Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] बुद्धसिद्ध, (6) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (7) बुद्धबोधितसिद्ध, (8) स्त्रीलिंगसिद्ध, (9) पुरुषलिंगसिद्ध, (10) नपुंसकलिंगसिद्ध, (11) स्वलिंगसिद्ध, (12) अन्यलिंगसिद्ध, (13) गृहस्थलिंगसिद्ध, (14) एकसिद्ध और (15) अनेकसिद्ध / यह है---अनन्तरसिद्ध-प्रसंसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना (प्ररूपणा)। 17. से कि तं परंपरसिद्धप्रसंसारसमावष्णजीवपण्णवणा ? परंपरसिद्धप्रसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-अपढमसमयसिद्धा दुसमय सिद्धा तिसमयसिद्धा चउसमयसिद्धा जाच संखेज्जसमयसिद्धा असंखेजसमयसिद्धा प्रणंतसमयसिद्धा / से तं परंपरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा / से तं असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा / [17 प्र.] वह (पूर्वोक्त) परम्परासिद्ध-असंसारसमापन्न-जीव-प्रज्ञापना क्या है ? [17 उ.] परम्परासिद्ध-असंसारसमापन्न-जीव-प्रज्ञापना अनेक प्रकार को कही गई है। वह इस प्रकार है-अप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतु:समयसिद्ध, यावत्-संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यात समयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध / यह हुई-परम्परासिद्ध-प्रसंसारसमापन्न-जोवप्रज्ञापना। इस प्रकार वह (पूर्वोक्त) असंसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना (प्ररूपणा) पूर्ण हुई / विवेचन-प्रसंसार-समापन-जीवप्रज्ञापना : स्वरूप और भेद-प्रभेद-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 15 से 17 तक) में असंसार-समापन्नजीवों को प्रज्ञापना का प्रकारात्मक स्वरूप तथा उसके भेदप्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। असंसारसमापन्नजीवों का स्वरूप-प्रसंसार का अर्थ है--जहाँ जन्ममरणरूप चातुर्गतिक संसारपरिभ्रमण न हो, अर्थात्-मोक्ष / उस मोक्ष को प्राप्त, समस्त कर्मों से मुक्त, सिद्धिप्राप्त जीव असंसारसमापन्न जीव कहलाते हैं।' अनन्तरसिद्ध-प्रसंसारसमापन्नजोव-जिन मक्त जीवों के सिद्ध होने में अन्तर अर्थात समय का व्यवधान न हो, वे अनन्तरसिद्ध होते हैं, अर्थात्-सिद्धत्व के प्रथम समय में विद्यमान / जिन जीवों को सिद्ध हुए प्रथम ही समय हो, वे अनन्तरसिद्ध हैं। अनन्तरसिद्ध-असंसारसमापन्न जीवों के 15 भेदों की व्याख्या--(१) तीर्थसिद्ध-जिसके आश्रय से संसार-सागर को तिरा जाए-पार किया जाय, उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ वह प्रवचन है, जो समस्त जीव-अजीव ग्रादि पदार्थों का यथार्थरूप से प्ररूपक है और परमगुरु-सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत (प्रतिपादित) है / वह तीर्थ निराधार नहीं होता / अतः चतुर्विध संघ अथवा प्रथम गणधर को भी तीर्थ समझना चाहिए। प्रागम में कहा है-.२ (प्र.) भगवन् ! तीर्थ को तीर्थ कहते हैं या तीर्थकर को तीर्थ कहते हैं ? (उ.) गौतम ! अरिहन्त भगवान् (नियम से) तीर्थंकर होते हैं; तीर्थ तो चात्वर्ण्य श्रमणसंघ (साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविक रूप) अथवा प्रथम गणधर है।' इस प्रकार के तीर्थ की स्थापना होने पर जो जीव सिद्ध होते हैं, वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 15 2. (प्र.) तित्यं भंते ! तित्थं, तित्यकरे तित्यं ? (उ.) गोयमा ! अरिहा ताव (नियमा) तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णो समणसंघो पढमगणहरो वा / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org