Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्रज्ञापनासूत्र (14) एकसिद्ध-जो एक समय में अकेले ही सिद्ध होते हैं, वे एकसिद्ध हैं। (15) अनेकसिद्ध-जो एक ही समय में एक से अधिक-अनेक सिद्ध होते हैं, वे अनेकसिद्ध कहलाते हैं।' सिद्धान्तानुसार एक समय में अधिक से अधिक 108 जीव सिद्ध होते हैं / अनन्तर सिद्धों के उपाधि के भेद से ये 15 प्रकार कहे हैं। परम्परासिद्ध-प्रसंसार समापनजीवों के प्रकार---इनके अनेक प्रकार हैं, इसलिए शास्त्रकार ने इनके प्रकारों की निश्चित संख्या नहीं दी है / अप्रथमसमयसिद्ध से लेकर अनन्तसमयसिद्ध तक के जीव परम्परासिद्ध की कोटि में हैं / अप्रथमसमयसिद्ध-जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम समय न हो, अर्थात् जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो चुके हों, वे अप्रथमसमयसिद्ध कहलाते हैं। अथवा जो परम्परसिद्धों में प्रथमसमयवर्ती हों वे प्रथमसमयसिद्ध होते हैं / इसी प्रकार तृतीय आदि समयों में द्वितीयसमयसिद्ध आदि कहलाते हैं। अथवा 'अप्रथमसमयसिद्ध' का कथन सामान्यरूप से किया गया है, आगे इसी के विषय में विशेषतः कहा गया है-द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतु:समयसिद्ध आदि यावत अनन्त समयसिद्ध तक अप्रथमसमयसिद्ध-परंपरासिद्ध समझने चाहिए। अथवा परम्परसिद्ध का अर्थ इस प्रकार से है जो किसी भी प्रथम समय में सिद्ध है, उससे एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' कहलाता है / उससे भी एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' कहलाता है। परम्परसिद्ध का आशय यह है कि जिस समय में कोई जीव सिद्ध हुआ है, उससे पूर्ववर्ती समयों में जो जीव सिद्ध हुए हैं, वे सब उसकी अपेक्षा परम्परसिद्ध हैं / अनन्त अतीतकाल से सिद्ध होते पा रहे हैं, वे सब किसी भी विवक्षित प्रथम समय में सिद्ध होने वाले की अपेक्षा से परम्परसिद्ध है / ऐसे मुक्तात्मा परम्परसिद्ध असंसारसमापन्न जीव है। 3 संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना के पांच प्रकार 18. से कि तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? संसारसमावण्ण नोवषण्णवणा पंचविहा पन्नत्ता। तं जहा-एगिदियसंसारसमावष्णजीवपण्णवणा 1 दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा 2 तेंदियसंसारसमावन्नजीवपण्णवणा 3 चउरेंदियसंसारसमावण्णाजीवपण्णवणा 4 पंचेंदियसंसारसमावन्नजोवपण्णवणा 5 / [18 प्र.] वह (पूर्वोक्त) संसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [18 उ.] संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना पांच प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है(१)एकेन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (2) द्वोन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (3) त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (4) चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना और (5) पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना / - -- 1. 'अनेक सिद्ध' का विस्तृत वर्णन देखें-प्रज्ञापना० म०वृत्ति, पत्रांक 22 'बत्तीसा अडयाला सट्टी बाबत्तरी य बोद्धव्वा / चुलसीइ छउन्नइ उ दुरहियं अटू तरसय च // 2. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 19 से 22 तक 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 23 तथा 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org