Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रजापनापद [ 5 विचरते हैं।' (7) बुद्धबोधितसिद्ध-बुद्ध अर्थात्-बोधप्राप्त आचार्य, उनके द्वारा बोधित हो कर जो सिद्ध होते हैं वे बुद्धबोधितसिद्ध हैं। () स्त्रीलिंगसिद्ध-इन पूर्वोक्त प्रकार के सिद्धों में से कई स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं। जिससे स्त्री को पहिचान हो वह स्त्री का लिंग-चिह्न स्त्रीलिंग कहलाता है / उपलक्षण से स्त्रीत्वद्योतक होने से वह तीन प्रकार का हो सकता है वेद, शरीर को निष्पत्ति (रचना) और वेशभूषा / इन तीन प्रकार के लिंगों में से यहाँ स्त्री-शरीररचना से प्रयोजन है; स्त्रीवेद या स्त्रीवेशरूप स्त्रीलिंग से नहीं, क्योंकि स्त्रीवेद को विद्यमानता में सिद्धत्व प्राप्त नहीं हो सकता और बेश अप्रामाणिक है / अतः ऐसे स्त्रीलिंग में विद्यमान होते हुए जो जीव सिद्ध होते हैं, वे स्त्रीलिंगसिद्ध हैं। इस शास्त्रीय कथन से 'स्त्रियों को निर्वाण नहीं होता'; इस उक्ति का खण्डन हो जाता है। वास्तव में मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप है / यह रत्नत्रय पुरुषों की तरह स्त्रियों में भी हो सकता है। इस की साधना में तथा प्रवचनार्थ में रुचि एवं श्रद्धा रखने में स्त्रीलिंग बाधक नहीं है / ___(6) पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुष-शरीररचनारूप पुल्लिग में स्थित हो कर सिद्ध होते हैं, वे पुरुषलिंगसिद्ध कहलाते हैं। (10) नपुंसकलिंगसिद्ध-जो जीव न तो स्त्री के और न ही पुरुष के, किन्तु नपुंसक के शरीर से सिद्ध होते हैं, वे नपुंसकलिंगसिद्ध कहलाते हैं। (11) स्वलिंगसिद्ध–जो स्वलिंग से, अर्थात्-रजोहरणादिरूप वेष में रहते हुए सिद्ध होते हैं। (12) अलिगसिद्ध-जो अन्यलिंग से, अर्थात्--परिव्राजक आदि से सम्बन्धित वल्कल (छाल) या काषायादि रंग के वस्त्र वाले द्रव्यलिंग में रहते हुए सिद्ध होते हैं। (13) गृहिलिगसिद्ध-जो गृहस्थ के लिंग (वेष) में रहते हुए सिद्ध होते हैं / वे गृहिलिगसिद्ध होते हैं, जैसे-मरुदेवी आदि। "पत्तयं-बाह्य वषादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बद्धाः, बहिष्प्रत्ययं प्रति बुद्धानां च पत्तयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा ते पत्त यबुद्धा / " "पत्त यबुद्धाणं जहन्नेणं दुविहो, उक्कोसेणं नवविही नियमा उवही पाउरणवज्जो भवइ / ' "सयंबुद्धस्य पुब्वाहोयं सुयं से हवइ वा न वा, जइ से नत्थि तो लिगं नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, जइ य एमविहार-विहरणसमत्थो इच्छा वा से तो एक्को चेव विहरइ, अन्यथा गच्छे विहरइ।" पत्त यबुद्धाणं पुवाहीयं सुयं नियमा हवइ, जहन्नेणं इक्कारस अंगा, उक्कोसेणं भिन्नदसपुव्वा / लिगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवज्जिओ वा हव। 2. इत्यीए लिंगं इथिलिंग उवलक्षणं ति वृत्तं भवइ / तं च तिविहं वेदो सरीरनिवित्ती नेवत्थं च। इह सरीरनिव्वत्तीए अहिगारो, न वेय-नेवत्थेहि / ' --नन्दी.-अध्ययन चूणि 3. स्त्रीमुक्ति की विशेष चर्चा के लिए देखिये--प्रज्ञापना. म० वत्ति, पत्रांक 20 से 22 तक दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्रकृत गोमद्रसार में देखिये--अडयाला पुबेया, इत्थीवेया हवंति चालीसा। वीस नपुसकवेया, समरणगेण सिज्झंति / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org