Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 34] [प्रज्ञापन सूत्र (2) प्रतीर्थसिद्ध-तीर्थ का अभाव अतीर्थ कहलाता है। तीर्थ का अभाव दो प्रकार से होता है-या तो तीर्थ की स्थापना ही न हुई हो, अथवा स्थापना होने के पश्चात् कालान्तर में उसका विच्छेद हो गया हो / ऐसे अतीर्थकाल में जिन्होंने सिद्धि प्राप्त की हो, वे प्रतीर्थसिद्ध कहलाते हैं / तीर्थ की स्थापना के अभाव में (पूर्व ही) मरुदेवी आदि सिद्ध हुई हैं। मरुदेवी आदि के सिद्धिगमनकाल में तीर्थ की स्थापना नहीं हुई थी। तथा सुविधिनाथ आदि तीर्थंकरों के बीच के समय में तीर्थं का विच्छेद हो गया था। उस समय जातिस्मरणादि ज्ञान से मोक्षमार्ग उपलब्ध करके जो सिद्ध हुए वे तीर्थव्यवच्छेद-सिद्ध कहलाए / ये दोनों ही प्रकार के सिद्ध तीर्थसिद्ध हैं। (3) तीर्थकरसिद्ध--जो तीर्थकर होकर सिद्ध होते हैं, वे तीर्थंकरसिद्ध कहलाते हैं। जैसेइस अवसर्पिणीकाल में ऋषभदेव से लेकर श्री वर्द्धमान स्वामी तक चौबीस तीर्थकर, तीर्थंकर होकर सिद्ध हुए। (4) प्रतीर्थकरसिद्ध-जो सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थंकरसिद्ध कहलाते हैं। (5) स्वयंबुद्धसिद्ध-जो परोपदेश के बिना, स्वयं ही सम्बुद्ध हो (संसारस्वरूप समझ) कर सिद्ध होते हैं। (6) प्रत्येकबुद्धसिद्ध----जो प्रत्येकबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं / यद्यपि स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध दोनों ही परोपदेश के बिना ही सिद्ध होते हैं, तथापि इन दोनों में अन्तर यह है कि स्वयम्बुद्ध बाह्यनिमित्तों के बिना ही, अपने जातिस्मरणादि ज्ञान से ही सम्बुद्ध हो जाते (बोध प्राप्त कर लेते) हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध वे कहलाते हैं, जो वृषभ, वृक्ष, बादल आदि किसी भी बाह्य निमित्त कारण से प्रबुद्ध होते हैं / सुना जाता है कि करकण्डू आदि को वृषभादि बाह्यनिमित्त की प्रेक्षा से बोधि प्राप्त हुई थी। ये प्रत्येकबुद्ध बोधि प्राप्त करके नियमत: एकाकी (प्रत्येक) ही विचरते हैं, गच्छ (गण)वासी साधुओं की तरह समूहबद्ध हो कर नहीं विचरण करते / नन्दी-अध्ययन की चणि में कहा है-स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं तीर्थंकर और तीर्थकरभिन्न / तीर्थंकर तो तीर्थंकरसिद्ध की कोटि में सम्मिलित हैं। अतएव यहाँ तीर्थकर-भिन्न स्वयम्बुद्ध हो समझना चाहिए।' स्वयम्बुद्धों के पात्रादि के भेद से बारह प्रकार की उपधि (उपकरण) होती है, जबकि प्रत्येकबुद्धों की जघन्य दो प्रकार की और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) नौ प्रकार की उपधि प्रावरण (वस्त्र) को छोड़ कर होती है। स्वयंबुद्धों के श्रुत (शास्त्र) पूर्वाधीत (पूर्वजन्मपठित) होता भी है, नहीं भी होता / अगर होता है तो देवता उन्हें लिंग (वेष) प्रदान करता है, अथवा वे गुरु के सान्निध्य में जा कर मुनिलिंग स्वीकार कर लेते हैं। यदि वे एकाकी विचरण करने में समर्थ हों और उनकी एकाकी-विचरण की इच्छा हो तो एकाकी विचरण करते हैं, नहीं तो गच्छवासी हो कर रहते हैं। यदि उनके श्रत पूर्वाधीत न हो तो वे नियम से गुरु के निकट जा कर ही मुनिलिंग स्वीकार करते हैं और गच्छवासी हो कर ही रहते हैं / प्रत्येकबुद्धों के नियमतः श्रत पूर्वाधीत होता है / वे जघन्यतः ग्यारह अंग और उत्कृष्टत: दस पूर्व से किञ्चित् कम पहले पढ़े हुए होते हैं। उन्हें देवता मुनिलिंग देता है, अथवा कदाचित् वे लिंगरहित भी - -- 1. ते दुविहा सयंबुद्धा-तित्थयरा तित्थयरवरित्ता य, इह वइरित हि अहिगारो। -नन्दी.-अध्ययन चूणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org