगृा सम्यग्टष्टेर्नारदस्य पक्षमनभिगृहन्नलोकवादित्वात्प्रकुपितदेवतायपेटाहतः सिंहासनात्परिभ्रष्टशे रौद्रव्यानमभिरूडः सप्तमपृथिव्यामप्रतिष्ठाननरकमयासीत्, सुभूमोकौरव्यः कौरव्यगोत्रो ब्रह्मदत्तलनीसुतः 'ते णं तत्थ बेयणं वेयंती' त्यादि, 'ते' परशुरामादयस्तत्र - अप्रतिष्ठाने नरके वेदनां वेदयन्ते यावद् दुरध्यासामिति प्राग्वत् ॥ सम्प्रति नरके पूष्णवेदनायाः स्वरूपमभिधित्सुराह - 'उसिणवेदणिसुणं For P&Pase City ~ 251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] दीप श्रीजीवा-४ भंते !' इत्यादि, उपण वेदनेषु शमिति पूर्वबन् भदन्त ! नरकेषु नैरयिकाः कीदृशीमुष्णवेदना प्रत्यनुभवन्तः-प्रत्येक वेदयमाना बिह- ३ प्रतिपत्ती जीवाभि रन्ति ?, भगवानाह-गौतम ! स यथानामकः' अनिर्दिएनामकः कश्चिन् 'कारदारकः लोहकारदारक: स्थान , किंविशिष्टः | उद्देशः २ मलयगि-1 इत्याह–'तरुण' प्रबर्द्धमानवयाः, आह-मारकः प्रबर्द्धमानवया एव भवति ततः किमनेन विशेषणेन ?, न, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमा- नारकाणां नवयस्त्वाभावान्, न ह्यासन्नमृत्युः प्रवर्द्धमानयया भवति, न च तस्य विशिष्टसामयसम्भवः, आसन्नमृत्युलादेव, विशिष्टसामर्थ्यप्र- शीतोष्ण तिपादनार्थश्चैप आरम्भस्ततोऽर्थव द्विशेषणम् , अन्ये तु व्याचक्षते-इह याव्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च तत्तरुणमिति लोके वेदनाः ॥१२१॥ प्रसिद्धं, यथा तरूपमिदमश्वस्थपत्रमिति, ततः स कारदारकस्तरुण इति किमुक्तं भवति ?-अभिनवो विशिष्टवर्णादिगुणोपेतश्रेति, सू०८९ वलं-सामय तदस्यास्तीति बलवान , तथा युगं-मुफ्गदुष्पमादिकालः स खेन रूपेण यस्वास्ति न दोपदुष्टः स युगवान, किमुक्तं भवति ?-कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्य विज्ञहेतु: स चाय नास्तीति प्रतिपत्त्यर्थ मेतद्विशेषणं, युवा-यौवनस्थः, युवावस्थायां हि बलातिशय इत्येतदुपादानम् , 'अप्पायके' इति अपशब्दोऽभाववाची अल्पः-सर्वथाऽविद्यमान आतङ्को-ज्वरादिस्यासावल्यातरः, 'थिरग्गहत्थे स्थिरौ अग्रहस्तौ यस्य स स्थिराग्रह स्तः, 'दढपाणिपायपासपिठंतरोरुपरिणए इति दृढानि-अतिनिविडचयापन्नानि पाणिपादपावपृष्टान्तरोरूणि परिणतानि यस्य स दृढपाणिपादपार्थपृष्टान्तरोम्परिणतः, सुखादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथा पनम्-अतिशयेन निचिती--निविडतरवयमापन्नी बलिताविव बलिती वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स घननिचितपलितवृत्तम्कन्धः, 'चम्मेद्वगदु-12 घणमुडियसमाहयनिचियगायगत्ते' चर्मेष्टकेन दुघणेन मुमिकया च-मुष्ट्या च समाहय ये निचितीकृतगात्रास्ते घर्मेष्टफद्रुयणमुष्टि-18 कसमाहृतनिचितगात्रास्तेषामित्र गात्रं या स चर्मेष्टकद्रयाशमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रमात्रः, 'उरस्सबलसमन्नागए' इति उरसि अनुक्रम [१०५] ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] CSCANCE दीप भवमुरस्यं तच तद्दलं च उरसाबलं तश समन्वागत:-समनुप्राप्त उरस्यबलसमन्वागतः, आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इति भावः, 'तलजम-11 लजुयलवाह' इति, सलौ-ताल पक्षी तयोर्यमलयुगलं-समवेणीकं युगलं तलयमल युगलं, तद्वदतिसरली पीचरौ च थाडू यस्य स 5 तलयमलयुगलबाहुः, 'लंघणपवणजवणपमद्दणसमत्धे इति, लजाने-अतिक्रमणे प्रबने-मनाक् पृथुतरविक्रमगतिगमने जवने अतिशीघ्रगती प्रमर्दने-कठिनन्यापि बस्नुनश्चर्णनकरणे समर्थः लखनलवनजवनप्रमर्दनसमर्थः, कथिन् 'लंघणपवणजवणवायामहाणसमत्थे' इति पाटलत्र व्यायामने-व्यायामकरणे इति व्याख्येयं, 'छेकः' द्वासप्ततिकलापण्डितः 'दक्षः' कार्याणामविलम्बितकारी, हैपठः' वाग्मी 'कुशल' सम्यक्रियापरिज्ञानवान् 'मेधावी' परस्पराव्याहतपूर्वापरानुसन्धानक्षः, अत एव 'निपुणसिप्पोवगए। इति निपुणं यथा भवति एवं शिल्पं-क्रियासु कौशलमुपगतः-मानो निपुणशिल्पोपगतः, एक महान्तमयस्पिण्डम् 'उदकवारकसमान' लघुपानीयघटसमानं गृहीला 'तम्' अयस्पिण्डं तापयित्वा तापयित्वा ततो घनेन कुट्टयित्वा कुट्टयित्वा यायदेकाई वा यह वा वाव-| |दुत्कर्पतोऽर्तमासं संहन्यान् , ततो णमिति वाक्यालक्कारे 'तम्' अवस्पिण्डं शीतं, स च शीतो बहिर्मनाग्मात्रेणापि स्यादत आह'शीतीभूत' सर्वासना शीतपेन परिणतं अयोमयेन संदेशकेन गृहीला 'असद्भावस्थापनया' असद्भावकल्पनया नैतदभून न भवति भविष्यति वा केवलमसद्भवमिदं कल्प्यत इति, उरणवेदनेषु नरकेषु प्रक्षिपेन , प्रक्षिप्य च स पुरुषो णमिति वाक्यालद्वारे 'उम्भिक हैसियनिमिसियंतरेण उन्मिपितनिमिपितान्तरेण यावताऽन्तरेण-यावता व्यवधानेन उन्मेष निमेपौ कि येते तावदन्तरप्रमाणेन काले नातिक्रान्तेन पुनरपि प्रत्युद्धरिप्यामीतिकृत्वा यावद् द्रष्टुं प्रवर्त्तते तावन् 'प्रवितरमेव' प्रस्फुटितमेव, यदिवा 'प्रविलीनमेव नवनीतद्रामिव सर्वथा गलितमेव, यदिवा 'प्रविध्वस्तमेव सर्वधा भस्मसाजूतमेव पश्येन, न पुनः शकुयाद् अचिरातं अग्रस्फुटितं अविलीनं अनुक्रम [१०५] ॐ755 ~253 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८९] दीप अनुक्रम [१०५ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३/१ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], • उद्देशक: [ (नैरयिक) -२], मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १२२ ॥ सू० ८९ वा अविश्वस्तं वा पुनरपि प्रत्युद्धर्तुम्, एवंरूपा नाम तत्रोष्णवेदना || अस्यैवार्थस्य स्पष्टतरभावनार्थ दृष्टान्तान्तरमाह - 'से जहाप्रतिपतौ नामए' इत्यादि, 'से' सकलजनप्रसिद्धो यथेति दृष्टान्तत्वोपदर्शने वाशब्दो विकल्पने, अयं वा प्रान्तो विवक्षितार्थप्रतिपत्तये बोद्धव्य ४ उद्देशः २ इति विकल्पनभावना, 'मन्तः' मदकलितः 'मातङ्गः' हस्ती, वह मातङ्गोऽन्यजोऽपि संभवति ततस्तदाशङ्काय्युदासार्थं नानादेशजविनेय-नारा जनानुग्रहाय (वा) पर्यायद्वयमाह -- द्विपः ' द्वाभ्यां मुखेन करेण चेत्यर्थः पिवतीति द्विपः, 'मूलविभुजादयः इति कप्रत्ययः कौशीतोष्णजीर्यतीति कुञ्जरः यदिवा कुखे वनगहने रमति रतिनायनातीति कुञ्जरः 'कचिदिति उप्रत्ययः पष्टियनाः संवत्सरा यस्य स ॐ वेदनाः | पष्टिहायन: 'प्रथमशरत्कालसमये' कार्त्तिकमाससमये, इह प्राय ऋतवः सूर्यर्त्तवो गृह्यन्ते ते चापाडादयो द्विद्विमासप्रमाणाः प्रवचने # चक्रमेणैवनामानः, तद्यथा-प्रथमः प्रावृट् द्वितीयो वर्षारात्रः तृतीयः शरत् चतुर्थी हेमन्तः पञ्चमो वसन्तः पटो ग्रीष्मः तथा चाह पादलिप्तसूरि:- "पाउस वासारतो, सरओ हेमंत बसन्त गिम्हो य एए खलु छप्पि रिऊ, जिणवरदिट्ठा नए सिट्ठा ||१|| " ततः प्रथमशरत्कालसमयः कार्त्तिकसमय इति विवृत्तम् आह च मूलटीकाकृत् -"प्रथमशरत्- कार्तिकमासः " तस्मिन् वाशब्दो वि कल्पने 'चरमनिदाघकालसमये वा' चरम निदाघकालसमयो- ज्येष्ठमासपर्यन्तस्तस्मिन् वाशब्दो विकल्पने, 'उष्णाभिहतः' सूर्यखरकिरणप्रतापाभिभूतः, अत एवोगैः सूर्यकिरणैः सर्वतः प्रतप्ताङ्गवया शोषभावतस्तृपाभिहतः, तत्रापि पानीयगवेषणार्थ मितस्ततः स्वेच्छया परिभ्रमतः कथचिद्दवाभिप्रत्यासत्तौ गमनतो वाज्यिालाभिहतः अत एव 'आतुर' कचिदपि स्वास्थ्यमलभमानः सन् आकुल, सर्वाङ्गपरितापसम्भवेन गढतालुशोपभावान् शुषितः, कचित् 'झिजिए' इति पाठस्तत्र 'क्षितः' क्षीणशरीर इति व्याख्येयम् असाधारण वेदनासमुच्छलनात्पिपासितः अत एव दुर्बलः शारीरमानसावष्टम्भरहितत्वान्, 'कान्तः' ग्लानिमुपगतः For P&Praise Cinly ~254~ ॥ १२२ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] 'कुमू ग्लानौ' इति वचनान् , एका महतीं 'पुष्करिणी पुष्कराण्यस्यां विद्यन्ते इति पुष्करिणी तो, किंविशिष्टामित्याह-'चतु कोणां चत्वारः कोणा-अश्रयो यस्याः सा तथा तां, सम-विषमोन्नतिवर्जितं सुखावतारं तीरं-तटं यस्याः सा समतीरा ताम् , आ-13 दनुपूठयण-नीचीचैस्तरभावरूपेण न लेकहेलथैव कचिद् रूपा कचिदुन्नतिरूपा इति भावः, सुप-अतिशयेन यो जातो वन:-के-18 दारो जलस्थानं तत्र गम्भीरम्-अलब्धस्ताचं शीतलं जलं यस्यां सा आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजला ताम्, 'संछण्णपत्तभिस-18 मुणाल मिति संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यस्यां सा संछन्नपत्रबिसमृणाला ताम् , इह बिसमृणालसाहचर्यात् पत्राणि | दा-पशिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, चिसानि-कन्दाः मृणालानि-पानाला:, तथा बहुभिरुत्पल कुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापु ण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः केसरै:-केसरप्रधानैः फुलै:-विकसितैरुपचिता बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रकेसरफुल्लोपचिता तां, तथा पट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतन् कुमुद्रादीनि यस्याः सा षट्पदपरिभुज्यमानकमला ता, तथाऽच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवच्छुद्धेन बिमलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमलसलिलपूर्णा तां, तथा पडिहत्या-अतिरेकसा (त:) अतिप्रभूता इत्यर्थः भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यस्यां सा पडिहत्यभ्रमन्मत्स्यकच्छपा, तथा अनेकैः शकुनिगणमिथुनकैः गणशब्दस्य प्राकृतत्वावस्थानेऽप्युपनिपातः, शकुनिमिथुनकैविचरितैः-इतस्ततः स्वेच्छया प्रवृत्तैः शब्दोनतिकम्-उन्नतशब्दं मधुरखरं नादितं यस्यां सा अनेकशकुनिगणमिथुनकविचरितशब्दोन्नतिकमधुरखरनादिता, ततः पूर्वपदेन विशेपणसमासः, तां दृष्ट्वाऽवगाहेत, अवगाह्य च 'उष्णमपि' परिदाहमपि शरीरस्य तव 'प्रविनयेत्' प्रकर्षेण सर्वासना स्फोटयेत् , तथा क्षुधामपि प्रविनयेत् प्रत्यासन्नतटवत्तिशलक्यादिकिसलयभक्षणात , तृपमपि प्रविनयेत् जलपानात् , बरमपि परिसंतापसमुत्थं प्रवि SAMARGICAL दीप अनुक्रम [१०५] ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [८९] दीप अनुक्रम [१०५] नयेन परियाचक्षुत्पिपासाऽपगमान, एवं सकलक्षुदादिदोषापगमतः मुम्बासिफाभावेन निद्रायेत प्रचलायेत, तन्त्र अनिद्रावान निद्रा-1३ प्रतिपत्ती वान भवतीति व्यर्थविवक्षायां निद्रादिभ्यो धर्मिणि क्यविति कर्मणि स्यपप्रत्ययः, एवं प्रचलाशब्दादपि निद्रादेराकृतिगणवात् , नि-18 उद्देशः २ दामचलयोस्वयं विशेष:-सुखप्रयोधा स्वापावस्था निद्रा, उर्द्धस्थितस्यापि या पुनधैतन्यमस्कुटीकुर्वती समुपजायते निद्रा सा प्रचला, नारकाणां एवं च क्षणमात्रनिद्रालाभतोऽतिस्वस्थीभूतः 'स्मृति वा' पूर्वानुभूतस्मरणं रतिं वा' तदवस्थाऽऽसक्तिरूपां 'धृति वा' चित्तस्वास्थ्य शीतोष्ण'मति वा सम्यगीहापोहरूपाम् 'उपलभेत' प्राप्नुयान , ततः 'शीतः' बाह्यशरीरप्रदेशशीतीभावान् , 'शीतीभूतः' शरीरान्तरपि वेदनाः निर्वृतीभूतः सन् 'संकसमाणे' इति सम्-एकीभावेन कसन्-गन्छन् 'सातसौख्यवहुलश्चापि' सातम्-आहादस्तत्प्रधानं सौख्यं सू०८९ सातसौख्यं न त्वभिमानमात्रजनितमाहादविरहितं सातसौख्येन बहुलो-यामः सातसौख्यबहुलश्वापि 'विहरेत्' स्वेच्छया परिभ्र-10 मेत , 'एवमेव' अनेनैवानन्तरोदितदृष्टान्तप्रकारेण हे गौतम ! 'असद्भावप्रस्थापनया' असद्भावकल्पनया नेदं वक्ष्यमाणमभून केवलं नरकगतोष्णवेदनायाधात्म्यप्रतिपत्तयेऽसत्कल बत्त इति भावः, जाणवेडगेभ्यो नरकेभ्यो नैरविकोऽनन्तरमुर्तितो विनिर्गत: सन् 'यानि' इमानि प्रत्यक्षत उपलभ्यमानानि 'इह' मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति, सचधा-"गोलियालिंगाणि वा, सोडियालिंगाणि वा, भिंडियालिंगाणि वा, एते अग्नेराश्रयाविशेषाः, अन्ये तु देशभेदनीत्या पिष्टपाचनकाश्यादिभेदेनैतेषां स्वरूप कथयन्ति, तदप्यविरुद्धमेवेति, नैलानिरिति वा तुपानिरिति या बुसाग्निरिति वा नडाग्निरिति बा, नड:-तृणविशेषः, 'अयागराणीति वा भावानपुंस-1 कनिर्देश: अयआकरा इति वा, येषु निरन्तरं महामृपाययोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाटपते ते अयआकरा:, एवं ताम्राकरा इति वा त्र-10॥१२३ ॥ वाकरा इति वा सीसकाकरा इति वा सप्याकरा इति वा सुवर्णाकरा इति वा हिरण्याकरा इति वा, सुवर्णहिरण्ययोरत्र विशेषो वर्णा-1 954 का ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८९] दीप अनुक्रम [१०५ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः • उद्देशक: [ (नैरयिक)-२], ----- - मूलं [८९] दिकृतो वेदितव्यः, इष्टकापाक इति वा कुम्भकापाक इति वा कहुकापाक इति वा लोहकारास्वप इति वा अम्वरीप:- कोएक: यन्त्रवाडी इवेति पत्रम् - इक्षुपीडनयत्रं तत्प्रधानः पाटको यत्रपादकः तत्र चुही यत्रेञ्जरसः पच्यते, स्थम्भूतानि यानि मनुष्यलोके स्थानानि 'तप्तानि बहिसंपर्कतस्तनीभूतानि तानि च कानिचिद् अयआकरप्रभृतीनि कदाचिदुष्णस्पर्शमात्राण्यपि संभवन्ति ततो विशेषप्रतिपादनार्थमाह- 'समजोईभूयाई' प्राकृतत्वात्समशब्दस्य पूर्वनिपातः, 'ज्योतिः तमभूतानि' साक्षादभिवर्णानि जातानीति भावः, एतदेवोपमया स्पष्टयति- 'फुलकिंशुकसमानानि' प्रकुपाकुसुमकल्पानि 'उक्कासहरसाई' इति ये मूलाप्रितो विवियाणा: प्रसर्पन्ति ते उल्का इत्युच्यन्ते तासां सहस्राणि उल्कासहस्राणि मुञ्चन्ति मालासहस्राणि विनिर्मुचन्ति अङ्गारसहस्राणि प्रवक्षरन्ति 'अन्तरन्तईहूयमानानि' अविशवेन जाजल्यमानानि, कचित् 'अंतो अंतो सुहुहुयासणा' इति पाठः, 'अन्तरन्तः सुहुतहुताशनानि' सुष्ठु हुतो हुताशनो येषु तानि तथा तिष्ठन्ति तानि पश्येत् दृष्ट्वा चावगाहेत, अवगाह्य [च 'उष्णमपि' नरकोण वेदनाजनितं वहि:शरीरस्य परितापमपि प्रविनयेन, नरकगतादुष्णस्पर्शद्वय आकरादिपूष्णस्पर्शस्यातीव म न्दत्वात् एवं च सुखासिकाभावतस्तूपामपि यमपि दाहमपि अन्तःशरीरसमुत्थं विनयेन् तथा च सति नृडादिदोषापगनतो निद्रायेत वा प्रचलायेत या स्मृतिं वा रतिं वा धृतिं वा उपभेत ततः शीतः शीतीभूतः सन् 'संकसन् संकसन' संक्रामन् संक्रामन् सातसौस्वयहुल विहरे, अमीषां पदानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः । एतावत्युक्ते भगवान गौतमः पृच्छति - 'भवे एयारूये सिया ?' 'स्यात्' संभाव्यते एतद् यथा भवेद् उष्ण वेदनीयेषु नरकेषु एतवा उष्णवेदना ?, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थो दुष्णवेदनीयेषु नरकेषु नैरचिका इति, अनन्तरं प्रतिपादितस्वरूपाया उष्णवेदनायाः अनितरिकामेव अनियतरिकामेव अमनोज्ञत For P&Praise City ~ 257 ~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक रीयावृत्तिः [८९] दीप अनुक्रम [१०५] श्रीजीवा- रिकामेव अमनआपतरिकामेव वेदना 'प्रत्यनभवन्तः' प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति ॥ सम्प्रति शीतवेदनीयेषु नरकेषु शीतवेदना-18 प्रतिपत्ता जीवाभि०१ स्वरूपं प्रतिपादयति-'सीयवेयणिज्जेसु 'मित्यादि, शीतवेदनीयेषु भदन्त ! निरयेषु नैरयिकाः कीदृशी शीतवेदना प्रत्यनुभवन्तो | उद्देशः२ मलयगि-IN विहरन्ति', स बथानामकः कर्मकरदारकः स्यान् तरुण इत्यादिविशेपणकदम्बकं प्राग्वत्ताबदू यावत्संहन्यान् नवरमुत्कर्पतो मासमि- नारकाणां त्या प्रयान, ततः सः' कर्मकरदारकः 'तम् अयस्पिण्डमुणं स चोष्णो बाह्यप्रदेशमात्रापेक्षयाऽपि स्यादत आह-'उष्णीभूत' स-18 शीतोष्ण वासनाऽग्निवर्णीभूतमिति भावः, अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वाऽसद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेषु नरकेपु प्रक्षिपेत् , ततः 'स' पुरुषः ।। ॥१२४ ॥ 'तम्' अवस्पिण्डमित्यादि प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावद्विहरति, तवम्-'से गं तं उम्मिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पद्धरिस्सा- II मित्तिक? पविरायमेव पासेना पविलीणमेव पासेजा पविद्धत्थमेव पासेजा नो चेव णं संचाएइ अविरायं अविलीणं अबिद्धत्थं | पुणरवि पद्धरित्तए से जहानामए मत्तमायंगे जाव सायासोक्खबहुलेयावि विहरइत्ति' 'एवामेवे'त्यादि, अनेनैवाधिकृतदृष्टान्तोकेन प्रकारेण गौतम ! असद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेभ्यो नरकेभ्योऽनन्तरमुत्तः सन यानीमानि मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति, तद्यथा-हिमानि वा हिमपुजानि वा, सूत्रे नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , हिमपटलानि वा हिमफूटानि वा, एतान्येव पदानि नानादे-1 शजविनेयानुपहाय पर्यायैाचष्टे-सीयाणि वा सीयपुंजाणि वा' इत्यादि, तानि पश्येत, दृष्ट्वा तान्यवगाहेत, अवगाह्य 'शीतमपि नरकजनितं शीतत्वमपि प्रविनयेन् , ततः सुखासिकाभावतस्तुपमपि क्षुधमपि ज्वरमपि नरकवेदनीयनरकसंपर्कसमुत्थं जा-10 व्यमपि प्रविनयेत्, ततः शीतत्वादिदोषापगमतोऽनुत्तरं स्वास्थ्यं लभमानो निद्रायेत वा प्रचलायेत वा स्मृति वा रति वा धृति वा[3॥१२४॥ दालभेत , ततो नरकगतजाच्यापगमादू उष्णः, स च बहि:प्रदेशमानतोऽपि स्यात्तत आह–'उष्णीभूतः' अन्तरपि नरकगतजा CROCESSOCRACK ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] दीप व्यापगमात् जातोत्साह इत्यर्थः, स एवंभूतः सन यथास्वसुखं ( संकसन ) संक्रामन् सातसौख्यबहुलो विहरेन् । एवमुक्ते गौतम | 51 आह-भवेयारूवे सिया?' इत्यादि प्रान्वन् । सम्प्रति नैरयिकाणां स्थितिप्रतिपादनार्थमाह इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० रतियाणं केवतियं कालं ठिती पपणत्ता?, गोयमा ! जहणेणवि उकोसणवि ठिती भाणितब्वा जाव अधेसत्तमाए ॥ (सू०९०)। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए रतिया अर्णतरं उव्वविय कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति? किं नेरतिएमु उवचजति ? किं तिरिक्खजोणिएसु उपवनंति !, एवं उबवणा भाणितव्या जहा वकंतीए तहा इहवि जाव अहेसत्तमाए ॥ (मू०११) 'रयणप्पभ'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त : कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ?, भगवानाह-गौतम! जयन्येन दश वर्ष-1 सहस्राणि उत्कर्षतः सागरोपमं, एवं शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यत एक सागरोपममुत्कर्षतस्त्रीणि सागरोपमाणि, वालुकाप्रभापूथिवीनैरयिकाणां जघन्यतस्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कर्षतः सप्त, पक्षप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कतो दश, धूमप्रभाथिवीनरयिकाणां जघन्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्रदश, तमःप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जपन्यतः सप्तदश सागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशतिः, तमस्तमःप्रभायां जयन्यतो द्वाविंशतिसागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत् , कचित् जहा पष्णवणाए ठिएपदे' इसतिदेश: सोऽप्येवमेवार्थतो भावनीयः, तदेवं प्रतिपृथिवि स्थितिपरिमाणमुक्तं, यदा तु प्रतिप्रतट स्थिति-18 परिमाण चिन्यते तदैवमवगन्तव्यम्-रजप्रभायां प्रथमे प्रगटे जपन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि १०००० उत्कृष्ठा नवतिः ५००००/ अनुक्रम [१०५] ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूचांक [९०-९१] दीप अनुक्रम [१०६ -tob] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [3] ---- उद्देशकः [(नैरयिक)-२), ----- मूलं [२००९१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगियावृत्तिः ॥ १२५ ॥ - ९००००००, द्वितीये प्रस्तदे एव शतगुणिता जघन्या उत्कृष्टा च वेदितव्या तद्यथा-जयस्था दशवर्ष १०००००० उत्कृष्टा नवतिवर्षलक्षाः तृतीये प्रस्तटे जघन्यतो नवतिवर्षला उत्कृष्टा पूर्वकोटी, चतुर्थे जघन्या पूर्वकोटी उत्कृष्ट सागरोपमस्य दशमो भागः, पञ्चमे जघन्या सागरोपमस्यैको दशभाग उत्कृष्टा द्वौ दशभागों, पठे जघन्या सागरोपमस्त्र द्वौ दशभागायुत्कृष्टा त्रयः सप्तमे ज धन्याश्रयः सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्ट्राश्चत्वारः, अष्टमे जघन्या चत्वारः सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्ट पथ्य, नवमे जयन्या पञ्च सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा पद्, दशमे जपन्या पट् सागरोपमस्य दृशभागा उत्कृष्टा सप्त, एकादशे जघन्या सप्त उत्क प्राऽष्टौ द्वादशे जपन्याऽष्टौ उत्कृष्ट नव, त्रयोदशे जघन्या नव सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा दस परिपूर्णमेकं सागरोपममिति भावः । शर्कराप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या एकं सागरोपमं उत्कृष्ट एक सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्यैकादशभागी, द्वितीये प्रस्तटे जघन्या एकं सागरोपमं द्वौ सागरोपमस्यैकादशभागौ उत्कृष्टा एवं सागरोपमं चत्वारः सागरोपमस्यैकादशभागाः तृतीये जघन्या एकं सागरोपमं चत्वारः सागरोपमस्यैकादशभागा उत्कृष्टा एकं सागरोपमं पट् सागरोपमस्यैकादशभागाः, चतुर्थे जघन्या एकं सागरोपमं पट् सागरोपमस्यैकादशभागा उत्कृष्टा एक सागरोपमम् अट्टी सागरोपमस्यैकादशभागाः पञ्चमे जघन्या एकं सागरोपमं अझै सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्ट एक सागरोपमं दश सागरोपमस्यैकादश भागाः पष्ठे जघन्या एकं सागरोपमं | दश सागरोपमस्यैकादशभागा उत्कृष्टा हे सागरोपमे एकः खागरोपमस्यैकादशभागः, सहमे जघन्या द्वे सागरोपमे एक: सागरोपम स्नैकादशभाग उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे जयः सागरोपमस्यैकादशभागाः, अमे जघन्या द्वे सागरोपमें त्रयः सागरोपमस्यैकादश भागाः उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे पञ्च सागरोपमन्यैकादशभागाः, नवमे जपन्या द्वे सागरोपमे पञ्च सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टा द्वे साग For P&P Cy ~ 260~ प्रतिपत्ती उद्देशः २ नारकाणां स्थितिः सू० ९१ | ।। १२५ ।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [९०-९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०-९१] दीप अनुक्रम [१०६ ४ारोपमे सप्त सागरोपमस्यैकाददाभागाः, दशमे जपन्या द्वे सागरोपमे सप्त सागरोपमस्यैकादशभागाः उस्कृष्टा द्वे सागरोपमे नव साग रोपमस्यैकादशभागाः, एकादशे जघन्या द्वे सागरोपमे नव सागरोपमस्यैकादशभागा: उत्कृष्टानि परिपूर्णानि श्रीणि सागरोपमाणि । वालुकाप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थिति स्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः, द्वितीये | जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि अष्टौ सागरोपमा नवभागाः, तृतीये जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि अष्टौ सागरोपमा नवभागाः उत्कृष्टा चत्वारः सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नवभागाः, चतुर्थे | | जघन्या चत्वारि सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नवभागा: उत्कृष्ट चत्वारि सागरोपमाणि सप्त सागरोपमस्य नवभागाः, पचमे | जघन्या चत्वारि सागरोपमाणि सप्त सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्ठा पञ्च सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य नवभागो, पणे जघन्येन | पचा सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य नवभागो उत्कृष्ठा पञ्च सागरोपमाणि पद सागरोपमस्य नवभागाः, सप्रमे जधन्या पच साग-1 रोपमाणि षट् सागरोपमस्य नवभागा: उत्कृष्टा पट् सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य नवभागः, अष्टमे जघन्या पट् सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य नवभागः उत्कृष्टा पट सागरोपमाणि पच सागरोपमस्य नवभागाः, नामे जघन्या पट् सागरोपमाणि पश्च साग-1 रोपमस्य नवभागा: उत्कृष्टा परिपूर्णानि सप्त सागरोपमाधि, एपोऽत्र तात्पर्यार्थ:-सागरोपमत्रयस्योपरि प्रतिप्रस्तट क्रमेण चत्वारः सागरोपमस नवभागा बर्द्धयितव्यास्ततो यथोक्तपरिमाणं भवति । पङ्कषभायां प्रथमे प्रस्तटे जयन्या स्थितिः सा सागरोपमाणि उत्कृष्टा | सप्त सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः, द्वितीये जघन्या सप्न सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमा सरभागा: उत्कृष्टा सत्र सागरोपमाणि षट् सागरोपमस्य समभागाः, तृतीये जघन्या सप्त सागरोपमाणि पद सागरोपमस्य समभागा: कुष्ठाऽष्ठौ सागरोप -१०७] Tak ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [९०-९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०-९१] श्रीजीवा- जीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः DI ॥१२६॥ दीप अनुक्रम [१०६ माणि द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी, चतुर्थे जघन्याऽष्टौ सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी उत्कृष्टाऽष्टी सागरोपमाणि पञ्च प्रतिपत्ती सागरोपमस्य सप्तभागाः, पञ्चमे जघन्याऽष्टौ सागरोपमाणि पच सागरोपमस्य सप्तभागा: उत्कृष्टा नव सागरोपमाणि एकः सागरो- उद्देशः२ पमस्य सप्तभागः, पाठे जघन्या नव सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्म समभागः उत्कृष्ठा नब सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्यनारकाणां सप्तभागाः सप्तमे जपन्या नव सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य सत्रभागा: उत्कृष्टा परिपूर्णानि दश सागरोपमाणि, अत्रापीयं दा स्थितिः भावना-सागरोपमसप्तकस्योपरि जयखयः सागरोपमस्य सप्तभागाः प्रतिप्रस्तदं क्रमेण वर्द्धयितव्यास्ततो भवति यथोक्तं परिमाणमिति ।। धूमप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिर्दश सागरोपमाणि उत्कृष्टा एकादश सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमरुप पचभागी. द्वितीये | जघन्या एकादश सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य पञ्चभागी उत्कृष्टा द्वादश सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य पञ्चभागाः, तृतीये जघन्या द्वादश सागरोपमाणि चलार: सागरोपमस्य पञ्चभागाः उत्कृष्टा चतुर्दश सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य पभाभागः, चतुर्वे जघन्या चतुर्दश सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य पञ्चभागः उत्कृष्टा पञ्चदश सागरोपमाणि त्रय: सागरोपमस्य पञ्चभागाः, पञ्चमे जपन्या पथवश सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य पञ्चभागाः उत्कृष्टा परिपूर्णानि सनदश सागरोपमाणि, एष चात्र भावार्थ:-सागरोपमदशकस्योपरि प्रतिप्रससट क्रमेणैकं सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्स पञ्चभागाविति बर्द्धयितव्यं ततो यथोक्तं परिमाणं भवति । तमःप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थिति: सप्तदश सागरोपमाणि उत्कृष्टाऽष्टादश सागरोपमाणि द्वौ च सागरोपमस्य त्रिभागी, द्वितीये | जघन्याऽष्टादश सागरोपमाणि द्वौ च सागरोपमस्य त्रिभागी उत्कृष्टा विंशतिः सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य त्रिभागः, तृतीये ज- H ॥१२६॥ घन्या विंशतिः सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य त्रिभाग: उत्कृष्टा द्वाविंशतिः सागरोपमाणि, अत्राप्येष तात्पर्यार्थ:-सप्तदश साग AGROCERCOM -१०७] CE ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [९०-९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०-९१] दीप अनुक्रम [१०६ राणामुपरि प्रतिप्रस्तदं क्रमेणैकं सागरोपमं द्वौ च सागरोपगस्य त्रिभागाविति वर्द्धयितव्यं, ततो यथोक्तं परिमाणं भवति । सप्तभ्यो तु पृथिव्यामेक एवं प्रस्तट इति तत्र पूर्वोक्तगेव परिमाणं द्रष्टव्यम् । सम्प्रति नैरयिकाणामुद्वर्तनामाह-रयणप्पभापुढवि'इत्यादि। रत्नप्रभाथिवीनैरपिका भदन्त ! अनन्तरमुत्व क गच्छन्ति ?, एतदेव व्याचष्टे-कोत्पद्यन्ते इत्यादि, यथा प्रज्ञापनायां [ यथा ]] व्युत्क्रान्तिपदे तथा वक्तव्यं यावत्तमस्तमायां, तबातिप्रभूतमिति तत एवावधार्यम् , एष च सङ्ग्रेपार्थः रत्नप्रभापृथिवीनरयिका यावत्तमःप्रभापृथिवीनरयिका अनन्तरमुद्त्ता नैरयिकदेवैकेन्द्रियविकलेन्द्रियसंमूठिमपञ्चेन्द्रियासहदेयवीयुष्कवर्जेषु शेषेपु तिर्यानुष्येपूत्पद्यन्ते, सप्तमपृथिवीनैरयिकास्तु गर्भजतिपन्द्रियेवेव न शेपेषु । सम्पति नरकेषु पृथिव्यादिस्पर्शस्वरूपमाह इमीसे णं भंते ! ग्यण पुनेरतिया केरिसयं पुढविफार्म पचणुश्मवमाणा विहरंति?, गोयमा! अणिटुं जाय अमणाम, पूर्व जाव अहेसत्तमाए, इमीमे मंते ! रपण पु० नेरहया केरिसयं आउफासं पचणुग्भयमाणा विहरति?, गोयमा! अगिटुंजाव अमणाम, एवं जाव अहेसत्तमाए, एवं जाव वणफलिफासं अधेसत्तमाए पुढवीए । इमाणं भंते! स्वणप्पभापुढची दोचं पुर्वि पणिहाय सष्यमहतिया पाहल्लेणं सब्बवखुद्रिया नयनसु,ईना! गोयमा! इमा णं रयणप्पमानवी दोच पुढधि पणिहाय जाव सब्बक्खुद्रिया सबसु, दोवा णं भंते ! पुढवी नचं पुढविं पणिहाय सध्यमहतिया बाहल्लेणं पुच्छा, हंता गोधमा दोचा णं पुढवी जाव सम्बक्खुड़िया सकवतेसु, एवं एएणं अभिलावेणं जाव छडिता युद्धवी अहेलनमं पुर्वि पणिहाय मग्यक्खुडिया - -१०७] --- - जी०च०२२ 2-% % ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [९२-९४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - [९२-९४] --- श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्ति प्रतिपत्तो नरकाधि. | उद्देशः २ -- | सू० ९२ गाथा: ॥१२७॥ - दीप अनुक्रम सव्वतेसु (सू०९२) इमीसे ण भंते ! रयणप्प० पु० तीसाए नरयावाससयसहस्संसु इकमिकसि निरयावासंसि सब्वे पाणा सवे भूया सत्वे जीवा सब्वे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाय वणस्सइकाइयत्ताए नेरइयत्ताए उवचन्नपुब्वा?, हंता गोयमा! असतिं अदुवा अर्णतखुत्तो, एवं जाव अहेस. समाए पुढवीए णवरं जत्थ जसिया परका। [इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पु० निरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया जाच वणप्फतिकाइया ते णं भंते ! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसपसरा चेव महावेषणतरा चेव ?, हंता गोयमा! इमीसे णं भिंते !] रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतसुतं चेष जाच महाबेदणतरका चेव, एवं जाय अधेसत्तमा] (सू०१३)। पुढवीं ओगाहित्ता, नरगा संठाणमेव वाहल्लं । विक्वंभपरिक्वेवे वपणो गंधो य फासो य ॥१॥ तेसिं महालयाए उबमा देवेण होइ कायब्वा । जीवा य पोग्गला वकर्मति तह सासया निरया ॥२॥ उववायपरीमाणं अवहारञ्चत्तमेव संघयणं । संठागवण्णगंधा फासा ऊसासमाहारे ॥३॥ लेसा दिही नाणे जोगुवओगे तहा समुग्घाया। तत्तो खुहापिवासा विउवणा वेयणा य भए ॥ ४ ॥ उववाओ पुरिसाणं ओवम्मं वेयणाएँ दुविहाए । उव्वणपुढवी उ, उववाओ सव्वजीवाणं ॥५॥ एयाओ संगहणिगाहाओ॥ (सू० ९४) ।। बीओ उद्देसओ समत्तो॥ 'रयणप्पभे त्यादि, रत्नप्रभापूथिवीनरयिका भदन्त ! कीदृशं पृथिवीस्पर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति, भगवानाह-गौतम ! 'अणिह [१०८ M ॥१२७॥ ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [९२-९४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९२-९४] गाथा: अर्कतं अप्पियं अमणुन्नं अमणाम' अस्पार्थः प्राग्वत्, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावत्तमस्तमायाम् , एवमप्लेजोवायुवनस्पतिस्पर्शसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं तेज:स्पर्श:--उष्णरूपत्तापरिणतनरककुयादिस्पर्शः परोदीरितवैक्रियरूपो वा वेदितव्यो न त सा-1 क्षा वादरा निकायस्पर्शः, तत्रासम्भवात् ।। 'इमीसे णमित्यादि, अस्यां भदन्त' रमप्रभायां पुथिव्यां त्रिंशति नरकावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् नरकाबासे 'सर्वे प्राणा' द्वीन्द्रिया 'सर्वे भूताः' वनस्पतिकायिका: 'सर्वे सत्त्वाः पृथिव्यादयः 'सर्वे जीवाः पञ्चेन्द्रियाः, उक्त-प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्का, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पचेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्वा उदीरिताः ॥ १॥" पृथिवीकायिकतया अप्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया नैरयिकतया उत्पन्नाः उत्पन्नपूर्वा:?, भगवानाह-'हते त्यादि, हन्तेति प्रत्यवधारणे गौतम ! 'असकृत्' अनेकवारम् , अथवा 'अनन्तकृत्वः' अनन्तान वारान् , संसारस्थानादित्वात् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदध सप्तमी, नवरं यन्त्र यावन्तो नरकास्तत्र ताबन्त उपयुज्य वक्तव्याः । कचिदिदमपि सूर्ण रश्यते-इमीसे गं[8 भंते ! रवणपभाए पुढवीए निरयपरिसामतेमु गंजे बायरपुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया ने भंते ! जीवा ! महाकम्मतरा चैव महाकिरियतरा चेव महासवतरा चेव महावेयणतरा चेव, हंता गोयमा ! जाव महावेवणतरा चेब, एवं जाव अहेसत्तमा ॥" अस्यां भदन्त ' रमप्रभायां पृथिव्यां नरकपरिसमन्तेपु-नरकावासपर्यन्तवर्तिषु प्रदेशेषु वादरपृथिवीकाविका: 'जाव वणष्फइकाइय'त्ति वादराकायिका बादरवायुकायिका बादरवनस्पतिकायिकास्ते भदन्त ! जीवा: 'महाकम्मतरा चेव महा-प्रभूतमसातवेदनीयं कर्म येषां ते महाकर्माणः, अतिशयेन महाकाणो महाकर्मतराः, 'चेवें सवधारणे, महाकर्मतरा एवं कुतः ? इत्याह--'महाकिरियतरा चेव' महती क्रिया-प्राणातिपातादिकाऽऽसीत् प्राग जन्मनि तद्भवेषु तदध्यवसायानिवृत्त्या वेषां ते महाक्रिया:. अतिशयेन महाक्रिया दीप अनुक्रम [१०८-११६] ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [९२-९४] गाथा: दीप अनुक्रम [१०८ -११६] प्रतिपत्तिः [3]. - मूलं [९२ ९४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभिः [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / १ (मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [(नैरविक)-२], मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १२८ ॥ 1 महा क्रियतराः, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वांसा विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायाद्धेतावत्र प्रथमा, ततोऽयमर्थः यतो महाक्रियत एव ततो महाकर्मतरा एव, महाक्रियतरत्वमपि कुतः ? इत्याह- 'महाश्रवतरा एवं महान्त श्रवा:-पापोपादानहेतव आरम्भा दयो येषामासीरन ते महाश्रवाः, अतिशयेन महाभवा महाभवत्तराः, 'चेचे 'ति पूर्ववत् सदेवं यतो महाकर्म्मतरा एव ततो महावेदनतरा एव नरकेषु क्षेत्रस्वभावजाया अपि वेदनाया अतिदुःसहत्वान्, भगवानाह देता गौतम! 'ते णं जीवा महाकम्मतरा चेवेत्यादि प्राग्वत् एवं प्रतिपृथिवि तावद्वाःसप्तमी || सम्प्रत्युद्देशकार्यसङ्ग्रहणिगाथा: प्राह- आसाममात्रगमनिका - प्रथमं 'पुढ वीओ' इति पृथिव्योऽभिधेयास्तथा कइ णं भंते! पुढबीओ पण्णत्ताओ?" इत्यादि । तदनन्तरम् 'ओगाहिता नरगा' इति, यस्यां पृथिव्यां यदवगाह्य यादृशाश्च नरकास्तदभिधेयं, यथा-"इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढबीए असीउत्तरजोयणसयसहस्स बाहलाए उबर केवइयं ओगाहिता" इत्यादि । ततो नरकाणां संस्थानं ततो वाहुल्यं तदनन्तरं विष्कम्भपरिक्षेपौ ततो वर्णसतो गन्धस्तदन्तरं स्पर्शस्ततस्तेषां नरकाणां महत्तायामुपमा देवेन भवति कर्त्तव्या, ततो जीवाः पुङ्गलाश्च तेषु नरकेषु व्युत्क्रामन्तीति, तथा शाश्वताशाश्वता नरका इति वक्तव्यं तत उपपातो वक्तव्यः, तद्यथा - "इसीसे णं भंते! रयणभार पुढवीण कतो उबवजंति ?” इत्यादि तत एकसमयेनोत्पद्यमानानां परिमाणं ततोऽपहारस्तत उचलं तदनन्तरं संहननं ततः संस्थानं ततो वर्णस्तदनन्तरं गन्धस्ततः स्पर्शस्तत उद्वासवक्तव्यता तदनन्तरमाहारस्ततो लेश्या ततो दृष्टिस्तदनन्तरं ज्ञानं ततो योगस्ततोऽप्युपयोगस्तदनन्तरं समुद्घातस्ततः क्षुत्पिपासे ततो विकुर्वणा, तयथा रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते! किं एगतं पनू विवित्त पुहुतं पहू वित्तिए" इत्यादि, ततो वेदना ततो भयं तदनन्तरं पञ्चानां पुरुषाणामधः सप्तम्यामुपपातस्तत औपम्यं वेदनाया द्विविधायाः, उष्णवेदनाया: शीतवेदना For P&Praise Cly •••अत्र मूल-संपादने सूत्र - क्रमांके सू० ९५ मुद्रितं, तत् मुद्रण-दोष:, सूत्र- ९४ एव अत्र वर्तते ~266~ ३ प्रतिपत्तौ नरकाधि० रदेश सू० ९५ ।। १२८ ।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [९२-९४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९२-९४] यावेत्यर्थः, ततः स्थितिर्वक्तव्या तदनन्तरमुद्वर्त्तना ततः स्पर्शः पृथिव्यादिस्पर्शो वक्तव्यः, ततः सर्वजीवानामुपपातः, तद्यथा-इमीसे जाणं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए सीसाए निरयावाससयसहस्सेसु पगमेगसि निरयावासंसि सम्वे पाणा सव्वे भूया" इत्यादि ।। तृतीयप्रति. पत्तौ समाप्तो द्वितीयो नरकोद्देशकः ।। सम्प्रति तृतीय आरभ्यते, नत्र चेमादिसूत्रम् इमीसे कभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरतिया केरिसयं पोग्गलपरिणाम पञ्चणुभवमाणा विहरंति?, गोयमा! अणिटुंजाव अमणाम, एवं जाव अहेसत्तमाए [एवं नेयम् ।। एस्थ किर अतिवयंती नरवसभा केसवा जलचरा य । मंडलिया रायाणो जे य महारंभकोटुंबी ॥१॥ भिन्नमुहुत्तो नरगसु होति तिरियमणुएसु चत्तारि । देवेसु अद्धमासो उकोस विउवणा भणिया ॥ २॥ जे पोग्गला अणिवा नियमा सो तेमि होइ आहारो । संठाणं तु जहणं नियमा हुंडं तु नायब्वं ॥३॥ असुभा विउवणा ग्वलु नेरइयाणं तु होइ सम्वेसिं । वेउब्वियं सरीरं असंघयण हुंडसंठाणं ॥ ४ ।। अस्साओ उववपणो अस्साओ चेव चयइ निरयभवं । सधपुढवीसु जीवो सब्वेसु ठिइविसेसेसुं॥५॥ उबवापण व सायं नेरइओ देवकम्मुणा वावि । अज्झवसानिमित्नं अहवा कम्माणुभावेणं ॥३॥नेरझ्याणुप्पाओ उकोसं पंचजोयणसयाई। दुकावणभियाणं वेयणसयसंपगादाणं ॥ ७ ॥ अच्छिनिमीलियमेत्तं नथि सुहं दुक्खमेव पडिबई । नरण नेरइयाण अहोनिसं पञ्चमाणाणं ॥ ८॥ मेयाकम्ममरीरा सुहुमसरीरा य जे अपज्जत्ता । जीवेण मुकमेना गाथा: KARMA दीप अनुक्रम [१०८-११६] *-* अत्र तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक स्य द्वितिय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक स्य तृतीय-उद्देशक: आरभ्यते ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-३], -------------------- मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [९५]] गाथा: वचंति सहस्ससो भेयं ॥९॥ अतिसीतं अतिउण्हं अतितपहा अतिखुहा अतिभयं वा । निरए ३ प्रतिपत्ती नेरइयाणं दुक्खमयाई अविस्मामं ॥ १०॥ एत्थ य भिन्नमुहुत्तो पोग्गल असुहा य होइ अस्सा नरकाधिक ओ। उबवाओ उपाओ अच्छि सरीरा उ योद्धव्वा ॥११॥ नारयउद्देसओ तइओ ॥ से तं नेर | उद्देशः३ तिया ।। (म०९५) सू०९६ यणप्पभे'त्यादि, रमप्रभापूधियानरयिका भवन्त ! कीदृशं 'पुद्गलपरिणाम' आहारादिपुलविषाकं 'प्रत्यनुभवन्तः' प्रत्येकी 2 विदयमाना विहरन्ति ?, भगवानाह-गौतम अनिष्टमित्यादि प्राग्वन् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तमी, एवं वेदनालेण्यानामगोत्रारतिभयशोकक्षुत्पिपासाव्याधिउच्छासानुतापक्रोधमानमायालोभाहारभवमैथुनपरिमहसज्ञासूत्राणि बक्तव्यानि, अत्र सङ्घहणिगाथे--पोग्गलपरिणामे वेपणा य लेसा य नाम गोए य । अरई भए य सोगे खुहा पिषामा य वाही य ।। १ ।। उस्सासे अणुतावे कोहे माणे य मायलोभे य । चत्तारिय सणानो नेरइयाणं तु परिणामे ॥ २॥" सम्प्रति सप्तमनरकधिव्यों ये गच्छन्ति तान प्रतिपादयति-इह परिमहसम्हापरिणामबक्तव्यतायां चरमसूत्रं सममनरकपृथ्वीविषयं तदनन्तरं चेयं गाथा तत: 'पत्थे' त्यनन्तरमुक्ताइयःसप्तमी पृथिवी परामृश्यते, 'अत्र' अधःसप्तमनरफप्रथिव्यां 'किल' इत्याप्तबादसूचने आप्रवचनमेतदिति भावः, 'अतिब्रजन्ति' अतिशयेन-बाहुल्येन गच्छन्ति नरवृषभाः 'केशवा' वासुदेवाः 'जलचराश्च' तन्दुलमत्स्यप्रभृतयः 'माण्डलिकाः' वसु ॥१२९॥ प्रभृत्य इव 'राजानः' चक्रवर्तिनः मुभूमादय इब ये च महारम्भाः कुटुम्बिन:-कालसौकरिकादय इव ।। सम्पति नरकेषु प्रस्तावा दीप अनुक्रम [११७-१२९] ...अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू० ९६ मुद्रितं, तत् मुद्रण-दोष:,सूत्र-९५ एव अत्र वर्तते ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-३], -------------------- मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५] गाथा: हैत्तिर्यगादिषु चोत्तरवैक्रियावस्थानकालमानमाह-भिन्न:-खण्डो मुहूत्तों भिन्नमुहूर्त: अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः, नरकेपूरकर्पतो विकुर्वणास्थितिकालः, तिर्यमनुष्येषु चत्वार्यन्त हानि, देवेष्वर्द्धमास उत्कर्षतो विकुर्वणाऽवस्थानकालः भणित: एप उत्कर्षतो विकुर्वणाऽवस्थानकालो भणितस्तीर्थकरगणधरैः ।। सम्प्रति नरकेलाहाराविखरूपमाह-ये पुगला अनिष्टा नियमात्स तेषां भवत्याहारः, 'संस्थानं तु' संथानं पुनसेषां हुण्डं हुण्डमपि जघन्यमतिनिकृष्ठमनिष्टं बेदितव्यं, एत्तञ्च भवधारणीयशरीरमधिकृत्य वेदितव्यम् , उत्तरवैफियसंस्थानस्याप्रे वक्ष्य| माणसान् , इयं च प्रागुक्तार्थसङ्घहगाथा ततो न पुनरुक्तदोषः ।। सम्प्रति विकुर्वणास्वरूपमाह-सपा नैरयिकाणां विकुर्वणा 'खलु' |निश्चितमशुभा भवति, यदापि शुभं विकुर्विष्याग इति ते चिन्तयन्ति सथाऽपि तथाविधप्रतिकूलकोयतस्तेषामशुभैव चिकुर्वणा भवति, हैं तदपि च क्रिय-उत्तरक्रियशरीरमसंहननम , अस्थ्यभावान् . उपलक्षणमेतत् भवधारणीयं च वैक्रियशरीरमसंहननं. तथा हुण्डसं-1 स्थानं तन् उत्तरवैक्रियशरीर, हुण्डसंस्थाननाम्न एव भवप्रत्ययत उदयभावान् ।। कश्चिन् जीव: 'सर्वास्वपि पृथिवीषु रमप्रभादिषु तमस्तमापर्यन्तामु सर्वेष्वपि च 'स्थितिविशेषेषु' जघन्यादिरूपेषु 'असातः' असातोदयकलित उपपन्नः. उत्पत्तिकालेऽपि प्राग्भवमरणकालानुभूतमहादुःखानुवृत्तिभावान् , उत्पत्त्यनन्तरमपि 'असात एवं' असानोदयकलित एवं सकलमपि निरयभवं 'त्यजति क्षपMयति, न तु जानुचिदपि सुखलेशमप्यास्वादयति ।। आह-किं तत्र कदाचित्सातोदयोऽपि भवति येनेदमुच्यते ?, उच्यते. भवति, तथा चाह--'उववाएण' इत्यत्र साम्यर्थे तृतीया, उपपातकाले 'सातं' सातवेदनीयकोदयं कश्चिद्वेदयते, य: प्रारभवे दाघरछेदादिष्यतिरेकेण । | मरणमुपगतोऽनविस शिष्टाध्यवसायी समुत्पद्यते, तदानीं हि न तस्य प्राग्भवानुवद्धमाधिरूपं दुःखं नापि क्षेत्रस्वभाव नापि परमाजाधामिककृतं नापि परस्परोपीरितं तत एवंविधदुःखाभाबादसौ सातं कश्चिन् वेदयते इत्युच्यते. 'देवकम्मुणा वावि' इति देवकर्मणा ALEGEOGAOCTOCOLA RASACXXXC दीप अनुक्रम [११७-१२९] ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [९५] + गाथाः दीप अनुक्रम [११७ -१२९] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], • उद्देशक: [ (नैरयिक)-३], - मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः T श्रीजीवाजीवाभि० पूर्वसाङ्गतिक देवप्रयुक्तया क्रियया, तथाहि गच्छति पूर्वसङ्गतिको देवः पूर्वपरिचितस्य नैरविकस्य वेदनोपशमनार्थं यथा बलदेवः कृष्णवासुदेवस्य स च वेदनोपशमो देवकृतो मनाकालमात्र एव भवति, तत ऊर्ध्वं नियमात्क्षेत्रस्वभावजाऽन्योऽन्या वा वेदना प्रवर्त्तते मग तथा भाय्या, 'अज्झबसाणनिमित्त' मिति अध्यवसाननिमित्तं सम्यक्लोत्पादकाले तत ऊर्ध्वं कदाचित्तथाविधविशिष्टशुभाध्यक्षरीयावृत्तिः ) सायप्रत्ययं कश्चिद् नैरविको वाह्मक्षेत्रसभावजवेदनासद्भावेऽपि सातोदयमेवानुभवति, सम्यक्त्वोत्पादकाले हि जात्यन्धा चलोभ इव ॥ १३० ॥ महान् प्रमोद उपजायते, तदुत्तरकालमपि कदाचित्तीर्थकरगुणानुमोदनाद्यनुगतां विशिष्ट भावनां भावयतः ततो वाह्यक्षेत्रस्वभावज वेदनासद्भावेऽप्यन्तः सातोदयो विजृम्भमाणो न विरुध्यते, 'अहवा कम्माणुभावेण मिति अथवा 'कम्र्मानुभावेन' वाह्यतीर्थंकरज- 82 न्मदीक्षाज्ञानापवर्ग कल्याण संभूतिलक्षणत्राह्मनिमित्तमधिकृत्य तथाविधस्य च सावेदनीयस्य कर्मणोऽनुभावेन विपाकोदयेन क- 8 चित्सतं वेदयते, न चैतद्व्याख्यानमनाएँ यत उक्तं वसुदेवचरिते, इह नैरयिका: कुम्भ्यादिषु पच्यमानाः कुन्तादिभिर्भिद्यमाना वा भयोबस्तास्तथाविधप्रयत्नवशादूर्द्ध मुबन्ते, सतस्तदुत्पातपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-नैरयिकाणां दुःखेनाभिद्रुतानां सर्वाना व्या 5 तानां 'वेदनाशतसंप्रगाढानां ' वेदनाशतानि अपरिमिता वेदनाः संप्रगाढानि अवगाढानि येषां ते वेदनाशतसंप्रगाढा: सुखादिदर्शनातू निष्ठान्तस्य परनिपातः तेषां हेतुहेतुमद्भावधान, यतो वेदनाशतसंप्रगाढास्ततो दुःखेनाभिद्रुताः तेषां जघन्यत उत्पातो गव्यूतमात्रम् एतच संप्रदायादवसीयते, तथा च दृश्यते कचिदेवमपि पाठ: "नेरइयाणुपाओ गाउय उकोस पंचजोयणसवाई” इति, | उत्कर्षतः पश्य योजनशतानि इति । दुःखेनाभिहतानामित्युक्तं ततो दुःखमेव निरूपयति-नरके नैरविकाणामुष्णवेदनया शीतवेदनया ९ ॥ १३० ॥ वाऽहर्निशं पच्यमानानां न 'अक्षिनिमीलनमात्रमपि' अक्षिनिकोकाठमात्रमपि अस्ति सुखं, किन्तु दुःखमेव केवलं 'प्रतिबद्धम्' For P&Peale Cinly •••अत्र मूल - संपादने सूत्र - क्रमांके सू० ९६ मुद्रितं, तत् मुद्रण-दोष:, सूत्र- ९५ एव अत्र वर्तते ३ प्रतिपत्तौ नरकाधि० उद्देशः ३ सू० ९६ ~ 270~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-३], -------------------- मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५] -- * गाथा: -* अनुबद्धं सदाऽनुगतमिति भावः ॥ अथ यशेषां वैक्रियशरीरं तत्तेषां मरणकाले कथं भवति ? इति तनिरूपणार्थमाह-तैजसकार्मणश-| रीराणि यानि 'सूक्ष्मशरीराणि' (च) सूक्ष्मनामकम्र्मोदयक्तां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि वैक्रियाहारकशरीराणि च तेषामपि प्रायो मांसचक्षुरपाहातया मूक्ष्मत्वान् तथा यानि 'अपर्याप्तानि अपर्याप्तशरीराणि तानि जीवेन मुक्तमात्राणि सन्ति सहस्रशो भेदं ब्रजन्ति विसकलितास्तत्परमाणुससाता भवन्तीवर्थः ।। एवासामेव गाथानां संपाहिका गाथामाह-एत्थ' इति पदो-IN पलक्षिता प्रथमा द्वितीया 'भिन्नमुहत्तो' इति तृतीया 'पोग्गला' इति 'जे पोग्गला अणिवा' इत्यादि चतुर्थी 'अशुभा' इति (जे) 'असुभा विउब्वणा खलु' इत्यादि, एवं शेषपदान्यपि भावनीयानि ॥ तृतीयप्रतिपत्तौ तृतीयो नरकोदेशकः समाप्तः । तदेवमुक्तो |नारकाधिकारः, सम्प्रति निर्वगधिकारो वक्तव्यः, तत्र चेदमादिसूत्रम से किं तं तिरिक्खजोणिया?, निरिक्वजोणिया पंचविधा पण्णता, तंजहा-एगिंदियतिरिक्तजोणिया येइंदियतिरिक्वजोणिया तेइंदियनिरिक्वजोणिया चउरिदियतिरिक्खजोणिया पंचिंदियतिरिकबजोणियाय । से किं तं एगिदियतिरिक्वजोणिया?, २ पंचविहा पणत्ता, तंजहापुढविकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया जाव वणस्सइकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया । से किं तं पुडविकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया?.२ विहा पणत्ता, तंजहा-सुहमपुढविकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया वादरपुढाविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिया य । से किं तं सुहमपुढविकाइथएगिदियतिरि०१, २ दुविहा पण्णत्ता, संजहा-पजससुहुम० अपजत्तसुहम से तं सुहमा । - - दीप अनुक्रम [११७-१२९] अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ नरकोद्देशक: परिसमाप्त: __ अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ तिर्यञ्च-उद्देशक: -१ आरब्ध: ... तिर्यञ्च-सम्बन्धी विविध-विषयाधिकार: ~271~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) aayarala प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१३०] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], • उद्देशक: [ ( तिर्यञ्च ) -१], - मूलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १३१ ॥ से किं तं बारकाइय०१, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा- पज्जन्सवादरपु० अपजत्तबादरपुर, सेतं यापुढविकाइयएगिंदिय० । सेनं पुढवीकाइयएगिदिया । से किं तं apiदिय० १, २ दुबिहा पण्णत्ता, एवं जहेव पुढविकाइयाणं तहेव, वाउकायभेदो एवं जाव वणस्सतिकाइया से नं वणस्सइकाएगिंदियतिरिक्व० । से किं नं बेइंद्रियतिरिक्म्०१, २ दुविधा पण्णत्ता, तंजा-पजत्तकमेइंद्रियनि० अपजत्तइंद्रियति०, से तं बेइंद्रियतिरि० एवं जाय चउरिंडिया । से किं तं पंचेद्रियतिरिक्खजोणिया १, २ निविहा पण्णत्ता, तंजहा- जलघरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया धलपरपंचेंद्रियतिरिक्खजो० खपरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया । से किं तं जलयरपंचदियतिरिक्वजोणिया ?, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजा-संमुच्छिमजलयर पंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाय ग भवतियजलयर पंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया य से किं तं संमुच्छिनजल पर पंचिंदियतिरिक्खजोपिना?, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा-पजतगसंमुच्छिनः अपजत्तगसंमुच्छिम जलयरा, सेनं संमि पंचिदियतिरिक्ख० । से किं तं भवतियजलयर पंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया ?, २ दुविधा पण्णत्ता, तंजहा- पज्ञसगगन्भवयंनिय० अपजसग भ० से तंगभ वक्कंनियजलयर से तं जलयरपंचेंद्रियनिरि० । से किं तं धलयरपंचेंद्रियनिरिवजोणिता ?, २ दुविधा पण्णत्ता, तंजा - चउपयथलयरपंचेंद्रियः परिसप्पलमरपंचदियतिरिक्ग्वजोणिता । For P&P Cy ~272~ ३ प्रतिपत्ती तिर्यगधिः | उद्देशः १ सू० ९६ ॥ १३१ ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] से कि तं चत्रुष्पदधलयरपंचिंदिय०? चउप्पय० दुविहा पण्णत्ता, नंजहा-समुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदिय० गन्भवकंनियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्व जोणिता य, जहेब जलयराणं नहेब चउकतो भेदो, सेत्तं चउप्पदयलयरपंचेंद्रियः । से किं तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्व० ?, २दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-उरगपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्वजोणिता भुयगपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिता । से किं तं उरगपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता?, उरगपरिक विहा पण्णत्ता. तंजहा-जहेब जलयराणं तहेव चकतो भेदो, एवं भुयगपरिसप्पाणवि भाणितब्चं, सेनं भुयगपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्वजोणिता, से तं थल यरपंचेदियतिरिक्ख जोणिता से किं तं खहयरपंचेदियतिरिक्वजोणिया?, वह०२ दुबिहा पण्णता, तंजहा-समुच्छिमखहयरपंचेंद्रियतिरिकग्वजोणिता गन्भवतियवहयरपंचेंदियतिरिकग्वजोणिता य । से किं तं संमुच्छिमग्वहयरपंचेदियतिरिक्वजोणिता?, संमु० २ दुविहा पण्णत्ता, जहा-पज्जत्तगसंमुच्छिमखहयरपंचेंद्रियतिरिक्वजोणिया अपज्जत्तगसमुच्छिमवहायरपंचेदियनिरिक्खजोणिया य, एवं गम्भवतियाथि जाव पजतगगम्भवतियावि जाव अपजत्तगगभवतियावि वहयरपंचेंवियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कतिविधे जोणिसंगहे पण्णते?, गोयमा तिविहे जोणिसंगहे दीप अनुक्रम [१३०] ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 42595 प्रत सूत्रांक [९६] श्रीजीवा- पण्णत्ते, जहा-अंडया पोधया समुच्छिमा, अंडया तिविधा पणत्ता, तंजहा-इत्थी पुरिसा प्रतिपत्ती जीवाभिः गपुंसगा, पोतया तिविधा पण्णता, जहा इत्थी पुरिसा मुसया, तस्थ णं जे ते संमुच्छिमा तियंगधि मलयगि-४ा ते सब्वे णपुंसका ।। (मु०१६) उद्देशः ५ रीयावृत्तिः से किं तमित्यादि, अथ के ते तिर्यग्योनिका ?, सरिराह-हिरसोनिका: विविधाः प्राप्ताः, तपथा-एकेन्द्रिया इत्यादि सूत्रसू०९७ प्रायः सुगम केवलं भूयान पुस्तके वाचनामेव इति यथाऽवधितवाचनाक्रमप्रदर्शनार्थनारसंस्कारमा क्रियते- केन्द्रिया बावत्प-| ॥१३२॥ " चेन्द्रियाः । अथ के ते एकेन्द्रिया:?, केन्द्रियाः पञ्चविधाः प्रज्ञताः, तावा-पृथिवीकायिका यावद्वानस्पतिकायिकाः । अथ के ते पृथिवीकायिका: १, पृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञमाः, नयाधा-मुश्मपृथिवीकायिकाश्च यादरपवित्रीकायिकाश्च । अथ के ते सूक्ष्मथि-14 वीकायिकाः ?, सूक्ष्मपथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञापास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्रकाश्च । अथ के ते बादरएथिवीकायिका: ?, यादरपृथिबीकायिका द्विविधाः प्रक्षप्रास्तयथा-पर्यानका अपर्याप्रकाश्च, एवं नावद्वक्तव्यं यावद्वनस्पतिकायिकाः । अथ के ते द्वीन्द्रिया:?, द्वी. न्द्रिया द्विविधाः प्राप्ता:-पर्याप्तका अपर्याप्रकाश्च, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया अपि वक्तव्याः । अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पञ्चेन्द्रियतियायोनिकानिविधाः प्रामास्तद्यथा-जलचरा: स्थलचराः खचराश्च । अथ के ते जलचराः ?, जलचरा द्विविधाः प्रज्ञप्रास्तहाद्यथा-संमूछिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च । अथ के ते संमूछिमाः, समूच्छिमा द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्रकाश्च । अथ | 4 ॥१३२॥ १ अटजव्यतिरिकाः सर्वेऽपि जरागुआ जरायुजा वा गर्भब्युरक्षान्तिकाः पञ्चेन्द्रिया अग्रवान्ताधनीया इति न चतुर्विधा, समाधास्यति चवमो, केवल-| मत्र जरायुजलया पक्षिामप्रतिद्धन समाधिरातिः, दीप अनुक्रम [१३०] +91-% त ~274~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - [१६] -- के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः?, गर्भव्युत्क्रान्तिका द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पर्याप्रका अपर्याप्तकाश, एवं चतुष्पदा उर:परिसर्पा भुजपरिअासपीः पक्षिणच प्रत्येकं चतुष्प्रकारा वक्तव्याः ।। मम्प्रति पक्षिणा प्रकारान्तरेण भेदप्रतिपादनार्थमाह-पक्खि णं (खहयरपंचिंदि-11 यतिरि०) भंते ! इत्यादि, पक्षिणां भदन्त ! 'कतिविधः' कतिप्रकार: 'योजिसनहः' योन्या सङ्घहणं योनिसङ्कहो योन्युपलक्षितं ग्रहणमित्यर्थः (प्रज्ञम: ?), भगवानाह-गौतम! त्रिविधो योनिमहः प्रज्ञमस्तस्यथा-अण्डजा-मयूरादयः पोतजा-बागुल्यादयः संमूछिमाः खजरीटादयः, अण्डजाम्विविधाः प्रज्ञमास्तयथा-खियः पुरुषा नपुंसकाच, पोतजाखिविधाः प्रज्ञापास्त यथा-खियः पुरुपा नपुंसकान, नत्र येते संमूच्छिमास्ते सर्वे नपुंसकाः, संमूछिमानामवश्यं नपुंसकवेदोषवभावान् ।। एतेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! छल्लेसाओ पण्णसाओ, तंजहा -कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा ॥ ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिवी?, गोयमा! सम्मदिट्ठीवि मिच्छविट्ठीवि सम्मामिच्छदिट्ठीवि ॥ ते भंते! जीवा किं णाणी अ. पणाणी?, गोयमा! णाणीवि अण्णाणीवि तिषिण णाणाई तिपिण अण्णाणाई भयणाए ॥ ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी बइजोगी कायजोगी?, गोयमा! तिविधाथि ॥ ते णं भंते ! जीवा किं सागारोव उत्ता अणागारोव उत्सा?, गोयमा! सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि ।। ते णं भंते! जीवा कओ उववजति किं नेरतिएहितो उप०तिरिक्वजोणिएहितो उव०१, पुच्छा, गोयमा! असंग्वेजवासाउयअकम्मभूमगअंतरदीवगवजेहिंतो उववजंति ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं *--- दीप * अनुक्रम [१३०] जी०च०२३ ~275~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्ती प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः तिर्यग्योन्यधिक सूत्रांक [१७] 2500 उद्देशः १ सू० ९७ ॥१३३॥ दीप केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहृत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखे. जतिभागं ॥ तसिणं भंते! जीवाणं कति समुग्धाता पपणत्ता ?, गोयमा! पंच समुग्धाता पपणत्ता, तंजहा-वेदणासमुग्घाए जाव तेयासमुग्घाए ॥ ते णं भंते! जीचा मारणांतियसमुग्धाएणं किं समोहता मरति असमोहना मरंति?, गोयमा! समोहताविम० असमोहयावि मरंतिते णं भंते ! जीवा अणंतरं उच्चहित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उपयजति?-किं नेरतिएस उववति? तिरिक्व० पुच्छा, गोयमा! एवं उव्वदृणा भाणियव्वा जहा वर्कतीए तहेव । तेसि णं भंते! जीवाणं कति जातीकुलकोडिजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा! यारस जातीकलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा ।। भुयगपरिसप्पधलयरपंचेंदियतिरिक्वजोगिया भंते ! कतिविधे जोणीसंगहे पण्णते?, गोयमा! तिविहे जोणीसंगहे पपणत्ते, तंजहा-अंडगा पोयगा संमुच्छिमा, एवं जहा बहयराणं तहेव, णाणतं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुषकोडी, उम्वहिता दो पुरविं गति, णव जातीकुलकोडीजोणीपमुहसतसहस्सा भवंतीति मग्यायं, सेसं तहेव ।। उरगपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्वजोणियाणं भंते! पुच्छा, जहेव भुयगपरिसप्पाणं तहेव, णवरं ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेणं पुवकोडी, उध्वहित्ता जाब पंचमिं पुर्वि गच्छंति, दस जातीकुलकोडी ।। चउप्पयथलयरपंचंदियतिरिक्व० पुच्छा, गोयमा! दुविधे पण्णत्ते, तंजहा अनुक्रम [१३१] ACANCE ॥१३३॥ JaEcminA ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [१३१] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः) • उद्देशक: [ ( तिर्यञ्च ) -१], • मूलं [९७] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Edcam जराज्या (पोयया) य संमुच्छिमा घ (से किं नं) जराउया (पोयया ) १, २ तिविधा पण्णत्ता, तंजा - इत्थी पुरिसा णपुंसका, तत्थ णं जे ने समुच्छिमा ते सवे णपुंसया । तेसि णं भंते! जीवा कति लेस्साओ पण्णत्ताओ?, सेसं जहा पक्बीणं, णाणतं ठिनी जहनेणं अंतोमुत्तं उकोसेणं तिनि पलिओमाई, उब्वहित्ता चस्थि पुढविं गच्छति, दस जानीकुलकोडी ॥ जलयरपंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, जहा भुयगपरिसप्पाणं णवरं उच्चद्दित्ता जाव अधेमुत्तमं पुcfi अद्धतेरस जातीलकोडीजोणीपमुह० जाव प० ॥ चउरिदियाणं भंते! कनि जाती कुलकोडीजोणी मुहसनहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! नव जाईकुलको डीजोणी पमुह सय सहस्सा [जाय] समक्खाया। इंद्रियाणं पुच्छा, गोयमा ! अट्टजाईकुल जावमक्वाया। बेइंद्रियाणं भंते! कइ जाई ०१, पुच्छा, गोमा ! सत्त जाईकुलकोडीजोणीपमुह० ॥ ( सू० १७) "एएसि ण' मिलादि, 'एतेषां पक्षिण! जीवानां कति लेश्याः प्रज्ञमाः ?, भगवानाह - गौतम! पढ़ लेश्या: प्रज्ञमाः, तद्यथाकृष्णलेश्या याव शुरुलेश्या, तेपां द्रव्यतो भावतो वा सर्वा लेश्याः, परिणामसम्भवान् । 'ते णं भंते!' इत्यादि ते भदन्त ! प क्षिणो जीवाः किं सम्यग्दृष्टयो मिध्यादृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृश्यच ?, भगवानाह गौतम त्रिविधा अपि ॥ 'ते णं भंते!" इत्यादि, ते भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनोऽज्ञानिनः ? भगवानाथ गौतम! इयेऽपि ज्ञानिनोऽज्ञानिनोऽपीत्यर्थः, तत्र ये ज्ञानिनस्ते द्विज्ञानिनखितानिनो वा येऽप्यज्ञानिनस्तेऽपि ज्ञानिनरूपज्ञानिनो वा । 'ते णमित्यादि, ते भदन्त ! जीवाः किं मनोयोगिनो वाग्योगिनः काययो Fir P&Praise Cinly ~277~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९७] श्रीजीवा- गिनः ?, भगवानाह-गौतम ! त्रयोऽपि ।। 'तणं भंते!' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवाः किं साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुका: १. भगवा- प्रतिपत्ती जीवाभिःनाह-द्वयेऽपि, साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताओत्यर्थः । तेणं ते!' इत्यादि, ते भवन्त ! पक्षिणो जीवाः कुत उत्पपाते ? निरवि तिर्यग्योमलयगि- केभ्य इत्यादि प्रथा प्रज्ञापनायां व्युत्क्रान्तिपदे तथा भूष्टव्यम् ।। 'तेसि णमित्यादि, तेपां भदन्त ! पक्षिणां कियन्त कालं स्थितिः प्रा न्यधिक रीयावृत्तिःमा , भगबानाइ-गीतम! जयन्येनान्तर्मुहुर्तमुत्कर्पतः पल्योपमासयभाग: ।। 'तेसि 'मित्यादि, तेषां भदन्त ! जीयानां कृतिशः समुद्याताः प्रज्ञप्ताः भगवानाह-गौतम ! प ल मुद्घाता: प्रक्षमाः तथा-वेदनासमुद्रातः कपायस मुद्धातो मारणान्तिकल मुद्यानोनिसा ॥१३४॥ वैक्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्रात तणं भंते !' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवा मारणान्तिकसमुत्पातेन कि समबहता नियन्ते असमबहता विधन्ते ?, भगवानाहौसम ! समबहता अपि नियन्ते असमबहता अपि नियन्ते ॥ 'ते णं भंते !' इत्यादि. ने भवन्त ! जीबी अनन्तरमुहस्य क गलन्नि ?, एनदेव व्याय-एवं उव्यहणा' इत्यादि, यथा द्विविधप्रतिपत्ती तथा द्रव्यम् ।। 'तेसि नित्यादि नेपा भदन्त ! जीवानां 'कति' किंप्रमाणानि जातिकुल कोटीनां बोनिप्रमुखाणि-योनिप्रवाहानि शतसहन्त्राणि योनिप्र मुखशतलहवाणि जातिकुलकोटियोनिनसुखशतसहस्राणि भवन्ति ?, भगवानाह-द्वादश जातिकुलकोटीयोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञनानि, नत्र जातिकुलयोनीनामिद परिस्थरमुदाहरणं पूर्वाचार्यरुपादर्शि-जातिरिति किल तिर्यग्जातिस्तस्याः कुलानि-कृमिकीटपृश्चिकादीनि, इमानि च कुलानि । योनिप्रमुखाणि. तथाहि-एकस्वायेव योनौ अनेकानि फुलानि भवन्ति, तथाहि-छगणयोनी कृमिकुलं कीटकलं वृश्चिककुलमियादि । अथवा जातिकुलमित्येक पदं, जातिकुल योन्योश्च परस्परं विशेप: एकस्यामेव योनावनेकजातिकुलसम्भवान् , तद्यथा-एकन्यामेव छग-4॥१३४॥ १ ब्युत्कान्तिपदवस भाणन यान एसी यथायथ, मूले न प्रज्ञापनाचा व्यु क्रान्तिपद एव यथावर्थ सूत्रमिति वकंतीएत्ति मूत्र. दीप अनुक्रम [१३१] ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: GREk प्रत सूत्रांक [९७] योनी कृमिजातिकुलं कीटजातिकुलं वृश्चिकजातिकुलमिलादि, एवं चैकस्यामेव योनाववान्तरजातिभेदभावादनेकानि योनिप्रवाहाणि जातिकुलानि संभवन्तीत्युपपाते, खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजानां द्वादश आतिकुलकोटिशतसहस्राणि, अत्र सणिगाथा-"जोणी-15 ४संगहलेस्सादिही नाणे व जोग उचओगे । उवधायठिईसभुग्याय वयणं जाई कुलविही ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-प्रथमं योनि-18 सङ्गहद्वारं ततो लेश्याद्वारं ततो दृष्टिद्वारमित्यादि । 'भुयगाणं भंते !' इत्यादि, भुजगानां भदन्त ! कतिविधो योनिसङ्ग्रहः प्रज्ञाः १, इत्यादि पक्षिवन् सर्व-निरवशेष बक्तव्यं, नवरं स्थितिच्यवनकुलकोटिषु नानालं, तयथा-खितिजचन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्पतः पूर्वकोटी,14 ४ च्यवनम्-उतना, तत्र नरकगतिचिन्तायामधो याबहिनीया पृथिवी उपरि यावत्सह मारः कल्पस्तावदुत्पदाते, नत्र तेषां जातिकुलको-18 टियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । एवमुर:परिसाणामपि बक्तव्यं, नवरं तत्र च्यवनद्वारेऽवश्चिन्तायां यावत्पञ्चमी पृथिवीति | वक्तव्यं, कुलकोटिचिन्तायां दश जातिकुलकोटियोनिप्रमुग्वशतसहस्राणि प्रज्ञप्रानि ॥ 'चउप्पयाण'मित्यानि, चतुष्पदानां भवन्त कतिविधो योनिसङ्कहः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम ! द्विविधो योनिमः प्राप्तः, तद्यथा-पोतजाः संमूछिमाश्च, इड येडण्डजव्यत्ति-13 रिक्ता गर्भश्युरकान्तास्ते सर्वे जरायुजा अजरायुजा वा पोतजा इति [ पूर्वमपि विवक्षिताः परमन्न तु सर्वेऽपि गर्भव्युत्क्रान्तिकाः पोतजलया ] विवक्षितमतोऽत्र द्विविधो यथोक्तस्वरूपो योनिसह उक्तः, अन्यथा गमादीनां जरायुजलात् (मादीनामण्डजत्वान् ) तुती-16 योऽपि जरायु(अण्डज)लक्षणो योनिसङ्कहो वक्तव्यः स्यादिति, नत्र ये ते पोतजास्ते विविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-नियः पुरुपा नपुंसकाश, *तन्त्र चे ते संमूमिछमास्ते सर्वे नपुंसकाः, शेषद्वारकलापः पूर्वबन् , नवरं स्थिविर्जपन्यनान्तर्मुहर्तमुत्कर्पतस्त्रीणि कल्पोपमानि, लयवनद्वारे-19 Hधचिन्तायां यायचतुर्थी पृथिवी ऊर्ध्वं यावत्सहमारः, जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राण्यत्रापि दश ।। 'जलपराणा'मित्यादि, जल-14 दीप अनुक्रम [१३१] JEAceTRI WL ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९७] 2-56 दीप अनुक्रम [१३१] श्रीजीवा-18|चराणां भदन्त ! कतिविधो योनिसङ्ग्रहः प्रज्ञाप्तः १, भगवानाह-गौतम! त्रिविधो योनिसङ्कहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अण्डजाः पोतजा: संमूछि-13/३ प्रतिपत्ती जीवाभिमाच, अण्डजात्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-खियः पुरुषा नपुंसकाच, पोतजास्विविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-खियः पुरुषा नपुंसकाच, तत्र येद | तिर्यन्योमलयगि- माते संमूठिमास्ते स नपुंसकाः, शेषद्वारफलापचिन्ता प्राग्वत् , नवरं स्थितिच्यवनजातिफुलकोटिपु नानालं, स्थितिजयन्येनाम्तमहत- न्यधिक रीयावृत्तिः 81 मुत्कर्षतः पूर्वकोटी, स्यवनद्वारेऽधश्चिन्तायां यावत्सप्तमी ऊर्य यावत्सहस्रारः, कुलफोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि अर्बत्रयोदश सार्बानि | उद्देश:१ ताद्वादशेत्यर्थः ।। 'चाउरिंदिवाण'मित्यावि, चतुरिन्द्रियाणां भदन्त ! कति जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि?, भगवानाहGI | सू० ९८ -नव जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, एवं त्रीन्द्रियाणामष्टौ जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि, द्वीन्द्रियाणां सप्त ४/जातिकुलकोदियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । इह जातिकुलकोटयो योनिजातीयासतो भिन्नजानीयाभिधानप्रसङ्गतो गन्धाङ्गानि | भिन्नजातीयवान् प्ररूपयति करणं भंते ! गंधा पण्णत्ता? कई गंभंते! गंधसया पण्णता?, गोयमा! सत्स गंधा सत्त गंधसया पण्णता । करणं भंते ! पुप्फजाई कुलकोडीजोणिपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा! सोलसपुष्फजातीकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता, तंजहा-चत्तारि जलयराणं चत्सारि घलयराणं चत्तारि महारुक्खियाणं चत्तारि महागुम्मिताणं ॥ कति णं भंते! वल्हीओ कति वल्लिसता पण्णता?, गोयमा! चत्तारि वल्लीओ चत्तारि बल्लीमता पणत्ता ।। कति णं भंते! लताओ कति लतासता पण्णत्ता?, गोयमा! अट्ट लयाओ अट्ट लतासता पण्णता ॥ कति णं ~280~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % 4-% * प्रत सूत्रांक -* - [९८] भंते! हरियकाया हरियकायसया पण्णता?, गोयमा ! तओ हरियकाया तओ हरियकायसया पण्णता, फलसहस्सं च बिंदघद्वाणं फलसहस्सं च णालयद्धाणं, ते सव्वे हरितकायमेव समोयरति, ते एवं समणुगम्ममाणा २ एवं समणुगाहिजमाणा २एवं समणुपेहि जमाणा २एवं समचिं तिजमाणा २ एएमु चेव दोसुकाएमु समोयरंति, तंजहा-तसकाए चेव थावरकाए चेव, एवमेव सपुब्वावरेणं आजीवियदिटुंतणं चउरासीति जातिकुलकोडीजोणीपमुहसनसहस्सा भवंतीलिम क्वाया। (सू०१८) 'कइ णमित्यादि, कति भदन्त ! गन्धाङ्गानि, कचिद् गन्धा इति पाठस्तत्र पदेकदेशे पदसमुदायोपचाराद् गन्धा इति गन्धाक्षानीति है। द्रष्टव्यं प्रज्ञप्तानि ?, तथा कति गन्धाङ्गशतानि प्रज्ञमानि , भगवानाह-गौतम! सन गन्धाङ्गानि सप्त गन्धानशतानि प्रज्ञमानि, इह सप्त द्वगन्धाङ्गानि परिस्थूरजातिभेदादमूनि, तद्यथा-मूलं वक काष्टं निर्यास: पत्रं पुष्पं फलं च, तत्र मूलं मुस्तावारटुकोशीरादि. वक् सुवर्ण-18 हैल्लीखचाप्रभृति, काष्ठं चन्दनागुरुप्रभृति, निर्यासः कर्पूरादिः, पत्रं जातिपत्रतमालपत्रादि, पुष्पं प्रिय नागरपुष्पादि, फलं जातिफल कोलकैलालवङ्गप्रभृति, एते च वर्णमधिकृत्य प्रत्येक कृष्णादिभेदात्प थपञ्चभेदा इति वर्णपञ्चकेन गुण्यन्ते जाताः पञ्चत्रिंशत् , गFधचिन्तायामेते सुरभिगन्धय एवेत्येकेन गुणिताः पञ्चत्रिंशन् जाताः पचत्रिंशदेव 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति न्यायान , तत्रा-1 प्येकैकस्मिन् वर्गभेदे रसपञ्चक द्रव्यभेदेन विधिकं प्राप्यते इति सा पचत्रिशत् रसपश्चन गुज्यते जाता: पञ्चसप्रतिशतं, स्पर्शाश्च यद्यप्यष्टौ भवन्ति तथाऽपि गन्धाङ्गेयु यथोक्तरूपेपु प्रशस्या व्यवहारतश्चत्वार एव मृदुलघुशीतोष्णरूपास्ततः पञ्चसततं शतं स्पर्शचतु CSCAMERAMA दीप अनुक्रम [१३२] -- - KPER ~281~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: II प्रत सूत्रांक [९८] दीप श्रीजीवा- येन गुण्यते जातानि सप्त शतानि, उक्त-मूलतवकनिजासपत्नपुष्फाफलमेब गंधंगः । यग्णादु सरका गंधगलया पुगेयत्रातिपत्ती जीचाभि० ॥१॥ अस्य व्याख्यानरूपं गाथाद्वयम्-"मुत्धास्वग्णाली अगुरू बाला तमालपत्तं च । जदय पिलंग, जाइफलं च जाईतिर्यग्योमलयनि- गंधगा ॥१॥ गुणणाए सत्त सया पंचाहिं यणहिं सुरभिगंधणं । रसपनाणं तह कासेहि व चरहि मिन(पसत्याहि अ न्य धिः रीयावृत्तिः जाईए गंधंगा' इति जाया जानिभदनामूनि धानानि, शेष भाषितम् ।। 'फदवामित्यादि, कति भदन्त ! पुष्पजातिकुल कोटि- उद्देशः (xiशतसहस्राणि प्रज्ञमानि', भगवानार-गीतम! योदश पुष्पजातिकुलकोटिशतसहत्राणि प्रामानि, तपादत्वारि 'जलजागा पक्षानांस०२८ जातिभेदेन, तथा चत्वारि 'स्थलजाना' कोरण्टकालीन जातिभेदेन, रामारि महामुस्मिकालीन जातादीना, चत्वारि 'महावृक्षाणां मधुकादीनामिति ॥ 'कइ णमित्यादि, कति महन्त ! बलयः? कति बल्लिशतानि प्रनमानि ?, भगबानाह-गौतम! चतको लहयख पुष्यादिमूलभेदेन, ताश्च मूलटीकाकृता वैवित्तयेन न व्याख्याता इति संप्रदायादवसेयाः, चत्वारि वल्लिशनान्येवावान्तरजातिभेदेन ।। 'का होणमित्यादि, कति भदन्त ! लताः कति लताशतानि प्रशमानि ?, भगवानाह-गौतम! अष्टौ लता या मूलभेदेन ता अपि संप्रदायाद यसातव्याः, मूलटीकाकारेणाव्याख्यानान , अष्टी लताशवानि प्रजवानि, अवान्तरजातिभेदेन ।। 'कइ णमित्यादि, कति भदन्त ! हरिइतकायाः कति हरितकायशतानि प्राप्तानि , भगवानाह-गौतम! यो हरितकायाः प्रक्षना:-जलजाः खलजा उभयजाः, एककस्मिन् । शतगवान्तरभेदानामिति, त्रीणि हरितकारशतानि । 'फलसहस्सं चेत्यादि, फलसहस्रं च 'वृन्तवन्धानां' वृन्ताकप्रभृतीनां कलस-10 हस्रं च नालबद्वानां, 'तेऽवि सव्ये' इत्यादि, तेऽपि स भेदा अपिशव्दादन्येऽपि तथाविधाः 'हरितकायमेव समवतरन्ति' हरि- १३६ हतकायेऽन्तर्भवन्ति हरितकायोऽपि बनस्पती वनस्पतिरपि स्थावरेषु खाबरा अपि जीयेषु, तत एवं समनुगम्यमाना २ तथा जात्यन्त - अनुक्रम [१३२] ~282~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूल+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९८] वेन खत एवं सूचतः, तथा समनुप्राहामाणाः समनुपाह्यमाणाः परेण सूत्रत एव, नधा समनुप्रेक्ष्यमाणा: समनुप्रेक्ष्यमाणा अनु-181 प्रेक्षया अर्थालोचनरूपया, तथा समनुचिन्त्यमानाः समनुचिन्त्यमानास्तथा तथा तबयुक्तिभिः, एतयोरेव द्वयोः काययो; ममवतरन्ति, है। तद्यथा-वसकाये च स्थावरकाये च, 'एवामेव' इत्यादि, 'एवमंत्र' उक्तेनैव प्रकारेण 'सपुब्बावरेग' पूर्व चापरं च पूर्वापरं सह पू परं येन स सपूर्वीपर: उत्तप्रकारस्तेन, उक्तविषयपापियालोचनयेति भावार्थः, 'आजीवगदिलुतेणति आ-सकलज गभिव्याया। जीवानां यो दृष्टान्त:-परिच्छेदः स आजीवसृष्टान्तस्तेन सफल जीवदर्शनेनेत्यर्थः, आह च मूलटीकाकार:-"आजीवदान्तेल सकबालजीवनिदर्शनेने"ति, चतुरशीतिजातिकुलकोटियोनिप्रमुग्धशननहम्राणि भवन्तोत्याख्यातं मयाऽन्यैश्च अपभादिभिरिति, अत्र चतुरशी-1 सतिसालोपादानमुपलक्षण, तेनान्यान्यपि जातिकुलकोटियोनिझमुन्वशतमहन्माणि वेदितव्यानि, तथाहि-पक्षिा द्वादश जातिकुलकोटि योनिप्रमुखशतसहस्राणि भुजगपरिसपीणां नव उरगपरिरूपी इश चतुपदानां दश जलचराणानर्द्धप्रयोदशानि चतुरिन्द्रियाणां नव त्रीन्द्रियाणामधी द्वीन्द्रियाणां सम पुष्पजातीनां पोडश, एतेषां चकत्र मीलने विनवतिजातिकुल कोटियोनिम्मुखशसहस्राणि सानि भवन्ति, ततश्चतुरशीविसयोपादानमुपलक्षणमनसेयं, न चलन व्याख्यानं समनीषिकाविजृम्भित, यन उ चूना-'आजीवगदिईहोतेणं'ति अशेपजीवनिदर्शनेन चउरासौजातिकुलकोडि वोनिनमुन्दशत तहमा स्तम्प्रमुखा अन्वेऽपि विद्यन्ते इति ।। कुलकोटिविचारणे । विशेषाधिकाराद्विमानान्यष्यधिकृत्य विशेषप्रश्नमाह अस्थि मंत! विमाणाई सोन्धीशनिमोन्धियावसाई मोत्थियपभाई सोस्थियकताई मो१ टीकादभित्रायेगा अभियाई अभियावत्ताई इत्यादि पाटनभरः, दीप अनुक्रम [१३२] L- ARCCC 20 4%-5 ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रत ३ प्रतिपत्ती तिर्यग्योन्यधिक उद्देशः१ सूत्रांक [९९] सु०९९ 5 स्थियवनाई सोस्थियलेसाई सोस्थियज्झयाई सोस्थिसिंगाराई सोस्थिकूडाई सोस्थिसिहाई सोस्धुत्तरवर्डिसगाई?, हंता अस्थि । ते णं भंते! विमाणा केमहालना प०? गोयमा! जावतिए णं सरिए उदेति जावइएणं च मरिए अस्थमति एवतिया तिपणोवासंतराई अत्धेगलियस्स देवस्स एगे विक्रमे सिता, सेणं देवे ताए उकिट्ठाए तुरियाए जाव दिव्याए देवगतीए वीतीवयमाणे २ जाव एकाई वा दुयाई वा उक्कोसेणं छम्मासा वितीधराजा, अन्धेगतिया विमाणं वितीवाजा अत्यंगतिया विमाणं नो वीतीवरजा, एमहालता णं गोयमा! ते विमाणा पण्णता, अस्थि णं भंते ! विमाणाई अंचीणि अचिरावत्ताई तहेब जाव अचुत्तरवळिसगाति?, हंता अस्थि, ते विमाणा केमहालना पणत्ता?, गोयमा! एवं जहा सोत्थी(याई)णि णवरं एवतिघाई पंच उवासंतराई अत्धेगतियस्स देवस्स एगे विक्कमे सिता सेसं तं रेव ।। अस्थि णं भंते ! विमाणाई कामाई कामावत्ताई जाव कामुत्तरवडिंसपाई ?, हंता अस्थि, ते णं भंते! विमाणा केमहालया पण्णसा?, गोयमा! जहा सोथीणि वरं सत्त उवासंतराई विक्कमे सेसं तहेव ।। अस्थि णं भंते! विमाणाई विजयाई वेजयंताई जयंताई अपराजिताई?, हंता अस्थि नेणं भंते ! विपाणा के०?, गोयमा! ज़ाय दीप -2-%- अनुक्रम [१३३] R SPROCES-RRC -436- meenawimu १३७॥ १ मीस्थियाई इसाद टीकादभिप्रायेण पाठोऽत्र. - Jaticaria 2 ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९९] तिए सूरिए उदेह एवइयाई नव ओवासंतराई, सेसं तं चेव, नो चेव णं ते विमाणे थीईवजा - महालया णं विमाणा पण्णता, समणाउसो! ॥ (सू०९९) लिरिक्वजोणिय उसओ पनमो॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अतीति निपातो बहउँ 'सन्ति विद्यन्ते णमिति वाक्यालङ्कारे 'विमानानि विशेषतः पुण्यप्राणिभिर्मन्यन्ते-तगतसौख्यानुभवनेनानुभूयन्ते इति विमानानि, तान्येव नामपाहमाह-अचीपि-अचिर्नामानि, एवमचिरावानि अधिःप्रमाणि अर्चि:कान्तानि अचिर्वर्णानि अचिर्लेश्यानि अचिर्वजानि अर्चिःशृङ्गा(राणि) अर्चिःस(शिष्टानि अचि:कूदानि अचित्तरावतंसकानि | सर्वस झबया एकादश नामानि, भगवानाह-'हता अस्थि हति प्रत्यवधारणे अस्तीति निपातो पहथें सन्त्येवैतानि विमानानीति भावः । 'केमहालया णमित्यादि, किंमहान्ति कियत्प्रमाणमहत्त्वानि णमिति पूर्ववत् भदन्त ! तानि विमानानि प्रजमानि?, भगवानाह-गौतम! 'जाव य उएइ सूरों' इत्यादि, जम्बुद्वीपे सर्वोत्कृष्टे दिवसे सर्वाभ्यन्तरे मण्डले बर्तमानः सूर्यो यावति क्षेत्रे उदेति यावति च क्षेत्रे सूयोऽस्तमुपयाति, एतावन्ति त्रीणि अवकाशान्तराणि, उदयास्तमितप्रमितमधिकृतं क्षेत्रं त्रिगुणमित्यर्थः, अस्त्येतदू-बुज्या परिभावनीयमेतद् ययैकस्य विवक्षितस्य देवस्यैको बिक्रमः स्यान् , तत्र जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्ट दिवसे सूर्य उदेति सप्तचत्वारिंशसहस्राणि द्वे शते त्रिपाट्यधिके योजनानामेकस्य च योजनस्सैकविंशतिः पष्टिभागा एतावति क्षेत्रे, उक्तच-सीयालीससहस्सा, दोणि सया जोषणाण तेवढी । इगवीस सविभागा ककडमाईमि पेच्छ नरा ॥ १॥ ४७२६३, एतावत्येव क्षेत्रे तस्मिन् सर्वोस्कृष्टे दिवसेऽस्तमुपयाति, तत्त एतरक्षेत्रं द्विगुणीकृतमुदयासापान्तरालप्रमाणं भवति, तचैतावत्-चतुर्नवतिः सहस्राणि पञ्च शतानि पड्डिंशत्यधिकानि योजनानामकस्य च योजनस्य [८] द्वाचत्वारिंशत्यष्टिभागा: ९४५२६४। एतावधिगुणीकृतं यथोक्तविमानपरिमाणक दीप अनुक्रम [१३३] ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत साउद्देशः १ सूत्रांक [९९] दीप श्रीजीवा- रणाय देवस्यैको विक्रमः परिकल्प्यते, स चैवंप्रमाण:-दे लक्ष व्यशीतिः सहस्राणि पश्च शतानि अशीत्यधिकानि योजनानाम् एकस्य प्रतिपत्ती च योजनस्य पष्टिभागाः पट् २८३५८०६ इति ॥ से पण देय इत्यादि, 'सः'विवक्षितो देवः 'तया सकलदेवजनप्रसिद्धया उत्क- तियेग्योमलयगि-1 टया त्वरितया चपलया चण्डया शीवया उद्धतथा जवनया छकया दिव्यया देवगया, अमीपां पदानाभर्थः प्राग्वद्भावनीयः, व्यतित्र-5 न्यधिक रीयावृत्तिः जन् व्यतिग्रजन जघन्यत एकाहं वा वह वा यावदुत्कर्पत: पण्मासान यावत्' 'व्यतिव्रजेत् गच्छेन, तनैवं गमने अ[प्रन्याममा ॥ १३८॥ ४००० ] स्याद् यथैकं किञ्चन विमानं पूर्वोक्तानां विमानानां मध्ये 'व्यतिनजेत्' अतिक्रामे , तख पारं लभेतेति भाषः, सवा5-1+सू० ९९ स्त्येतद् यथैकर्क विमानं न व्यतित्रजेन् , न तस्स पारं लभेत. उभयत्रापि जातापेकवचनं, ततोऽयं भावार्थ:-उक्तप्रमाणेनापि क्रमेण यथोक्तरूपयाऽपि च गत्या पण्मासानपि यावधिकतो देवो गति तथापि केपाश्चिद्विमानानां पारं लभते केपाश्चित्पारं न लभते इति । एतावन्महान्ति तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ॥ 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त विमानानि स्वस्ति कानि स्वस्तिकावर्त्तानि स्वस्तिवाप्रभाणि स्वस्तिककान्तानि स्वस्तिकवणानि स्वस्तिकले श्यानि स्वस्तिकध्वजानि स्वस्तिकशृङ्गाराणि है। मास्वस्तिकशिष्टानि स्वस्तिककूटानि खतिकोत्तरायतंसकानि, 'हता अस्थि' इत्यादि, समस्त प्राचिन् , नबरमत्र 'एवझ्याई पंच ओवा संतराई' इति कण्ठ्यं, उदयास्तापान्तरालक्षेत्रं पञ्चगुणं क्रियत इति भावः ॥'अस्थि णं भंते ! इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विमानानि कामानि कामावर्तीनि कामप्रभाणि कामकान्तानि कामवर्णानि कामलेश्यानि कामवजानि कामशाराणि कामशिष्टानि कामकूटानि 8 कामोत्तरावतंसकानि', 'हता अस्थि' इत्यादि सर्व पूर्ववन नवरमबोदयास्तापान्तरालक्षेत्रं सप्तगुणं कर्त्तव्यं, शेष तथैव ।। 'अस्थि णं ॥१३८ ॥ भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विजयजयन्तजयन्तापराजितानि विमानानि ?, 'हंता अत्थी'त्यादि प्राग्वत् , नपरमत्र 'एवइयाई अनुक्रम [१३३] ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूल+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूलं [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९९] नव ओवासंतराई' इति वक्तव्यं शेष तथैव, उक्तव-जावइ उदेइ सूरो जाबइ सो अस्थमेइ अवरेणं । तियपणसत्तनवगुणं का पत्तेय पत्तेयं ॥ १॥ सीयालीस सहस्सा दो य सवा जोयणाण तेवढा । इगवीस सद्विभागा कक्सडमाईमि पेच्छ नरा ॥ २॥ एयं* दुगुणं काउं गुणिजय तिपणसत्तमाईहिं । आगयफलं च ज त कमपरिमाणं वियाणाहि ॥ ३ ॥ चत्तारिवि सकमेहिं चंडादिगईहिं 5 जंति छम्मासं । तहवि य न जंति पारं केसिंचि सुरा बिमाणाणं ॥४॥" अस्यां तृतीयप्रतिपत्तौ तिर्यग्योन्यधिकारे प्रथमोदेशकः ।। उक्तः प्रथमोद्देशकः, इदानी द्वितीयस्थात्रसरः, तत्रेदमादिसूत्रम् कतिविहा णं भंते ! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता?, गोषमा! छब्बिहा पण्णता, तंजहा-पुढविकाइया जाय तसकाइया।से किं तं पुडविकाइया?, पुढविकाइया दुविहा पणत्ता, तंजहामुहुमपुढविकाइया बादरपुतविकाइया च । से किं तं खुहमपुढविकाइया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजसगा य, सेत्तं सुहमपुढविकाइया । से किं तं वादरपुढविक्काइया?,२ दुविहा पपणत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजसगा य, एवं जहा पण्णवणापदे, सहा सत्तविधा पण्णत्ता, खरा अणेगविहा पन्नत्ता, जाव असंखेजा, सेत्तं बादर पुढविकाइया । सेत्तं पुढविकाइया । एवं चेव जहा पण्णवणापदे तहेव निरवसेसं भाणितव्वं जाव वणप्फतिकाइया, एवं जाव जत्थेको तत्थ सिता संखेजा सिय असंखेजा सिता अणंता, सेत्तं बादरवणप्फतिकाइया, से तं वणस्सइकाइया । से कितं तसकाइया?, २ च उब्विहा पण्णसा, जहा-बेइंदिया तेइंदिया च - दीप - - अनुक्रम [१३३] जी०१०२४ अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ तिर्यञ्च-उद्देशक: -१ परिसमाप्त: अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ तिर्यञ्च-उद्देशक: -२ आरब्ध: ... संसारिजीवानाम् षड्-विधत्वं आश्रित भेदा:, पृथ्विकायिक-जीव-आश्रित विविध-विषयाधिकारः ~287 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम - [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - (१४) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5 प्रतिपत्ती तिर्यगु प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१३९॥ देशः२ सू.१०१ सूत्रांक [१००] उरिदिया पंचेंदिया। से किं तं बेइंदिया?, २ अणेगविधा पपणत्ता, एवं जं चेय पण्णवणापदे तं चेय निरवसेस भाणितव्यं जाव सब्वट्ठसिद्धगदेवा, सेनं अणुत्तरोववाश्या, से तं देवा, से तं पंचदिया, सेतं तसकाइया ।। (सू०१००) 'कइविहा ण मित्यावि, कतिविधा भदन्त ! संसारसमापनका जीवाः प्रजाता:, भगवानाह-गौतम! पविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा- पृथिवीकायिका अपकायिका याव असकायिकाः । अथ के ते पृथिवीकायिकाः, इत्यादि प्रज्ञापनागतं प्रथम प्रज्ञापनापदं निरवशेष वक्तव्यं यावदन्तिम 'से तं देवा' इति पदम् ।। सम्प्रति विशेषाभिधानाय भूयोऽपि पुथिवीकायविपर्य सूत्रमाह कनिविधा णं भंते ! पुढवी पण्णत्ता?, गोयमा! छविहा पुढवी पण्णत्ता, तंजहा-सण्हापुढवी सुद्ध पुढवी वालुयापुतवी मणोसिलापु० सकरापु० खरपुढबी ॥ सण्हापुढवीणं भंते! केवलियं कालं ठिती पणता?, गोयमा! जह० अंतोमु उक्कोसेणं एग वाससहस्सं । सुद्धपुढबीए पुच्छा, गोयमा! जह० अंतोमु० उको बारस बासमहस्साई । वालुयापुढवीपुच्छा, गोयमा ! जह० अंतोमु० उको चोदम बाससहस्साई । मणोसिलापुढवीणं पुच्छा, गोयमा! जह अंतोमु० उको सोलस वाससहस्साई । सक्करापुढवीए पुच्छा, गोयमा! जह अंतोमु० उको अट्ठारस वाससहस्साई । खरपुढविपुच्छा, गोयमा! जह. अंतोमु० 'उको बावीस वाससहस्माई ॥ नेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जहा दम वामसहस्साई दीप अनुक्रम [१३४] -- 755-23-45 १३९॥ R- ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम | [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) (१४) __ प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: (तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०१-१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 444*-* प्रत सूत्रांक [१०११०२] उको तेतीसं सागरोवमाई ठिती, एयं सव्वं भाणियव्वं जाव सब्बट्टसिद्धदेवत्ति ॥ जीवे णं भंते ! जीवेत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! सव्वई, पुढविकाइए णं भंते ! पुढविकाइएत्ति कालतो केवचिरं होति?, गोयमा! सब्बर्दू, एवं जाव तसकाइए ॥ (सू०१०१)। पटुप्पन्नपुढविकाइया णं भंते! केवतिकालस्स णिल्लेवा सिता?, गोयमा! जहण्णपदे असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं उक्कोसपए असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं, जहन्नपदातो उक्कोसपए असंखेजगुणा, एवं जाव पटुप्पन्नवाउकाइया। पडुप्पन्नवणप्फइकाइयाणं भंते! केवतिकालस्स निहल्लेवा सिता?, गोयमा! पटुप्पन्नवण० जहण्णपदे अपदा उकोसपदे अपदा, पटुप्पन्नवणप्फतिकाइयाणं णत्थि निल्लेवणा || पडप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा, जहण्णपदे सागरोवमसतपुहत्तस्स उकोसपदे सागरोवमसतपुहुत्तस्स, जहण्णपदा उक्कोसपदे विसेसाहिया ॥ (मू०१०२) 'काबिहा ण'मित्यादि, कतिविधा णमिति पूर्ववन् , भदन्त ! पृथिवी प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम पडिया प्रज्ञाप्ता, तथथा-लक्ष्ण-| | पृथिवी मृती चूर्णितलोष्टकल्पा, 'शुद्धपृथिवी' पर्वतादिमध्ये, मनःशिला-लोकप्रतीता, वालुका-सिकतारूपा, शर्करा-मुरुण्डपृथिवी, खरापृथिवी' पापाणादिरूपा । अधुना एतासाने स्थित्तिनिरूपणार्थमाह-'सण्हपुढवीकाइयाण मित्यादि, सक्ष्णपृथिवीकाविकानां भदन्त ! कियन्तं कालं खिति: प्रज्ञता ?, भगवानाह-गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत एक वर्षसहस्रं । एवमनेनाभिलापेन शेषाणामपि पृथिवीनामनया गाथया उत्कृष्ठमनुगन्तव्यं, तामेव गाथामाह-'साहा य'इत्यादिः (सहा य सुद्धवालुअ मणोसिला दीप अनुक्रम [१३५ १३६] ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०१-१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०११०२]] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- सकरा व खरपुढवी । इगवारचोइससोलढारनावीससमसहसा ॥ १ ॥) अक्षणधिव्या एक वर्षसहसमुत्कर्षतः स्थितिः, शुद्धप- प्रतिपत्ती जीवाभिमाथिव्या द्वादश वर्षसहस्राणि, बालुकापृथिव्याश्चतुर्दश सहस्राणि, मनःशिलापृथिव्याः पोडश वर्षसहस्राणि, शर्करापृथिव्या | तिर्यगुमलयगि-16 अष्टादश वर्षसहस्राणि, खरपृथिव्या द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, सर्वासामपि चामीषां पृथिवीनी जघन्येन स्थितिरन्तर्मुहूर्त वक्तव्या देशः२ रीयावृत्तिः सम्प्रति स्थिति निरूपणाप्रस्तावान्नैरयिकादीनां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण स्थिति निरूपयितुकाम आह-नरइयाणं भंते!' इत्यादि सू०१०३ 8 नैरविकाणां भदन्त ! कियन्तं काले स्थिति: प्रज्ञता, इत्येवं प्रज्ञापनागतस्थितिपदानुसारेण चतुर्विंशविदण्डककमेण तावद्वक्तव्यं ॥१४॥ दायावत्सर्वार्थसिद्धविमानदेवानां स्थितिनिरूपणा, इह तु अन्धगौरवभयान्न लिख्यते । तदेवं भवस्थितिनिरूपणा कृता, सम्प्रति काय स्थितिनिरूपणार्थमाह-'जीवे गं भंते! इत्यादि, अथ कायस्थितिरिति कः शथ्यार्थः ?, उच्यते, कायो नाम जीवस्य विवक्षितः सामान्यरूपो विशेषरूपो वा पर्यायविक्षेपस्तस्मिन् स्थिति: कायस्थितिः, किमुक्तं भवति-यस्य वस्तुनो येन पर्यायेण-जीवत्वलक्षणेन पु|थिवीकायादिवलक्षणेन वाऽऽदिश्यते व्यवच्छेवेन यद्भवनं सा काय स्थितिः, तत्र जीव इति "जीव प्राणधारणे" जीवति-प्राणान् धारयतीति जीवः, प्राणाश द्विधा-द्रव्यप्राणा भावप्राणाच, तत्र द्रव्यप्राणा आयु:प्रभुतयः, उक्तथा-पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिःश्वासमधान्यदायुः । प्राणा दौते भगवद्विरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥" भावप्राणा ज्ञानादयः यैर्मुक्तोऽपि जीवतीति व्यपदिश्यते, उक्तञ्च-"ज्ञानादयस्तु भावप्राणा मुक्तोऽपि जीवति स तेही"ति, इह ए विशेषानुपादानादुभयेषामपि प्रहणं णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! जीव इति-जीवनपर्यायविशिष्टः कालत:-कालमधिकृत्य कियविरं भवति?, भगवानाह-सद्धिां, M ॥१४०॥ संसार्थवस्थायां द्रव्यभावप्राणानधिकृत्य मुक्त्यवस्थायां भावप्राणानधिकृत्य सर्वत्रापि जीवनस्य विद्यमानत्वात् , अथवा जीव इति न एकः [१३५ १३६] ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०१-१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०११०२] प्रतिनियतो जीवो विवक्ष्यते किन्तु जीवसामान्य, ततः प्रागधारणलक्षणजीवनाभ्युपगमेऽपि न कश्चिदोषः, तथाहि-'जीवेणं भंते!' इत्यादि, जीयो गमिति पूर्ववद् भदन्त ! जीव इति-जीवन्निति प्राणान् धारयन्नित्यर्थः कालत: कियचिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम : सर्वाद्धां, जीवसामान्यस्यानाद्यनन्तत्वान् , न चैतद् व्याख्यानं स्वमनीषिकाविजृम्भितं, यत उक्तं मूलटीकायां-'जीवे णं भंते इत्यादि, एषा ओघकायस्थितिः सामान्यजीवापेक्षिणीति सर्वाद्धया निर्वचनम्" । एवं च पृथिवीकायादिष्वप्यदोषः, एतत्सामान्यस्य स दैव भावादिति । एवं गतीन्द्रियकायादिद्वारैर्यथा प्रज्ञापनायामष्टादशे कायस्थितिनामके पदे कायस्थितिरुक्ता तथाऽत्र सर्व निरवशेष वक्तव्यं यथा उपरि तत्पदगतं न किमपि तिष्ठति, गतीन्द्रियकायादिद्वारसाहके चेमे गाथे-"गइ दिए य काए 'जोगे वेए| कसाय लेसा य । सम्मत्तनाणदसणसंजयध्वओगाहारे ॥ १॥ भासगपरित्तपजत्तसुहुम सप्णी भवऽस्थि चरिमे य । एएसि तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वा ॥ २॥" सूत्रपाठस्तु लेशतो दयते- नेरइया णं भंते ! परश्यत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । तिरिक्खजोगिए णं भते! तिरिक्खजोणियत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोबमा ! जहन्नेणं अंतोमुहूत्तमुकोसेणमणतं कालं अणता उस्तप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अणंता लोगा असंखेजा पुरगलप रियट्टा आवलियाए असंखेजहभागो" इत्यादि । सम्प्रति सामान्यपृथिवीकायादिगतकायस्थितिनिरूपणार्थमाह-'पुढविकाइए णं दाभंते ! इत्यादि, पृथिवीकायिको भदन्त !, सामान्यरूपोऽत एव जातावेकवचनं न व्यत्येकले, पृथिवीकाय इति कालत: कियच्चिरं । भवति ?, भगवानाह-गौतम! सर्वाद्धा, पुथिवीकायसामान्यस्य सर्वदेव भावात् । एवमप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायसूत्राण्यपि भावनी-IN यानि ।। सम्प्रति विवक्षिते काले जघन्यपदे उत्कृष्टपदे वा कियन्तोऽभिनवा उत्पद्यमानाः पृथिवीकायिकादयः इत्येतन्निरूपणार्थमाह दीप अनुक्रम RECCAR [१३५ १३६] ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०१-१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०११०२] श्रीजीवा- -'पटुप्पन्नपुढविकाइया णं भंते ! केवइकालस्स निलेवा सिया' इत्यादि, प्रत्युत्पन्नपृथिवीकायिका:-तत्कालमुत्पद्यमानाः पृथि- प्रतिपत्तो जीवाभि०वीकायिका भदन्त ! 'केवइकालस्स'त्ति तृतीयाथें षष्ठी कियता कालेन निलेपाः स्युः १, प्रतिसमयमेकैकापहारेणापहियमाणाः कियता तिर्यगुमलयगि- कालेन सर्व एव निष्ठामुपयान्तीति भावः, भगवानाह-गौतम ! जघन्यपदे यदा सर्वस्तोका भवन्ति तदेत्यर्थः, असङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्य-|| देशः२ रीयावृत्तिःशवसर्पिणीभिरुत्कृष्टपदेऽपि यदा सर्वबहवो भवन्ति तदाऽपीति भावः असङ्ख्येवाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिर्नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदि- सू० १०३ नोऽसहयगुणाः । एवमप्लेजोवायुसूत्राण्यपि भावनीयानि ।। वनस्पतिसूत्रमाह-'पटुप्पण्णे'त्यादि, प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिका भदन्त ! ॥१४१॥ कियता कालेन निलेपाः स्युः १, भगवानाह-गौतम प्रत्युत्पन्नबनस्पतिकायिका जघन्यपदेऽपदा-इयता कालेनापड़ियन्ते इत्येतत्पदविरहिता अनन्तानन्तलान् , उत्कृष्टपदेऽप्यपदा, अनन्तानन्ततया निलेपनाइसम्भवान् , तथा चाह--'पडुप्पन्नवणस्सइकाइयाणं नस्थि निलेवणा' इति सुगम, नवरमनन्तानन्तत्यादिति हेतुपदं स्वयमभ्यूखम् ।। 'पडप्पण्णतसकाइया णमित्यादि, प्रत्युत्पन्ननसकायिका। भदन्त ! कियता कालेन निर्लेपाः स्युः, भगवानाह-गौतम! जयन्यपदे सागरोपमशतपथक्त्वस्य--तृतीयायें पष्ठी प्राकृतत्वात् साग रोपमशतपथक्वेन, उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतपृथक्त्वेन नवरं जघन्यपदादुत्कृष्ठपदं विशेषाधिकमवसेयं । इवं च सर्वमुच्यमानं विशुहाबलेश्यसत्यमभि प्राप्तं यथाऽवस्थिततया सम्यगवभासते नान्यत्यविशुद्धविशुद्धलेश्यविषयं किञ्चिद्विवक्षुराह अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासह ?, गोयमा! नो इण? समढे । अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणएण ॥१४१॥ बिसुद्धलेस्मं देवं देविं अणगारं जाणइ पामह?, गोयमा! नो इणढे समढे । अविसुद्धलेस्से अण दीप अनुक्रम [१३५ USACCORDCROCOCCAR १३६] JERE ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३/१ (मूलं वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 2-5% प्रत सूत्रांक [१०३] - दीप अनुक्रम [१३७] गारे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति?, गोथमा! नो इण? समटे । अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहतेणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, नो तिण? समहे । अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहयासमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति', नो तिणट्टे समढे । अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहतासमोहतेणं अप्पाणणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, नो तिगटे समझे। विसद्धलेस्से णे भंते ! अणगारे असमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, हंता जाणति पासति जहा अविसुद्धलेस्सेणं आलावगा एवं विसुद्धलेस्सेणविछ आलावगा भाणितव्या, जाव विसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहतासमोहतेणं अप्पाणेणं विसद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति?, हंता जाणति पासति ।। (सू०१०३) 'अविसुद्धलेस्से णमित्यादि, 'अविसुद्धलेश्यः' कृष्णादिलेश्यो भदन्त ! 'अनगार' न विद्यते अगार-गृहं यस्यासौ अनगार:साधु: 'असमवहतः' बेदनाविसमुद्घातरहितः 'समवहतः' वेदनादिसमुद्घाने गतः । एबमिमे द्वे सूत्रे असमवहतसमवहताभ्यामामभ्यामविशुद्धलेश्यपरविषये प्रतिपादिते एवं समवहतासमवहताभ्यामात्मभ्यो विशुद्धलेश्यपरविषये द्वे सूत्रे भावयितव्ये । तथाऽन्ये |अविसुद्धलेश्यविशुद्धलेश्यपरविषये द्वे सूत्रे समवहतासमवहतेनात्मनेति पदेन, समवहतासमवहतो नाम वेदनादिसमुद्घातक्रियाविष्टो न तु परिपूर्ण समवहतो नाप्यसमबह्तः सर्वथा । तदेवमविशुद्धलेश्ये हातरि साधौ पट सूत्राणि प्रवृत्तानि एवमेव विशुद्धलेश्वेऽपि ~293~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०३] दीप अनुक्रम [१३७] श्रीजीवा- साधौ ज्ञातरि षट् सूत्राणि भावनीयानि, नवरं सर्वत्र जानाति पश्यतीति वक्तव्य, विशुद्धलेश्याकतवा यथाऽवस्थितज्ञानदर्शनभावात् , प्रतिपत्ती जीवाभि आह च मूलटीकाकार:- शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेश्यो जानाती"ति, समुद्घातोऽपि च तस्याप्रतिबन्धक एव, नद्रा मलयगि- च तस्य समुद्घातोऽत्यन्ताशोभनो भवति, उक्तं च मूलटीकायाम्-“समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिबन्धक एवें"त्यादीति ॥ तदेवं यतोऽ- देशः२ रीयावृत्तिामा विशुद्धलेश्यो न जानाति विशुद्धलेश्यो जानाति तत: सम्यग्मिथ्याक्रिययोरेकदा निषेधमभिधित्सुराह सू०१०४ अण्णउत्थिया शंभंते! एवमाइक्खंति एवं भासेन्ति एवं पण्णवेंति एवं परूवेति-एवं खलु एगे जीवे पगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तंजहा-सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च. समयं संमत्तकिरियं पकरेति तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ, समत्तकिरियापकरणताए मिच्छत्तकिरियं पकरेति मित्तकिरियापकरणताए संमत्तकिरियं पकरेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरितातो पकरेति, तंजहा-संमत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च, से कहमेतं भंते! एवं?, गोयमा! जन्नं ते अन्नउस्थिया एबमाइक्वंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवैति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ परेंति, नहेव जाव सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च, जे ते एकमाईसुतं णं मिच्छा, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाच परवेमि-एवं खलु पगे जीचे एगणं समएणं ॥१४२॥ एग किरियं पकरेति, तंजहा-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा, जं समय संमत्तकिरियं ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१३८-१३९] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • उद्देशक: [ ( तिर्यञ्च ) -२], प्रतिपत्ति: [३], मूलं [१०४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Eben in पकरेति णो तं समयं मिच्छकिरियं पकरेति तं चैव जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति नो तं समयं संमत करिये पकरेति, संमत्त किरियाप करणयाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेति मिच्छतकिरियापकरणयाए णो संमत्तकिरियं पकरेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरिय पकरेति, तंजा - सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा ॥ (मृ० १०४ ) से तं तिरिक्म्वजोणियउद्देसओ बीओ समन्तो ॥ 'अन्नउत्थिया णं भंते!' इत्यादि, 'अन्ययूथिकाः' अन्यतीर्थिका भदन्त ! चरकादय एवमाचक्षते सामान्येन एवं भाषन्ते' स्वशिष्यान् श्रवणं प्रत्यभिमुखानवबुध्य विस्तरेण व्यक्तं कथयन्ति एवं 'प्रज्ञापयन्ति' प्रकर्षेण ज्ञापयन्ति यथा स्वाह्मनि व्यवस्थितं ज्ञानं तथा परेष्वप्यापादयन्तीति, एवं 'प्ररूपयन्ति' तत्वचिन्तायामसंदिग्धमेतदिति निरूपयन्ति, इह खल्वेको जीव एकेन समयेन युगपहे क्रिये प्रकरोति, तद्यथा - 'सम्यक्त्वक्रियां च सुन्दराभ्यवसायासिकां 'मिथ्यात्यक्रिया च' असुन्दराध्यवसायासिकां 'जं समय'मिति प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे द्वितीया यस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति तं समय' मिति तस्मिन् समये मिध्यात्वक्रियां प्रकरोति, यस्मिन् समये मिध्यालकियां प्रकरोति तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, अन्योऽन्यसंवलितोभयनियमप्रदर्शनार्थमाह-सम्यक्त्वक्रियाप्रकरणेन मिध्यात्वक्रियां प्रकरोति मिध्यात्वक्रियाप्रकरणेन सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, तदुभयकरणस्वभावस्य तत्तत्क्रियाकरणासर्वाअना प्रवृत्तेः, अन्यथा क्रियाऽयोगादिति, एवं खल्वि'त्यादि निगमनं प्रतीतार्थं, 'से कहमेयं भंते!' इयादि, तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ?, तदेव गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाह गौतम ! यत् णमिति वाक्यालङ्कारे 'अन्ययूथिकाः' अन्यतीर्थिका एवमाचक्षते For P&Pase City ~ 295~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१३८ श्रीजीवा- इत्यादि प्रावत् यावत्तत् मिथ्या ते एषमाख्यातवन्तः, अहं पुनगाँतम' एवमाचले एवं भाषे एवं प्रज्ञापयामि एवं प्ररूपयामि, इह ख- 1३ प्रतिपत्ती जीवाभिल्वे को जीव एकेन समयेनैकां क्रियां प्रकरोति, तद्यथा-सम्यक्त्वक्रियां वा मिथ्यात्वक्रियां वा, अत एवं यस्मिन् समये सम्यक्त्रक्रियां |तियेगुमलयाग- फरोति न तस्मिन समये मिथ्यालक्रिया प्रकरोति यस्मिन समये मिथ्यात्यक्रिया प्रकरोति न तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रिया प्रकरोति, देशः२ रायावृत्तिः परस्परवैविक्त्यनियमप्रदर्शनार्थमाह-सम्यक्त्व क्रियाप्रकरणेन न मिथ्यात्वनियां प्रकरोति मिथ्यात्वक्रियाप्रकरणेन ने सम्यक्तक्रिया सू०१०५. शाप्रकरोति, सम्यक्तक्रियामियावक्रिययोः परस्परपरिहारावस्थानात्मकतया जीवस्य तदुभयकरणखभावलायोगात्, अन्यथा सर्वथा I ॥१४३॥ १०६ | मोक्षाभावप्रसक्तः, कदाचिदपि मिथ्यात्वानिवर्तनात् ।। अस्पो तुतीयप्रतिपत्तौ तिर्यग्योन्यधिकारे द्वितीयोदेशकः समाप्तः ।। व्याख्यातस्तियग्योनिजाधिकारः, सम्प्रति मनुष्याधिकारख्यास्यायसरः, तत्रेदमादिसूत्रम् से किं तं मणुस्सा?, मणुस्सा दुविहा पपणत्ता, जहा-समुच्छिममणुस्सा य गम्भवतियमगुस्सा य ।। (सू०१०५)। से किं नं समुच्छिममणुस्सा, २ एगागारा पण्णत्ता ।। कहिणं भंते ! समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति?, गोयमा! अंतोमणुस्सम्वेत्ते जहा पण्णवणाए जाव से संमुच्छिममणुस्सा ।। (सू०१०६) 'से किं तमित्यादि, अथ के ते मनुष्या:?, सूरिराह-मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्रास्तद्यथा-संमूछिममनुष्याश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुप्याश्च चशब्दौ द्वयानामपि मनुष्यत्व जातितुल्यतासूचकौ ।। 'से किं तमित्यादि, अथ के ते संमूछिममनुष्या:?, सूरिराह-संमू-4 छिममनच्या 'एकाकाराः' एकस्वरूपाः प्रज्ञप्ताः । अथ क तेषां सम्भवः ? इति जिज्ञासिौतमः पृच्छति-'कहि णं भंते" MARCH -१३९] अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ तिर्यञ्च-उद्देशक: -२ परिसमाप्त: अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ मनुष्य-उद्देशक: आरब्ध: ... मनुष्य-आश्रित विविध विषयाधिकार: ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१०५-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५-१०६] इत्यादि, क भदन्त ! संमूच्छिममनुष्याः संमूर्च्छन्ति ?, भगवानाह-अन्तर्मनुष्य क्षेत्रे इत्यादि सूत्रं प्राग्वद्भावनीयं यावत् अंतोमुहुत्तद्धाउया चेत्र कालं पकरेंति, उपसंहारमाह-'सेत्तं समुच्छिममणुस्सा' । सम्प्रति गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यप्रतिपादनार्थमाह से किं तं गम्भवतियमणुस्सा?, २ तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा ।। (मु०१०७) से किं तं अंतरदीवगा?, २ अट्ठावीसतिविधा पण्णत्ता, तंजहा-एगुरूया आभासिता साणिया णांगोली हपकण्णगा० आयंसमुहा० आसमुहा० आसकण्णा उक्कामुहा० घणदंता जाव सुद्धदंता ॥ (सू०१०८) 'से किं तमित्यादि, अथ के ते गर्भव्युत्कान्तिकमनुष्या:?, सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यात्रिविधा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-कर्मभूमका अकर्मभूमका आन्तरद्वीपकाः, तत्र 'अत्यनानुपूळपीति न्यायप्रदर्शनार्थमान्तरद्वीपकप्रतिपादनार्थमाह-'से किं तमित्यादि, अथ के ते आन्तरद्वीपका: ?, लवणसमुद्रमध्ये अन्तरे अन्तरे द्वीपा अन्तरद्वीपा अन्तरद्वीपेषु भवा आन्तरद्वीपका:, 'राष्ट्रभ्यः' इपि बुञ् , सूरिराह-आन्तरद्वीपका अष्टाविंशतिविधा: प्रज्ञप्ताः, तानेव तयथेत्यादिना नामयाहमुपदर्शयति-एकोरुकाः १ आभाषिका: २ वैपाणिका: ३ नाङ्गोलिकाः ४ हयकर्णाः ५ गजकर्णाः ६ गोकर्णाः ७ शप्कुलीकर्णाः ८ आदर्शमुखा: ९ मेण्ड मुखाः १० अयोमुखा: ११ | गोमुखा: १२ अश्वमुखाः १३ हस्तिमुखा: १४ सिंहमुखाः १५ व्याघ्रमुखा: १६ अश्वकर्गाः १७ सिंहकर्णाः १८ अकर्णा: १५ कर्णप्रावरणा: २० उल्कामुखाः २१ मेघमुखाः २२ विद्युहन्ता: २३ विद्युजिहाः २४ घनदन्ताः २५ लष्ठदन्ताः २६ गूढदन्ताः २७ दीप अनुक्रम [१४०-१४१] अन्तविपानाम् मनुष्याणाम् २८-भेदा: एवं अन्तविपानाम् वर्णनं ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१०७-१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७ -१०८] ***4 दीप अनुक्रम [१४२-१४३] श्रीजीवा- शुद्धदन्ताः २८, इह एकोरुकादिनामानो द्वीपाः परं 'तास्थ्यानद्वषपदेश' इति न्यायान्मनु या अप्येकोरुकादय उक्ता यथा पचाल-1४३ प्रतिपत्तों जीवाभि०1शनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति ॥ तथा चैकोरुकमनुष्याणामेकोषकद्वीपं पिपच्छिपुराह | मनुष्योमलयगि- कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोरूमणुस्साणं एगोरूदीवे णामं दीव पण्णत्ते?, गोयमा! जबुंडीवे रीयावृत्तिः २ मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवतस्स वासधरपब्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिम॥१४॥ ताओ लवणसमुई तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं ए. गुरुयदीवे णाम दीचे पण्णत्ते तिन्नि जोयणसयाई आयामविखंभेणं णव एकूणपण्णजोयणसए किंचि बिसेसेण परिक्खेवणं एगाए पउमवरवेदियाए एगणं च वणसंडेणं सब्बओ समंता संपरिक्खित्ते । साण पत्रमवरवेदिया अट्ट जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं पगूरुयदीवं समता परिवग्वेवेणं पण्णत्ता। तीसे णं पउमवरवेदियाए अयमेयारवे वपणाचासे पण्णते, तंजहा-बहरामया निम्मा एवं वेतियावण्णओ जहा रायपसेणईए नहा भाणियन्यो ।(सू०१०१) 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भवन्त ! दाक्षिणात्यानां इह एकोरुकादयो मनुष्याः शिखरिण्यपि पर्वते विद्यन्ते ते च मेरोरुत्तरदिवर्तिन इति तस्यवच्छेदार्थ दाक्षिणात्यानामित्युक्तं, एकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे , मन्दरपर्वतस्यान्यनासम्भवान् अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे इति प्रतिपत्तव्यं, 'मन्दरपर्वतस्य' मेरोईक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमव-| ।। १४४॥ पंधरपर्वतस्य, क्षुल्लमहणं महाहिमवद्वधरपर्वतस्य व्यवच्छेदार्थ, पूर्वस्मात् पूर्वरुपाचरमान्ताद् उत्तरपूर्वेण-उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवण-* -NEMA M अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CESS [१०७ -१०८] 1% X- RAGS समुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगाह्याप्रान्तरे झुहिमवदंताया उपरि दाक्षिणात्यानामेकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, स च त्रीणि योजनशतान्यायामविष्कम्भेण समाहारो द्वन्द्वः आयामेन विष्कम्भेन चेयर्थः, नब 'एकोनपञ्चाशानि' एकोनपञ्चाशदभिकानि योजनशतानि ९५९ परिक्षेपेण, परिमाणगणितभावना--"विक्वंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरो होइ" इति करणवशात्स्वयं कर्त्तव्या सुगमत्वात् ।। साणं पउमवरवेतिया एगेणं वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता । से णं वणसंडे देसणाई दो जोयणाई चकवालबिक्खंभेणं वेतियासमेणं परिक्वेवेणं पण्णत्ते, से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे, एवं जहा रायपसेणइयवणसंडवणओ तहेव निरवसेसं भाणियय्वं, तणाण य वाणगंधफासो सही तणाणं वावीओ उप्पायपव्यया पुढविसिलापट्टगा य भाणितब्वा जाव तत्थ ण बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंनि जाव विहरति ।। (मू०११०) 'से ण'मित्यादि, स एकोरुकनामा द्वीप एकया पद्मवरवैदिकया एकेन बनपण्डेन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन परिक्षिप्तः, तत्र पद्मवरवेदिकावर्णको बनपण्डवर्णकश्च वक्ष्यमाण जम्बूद्वीपजगत्युपरिपडाबरवेदिकावनपण्डवर्णकबद् भावनीयः, स च | ताबद् यावश्वरमं 'आसयंतीति पदम् ।। गगोरुयदीवस्स णं दीवस्स अंतो बहसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुकवरेति वा, एवं सयणिजे भाणिलब्बे जाव युद्धविसिलापट्टगंसि तत्थ णं बहवे पगुरुयदीवया दीप अनुक्रम [१४२-१४३] 68 जी०च०२५ ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती मनुष्या61 धि उद्देशः१ ४०१११ ॥१४५॥ दीप -RRC-02 अनुक्रम [१४५] मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति जाब विहरति, एगुरूयदीवे णं दीवे तत्य तत्थ देसे तहिं २ बहवे उद्दालका कोहाल का कनमाला णयमाला णट्टमाला सिंगमाला संग्खमाला दंतमाला सेलमालगा णाम सुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! कुसविकुसविसुद्धमक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव बीयमलो पत्तेहि प पुरफेहि य अच्छषणपहिच्छपणा सिरीण अतीव २ उपसोभेमाणा उपसोहेमाणा चिटुंति, एकोग्यदीवे पां दीये लक्खा बहवे हेरुयालवणा मेस्यालवणा मेरुयालयणा सेझयालवणा सालवणा सरलवणा सत्तवणवणा पूतफलिवणा ग्वजरिवणा णालिपरिवणा कसबिकुसति जाय चिट्ठति, एगुरुढीचे णं तस्थ २ यहवे तिलया लवया नग्गोधा जाय रायकवा पंदिस्यग्या कुसविकुसवि० जाब चिट्ठति, एगुरुयदीवेणं तत्थ यहओ पउमलयाओ जाय सामलयाओ निचं कुसुमिताओ एवं लयावण्णओ जहा उववाइए जाय पडिरूवाओ, एकोख्यदीवे णं तस्थ २ बहवे सेरियागुम्मा जाव महाजातिगुम्मा ते णं गुम्मा दसद्धवषणं कुसुमं कुसुमंति विधूयग्गसाहा जेण वायविधूयम्गसाला एगुरुयदीवस्स बहसमरमणिजभूमिभागं मुक्कपुष्फपुंजोबयारकलियं करेंति, एकोस्यदीवे णं तत्थ २ बहओ बणरातीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं वणरातीतो किण्हातो किण्होभासाओ जाव रम्माओ महामेहणिगुरुवभूताओ जाव महतीं गंधद्धणिं मुयंतीओ पासादीताओ४ । एगुरूयदीवे तस्थ २ यहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणा C १४५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशकः [(मनुष्य)], - मूलं [१११] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः उसो ! जहा से चंदष्पभमणिसिलागवरसीधुपवरवारुणिसुजातफलपत्तपुष्कचोयणिजा संसारबहृदग्वजुत्तसंभारकालसंघयासवा महुमेरगरिका भदुद्धजाती पसन्न मेगसता खजूरमुद्दियासारका विसायणमुपखोयरसवरसुरावण्णरसगंधफरिसजुत्तबलबीरियपरिणामा मज्जविहित्यगारा तदेवं ते मसंगवावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मजविही उबवेदा फलेहिं पुण्णा बीसंदंति कुसविकुसविसुद्धरुवमूला जाय चिति १ । एकोरुए दीवे तस्थ २ बहवो भिगंगया णाम द्रुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से बारगघडकरग कलस ककरि पायकंचणिउदकवदणिसुपविहरपारीचसकभिंगारकरोडिसरगथरगपत्तीथालणत्थगववलिपअवप दगवारक विचितकमणिवद्दकसुत्तिचारुपिणयाकंचणमणिरयण भतिविचित्ता भायणविधीए वपगारात ते भिंगंगवावि दुमगणा अणेगबहुगविविहवीससाए परिणताएं भाजणविधीए उवया फलेहिं पुन्नाचि विसर्हति कुसविकुस० जाय चिति २ । एगोरुगदीवे णं दीवे तत्थ २ बहवे तुडियंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से आलिंगमुरंगपणवपडहदद्दरगकरडिडिंडिमभाहोरं भकण्णिधार खरमुहिमुगुंद संखियपरिलीचच्च परिवाइणिवंसावेणुवीणासुsteadfaमहच्छिभिरगसगात लतालकंसतालसुसंपडत्ता आतोजविधीणिउणगंधव समयकुसलेहिं फंद्रिया तिद्वाणसुद्धा तहेव ते तुडियंगयावि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससापरि For P&Pernaise Cly ~301~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [(मनुष्य)], • मूलं [१११] प्रतिपत्ति: [ ३ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १४६ ॥ तततिघणसिराए चविहार आतोज्जविहीए उबवेया फलेहिं पुण्णा विहन्ति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिह्नंति ३ । एगोरुयदी० तत्थ २ बहवे दीवसिहा म मगणा पण्णत्ता समाउसो !, जहा से संज्ञाविरागसमए नवणिहिपतिणो दीविया चकवालविंदे पभूयवपिलित्तणेहिं धणिउजालियनिमिरमद्दए कणगणिगरकुसुमितपालियातयवणप्पगासो कंचणमणिरयणविमलमहरिहतवणिज़ुजलविचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा पजलिऊसविद्यद्धितेयदिष्तविमलगगणसमप्पहाहिं वितिमिरकर सूरपसरिउलोयचिलियाहिं जावुजलपहसियाभिरामाहिं सोभेमाणा तहेव ते दीवसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणामाए उज्जोयविधी उबवेदा फलेहिं पुण्णा विसर्हति कुसविकुसवि० जाव चिति ४ । गुरुपदीये तत्थ २ बहवे जोतिसिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से अचिरुग्गयसरपसूरमंडलपडतउक्कासहस्स दिष्यंत विज्जुजालहुयवह्निद्धूमजलियनित धोयतसत वणिज किंसुयासोयजावासुवणकुसुमविमडलियपुंजमणिरयणकिरणजबहिंगुलुयणिगररूवाइरेगरूवा तदेव ते जोतिसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविह्वीससापरिणयाए उज्जोयविहीए उववेदा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदावलेस्सा कूडाय इव ठाटिया अन्नमन्नसमोगाढाहिं लेस्साहिं साए पभाए सपदेसे सबओ समता ओभासंति उज्जोवेति पभासेंति कुसविकुसवि० जाव चिति अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — मनुष्योद्देशकः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~302~ ३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः १ सू० १११ ।। १४६ ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] 55 दीप ५। एगुरुयदीवे तत्थ २ यहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से पेच्छाघरे विचित्ते रम्मे वरकुसुमदाममालुजले भासंतमुकपुष्फपुंजोवयारकलिए विरल्लिविचित्तमहसिरिदाममलसिरिसमुदयप्पगन्भे गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेण मल्लेण छेयसिप्पियं विभारतिएण सव्यतो चेव समणुबद्धे पविरललवंतविपइटेहिं पंचवण्णेहिं कुसुमदामेहिं सोभमाणेहिं सोभमाणे वणमालतग्गए चेव दिपमाणे तहेव ते चित्तंगयावि दमगणा अणेगवहविबिहबीससापरिणयाए मलविहीए उववेया कुसविकुसवि० जाब चिट्ठति । एगुरूयदीवे तत्थ २ बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से सुगंधवरकलमसालिविसिणिरुबहतदुद्धरडे सारयघयगुडखंडमहुमेलिए अतिरसे परमण्णे होज उत्समवण्णगंधमते रणो जहा वा चकवहिस्स होज णिउणेहिं मूतपुरिसेहिं सजिएहिं बाउकप्पसेअसित्ते इव ओदणे कलमसालिणिज्जत्तिएवि एक्के सवष्फमिउबसयसगसिस्थे अणेगसालणगसंजुसे अहवा पडिपुषणदण्वुवकबडेसु सक्कए वपणगंधरसफरिसजुत्तबलविरियपरिणामे इंदियबलपुट्टिवद्धणे खु. प्पिवासमहणे पहाणे गुलकटियखंडमच्छंडियउवणीए पमोयगे सपहसमियगम्भे हवेज परमइटुंगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसावि दुमगणा अणेगबहुविविह्वीससापरिणयाए भोजणविहीए उपवेदा कुसविकुसवि० जाच चिट्ठति । एगुरुए दीवे णं तस्थ २ बहवे मणियंगा नाम उमगणा प. अनुक्रम [१४५] ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि०17 मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्तो मनुष्याIN घि० उदेशः १ पू०१११ ॥१४७॥ दीप -- पणत्ता समणाउसो!, जहा से हारहारवट्टणगमउडकुंडलवासुत्तगहेमजालमणिजालकणगजालगमुत्तगउचिइयकडगाखुडियएकावलिकंठसुत्तमंगरिमउरत्यगेवेनसोणिसुत्तगचूलामणिकणगतिलगफुल्लसिद्धत्थयकपणवालिससिसूरउसभचक्कगतल भंगतुढियहत्थिमालगवलम्वदीणारमालिता चंदमरमालिता हरिसयकेयूरवलयपालंयअंगुलेजगकंचीनेहलाकलावपयरगपायजालघंटियविखिणिरयणोरुजालस्थिगियवरणेउरचलणमालिया कणगणिगरमालिया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भूसणविधी बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगावि दुमगणा अणेगयाहुविविहवीससापरिणताए भूसणविहीए उववेया कुसवि० जाव चिट्टति ८ । एगुरूया दीये तस्थ २ बहवे गेहागारा नाम मगणा पण्णत्ता समणाउसो, जहा से पागारद्वालगचरियदारगोपुरपासायाकासतलमंउवागसालबिसालगतिसालगचउरंसचउसालगन्भघरमोहणघरवलभिधरचित्तसालमालयभत्तिघरवतंसचतुरंसगंदियावत्तसंठियायलपंडुरतलमुंडमालहम्मियं अहव णं धवलहरअद्धमागह विभमसेलसलसंठियकृडागारद्वसुविहिकोहगअणेगघरसरणलेणआवणविडंगजालचंदणिजूहअपवरकदोवालिचंदसालियरूवविभत्सिकलिता भवणविही वह विकप्पा तहेव ते गेहागारावि दुमगणा अणेगवहविविधवीससापरिणयाए सुहारहणे महोत्ताराए सुहनिश्वमणप्पवेसाए दहरसोपाणपंतिकलिताए परिकाए सुहविहाराए मणोऽणुकलाप भवणविहीए उवचेया कुसवि० जाव अनुक्रम - [१४५] CXRK - ।।१४७॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] AACROCAR दीप चिट्ठति । एगोरुयदीवे तत्थ २ बहवे अणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा मे अणेगसो मंतणुतं कंबलदुगुल्लकोसेजकाल मिगपट्टचीणंनुयवरणातबारवणिगयतुआभरणचिप्ससहिणगकहाणगभिंगिणीलकज्जलबहुवपणरत्तपीतसुक्किल मकवयमिगलोमहेमप्फरुपणगअ. वसरत्तगसिंधुओसभदामिलवंगकलिंगनेलिणतंतुमयभत्तिचिन्ता वत्थविही बहुप्पकारा हवेज घरपट्टणुग्गता वष्णरागकलिता तहेव ते अणियणावि दुभगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणताए बथविधीय उबवेया कुसविकुसवि० जाव चिट्ठति १०। एगोळ्यहीवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णते?, गोयमा! ते णं मणुया अणुधमतरसोमचारुरूवा भोगुत्तमगयालयखणा भोगसस्सिरीया सुजायसवंगसुंदरंगा सुपतिहियाम्पचारुचलणा रचप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलतला नगनगरसागरमगरचकंकवरंकलकवणंकियचलणा अणुपुब्बसुसाहतंगुलीया उपयतणुतंवणिद्धणग्या संठियसुसिलिट्ठगढगुप्फा एणीकुरुविंदायत्तवहाणुपुत्वजंघा समुग्णणिमग्गगृहजाणू गतससणसुजातसष्णिभोरू वरवारणमत्ततुल्छविकमविलासितगती सुजातवरतुरगगुज्झदेसा आइण्णहतोव णिरुवलेवा पमुइयबरतरियसीहअतिरेगवट्टियकडी साहयसोजिंदमुसलदप्पणणिगरितवरकणगच्छक(क)सरिसवरवइरपलितमज्झा उज़यसमसहितसुजातजश्चतणुकसिणणिद्धआदेजलडहसुकुमालमउयरमणीजरोमराती गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुरर अनुक्रम [१४५] E59-25645 ACT ~305~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥१४८॥ ३ प्रतिपत्ती मनुष्या धि० उद्दशः१ सू०१११ दीप अनुक्रम [१४५] विकिरणतरुणयोधितअकोसायंतपउमगंभीरवियडणाभी झसविहगसुजातपीणकुच्छी झसोदरा सुइकरणा पम्हवियडणाभा सण्णयपासा संगतपासा मुंदरपासा सुजातपासा मितमाइयपीणरतियपासा अकरंडयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवयदेहधारी पसस्थयत्तीसलक्खणधरा कणगसिलातलुजलपसत्थसमयलोवचियविच्छिन्नपिहलवच्छी सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवहियभुया भुयगीसरविपुलभोगआयाणफलिहउच्छूटदीहवाहू जूयसन्निभपीणरतियपीवरपउद्दसंठियसुसिलिट्ठविसिट्टधणथिरमुबहसुनिगूढपव्वसंधी रत्ततलोवइतमध्यमसलपसत्यलक्खणसुजायअच्छिद्दजालपाणी पीवरवट्टियसुजायकोमलवरंगुलीया तंवतलिणसुचिमहरणिदणक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्रपाणिलेहा दिसासोअस्थियपाणिलेहा चंदसूरसंखचफदिसासोअत्थियपाणिलेहा अणेगवरलकवणुत्तमपसत्यमुचिरतियपाणिलेहा वरमहिसवराहसीहसहलसभणागवरपडिपुन्नविउल उन्नतमइंदबंधा चउरंगुलमुप्पमाणकंवुवरसरिसगीवा अबहितसुविभत्तसुजातचित्तमंसूमंसलसंठियपसत्थसहलविपुलहणुयाओ तवितसिलप्पवालविफलसभिभाहरोहा पंडुरससिसगलविमलनिम्मलसंग्खगोखीरफेणदगरयमुणालिया धवलदंतसेढी अखंडदंता अफडियदंता अविरलदंता सुजातदंता एगदंतसेदिव्य अणेगदंता हतबहनिद्धंतघोततत्सतबणिजरत्ततलतालुजीहा गरुलाययउजुतुंगणासा अवदालियपॉटरीयणयणा कोकासितध CANCLASCIRCLOCAMPARAN ॥१४८ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] -- दीप अनुक्रम [१४५] घलपत्तलच्छा आणामियचावरुइलकिपहपूराइयसंठियसंगतआयतमुजाततणुकसिणनिद्वभुमया अल्लीणप्पमाणजुत्तसरणा सुस्सवणा पीणमंसलकवोलदेसभागा अचिकग्गयवालचंदसंठियपसत्थविच्छिन्नसमणिडाला दुवतिपडिपुषणसोमवदणा उत्तागारुत्तमंगदेसा घणणिचियसुबद्धलक्खगुण्णयकडागारणिभपिडियसिस्से दाडिमपुष्पगासतवणिजसरिसनिम्मलसुजायकेसंतकेसभूमी सामलियोंडघणणिचियछोनियमिउविसयपसत्यमुहमलक्वणसुगंधसुंदरभुयमोयगभिगिणीलकजलपहट्ठभमरगणणिणिकुबनिचियकुंचियचियपदाहिणावत्तमुद्धसिरया लक्षणवंजणगुणोववेया सुजायसुविभत्तसुरूवगा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, ते णं मणुया हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरणिग्घोसा छाया जोतियंगमंगा बजरिसभनारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया सिणिछवी णिरायंका उत्तमपसस्थअइसेसनिरुवगतणू जल्लमलकलंकसेयरयदोसवजियसरीरा निरुवमलेवा अणुलोमवाउवेगा कंकग्गहणी कवोतपरिणामा सउणिच्च पोसपिट्टतरोरुपरिणता थिग्गहियउन्नयच्छी पउमुप्पलसरिसगंधणिस्साससुरभिववणा अधणुसयं ऊसिया, तेसिं मणुयाणं चउसहि पिडिकरंडगा पण्णत्ता समणाउसो! ते णं मणुया पगतिमद्दगा पगतिविणीतगा पगतिउवसंता पगतिपयणुकोहमाणमायालोभा मिउमहवसंपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणीता अप्पिच्छा असंनिहिसं SRCASSSC -- - ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः मनुष्या FI धि० उद्देशः१ सू०१११ ॥१४९॥ दीप चया अचंडा बिडिमंतरपरिवसणा जहिच्छियकामगामिणो य ते मणुयगणा पपणत्ता समणाउसो!। तेसि गंभंते ! मणुयाणं केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पजति?, गोयमा! चउत्थभत्तस्स आहारहे समुप्पज्जति, एगोरुयमणुईणं भंते! केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते?, गोयमा! ताओणं मणुईओ सुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अचंतविसप्पमाणपउमसूमालकुम्मसंठितविसिहचलणाओ जुम्मिओ पीवरनिरंतरपुट्ठसाहितंगुलीता उण्णयरतियनलिणंव सुइणिदणखा रोमरहियवद्दलहसंठियअजहपणपसस्थलकवणअकोप्पजंघजुयला सुणिम्मियसुगूढ जाणुमंडलसुबासंधी कयलिफ्वभातिरंगसंठियणिवणसुकुमालमउयकोमलअविरलसमसहितसुजातवहपीवरणिरंतरोरू अट्ठावयवीचीपसंठियपसत्यविच्छिन्नपिहलसोणी वदणायामप्पमाणदुगुणितविसालमंसलगुबद्धजहणवरधारणीतो बजविराइयपसत्यलक्वणणिरोदरा तिवलिवलीयतणुणमियमज्झितातो उज्जयसससहितजयतणकसिणणिआदेजलडहसुविभत्तसुजातकंतसोभतरुइलरमणिजरोमराई गंगावत्तपदाहिणायत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणयोधितअकोसायंतपउमवणगंभीरवियडणाभी अणुभपसत्थपीणकुच्छी सण्णयपासा संगथपासा सुजायपासा मितमानियपीणरइथपासा अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायणिम्वहयगातलट्ठी कंचणकलससमपमाणसमसहितसुजातलहनूचुयआमेलगजमलजुगलबहियअन्भुषणयरतियसंठियपयोधराओ भुयंगणु SCORECASCRECRACK अनुक्रम [१४५] ॥१४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] -- दीप अनुक्रम [१४५] पुब्बतणुयगोपुरूवसमसहियणमियआएजललियवाहाओ तंबणहा मंसलग्नहत्था पीवरकोमलवरंगुलीओ णिद्धपाणिलेहा रविससिसंखचक्कसोस्थियसुविभत्तसुविरतियपाणिलेहा पीणुप्रणयकक्ववस्थिदेसा पडिपुषणगलकबोला चाउरंगुलमुप्पमाणकयुवरसरिसगीवा मंसलसंठियपसस्थहणुया वाडिमपुष्फप्पगासपीवरकुंचियवराधरा सुंदरोत्सरोहा दधिदगरयचंदकुंदवासंतिमउलअच्छि द्दविमलदसणा रतुप्पल पत्तमउयसुकुमालतालुजीहा कणय(व)रमुउल अकुडिलअन्भुगतउजुतुंगणासा सारदणवकमलकुमुदकुवलयविमुक्कदलणिगरसरिसलक्षणअंकियकंतणयणा पत्तलचवलायनपलोयणाओ आणामितचावइलकिपहाभराइसंठियसंगतआययसुजातकसिणणिद्धभमुया अल्लीणपमाणजुत्तसवणा पीणमट्टरमणिजगंडलेहा चउरंसपसत्यसमणिडाला कोमु. तिरयणिकरविमलपडिपुन्नसोमवयणा छत्तुन्नयउत्तिमंगा कुरिलसुसिणिददीहसिरया छत्तज्मयजुगथूभदामिणिकमंडलुकलसबाविसोत्थियपडागजवमच्छकुम्मरहवरमगरसुकथाल अंकुसअहावयवीहसुपइट्टकमयूरसिरिदामाभिलेयतोरणमेइणिउदधिवरभवणगिरिवरआयसललियगत उसभसीहत्यमरउत्तमपसत्थवत्तीसलवणधरातो हंससरिसगतीतो कोनिलमधुरगिरसुस्सराओ कता सव्वस्स अणुनतातो ववगतवलिपलिया चंगदुव्बण्णवाहीदोभग्गसोगमुकाओ उच्चत्तेण य नराण थोवूणमूसियाओ सभावसिंगाराचारचारुवेसा संगतगतहसित भणियचेदियविला -- % ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ६३ प्रतिपत्तों मनुष्या प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१५॥ RI घि दाउद्देशः १ सू०१११ दीप अनुक्रम [१४५] ससलावणिउणजुत्तोवयारकुसला सुंदरथणजहणवणकरचलणणयणमाला वष्णलावण्णजोवणविलासकलिया नंदणवणविवरचारिणी उच्च अच्छराओ अच्छेरगपेरुणिमा पासाहतातो दरिसणिजातो अभिरुवाओ पडिरूबाओ। तासि णं भंते! मणुईणं केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पजति?, गोयमा! चउत्थमस्स आहारट्टे समुप्पजति । ते णं भने ! मणुया किमाहारमाहारैति?, गोयमा! पुढविपुष्कफलाहारा ते मणुयगणा पण्णत्ता ममणाउसो! । तीसे णं भंते ! पुतवीए केरिसए आसाए पण्णते?, गोयमा! से जहाणामए गुलेलि वा बंडेति वा सकराति वा मच्छंडियाति बा भिसकंदेति वा पप्पडमोयएति वा पुष्फउत्तराइ वा पत्रमुत्तराइ वा अकोसिताति वा विजताति वा महाविजयाइ वा आयसोवसाति वा अणोवसाति या चाउरके गोखीरे चउठाणपरिणए गुडखंडमच्छडिउवणीए मंदग्गिकडीए वपणेणं उववेए जाव फासेणं, भवेतारूवे सिता?. नो इणढे समढे, तीसे णं पुढवीए पत्तो इयराए चेव जाव भणामतराए चेव आसाए णं पण्णते, तेसि णं भंते ! पुष्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते?, गोयमा! से जहानामए चाउरंतचकबहिस्स कल्लाणे पवरभोयणे सतसहस्सनिष्फन्ने वण्णेणं उबवेते गंधेणं उववेते रसेणं उबवेते फासेणं उववेते आसाइणिजे वीसाइणिजे दीवणिजे बिहणिजे दप्पणिजे मयणिजे सम्विदियगातपल्हायणिजे, भवेतारूवे सिता?, णोतिणदे समझे, तेलिणं पुष्फफलाणं एसो इट्टतराए चेव जाव आस्साए ण CASSA ॥१५ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [(मनुष्य)], • मूलं [१११] प्रतिपत्ति: [ ३ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पी० च०२६ Ja Eken int पण ते भंते! या तमाहारमाहारिता कहिं सहि उवंति ?, गोयमा ! मक्खगेहालता णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ते गं भंते! क्या किंठिया पण्णत्ता?, गोयमा कु गारसंहिता पेच्छाघरसंदिता सत्तागारसंठिया जयनंडिया धूमसंठिया तोरणसंदिया गोपुरतियपा(या) लगसंठिया अहालगसंठिया पासाइडिया हम्मतल संठिया गवक्स्वसंठिया बालपो fruits] वलभीत्रता अण्णं तत्थ हवे यासविसिहाणसंहिता सहमीलच्छाया णं ते भगणा पण्णत्ता समणा उसो । अस्थि णं भंते! एगोरूयदीवे दीये गेहाणि वा गेहावणाणि वा?, णो तिट्टे समट्टे, हलवा में से मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अस्थि भंते! एख्यदीये २ गामाति वा नगरानि वा जाव सन्निवेसाति वा?, णो तिगडे समहे, जहिच्छित कामगामिणो ने मनुयगणा पण्णत्ता समणासो । अस्थि णं भंते! एगुरुपदीचे असीनि वा मसीह वा कसी वा पणीति वा वणिजाति वा?, नो तिणट्टे समट्ठे, ववगयअसिसिकि सिपणियवाणिज्ञा णं ते मनुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अस्थि णं भंते! एही दिरपणेति वा सुवन्नेति वा कंसेति वा इति वा मणीति वा मुत्तिपति वा विपुलकणगरयणमणिमोतियसंख्खसिलप्पवाल संतसारसावएजेति वा?, हंता अस्थि, णो चेव णं तेसिं अनुवा तिब्बे ममन्तभावे समुपज्जति । अस्थि णं भंते! एगोरुयदीवे रायाति वा जुबरायाति वा ईस For P&Praise City ~ 311~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभिक मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः१ ॥१५१॥ SCSC-SCRENCESA दीप अनुक्रम [१४५] वा तलवरेइ वा माइंबियाति वा कोटुंबियाति वा इन्भाति वा सेट्ठीति वा सेणावतीति वा सत्थवा हाति वा?, णो तिणढे समढे, ववगयइडीसक्कारा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगरूयदीवे २ दासाति वा पेसाइ वा सिस्साति वा भयगाति था भाइल्लगाइ वा कम्मगरपुरिसाति वा?, नो तिणढे समढे, ववगतआभिओगिताणं ते मणुयगणा पण्णात्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते! एगोळयदीवे दीवे माताति वा पियाति वा भायाति वा भइणीति चा भजाति वा पुत्ताति वा धूयाइ वा सुण्हाति वा?, हंला अस्थि, नो चेव णं तेसि पण मणुपाणं तिब्वे पेमबंधणे समुप्पजति, पयणुपेजबंधणा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीव अरीति वा बेरिएति वा घातकाति वा बहकाति वा पहिणीताति वा पचमिसाति चा?. णो तिगट्टे समढे, ववगतवेराणुबंधा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अन्थि णं भंते ! एगोरूए दीवे मित्ताति वा वतंसाति वा घडिताति वा सहीति वा सहियाति वा महाभागाति वा संगतियाति वा?, णो तिण8 समई, ववगतपेम्मा ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो!। अस्थि णं भनएगोंरूयदीवे आवाहाति वा वीवाहाति वा जपणाति वा सहाति वा थालिपाकाति वा चेलोवणतणाति वा सीमंतुण्णयणाइ वा पिनि(मत)पिंडनिवेदणाति वा, णो निण? समहे, वबगतआवाहविवाहजण्णभहथालिपागचोलोवणतणसीमंतुण्णयणमतपिंडनिवेदणा णं ते मणुयगणा पण्णता सम -XA4%-562 ॥१५१।। R 2 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [(मनुष्य)], • मूलं [१११] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Ehem पाउसो ! | अस्थि णं भंते! एगोरुयदीवे २ इंदमहाति वा खंदमहाति वा रुमहाति वा सिवम हाति वा वेसमणमहाइ वा मुगंदमहाति वा णागमहानि वा जखमहाति वा भूतमहानि वा कूवमहाति वा तायणदियहाति वा दहमहाति वा पव्वयमहाति वा रुक्म्बरोवणमहाति वा महाइ वा धूममहाति वा?, णो तिणट्टे समट्टे, ववगतमहमहिमा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो । अस्थि णं भंते! एगोरुयदीवे दीवे गडपेच्छाति वा णहपेच्छाति वा मलपेच्छाति वा मुट्ठियपेच्छा वा विडंबगपेच्छाइ वा कहगपेच्छाति वा पवगपेच्छाति वा अक्खायगवेच्छाति वा लासगच्छति वा लेखपे० मं० तृणइलपे० तुंबवीणपे० कावणपे० मागहपे० जलपे० १, णो तिणट्टे समट्ठे, बवगतको उहल्ला णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अस्थिणं भंते! एगुरूपदीवे सगडाति वा रहानि या जाणाति वा जुग्गाति वा गिल्लीति वा विल्लीति वा पिपली वा पह णाणि वा सिवियाति वा संद्माणियाति वा?, णो तिणट्टे समठ्ठे, पादचारविहारिणो णं ते मणुसगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अस्थि णं भंते! एगूरुयदीवे आसाति वा हत्थीति वा उट्टाति या गोणाति वा महिसाति वा खराति वा घोडाति वा अजाति वा एलाति वा?, हंता अस्थि, नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति । अस्थि णं भंते! एगुरुयगदीवे दीवे सीहाति वा वरघाति वा विगाति वा दीवियाइ वा अच्छाति वा परच्छाति वा परस्सराति वा For P&Praise City ~ 313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) arita प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(मनुष्य)], • मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १५२ ॥ तच्छाति वा विडालाइ वा सुणगाति वा कोलसुणगाति वा कोकंतियानि वा ससगाति वा चिलति वा चिल्लाति वा?, हंता अस्थि, नो वेव पां ते अण्णमण्णस्स सिं या माणं किंचि आधा वा पचाएं वा उपायेति वा विच्छेद वा करेंति, पगतिभएका णं ते सावयगणा पण्णत्ता समणासो । अस्थि णं भंते! एगुरूपदीचे दीवे साठीति वा वीहीति गोधूमाति वा जवाति वा तिलाति वा इति ?, अस्थ, जो चैत्र णं सिं मनुयाणं परिभोगता हव्यमागच्छति । अस्थि भंते! गुरुपदीवे दीवे सत्ता पर दरीति वा सानि वा भिगृति वा वाति या विसमेति या विज्ञलेति वा धूलीति वा रेणूनि वा पंकेश वा चटणीति वा?, जो तिट्टे सम, एगुरुपदीवे णं दीवे समरमणिजे भूमिभागे पण ते समणाउसो! | अस्थि णं ते! गुरुपदी दीवे खाति वा कंटपति वा हिरपति वा सरानि वा सणकपवरानि वा पत्तकयवराइ वा असुतीति वा प्रतियाति वा भिवाह वा अयोक्खाति वा?, जो तिगडे समट्टे, बबनयखाणुकंटकही करणकथवर पसकपवर अतिप्रतियन्निगंधमचोक्वपरिवजिए णं गुरुवदीवे पण्णत्ते समणाउसो ! | अस्थि भंने गुरुयदीचे दीवे दंसाति वा मसगाति वा विसुयाति वा जूनाति वा विखति वा कुणाति वा?, यो निण सम, वगसमलगपिसुतजून लिख ढंकुणपरिवज्जिए णं एगुरुपदीये पण्णत्ते समणाउसो ! | अस्थि णं भंते! गुरुयद्रीचे अहीर वा For P Perse Cly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — मनुष्योद्देशकः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~314~ ३ प्रतिपत्तौ मनुष्याधि उद्देशः १ सू० १११ ॥ १५२ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप अयगराति वा महोरगाति था?, हंता अस्थि, नो चेव णं ते अन्नमन्नस्स तेसिं वा मणुयाणं किंचि आबाहं था पचाई वा छविच्छेयं वा करति, पगइभद्दगा गं ते वालगगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते! एगुरुयदीवे गहदंडाति वा गहमुसलाति वा गहगजिताति वा गहजुद्धाति वा गहसंघाडगाति वा गहअवसब्बाति वा अम्भाति वा अन्भरुक्खाति वा संझाति वा गंधवनगराति वा गजिताति वा विजताति वा उकापाताति वा दिसादाहाति वा णिग्याताति वा पंसुविट्ठीति वा जुवगाति वा जक्खालित्ताति वा धुमिताति वा महिनाति वा रउग्घाताति वा चंदोवरागाति वा सरोवरागाति वा चंदपरिवेसाइ वा सूरपरिवेसाति वा पडिचंदाति वा पडिसूराति वा इंदधणूति वा उद्गमच्छाति वा अमोहाइ वा कविहसियाइ वा पाईणवायाइ वा पडीणवायाई वा जाव सुद्धवाताति वा गामदाहाति वा नगरदाहाति वा जाव सण्णिवेसदाहाति वा पाणवतजणक्खयकुलक्खयधणक्खयवसणभूतमणारितात वा?, णो तिणटे समढे । अत्थि णं भंते! गगुरुयदीवे दीवे डिंबाति वा डमराति वा कलहाति वा बोलाति वा खाराति वा वेराति वा विरुद्धरजाति वा?, णो तिणढे समढे, ववगतडिंबडमरकलहबोलबारवेरविरुद्धरजविवजिता णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो।। अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीये दीवे महाजुहाति वा महासंगामाति बा महासत्थनिवयणाति वा महापरिसवाणाति वा महारुधिरवाणाति वा नागवाणाति वा खेण अनुक्रम [१४५] ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१५३॥ 1964-6 ३ प्रतिपत्ती मनुष्या धि उद्देशा१ सू०१११ दीप अनुक्रम [१४५] वाणाइ वा तामसवाणाइ वा दुभूतियाइ वा कुलरोगाति वा गामरोगाति वा णगररोगाति वा मंडलरोगाति वा सिरोवेदणाति वा अच्छिवेदणाति वा कपणवेदणाति वा णकवेदणाइ वा दंतवेदणाइ वा नखवेदणाइ वा कासाति वा सासाति वा जराति वा दाहाति वा कच्छृति था खसरातिवा कुद्धाति वा कुडाति वा दगराति वा अरिसाति वा अजीरगाति वा भगंदराइ वा इदग्गहाति वा खंदग्गहाति वा कुमारग्गहाति वा णागग्गहाति वा जक्श्वग्गहाति वा भूतग्गहाति वा उब्वेयग्गहाति या धणुग्गहाति वा एगाहियग्गहाति वा बेयाहियगहिताति वा तेयाहियगहियाइ वा चाउत्थगाहियाति चा हिययमलाति वा मत्थगमूलाति वा पासमूलाइ वा कुच्छिमूलाइ वा जोणिमलाइ वा गाममारीति वा जाव सन्निवेसमारीति वा पाणक्खय जाय वसणभूतमणारितातिवा?, णो तिणट्टे समझे, बवगतरोगायंका णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगुरूयदीचे दीये अतिवासाति वा मंदवासाति वा सुट्ठीइ वा मंदबुट्ठीति वा उद्दवाहाति या पवाहाति वा दगुब्भयाइ वा दगुप्पीलाइ वा गामवाहाति वा जाव सन्निवेसवाहाति वा पाणक्वयक जाव वसणभूतमणारिताति वा?, णो तिणढे समढे, ववगतदगोवदवा गं ते मणुयगणा पणत्ता समणाउसो! । अस्थि णं भंते! एगुरूयदीवे दीवे अयागराति वा तम्बागराइ वा सीसागराति वा सुवण्णागराति वा रतणागराति वा वइरागराइ वा वसुहाराति वा हिरपणवासाति वा सुवषण ॥१५३।। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] R- 54X**% दीप - वासाति वा रयणवासाति वा बदरवासाति वा आभरणवासाति वा पत्तवासाति वा पुष्फवासाति वा फलवासाति वा बीयवासा मल्लवासा. गंधवासा० वणवासा० चुण्णवासा खीरवुट्ठीति वा रयणबुट्ठीति वा हिरण्णवुट्ठीति वा सुवण्ण तहेब जाव चुण्णवुट्ठीति वा सुकालाति वा दुकालाति वा सुभिक्खाति वा भिक्खाति वा अप्परघाति वा महग्घाति वा कयाइ वा महाविकयाइ वा सपिणहीइ वा सचयाइ वा निधीइ वा निहाणाति वा चिरपोराणाति या पहीणसामियाति वा पहीणसेउयाइ वा पहीणगोत्तागाराई वा जाई इमाई गामागरणगरखेडकन्धडमडंबदोणमुहपट्टणासमंसंवाहसन्निवेसेस सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउमुहमहापहपहेसु णगरणिमणसुसाणगिरिकंदरसन्तिसेलोवहाणभवणगिहेसु सन्निक्खित्ताई चिट्ठति, नो तिण? समटे । एगुरुयदीवे ण भंते! दीवे मणुयाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं पलिओबमस्स असं. खेजइभागं असंखेजतिभागेण ऊणगं उक्कोसेण पलिओवमस्स असंखेजतिभागं । ते भंते ! मणुया कालमासे कालं किचा कहिं गच्छति कहिं उववजंति ?, गोषमा! ते णं मणुया छम्मासाबसेसाउया मिहणनाई पमति अउणासीई राइंदियाई मिहणाई सारकम्वति संगोविंति य, सारवियत्ता २ उस्ससित्ता निस्ससित्ता कासित्ता छीतित्ता अकिहा अन्वहिता अपरियाविया [पलिओवमस्स असंग्विजइभागं परियाविय] सुहंसुहेणं कालभासे कालं किया अन्नयरेसु देवलोएसु - अनुक्रम [१४५] SC+NA %AREK05-X15696 ~317 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: SC प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरोषावृत्तिः * ॥१५४॥ दीप अनुक्रम [१४५] देवत्ताए उववत्तारो भवन्ति, देवलोयपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! । कहिणं १३ प्रतिपत्ती भंते! दाहिणिल्हाणं आभासियम गुस्साणं आभासियदीवे णाम दीवे पण्णते?, गोपमा! जंबू मनुष्यादीवे दीचे चुहिमवंतस्स बासधरपब्वतस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुई तिन्नि जोयण सेसं जहा एगुरुयाणं गिरवसेसं सव्वं ॥ कहि भंते !! दाहिणिलार्ण गंगो- उद्देशः१ लिमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स दाहिणणं घुल्लहिमवंतस्स वास- सू०१११ धरपब्धयस्स उत्सरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुदं तिपिण जोयणसताई सेसं जहा एगुरुयमणुस्साणं ॥ कहिणं भंते! दाहिणिल्लाणं बेसाणियमणुस्साणं पुरुछा, गोयमा! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासधरपब्वयस्स दाहिणपञ्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहं तिणि जोयण सेसं जहा एगुरुयाणं ॥ (सू०१११) 'एगोरुयदीवस्स णं भंते!' इत्यादि, एकोस्कद्वीपस्य णमिति पूर्ववन् भदन्त ! 'कीदृशः' क इव दृश्यः 'आकारभावप्रत्यवतारः भूम्यादिस्वरूपसम्भवः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! एकोरुकद्वीपे 'वहसमरमणीयः' प्रभूतसमः सम् रम्यो भूमिभाग: प्रज्ञमः । 'से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा इत्यादिरुत्तरकुरुगमस्तावद्नुसतव्यो यावदनुसजनासूत्र, नवरमत्र नानात्वमिदं-मनुष्या अष्टौ | धनुःशतान्युजिता वक्तव्याश्चतुःषष्टिः पृष्ठकरण्डका:-पृष्ठवंशाः, बृहत्प्रमाणानां हि ते बहवो भवन्ति, एकोनाशीतिं च रात्रिन्दिवानि स्वापत्यान्यनुपालयन्ति, स्थितिस्तेषां जघन्येन देशोन: पल्योपमासमवेयभागः, एतदेव व्याचष्टे-पल्योपमासयेयभागन्यूनः, उत्कर्षतः डा॥१५४ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] -ROGRECOGES ४ा परिपूर्णः पल्योपमासयभागः ॥ 'कहि णं भंते' इत्यादि, क भदन्त ! दाक्षिणात्यानानाभापिकमनुष्याणामाभाषिकद्वीपो नाम 5 द्वीपः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य पूर्वभस्माचरमान्तात् 'दक्षिणपूर्वेण दक्षिणपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं झुलहिमवईष्ट्राया उपरि त्रीणि योजनशतान्ययगाह्यात्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि* दाक्षिणात्यानामाभाषिकमनुष्याणामाभापिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञपः, शेषवतव्यता एकोरकवद्वक्तव्या यावस्थितिसूत्रम् ॥ 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! बाक्षिणात्यानां नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकद्वीपो नाम द्वीप: प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम ! जम्बूद्वीपे | द्वीपे मंदरस्थ पर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणस्यां दिशि शुल्हहिमवतो वर्षधरपर्वतख पाश्चात्याशरमान्ताद् 'दक्षिणपश्चिमेन' दक्षिणपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगायात्रान्तरे दृष्टाया उपरि दाक्षिणात्यानां नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, है शेषं यथैकोरुकाणां वधा वक्तव्यं याव स्थितिसूत्रम् ।। 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! वैशालिकमनुष्याणां वैशालिकद्वीपो नाम शाद्वीपः प्राप्त: १, भगवानाह-गौतम ! जम्यूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य पा श्वात्याञ्चरमान्तादू 'उत्तरपश्चिमेन' उत्तरपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवाह्यात्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि वैशालिकमनु-| *घ्याणां वैशालिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, शेपसेकोरुकवद् वक्तव्यं यावस्थितिसूत्रम् ।। कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं हयकपणमणुस्साणं हयकएगदीवे णाम दीवे पण्णते?, गोयमा! एगुरूयदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुरं चत्तारि जोयणसपाइं ओगाहित्सा एल्थ गं दाहिणिलार्ण हयकपणमणुस्साणं हयकपणदीवे णाम दीवे पणत्ते, चत्तारि जोयणसयाई CANCHOCOCACANCE-e ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११२ -११३] गाथा दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(मनुष्य)], - मूलं [ ११२-११३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ १५५ ॥ Ja Eker in आग्रामविक्खंभेणं वारस जोयणसया पन्नट्टी किंचिविसेभ्रूणा परिक्खेवेणं, से णं एगाए पउमवरबेतिया अवसेसं जहा एगुरूयाणं । कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं गजकण्णमणुस्साणं पुच्छा, गोमा! आभासयदीवस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुदं चत्तारि जोयणसताई सेसं जहा कणाणं । एवं गोकण्णमणुस्साणं पुच्छा। बेसाणितदीवस्स दाहिणपथत्थिमिल्लातो चरितानो लवणसमुहं चत्तारि जोयणसताई सेसं जहा हृयकण्णाणं । सक्कुलिकणाणं पुच्छा, गोमा ! मंगोलियदीवस उत्तरपञ्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुहं चत्तारि जोयणसताई सेसं जहा हथकण्णाणं | आतंसमुहाणं पुच्छा, हतकण्णयदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो पंच जोयणसताई ओगाहिता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आयंसमुहमणुस्साणं आयंसमुहदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, पंच जोयणसयाई आयामविवस्वभेणं, आसमुहाईणं छ सया, आसकन्नाईणं सत्त, कामुहाई अट्ट, घणदंनाइणं जाव नव जोयणसयाई, एगूरुयपरिक वेवो नव चैव सयाई अउणपन्नाई। बारसपन्नट्ठाई हयकण्णाईणं परिक्खेवो ||१|| आर्यसमुहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसते किंचिविसाधिपरिक्लेवेणं, एवं एतेणं कमेणं उवउञ्जिकण तव्या चत्तारि यत्तारि एगपमाणा, tri ओगाहे, विक्खंभे परिक्खेवे पढमवीतततियचक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो भणितो, चत्थचके छजोपणसयाई आयामविक्खंभेणं अट्ठारससाणडते जोयणसते विक्खंभेणं । पंचम For P&Praise Cnly -------- अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — मनुष्योद्देशकः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~320~ ३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः १ सू० ११२ ।। १५५ ।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११२ -११३] गाथा दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(मनुष्य)], - मूलं [ ११२-११३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः चक्के सन्त जोयणसताई आयामविक्वं भेणं बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्वेवेणं । छट्टउक्के अजोय सताई आयामविक्खंभेणं पणुवीसं गुणतीसजोयणसए परिक्खेवेणं । सत्तमचउक्के नवजोयणसताई आयामविवखंभेणं दो जोयणसहस्साई अट्ट पणयाले जोयणसए परिक्खेवेणं । जस्स य जो विक्खंभो उग्गहो तस्स ततिओ चेव । पढमाइयाण परिरतो जाण सेसाण अहिओ उ ॥ १ | सेसा जहा एगुरूपदीवस्स जाव सुद्धदंनदीये देवलोकपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पणता समाउसो ! | कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं एगुरूयमणुस्साणं एगुरुपदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, गोयमा ! जंबूहीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासधरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिलाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिणि जोयणसताई ओगाहिन्सा एवं जहा दाहिणिलाण तहा उत्तरिल्लाण भाणितव्वं, णवरं सिहरिस्स वासहरपव्वयस्स विदिसासु, एवं जाव सुद्धतदवेति जाव सेसं अंतरदीवका ॥ ( सृ० ११२ ) । से किं तं अकम्मभूमगमणुस्सा १, २ तीसविधा पण्णत्ता, तंजा - पंचहिं हेमबएहिं एवं जहां पण्णवणापदे जाव पंचहि उत्तरकुरूहिं, सेतं कम्मभूमगा । से किं तं कम्मभूमगा ?, २ पण्णरसविधा पण्णत्ता, तंजहा - पंचहिं भरहेहिं पंचहि एरवहिं पंचहिं महाविदेहेहिं, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - आयरिया मिलेच्छा, एवं जहा पण्णवणापदे जाव सेतं आयरिया, सेतंगभवतिया, सेन्तं मणुस्सा (सृ० ११३) For P&Permalise Caly -------- ~ 321 ~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [११२-११३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूत्रांक [११२ -११३] गाथा श्रीजीवा- 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त' हयकर्णमनुष्याणां हुयकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञाः ?, भगवानाह-गौतम! एकोफकद्वीपस्थ प्रतिपत्ती जीवाभि०पूर्वस्माचरमान्ताद् उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतान्यवगायात्रान्तरे क्षुलहिमवदंष्ट्राया उपरि जम्यूद्वीपवेदिकान्तादपि मनुष्यामलयगि- चतुर्योजनशतान्तरे दाक्षिणात्यानां हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वीपो नाम द्वीप: प्रज्ञप्तः, स च चत्वारि योजनशतान्यायामविष्कम्भेना धि० रीयावृत्तिः द्वादश पञ्चषतानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, शेपं य’कोरुकमनुष्याणां । एवमाभापिकद्वीपस्य पूर्वस्माचरमान्ता- उद्देशः१ इक्षिणपूर्वस्यां दिशि चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाहात्रान्तरे शुलहिमवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ताचतुर्योजनशतान्तरे सू०११३ ॥१५६॥ गजकर्णमनुष्याणां गजकणों द्वीपो नाम द्वीप: प्रज्ञाः, आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपयत् । नाङ्गोलिकद्वीपस्य पश्चिमाचरमान्तादक्षिणपश्चिमेन चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाहानान्तरे क्षुहहिमवईष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ताचतुर्योजनशतान्तरे। गोकर्णमनुष्याणां गोकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रजनः, आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपवत् । वैशालिकद्वीपस्य पश्चिमाञ्चरमान्ताद् | उत्तरपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रमबगाह्य चत्वारि योजनशतानि अत्रान्तरे झुलहिमवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ताचतुर्योजनशता|न्तरे दाक्षिणात्यानां शकुलीकर्णमनुष्याणां शाकुली कर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्राप्तः, आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपबत् , पनवरवेदिकावनपण्डमनुष्यादिस्वरूपं च समस्तमेकोरकद्वीपवत् । एवमेतेनाभिलापेनामीपां हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु पञ्च योजनशतानि लयणसमुद्रमवगाह्य पच्चयोजनशतायामविष्कम्भा एकाशीत्यधिकपञ्चदशयोजनशतपरिक्षेपा: पद्मव-15 | वेदिकावनषण्डमण्डितवाश्यप्रदेशा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात्पश्चयोजनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुखमेण्टमुखायोमुखगोमुखनामानश्चत्वारो द्वीपा ॥१५६ ॥ वक्तव्याः, तद्यथा-हयकर्णस्य परत आदर्शमुखो गजकर्णस्य परतो मेण्डमुखो गोकर्णस्य परतोऽयोमुखः शष्कुली कर्णस्य परतो गोमुखः । दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] JaEcri अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [११२-११३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूत्रांक SXCE [११२-११३] गाथा एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं लवणसमुद्रं पट् पट् योजनशतान्यवगाह कपड्योजनशतायामविष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनशतपरिक्षेपा: पाबरवेदिकावनपण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् पड़यो जनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुखव्याघमुखनामानश्चलारो द्वीपा वक्तव्याः, तपथा-आदर्शमुखस्य परतोऽश्वमुखः, मेण्डमुखस्ख परतो हस्तिमुखः, अयोमुखस्य परतः सिंहमुखः, गोमुखस्य परतो ज्याप्रमुखः । एतेपामश्वमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येक सप्त सप्त योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह सप्तयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशनियोजनशतपरिरया: पावरवेदिकावनपण्डसमवगूडाः जम्बूद्वीपवेदिकान्तात्सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्णहरिकर्णाकर्णकर्णप्रावरणनामा-1 नश्चत्वारो द्वीपा बोध्याः, तद्यथा-अश्वमुखस्य परतोऽश्वकर्णः हस्तिमुखस्य परतो हरिकर्णः सिंहमुखस्य परतोऽकर्णः व्याघ्रमुखस्य परतः कर्णप्रावरणः, तत एतेपाभप्यश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानो परतो यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टी अष्टौ योजनशतानि लवणसमुद्रमवगायाष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशतपरिक्षेपा: पद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तादृष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्कामुख मेघमुखविद्युन्मुखबिशुद्दन्ताभिधानाश्चत्वारो द्वीपा वक्तव्याः, तयथा-अश्वकर्णस्य परत उल्कामुखः हरिकर्णस्य परतो मेघमुख: अकर्णस्य परतो विद्युन्मुखः कर्णप्रावरणस्य परतो विद्युदन्तः, एतेषामप्युल्कामुखादीनां | चतुणी द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येक नव नव योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाय नवनवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंवादधिकाष्टाविंशति योजनशतपरिक्षेपाः पद्मवरवेदिकापनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् नवयोजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धदन्तनामानश्चरखारो द्वीपाः, तद्यथा-उल्कामुखस्य परतो धनदन्तः अपमुखस्य परवो लष्टदन्तः विद्युन्मु. 6 दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [११२-११३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११२ -११३] गाथा श्रीजीवा- खस्य परता गूढदन्तः विद्युदन्तस्य परत: शुद्धदन्तः । एतेषामेव द्वीपानामवगाहायाम विष्कम्भपरिरयपरिमाणसङ्ग्रहगाथाषटुमाह-प- प्रतिपत्ती ढमंमि तिन्नि उ सया सेसाण सउत्तरा नव उ जाव । ओगाई बिक्खंभ दीवाणं परित्यं बोच्छं ॥ १ ॥ पढमचउक्परिरया बीयच मनुष्यामलयगि उक्कस्स परिरओ अहिओ। सोलेहिं तिहि उ जोयणसएहिं एमेव सेसाणं ॥२॥ एगोरुयपरिखेयो नव चेव सवाई अउणपण्णाई। धिकारः रीयावृत्तिः । बारस पण्णवाई हयकण्णाण परिक्खेवो ॥ ३ ॥ पणरस एकासीया आयंसनुहाण परिरओ होइ । अट्ठार सत्तनउवा आसमुहाणं | उद्देशः१ ॥१५७॥ परिक्वेवो ॥४॥ बाबीसं तेराई परिखेवो होइ आसकन्नाणं । पणुवीस अउणवीसा उकामुहपरिरओ होइ ।। ५॥ दो चेव सहस्साई अडेव सया हवंति पणयाला । घणदंतहीवाणं विसेसमहिओ परिक्खेवो ॥६॥" व्याख्या-प्रथमे द्वीपचतुष्के चिन्यमाने त्रीणि योजनशतान्यवदिगाहनां-लवणसमुद्रावगाह विष्कम्भं च, विष्कम्भग्रहणादायामोऽपि गृह्यते तुल्यपरिमाणत्वात् , जानीहि इति क्रियाशेषः, शेषाणां द्वीपचतुष्कानां शतोत्तराणि त्रीणि त्रीणि शतानि अवगाहनाविष्कम्भ तावजानीयाद् यावन्नव शतानि, तद्यथा-द्वितीयचतुष्के चत्वारि शतानि, तृतीये पञ्च शतानि, चतुर्थे पट् शतानि, पञ्चमे सप्त शतानि, षष्ठेऽष्टौ शतानि, सप्तमे नत्र शतानि, अत ऊर्दू द्वीपानामेकोरुकप्रभृतीनां परिरय' परिरयप्रमाणं वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-पढमचउके'त्यादि, 'प्रथमचतुष्के परिरयात्' प्रथमद्वीपच-18 तुके परिरयपरिमाणात् द्वितीयचतुष्कस्त्र-द्वितीयद्वीपचतुष्टयस्य परिरया-परिरयपरिमाणमधिकः षोडशैः षोडशोत्तरेखिभिर्योजनशतैः || 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण शेषाणां 'द्वीपानां' द्वीपचतुष्कानां परिरयपरिमाणमधिकं पूर्वपूर्वचतुष्कपरिरयपरिमाणादवसातव्यम् , एतदेव || वाचतेन दर्शयति–एकोरुये त्यादि 'एकोसकपरिक्षेपे एकोस्कोपलक्षितप्रथमद्वीपचतष्कपरिक्षेपे नव शतानि एकोनपञ्चाशानि-एको-IKI नपञ्चाशदधिकानि । ततत्रिपु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिमेषु 'हयकण्णाण मिति वचनात् हयकर्णप्रमुखाणां द्वितीयानां चतुर्गी | दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] SAKESEX अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: (मनुष्य)], -------------------- मूलं [११२-११३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक * [११२-११३] * * गाथा * द्वीपानां परिक्षेपो भवति, स च द्वादश योजनशतानि पश्चषष्टानि-पञ्चषष्ट्यधिकानि । तत्रापि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु। प्रक्षिप्तेषु 'आयसमुहाणं ति आदर्शमुखप्रमुखाणां तृतीयानां चतुर्णा द्वीपानां परिरयपरिमाणं भवति, तम पञ्चदश योजनशतान्येकाशीसधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिपु योजनशतेषु पोडशोतरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आसमुहाणं ति अश्वमुखप्रभृतीनां चतुर्थानां चतुणी द्वीपानां परिक्षेपः, तद्यथा-अष्टादश योजनशतानि सप्तनवतानि-सप्तनवत्यधिकानि । तेष्वपि त्रिपु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आसकण्णाणं ति अश्वकर्णप्रमुखाणां पञ्चानां चतुर्णी द्वीपानां परिक्षेपो भवति, तद्यथा-द्वाविंशनियोजनशतानि त्रयोदशानि-त्रयोदशाधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिपु योजनशतेपु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'उल्कामुखपरिरयः' उल्कामुखषष्ठद्वीपचतुष्कपरिरयपरिमाणं| भवति, तद्यथा-पञ्चविंशतियोजनशतानि एकोनत्रिशानि-एकोनत्रिंशदधिकानि । तत: पुनरपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिमेषु 'घनदन्तद्वीपस्य' (पानां) घनदन्तप्रमुखसप्तमद्वीपचतुष्कस्य परिक्षेपः, तद्यथा-वे सहस्र अष्टौ शतानि पञ्चचलारिंशानि-पञ्चचखारिंशदधिकानि 'विसेसमहिओं' इति किश्चिद्विशेषाधिक: अधिकृतः परिक्षेपः, पञ्चचत्वारिंशानि किञ्चिद्विशेषाधिकानीति भावार्थः, इदं च पदमन्तेऽभिहितत्वात्सर्वत्राप्यभिसम्बन्धनीयं, तेन सर्वत्रापि किञ्चिद्विशेषाधिकगुक्तरूपं परिरयपरिमाणमवसातव्यं । तदेवप्रमेते हिमवति पर्वते चतमपु विदिक्ष व्यवस्थिताः सर्वसध्ययाऽष्टाविंशतिः, एवं हिमवतुल्यवर्णप्रमाणपग्रहदप्रमाणायामविष्कम्भावगा-18 हपुण्डरीकहदोपशोभिते शिखरिण्यपि पर्वते लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्षु एकोरुकादिनामानोऽक्षणापान्तरालायामविष्कम्भा अष्टाविंशतिसङ्ख्या द्वीपा वेदितव्याः, तथा चाह-“कहि णं भंते ! उत्तरिलाणं एगोरुयमणुस्साणं | एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णते ?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं सिहरिपब्बयस्स पुरच्छिमिलाओ चरिमंताओ * % 4 दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [११२-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूत्रांक [११२ -११३] % गाथा श्रीजीवा- लवणसमुई तिमि जोयणसयाई ओगाहित्ता तस्थ णं उत्तरिल्लाणं एगोरुवमणुस्साणं एगोरुयदीघे नामं दीवे पण्णते" इत्यादि सर्व प्रतिपतौ जीवाभितदेव, नवरमुत्तरेण विभाषा कर्तव्या, सर्वसपया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः, उपसंहारमाह-'सेत्तमंतरदीवगावे एतेऽन्तरद्वीपकाः । | देवाधिमलयगि- अकर्मभूमका: कर्मभूमकाश्च यथा प्रज्ञापनायां प्रथमे प्रज्ञापनाख्ये पदे तथैव वक्तव्या यावत् 'सेत्तं चरित्तारिया से मणुस्सा RI कारः रीयावृत्तिः इति पदम् , इह तु पन्थगौरवभयान लिख्यत इति, उपसंहारमाह-'सेत्तं मणुस्सा' त एते मनुष्याः ॥ तदेवमुक्ता मनुष्याः, सम्प्रति | उद्देशः१ देवानभिधित्सुराह॥१५८॥ सू०११६ से किं तं देवा ?, देवा चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया बेमाणिया (सू०११४) से किं तं भवणवासी?, २ दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेओ तहा भाणितब्बो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविधा पण्णत्ता, तंजहा-विजयवेजयंत जाव सव्वट्ठसिद्धगा, सेत्तं अणुत्तरोववातिया॥(सू०११५) कहिणं भंते ! भवणवासिदेवाणं भवणा पन्नत्ता, कहि णं भंते! भवणवासी देवा परिवसंति ?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए, एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासाइता, त(ए)स्थ र्ण भवणवासीर्ण देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवंतित्तिमक्खाता, तत्थणं यहवे भवणवासी देवा परिवसंति-असुरा नाग सुवन्ना य जहा पण्णवणाए जाव विहरति ।। (सू०११६) कहि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा प०?, पुच्छा, एवं जहा पण्णवणाठाणपदे ॥१५८॥ % % दीप अनुक्रम % [१४६ % 4 -१५१] कन मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् तृतीय-प्रतिपत्तौ मनुष्य: उद्देशक: परिसमाप्त: अथ देवाधिकार: वर्तते ... भवनवासिदेवानां भेद-प्रभेदा: एवं विविध-विषयाधिकारः ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-3 प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] 1%2675453 जाव विहरंति ॥ कहि भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा, एवं जहा ठाण पदे जाव चमरे, तत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसति जाव विहरति ॥ (सू०११७) 'से किं त' मित्यादि, अथ के ते देवाः ?, सूरिराह-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-भवनवासिनो वानमन्तरा ज्योति का वैनानिकाः, अमीषां च शब्दानां व्युत्पत्तिर्यथा प्रज्ञापनाटीकायां तथा वेदितव्या ॥ 'से किं तमित्यादि, अब के ते भवनवासिनः ?, सूरिराह-भवनवासिनो दशविधाः प्रज्ञप्ताः, एवं देवानां प्रज्ञापनागतप्रथमप्रज्ञापनाख्यपद इव ताव दो बक्तव्यो यावत्सर्वार्थदेवा इति ।। सम्प्रति भवनवासिनां देवानां भवनवसनप्रतिपादनार्थमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! भवनवासिनो देवानां भवनानि प्रज्ञतानि , क भवन्त ! भवनवासिनो देवा: परिवसन्ति ?, भगवानाह-गौतम ! 'इमीसे 'मित्यादि, 'अस्याः' प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया यत्र पथमास्महे रसप्रभाया: पृथिव्याः 'अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रवाहल्यायाः' अशीयुत्तरम्-अशीतिसहस्राधिक योजनशतसहनं बाहल्यं-पिण्डभावो यस्याः सा तथा, तस्या उपर्येक योजनसहस्रमवगाह्याधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये | 'अष्टसप्तते' अष्टसप्ततिसहस्राधिके योजनशतसहसे, 'अत्र' एतस्मिन् स्थाने भवनवासिनां देवानां सप्त भवनकोटयो द्विसप्ततिर्भबनावासशतसहस्राणि भवन्तीति आख्यातानि मया पैश्च तीर्थकद्भिः, तत्र सप्तकोट्यादिभावनैवं-पतु:पष्टिः शतसहस्राणि भवनानामसुरकुमाराणां चतुरशीतिः शतसहस्राणि नागकुमाराणां द्विसप्ततिः शतसहस्राणि सुवर्णकुमाराणां पण्णवतिः शतसहस्राणि वायुकुमाराणा, द्वीपकुमारादीनां पण्णां प्रत्येकं पदसम्मति: शतसहस्राणि भवनानां, तत: सर्वसषया यथोक्तं भवनसङ्ख्यानं भवति । I'ते णं भवणा' इत्यादि, तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् , णमिति वाक्यालद्वारे भवनानि बहिः 'वृत्तानि' वृत्ताकाराणि अन्तः । दीप अनुक्रम [१५२-१५५] %% % ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११४ -११७] दीप अनुक्रम [१५२ -१५५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ (मूलं + वृत्तिः ) - उद्देशक: [ ( देव०)], • मूलं [११४- ११७] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ------ श्रीजीवाजीवाभि० ॥ १५९ ॥ समचतुरस्राणि अधस्तलभागेषु पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि, 'भवणवण्णओ भाणियब्बो जहा ठाणपदे जाय पडिवा' इति उक्तप्रकारेण भवनवर्णको भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां द्वितीये स्थानाख्ये पदे, स च तावद् यावत् 'पडिरुवा' इति पदं स मलयगि- चैवम् "उक्शिण्णंतरविलगंभीरखायपरिखा मागारट्टालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्धिमुसलमुसंडपरिवारिया अजोज्झा रीयावृत्तिः १ सयाजया सयागुप्ता अडयालकोट्टरइया अड्याळकवणमाला खेमा सिवा किंकरअमरदंडोवरक्खिया लाउलोइयमहिया गोसीससरसरतचंदणदर दिष्णपंचंगुलितला उवचियचंद कलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुदारदेसभागा आसतोस त्तविलबट्टवन्धारियमहृदामकलावा पंचवण्णसरसमुक्कपुष्पपुंजोषयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुतुरुक धूवमघमर्धेतगंधुद्धयाभिरामा सुगन्धवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिष्णा दिव्वतुडियसद्द संपणदिया सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्गला निष्का निकंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरसणिजा अभिरुवा पढिरुवा" इति अस्य व्याख्या उत्कीमिव उत्कीर्ण अतीव व्यक्तमिति भावः, उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखानां ता उत्कीर्णान्तराः किमुक्तं भवति ? - खातानां परिखाणां च स्पष्टवैवित्तयोन्मीलनार्थमपान्तराले महती पाली समस्तीति, खातानि च परिखाश्च खातपरिखाः उत्कीर्णान्तरा विपुलाविस्तीर्णा गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः खातपरिखा येषां भवनानां परितस्तानि उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखानि खातपरिखाणां चार्य प्रतिविशेषः परिखा उपरि विशालाऽधः सङ्कुचिता, खातं तूभयत्रापि सममिति, 'पागारट्टालककवाडपडिदुबारदेस भागा' इति प्रतिभवनं प्राकारेषु अट्टालककपाटतोरणप्रतिद्वाराणि अट्टालककपाटतोरणप्रतिद्वाररूपा देशभागा - देशविशेषा येषु तानि प्राकाराट्टालककपाटतोरणमतिद्वारदेशभागानि, तन्त्राट्टालकाः - प्राकारस्योपरि भूत्याश्रवविशेषाः कपाटानि अतोलीद्वारसत्कानि, एतेन प्रतोल्पः For P&Praise Cnly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~328~ ३ प्रतिपत्तौ देवाधिंकारः उद्देशः १ सू० ११७ ॥ १५९ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११४ -११७] दीप अनुक्रम [१५२ - १५५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ (मूलं + वृत्तिः ) - उद्देशक: [ ( देव०)], • मूलं [११४- ११७] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सर्वत्र सूचिता अन्यथा कपाटानामसम्भवात्, तोरणानि प्रतीतानि तानि च प्रतोलीद्वारेषु, प्रतिद्वाराणि मूलद्वारापान्तरालवर्चीनि लघुद्वाराणि । तथा 'जंतसयग्धिमुसलमुसंढिपरिवारिया' इति यत्राणि - नानाप्रकाराणि शतभ्यो- महावष्टयो महाशिला वा याः पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि नन्ति गुशलानि - प्रतीतानि मुपण्डय:- शस्त्रविशेषास्तैः परिवारितानि समन्ततो वेष्टितानि अत एवायोध्यानि परैयतुमशक्यानि अयोध्यत्वादेव 'सदाजयानि' सदा सर्वकालं जयो येषु तानि सदाजयानि सर्वकालं जयवन्तीति भाव:, तथा सदा सर्वकालं गुप्तानि प्रहरणैः पुरुषैश्च योद्धुभिः सर्वतः समन्ततो निरन्तरं परिवारिततया परेषामसहमानानां मनागपि प्रवेशासम्भवान् 'अडयालकोट्टरइया' इति अष्टाचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठका - अपवरका रथिताः स्वयमेव रचनां प्राप्ता येषु तान्यष्टाचत्वारिंशत्कोष्ठकरचितानि सुखादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः तथाऽष्टाचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तयः कृता वनमाला येषु तानि अष्टचत्वारिंशत्कृतयनमालानि, अन्ये त्वभिद्धति अडालशब्दो देशीवचनात् प्रशंसावाची, ततोऽयमर्थ:-- 'प्रशस्त कोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानी'ति तथा 'क्षेमाणि' परकृतोपद्रवरहितानि, 'शिवानि' सदा मङ्गलोपेतानि तथा किङ्कराः - किक्करभूता येऽमरास्तैर्दण्डैः कृत्वा उपरक्षितानि - सर्वतः समन्ततो रक्षितानि किङ्करामरदण्डोपरक्षितानि, 'लाउलोइयमहिया' इति लाइयं नाम यद्भूमेर्गोमयादिना उपलेपनम् 'उल्लोइयं' कुड्यानां मालस्य सेटिकादिभिः संसृष्टीकरणं छाइयोहोइयाभ्यां महितानि - पूजितानि लाइयोलोइयमहितानि तथा गोशीर्पेण-गोशीर्षनामकेन चन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन च दर्दरेण - यहलेन चपेटाप्रकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयतला हस्तका येषु तानि गोशीर्ष सरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपचाङ्गुलितलानि, तथा उपचिता- निवेशिताः चन्दनकलशा - मङ्गल्यकलशा येषु तानि उपचितचन्दनकलशानि, 'चंदणधड सुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा' For P&Praise Cinly ------ ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-3 प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 84% प्रत सूत्रांक % श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [११४ -११७] ॥१६॥ दीप अनुक्रम [१५२-१५५] इति चन्दनवटै:-चन्दनकलशैः सुकृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थ: यानि तोरणानि तानि चन्दनपटसुकृतानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभाग-द्वारदेशभागे येषु तानि चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागानि, तथा 'आसत्तोसत्तविपुलववग्धारियमल्लदामक- देवाधिलावा' इति आ-अवाक् अधोभूमौ सक्त-आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्दू सक्त उत्सतः उहोचतले उपरि संबद्ध इत्यर्थः कार: विपुलो-विस्तीणों वृत्तो-वर्तुलः 'वग्धारिय' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलाप:-पुष्पमालासमूहो येषु सानि आसक्तोरसक्तविपुलवृत्त- उद्दशः१ प्रलम्बितमाल्यदामकलापानि, तथा पञ्चवर्णेन सुरभिणा-सुरभिगन्धेन मुक्तेन-क्षिप्तेन पुष्पपुजलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितानि सू०१५७ पञ्चवर्णसुरभिमुक्तपुष्पपुजोपचारकलितानि, तथा कालागुरु:-प्रसिद्धः प्रवर:-प्रधानः कुन्दुरुष्का-चीडा तुरुष्क-सिल्हकं कालागुरुश्च प्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्के च कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुप्काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध उद्धृत-इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाणि-रमणीयानि कालागुरुनवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपमघमघायमानगन्धोद्धुताभिरामाणि, तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धाः ते च ते वरगन्धाश्च-वासा: सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः स एष्वस्तीति सुगन्धवरगन्धगन्धिकानि 'अतोऽनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः, अत | 8 एव गन्धवर्तिभूतानि, सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पानीति भावः, तथाऽप्सरोगणानां सङ्घः-समुदायस्तेन सम्यग-रमणीय-15 तया विकीर्णानि-व्याप्तानि अप्सरोगणसङ्घविकीर्णानि, तथा दिव्यानामातोद्यानां-वेणुवीणामृदङ्गानां ये शब्दास्सैः संप्रणदितानि-सम्यकोत्रमनोहारितया प्रकर्षेण सर्वकालं नदितानि-शब्दवन्ति दिव्यत्रुटितशब्दसंप्रणदितानि सर्वरत्नमयानि-सर्वात्मना सामस्त्येन रत्नमयानि न त्येकदेशेन सर्वरत्नमयानि-समस्त रत्नमयानि अच्छानि-आकाशस्फटिकवदतिखच्छानि लक्ष्णानि-लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्प-२॥१०॥ मानि ऋक्षणदलनिष्पन्नपटवन् लहानि-ममृणानि घुण्टितपटबत् 'घडा' इति घृष्टानीव घृष्टानि खरशानया पाषाणप्रतिमावत् , 'महा। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११४ -११७] दीप अनुक्रम [१५२ -१५५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ (मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], - उद्देशक: [ ( देव०)], - मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Jan Ebertor - इति मृष्टानीव सृष्टानि सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमावदेव, अत एव नीरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात् 'निर्मलानि' आगन्तुकमलासम्भवात् 'निष्पङ्कानि कलङ्कविकलानि कर्दमरहितानि वा 'निकंकडच्छाया' इति निष्कङ्कटा - निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति भावार्थ: छाया दीप्तिर्येषां तानि निष्ककटच्छायानि 'सप्रभाणि' स्वरूपतः प्रभावन्ति 'समरीचीनि' बहिर्विनिर्गत किरणजालानि 'सोद्योतानि' बहिर्व्यवस्थित वस्तुस्तोमप्रकाशकराणि 'प्रासादीयानि' प्रसादाय - मनः प्रसत्तये हितानि मनः प्रसत्तिका - रीणीति भाव:, तथा 'दर्शनीयानि' दर्शनयोग्यानि यानि पश्यतञ्चक्षुपी न श्रमं गच्छत इति भाव:, 'अभिरुवा' इति अभि-सर्वेषां द्रष्टृणां मनः प्रसादानुकूलतयाऽभिमुखं रूपं येषां तानि अभिरूपाणि-अत्यन्तकमनीयानीत्यर्थः अत एव 'पडिरूवा' इति प्रतिविशिष्ट रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि ॥ तदेवं भवनस्वरूपमुक्तमिदानीं यत्पृष्टं 'क भदन्त ! भवनवासिनो देवाः परिवसन्ती'ति तत्रोत्तरमाह — 'तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवर्तति असुरा नागा भेदो भाणि यच्चो जाव विहरंति एवं जा ठाणपदे वत्तब्बया सा भाणियन्वा जाव चमरेण असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ' इति, 'तत्र' तेष्वनन्तरोदितस्वरूपेषु भवनेषु बहवो भवनवासिनो देवाः परिवसन्ति तानेव जातिभेदत आह- 'असुरा नागा' इत्यादि यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठ:- "असुरा नाग सुवण्णा विज्जू अग्गी य दीव उदही य दिसिपवणथणियनामा दसहा एए भवणवासी ॥ १ ॥ चूडामणिमउडरयणा १ भूसणनागफण २ गरुल ३ बइर ४ पुण्णकलसअंकउप्फेस ५ सीह ६ हयवर ७ गय ८ नगरंक९ वरबद्धमाण १० निजुत्तचित्तविधगया सुरूवा महिडीया महखुइया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडगतुडवर्थभियभुया अंगयकुंडलम गंडतलकण्णा पीढधारी विचित्तहत्याभरणा विचित्तमालामउली (मउडा ) कहाणगपवरवत्थप For P&Praise City ~331~ watyw Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" -3 प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] k श्रीजीवा- रहिया कल्लाणगपवरमलाणुलेवणवरा भासुरवोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दियेणं फासेण दिनेणं संघय- ३ प्रतिपत्ती जीवाभिणं दिव्याए इडीए दिव्वाए जुईए दिवाए पहाए दिव्वाए छायाए दिवाए अचीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेस्साए दस दिसाओ|| देवाधिमलयगि-15 उज्जोवेमाणा, ते णं तत्थ साणं २ भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं वायत्तीसगाणं साणं साणं | कारः रीयावृत्ति लोगपालाणं साणं २ अग्गमहिसीणं साणं २ अणीयाणे साणं साणं अगियाहिबईणं साणं २ आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च उद्देशः १ यहूर्ण भवणवासीणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महबरगतं आणाईसरसेणावञ्चं कारेमाणा पालेमाणा महया- सू०११७ ॥१६॥ ऽऽहयनदृगीयवाइयतीतलतालघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिब्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति” अस्य व्याख्या-'असुराः' असुरकुमाराः, एवं नागकुमारा: सुवर्णकुमारा विद्युत्कुमारा अग्निकुमारा द्वीपकुमारा 'उदधिकुमारा दिकुमारा: पवनकुमाराः स्तनितकु|माराः, 'दशधा' दशप्रकाराः 'एते' अनन्तरोदिता असुरकुमाराद्यो भवनवासिनो यथाक्रमं चूडामणिमुकुटरत्नभूषणनियुक्तनागस्फटादिविचित्रचिह्नगताच, तथाहि-असुरकुमारा भवनवासिनथूडामणिमुकुटरबाः, चूडामणि म मुकुटे रत्नं चिह्नभूतं येषां ते तथा, नागकुमारा भूपणनियुक्तनागस्फटारूपचिह्नधराः, सुवर्णकुमाराः भूपणनियुक्तगरुडरूपचिह्नधराः, विद्युत्कुमारा: भूषणनियुक्तवरूपचिहधराः, वर्ष नाम शकस्यायुधं, अग्निकुमारा भूषणनियुक्तपूर्णकलशरूपचिह्नधराः, द्वीपकुमारा भूपणनियुक्तसिंहरूपचिह्नधराः, उदधिकुमारा भूषणनियुक्तहयवररूपचिह्नधारिणः, दिकुमारा भूषणनियुक्तगजरूपचिहुधारिणः, वायुकुमारा भूषणनियुक्तमकररूपचिह्नधराः, स्तनितकुमारा भूपणनियुक्तबर्द्धमानकरूपचिडधारिणः, भूषणमत्र मुकुटो द्रष्टव्योऽन्यत्र 'मउडवरवद्धमाणनिजुत्तचित्तचिंधगया ॥१६॥ इति पाठदर्शनाद्, वर्द्धमानक-शरावसंपुटं, पुनः सर्वे कथम्भूताः ? इत्याह-'सुरूपाः' शोभनं रूपं येषां ते तथा, अत्यन्तकमनीय दीप अनुक्रम [१५२-१५५] % 15% अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~332~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" -3 प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] रूपा इत्यर्थः, 'महिहिया महजुइया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा' इति प्राग्वत् , 'हारविराइयवच्छा' इति 8 हारविराजितं वक्षो येषां ते हारविराजितवक्षसः, 'कडगतुड़ियथंभियभुया' इति कटकानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-वाहुरक्षकास्तैः स्तम्भिताविव स्तम्भिती भुजी येषां ते कटकबुटितस्तम्भितभुजाः, तथाऽङ्गवानि-बाहुशीर्षाभरणविशेषरूपाणि कुण्डले-कर्णाभ-18 रणविशेषरूपे, तथा मृष्टी-गृष्टीकृतौ गण्डौ-कपोलौ यैस्तानि मृष्टगण्डानि कर्णपीठानि-आभरणविशेषरूपाणि धारयन्तीत्येवंशीला अङ्गदकुण्डलमृष्टगण्डकर्णपीठधारिणः, तथा विचित्राणि-नानारूपाणि हस्ताभरणानि येषां ते विचित्रहस्ताभरणा:, तथा 'विचित्तमालामउलिमउडा' इति, विचित्रा माला-कुसुमस्रम् मौलौ-मस्तके मुकुटं च येषां ते विचित्रमालामौलिमुकुटाः, तथा कल्याणक-कल्याणकारि प्रवरं वस्त्रं परिहितं वैसे कल्याणकपत्रपरिहिताः, सुखादिदर्शनानिष्ठान्तस्यात्र पाक्षिकः परनिपातः, तथा कल्याणकं-कल्याणकारि यत् प्रवरं माल्यं-पुष्पदाम यथानुलेपनं तद्धरन्तीति कल्याणकप्रवरमाल्यानुलेपनधराः, तथा भाखरा-देदीप्यमाना बोन्दिःशरीरं येषां ते भास्वरवोन्दयः, तथा प्रलम्बत इति प्रलम्या या वनमाला तां धरन्तीति प्रलम्बवनमालाधराः, दिव्येन 'वर्णेन' कृष्णादिना 'दिव्येन गन्धेन' सुरभिणा 'दिव्येन स्पर्शन' मृदुस्निग्धादिरूपेण दिव्येन शक्तिविशेषमपेक्ष्य संहननेनेव संहननेन न तु सामात्संहननेन, देवानां संहननासम्भवात् , संहननं हि अस्थिरचनासकं, न च देवानामस्थीनि सन्ति, तथा चोक्तं प्रागेव-देवा असंययणी तेसि नेव सिरा" इत्यादि, 'दिव्येन संस्थानेन' समचतुरस्ररूपेण भवधारणीयशरीरस्य, तेपामन्यसंस्थानासम्भवात् , 'दिव्यथा ऋद्ध्या' परिवारादिकया 'दिन्यया धुत्या' इष्टार्थसंप्रयोगलक्षणया, 'यु अभिगमने' इतिवचनात् 'दिव्यया प्रभया' भवनावासगतया 'दिव्यया छायया समुदायशोभया 'दिव्येनार्चिपा' स्वशरीरगतरत्नादितेजोज्वालया 'दिव्येन तेजसा' शरीरप्रभवेन 'दिव्यया दीप अनुक्रम [१५२-१५५] १ ~333~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११४ -११७] दीप अनुक्रम [१५२ -१५५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / १ (मूलं + वृत्तिः) • उद्देशक: [ ( देव०)], - मूलं [ ११४- ११७] प्रतिपत्ति: [3]). पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीयाजीवाभि० मलयगिरीवावृति ॥ १६२ ॥ - ----- | लेश्यया' देहवर्ण सुन्दरतथा दश दिशः 'उद्योतयन्तः' प्रकाशयन्तः 'पभासेमाणा' इति शोभयन्तस्ते भवनवासिनो देवा णमिति वाक्यालङ्कारे 'तत्र' स्वस्थाने 'साणं साणं'ति स्वेषां स्वेपामात्मीयात्मीयानां भवनावासशतसहस्राणां स्वेषां स्वेषां सामानिकसहस्राणां स्वेषां स्वेषां त्रयस्त्रिंशकानां स्वेषां स्वेषां लोकपालानां स्वासां स्वासाम् 'अग्रमहिषीणा' पहराझीनां स्वेपः स्वेपामनीकानां स्वेषां स्वेषामनीकाधिपतीनां स्वेषां स्वेपामात्मरक्षदेवसहस्राणाम्, अन्येषां च बहूनां स्वस्वभवनावासनगरीवास्तव्यानां भवनवासिनां देवानां देवीनां च 'आहेवच्चमित्यादि, अधिपतेः कमै आधिपत्यं रक्षेत्यर्थः सा च रक्षा सामान्येनापि (आ) रक्षकेणैव क्रियते तत आह-पुरस्य पति: पुरपदिस्तस्य कर्म्म पौरपत्यं सर्वेषामासीयानामप्रेसरत्वमिति भावः तथाप्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि नायकनियुक्त तथाविधगृहचिन्तकसामान्यपुरुषस्येव भवति ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह- 'स्वामित्वं' स्वमस्यास्तीति स्वामी वद्भावो नायकत्वमित्यर्थः, तदपि च नायकत्वं कथञ्चित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणयूथाधिपतेर्हरिणस्य, तत आह— 'भर्तृत्वं' पोषकत्वमत एव महत्तरकत्वं तदपि महतरकत्वं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि संभवति यथा कस्यचिद्वणिजः स्वदासदासीवर्ग प्रति, तत आह- 'आणाईसरसेणावच्चे' आज्ञया ईश्वर आशेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्वासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं स्वस्वसैन्यं प्रत्यद्रुतमाज्ञाप्राधान्यमिति भावः कारयन्तोऽन्यैर्नियुक्तकैः पुरुषैः पालयन्तः स्वयमेव महता रखेणेति योगः, 'आहय' इति आख्यानकप्रतिवद्धानि यदिवा 'अहतानि' अव्याहतानि नित्यानुबन्धीनीति भावः ये नाट्यगीते नाख्यं नृत्यं गीतं गानं यानि च वादितानि तन्त्रीतलतालबुटितानि तत्री - वीणा तौ-हस्ततली ताल:- कंसिका बुटितानि - वादित्राणि, तथा यञ्च धनमृदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्र धनमृदङ्गो नाम घनसमानध्वनियों मृदङ्गः, तत एतेषां द्वन्द्वस्तेषां रवेण 'दिव्यान्' दिवि भवान् प्रधानानिति भावः भो For P&Praise Cnly ~ 334 ~ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ३ प्रतिपत्ती देवाधिकारः उद्देश १ सु० ११७ ॥ १६२ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-3 प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] गाही भोगा:-शब्दादयो भोगभोगास्तान भुञ्जमानाः विहरन्ति' आसते || "कहि णं भंते! असुरफुमाराणं देवाणं भवणा पन्नत्ता ?, कहि णं भंते ! असुरकुमारा देवा परिपसंति, एवं जा ठाणपए बत्तम्बया सा भाणियबा जाव चमरे एल्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसति जाब विहरति” क भदन्त ! असुरकुमाराणां देवानां भवनानि प्रशतानि', तथा क भदन्त ! असुरकुमारा देवाः परिवसन्ति !, 'एवम्' उकेन प्रकारेण या स्थानपदे वक्तव्यता सा भणितव्या यावचमरः असुरकुभारेन्द्रः असुरकुमारराजा परिवसति यावद्विहरतीति, सा चैवम्-"गोयमा! इमीसे रवणापभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवार एग जोयणसहस्समोगाहेत्ता हिट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेचा माझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसट्ठी भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाय, ते णं भवणा वाहि बट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकष्णियासंठाणसंठिता उभिनंतरविउलगम्भीरखायपरिहा जाव पडिरुवा, एत्व णं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता, एस्थ गं बहवे असुरकुमारा देवा परिवसंवि काला लोहियक्खबिंबोडा धवलपुष्पदंता असियकेसा वामेयकुंडलधरा अचंदणाणुलित्तपत्ता ईसिसिलिंधपुएफपगासाई असंकिलिढाई सुहुमाई वस्थाई पबरपरिहिया पढमं वयं च समइकता विइयं च असंपत्ता भद्दे जोत्रगे वट्टमाणा तलभंगवतुडियवरभूसणनिम्मलमणिरव मंडियभुया दसमुदामंडियन्गहत्या चूडामणिचित्तचिंधगया सुरूवा महिडिया मह जुइया महाजसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कड़गतुडियर्थभियभुया जाव दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भवणाबाससयसहस्साणं जाव दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति, चमरयलियो य एत्य दुवे असुरकुमारिंदा असुरकुमाररायाणो परिवसंति काला महानीलसरिसा नीलगुलियगवलपगासा वियसियसयत्तनिम्मलई सिसियरत्ततंबनयणा गरुलाययत्रजुतुंगनासा उबचियसिलपवाल दीप अनुक्रम [१५२-१५५] -- 4-3 ---- जी० १०२८ -4LR-LA ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-3 प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] श्रीजीवा- विफलसन्निभाधरोहा पंदुरससिसगलबिमलनिम्मल (दहियण) संखगोखीरकुंदधवलमुणालियादतसेढी हुयवहनिद्धतधोयतत्त्तवणिजरत्त- ३ प्रतिपत्ती जीवाभि तलतालुजीहा अंजणघणमसिणरुयगरमणिज्जनिद्धकेसा वामेयकुंडलधरा जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं देवाधिमलयगि-18 जाव भुंजमाणा विहरति ॥ कहि णं भंते! दाहिणिलाणं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता', कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला असुरकु-15 कारा रीयावृत्तिःहमारा देवा परिवसंत, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिजेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए असीउत्तरजोयणसयसह-II उद्देशः१ ॥१६॥ सवाहलाए उवरि एगं जोयणसहस्समोगाहेत्ता हेवा चेगं जोयणसहस्सं वजेता मज्झे अट्टहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं दाहिणि- सू०११७ ४ लाणं असुरकुमाराणं देवाणं चोतीसं भवणावाससबसहस्सा भवंतीति मक्खायं, ते णं भवणा बाहिं बट्टा तहेव जाब पडिरूवा, तत्थ | गं बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति काला लोहियक्खा तहेव मुंजमाणा विहरंति, अमरे य एत्थ अमुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिचसइ काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे, से गं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं चसट्ठीए सामाणियसाहस्सीर्ण तायत्तीसाए तायचीमगाणं चडण्हं लोगपालाणं पंचण्डं अग्गमहिमीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं | अणियाहिवईणं चउण्हं चउसहीणं आदरखदेवसाहस्सीणं, अण्णेसि च यहूर्ण दाहिणिलाणं देवाणं देवीण य आहे बच्चं पोरेवचं जाव | | बिहरह" ।। इति, इदं प्राय: समस्तमपि सुगमं नवरं 'काला लोहियक्ख' इत्यादि, 'काला' कुष्णवर्णाः 'लोहियक्खाबबोहा' लो-| |हिताक्षरमवद् विनवच-बिम्धीफलवद् ओष्ठौ येषां ते लोहिताक्षविवौष्ठाः आरक्तौठा इति भावः, धवला: पुष्पवत् सामात्कुन्दकलिका इव दन्ता येषां ते धवलपुष्पदन्ताः, असिता:-कृष्णा: केशा येषां से असित केशाः, दन्ताः केशाश्चामीषां क्रिया द्रष्टव्या न स्वाभाविकाः, वैक्रियशरीरत्वान् , 'वामेयकुण्डलधराः' एककर्णावसक्तकुण्डलधारिणः, तथाऽऽण-सरसेन चन्दनेनानुलिप्तं गात्रं वैस्ते दीप अनुक्रम [१५२-१५५] XX FK अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-3 प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ * -११७] आर्द्रचन्दनानुलिप्तगात्राः, तथा ईषत्-मनाक 'शिलिन्ध्रपुष्पप्रकाशानि' शिलिन्ध्रपुष्पसदशवर्णानि 'असंक्लिष्टानि अत्यन्तसुखजन-1 कतया मनागपि सछठेशानुत्पादकत्वात् 'सूक्ष्माणि मृदुलधुरपानि अच्छानि चेति भावः वस्राणि प्रवरं सुशोभं यथा भवति एवं परिहिता:-परिहितवन्तः प्रवरवस्त्रपरिहिताः, तथा वयः प्रथम-कुमारत्वलक्षणमतिकान्तास्तत्र्वन्तवर्तिन इत्यर्थः, यत आह-द्वितीयं च-मध्यलक्षणं वयोऽसंप्राप्ताः, एतदेव व्यक्तीकरोति-भद्रे' अतिप्रशस्से यौबने वर्तमानाः 'तलभंगयतुडियवरभूसणनिम्मलमणिरयणमंडियभुया' तलभद्का-बाहाभरणविशेषाः शुटितानि-बाहुरक्षकाः, अन्यानि च यानि बराणि भूपणानि बाह्राभरणानि तेषु ये निर्मला मणय:-चन्द्रकान्ताद्या यानि रमानि-इन्द्रनीलादीनि तैर्मण्डिती भुजी येषां ते तथा, तथा दशभिर्मुद्राभिर्मण्डिती अग्रहस्तौ येषां ते (दश मुद्रा) मण्डिताग्रहलाः, 'चूडामणिचित्तचिंधगया' चूडामणिः-चूडामणिनामकं चित्रम्-अद्भुतं चिह्न गर्त-स्थितं येषां | ते चूडामणिचित्रचिह्नगताः, चमरवलिसामान्यसूत्रे 'काला' कृष्णवर्णाः, एतदेवोपमानतः प्रतिपादयति-महानीलसरिसा' महानीलं यत्किमपि वस्तुजातं लोके प्रसिद्धं तेन सदृशाः, एतदेव व्याचष्टे-नीलगुटिका-नील्या गुटिका गवलं-माहिषं शृङ्गं तयोरिव प्रकाशःप्रतिभा येषां ते नीलगुटिकागवलप्रकाशाः, तथा विकसितशतपत्रमिव निर्मले ईपदेशविभागेन सिते रक्ते ताने च नयने येषां ते विकसितशतपत्रनिर्मलेषत्सितरक्तताम्रनयनाः, तथा गरुडस्येवायता-दीर्घा ऋज्वी-अकुटिला तुझा-उन्नता नासा-नासिका येषां ते गरुडायतर्जुतुङ्गनासाः, तथा ओयवियं-तेजितं यन् शिलाप्रवाई-विद्रुमं रनं यच्च बिम्बफलं तत्सन्निभोऽधर:-ओष्ठो येषां ते तथा, तथा पाण्डुरं न तु सन्ध्याकालमावि आरक्तं शशिशकलं-चन्द्रखण्डं, तदपि च कथम्भूतमित्याह-विमलं-रजसा रहितं कलङ्कविकलं वा तथा निर्मलो यो दधिधनः शमो गोक्षीरं यानि कुन्दानि-कुन्दफुसुमानि दकरजः-पानीयकणा मृणालिका च तद् धवला दन्तश्रे - -* दीप अनुक्रम [१५२-१५५] 62-%-*-* ~337~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम"-3 प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- णिर्वेषां ते तथा, विमल शब्दस्य विशेष्यात्परनिपातः प्राकृतत्वात , तथा हुतवहेन-चैश्वानरेण नितिं सन् यद् जायते धौत-निर्मलप्रतिपत्ती जीवाभितप्तम्-उत्तप्तं तपनीयम् आरक्त सुवर्ण सद्रक्तानि तलानि-हस्तपादतलानि तालुजिहे च येषां ते हुतबहनिर्मातधौततप्ततपनीयरक्त- देवाधिमलयगि- तलतालुजिह्वाः, तथाऽजन-सौगीराजनं घन:-प्रावृट्कालभावी मेधस्तन् कृष्णाः रुचकवद्-रुचकरवद् रमणीयाः स्निग्धाश्च | कारः रीयावृत्तिः केशा येप ते अजनघनकृष्णरुचकरमणीयस्निग्धकेशाः, शेषं प्राग्वत् ॥ चमरसूत्रे 'तिण्हं परिसाण मित्युक्तं ततः पर्षद्विशेषपरिज्ञा- उद्देशः१ [११४ -११७] ॥१६४ानाय सूत्रमाह सू०११७ - दीप अनुक्रम [१५२-१५५] - चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो कति परिसातो पं०१, गो० तओ परिसातो पं०, तं०-समिता चंडा जाता, अभितरिता समिता मज्झे चंडा वाहिं च जाया । चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरपरिसाए कति देवसाहस्सीतो पण्णताओ?, मज्झिमपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?, बाहिरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! चमरस्स णं असुरिंदस्स २ अभितरपरिसाए चउबीसं देवसाहस्सीतो पपणत्ताओ, मज्झिमिताए परिसाए अट्ठावीसं देव०, बाहिरिताए परिसाए पत्तीस देवसा०॥ चमरस्सणं भंते! असुरिंदस्स असुररपणो अभितरिताए कति देविसता पण्णता?, मज्झिमियाए परिसाए कति देविसया पपणत्ता, बाहिरियाए परिसाए कति देविसता पण्णत्ता, गोयमा! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररपणो अभितरियाए परिसाए अबुट्टा देविसता पं० मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि -- ॥१६४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११८] दीप अनुक्रम [१५६ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशक: [ ( देव०)], - मूलं [११८] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः देवि० बाहिरियाए अढाइजा देवि० । चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररपणो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए० बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? अभितरियाए परि० देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परि० देवीणं केवतियं० बाहिरियाए परि० देवीणं के० ?, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स २ अभितरियाए परि० देवाणं अहाइजाइं पलिओ माई ठिई पं० मज्झिमाए परिसाए देवाणं दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए देवाणं दिवहं पलि० अम्भितरियाए परिसाए देवीणं दिवहं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता मज्झिमियाए परिसाए देवीणं पलिओचमं ठिती पण्णसा बाहिरियाए परि० देवीणं अद्धपलिओयमं ठिती पण्णत्ता ॥ से केणद्वेणं भंते! एवं बुचति ? - चमरस्त असुरिंदस्स तओ परिसातो पण्णत्ताओ, तंजहा-समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया ?, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररनो अभितरपरिसा देवा वाहिता हव्यमागच्छति णो अब्वाहिता, मज्झिमपरिसाए देवा वाहिता हव्यमागच्छंति अव्वाहितावि, बाहिरपरिसा देवा अब्वाहिता हव्यमागच्छंति, अनुत्तरं चणं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अनयरेसु उच्चावएस कजकोबेस समुप्पन्ने अभि तरिया परिसाए सद्धिं संमसंपुच्छणायहुले विहरह मज्झिमपरिसाए सद्धिं पयं एवं पर्वचेमाणे २ For P&Palise Chly ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 1 प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [११८] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥१६५॥ -8 विहरति बाहिरियाए परिसाए सद्धि पर्यडेमाणे २ विहरति, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचइचमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररपणो तओ परिसाओ पपणत्ताओ समिया चंडा जाता, | देवाधिअभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाता (सू०११८)। कार 'चमरस्स णमित्यादि, चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'कति' किवत्सङ्ख्याकाः पर्षदः प्रज्ञाप्ताः १, भगवानाह- उद्देशः १ गौतम ! तिस्रः पर्पदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समिता चण्डा जाता, तत्राभ्यन्तरिका पर्षन् 'समिता' समिताभिधाना, एवं मध्यमिका सू० ११८ चण्डा बाह्या जाता ॥ 'चमरस्स ण'मित्यादि, चमरस्स भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रशप्तानि ?, मध्यमिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि?, बाह्यायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि !, भगवानाहगौतम! चभरल्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्पदि चतुर्विशतिर्देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, मध्यमिकायामष्टाविंशतिर्देवसहस्राणि, बायायां द्वात्रिंशदेवसहस्राणि प्रज्ञाप्तानि ॥ धमरस्स णं भंते ! इत्यादि, चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्थाभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि ? मध्यमिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञतानि ? बाहायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञमानि?, भगवानाह-गौत्तम! अभ्यन्तरिकायां पर्षदि अतृतीयानि देवीशतानि प्रक्षमा गि, मध्यमिकायां पर्षदि त्रीणि देवीशतानि प्रशसानि, बाह्यायां पर्षदि अर्द्धचतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि | 'चमरस्स णं भंते !' इत्यादि, चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायर्या पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञाप्ता? मध्यमिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?,8॥१५॥ एवं बाह्यपर्षद्विषयमपि प्रभसूत्रं वक्तव्यं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीना कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवं मध्यमिकाबाह्यपर्ष-| दीप अनुक्रम [१५६] 5 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~340~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक % % [११८] -% द्विषये अपि प्रभसूत्रे वक्तव्ये, भगवानाह-गौतम! चमरस्यासुरेन्द्रस्वासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामतृतीयानि पल्यो पमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, मध्यमिकायां पर्षदि देवानां द्वे पल्योषमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाह्यायां पर्षदि देवानां सर्दू पल्योपमं खितिः प्रज्ञप्ता, ४ तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां यर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, मध्यमिकायां पर्षदि देवीनां पस्योपमं स्थितिः, प्रशता, बाह्यायां पर्षदि है देवीनामर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञाप्ता, इह भूयान् बाचनाभेद इति यथाऽवस्थितसूत्रे पाठनिर्णयार्थ सुगममपि सूत्रमक्षरसंस्कारमात्रेण विब्रियते । सम्प्रत्यभ्यन्तरिकादिव्यपदेशकारणं पिपलिकपुरिदमाह-से केणडेण मिलादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते ? चमरस्य असुरकुमारराजस्य तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा समिता चण्डा जाता, अभ्यन्तरा समिता मध्यमिका चण्डा बाह्या जाता भगवानाह-गौतम! | चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरपर्यत्का देवाः 'वाहिता' आहूताः 'हव्वं' शीवमागच्छन्ति नो 'अब्बाहिता' अनाहूताः, अनेन गौरवमाह, मध्यमपर्षगा देवा आहूता अपि शीघ्रमागच्छन्ति अनाहूता अपि, मध्यमप्रतिपत्तिविषयत्वात् , बाझपर्षदा देवा अनाहूवाः | शीघ्रमागच्छन्ति, तेषामाकारणलक्षणगौरवानह त्वात् , 'अदुत्तरं च णमित्यादि, 'अधोत्तरम्' अथान्यद् अभ्यन्तरत्वादिविषये कारणं गौतम! चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरकुमारराजोऽन्यतरेषु 'उच्चावचेषु' शोभनाशोभनेषु 'कजकोडंबेसु' इति कौटुम्बिकेषु कार्येषु कुटुम्ने भवानि कौटुम्बानि स्वराष्ट्रविषयाणीत्यर्थः तेषु कार्येषु समुत्पन्नेषु अभ्यन्तरिकया पर्षदा सार्द्ध संमतिसंप्रभबहुलश्चापि विहरति, सन्मत्याउत्तमया मत्या य: संप्रश्न:-पर्यालोचनं तद्वहुलश्चापि 'विहरति आस्ते, स्वल्पमपि प्रयोजनं प्रथमतस्तया सह पर्यालोच्य विदधातीति भावः, मध्यमिकया पर्षदा सार्द्ध यद्भ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्वालोच्य कर्तव्यतया निश्चितं पदं 'तापञ्चयन् विहरति' एवमिदमस्माभिः पर्यालोचितमिदं कर्त्तव्यमन्यथा दोष इति विस्तारयन्नास्ते, बायया पर्षदा सह यदभ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्यालोचितं दीप अनुक्रम [१५६] 4 2 म * RX ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११८] दीप अनुक्रम [१५६ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशक: [ ( देव०)], - मूलं [११८] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मध्यमिकया सह गुणदोषप्रपञ्चकवनतो विस्तारितं पदं तत् 'प्रचण्डयन् प्रचण्डयन् विहरति' आज्ञाप्रधानः सन्नवश्यं कर्त्तव्यत्तया ६३ प्रतिपत्ती निरूपयन् तिष्ठति, यथेदं युष्माभिः कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति तदेवं या एकान्ते गौरवमेव केवलमर्हति यया व सहोत्तममतिखा देवाधि| त्स्वल्पमपि कार्य प्रथमतः पर्यालोचयति सा गौरवविषये पर्यालोचनायां चात्यन्तमभ्यन्तरा वर्त्तते इत्यभ्यन्तरिका, या तु गौरवाह + कारः पर्यालोचितं चाभ्यन्तरिकया पर्पदा सह अवश्यकर्त्तव्यतया निश्चितं न तु प्रथमतः सा किल गौरवे पर्यालोचनायां च मध्यमे भागे ९ उद्देशः १ ५ वर्त्तत इति मध्यमिका या तु गौरवं न जातुचिदप्यर्हति न च यया सह कार्य पर्यालोचयति केवलमादेश एवं यस्मै दीयते सा गौरसू० ११८ वानही पर्यालोचनायाञ्च वहिर्भावे वर्त्तत इति वाला । तदेवमभ्यन्तरिकादिव्यपदेशनिबन्धनमुक्त, सम्प्रत्येतदेवोपसंहरन्नाह' से ए एण (तेण) द्वेणमित्यादि पाठसिद्धं, यानि तु समिया चंडा जाता इति नामानि तानि कारणान्तरनिबन्धनानि, कारणान्तरं च ग्रन्थान्त रावसातव्यं, अन्त्र सङ्ग्रहणिगाथे— “चउवीस अट्ठवीसा बत्तीससदस्य देव चमरस्स । अद्भुट्टा तिन्नि तहा अड्डाइजा य देविसया ||१|| | अड्डाइजा य दोन्नि य दिवडूपलियं कमेण देवठिई पलियं दिवमेगं अद्धो देवीण परिसासु ॥ २ ॥" ॥ १६६ ॥ श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता ?, जहा ठाणपदे जाव बली, एत्थ वइरोयशिंदे वइरोषणराया परिवसति जाव विहरति । बलिस्स णं भंते । वयरोयदिस्स बहरोaurat afa परिसाओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! तिष्णि परिसा, तंजहा— समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया । बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स बहरोयrरनो अभितरियाए परिसाए कति देवसहस्सा ? मज्झिमियाए परिसाए कति देवसहस्सा For P&Palise Chly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 342~ ।। १६६ ।। My Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११९] दीप अनुक्रम [१५७] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशक: [ ( देव०)], - मूलं [११९] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जाव बाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता ?, गोयमा बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स २ अभितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्सा पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए चउवीसं देव सहस्सा पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसहस्सा पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए अद्धपंचमा देविसता, मज्झमियाए परिसाए चत्तारि देविसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अड्डट्ठा देविसता पण्णत्ता, बलिस ठितीए पुच्छा जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवतियं काल ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! बलिस्स णं वइरोयदिस्स २ अभितरियाए परिसाए देवाणं असुट्टपलिओमा ढिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि पलिओयमाई ठिती पण्णत्ता, बाहिरिया परिसाए देवाणं अहाइलाई पलिओ माई ठिई पन्नता, अभिंतरियाए परिसाए देवीणं अहारजाई पलिओ माई ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं दो पलिओ माई ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं दिवद्धं पलिओवमं किती पण्णत्ता, सेसं जहा चमरस्स असुरिंदर असुरकुमाररण्णो ॥ (सू० ११९) 'कहि णं भंते! उत्तरिलाणं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता' इत्यादि क भदन्त ! उत्तराणामसुरकुमाराणां भवनानि प्रज्ञतानि ? इत्येवं यथा प्रज्ञापनायां द्वितीये स्थानाख्ये पदे तथा तावद्व कन्यं यावद्बलिः, अत्र वैरोचनेन्द्रो वैरोचनराजः परिवसति, तत ऊर्द्धमपि तावद्वतव्यं यावद्विहति, तचैवम् — “कहि णं भंते! उत्तरिहा असुरकुमारा देवा परिवसंति ?, गोवमा ! जंबु For P&Praise Chly ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१६७॥ [११९] दीप अनुक्रम [१५७] SAX4 दीवे दी मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए असीउत्तरे जोयणसयसहस्सबाहलाए उवरि एग जोयणसहस्सं ३ प्रतिपत्तौ ओगाहेत्ता हेहा पेग जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अबहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्य उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणवा- देवाधिससयसहस्सा भवतीति मक्खायं, ते गं भवणा बाहिं बट्टा अंतो चउरंसा सेसं जहा दाहिणिलाणं जाव विहरंति, बली य एत्य वइ-8 कारः रोयणिंदे वइरोयणराया परिवसइ काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ तीसाए भवणवाससयसहस्साणं सट्ठीए सा- उद्देशः१ माणियसाहस्सीणं तायचीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्इं परिसाणं सत्तहमणि- सू०११९ याणं सत्तहमणियाविईणं चउण्ड् य सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसि च बहूणं उत्तरिलाणं असुरकुमाराण देवाणं दे-18 बीण य आहेवचं जाव विहरद" समस्तमिदं प्राग्वत् ।। सम्प्रति पर्षनिरूपणार्थमाह-'बलिस्स णं भंते! इत्यादि प्राग्वत् , नवरमिदमत्र देवदेवीस या स्थितिनानात्वम्-"वीस उ चवीस अट्ठावीस सहस्साण (होति ) देवाणं । अद्धपणचउद्धृट्टा देविसय बलिस्स परिसासु ॥१॥ अह तिण्णि अडाइजाई (होति) पलियदेवठिई । अडाइजा दोषिण य दिवडू देवीण ठिइ कमसो ॥ २॥" कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णसा?, जहा ठाणपदे जाव दाहिणिल्लावि पुच्छियव्या जाव धरणे इस्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसति जाव विहरति॥धरणस्स भंते! णागकुमारिंदस्स नागकुमाररपणो कति परिसाओ? पं०, गोयमा तिण्णि परिसाओ, ताओ चेव जहा चमरस्साधरणस्स णं भंते ! णागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए कति ||१६७ देवसहस्सा पन्नत्ता?, जाव बाहिरियाए परिसाए कति देवीसता पण्णत्त?, गोयमा ! धरणस्स णं 51ॐॐॐ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२०] - - दीप अनुक्रम [१५८] णागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए सदि देवसहस्साई मज्झिमियाए परिसाए सत्तरि देवसहस्साई बाहिरियाए असीतिदेवसहस्साई अन्भितरपरिसाए पपणत्तरं देविसतं पण्णत्तं मज्झिमियाए परिसाए पण्णासं देविसतं पण्णसं बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविसतं पण्णसं । धरणस्स णं रन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? वाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? अभितरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! धरणस्स रपणो अभितरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं अद्धपलिओवर्म ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिती पपणत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं देसूर्ण अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए देवीणं देसूर्ण अद्धपलिओवर्म ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं सातिरेर्ग चउन्भागपलिओवर्म ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अट्ठो जहा चमरस्स ॥ कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं जहा ठाणपदे जाव विहरति । भूयाणंदस्स णं भंते! णागकुमारिदस्स णागकुमाररपणो अभितरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्ण ~345~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२० ] दीप अनुक्रम [१५८] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], - उद्देशक: [ ( देव०)], - मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीवावृत्तिः ॥ १६८ ॥ लाओ ?, प्रज्मियाए परिसाए कति देवसाहस्मीओ पण्णलाओ? बाहिरियाए परिसाए कह देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? अभितरियाए परिसाए कह देविसया पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए कह देविया पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए कई देविसया पण्णत्ता ?, गोयमा ! भूयादसणं नागकुमरिंदस्स नागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए पन्नासं देवसहस्सा पण्णत्ता, मझिमियाए परिसाए सहिं देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए सत्तरि देवसाहसीओ पण्णत्ताओ, अग्भितरियाए परिसाए दो पणवीसं देविसयाणं पण्णत्ता, मज्झि मियाए परिसाए दो देवीसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तरं देविस पण्णत्तं । भूयानंदस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केव तियं कालं ठिती पणता ? जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, गोयमा ! भूताणंदस्स णं अभितरियाए परिसाए देवाणं देणं पलिओयमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमयाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवानं अपलिओ मंठिती पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए अपलिओवमं टिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं देणं अपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवी सारेगं भागपलिओवमं ठिली पण्णत्ता, अत्थो जहा चमरस्स, अवसेसाणं वेणु For P&Pale Cinly ३ प्रतिपत्ती देवाधिकारः उद्देशः १ सू० ११९ ~ 346~ ॥ १६८ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने स्खलनाः वर्तते – देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् सू० ११९ इति मुद्रितं, तद् अपि मुद्रण-दोष:, अत्र सू० १२० एव वर्तते Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२० ] दीप अनुक्रम [१५८] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], - उद्देशक: [(देव०)], - मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० च० २९. देवादीणं महाघोस पावसाणाणं ठाणपदवत्तब्वया णिरवयवा भाणियब्बा, परिसातो जहा धरणभूताणंदाणं (सेाणं भवणवईणं) दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स उत्तरिल्लाणं जहा भूतानंदस्स, परिमाणपिठितीचि । (सू० १२० ) "कहि णं भंते! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता? इत्यादि क भदन्व! नागकुमाराणां देवानां भवनानि प्रज्ञतानि ?, एवं यथा प्रज्ञापनायां स्थानास्ये द्वितीयपदे तथा वक्तव्यं यावद् दाक्षिणात्या अपि प्रया यावद्धरणोऽत्र नागकुमारेन्द्रो नागकुमारराजः परिवसति यावद्विहरवि, तचैवम् — "कहि णं भंते! नागकुमारा देवा परिवसंति ?, गोषमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए अ सी उत्तर जोयणलय सहसा हा उबरिं एवं जोयणसहस्सं ओगाहिता हिद्वावि एवं जोयणसहस्सं वचेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एव पं नागकुमाराणं देवागं चुउसी भवणावासस्यसहस्सा भवतीतिमन्त्रायं ते णं भवणा वाहिं वट्टा जाव पडिरुवा, एत्थ णं नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता, तत्थ णं बहवे नागकुमारा देवा परिवसंति महिड्डीया महज्जुतिया, सेसं जदा ओहिव्याणं जाव विहरति, धरणभूयाणंदा एत्थ दुवै नागकुमारिंदा नागकुमाररायाणो परिवसंति महिडीया सेसं जहा ओहियाणं जाब वि हरंति। कहि णं भंते! दादिविद्वाणं नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! दाहिणिला नागकुमारा देवा परिवर्तति ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्य पञ्चयस्त दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाष पुढवीए असीउत्तर जोयणसय सहस्वाहाए उबरिं एवं जोयसहस्सं ओगा देता हेडा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अत्तरे जोयणसयसहस्से, एरथ णं दाहिणिहाणं नागकुमाराणं देवाणं चोयालीस भवणावाससयसहस्सा भवतीति मक्यायें, ते णं भवणा वादि बट्टा जाव पडिवा, एत्थ णं दाहिणिहाणं नागकुमाराणं देवाणं For P&Pase City ~347~ - Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: (देव०)],, -------------------- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२० दीप अनुक्रम [१५८] श्रीजीवा- भवणा पन्नत्ता, एत्य णं वहवे दाहिणिल्ला नागकुमारा परिवसंति महितीया जाय बिहरंति, धरणे एस्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया | प्रतिपत्ती जीवाभि० परिवसइ महिडीए जाव पभासेमाणे, से पं तस्य चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छण्डं सामाणियसाहस्सीर्ण तायत्तीसाए ताय- देवाधिमलयगि-हतीसगाणं चउण्डं लोगपालाणं ठण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं विहं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं अणियाहिवईणं चउवी-SI कारः रीयावृत्तिःसाए आयरस्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूर्ण दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव विहरंति" पाठसिद्धं ॥ उद्देशः१ ॥१६९॥ सम्प्रति पर्वनिरूपणार्थमाह-वरणास्स णं भंते !' इत्यादि, प्राग्वन् , नवरमत्राभ्यन्तरपर्यदि पष्टिदेवसहस्राणि मध्यमिकायां सप्तति- सू०१२० देवसहस्राणि बाधायामशीतिदेवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि पञ्चसप्ततं देवीशतं, 'मज्झिमियाए परिसाए पण्णासं देविसतं | पण्णत्तं' मध्यमिकायां पर्षदि पञ्चाशं देवीशसं बाझायां पञ्चविंद देवीशतं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां स्थितिः सातिरेकमईपल्योपमं मध्यनिकायाम पल्योपमं यायायां देशोनमपल्योपमं, तथाऽभ्यन्तरिकायर्या पर्पदि देवीनां सितिदेशोनमर्द्धपल्योपमं | मध्यमिकायां सातिरेकं चतुर्भागपल्योपमं वाह्यायां चतुर्भागपल्योपमं, शेष प्राग्वत् ॥ 'कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं | भवणा पण्णत्ता जहा ठाणपदे जाय यिहरइति, क भदन्त ! उत्तराणां नागकुमाराणां भवनानि प्रज्ञप्तानि? इत्यादि यथा प्रज्ञा-1 अपनायां स्थानारये पदे सथा वक्तव्यं यावद्विहरतीति पर्द, तचैत्रम्-'कहिणं भंते ! उत्तरिल्ला नागकुमारा परिवसन्ति ?, गोयमा! - बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पञ्चयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए असीउत्तरजोगणसयसहस्सवाहल्लाए उचरि एगं जोयणसहसं ओगाहित्ता हेवा गं जोयणसहस्सं वजेत्ता मञ्झे अदृहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं चत्तालीस भवणा-F॥१६९।। वाससयसहस्सा हर्षतीतिमवखाय, ते णं भवणा याहिं बट्टा सेसं जहा दाहि जिहाणं जाब विहरंति, भूयाणंदे एत्व नागकुमारिंदे नाग-1 Jama अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२०] दीप अनुक्रम [१५८] कुमारराया परिवसति महिडीए जाव पभासेमाणे, से गं चत्तालीसाए भवणावाससयसहस्साणं सेसं तं चैव जाव विहरद' इति निग-1 दसिद्धं ।। पर्षन्निरूपणार्थमाह-भूयाणंदस्स णमित्यादि प्राग्वत् नवरमत्राभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चाशदेवसहस्राणि मध्यमिकायां वष्टिदेवसहस्राणि बाह्यायां सप्ततिर्देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि पञ्चविंशे देवीशते मध्यमिकायां परिपूर्णे द्वे देवीशते वाखायां पञ्चसप्ततं देवीशतं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां स्थितिदेशोनं पल्योपमं मध्यमिकायां सातिरेकमर्द्धपल्योपमं बाह्यायामर्द्ध पल्योपम, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां स्थितिर पल्योपमं मध्पनिकायां देशोनमर्द्धपल्योपनं बाहह्मायां सातिरेकं चतुर्भागपल्योशापम, शेष प्राग्वत् । 'अवसेसाणं वेणुदेवाईणं महाघोसपजवसाणाणं ठाणपयवत्तब्बया भाणियब्वा' इति, 'अवशेषाणां नागX कुमारराजश्यतिरिक्तानां वेणुदेवादीनां महाघोषपर्यवसानानां स्थानाण्यप्रज्ञापनागतद्वितीयपदक्तव्यता भणितम्या, सा चैवम्-"कहि | माणं भंते ! सुबन्नकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता? कहि भंते ! सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुटवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उपरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेढाबि एगं जोयणसहस्सं बजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयस हस्से, एस्थ णं सुवष्णकुमाराणं देवाणं वायत्तरी भवणावाससयसहस्सा भवतीतिमक्खाय, ते गं भवणा बाहिं वहा जाय पडिरूवा, दीपस्थ णं सुवष्णकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता, तत्थ गं बहये सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिडिया सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति, वेणुदेये वेणुदाली एत्य दुवे सुवष्णकुमारिंदा सुवण्णकुमाररायाणो परिवसंति महिडिया जाब विहरति । कहिणं भंते ! दाहि|णिलाणं सुवष्णकुमाराणं भवणा पण्णता? कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला सुवष्णकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए | पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उपरि एग जोयणसयसहस्सं ओगाहित्ता हेवा चेगं जोयणसहस्सं बजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे 29-2-201 ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२० दीप अनुक्रम [१५८] श्रीजीवा- जोयणसयसहस्से, एस्थ णं दाहिणिलाणं सुवण्णकुमाराणं अद्भुत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवतीतिमक्खायं, ते णं भवणा बाहिं बट्टा प्रतिपत्ती जीवाभिजाय पडिरूवा, एत्य णं दाहिणिलाणं सुवण्णकुमाराणं भवणा पणत्ता, एत्य णं यहवे दाहिणिला सुवण्णकुमारा परिवसंति, वेणुदेवे देवाधिमलयगि- पत्य सुवण कुमारिदे सुषण्णकुमारराया परिवसति महिड्डिए जाब पभासेमाणे, से गं तत्थ अहत्तीसाए भवणापाससयसहस्साणं जाव | कारः रीयावृत्तिः विहरति ।" पर्पद्वक्तव्यताऽपि धरणवभिरवशेषा वक्तव्या । 'कहि णं भंते! उत्तरिहाण सुवण्णकुमाराणं भयणा पन्नत्ता? कहिणं भंते उद्देशः१ का उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसति?, गोबमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए जाव मझे अट्रहत्तरे जोयणसयसहस्से, एस्थ है ॥१७॥ उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं चोतीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं भत्रणा वाहिं वट्टा जाब पडिरूवा, एत्य की बहवे उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसति महिहिया जाब विहरंति, वेणुदाली य एरथ सुपण्णकुमारिंदे सुवण्णकुमारराया परि वसति महिडिए जाव पभासे०, (से गं) तत्थ चोत्तीसाए भवशावाससयसहस्साणं सेसं जहा नागकुमाराणं।" पर्पद्वक्तव्यताऽपि भूतानन्दव-1 निरवशेषा वक्तच्या । यथा सुवर्णकुमाराणां वलव्यता भणिता तथा शेषाणामपि वक्तव्या, नवरं भवननानात्वमिन्द्रनानावं परिमाण-| नानावं चैताभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम्-च उसट्ठी असुराणं चुलसीई चेव होइ नागाणं । वायत्तरि सुवणे बाउकुमाराण छन्न उई ||१| दीवदिसाउदहीण विज कुमारिंदधणियमांगीणं । छण्डंपि जुबलयाणं वावत्तरिमो सयसहस्सा ॥ २॥ चोत्तीसा १ चोयाला २ अ-13 हात्तीसं ३ च सयसहस्साई । पण्णा ४ चत्तालीसा १० दाहिणतो होति भवणाई ॥ ३ ॥ तीसा १ चत्तालीसा २ चोत्तीस ३ चेव । सयसहस्साई । छायाला ४ छत्तीसा १० उत्तरतो होति भवणाई ॥ ४ ॥ चमरे १ धरणे २ वह वेणुदेव ३ हरिकंत ४ अग्गिसीहे ५ ॥ य। पुण्णे ६ जलकंते या अमिए ८ लंबे व ९ घोसे य १० ॥ ५ ॥ बलि १ भूयाणंदे २ वेणुदालि ३ हरिस्सह ४ अग्गिमाणवी अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १७) जीवशालीवाशिमामा-उपांगकुर-(मुलं ति.. प्रत सूत्रांक [१२०] AC-OCT-* ROCEXPER दीप अनुक्रम [१५८] ५ विसिष्टे ६ । जलप्पभ अमियवाहण ८ पभंजणे ९ चेव महघोसे १०॥ ६॥ चउसट्ठी सट्ठी खलु छच सहस्सा उ असुरखजाणं । सामाणिया उ एए चारगुणा आयरक्खा ॥७॥" पर्षदूतव्यताऽपि दाक्षिणात्यानां धरणवन् , उत्तराणां भूतानन्दवत् , तथा चाह"परिसाओ सेसाणं भवणवईणं दाहिगिहाणं जहा धरणस, 'उत्तरिलाणं जहा भूयाणदस्से"ति ॥ तदेवं भवन(पति)वक्तव्यतोक्का, सम्प्रति वानमन्तरवक्तव्यतामभिधित्सुराह कहिणं भंते! वाणमंतराणं देवाणं भवणा (भोमेजा णगरा) पण्णता?, जहा ठाणपदे जाव विहरंति ॥ कहिणं भंते! पिसावाणं देवाणं भवणा पण्णता?, जहा ठाणपदे जाव विहरति कालमहाकाला य तत्थ दुवे पिसायकुमाररायाणो परिवसंति जाब विहरति, कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं पिसायकुमाराणं जाव विहरंति काले य एल्थ पिसायकुमारिंदे पिसायकुमारराया परिवसति महहिए जाच विहरति ॥ कालस्स शंभंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररणो कति परिसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! तिषिण परिसाओ पपणत्ताओ, तंजहा-ईसा तुडिया दढरहा, अभितरिया ईसा मजिझमिया तुडिया वाहिरिया दढरहा । कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररपणो अभितरपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पषणताओ? जाव बाहिरियाए परिसाए कह देविसया पण्णत्ता?, गो० कालस्स णं पिसायकुमारिंबस्स पिसाय कुमाररायस्स अभितरियपरिसाए अट्ट देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ मनिमपरि वाणव्यन्तर-देवानां भेद-प्रभेदा: एवं विविध-विषयाधिकारः ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२१ ] दीप अनुक्रम [१५९] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], - उद्देशक: [ ( देव०)], - मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १७१ ॥ साए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ बाहिरियपरिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ अभितरियाए परिसाए एवं देविसतं पण्णत्तं मज्झिमियाए परिसाए एवं देविसतं पण्णत्तं बाहिरिया परिसाए एवं देविसतं पण्णत्तं । कालस्स णं भंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवलियं कालं किती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवाण केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? जाव बाहिरियाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स farmarrot नंतर परिसाए देवाणं अपओिवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परि० देवाणं देणं अपलिओ मंठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परि० देवाणं सातिरेगं चभागपदिओवमं ठिती पण्णत्ता, अन्नंतरपरि० देवीणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमपरि० देवीणं उभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देणं - भागपलिओ मंठिती पण्णत्ता, मज्झिमपरिसाए देवीगं चउभागपलिओवमं दिती पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देणं चउभागपलिओयमं डिती पण्णत्ता, अट्ठो जो चैव चमरस्स, एवं उत्तरस्सवि, एवं निरंतरं जाव गीयजसस्स ॥ ( सू० १२१ ) 'कहि णं भंते! वाणमंतराणं देवाणं भोमेज्जा नगरा पण्णत्ता?" क भदन्त ! बानमन्तराणां देवानां भौमेयानि नगराणि प्रज्ञ For P&Praise Cinly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~352~ * ३ प्रतिपत्ती देवाधिकारः उद्देशः १ सू० १२१ ॥ १७१ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [3], -----------------------उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - E % प्रत सूत्रांक [१२१] *-4- - दीप प्लानि ?, 'जहा ठाणपदे जाव विहरति' इति, यथा स्थानाख्ये प्रज्ञापनायां द्वितीये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरन्तीति, तश्चैवं-गोकायमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए रथणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहलस्स उबरि एगं जोयणसय ओगाहेत्ता हेवावि एगं जोयराणसयं बजेत्ता मज्ने अढसु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमन्तरार्ण तिरियमसंखेजा भोमेजा नगरावाससयसहस्सा भवतीतिगक्खायं, ते णं भोमेजा नगरा बाहिं बहा अंतो चउरंसा अहे पुक्सरफरिणयासंठाणसंठिया उकिणंतरविउलगंभीरखायपरिहा पागारहालयकवाहाडतोरणपडिदुबारदेसभागा अंतसयग्धिमुसलमुसुंद्विपरियरिया अयोज्झा सयाजया सयागुत्ता अडयालकोहरदया अडयालकववणमाला हाखेमा सिवा किंकरामरदंडोवर क्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदरदिनपंचंगुलितला उबचियचंदणकलसा चंदणधडसु कयतोरणपदिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलबट्टबग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुगापुएफपुंजोययारफलिया कालागुरुपवरकुन्दुरुकालुरुकधूवमघमघेतर्गधुद्धयाभिरामा सब्बरवणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निर्णकाच्छाया सप्पभा समिरीया समोया पासाईवा दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरुवा, एत्थ णं पाणमंतराणं देवाणं भोमेजा नगरा पपण ता, तत्थ णं वहवे वाणमंतरा देवा परिवसंति, जहा-पिसाया भूया जक्खा रक्खसा किंनरा किंपुरिसा भुयगपतिणो महाकाया गंधवगणा य निधणगंधब्बगीयरमणा अणपन्नियपणपन्निय इसिवाइय भूयबाइव कंदिय महाकं दिया य कुहंडपयंगदेवा चंचलचवलचि-1 पत्तकीलण पिया गहिरहसियगीयणचणरई वणमालामेलम उष्टकुंडलसक्छंदविउव्वियाभरणचारुभूसणधरा सम्बोउयसुरहि कुसुमरइयपलं सोहंतकंतवियसंतचित्तवणमालरइयवच्छा कामकामा कामरूबदेहधारी नाणाबिबण्णरागवरवत्थचिल्ललगनियंसणा विषिहदेसनेवत्थगहियवेसा पमुइयकवप्पकलहकेलिकोलाहलप्पिया हासबोलबहुला असिमोग्गरसत्तिहत्था भणेगमणिरयणविविह (निजुत्त) चित्तचिंधगया अनुक्रम [१५९] JEcI ~353~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१५९] श्रीजीवा- सुरूवा महिडिया महायसा जाव महासोक्खा हारविराइयवच्छा जाब दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं 8३ प्रतिपच्ची जीवाभि० भोमेजनगरावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गम हिसीणं साणं साणे परिसाणं साणं साणं अणीयाणं || देवाधिमलयगि-1 साणं २ अणीयाहिवईणं सास साणं भावरक्सदेवसाहस्सीण, अन्नेसि च वहूर्ण पाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाब मुंज- II कारः रीयावृत्तिः माणा विहरंति" प्रायः सुगर्म, नवरं 'भुयगवइणो महाकाया' इति, महाकाया--महोरगाः, किंविशिष्टाः' इत्याह-भुजगपतयः, 'गन्ध-2 उद्देशः१ बंगणाः' गन्धर्वसमुदायाः, किंविशिष्टाः? इत्याह-निपुणगन्धर्वगीतरतयः' निपुणा:-परमकौशलोपेता एवं गन्धर्वा-गन्धर्वजातीया | सू०१२१ ॥१७२॥ देवास्तेषां यद् गीतं तत्र रतियेषां ते तथा, एते ब्यन्तराणामष्टौ मूलभेदाः, इमे चान्येऽवान्तरभेदा अष्टौ-'अणपन्निय'इत्यादि, कथम्भूता एते पोडशापीत्यत आह-'चंचलचवलचित्तकीलणदवप्पिया' चञ्चला-अनवस्थितचित्तास्तथा चलचपलम्-अतिशयेन चपलं यचित्र-नानाप्रकारं कीडनं यश्च चित्री-जानाप्रकारो द्रय:-परिहासस्ती पियौ येषां ते चलचपलचित्रक्रीडनद्रवप्रियाः, ततश्चचालशब्देन विशेषणसमासः, तथा 'गहिरहसियगीयनच्चणरई' इति गम्भीरेषु हसितगीतनर्त्तनेषु रतिषेपां ते तथा, तथा 'वणमालामेडमजलकुंड लसच्छंदविउब्धियाभरणभूसणधरा' इति बनमाला-धनमालामयानि आमेलमुकुटकुण्डलानि, आमेल:-आपीडशब्दस्य प्राकृतलक्षदणयशाद् आपीड:-शेखरकः, तथा स्वच्छन्द विकुर्वितानि यानि आभरणानि तैर्यचार भूपर्ण-मण्डनं तद्धरन्तीति वनमालाऽऽपीडमु कुटकुण्डलस्वच्छन्दविकुर्विताभरणचारभूषणधराः, लिहादिलादच् , तथा सर्व कै:-सर्वर्तुमाविभिः सुरभिकुसुमैः सुरचिता:-शोभनं | निर्तिताः तथा प्रलम्बत इति प्रलम्बा शोभत इति शोभमाना कान्ता-कमनीया विकसन्ती-अमुकुलिता अम्लानपुष्पमयी चित्रा- ॥१७२॥ नानाप्रकारा वनमाला रचिता बक्षसि यैस्ते सर्व कसुरभिकुसुमरचितप्रलम्पशोभमानकान्तविकसचित्रवनमालारचितवक्षसः, तथा कामं | अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र । इति निरर्थकम् ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - -- प्रत सूत्रांक [१२१] -खेरछया गमो येषां ते कामगमा:-स्वेच्छाचारिणः, कचित् 'कामकामाः' इति पाठः, कामेन-वेच्छया कामो-धुनसेवा थेषां ते! K कामकामा अनियतकामा इत्यर्थः, तथा कार्म-खेच्छया रूपं येषां ते कामरूपास्ते च ते देहाश्व कामरूपदेहातान् परन्तीत्येवंशीलाः। कामरूपदेहधारिणः, खेच्छाविकुर्चितनानारूपदेहधारिण इत्यर्थः, तथा नानाविधैर्वण रागो-रक्तता येषां तानि नानाविधवर्णरागाणि || वराणि-प्रधानानि चित्राणि-नानाविधानि अद्भुतानि वा (वस्त्राणि) चेहलकानि-देशीवचनाद् देदीप्यमानानि नियंसण-परिधानं येषां ते || नानाविधवर्णरागवरयाचेहलकनिवसनाः तथा विविधैर्देशनेपथ्येहीतो बेपो यैस्ते विविधदेशनेपध्यगृहीतवेपाः, 'पमुइयकंदप्पक लहकेलिकोलाहलप्पिया' कन्दर्पः-कामोद्दीपनं वचनं चेष्टा च कलहो-राटि: केलि:-क्रीडा कोलाहलो-बोल: कन्दर्पकलहकेलिकोहालाहलाः प्रिया येषां ते कन्दप्र्पकलहकेलिकोलाहलभियाः, तत: प्रमुदितशब्देन सह विशेषणसमासः, 'हासबोल बहुला' इति हास-18 बोलौ बहुलो-प्रतिप्रभूती येषां ते हासबोलबहुलाः, तथाऽसिमुद्रशक्तिकुन्ता हस्ते येषां ते असिमुद्रशक्तिकुन्तहस्ताः, 'प्रहरणात् सप्तमी चेति सप्तम्यन्तस्य पाक्षिकः परनिपातः, 'अणेगमणिरयणविविहनिजुत्तचित्तचिंधगया' इति, मणयः-चन्द्रकान्ताद्या रत्नानिकतनादीनि अनेकर्मणिरत्नविविध-नानाप्रकार नियुक्तानि विचित्राणि-नानाप्रकाराणि चिह्नानि गतानि-सितानि येषां ते तथा शेष प्राग्वत् ।। 'कहि णं भंते ! पिसायाणं देवाणं भोमेज्जा नगरा पण्णता? क भवन्त ! पिशाचानां देवानां भौमेयानि नगराणि प्रज्ञप्तानि ? इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जाव विहरति यथा प्रज्ञापनायां स्थानारये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरन्तीति पर, तशेवं"कहि णं भंते ! पिसाया देवा परिबसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबालम्स उवरि एग जोवणसयं ओगाहेत्ता हेटा गं जोवणसयं वजेत्ता मञ्झे अहसु जोयणसएसु, पत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेना भोमेजन दीप - अनुक्रम [१५९] - ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१५९] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / १ (मूलं + वृत्तिः) उद्देशकः [(देव०)], मूलं [१२१] प्रतिपत्तिः [3] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १७३ ॥ ------- - --- गरावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं, ते णं भोमेजनगरा वाहिं बट्टा जो ओहिओ भोजनगरवण्णतो सो भाणियन्वो जान पडिरूवा, एत्थ णं पिसायाणं भोजनगरा पण्णत्ता, तत्थ णं बहते पिसाया देवा परिवर्तति महिडिया जहा ओहिया जाव विहति" सुगर्म, "काल महाकाला य एत्थ दुबे पिसाईदा पिसायरायाणो परिवसंति महिडिया जाब बिहरंति, कहि णं भंते! दाहिणिहाणं पिसा वाणं भोगेजा नगरा० चाहिं बट्टा जो ओहिओ भोमेजनगरवण्णतो सो भाणियच्च जान पहिरुवा, एत्थ णं पिसायाणं भोमेनगरा पण्णत्ता कहि णं भंते! दाद्दिजिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाष पुढवीए रयणामयरस कंडस्स जोयणसहस्सवादहस्स उवरिं एवं जोयणसयं ओगाहेत्ता हावि एगं जोवणसयं वजेत्ता मध्झे अट्ठसु जोयणसएस एस्थ णं दाहिणिहाणं पिसायाणं देवाणं भोमेजा नगरा पण्णत्ता, तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति महिडिया जाय विहरति काले व तत्थ पिसाईदे पिसायराया परिवसति महिड्डिए जाब पभासेमाणे, से णं तत्व तिरियमसंखेजाणं भोमेज्जनगरावास सवसहस्ताणं चउन्हें सामाणियसाहस्तीणं चउन्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिहूं परिमाणं सत्तण्डं अणियाणं सत्तण्डं अणियादिवईणं सोलसन्हं आयरक्खदेवसाहस्तीर्ण अन्नेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमन्तराणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव विहरति" पाठसिद्धं ॥ सम्प्रति पर्यनिरूपणार्थमाह- 'कालरस णं भंते! पिसायदस्स पिसायरनो कति परिसाओ प ण्णत्ताओ ?, गोयमा ! तिष्णि परिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-ईसा तुडिया दढरहा अभितरिया ईसा' इत्यादि सर्व प्राग्वत्, नवरसत्राभ्यन्तरिकायामष्टो देवसहस्राणि मध्यमिकायां दश देवसहस्राणि बाह्यायां द्वादश देवसहस्राणि तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्यदि एकं देवीशतं मध्यमिकायामप्येकं देवीशतं वाह्यायामध्येकं देवीशतं अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां स्थितिरपल्योपमं मध्यमिकायां देशोनमर्द्ध For P&Praise Cly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 356~ ३ प्रतिपत्तौ देवाधिकार: उद्देशः १ सू० १२१ ॥ १७३ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * -0- प्रत सूत्रांक [१२१] 72-0 दीप अनुक्रम [१५९] सपल्योपमं वालायां सातिरेकचतुर्भागपल्योपमं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां सातिरेकं चतुर्भागपल्योपमं मध्यमिकायां चतुर्भाग-1 पस्योपमं बाह्यायां देशोनं चतुर्भागपल्योपमं, शेष प्राग्वत् । “कहि भंते! उत्तरिहाणं पिसायाणं भोमेजा नगरा पण्णता ?, कहि । भंते ! उत्तरिहा पिसाया देवा परिवसंति ?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे जहेब दाहिणिल्लाणं वत्तञ्चया तहेब उत्तरिल्लाणंपि, नवरं मन्दरस्स उत्तरेणं, महाकाले इत्य पिसाईदे पिसायराया परिवसति जाब विहरति" पाठसिद्ध, पर्षद्वक्तव्यताऽपि कालवन् , "एवं जहा पिसायाणं तहा भूयाणवि जाव गंधब्वाणं नवरं इंवेसु नाणत्तं भाणियवं, इमेण विहिणा-भूयाणं सुरूवपडिरूजा, जक्खाणं पुण्णभद्दमाणिभद्दा, रक्खसाणं भीसमहाभीमा, किंनराणं किंनरकिंपुरिसा, किंपुरिसाणं सप्पुरिसमहापुरिसा, गहोरगाणं अइकायमहाकाया, गंधब्वाणं सगीयरईगीयजसा-काले य महाकाले सुरूवपडिरूयपुण्णभद्दे य । अमरवइमाणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे ॥ १॥ किंनर किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । अइकायमहाकाए गीयरई व गीयजसे ॥ २॥" सुगमम् , पर्षद्वक्तव्यताऽपि कालवनिरतरं वक्तण्या यावद्गीतयशसः ॥ तदेवमुक्ता वानमन्तरवक्तव्यता सम्प्रति ज्योतिष्काणामाह कहि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं विमाणा पणता? कहि णं भंते ! जोतिसिया देवा परिवसंति?, गोयमा! उपि दीवसमुदाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुत्समरमणिलातो भूमिभागातो सत्तणउए जोपणसते उखु उप्पतित्सा दसुत्तरसया जोयणबाहल्लेणं, तत्थ ण जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेजा जोतिसियविमाणावाससतसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं विमाणा अद्धकविहकसंठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे जाच चंदमसूरिया य तत्य णं जोतिसिंदा जोतिसरापाणो ज्योतिष्क-देवानां भेद-प्रभेदा: एवं विविध-विषयाधिकार: ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभिः मलयगिरीयावृत्तिः ॥१७४॥ [१२२] S दीप अनुक्रम [१६०] परिवति महिडिया जाव विहरंति ॥ सूरस्सणं भंते! जोतिसिंदस्स जोतिसरपणो कति प- ३ प्रतिपत्तौ रिसाओ पण्णसाजो?, गोयमा! तिपिण परिसाओ पण्णताओ, जहा-तथा तडिया पेचा, देवाधिअम्भितरया तुंबा मज्झिमिया तुडिया बाहिरिया पेचा, सेसं जहा कालस्स परिमाणं, ठितीवि । | कारः अहो जहा चमरस्ल । चंदस्सवि एवं चेव ।। (सू०१२२) उद्देशः१ 'कहि ण भंते! जोइसियाण'मित्यादि, क भदन्त ! ज्योतिप्कानां देवानां विमानानि प्रशतानि ? क भदन्त ! ज्योतिका देवाः सू०१२२ परिवसन्ति ?, भगवानाह-गौतम! अस्या रसप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागाद् रुचकोपलक्षितात् 'सप्तनवतिशतानि सप्तनवत्यधिकानि योजनशतान्यूईमुत्तुस-बुद्ध्याऽविक्रम्य दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये तिर्यगसहयेयेऽसहययोजनकोटीकोटीप्रमाणे ज्योनिर्विषये 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे ज्योतिष्काणां देवानां तिर्यगसावे यानि ज्योतिष्कबिमानशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्च तीर्थऋद्भिः, तानि च विमानान्यकपित्थसंस्थानसंस्थितानि, अन्नाक्षेपपरिहारौ चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकाया सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां सङ्ग्रहणिटी-IN कायां चाभिहिताविति सोऽबधार्यो, 'सबफालियामया' सर्वात्मना स्फटिकमयानि सर्वस्फटिकमयानि 'जहा ठाणपदे जाव चंदम-16 सूरिया एस्थ दुवे जोइसिंदा जोइसरावाणो परिवसंति महिडिया जाब बिहरंति' यथा प्रज्ञापनायां स्थानाख्ये द्वितीये पदे तथा वक्तव्यं यावश्चन्द्रसूर्यो, द्वावन ज्योतिष्येन्द्रौ ज्योतिष्कराजानी परिवसतस्ततोऽप्यूई यावद्विहरन्तीति, एतवं- अभुग्गयमूसियपहसिया | ॥१७४।। इव विविहमणिकणगरयणभत्तिचित्ता वाउद्धय विजयवेजयंतीपडागछत्तातिछत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाणसिहरा जालंतररयणा | पंजरुम्मिल्लियव्य मणिकणगथूभियागा वियसियसबवत्तपोंडरीया तिलगरवणचंदचित्ता नाणामणिमयदामालंकिया अंतो यहि च % 2- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: (देव.)], -------------------- मूलं [१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२२] दीप सहा तवणिजरुइलवाछुयापत्थडा सुहकासा सस्सिरीया सुरुवा पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा, एत्थ णं जोइसियाणं विमाणा |पण्णत्ता, एत्थ णं जोइसिया देवा परिवसंति, तंजहा-बिहस्सती चंदसूरा सुकसणिच्छरा राहू धूमकेउबुहा अंगारका तत्तत्तवणिज्जकणगवण्णा जया तहा जोइसंमि चारं चरंति केऊ य गइरतीया अट्ठावीसइविहा य नक्खत्तदेवगणा नाणासंठाणसंठिया य पंचवण्णा य | तारगाओ ठियलेसाचारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयनामंकपायडियपिंधमउद्धा महिडिया जाव पभासेमाणा, सेणं तत्थ साणं साणं | विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं| अणियाण साणं साणं अणियाहिबईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीण, अन्नेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेबर्थ | है। | जाव विहरति, चंदिमसूरिया य एत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायागो परिवसंति महिडिया जाव पभासेमाणा, ते गं तत्थ साणं साणं | जोइसियविमाणावाससयसहस्साणं चउण्हं चउई सामाणियसाहस्सीण चउहं चउण्हं अगमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्डं परिसाणं सत्तहँ अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिबईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूर्ण जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेबच्चं | जाब विहरंति" इति, अभ्युद्ता-आभिमुण्येन सर्वतो गता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा-दीप्तिस्तया सितानिधवलानि अभ्युदतोत्सृतप्रभासितानि, तथा विविधानां मणिकनकरजानां या भक्तयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्राणि-आश्चर्यभूतानि [विविधमणिकनकभक्तिचित्राणि, 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपागच्छत्तातिच्छत्तकलिया' वातोद्धृता-वायुकम्पिता विजय:--अभ्युदय-[R स्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधाना या: पताकाः, अथवा विजय इति वैजयन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्ते तत्मवाना वैजयन्यो विजयजयन्त्यः-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः छत्राविच्छत्राणि-उपर्युपरि स्थितानि छत्राणि तैः कलितानि वातोबूतविजयवैजयन्दी-I अनुक्रम [१६०] जी०च०३० ~359~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२२] ॥१७॥ दीप अनुक्रम [१६०] श्रीजीवा- पताकाछत्रातिच्छत्रकलितानि 'तुङ्गानि' उच्चानि, तथा गगनतलम्-अम्बरतलमनुलिखन्-अभिलवयन शिखरं येषां तानि गगनतला- प्रतिपत्ती जीवाभिक नुलिखरिछखराणि, तथा जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोकप्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तानि देवाधिमलयगि-I जालान्तररत्नानि, तथा पजराद् उन्मीलितवद् यथा हि किल किमपि वस्तु पञ्जराद्-वंशादिमयप्रकछादनविशेषाद् बहिष्कृतमत्यन्त- कारः रीयावृत्ति मनाच्छायखात् शोभते तथा तान्यपि विमानानीति भावः, तथा मणिकनकाना सम्बन्धिनी स्तूपिका-शिखरं येषां तानि मणिकन-15 उद्देशः१ कस्तूपिकानि, ततः पूर्वपदाभ्यां सह विशेषणसमासः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादिषु प्रतिकृतिखेन + १२२ स्थितानि तिलकाश्च-भित्यादिषु पुण्याणि रबमयाश्वार्द्धचन्द्रा द्वारादिपु तैश्चित्राणि विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरनार्द्धचन्द्रचित्राणि, तथा नानामणिमयीभिर्दामभिरलङ्कतानि नानामणिमयदामालङ्कतानि, तथाऽन्तर्वहिन श्लक्ष्णानि-मसूणानि, तथा तपनीयं-सुवर्णविशेपस्तन्मय्या रुचिराया वालुकायाः-सिकतायाः प्रस्तटः-प्रतरो येषु तानि तपनीयरुचिरवालुकाप्रस्तटानि, तथा सुखस्पर्शानि शुभस्प-IN शानि वा शेषं प्राग्वद् यावद् 'बहस्सइचंदा' इत्यादि, बृहस्पतिचन्द्रसूर्यशुक्रशनैश्चरराहुधूमकेतुयुधाङ्गारकाः तप्ततपनीयकनकवर्णाःईषत्कनकवर्णाः, तथा ये पहा ज्योतिष्के-ज्योतिश्चके चारं चरन्ति केतवः ये च वाह्यद्वीपसमुद्रेष्वगतिरतिका: ये चाष्टाविंशतिविधा नक्षत्रदेवगणास्ते सर्वेऽपि नानाविधसंस्थानसंस्थिताः पशब्दाचप्ततपनीयकनकवर्णाश्च, तारकाः पञ्चवर्णाः, एते च सर्वेऽपि स्थितलेश्या -अवस्थिततेजोलेश्याफाः, तथा ये चारिणः-चाररतास्तेऽविभागमण्डलगतिकाः, तथा सर्वेऽपि प्रत्येकं नामान-स्वखनामापातेन | दाप्रकटितं चिहं मुफुटो येषां ते प्रत्येक खनामाप्रकटित्तमुकुटचिट्ठाः, किमुक्तं भवति ?-चन्द्रस्य स्वमुकुढे चण्द्रमण्डलं लाञ्छनं सना-IGI॥१७५॥ माङ्कप्रकटितं सूर्यस्य सूर्यमण्डलं ग्रहस्य प्रहमण्डल नक्षत्रस्य नक्षत्रमण्डलं तारकस्य तारकाकारमिति, शेषं प्राग्वत् ॥ पर्षनिरूपणार्धमाह Jautheir अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~360~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२२] दीप अनुक्रम [ १६० ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशक: [ ( देव०)], - मूलं [१२२] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Ekemon 'सुररस णं भंते! जोइसिंदरस जोइसरण्णो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! तिन्नि परिसाओ पन्नत्ताओ, तंजड़ा-मुंबा तुडिया पेचा, अभितरिया तथा मज्झिमिया तुडिया बाहिरिया पेचा, सेसं जहा कालस्स, अट्ठो जहा चमरस्स, चन्दस्तवि एवं चैव पाठसिद्धं ज्योतिष्कास्तिर्यग्लोक इति तिर्यगलोक प्रस्तावाद्दीपसमुद्रवतव्यतामाह कहि णं भंते! दीवसमुद्दा? केवइया णं भंते! दीवसमुद्दा ? केमहालया णं भंते । दीवसमुद्दा ? किंसंठिया णं भंते! दीवसमुद्दा ? किमाकार भावपटोयारा णं भंते! दीवसमुद्दा णं पन्नता ? गोयमा ! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणतो एकविहविधाणा वित्थारतो अणेगविधविधाणा दुगुणा गुणे पप्पाएमाणा २ पवित्थरमाणा २ ओभासमाणवीचीया बहुउप्पलपउमकुमुदणिसुभगसोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सतपत्तसहस्स पत्तपष्फुल्ल केसरोवचिता पत्तेयं प तेयं पमवर वेश्या परिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता अस्सि तिरितलोए असंखेला दीवसमुद्दा सयंभुरमणपावसाणा पण्णत्ता समणाउसो ! | (सू० १२३ ) 'कहि णं भंते! दीवसमुद्दा' इत्यादि, 'क' कस्मिन् णमिति वाक्यालङ्कारे 'भदन्त !" परमकल्याणयोगिन् ! द्वीपसमुद्राः प्र शप्ताः ?, अनेन द्वीपसमुद्राणामवस्थानं पृष्टं, 'केवइया णं भंते! दीवसमुद्दा' इति 'कियन्तः कियत्सयाका णमिति वाक्यालङ्कारे | भवन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञता: ?, अनेन द्वीपसमुद्राणां सङ्ख्यानं पृष्ट, 'केमहालिया णं भंते! दीवसमुद्दा' इति किं महानालय आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते महालयाः किंप्रमाणमहालया णमिति प्राग्वद् द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता: १, किंप्रमाणं द्वीपसमुद्राणां महत्त्वमिति For P&False Cinly तृतीय-प्रतिपत्तौ अत्र देवाधिकारः परिसमाप्तः अथ द्वीप - समुद्राधिकार: आरब्ध: ~ 361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१६१] श्रीजीवा- भावः, एतेन द्वीपसमुद्राणामायामादिपरिमाणं पृष्टं, तथा 'किंसंठिया णं भंते! दीवसमुदा' इति किं संस्थित-संस्थानं येषां ते किं- प्रतिपत्तो जीवाभिसंखिता णमिति पूर्ववद् भदन्त! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता: १, अनेन संस्थानं पप्रच्छ, 'किमागारभावपडोयारा णं भंते! दीवसमुद्दादेवाधिमलयगि-पण्णता' इति आकारभाव:-स्वरूपविशेष: कस्याकारभावस्य प्रत्यवतारो येषां ते किमाकारभावप्रत्यवताराः, बहुलपणाद्वैयधिकरण्ये- कारः रीयावृत्तिः अपि समासः, णमिति पूर्ववद्, द्वीपसमुद्रा: प्रज्ञप्ता:?, किं स्वरूपं द्वीपसमुद्राणामिति भावः, अनेन स्वरूपविशेषविषयः प्रभः कृतः, उद्देशः१ भगवानाह-गोयमे त्यादि, गौतम! जम्बूद्वीपादयो द्वीपा 'लवणादिकाः' लवणसमुद्रादिकाः समुद्राः, अनेन द्वीपानां समुद्राणां सू०१२३ ॥१७६॥ ताचाविरुक्तः, एतचापृष्टमपि भगवता कथितमुत्तरत्रोपयोगिलात् गुणवते शिष्यायापृष्टमपि कथनीयमिति ख्यापनार्थ च, 'संठाणतो इत्यादि, 'संस्थानतः' संस्थानमाश्रित्य 'एगविहिविहाणा' इति एकविधि-एकप्रकारं विधानं येषां ते एकविधिविधानाः, एकस्वरूपा इति भावः, सर्वेषां वृत्तसंस्थानसंस्थितत्वाद्, 'विस्तारतः' विस्तारमधिकृत्य पुनरनेकविधिविधाना: अनेकविधानि-अनेकप्रकाराणि विधातनानि येषां ते तथा, विस्तारमधिकृत्य नानास्वरूपा इत्यर्थः, तदेव नागास्वरूपत्वमुपदर्शयति-'दुगुणादुगुणे पडुप्पाएमाणा २ पसावित्थरमाणा' इति, द्विगुणं द्विगुणं यथा भवति एवं प्रत्युत्पद्यमाना गुण्यमाना इत्यर्थः, 'प्रविस्तरन्तः' प्रकर्षण विस्तारं गच्छन्तः, तथाहि-जम्यूद्वीप एक लक्ष लवणसमुद्रो वे लक्षे धातकीखण्डश्चत्वारि लक्षाणीत्यादि, 'ओभासमाणवीचीया' इति अवभासमाना वीचयः-कल्लोला येषां ते अवभासमानवीचयः, इदं विशेषणं समुद्राणां प्रतीतमेव, द्वीपानामपि च येदितव्यं, वेष्वपि इदनदीतडागादिपु कहोलसम्भवात् , तथा बहुभिरुत्पलपकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रः 'पफल'त्ति प्रफुलै:-विक-IM॥१७६ ।। 8 सितैः 'केसरे'ति केसरोपलक्षितरुपचिता:-उपचितशोभाका बहूत्पलपाकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापौण्डरीकशतपत्रसह अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '' अत्र १ इति निरर्थकम् ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१६१] CASCACASSANSAR सपत्रप्रफुल्लकेसरोपचिताः, तत्रोत्पलं-गर्दभकं पञ-सूर्यविकासि कुमुदं-चन्द्रविकासि नलिनम्-पद्रक्तं पर्वा सुभगं-पनविशेष: सौगधिकं-कल्हारं पौण्डरीक-सिताम्बुजं तदेव बृहत् महापौण्डरीकं शतपत्रसहस्रपत्रे-पद्मविशेषौ पनसयाकतभेदो, 'पत्तेयं २' इति प्रतिशब्दोऽत्राभिमुख्य लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये' इति च समासस्ततो वीप्साविवक्षायां प्रत्येकशब्दस्य द्विवचनं पावरवेदिकापरि-14 क्षिप्ताः प्रत्येकं बनखण्डपरिक्षिप्ताश्च 'सयंभूरमणपजवसाणा' इति जम्बूद्वीपादयो द्वीपा: स्वयम्भूरमणद्वीपपर्यवसाना लवणसमुद्रादयः समुद्राः खयम्भूरमणसमुद्रपर्यवसाना अस्मिन् तिर्यग्लोके यत्र वयं स्थिता असाधेया द्वीपसमुद्राः प्रशप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! इह 'अस्सिं तिरियलोए' इत्यनेन स्थानमुक्तम् , 'असंखेजा' इत्यनेन सयान, 'दुगुणादुगुण मित्यादिना महत्त्वं 'संठाणतों इत्यादिना संखानम् ॥ सम्प्रत्याकारभावप्रत्यवतारं विवक्षुरिदमाह तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे णाम दीचे दीवसमुद्दाणं अम्भितरिए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिते चट्टे रह चाकवालसंठाणसंठिते बढे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिते वहे पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिते, एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिषिण जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसते तिषिण य कोसे अट्ठावीसं च घणुसर्य तेरस अंगुलाई अद्धंगुलकं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पपणत्ते॥से णं एकाए जगतीए सव्यतो समंता संपरिक्खित्ते॥ सा णं जगती अट्ठ जोयणाई उडे उच्चत्तेणं मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अह जोयणाई चिखंभेणं उप्पि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं मूले विच्छिपणा मज्झे संखित्ता उपि तणुया ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२४ ] दीप अनुक्रम [१६२ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) ------ उद्देशकः [ ( द्वीप - समुद्र )], - मूलं [ १२४] प्रतिपत्ति: [३], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ १७७॥ गोपुच्छ ठाणसंठिता सव्ववइरामई अच्छा सण्हा लव्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिष्पका णिक्ककच्छाया सप्पभा समिरीया सज्ज्जोया पासादीया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरुवा || साणं जगती एक्केणं जालकडणं सव्वतो समता संपरिक्खित्ता | से णं जालकडए णं अद्धजोयणं उहुं उच्चणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लहे (जाव) [घडे महे णीरए fuम्मले freis freaडच्छाए सप्पने [सस्सिरीए] समरीए सज्जोए पासादीए दरिसणिजे अभिरूवे ] पडिवे ॥ ( सू० १२४ ) 'तत्थ ण'मित्यादि, 'तत्र' तेषु द्वीपसमुद्रेषु मध्ये 'अयं' यत्र वयं वसामो जम्बूद्वीपो नाम द्वीपः कथम्भूतः ? इत्याह-- सर्व द्वीपसमु | द्राणां 'सर्वाभ्यन्तरकः' सर्वात्मना - सामस्त्येनाभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तर एव सर्वाभ्यन्तरकः, प्राकृतलक्षणात्स्वार्थे कप्रत्ययः केषां सर्वात्मनाऽभ्यन्तरक: ?, उच्यते, सर्वेद्वीपसमुद्राणां तथाहि सर्वेऽपि शेषा द्वीपसमुद्रा जम्बूद्वीपादारभ्यागमाभिहितेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणविस्वारास्ततो भवति सर्वेद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरकः, अनेन जम्बूद्वीपस्यावस्थानमुक्तं, 'सव्वखुड्डाग' इति सर्वेभ्योऽपि शेषद्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको लघुः सर्वक्षुल्लक:, तथाहि सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे च धातकीखण्डादयो द्वीपा जम्बूद्वीपादारभ्य द्विगुणद्विगुणायामविकम्भपरिधयस्ततः शेषद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽयं लघुरिति एतेन सामान्यतः परिमाणमुक्त, विशेषतस्त्वायानादिगतं परिमाणमप्रे वक्ष्यति, तथा वृत्तोऽयं जम्बूद्वीपो यतस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तैलेन पकोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पकोडपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतपक इति तेलविशेषणं, तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितस्तैळापूपसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तोऽयं जम्बूद्वीपो यतो 'रथचक्रवालसंस्थान संस्थितः' For P&Palise Cnly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् | जम्बुद्वीपस्य अधिकार: ~364~ ३ प्रतिपत्तौ देवाधिकारः | उद्देशः १ सू० १२४ ॥ १७७॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१६२] रथस्य-रथाङ्गस्य चक्रस्यावयवे समुदायोपचारागक्रयालं-मण्डलं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, एवं | वृत्तः पुष्करकणिकासंस्थानसंस्थितः पुष्करकर्णिका-पद्मवीजकोशः वृत्त: परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः पदद्वयं भावनीयम् , एलेन जम्बूहै द्वीपस्य संस्थानमुक्तम् ।। सम्प्रत्यायामादिपरिमाणमाह-एक णमित्यादि, एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन, आयामश्च विष्क म्भश्च आयामविष्कम्भ, समाहारो द्वन्द्वः, तेन, आयामेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः, त्रीणि बोजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके त्रयः क्रोशा अष्टाविंशम्-अष्टाविंशत्यधिक धनु:शतं त्रयोदशाङ्गुलानि अङ्गुिलं च किञ्चिद्विशेषाधिकमित्येतावान् | परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विक्संभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होइ ।' इति करणवशाखयमानेतव्यं क्षेत्रसमासटीका वा परिभावनीया, तत्र गणितभावनायाः सविस्तरं कृतत्वात् ।। सम्प्रत्याकारभावप्रत्यवतारप्रतिपादनार्थमाह-'से ण'मि त्यादि, 'सः' अनन्तरोक्तायामविष्कम्भपरिक्षेपपरिमाणो जम्बूद्वीपो णमिति वाक्यालङ्कारे एकया जगत्या सुनगरप्राकारकल्पया 'सहार्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन 'संपरिक्षिप्तः' सम्यग्वेष्टितः ॥ 'सा णं जगई इत्यादि, सा च जगती ऊर्चम-उच्चैस्ले नाष्टी योजनानि मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्ये ऽष्टौ उपरि चत्वारि, अत एव मूले विष्कम्भमधिकृत्य विस्तीणों, मध्ये संक्षिप्ता त्रिभागोनत्वात् , उपरि तनुका, मूलापेक्षया त्रिभागमात्रविस्तारभावात् , एतदेवोपमया प्रकटयति-गोपुच्छसंठाणसंठिया गोपुच्छस्व संस्थानं गोपुच्छसंस्थानं तेन संस्थिता गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता ऊकृतगोपुच्छाकारा इति भावः, 'सब्बवइरामई' सर्वोसना-सामस्त्येन वनमवी-बअरमालिका 'अच्छा' आकाशस्फटिकवतिसकहा 'सहा लण्हा' लक्ष्या-लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्षणदलनिष्पन्नपदवत् 'लण्हा' मसृणा घुण्टितपदवत् 'घडा' घृष्टा इव घृष्टा खरशानया पाषाणप्रतिमावत् 'महा' मृष्टा इष मृष्टा सुकु-| ~365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] दीप श्रीजीवा- मारशानया पाषाणप्रतिमावत् 'नीरजा' स्वाभाविकरजोरहितत्वात् 'निर्मला' आगन्तुकमलाभावात् 'निष्पङ्का' कलङ्कविकला कर्दमर- प्रतिपत्ती जीवाभि० हिता या 'निककडच्छाया' इति निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति भावार्थः छाया-दीप्तिर्यस्याः सा निष्कटरछाया || देवाधिमलयगि- 'सप्रभा' स्वरूपतः प्रभावती 'समरीचा' बहिर्विनिर्गत किरणजाला, अत एव 'सोद्योता' बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकरी 'प्रा-4 कारः रीयावृत्तिः सादीया' प्रसादाय-मनःप्रसत्त्ये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया मनःप्रहत्तिकारिणीति भाव: 'दर्शनीया' दर्शनयोग्या यां पश्यतन-5 उद्देशः१ क्षुषी श्रमं न गच्छत इति 'अभिरूवा' इति अभि-सर्वेषां द्रणां मनःप्रसादानुकूलतयाऽभिमुखं रूपं यस्याः सा अभिरूपा, अत्यन्त सू०१२५ ॥१७८॥ | कमनीयेति भावः, अत एव 'प्रतिरूपा' प्रतिविशिष्टम्-असाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः । सा प्रतिरूपा ॥ ‘सा णं जगती' इत्यादि, 'सा' अनन्तरोदितस्वरूपा णमिति वाक्यालङ्कारे जगती एकेन 'जालकटकेन' जालानिजालकानि यानि भवनभितिषु लोकेऽपि प्रसिद्धानि तेषां कटक:-समूहो जालकटको जालकाकीर्णा रम्यसंस्थानप्रदेशविशेषपतिरिति | भावः, तेन जालकटकेन 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः सामस्त्येन संपरिक्षिप्ता ॥ 'से णं जालकडए' इत्यादि, 'सः' जालकटक | ऊर्द्ध मुञ्चरत्वेनार्द्ध योजन-वे गव्यूते विष्कम्भेन पञ्च धनु:शतानि, किमुक्तं भवति ?-जगत्या प्रायो बहुमध्यभागे सर्वत्र जालकानि तानि 8 दाच प्रत्येकमूर्द्ध मुस्त्वेन द्वे गव्यूते विष्कम्भतः पञ्चधनु:शवानीति, स च जालकटक: 'सव्वरयणामए' इति सर्वासना रत्नमयः | 'अच्छे सण्हे लण्हे जाव पडिरूवे' इति यावच्छब्दकरणात् 'घटे मढे नीरए निम्मले निष्पके निकढच्छाये सप्पभे समरीए सउलोए पासाइए दरिसणिज्जे अभिरू-' इति परिग्रहः, एतेषां [प्रन्थानम् ५०००] पदानामर्थः प्राग्वत् ।। | ॥१७८॥ तीसे णं जगतीए उप्पि बहुमज्झदेसभाए एत्य णं एगा महई पउमवरवेदिया पं०, साणं पउमयरवे अनुक्रम [१६२] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१६३] दिया अद्भजोयणं उर्ख उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं सवरयणामए जगतीसमिया परिक्षेवेणं सब्वरयणामई०॥ तीसे णं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वपणावासे पपणत्ते, तंजहा-बहरामया नेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा बेरुलियामया खंभा सुवष्णरुप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सईओ णाणामणिमया कलेवरा कलेवरसंघाडा णाणामणिमया रूवा नाणामणिमया रूवसंघाडा अंकामया पक्खा पक्खचाहाओजोतिरसामया वंसा वंसकवेल्या य रययामईओ पहियाओ जातरूवमयीओ ओहाडणीओ वइरामयीओ उचरि पुन्छणीओ सव्वसेए रययामते साणं छादणे ॥ सा णं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं (एगमेगेणं गवक्खजालेणं) एगमेगेणं खिंखिणिजालेणं जाव मणिजालेणं (कणयजालेणं रयणजालेणं) एगमेगेणं पउमवरजालेणं सब्बरयणामएणं सब्यतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ ते णं जाला तवणिजलंबसगा सुवण्णपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्वहार उपसोभितसमुदया ईसिं अण्णमपणमसंपत्ता पुवावरदाहिणउत्तरागतेहिं वाएहिं मंदागं २ एजमाणा २ कंपिजमाणा २ लंबमाणा २ पझंझमाणा २ सदायमाणा २ तेणं ओरालेणं मणुपणेणं कण्णमणणेब्बुतिकरणं सद्देणं सब्बतो समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवखोभेमाणा उव०चिट्ठति ।। तीसे णं पउमबरवेइयाए तस्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे हयसंघाडा गयसंधाडा नरसंघाडा किण्णरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधव्वसंघाडा वसहसंघाडा सब्बर CACANCER- ACTS ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती देवाधि| कारः उद्देश:१ सू०१२५ ॥१७९॥ दीप अनुक्रम [१६३] यणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया सप्पभा समिरिया सउज्जोया पासाईया दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे हयपतीओ तहेव जाव पडिरूवाओ । एवं हयवीहीओ जाव पडिरूवाओ। एवं हयमिहुणाई जाव पडिरूवाई। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तस्थ वेसे तहिं तहिं यहवे पउमलयाओ नागलताओ, एवं असोग० चंपग० चूयवण वासंतिक अतिमुत्तग० कुंद. सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ जाच सुविहत्तपिंडमंजरिवर्डिसकधरीओ सब्वरयणामईओ सण्हाओ लण्हाओ घटाओ मट्ठाओ णीरयाओ जिम्मलाओ णिपंकाओ णिकंकडच्छायाओ सप्पभाओ समिरीयाओ सउज्जोयाओ पासाईयाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ ॥ [तीसे णं पउमवरवेझ्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे अक्खयसोत्थिया पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा] ॥ से केणद्वेणं (भंते) एवं बुचर-पउमवरवेइया पउमवरवेइया?, गोयमा! पउमवरवेइयाए तस्य तत्थ देसे तहिं तहिं वेदियासु वेतियाबाहासु वेदियासीसफलएसु वेदियापुउतरेसु खंभेसु खंभवाहासु खंभसीसेसु खंभपुडतरेसु मुईसु सुईमुहेसु सूईफलएम सईपुड़तरेसु पक्खेसु पक्खवाहासु पक्खपेरंतरेसु बहूई उप्पलाई पउमाई जाव सतसहस्सपत्ताई सव्वरयणामयाई अच्छाई सपहाई लण्हाई घटाई मट्ठाई णीरयाई णिम्मलाई निप्पकाई निकंकड 55%SEXE || १७९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: C * % % * % प्रत सूत्रांक [१२५] % 4 % % दीप अनुक्रम [१६३] च्छायाई सप्पभाई समिरीपाई सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिलाई अभिरुवाई पडिरूवाई महता २ वासिकच्छत्तसमयाइं पण्णसाई समणाउसो!, से तेणट्टेणं गोयमा! एवं बुचइ पउमवरवेदिया २॥ पउमचरवेझ्या णं भंते! किं सासया असासया?, गोयमा! सिय सासया सिय अ. सासया ।। सेकेण?णं भंते! एवं बुचइ-सिय सासया सिय असासया?, गोयमा! दब्बठ्ठयाए सासता वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपजवेहिं असासता, से तेणढणं गोयमा! एवं बुचइ-सिप सासता सिय असासता ॥ पउमवरवेइया णं भंते ! कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! ण कयाविणासि ण कयाविणस्थि ण कयाविन भविस्सति | भुवि च भवति य भवि स्सति य धुवा नियया सासता अक्खया अब्बया अवट्ठिया णिचा पउमवरवेदिया ।। (सू०१२५) 'तीसे णं जगतीए' इत्यादि, 'तस्याः' यथोक्तरूपाया जगत्या: 'उपरि उपरितने तले यो बहुमध्यदेशभागः, सूत्रे एकारान्तता मागधदेशभापालक्षणानुरोधान् यथा 'कयरे आगच्छद दित्तरूवे? इत्यत्र, 'एत्थ णमिति 'अत्र' एतस्मिन् बहुमध्यदेशभागे णमिति पूर्ववत् महती एका पद्मावरवेदिका प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकदिः, सा चोर्द्धमुच्चैस्त्वेनाईयोजन-वे गव्यूते पञ्च धनुःशतानि विष्कम्भेन 'जगतीसमिया' इति जगत्याः समा-समाना जगतीसमा सैव जगतीसमिका 'परिक्षेपेण' परिरयेण यावान जगत्या मध्यभागे परिरयस्तावान तस्या अपि परिरय इति भावः, 'सर्वरलमयी' सामस्त्येन रमालिका 'अच्छा साहा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं पाठतोऽर्थतश्च प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि, तस्या णमिति पूर्ववत् पावरवेदिकाया: 'अयं वक्ष्यमाणः 'एतद्रूपः' एवंस्वरूपः 'वों %25 A ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -5 प्रत श्रीजीया- जीचाभि० मलयगि- रीयावृत्तिः % सूत्रांक % - [१२५]] % A वासः' वर्ण:--रावा यथायस्थितस्वरूपकीर्तनं तस्यावासो-निकासो प्रन्धपद्धतिरूपो वर्णावासो वर्णकनिवेश इत्यर्थः 'प्रज्ञप्तः' प्ररू-1 प्रतिपत्ती पितः, तद्यथेत्यादिना तदेव दर्शयति-'बइरामया नेमा' इति नेमा नाम पद्मवरवेदिकाया भूमिभागादूर्द्ध निष्कामन्तः प्रदेशाते देवाधिसवें 'वनमया' वचरनमयाः, धनशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वान् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, रिष्टमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वेरुलि- कारः यमया खंभा' इति वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि लोहिताक्षरत्नामिका: सूचयः फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभाव- उद्देशः१ रितुपादुकास्थानीयास्ते सर्वे 'वइरामया संधी' यजमयाः सन्धयः-सन्धिमेला: फलकानां, किमुक्तं भवति ?-वसरमापूरिताः फलकानां सूख १२६ सन्धयः 'नाणामणिमया कलेबरा' इति नानामणिमयानि कलेवराणि-मनुष्यशरीराणि नानामणिमयाः कलेवरसाटा-मनुष्यशरीरयुग्मानि नानामणिमयानि रूपाणि-रूपकाणि नानामणिमया रूपसढाटा:-रूपयुग्मानि 'अङ्कामया पक्खा पक्खवाहातो याद इति अटो-रत्नविशेषसन्मयाः पक्षातदेकदेशाः पक्षवाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाङ्कमयाः, आह च मूलटीकाकार - अङ्कमयाः प-14 क्षिास्तदेकदेशभूताः, एवं पक्षवाहवोऽपि द्रष्टव्या” इति, 'जोईरसामया वंसा वंसकवेल्या य' इति ज्योतीरसं नाम रजं तन्मया | वंशा:-महान्तः पृष्ठवंशा: 'वंशकवेच्या य' इति महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तिर्यक् स्थाप्यमाना वंशाः कवेलुकानि-प्रतीतानि 'रय यामईओ पट्टियाओं' इति रजतमय्यः पट्टिका बंशानामुपरि कम्बास्थानीया: 'जायरूवमईओ ओहाडणीओ' जातरूपं-सुवर्णविX| शेषस्तन्मय्य: 'ओहाडणीओ' अपघाटिन्यः आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिचस्थानीयाः, 'वइरामईओ उवरिं| पुंछणीओ' इति 'बजमय्यो' बजरत्नामिका अवघाटनीनामुपरि पुरुन्य:-निविडतरच्छादनहेतुलक्ष्यतरतूणविशेषस्थानीयाः, उक्त च ॥ १८ ॥ मूलटीकाकारेण-"ओहाडणी हीरगहणं महत् क्षुल्लकं तु पुञ्छनी इति, 'सब्यसेए रययामए साणं छाणेइति, सर्वश्वेतं रजतमयं । दीप अनुक्रम [१६३] M 1ex अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम्, यद् सू० १२६ मुद्रितं तद् अपि मुद्रण-दोषः, अत्र सू०१२५ एव वर्तते ~370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१६३] पुन्छनीनामुपरि कवेलुकानामध आच्छादनम् ।। 'साणमित्यादि, 'सा' एवं स्वरूपा णमिति वाक्यालक्कारे पद्मवरवेदिका तत्र तत्र है। प्रदेशे एकैकेन 'हेमजालेन' सर्वासना हेममयेन लम्बमानेन दामसमूहेन एकैकेन 'गवाक्षजालेन' गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहेन एकैकेन 'किङ्किणीजालेन' किङ्किण्य:-क्षुद्रघण्टिकाः एकैकेन घण्टाजालेन, किङ्किण्यपेक्षया किञ्चिन्महत्यो घण्टा घण्टाः, तथा एकैकेन 'मुक्ताजालेन' मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन एकैकेन 'मणिजालेन' मणिमयेन दामसमूहेन एकैकेन 'कनकजालेन' कनकपीतरूपः सुवर्णविशेपस्तन्मयेन दागसमूहेन एकैकेन रबजालेन एकैकेन (वर) पद्मजालेन-सर्वरत्नमयपद्मासकेन दामसमूहेन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सर्वासु विदिक्षु परिक्षिप्ता, एतानि च दामसमूहरूपाणि हेमजालादीनि जालानि लम्पमानानि वेदितव्यानि, तथा चाह--'ते णं जाला' इत्यादि, तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्यान् , प्राकृते हि लिङ्गमनियतमिति, णमिति पूर्ववत् हेमजाPालादीनि कचिन् दामा इति पाठः तत्रता हेमजालादिरूपा दामान इति व्याख्येयं, 'तवणिजलंबूसगा' तपनीयम्-आरक्तं सुवर्ण| तन्मयो लम्बूसगो-दानामप्रिमभागे मण्डनविशेषो येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि 'सुवण्णपयरगमंडिया' इति पार्श्वत: सामस्त्येन | सुवर्णप्रतरकेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि, 'नाणामणिरयणविविहहारद्धहार उवसोभियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रवानां च ये विविधा-विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभित: समुदायो चेपां वानि, तथा 'ईसिमन्नमन्नमसंपत्ता' इति ईपत्-मनाग अन्योऽन्य-परस्परमसंप्राप्तानि-असंलमानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैर्वातैः 'मंदाय मंदाय' इति मन्दं मन्दम् एज्यमानानि-कम्प्यमानानि 'भृशाभीक्ष्ण्याविच्छेदे द्विः प्राक्तमवादेः' इत्यविच्छेदे द्विवचनं यथा पचति पचतीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि, ईषत्कम्पनवशादेव च प्रकर्षत इतस्ततो मनाक् चलनेन लम्बमानानि प्रलम्बमाना नि, ततः जी०५०३१ Santa ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१६३] श्रीजीवा-सा परस्परसंपर्कयशतः 'पझंझमाणा पझंझमाणा' इति शब्दायमानानि शब्दायमानानि 'उदारेण' स्फारेण शब्देनेति योगः, स च प्रतिपत्तौ जीवाभि स्फारशब्दो मनःप्रतिकूलोऽपि भवति तत आह–'मनोज्ञेन' मनोऽनुकूलेन, तश्च मनोऽनुकूलत्वं लेशतोऽपि स्यादत आह-'मनोह- मनुष्या० रण' मनांसि श्रोतृणां हरति-आलवशं नयतीति मनोहरः, लिहादे'राकृतिगणवादप्रत्ययः, तेन, तदपि मनोहरलं कुतः' इत्याह- पद्मवरवेरीयावृत्तिः । कर्णमनोनिर्वृतिकरण-'निमित्तकारणहेतुपु सर्वासा विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति बचनाद् हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थ:-यतः|| दिकाव. श्रोतृकर्णयोर्मनसश्च निर्युतिकर:-सुखोत्पादकस्ततो मनोहरस्तेन, इत्थम्भूतेन शब्देन तान् प्रत्यासन्नान प्रदेशान् 'सर्वतः' दिक्षु 'सम- उद्देशः१ ॥१८१॥ न्ततः' विदिक्षु आपूरयन्ति शत्रन्तस्य शाविदं रूपं, तत एव 'श्रिया' शोभयाऽतीव उपशोभमानानि उपशोभमानानि तिष्ठन्ति ॥ सू०१२६ दा'तीसे णमित्यादि, तस्याः पदावरखेदिकायास्तत्र तत्र देशे २ 'तहिं तहिं' इति तस्यैत्र देशस्य तत्र तत्रैकदेशे, एतावता किमुक्तं भवति ?-यन्त्र देशे एकरत नान्येऽपि विद्यन्त इति, यहवे 'हयसंघाडा' हययुग्मानि सबाटशब्दो युग्मवाची यथा साधुसङ्घाट इत्यत्र, एवं गजनरनिरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभसवाटा अघि बाख्याः, एते च कथम्भूताः? इत्याह-सबरयणामया' सामना रजमिया: 'अच्छा' आकाशस्फटिकवदतिस्वरुछाः 'जाव पडिरूवा' इति यावत्करणात 'सहा लण्हा घट्ठा महा' इत्यादिविशेषणकदम्यकपरिग्रहसन प्राग्यन् । एते च सर्वेऽपि यसवाटादयः सङ्घाटाः पुष्पात्रकीर्णका उक्ताः, सम्प्रत्येतेषामेव यादीनां पत्यादिप्रतिपा दनार्थमाह-एवं पंतीओ बीहीओ एवं मिहुणगा' इति यथाऽमीषां हवादीनामष्टानां सहाटा उक्तास्तथा पञ्जयोऽपि वक्तव्या दावीथयोऽपि मिथुनकानि च, तानि चैवम्-'दीसे गं पउगवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे देसे सहि तहि बहुग्राओ हयपतीओ गयपतीओ| |१८१॥ इत्यादि, नवरमेकस्यां दिशि या अगिः सा पङ्किरभिधीयते, उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकमेणिभावेन यच्छ्रेणिद्वयं सा बीथी, एते च वीथी Jantact अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते -द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते , तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् , मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने यत् सू० १२६ मुद्रितं तत् मुद्रण-दोषः, अत्र सू०१२५ एव वर्तते ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] पङ्किस वाटा हयादीनां पुरुषाणामुक्ताः, साम्प्रतमेतेषामेव हयादीनां स्त्रीपुरुषयुग्मप्रतिपादनार्थ 'मिहुणाई' इत्युक्तम् , उक्तेनैव प्रकारेण यादीनां मिथुनकानि स्त्रीपुरुपयुग्मरूपाणि बारुयानि, यथा 'तस्थ तत्थ तहिं २ पैसे देसे बहूई हयमिहुणाई गयमिहुणाई' इत्यादि ।। 'तीसे णमित्यादि, तस्यां णमिति पूर्ववत् पाबवेदिकायां तत्र तत्र देशे २ 'तहिं २' इति तस्यैव देशव तत्र तत्रैकदेशे, अत्रापि तत्थ २ देसे २ तहिं २' इति वदता यत्रैका लता तत्रान्या अपि बलयो छताः सन्तीति प्रतिपादितं द्रष्टव्यं, 'बहुयाओ पउमलयाओ' इत्यादि, बहवः 'पद्मलता' पग्रिन्यः 'नागलताः' नागा-दुमविशेषाः त एव लतातिर्यकशास्त्राप्रसराभावात् नागलताः, एवमशोकलताश्चम्पकलता वणलता:, चणा:-तरुविशेषाः, वासन्तिकलता अतिमुक्तकलताः कुन्दलता: श्यामलताः, कथम्भूता एता:? इत्याह-'नित्य' सर्वकालं षट्स्वपि ऋतुवित्यर्थः 'कुसुमिताः' कुसुमानि-पुष्पाणि संजातान्यास्थिति कुसुमिताः, तारकादिदर्शनादिवप्रत्ययः, एवं नित्यं मुकुलिताः, मुकुलानि नाम कुड्मलानि कलि का इत्यर्थः नित्यं 'लवड्याओ' इति पल्लविताः, नित्यं 'थवइयाओं इति स्तवकिताः, निलं 'गुम्मियाओ' इति गुस्मिताः, स्तबकगुल्मी गो(गु)च्छविशेषौ, नित्यं गुच्छाः, नित्यं यमलं नाम समानजातीययो तयोर्युग्मं तत्संजातमाथिति यमलिताः, नित्यं 'युगलिताः' युगलं सजातीयविजातीययोर्लतयोर्द्वन्द्वं, तथा 'नित्यं सर्वकालं फलहाभारेण नता-ईपन्नता नित्यं प्रणता-महता फलभारेण दूरं नताः, तथा नित्यं 'सुविभक्ते'त्यादि सुविभक्तिक:-सुविच्छित्तिक: प्रतिवि-18 | शिष्यो मलरीरूपो योऽवतंसकस्तद्धरा:-तद्धारिण्यः । एप सर्वोऽपि कुसुमितलादिको धर्म एफैकस्या एकैकस्या लताया उक्तः, साम्प्रतं कासाभिल्लतानां सकलकुसुमितवादिधर्मप्रतिपादनार्थमाह-निच्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियविणमियपपणमियसुविभत्तपद्धिमंजरिवर्डसगधरीउ' एताश्च सर्ग अपि लता एवंरूपाः, किंरूपा:? इत्याह-सब्बरयणामईओ' सामना दीप अनुक्रम [१६३] JECT ~373~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: . प्रत सूत्रांक [१२५] 58 -- दीप अनुक्रम [१६३] श्रीजीवा-रत्रमय्यः, 'अच्छा सहा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ अधुना पद्मवरवेदिकाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं जिज्ञासुः पृच्छति-से प्रतिपत्तौ जीवाभि०४ाकणदेणं केणडेणं भंते!' इत्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते-पावरवेदिका पद्मवरवेदिकेति?, मनुष्या० मलयगि- हाकिमुक्तं भवति-पद्मवरवेदिकत्येवंरूपस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्तौ किं निमित्तमिति १, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम! पनवरवेदिकायां तत्र पद्मवरवे. रीयावृत्तिः तत्र प्रदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'वेदिकासु' उपवेशनयोग्यमत्तवारणरूपासु 'वेदिकाबाहासु' वेदिकापावेषु 'वेइयापुडतरेसुदिकाव० | इति द्वे वेदिके वेदिकापुटं तेषामन्तराणि-अपान्तरालानि वेदिकापुटान्तराणि तेषु, तथा स्तम्भेषु सामान्यतः तथा 'स्तम्भवाहासु' | उद्देशः१ ॥१८२॥ स्तम्भपाश्चेषु 'खंभसीसेसु' इति स्तम्भशीपेंषु 'खंभपुडंतरेसु' इति द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुटं तेषामन्तराणि तेषु 'सूचीषु' फलकसम्ब- सू०१२६ न्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीवासु तासामुपरीति तात्पर्यार्थः, 'सूइमुहेसु' इति यत्र प्रदेशे सूची फलक भित्त्वा मध्ये प्रविशति | | तत्पत्यासन्नो देशः सूचीमुखं तेषु, तथा सूचीफलकेपु-सूचीभिः संबन्धिता ये फलकप्रदेशातेऽप्युपचारात्सूचीफलकानि तेषु सूचीना मध उपरि घ वर्तमानेषु, तथा 'सुईपुडतरेसु' इति द्वे सूच्यौ सूचीपुटं तेपामन्तरेषु, पक्षाः पक्षवाहा-वेदिकैकदेशातेषु बहूनि 'उत्सकलकानि' गर्दभकानि बहूनि पन्नानि सूर्यविकासीनि बहूनि 'कुमुदानि चन्द्रविकासीनि, एवं नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहा-15 पुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्राण्यापि वाच्यानि, एतेषां च विशेषः प्रागेयोपदर्शितः, एतानि कथम्भूतानि ? इत्याह-'सर्वरत्नमयानि सर्वासना रत्नमयानि, 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् 'महयावासिकछत्तसमाणा' इति 'महान्ति' महाप्रमाणानि वापिकाणि-वर्षाकाले यानि पानीयरक्षणार्थ कृतानि तानि वार्षिकाणि तानि च तानि छत्राणि च तत्समानानि च प्रज्ञप्तानि हे श्रमण : ४ हे आयुष्मन् !, 'से एएणोणमित्यादि, तदेतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते पनवरवेदिका पद्मवरवेदिकेवि तेषु तेषु यथोक्तरूपेषु ॥१८२॥ का अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम्, मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने यत् सू० १२६ मुद्रितं तत् मुद्रण-दोषः, अत्र सू०१२५ एव वर्तते ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१६३] प्रदेशेषु यथोक्तरूपाणि पश्यानि पावरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमितिभावः, व्युत्पत्तिश्चैव-पावरा पगाप्रधाना वेदिका पावरवे-12 दिका पनवरवेदिकेति ।। 'पउमपरवेझ्या णं भंते ! किं सासया?' इत्यादि, पद्मवरवेदिका णमिति पूर्ववत् किं शाश्वती उताशाश्वती!, आवन्ततया सूत्रे निर्देशः प्राकृतत्वान् , कि नित्या उतानित्येति भावः, भगवानाह-गौतम! स्थात् शाश्वती स्वादशाश्वती-कथञ्चिमित्या कथञ्चिदनियेत्यर्थः, स्वाच्छब्दो निपातः कथञ्चिदित्येतदर्थवाची ॥ 'से केणडेणं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! 'द्रव्यार्थतया द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती, द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव तात्त्विकमभिमन्यते न पर्यायान् , द्रव्यं चान्वयि परिणामित्वाद्, अन्यधा द्रव्यखायोगाद्, अन्वयित्वाच सकल कालभावीति भवति द्रव्यार्थतया शाश्वती, 'वर्णपर्यायैः' तदन्यसमुत्पद्यमानव विशेषरूपरेवं गन्धपर्याय रसपर्याय: स्पर्शपर्यायैः, उपलक्षणमेतत्तदन्यपुद्गलविचटनोचटनैश्वाशाश्वती, किमुक्तं भवति ?-पर्याया-| [स्तिकनयमतेन पर्यावप्राधान्यविवक्षायामशाश्वती, पर्यायाणां प्रतिक्षणभावितया कियत्कालभावितया या बिनाशिवान् , 'से एएणडेण'मित्यादि उपसंहारवाक्यं सुगर्म, इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिस्थापनार्थमेवमाह-जात्यन्तासत उत्पादो नापि सतो बिनाशो, 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत' इति वचनान् , यौ तु दृश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशौ तदाविर्भावतिरोभावमात्रं यथा| सर्पस्योरफणलविफणत्वे, तस्मात्सर्व वस्तु नित्यमिति । एवं च तन्मतचिन्तायां संशयः-किं घटादिवन्यार्थतया शाश्वती उत्त दासकलकालमेवरूपा? इति, ततः संशयापनोदार्थ भगवन्तं भूयः पृच्छति-पउमवरवेइया णमित्यादि, पावरवेदिका णमिति पूर्ववद् 'भदन्त !' परमकल्याणयोगिन् ! "कियचिरं' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, एवरूपा कियन्तं कालमवतिष्ठते ? इति, भगवानाइगौतम! न कदाचिन्नासीन , सर्वदेवासीदिति भावः, अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदेव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१६३] श्रीजीवा-12भावः, सदैव भावात् , तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किन्तु भविष्यचिन्तायां सर्वदैव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यं, अपर्यवसितत्वात् , प्रातपत्ता जीवाभि० तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिपेधं विधाय सम्प्रत्यस्तित्यं प्रतिपादयति-'भुवि चे'यादि, अभूश्च भवति च भविष्यति चेति,18|मनुष्या० मलयगि-1 एवं त्रिकालावस्थायित्वाद् 'धुवा' मेर्वा दिवद् ध्रुवलादेव सदैव स्वस्वरूपे नियता, नियतलादेव च 'शाश्वती' शश्वद्भवनखभावा, विनषण्डारीयावृत्तिः शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पौण्डरीकजद इबानेकपुद्गलबिचटनेऽपि तावन्मानान्यपुद्गलोश्चटनसम्भवाद् 'अक्षया | धि० दिन विद्यते क्षयो-यथोक्तखरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः साऽक्ष्या, अक्षयत्वादेव 'अव्यया' अव्ययशब्दवाच्या, मनागपि स्वरूपचलनस्य उद्देशः १ ॥१८३॥ जानुचिदप्यसम्भवान् , अव्ययत्वादेव खप्रमाणेऽवस्थिता मानुपोत्तरपर्वताद् बहिः समुद्रवन , एवं स्वस्वप्रमाणे सदाऽवस्थानेन सू० १२६ चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् ॥ तीसे णं जगतीए उपि बाहिं पउमवरवेइयाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते देसूणाई दो जोयणाई चकवालविक्वंभेणं जगतीसमए परिक्खेवेणं, किण्हे किण्होभासे जाव अणेगसगडरहजाणजुग्गपरिमोयणे सुरम्मे पासातीए सहे लण्हे घटे मढे नीरए निप्पंके निम्मले निकंकडछाए सप्पभे समिरीए सउज्जोए पासादीए दरिसणिजे अभिरुवे पडिरूवे ॥ तस्स णं वणसंहस्स अंतो बहसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते से जहानामए-आलिंगपुक्खरेति वा मुइंगपुक्खरेति वा सरतलेइ वा करतलेइ वा आयंसमंडलेति वा चंदमंडलेति वा सूरमंडलेति उरन्भ- |॥१८३।। चम्मेति या उसभचम्मेति वा वराहचम्मेति वा सीहचम्मेति वा वग्घचम्मेति वा विगचम्मेति वा दी ACCOR Jame Xivaratrayam अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १२६] प्रतिपत्ति: [३], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः वितचम्मेति वा अणेगसंकुकीलग सहस्सवितते आवडपचावडसेढीपसेढीसोत्थियसोबत्थियपूसमाणबद्धमाणमच्छंडकम करंडकजारमार फुलावलिप मपत्तसागरतरंगवासंतिलपपडमलय भत्तिचित्तेहिं सच्छापहिं समिरीएहिं सज्जोएहिं नाणाविहपंचवण्णेहिं तणेहि य मणिहि य जबसोहिए तंजहा - किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं ॥ तत्थ णं जे ते किव्हा तणा य मणी य तेसि णं अयमेवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहानामए-जीमूतेति वा अंजणेति वा खंजणेति वा क जलेति वा मसीह वा गुलियाइ वा गवलेइ वा गवलगुलियाति वा भमरेति वा भमरावलियाति वामरपत्तगयसारेति वा जंबुफलेति वा अद्दारिद्वेति वा पुरिए (ति) वा गएति वा गयकलभेति वा कण्हसप्पे वा कण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेति वा कण्हासोएति वा किण्हकणवीरेश वा कण्वंधुजीवति वा, भवे एयारूवे सिया ?, गोवमा! णो तिणट्टे समहे, तेसि णं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इहराए चैव कंततराए चैव पिययराए चेव मणुष्णतराए चैव मणामतराए चैव वणेणं पण्णत्ते ॥ तत्थ णं जे ते णीलगा तथा य मणी य तेसि णं इमेताख्वे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए - भिंगेइ वा "मिंगपत्तेति वा चासेति वा चासपिच्छेति वा सुपति वा सुयपिच्छेति वा गीलीति वा णीलीभेएति वा णीलीगुलियाति वा सामापति वा उच्चतएति वा वणराईइ वा हलहरवसणेह वा मोरग्गीवाति वा पारेवयगीवाति वा अयसिकुसुमेति वा अंजणकेसिंगा For P&Praise City ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १२६] प्रतिपत्ति: [३], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १८४ ॥ Ja Ekemon कुसुमेति वा णीलुप्पलेति वा गीलासोपति वा नीलकणवीरेति वा णीलबंधुजीवएति वा, भवे एure सिता ?, णो णट्ठे समट्ठे, तेसि णं णीलगाणं तणाणं मणीण य एत्तो इद्वतराए चैव कंततराए चैव जाय वर्ण पाते ॥ तत्थ जे ते लोहितगा तथा य मणी य तेसि णं अयमेयाख्ये वण्णावासे पण्णत्ते से जहाणामए-ससकरुहिरेति वा उरब्भरुहिरेति वा पाररुहिरेति वा व राहरुहिरेति वा महिसरुहिरेति वा बालिंदगोवएति वा बालदिवागरेति वा संशम्भरागेति वा गुंजद्धराएति या जातिहिंगुलपति वा सिलप्पवालेति वा पवालंकुरेति वा लोहितक्खमणीति वा लक्खारसपति वा किमिरागेर वा रक्तकंबलेइ वा चीणपिहरासीइ वा जासुपणकुसुमेइ वा किंसुअकुसुमे वा पालियाइकुसुमेइ वा रतुप्पलेति वा रत्तासोगेति वा रक्तकणयारेति वारतबंधुजीवे वा भवे एयारूवे सिया ?, नो तिणट्ठे समहे, तेसि णं लोहियगाणं ताण य मणीण य एसो इतराए चैव जाव वण्णेणं पण्णत्ते । तत्थ णं जे ते हालिहगा तथा य मणीय तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहाणामए-चंपए या चंपगच्छल्ली वा चंभे वा हालिद्दाति वा हालिदभेएति वा हालिगुलियाति वा हरियालेति वा हरियालभेएति वा हरियालगुलियाति वा चिउरेति वा चिउरंगरागेति वा वरकणएति वा वरकणगनिघसेति वा सुवणसिप्पिएति वा वरपुरिसबसणेति वा सल्लइकुसुमेति वा चंपक कुसुमेह वा प्रतिपत्तौ मनुष्या० वनपण्डाधि० उद्देशः १ सू० १२६ ~378~ ॥ १८४ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] ROCCACACACACANCC कुहुंडियाकुसुमेति वा (कोरंटकदामेइ वा) तडउडाकुसुमेति वा घोसाडियाकुसुमेति वा सुवष्णजूहियाकुसुमेति वा सुहरिन्नयाकुसुमेइ वा [कोरिंटवरमल्लदामेति वा] बीयगकुसुमेति वा पीयासोएति वा पीयकणवीरेति वा पीयबंधुजीएति वा, भवे एघारूवे सिया?, नो इणढ़े समढे, ते णं हालिद्दा तणा य मणी य एत्तो इट्टयरा चेव जाव वपणेणं पण्णत्ता ॥ तत्थ णं जे ते सुकिल्लगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूवे बण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामएअंकेति वा संखेति वा चंदेति वा कुंदेति वा कुसुमे(मुए)ति वा दयरएति वा (दहिघणेइ था खीरेइ वा खीरपूरेइ वा) हंसावलीति वा कोंचावलीति वा हारावलीति चा बलायावलीति वा चंदावलीति वा सारतियबलाहएति वा धंतधोयरुप्यपद्देश था सालिपिहरासीति वा कुंदपुप्फरासीति या कुमुयरासीति वा सुक्कछिवाडीति वा पेडणमिजाति वा बिसेति वा मिणालियाति वा गयदंतेति वा लवंगदलेति वा पोंडरीयदलेति वा सिंनुवारमल्लदामेति वा सेतासोएति वा सेयकणवीरेति वा सेयबंधुजीएइ वा, भवे एयारूवे सिया?, णो तिणडे समढे, तेसि णं सुकिल्लाणं तणाणं मणीण य एत्तो इहतराए चेव जाव वपणेणं पण्णत्ते ॥ तेसि णं भंते! तणाण य मणीण य केरिसए गंधे पण्णत्ते?, से जहाणामए-कोहपुडाण वा पत्तपुडाण वा चोयपुडाण चा तगरपुडाण वा एलापुडाण या [किरिमेरिपुडाण वा] चंदणपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा उ ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनषण्डाधि० . उद्देशः१ सू०१२६ ॥१८५॥ दीप अनुक्रम [१६४] सीरपुडाण वा चंपगपुराण वा मरुयगपुडाण वा दमणगपुडाण वा जातिपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियपुडाण वा णोमालियपुडाण वा वासंतियपुडाण वा केयतिपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवायंसि उभिज्नमाणाण य णिभिजमाणाण य को जमाणाण वा रुविजमाणाण वा उकिरिजमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा भंडाओ वा भंडं साहरिजमाणाणं ओराला मणुण्णा घाणमणणिन्युतिकरा सब्बतो समंता गंधा अभिणिस्सवंति, भये एयारवे सिया', णो तिणढे समढे, तेसि णं तणाणं मणीण य एत्तो उ इतराए चेव जाव मणामतराए चेव गंधे पण्णत्ते । तेसि णं भंते! तणाण य मणीण य केरिसए फासे पण्णते?, से जहाणामए-आईणेति वा रूएति वा बूरेति वा णवणीतेति वा हंसगन्भतूलीति वा सिरीसकुसुमणिचतेति वा वालकुमुदपत्तरासीति वा, भवे एतारूचे सिया ?, णो तिणहे समहे, तेसिणं तणाण य मणीण य एसो इद्वतराए चेव जाव फासेणं पण्णत्ते॥तेसिणं भंते! तणाणं पुव्यावरदाहिणउत्तरागतेहिं बाएहिं मंदार्य मंदायं एइयाणं वेड्याणं कंपियाण खोभियाण चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पपणत्ते?, से जहाणामए-सिवियाए वा संदमाणीयाए (वा) रहवरस्स वा सछत्तस्स सज्झयस्स सघंटयस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिखिणिहेमजालपेरंतपरिखित्तस्स हेमवयखेत (चित्तविचित्त) तिणिसकणगनिजतदारुयागस्स सुपिणिद्वारकम ॥१८५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] CRICKS डलधुरागरस कालायससुकयणेमिजंतकम्मस्स आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणरछेयसारहिसुसंपरिगहितस्स सरसतयसीसतोरण(परि)मंडितस्स सकंकडवर्डिसगस्स सचावसरपहरणाघरणहरियस्स जोहजुद्धस्स रायंगणसि वा अंतेपुरंसि वा रम्मंसि वा मणिकोहिमतलंसि अभिक्खणं २ अभिघहिजमाणस्स बा णियहिजमाणस्स वा [परूढवरतुरंगस्स चंडवेगाइहस्स] ओराला मणुपणा कण्णमणणिबुतिकरा सब्बतो समंता सद्दा अभिणिस्सवंति, भवे एतारूवे सिया?, णो तिणढे समढे, से जहाणामए-बेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिताए अंके सुपरष्टियाए वंदणसारकाणपडिपहियाए कुसलणरणारिसंपगहिताए पदोसपचूसकालसमपंसि मंद मंदं एइयाए वेड्याए खोभियाए उद्दीरियाए ओराला मणुपणा कपणमणणिबुतिकरा सब्बतो समंता सद्दा अभिणिस्सवंति, भवे पयारूवे सिया?, णो तिणट्टे समठे, से जहाणामए-किपणराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधव्वाण वा भद्दसालवणगयाण या नंदणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमवंतमलयमंदरगिरिगुहसमण्णागयाण वा एगतो सहिताणं संभुहागयाणं समुचिट्ठाणं संनिविद्वाणं पमुदियपक्कीलियाणं गीयरतिगंधव्यहरिसियमणाणं गेज पळ कत्थं गेयं पयचिद्धं पायविद्धं उक्खित्तयं पवत्तयं मंदाय रोचियावसाणं सत्तसरसमपणागयं अहरससुसंपउत्तं छद्दोसविप्पमुकं एकारसगुणालंकारं अट्ठगुणोववेयं गुंजतवंसकुहरोचगर्द ACC ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः रक्तं तित्थाणकरणसुद्धं मधुरं समं सुललियं सकुहरगुंजतवंसतंतीसुसंपत्तं तालसुसंपत्तं तालसमं (यसुसंपन्तं महसुसंपत्तं) मनोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुरभिं सुणतिं वरचारुरूवं दिव्वं न स गेयं पणीयाणं, भवे एयारूवे सिया?, हंता गोयमा ! एवंभूए सिया || (सू० १२६) 'तीसे णं जगतीए' इत्यादि, तस्या णमिति पूर्ववत् जगत्या उपरि पद्मवरवैदिकाया बहिर्वती प्रदेशः 'तत्र' तस्मिन णमिति पूर्ववत्, महानेको बनपण्डः प्रज्ञतः, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहाणां समूहो बनपण्डः, आह च मूलटीकाकारः - 'एगजाईएहिं रुक्खेहिं वर्ण अगेगजाईएहिं उत्तमेहिं रुक्सेहिं वणसंडे' इति, स चैकैको देशोने द्वे योजने विष्कम्भतो जगतीसमकः 'परिक्षेपेण' परिरयेण । कथम्भूतः ? इत्याह- 'किण्हे' इत्यादि, इह प्रायो वृक्षाणां मध्यमे वयसि वर्त्तमानानि पत्राणि नीला (कृष्णा) नि तद्योगाद् बनखण्डोऽपि कृष्णः, न चोपचारमात्रात् कृष्ण इति व्यपदेशः किन्तु तथाप्रतिभासनात् तथा चाह— 'कृष्णावभासः' यावति भागे कृष्णानि पत्राणि सन्ति तावति भागे स वनखण्डः कृष्णोऽवभासते ऽतः कृष्णोऽवभासो यस्यासौ कृष्णावभासः, तथा हरितत्वमतिक्रान्तानि कृष्णत्वमसंप्राप्तानि पत्राणि नीलानि तद्योगाद् वनखण्डोऽपि नीलः, न चैतदप्युपचारमात्रेणोच्यते किन्तु तथाऽवभासात्, तथा चाह - नीलावभासः, समासः प्राग्वत्, यौवने तान्येव पत्राणि किशलयत्वं रक्तत्वं चातिक्रान्तानि ईषद्धरितालाभानि पाण्डूनि ४ सन्ति हरितानीत्युपदिश्यन्ते, ततस्तद्योगाद्वनपण्डोऽपि हरितः, न चैतदुपचारमात्रं, किन्तु तथाप्रतिभासोऽप्यस्ति तथा चाह- हरितावभासः, तथा बाल्यादतिक्रान्तानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति ततस्तद्योगाद् बनवण्डोऽपि शीतः, न चासौ न गुणतः किन्तु गुणत एव, तथा चाह— 'शीतावभासः' अधोभागवर्त्तिनां व्यन्तराणां देवानां देवीनां च तद्योगे शीतवातसंस्पर्शः ततः स शीतो For P&Praise City अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १८६ ॥ ~382~ प्रतिपत्ती मनुष्या० चनपण्डाधि० उद्देशः १ सू० १२६ ॥ १८६ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशकः [ ( द्वीप समुद्र)]. - मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० च० ३२ - — वनपण्डोऽवभासते इति, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथा (तः) स्वस्मिन् रूपेऽत्यर्थमुत्कटाः स्निग्धा भण्यन्ते वीमाञ्च ततस्तयोगाद्वनखण्डोsपि स्निग्धस्तीत्रश्लोकः, न चैतदुपचारमात्रं, किन्तु तथा प्रतिभासोऽपि तल उर्फ खिग्धावभासस्तत्रावभास इति इहावभासो भ्रान्तोऽपि भवति यथा महमरीचिकासु जलावभासः ततो नावभासमात्रोपदर्शनेन यथाऽवस्थितं वस्तुस्वरूपमुक्तं वर्णितं भवति किन्तु यथास्वरूपप्रतिपादनेन ततः कृष्णत्वादीनां तथास्यरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुरस्सरं विशेषणान्तरमाह - 'किन्हे किण्हच्छाये' इत्यादि, कृष्णो वनखण्डः, कुतः ? इत्याह-कृष्णच्छायः, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन' मितिवचनाद्वेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः यस्मात् कृष्णा छाया - आकारः सर्वाविसंवादितया तस्य तस्मात्कुष्णः, एतदुकं भवति - सर्वाविसंवादितया तत्र कृष्ण आकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तात्रभास संपादितसत्ताकः सर्वाविसंवादी भवति, ततस्तत्त्ववृत्त्या स कृष्णो न भ्रान्तावभासमानव्यवस्थापित इति, एवं नीलो नीलगाय इत्याद्यपि भावनीयं, नवरं शीतः शीतच्छाय इत्यत्र छायाशब्द आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः, 'घणकडिय इच्छाए' इति इह शरीरस्य मध्यभागे कटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यते, कटिस्तटभित्र कटितटं घना-अन्यान्वशाखा प्रशाखानुप्रवेशतो निविडा कटितटे-मध्यभागे छाया यस्य स धनकटितटच्छाय, मध्यभागे निविडतरच्छाय इत्यर्थः कचिपाठ: 'घनकडियकडच्छाए' इति, तत्रायमर्थः कटः सञ्जातोऽस्येति कटितः फटान्तरेणोपरि आवृत इत्यर्थः कटितश्चासौ कट कटितकट: घनानिविडा कटितटस्यैवाधोभूमौ छाया यस्य स धनकटिकटच्छायः अत एव रम्यो- रमणीय:, तथा महान जलभारावनतः प्रावृट्कालभावी भेषनिकुरम्यो - मेघसमूहस्तं भूतो- गुणैः प्राप्तो महामेघनिकुरम्बभूतः महामेघवृन्दोपम इत्यर्थः । 'ते णं पायवा' इत्यादि, 'ते' बनपण्डान्तर्गताः पादपा 'मूलवन्तः' मूखानि प्रभूतानि दूरावगाढानि च सन्त्येषामिति मूलवन्तः कन्द एपा For P&Peale City ~ 383~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] धिक उद्देशः१ दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- मस्तीति कन्दवन्तः, एवं स्कन्धवन्तस्त्वग्वन्तः शालावन्त: प्रवालवन्तः पत्रवन्तः पुष्पवन्तः फलवन्तो बीजवन्त इत्यपि भावनीयं, तत्र प्रतिपत्ती जीवाभिमूलानि-प्रसिद्धानि यानि कन्दस्याधः प्रसरन्ति कन्दास्तेपां मूलानामुपरिवत्तिनस्तेऽपि प्रतीताः, स्कन्धः-स्थुडं यतो मूलशाखाः प्रभवन्ति, मनुष्या० मलयगि- लक्-डही शाला-शाखा प्रबाल:-पल्लवाङ्करः पत्रपुष्पफलबीजानि सुप्रसिद्धानि, सर्वत्रातिशायने कचिद्भग्नि वा मतुप्प्रत्ययः, 'अणुपु वनखण्डारीयावृत्तिःवसुजाइरुइलवट्ठभावपरिणया' इति आनुपूा-मूलादिपरिपाट्या सुपु जाता आनुपूर्वीसुजाता रुचिला:-खिग्धतया देदीप्यमान॥१८७॥ छविमन्तः, तथा वृत्तभावेन परिणवा इत्तभावपरिणताः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च शाखाभिः प्रशाखाभिश्च प्रसूता यथा वर्तुला: संजाता इति, आनुपूर्वीसुजाताच ते रुचिराश्च ते च ते वृत्तभावपरिणताच आनुपूर्वांमुजातरुचिरवृत्तभावपरिणताः,131 सू०१२६ है तथा ते पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः, (समासान्तइन ) प्राकृते वाऽस्य स्त्रीलमिति 'एगखंधी' इति पाठः, तथाऽनेकाभिः शाखाभिः प्रशापाखाभिश्च मध्यभागे विटपो-विस्तारो येषां तेऽनेकशाखाप्रशाखा विटपाः, तथा तिर्यग्याहुबयप्रसारणप्रमाणो व्यामः अनेकैर्नरव्यामैः-पुरुष१व्यामैः सुप्रसारितैरग्राह्यः-अप्रमेयो घनो-निविडो विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते अनेकनरव्यामनुप्रसारिताबाह्यपनविपुलवृत्त स्कन्धाः, तथाऽपिछद्राणि पत्राणि येषां ते अच्छिद्र पत्राः, किमुक्तं भवति ?-न तेषां पत्रेषु वातदोषत: कालदोपतो वा गहरिकादिरी-1 तिरुपजायते, न तेषु पन्त्रेषु छिद्राणि भवन्तीत्यच्छिद्रपत्राः, अथवा एवं नामान्योऽन्यं शाखाप्रशाखानुप्रयेशात्पत्राणि पत्राणामुपरि जा-IA तानि येन मनागप्यपान्तरालरूपं छिद्रं नोपलक्ष्यत इति, तथा चाह–'अविरलपत्ता' इति, अत्र हेतौ प्रथमा ततोऽयमर्थ:-यतोऽवि-13 भरलपत्रा अतोऽच्छिद्रपनाः, अविरलपत्रा अपि कुतःइत्याह-'अवातीनपत्राः' बातीनानि-बातोपहतानि बातेन पातितानीत्यर्थः ॥१८७ ॥ न बासीनानि अवानीनानि पत्राणि येषां ते तथा, किमुक्तं भवति ?-न तत्र प्रवलो बात: घरपरुपो वाति येन पत्राणि त्रुटिला भूमौ || अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~384~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: A प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] निपतन्ति, ततोऽवातीनपत्रत्वादविरलपत्रा इति, अच्छिद्रपत्रा इत्यत्र प्रथमव्याख्यानपक्षमधिकृत्य हेतुमाह-'अणईइपत्ता' न विद्यते ईतिः-इरिकादिरूपा येषां तान्यनीतीनि अनीतीनि पत्राणि येषां ते अनीतिपन्नाः, अनीविपत्रत्वाचाछिद्रपत्राः, 'निडुयजरढपंडुप्रारपत्ता' इति नि तानि-अपनीतानि जरठानि पाण्डूनि पत्राणि येभ्यस्ते नि तजरठपाण्युपत्राः, किमुक्तं भवति ?-यानि वृक्षस्थानि जरठानि पाण्डूनि पत्राणि तानि वातेन निर्दूय निर्दूय भूमौ पात्यन्ते भूमेरपि च प्रायो निय निर्दूयान्यत्रापसार्यन्त इति, 'नवहरियभिसंतपत्तंधयारगंभीरदरसणिज्जा' इति नवेन-प्रसप्रेण हरितेन-नीलेन भासमानेन-स्निग्धत्वचा दीप्यमानेन पत्रमारेण-दलसञ्चयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः सन्तो दर्शनीया नबहरितभासमानपत्रान्धकारगम्भीरदर्शनीयाः, तथा उपविनिर्गतै:-निरन्तरविनिर्गतैनबतरुणपल्लवैः तथा कोमलैः-मनोजैरुज्वलै:-शुद्धैश्चल द्रिः-ईपत्कम्पमानैः किशलयैः-अवखाविशेषोपेतैः पल्लवविशेषैः सथा सुकुमारैः प्रवालैः-पल्लवारैः शोभितानि वराङ्कराणि-वरारोपेतानि अग्रशिखराणि येषां ते उपविनिर्गतनवतरुणपत्र पल्लवकोमलोजवलचलकिशलयसुकुमारप्रवालशोभितबराङ्करामशिखराः, इहादुरप्रवालयोः कालकृतावस्थाविशेषाद्विशेषो भावनीयः, 'निच्चं || कुसुमिया निच्चं मउलिया निश्चं लवइया निचं थवइया निच्चं गोच्छिया निच्चं जमलिया निच्चं जुयलिया निच्च विणमिया निच्चं पणमिया निश्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुगलियविणमियपणमियसुविभत्तप(पि)डिमंजरिवडंसगधरा' इति पूर्ववत्, तथा शुकवाणिमनशलाकाकोकिलकोरकभिकारकफोडलजीवंजीवकनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षकारण्डवचक्रवाककलहंससारसाख्यानामनेकेषां शकुनगणानां मिथुन:-स्त्रीपुंसयुग्मैचिंचरित-इतस्ततो गतं यच शब्दोन्नतिकम्-उन्नतशब्दक मधुरस्वरं च नादितं-पितं येषु से तधा, अत एव सुरम्या:-सुष्टु रमणीयाः, अत्र शुका:-कीराः बहिणो-मयूरा मदनशलाका ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- शारिका कोकिलाऽपि चक्रवाककलहंससारसा:-प्रतीताः, शेपास्तु जीवविशेषा लोकतो वेदितव्याः, तथा संपिण्डिताः-एकत्र पिण्डी-13 प्रतिपत्ती जीवाभिभूता दृप्ता-मदोन्मत्ततया दर्पाध्माता भ्रमरमधुकरीणां पहकरा:-समता:, 'पहकरओरोहसंघाया' इति देशीनाममालावचनात् , यत्रा मनुष्या० मलयगि- ते संपिण्डितरप्तमधुकरभ्रमरमधुकरीपहकराः, तथा परिलीयमाना:-अन्यत आगत्यागय अयन्तो मत्ता: पद्पदाः कुसुमासवलोला:- वनखण्डारीयावृत्तिःकि अल्कपानलम्पटा मधुरं गुमगुमायमानाः गुजन्तश्च-शब्दविशेषं च विधाना देशभागेषु तस्मिन् तस्मिन् देशभागे येषां ते परि-1 धिक लीयमानमत्तपट्पदकुसुमासक्लोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जन्तदेशभागाः, गमकत्वादेवमपि समासः, ततो भूयः पूर्वपदेन सह विशेष-18 उद्देशः१ ॥१८८॥ णसमासः, तथाऽभ्यन्तराणि-अभ्यन्तरवानि पुष्पाणि फलानि च पुष्पफलानि येपां ते तथा, 'बाहिरपत्तच्छन्ना' इति वहिःपत्र--सू०१२६ श्छन्ना-व्याप्ता बहिःपत्रछनाः, तथा पत्रैश्च पुष्पैच 'अवच्छन्नपरिच्छन्ना' अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा 'नीरोगाः' रोगवर्जिताः | 'अकण्टका' कण्टकरहिताः, मैतेषु मध्ये बबूलकादिवृक्षाः सन्तीति भावः, तथा स्वादूनि फलानि येपो ते खादुफलाः, तथा नि-18 ग्धानि फलानि येषां ते स्निग्धफलाः, तथा प्रत्यासनैन नाविधैः-नानाप्रकारैर्गुच्छैः-गृन्ताकीप्रभृतिभिर्गुस्नैः-नवमालिकादिभिर्मण्डपैः| द्राक्षामण्डपफैरुपशोभिता नानाविधगुच्छगुल्ममण्डपकशोभिवाः, तथा विचित्र:-नानाप्रकारैः शुभैः-मङ्गलभूतैः केतुभिः-ध्वजैहुलाव्याता विचित्रशुभकेतुबहुला:, तथा 'वाविपुक्खरिणीदीहियासु य निवेसियरम्मजालघरगा' पाप्य:-चतुरस्राकारास्ता एवं वृत्ताः पुष्करिण्यः यदिवा पुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः दीपिका-जुसारिण्य: वापीपुष्करिणीपु दीर्घिकासु च मुष्ठ निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि येषु ते वापीपुष्करिणीदीपिकामुनिवेशितरम्य जालगृहकानि, तथा पिण्डिता सती निहोरिमादूरे विनिर्गच्छन्ती पिण्डिमनीहारिमा तां सुगन्धि-सद्गन्धिको शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा शुभसुरभिमनोहरा तां ॥१८॥ Jnts अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~386~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 25-25%ीटर प्रत सूत्रांक [१२६] |च 'महया' इति प्राकृतत्वाहितीयार्थे तृतीया महतीमित्यर्थः, गन्धप्राणि यावद्भिर्गन्धपुद्गलैर्गन्धविपये प्राणिरुपजायते सावती गन्धपुगलसंइतिरूपचाराद् गन्धप्राणिरित्युच्यते तो निरन्तरं मुश्चन्तः, तथा 'सुहसेउकेउबहुला' इति शुभा:-प्रधानाः सेतवो-मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवो-यजा बहुला-अनेकरूपा येषां ते तथा, 'अणेगरहजाणजुग्गसिबियसंदमाणिपडिमोयणा' इति, तथा रथा द्विविधा:-कीडारथाः सामरथाश्च, यानानि सामान्यतः, शेषाणि वाहनानि, युग्यानि-गोलविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि | वेदिकोपशोभितानि जम्पानानि शिबिका:-कूटाकारणाच्छादिता जपानविशेषाः स्वन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणा जम्पानविशेषा:, अनेकेपां रथादीनामधो विस्तीर्णत्वात् प्रतिमोचनं येपु ते तथा, 'पासाइया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्यन् ॥ 'तस्स णं वणसंडस्से त्यादि, तस्य णमिति पूर्ववद् गनरण्डस्य 'अन्तः' मध्ये बहुसमः सन् रमणीयो बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्राप्तः, किंविशिष्टः । इत्याहहासे जहा नामए' इत्यादि, 'तत्' सकललोकप्रसिद्ध यथेति दृष्टान्तोपदर्शने नामेति शिधामणगे 'ए' इति वाक्यालकारे 'आलिंग पुक्खरेइ वा' इति आलिङ्गो-मुरजो वाचविशेषस्तस्य पुष्कर-चर्मपुटकं तत् किलात्यन्तसममिति तेनोपमा क्रियते, इतिशब्दाः है| सर्वेऽपि स्वस्खोपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतका: वाशब्दाः समुचये मृदङ्गो-लोकप्रतीतो मर्दलस्तस्य पुष्करं मृदङ्गपुष्करं परिपूर्ण-पानीकायेन भृतं तडाग-सरस्तस्य तलं-उपरितनो भागः सरस्तलं करतलं प्रतीतं, चन्द्रमण्डलं च यद्यपि तत्ववृत्त्या उत्तानीकृत कपित्याकारदापीठप्रासादापेक्षया गृत्तालेखमिति तद्गतो दृश्यमानो भागो न समतलस्तथाऽपि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम्, आदर्शमण्डलं सुप्रसिद्धम् , 'उरभचम्मेइ 'त्यादि, अन सर्वत्रापि 'अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते' इति विशेषणयोगः, उरभ्रः-करणः पृपभवराहसिंहव्याघ्रगला: प्रतीताः द्वीपी-चित्रकः, एतेषां प्रत्येक चर्म अनेकैः शङ्कप्रमाणैः कीलकसहजै:-महशिः कीलकैरताडितं प्रायो: दीप अनुक्रम [१६४] ~387~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६]] दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- मध्यक्षामं भवति न समतलं तधारूपतडाकासम्भवात् अत: शडग्रहणं, विततं-बिततीकृतं ताडितमिति भावः, यथाऽयन्तं बहुसमं३ प्रतिपत्ती जीवाभि भवति तथा तस्यापि बनषण्डस्यान्तहुसमो भूमिभागः, पुनः कथम्भूतः इत्याह-नाणाबिहपंचवन्नेहिं मणीहिं तणेहि य मनुष्या० मलयगि- उवसोभिए' इति योगः, नानाविधा--जातिभेदान्नानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणवस्तुणानि च तैरुपशोभितः, कथम्भूतैर्मणिभिः? इत्याह वनखण्डारीयावृत्तिः -'आवडे'त्यादि, आवर्तादीनि मणीनां लक्षणानि, तत्रावर्तः प्रतीत एकस्यावर्त्तस्य प्रत्यभिमुख आवतः प्रत्यावर्त्तः श्रेणिः-तथाविध-131 धि० विन्दुजातादेः पतिः तस्याश्च श्रेणेर्या विनिर्गताऽन्या श्रेणिः सा प्रश्रेणिः स्वस्तिकः प्रतीत: सौवस्तिकपुष्पमाणवौ-लक्षणविशेषौ लोका- उद्देशः१ ॥ १८९॥ "मत्येतव्यौ वर्द्धमानक-शराबसंपुटं मत्स्य काण्डकमकराण्डके-प्रतीते 'जारमारे ति लक्षणविशेषौ सम्यग्मणिलक्षणबेदिनो लोकाद्वेदि- सू०१२६ सातव्यौ, पुष्पावलिपदापत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापदालताः प्रतीतास्तासां भक्त्या-विछित्त्या चित्रम्-आलेखो येषु ते आवर्तप्रत्यावर्त -18 हाणिप्रणिस्यस्तिकसौवस्तिकपुष्यमाणववर्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डक जारमारपुष्पावलिपनपत्रसागरतरङ्गवासन्तीपद्मलताभक्तिचित्रा स्तैः, किमुक्तं भवति ?-आवादिलक्षणोपेतैः, तथा सच्छायैः सती-शोभना प्रभा-कान्तिर्वेषां ते सत्प्रभास्सैः 'समरीएहिंति समरीचिकै:-बहिर्षिनिर्गत किरणजालसहितः 'सोयोतैः' बहिव्यवस्थितप्रत्यासन्नवस्तुस्तोमप्रकाशकरोद्योतसहितः, एवंभूतै नाजातीवैः। पञ्चवणमणिभिस्तृणैचोपशोभितः, तानेन पञ्च वर्णानाह–'तंजहा कण्हे' इत्यादि । 'तत्थ णमित्यादि, तत्र तेषां पञ्चवर्णानां मआणीनां तृणानां च मध्ये णमिति बाक्यालद्वारे ये ते कृष्णा मणयस्तृष्णानि च, ये इत्येव सिद्धे ये ते इति वचनं भाषाक्रमार्थ, तेषां ण-| नामिति पूर्ववन् 'अयम्' अनन्तरमुदिश्यमानः 'एतद्रूपः' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्राप्तः, तद्यथा दा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-'जीमूत' इति 'जीमूतः बलाहकः, स चेह प्रावृटप्रारम्भसमये जलभूतो वेदितव्यः, अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसम्भवात् , इतिशब्द उपमाभूनवस्तुनामपरिसमामिद्योतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्रेतिवाशब्दो द्रष्टव्यो, 'अञ्जन' सौवीराजनं रनविशेपो वा 'खञ्जन' दीपमल्लिकामल: 'कजलं' दीपशिखापतितं 'मषी' तदेव कजलं ताम्रभाजनादिपु सामग्रीविशेषेण बोलितं मपीगुलिका-चोलित कजलगुटिका, कचिन् 'मसी इति मसीगुलिया इति वेति न दृश्यते, गवलं-माहिषं शृङ्गं तदपि चोपरितनत्यग्भागापसारणेन द्रष्टव्यं, तत्रैव विशिष्टस्य कालिम्नः सम्भवात् , तथा तस्यैव माहिषङ्गस्य | निविडतरसारनियंतिता गुटिका गवलगुद्धिका 'भ्रमरः' प्रतीतः 'भ्रमरावली' भ्रमरपतिः 'भ्रमरपतङ्गसार' भ्रमरपक्षान्तर्गतो विशिष्टकालिमोपचितः प्रदेशः 'जम्बूफलं प्रतीतम् 'आारिष्ट' कोमलकाकः 'परपुष्टः' कोकिलः गजो गजकलभश्च प्रतीत: 'कृ-1 ष्णसर्पः कृष्णवर्णसर्पजातिविशेषः 'कृष्णकेसरः कृष्णायकुदः 'आकाशविग्गलं' शरदि मेवविनिर्मुक्तमाकाशखण्डं तद्वत्कृष्णमतीब प्रतिभातीति तदुपादानं, कृष्णाशोफफूष्णकणवीरकृष्णबन्धुजीबा: अशोककणवीरवन्धुजीववृक्षभेदाः, अशोकादयो हि पञ्चवर्णा भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासार्थ कृष्णग्रहणम् , एतावत्युक्ते गौतमो भगवन्तं पृच्छति-भचे एयारूवे' इति भवेन्मणीनां तृणानां च कृष्णो वर्ण: 'एतद्रूपः' जीमूनादिरूपः?, भगवानाह-गौतम! 'नायमर्थः समर्थः' नायमर्थ उपपन्नो यदुतैबंभूतः कृष्णो वर्गों मणीनां तृ-13 णानां च, किन्तु ते कृष्णा मणयस्तृणानि च इतः' जीमूतादेः 'इष्टतरका एवं' कृष्णवर्णेनाभीप्सिततरका एव, वत्र किञ्चिदकान्तमपि केपाश्चिदिष्टतरं भवति ततोऽकान्त ताब्यबच्छित्यर्थमाह-कान्ततरका एवं अतिस्निग्बमनोहारिकालिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयतरका एव, अत एव 'मनोज्ञतरकाः' मनसा ज्ञायन्ते-अनुकूलतया स्वप्रवृत्तिविषयीक्रियन्त इति मनोज्ञा-मनोऽनुफूलास्ततः । माप्रकर्षविवक्षायां तर प्रत्ययः, तत्र मनोज्ञतरमपि किश्चिमध्यमं भवति ततः सवोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह-मनआपतरका एवं' द्र FACARX ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६]] 95 दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीदा-बाणां मनांसि आनुवन्ति-प्रागुवन्ति आसवशां नयन्तीति मनापास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरपप्रत्ययः, प्राकृतखाच पकारस्य मकारे ४३ प्रतिपत्नी जीवाभि 13 मणामतरा इति भवति । तथा तत्थ 'मित्यादि, तत्र तेषां मणीनां तृणानां च मध्ये ये ते नीला मगयस्तुणानि च तेषामयमेत- मनुष्या० मलयगि- दूप: 'वर्णावासः' वर्णकनिवेश: प्रशासः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-भृङ्गः' कीटविशेषः पक्ष्मल: भू- वनखण्डारीयावृत्तिः पत्रं-तस्वैव भृङ्गाभिधानस्य कीटविशेषस्य पक्ष्म 'शुका' कीर: 'शुकपिच्छं' शुकख पत्रं 'चापः' पशिविशेष: 'चापपिच्र्ड' चापपक्षः|| घि दानीली' प्रतीता 'नीलीभेद' नीलीच्छेदः 'नीलीगुलिया' नौलीगुटिका 'श्यामाका' धान्य विशेष: 'उभंतगे वा' इति 'उच्च॥१९॥ तगः' दन्तराग: 'वनराजी' प्रतीता हलधरो-पलदेवस्तस्य वसनं हलधरवसनं तञ्च किल नीलं भवति, सदैव तयास्वभावतया हल-10 सू०१२६ धरस्य नीलवनपरिधानान् , मयूरप्रीवापारापतपीवाऽतसीकुसुमवाणकुसुमानि प्रतीतानि, अत ऊर्द्ध कचित् 'इंदनीलेइ वा महानीलेइ वा | कामरगतेइ वा तत्र इन्द्रनीलमहानीलमरकता रजविशेषाः प्रतीताः, अञ्जन केशिका-पनसतिविशेपस्त त्याः कुसुमम जन केशिकाकुसुमं 'नी लोत्पलं' कुवलयं नीलाशोकनीलकणवीरनीलवन्धुजीवा अशोकादिवृक्षविशेषाः, 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वद् व्याख्येयम् । तथा 'तत्थ पामित्यादि, तन्त्र नेपां मणीनां मध्ये ये ते लोहिता मणयस्तृणानि च तेषामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञाप्तः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम शशकरघिरमुरभ्र-ऊरणतय रुधिरं वराह:-शूकरतस्य रुधिरं मनुष्वरुधिरं महिपरुधिरं च प्रतीतं, एतानि हि किल शेषरुधिरेभ्यो लोहितवोत्कटानि भवन्ति तत एतेषामुपादानं, 'बालेन्द्रगोपकः सद्योजात इन्द्रगोपकः, सहि 81 प्रवृद्धः सन्नीपत्पाण्डुरत्तो भवति ततो वालग्रहणम् , इन्द्रगोपक:-प्रथमप्रावृटकालभावी कीटविशेषः 'बालदिवाकरः प्रथममुद्गच्छन् 8॥१९०।। सूर्यः 'सन्ध्याभरागः' वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अभ्रराग: गुञ्जा-लोकप्रतीता तस्या अढ़ें रागो गुजारागः, गुखाया हि अर्द्ध 4-2564444 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] 25346452 दीप अनुक्रम [१६४] जामतिरक्तं भवति अर्द्धगतिकृष्णं ततो गुजार्द्धपहणं, जपाकुसुमकिंझुककुसुमपारिजातकुसुमजात्यहिगुलका:-प्रतीता: "शिलाप्रवाल'18 प्रवालनामा रजनविशेषः प्रबालाङ्करः तस्यैव रत्नविशेपस्य प्रबालाभिवस्वाकुरः, स हि प्रथमोगतत्वेनात्यन्तरको भवति ततस्तदुपादानं, | लोहिताक्षमणिनीम रत्नदिशेषः, लाक्षारसकृमिरागरक्तकम्बलचीनपिष्ठराशिरतोत्पलरक्ताशोकरक्तकणवीररक्तबन्धुजीवाः प्रतीताः भवे। एयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तत्थ णमित्यादि, तत्र तेषां गणीनां तृणानां च मध्ये ये हरिद्रा मणयस्तृणानि च तेषामयमेतब्रूपो| 'वर्णावासः' वर्णकविशेष: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-चम्पक: सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षः 'चम्पकच्छल्ली' सुवर्णचम्पकत्वक 'चम्पकभेदः' सुवर्णचम्पकच्छेदः 'हरिद्रा' प्रतीता हरिद्राभेदः' हरिद्राच्छेदः 'हरिद्रागुलिका' हरिद्रासारनिर्मिता गुलिका 'हरितालिका' पृथ्वीविकाररूपा प्रतीता 'हरितालिकाभेदः' हरितालिकाच्छेदः 'हरितालिकागुलिका' दाहरितालिकासारनिर्वसिता गुटिका 'चिकुरः' रागद्रव्यविशेष: 'चिकराङ्गरागः' चिकुरसंयोगनिमित्तो वस्त्रादौ रागः, यरकनकस्य जालसुवर्णस्य यः कषपट्टके निधर्षः स घरकनकनिघर्षः, वरपुरुषो-वासुदेवस्तस्य वसनं घरपुरुषवसनं, तद्धि किल पीतमेव भवतीति तदुपादानम् , अ(स)लकीकुसुमं लोकतोऽवसेयं 'चम्पककुसुम' सुवर्णचम्पककुसुमं 'कूष्माण्डीकुसुम' पुष्पफलीकुसुमं कोरण्टक:पुष्पजातिविशेषस्तस्य दाम कोरण्टकदाम तडवडा आउली तस्याः कुसुमं सवडाकुसुमं घोपातकीकुसुमं सुवर्णयूधिकाकुसुमं च प्रतीत सुहारिण्यका-वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं सुहरिण्यकाकुसुमं वीयको-वृक्षः प्रतीतस्तस्य कुसुमं बीयककुसुमं पीताशोकपीतकणवीजारपीतवन्धुजीवाः प्रतीता: 'भवे एयारूवेंइत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र तेषां मणीनां तृणानां च मध्ये ये| टूते शुक्ला मणयस्तृणानि च सेपामयमेतद्रूपो वर्णावास: प्रज्ञप्तः, यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-'अङ्कः' रज ~391~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६]] दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- विशेषः शङ्खचन्द्रकुमुदोदकरजोदंधिधनक्षीरक्षीरपूरको पदावलिहारावलिहंसाबलिवलाकायलय: प्रतीताः 'चन्द्रावली' तडाकादिषु ३ प्रतिपत्ती जीवाभि जलमध्यप्रतिविम्बितचन्द्रपक्तिः 'सारइयचलाहगेइ वा' इति शारदिक:-शरत्कालभावी बलाहको-मेघ: 'धंतधोयरुष्पपट्टेड वेति, | मनुष्या० मलयगि- मात:-अग्निसंपर्केण निर्मलीकृतो धौतो-भूतिखरण्टितहससन्मार्जनेनातिनिशितीकतो यो रूप्यपट्टो-रजतपत्रं स ध्मातधौतरूप्यपट्टः, बावनखण्डारीयावृत्तिः अन्ये तु व्याचक्षते-मातेन-अग्निसंयोगेन यो धौदः-शोधितो रूप्यपट्टः स ध्मातरूप्यपट्टः, शालिपिष्टराशि:-शालिक्षोदपुञ्जः | NI धि० शकुन्दपुष्पराशि: कुमुदराशिश्च प्रतीतः, 'सुक्छेवाडियाइ वा' इति छेवाडी नाम-बल्लादिफलिका, सा च कचिदेशविशेषे शुष्का का उद्देशः१ सती शुक्ला भवति ततस्तदुपादानं, 'पेहुणमिंजियाइ वा' इति पेहुणं-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिना पेहुणमितिका सा चाति- सू०१२६ शुक्छेति तनुपन्यासः, विसं-पद्मिनीकन्दः मृणालं-पातन्तुः, गजदुन्तलवङ्गदलपुण्डरीकदलश्वेतकणवीरश्वेतवन्धुजीवाः प्रतीता:, भवेयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् । तदेवमुक्तं वर्णवरूपं, सम्प्रति गन्धस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि णं मणीणं तणाण य' इत्यादि, हा तेषां मणीनां तृणानां च कीदृशो गन्धः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाइ–से जहा नाम ए' इत्यादि, प्राकृतत्वात् 'से' इति बहुवचनार्थः, वे यथा नाम गन्धा अभिनि:अवन्तीति सम्बन्धः, को-गन्धद्रव्यं तस्य पुटाः कोष्टपुटातेषां, वाशब्दाः सर्वत्रापि समुनये, इहैकस्य | पुटस्य न तादृशो गन्ध आयाति द्रव्यस्खाल्पत्वात् ततो बहुवचनं, तगरमपि गन्धद्रव्यम् , 'एला' प्रतीता: 'चोयगं' गन्धद्रव्यं चम्पकदमनककुमचन्दनोशीरमरुत्रकजातीयूधिकामल्लिकारमानमल्लिकाकेतकीपाटलानत्रमालिकाबासक'राणि प्रतीतानि नवरमुशीर-वीरणीमूलं मानमल्लिका-मानयोग्यो मलिकाविशेपः एतेपामनुवाते-आघायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते याति सति 'उद्भिद्यमा-IND१९॥ नानाम्' उद्घान्य मानानां, चशब्दः सर्वत्रापि समुच्चये, 'निर्भिद्यमानानां' नितरां-अतिशयेन भिद्यमानानां 'कोविजमाणाण वा' HAM % Janeman M ataayari अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~392~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] 4 - K दीप अनुक्रम [१६४] इति, इह पुटैः परिमितानि यानि कोष्टादिगन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात्कोप्टपुटानीत्युच्यन्ते तेषां 'कुदृचमानानाम्' उदूखले कुट्टयमानानां 'रुविजमाणाण वा' इति सक्ष्णखण्डी क्रियमाणानाम् , एतच विशेषणद्वयं कोष्ठादिव्याणामबसेयं, तेषामेव प्रायः कुट्टनश्लक्ष्णखण्डीकरणसम्भवान्, न तु यूथिकादीनाम्, 'उकिरिजमाणाण वा' इति क्षुरिकादिभिः कोष्टादिपुटानों कोप्यादिद्रव्याणां वा उत्कीर्यमाणानां 'विक्खरिजमाणाण वा' इति 'विकीर्यमाणानाम्' इतस्ततो विप्रकीर्यमाणानां परिभुजमाणाण वा' परिभोगायोपभुज्यमानानां, कचित्पाठः 'परिभाएजमाणाण वा' इति, तत्र 'परिभाज्यमानानां' पार्श्ववर्तिभ्यो मनाग २ दीयमानानां 'भंडाओ भंडं साहरिजमाणाण वा' इति 'भाण्डात्' स्थानादेकरमाद् अन्यद् भाण्ड-भाजनान्तरं संहिय|माणानाम् 'उदाराः' स्फाराः, ते चामनोशा अपि स्पुरत आह-'मनोज्ञाः' मनोऽनुकूलाः, तब मनोज्ञत्वं कुतः । इत्याह-'मनोहराः' मनो हरन्ति-आत्मवशं नयन्तीति मनोहराः, यतस्ततो मनोहरवं कुतः? इत्याह-याणमनोनितिकरा:, एवंभूताः 'सर्वतः' सर्वासु विच 'समन्ततः' सामरलेन गन्धाः 'अभिनिःस्रवन्ति' जिघ्रतामभिमुखं निस्सरन्ति, एवमुक्ते शिष्यः पृच्छति-भवे ए. यारूवें' इत्यादि प्राग्वत् ।। तेषां मणीनां तृणानां च कीदृशः स्पर्शः प्रज्ञाम: ?, भगवानाह-गौतम ! 'से जहा नाम ए' इत्यादि, तद्यथा--'अजिनकं' चर्ममयं वखं रूतं च प्रतीतं 'बूरः' बनस्पतिविशेषः 'नवनीत ब्रक्षणं हंसगर्भतूली शिरीपकुसुमनिचयश्च प्रतीतः 'बालकुमुदपत्तरासीइ वेति बालानि-अचिरकालजातानि यानि कुमुदपत्राणि तेषां राशिबालकुंमुदपत्रराशिः, कचित् | बालकुसुमपत्रराशिरिति पाठः, 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तेसि भंते ! इत्यादि, तेषां भदन्त ! तृणानां पूर्वा-16 परदक्षिणोत्तरागतैर्यानैः 'मन्दायं मन्दाय'मिति मन्द मन्दम् 'एजितानां' कम्पितानां 'व्येजिताना विशेषतः कम्पितानाम्, एत-| ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ (मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्तिः [३], ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र )], मूलं [ १२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः रीयावृत्तिः ॥ १९२ ॥ श्रीजीवा- | देव पर्यायशब्देन व्याचष्टे - कम्पितानां तथा 'चालितानाम् इतस्ततो विक्षिप्तानाम्, एतदेव पर्यायेण व्याचष्ठे- सन्दितानां तथा ३ प्रतिपत्ती जीवाभि० * 'संघट्टितानां परस्परं घर्षयुक्तानां कथं घट्टिताः ? इत्याह-- 'क्षोभितानां' सस्थानावाळितानां, स्वस्थानाचालनमपि कुतः ? इत्याह-- * मनुष्या० मलयगि'उदीरितानाम्' उत्मावस्येनेरितानां प्रेरितानां कीदृशः शब्दः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह 'गोयमे' त्यादि, गौतम! स यथानामक:शिविकाया वा स्पन्दमानिकाया वा रथस्य वा तन शिविका-जम्पानविशेषरूपा उपरिच्छादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्षो-जम्पान* विशेषः पुरुषस्य स्वप्रमाणावकाशदायी स्यन्दमानिका, अनयोव शब्दः पुरुषोत्पाटितयोः क्षुद्रमण्टिकादिचनवतो वेदितव्यः, 5 रथचेद सङ्ग्रामरथः प्रत्येयो, न क्रीडारथः, तस्यायेतन विशेषणानामसंभवात् तस्य च फलकवेदिका यस्मिन् काले (यः) पुरुषस्तदपेक्षया ॐ कटिप्रमाणाऽवसेया, तस्य च रथस्य विशेषणान्यभिधत्ते - 'सच्छ तर सेत्यादि, सच्छत्रस्य सध्वजस्य 'सघण्टाकस्य' उभयपार्श्ववलम्बि महाप्रमाणघण्टोपेतस्य सपताकस्य सह तोरणवरं प्रधानं तोरणं यस्य स सतोरणवरस्तस्य सह नन्दिघोषो द्वादशतूर्यनिनादो यस्य स सनन्दिवोपस्तस्य, तथा सह किङ्किणीभिः क्षुद्रघण्टाभिर्वर्त्तन्त इति सङ्किणीकानि यानि हेमजालानि - हेममयदामसम् हास्तैः सर्वासु दिनु पर्यन्तेषु वहि:प्रदेशेषु परिक्षिप्तो व्याप्तः सकिङ्किणीक हेमजालपर्यन्तपरिक्षिमस्तस्य, तथा हैमवतं हिमवत्पत भावि चित्रविचित्र-मनोहारिधित्रोपेतं तैनिशं-तिनिशदारुसम्बन्धि कनकनियुक्त - कनकविच्छुरितं दारु-काष्ठं यस्य स हैमवतचित्रवि चित्रतैनिश कनक नियुक्तद्वारस्तस्य सूत्रे च द्वितीयककारः खार्थिकः पूर्वस्य च दीर्घं प्राकृतत्वात् तथा सुष्ठु अतिशयेन सम्यक् पिनमरफमण्डलं धूच यस्य स सुपिनद्धारकमण्डलधूष्कस्तस्य, तथा कालायसेन छोईन सुपु-अतिशयेन कृतं नेमेः वाह्य परिधेर्ये य च-अरकोपरि फलकचक्रवालस्य कर्म यस्मिन् स कालायस सुकृतनेमियकम् तस्य, तथा आकीर्णा गुणैडता ये वरा:-प्रथा For P&Praise City वनखण्डाधि० उद्देशः १ सू० १२६ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~394~ ॥ १९२ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] -- दीप अनुक्रम [१६४] नास्तुरगास्ते सुप्त-अतिशयेन सम्यक् प्रयुक्ता-योत्रिता यस्मिन् स आकीर्णधरतुरगसुसंयुक्तः, प्राकृतत्वाद् बहुव्रीहाबपि निष्टान्तस्य परनिपातः, तथा सारथिकर्मणि ये कुशला नरास्तेषां मध्ये ऽतिशयेन छेको-श्नः सारथिनेन सुषु सम्बपरिगृहीतस्य, तथा 'सरसयबत्तीसतोणमंडियस्स' इति शराणां शतं प्रत्यक थेपु तानि शरशतानि तानि च नानि द्वात्रिंशतोगानि च-पाणायाः | शरशतद्वात्रिंशत्तोणानि तैमण्डितः शरशतद्वात्रिंशत्तोणमण्डितः, किगुक्तं भवति ?-एवं नाम तानि द्वाविंशच्छरशतवृतानि तूणानि रथस्य ! सर्वतः पर्यन्तेष्ववलम्बितानि यथा नानि तस्य सङ्गामायोपकस्पितन्यातीय मण्डनाय भवन्तीति, तथा कट-कवचं मह काट यस्य । हैस सकङ्कटः सकङ्कटोऽवतंसः-दोखरो यस्य स सकटावतंसलस्य, तथा सह चापं येषां ते सचापा ये शरा यानि च कुन्तभल्लिमुप दिप्रभुतीनि नानाप्रकाराणि यानि च कवचरयेट कप्रमुखाणि आवरणानि नै त:-परिपूर्णः, तथा योधानां युद्धं तन्निमित्तं सद्यः प्रगुगीभूतो यः स योधयुद्धसजः, ततः पूर्वपदेन सह विशेषणसमासः, तस्वेत्थंभूतस्य राजाङ्गणे अन्तःपुरे बा रम्ये वा मणिकुहिमतलेमणिबद्धभूमितले अभीक्ष्णसभीक्ष्ण मणिको(कु)हिमतलप्रदेशे सजायणप्रदेशे या अभिपट्टि जमाणस्से'ति अभिघट्टयमानस्य वेगेन गच्छतो ये उदारा-मनोज्ञाः कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तान् शब्दा अभिनिस्सरन्ति, 'भवे एयारूबे सिया' इति 'स्यान्' कथञ्चिद् भवेद् एतापस्तेषां भणीनां राणानां च शब्दः ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह-स यथा नामक:-प्रात: स ध्यायां देवतायाः पुरतो या वादनायोपस्थाप्यते सा किल मङ्गलपाठिका तालाभावे च बायते इति विताले-तालाभावे भवतीति बैनालिकी तस्या पैतालिक्या-वीणाया 'उत्तरामन्दा मुच्छियाए' इति मूर्छनं मूसा संजाताऽस्या इक्ति मूच्छिता उत्तरमन्दवा-उत्त रमन्दाभिधानया मूर्छनया-गान्धारस्वरान्तर्गतया सप्तम्या मूहिता उत्तरमन्दामूछिता, किमुक्तं भवति गान्धारस्वरभ्य सप्तमूजी०१०३३/ - - ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० बनखण्डा घि० उद्देशः१ सू०१२६ h दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- ईना भवन्ति, सयथा-"नंदी य स्तुट्टिमा पूरिमा य चोत्थी अ सुद्धगंधारा । उत्तरगन्धारावि य हवई सा पंचमी मुच्छा ॥१॥ सुहु- जीवाभिमुत्तरआयामा छट्ठी सा नियमसो उ बोद्धश्या । उत्तरमंदा य तहा हवई सा सत्तमी मुच्छा ।। २॥ अथ किंवरूपा मूर्च्छनाः मलयगि- उच्यते, गान्धारादिस्वरूपामोचनेन गायतोऽतिमधुरा अन्यान्यस्वरविशेषा यान् कुर्वन्नास्तां श्रोतन मूपिछतान करोति किन्तु खवमपि रीयावृत्तिः मूञ्छित इव तान् करोति, यदिवा स्वयमपि साक्षान्मूछों करोति, तथा चोक्तम्-"अननसरविसे से उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्तावि मुछितो इव कुणए मुच्छ व सोवेति ॥ १॥" गान्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्च्छनानां मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दाभिधाना मूर्च्छना ॥१९३॥ १ किलातिप्रकर्षप्राप्ता ततस्तदुत्पादनया च मुल्यवृत्त्या वादयिता मूर्निछतो भवति, परमभेदोपचारात् वीणाऽपि मूञ्छितेत्युक्ता, साऽपि वद्यके सुप्रतिष्ठिता न भवति ततो न मूर्छनाप्रकर्ष बिद्धाति तत आह-अ-स्त्रिया: पुरुषस्य वा उत्सङ्गे सुप्रतिष्ठितायाः, तथा कुशलेनवादननिपुणेन नरेण पुरुषेण नार्या वा सु-अतिशयेन सम्यग गृहीतायाः, तथा चन्दनस्य सारः चन्दनसारस्तेन निर्मापिनो यः कोणोवादनदण्डोन परिघट्टिताया:-संस्पृष्टायाः ‘पञ्चसकालसमयंसि' इति 'प्रत्यूषकालसमये प्रभातवेलायां, कचित् 'पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि' इति पाठस्तत्र प्रदोषसमये प्रातःसमये चेत्यर्थः, 'मन्दं मन्द' शनैः शनै: 'एजिताया' चन्दनसारकोणेन मनाक् कम्पितायाः 'व्येजितायाः' विशेषत: कम्पितायाः, एतदेव पर्यायेण ब्याचशे-चालिता यास्तथा घट्टितायाः, ऊधिोगच्छता 'चन्दनसार|कोणेन गाढतरं वीणादण्डेन सह तस्याः स्पृष्टाया इत्यर्थः, तथा 'स्पन्दितायाः' नखारेण सरविशेषोत्पादनार्धमीपश्चालितायाः 'क्षोदाभिताया मूच्छी प्रापिताया ये 'उदारा' मनोज्ञाः कर्णमनोनितिकराः सर्वतः समन्तापछया अभिनिस्सरन्ति, 'स्यात्' कथञ्चिद् भवेदेतपस्तेषां तृणानां मणीनां च शब्दः १, भगवाना-नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह-स यथा नामक:-किनराणां वा | SCIENCREAM or ॥१९३॥ Janisex अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~396~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] किंपुरुषाणां वा महोरगाणां वा गन्धर्वाणां वा, वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः, किनरादयो व्यन्तरविशेषाः, तेषां कथम्भूतानाम् ।। इत्याह-'भद्रशालवनगतानां वा' इत्यादि, तत्र मेरोः समन्ततो भूमौ भद्रशालवनं प्रथममेखलायां नन्दनवनं शिरसि चूलिकायाः पा-| पु सर्वतः पण्डकवनं 'महाहिमयंतमलयमन्दरगिरिगुहासमन्नागयाणं' इति महाहिमवान्-हमवतक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरपर्वतः, उपलक्षण शेषवर्षधरपर्वताना, मलयपर्वतस्य मन्दरगिरेश्च-मेरुपर्वतस्य च गुहा समन्वागताना, वाशब्दा विकल्पार्थाः, एतेषु। हि स्थानेषु प्रायः किंनरादयः प्रमुदिता भवन्ति तत एतेषामुपादानम् , 'एगतो सहियाण'ति एकस्मिन् स्थाने सहिताना-समुदितानां 'समुहागयाणति परस्परसंमुखागताना-संमुखं स्थितानां, नैकोऽपि कस्यापि पृष्ठं दत्त्वा स्थित इत्यर्थः, पृष्ठदाने हर्षविचासोत्पत्तेः, तथा 'समुविट्ठाण सम्यक् परस्परानाबाधया उपविष्टाः समुपविष्टास्तेषां समुपविष्टानां, तथा 'संनिविट्ठाण मिति सम्यक् स्वशरीरानाबाधया न तु विषमसंस्थानेन निविष्टाः संनिविष्टास्तेपा, 'पमुइयपक्कीलियाण'ति प्रमुदिताः-प्रहधं गताः प्रक्रीडिता:-क्रीडितुमारब्धवन्तस्ततो विशेषणसमासस्थां, तथा गीते रतिर्येषां ते गीतरतयो गन्धर्व-नाश्यादि तत्र हर्षितमनसो गन्धर्वहर्षितमनससततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेषां गद्यादिभेदावष्टविधं गेयं, तत्र गद्यं यत्र स्वरसञ्चारेण गचं गीयते, यत्र तु पा-वृत्तादि गीयते तत्पद्यं, यत्र कथिकादि गीयते तत्कथ्य, पदबद्धं यदेकाक्षरादि यथा ते ते इत्यादि, पादवद्धं यद् वृत्तादिचतुर्भागमात्रे पदे बद्धम् , 'उक्खित्ताय'मिति उक्षिप्तकं प्रथमतः समारभ्यमाणं, दीर्घवं ककारात्पूर्व प्राकृतलान् , एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यं, 'प्रवृत्तकं' प्रथमसमारम्भादूर्द्धमाझेपपूर्वकप्रवर्त्तमानं 'मंदाय'मिति मन्दकं मध्यभागे सकलमूर्छनादिगुणोपेतं मन्दं मन्दं संचरन , तथा 'रोझ्यावसाणं ति रोचितंसम्यग्भावितमवसानं यस्य तद् रोचितावसानं, शनैः शनैः प्रक्षिप्यमाणस्वरं यस्य गेयस्यावसानं तद् रोचितावसानमिति भावः, तथा दीप अनुक्रम [१६४] ~397~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्ती मनुष्या० वनखण्डा [१२६] उद्देशः१ दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- सप्तस्वरसमन्वागत' सप्न स्वराः पजादयः, उक्तञ्च-सजे रिसह गंधारे, मझिमे पंचम सरे। घेवए चेव नेसाए, सरा सत्त वि-1 जीवाभिनयाहिया ॥ १॥" ते च सप्त स्वराः पुरुषस्य स्त्रिया या नाभीतः समुअवन्ति 'सत्त सरा नाभीतो' इति पूर्वमहर्षिवचनान् , तथाऽष्टभी मलयगि- रसै:-क्षारादिभिः सम्यक् प्राण युक्तमष्टरससंप्रयुक्त, तथा एकादश अलङ्काराः पूर्वान्तर्गते स्वरप्राभृते सभ्यगभिहिताः, तानि रीयावृत्तिःच पूर्वाणि सम्पत्ति व्यवकिमानि सतः पूर्वेभ्यो ले शतो विनिर्गतानि यानि भरतविशाखिटप्रभूत्तीनि तेभ्यो वेदितव्याः, 'छद्दोस विष्पमुकति पनि देपिविनमुक्तं पदोपविषमुक्त, ते च पड् दोपा अमी-भीयं दुयमुप्पिक्छ उत्तालं कागस्सरमणुणासं च'। उक्त ।। १९४॥ -भीयं दुयमुपिच्छत्थमुत्ताल च कमसो मुपोचव्यं । काकस्सरमणुनासं दोसा होति शेयस्स ।। १॥"तत्र 'भीतम्' 'उत्रस्तं, किमुक्तं भवति ?-यदुअस्तेन मनसा गीयते तङ्गीतपुरुपनिवन्धनधम्मांनुवृत्तवाझौतमुच्यते, 'हुतं यत्त्वरित गीयते, 'उपिच्छे' नाम | आकुलम् , 'उक्तन-आहित्य पिच्छं च आउलं रोसभरियं च" अस्थायमर्थ:-आहित्यमुप्पिक्छ च प्रत्येकमाकुल रोपभृतं वोच्यत इति, आकुलता च श्वासेन प्रष्टच्या सथा पूर्वसूरिभियाख्यानात , उक्त व मूलटीकायाम्- उपिच्छं श्वासयुक्त"मिति, तथा| उन-पावल्येनातितालमखानतालं या उत्ताल, अक्षणस्वरेण काकस्वरं, सानुनासिकमनुनासं, नासिकाविनिर्गतवरानुगतमिति भावः, तथा 'अहगुणोववेयमिति अष्टभिर्गुणैरुपेतमष्टगुणोपेतं, ते चाष्टावमी गुणाः-पूर्ण रिक्कमलकृतं व्यक्तमविपु(यु)ष्टं मधुरं समं सल-1 लितं च, तथा चोक्तम्-'पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहेव अविपु(घु)ई । महुरं समं सललियं अट्ठ गुणा होति गेयस्स ॥१॥" तत्र यत्स्वरकलाभिः पूर्ण गीयते तत्पूर्ण, गेवरागानुरक्तेन यद् गीयते तद्रक्तम् , अन्योऽन्यवरविशेषकरणेन यदलतमेव गीयते तदल-15 वृत्तम् , अक्षरस्वरस्फुटकरणतो व्यक्तं, विस्वरं क्रोशतीव विपु(घु)ष्ट न विधुष्टमविपु(घु)ई, मधुरवरेण गीयमानं मधुरं कोकिलारत- KAK-4-५५ १९४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '' अत्र १ इति निरर्थकम् ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] बत् , तालवंशस्वरादिसमनुगतं समं, तथा बत्खरघोलनाप्रकारेण ललतीब तत् सह ललितेनेति सललितं, यरिया यच्छ्रोत्रेन्द्रियस्य 8 शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्म गुल्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सललितम् ॥ इदानीमेतेषामेवाष्टानां गुणानां मध्ये कियतो गुगान्ह अन्यच्च प्रतिपिपादयिपुराह-रत्तं तिहाणकरणसुद्ध'मित्यादि, 'रक्त' पूर्वोक्तखरूपं तथा च 'त्रिस्थानकरणशुद्ध त्रीणि स्थानानिउरमभूतीनि तेषु फरगोन--क्रियया शुद्ध त्रिस्थानकरणशुद्ध, तद्यथा-उरःशुद्धं कण्ठशुद्धं शिरोविशुद्ध च, तत्र यदि उरसि स्वरः ख-13 भूमिकानुसारंग विशान्टो भवति तत उरोविशुद्ध, स एवं यदि फण्ठे वर्तितो भवति अस्फुटि तश्च ततः कण्ठविशुद्ध, यदि पुनः शिरः प्रामः सन् सानुनासिको भवति तत: शिरोविशुद्ध, यदिवा यद् उर:कण्ठशिरोभिःोमणाऽव्याकुलित विशुद्धैर्गीयते तद् उर:कण्ठशिरोविशुद्धलाप्रिस्थानाकरणपिशुद्ध, तथा सहरो गुजन् यो वंशो यत्र तबीतलताललयामहसुसंप्रयुक्तं भवति सकुहरे बंशे गुजति । सध्यां च वाधमानायां यत्तत्रीस्वरेणाविरुद्धं तत् सकुहरगुञ्जशतबीसुसंप्रयुक्त, तथा परस्पराहतहस्ततालस्वरानुबत्ति यद् गीतं तत्तालसुसंप्रयुक्तं, यन् मुरजकंसिकादीनामातोयानामाहतानां यो ध्वनियंध नृत्यन्त्या ननक्या: पापोरक्षेपस्तेन समं तत्तालसुसंप्रयुक्त, तथा शृङ्गमयो द्वारुमयो वंशमयो वाऽङ्गलिकोश स्तेनाहताथास्तव्याः स्वरप्रकारो लाखभनुसरद् गेय लयसुसंप्रयुक्तं, तथा य: प्रथमं शतक्यादिभिः खरो गृहीतसन्मार्गानुसारि प्रहसुसंप्रयुक्तं, तथा 'महरमिति मधुरं प्राग्बन्, तथा 'सम'मिति तालवंशस्वरादिसमनुगतं समं सललितं प्राग्वद् अत एव मनोहरं, पुनः कथम्भूतम् ? इत्याह-'मउयरिभियपयसंचार' तत्र मृदु-मृदुना वरेण युक्तं न | निमुरेण तथा यत्र स्वरोऽक्षरेपु-घोलनास्वरविशेषेषु संचरन रागेऽतीव प्रतिभासते स पदस चारो रिभितमुच्यते मृदुरिभितपदेषु गेय| निवद्धेषु सञ्चारो यत्र गेये तत् मृदुरिभितपदसणारं, तथा 'सुरई' इति शोभना रतिर्वस्मिन् श्रोतृणां तत्सुरति, तथा शोभना नतिः दीप अनुक्रम [१६४] - - -- -- ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगि प्रत सूत्रांक [१२६] रीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती | मनुष्या वनखण्डाधि० उद्देशः१ सू०१२७ दीप अनुक्रम [१६४] रचनातोऽवसाने यस्मिन् तत्सुनति, तथा वरं-प्रधानं चारु-विशिष्टचङ्गिमोपेतं रूप-स्वरूपं बस तद् वरचारुरूपं दिव्यं प्रधानं नृत्यं गेयं प्रगीतानां-गानानुसारध्वनिय(म)तां चारश: शब्दोऽतिमनोहरो भवति 'स्यान्' कथञ्चिद् भवेद् एतद्रूपस्तेषां तृणानां मणीनां च शब्दः, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम! स्यादेवंभूतः शब्द इति ।। तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं यहवे खडाखडियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ गुंजालियाओ दीहियाओ (सरसीओ) सरपंतियाओसरसरपंतीओ बिलपंतीओअच्छाओसण्हाओ रयतामयकूलाओ वइरामयपासाणाओतवणिजमयतलाओ बेरुलियमणिफालियपडलपचोयडाओ णवणीयतलाओ सुवष्णसुम्भ(ज्झ) रययमणिवालुयाओ सुहोयारासु उत्ताराओ णाणामणितित्थसुबद्धाओचाम(चउ)कोणाओ समतीराओ आणुपुव्यसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओसंछपणपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधितपोंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तफुल्लकेसरोबइयाओ उपयपरिभुजमाणकमलाओअच्छविमलसलिल पुषणाओ परिहत्वभमतमच्छकच्छमअणेगसउणमिहुणपरिचरिताओ पसेयं पत्तेयं पउमवरवेदियापरिक्वित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्विसाओ अप्पेगतियाओ आसवोदाओ अप्पेगलियाओ वारुणोदाओ अप्पेगतियाओ खीरोदाओ अप्पेगतियाओ घओदाओ अप्पेगतियाओ [इक्खु खो(दो)दाओ (अमयरससमरसोदाओ) अप्पेगतियाओ पगतीए उद्ग(अमय)रसेणं पण्णताओ पासाइयाओ ४, तासि णं खुद्धि 0-0-560 4-0- १९५॥ Jaticiaries अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~400~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१२७] 2-%-- दीप अनुक्रम याणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थर देसे २ तहिं २ जाव बहवे तिसोवाणपडिस्वगा पण्णत्ता। तेसि णं तिसोवाणपडिरूवाणं अयमेयारवे वपणाचासे पपणत्ते, तंजहा-बहरामया नेमा रिट्ठामया पतिद्वाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पामया फलगा बहरामया संधी लोहितक्खमईओ सईओ गाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणधाहाओ॥ तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं २ तोरणा पं० ॥ ते ण तोरणा णाणामणिमयखंभेसु उणिविट्ठसपिणविट्ठा विविहमुत्तरोवइता विविहतारारूवोवचिता ईहामियउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपवमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवहरवेदियापरिगताभिरामा विजाहरजमलजुयलर्जतजुताबिव अचिसहस्समालणीचा भिसमाणा भिभिसमाणा चक्खल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासातिया ४ ॥ तेसिणं तोरणाणं उपि बहवे अट्टमंगलगा पण्णत्ता-सोत्थियसिरियच्छदियावत्तवद्धमाणभद्दासणकलसमच्छदप्पणा सव्वरतणामया अच्छा सण्हा जाच पटिरूवा । तेसि णं तोरणाणं उपि बहवे किणहचामरज्झया नीलचामरजझया लोहियचामरज्झया हारिहचामरज्झया सुकिल्लयामरज्झया अच्छा साहा रुप्पपट्टा बहर दंडा जलयामलगंधीया सुरुवा पासाइया ४॥नेसिणं तोरणाणं उरिप बहवे छत्ताइछत्ता पडागाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पल हत्थया जाब सयसहस्सवत्तह्त्यगा सब्वरयणामया [१६५] TAX ~ 401~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: %20-%2 प्रत सूत्रांक [१२७] श्रीजी-15 जीवाभि मलयनिरीयावृत्तिः ----- - -- -- - aanmeeruram - -- --९८ प्रतिपत्ती मनुष्या वनखण्डा धि. उद्देशः१ सू०१२७ दीप - अच्छा जाव पहिल्या तासि खुड़ियाणं याचीणं जाय विलपतियाणं तत्थ तस्थ देस २ तहिं नहिं पहये उप्पाचपजचा गियइपध्वया जगनिपञ्चचा दारुपन्चयगा दगमंडवगा दगमंचका दगमालका दगपासायमा ऊसहा खुल्ला बडगा अंदोलगा पक्वंदोलगा सब्बरवणामया अच्छा जाव पथिरूमा । नेसुध उपाययचनेसु जाव परखंदोलए बहवे हंसासणाई कोंचासणाईगलासगाई उपवासगाई ५णयासणाई दीहालजाई महासणाई पक्वासणाई मगरासगाई उसभासगाईतीहासणाई पडमासणाई दिसालोत्थियासणाईसब्बरयणामयाई अच्छाई सहाई लण्हाईपट्टा मट्टाई जीरयाईणिम्नलाईनियंकाई निकंकडच्छाधाई सप्पभाई सम्मिरीयाई सोचाई पासादीयाई दरिसणिजाई अभिरुवाई पडिवाइं। तस्स णं बणसंडस्स तत्थ तस्थ देसे २ तहिं सहिपहवे आलिधरा मालिघरा कयलिधरा लयाधरा अच्छणघरा पेच्छणघरा मजणधरगा पसाहणधरगा जम्मघरगा भोहणधरगा साल घरगा जालघरगा कुसमघरगा चित्तधरगा गंधग्धघरमा आसघरमा सब्बरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका निकंकरच्छाया सप्पभा सम्मिरीया स उजोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ तेसु णं आलिघरएसु जाव आयंसघरएसु बहई हंसासणाई जाव दिसासोवत्थियासणाई सब्धरयणामयाई जाव पडिरूवाई ।। तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तस्थ देसे २तहिं अनुक्रम [१६५] ॥१९६॥ % अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----- ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Eben int तहि बहवे जाइमंडबगा जूहियामंडवगा मलियामंडवगा नवमालिया मंडवगा वासंतीमंडवगा दावा सूरनिंडगा तंबोली मंडवगा मुद्दियामंडवगा पागलवाडवगा अतिमुमंडा फोडगा नावानंवा सामपामंडवा णिवं कुसुमिचा णि जाव प डिवा || तेसु णं जातीडव बहवे पुढविसिलापमा परणसा, संजहा- हंसासणसंठिता sture संठिता नरुला सणसंठिता उण्णवाससंदिता पणयासणसंठिता दीहासणसंठिता महाससंठिता पक्वासनसंहिता मगरासणसंठिता उसासणसंठिता सीहासणसंहिता पडमाणसंहिता दिखासोत्थिवाससंठिता पं०, सत्य बहवे बसवणासणविसिद्धाणसंठिया प पत्ता समणासो आइण्णगरूयबूरणवणीतलफासा ज्या सम्बरणामा अच्छा जाव पडिया । तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसवति सति चिति णिसीदंति तुय हंति रमति ललति कीलति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिणा सुपरिता सुभाणं कलाणाणं काणं नाणं काणं फलवित्तिविसेसं पथभवमाणा विहरति । नीसे णं जगतीए उप तो परवेदिया एत्थ णं एगे महं संडे पण देणाई दो जोगणाई विकणं dearer परिक्वेणं पिछे किण्डोमासे ओ (मणि) सदविणो णेपब्यो, सत्य हवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आतयंति सति निति निसीयंति तुपति मंति For P&Praise Cinly ~ 403~ 6 % बैल क Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) ------ उद्देशकः [ ( द्वीप - समुद्र )], - मूलं [१२७] प्रतिपत्ति: [३], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १९७ ॥ ललति कीडंति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्ताणं सुभाणं कंताणं कम्माणं कल्लाणं फलवितिविसेसं पचणुब्भवमाणा विहरंति ॥ (० १२७ ) 'तरसणं वणसंडस्से' त्यादि, तस्य णमिति वाक्यालङ्कारे वनखण्डस्य मध्ये तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'बहूईओ' इति ब्रह्रयः 'खुड्डा खुड्डियाओ' इति क्षुल्लिकाः क्षुल्लिका लघवो लघव इत्यर्थः, 'वाय' चतुरस्राकाराः 'पुष्करिण्यः' वृत्ताकाराः अथवा पुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः 'दीर्घिकाः' सारिण्यस्ता एव वक्रा गुञ्जालिकाः, बहूनि केवल केवलानि पुष्पावकीर्णॐ कानि सरांसि सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतवान्, बहूनि सरांसि एकपङ्कया व्यवस्थितानि सरः पङ्किस्ता बचः सरःपङ्कयः, तथा येषु सरस्तु पङ्कथा व्यवस्थितेषु क्रूपोदकं प्रणालिकया संचरति सा सरःसरःपकिस्ता बह्नयः सरःसरःपङ्कयः, तथा बिलानीव बिलानि - कूपास्तेषां पङ्कयो बिलपङ्कयः, एताच सर्वा अपि कथम्भूताः ? इत्याह- 'अच्छा' स्फटिकबहिर्निर्मलप्रदेशाः श्लक्ष्णाः ऋक्ष्णपुङ्गलनि४ष्पादितवहिः प्रदेशाः, तथा रजतमयं रूप्यमयं कूलं यासां ता रजतमयकूलाः, तथा समं - अगर्त्तासद्भावतोऽविषमं तीरं तीरावर्चिजछापूरितं स्थानं यासां ताः समतीराः, तथा वश्रमया: पाषाणा यासां ता वचनयपाषाणा:, तथा तपनीयं- हेम विशेषस्तपनीयं तपनीयमयं तलं - भूमितलं यासां तास्तपनीयतलाः, तथा 'सुवण्णसुज्झरययवालुयाओ' इति सुवर्ण - पीतकान्तिहेम सुज्झं रूप्यविशेषः रजतं प्रतीतं तन्मय्यो बालुका यासु ताः सुवर्णसुज्झरजतवालुकाः, 'बेरुलियमणिफालिहपडलपच्चोयडाओ यत्ति बैडूर्यमणिमयानि स्फाटिकपटलमयानि प्रत्यवतटानि सटसमीपवर्त्तिनोऽत्युन्नतप्रदेशा यासां ता वैदूर्यमणिस्फटिकपटलपत्यवतटाः 'सुहोयारासुउत्तारा' इति सुखेनावतारो - जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः स्ववताराः तथा सु-सुखेन उत्तारो - जलमध्याद्वहिर्विनिर्गमनं यासु ताः For P&Praise Cly ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनखण्डा धि० उद्देशः १ सू० १२७ ~ 404~ ॥ १९७ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: T-1022 प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५] सुखोत्तारा: ततः पूर्वपदेन विशेषणसनास: 'नाणामणितित्थसुबद्धाओं' इति नानामणिभि:-नानाप्रकारैर्मणिभिस्तीर्थानि सुबद्धानि यासां ता नानामणितीर्थसुबद्धाः, अत्र बहुत्रीहावपि कान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात्प्राकृतशैलीवशाद्वा, 'चउकोणाओ' इति चत्वारः कोणा यस्यां सा चतुष्कोणाः एतय विशेषणं वापी: कूपांश्च प्रति द्रष्टव्यं, तेषामे धतुकोणत्वसम्भवान् न शेषाणां, तथा|2 आनुपूण-क्रमेण नीचैनीस्तरभावरूपेण मुष्टु-अतिशयेन यो जातो वप्रः-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीर-अलब्धस्थानं शीतलं | जलं यासु ता आनुपूर्यसुजातवागम्भीरशीतलजला: 'संछाणपत्तभिसमुणालाओ संछनानि-जलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यासु ताः संझनपत्रविसमृणाला;, इह विसमृणालसाहचर्यात्पत्राणि-पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, विसानि-कन्दा मृणालानि-पद्मनाला:, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रकेसरफुल्लोपचिताः, तथा षट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि च यासु ताः षट्पदपरिभुज्यमानफमलाः, तथाऽच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवाछुद्धेन विमलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमल सलिलपूर्णाः, तथा 'पडिहत्या' अतिरेकिता: अतिप्रभूता इत्यर्थः “पडिहत्यमुद्भुमायं अहिरेइयं च जाण आजण्ण" इति वचनात् , उदाहरणं चात्र-"घणपडिहत्धं गयणं सराई नवसलिलसुद्द(उद्ध)मायाई । अहिरेइयं महं उण चिंताएँ मणं तुहं विरहे ॥१॥" इति, भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र ताः पडिहत्यभ्रमन्मत्स्यकच्छपाः, तथाऽनेकैः-शकुन मिथुनकैः प्रविचरिता-इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ता अनेक शकुनमिथुनकप्रविचरिताः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, एता वाप्यादयः सरस्सरःषतिपर्यवसाना: प्रत्येकं प्रत्येकमिति, एकमेकं प्रति प्रत्येकम् , अत्राभिमुख्य प्रतिशब्दो न बीप्लाविवक्षायां, पश्चात्प्रत्येकशब्दख द्विचामिति, पावरवेदिकया परिक्षिमाः प्रत्येक वनपण्डपरिक्षिताच, 'अप्पेगतियाओ' इत्यादि, अपि ढाथै बाढमेकका:-काश्चन 2-54-67368 ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक | धि० [१२७] दीप M श्रीजीधा- दावाप्यादय भासवमिय-चन्द्रहासाविषरमा लमिव उदयासांता आल मोदकाः, अप्येकका वारुगस्य वारुणसमुद्रस्येव 'उदकं यासा प्रतिपत्ती जीकाभिक ता बारु गोदका, भयेका श्रीरभिबोदके वाला ता: झीरोइकाः, अध्येकका धृतमिबोदके यासा ता पृतोदकाः, अध्येककाः क्षोद || | मनुष्या० मलयगि-12व-इरस इस उदके याता: सोमेकाः, अधकका अमृतरससमरस मुकं यास ता अमृतरससमरसोदकाः, अप्येकका अमृत- वनखण्डारीयावृत्तिः दारसेन स्वाभाविकेन प्रता:, 'पानाईया(ओ)मादि विशेषग च तुष्टयं प्राग्वन , तासां क्षुलिकाना यावद्रिलपङ्गीनां प्रत्येक २ चतुर्दिशि चत्वारि, एकस्यां दिशि कमावान्, 'त्रिसोपानप्रतिरूपाणि' प्रतिविशिष्ट रूपं येषां तानि प्रतिरूपकाणि त्रयाणां सोपानानां ॥१९८॥ समाहारबिसोपानं विसोपानानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति विशेषगल मासः, विशेषणस्य परनिपात: प्राक्तत्वात , तानि प्रज्ञतानि सू०१२७ तेषां च विसोपानप्रतिरूपकाणाम् 'अयं परमाणः 'एतद्रूप:' अनन्तरं वश्यमागत रूपः 'वर्गावासः' वर्गकनिवेश: प्रज्ञतः, तद्यथा -बिजमयाः' बजरनमया मा. भूने निकामन्तः प्रदेशा: 'रिछमयाः रिटरनमयाः 'प्रतिष्ठाना' निसोपानमूलपादा वै|स्यमयाः सम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि-विसोपानाअभूतानि वनमयानि व वरनापूरिताः सम्बया-फलकद्वयापान्तरालप्रदेशाः18 लोहिताक्षमच्यः सूच्या-फलकय सम्बन्धविघटनाभावहेतु पादुकास्थानीयाः नानामगिम या अवलम्ब्यन्ते इति अवलम्बना-अवतरता मुत्तरतां चालम्बने हेतुभूता अबलम्बनमाहातो बिनिर्गताः केचिद्वयवाः अवलंबणवाहाओ' इति अबलम्ब नबाहा अपि नानामणिमयाः, हा अवलम्बनवाहा नाम उभयोः 'उभयोः पार्धयोरवलम्बनाश्रय भूता मित्तयः, पासाईयाओ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण-18 मित्यादि, सेपां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां प्रत्येकं प्रत्येक तोरणानि प्रशतानि, तेषां च तोरणानामयमेतद्रूपो 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः ॥१९८॥ प्रज्ञाप्तः, तद्यथा-'ते ण तोरणा नाणामणिमया' इत्यादि, तानि तोरणानि नानामणिमयानि, मणय:-चन्द्रकान्तादयः, विविध म-11 - अनुक्रम [१६५] 53 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] 96 दीप अनुक्रम [१६५] मणिमयानि, नानामणिमयेषु स्तम्भेषु 'उपविष्टानि' सामीप्येन स्थितानि, तानि च कदाचिञ्चलानि अथवाऽपदपतितानि वाऽऽशवरन् | तत आह-सम्यग-निश्चलतयाऽपदपरिहारेण च निविष्टानि ततो विशेषणसमासः उपविष्टसन्निविष्टानि 'विबिहमुत्तरोचिया' इति । विविधा-विविधविच्छित्तिकलिता मुक्का-मुक्ताफलानि 'अंतरे ति अन्तराशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि सामाद्वीप्सां गमयति, अन्तरा २ ओचिया' आरोपिता यत्र तानि तथा, 'विविहतारारूबोवचिया' इति विविधैस्तारारूपैः-तारिकारूपैरुपचितानि, तोरणेषु हि शोभा तारका निबध्यन्ते इति लोकेऽपि प्रतीतं इति विविधतारारूपोपचितानि, 'ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिंनर-1 रुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता' इति ईहामृगा-वृका व्याला:-श्वापदभुजगाः, ईहामृगषभतुरगनरमकरविहग-5 व्यालकिनररुरुसरभकुचरवनलतापालतानां भक्या-विच्छित्त्या विचित्रं-आलेखो येषु तानि तथा, स्तम्भोगताभिः-स्तम्भोपरिष-13 तिनीभिर्वचरत्नमयीभिर्वेदिकाभिः परिगतानि सन्ति यानि अभिरमणीयानि तानि स्तम्भोगतव अवेदिकापरिंगताभिरामाणि, तथा 'विजाहरजंतजुत्ताविव अच्चीसहस्समालिणीया' इति विद्याधरयोर्यद् यमलं-समश्रेणीकं युगलं-द्वन्द्व विद्याधरयमलयुगलं तेषां यत्राणि-प्रपञ्चायुक्तानीय, अचिंषां सहस्रैर्मालनीयानि-परिवारणीयानि अर्थिःसहस्रमालनीयानि, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम प्रभा-18 समुदायोपेतानि येनैवं संभावनोपजायते यथा नूनमेतानि न स्वाभाविकप्रभासमुदयोपेतानि किन्तु विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुषविशेषप्रपञ्चयु-17 क्तानीति, 'रूवगसहस्सकलिया' इति रूपकाणां सहस्राणि रूपकसहस्राणि तैः कलितानि रूपकसहस्रकलितानि 'भिसमाणा'इति दीप्यमा नानि 'भिम्भिसमाणा' इति अतिशयेन दीप्यमानानि 'चक्खुल्लोयणलेसा' इति चक्षुः कर्तृ लोकने-अवलोकने लिसतीव-दर्शनीयत्वाति-13 जी० च०३४ शयतः श्लिष्यतीव यत्र तानि चक्षुर्लोकनलेसानि 'महफासा' इति शुभस्पर्शानि सशोभाकानि रूपाणि यत्र तानि सश्रीकरूपाणि, २% k ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [ ३ ], ------ उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)]. - मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १९९ ॥ Ja Er — 'पासाइया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसिं तोरणाणं उवरिं अट्ठट्ठमंगले त्यादि सुगमं, नवरं 'जाब पडिरूवा' इति यावत्करणात् 'घट्टा मट्टा नीरया' इत्यादिपरिग्रहः ॥ 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहवः 'कृष्णचामरध्वजाः' कृष्णचामरंयुक्ता ध्वजाः कृष्णचामरध्वजाः एवं बहवो नीलचामरध्वजा लोहितचामरध्वजा हारिद्रचामरध्वजाः शुकुचामरध्वजाः, कथम्भूता इत्याह एते सर्वेऽपि ? इवि, अत आह— 'अच्छा' आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलाः 'कृष्णाः' कृष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मार्पिता 'रूप्यपट्टा' इति रूप्योरूप्यमयो वज्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते रूप्यपट्टा: 'वइरदंडा' इति वज्रो-वज्ररत्नमवो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां ते वज्रदण्डाः, तथा जलजानामिव - जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो-निर्मलो न तु कुद्रव्यगंधसम्मिश्र यो गन्धः स विद्यते येषां ते ज लजामलगन्धिका 'अतः अनेकस्वरा' दितीकप्रत्ययः, अत एव सुरम्याः, 'पासादीया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहूनि 'छत्रातिच्छत्राणि छत्रात्- लोकप्रसिद्धादेक सङ्ख्या कादतिशायीनि सियानि त्रिसङ्ख्यानि वा छत्रातिच्छत्राणि, ब्रह्मयः पताकाभ्यो- लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तारेण च पताकाः पताकातिपताका, बहूनि घण्टा युगलानि बहूनि चामरयुगलानि बहवः 'उत्पलहस्तकाः' उत्पलाख्यजलजकुसुमसमूहविशेषाः एवं पद्महस्तका बहवो नलिनहस्तका बहवः सुभगहस्तका बहवः सौगन्धिकहस्तका बहवः पुण्डरीकहस्तका बहवः शतपत्रहस्तकाः वहवः सहस्रपत्रहस्तकाः, उत्पलादीनि प्रागेव व्याख्यातानि एते च छत्रासिच्छत्रादयः सर्वेऽपि सर्वरत्नमया: 'जाव पडिरुवा' इति यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा लव्हा' इत्यादि विशेषण कदम्बकपरिग्रहः ॥ 'तासि णमित्यादि, तासां क्षुल्लिकानां वापीनां यावलिपङ्कीनाम्, अत्र यावच्छन्दात् पुष्करिण्यादिपरिग्रहः, अपान्तरालेषु तत्र तत्र देशे। तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे व उत्पातपर्वता-पत्रागत्य बहवो व्यन्तरदेवा देव्यश्व विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति For P&Praise Cly ३ प्रतिपत्त मनुष्या० विजयद्वाराधि० उद्देशः १ सू० १२७ ~ 408 ~ ॥ १९९ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- १' अत्र १ इति निरर्थकम् मूल-संपादने अत्र शिर्षक स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र विजयद्वार अधिकारः नास्ति Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] 456-5-4-4-2 हानियइपब्वया' इति नियत्या-नयत्येन पर्वता नियतिपर्वताः, कचिन् 'निययपव्यया' इति पाठस्तत्र नियताः-सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वता नियतपर्वताः, यत्र वानमन्तरा देवा देण्यश्च भवधारणीयेन चैक्रियशरीरेण प्रायः सदा रममाणा अवतिष्ठन्ते इति भावः, जगतीपर्वतकाः' पर्वतविशेषाः 'दारुपर्वतकाः दारुनिर्मापिता इव पर्वतकाः 'दगमंडवगा' इति 'दकमण्डपकाः' स्फटिकमण्ड|पकाः, उक्तं च मूलटीका-दकमण्डपकाः स्फाटिकमण्डपका" इति, एवं दकमञ्चका दकमालका दकप्रासादाः, एते च दकम|ण्डपादयः केचित् 'उसडा' इति उत्सृता उच्चा इत्यथैः, केचिन् 'खुडा' इति क्षुल्ला लघवः कचित् 'खडख(ह)डगा' इति लघव आ*यताश्च, तथा अन्दोलका: पक्ष्यन्दोलकाच, तन्त्र यत्रागत्य मनुध्या आसानमन्दोलयन्ति ते अन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण आगत्यात्मानमन्दोलयन्ति ते पक्ष्यन्दोलकाः, ते चान्दोलका: पक्ष्यन्दोलकाश्च तस्मिन् वनपण्डे तत्र तत्र प्रदेशे वानमन्तरदेवदेवीक्रीडायोग्या बहवः सन्ति, ते चोत्पातपर्वतादयः कथम्भूताः ? इत्याह-सवरत्नमयाः' सर्वात्मना रनमयाः, 'अच्छा सोहा' इत्यादि विशेषणजातं पूर्ववत् ।। 'तेसु णमित्यादि, तेयु उत्पातपर्वतेषु यावत्पक्ष्यन्दोलकेपु, यावत्करणान्नियतिपर्वतकादिपरिग्रहः, बहूनि | पाहंसासनानि तत्र थेपामासनानामधोभागे हंसा व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिंहाः तानि हसासनानि, एवं कौचासनानि गरुडाहासनानि च भावनीयानि, उन्नतासनानि नाम यानि उच्चासनानि प्रणतासनानि-निन्नासनानि दीर्घासनानि-शय्यारूपाणि भद्रासनानि वेषामधोभागे पीठिकाबन्धः पक्ष्यासनानि येषामधोमागे नानास्वरूपाः पक्षिणः, एवं मकरासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि, पभासनानि-पयाफाराणि आसनानि 'दिसासोवस्थियासणाणि' येपामधोभागे दिक्सौवस्तिका आलिखिताः सन्ति, अत्र यथाक्रममासनानां साहिका सदाहणिगाथा-"हंसे १ कोंचे २ गाढे ३ उग्णय ४ पणए य ५ दीह ६ भद्दे य ७ । पक्खे ८ मयरे ९ दीप अनुक्रम [१६५] % -% ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप श्रीजीवाउसहे १० सीह ११ दिसासो[व]स्थि १२ वारसमे ॥ १॥" एतानि सर्वाण्यपि कथम्भूतानि ? इत्यत आह-सब्बरयणामया' इत्यादि प्रतिपत्ती जीवाभि प्राग्वत् ॥ 'तस्स णं वणसंडस्से त्यादि, प्राग्यन् तस्य वनखण्डस्य मध्ये तत्र तत्र प्रदेशे तस्यैव देशस्थ तत्र तत्रैकदेशे बहूनि 'आलि-131 मनुष्या० मलयगि- गृहकाणि' आलि:-वनस्पतिविशेषस्तन्मयानि गृहकाणि मालिरपि-वनस्पतिविशेषस्तन्मयानि गृह काणि मालिगृहकाणि कदलीगृहकाणिविजयद्वारीयावृत्तिःलतागृहकाणि प्रतीतानि 'अच्छणघरका' इति अवखानगृह काणि येषु चदा तदा वाऽऽगत्य बहवः मुखासिकयाऽवसिष्ठन्ते, प्रेक्षणक-1 राधि गृहाणि यत्रागत्य प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्षन्ते च, मजनकगृहकाणि यत्रागत्य स्वेच्छया मजनं कुर्वन्ति प्रसाधनगृहकाणि यवागत्या ॥२० ॥ उद्देशः१ खं परं च मण्डयन्ति गर्भगृहका गि-गर्भगृहाकाराणि, 'मोहणघरगा' इति मोहणं-मैथुनलेवा "रमियमोहारयाई" इति नाममाला सू०१२७ वचनात् , तत्प्रधानानि गृहकाणि मोहनगृहकाणि वासभवनानीति भावः, 'शालागृहकाणि पट्टशालाप्रधानानि गृहकाणि 'जालगहकाणि' जालकयुक्कानि गृहकाणि 'कुसुमगृहकाणि' कुमुभप्रकरो पचितानि गृहकाणि "चित्रगृहकाणि' चित्रप्रधानानि गृहकाणि गन्धर्वगृहकाणि' गीतनृत्याभ्यासयोग्यानि गृहकाणि 'आदर्शगृहकाणि' आदर्शमयानीव (आदर्श) गृहकाणि, एतानि च कथम्भूतानि ? *इत्यत आह-'सब्बरयणामया' इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ।। 'तेसु णमित्यादतेषु आलिगृहकेषु, यावच्छब्दान्मालिगृहकादि| परिग्रहः, बहूनि हसासनानि इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य वनखण्डस्य मध्ये तत्र देशे तस्यैव देशस्य तन्त्र तत्रैकदेशे बहवो जातिमण्डपका यूथिकामण्डपका मलिकामण्डपका नवमालिकामण्डपका वासन्तीमण्डपका दधिवासुका नाम वनस्पतिविशेपस्तन्मया मण्डपका दधिवासुकमण्डपका:, सूरिलिरपि वनस्पतिविशेषस्तन्मया मण्डपकाः सूरिल्लिमण्डपका:, ताम्बूली-नागवल्ली तन्मया मण्डपकास्ताम्बूलीमण्डपकाः, नागो-दुमविशेषः स एव लता नागलता, इह यस्य तिर्यक् तथाविधा शाखा प्रशाखा न अमृता अनुक्रम [१६५] Jiatician अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र विजयद्वार-अधिकार: नास्ति ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५] सा लतेत्यभिधीयते, नागलतामयमण्डपकाः, अतिमुक्तकमण्डपकाः, 'अप्फोया' इति बनस्पतिविशेषस्तन्मया भण्डपका अप्फोयामण्डपकाः, मालुका-एकाथिकफला वृक्षविशेषास्तयुक्ता मण्डपका मालुकामण्डपकाः, एते च कथम्भूताः इत्याह-सवरयणा-15 मया' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसु ण'मित्यादि, वेषु जावीयमण्डपेषु यावन्मालुकामण्डपेषु, यावत्करणाद् यूथिकामण्डपकादिपरिग्रहः, बहवः शिलापट्टका: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-अप्येकका हंसासनवत्संस्थिता सासनसंस्थिताः यावदप्येकका दिक्सौयतिकासनसंस्थिताः, मायावत्करणात् 'अप्पेगइया कोंचासणसंठिया अप्पेगइया गरुडासणसंठिया अप्पेगश्या उन्नयासणसंठिया अप्पेगझ्या पणयासणसंठिया अप्पेगइया भद्दासणसंठिया अपेगइया पक्खासणसंठिया अप्पेगइया मयरासणसंठिया अप्पेगइया उसभासणसंठिया अप्पेगइया | #सीहासणसंठिया अप्पेगइया पउमासणसंठिया अप्पेगइया दीहासणसंठिया' इति परिग्रहः, अन्ये च बहवः शिलापट्टका यानि विशिष्टचिह्नानि विशिष्टनामानि च वराणि-प्रधानानि शयनानि आसनानि च तद्वत्संस्थिता वरशयनासनविशिष्टसंखानसंस्थिताः, क-15 चिन् 'मांसलसुघुडविसिट्ठसंठाणसंठिया' इति पाठस्तत्रान्ये च बहवः शिलापटुका मांसला इव मांसला: अकठिना इत्यर्थः सुघुष्टार है व सुघुष्टा अतिशयेन ममृणा इति भावः विशिष्टसंस्थानसंस्थिताश्च 'आईणगरूयबूरनवणीयतूलफासा मउया सव्यरयणामया| अच्छा' इत्यादि प्राग्वन् , तत्रैतेपु उत्पातपर्वतादिगतहंसासनादिपु यावन्नानारूपसंस्थानसंस्थितपृथिवीशिलापट्टकेपु णमिति पूर्ववट ब-14 हवो वानमन्तरा देवा देव्यश्च यथासुखमासते 'शेरते' दीर्घकायप्रसारणेन वर्तन्ते, न तु निद्रां कुर्वन्ति, तेषु देवयोनिकतया निद्राया *अभावात् , 'तिष्ठन्ति' अर्द्धस्थानेन वर्तन्ते 'निषीदन्ति' उपविशन्ति 'तुयटृति' इति लग्वर्त्तनं कुर्वन्ति वामपार्वतः परावृत्य दक्षि-14 ४ाणपानावतिष्ठन्ति दक्षिणपार्वतो वा परावृत्य बामपानावतिष्ठन्ति 'रमन्ते' रतिमावघ्नन्ति 'ललन्ति' मनईप्सितं यथा भवति Jamirman ~411~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५] श्रीजीवा-इतथा वर्तन्त इति भावः 'क्रीडन्ति' यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतनृत्यादिविनोदेन वा तिन्ति 'मोहन्ति' मैथुनसेवां कुर्वन्ति,1३ प्रतिपत्ता जीवाभि०६इत्येवं 'पुरा पोराणाग'मित्यादि, 'पुरा पूर्व प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योगः, अत एव पौराणानां सुचीर्णानां-सुच-दमनुष्या. मलयगि-IIरितानामितिभावः, इह सुचरितजनितं कर्मापि कार्ये कारणोपचारात्सुचरितमिति विवक्षित, ततोऽयं भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधर्मान- विजयद्धा रीयावृत्तिः प्टानविषयाप्रमादकरणक्षान्त्यादिसुचरितानामिति, तथा सुपराक्रान्तानाम् , अत्रापि कारणे कार्योपचारात् सुपराकान्तजनितानि कर्माण्येवरा राधिक सुपराकान्तानि इत्युक्तं भवति, सफलसत्वमैत्रीसत्यभाषणपरद्रव्यानपहारसुशीलादिरूपसुपराक्रमजनितानामिति, अत एव शुभाना-16 उद्देशः १ ॥२०१॥ शुभफलानाम् , इह किञ्चिदशुभफलमपीन्द्रियमतिविपर्यासात् शुभफलमाभाति ततस्तात्त्विकशुभत्वप्रतिपत्यर्थमस्यैव पर्यायशब्दमाह- सू० १२५ कल्याणानां तत्ववृत्त्या तथाविधविशिष्टफलदायिनाम् , अथवा कल्याणानाम्-अनर्थोपशमकारिणा, कल्याण-कल्याणरूपं फलविहापाक 'पञ्चणुभवमाणा' प्रत्येकमनुभवन्तः–'विहरन्ति' आसते । तदेवं पद्मवरवेदिकाया बहियों बनखण्डतद्वक्तव्यतोक्ता, सम्प्रति तस्या एव पनपवेदिकाया अर्वाग् जगत्या उपरि यो वनखण्डतद्वक्तव्यतामभिधित्सुराह-तीसे णं जगतीए' इत्यादि, तस्या जरागत्या उपरि पद्मवरवेदिकाया 'अन्तः' मध्यभागे अत्र महानेको वनपण्डः अज्ञप्तः 'देसोणाई दो जोयणाई विक्खंभेण'मित्यादि सर्व बहिर्बनखण्डवदविशेषेण वक्तव्यं, नवरमत्र मणीनां तृष्णानां च शब्दो न वक्तव्यः, पद्मत्ररवेदिकान्तरिततया तथाविधवाताभावतो मणीनां तुणानां च चलनाभावतः परस्परसंघर्षाभावात् , तथा चाह-"वणसंडवण्णतो सद्दवज्जो जाव विहरति" इति ॥ सम्पति जम्बूद्वीपस्य द्वारसयाप्रतिपादनार्थमाह X ॥२०१॥ वहीवस्स णं भंते दीवस्स कति दारा पण्णत्ता गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तंजहा JaEmitedg अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र विजयद्वार-अधिकार: नास्ति ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] बिजये बेजयंते जयंते अपराजिए ॥(सू०१२८) कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नाम दारे पण्णसे?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरस्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अपाधाए जंबहीवे दीव पुरच्छिमपेरंते लवणसमुद्दपुरच्छिमद्धस्स पञ्चस्थिमेणं सीताए महाणदीए उपि एत्थ णं जंबदीवस्स दीवस्त विजये णामं दारे पण्णसे अट्ट जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेए वरकणगथूभियागे ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिषगररुरुसरभचमरकुंजरवणलतपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गतबहरवेदियापरिगताभिरामे विजाहरजमलजुयलजलजुत्ते इव अचीसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिते भिसिमाणे भिम्भिसमाणे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयस्वे वण्णो दारस्स (तस्सिमो होइ) तं०-बहरामया णिम्मा रिद्वामया पतिवाणा वेरुलियामया खंभा जायरूवोवचियपवरपंचवणमणिरयणकोहिमतले हंसगन्भपए एलुए गोमेजमते इंदक्खीले लोहितक्खमईओ दारचिडाओ जोतिरसामते उत्तरंगे वेरुलियामया कवाडा वरामया संधी लोहितवमईओ सूईओ गाणामणिमया सरगना बरामई अग्गलाओ अग्गलपासाया वारामई आवत्तणपेढिया अंकुत्तरपासते णिरंतरितघणकवाडे भित्तीसु चेव भित्तीगुलिया छप्पण्णा तिणि होति गोमाणसी तत्तिया णाणामणिरयणवालरूवगलीलहियसालिभंजिया बहरामए कृढे रययामए उ दीप अनुक्रम [१६६-१६७]] अथ विजय-द्वाराधिकार: आरब्ध: ~413~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत --- सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः - प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वा राधिक उद्देशः१ सू०१२८ [१२८-१२९] ॥२०२॥ Jok दीप अनुक्रम [१६६-१६७] % स्सेहे सय्यतवणिजमए जल्लोए णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहितक्खपटिबंसगरयतभोम्मे अंकामया पक्ववाहाओ जोतिरसामया बंसा बंसकवेलुगा य रयतामयी पहिताओ जायख्वमती ओहाडणी बहरामयी उवरि पुच्छणी सव्वसेतरययमए च्छायणे अंकमतकणगाडतवणिजथूभियाए सेते संखतलविमलणिम्मलदधिधणगोखीर फेगरययणिगरप्पगासे तिलगरयणचंदचित्ते णाणामणिमयदामालंकिए अंतो य बहिं च सण्हे तवणिज रुइलवालुयापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयस्वे पासातीए ४॥ विजयस्स णं दारस्स उभयो पासिं दुहतो णिसीहियाते दो दो चंदणकलसपरिवाडीओ पण्णताओ, ते णं चंदणकलसा वरकमलपहाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचच्चागा आबद्धकंठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सय्यरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा महता महता महिंदकुंभसमाणा पण्णसा समणाउसो! । विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहतो णिसीहिआए दो दो णागदंतपरिवाडीओ, ते णं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसितहेमजालगवक्खजालखिखिणीघंटाजालपरिक्खित्ता अब्भुग्गता अभिणिसिट्ठा तिरियं सुसंपगहिता अहेपण्णगद्धरूवा पण्णगद्धसंठाणसंठिता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा महता महया गयदंतसमाणा प० समणाउसो! ॥ तेसु ण णागदतएमु बहवे किण्हसुत्सबद्धवग्घारितमलदामकलावा जाव सुकिल्लमुत्तबद्धवग्घारियमल्लदामकलावा ।। ते णं दामा तवणिजलंचूसगा CAKACCHAR -256- 22 ॥२०२॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~414~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] -4-06 सुवण्णपतरगमंडिता णाणामणिरयणविविधहारद्धहार (उचसोभितसमुदया) जाव सिरीए अतीव अतीव उबसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति ॥ तेसि णं णागदंतकाणं उवरिं अपणाओ दो दो णागदंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ, तेसि णं णागर्दतगाणं मुत्ताजालंतरूसिया तहेव जाव समणाउसो! । तेसु णं णागदंतएम बहवे रयतामया सिकया पण्णत्ता, तेसु णं रयणामएम सिफएसु बहवे वेरुलियामतीओ धूवघडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-साओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदरुकतुरुकधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवरगंधगंधियाओ गंधवहिभूयाओ ओरालणं मणुण्णणं घाणमणणिब्बुइकरणं गंधणं तप्पएसे सय्यतो समंता आपूरेमाणीओ आपूरेमाणीओ अतीव अतीव सिरीए जाव चिट्ठति ॥ विजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसीधियाए दो दो सालिभंजियापरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं सालभंजियाओ लीलहिताओ सुपयट्ठियाओ सुअलंकिताओ णाणागारयसणाओ णाणामल्लपिणद्वि(द्वि)ओ मुट्ठीगेझमज्झाओ आमेलगजमलजुयलवहिअन्भुण्णयपीणरचियसंठियपओहराओ रत्सावंगाओ असियकेसीओ मिदुविसयपसत्थलक्षणसंवेल्लितग्गसिरयाओ ईसिं असोगवरपादवसमुट्टिताओ वामहत्वगहितग्गसालाओ ईसिं अडच्छिकडक्वविद्विएहिं लूसेमाणीतो इव चक्खुल्लोयणलेसाहिं अण्णमण्णं खिजमाणीओ इव पुढविपरिणाभाओ सासयभावमुष ACCRAX 7 दीप अनुक्रम [१६६-१६७]] 4 Aks ~415~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः [१२८ ३ प्रतिपत्तो | मनुष्या० विजयद्वा राधिक उद्देशः१ सू०१२९ -१२९] ॥२०३॥ दीप अनुक्रम [१६६ गताओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदडसमनिडालाओ चंदायिसोमदसणाओ उक्का इव उज्जोएमाणीओ विजघणमरीचिमूरदिप्पंततेयअहिययरसंनिकासाओ सिंगारागारचारुबेसाओ पासाइयाओ ४ तेयसा अतीव अतीव सोभेमाणीओ सोभेमाणीओ चिट्ठति ।। विजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो जालकडगा पपणत्ता, से णं जालकडगा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ।। विजयस्स णं दारस्स उभओपासिं दुहओ णिसीधियाए दो दो घंटापरिवाडिओ पण्णत्ताओ, तासिक घंटाणं अयमेयारूचे घण्णावासे पपणते, संजहा-जंचूणतमतीओ घंटाओ बहरामनीओ लालाओ णाणामणिमया घंटापासगा तबणिजामतीओ संकलाओ रयतामतीओ रजूओ ॥ ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोचस्सराओ णंदिस्सराओ णंदिघोसाओ सीहस्सराओ सीहघोसाओ मंजुस्स. राओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ सुस्सरणिग्घोसाओ ते पदेसे ओरालेणं मणुपणेणं कण्णमणनिव्युइकरेण सरेण जाच चिट्ठति ॥ विजयस्स णं दारस्स उभओपासिं दुहतो णिसीधिताए दो दो वणमालापरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं वणमालाओ णाणादुमलताकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुजमाणकमलसोभंतसस्सिरीयाओ पासाईयाओ ते पएसे उरालेणं जाय गंधेणं आपूरेमाणीओ जाव चिट्ठति (सू०१२९)। KACCALCRECAKACACANCHA* -१६७] ॥२०३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] Sra-OCOG 'जंबुद्दीवस्स णं भंते!' इत्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति प्राग्वत् भदन्त! द्वीपस्य कति द्वाराणि प्रज्ञतानि ?, भगवानाह-गौतम! 8 चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥ 'कहि णं भंते! इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञमं?, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमेणंति पूर्वस्यां दिशि पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्रप्रमाणया 'अबाधया' अपान्तरालेन यो जम्बूद्वीपस्य 'पुरच्छिमे पेरते' इति पूर्वः पर्यन्तो लवणसमुद्रपूर्वार्द्धस्य 'पञ्चस्थि-18 मेणं'ति पश्चिमे भागे शीताया महानद्या उपरि 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् , अष्टौ योजनानि उच्चस्त्वेन चलारि योजनानि विष्कम्भेन, 'तावइयं चेव पवेसेण ति तावन्त्येव चत्वारीत्यर्थः योजनानि प्रवेशेन, कथम्भूतमित्यर्थः, 'सेए' इत्यादि, 'श्वेतं' वेतवर्णोपेतं बाहत्येनाङ्करत्रमयत्वात् 'वरकणगथूभियाए' इति वरकनका-तरकनकमयी स्तू-/५ पिका-शिखरं यस्य तद् वरकनकस्तूपिकाकम् , हामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवरवेश्यापरिगयाभिरामे विजाहरजमल जुगलजंतजुत्ते इव अचीसहस्समालणीए रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भिभिसमाणे चक्म्युल्लोवणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे' इति विशेषणजातं प्राग्वत् । 'वण्णो दारस्स तस्सिमो होइ' इति 'वर्णः वर्णकनिवेशो द्वारस्य 'तस्य विजयाभिधानस्य 'अयं वक्ष्यमाणो भवति, तमेवाह-'तंजहे' त्यादि, तद्यथा-वनमया नेमा-भूमि-18 भागादूर्ब निष्कामन्तः प्रदेशा रिष्ठमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वेरुलियरुइलखंभे इति वैडूर्या-बैडूर्यरत्नमया रुचिराः स्तम्मा यस्य तद् वैडूर्यरुचिरस्तम्भ 'जायख्वोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकुट्टिमतले' इति जातरूपेण-सुवर्णेनोपचितैः-युक्तैः प्रवरैः -प्रधानैः पञ्चवर्णैर्मणिभिः-चन्द्रकान्तादिभिः रसैः-कर्केतनादिभिः कुट्टिमतलं-बद्धभूमितलं यस्य तत्तथा 'हंसगम्भमए एलुगे| दीप अनुक्रम [१६६-१६७]] ESS-4555 ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] दीप अनुक्रम [१६६-१६७] द इति इंसगो-रविशेषस्तन्मय एलुको-देहली 'गोमेजमयइंदकीले' इति गोमेयकरत्नमय इन्द्रकीलो लोहिताक्षरब्रमण्यो द्वार- प्रतिपत्तौ जीवाभि पिण्डौ (चेट्यौ)-द्वारशाखे 'जोइरसामए उत्तरंगे' इति ज्योतीरसमयमुत्तरङ्ग-द्वारस्योपरि तिर्यगव्यवस्थितं काष्ठं वैडूर्यमयौ कपाटौ मनुष्या० मलयगि- भलोहिताक्षमय्यो-लोहिताक्षरबालिकाः सूचय:-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीया: 'वइरामया संधी वनमयाः 'स- 11 विजयद्वारीयावृत्तिः धयः' सन्धिमेला: फलकानां, किमुक्तं भवति ?-वनरत्नापूरिता: फलकानां सन्धयः, 'नानामणिमया समुग्गया' इति समुद्का | राधि० इव समुद्गकाः-सूतिकागृहाणि तानि नानामणिमयानि 'वइरामया अग्गला अम्गलपासाया' अर्गला:-प्रतीता: अर्गलाप्रासादा उद्देशः१ ॥२०४॥ यत्रार्गला नियम्यन्ते, आह च मूलटीकाकार:-"अर्गलाप्रासादा यत्रार्गला नियम्यन्ते" इति, एतौ द्वावपि वजरबमयो, 'रययामयी31 सू०१२९ आवत्तणपेढिया' इति आवर्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलिका, उक्तं च मूलटीकायाम्-"आवर्चनपीठिका यत्रेन्द्र कीलको भवति" *'अंकुत्तरपासाए' इति अङ्का अङ्करबमया उत्तरपावा यस्य तद् अटोत्तरपार्श्व 'निरंतरियघणकवाडे' इति निर्गता अन्तरिका-ल ध्वन्तररूपा ययोस्तौ निरन्तरिको अत एव धनी कपाटौ यस्य सन्निरन्तरचनकपाट 'भित्तिसु चेव भित्तिगुलिया छप्पण्णा तिन्नि Cहोति' इति तस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोभित्तिपु-भित्तिगता भित्तिगुलिका:-पीठकसंस्थानीयास्तिस्रः षट्पञ्चाशतः-घट्पञ्चाशत्रिका माणा भवन्ति, 'गोमाणसिया तत्तिया' इति गोमानस्य:-शय्या: 'तत्तिया' इति तावन्मात्राः पट्पश्चाशनिकसयाका इत्यर्थः, 'नानामणिरयणवालरूवगलीलहियसालभंजियाए' इति इदं द्वारविशेषणं, नानामणिरत्नानि-नानामणिरत्नमयानि ब्यालरूपकाणि हालीलास्थितशालभतिकाश्च-लीलास्थितपुत्रिकाश्च यस्य तत्तथा 'वइरामए कूडे' वञमयो-वरत्नमय: कूटो-माडभागः रजतमव उ- ॥२०४॥ सेधः-शिखरम् , आह च मूलटीकाकार:-फूडो-माडभाग उच्छ्रय:-शिखर"मिति, केवलं शिखरमत्र तस्यैव माडभागस्य सं ANI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] * बन्धि द्रष्टव्यं न द्वारा, तस्य प्रागेवोक्तत्वात् , 'सव्वतवणिजमए उल्लोए' सर्वांसना तपनीयमय उल्होक:-उपरिभागः 'नानामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमे' इति, मणयो-मणिमया वंशा येषां तानि मणिमयवंशकानि लोहितामा -लोहिताक्षमयाः प्रतिवंशा येषां तानि लोहिताक्षप्रतिबंशकानि रजता-रजतमयी भूमिर्वेषां तानि रजतभूमानि, प्राकृत वारसमासान्तो। |मकारस्य च द्विलं, मणिवंशकानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रजतभूमानि नानामणिरानि-नानामणिरत्नमयानि जालपजराणि-वा भाषरपर्यायाणि यस्मिन् द्वारे तत्तथा, पदानामन्यथोपनिपात: प्राकृतवान् , 'अंकमया पक्खा पक्खयाहामो जोईरसामया वंसा वंसकबेलुगा य रययामईओ पट्टियाओ जायरूवमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुंछणीओ सव्वसेयरययामए छा(य)' इति पद्मवरवेदिकावदावनीयम् , 'अंकमयकणगडतवणिज्जथूभियागे' इति अङ्कमयं-बाहुल्येनाङ्करत्नमयं पक्षवाहादीनामङ्करत्नात्मकत्वात् कनक-कनकमयं कूट-शिखरं यस्य तत् कनककूटं तपनीवा-चपनीयमयी स्तूपिका-लघुशिखररूपा यस्य तत्तपनीयस्तूपिकाकं, ततः पदत्रयस्य पद्यमीलनेन कर्मधारयः, एतेन यत् प्राक् सामान्यत उरिक्षप्तं 'सेए वरकणगथूभियागे' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति । सम्प्रति तदेव श्वेतवमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति-'सेए' श्वेत, श्वेतलमेवोपमया द्रढयति-संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरययनिगरप्पगासे' इति विमलं-विगतमलं यत् शहतलं शङ्खस्योपरितनो भागो यश्च निर्मलो दधियनोघनीभूतं दधिगोक्षीरफेनो रजतनिकरच तद्वत्प्रकाश:-प्रतिमता यस्य तत्तथा, 'तिलगरयणद्धचंदचित्ते' इति तिलकरत्नानि-पुण्डविशेषासैरर्द्धचन्द्रश्च चित्राणि-नानारूपाणि तिलका चन्द्रचित्राणि, कचित् 'संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरययनियरप्पगासद्धचंदचित्ता' इति पाठस्तत्र पूर्ववत् पृथक् पृथग व्युत्पत्तिं कृत्वा पञ्चात्पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, 'नाणामणिदामालकिए' नाना * दीप अनुक्रम [१६६-१६७] जी० २०३५ Jival ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] रवर्णनं श्रीजीवा- मणयोनागामणिमयानि दामानि-मालास्सैरलतं नानामणिदामालतम् अन्तर्वहिश्च 'लक्ष्ण' लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापितं तवणि-16 प्रतिपत्ती जीवाभि जवालुयापस्थडे' इति तपनीया:-सपनीयमय्यो या वालुका:-सिकवास्तासां प्रस्तट:-प्रस्तारो यस्मिन तत्तथा, 'सुहफासे सस्सिरीय मनुष्या० मलयगि- रूवे पासाईए जाव पटिरूवे' इति प्राग्वन् । 'विजवस्स णं दारस्से' त्यादि, विजयस्य णमिति प्राग्वत् द्वारस्य उभयोः पार्श्वयोरेकैक-131 | बिजयद्वारीयावृत्तिः नैषेधिकीभावेन 'दुहतो' इति द्विधातो द्विप्रकारायां नैपेधिक्यां, नैषेधिकी-निपीदनस्थानम् , उक्तं च मूलटीकाकारेण-नषेधिकी नि-16 पीदनस्थान"मिति प्रत्येकं द्वौ द्वौ गन्दनकलशौ प्रज्ञप्ती, ते च चन्दनकलशा: 'वरकमलपइहाणा'इति बरं-प्रधानं यत्कमलं तत्प्रतिष्ठान- उद्देशः१ आधारो येषां ते वरकमलप्रतिष्ठानाः, तथा सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णाश्चन्दनकृतचर्चाका:-चन्दनकृतोपरागा: 'आविद्धकंठेगुणा' इति|81 सू०१२९ |आविद्धः-आरोपितः कण्ठे गुणो-रक्तसूत्ररूपो येषु ते आविद्धकण्ठेगुणाः, कण्ठेकालवत्सप्तम्या अलुक्, 'पउमुष्पलपिहाणा' इति| पद्यमुत्पलं च यथायोग पिधानं येषां ते पद्मोत्सलपिधाना: 'सञ्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् 'महयामहया' इति अतिशयेन महान्तो महेन्द्र कुम्भसमानाः, कुम्भानामिन्द्र इन्द्रकुम्भो, राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः, महांधासौ इन्द्र-18 है कुम्भश्च तस्य समाना महेन्द्रकुम्भसमाना-महाकलशप्रमाणा: प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ विजयस्स या'मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन द्विधातो नैषेधिक्यां द्वौ द्वौ 'नागदन्तकौ'नर्कुटको अङ्गुटकावित्यर्थः प्रज्ञप्ती, ते च नाग-1 दन्तका 'मुत्ताजालंतरूसियहेमजालगवक्खजालखिखिणीजालपरिक्खित्ता' इति मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि उत्सृतानि-लम्बमा-18 है।नानि हेमजालानि-हेममयदामसमूहाः यानि च गवाक्षजालानि-गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहाः यानि च किङ्किणी-क्षुद्रघण्टा किङ्किणी-16 जालानि-क्षुद्रघण्टा(साता)स्तैः परिक्षिप्ता:-सर्वतो व्याप्ता: 'अन्भुग्गया' इति अभिमुख मुद्ता अभ्युद्गता अप्रिमभागे मनाग उन्नता दीप अनुक्रम [१६६-१६७] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~420~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] दीप अनुक्रम [१६६ -१६७] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • मूलं [१२८- १२९] ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रतिपत्ति: [३], इति भाव: 'अभिनिसिद्धा' इति अभिमुखं पहिर्भागाभिमुखं निसृष्टाः अभिनिसृष्टाः तिरियं सुसंपग्गहिया' इति तिर्यग भित्तिप्र| देशे सुष्ठु अतिशयेन सम्यग् - मनागप्यचलनेन परिगृहीताः सुपरिगृहीताः 'अहेपन्नगद्धरुवा' इति अधः - अघस्तनं यत्पन्नगस्य सर्पस्यार्द्ध तस्येव रूपं आकारो येषां ते तथा अधः पन्नगार्द्धवदविसरला दीर्घाचेति भावः, एतदेव व्याचष्टे पन्नगार्द्ध संस्थानसंस्थिताः' | अधः पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः 'सव्यवइरामया' सर्वासना वज्रमया: 'अच्छा सण्हा जाव पडिरुवा' इति प्राग्वत्, 'महया महयां' इति अतिशयेन 'गजदन्तसमानाः' गजदन्ताकाराः प्रज्ञमा हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! | 'तेसु णं नागदंतएसु' इत्यादि तेषु च नागदन्तकेषु बहवः कृष्णसूत्रे बद्धाः 'वग्घारिया' इति अवलम्बिता: 'माल्यदामकलापाः' पुष्पमालासमूहा बहवो नीलसूत्रबद्धा माल्य दामकलापाः, एवं लोहितहारिद्रशुकसूत्रबद्धा अपि वाच्याः ॥ 'ते णं दामा' इत्यादि, तानि दामानि 'तबनिजलंबूसगा' इति तपनीयः- तपनीयमयो लम्बूसगो दाम्रामभिमभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मण्डनविशेषो गोलकाकृतिर्येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि 'सुव व्णपयरगमंडिया' इति पार्श्वतः सामस्त्येन सुवणैप्रतरेण सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि 'नानामणिरयण विविहहारद्धहारवसोभियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधा - विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा 'जाब सिरीद अतीव उवसोमेमाणा चिठ्ठति' अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्ण पाठो द्रष्टव्यः - 'ईसि मण्णमण्णम संपत्ता पुण्यावरदाहिणुत्तरागएहिं बाएहिं मंदायं मंदायमेइजमाणा पलंबमाणा पत्रमाणा परंभ (सं) माणा परंभ (झंझ) माणा ओरालेणं मणुत्रेणं मणहरेणं कण्णमणनिकरणं सदेणं ते पएसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा आपूरेमाणा सिरीए उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठेति । एतच प्रागेव पद्मवरवेदिकावर्णने व्याख्यातमिति भूयो न व्याख्यायते ॥ 'तेसि णं नागदं For P&False Cinly ------ ~421~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] दीप अनुक्रम [१६६ -१६७] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], ----- • मूलं [१२८- १२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २०६ ॥ ताणमित्यादि, तेषां नागदन्तानामुपरि अन्यौ द्वौ नागदन्तको प्रज्ञप्ती, तेच नागदन्तका: 'मुसाजालतरूसियहेमजालगवक्ख जाल' इत्यादि प्रागुक्तं सर्व द्रष्टव्यं यावद् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् । 'तेसु णं णागदंतएसु' इत्यादि, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिक्कानि प्रज्ञप्तानि तेषु च रजतमयेषु सिक्केषु बहवो 'वैडूर्यरत्नमय्यो' वैडूर्यरनात्मिकाः 'धूपघट्यो' धूपघटिकाः प्रज्ञप्ताः, ताञ्च धूपघटिका : 'कालागुरुपवर कुंदुरुक्क तुरुकधूयमघमतगंधुदुयाभिरामा कालागुरुः प्रसिद्धः प्रवरः प्रधानः कुन्दुरुष्क: पीडा तुरुष्कं सिल्हकं कालागुरु प्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्के व कालागुरुप्रवरकुन्दुरुतुरु काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध उद्भुत - इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाः कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क धूम मच मचायमानगन्धोद्धु ताभिरामाः, तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धास्ते च ते वरगन्धास्तेषां गन्धः स आस्वस्तीति सुगन्धवरगन्धिकाः 'अतोऽनेकस्वरादि तीकप्रत्ययः, अत एव गन्धवर्त्तिभूताः- सौरभ्यवत्तिभूताः सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पाः 'उदारेण' स्फारण 'मनोज्ञेन' मनोऽनुकूलेन, कथं मनोनुकूलत्वम् ? अत आह-प्राणमनोनिर्वृतिकरण हेतौ तृतीया यतो घ्राणमनोनिर्वृतिकरस्ततो मनोशस्तेन गन्धेन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् आपूरयन्त्य आपूरयन्त्यः अत एव श्रियाऽतीव शोभमानास्तिष्ठन्ति ॥ 'विजयरस णं दारस्से'त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः | पार्श्वयोरेकैकनैपेधिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायां नैषेधिक्यां द्वे द्वे शालभञ्जिके प्रज्ञप्ते, ताम्र शालभञ्जिका लीलया ललिताङ्ग नित्रेशरूपया स्थिता लीलास्थिताः 'सुपइडियाओ' इति सुष्ठु मनोज्ञतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः 'सुअलंकियाओ' इति सुष्ठु अतिशयेन रमणीयतथाऽलङ्कृताः खलङ्कृताः 'नाणाविहरागवसणाओं' इति नानाविधो- नानाप्रकारो रागो येषां तानि नानाविधरागाणि तानि वसनानि - वस्त्राणि संवृततया यासां ता नानाविधरागवसना: 'रत्तावंगाओं' इति रक्तोऽपाङ्गो-नयनोपान्तं यासां ता रक्तापाङ्गाः 'असिय For P&Praise Cnly ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वावर्णनं ~ 422 ~ उद्देशः १ सू० १२९ ॥ २०६ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] दीप अनुक्रम [१६६ -१६७] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्तिः ) • मूलं [१२८- १२९] ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Ehem प्रतिपत्ति: [३], केसीओ' इति असिताः कृष्णाः केशा यासां ता असितफेश्य: 'मिडविसयपसत्थलक्खण संवेलियग्गसिरयाओ' हृदयः कोमला विशदा-निर्मला: प्रशस्तानि - शोभनानि अस्फुटितत्वप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः संहितं संवृतमत्रं येषां शेखरककरपात् ते संवेलितायाः शिरोजाः केशा यासां ता मृदुविशदप्रशस्त लक्षण संहितामशिरोजाः 'नाणामहपिणद्धाओ' इति नानारूपाणि माल्यानि पुष्पाणि पिनद्धानि आविद्धानि यासां ता नानामान्यपिनद्धाः, निष्टान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात् 'मुडिगेज्झसुमज्झा' इति मुष्टिया सुष्ठु - शोभनं मध्यं - मध्यभागो यासां ता मुष्टिप्राह्यमध्या: 'आमेलगजमलजुगलबहिय अदभुण्णयपीपरइयसंठियपओहराओ' पीनं पीवरं रचितं संस्थितं संस्थानं यकाभ्यां तो पीनरचितसंस्थिती आमेलक- आपीडः शेखरक इत्यर्थः तस्य यमर्थ समश्रेणीकं युगलं सम् वर्त्तिती बद्धस्वभावायुपचितकठिनभावाविति भावः अभ्युन्नतो पीनरचितसंस्थितौ च पयोधरी यासां तास्तथा 'ईसिं असोगबरपायसमुट्ठियाओ' इति ईषन्मनाम् अशोकवरपादपे समवस्थिता - आश्रिता ईषदशोकरपादपसमवस्थिताः तथा वामहस्तेन गृहीतममं शालायाः-शाखाया अर्थादशोकपादपस्य यकाभिस्ता बामहन्तगृहीतामशाला:, 'ईसिं अड्डऽच्छिकडक्खचिद्विएहिं लूसेमाणीओ विवे'ति ईपत्-मनाम् 'अड्डुं तिर्यग्वलितम् अनि येषु कटाहरूपेषु चेष्टितेषु तैर्मुष्णन्त्य | इव सुरजनानां मनांसि चक्खुहोयणलेसेहि य अण्णमण्गं विज्झेमाणीओ इव' अन्नमन्नं परस्परं चक्षुषां छोकनेन अवलोकनेन लेशाः संश्लेषास्तैर्विध्यमाना इव किमुक्तं भवति ? एवं नाम वाग्विहिताक्षिकटाक्षैः परस्परमवलोकमाना अवतिष्ठन्ते यथा नूनं परस्परसौभाग्य सहनत स्तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षैः परस्परं खिद्यन्त इवेति 'पुढचिपरिणामाओ' इति पृथिवीपरिणामरूपाः शाश्वतभावमुपागता विजयद्वारवत् 'चंदाणणाओ' इति चन्द्रवद् आननं मुखं यासां ताचन्द्रानना: 'चंदविलासिणीओ' इति चन्द्रवन्मनोहरं For P&Pase Cly ------ ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मलयगि प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] श्रीजीवा-1 विलसन्तीत्येवंशीलाचन्द्रविलासिन्यः 'चंदद्धसमनिडालाओं' इति चन्द्राङेन-अष्टमीचन्द्रेण सम-समान ललाटं यासां ताश्चन्द्रार्द्ध- प्रतिपत्ती जीवाभि समललाटाः 'चंदाहियसोमदसणाओं' इति चन्द्रादप्यधिकं सोम-सुभगं कान्तिमदर्शनं-आकारो यास तास्तथा, उल्का इव द्योत- मनुष्या० माना: 'विजुघणमरीचिसूरदिपंततेयअहिययरसन्निकासाओं' इति विद्युतो ये घना-बहुलतरा मरीचयसेभ्यो यच सूर्यस्य || विजयद्वान रीयावृत्तिः दीप्यमानमनावृतं सेजस्तस्मादप्यधिकतरः सन्निकाश:-प्रकाशो बासा तास्तथा 'सिंगारागारचारुबेसाओ' इति शृङ्गारो-मण्डनभूष- रवर्णनं दणाटोपस्तरप्रधान आकार-आकृतिर्यासा ताः शृङ्गाराकाराः चारु वेषो-नेपथ्यं यासां ताश्चारुवेपास्ततः कर्मधारये शृङ्गाराका- उद्देशः १ ॥२०७॥ रिचारुवेषाः 'पासाईयाओ' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'विजयस्स णं दारस्से'त्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयोः सू०१२९ पार्श्वयोरेकै कनैपेधिकीभावेन 'द्विधातो' द्विप्रकारायां नैधिक्यां द्वौ द्वौ जालकटको प्रज्ञप्ती, 'ते णं जालकडगा'इत्यादि, होतेच जालकटकाकीर्णा रम्यसंस्थानाः प्रदेशविशेषाः 'सबरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ विजयस्से'त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोद्विधातो नैषेधिक्या द्वे द्वे घण्टे प्रक्षने, तासां च घण्टानामयमेतपः 'वर्णा-1 वासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञपः, तद्यथा-जाम्बूनदमय्यो घण्टाः बामदयो लाला: नानामणिमया घण्टापाः तपनीयमय्यः शृ बला यासु ता अवलम्बितास्तिमुन्ति रजतमग्यो रञ्जव: ।। 'ताओणं घंटाओ' इत्यादि, ताश्च घण्टा: 'ओघस्वराः' ओपेन-प्रवाकारण खरो यासा ता ओघस्वराः, मेघस्वातिदीर्घः स्वरो यासा ता मेघस्वराः, हंसस्पेव गधुरः खरो यास ता हंसखराः, एवं क्रोध स्वराः, सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यासां ताः सिंहस्वराः, एवं दुन्दुमिस्वरा नन्दिस्वराः, द्वादशतूर्यसझातो नन्दिः, नन्दिवद् घोषो Wil॥२०७॥ CI-निनादो यासा ता नन्दियोषाः, मनु:-प्रियः स्वरो यासां ता मजुखराः, एवं मञ्जपोषाः, किंबहुना', सुखराः सुखरघोषाः, दीप अनुक्रम [१६६-१६७] FREE अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] दीप ओरालेण मित्यादि प्राग्वत् ।। 'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पाश्वयोर्विधातो भैपेधिक्या वे द्वे वनमाले प्रज्ञप्ते, ताश्च वनमाला नानादुमाणां नानालतानां च ये किशलयरूपा अतिकोमला इत्यर्थः पाहवासैः समाकुला:-सम्मिश्राः 'छप्पयपरिभुजमाणसोभतसस्सिरीया' इति पट्पदैः परिभुज्यमाना सती शोभमाना पट्पदपरिभुज्यमानशोभमाना अत एव सश्रीका ततः पूर्वपदेन | विशेषणसभासः, 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वन् । विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं तुहतो णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णता, ते णं पगंठगा चत्तारि जोपणाई आयामविक्र्वभेणं दो जोयणाई बाहल्लणं सम्यवइरामता अच्छा जाय पडिरूवा । तेसि णं पयंठगाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा पपणासा, ते णं पासायवडिंसगा चत्तारि जोयणाई उह उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गयमसितपहसिताविव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता चाउद्धयविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिछत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाण(णुलिहंत)सिहरा जालंतररयणपंजरुम्मिलितव्य मणिकणगभियागा वियसियसयवत्तपोंडरीयतिलकरयणद्वयंदचित्ता पाणामणिमयदामालंकिया अंतो य बाहिं च सहा तवणिजराइलबालुयापत्थडगा सुद्ध(ह)फासा सस्सिरीयरूवा पासातीया ४॥ तेसि णं पासायवडेंसगाणं उन्होया पउमलता जाव सामलयाभत्तिचित्ता सब्बतवणिजमता अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं पासायडिंसगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पपणत्ते, से जहा अनुक्रम [१६८] %A5%-422 ~425~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः RS ३ प्रतिपत्ती | मनुष्या० विजयद्वारवर्णन उद्देशः१ ॥२०८॥ सू०१३० दीप अनुक्रम [१६८] णामए आलिंगपुक्खरेति वा जाव मणीहिं उपसोभिए, मणीण गंधो वणो फासो य नेयब्यो । तेसि णं पहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं मणिपेटियाओ पण्णसाओ, ताओ ण मणिपेढियाओ जोपणं आयामविक्खंभेणं अट्ठजोयणं बाहल्लेणं सवरपणामईओ जाव पडिरूवाओ,तासि णं मणिपेढियाणं उचरि पत्तेयं २ सीहासणे पण्णसे, तेसिणं सीहासणाणं अयमेयारूचे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-तवणिजमया चकवाला रयतामया सीहा सोवपिणया पादा णाणामणिमयाई पायवीढगाई जंबूणयमताई गसाई वतिरामया संधी नाणामणिमए वेचे, ते णं सीहासणा ईहामिय उसभ जाच पउमलयभत्तिचित्ता ससारसारोवइयविविहमणिरयणपायपीढा अच्छरगमिउमसूरगनवतयकुसंतलिचसीहकेसरपञ्चुत्थताभिरामा उयचियखोमदुगुछयपडिच्छयणा सुचिरचितरयत्साणा रत्तंसुयसंचुया सुरम्मा आईणगरुयब्रणवनीततूलमजयफासा मउया पासाईया ४॥ तेसिणं सीहासणाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं विजयसं पण्णते. ते णं विजयदूसा सेता संखकुंददगरयअमतमहियफेणपुंजसन्निकासा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा।। तेसि णं विजयदूसाणं बहुमजसदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अंकुसा पण्णत्ता, तेसु ां बइरामएम अंकुसेसु पत्तेयं २ कुंभिका मुत्तादामा पण्णता, ते णं कृभिका मुत्तादामा अन्नहिं चउहिं चउहिं तदडुचप्पमाणमेत्तेहिं अद्धकुंभिकेहिं मुत्तादामेहिं सब्यतो समंता संपरिक्खित्ता, - C ॥२०८॥ ES अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~426~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] * तेणं दामा तवणिजलंबूसका सुवषणपयरगमंडिता जाव चिट्ठति, तेसि णं पासायवडिंसगाणं उपि यहवे अट्ठमंगलगा पपणत्ता सोत्थिय तधेव जाव छत्ता ॥ (सू०१३०) 'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्विधातो नैषेधिक्या द्वौ द्वौ प्रकण्ठको प्रज्ञप्तौ, प्रकण्ठको नाम पीठविशेषः, आह च मूलटीकाकार:-"प्रकण्ठौ पीठविशेषौ,” चूर्णिकारस्त्वेवमाह-आदर्शवृत्तौ पर्यन्तावनतप्रदेशो पीठो प्रकण्ठावि"ति, ते च प्रकण्ठकाः प्रत्येक चलारि योजनानि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्भाभ्यां द्वे योजने बाहल्येन 'सन्चवहरामया' इति सर्वात्मना ते प्रकण्ठका वनमया: 'अच्छा सण्हा य' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण पकंठयाण'मित्यादि, तेषां च प्रकण्ठकानामुपरि प्रत्येक प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, प्रासादावतंसको नाम प्रासादविशेषः, उक्तं च मूलटीकायां-प्रासादावतंसकः | प्रासादविशेष" इति, व्युत्पत्तिश्चैवम्-प्रासादानामवतंसक इव-शेखरक इव प्रासादावतंसकः, ते च प्रासादावतसंकाः प्रत्येकं चत्वारि योजनान्यूर्द्ध मुञ्चैस्त्वेन वे योजने आयामविष्कम्भाभ्याम् , 'अभुग्गयमूसियपहसियाविवेति अभ्युद्ता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिनता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तथा सिता इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव तेऽत्युचा निरालम्बास्तिष्ठन्तीति भावः, अथवा प्रबलश्वेतप्रभापटलया प्रहसिताविव प्रकर्षण हसिताविष, तथा 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधा अनेकप्रकारा ये मणयः-चन्द्रकान्ताद्या यानि च रजानि-कतनादीनि तेषां भक्तिभि:-विच्छित्तिभिश्चित्रा-नानारूपा आश्ववन्तो वा नानाविधमणिरत्नभक्तिविचित्राः 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागछत्तातिछत्तकलिया' वातोद्भूता-बायुकम्पिता विजयः -अभ्युदयस्तसंसूचिका वैजयन्तीनामानो (नाम्यो) या: पताकाः, अथवा विजया इति वैजवन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो - 64 दीप अनुक्रम [१६८] कर ~427~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [१३०] श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२०९॥॥ विजयवैजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रातिछत्राणि-उपर्युपरिस्थितान्यातपत्राणि तैः कलिता वातोदूतविजयवै-16 ३ प्रतिपत्ती जयन्तीपताकाछत्रातिच्छत्रफलिता: 'तुङ्गाः' उमा उजैस्त्वेन चतुर्योजनप्रमाणलात् , अत एव 'गगणतलमणुलिहन्तसिहरा' इति, मनुष्या० गगनतलम्-अम्वरम् अनुलिखन्ति-अभिलायन्ति शिखराणि येषां ते गगनतलानुलिखच्छिखराः, तथा जालानि-जालकानि यानि विजयद्वाभवन भित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रानि येषु ते जालान्तरमाः, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतखात्र वर्णनं तथा पजराद् उन्मीलिता इव-बहिष्कृता इव, यथा हि किल किमपि वस्तु वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्ट- | उद्देशः१ च्छायं भवति एवं तेऽपि प्रासादावतंसका इति भावः, तथा मणिकनकानि-मणिकनकमय्यः स्तूपिका:-शिखराणि येषां ते मणिकन-12] सू०१३० कस्तूपिकाः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरत्नानि भिस्यादिपु पुण्ड्रविशेषा अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिपु सैश्चित्रा-नानारूपा आश्चर्यभूता विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकार्द्धचन्द्रचित्रा: अन्तर्बहिश्च (नाना-अनेकप्रकारा ये चन्द्रकान्ताया मणयस्तन्मयानि-तत्प्रधानानि यानि दामानि-पुष्पमालास्सैरल कृताः) 'श्लक्ष्णाः' महणाः, तथा तपनीयं-सुवर्णविशेषस्तन्मय्या वालुकाया: प्रस्सर्ट-प्रतरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटा: 'सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया' इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां च प्रासादावतंसकानाम् 'उल्लोकाः' उपरितनभागा: पद्मलताभक्तिचित्रा अशोकलताभक्तिचित्राश्चम्पकलताभक्तिचित्राथूतलताभक्तिचित्रा वनलताभक्तिचित्रा वासन्तिकलताभक्तिचित्राः सर्वात्मना तपनीयमयाः 'अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्वहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहा नामए आलिंगपुक्खरे इ वा इत्यादि समस्तं भूमिवर्णनं मणीनां वर्णपञ्चकसुरभिगन्धशुभस्पर्शवर्णनं प्राग्वत् ।। 'तेसि णमित्यादि, दीप अनुक्रम [१६८] KO 434 VIT३०९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~428~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % % % प्रत सूत्रांक [१३०] -% तेषां प्रासादावतंसकानामन्तबहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं (मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, तान मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भेन अष्ट योजनानि बाहल्येन सर्वरत्नमय्यो यावत्प्रतिरूपाः तासां मणिपीठिकानामुपरि) सिंहासनं प्रज्ञाप्त, तेषां च सिंहासनानामयमेतद्रूपो 'वर्णावासों' वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रजतमयाः सिंहा तैरुपशोभितानि सिंहासनानि 'सौवर्णिका' सुवर्णमयाः पादाः तपनीयमयानि चकलानि-पादानामधःप्रदेशाः भवन्ति [मुक्तानानामणिमयानि पादानामधःप्रदेशाः] प्रयुक्ता, ना-18| नामणिमयानि 'पादशीर्षकाणि पादानामुपरितना अवयवविशेषा जाम्बूनदमयानि गात्राणि ईपदच्छाः 'वज्रमया' बनरनापूरिताः 'सन्धयः' गात्राणां सन्धिमेला नानामणिमयं 'वे' न्यूतं वानमित्यर्थः, आह च चूर्णिकृत्-वेये वाणवतेण"मित्यादि, तानि च सिंहासनानि ईहामृगधभतुरगनरमकरव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुलरवनलतापद्मलताभक्तिचित्राणि 'ससारसारोवचियविविहम|णिरयणपादपीढा' इति, सारसार:-प्रधानप्रधानविविधैर्मणिरत्रैरुपचितैः पादपीठैः सह यानि तानि तथा, प्राकृतत्वाच्च उपचितशब्द स्यान्तरुपन्यासः, 'अच्छरमउयमसूरगनवतयकुसन्तलित्तकेसरपञ्चत्थुवाभिरामा इति, आस्तरक-आच्छादनं मृदु येषां मसूर-| ४ काणां तानि आस्तरकमृदूनि, विशेषणस्य परनिपात: प्राकृतखात्, नवा खग येषां ते नवत्वच: कुशान्ता-दर्भपर्यन्ताः, नवत्वचश्च ते कुशान्ताश्च नवत्व शान्ताः प्रत्यमत्वग्दर्भपर्यन्तरूपाणि लतिकोमलानि लित्तानि-नम्र(मन)शीलानि च केसराणि, कचित् सिंहकेसरेति पाठस्तत्र सिंहकेसराणीव केसराणि मध्ये मसूरकाणां तानि नवत्वकुशान्तचिल्ल(लित्त)केसराणि, सिंहकेसरेति पाठपक्षे एकस्य केसरशब्दस्य शाकपार्थिवादिदर्शनाल्लोपः, आस्तरकमृदुभिर्मसूरकर्नवत्वकशान्तलिच(स)केसरैः प्रत्यवस्तृतानि-आपछादितानि सन्ति यानि अभिरामाणि तानि तथा, विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतलात्, 'आईणगायबूरनवणीयतूलफासा' इति आजिनक दीप अनुक्रम [१६८] 45% ॐॐॐ ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] - - दीप अनुक्रम [१६८] श्रीजीवा- चर्ममयं वस्त्रं तच्च स्वभावादतिकोमलं भवति रुतं-कर्पासपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीत-प्रक्षणं तूल-अर्कतूलं तेषामिव स्पशों प्रतिपत्ती जीवाभिः येषां तानि तथा, तथा सुविरचितं रजस्वार्थ प्रत्येकमुपरि येषां तानि सुविरचितरजस्त्राणानि 'उवचिय(खोम)दुगुलपट्टपहिच्छायणे मनुष्या० मलयगि-1 इति उपचितं-परिकम्मितं यत्क्षौम दुकूल-कार्पासिकं वस्त्रं तत्प्रतिच्छादन-रजनाणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं प्रत्येक येषां तानि तथा, विजयद्वारीयावृत्तिः तत उपरि 'रत्तंसुयसंवुया' इति रक्तांशुकेन-अतिरमणीयेन रक्तेन बनेग संघृतानि-आच्छादिवानि रक्तांशुकसंवृतानि अत एव सुर- रवर्णनं ॥२१॥ IS म्याणि 'पासाइया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां च सिंहासनानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक विजयदूष्य-वस्त्रविशेष: प्रज्ञप्तः, आह च मूलटीकाकार:-"विजयदूप्यं वस्त्रविशेष" इति । 'ते ण'मित्यादि, तानि च विजयदूष्याणि 'शङ्ककुन्द-1|| | सू०१३० सदकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशानि' शङ्कः प्रतीतः कुन्देति-कुन्दकुसुमं दकरज:-उदककणा: अमृतस्य-क्षीरोदधिजलस्य म-18 थितस्य यः फेनपुजो-डिण्डीरोल्करस्तत्सभिकाशानि-तत्समप्रमाणि, पुनः कथम्भूतानि ? इत्यत आह-'सब्बरयणामया' सर्वात्मना रत्नमयानि 'अच्छा सम्हा जाव पडिरूवा' इति विशेषणकदम्यक प्राग्वत् ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां-सिंहासनोपरिस्थितानां विजयदूष्याणां प्रत्येक प्रत्येक बहुमध्यदेशभागे बसमया: वनरत्नासका: 'अङ्कशाः' अङ्कुशाकारा मुक्तादामावलम्बनाश्रयभूताः प्रज्ञाप्ताः, तेषु च विनमयेष्वड्डूशेषु प्रत्येकं प्रत्येक 'कुम्भाग्रं' मगधदेशप्रसिद्ध कुम्भप्रमाणमुक्तामयं मुक्तादाम प्रज्ञप्तं, तानि च कुम्भाराणि मुक्तादामानि प्रत्येक प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिः कुम्भात्रैर्मुक्तादामभिस्तदर्धेश्चप्रमाणमात्रैः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तानि, 'ते || दामा तवणिजलंवूसगा नाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदाया ईसिमन्नमशमसंपत्ता पुवावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहि । - TI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१६८ ] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र ) ], - मूलं [१३०] प्रतिपत्ति: [३], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० च० ३६ Ja Eberh मंदार्य मंदायं एइजमाणा २ बेलमाणा २ पकंपमाणा पकंपमाणा पझमाणा पक्षमाणा ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनि बुइकरेणं ते पएसे सम्बतो समता आपूरेमाणा सिरीए उसोभमोणा चिति” | विजयस्स णं द्वारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो तोरणा पण्णत्ता, ते णं तोरणा गाणामणिमया तव जाब अट्टमंगलका य छत्तातिछत्ता । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सालभंजिताओ पण्णत्ताओ, जहेव णं हेद्वा तद्देव । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो नागदंतगा पण्णत्ता, तेणं णागदंतगा मुत्ताजालतरूसिया तहेव, तेसु णं णागदंतएस बहवे किन्हे सुबहवधारितमलदामकलावा जाव चिठ्ठति । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो हयसंघाडगा पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिख्या एवं पंतीओ बीहीओ मिहुणगा, दो दो पउमलयाओ जाब पढिरुवाओ तेसि णं तोरणाणं पुरनो (अक्वाअसोवत्विया सव्वरयणामना अच्छा जाव प डिवा) तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो चंदणकलसा पण्णत्ता, ते णं चंदणकलसा वरकमलपाणा तव सव्वरयणामया जाव पडिख्वा समणाउसो ! ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो भिंगारगा पण्णत्ता वरकमलपइडाणा जाव सच्चरयणामया अच्छा जाव पडिवा महतामहता म तगमुहागितिसमाणा पण्णत्ता समगाउसो ! ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो आतंसगा पण्णत्ता, तेसि णं आतंसगाणं अयमेयारूचे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजा-तवणिजमया पर्यटगा वेरु For P&Pase Cnly ~431~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [१६९] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---- ------ उद्देशकः [ ( द्वीप समुद्र ) ], - मूलं [ १३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 'भीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः | ॥ २११ ॥ लियमया छरुहा (थंभया) वहरामया वरंगा णाणामणिमया वलक्खा अंकमया मंडला अणोघसियनिम्मलासाए छायाए सव्वतो चेव समणुबद्धा चंदमंडलपडिणिकासा महतामहता अद्धकायसमाणा पण्णत्ता समणाउसो ! || तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो वहरणाभे घाले पण्णत्ते, ते णं चाला अच्छतिच्छडियसालितंदुल नहसंद बहुपडिपुण्णा चेव चिट्ठेति सव्वजंबूणनामना अच्छा जाव पडित्वा महतामहता रहचकसमाणा समणाउसो ! | तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो पातीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं पातीओ अच्छोदयपडिहत्याओ णाणाविधपंचवण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिyoणाओ विच चिट्ठति सव्वरयणामतीओ जाव पडिरुवाओ महयामहया गोकलिंजगचक्कसमाणाओ पण्णत्ताओ समणाउसो ! ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सुपतिगा पण्णना, ते णं सुपतिहगा णाणाविध (पंचवण्ण) पसाहणगर्भडविरचिया सव्बोसधिपडिपुण्णा सव्वरयणाया अच्छा जान पडिवा ।। तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ ॥ तासु णं मणोगुलिया बहवे सुवण्णरुध्यामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णप्पामएस फलएसु बहवे वद्दरामया णागतगा मुत्ताजालतरुसिता हेम जाब गयंदगसमाणा पण्णत्ता, तेसु णं बहरामसु णागत बहवे रययामया सिक्कया पण्णत्ता, तेसु णं रथयामएस सिक्कएस बहवे वायकरंगा पण्णत्ता ॥ ते णं वायकरगा किण्हसुत्तसिकगवत्थिया जाव सुकिल सुत्तसिकगवत्थिया सच्चे For P&False City ~ 432~ प्रतिपत्तौ मनुष्या० विजयद्वावर्णनं उद्देशः १ सू० १३१ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ॥ २११ ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] * दीप अनुक्रम [१६९] 222-%22%- वेरुलियामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पण्णत्ता, से जहाणामए-रपणो चाउरंतचकवहिस्स चित्ते रयणकरंडे वेरुलियमगिफालियपडलपचोयडे साए पभाए ते पदेसे सव्वतो समंता ओभासह उलोवेति तायेश पभासेति, एवामेव ते चित्तरपणकरंडगा पण्णता वेरुलियपडलपचोयडा साए पभाए ते पदेसे सव्वतो समता ओभासेति ।। तसिणं लोरणाणं पुरतो दो दो हयकठगा जाय दो दो उसमकंठगा पण्णत्ता सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसु ण हयकंठए सु जाव उसमकंठरसु दो दो पुष्फचंगेरीओ, एवं मल्लगंधचुण्णवल्याभरणचंगेरीओ सिद्धस्थचंगेरीजो लोमहत्थचंगेरीओ सब्बरयणामतीओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरनो दो दो पुप्फपडलाइं जाव लोमहस्थपडलाई सब्बरयणामयाई जाव पडिरूवाई । तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो सीहासणाई पपणत्ताई, तेसि णं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णसे तहेव जाय पासातीया ४ ॥ तेसि गं तोरणाणं पुरतो दो दो कप्पछदाछत्ता पण्णता, ते णं छत्ता वेरुलियभिसंतविमलदंडा जंबूणयकन्निकावइरसंधी मुत्ताजालपरिगता अट्ठसहस्सवरचणसलागा दहरमलयसुगंधी सव्योउअसुरभिसीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा वहा । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो चामराओ पण्णत्ताओ, ताओ णं चामराओ (चन्दप्पभवहरवेलियनानामणि --5 15%%%* ~433~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [१६९] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) ------ उद्देशकः [ ( द्वीप समुद्र ) ], - मूलं [१३१] प्रतिपत्तिः [३], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा श्रीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः + ॥ २१२ ॥ Ja Ebeton रयणस्खचियदंडा) णाणामणिकणगरयणविमल मरिहतवणिजलविचित्तदंडाओ चिलिआओ संखंककुंदद्गरयअमयमहिय फेणपुंज सण्णिकासाओ सुहुमरयतदीहवालाओ सम्बरणामताओ अच्छाओ जाव पडिवाओ । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो तिलसमुग्गा कोहसमुरगा परासमुग्गा चोयसमुग्गा तथरसमुग्गा एलासमुग्गा हरियालसमुग्गा हिंगुलयसमुग्गा मणोसि लासमुग्गा अंजणसमुग्गा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ (सू० १३१) 'विजयस्स पण 'मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्द्विधातो नैषेधिक्यां द्वे द्वे तोरणे प्रज्ञप्ते, तानि च तोरणानि नानामणिमयानीत्यादि तोरणवर्णनं निरवशेषं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे शालमखिके प्रज्ञत्रे, शालभञ्जिकावर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि तेषां तोरणानां द्वौ द्वौ नागदन्तको प्रज्ञमो, तेषां च नागदन्तकानां वर्णनं यथाऽधस्तादनन्तरमुक्तं तथा वक्तव्यं, नवरमत्रोपरि नागदन्तका न वक्तव्या अभावान् । 'तेसि ण'मित्यादि तेषां तोरण्यानां पुरतो द्वौ द्वौ संघाटको दो द्वौ राजसङ्गाटको द्वौ द्वौ नरसङ्गाटको द्वौ द्वौ किन्नरसङ्घाटको द्वौ द्वौ किंपुरुषसङ्गाटको द्वौ द्वौ महोरगसाको द्वौ द्वौ गन्धर्वसङ्गाटको द्वौ द्वौ नृपभसङ्घाटको एते च कथम्भूता: ? इत्याह- 'सव्वरयणामया अच्छा सहा' इत्यादि प्राग्वत् एवं पडिवीथीमिथुन कान्यपि प्रत्येकं वाक्यानि ॥ 'तेसिं तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पद्मलते यावत्करणाद् द्वे द्वे नागलवे द्वे द्वे अशोकलते द्वे द्वे चम्पकलते द्वे द्वे चूतलते द्वे द्वे वासन्तीयते द्वे द्वे कुन्दलते द्वे द्वे अतिमुक्तकहते इति परिग्रहः, द्वे द्वे श्यामलते, एवाच कथम्भूता:? इत्याह - 'निश्चं सुकुमियाओ' इत्यादि यावत्करणात् 'निश्वं मंडलिया नियं वश्याओ निचं थश्याओ निषं गोच्छियाओ निचं जमलियाओ निच For P&False Chy ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वावर्णन उद्देशः १ सू० १३१ ~434~ ॥ २१२ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [१६९] विणमियाओ (निश्चं पणमियाओ) निचं सुविभत्तपडिमंजरिवर्डसगधरीओ निचं कुसुमियमउलियलवइयथवइयनिगोच्छियविणमियपण-|| | मियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ' इति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् । पुन: कथम्भूताः इत्याह-'सव्वरयणामया जाव || पडिरूवा' इति, अत्रापि यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकपरिग्रहः स च प्राग्वद्भावनीयः ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्रौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्ती, वर्णकश्च चन्दनकलशानां वरकमलपइट्ठाणा' इत्यादिरूपः सर्वः प्राक्तनो वक्तव्यः ।। 'तेसि | Xणमित्यादि, वेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ भृङ्गारको प्रज्ञप्ती, तेषामपि चन्दनकलशानामिव वर्णको वक्तव्यः, नवरं पर्यन्ते 'मत्तगय महामुहागिइसमाणा पण्णत्ता समगाउसो!' इति वक्तव्यं 'मत्तगयमहामुहागिइसमाणा' इति मत्सो यो गजस्तस्य महद्-अतिविशालं यन्मुखं तस्याकृति:-आकारस्तत्समाना:-तत्सदृशाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वाबादर्शकौ प्रज्ञप्तौ, तेषां चादर्शकानामयमेतद्रूप: 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमया: 'प्रकण्ठकाः' पीठदिकविशेषाः 'वैडूर्यमयार्थभया' आदर्शकगण्डप्रतिवन्धप्रदेशाः, आदर्शकगण्डाना मुष्टिग्रहणयोग्याः प्रदेशा इति भावः, बअरबमया वराङ्गा गण्डा इत्यर्थः, 'नानामणिमया वलक्षाः' वलक्षो नाम शृङ्खलादिरूपमवलम्बनम् , अङ्कमयानि-अङ्करबमयानि मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसंभूति: 'अणोहसियणिम्मलाए छायाए' इति, अवघर्षणमवधर्षितं, भावे क्तप्रत्ययः, भूत्यादिना निमजनमित्यर्थः, अवधर्षितस्याभावोऽनवधर्षितं तेन निर्मला अनवधर्पितनिर्मला तया छायथा समनुबद्धाः 'चंदमंडलपडिनिकासा' इति चन्द्रमण्ड लसहशा: 'महयामहया' अतिशयेन महान्त: 'अर्द्धकायसमानाः' द्राः शरीराचप्रमाणाः प्रमता हे श्रमण! हे आयुष्मन ! ॥ तेसि | होणमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे वचनामे खाले प्रज्ञप्ते, वानि च स्थालानि [तिष्ठन्ति] 'अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसं-| -- ~435~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: विजयद्वा प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [१६९] श्रीजीवा- दद्वपडिपुण्णा इव चिति' अच्छा-निर्मला: सुद्धस्फटिकवधिल्छटिता अत एव नखसंदष्टा:-नखा: संदष्टा गुसलादिभिश्चम्बिता प्रतिपत्तो जीवाभि येषां ते तथा, भार्यादिदर्शनात्परनिपातो निष्ठान्तस्य, अच्छैनिन्छटितैः शालितन्दुलै खसंदृष्टैः परिपूर्णानीव अच्छत्रिच्छटितशालित- मनुध्या० मलयगि- न्दुलनखसंदष्टपरिपूर्णानीव पृथिवीपरिमाणरूपाणि तानि तथा खितानि केवलमेवमाकाराणीत्युपमा, तथा चाह-सव्वजंबूनदमया' रीयावृत्तिः सर्वासना जम्बूनदमयानि 'अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत् 'महयामहया' इति अतिशयेन महान्ति रथचकसमानानि प्रज्ञप्तानि वर्णन हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि ण'मियादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे 'पाईओ' इति पायौ प्रज्ञप्ने, ताश्च पात्र्यः 'अच्छोदक- उद्देशः१ ॥ २१३॥ पडिहत्थाओ' इति स्वकळपानीयपरिपूर्णाः 'नाणाविहस्स फलहरियस्स बहुपडिपुण्णाओ विवे'ति अत्र षष्ठी तृतीयार्थे बहुवचने स०१३१ चैकवचनं प्राकृतत्वात् , नानाविधैः 'फलहरितैः' हरितफलैर्बहु-प्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, न खलु तानि फलानि जलं वा किन्तु तथारूपाः शाश्वतभावमुपगताः पृथिवीपरिणामास्तत उपमानमिति, 'सम्बरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत् , 'महयामहया' इति अति-18 शयेन महत्यो गोकलिख (र) चक्रसमानाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ सुप्रतिष्ठको आधारविशेषौ प्रज्ञप्ती, ते च सुप्रतिष्ठकाः [सु] सर्वोपधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्णैः प्रसाधनभाण्डेन बहुपरिपूर्णा इस तिष्ठन्ति, अ-IRAL बापि तृतीयार्थे षष्ठी बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , उपमानभावना प्राग्वत् , 'सब्बरयणामया' इत्यादि तथैव ॥ 'तेसि 'मि- 11 त्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे दे मनोगुलिके प्रशन्ने, मनोगुलिका नाम पीठिका, उक्तं च मूलटीकायां-'मनोगुलिका पीठिके"ति, ताश्च मनोगुलिकाः सर्वासना 'वैडूर्यमय्यो' वैडूर्यरात्मिका: 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तासु णं मणोगुलियासु वह २१३॥ भइत्यादि, तासु मनोगुलिकासु बहूनि सुवर्णमयानि रूप्यमयानि च फलकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु सुवर्णरूप्यमयेषु फलकेषु बहवो बनमयाः Jamachar अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [१६९] नागदन्तकाः' अङ्कटकाः प्राप्ताः, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि 'रजतमयानि' रूप्यमयानि सिककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च रजतमयेषु सिककेषु बहवो 'बातकरकाः' जलशून्या: करका इत्यर्थः प्रज्ञाताः ।। 'ते णमित्यादि ते वातकरका: 'कृष्णसूत्रसिकगव-14 स्थिताः' इति, आच्छादनं गवस्था:(ता:) संजाता एबिति गवस्थिताः कृष्णसूत्र:-कृष्णसूत्रमयैर्गवस्यैरिति गम्यते, सिककेपु गवस्थिताः | कृष्णसूत्रसिक्कगवस्थिताः, एवं नीलसूत्रसिककगवस्थिता इत्याद्यपि भावनीयं, ते च वातकरकाः सर्वात्मना वैदूर्यमया अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ।। तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ 'चित्री' चित्रवर्णोपेतावाश्चर्यभूतौ वा रत्नकरण्डको प्रज्ञप्ती, 'से जहा नामए इत्यादि, स यथा नाम-राज्ञश्चतुरन्त चक्रवर्तिनः, चतुर्यु-पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेषु पृथ्वीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्य तस्य 'चित्र' आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानाव? वा 'वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे' इति वाहुल्येन वैडूर्यमणिमयः, तथा 'स्फाटिकपटलप्रत्यवतः स्फाटिकपटलमयाच्छादनः 'साय पभाए' इति स्वकीयया प्रभया 'तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समसन्ततः' सामस्येनावभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-उद्योतयति तापयति प्रभासति, 'एवमेवे'त्यादि सुगमम् ॥ 'तेसि तोरणाण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ 'हयकण्ठी' हयकण्ठप्रमाणौ र अविशेषौ प्रज्ञाप्ता, एवं गजकिनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्व वृषभकण्ठा अपि वाच्याः, उक्कं च मूलटीकायां-"यकण्ठौ हयकण्ठप्रमाणौ रनविशेषी," एवं सर्वेऽपि कण्ठा बाच्या इति, तथा चाह 2-'सव्वरयणामया' सर्वे 'रत्नमयाः' रबविशेषरूपा 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पुष्प चङ्गेयौं प्रज्ञप्ती, एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकचङ्गेयोऽपि वक्तव्याः, एताच सर्वा अपि सर्वात्मना रत्नमयः, 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलकान्यपि द्विद्विसङ्ख्याकानि वाच्यानि ॥ तेसि 'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो । ~437~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [१६९] श्रीजीवा- सिंहासने प्रज्ञाप्ले, तेषां च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुक्तो निरवशेषो वक्तव्यो यावद्दामवर्णनम् ॥'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो प्रतिपत्ती जीवाभि द्वे द्वे 'रूप्यच्छदे' रूप्याच्छादने छत्रे प्रज्ञप्ते, तानि च छचाणि चैडूर्यरत्रमयविमलदण्डानि जाम्बूनदकर्णिकानि 'वज्रसन्धीनि मनुष्या० मलयाग-4 वरनापूरितदण्डशलाकासन्धीनि मुक्ताजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणि-अष्टसहस्रसङ्ख्याका घरका चनशलाका-बरकाश्चनमय्यः श- पिजयद्वारीयावृत्तिःलाका येषु तानि अष्टसहस्रवरकश्चनशलाकानि 'दहरमलयसुगन्धिसम्बोउयसुरहिसीयलच्छाया' इति दर्दर:-चीवरावनद्धं | रवर्णनं कुण्डिकाविभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पका वा ये मलय इति-गलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्सम्बन्धिनः सुगन्धयो गन्धवासास्तद्वत्सर्वेषु उद्देशः१ तुषु सुरभिः शीवला च छाया येषां तानि, तथा 'मंगलभत्तिचित्ता' तेषां अष्टानां मङ्गलानां भक्त्या-विकिटत्या चित्रं-आलेखोसू०१३१ ४ येषां तानि मजलभक्तिचित्राणि, तथा 'चंदागारोवमा' इति चन्द्राकार:-चन्द्राकृतिः स उपमा येषां तानि तथा चन्द्रमण्डलबहूतानीति | भावः ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे चामरे प्राप्ते, तानि च चामराणि 'चंदप्पभवइरवेरुलियनाणामणिरयणखचियदंडा' इति चन्द्रप्रभ:-चन्द्रकान्तो वनं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभव अवैटूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपाश्चित्रा-नानाकारा दण्डा येषां चामराणां तानि तथा, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , तथा 'सुहुमरययदीहवालाओ | इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा, 'संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिकासाओं' इति शङ्ख:-प्रती तोऽको-रत्नविशेषः कुन्देति-कुन्दपुष्पं दकरज:-उदककणा: अमृतमथितफेनपुज:-क्षीरोदजलमथनसमुत्थफेनपुजस्तेषामिव संनिकाश:४ प्रभा येषां तानि तथा, अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्रौ द्वौ 'तैलसमुद्रको' सुगन्धितैलाधारबि शेषौ, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकार्या-तैलसमुद्को सुगन्धितैलाधारी" एवं कोष्ठादिसमुद्रका अपि वायाः, अत्र 50% Rel॥२१४। Jatical अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [१६९] सङ्कहणिगाथा-'तेल्लो कोढसमुग्गा पत्ते चोए य तगर एला य । हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणसमुम्गो ॥१॥" 'सब्बा रयणामया' इति एते सर्वेऽपि सर्वात्मना रनमयाः 'अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत् ।। विजये णं दारे अट्ठसतचकद्धयाणं अट्ठसयं मिगडयाणं अट्ठसयं गरुडझयाणं अट्ठसयं विगद्धयाणं (अट्ठसयं रुरुयज्झयाणं) अट्ठसतं छत्तज्झयाणं अट्ठसयं पिच्छ ज्झयाणं अट्ठसयं सउणि झयाणं अट्ठसतं सीहज्झयाणं अट्ठसतं उसभज्झयाणं अट्ठसत सेयाणं चउबिसाणाणं णागवरकेतृणं एवामेव सपुवावरेणं विजयदारे य आसीयं केउसहस्सं भवतित्ति मक्खायं ॥ विजये णं दारे णव भोमा पण्णत्ता, तेसि णं भोमाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता जाव मणीणं फासो, तेसि णं भोमार्ण उप्पिं उल्लोया पउमलया जाव सामलताभत्तिचित्ता जाव सव्वतवणिजमता अच्छा जाव पडिरूवा, तेसि णं भोमार्ण बहुमज्झदेसभाए जे से पंचमे भोम्मे तस्स णं भोमस्स बहुमझदेसभाए एस्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णते, सीहासणवण्णतो विजयदसे जाव अंकुसे जाय दामा चिट्ठति, तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्व णं विजयस्स देवस्स चउपहं सामाणियसहस्साणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एत्य णं विजयस्स देवस्स चउपहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणा पण्णत्ता, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरस्थिमेणं एत्य ण विजयस्स देवस्स ~439 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३२] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वारवर्णनं उद्देशः१ सू०१३२ ॥२१५॥ दीप अनुक्रम [१७०] अभितरियाए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठण्हं भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणेणं विजयस्स देवस्स मज्झिमियाए परिसाए दसहं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपचत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स बाहिरियाए परिसाए बारसह देवसाहस्सीण वारस भद्दासणसाहस्सीओ पपणत्ताओ। तस्स णं सीहासणस्स पचस्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सत्साह अणियाहिवतीण सत्त भदासणा पण्णत्ता, तस्स णं सीहासणस्स पुरस्थिमेणं दाहिणणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणं एस्थ णं विजयस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाहस्तीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पपणत्ताओ, तंजहा-पुरधिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, एवं चउमवि जाव उत्सरेणं चत्तारि साहस्सीओ. अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पणत्ता ॥ (स०१३२) 'विजयेणं दारे' इत्यादि, तस्मिन् विजयेद्वारे 'अष्टशतम्' अष्टाधिकं शतं 'चक्रध्वजानां' चक्रालेखरूपचिह्नोपेतानां ध्वजानाम् , एवं मृगगरुडरुरुकछत्रपिच्छशकुनिसिंहवृषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजानामपि प्रलोकमतशतमष्टशत वक्तव्यम् , 'एवामेव सपुवावरेणं' एवमेव अनेन प्रकारेण सपूर्वापरेण सह पूर्वैरपरैश्च वर्तत इति सपूर्वापरं सवानं तेन विजयद्वारे 'अशीतम्' अशीयधिक केतुसहस्रं भवतीत्याख्यातं गयाइन्यैश्च तीर्थकृद्भिः ।। 'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्व द्वारस्य पुरतो नव 'भौमानि' विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि तेषां च भीमाना भूमिभागा उल्लोकाच पूर्ववद्वक्तव्याः, तेषां च भौमानां बहुमध्यदेशभागे यत्पश्चमं भौमं तस्य बहुमध्यदेशभागे विजय ॥२१५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् ~440~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३२] द्वाराधिपतिविजयदेवयोग्य सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तस्य च सिंहासनस्य वर्णनं विजयदूष्ण कुम्भारमुक्तादामवर्णनं प्राग्वत् , तस्य च सिंहासनस्य | 'अपरोत्तरस्यां' वायव्यकोणे उत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां च विजयदवस्य संवन्धिनां चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रशतानि, तस्य सिंहासनस्य पूर्वस्याभन्न विजयस्व देवस्य चतसृणामप्रमहिषीणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणपूर्वस्यामानेयकोण इत्यर्थः, अत्र विजयदेवस्य 'अभ्यन्तरपर्षदाम्' अभ्यन्तरपर्षद्रूपाणामष्टानां देवसहस्राणां योग्यानि अष्टौ भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञातानि, तरूप सिंहासनस्य दक्षिणस्वां दिशि अत्र विजयदेवस्य मध्यपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणापरस्यां दिशि नैरतकोण इत्यर्थः अत्र विजयदेवस्य बाह्यपर्पदो द्वादशानां देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञतानि । 'तस्स णं सीहासणस्से'यादि, तस्य सिंहासनस्य पश्चिमायां दिशि | अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धिनां सप्तानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त भद्रासनानि प्रज्ञतानि, तस्य सिंहासनस्य 'सर्वतः' सर्वास | दिक्षु 'समन्ततः सामस्त्येन अत्र विजयस्य देवस्व संबन्धिनां षोडशानामात्मरक्षदेवसहस्राणां योग्यानि पोडश भद्रासनसहस्राणि | प्रजातानि, अवशेषेषु प्रत्येक प्रत्येक सिंहासनमपरिवारं सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनरूपपरिवाररहितं प्रशप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [१७०] विजयस्स णं दारस्स उवरिमागारा सोलसविहेहिं रतणेहिं उवसोभिता, तंजहा-रयणेहिं वयरेहिं वेलिएहिं जाव रिडेहिं ॥ विजयस्स णं दारस्स उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पणत्ता, तंजहा-सोत्थितसिरिवच्छ जाव दप्पणा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । विजयस्स णं % 9 + ~441 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवामि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्तो मनुष्या० | विजयदारवर्णनं उद्देशः१ सू०१३४ [१३३] ॥२१६॥ दीप अनुक्रम [१७१] -RAKASH दारस्स उपि बहवे कण्हचामरज्झया जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। विजयस्स णं वारस्स उप्पि वहवे छत्तातिच्छत्ता तहेव ।। (सू०१३३) विजयस 'मित्यादि, विजयस द्वारस्य 'उवरिमाकारा' इति उपरितन आकार:-उत्तरकादिरूपः पोडशविधै ररुपशोभितः, तद्यथा-रः सामान्यत: कर्केतनादिभिः १ व २ वैडूर्यैः ३ लोहिताक्षैः ४ मसारगलैः ५ हंसगर्भ: ६ पुलकै: ७ सौगन्धिकैः ८ ज्योतीरसै: ९ अद्वैः १० अचनैः ११ रजतैः १२ जातरूपैः १३ अञ्चनपुलकैः १४ स्फटिकैः १५ रिवः १६॥ "विजयस्स ण मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य उपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्र०, तद्यथेला दिना तान्येवोपदर्शयति-'सब्बरयणामया' इत्यादि प्राग्वन् । से केणटेणं मंते ! एवं वदति?-विजए णं दारे २, गोयमा विजए णं दारे विजए णाम देवे महिहीए महजुतीए जाव महाणुभावे पलिओवमद्वितीए परिवसति, से णं तत्थ चउपहं सामाणियसाहस्सीणं च उपहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तहं अणियाणं सत्सहं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए अपणेसिं च बहणं विजयाए रायहाणीए बत्थब्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, से तेणतुण गोयमा! एवं बुचति-विजये दारे विजये दारे, [अदुत्तरं च णं गोयमा! विजयस्स णं दारस्स सासए णामधेजे पण्णत्ते जण्ण कयाइ णस्थि ण कयाइ ण भविस्सति जाव अवट्ठिए णिचे विजए दारे] ॥ (सू०१३४) ॥२१६ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- १' अत्र १ इति निरर्थकम् विजयदेवस्य अधिकार: आरब्ध: ~442~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१३४] -- दीप 'से केणढणं भंते! एवं चुच्चई' इत्यादि प्रशसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गोयमे सादि, गौतम ! विजयेद्वारे विजयो नाम, प्राकृतलादू अव्ययलाग नामशब्दात्परस टावचनस्य लोपस्ततोऽयमर्थ:-प्रवाहतोऽनादिकालसन्ततिपतितेन विजय इति नाना देवः | 'महद्धिकः' महती कद्धिः-भवनपरिवारादिका यस्यासौ महर्दिक: 'महाद्युतिकः' महती गतिः शरीरगता आभरणगता च यस्थासौ। महाधुतिकः, तथा महद् बलं-शारीरः प्राणो यस्य स महावलः, तथा महद् यश:-ख्यातिर्यस्यासौ महायशाः, महेश इत्याख्या-प्रसिद्धियस्य स महेशाख्यः, अथवा ईशनमीशो भावे घप्रत्ययः ऐश्वर्यमित्यर्थः ईश ऐश्वर्य' इति वचनात् तत ईशनमैश्वर्य आत्मनः ख्याति अन्त-1 भूतण्यर्थतवा स्यापयति-प्रथयति यः स ईशाख्यः महांश्वासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, कचिन् 'महासोक्खें' इति पाठस्तत्र महत् सौख्यं प्रभूतसद्वेयोदयवशाद् यस्य स महासौख्यः पल्योपमस्थितिक: परिवसति, स च तत्र चतुर्णी सामानिकसहस्राणां चतनृणामप्रमहिषीणां | सपरिवाराणां प्रत्येकमेकैकसहस्रसयपरिवारसहितानां तिसृणां अभ्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाणां यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहस्रसङ्घयाकानां पर्षदां सप्तानामनीकानां-हयानीकगजानीकरथानीकपदात्यनीकमहिपानीकगन्धर्वानीकनाट्यानीकरूपाणां समानामनीकाधिपतीनां घोडशानामामरक्षसहस्राणां विजयस्य द्वारस्य विजयाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां च 'आहेवश्चंति आधिपत्यम् अधिपतेः कर्म आधिपत्यं रक्षा इत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनाप्यारक्षकेणेव क्रियते तत आह-पुरस्म पतिः पुरपतिस्तस्य कर्म पौरपत्यं सर्वेषामोसरत्वमिति भावः, तथाप्रेसरखं नायकत्वमन्तरेणापि स्वनायकनियुक्ततथाविधगृहचिन्तकसामान्यपुरुषस्येव (स्यात्) ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह--'स्वामित्वं खमस्यास्तीति स्वामी तद्भावः स्वामित्वं नायकल मित्यर्थः, तदपि च नायकलं कदाचित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणवूधाधिपतेर्हरिणख लत आह-भर्तृत्व-पोषकलं 'शुन् धारणपोषणयोः' अनुक्रम [१७२]] जी०व०३७ ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- इति वचनात् , अत एव महत्तरकवं, तदपि चेह महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि भवति यथा कस्यचिद्वणिजः स्वदासदासीवर्गप्रतिपत्ती जीवाभि० प्रति तत आह–'आणाईसरसेणावच्चं' आज्ञया ईश्वर आलेश्वर: सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिश्च आशेश्वरसे- मनुष्या० मलयगि- नापतिस्तस्य कर्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं स्वसैन्य प्रत्यद्भुतमाज्ञाप्राधान्यमिति भावः 'कारयन्' अन्यैर्नियुक्तैः पुरुषैः पालयन् स्वयमेव, महता विजया रीयावृत्तिःतारवेणेति योग: 'अय'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धानि यदिवा 'अहतानि' अव्याहतानि नित्यानि नित्यानुवन्धीनीति भावः, ये नाट्यगीते राजधानी नाट्य-गृत्यं गीत-गानं यानि च वादितानि 'तन्त्रीतलतालत्रुटितानि' तबी-वीणा तली-हस्ततली ताल:-कंसिका त्रुटितानि-बा-1 उद्देशः२ ॥२१७॥ वित्राणि, तथा यश्च घनमृदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्र घनमूबनो नाम धनसमानध्वनिर्यो मृदङ्गस्तत एतेषां द्वन्द्वनेपा खेण 'दि-1161 सू०१३५ दाव्यान्' प्रधानान् भोगाहा भोगा:-शब्दादयो भोगभोगास्तान् मुखान: 'विहरति आस्ते 'से एएणद्वेण मित्यादि, तत एतेन 'अर्थेन। कारणेन गौतम! एवमुच्यते-विजयद्वार विजयद्वारमिति, विजयाभिधानदेवस्वामिकलाद् विजयमिति भावः ।। कहिणं भंते ! विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी पण्णता?, गोयमा! विजयस्स गंदारस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेल्ने दीवसमुद्दे वीतिवतित्ता अण्णमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी प० पारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसजोयणसहस्साई नव य अडयाले जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्वेवेणं पण्णत्ते ॥ सा णं एगेणं पागारेणं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ से णं पागारे ॥२१७॥ सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं च उहूं उच्चत्तेणं मूले अहतेरस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झेस्थ [१७२] 1964X64K 1-04-04-4 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजया राजधानी-वर्णनम् ~444~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - ---- -- प्रत सूत्रांक [१३५] दीप अनुक्रम [१७३] KARANG सकोसाई छजोयणाई विश्वंभेणं उपि तिणि सद्धकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं मूले विच्छिपणे मझे संखिचे उप्पि तणुए बाहिं बड़े अंतो चउरंसे गोपुच्छसंठाणसंठिते सव्यकणगामए अच्छे जाव पहिरवे ।। से णं पागारे णाणाविहपंचवण्णोहिं कविसीसएहिं जवसोभिए, तंजहा-किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं । ते णं कविसीसका अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसताई विखंभेणं देसोणमद्धकोर्स उखु उच्चत्तेणं सब्वमणिमया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ विजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए पाहाए पणुवीसं पणुवीसं दारसतं भवतीति मक्खायं ॥ ते ण दारा बावढि जोयणाई अद्धजोयणं च उई उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विखंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेता बरकणगथूभियागा ईहामिय तहेव जधा विजए दारे जाव तवणिजवालुगपत्थडा सुहफासा सस्सि(म)रीए सरूवा पासातीया४। तेसि णं दाराणं उभयपासिं दुहतो णिसीहियाए दो बंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ तहेव भाणियब्वं जाव वणमालाओ ॥ तेसि णं दाराणं उभओ पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णत्ता, ते णं पगंठगा एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं पन्नरस जोयणाई अह्राइजे कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ता सब्बवइरामया अच्छा जाव पटिरूवा । तेसि णं पगंठगाणं उप्पि पत्तेयं २ पासायवसिगा पण्णत्ता ॥ ते णं पासायवडिंसगा एकतीसं जोयणाई कोसं च उ8 उच्चत्तेणं पन्नरस जोषणाई अड्डाइजे य कोसे आयामवि ~445 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4 पर श्रीजीवाजीवाभि प्रत सूत्रांक [१३५] मलयगिरीयावृत्तिः ॥२१८॥ दीप अनुक्रम [१७३] क्वंभेणं सेसं तं चेव जाव समुग्गया णवरं बहुवयणं भाणितव्वं । विजयाए णं रायवाणीए ए- प्रतिपत्तौ गमेगे दारे अट्ठसयं चकज्झयाणं जाव अट्ठसत सेयाणं चउविसाणाणं णागवरकेऊणं, एवामेव मनुष्या० स पुव्यावरण विजयाए रायहाणीए एगमेगे दारे आसीतं २ केउसहस्सं भवतीति मक्खायं ॥ बि विजयाजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे (तेसि णं दाराणं पुरओ) सत्तरस भोमा पपणसा, तेसिणं राजधानी भोमाण (भूमिभागा) जल्लोया (घ) पउमलया० भत्तिचित्ता ॥ तेसि णं भोमार्ण बहुमज्झदेस- उद्देशः२ भाए जे ते नवमनवमा भोमा तेसि भोमाणं वहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ सीहासणा पण्णत्ता, सू०१३५ सीहासणवण्णओ जाच दामा जहा हेट्ठा, एत्थ णं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णता । तेसि णं दाराणं उत्तिम (उबरिमा) गारा सोलसविधेहिं रयणेहिं उवसोभिया तं चेव जाव छत्ताइछत्ता, एवामेव पुब्वावरेण विजयाए रायहाणीए पंच दारसता भवंतीति मक्खाया ॥ (सू०१३५) 'कहि णं भंते ! विजयस्से यादि, क भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम! विजयस्यद्वारस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यग् असाधेयान् द्वीपसमुद्रान् 'व्यतित्रज्य' अतिक्रम्य अत्रान्तरे योऽन्यः जम्बूद्वीपः अधिकृतद्वीपतुल्याभि १ पृत्तिफारा अतिविशन्ति तोरण याविगाथात्रयं सूत्रादर्शगत पर न काप्यादर्शन दस्यत इद, अनेकेषु च स्थानेदेतिकारप्राप्तानागादशांनाभिदानी-17 |न्तनप्राप्यादानी च परस्पर भिमतमत्वात, सूत्रस्योपैचिश्यं न च वाश उपलभ्यते आदर्श इति निरुपाया वयं सत्रयोरेकनीफरणे. अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३५ ] दीप अनुक्रम [१७३] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ ( मूलं + वृत्ति:) ------ उद्देशकः [ ( द्वीप समुद्र ) ], - मूलं [ १३५] प्रतिपत्तिः [३], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः धानः, अनेन जम्बूद्वीपानामप्यसङ्ख्येयत्वं सूचयति तस्मिन् द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्रान्तरे विजयस्य देवस्य योग्या विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता मया शेषैश्व तीर्थकृद्भिः सा च द्वादश योजनसहस्राणि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्भाभ्यां सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि नव शतानि 'अष्टाचत्वारिंशानि' अष्टचत्वारिंशदधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विक्संभवरगदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होई' इति करणवशात्स्वयमानेतव्यम् ॥ 'सा 'मित्यादि, 'सा' विजयाभिधाना राजधानी णमिति वाक्यालङ्कारे एकेन महता प्राकारेण 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन परिक्षिप्ता || 'से ण'मित्यादि, | स प्राकार: सप्तत्रिंशतं योजनानामर्द्धयोजन मूर्द्धमुचैस्त्वेन मूलेऽर्द्धत्रयोदश योजनानि विष्कम्भेन मध्ये पड् योजनानि सक्रोशानि-एकेन | क्रोशेनाधिकानि विष्कम्भेन उपरि त्रीणि योजनानि सार्द्धक्रोशानि [योजनानि] सार्द्धानि द्वादश अर्द्धक्रोशाधिकानि (द्वादश) विष्कम्भेन, मूळे विस्तीर्णो मध्ये संक्षिप्तो, मूलविष्कम्भतोऽर्द्धस्य बुद्धितत्वात् उपरि तनुको, मध्य विष्कम्भादप्यर्द्धस्य त्रुटितत्वात् बहिर्वृत्तोऽन्तश्चतुरस्रो 'गोपुच्छसंस्थानसंस्थितः' ऊर्द्धाकृतगोपुच्छसंस्थानसंस्थितः 'सन्त्रकणगमए' सर्वासना कनकमयः 'अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ॥ 'से णमित्यादि, स प्राकारो नानाविधानि च तानि पञ्चवर्णानि च नानाविधपश्यवर्णानि तैः नानाविधवं च पथावर्णपेक्षया कृष्णादिवर्णतारतम्यापेक्षया वा द्रष्टव्यं पञ्चवर्णत्वमेवोपदर्शयति- 'किण्हेहिं' इत्यादि । 'ते णं कविसीसगा' इत्यादि, तानि कपिशीवैकाणि प्रत्येकमर्द्धकोशं धनुःसहस्रप्रमाणमायामेन देर्येण पञ्च धनुःशतानि 'विष्कम्भेन' विस्तारेण, देशोनमर्द्ध कोश मूर्द्धगुचैस्लेन 'सव्वमणिमया' इत्यादि सर्वासना मणिमया 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'विजयाए णं रायहाणीए' इत्यादि, विजयाया राजधान्या एकैकस्यां बाहायां पञ्चविंशं पञ्चविंशत्यधिकं द्वारशवं २ प्रज्ञतं सर्वसया पश्च द्वारश्वानि । 'ते णं दारा' For P&Pealise Cinly ~ 447~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३५ ] दीप अनुक्रम [१७३] [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / १ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशक : [ ( द्वीप समुद्र)], • मूलं [ १३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगियावृत्तिः ॥ २१९ ॥ ७ इत्यादि, तानि द्वाराणि प्रत्येकं द्वाषष्ट्रियोजनानि अर्द्धयोजनं चोर्द्धमुनैस्त्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भतः, 'तावइयं चेव पवेसेणं' एतावदेव एकत्रिंशद् योजनानि कोशं चेत्यर्थः प्रवेशेन, 'सेया वरकणगथूभियागा' इत्यादि द्वारवर्णनं निरवशेषं ताव| द्वक्तव्यं यावद्वनमालावर्णनम् || 'तेसि णं दाराण'मित्यादि तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनैपेधिकीभावेन 'द्विधातो' द्विप्रकारायां नैपेधिक्यां द्वौ द्वौ 'प्रकण्ठकौ' पीठविशेषौ प्रज्ञप्तौ ते च प्रकण्ठकाः प्रत्येकमेकत्रिशतं योजनानि कोशमेकं च आयासविष्कम्भाभ्यां पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान बाहल्येन 'सब्ववइरामया' इति सर्वाना ते प्रकण्ठका वज्ररत्नमयाः 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ॥ 'तेसिं पगंठगाणमित्यादि तेषां प्रकण्टकानामुपरि प्रत्येकं 'प्रासादावतंसकः' प्रासादविशेषः प्रज्ञप्तः ॥ 'ते णं पासायवडेंसगा' इत्यादि ते प्रासादावतंसका एकत्रिशतं योजनानि कोशं चैकभूर्द्धमुचैस्त्वेन पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान आयामविष्कम्भाभ्यां तेषां च प्रासादानाम् 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविव' इत्यादि सामान्यतः खरूपवर्णनम् उल्लोकवर्णनं मध्यभूमिभागवर्णनं सिंहासनवर्णनं विजयदृष्यवर्णनं मुक्तादामोपवर्णनं च विजयद्वारवत् शेषमपि तोरणादिकं बिजयद्वारवदिमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यं, ता एव गाथा आह-'तोरणे'त्यादि गाथात्रयं, द्वारेषु प्रत्येकमेकैकस्यां नैपेधिक्यां द्वे द्वे तोरणे वक्तव्ये, ते षां च तोरणानामुपरि प्रत्येकमष्टावष्टौ मङ्गलकानि तेषां तोरणानामुपरि कृष्णचामरध्वजादयो ध्वजाः, तदनन्तरं तोरणानां पुरतः शालभजिकाः तदनन्तरं नागदन्तकास्तेषु च नागदन्तकेषु दामानि ततो हयसङ्घटादयः साटा वक्तव्याः ततो यपङ्कयादयः पङ्कयस्तदनन्तरं यत्रीच्यादयो बीथयस्ततो यमिथुनकादीनि मिथुनानि ततः पद्मलतादयो लताः ततः 'सोत्थिया' चतुर्दिकसौवस्तिका वक्त व्यास्ततो बन्दनकलशास्तदनन्तरं भृङ्गारकास्तत आदर्शकास्ततः स्थाठानि ततः पायस्तदनन्तरं सुप्रतिष्ठानि ततो मनोगुलिकास्तासु For P&False Cly ~448~ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजया राजधानी उद्देशः २ सू० १३५ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ॥ २१९ ॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: --- - - प्रत सूत्रांक [१३५] - दीप अनुक्रम [१७३] %A5%25 'वातकरका' बातभृताः करका वातकरका जलशून्या इत्यर्थः, तदनन्तरं चित्रा रखकरण्डकास्ततो हरकण्ठा गजकण्ठा नरकण्ठाः, | उपलक्षणमेतत् किनकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभकण्ठकाः क्रमेण वक्तव्याः, तदनन्तरं पुष्पादिचोयों वक्तव्यास्ततः पुष्पादिपटल कानि वतः सिंहासनानि तदनन्तरं छत्राणि ततश्चामराणि ततस्तैलादिसमुद्ग का वक्तव्यास्ततो ध्वजाः, तेषां च ध्वजानामिदं चरमसूत्रम्'एवामेव सपुत्वावरेणं विजयाए रायहागीए एगमेगंसि दारंसि असीयं असीयं के उसहस्सं भवतीति मक्खाय' तदनन्तरं भौमानि वक्तव्यानि, तत्सूत्रं साक्षादुपदर्शयति-'तेसि णं दाराण'मित्यादि, तेषां द्वाराणां पुरतः सप्तदश सप्तदश भौमानि प्रहप्तानि, तेषां च भौमाना भूमिभागा उल्लोकाश्च प्राग्यद्वक्तव्याः ॥ 'तेसि णं भोमाण मित्यादि, तेषां च भौमानां बहुमभ्यदेशभागे यानि नवमनवमानि भौमानि तेषां बहुमध्यदेशभागेषु प्रत्येकं विजयदेवयोग्यं (सिंहासनं यथा ) विजयद्वारपञ्चमभौमे किन्तु सपरिवार सिंहासनं वक्तव्यम् , अवशेषेषु च भौमेषु प्रत्येक सपरिवार सिंहासनं प्राप्तं, 'तेसि गं दाराणं उचरिमागारा सोलसबिहेहिं रयणेहिं उबसोभिता' इत्यादि प्राग्वत् ॥ विजयाए णं रायहाणीए चउहिसिं पंचजोयणसताई अबाहाए, एस्थ णं चत्तारि वणसंडा पपणत्ता, तंजहा-असोगवणे सत्सवण्णवणे चंपगवणे चूतवणे, पुरस्थिमेणं असोगवणे दाहिणे] सत्तवण्णवणे पञ्चत्थिमेणं चंपगवणे उत्तरेणं चूतवणे ॥ ते णं वणसंडा साइरेगाई दुवालस जोयणसहस्साई आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किपहा किण्होभासा वणसंडवण्णओ भाणियब्वो जाच बहवे याणमंतरा देवा य देवीओ य CA % 3 ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रत सूत्रांक [१३६] -- ४३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनषण्डाधि० | उद्देशः२ ॥१२॥ सू०१३६ दीप आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीदति तुयति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिकताणं सुभाणं कम्मार्ण कडाणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ॥ तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिसगा पण्णता, ते णं पासायवर्डिसगा बावहिजोयणाई अड्जोयणं च उहूं उचसेणं एकतीसं जोयणाई कोसंच आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गतमूसिया तहेव जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पणत्ता उल्लोया पउमभत्तिचित्ता भाणियव्वा, तेसि णं पासायवडेंसगाणं बहमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता वण्णावासो सपरिवारा, तेसि णं पासायवडिंसगाणं उपि वहये अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तत्थ णं चत्तारि देवा महिहीया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तंजहा-असोए सत्तवपणे चंपए चूते ॥ तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं सार्ण परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवचं जाब विहरति । विजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव पंचवपणेहिं मणीहिं उवसोभिए तणसहवितणे जाव देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरति । तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते पारस जोयणसयाई आयामक्खिंभेणं तिन्नि जोयणसहस्साई अनुक्रम [१७४] --MAC-ACC का॥२२०॥ - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~450~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३६] CROSAXERCAtt दीप अनुक्रम [१७४] सत्त य पंचाणउते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं अद्धकोसं वाहल्लेणं सब्बर्जबूणतामतेणं अच्छे जाव पडिरूवे ॥ से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते पउमवरवेतियाए वण्णओ वणसंडवपणओ जाब विहरंति, से गं वणसंडे देसणाई दो जोयणाई चक्कवालबिक्वंभेणं ओवारियालयणसमपरिक्वेवणं ॥ तस्स णं ओवारियालयणस्स चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वपणओ, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता छत्तातिछत्ता ॥ तस्स णं उवारियालयणस्स उपि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पपणते जाव मणीहिं जबसोभिते मणिवण्णओ, गंधरसफासो, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं मूलपासायवडिंसए पण्णत्ते, से णं पासायवडिसए पावढि जोयणाई अदजोयणं च उड़े उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्रमेणं अन्भुग्गयमूसियप्पहसिते तहेव तस्स णं पासायवसिगस्स अंतो बहसमरमणिजे भूमिभागे पपणत्ते जाच मणिफासे उल्लोए ॥ तस्स गं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्सदेसभागे एत्य णं एगा महं मणिपेढिया पन्नत्सा, सा च एग जोयणमायामधिक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सब्वमणिमई अच्छा सण्हा । तीसे णं मणिपेडियाए उरि एगे महं सीहासणे पन्नत्ते, एवं सीहासणवपणओ सपरिवारो, तस्स णं पासायडिंसगस्स उपि बहवे अमंग kakk4%95-%25 ~451~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रत सूत्रांक [१३६] - प्रतिपत्ती मनुष्या वनपण्डा घि उद्देशः२ ॥२२१॥ - - दीप अनुक्रम [१७४] &00% लगा झया छसातिउत्ता ।। से णं पासायवडिंसए अण्णेहि चउहिं तदडुचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवसिएहिं सब्यतो समंता संपरिस्वित्ते, ते पां पासायवर्डिसगा एकतीसं जोयणाई कोसं च उई उच्चत्तेणं अद्धसोलसजोषणाई अदकोसं च आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गत सहेव, तमिणं पासायचडिंसयाण अंतो बहुसमरमणिजा भूमिभागा उल्लोया ।तेसि गं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं यहुमजप्रदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणं पपणतं, वण्णओ, तेसिं परिवारभूता भद्दासणा पण्णता, तेसि णं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ ते णं पासायडिंसका अपणेहिं चाहिं चउहिं तददुपत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसरहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ता ।। ते णं पासायवसका अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं च उई उच्चत्तेणं देमृणाई अह जोयणाई आयामयिक्खंभेणं अभुग्गय तहेव, तेसि पासायवडेंसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उलोया, तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहमझदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पउमासणा पनत्ता, तेसि णं पासायाणं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ ते णं पासायब.सगा अपणेहिं चउहिं तददुचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायव.सएहिं सव्वतो समंता संपरिक्वित्ता ॥ ते णं पासायबडेसका देसूणाई अट्ट जोयणाई उई उच्चत्तेणं देसूणाईचत्सारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं अभुग्गत भूमिभागा उल्लोया भद्दासणाई उवरिं मंगलगा झया छत्तातिछत्ता, ते णं पासायव - -- - - |२२१॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~452~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३६] kikik४% दीप अनुक्रम [१७४] हिंसगा अण्णेहिं चाहिं तदडुचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडिसएहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ता । तेणं पासायवडिंसगा देमूणाई चत्तारि जोयणाई उई उच्चत्तेणं देसूणाई दो जोयणाई आयामविखंभेण अन्भुग्गयमृसिया भूमिभागा उल्लोया पउमासणाई उवरि मंगलगा झया छत्ताइच्छत्ता ।। (सू०१३६) विजयाए णं रायहाणीए' इत्यादि, विजयाया राजधान्या: 'चउदिसिमिति चतस्रो दिशः समाहुताश्चतुर्दिक तस्मिन् चतुदिशि-चतसृषु दिक्षु पञ्च पञ्च योजनशतानि 'अवाहाए' इति वाधनं बाधा-आक्रमणं तस्यामवाधान्यां कृलेति गम्यते, अपान्तबारालेषु मुक्लेति भावः, चत्वारो वनखण्डाः प्रज्ञप्ताः, 'तद्यथें त्यादि, तानेव वनपण्डान् नामतो दिग्भेदतश्च दर्शयति, अशोकवृक्षप्रधान वनमशोकवनम् , एवं सप्तपर्णवनं चम्पकवनं चूतवनमपि भावनीयं, 'पुठवण असोगवण मित्यादिरूपा गाथा पाठसिद्धा (अन्न तुन)। 'ते। पण वणसंडा' इत्यादि, ते वनखण्डा: सातिरेकाणि द्वादश योजनसहस्राण्यायामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेन प्रत्येक प्रज्ञप्ताः प्रत्येक प्राकारपरिक्षिप्ताः, पुनः कथम्भूतास्ते वनषण्डाः ? इत्यादि पद्मबरबेदिकाबहिर्वनपण्डवत्ताबविशेषेण वक्तव्यं यावत् 'तत्व णं बहवे बाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाब विहरंति' | 'तेसि णमित्यादि, तेषां वनपण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रासादावतंसकाः प्राप्ताः, ते च प्रासादावतंसका द्वाषष्टियोजनान्यद्धयोजनं चोई मुजैस्लेन एकत्रिंशतं योजनानि कोशं च विष्कम्भेन 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविव' इत्यादि प्रासादावतंसकानां वर्णनं निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावत्तन्त्र प्रत्येकं सिंहासनं सपरिवार । 'तत्व ण मित्यादि, तेपु वनपण्डेपु प्रत्येकमेकैकदेवभावेन चलारो देवा महर्द्विका यावत् 'महजुइया महायला महायसा महासोक्खा महाणु SA ~453~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपक्षी मनुष्या० प्रत सूत्रांक [१३६] धिक उद्देशः२ सू०१३६ दीप अनुक्रम [१७४] श्रीजीया भावा' इतिपरिपहः पल्योपमस्थितिका: परिवसन्ति, तथधा-'असोए' इत्यादि, अशोकपनेऽशोकः सप्तपर्णवने सप्तपर्णः चम्पकवने जीवाभि चम्पक: चूतवने चूत: ।। 'तेसि ण'मि(तत्थ ण ते इ) त्यादि, ते अशोकादयो देवास्तस्य बनखण्डस्य स्वस्व प्रासादावर्तसकस, सूत्रे मलयगि- बहुवचनं प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि वचनव्यत्ययो भवतीति, स्वेषां स्वेषां सामानिकसहस्राणां स्वास स्वासामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां स्वास रीयावत्तिःत स्वासां पर्षदा खेपां खेषामनीकानां (अनीकाधिपतीनां) स्वेषां वेषागालरक्षकाणाम् आहेवचं पोरंवच मित्यादि प्राग्यन् ।। 'विजयाए ण मित्यादि, विजयाया राजधान्या अन्तर्वहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा इत्यादि वर्णनं प्राग्वत् ॥२२२॥ निरवशेष ताबद्वक्तव्यं यावन्मणीनो स्पर्शः, तस्य च बहुसभरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अन्न महद् एकमुपकारिका लयनं प्रशतं, राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीन उपकरोति-उपष्टनातीत्युपकारिका-राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीनां आपीठिका, अन्यत्र त्वियमुपकार्योपकारकेति प्रसिद्धा, उक्तञ्च-गृहस्थानं स्मृतं राज्ञागुपकार्योपकारका" इति, उपकारिकालयनमिव ४ उपकारिकालयनं तद् द्वादश योजनशतानि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्भाभ्या, त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त योजनशतानि पञ्चनवतानि-पञ्चनवत्यधिकानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञाप्तानि, परिक्षेपपरिमाणं चेदं प्रागुक्तकरणवशात्स्वयमानेतव्यम् , अर्द्धकोशं-धनुःसहस्रपरिमाणं वाहल्येन 'सव्यजंवूणयामए' इति सामना जाम्बूनदमयम् , 'अच्छे इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ।। से ण'मित्यादि, 'तद्' उपकारिकालयनम् एकया पदावरवेदिकया तत्पृष्ठभाविन्या एकेन च वनपण्डेन 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः सानरत्येन संपरिक्षितं, पदावरवेदिकावर्णको वनषण्डवर्णकः प्राग्वन्निरवशेषो वक्तव्यो यावत् 'तत्थ बहये वाणमंतरा देवा काय देवीको यासयंति सयंति जाव विहरति' इति ॥ 'तस्स णमित्यादि, तस्य उपकारिकालयनस्य 'चउदिसिं'ति चतुर्दिशि चतसृप MIL॥२२२॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: रु प प्रत सूत्रांक [१३६] -- दीप अनुक्रम [१७४] विश्व एफैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि प्रजातानि, विसोपानवर्णकः | पूर्ववद्वक्तव्यः, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येक प्रत्येक तोरणं प्रज्ञप्तं, तेषां च तोरणानां वर्णनं प्राग्वद्वक्तव्यम् ।। 'तस्स | ४णमियादि, तस्य' उपकारिकालयनस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहानाभए' इत्यादि भूमिभागवर्णनं प्राग्व तावद्वालयं यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽन्न महानेको मूलप्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, स च द्वापष्टियोजनानि अर्थ 'प योजनमूडमुच्चस्त्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि कोशं चायागविष्कम्भाभ्याम , 'अन्भुम्गयमूसियपहसिया-1 विवेत्यादि, तस्य वर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनं सिंहासनबर्णनं शेषाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूनानि विजयद्वारबहि:स्थितप्रासादबद्भावनीयानि ।। 'तस्स 'मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महती एका मणिपीठिका प्राप्ता, सा चैक योजनमायामविष्कम्भाभ्यामईयोजन बाहल्येन मवमणिमयी' इति सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा सहा' इत्यादि विशेषणकदम्यक प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि, तम्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेक सिंहासनं प्रज्ञान, तस्य च सिंहासनस्य परिवारभूतानि शेषाणि भद्रासनानि प्राग्वद्वक्तव्यानि ।। से णमित्यादि, स च मूलपासादावतंस कोऽन्यैश्चतुभिर्मूलप्रासादावतंसकैस्तदशिवप्रमाणमात्रै:-भूलपासादावतंसकाोश्चत्वप्रमाणैः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षितः, तदोषत्वप्रमाणमेव दर्शयति-एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं चैकमूर्द्धमुस्खेन, पश्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान आयामविष्कम्माभ्यां, सेपामपि 'अभुग्गयमूसियपह सियाविधे'त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्येभूमिभागवर्णनगुल्लोकवर्णनं च प्राग्वन् । 'तेसि णमित्यादि, तेषां प्रासादावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं | सिंहासन प्रज्ञप्तं, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं प्राग्वत् , नवरमन सिंहासनानां शेषाणि परिवारभूतानि न वक्तव्यानि ॥ 'ते णं पासा । ------- -- - ~455~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३६] प्रतिपत्ती मनुष्या० सभावर्णनं उद्देशः२ सू०१३६ दीप अनुक्रम [१७४] श्रीजीवा- यवडेंसया' इत्यादि, ते प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोचलप्रमाणमात्रै:-मूलपासादावतंसकपरिवारभूतप्रासादाव- जीवाभि.1 तंसकार्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैर्मूलप्रासादापेक्षया चतुर्भागमात्रप्रमाणैरित्यर्थः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिताः, तदोषत्वप्रमाणमेव दर्शयति मलयगि- 161-'ते णमित्यादि, ते प्रासादावतंसकाः पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्न क्रोशान ऊर्द्ध मुस्त्वेन देशोनानि अष्टौ योजनानि आया- रीयावृत्तिः समविष्कम्भाभ्यां, सूत्रे च 'आवामविखंभेणंति एकवचनं समाहारविवक्षणान् , एवमन्यत्रापि भावनीयम् , एतेषामपि 'अब्भुग्गयमू- ।। २२३॥ सिये'त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्येभूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनं च प्राग्वत् केवलमत्रापि सिंहासनमपरिवारं वक्तव्यम् ॥ ते णमित्यादि, सेऽपि प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादांवतंसकैतदद्धचिप्रमाणमात्रैः-अनन्तरोक्तशसादावतंसका चलप्रमाणेदिलासादापेक्षयाऽष्टभागमात्रप्रमाणैरित्यर्थः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, तदेव तदद्धचित्तप्रमाणमात्रमुपदर्शयति-ते ण'मित्यादि, ते प्रासादावतंसका देशोनानि अष्टी योजनानि ऊर्द्धमुजैस्वेन देशोनानि चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां तेषामपि 'अन्नग्गयमू सियपहलियाविवेत्यादि स्वरूपादिवर्णनमनन्तरमासादावतंसकवन् ।। (एतयोः सूत्रयोर्मूल पाठो न दृश्यते) ते णमित्यादि, तेऽपि च प्रासादादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदचिखप्रमागमात्रै:-अनन्तरोक्तप्रासादावतंसकाद्धचिलप्रमाणमात्रैर्मूलपासादावसंसकापेक्षया पोडशभागप्रमाणमात्ररित्यर्थः सर्वतः समन्ततः संपरिक्षिमाः, तोचलप्रमाणमेव दर्शयति-'ते णमित्यादि, ते प्रासादावतंसका देशोनानि चत्वारि योजनान्यूर्द्ध मुचैस्त्वेन देशोने द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां नेपामपि स्वरूपवर्णनं मध्येभूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनं च परिवारवर्जितं प्राग्वन् , तदेवं चतस्रः प्रासादावतलकपरिपाट्यो भवन्ति, कचित्तिा एव दृश्यन्ते न चौँ । -- ॥२२३॥ rimary अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~456~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: N A 04-4-% प्रत सूत्रांक .-- -- monane 10-2.70- [१३७] दीप तस्सणं मूलपासायव.सगस्स उत्तरपुरस्थिमे णं एस्थ णं विजयस्स देवस्स सभा सुधम्मा पाणशा अद्धत्तेरसजोयणाई आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विश्वंभेणं णव जोयणाई उहं उच्चतेणं, अणेगखंभसतसंनिविट्ठा अन्भुग्गयसुकयवहरवेदिया तोरणवररतियसालभंजिया सुसिलिडविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्यवालियविमलखंभा णाणामणिकणगरयणखड्यउजलबहसमसुबिभत्तचित्त(णिचिय)रमणि नकुहिमतला ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिपणररुरुसरभचमरकुंजरवण लयपउमलयभत्तिचित्ता थंभुग्गयवइरवेझ्यापरिगयाभिरामा विज़ाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव अचिसहस्तमालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणी भिभिसमाणी चक्खुलोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणधूभियागा नाणाबिहपंचवषणघंटापडागपडिमंडिलग्गसिहरा धवला मिरीइकवचं विणिम्नुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरतचंदणदद्दरदिनपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपटियारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवद्वग्धारियमलदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिता कालागुरुपवर कुँगुरुकतुरुकधूवमघमतगंधुडुयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवद्विभूया अच्छरगणसंघसंविकिला दिब्बतुडियमधुरसद्दसंपणादया सुरम्मा सब्बरयणामती अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तीसे णं सोहम्माए सभाए तिदिसि तओ दारा पपणत्ता॥ ते दारा पत्तेयं पत्तेयं - it -- अनुक्रम [१७५] -- T same -- Jace सुधर्मा-आदि सभाया: वर्णनम् ~457~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२२४ ॥ प्रतिपत्तो मनुष्या० सभावर्णन उद्देशः२ सू०१३७ दीप अनुक्रम [१७५] दो दो जोयणाई उई उचलणं एम जोयगं विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेण सेया वरकणगधूभियागा जाव धणमालावारवाओ। तेसिणं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णसा, ते णं मुहमंडवा अद्धतेरसजोवणाई आयामेणं छजोषणाई सक्कोसाई विक्वं नेणं साइरेगाई दो जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं मुहमंडवा अणेगवंभसयसंनिविट्ठा जाव उल्लोया भूमिभागवणओ ॥ तेसि णं मुहमउवाणं उवरिं परतेयं पशेयं अह मंगला पणत्ता सोस्थिय जाच मच्छ०॥ तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ पसेयं परोयं पेच्छाघरमंडबा पाणसा, ते णं पेच्छाघरमंडवा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं जावदो जोयणाई उखु उच्चसणं जाय मणिकालो।लेसियामझदेसभाए पलेयं पत्तेयं वइरामयअक्वाडगा पपणसा, लेसिणं पहरामयाणं अक्वाडगाणं परमज्झदेसभाए पत्तेयं रमणिपीडिया पण्णता, ताओ णं मणिपीडियाओ जोयणमेगं आयामविखंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सब्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूदाजो॥ तासिणं मणिपीढियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पणत्ता, सीहासणवणओ जाय दामा परिवारो।तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं उपि अट्ठमंगलगा सया छत्सातिछत्तानेशिक पेच्छाघरनंडवाणं पुरतो तिदिसि तओ मणिपेढियाओ पं०ताओ णं मणिपेढियाओदो जोयणाई आयामविखंभेणं जोयणे बाहल्लेणं सबमणिमतीओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ॥ तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चेझ्यथूभा पपणत्ता, ते णं चेइयधूभा 62- ॥२२४॥ 4 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] CARRC- RRC दीप दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं सातिरेगाई दो जोयणाई उई उच्चत्तेणं सेया संखंककुंददगरयामयमहितफेणपुंजसपिणकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि जे चेयथूभाणं उप्पिं अट्ठह मंगलगा यहुकिपहचामरझया पण्णता छत्तातिछत्ता । तेसि णं चेतियथूभाणं चउद्दिसिं पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि मणिपतियाओ प०, ताओ णं मणिपेडियाओ जोयर्ण आयामविक्खंभेणं अद्वजोयणं बाहल्लेणं सबमणिमईओ ॥ तासि गं मणिपीढियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओ पलियंकणिसण्णाओ धूभाभिमुहीओ सन्निविडाओ चिट्ठति, तंजहा-उसभा बदमाणा चंदाणणा वारिसेणा ॥ तेसि णं चेतियथूभाणं पुरतो तिदिसि पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओ पन्नत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ दो दो जोयणाई आयामविखंभेणं जोयणं पाहणं सव्वमणिभईओ अच्छाओ लण्हाओ साहाओ घट्टाओ महाओ णिप्पंकाओणीरयाओ जाव पडिरुवाओ । तासि णं मणिपेढियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं चेइयाक्वा पण्णत्ता, ते णं चेतियरक्ला अट्ठजोयणाई उहूं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उब्वेहेणं दो जोयणाई खंधी अडजोयणं विक्खंभेणं छजोयणाई विडिमा बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई अजोयणाई सञ्चग्गेणं पणत्ताई। तेसि णं चेयरुक्खाणं अयमेतारूवे वपणावासे पण्णसे, तंजहा-बहरामया मूला रययसुपतिहिता विडिमा रिट्ठामयविपुल अनुक्रम [१७५] ~459~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: I 25%- प्रत सूत्रांक [१३७] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० सभावर्णन उद्देशा २ सू०१३७ Re- 4 --- ॥२२५॥ - कंदवेलियातिलग्बंधा सुजातरूवपढमगविसालसाली नाणामणिरयणविविधसाहप्पसाहबेरुलियपत्ततवणिजपत्तवेंटा जंयूणयरत्तम उयसुकुमालपवालपल्लवसोभंतवरंकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया सप्पमा समिरीया सउज्जोया अमयरससमरसफला अधियं णयणमणणिब्युतिकरा पासातीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूया ॥ ते णं चेझ्याक्खा अन्नेहिं बहहिं तिलयलवयछत्तोवगसिरीससत्तवन्नदहिवनलोधवचंदणनीवकुडयकयंयपणसतालतमालपियालपियंगुपारावयरायरक्स्वनंदिरुक्वेहिं सव्वओ समता संपरिक्वित्सा ॥ ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवंतो कन्दमंतो जाव सुरम्मा ॥ तेणं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नेहिं यहहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्सा, ताओ णं पउमलयाओ जाव सामलयाओ निच्चं कुसुमियाओ जाव पडिस्याओ ।। तेसि णं चेतियरुक्वाणं उप्पि बहवे अवमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरतो तिदिसि तओ मणिपेढियाओ पपणत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्यमणिमतीओ अच्छा जाव पडिरुवाओ ॥ तासि गं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं माहिंदझया अट्ठमाई जोयणाई उई उच्चत्तेणं अद्धकोसं उब्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वइरामयवलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपतिहिता विसिद्धा अणेगवरपंचव दीप अनुक्रम [१७५] + - -- ॥२२५॥ -- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~460~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक ---- [१३७] SANKRASACRICA दीप पणकुटभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा बाउडुयविजयवेजयंतीपडागा छत्तातिछत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाणसिहरा पासादीया जाय पडिरूवा ॥ तेसि णं महिंदज्झयाणं उपि अट्टहमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं महिं दज्झयाणं पुरतो तिदिसि नओ गंदाओ पुक्यरिणीओ पं० ताओ णं पुक्खरिणीओ अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं सकोसाइंछ जोयणाई विखंभेणं दसजोयणाई उब्बेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणीवण्णओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेड्यापरिक्वित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंरपरिक्खित्ताओ वण्णओ जाव पडिरुवाओ॥ तेसिणं पुक्खरिणीणं पत्तय तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा पं०. तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्ण ओ, तोरणा भाणि यव्वा, जाव छत्तातिच्छत्ता सभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलिसाहस्सीओ प. पणताओ, तंजहा-पुरस्थिमे णं दो साहस्सीओ पचत्थिमेणं दो साहस्सीओ दाहिणणं एगसाहस्सी उत्तरेणं एगा साहस्सी, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुचण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवष्णरुप्पामएसु फलगेसु बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णसा, तेसु णं वहरामएसु नागदंतरसु बहवे किण्हसुत्तवट्टयग्घारितमल्लदामकलावा जाव सुकिलवद्वग्धारितमल्लदामकलावा, ते णं दामा तवणिजलंबूसगा जाव चिट्ठति ॥ सभाए णं मुहम्माए छगोमाणसीसाहस्सीओ पपणत्ताओ तंजहा-पुरत्थिमेणं दो साहस्सीओ, एवं पञ्चस्थिमेणवि दाहिणणं सहस्सं एवं - k अनुक्रम [१७५] ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥२२६॥ । 0-51 दीप अनुक्रम [१७५] उत्तरेणवि, तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुवपणाप्पमया फलगा पं० जाव तेसु णं बहरामएसु ३ प्रतिपत्ती नागदंतएम बहवे रयतामया सिकना पणत्ता, तेसु णं रयतामएसु सिकासु षहवे वेरुलि- मनुष्या० यामईओ धूवघडिताओ पण्णत्ताओ, ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरकुंदरूकतुरुक्क जाव सभावणेनं घाणमणणिज्युहकरेणं गंधेणं सव्वतो समंता आपूरेमाणीओ चिट्ठति। सभाए णं सुधम्माए अंतो उद्देशा२ बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो उल्लोया पउमलयभत्तिचित्ता जाव सब्य सू०१३७ तवणिजमए अच्छे जाव पडिरुचे॥ (सू०१३७) 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य 'उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोण इत्यर्थः, अत्र' एतस्मिन् भागे विजयस्य देवस्य योग्या है। सभा सुधर्मा नाम विशिष्टच्छन्दकोपेता साऽर्द्ध त्रयोदशयोजनान्यायामेन षट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन नव योजनानि ऊर्द्ध मुच्चैस्वेन 'अणेगे'त्यादि अनेफेपु स्तम्भशतेषु सन्निविष्ठा अनेकस्तंभशतसन्निविष्ठा 'अब्भुग्गयसुकयवरवेझ्या तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिडविसिहलहसंठियपसत्थवेरुलियविमलखंभा' अभ्युद्गता-अतिरमणीयतया द्रष्टणां प्रत्यभिमुख मुन्-प्राबल्येन सिता मुफ्तेव |सुकृता निपुणशिल्पिरचितेवेति भावः, अभ्युद्गता चासौ सुकृता च अभ्युद्गतसुकृता वनवेदिका-द्वारमुण्डकोपरि यसरनमयी वेदिका तोरणं |चाभ्युद्गतमुकृतं यत्र सा तथा, तथा बराभिः-प्रधानाभिः रचिताभि:-विरचिताभिः रतिदाभिर्वा सालभन्जिकाभिः सुशिष्टा--संबद्धा विशिष्टं-प्रधान लष्टं-मनोज्ञं संस्थित-संथानं येषां ते विशिष्टलष्टसंस्थिताः प्रशस्खा:-प्रशंसास्पदीभूता वैडूर्यस्तम्भाः -वैडूर्यरत्नमया:४॥२२६॥ स्तम्भा अवां सा वररचितशालभजिकामुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितप्रशस्तवैदूर्यस्तम्भा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तथा नानामणिकन श JE अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~462~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 8. % प्रत सूत्रांक - [१३७] दीप करत्नानि खचितानि यत्र स नानागणिकनकरत्नखचितः, निष्ठान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात, नानागणिकनकरत्नखचितः उ-151 दावलो-निर्मलो बहुसम:-अत्यन्तसमः सुविभक्तो निचितो-निविडो रमणीयश्च भूमिभागो यस्यां सा नानामणिकनकरत्नखचितोज्न लबहुसगसुविभक्त (निचितरमणीय) भूमिभागा ईहामिगउसहतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता' इति तथा स्तम्भोद्गतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या वनवेदिकया-वचरत्नमय्या येदिकया परिगता सती याऽभिरामा सम्भोगत-16 वनवेदिकापरिगताभिरामा विज्ञाहर जमलजुगलजंतजुत्ताविध अविसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिबा मिसमाणा मिम्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा' इति प्राग्वन् 'कंचणमणिरयणथूभियागा' इति काञ्चनमणिरजानां स्तूपिका-शिखरं यस्याः | सा काभानमणिरजस्तूपिकाका 'नाणाबिहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियगसिहरा' नानाविधाभिः-नानाप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाभिः | लापताकाभिश्च परि-सामन्त्येन मण्डितमपशिखरं यस्याः सा नानाविधपश्चवर्णघण्टाचताकापरिमण्डितायशिखरा 'धवला' श्वेता मरीचिकवचं-किरणजालपरिक्षेपं विनिर्मुश्चन्ती 'लाउल्लोइयमहिया' इति लाइयं नाम यद् भूमेोमयादिना उपलेपनम् उल्लोइयं-कुव्यानां मालस्य च सेटिका विभिः संमृष्टीकरणं लाउल्लोइयं वाभ्यामिव महिता-पूजिता लाउलोइयम हिता, तथा गोशीर्षेण-गोशीर्ष-| नामचन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन दईरेण-पहलेन चपेटाकारण या दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका यत्र सा गोशीर्षकसरसरतचन्दनद-1 दरदत्तपमाङ्गुलितला, तथा उपचिता-निवेशिता बन्दनकलशा-मङ्गलकलशा वस्था सा उपचितवन्दनकळशा 'चंदणघडकयतो | रणपडिदुवारदेसभागा' इति चन्दनवटैः-चन्दनकलशैः सुकृतानि-मुटु कृतानि शोभनानीति तात्पर्यार्थः यानि तोरणानि तानि चन्दनघटमुकतानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभागे यस्यां सा चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागा, तथा 'आसत्तोसत्तववग्धारिय - अनुक्रम [१७५] -- -- - ~463~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] श्रीजीवा- जीवाभि मलयाग- रीयावृत्तिः ॥२२७॥ दीप मालदामकलावा' इति आ-अवा अधोभूमौ सक्त आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊ सक्त उत्सक्त:-जहोचतले उपरिसंवद्ध इत्यर्थः, ३ प्रतिपत्ती विपुलो-विस्तीर्ण: वृत्तो-वर्तुल: 'वग्धारिय' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलाप:-पुष्पमालासमूहो यस्यां सा आसक्तोत्सतविपुलवृत्तव- मनुष्या० पारितमाल्यदामकलापा, तथा पञ्चवर्णेन सरसेन-सच्छायेन सुरभिणा मुक्तेन-भितेन पुष्पपुजलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलिला प- सभावर्णनं चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुजोपचारकलिता 'कालागुरुपवर कुन्दुरुकतुरुकधूवमघमतगंधुदुयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवटि- उद्देशः२ भूया' इति प्राग्वन् , 'अच्छरगणसंघसंविकिण्णा' इति अप्सरोगणानां सङ्घः-समुदायस्तेन सम्यग-रमणीयतया विकीर्णा-याता सू०१३७ |'दिन्बतुडियसहसंपणादिया' इति दिव्यानां त्रुटिताना-आतोद्यानां वेणुवीणामुनादीनां ये शब्दात: सम्यक्-श्रोत्रमनोहारितया | प्रकर्षेण नादिता-शब्दवती दिव्यत्रुटितसंप्रणादिता 'अच्छा सहा जाव पहिरूबा' इति प्राम्बत् ।। 'तीसे गं सभाए णमित्यादि, सभायाः सुधर्माया: 'त्रिवि शि' तिसपु विक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, सयथा-एक पूर्व स्वामेकं दक्षि-15 गस्यामेकमुत्तरभ्याम् ।। 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि प्रत्येकं प्रत्येक वे द्वे योजने कई मुञ्चैस्वेन योजनमेकं विष्कम्भेन 'ताव | इयं चेवेति योजनमेकं प्रवेशेन 'सेवा बरकणगथूमियागा' इत्यादि प्रागुक्तं द्वारवर्णनं तदेतावद्भक्तव्यं यावद्धनमाला इति ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येक मुखगण्डपः प्रज्ञमः, ते च मुखमण्डपा अर्द्धत्रयोदश योजनानि आयामेन, पड् योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन, सातिरेके द्वे योजने कई मुञ्चैस्त्वेन, एतेषामपि 'अणेगखंभसयसन्निविट्टा' इत्यादि वर्णनं सुधर्मायाः सभाया इब निरवशेष द्रष्टव्यं, तेषां मुखमण्डपानामुल्लोकवर्णनं बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं च यावन्मणीना स्पर्शः प्राग्वन् । 'तेसि १ ॥२२७॥ ण मित्यादि, तेषां मुखमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि-खस्तिकादीनि प्रशतानि, तान्येवाह-तंजहे'त्यादि, एतच विशेषणं अनुक्रम [१७५] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- द्वीप-समुद्राधिकार -समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~464~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] दीप मासुधर्मासभाया अपि द्रष्टव्यम् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां मुखमण्डपानां पुरत: प्रत्येकं २ प्रेक्षागृहमण्डपः प्रज्ञप्तः, तेऽपि च प्रेक्षागृह मण्डपा अर्बत्रयोदश योजनान्यायामेन, सकोशानि धड़ योजनानि विष्कम्भेन, सातिरेके वे योजने कई मुजैस्पेन, प्रेक्षागृहगण्डपानां च भूमिभागवर्णनं पूर्ववत्तावद्वाक्यं यावन्मणीनां स्पर्शः।। तेसि णमित्यादि, तेषां च यहुसमरमणीयानां भूमिभागागा बहुमध्यदेशभागे। प्रत्येक प्रत्येक बनमयः 'अक्षपाटक: चतुरस्राकारः प्रज्ञप्तः, तेषां चाक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक मणिपीठिकाः प्रायाः, ताश्च मणिपीठिका योजनमेकमायामविच्कम्भाभ्यामईयोजनं वाहत्येन 'सब्वमणिमईओ' इति सर्वासना मणिमय्यः 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ।। 'तासि णमित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक सिंहासन प्रज्ञतं, तेषां च सिंहासनाना। वर्णनं परिवारश्च प्राग्वद्वक्तव्यः, तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, कृष्णचामरध्वजादि | च प्राग्वद्वक्तव्यम् ॥ 'तेसि ण मित्यादि, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीठिकाः प्रशताः, ताश्च मणिपीठिका: - | त्येक द्वे द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनगेकं बाहल्येन सर्वात्मना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्यन् ॥ 'तासि जमित्यादि। | तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक चैत्यस्तूपाः प्रज्ञताः, ते च चैत्यस्तूपाः सातिरेके द्वे योजने ऊर्द्धमुस्त्वेन द्वे योजने आया- II भविष्कम्भाभ्यां शाकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुसंनिकाशा: सर्वात्मना रनमया अच्छाः लक्ष्णा इत्यादि प्राग्वन् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, नेषां चैत्यस्तूपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि यहवः कृष्णचामरयजा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां प्रत्येक प्रत्येक 'चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिकाः प्राप्ताः, ताश्च मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भाभ्याम योजनं वाहल्येन सर्वासना मणिमय्य: अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तासि णमित्यादि, अनुक्रम [१७५] ॐ ~465 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४] उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] प्रतिपनी मनुष्या० समावर्णन सू०१३७ दीप अनुक्रम [१७५] श्रीजीवा- दातासां मणिपीठिकानामुपरि एकैकस्या मणिपीठिकाया उपरि एककप्रतिमाभावेन चतसो जिनप्रतिमा जिनोत्सेधः-स्कर्पतः पञ्च धनु:- तासां मणिपीठिकानामुपरि एकैकस्या मणिपीठिकाया उपरि एक जीवाभि० शतानि जघन्यतः सप्त हस्ता:, इह तु पञ्च धनुःशतानि संभाव्यन्ते, 'पलियंकनिसन्नाओ' इति पर्यङ्कासननिषण्णाः स्तूपाभिमुख्य- मलयगि ४ स्तिष्ठन्ति, तद्यथा-पमा बर्द्धमाना चन्द्रानना वारिपेणा ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां पुरत: प्रत्येक प्रत्येक मणिपीठिका: प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका द्वे द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं वाहत्येन सर्वोत्मना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्रापत तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक चैत्यवृक्षाः प्राप्ताः । ते चैत्यवृक्षा अष्टौ योजनान्यूद्धमुरुत्वेन अयोजनमुत्सेधेन उण्डत्वेन ॥२२८॥ योजने उच्चस्त्वेन स्कन्धः स एवाई योजनं विष्कम्भेन यावद्वहुमध्यदेशभागे जद्धी विनिर्गता शाखा सा विडिमा सा पड़ योजनान्यूद्ध मुञ्चैस्त्वेन, साऽपि चाई योजनं विष्कम्भेन, सर्वाग्रेण सातिरेकाण्यष्टौ योजनानि प्रज्ञमः । तेषां च चैत्यपृक्षाणामयमेतद्पो वर्णावासः ग्रामः, तद्यथा-'वइरामया मूला रययसुपइडिया विडिमा' वाणि--वरत्नमयानि मूलानि येषां ते पत्रमूलाः, तथा रजता रजतमयी सुप्रतिष्ठिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे अर्द्ध विनिर्गता शाखा येपां ते रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयससमासः, 'रिहमयकंदवेरुलियरुचिरखंधी' रिखमयो-रिष्ठरत्रमयः कन्दो येषां ते रिठरत्नमयकन्दाः, तथा वैडूर्यो-वैडूर्यरत्रमयो रुचिर: स्कन्धो येषां ते तथा, तत: पूर्वपदेन कर्मधारयसमासः, 'सुजायवरजायरूवपढमगविसालसाला मुजातं-मूलद्रव्यशुद्धं वरं--प्रधानं| | बज्जातरूपं तदात्मका प्रथमका-मूलभूता विशाला शाला-शाखा येषां ते सुजातवर जातरूपप्रथमकविशालशाला: 'नानामणिरयणविवि-118 हसाप्पसाहबेरुलियपत्ततवणिज्जपत्तवेंटा' नानामणिरत्नानां नानामणिरजालिका विविधा: शाखा: प्रशाखाश्च येषां ते तथा, वैडूर्याणि- वैडूर्यमयानि पत्राणि येषां ते तथा, तथा तपनीयानि-तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि येषां ते तथा, ततः पूर्ववत्पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्म KAR २२० IN X rayam सा अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार -समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~466~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] दीप धारयः, जाम्बूनदा-जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्ता-रक्तवर्णा मृदबो-मनोज्ञाः सुकुमारा:-सुकुमारस्पी ये प्रवाला-ईपदुम्मीलितपत्रभाषाः पहवा:-संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा बरारा:-प्रथममुद्भिद्यमाना अडरास्तान् धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमृदुसुकुमार-1 प्रवालपल्लबारधराः, कचित्पाठः 'जंबूणयरत्तमध्यसुकुमालकोमलपवालपबङ्करग्गसिहरा' तत्र जाम्बूनदानि रक्तानि मृदूनि-अकठिनानि सुकुमाराणि-अकर्कशस्पर्शानि कोमलानि-मनोज्ञानि प्रवालपल्याङ्कुरा:-यथोदितस्वरूपा अप्रशिखराणि च येषां ते तथा 'विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरेण नमियसाला विचित्रमणिरत्नानि-विचित्रमणिरत्नमयानि यानि सुरभीणि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिता-नाम प्राहिताः शाला:--शाखा येषां ते तथा, सती-शोभना छाया येषां ते सच्छायाः, तथा सतीशोभना प्रभा-कान्तिर्येषां ते सत्प्रभाः, सह उद्द्योतेन वर्तन्ते मगिरजानामुद्द्योतभावात् सोयोताः, अधिक-अतिशयेन नयनमनोनिवृतिकरा:, अमृतरससमरसानि फलानि येषां ते अमृतरससमकला: पासाईया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ।। 'ते ण चेह-| यरुक्खा' इत्यादि, ते चैत्यवृक्षा अन्यैर्बहुभितिलकलवङ्गत्रोपगशिरीपसप्तपर्णदधिपर्णलोधवचन्दननीपकुटजकदम्बपनसतालतमा| लप्रियालप्रियङ्गपारापतराजवृक्षनन्दिवृक्षः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिताः ॥ 'ते णं तिलगा' इत्यादि, ते तिलका यावन्नन्दिवृक्षा मूलवन्तः कन्दवन्त इत्यादि वृक्षवर्णनं प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावदनेकशकटरथयानशिविकास्यन्दमानिकाप्रतिमोचनासुरभ्या इति ।। 'ते णं तिलगा' इत्यादि, ते तिलका यावन्नन्दिपक्षा अन्याभिर्वहुभिः पद्मलताभिन गलताभिरशोकलताभिश्चम्पकलताभिधूतलताभिर्वनलताभिर्वासन्तिकालताभिरतिमुक्तकलताभिः कुन्दलताभिः श्यामलताभिः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, ताओ णं पउमलयाओ जाव सा-/ मलयाओ निचं कुसुमियाभो' इत्यादिलतावर्णनं वावद्वक्तव्यं यावत् 'पडिरूबाओं' इति, व्याख्या चास्य पूर्ववत् ।। 'तेसि 'मित्यादि, अनुक्रम [१७५] * . जीच०३९ ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/१ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] दीप श्रीजीवा- तेषां चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि पूर्ववत्तावक्तव्यं यावद्यः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्न- प्रतिपत्ती जीवाभि मया यावत्प्रतिरूपका इति ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां चैत्यवृक्षाणां पुरतः प्रत्येक प्रत्येक मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्व मणिपीठिका मनुष्या० मलयगि-18 योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन सर्वासना मणिमय्यः, अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तासि णमित्यादि, तासां मणिपी- | सुधर्मारीयावृत्तिः है| ठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः, ते च महेन्द्रध्वजा 'अर्द्धाष्टमानि' सार्दानि सप्त योजनान्यूईमुस्लेन, अर्द्धकोश- सभाव० धनु:सहस्रप्रमाणमुद्वेधेन, अर्द्धकोश-धनु:सहस्रप्रमाणं 'विष्कम्भेन' विस्तारेण, 'वइरामयवट्टलहसंठियसुसिलिङपरिघट्टमहसुपइडिया' उद्देशः२ ॥२२९॥ | इति बज़मया-वजरत्नमया: तथा वृत्त-वर्तुलं लटुं-मनोहं संस्थितं-संस्थानं येषां ते वृत्तलष्टसंस्थिताः, तथा सुनिष्टा यथा भवन्ति एवं सू०१३७ परिघृष्टा इव खरशानया पाषाणप्रतिमेव सुनिष्टपरिपृष्टाः मृष्टाः सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठिता मनागप्यचलनात् 'अणे-| गवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा' अनेकवरैः-प्रधानैः पञ्चवर्णैः कुडभीसहरः-लघुपताकासहसैः परिमण्डिताः सतोऽभिरामा अनेकवरपञ्चवर्णकुडभीसहस्रपरिमण्डिताभिरामा: 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा पासाईया जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां महेन्द्रध्वजानामुपरि अपावष्टौ मङ्गल-14 कानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि पूर्ववत् सर्व वक्तव्यं यावद्यः सहसपत्रकहतका इति ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां महेन्द्रध्वजानां पुरत: प्रत्येकं प्रत्येक 'नन्दा' नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्रज्ञप्ता, 'अर्द्धत्रयोदश' सार्दानि द्वादश योजनानि आयामेन, पद योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन, दश योजनान्युवेधेन-उण्डलेन, 'अच्छाओ सहाओ रययमयकूडाओ' इत्यादि वर्णनं जगत्युपरि- ॥२२९ ॥ पुष्करिणीवभिरवशेष वक्तव्यं यावन् 'पासाईयाओ उद्गरसेणं पन्नताओं' ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येक २ पावरवेदिकया प्रत्येक.२|| 8494 अनुक्रम [१७५] 9425 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- द्वीप-समुद्राधिकार -समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] 44 विनषण्टेन च परिक्षिताः, तासां च नन्दापुष्करिणीनां विदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि तेषां च वर्णन सोरणवर्णनं च प्रा ग्बत् ॥ 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायां पड़ (मनो) गुलिकासहस्राणि प्रज्ञापानि, तद्यथा-द्वे सहने पूर्वस्वा | दिशि द्वे पश्चिमायामेकं सहस्र दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यामिति, एतासु च फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत् ।। 'सभाए णं सुह-/ म्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायां षड् गोमानसिका:-शय्यारूपाः स्थानविशेषास्तासां सहस्राणि प्रशतानि, तद्यथा-वे सहसे पूर्वस्यां | दिशि द्वे पश्चिमायामेकं दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यामिति, तास्वपि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं धूपचटिकावर्णनं च विजयद्वारबन् । 'सभाए| *णं सुहम्माए' इत्यादि उहोकवर्णनं 'सभाए णं मुहम्माए' इत्यादि भूमिभागवर्णनं च प्राग्वन् । तस्स णं थहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्य णं एगा महं मणिपीडिया पण्णत्ता, सा णं मणिपीढिया दो जोयणाई आयामविश्वंभेणं जोयणं थाहल्लेणं सम्वमणिमता ॥ तीसे गं मणिपीदियाए उपि एत्थ णं माणवए णाम चेइयग्वंभे पपणत्ते अट्ठमाई जोषणाई उई उनसेणं अडकोसं उब्वेहेणं अद्धकोसं विश्वंभेणं छकोडीए छलंसे छविग्गहिते वइरामयवद्दलदृसंठिते, एवं जहा महिंदज्झयस्स वणओ जाव पासातीए ॥ तस्स णं माणवकस्स चेतियखभस्स उरि छकोसे ओगाहित्ता हेहावि छक्कोसे वजेत्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एस्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पं०, तेसु णं सुवण्णरूप्पमएसु फलएसु बहये वइरामया णागर्दता पण्णत्ता, तेसु णं बहरामएसु नागदंतरसु बहवे रययामता सिकगा पण्णत्ता ॥ तेसु णं रपयाम र दीप अनुक्रम [१७५] 82%---- 4X4%9-06-0-0-165*4 % ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % % % प्रत सूत्रांक [१३८] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः % ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० |माणवकस्तम्भदेवशयनीयव. उद्देशः २ - ॥२३॥ -TE सू०१३८ दीप अनुक्रम [१७६] यसिक्कएस बहवे वइरामया गोलबद्दसमुन्गका पण्णता, तेसु णं बहरामएसु गोलबद्दसमुग्गएम यहवे जिणसकहाओ संनिक्वित्ताओ चिटुंति, जाओ गं विजयस्स देवस्स अण्णसिं च पहणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य अवणिजाओ वंदणिजाओ पूयणिजाओ सकारणिजाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासणिजाओ। माणवस्स णं चेतियखभस्स उबरिं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिउत्ता ॥ तस्स णं माणवकस्ल चेतियखंभस्स पुरच्छिमेणं एस्थ णं एगा महामणिपेढिया पं०, माणं मणिपेटिया दो जोषणाई आयामविखंभेणं जोयणं वाहल्लेणं सबमणिमई जाव पडिरूवा। तीसे णं भणिढियाए उपि एत्थ ण एगे महं सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवपणओ॥ तस्स णं माणवगस्स चंतियखंभस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं मणिपेरिया पं० जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं पाहल्लेणं सय्यमणिमती अच्छा ।। तीस पं मणिपेढियाए उपि एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णते, तस्स णं देवसयणिजस्स अयमेयारूवे वण्णावास पण्णते, तंजहा-नाणामणिमया पडिपादा सोवणिया पादा नाणामणिमया पायसीसा जंबूणयमयाई गत्ताई वइरामया संधी णाणामणिमते चिचे रइयामता तृली लोहियक्खमया विन्योयणा तवणिजमती गंडोवहाणिया, सेण देवसयणिजे उभओ थियोयणे दुहओ उण्णए मस्रणयगंभीरे सालिंगणवट्टीए गंगापुलिणवालुउद्दालसालिसए ओतवितखो AKE --- -- ॥२३०॥ R अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- द्वीप-समुद्राधिकार एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~470~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: %254 - प्रत सूत्रांक [१३८] मदुगुलपट्टपडिच्छायणे सुविरचितरयत्ताणे रत्तंसुवर्सवुते सुरम्मे आईशग समयूरणवणीचनूलफासमउए पासाईए॥ तस्स गं देवसयणिजस्स उत्तरपुरस्थिमे गं एस्थ णं महई एगा मणिपीठिका पण्णता जोयणमेगं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं पाहलेणं सबभगिमई जाव अच्छा ।। नीसे णं मणिपीढियाए उवि एणं महं खुए महिंदज्झए पपणते अट्ठमाई जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं अद्धकोसं उब्बेघेणं अद्धकोसं विश्व मेणं वेरुलियामयवद्दलढसंठिते तहेव जाव मंगला प्रया छसानिछत्ता।। तस्स णं खुहमहिंदज्झयस्स पचत्यिमेणं गत्थ णं विजयस्स देवस्स चुप्पालए नाम पहरणकोसे पण्णत्ते । तत्थ णं विजयस्स देवस्स फलिहरयणपामोक्खा बहवे पहरणरयणा संनिक्खित्ता चिट्ठति, उजलसुणिसियसुनिक्खधारा पासाईया || तीसे णं सभाए सुहम्माए उप्पि वहवे अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ।। (सू०१३८) 'तस्स णं बहुसमरमणीयस्स भूमिभागस्से'त्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्थ भूमिभागस्य वहुमध्यदेशभागे, अत्र महती एका| मणिपीठिका प्रज्ञता, द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यामेकं योजनं बाहल्लेन सामना मणिमयी 'अच्छा' इत्यादि प्राग्बन् । 'तीसे द्रोणमित्यादि, तस्वा मणिपीठिकाया उपरि महानेको माणवकनामा चैत्यस्तम्भः प्रज्ञप्तः, अष्टिमानि-साद्धीनि सप्त योजनान्यूज भुस्खेन अ कोश-धनु:सहस्रमानमुद्वेधेन, अर्द्धकोश विष्कम्भेन पडनिक:-पटकोटीकः पडिहिक: 'बदरामयवट्टलट्ठसंठिए' इत्यादि महेन्द्रध्वज-1 वद् वर्णनमशेषगस्यापि तावद्वक्तव्यं यावद् पहयो सहस्सपत्तहत्यगा सम्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा' इति ॥ 'तस्स ण'मि 4% 82-%E4 दीप अनुक्रम [१७६] - - --- 6-4-%ाव % ~471~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] श्रीजीवा- त्यादि, तस्य माणवकस्य चैलयस्तम्भस्योपरि षट् क्रोशान अवगाहा उपरितनभागात् षट् कोशान् वर्जविवेति भावः, अधस्तादपि षट्प्र जीवाभि० क्रोशान् वर्जयित्वा मध्येऽर्बपञ्चमेषु योजनेषु बहरे 'मुवष्णरूप्पमया फलगा' इत्यादिफलकवर्णनं नागवन्तवर्णनं सिकगवर्णनं च प्रा- मलयगि- ग्वत् ।। 'तेसु णमित्यादि, तेघु रजतमयेषु सिक्केषु बहवो बसमया गोलवृत्ताः समुद्रकाः, तेषु च बनमयेषु समुद्रकेषु बहूनि जिनस- रीयावृत्तिः थीनि संनिक्षिमानि तिष्ठन्ति यानि विजयस्य देवस्थान्येषां च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चार्चनीयानि चन्दनतः वन्दनीयानि स्तुत्यादिना पूजनीयानि पुष्पादिना माननीयानि बहुमानकरणत: सत्कारणीयानि पनादिना कल्याण मङ्गलं दैवतं चैत्यमितिबुद्धया ॥ २३१॥ पर्युपासनीयानि ।। 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य माण्णवकम्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वम्यां दिशि अत्र महतोका मणिपीठिका प्रज्ञता, योजनमेक- मायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन सर्वासना मणिमयी 'अगछा' इत्यादि प्राग्वन् । 'तीसे ण'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाबा| उपरि अन्न महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं तद्वर्णनं शेषाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूतानि प्राम्यन् ।। 'तस्स ण'मियादि, तस्य मागव नामश्चैत्यस्तम्भस्य पश्चिमायां दिशि अत्र महत्वका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, एक योजनमायामविष्कम्भाभ्याग योजनं बाहस्पेन 'सञ्चहै। मणिमयो' इत्यादि प्राग्वन् । 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं (देव) शयनीयं प्रज्ञानं, तस्य च देवशयनीयपायायमेतद्रपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तपथा-नानामणिमया: प्रतिपादा:-मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः प्रतिपादाः 'सौवर्णिकाः' सुवर्णमया: 'दादा' मूलपानाः, जाम्बूनदमवानि गात्राणि-ईपादीनि बसमया बनरअपूरिताः सन्धयः, नानामणिमये चिच्चे' इति चिनं नाम न्युनं वानमियर्थः, नानामणिमयं मयुतं-विशिष्टवानं रजलमयी नृली लोहिताश्मयानि 'विब्बो- यणा' इति उपधानकानि, आह च मूलटीकाकार:-विबोयणा-उपधानकानि उच्यन्त" इनि, तपनीयमय्यो गण्डोपधानकाः ।। तिपत्ती मनुष्या० माणवकस्तम्भदेवशयनीयव. उद्देशः २ सू०१२८ दीप अनुक्रम [१७६] % ॥२२१॥ Jnts अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~472~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१६] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१४], उपांगसूत्र- [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] दीप अनुक्रम [१७६] से णं देवसयणिज्जे' इत्यादि, तद् देवशयनीयं 'सालिङ्गनवर्तिक' सह आलिङ्गनवा -दारीरप्रमाणेनोपधानेन यद् तत्तथा 'उ-11 भओवियोयणे' इति उभयतः--उभौ-शिरोऽन्तपादान्ताबाश्रिय विनोयो-उपधाने यत्र तद् उभयतोवियोवणं 'दुह तो उन्नते' इति । उभयत उन्नत माझेणयगंभीरे' इति, मध्ये च ननं निम्न त्वाद् गम्भीरं च महत्वात् नतगम्भीर गङ्गापुलिनपालुकाया अबदालो-विवलनं पाहादिन्यासेऽयोगमन मिति भावः तेन 'सालिसए' इति सशकं गङ्गापुलिनचालुकाबदालमर्श तथा 'ओयविय' इति विशिष्ट परिकर्मितं क्षौम-कार्पासिकं दुकलं-वयं तदेव पटु ओय विपक्षीमढुकूलपट्टः स पहिलादनं-आच्छादनं यस्य सत्तधा. 'आईणगरू-14 रायबरनवणीयतुलफासे' इति प्राग्वत् , 'रमुयसंवुए' इति रक्तांशुकेन संवृतं रक्तांशुसंवृतम् , अन एक सुरम्यं 'पासाइए' इत्यादि | पदचतुष्टयं प्राग्वन ।। 'तस्स णमित्यादि. तस्य देवशयनीयम् उत्तरपूर्वम्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं वाहल्येन 'सत्रमणिमयी अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि. तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र क्षुल्लको महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः, तस्य प्रमाणं च वर्णकञ्च महेन्द्रवजवक्तव्यः । 'तस्स णमित्यादि, तस्य क्षुल्लकस्य महेन्द्रध्वजस्य पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धी महान एकचोप्पालो नाम 'प्रहरणकोशः' प्रहरणस्थानं प्रज्ञानं, किंविशिष्टमित्याहसिचाइरामए अच्छे जाव पडिरूवे' इति सावत् ।। 'तत्य णमित्यादि, तत्र चोप्पालकाभिधाने प्रहरणकोशे यहूनि परिधरजप्रमुहखाणि प्रहरणरत्नानि संक्षिप्रानि तिष्ठन्ति, कथम्भूनानीयत आह-उज्जवलानि-निर्मलानि सुनिशितानि-अतितेजितानि अत एव तीक्ष्णधाराणि प्रासादीवानीत्यादि प्राग्वत ।। 'तीसे गं सभाए' इत्यादि. तस्याः सुधर्मायाः सभाया उपरि बहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि, इत्यादि सर्व प्राग्वत्तावक्तव्यं यावदहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरन्नमया अच्छा यावरप्रतिरूपाः ॥ 2- 4 भाग जीवाजीवाभिगम -उवंगसूत्र [३/१] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) । ~473~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? ___इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ | 05 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान-१ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण | 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. | 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. | 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. | 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वत्ति. | 16 | आगम९४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मुलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत) सूत्र-१ से १३८ | 17 | आगमा४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण | 18 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मुलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ | 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मुलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ | 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण | 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ૪૮૮ ४२६ ५१४ ३३६ ६१० ~474 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम | आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.. | आगम१८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. 24 | आगम१८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. | 25 | आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. 26 | आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पृष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ____ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया 27 | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, निर्यक्ति- ५२२ से ९५१ 30 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण) 31 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] 32 | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. 33 | आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. 34 | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 | आगम ४३ उत्तराध्यन मुलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन-१ से ५ | 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१ | 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. | 39 | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ ५२८ ५६० ३९४ ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः आगम [14/1] पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधितः संपादितश्च “जीवाजीवाभिगम (उपांगसूत्र” -३/१ ) [ मूलं एवं मलयगिरि-प्रणित वृत्तिः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) मु दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “जीवाजीवाभिगम” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्तः “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि” श्रेणि, भाग- 16 ~476~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਮਨ ਗੁਰ ਸ ਹ ਕ ਤ ਸ ਹਾਹਾਕ ਭਾਸ਼ ਸ਼ ਜੰਗ ਸ ਰ ਗ ਰ ਗ ਸ ਸ आगम वाचना शताब्दी वर्ष ਸਹਸ ਸ ਰ ਕ ਬਹੁਲ ਗਤ ~ 477 ~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम SECTIO आजमा आजम नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि मूल संशोधक STEE 121 आजम पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज Sur अभिनव संकलनकर्ता ~ 478~ आजम SHIONT BUDICE आगर 3170THE आगम दिवाकर मुनिश्री दीपत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम प्रत- प्राप्ति और पेज- सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता ICDAY OFF OF OF ~ 479~ श्री आगम मंदिर • पालिताणा Holi Outl Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म आजम आगम आगम आगमा आप आजम आजमा मूल संशोधक मूल सशाधकामयाजामा पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आम आजम आगम आगम आगम आगम आगम 14 “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं वृत्ति: [1] | आगमन आगम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम ~480~