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श्री आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमाला पुष्प ४१.
ACHHA
श्रीविद्यानंद-स्वामिविरचित . तत्त्वार्थ-श्लोकवार्त्तिकालंकार
(भाषाटीकासमन्वित)
[प्रथम खंड.] --= टीकाकार :
श्रीतर्करत्न, सिद्धांतमहोदधि श्री पं. माणिकचंदजी कौंदेय न्यायाचार्य.
–x संपादक व प्रकाशक xपं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
(विद्यावाचस्पति-न्यायकान्यतीर्थ ) ऑ. मंत्री आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमाला सोलापुर.
... All Rights are Reserved by the Society:
--+ मुद्रक +-- वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री कल्याण पॉवर प्रिंटिंग प्रेस, कल्याणभवन, सोलापुर.
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वीर सं. २४७६]
सन् १९४९ दिसंबर
[ मूल्य १२ रूपये,
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संपादकीय वक्तव्य.
आज स्वाध्यायप्रेमियोंके करकमलो में आचार्य कुंथूसागर अंथमालाकी ओरसे यह अंथराज श्लोकवार्चिकालंकार अर्पित करनेका सुअवसर प्राप्त होता है, इसका हमें परमदर्ष है ।
जैनसंसारमे उमास्वामिविरचित तत्वार्थसूत्र आवशगोपाल प्रसिद्ध है । जैनदर्शनको सम झनेके लिए सूत्रबद्ध, सुसंबद्ध व मूलबंध के रूपमें तत्वार्थसूत्र की महिमा है । यह ग्रंथ सर्व प्रमेयोंको समझने के लिए परम सहायक है । यह कुज है। श्री परमपूज्य उमास्वामी महाराजने जनदर्शन के प्रति सर्व तत्वोंको इसमें सर्वदृष्टिसे प्रथित किया है । इस ग्रंथ का निर्माण कर आचार्यश्रीने असंख्य जिज्ञासुको तत्वों के परिज्ञान के लिए परम उपकार किया है । भगवदुमास्वामी श्वेतांबर, दिगंबर संप्रदाय में समानरूपसे मान्य है । आपके भका सर्वत्र समादर है । इस थकी महता इसी से स्पष्ट है कि उमास्वामी के अनंतर होनेशले महर्षि सुमंतभद्रस्वामीमे ९६ हजार लोक परिमित गंधहस्ति महाभाष्य नामक महान अंधकी रचना इस ग्रंथ की टीकाके रूपमें की है । यद्यपि यह मध्य दुर्भाभ्यसे उपलब्ध नहीं है । तथापि इस ग्रंथकी रचना हुई है यह अनेक उल्ले खोसे FIE 1 भगवान् समेतभद्र साधारण क्रिस्त शकके दूसरे शतमानमें बहुत बड़े विद्वान् आचार्य हुए हैं। उन्होने अपनी प्रतिभाशाली विद्वताके द्वारा सिद्धांत, दर्शन, न्याय, आचार विचार के तत्वानुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, आप्तमीमांसा युक्त्यनुशासन, जिनस्तुतिशतक, जीत्रसिद्धि, कर्मप्रामृतटीका, रत्नकरंड श्रावकाचार जैसे अंथरत्नोंकी सृष्टि की है। इस तत्वार्थ सूत्र के ऊपर स्वामि समेतभद्रने गंधहस्ति नामक महाभाष्यकी रचना की है, यह भी प्रमाणोंसे प्रसिद्ध है ।
तदनंतर इस घरातलको अपने सुललित चारित्रके द्वारा समलंकृत करनेवाले श्रीपूज्यपाद स्वामीने इसके ऊपर सर्वार्थसिद्धी नाम टीका अंथ की रचना की है। सर्वार्थसिद्धि भी अपने शानका अपूर्वं ग्रंथ है । जैनदर्शनके सर्वांग परिज्ञानके लिए एवं तस्वार्थसूत्र के गूढ रहस्योंकी गुत्थियोंको सुलझाने के लिए इस से बड़ी सहायता मिलती है। पूज्यपाद स्वामीने भी सिद्धांत, न्याय, व्याकरण के प्रसिद्ध अनेक ग्रंथोंकी रचना की है।
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तदर्नर उद्भट विद्वत्ता से परवादियों को चकित करनेवाले निष्कलंक शानधारी तार्किक चूडामणि आचार्य अकलंक स्वामीने राजवार्तिक नामक टीका ग्रंथ की रचना इसी तत्वार्थसूत्रपर की है । अंकलंक स्वामीकी राजवार्षिक जैसे अन्य अनेक कृतियोंकी उपलब्धिसे उनकी सर्वतोपर विद्वत्ता प्रसिद्ध है । आपने इस ग्रंथपर राजवार्तिककी रचना की है ।
इस प्रकार जैनाचार्य परंपरामें रत्नत्रय कहलानेवाले समंतभद्र, पूज्यपाद और अलंक देवने इस को विस्तृत का, इसकी रहस्यमय गुत्थियों को सुलझाने में सहायता की है एवं इस मूल को ही उनकी विद्वताके विस्तार के लिए मूलभूत बनाया है। इसीसे इस अंथकी महत्ता स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त इस तस्वार्थसूत्र अंथपर विभिन्न माचायोंके द्वारा लिखित निम्नलिखित
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अथ भी उपलब्ध होते हैं । (१) भास्करनंधाचार्य विरचित तत्वार्थवृत्ति (२) श्रुतसागर वृद्धि (३) द्वितीयश्रुतसागर विरचित तत्वार्थसुबोधिनी, टोका (४) विबुधसेनाचार्य विरचित तत्वार्थ टीका (५) योगींद्रदेव विरचित तत्वप्रकाशिका (६) मोगदेव विरचित तस्वार्थवृत्ति (७) लक्ष्मीदेव विरचित तत्वार्थटीका, (८) श्री अभयनंदि विरचित तत्वार्थवृत्ति ।
इस प्रकार जैनाम्नायपरंपरामें इस ग्रंथ के विस्तार में अनेक ग्रंथकारोवे अपने जीवनको सफल किया है । इसीसे इसका अतिशय स्पष्ट है
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प्रकृत ग्रंथ श्रीतत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारको रचना श्रीमहर्षि विद्यानंदस्वामीने की है। अनेक अंथकारोंके समान जैनदर्शन के विस्तार के लिए विद्यानंद स्वामीने भी इसी ग्रंथको आधार बनाया है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । उपर्युक्त आचार्य रत्नत्रयोके अनंतर इस तत्वार्थ सूत्रपर यदि महत्वपूर्ण भाष्यकी रचना हुई है तो श्री आचार्य विद्यानंद स्वामीकी यही कृति गौरवपूर्ण उल्लेख के द्वारा करने योग्य है । श्रीमहर्षि विद्यानंद स्वामीने इस प्रथमे प्रशस्त तर्क-वितर्क- युक्ति प्रयुक्ति व विचारणा के द्वारा सिद्धांतसमन्वित तत्वोंका प्रतिष्ठापन किया है। परवादियोंको विविध विचार परिप्लुत न्यायपूर्ण युक्तियोंसे निरुत्तर करनेके कारण अनेकांतमतकी व्यवस्था होती है। अनेकांत मतकी शरण गये विना लोकमे तत्वव्यवस्था नहीं हो सकती है । तस्वव्यवस्थाके विना मोक्ष पुरुषार्थकी साधना नहीं बन सकती है, इस बातको आचार्य महाराजने बहुत अच्छी तरह सिद्ध किया है। इस ग्रंथका प्रमेय सिद्धांत होनेपर भी आचार्यश्रीने न्यायशास्त्रकी कसौटीसे कसकर सिद्धांतको समुज्वलरूप से उपस्थित किया है | सुवर्ण अपने स्वभावसे स्वच्छ रहनेपर भी दहन, ताडन, भेद, वर्षण आदि सौमें उतरनेपर ही लोकादर के लिए पात्र होता है। इसी तरह स्याद्वाद् सिद्धांत लोककल्याण के लिए अनवध सिद्धांत है, इस सिद्धांतको प्रकृत ग्रंथमें आचार्य महाराजने सुलभ बनाकर तवजिज्ञासु भव्यों के लिए महान् उपकार किया है ।
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महर्षि विद्यानंद स्वामी विशेष परिचय, कालविचार, समकालीन मंथकर्ता, एवं उनकी अन्य रचनायें आदिके संबंध एवं तत्वार्थ सूत्रपर भाष्यकी रचना करनेवाले स्वामि समंतभद्र, पूज्यपाद व अकलंक सदृश रत्नत्रय महर्षियों के संबंध में विस्तृत विवेचनपूर्वक एक बडी प्रस्तावना खिखनेका विचार था । परंतु पाठको में प्रथम मागके प्रकाशनकी आतुरता होनेसे, कुछ अवधिम उक्त विषयोंपर अधिक प्रकाश पडने की संभावना होनेसे, तथा अभी न लिखने की कुछ विद्वमित्रोंकी सलाह होनेसे, इस मागमें वह प्रस्तावना हम जोड़ नहीं सके | इस ग्रंथ को हमने पांच खंडो में समाप्त करनेका विचार किया है। अंतिम पांचवे खंडने इस ग्रंथ के संबंध में उपर्युक्त सभी विवेचनोंसे परिपूर्ण गवेषणात्लक विस्तृत प्रस्तावना जोडने का संकल्प हमने किया है । पाठकों को हम आज इतना हो आश्वासन देते हैं । अग्रिम खंड शीघ्र प्रकाशित होते रहेंगे । इस अंथके परिपूर्ण दर्शनकी बढी आतुरता स्वाध्याय प्रेमियोंमें हैं । मद्द हमारे ध्यान में है । अतएव आगामी खंडों को बहुत ही मगतिसे प्रकाशन करने की व्यवस्था की गई है ।
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टीकाकार के प्रति कृतज्ञता अभीतक इस यज्ञ कठिन ग्रंथकी भाषा टीका व टिप्पणी नहीं की गयी थी । अतएव स्वाध्यायप्रेमियों को इसके रहस्यमय चमत्कारी कठिन प्रमेयोंके परिज्ञानकी उत्सुकता सैकड़ों वर्षोंसे बनी आरही थी । किंतु अब पूज्य पण्डित माणिकचंदजीके शुभ्र पुरुषार्थसे हिंदी टीका पूर्णरीत्या feorea हो चुकी है। इसमें से केवल एक ही सूत्रकी व्याख्या प्रथम खण्ड में आपके सन्मुख प्रस्तुत की जारही है | वीरमुखोत्पन्न गणघरग्रंथित जिनवाणीमाताके अश्रुतपूर्व अनुपम वाङ्मयको समसाद् निरखिये |
अभी तो इस मुद्रित प्रथम खण्ड में पहिले अध्यायके अकेले आदि सूत्रकी ही व्याख्या है, अन्य सूत्रों और अध्यायोंकी श्लोकवाचिक टीका में अनन्त अपनुम तत्त्वज्ञान मरा हुआ है, जो कि क्रमशः मुद्रित होता रहेगा। पूरे ग्रंथ में पांच हजार पृष्ठ है। प्रति पृष्ठ में पचीस या अट्ठाईस श्लोक प्रमाण लेख है । इतना विशाल दर्शन ग्रंथ अभ्यत्र अप्राप्य है । इस अठारह हजार श्लोक प्रमाण पूरे ग्रंथी हिंदी पोसे भी अधिक इलोक प्रमाण पांच वर्ष पूर्व परिपूर्ण कर दी गयी है। जिसकी प्रेस कापी श्रीमान् धर्मबीर रा. व सरसेठ मागचंदजी महोदय के अजमेर के ग्रंथ भण्डारमै टीकाकार द्वारा विराजमान हो चुकी है। पण्डितजीकी यह इस्तलिखित काफी अटीव शुद्ध है | सुंदर लिखी गयी है ।
जैनदर्शन अगाध है एवं गंभीर है। उसके अथाइ अंतरतमें पहुंचकर अभ्यास करनेवाले विज्ञान भी विरले हैं तो सामान्यजनोंकी बात ही क्या है ! उसमें भी यदि न्यायशास्त्र तर्कवितर्कणाका मंडार हो तो उसे सामान्य जनता समझ भी नहीं पाती और उससे उपेक्षित होजाती है । ऐसी अवस्था में ऐसे महत्वपूर्ण ग्रंथोंको सरल रूपसे समझने के लिए यदि विस्तृत भाषा टीका हो तो जिज्ञासूत्रको बडी अनुकूलता दोसकती है। इसलिए आज इस महान् श्लोकवार्तिकालंकार ग्रंथकी राष्ट्रभाषात्मकटीका प्रकाशित होरही है, यह अत्यंत संतोषका विषय है ।
लोकवार्तिकालंकार सदृश महान् अंथकी सरल सुबोधिनी टीका लिखना कोई खेल नहीं है । विद्यानंद स्वामीकी अंतस्तलस्पर्शिनी विचारधारावोंको समझकर दूसरोंको समझानेवाला विद्वान्, भी असाधारण ही होना चाहिये। क्योंकि श्रीविद्यानन्द स्वामीकी पक्तिया छातीव कठिन, ग़म्भीर और तीक्ष्ण होती हैं ! जैनसंसार श्रीमान् तर्केरत्न पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य महोदय से अच्छी तरह परिचित है । न्यायाचार्यजी महोदयका परिचय लिखना अनावश्यक है। आज करीब ५० वर्षोंसे जैन समाजमै आप विद्वानोंकी सृष्टिमें अपने ज्ञानका उपयोग कर रहे हैं। स्वर्गीय पं. गुरु गोपालदासजी बरैयाने जिन विद्वानोंका निर्माणकर जैन समाजका उपकार किया है, आज समाज के विविधक्षेत्र में कार्य करनेवाले जो सैकडों प्रौढ विद्वान् पतीत होरहे हैं, उन सब विद्वानोंकी उत्प चिका प्रधानश्रेय श्री. पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य महोदयको है। श्रीगोपाल वि. जैन सिद्धांत विद्यालय में करीब १६ वर्ष प्रधान अध्यापक के स्थान पर रहकर आपने न्याय न सिद्धांत शास्त्रका अध्यापन कार्य किया
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है। पं. गोपालदासजी बरयाने मी न्यायशास्त्रका कमी कभी परिशीलन आपसे किया था। इतने कहने मानसे आपकी अगाध विद्वत्ता के संबंध अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। अंबू विषालय सहारनपुरमें प्रधान अध्यापकके स्थानपर रहकर मापने सेकडो विद्वानोको तैयार किया | आपकी अगाध विद्वत्तासे जैन समाजका बालंगोपाल परिचित है : आपने इस श्लोकवार्तिकालंकार सदस ग्रंथकी भाषारीका लिखकर स्वाध्यायप्रेमियों के प्रति अनंत उपकार किया है । श्रीन्यायाचार्यजीने छोटी मोटी अनेक पुस्तके लिखी है, परंतु इस महान् ग्रंथकी टीका लिखकर अपनी लेखनीको सफल बनाया है। क्योंकि यह हजारों वर्ष अव्याहत प्रवाहित होकर रहनेवाली एवं असंख्य तत्वजिज्ञासुबोको तृप्त करनेवाली यह ज्ञानधारा है। इस अमृतधाराको सिंचितकर भन्योंको तृप्त करनेके श्रेयको मास करने के लिए न्यायाचार्यजीने कई वर्ष तपश्चर्या की है। उनकी कठिन तपश्चर्याका ही यह मधुरफल है कि आज यह ग्रंथ विद्वसंसारको आस्वादनके लिए मिल रहा है। .
पदर्शनोंके अतिरिक्त पण्डितजी व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त तथा अन्य गणित, विज्ञान आदिमें भी गम्भीर प्रतिमायुक्त हैं । पण्डितजीने प्रत्येक सूत्र के आदि अन्त तथा अध्यायों के पहिले पीछे भी सारगर्मित पाण्डित्यपूर्ण स्वरचित संस्कृतपद्योंकी रचना भी करदी है। ___अन्य काव्य ग्रंथों या कथासाहित्यकी भाषाटीका जितनी दय नरम होती है, दर्शन शाबोंकी भाषाटीकायें उतनी सरल नहीं होती हैं । फिर भी पण्डितजीने कठिन पंक्तियोंकी सुबोध्य टीका बनानेमें कोई कसर नहीं छोड़ी है । स्वाध्याय करनेवाले निरालस होकर उपयोग लगावें । यदि परीक्षामुख और न्यायदीपिकाका अध्ययन काले तो पर्याप्त अधिकारिता प्राप्त होजावेगी । इस महाग्रंथमें प्रवेश करनेके लिये पण्डितजी " दर्शनविदर्शन " पुस्तकको लिख रहे हैं। आधी लिख चुके हैं।
श्रीमाननीय पंडितजीने अपनी अगाध विद्वत्ताको पुजीकृत कर इस प्रथम ओत प्रोत करदिया है । उनके अनुभवका लाभ आज इस रूपमें विद्वत्ससारको न होता तो वहा पश्चाताप करना पड़ता । उनका अनुभव, ज्ञान, विचारपारा, तणाशक्ति, आदि सभी उनके व्याख्यानोम ही विसरकर पड़े रहते । शब्दवर्गणार्य अनित्य हैं, उनको कुछ समय के लिए क्यो न हो नित्य बनाने के लिए यही प्रकिया उपादेय है । अतः न्यायाचार्यजीने वर्षों तक घोर परिश्रमकर इस ग्रंथकी टीका लिखी है, उनके प्रति कृतज्ञताके सिवाय हम क्या व्यक्त कर सकते हैं। हमारे समान ही विद्वसंसार, तत्वाभ्यासी, एवं भविष्यमे होनेवाले सर्व मुमुक्षुजीव आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त किये विना न रहेंगे। प्रकाशनका इतिहास
इस महान् अंथके प्रकाशनका सर्व श्रेय श्रीमान् धर्मवीर रा. क. रा. भू. केप्टन सर सेठ मागचंदजी सोनी 0.13. E5. जो आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमालाके अध्यक्ष है, को ही है। क्योंकि सर सेठ साहबकी ही प्रबलप्रेरणा व साहित्यमेमसे यह ग्रंथ प्रकाशनमे आ रहा है। सर सेठ साहनको भावना थी कि श्रीसिद्धांतमहोदधि पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य जैसे महान विद्वानोंकी
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कृतिका एवं ज्ञानका लाभ दुनियाको हो । श्री न्यायाचार्यजीने जिस कठिन अंकी भाषा बनाने के लिए बीस वर्ष परिश्रम किया है, यदि वह अप्रकाशित रह जाय तो क्या प्रयोजन रहा ! इसलिए श्रीमाननीय पंडितजी से उन्होंने इस ग्रंथको प्रकाशित करने की अनुमति ली । श्री पंडितजीने भी बहुत आनंद के साथ अपने परिश्रमके सुमधुर फलको तत्वजिज्ञासु मज्योंको समर्पण करने की अनुमति प्रदान की। श्री सर सेठ साबको परमदर्ष हुआ | आपके हृदय में पंडितजीकी विद्वत्ता एवं महाके प्रति परमआदर है। वैसे तो आपके घरानेसे सदा ही विद्वानोंका सम्मान होता आ रहा है, जैन समाज में सोनी घरानेकी प्रतिष्ठा से अपरिचित एक भी व्यक्ति नहीं निकल सकता है। आपके पूर्वज स्वनामधन्य सेठ मूलचंदजी, रा. ब. सेठ नेमीचंदजी, एवं रा. ब. धर्मवीर सेठ टीकमचंदजी, सा. ने समाज व धर्मकी रक्षार्थ लाखों रुपयोंके व्ययसे जो कार्य किये हैं, ये इतिहासके पृष्ठों में अमिट रहेंगे । श्रीधर्मवीर सर सेठ भागचंदजी साबड़ भी अपने पूर्वजों के समान ही परमधार्मिक, विचारशील, गुरुभक्त, साहित्यप्रेमी एवं समाज के कर्णधार हैं। आज आपकी कार्यकुशलता एवं काही कारण आज कई वर्षों से मारतवर्षीय दिगंबर जैन महासमाने आपके नेतृत्वको धारण करनेमे अपना सौभाग्य समझा है । आपका प्रभाव समस्त समाजपर ही नहीं भारतवर्षीय सर्व क्षेत्रों में हैं। कई वर्ष आप केंद्रीय धारासभा के मेंबर रह चुके है। आपकी दूरदर्शिता एवं कार्यकुशलता ही कारण ब्रिटिश सरकारने आपको, रा. ब. कैप्टन, सर नाईट, 0. B. E. जैसे महत्वपूर्ण उपाधियोंसे सम्मानित किया है। आप केवल श्रीमंत नहीं हैं। श्रीमंत मी हैं। स्वाध्यायादिके द्वारा सदा चर्चा करते रहते हैं । जैनसिद्धांतकी तात्विक अकाय्य. सर्कणायोमे आपको परमश्रद्धा है । इसीलिए आपने श्री माननीय पंडितजीके अगाध पांडित्य और बीस वर्ष परिश्रमके प्रति परमआदर व्यक्त करते हुए उनको समुचित पुरस्कार देकर अपनी गुणग्राहकता, विद्वत्प्रेम, वासल्य और धनाधिपोचित उदारता के अनुसार सन्मानित किया है एवं इस महान् irst श्री आचार्य कुंथूसागर ग्रंथमालाको प्रकाशित करनेके लिए अर्पण किया है ।
श्रीपरमपूज्य स्व. आचार्य कुंथूसागर महाराजके प्रति भी सरसेठ साहबकी विशिष्ट भक्ति थी । आपके प्रति आचार्यश्री की प्रसादपूर्ण दृष्टि थी । यही कारण है कि आज वर्षो से ग्रंथमाला के मध्यक्ष स्थानपर रहकर आप इस संस्थाका सफल संचालन कर रहे हैं। आपके नेतृत्व में ग्रंथमालासे ऐसे महत्वपूर्ण ग्रंथका प्रकाशन होरहा है, यह समाजके लिए प्रसन्नता की बात है ।
श्रीपरमपूज्य प्रातःस्मरणीय, विश्वबंध आचार्य कुंथूसागर महाराजने अपनी प्रखर विद्वताके द्वारा आजीवन लोक कल्याण के कार्य किये। उनके पुण्यविहारसे गुजरात और बागडपांत पुनीत हुआ। लाखों लोगोंका उद्धार हुआ । उनका एकमात्र ध्येय था कि जैनधर्मको विश्वधर्म के रूपमे जनता जब देखेगी, तब उसका हित होगा । प्राणिमात्रका उद्धार करनेका सामर्थ्य जिस वीतराग धर्म विद्यमान है, यदि उसका परिज्ञान जनसाधारणको नहीं होता है तो इससे उसका पडा ही हित होगा । संसारके पत्तनगर्त में वह पडेगी । इस अंतर्वेदनासे उनकी आत्मा श्रस्त भी । शायद स्वार्थ, ईर्ष्या व द्वेषकी पकती हुई अग्निं भस्मसात होनेवाली अनंतजीवों की दयनीय दशाको
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न देख सकनेके कारण ही वह आमा बहुत जल्दी इस पापमय संसारको छोड़कर चली गई । विश्ववंद्य आचार्यश्रीके हृदयमें प्रबल भावना थी कि इस विश्वकल्याणकारी घर्भका देश विदेशमे प्रचार हो । आपने अपने दिव्य उपदेशसे असंख्य जनताका उपकार किया है। लाखों जैनेतर आस्महितैषी जन, यहांतक प्रमुख अधिकारी गण, राजा महाराजा, आपके चरणोंके दास बन गये हैं, एवं अहिंसाधर्मके भक्त बने हैं। उनकी अगाधविद्वत्तासे सर्वजन मंत्रमुग्धवत् हो गये थे। आचार्यश्रीके ज्ञान एवं लोकहितैषणाका लाभ सर्वदेशोय, सर्वप्रांतीय सर्व संप्रदायके लोगोंको हो, इस उद्देश्यसे ग्रंथमाला के द्वारा उनकी सरल व सुललित कृतियों का प्रकाशन हो गया है। करीब ४० ग्रंथ आजपर्यंत ग्रंथमालाके द्वारा प्रकाशित हुए हैं, जिनसे हजारों स्वाध्यायप्रेमियोने लाभ उठाया है। श्री वंदनीय आचार्य श्रीकी भावनावोंके अनुसार ही आज इस महान् अथका प्रकाशन संस्थाके द्वारा. हो रहा है। इस प्रसंग: इतना ही लिखना पर्याप्त होगा। स्वकीय निवेदन.
इस अंधके प्रकाशनका निश्चय होनेपर श्रीधर्मवीर सर सेठ भागचंदजी साहबने यह आदेश दिया कि यह ग्रंथ हमारे ही तत्वावधानमें ग्रंथमालाके द्वारा संपादित व प्रकाशित होजाना चाहिये। श्रीपूज्य पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य महोदयने भी विश्वासपूर्वक आदेश दिया किया कि इस कार्यको तुम ही करो। हमने अपनी अयोग्यताकी उपेक्षाकर केवल गुरुजनोंकी आशाको शिरोधार्य करनेकी भावनासे इस गुरुतरभारको अपने ऊपर लिया। क्योंकि परमपूज्य आचार्य कुंथसागर महाराजका इस सेवकपर परमविश्वास था । श्री पं. माणिकचंदजीसे इस पंक्तिके लेखकको अध्ययन करनेका भी माम्य मिला था। सरसेठ साहनका इसके प्रति परम अनुग्रह है । ऐसी हालतमें इस कार्यकी महत्ताको लक्ष्यमें रखकर मी गुरुजनोंकी भक्ति से इस कार्यमें साहस किया। फिर करना भी क्या था। जो कुछ मी सिद्धांतमहोदधि महोदयने लिपिबद्ध किया था, उसे क्रमबद्ध व्यवस्था में पाठकोंकी सेवामें उपस्थित करना था । उसमें हम कहांतक सफल हुए कह नहीं सकते । परंतु इस प्रसंगमें इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि
दृष्टं किमपि लोकेस्मिन्न निर्दोष न निर्गुणम् ।
आष्णुध्वमतो दोषान्विवृणुध्वं गुणान्बुधाः॥ अंतमै निवेदन है कि हमने बहुत्त सावधान पूर्वक यह प्रकाशन कार्य किया है । इसमें जो गुणके परमाणु हैं, वे सब श्रीआचार्य कुंथुसागर महाराज सरीखे सपोनिधि एवं पं. माणिकचंदजी सदृश विद्वानोंकी आमावोंकी शुभभावनावोंसे निर्मित हैं। अतः उसका श्रेय उन्हीको मिलना चाहिये । यदि कोई दोषका अंश है तो वह मेरी अयोग्यता के कारण उत्पन्न है। उसके प्रति मुझे क्षमा करें। किसी भी तरह इस ज्ञानधाराका उपयोग कर स्वाध्यायप्रेमी अपने ज्ञानतरुको हरामस करेंगे तो सबका श्रम सार्थक होगा । इति.
वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री. ऑ. मंत्री-आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमाला, सोलापूर
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श्रीविद्यानंदस्वामिविरचितम्
श्रीतत्त्वार्थ-लोकवार्त्तिकम्
सर्करत्न पं. माणिकचंद्रन्यायाचार्य महोदयैर्विरचिता
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
श्रीममाभिसुतं सिद्ध विनीयान्तमास्करम् ।
सुरासुरनरेन्द्रेड्यं, प्रणमामि त्रियोगतः ॥ १ ॥ अजिताद्या वर्धमानमर्हतः सिद्धचक्रकम् ।
सूर्युपाध्यायसाथ स्तोम्यहं परमेष्ठिनः || २ || प्रमाणनयस कैर्न्यक्कृत्यैकान्तिनां गतिम् ।
हंसी स्याद्वादगीः सिद्धा, पुनीतान्मम मानसम् ॥ ३ ॥ कलिसर्वज्ञोपाह्नक- आम्नायविधिज्ञकुन्दकुन्द गुरुः ।
आईतदर्शनकर्ता निवसेन्मे हृदि सदा हयुमास्वामी ॥ ४ ॥ समन्ताद्भद्रमेत्यस्मादकलङ्को भवेत्सुधीः ।
विद्यानन्दी प्रमानेमीन्द्रन्वर्थगुरु कीर्तनात् ॥ ५ ॥ एकैकं न्यायसिद्धान्तशास्त्रे धतो गभीरताम् ।
सिद्धान्तन्यायपूर्ण मे का गतिः श्लोकवार्तिके ॥ ६ ॥ तथापि सार्वविश्वगुवाशीनीवमाश्रितः ।
ग्रन्थान्ध प्रविशामीह जिनमूर्तीहृदि स्मरन् ॥ ७ ॥ गुरून् शरण्यानास्थायानूद्यते देशभाषया ।
हिन्दीनामिकाभ्यन्ते स्युर्मे सूक्ष्मार्थबोधकाः ॥ ८ ॥ मोजकाः सद्गुरवो नियोज्योऽहं लघुर्जनः ।
पारनेत्री भवित्री में ऋद्धि गुरुस्मृतिः ॥ ९ ॥ श्रुतवारिधिमुन्मथ्य न्यायशास्त्रामृतं स नः ।
समन्तभद्र उभावितीथकरो त्रियात् ॥ १० ॥
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तत्यार्थचिंतामणिः
इस अनाद्यनन्त संसारमै अनन्तानन्त जीव तत्वबोधक विना अनेक दुःखोंसे पीडित हो रहे हैं, उनमें असंख्य प्राणी गृहीतमिथ्यासके वशीभूत होकर युवत्यनुभवसे शून्य कोरे वाग्जाल में फंसकर सदागम सूर्यप्रकाशके रहते हुए भी दुःखान्धगर्तमें गिरते चले जा रहे हैं। सम्पूर्ण जीवोंको संसार व्याधिसे छुडाकर उत्तम सुस्वमें धारण करानेका लक्ष्य कर ही सनातन जैनधर्मके तत्वोंका ज्ञान श्री अन्तदेवकी द्वादशाङ्गमय वाणीसे जागरूक हो रहा है ! यह धर्मजागृति किसी विशेष ग्रुगगे ही नहीं, किन्तु अनादिकालसे मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाले अनेक तीर्थकर महाराजोद्वारा अद्यावधि धाराप्रयाहरूपसे चली आ रही है और इसी क्रमसे अनन्तकाल तक सुसंघटित रूपसे चलती रहेगी। इसके द्वारा ही जीवोंके अन्तस्तलमें छिपा हुआ अवस्सुका स्वाभाविक स्वरूप समय समय पर प्रगट होता रहता है। अनन्त पुरुषार्थी भव्य जीवोंने श्रीतीर्थकर भगवानके उपदेशद्वारा कैवल्य और निःश्रेयस प्राप्त किया है। वर्तमान अवसर्पिणी काल सम्बन्धी चौबीसवें तीर्थङ्कर श्रीवर्धमान स्वामीने पूर्व जन्में उपार्जित तत्वज्ञान और तीर्थकरत्वके प्रभावसे वैराग्य प्राप्त कर जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की तथा विविध तपस्याओंको करके पौगलिक दुष्कर्माका क्षय करते हुए सर्वज्ञता प्राप्त कर अनेक मन्यजीवोंको सम्पूर्ण पदार्थोके प्रतिभास करानेशले द्वादशाम श्रुतज्ञानका पर दिया : ओ कि सिस, आप व्याकरण, साहित्य, स्याद्वाद, ज्योतिष, निमितशास्त्र, कला, विज्ञान आदिसे परिपूर्ण था। उस उपदेशको अविकल रूपसे धारण करनेवाले श्री गौतमस्वामीने आचारा आदि चारह अंगरूप था। तदनन्तर गुरुपरिपाटी और आम्नायके अनुसार वही सर्वज्ञोक्त श्रुतज्ञानका उपदेश अङ्ग अङ्गांश रूपसे अधावधि चला आ रहा है । सम्पूर्ण ज्ञानका प्रतिपादन शब्दोंके द्वारा असम्भव है । केवल श्रुतज्ञानके कतिपय अंशोंका ही समझाना और लिखना हो सकता है। अतः सर्वज्ञदेवसे भाषित अर्थ स्वांशी परिपूर्ण होता हुआ अधिकलरूपसे भविष्यमें भी प्रवाहित रहे, इस परोपकार बुद्धिसे प्रेरित होकर प्रकाण्ड, प्रतिभाशाली, पूज्यपाद, आचार्यवोने सिद्धान्त, न्याय आदि मोक्षमार्गोपयोगी ग्रन्थोंकी रचना की। जीव
आदि वस्तुओंके अन्तस्तलपर पहुंचाकर अनुभव कराने वाले आगमोंको समुदायरूपसे न्याय, सिद्धान्त, शास्त्र कहते हैं। प्रत्येकका लक्षण इस प्रकार है-प्रमाण तथा नयोंके द्वारा बस्तु और वस्तुके धर्मों की परीक्षाको न्याय कहते हैं, तथा सर्वज्ञकी ज्ञानधाराके अनुसार प्रमाण सिद्ध पदार्थोके निर्णयको सिद्धान्त कहते हैं। सिद्धान्त ग्रन्थ यदि अक्षय भण्डार हैं तो न्यायशास्त्र उनकी रक्षा करनेवाले दुर्ग (किले ) है तथा युक्तिप्रधान हेतुवादके कतिपय वचन अनुभत्री सम्यादृष्टि विद्वानोंको आगमद्वारा भी परिरक्षणीय होते हैं। अतः श्रीकुन्दकुन्द, धरसेन, नेमिचन्द्र आदि आचार्योंने सिद्धान्तप्रधान और युक्तिवादगौण ऐसे अनेक सिद्धान्तपाभृत अन्य निर्माण किये हैं तथा श्री समन्तभद्र अफलंक, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र, प्रभृति प्रतिपादिभयंकर ऋषियोंने प्रमाण, नय और युक्तियोंके द्वारा तत्तोंके अधिगम करानेवाले न्याय शास्त्र रहे हैं। न्याय और सिद्धान्तके
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
विषयोंको मिलाकर संक्षेपसे प्रतिपादन करनेवाले मूलमन्थको दर्शन कहते हैं। त्रियोग द्वारा किये गये, कहे या विचारे गये प्रत्येक कर्तव्यके समय उस दर्शन ग्रन्थका अपनी आत्मा बुद्धिचक्षुसे दर्शन करते रहने वाले दार्शनिक विद्वान् कहलाते हैं।
श्री महावीरस्वामीके मोक्ष-गमनके पश्चात् कतिपय शताब्दियों के बीत जानेपर विदेहक्षेत्र में जाकर श्री सीमन्धर स्वामीका प्रत्यक्ष दर्शन करने वाले उपज्ञज्ञानधारी श्रीउभास्वामी आचार्यने तत्वज्ञान अन्थों के सारभूत जैनदर्शन तत्त्वार्थ-मोक्षशास्त्रकी रचना की। अल सूत्रोंमें त्रिलोक त्रिकालकी तत्त्वमालाको अक्षुण्ण निरूपण करनेवाला यह मूलमन्थ अतीव .गम्भीर है। अति विस्तर उदार अर्थको इङ्गित मात्रसे अत्यल्प शब्दोंके द्वारा व्यक्त करनेवाले पद समुदायको सूत्र कहते हैं । इस जैनदर्शनके गूढार्थ प्रकाशनके लिये स्वामी समन्तभद्राचार्य-उदयाचलसे ८४००० चौरासी हजार श्लोकोंमें गन्धहस्तिमहाभाष्य-ग्रन्थ-सूर्य प्रगट हुआ। स्वामी समन्तभद्रकी सिंहगर्जनासे अनेक प्रतिवादियोंके बुद्धि कुयुक्तिगर्भगत अर्थ स्खलित होजाते हैं तथा उन्हीं समन्तभद्राचार्यसे विस्तारित जैनधर्म ध्वजाकी शीतल छाया आश्रय पाकर आसन्न भव्य जीव इष्ट तत्वार्थको प्राप्तकर चारों ओरसे कल्याण पात्र बन जाते है । तथार्थसूत्रको विद्यविद्य श्री भट्टाकलक देवने श्रुतझानाधिका मथन कर उद्धार किये गये तत्वार्थराजबार्सिक अमृतसे सिञ्चित किया। सूत्र बार्तिक और भाध्यका यह योग रत्नत्रयके समान संसिद्धिमें आवश्यक है। उक्त दोनों अन्य जैन शास्त्र में आकर ( खानि ) ग्रन्थ माने जाते हैं । श्री समन्तभद्राचार्य रचित गन्धहस्तिमहाभाष्यके मङ्गलाचरणस्वरूप देवागमस्तोत्रका श्रवणकर श्रीविद्यानन्द आचार्य प्रबुद्ध हुए
और तत्क्षण सम्यग्दर्शन तथा अखण्ड सम्याज्ञान और त्रयोदशविध चारित्रको स्वीकार कर विद्यानन्द स्वामीजीने शास्त्रार्थ और शास्त्र-लेखन द्वारा अक्षुण्ण जैनधर्मकी प्रभाबमा की। उस समय भारतवर्षकी चारों दिशाओं में जैनधर्मका पटइनिनाद व्याप्त था। न्याय विद्या के अग्रगुरु श्री समन्तभद्राचार्य भगवान के भावाको विद्यानन्दस्वामी गुरु रूपसे मानते थे । अतएव अटसहस्री ग्रन्थ के मंगलाचरण श्लोक स्वामीजीने समन्तभद्राचार्यकी वन्दना की है। अन्य मतावलम्बियों के पोच और युक्तिरहित आपातरम्य कुतोंसे जिनागम रहस्यको बाल बालाम रूपसे भी अखण्डित होनेके उद्देशसे अथवा प्रत्युत महावीर स्वामी के निकट शालार्थ करनेके लिये गये गौतमगणीके अनुसार या अहिक्षेत्र पार्श्वनाथके मन्दिर, जैनोंको पराजित करनेके अभिप्रायसे गये हुए स्वयंके ( अपने ) समान, शास्त्रार्थ करने के लिये आये हुए परवादियोंको जैनधर्ममें दीक्षित करने के अभिमायसे विद्यानंद आचार्यने तत्त्वार्थसूत्रके ऊार तत्वार्थ श्लोकार्तिक ग्रन्थकी रचना की । पूर्वोक्तभाव, उनकी लेखनशैली और खंडनमंडनध्यवस्थासे विचारशीको 'सहज प्रगट हो सकता है। पूज्यपाद विद्यानन्द समीनीने इस ग्रंथ, अत्यंत कठिन जैनसिद्धांतके प्रायोंको सुयुक्तियोंसे सिद्ध कर दिया है। प्रत्येक स्थल पर परवा दियोंको स्थपा समर्थन करनेकेलिये पर्याप्त
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स्थान देने का भी औदार्थ दिखलाया है । माढ अन्धकारके प्रसारसे ही सूर्यके प्रताप, प्रकाश, आदि गुणों तथा विपुलपतिपक्ष निराकरण शक्तियोंका ज्ञापन होता है। न्यायशास्त्र और सिद्धान्त शास्त्रको दृष्टिसे यह ग्रंथ अतीव उच्चकोटि-का है। वर्तमानकालमें इस मंथका अध्ययन अध्यापन हो कप्रसाध्य होरहा है । सिसपर इस महान् ग्रंथकी टीका करना तो अंधकवतिकीय (अन्धेके हाथ बटेर ) ही कहना चाहिये । कहां यह अनेक प्रमेयोंसे भरा हुआ गम्भीर ग्रन्थ समुद्र और कहाँ मेरी छोटीसी टूटी फूटी बुद्धिरूपी नोका ! इस विषमसमस्याको घटनासंयोजनाम पञ्चपरम गुरुचरण शरणके अतिरिक्त और क्या प्रयोजक हो सकता है ? इस जगतरूप नाट्य भूमिमें अनेक प्रकारके पात्र हैं। किन्तु जलौका नीतिको हेय समझकर " हंसशीर न्याय " से उपगृहनाङ्ग का पालन ही सम्यग्दृष्टिको अनिवार्य होता है। अतः निन्दा, प्रशंसा, वादके निर्णयको साधु सज्जनोंकी विवेचना बुद्धिपर उन्मुक्त कर, स्वाभाविक पदवीका अवलम्य करता हुआ गुरुचरणरजसे अपने मस्तकको पवित्र बनाकर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्धके देशभाषारूपी कार्यमे प्रवृत्त होता ई । रत्नत्रयधारी थर्मात्मा सज्जन शुभभावोंसे मेरी आत्माको प्रबल बनावे, ऐसी पवित्र भावना है । “ॐ नमोऽहत्यामेष्ठिने "।
श्रीविद्यानन्दस्वामी तत्त्वार्थश्लोकार्तिक ग्रन्धके आदिमें निर्विनरूपसे शास्त्रको परिसमाप्त्यर्य और शिष्टोंके आचारके परिपालनका लक्ष्य रख तथा नास्तिकता परिहार के लिये एवं उपकार स्मरणके योतनार्थ अपने इष्टदेव श्री १००८ वर्धमान स्वामीका ध्यान करते हुए प्रतिज्ञा श्लोकको कहते हैं ।
श्रीवर्धमानमाध्याय घातिसंघातपातनम् ।
विद्यास्पदं प्रवक्ष्यामि, तत्त्वाथे श्लोकवार्तिकम् ॥ १॥ प्रत्येक ग्रन्थनिर्माताको अपने प्रारम्भित ग्रन्थमें सम्बन्धाभिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन इन तीनों गुणोंका समावेश करना आवश्यक है । तभी बह ग्रन्थ विचारशील विद्वानों आदरणीय होता है।
अपने वक्तव्य प्रमेयका ग्रन्थके शवोंसे वाचन होनेको सम्बन्धाभिधेय कहते हैं । अतएव उन्मत्तोका बकशद श्रद्धेय नहीं है । वाच्य अर्थोंमें परस्पर सम्बन्ध घटना होती रहनी चाहिये ।
जिस कार्यको धीमान् जन कर सकते हैं, उसको शक्यानुष्ठान कहते हैं। इस गुणके न होनेसे किसी व्यक्तिका शिरसे चलनेका, औषधिपति चन्द्रमाको घरमै लानेका तथा सर्ववरहारी तक्षक सर्पक शिरमें लगी हुयी मणिके ग्रहण करनेका उपदेश ग्राह्य नहीं होता है ।
प्रकृतमे स्वहितकारी, प्रयोजनसाधक यायोम इप्रयोजन गुग है। तभी तो विष-भक्षण, हिंसा, परधन ग्रहणको पुg करनेवाले बाक्यों में प्रामाण्य नहीं माना है। इस ग्रन्थमें भी ये तीनों गुण विद्यमान हैं।
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मुमुक्षुजोंके उपयोगी तत्वार्थसूत्रके प्रमेया और श्लोकार्तिकग्रन्थका वाच्यवाचकभावसम्बन्ध है । इस प्रकरण ग्रन्थके द्वारा प्रतिभासित मोक्षके कारण संवर, निर्जरा तत्त्वोंका और संसारके कारण आस्रव, बन्ध तत्वोका उपादान और हान करना संसारी जीवोंको शत्यानुष्ठान भी है तथा वक्ता एवं श्रोताको अज्ञानकी निवृत्ति और कैवल्यविद्याकी प्राप्ति होना साक्षात् और परम्परया इष्टपयोजन है। इन सम्पूर्ण विषयोंको आद्यश्लोकमें ही स्वामीजीने ध्वनित कर दिया है ।
श्लोकका अर्थ--प्रवक्ष्यामि ऐसी भविष्यकालवाचक लुट् लकारफे उत्तम पुरुषकी क्रिया होनेसे "अहं। पदका आक्षेप (अध्याहार) हो जाता है । अहं शद्ध अभिमानमयुक्त अपने औद्धत्यको भी प्रगट करता है। अत: शिष्टसम्प्रदायमै कण्ठोक्तरूपसे अहं अर्थात् मैं शब्दका कचित् उच्चारण नहीं भी किया जाता है। थोडे शब्दोंमें अधिक अर्थ लिखनेवाले विद्वानोंको क्रियासे ही कर्तृवाच्यमें प्रत्यय होनेके कारण कर्ना अर्थ स्पष्ट है । उसको पुनः लिखने में पुनक्त दोषको गन्ध भी प्रतीत होती है । अतः मनीषी आचार्य प्रवक्ष्यामि कियासे ही प्रतिज्ञा करते हैं । अर्थात् प्रकर्षेण युक्तिपूर्वक परपक्षनिराकरणेन परिभाषयिष्यामि, मैं विद्यानन्द आचार्य युक्तिपूर्वक प्रतिवादियोंके पक्षका निराकरण करता हुआ भाष्यसंकलनायुक्त स्पष्टरूपसे कहूंगा। कं (किसको) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् "नामैकदेशो नाम्नि प्रवर्तते। पूरे नामका एकदेश भी बोल दिया जाता है। जैसे सत्यभामा नामकी लडकीको सत्या या मामा कह देना । इस नियमके अनुसार उमास्वामी आचार्यसे रचे हुए तत्त्वार्थ मोक्षशास्त्रको भी तत्त्वार्थ कहदेते हैं । अत्यन्त प्रिय विषय में प्रायः आधे मामका उच्चारण होता है । विद्यानन्द आचार्यकी तत्त्वार्थसूत्र और उसका " मोक्षमार्गस्य नेतारं " इत्यादि मंगलाचरणश्लोक एवं तत्त्वार्थसूत्रके उपर रचे गये गन्धहस्तिमहाभाष्य और उसके “देवागमनभोयान " आदिमंगलापरणके श्लोकोपर अत्यन्त श्रद्धा थी। अतः ग्रन्थकार श्रद्धेय विषयोंके आद्य कारण तत्त्वार्थसूत्रके ऊपर श्लोकोंमें यानी अनुष्टुप् छंदोंमें बार्तिकोंको रचनकी प्रतिज्ञा करते हैं। श्लोकबद्ध वार्तिक । मूलग्रंथकारसे कथित तथा उनके हृदयमत गूढअर्थोंकी एवं मूल ग्रन्थकर्तासे नहीं कहे गये अतिरिक्त भी अर्थों की अथवा दो वार कहेगये प्रमेयकी चिन्तनाको वार्तिक कहते हैं । ऐसे अर्थको धारण करनेवाले तत्त्वार्थ श्लोकार्तिक नामकवृत्तिरूपसे किये गये अन्थको कहूंगा । किं कृत्वा (क्या करके ) श्री वर्धमानमाध्याय ( अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरङ्गलक्ष्मी और समवसरण आदि पाह्यलक्ष्मीसे सहित होरहे इष्टदेव श्रीवर्धमानस्वामी चौवीसवें तीर्थङ्करको मन, वचन, कायसे ध्यान करके ) कथम्भूवं श्रीवर्धमानं (कैसे हैं श्री वर्धमान भगवान् ) घातिसंघातघातन (जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन घातिकमो की सैंतालीस प्रकृतिओं तथा इनकी उत्तरोत्तर अनेक प्रकृतियोंका क्षायिक रत्नत्रयसे समूल-चूल क्षय कर दिया है)। पुनः कथम्मूतं श्रीवर्धमान ( फिर कैसे हैं वर्धमानस्वामी) विद्यास्पदं ( मुझ विद्यानन्दी आचार्यके अवलम्ब है। यहां स्वामीजीने गुरुजनोंसे प्रिय मिट सम्बोधनमें एकांश(आधे) बोले गये विद्या शब्द्वका
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अपनेलिये प्रयोग किया है | श्री विद्यानन्द स्वामीको अपने इष्टदेव श्रीवर्धमान स्वामीका ही सहारा है । अथवा इस श्लोक द्वारा द्वितीय अर्थ भी अभिधेय होजाता है--- अहं घातिसंघातघातनं आध्याय प्रवक्ष्यामि " मैं घातियोंके समुदायको ध्वंस करनेवाले श्रीअर्हन्तदेवका ध्यान करके श्लोकवार्तिक ग्रन्थको " प्रवक्ष्यामि " आगमगम्य पदार्थोंको हेतुवाद और दृष्टान्तपूर्वक दार्शनिकोंक सन्मुख सिद्ध करूंगा। " कथंभूतं अर्हन्तं " कसे हैं श्री अर्हन्त देव " श्री वर्धमानं " " अवाप्योरुपसर्गयोः ॥ इस करके अव उपसर्ग के अकारका लोप होजाता है । अव समन्तात् ऋद्धं वहीसं नान के राजा बल, नारों ओरसे अनन्तानन्त पदार्थों के प्रकाश करनेकी शोभासे देदीप्यमान है केवलज्ञान जिनका " पुनः कथम्भूतं.' फिर कैसे श्रीअन्तदेव " विद्यास्पदं " " सम्पूर्णवाङ्मय द्वादशांगवाणीके आसद अर्थात् उत्पत्तिस्थान या अधिष्ठान हैं । " पुनः कथम्भूतं श्री अर्हन्तं " फिर कैसे हैं श्री अर्हन्तदेव ", तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वोपलशितधर्मप्रकृष्टतान्यतरावच्छिन्नस्तत्पदवाच्यार्थः " तत् अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुओमें प्रधानशुद्धाला " व " उसका भाव हुआ, स्वाभाविकपरिणाम " अर्थ " सो है प्रयोजन जिसका ऐसा जो लोक अर्थात् तीर्थकर प्रकृतिके उदय कालमें होनेवाले पुण्यगुण ख्यापम रूप यश इसके लिये है, वृत्तिकानां ( आचरणानां ) समुदायो वार्तिकं, चारित्रका समुदाय जिनका । भावार्थ-अर्हन्तदेव यथाख्यात चारित्रकी उत्तरोत्तर शुद्ध परिणतियों के द्वारा तेरहवे गुणस्थानमें तीर्थकरत्यके कर्तव्योंसे उत्तम यशको प्राप्त करते हुए प्रसिद्ध परम शुद्धात्मा पदवीको प्राप्त करेंगे। स्वामीजीको तृतीय अर्थ भी अभिप्रेत है
" आध्याय प्रवक्ष्यामि " मैं के अर्थात् परमात्मास्वरूप सिद्धपरमेष्ठीका ध्यान करके " स्पष्ट वक्ता न बञ्चकः " की नीतिके अनुसार सिंह वृत्तिसे सर्व सन्मुख ( सरे बाजार ) प्रतिबादियोंको शास्त्रार्थ करनेका दुंदुभिवादन करता हुआ सप्तभंगोवाणीका निरूपण करूंगा " कथम्भूतं के " कैसे है सिद्धपरपेष्ठी " श्रीवर्धमानं " श्रिया वातीति श्रीवं श्री, ब, ऋद्ध, मान अनन्तानन्त संख्यानेन ऋद्धं प्रवर्द्ध मान परिमाणं यस्य-आत्मलब्धिको सुरमित करनेवाला प्रकृष्ट है परिमाण जिनका। भावार्थ---अनेक भव्य जीवोंकी स्वाभाविक परिणतिरूप स्वसम्पत्तिको स्वकीयशुद्धिकी सत्तामात्रसे सुवासित करनेवाले अनंतानंत सिद्ध भगवान् सिद्धक्षेत्रमें शोभायमान हैं । पुनः कथम्भूतं " के " घातिसंघातपातनम् फिर कैसे हैं सिद्ध भगवान् ?
मोहो खाइयसम्म केवलणाणं च केवलालोय । हणदि हु आवरणादुर्ग अणतविरियं हणेइ विग्धन्तु ॥ १ ॥ सुहमं च णाणकम्न हणेइ आऊ हणे अवगहणं ! अगुरुलहुगं च गोद अब्बावाहं हणेइ धेयणियं ॥ २ ॥
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इन प्रभासयोंके अनुसार सन्याल आदि आ. मोरे घात करनेवाले आठ कर्मीको बतलाया है । अघाति को भी नका अर्थ ईषत् यानी " थोडा " माना है। अत: घाति संघातघातनं अर्थात् ज्ञानावरण आदि आठ कौका संझय करनेवाले सिद्ध भगवान् हैं। "पुनः कथम्भूत क" फिर कैसे हैं सिद्ध परमात्मा " विद्यास्पदं " केवलज्ञान जिनमें प्रतिष्ठित होरहा है अर्थात् केवलज्ञानके सार्वभौम अधिपति हैं या शरीरादिसे रहित होकर शुद्धचैतन्य मात्र है सतत अवस्थान जिनका | " कथं प्रवक्ष्यामि " कैसा है निरूपण करना, तत्वार्थ श्लोक्याति यथा स्यात् तथा । यह क्रियाविशेषण है । तत्त्वार्थश्लोक अर्थान् आत्मतत्वके हितकीर्तनमे अवार्ति, अव+आति अवका अर्थ अवक्षेपण है । यानी दूर करदी है संसार संबंधी यातनायें (पीडाय) जिस कथनमें, यहां भी अव उपसर्गके अकारका लोप हो जाता है, यहां अपसमानार्थक अव उपसर्ग है, जैसे कि अवचिनोति अपचिनोति । इस श्लोकका चतुर्थ अर्थ इस प्रकार है:
( अहं विद्यास्पदं आध्याय प्रवक्ष्यामि ) मुझको विधा यानी आद्यतत्त्वज्ञान की प्राप्तिके आधारभूत समंतभद्र स्वाभीके वाश्य ही है । अतः अन्वर्थनामा मुझ विद्या (विद्यानन्द ) के श्रद्धास्पद आराध्य गुरु महाराज समंतभद्रस्वामी हैं । अतः मैं अपने गुरु संमतभद्र स्वामीका ध्यान करके ( प्रवक्ष्यामि ) मानूं स्वर्गस्थित गुरु महाराजके सन्मुख तत्वार्थशास्त्रकी परीक्षा देनेकी सदिच्छासे स्वभ्यस्त प्रमेयका भलेप्रकार निरूपण करूंगा । ( कथम्भूतं विद्यास्पद) कैसे हैं समन्तभद्रस्वामी, “ श्री वर्धमानं " अर्थात् काञ्ची, वाराणसी आदि नगरियों में अनेक विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करके विजयलक्ष्मीको प्राप्तकर शिवकोटी राजाके सन्मुख स्वकीय नमस्कार झेलनेके योग्य जगदानंदन चंद्रप्रभ भगवान्की प्रतिभाप्रभावनाका चमत्कार दिखलाकर अखिल भारतवर्ष जैनधर्मकी ध्वजा फहरानेवाली विजयलक्ष्मीको अहोरात्रि चतुर्गुणित वृद्धिको प्राप्त कर रहा है मान यानी आत्मगौरव जिनका, श्रियं वर्द्धयतीति श्रीवर्द्धः। ( पुनः कथम्भूतं समंतभद्रं ) फिर कैसे हैं श्री समंतभद्र " घातिसंघातघातनम् " सम्यग्दर्शनकी रोमरोमान रूपसे रक्षा करते हुए शरीरस्वस्थताके घाती भस्मक आदि अनेक रोग समुदायको जिनवाक्य पीयूषधारासे घात करनेवाले अथवा स्याद्वादसिद्धान्तक प्रचार प्रभावनारूप शुभभावना विचारोंकी वासनासे अग्रिम जन्ममें त्रैलोक्यानंद विधायिनी, तीर्थकर प्रकृतिको बांधकर आगामी उत्सर्पिणी कालमें तीर्थकर होते हुए ज्ञानावरण आदि समुदायको अनंतानंत कालतकके लिये घात करनेवाले । घातिसंघात घातयिष्यति, (पुनः कथम्भूतं ) फिर कैसे हैं श्री समंतभद्र स्वामी ( सत्यार्थ श्लोकवार्तिक ) वर्तिकानां समूहो वार्चिकम्-तत्त्व करके निर्णीत अर्थ समूहको प्रकाशनार्थ या प्रवर्धनार्थ परवादिमदोन्माथिनी वाणीरूप वर्तिकाओंके ( दीप कलिकाओंके ) समुदाय रूप है । "शाकपार्थिवादीनामुपसंख्यानम् ।" करके यहां मध्यमपदलोपी समास है अर्थात् श्रीसंमतभद्र स्वामीकी वाम्धारारूपी प्रदीपकलि
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काओंसे यावत् तत्त्वोंका प्रकाश हो जाता है । यहां वर्तिकाओंके समुदायसे प्रदीप लक्ष्यार्थ है । स्वामीजीको पञ्चम अर्थ भी अभीष्ट है
___" अहं तत्त्वार्थश्लोकवातिकमाध्याय प्रवक्ष्यामि । चारधिनयोंमें ज्ञानविनय प्रधान है शुद्धांतःकरणसे स्वात्मोपलब्धिके उपयोगी स्वकीय ज्ञानको बढाना और उसकी बहुत मान्यता करना ज्ञान विनय है । अत: अपनी शुद्धात्मामें निरवय स्वकीय-ज्ञानकी प्रतिष्ठा करना आवश्यक गुण है । सम्पूर्ण परद्रव्योंसे चित्त-वृत्तिको हटाकर अपनी आत्माके स्वाभाविक गुणोंका ध्यान करना ही सिद्धिका साक्षात् कारण है। अतः श्रीविद्यानंद सामी अपनी आला पूर्ण रूपसे विराजमान ज्ञानस्वरूप श्लोकावाधिक मा स्वयं स्वान कर पा .. उससे मारी ग्रंथन करनेकी प्रतिज्ञा करते है । ( कथम्भूतं लोकवार्तिक) कैसा है श्लोकवार्तिक ग्रंथ, ( श्रीवर्धमान ) ऊहापोहशालिनी, प्रतिवादिमत्तेभसिंहनादिनी, नवनवोन्मेषधारिणी, स्याद्वादसिद्धांतप्रचारिणी, विद्वच्चेतश्चमत्कारिणी, अध्येतृबोधवेशद्यकारिणी, ऐसी तर्कणा लक्ष्मीसे उत्तरोतरवृद्धिको प्राप्त हो रहा है। ( पुनः कथम्मूतं श्लोकवार्तिक ) फिर कैसा है श्लोकवार्मिक ग्रंथ " आध्यायपातिसंघातपातनम् " आङ्, थी, इण घञ् चारों ओरसे बुद्धिके समागम द्वारा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मके सर्वघातिपटलोंका उदयाभावरूपक्षय करदेनेवाला है। यहां आध्याय पदकी आवृत्ति कर दो बार अन्वय किया है अथवा घातिसंघातघासनम् " कुयुक्तियों या अपसिद्धान्तोंके समुदायका विनाश कर देनेवाला है । (पुनः कथम्भूतं श्लोकवाचिक ) फिर कैसा है श्लोकवार्मिक ग्रंथ (विद्यास्पदं) प्रतिवादियों के द्वारा विचार, लाये गये पूर्वपक्षोंमें न्याय, मीमांसा, चेदांत, बौद्ध, आदिकोंकी तत्त्वविद्याओंका तथा उत्तरपक्षमे सिद्धांतित आहेत सिद्धांत और न्यायविद्याका स्थान (घर) है। ऐसे तत्वार्थसूत्रके श्लोकका यानी यशःकीर्तनका वार्तिक अर्थात् वाताओंका समुदाय यह ग्रंथ अन्वर्थनामा है । वृत्तिरूपेण कृतो ग्रन्थो वार्तिक । सत्त्वार्थसूत्रके ऊपर श्लोकोंमें रचागया वार्तिक है।
श्री विद्यानंद स्वामी मंगलाचरण श्लोकके विषयमे कार्यकारण भावसंगतिको दिखलाते हैं । श्योंकि विना संगतिके बोले हुए वाक्य अप्रमाण होते हैं जैसे कि
जरदवः कम्बलपाणिपादो, द्वारि स्थितो गायति मंगलानि ।
तं ब्राह्मणी पृच्छति पुत्रकामा, राजन सितायां लशुनस्य कोऽर्थः ।। ___ इसका अर्थ:---एक बुढा बैल है। हाथ पैरोंमे कम्बल है । ( बैलोंके गलेमें लटकनेवाला चमडा) द्वार पर बैठा हुआ मंगल गा रहा है । उसको पुत्रकी इच्छा रस्वती हुयी बामणी पूंछती है कि हे राजन् ! मिश्री लहसुन डालने का क्या फल है। ऐसे अण्ट सण्ट वाक्योंकी पूर्वापर अाम संगति नहीं है । इस कारण अप्रमाण होते हैं। अतः प्रामाणिक पुरुषों को संगतियुक्त बाक्य ही बोलने चाहिये संगति छह प्रकारकी है
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उपदान देतुतावसुरस्तथा । Prastaarket पोढा संगतिरिष्यते ॥ २ ॥
यहां हेतुताङ्गति है, लोकवार्षिक ग्रंथका और गुरुओंके ध्यानका अध्यभिचारी कार्यकारण भाव सम्बन्ध है । इसी घातको ग्रंथकार आद्य वाक्य द्वारा प्रगट करते हैं
श्रेयस्तच्वार्थं श्लोकवार्त्तिकप्रवचनात्पूर्वं परापरगुरुप्रवाहस्याऽऽध्यानं तत्सिद्धिनिबन्धनत्वात् ।
इस अनुमानवाक्य ' तत्त्वार्थ श्लोकवाचिकप्रवचनात्पूर्वं परापर गुरुप्रवाहस्याभ्यानं ' यह पक्ष हैं, श्रेयस्त्व साध्य है और 'तत्सिद्धिनिबन्धनत्व' हेतु है । तत्त्वार्थश्लोकवाचिक महाग्रन्थ के आदि पर गुरु सर्वोत्कृष्ट तीर्थकरोंका और अपर गुरु गणधर से लेकर आम्नायके अनुसार निरंतर प्रवर्तनेवाली गुरुपरम्पराका पूर्णरूप से चिन्तन करना अत्यंत श्रेष्ठ है, क्योंकि लोकवाचिक अन्थकी निर्विघ्न समाप्तिका कारण गुरुजनोंका चिन्तन ही है ।
न्यायवेत्ता विद्वान् प्रत्यक्षित और आगमसिद्ध पदार्थों को भी अनुमानसे सिद्ध करनेकी अभिलाषा रखते हैं । अनुमानसे प्रमेयसिद्धि दृढता आ जाती है । चमत्कार भी प्रतीत होता है । एक ही अमिको आगम प्रमाण, अनुमान और प्रत्यक्ष से सिद्ध करने में विशिष्ट प्रमिति हो जाती है । ऐसे प्रमाण-संप्लवको जैनाचार्य भी इष्ट करते हैं । एक अमें विशेष - विशेषांशरूप से जाननेवाले अनेक प्रमाणकी प्रवृत्तिको प्रमाणसम्व कहते हैं ।
जाता
सिद्धांत विषयोंको अनुमान प्रमाणसे सिद्ध करने, कराने में दूसरा यह भी प्रयोजन है कि लक्ष्यलक्षणभावकी अपेक्षा हेतुहेतुमद्भाव बना देने में गुणों और दोषोंका अधिक आदान प्रदान हो है । लक्षणके अव्याप्ति, अतिव्याति और असम्भव ये तीन दोष है । लक्षण में इनके होने से दूषण और न होनेसे भूषण है, किन्तु हेतुके दोष उक्त तीन दोषोंसे कहीं अधिक है । अव्याप्ति दोष भागासिद्ध हेत्वाभासमें गर्मित हो जाता है, और अतिव्याप्ति व्यभिचारमै गतार्थ है तथा असम्भव असिद्ध हेत्वाभासमें प्रविष्ट हो जाता है। फिर भी हेतुके कतिपय सत्प्रतिपक्ष, बाघ, अकिञ्चित्कर, विरुद्ध आदि दोष लक्ष्यलक्षणभावसे प्राप्त लक्षणाभासमें देनेसे शेष रह जाते हैं । अतः लक्ष्यको साध्य बनाकर और लक्षणको हेतु बनाकर अनुमान द्वारा पदार्थोंकी सिद्धि कर देनेसे वादीको व्याप्ति, हांत द्वारा सर्व दोषों को हटाकर स्पष्टरूपसे कथन करनेका अवसर मिल जाता है, और प्रतिवादीको दोषोत्थापन करनेका पूरा क्षेत्र (मैदान) प्राप्त हो जाता है। जैनाचार्यों का यह औदार्य प्रशंसनीय है । " वादे वादे जायते तत्त्वबोधः " प्रमाण और तर्कणाओंसे स्वपक्षकी सिद्धि और अन्य पक्ष दूषण बताते हुए तस्त्र निर्णय या जीतने की इच्छा से भी कदाग्रहरहित वादियों के परस्पर में हुए संवादको बाद कहते हैं। ऐसे वाद संवादके होते रहते वस्तुभूत तत्वोंकी झलक हो जाने पर हेय - उपादेय-तत्वों का निर्वाध बोध हो जाता है । यह सिद्धान्त भी दोष और गुण
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विवेचनार्थ पूरा स्थान मिलनेपर ही संघटित होता है। इसलिये कचित् 'शृंगसाखावान् गौ: ' ऐसे लक्षणवाक्य को भी हेतुपरक बाक्योंसे लिखते हैं I " अयं गीः श्रृंगसास्नादिमत्त्वात् " यह गौ है, क्योंकि इसमें सींग और सारखा ( गलेमै लम्बा लटकता हुआ चर्म ) है । सींग साखावाली गौ होती है । इस लक्षण वाक्यसे सींग और साना होने के कारण यह गौ है, ऐसा परीक्षकोंका हेतुवादरूप वाक्य बोकर प्रतीत होता है । अतः उद्भट न्यायशास्त्री श्रीविद्यानन्दस्वामी प्रकृत अर्थको सद्धेतुओंसे सिद्ध करते हैं ।
१०
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as परमो गुरुतीर्थंकरत्वभियोपलक्षितो वर्धमानो भगवान् घातिसंघातघातनत्वा-धस्तु न परमो गुरुः स न घातिसंघातघातनो यथास्मदादिः ।
1
यहां ' तीर्थकर स्वश्रियोपलक्षितो वर्धमानो भगवान् पक्ष है । परमगुरु साध्य है । घातिसंघात हेतु है । अस्मदादि व्यतिरेक- दृष्टांत है । उन गुरुभोमें अनन्त, अनुयम प्रभाव और अचिन्त्य विभूतिका कारण तथा तीनों लोकको विजय करनेवाली ऐसी नीकरलक्ष्मीसे सम्बद्ध होकर शोभायमान हो रहे वर्धमान भगवान् तो उत्कृष्ट गुरु हैं यानी अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाले हैं । क्योंकि आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यश्य और चारित्रको विभावित करनेवाले चार घातिया कर्मों के क्षयकारक होनेसे, ( हेतु) । गुरुपने के लिये उक्त गुणों का पाया जाना आवश्यक है । जो परमगुरु नहीं हैं, वे घातिया कर्मीका नाश करनेवाले भी नहीं हैं। जैसे हम आदि अल्पज्ञानी। यहां वर्धमान भगवान्को उपलक्षण करके सर्वे ही अर्हत देवोंको पक्षकोटि में ले रखा है, अतः ऋषभदेव भगवान् आदिको भी परमगुरुांना साध्य है, वे अन्य दृष्टांत नहीं हो सकते हैं, और पार्श्वनाथ आदिका दृष्टांत देनेपर प्रतिवादीकी ओरसे आगमाश्रित दोष उठा देनेकी भी सम्भावना है | अतः अन्वय प्रांत न देकर व्यतिरेक व्याप्तिको दिखलाते हुए व्यतिरेक दृष्टांत दिया है। विपक्ष हेतुका न रहना ही व्यासिका प्राण है। यह बात भी ध्वनित हो जाती है ।
आलोक मद्यपि हेतुको द्योतन करनेवाले पञ्चमी विभक्त्यन्त - पदका प्रयोग नहीं है । घातिसंघातघातनम् ऐसा मुख्यतः प्रथमान्त किन्तु वर्धमानं का विशेषण होनेसे द्वितीया विभक्त्यन्त वाक्य है । फिर भी " स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं " इस वाक्य के सदृश प्रथमान्त भीं हेतुवाक्य बना लिये जाते हैं। जैसे "गुरवो राजमाषान भक्षणीयाः " यहां राजमाषा न भक्षणीया गुरुत्रात् यह हेतुवाच्य है । रमास नहीं खाने चाहिये, क्योंकि प्रकृतिसे मारी होते हैं । वायु दोषको पैदा करते हैं ।
अब वर्धमान भगवान् परमगुरुत्व सिद्ध करनेके लिये दिया गया घातिसंघातघातनत्व हेतु असिद्ध है यानी पक्षमें नहीं रहता है, ऐसी प्रतिवादीकी शंकाको दूर करते हैं:घातिसंपातघातनोऽसौ विद्यास्पदत्वात् ।
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यहां असौ यह पक्ष है, घातिसंघातपातनत्य साध्य है। विद्यास्पदत्व हेतु है । ये श्री वर्धमान तीर्थकर घातिसमुदायका ध्वंस करनेवाले हैं। क्योंकि पूर्ण सम्यग्ज्ञानके आश्रय हैं। यहांपर इस द्वितीय हेसुमें प्रतिवादी व्यभिचार उठाता है; किसी स्थलमै हेतुके रहते हुए साध्य के न रहनेको व्यभिचार कहते है।
विधैकदेशास्पदेनास्मदादिनाऽनैकान्तिका, इति चेन्न ।
कतिपय पदार्थविषयक सम्यग्ज्ञानके आभय तो सम्यग्दृष्टि हम लोग भी हैं । किन्तु हमारे घातियाकर्मीका क्षय नहीं हुआ है । अतः व्यभिचार दोष हुआ ।
आचार्य कहते हैं कि यह आपका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकिः'सकलविद्यास्पदत्वस्य हेतुत्वाव्यभिधारानुपपत्तेः।
परमगुरूपना सिद्ध करनेवाले हेतुमें विद्याका अर्थ सफलविद्या है । अतः पूर्णज्ञान माने गये केवलज्ञानके आश्रयपनेको हेतु करनेसे व्यभिचार दोष नहीं बन सकता है । हम सदृश सामान्य जीवोंमें पूर्णज्ञान नहीं है।
प्रसिद्धं च सकलविद्यास्पदत्वं भगवतः सर्वज्ञत्वसाधनात ।
भगवान्को त्रिकाल-त्रिलोकसन्बन्धी पदार्थाका प्रत्यक्षज्ञान सावदिया है। इस कारणसे सकल वियाका आधारपना भी सिद्ध हो चुका ।
अतो नान्यः परमगुरुरेकान्ततत्त्वप्रकाशनात् । दृष्टेष्टबिरुवचनवादविद्यास्पदस्वादक्षीणकल्मषसमूहत्वाच्चेति न तस्याऽऽध्यानं युक्तम् ।
अतः केवलज्ञानी जिनेन्द्र देवसे अतिरिक्त दूसरा कोई कपिल, सुगत आदि परमगुरु नहीं हैं। क्योंकि दूसरे लोगोंने एकान्ततत्त्रका प्रकाशन किया है और उनके ग्रंथरूपी वचनोंमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे विरोध आता है। तथा वे पूर्ण ज्ञान न होनेसे अविद्या के भी स्थान हैं और कर्मसमुदाय भी उनका नष्ट नहीं हुआ है। भावार्थ-वर्धमान सामीने अनेकान्त तत्त्वका प्रकाशन किया है । इस हेतुसे उनके बचन प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे और पूर्वापर में विरुद्ध नहीं है । अविरुद्ध वचन होनेसे ही वर्धमान स्वामी विद्याके आस्पद जाने जाते हैं । केपल. ज्ञानरूपी विद्या के आश्रय होनेसे ही वे पारके क्षय करनेशले सिद्ध होते है और पापका क्षय करनेके कारण परमगुरुपना वर्धमानस्वामीम आजाता है। इन चार ज्ञायक हेतुओंसे श्री वर्धमान स्वामी तो. पुरव सिद्ध होगया, किन्तु कपिल, सुगत आदिकों गुरुपनका निषेध करने वाला
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व्यतिरेक बन गया । अर्थात् कपिल आदिकोंने पाप समुदायका क्षय नहीं किया है । अतः वे अथियाने स्थान है। अविधाके आश्रय होनेसे कपिल आदिकोंके वचन पूर्वापर तथा प्रत्यक्ष और अनुमानसे विरोधी हो जाते हैं | कपिल आदिकोके वचन पूर्वापर विरोधी हैं। तभी तो उनके द्वारा अणिकत्र, नित्यत्व आदि एकान्ततत्तोंका प्रकाशन किया गया ज्ञात होता है
और एकान्ततत्त्वके प्रकाशक होनेसे वे परमगुरु नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार चार हेतुओंकी मालाके ध्यतिरेकदृष्टांत कपिल, सुगत, जैमिनि आदिक हैं । ये परमगुरु नहीं हैं।
एतेनापरगुरुगणधरादिः सूत्रकारपर्यन्तो व्याख्यातस्तस्यैकदेशविद्यास्पदखेन देशतो धातिसंघातपावनस्वसिद्धेस्सामादपरगुरुत्वोपपत्तेः ।
इस प्रकार अन्धय व्यतिरेक द्वारा हेतुओंका समर्थन करनेसे गणघरको आदि लेकर श्री उमास्वामी सूत्रकारतकके आचार्यगण अपरगुरु अच्छी तरह व्याख्यापूर्वक सिद्ध हो गये । क्योंकि पूक्ति चारों सझेतुओंमें एकदेश लगादेने से अपरगुरुग्ना साध्यतककी व्याप्ति बन जाती है। अर्थात् श्रीगणधर कुंकुंद आदिक आचार्योंने अनेक अनेकांततत्त्वोंका प्रकाशन किया है। इससे उनके वाक्य किसी प्रभाणसे विरुद्ध नहीं हैं। ऐसा होनेसे ही वे एकदेश विद्याके आस्पद बन जाते हैं। तथा एकदेश-विद्याके आस्पद होनेसे एकदेश ज्ञानावरण आदि घातिया कोंके नाश करमेवाले ज्ञात होते हैं और कुछ अंशोमें धातिया कोके नाशक होनेसे अपरगुरु भाने जाते हैं । यो विशेषणसहित हेतुफी सामर्थ्यसे उन गणधर आदिके अपर गुरुपन सिद्ध हो जाता है।
भावार्थ:-हेतु दो प्रकारके होते ह। एक कारकहेतु । दूसरे ज्ञापकहतु । अनुमान प्रकरणके हेतुओंको ज्ञापकेतु कहा जाता है। जैसे अभिको सिद्ध करनेमें धूम और मुहूर्तके पहिले भरणिनम्मत्रका उदय सिद्ध करनेमें कृत्तिका-नक्षत्रका उदय । तथा कार्य करनेवाले साघनोंको कारकहेतु कहते हैं। जैसे धूमका कारकहेतु अग्नि है और घटका कुलाल, मिट्टी, दण्ड, चक आदि । कहीं कहीं कार कहेतु साध्य हो जाता है उस कारकहेतुका कार्य ज्ञापक हेतु बन जाता है । ' जैसे पर्वतो वहिमान् धूमात् । यहाँ कारकहेतु वहिको साध्य बनाया है . और वहिके कार्य धूमको ज्ञापकहेतु बनाया है । अतः न्यायशास्त्रों में ज्ञापक और कारक हेतुके विवेक करनेका सर्वदा ध्यान रखना चाहिये। प्रकरणमें पूर्वोक्त हेतु ज्ञापकहे तु हैं। यदि कारक हेतु होते तो यह व्यवस्था होती कि बर्धमान स्वामीने परमगुरुपनेसे ही घातिया कभाका नाश किया । धातिव्याकमेकि क्षयके निमित्तसे भगवान्को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । केवल. ज्ञानके कारण ही भगवान्के वचन प्रत्यक्ष और परोक्षसे अनिरुद्ध पैदा हुए और उन बचनोंको कारण मानकर अनेकान्ततत्त्यका प्रकाशन हुआ । इस प्रकारका कार्यकारणभाव उलटा करनेसे
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यानी कारणोंको साध्य और कार्योंको हेतु बनानेसे अनुमान द्वारा ज्ञाप्यज्ञापक मात्र बन जाता है । साध्य और हेतु के समानदेश में रहने रूप समव्याप्ति होनेपर हेतुको भी साध्य बना सकते हैं । व्यभिचार दोष नहीं होता है । किंतु विषमव्यासि होनेपर तो व्यापकको ही साध्य और व्याप्यको ही हेतु बनाना पडेगा । अन्यथा अनैकान्तिक हेत्वाभास हो जायेगा । यहां प्रश्न है ।
नन्वेवं प्रसिद्धोऽपि परापर गुरुप्रवाहः कथं तच्चार्थश्लोकवार्त्तिकप्रवचनस्य सिद्धिनिबन्धनं यतस्तस्य ततः पूर्वमाध्यानं साधीय इति कश्चित् ।
आप जैनोंने परमगुरुओंकी और अपर गुरुओंकी आध्यायको सिद्ध किया सो ठीक हैं । feng at गुरुओ परिपाटी तत्वार्थ लोकवार्तिक ग्रन्थकी सिद्धिका कारण कैसे हो सकती है ? जिससे कि उन गुरुओंका ग्रन्थ आदि ध्यान करना अत्युतम मामा नावे ऐसा कोई कह रहा है । इस प्रश्नका उत्तर बीचमै नैयायिक यों देते हैं कि
तदाण्यानाद्धर्मविशेषोत्पत्तेरधर्मध्वंसाचद्धेतुकविघ्नोपशमनादभिमतशास्त्रपरिसमाप्तितः
सतत्सिद्धिनिबन्धनमित्येके ।
जाता
उन गुरुओंके चोखे ध्यान से विलक्षण पुण्य पैदा होता है । उस पुण्य से पापका नाश हो | अतः पापको कारण मान करके शास्त्रकी परिसमामिमें आनेवाले विघ्नों का उपशम हो जानेसे अभीष्ट शास्त्रकी निर्विघ्न समाप्ति हो जाती है। इस परम्परा - कार्यकारणभावसे गुरुओंका त्रियोगपूर्वक ध्यान करना शास्त्रकी सिद्धिका कारण है । इस प्रकार कोई एक कह रहे हैं ।
तान् प्रति समादधते ।
अन्थकार कहते हैं कि पुण्यविशेषके साथ शास्त्रपरिसमाप्तिका अन्बबव्यतिरे करूप से कार्यकारणभाव व्यभिचरित है । अतः नैयायिकों का यह उत्तर हमको अनुचित प्रतीत होता है । इस प्रकार नैयायिकोंके उत्तरका मत्युदर रूप से समाधान करते हैं कि-
तेषां पात्रदानादिकमपि शास्त्रारम्भात् प्रथममाचरणीयं परापरगुरुप्रवाहाध्यानवत्तस्यापि धर्मविशेषोत्पत्तिहेतुत्वाविशेषाद्यथोक्तक्रमेण शास्त्रसिद्धिनिबन्धनत्वोपपत्तेः ।
उन नैयायिकोंको शास्त्र के आरम्भसे पहिले पात्रोंको दान देना, इष्टदेवकी पूजा, सत्य बोलना, ईर्यासमिति, चारित्र पालना आदि पुण्यकर्म करना भी इष्ट करना चाहिये। क्योंकि पर अपर गुरुओंके प्रवाहके ध्यानसमान उन पात्रदान आदिको भी पुण्यविशेष की उत्पत्ति करने में समान रूप से कारणता है। ध्यान ही में कोई विशेषता नहीं है, तब तो पात्रदान आदि द्वारा उनके कहे हुए क्रमके अनुसार अधर्मका नाश और पापहेतुक विघ्नोंका विलय हो जानेसे शास्त्रकी सिद्धिरूपी कार्य होना बन जायेगा । भावार्थ- नैयायिकों के मतानुसार नियमसे गुरुओंके ध्यानको
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ही शास्त्री कारणता नहीं आ सकेगी । इष्टदेव पूजा आदि भी कारण हो सकते हैं । अब पूर्वोक्त शङ्काका अन्यवादी इस प्रकार निराकरण करते हैं कि
परममङ्गलत्वाद। सानुध्यानं शास्त्रसिद्धिनिबन्धनमित्यन्ये ।
सर्वोत्कृष्ट मंगलकार्य होनेसे यथार्थवक्ता गुरुओं का ध्यान करना शास्त्रकी सिद्धिका कारण है । अतः अन्थकर्ताको उन गुरुओका ध्यान करना आवश्यक है । ऐसा अन्य कह रहे हैं ।
४
तदपि ताव | सत्पात्रदानादेरपि मंगलतोपपत्तेः न हि जिनेन्द्रगुणस्तोत्रमेव मंगलमिति नियमो ऽस्ति स्वाध्यायादेर्भङ्गलत्वाभावप्रसंगात् ।
इस पर आचार्य कहते हैं कि नैयायिकों के सदृश अन्य प्रतिवादियों का वह कार्यकारणभाव भी अन्वयव्यतिरेक न घटनेसे वैसा ही व्यभिचारी है ।
क्योंकि श्रेष्ठ पात्रोंके लिये दान देना आदिको भी तो मंगळपना सिद्ध है । केवल जिनेंद्र के गुणका स्तवन करना ही मंगल है, ऐसा कोई एकांतरूपसे नियम नहीं है । यदि नियम मानोगे तो स्वाध्याय कायोत्सर्ग, आदिको मंगलपने के अभावका प्रसंग होगा, जो कि हम और तुम दोनोंको इष्ट नहीं है। यहां पूर्वोक्त शंकाका समाधान अपरजन तीसरे प्रकारसे करते हैं, उसको सुनिये |
परमासानुध्यानाद्मन्धकारस्य णीयत्वेन सर्वत्र ख्यात्युपपत्तेस्तदाध्यानं तत्सिद्धिनिबन्धनमित्यपरे ।
उकृष्ट यथार्थ वक्ता गुरुओंका शिष्टसंम्प्रदाय के अनुसार भले प्रकार ध्यान करने से ग्रंथको धनानेवाले विद्वानके नास्तिकतादोषका निराकरण होजाता है। अतः स्वर्ग, नरक, मोक्ष, पुण्य पाप, प्रेत्यभाव केवलज्ञानी, सिद्ध, आचायोंकी आम्नाय आत्मा और उसके अतीन्द्रियगुण आदि तत्रोको संथकार मानते हैं। ऐसा जानकर पूर्वोक्त तवोंके माननेवाले करोडों आस्तिक लोगद्वारा उन मंथकारके वचनोंका आदर हो जानेसे सभी स्थानों पर उनकी ख्याति, पूजा, प्रतिष्ठा होना बन जावेगा । यों उन गुरुओंका ध्यान ग्रंथ के सिद्धि ( प्रसिद्धि ) में कारण 1 भावार्थ -- ग्रन्थ अपने लिये तो लिखा नहीं जाता है। दूसरे लोग ही लाभ उठावें और गाढवासे लिखा हुआ अन्य समाजमें प्रतिष्ठित बनें इस बुद्धिसे प्रेरित होकर ग्रन्थ लिखनेका यत्न किया जाता है | यदि लाखों आस्तिक लोग अन्थकी प्रतिष्ठा न करेंगे तो कोई उस ग्रन्थ से लाभ भी न उठा सकेगा । तथा च ग्रन्थ लिखना व्यर्थ पडेगा । अतः उक्त कारणमालासे गुरुका ध्यान करना ग्रन्थकी निष्पत्तिका कारण है । इस प्रकार तीसरे सज्जनोंका समाधान है
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तदप्यसारम् ।
नास्तिकतापरिहारसिद्धिस्तद्वचनस्यास्तिकैरादर
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आचार्य कहते हैं कि ग्रन्थकारके नास्तिकता दोषके दूर करनेका और प्रशंसा प्राप्त करनेका वह उपाय भी प्रशस्त नहीं है । अतः वह तीसरोंका उत्तर भी निस्सार है ! जब कि
श्रेयोमार्ग समर्थनादेव वक्तुर्नास्तिकतापरिहारघटनात् तदभावे सत्यपि शास्त्रारम्भे परमात्मानुध्यानवचने तदनुपपत्ते ।
वक्ता ग्रन्थकारने आदि सूत्रमें ही कहे गये मोक्षमार्गका वार्तिक और भाष्य द्वारा समर्थन किया है । इसीसे उनका नास्तिकपन दोष दूर हुआ घटित हो जाता है। उस यदि मोक्षमार्गका व्याप्ति द्वारा, हेतु दृष्टान्तोंसे समर्थन न करते और शास्त्रके आदिमें परमात्माके वढिया ध्यान करनेका वचन कह भी देते तो भी वह नास्तिकताका परिहार नहीं हो सकता था । क्योंकि कई मनुष्य "विषकुम्भ पयोमुख" के स्पायानुसार लोक रिझाने के लिये कतिपय दिखाऊ काम कर देते हैं। पश्चात उनकी कलई खुल जाती है । अब चौथे कोई महाशय उक्त शंकाका उत्तर इस प्रकार देते हैं कि"शिष्टाचारपरिपालनसाधनत्वासदनुध्यानवचनं तसिद्धिनिबन्धनमिति केचित्"।
"गुरजन नुसन्ध शिष्याः । ६६ बायसे गुरुपरिपाटीके अनुसार अनिन्दित चरित्रवाले शिष्ट-सज्जनोंको अपने गुरुओंका पुनः पुनः ध्यान करना और उसका अन्धकी आदिमें उल्लेख कर कथन करना अपने कर्तव्यका परिपालन है। इस कारण गुरुओंका ध्यान उस शास्त्रकी सिद्धिका कारण | गुरुनाफा 15 ध्यान करनस हा शक जाचारका पारपालन हो सकता है । एसा कोई कहते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि
तदपि तादृशमेव । खाध्यायादेरेव सकलाशिष्टाचारपरिपालनसाधनत्वनिर्णयात् ।
वह कहना भी तैसा ही है अर्थात् यह मी कार्यकारणभाव पूर्वोत्तवादियोंके समान अन्वयव्यतिरेकको लिये हुए नहीं है । क्योंकि स्वाध्याय, देवपूजा, सामायिक आदि ही सम्पूर्ण सुशिक्षा प्राप्त सज्जनोंके आचारका पूर्ण रीतिसे पालन करानेवाले साधन निीत किये गये हैं। केवल गुरुओंके ध्यानसे तो शिष्टाचार प्रगट नहीं होता है। क्योंकि अनेक चोर, मायाचारी (दगाबाज), वेश्या, शिकारी लोग भी सम्मानार्थ अपने गुरुओं (उस्तादों) का ध्यान किया करते हैं।
__ अब पूर्वोक्त शंकाके चारों उत्तरों में अस्वरस (असंतोष) बतलाकर स्वामीजी महाराज स्वयं उक्त शंकाका सिद्धान्तरूपसे समाधान करते हैं।
• सतः शास्त्रस्योत्पत्तिहेतुत्वाचदर्थनिर्णयसाधनत्याच परायरगुरुप्रवाहस्तत्सिद्धिनिनघनमिति धीमद्भुतिकरम्.
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तत्यार्थचितामणिः
" शास्त्रसिद्धिनिबन्धनम् " यहाँ सिद्धिका अर्थ शास्त्रकी उत्पत्ति और ग्रन्थकारके शास्त्र रूपी वचनोंकी कारण हो रही जुन प्रतिपादक ग्रन्थकारकी प्रतिपाद्य पदार्थों के निर्णय करानेवाली ज्ञप्ति है । इन दोनों कार्योंका नियमरूपसे कारण परगुरुओं और अपरगुरुओंका प्रवाह ही है । उक्त शंकाका यहीं साक्षात् कार्यकारण भावरूपसे समाधान बुद्धिमानोंको सन्तोषपूर्वक धैर्य उत्पन्न करनेवाला है । भावार्थ- गुरुओके ध्यानसे ही यह शास्त्र बना है और इसमें लिखे हुए प्रमेयका निर्णय भी हमें गुरुओं के प्रसादसे ही प्राप्त हुआ है । स्वामीजीका यह उत्तर गुरुपरिपाटीसे आमनायके ज्ञातापको सिद्ध करता है । और यह ग्रन्थ स्वरुचिसे विरचित है, इस दोषका भी परिहार हो जाता है ।
I
अब ग्रंथकार के समाधानपर किसीकी शंका है,
सम्यग्ध एव वक्तुः शाखोत्पत्तिर्ज्ञाप्तिनिमित्तम् ।
“प्रतिभाकारणं तस्य 11 इस नियम की उत्पत्ति और शास्त्र है वाचक जिसका ऐसे प्रतिपादकके अर्थनिर्णयका कारण तो अन्धकारका अच्छा प्रबोध (व्युत्पन्नता) ही है । गुरुओंका ध्यान इन दोनों कारण नहीं है ।
इति चेन्न । तस्य गुरूपदेशा यत्तत्वात् ।
आचार्य कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि अनेक ग्रन्थसंस्कारोंसे भावना किया गया व्युत्पचिलाभ तो गुरुओं के उपदेशके ही अधीन है । अतः गुरुओंका ध्यान ही निदान हुआ। पुनः शंकाकार अपनी शंकाको दृढ करता है :
श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाद्गुरूपदेशस्यापायेऽपि श्रुतज्ञानस्योत्पत्तेर्न तत्तदायत्तम् ।
गुरुओं के उपदेशके न होनेपर भी श्रुतज्ञानके आवरण हो रहे कर्मों का क्षयोपशम हो जानेसे श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति हो जाती है। इससे सिद्ध हुआ कि शास्त्रकी उत्पत्ति और उसका ज्ञान गुरूपदेशके अधीन नहीं हैं। क्योंकि व्यतिरेक व्यभिचार दोष है ।
इति चेन्न । द्रव्यभावश्रुतस्याप्तोपदेशाविरहे कस्यचिदभावात् ।
आचार्य कहते हैं कि ऐसा तो नहीं हो सकता है ।
क्योंकि यथार्थ वक्ता के उपदेशके बिना शब्दरूपी द्रव्यशास्त्र और ज्ञानरूपी भावशास्त्र किसीको भी प्राप्त नहीं होते हैं । " गुरुविन ज्ञान नहीं" ऐसी लोकप्रसिद्धि भी है ।
1
द्रव्यश्रुतं हि द्वादशाङ्गं वचनात्मकमाप्तोपदेशरूपमेव तदर्थज्ञानं तु भावतं, तदुभयमपि गणधर देवानां भगवद हैत्सर्वज्ञवचनातिशयप्रसादात्वमतिश्रुतज्ञानावरणवीर्यान्तरीयश्योपशमातिशयाच्चोत्पद्यमानं कथमाप्तायचं न भवेत् ।
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
आचाराङ्ग आदि चारह अंग पौगलिकशब्दस्वरूप द्रव्यश्रुत | वह तो परमगुरुका उपदेश स्वरूप है ही और उस द्वादशांगका जो अर्थज्ञान है, वह भावश्रुतज्ञान है । ये दोनों भी शास्त्र और शास्त्रज्ञान गणधरदेवोंको भगवान् अर्हत्परमेष्ठी सर्वज्ञके सर्वजीवों को समझाने की शक्ति रखनेवाले वातिशय वचनों के प्रसादसे तथा अपने अपने मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कम विशिष्ट अतिशयशाली क्षयोपशम से पैदा हो जाते हैं, तो शास्त्र और शास्त्रका ज्ञान गुरुओं के उपदेशके अधीन क्यों नहीं होगा ? अर्थात् होगा ही ।
ܝܪ
क्षुरादिमतिपूर्वकं श्रुतं तनेह प्रस्तुतं श्रोत्रमतिपूर्वकस्य भावश्रुतस्य प्रस्तुत - स्वात्तस्य चातोपदेशायत्तताप्रतिष्ठानात्परा पराप्तप्रवाह निबन्धन एवं परापरशास्त्रप्रवाहस्तनि बन्धनश्च सम्यगवबोधः स्वयमभिमतशास्त्रकरणलक्षणफलसिद्धेरभ्युपाय इति तत्कामैराप्तस्सकलोच्या ध्यातव्य एव ।
सम्भवतः थों कोई दृष्टिकोण रखें कि आंखोसे घट, पटको देखकर उनके बनानेवाले आदि का और जिव्हासे रसको चखकर नीबू, अंगूर आदिका भी अर्थ अर्थान्तर का ज्ञान होना रूप श्रुतज्ञान हो जाता है तथा आहार, भय, आदि संज्ञाओंका विना सिखाये संचेतन हो जाता है | अतः गुरुके बिना भी तो श्रुतज्ञान हो गया । आचार्य कहते हैं कि ऐसी आशंका न करना, क्योंकि यहां प्रकरण चाक्षुष, रासन आदि मतिज्ञानोंसे होनेवाले श्रुतज्ञानका कार्यकारण भाव विचारणीय नहीं है, किन्तु श्रवणेंद्रियजन्य मतिज्ञानके पश्चात् होनेवाले वाच्यज्ञान रूप भाव श्रुतज्ञानका कारण प्रस्ताधर्मे विचार प्राप्त है । ग्रन्थ लिखने में वही श्रुतज्ञान उपयोगी हो सकता है । और वह श्रुतज्ञान आप्स के उपदेशके ही अधीन प्रतिष्ठित है । इस कारण से सत्यवक्ता परगुरु और अपर गुरुओंके प्रवाहको कारण मानकर ही धारारूपसे उन व्यक्तियोंके द्वारा पर अपर शास्त्रोंका प्रवाह चला आ रहा है । और तिस कारण शास्त्रोंकी चली आयी हुयी परिपाटीसे हम लोगोंको अच्छी व्युत्पत्ति प्राप्त है तथा वह व्युत्पत्ति अपने अभीष्ट शास्त्रोंको बनाने स्वरूप फलकी सिद्धिका बढिया उपाय है । इस कारण उस शास्त्र बनानेकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंको सर्वज्ञ देवसे लेकर अब आये हुए यथार्थ बक्ता सभी श्री गुरुओका ध्यान करना ही चाहिये । तदुक्तम् | उसीको अन्यत्र भी कहा है कि
अभिमतफलसिद्धेरम्युपायः सुबोधः । प्रभवति स च शास्त्रानस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धैर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।
प्रत्येक अभीष्टफल की सिद्धिका अच्छा उपाय सम्यग्ज्ञान है । वह सच्चा ज्ञान तो शास्त्रसे पैदा होता है और उस शास्त्रकी उत्पत्ति जिनेंद्र देव तथा गणधर देव आदि यथार्थ वक्ता मुरुओं से है ।
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इससे सिद्ध होता है कि गुरुओंकी प्रसन्नता से व्युत्पत्तिलाभ करनेवाले विद्वानोंको वे गुरु ही पूज्य हैं क्योंकि दूसरोंसे किये हुए उपकारको साधु सज्जन भूलते नहीं है। फिर यहां शंका उत्पन्न होती है ।
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ननु यथा गुरूपदेशः शास्त्रसिद्धेर्निबन्धनं तथाप्सानुध्यानकृतनास्तिकता परिहारशिष्टाचारपरिपालन मंगलधर्मविशेषाश्च तत्सहकारित्वाविशेषादिति चेत् ।
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कि जिस तरह से गुरुओंका उपदेश शास्त्रकी सिद्धिका कारण है, उसी प्रकार आप्तके ध्यान से किये गये नास्तिकतादोषका निराकारण शिलोंके आचाररूप गुणका पालन, सुख करनेचाला मंगल और प्रतिभाका उपयोगी पुण्यविशेष भी तो तत्वार्थश्लोकार्थक बनानमें कारण हो सकते हैं। क्योंकि जैसा सहकारी कारण गुरुका उपदेश है, वैसेही उक्त चारों भी सहकारी कारण हैं । उपादान कारणको सहायता पहुंचाकर या साथ कार्य करनेरूप सहकारीपनकी अपेक्षासे इन कोई अंतर नहीं हैं । यदि ऐसा कहोगे तो---
सत्यम् | केवलमाप्तानुध्यानकृता एव ते तस्य सहकारिण इति नियमो निषिध्यते, साधनान्तरकृतानामपि तेषां तत्सहकारितोषपतेः कदाचित्तदभावेऽपि पूर्वोपाशधर्मं विशेषेम्यस्त निष्पत्तेच, परापरगुरूपदेशस्तु नैवमनियतः, शास्त्रकरणे तस्यावश्यमपेक्षणीयत्वादन्यथा तदघटनात् ।
आचार्य कहते हैं कि ठीक है । आधा अंगीकार करना, या जबतक में उत्तर नहीं देता है, तबतक ठीक है, यह " सत्यं " अव्ययका अर्थ लिया गया है।
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सुनिये | गुरूपदेशके समान नास्तिकता परिहार आदि भी उस शास्त्र के सहकारी अवश्य हैं । किंतु वे चारों सहकारी कारण आप्तके ध्यानसे ही किये जाते हैं। जैसाकि पहिले तुमने कहा था इस नियमका निषेध है । आप्त के ध्यान और नास्तिकतापरिहार आदिके कार्यकारण मावने अन्वयव्यतिरेक नहीं घटते हैं। देवपूजन, स्वाध्याय, तपस्या आदि अन्य कारणोंसे भी उत्पन्न होकर वे चारों उस ग्रंथ के सहायक बन सकते हैं और कभी कभी उस आसके ध्यान बिना भी पूर्वजन्म में उपार्जित विलक्षण पुण्योंसे भी वे चारों गुण पैदा हो जाते हैं । किंतु पर अपर गुरु का उपदेश तो ऐसा नियमके विना नहीं है । अर्थात् इस पूर्वोक्त प्रकार अन्य व्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार दोषवाला नहीं है । तभी तो शास्त्र बनाने में उस गुरुओंके उपदेशकी अवश्य अपेक्षा है। उसके बिना दूसरे प्रकारसे वे शास्त्र बन नहीं सकते हैं ।
1
` ततः सूक्तं परापरगुरुप्रवाहस्याध्यानं तचार्थश्लोकवार्त्तिकप्रवचनात्पूर्व श्रेयस्तत्सि द्विनिवन्धत्वादिति प्रधानप्रयोजनापेक्षया नान्यथा, मंगलकरणादेरप्यनिवारणात् । पात्रदानादिवत् ।
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तिस कारण हमने पहिले बहुत अच्छा कहा कि तत्वार्थ लोकवार्तिकशास्त्र के आदिमें प्रथम पर--अपर गुरुओंके प्रवाह का ध्यान करना ही कल्याणकारी है। क्योंकि वही उस शास्त्रकी सिद्धिका कारण है । इस प्रकार प्रधान प्रयोजनकी अपेक्षासे गुरुओंके ध्यानको ग्रंथ बनाने में कारण माना है दूसरे प्रकार गौणफलकी अपेक्षासे नहीं । यदि अन्ध बनानेमें प्रधानकारणके अतिरिक्त सामान्य कारणोंका विचार किया जाये तो पात्रदान, जिनपूजन आदिके समान मंगल करना, कायोत्सर्ग करना आदिका भी निकरण हम नहीं करते हैं । निष्कर्षार्थ यह निकला कि गुरु
ओंका ध्यान ग्रंथ करने आवश्यक कारण हैं और पात्रदान आदि अनियमरूपसे कारण है । फिर यहां दूसरी शंका उपस्थित होती है कि:
कथं पुनस्तत्वार्थः शास्त्रं तस्य श्लोकवार्तिकं वा, तयारूपानं वा येन तदारम्भ परमेष्ठिनामाध्यान विधीयत इति चेत् । तल्लक्षणयोगित्वात् ।
तत्वार्थसूत्रको और उसके ऊपर अनुष्टुभ् छन्दों में बनायी गयीं स्वामीजीकी वार्तिकोंको तथा उनका भी विवरण भाष्यरूप न्याख्यानको शास्त्रपना कैसे है ? जिससे कि उसके प्रारम्भमें परमेष्ठिओंका त्रियोगसे ध्यान किया जारहा है अर्थात् यदि इन तीनों को शास्त्रपना सिद्ध हो जावे, तब तो उन ग्रन्थों के आदिमें परमेष्ठियोंका ध्यान किया जावे । जबतक इनमें शास्त्रपना ही सिद्ध नहीं है, फिर व्यय ही शास्त्रों के कारण मिलाने की क्या आवश्यकता है ? (उतर ) यदि ऐसा कहोगे नो हम कहते हैं कि- उस शास्त्रका लक्षण सूत्र, व्याख्यान और भाष्यमें घटित होजाता है । अतः उक्त तीनों भी शास्त्र के लक्षणको धारनेसे शास्त्र हैं। .
वर्णात्मकं हि पदं, पदसमुदायविशेषः सूत्रं, सूत्रसमूहः प्रकरणं, प्रकरणसमितिराक्षिक, आहिकसंघातोऽध्यायः, अध्यायसम्रदायः शास्त्रमिति शास्खलक्षणम् । तच्च तत्वार्थस्य दशाध्यायीरूपस्यास्तीति शास्त्रं तत्वार्थः।
वर्गों की सुबन्त, तिङन्तस्वरूप एकताको पद कहते हैं । परस्पर आकांक्षा रखते हुए गंभीरार्थ प्रतिपादक पदों के निरपेक्ष समुदायको सूत्र कहते हैं। एक विषयको निरूपण करनेवाले कतिपय सूत्रों के समूहको प्रकरण कहते है। कतिपय विषयों के निरूपण करनेवाले प्रकरणों के समुदायको आहिक कहते हैं। यहां " अभि आइकं । एक दिनमें होनेवाला कार्य आहिक है । ऐसा यौगिक अर्थ अभी नहीं है । किंतु पूर्वोक्त पारिभाषिक अर्थ ही उपादेय है। यौगिकसे रुदि अर्थ बलवान् होता है । अनेक प्रकरणों के कथन करनेवाले आहिकोंके सम्मेलनको अध्याय कहते हैं। और अध्यायोंका समुदाय शास्त्र कहलाता है । इस प्रकार शास्त्रका लक्षण है । यह लक्षण दशअध्यायों के समाहाररूप तत्त्वार्थअन्धमें घट जाता है । इस लक्षणसे तत्वार्थसूत्र शास्त्र सिद्ध हुआ ।
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शास्त्रामा सत्वश्यंकाप्यत्र न कार्याऽन्वर्थसंज्ञाकरणात । तच्चार्थविषयत्वाद्धि तवार्थी ग्रन्थः प्रसिद्धो न च शास्त्राभासस्य तत्त्वार्थविषयताविरोधात् । सर्वथैकान्तसम्भवात् ।
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- शास्त्र न होकर शास्त्रसरीखे दीखनेवाले झूठे किस्से, कहानी या हिंसा, मिथ्यात्वपोषक fast geariat शास्त्रामास कहते हैं । यों इस ग्रंथ में शाखाभासानेकी शंका भी न करना । क्योंकि इसकी संज्ञा " जैसा नाम वैसे अर्थ " को लिये हुए है । तचकरके निर्णीत किये गये जीव आदि अर्थोको विषय करनेवाला होनेसे निश्चय कर यह ग्रंथ तत्त्वार्थके नामसे प्रसिद्ध है। हाँ, जो कपिल, सुगत, आदिकों के सांख्यदर्शन, न्यायबिन्दु आदि शाखाभास हैं, उनमें ताका प्रतिपादन नहीं है। क्योंकि सर्वथा एकांतका सम्भव होनेसे परमार्थ तवार्थकी विषयता न होने के कारण उनको शास्त्रपनेका विरोध है ।
प्रसिद्धे च तच्चार्थस्य शाखत्वे तद्वार्त्तिकस्य शाखत्वं सिद्धमेव तदर्थत्वात् । वार्त्तिकं हि सूत्राणामनुपपत्तिचोदना तत्परिहारो विशेषाभिधानं प्रसिद्धं तत्कथमन्यार्थ भवेत् ।
जब कि उक्त प्रकार तत्त्वार्थसूत्रको शास्त्रपना अच्छी तरह सिद्ध हो चुका है, पुनः उसकी टीकारूप वार्त्तिकोंको शास्त्रपना सिद्ध हो ही गया । क्योंकि वे सूत्रोंका अर्थ स्पष्ट करने के लिये बनायी गयीं हैं। सूत्रोंके नहीं अवतार होने देनेकी तथा सूत्रोंके अर्थको न सिद्ध होने देनेकी ऊहापोह तर्कणा करना और उसका परिहार करना तथा अंथकारके हृदयगत अर्थसे भी अधिक अर्थको प्रतिपादन करना, ऐसे वाक्यको बार्तिक कहते हैं | यह वार्तिकका प्रसिद्ध लक्षण सर्ववादियोंको मान्य हैं । यो भला वह वार्त्तिक सूत्रके सिवाय अन्य पदार्थको कहने के लिये कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं ।
तदनेन तद्याख्यानस्य शास्त्रत्वं निवेदितम् ।
तिस कारण इस उपर्युक्त कथन करनेसे वार्त्तिकोंके व्याख्यानरूप ग्रंथके माध्यको भी शास्त्रपनेका निवेदन कर दिया गया है। यहां शंका है कि
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ततोऽन्यत्र कुतः शास्त्रव्यवहार इति चेत् । तदेकदेशे शास्त्रत्वोपचारात् ।
उन सूत्र, वार्त्तिक और व्याख्यानके सिवाय अनेक ग्रंथ हैं। उनमें शास्त्रपनेका व्यवहार कैसे होगा ? यों कहने पर तो इसका उत्तर यह है कि वर्तमान में उपलब्ध जितने प्रामाणिक शास्त्र हैं, वे सब तस्वार्थशास्त्र के या उसके अर्थ ग्रंथके एकदेश हैं । अतः उनमें भी शास्त्रपनेका व्यवहार है । अत्र अवयव भिन्न नहीं हैं ।
यत्पुनर्द्वादशानं श्रुतं वदेवंविधानेकशास्त्र समूहरूपत्वान्महाशास्त्रमनेकस्कन्धाधारसम्हमहास्कन्धाधारवत् ।
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
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हाँ, फिर जो आचाराङ्ग आदि बारह श्रुतज्ञानके प्रतिपादक शास्त्र हैं, वे ऐसे तत्त्वार्थ सूत्र सरीखे अनेक शास्त्रों के समुदायरूप होनेसे महाशास्त्र है। जैसे अनेक छोटे छोटे स्कन्ध वाले समूहोंका आधार एक महास्कन्ध होता है । एक अक्षौहिणी, घोडे, हाथी, आदिके अनेक समूह हैं । एक बनमें अनेक जातिके झोंका समुदाय है। बहुतसे पुद्गलपिण्डोंका मिलकर एक महापिण्ड बन जाता है ।
येषां तु शिष्यन्ते शिष्याः येन तच्छास्त्रमिति शास्त्रलक्षणं, तेषामेकमपि वाक्य शास्त्रव्यवहारभागभवेदन्यथाऽभिप्रेतमपिमाभूदिति यथोक्तलक्षणमेव शास्त्रमेतदवबोद्धव्यम्।
जिनके मतमे शास्त्र शब्दकी निरुक्ति करके ' शिष्यजन जिसके द्वारा सिखाये जायें" ऐसा शास्त्र शब्दका अर्थ निकाला जाता है, उनके अनुसार तो एक भी " उपयोगो लक्षणम्" ऐसा वाक्य शास्त्रव्यवहारको धारण करनेवाला हो जावेगा, क्योंकि एक वाक्यसे भी तो शिष्यों को शिक्षा मिलती है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार कहोगे तो विवक्षिप्त ग्रंथ भी शास्त्र न होओ, इसलिये शास्त्र शङ्कका यौगिक अर्थ अच्छा नहीं, किंतु जैसा पूर्वमें कहा गया है, अध्यायोंका समुदाय, यही शासका लक्षण अच्छा समझना चाहिये ।
ततस्तदारम्भे युक्तं परापरगुरुप्रवाहस्याध्यानम् । तिस कारणसे उस शाम्नके आरम्भमें परापर गुरुप्रवाइका मकृष्ट ध्यान करना युक्त ही है।
अबतक विधास्पद विशेषणरूप साध्यका कारकहेतु मानकर घातिसमुदाय पातनको सिद्ध करते हुए वर्धमान स्वामी में परमगुरुपना सिद्ध किया था। किंतु इस समय विद्यास्पदको श्लोकवार्तिक ग्रंथका विशेषण करते हुए दूसरा प्रयोजन बतलाते हैं। अथवा । यधपूर्वार्थमिदं तत्वार्थश्लोकवार्तिकं न तदा वक्तव्यम्, सतामनादेयत्वप्रसंगात, स्वरुचिविरचितम्य प्रेक्षावतामनादरणीयत्वात् । पूर्वप्रसिद्धार्थ तु सुतरामतन्न वाच्यम् । पिष्टपेषणवद्वैयर्थ्यात् ।
__ यहां तर्क है कि यदि यह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रंथ नवीन अपूर्व अथाको विषय करनेवाला है, तब तो विद्यानन्द स्वामीको यह ग्रन्थ नहीं कहना चाहिये । क्योंकि प्राचीन आम्नायके अनुसार न कहा हुआ होनेसे सज्जन लोगोंको उपादय नहीं हो सकेगा । चाहे किसी भी मनुण्यके द्वारा केवल अपनी रुचिसे रचे हुए नवीन कार्यका हिताहित विचार करनेवाले पुरुष आदर नहीं करते हैं। और यदि यह ग्रन्थ पूर्वके प्रसिद्ध अर्थको ही विषय करता है, सब तो सरलतासे प्राप्त हुआ कि सर्वथा ही यह नहीं कहना चाहिये । क्योंकि जाने हुए पदार्थोंको पुनः पुनः जानना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ है ।
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
इति ब्रुवाणं प्रत्येतदुच्यते ।
ऐसी तर्काको बोलनेवाले प्रतिवादीके प्रति यह कहा जाता है ।
विद्यास्पदं तवार्थश्लोकवार्त्तिकं प्रवक्ष्यामीति, विद्या पूर्वाचार्याशास्त्राणि सम्यग्ज्ञानलक्षणविद्यापूर्वकत्वाचा एवास्पदमस्येति विद्यास्पदम् । न पूर्वशास्त्रानाश्रयं यतः स्वरुचिविरचितत्वादनादेयं प्रेक्षावतां भवेदिति यावत् ।
जिस श्लोकवार्त्तिक ग्रन्थको मैं कहूंगा, वह विवास्पद है । गुरुपरिपाटीसे चले आये हुए पूर्व आधायके शास्त्र ही विद्या कहलाते हैं। क्योंकि सम्यग्ज्ञानरूपी पूर्ववर्तिनी विद्यासे वे पैदा हुए हैं। यहां कारण का कार्यमें उपचार है । वे विद्यास्वरूप शास्त्र ही इस लोकवाकि अन्थ आधार हैं । अतः पूर्व शास्त्रोंको नहीं अवलम्ब करके यह अन्य अवतीर्ण नहीं हुआ है, जिससे कि योंही अपनी रुचिसे बनाये जाने के कारण विचारशीलोंके पठन पाठन करने में ग्रहण योग्य न होता । इस ग्रन्थका प्रमेय नया नहीं है, केवल शब्द और युक्तियोंकी योजना हमारी सम्पत्ति है, यह फलितार्थ हुआ ।
पिष्टपेषणबद्ध्यर्थे स्यात्, इत्यप्यचोद्यम् |
कोई आक्षेप कर रहा है कि यदि पूर्वाचार्यों से कहे हुए प्रमेयका ही इस ग्रन्थ में प्रतिपादन है, तो फिर भी पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ पडा । निष्फल ग्रन्थ तो नहीं बनाना चाहिये । अन्धकार कहते हैं कि यह पूर्व में किया गया दूसरा कटाक्ष भी अनुचित है ।
अध्यायघातिसंघातघातनमिति विशेषणेन साफल्यप्रतिपादनात् । धियः समागमो हि ध्यायः आसमन्ताद्ध्यायोऽस्मादित्याध्यायं तच्च तद्धातिसंघातघातनं चेत्याध्यायघातिसंघातघातनम् यस्माच्च प्रेक्षावतां समन्ततः प्रज्ञा समागमो यच्च मुमुक्षून् स्वयं घातिसंघात घनतः प्रयोजयति तन्निमित्तकारणत्वात् । तत्कथमफलमा वेदयितुं शक्यं, प्रज्ञातिशयस कलकल्मषक्षयकरणलक्षणेन फलेन फलवत्वात् ।
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क्योंकि तत्त्वार्थ लोकवार्तिक का दूसरा विशेषण " आध्यायघातिसंघातघातनम् " है, इससे की सफलता बतलायी जाती है । पहिले आध्याय शब्द क्ता " प्रत्ययान्त अव्यय था. इस क्ता को प्य हो जाता है. अब इण् धातुसे घञ् प्रत्यय करके आय कृदन्त शब्द बनाया है. के पूर्व में घी उपपद और आङ् उपसर्ग लगा दिया है. इस कारण ध्याय का अर्थ है बुद्धि का आगमन अर्थात् चारों तरफ से बुद्धिका आगमन हो जिसमे उसको आध्याय कहते हैं. बुद्धिक समागम का कारण होकर और जो वह घातियों के समुदायका नाश करने वाला होवे । वैसा यह ग्रन्थ
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माना निन्दामणिः
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आध्याययातिसंघातघातन है। क्योंकि जिस कारण इस ग्रन्थ से विचारवान् पुरुषोंको सर्व बाजुओं से विशिष्ट ज्ञानका समागम होता है और यह जो स्वतन्त्र कर्तारूप से घातिसमुदायको नाश करते हुए मुक्ति के अभिलाषी जीवोंको उसका प्रयोजक निमित्तकारण होनेसे यह ग्रन्थ घातिकमा के नाश करने प्रेरक भी है तो भला इस ग्रन्थ को फिर कैसे निष्फल कहा जा सकता है? भावार्थ- नहीं, इस ग्रन्थका साक्षात् फल चमत्कारक तत्वज्ञान की प्राप्ति है और परम्परासे सम्पूर्ण पापोंका क्षय करना फल है । इन दो स्वरूप फलो करके यह ग्रन्थ फलबान है।
कुतस्तदाध्यायपातिसंघातपातनं सिद्धम् ? विद्यास्पदत्वात् । यत्पुनर्न तथाविधं न तद्विद्यास्पदं यथा पापानुष्ठानमिति समर्थयिष्यते.
यदि यहां पर कोई प्रश्न करें कि उक्त दोनों फल यानी ज्ञानका सभागभ और कौके क्षयका प्रेरकपना ये प्रथम कैसे सिद्ध हुए ! बताओ, आचार्य उत्तर कहते हैं कि इसका हेतु यह है कि यह ग्रन्थ पूर्वाचायोंके ज्ञान को आश्रय मानकर लिखा गया है। इस अनुमान में व्यतिरेक दृष्टान्त दिखाते हैं। जो कोई वाक्य फिर तत्त्वबोध और कर्मोकी हानी का कारण नहीं है, वह पूर्वाचार्योंके ज्ञान के अधीन भी नहीं है। जैसे हुआ खेलना, चोरी करना आदि पाप कर्म में नियुक्त करनेवाले वाक्य हैं । उक्त हेतुका प्रकृत साध्म के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। इसका आगे समर्थन कर देखेंगे। समर्थन कर देनेसे ही हेतु पुष्ट होता है ।
___ विद्यास्पदं कुतस्तत् ? शाकार कहता है कि ग्रन्थ के दो फल सिद्ध करनेमे पूर्वाचार्योंके ज्ञानका अवलम्ब लेकर लिखा जाना हेतु दिया था वह हेतु पक्ष में से सिद्ध होता है ? अर्थात् किस कारण वह अन्य विधाका आस्पद मान लिया जाय ? न्यायशास्त्रों राजाकी आज्ञा नहीं चलती है।
इति चेत् ! श्रीवर्धमानत्वात् प्रतिस्थानमविसंवादलक्षणया हि श्रिया वर्धमान कथमविद्यास्पदं नामातिप्रसंगात् ।
ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि ऐसी असिद्ध हेत्वाभास उठानेकी सम्भावना है तब तो उस का उत्तर यह है कि
श्री से बढ़ रहा होनेके कारण यह ग्रन्थ पूर्वज्ञानियोंके अवलम्बसे लिखा गया सिद्ध होता है। जिससे जानी जावे चांदी और पकही जाचे सीप ऐसे झूठे ज्ञानको विसंवादी कहते हैं तथा स्नान, पान गोता लगाना इस अर्थ क्रियाओंको करनेवाले जल आदिके समीचीन ज्ञान को अविसंवादि ज्ञान कहते हैं। ज्ञान की शोभा तो जिसको जाना जावे, उसी प्रवृत्ति की जावे और
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वही प्राप्त होवे ऐसे अविसंवाद से है । उस भविसंवाद रूप लक्ष्मीसे यह ग्रन्थ प्रत्येक स्थलपर वृद्धि ( पुष्टि ) को प्राप्त हो रहा है तो फिर पूर्वाचायोंके ज्ञानको अवलम्ब करनेशला भला कैसे नहीं माना जावे ? यदि पूर्वोक्त लक्ष्मीसे पुष्ट श्लोकवार्तिक सदृश ग्रन्थ भी गुरुपरिपाटीके द्वार आये हुए नहीं माने जावेगे तो गन्धहस्तिमहाभाष्य, तत्त्वार्थराजवानिक, समयपाहुड आदि ग्रन्थ भी गुरुआम्नायपूर्वक न सिद्ध हो सकेगे । यह अतिप्रसंग दोष आजावेगा।
देवं सप्रयोजनत्वप्रतिपादनपरमादिश्लोकवाक्यं प्रयुक्तमवगम्यते । ___ उस काग़ण गों शाभिगम प्रयोग किये गये आदिक मंगलाचरण-कोकरूप बाक्यकी दूसरे अर्थ में भी इस प्रकार तत्परता होने से इस ग्रन्थ के दोनों फलाका प्रतिपादन कर दिया गया है । श्लोकयार्तिकके विशेषणोंको हेतु बनाकर प्रयोजनबालापना जान लिया जाता है । भावार्थ- श्री वर्धमानपनेसे विद्यास्पदपना और विद्यास्पदपने से बुद्धि समागमपूर्वक कर्मक्षय में प्रेरकपना तथा बुद्धि समागमसहित पातिसंघातघातन से सफलपना इस ग्रन्थ में सिद्ध हो जाता है ।।
ननु किमर्थमिदं प्रयुज्यते श्रोहजनानां प्रवर्तनार्थमिति चेत्, ते यदि श्रध्दानुसारिपास्तदा व्यर्थस्तत्प्रयोगस्तमन्तरेणापि यथा कथञ्चित्तेषां शास्त्रश्रवणे प्रवर्तयितुं शक्यत्वात् । यदि प्रेक्षावन्तस्ते तदाकभमप्रमाणकात्वाक्यात्प्रवर्तन्ते प्रेक्षावविरोधादिति केचित् ।
___ यहां शंका है कि फल बतलाने वाले " श्री वर्धमानमाध्याय " इत्यादि प्रथम श्लोकके लिखनेका क्या प्रयोजन है ? श्रोताओंको श्लोकवार्तिक ग्रन्थ सुननेकी प्रवृत्तिके लिये पूर्वमें श्लोक लिखा है । उक्त शंकाका यह उत्तर ठीक नहीं हो सकता है। क्योंकि यदि वे भव्यजीव श्रद्धाके अनुसार चलनेवाले हैं तो उनके लिये प्रयोजन घतलानेवाले आदि श्लोकका बोलना निरर्थक है। कारण कि शास्त्र सुनने, भक्ति रखनेवाले सज्जन तो विना फल बतलाये भी शास्त्र सुनने में चाहे जैसे किसी प्रकारसे प्रवृत्ति कर सकते हैं और यदि वे हिताहित्रको विचार कर परीक्षा करके प्रस्थ को सुननेवाले हैं तो नहीं प्रमाण रस्यनेवाले आदिके कोरे फल दिखामवाले आज्ञावाक्यसे भला कैसे प्रवृत्ति करेंगे ? विना परीक्षा किये चाहे किसी भी वाक्यको सुनकर तदनुसार काम करनेवाले जीवको प्रेक्षावान्भनेका विरोध है । सम्यग्ज्ञान द्वारा हेयोपादेय के विचारको मेक्षा कहते हैं । इस प्रकार फल बतलानेवाले आदि श्लोकका उच्चारण आज्ञाप्रधानी और परीक्षाप्रधानी श्रोताओंके प्रति व्यर्थ ही है, ऐसी कोई शंका करते हैं।
तदसारम्, प्रयोजनवाक्यस्य सप्रमाणकत्वनिश्चयात् । आचार्य कहते हैं कि किसी की इस प्रकारकी शंका में कोई मी सार नहीं है ।
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क्योंकि प्रयोजन ( फल ) बतलानेवाले आदिके वाक्यरूप श्लोको प्रमाणसहितपनेका निश्चय है।
प्रवचनासुभानमूहिसाबकरता. लदे नान्यथा, अनादेयवचनत्वप्रसंगात् तथाविधाच्च, सतः श्रद्धानुसारिणां प्रेक्षावतां च प्रवृत्तिन विरुध्यते। _ अच्छे शास्त्रको बनाने वाले विद्वान् जिस आदिवाक्यका पहले प्रयोग करते है, वह वाक्य आगमप्रमाण और अनुमानप्रमाण दोनोंको मूल मानकर सिद्ध होना चाहिये, अन्यथा अमापनेका प्रसंग आवेगा। यहां भी आदि का फल बतानेवाला वाक्य आगम और अनुमानके आघारके विना नहीं है कारण कि प्रमाणोंको मूल न मानकर कहे हुए वाक्योंको कोई जीव प्रण नहीं करता है। जब कि आचार्य महाराजका पहला वाक्य आगमप्रमाणके अनुसार है तो उस प्रकारके उस वाक्यसे श्रद्धाके अनुसार चलनेवाले आज्ञाप्रधानियोंकी प्रवृत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं है । और पहले वाक्य का प्रयोजन बतलाना रूप प्रमेय जन अनुमानकी भित्तिपर सिद्ध हो चुका है तो हिताहित विचारनेवाले परीक्षाप्रधानियोंकी शास्त्र सुनने. प्रवृत्ति भी बिना विरोध के हो जावेगी। कोई रोक नहीं है।
. श्रद्धानुसारिणोऽपि यागमादेव प्रवर्तयितुं शक्या, न यथा कथंचित् प्रवचनोपदिएतत्वे श्रद्धामनुसरतां श्रद्धानुसारित्वादन्यादृशामतिमूढमनस्कत्वात् तेषां तदनुरूपोपदेशयोग्यत्वात् सिद्धमातृकोपदेशयोग्यदारकवत् ।
शंकाकारने पूर्वमें कहा था कि शास्त्रोमें श्रद्धा, भक्ति, रखनेवाले भद्रप्रकृतिके मनुप्य तो विना फलके कहे हुए भी शास्त्र सुननेमें प्रवृत्ति कर लेंगे। इसके उत्तरमें यह विशेष समझना आवश्यक है कि श्रद्धाके अनुसार चलनेवाले भाज्ञाप्रधानी. श्रोताओंको भी सच्चे भागमसे निश्चित किये हुए पदार्थोंमें ही प्रवृत्ति करनी चाहिये । केवल भोलेपन से बाहें जिस किसी भी शास्त्राके वाक्यमें विश्वास करना ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ से कहे हुए शास्त्रों के द्वारा प्रतिपादित तत्वो ही श्रद्धा करनेवालोंको आज्ञाप्रधानी माना है । इनसे भिन्न-शास्त्र और भशास्त्र का विवेक न कर कोरी भोलेपनकी श्रद्धा करनेवालोंको मन में अत्यन्त मूर्खताके विचारोसे युक्त ही कहना पड़ता है। " गंगा गये गंगादास, यमुना गये यमुनादास" के सदृश विना विचारे कोरे भोंदूपमेकी श्रद्धा रखनेवाले उसी प्रकार तत्वार्थशास्त्रों के मुनने अधिकारी नहीं हैं । जैसे कि विपरीत मिश्यात्वके वशीभूत होकर हिंसाभे धर्म मानने वाले मीमांसक और जीव, पुण्य, पाप, मोक्षको नहीं मानने वाले चार्वाक या अत्यन्त विपरीतबुद्धिवाले चोर, व्यभिचारी आदि। अर्थात् विपरीत (उल्टी) समझ रखनेवाले और यों ही कोरी श्रद्धा रखने
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वाले इन दोनोंका समान रूपसे तत्त्वार्थशास्त्र आदि उच्च कोटिके ग्रन्थोंको सुनने में अधिकार नहीं है । क्योंकि कहीं पूर्वकर्म जैन सिद्धान्त झात होंगे और कचित् उत्तरपक्ष जैनोंको अजैनोंकासा तत्त्व प्रतीत होगा । इस प्रकार अनेक स्थानोंपर बिना विचारे भोले जीव शास्त्रके हृदयको न जान सकेंगे या विपरीत समझ लेंगे । अतः उन मन्दबुद्धिवालोंको श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों को न सुनकर द्रव्यसंग्रह, पुरुषार्थसिध्युपाय आदि शास्त्र ही सुनने चाहिये। जो जिसके योग्य है, उस को वैसाही उपदेश हितकर होगा। जैसे कि छोटे बालकको सर्व द्रव्यशास्त्रोंकी जननी होकर सिद्ध ( पुरानी) चली आ रही अ, आ, इ, ई आदि वर्णमालाका ही उपदेश लाभकर है । थोडी बुद्धिवाला बच्चा उच्च कक्षाकी पुस्तक पढनेका अधिकारी नहीं है।
'प्रेक्षावन्तः पुनरागमादनुमानाच्च प्रवर्तमानास्तत्त्वं लभन्ते, न केवलादनुमानात्प्रत्यक्षादितस्तेषामप्रवृत्तिप्रसंगात् नापि केवलादागमादेव विरुद्धार्थमतेभ्योऽपि प्रवर्तमानानां प्रेक्षावत्वप्रसक्तेः।
शंकरपूर्व में कहा था कि विना तर्कसे सिद्ध किये गये आदिके प्रयोजनवाक्यसे परीक्षाप्रधान विद्वान् किसी भी प्रकार शास्त्र सुनने में प्रवृत्ति नहीं करेंगे । इसपर यह समाधान है कि- आगम और अनुमान दोनों प्रमाणोंसे ही विचार करनेवाले सज्जन, परीक्षक विद्वान् कहलाते है और तभी वे तत्त्वज्ञानको भी प्राप्त कर सकते हैं
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यों समीचीन विचारशाली पण्डित तो फिर श्रेष्ठ आगम और सच्चे अनुमान प्रमाणसे प्रवृत्ति करते हुए तस्वलाभ कर लेते हैं ।' युक्त्या यन्न घटामुपैति तदहं दृष्टवापि न श्रद्धधे जो मुक्ति से सिद्ध नहीं होता, उसको मैं प्रत्यक्ष देखता हुआ भी नहीं मानूंगा, ऐसी कोरी हेतुवादकी डींग मारने वाले वितण्डावादी परीक्षक नहीं कहे जाते । यदि केवल अनुमानसे ही पदार्थ की सिद्धि मामी जाय तो प्रत्यक्ष, आसवाक्यजन्य आगम और स्मरण से उन जनों की प्रवृत्ति न हो सकेगी, किन्तु उनसे भी समीचीन प्रवृत्ति होती है। अतः केवल हेतुवादीको परीक्षक नहीं माना गया है। इसी प्रकार केवल आगमसे ही वस्तुका ज्ञान करने वाले भी परीक्षक नहीं कहे जा सकते। क्योंकि अनेक विरुद्ध पदार्थों के प्रदिपादक बौद्ध, चार्वाक, वैशेषिक आदि मौके पोषक ऐसे शास्त्रों (शास्त्रमासों ) से प्रवृत्ति करनेवालों को भी प्रेक्षावानूपनेका प्रसंग आवेगा। (हित अहिलको विचारनेवाली बुद्धि प्रेक्षा है) ' तदुक्तं " उसी बालको समन्तभद्राचार्यनें यों कहा है
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सिद्धं देतुतः सर्वे न प्रत्यक्षादितो गतिः ।
सिद्धं दागमात्सर्व विरुध्दार्थ मतान्यपि ॥ इति,
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यदि हेतुसे ही सर्व पदार्थों की सिद्धि मानी जाये तो प्रत्यक्ष, स्मरण आदिकसे जो घट पटादिकका यथार्थ ज्ञान होता है, वह न हो सकेगा, तथा यदि आगमसे ही सम्पूर्ण तत्वोंका सद्भाव सिद्ध किया जाय तो एक दूसरे के विरूद्ध अर्थोके प्रतिपादक चार्वाक, बौद्ध, अद्वैतवादी आदि मत भी सिद्ध हो जायेंगे। क्योंकि सम्पूर्ण मतवालों ने अपने अपने सिद्धान्तों के प्रतिपादन करने वाले अन्य रच लिय है ।
तस्मादाप्ते वक्तरि संप्रदायाव्यवच्छदेन निश्चित तद्वाक्यात्प्रवर्तनमागमादेव, वक्तर्यनाते तु पत्चद्वाक्यात्प्रवर्तन तदनुमानादिति विभाग साधीयान्, तदप्युक्तं "वक्तयनान यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधित आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधित"
तिस कारण हेतुवाद और आगमवाद के एकान्तों का निर्णय (फैसला ) इस प्रकार है कि विना विच्छेद के गुरु आम्माय से आये हुये तत्त्वज्ञान के अनुकूल यथार्थ बक्ताका निश्चय होने पर उस सस्यवक्ता के वाक्य द्वारा जो शिष्यों की प्रवृत्ति होगी, वह आगम से ही हुयी प्रवृत्ति कही जायगी, और बालनवाल के सत्यवक्तापनेका निश्चय न होजाने पर उसके वाच्यार्थमें हेतुवाद लगाकर अनुमान से सिद्ध हुये पदार्थमें श्रोताओं की उस प्रवृत्ति करने को अनुमानसे प्रवृत्ति होना कहते हैं, इस प्रकार अनुमान और आगम से जाने गये प्रमेयका भेद करना बहुत अच्छा है। उस बातको भी स्वामी समन्तभद्राचार्यने देवागमस्तोत्र में ऐसा ही कहा है कि अयथार्थ बोलनेवाले वक्ताके ज्ञान होजाने पर हेतु से जो साध्य सिद्ध किया जाता है, वह हेतु साधित तत्त्व है और सत्यबोलने वाले वक्ताके निश्चय हो जाने पर उसके बाक्यसे जो साध्य जाना जाता है, वह आगनसे सिद्ध हुआ पदार्थ है ।
न चैवं प्रमाणसंप्लववादविरोधः, कचिदभाम्यामागमानुमानम्या प्रवर्तनस्येष्टत्वात प्रवचनस्याहेतुहेतुमदात्मकत्वात्, स्वसमयप्रज्ञापकत्वस्य तत्परिज्ञाननिवन्धनवाद परिज्ञातहेतुवादागमस्य सिद्धांतविरोधकत्वात्.
एक प्रमेय में विशेष, विशेषांशोंको जाननेवाले अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्ति को प्रमाणसंप्लव कहते हैं. जैसे - आप्त के पचन से वहिको आगम द्वारा जानने में तथा धूम हेतु से अमिको अनुमान द्वारा जानने में एवं आग को बहिरिन्द्रियोंसे प्रत्यक्ष द्वारा जानने में प्रतिभासका तारतम्य है, इस प्रकार विशेषांशोंको जाननेवाला प्रमाणसंप्लव सर्वप्रवादियोंने इष्ट किया है ।
__ यदि यहाँ कोई शंका करे कि .-- स्याद्वादी लोक आप्तवाक्येस आगमज्ञानकी प्रवृत्ति का ही अबधारण करेंगे और अनाप्त दशाभ हेतु से अनुमान ज्ञानका नियम करेंगे तो एक विषय में कदाचिद भी अनुमान और आगम दोनों प्रवृत्त न हो सकेंगे, ऐसा माननेपर आपको प्रमाणसं
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Maa विरोध आवेगा । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शंका ठीक नहीं हैं, क्यों कि प्रमाणसंप्लव सब जगह नहीं होता है । घट, पटादिकोंको प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा दृढरूपसे जान कर पर्थ ही दूसरा प्रमाण उनके जानने के लिये नहीं उठाया जाता है, हाँ ? कहीं कहीं आगम और अनुमान दोनों प्रमाणों से भी प्रवृत्ति होना हम इष्ट करते हैं। शास्त्रों में सभी बातें आगम ज्ञान के आश्रित होकर ही नहीं लिखी जाती है। सूक्ष्म और स्थूल तत्वोंके निरूपण करने वाले सच्चे शास्त्र हेतुवाद और अहेतुवादसे तद्रुप होकर भरे हुये हैं। विशेषकर यह श्लोकवार्तिक शास्त्र यक्ष ज्ञान, गमज्ञान और ज्ञान से परिपूर्ण है.
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अपने अतीन्द्रिय और इन्द्रियमाय तसे परिपूर्ण सिद्धान्त विषयोंकी प्रतिवादियों के प्रति समझाने में सयुक्तियों से उन तत्वों का परिज्ञान कर लेना ही कारण है। हेतुवाद से तत्वों का निर्णय न करके कोरी श्रद्धा से लिखा हुआ शास्त्र तो सिद्धान्तका विरोधी हो जाता है। तभी तो वेदादिक इतर रचनायें केवल विश्वाससे विचारशीलो में प्रतिष्ठा नहीं पाते है ।
तथा चाम्यधायि
और इसी बात को पूर्व के आचार्यों ने भी तिस प्रकार कहा है कि
" जो हेदुवादपरकम्प हेदुओ अगमम्मि आगमओ, सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविरोहओ अण्णोति. "
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हेतु के परिवार माने गये पक्ष, दृष्टान्त, व्याप्ति और समर्थनयुक्त हेतुवादसे जो सिद्ध किया गया है, वह आगमोंमें श्रेष्ठ आगम है । और वही सिद्धान्त के अनेक गूढ रहस्योंका समझाने वाला है। इसके अतिरिक्त शास्त्रतो सिद्धान्तके पोषक नहीं, उलटे विरोधी हैं। ऐसे भयंकर शस्त्र के समान शास्त्रों से श्रोताओं को दूर रहना चाहिये । अन्धश्रद्धा के अनुसार आँख मीच कर चाहे जिस ऐरे गैरे शास्त्र में शाखपने की श्रद्धा रखने वाले वादियों के निरासार्थ शास्त्रमें हेतुवाद की प्रधानता मानी गयी है । एवञ्च तत्तार्थसूत्र और लोकवार्तिक आदि ही सच्चे शास्त्र हैं।
अथ “ श्री वर्धमानमाध्याय " इस आदिवाक्यकी पूर्वप्रतिज्ञा के अनुसार आगम और अनुमान प्रमाण की नींव पर स्थिति को सिद्ध करते हैं ।
तत्रागममूलमिदमादिवाक्यं परापरगुरुप्रवाहमाध्यायप्रवचनस्य प्रवर्त्तकं तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिकं प्रवक्ष्यामीति वचनस्यागमपूर्वकागमार्थत्वात् । प्रामाण्यं पुनरस्याभ्यस्तप्रवकुगुणान् प्रतिपाद्यान् प्रति स्वत एवाभ्यस्त कारणगुणान् प्रति प्रत्यक्षादिवत् । स्वयमनभ्यस्त - वत्कगुणांस्तु विनेयान् प्रति सुनिश्चितासंमवखापकत्वादनुमानात्स्वयं प्रतिपन्नाशांतरवच
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
नाद्वा निश्चितप्रामाण्यात्, न चैवमनवस्था, परस्पराश्रयदोषो बा, अभ्यस्तविषये प्रमाणस्य स्वतः प्रामाण्यनिश्चयादनवस्थाया निवृत्तेः, पूर्वस्यानभ्यस्तविषयस्य परस्मादभ्यस्तविषयाप्रमाणस्वप्रतिपः ।
दोनों मूल कारणीने प्रथा जागम को आदिवाक्य का मूलकारणपना तर्कसे सिद्ध करते हैं। प्रारम्भ करके शास्त्र की प्रवृत्ति करने वाला सबसे पहिला यह "श्री बर्द्धमानं " इत्यादि वाक्य है, उसके मूल कारण पूर्वाचार्यों के आगम ही हैं। क्यों कि पर और अपर गुरुओंका ध्यान कर तत्वार्थश्लोकवार्तिकको कहूँगा, ऐसे वचन आगमगम्य पदार्थों का आगम प्रमाण से निर्णय करने पर ही कहे जाते हैं। गुरुओं के प्रसादसे जाने हुए पदार्थों के मनन करनेमें ही गुरुओं के ध्यान की आवश्यकता होती है। अपने प्रत्यक्ष और अनुमानसे जाने हुए पदार्थोके कहने में भक्त मनुष्य भी गुरुओंके स्मरण को कारण नहीं मानता है।
जिन गुरुओंके आगम को अक्लम्ब लेकर यह ग्रन्थ बनाया है, उन आगमों का प्रमाणपना अभ्यासदशामें तो स्वतः है अर्थात् जैसे प्रत्यक्ष के कारण इन्द्रियों में निर्मलत्यादि गुणोंका और मन में निश्चलता रूपगुणके जाननेका जिनको अभ्यास है, वे पुरुष प्रत्यक्षमें स्वतः ही अर्थात् उन ज्ञानके कारणोंसे ही प्रामाण्य जान लेते हैं। तथा हेतु में साध्य के अविनाभाव जानने का जिनको अभ्यास है, वे अनुमान में स्वतः ही प्रामाण्य जान लेते हैं। इसी प्रकार सच्चे वक्ता संबन्धी गुणोंको जाननेका जिन प्रोताओं को अभ्यास हो चुका है, ऐसे श्रोताओंके प्रति उस वक्तासे कहे हुए आगम में प्रमाणपना अपने आप सिद्ध हो जाता है। तभी तो व्यवहार में हुंडी लिखने का, लेने, देने, का कार्य चल रहा है। और जिनको वक्तांके गुण जानने का स्वयं अभ्यास नहीं है, उन शिष्यों के लिये तो इस अनुमान से सत् आगम में प्रामाण्य सिद्ध करा दिया जाता है, कि यह ग्रन्थ प्रमाण है [प्रतिज्ञा ] क्योंकि इसमें बाधक प्रमाण के नहीं उप्तन्न होने का अच्छा निश्चय है। अथवा प्रकृतआगम में स्वयं निश्चित कर लिया है प्रामाण्य जिसमें ऐसे दूसरे आप्तोंके वचन से मी प्रमाणता आजाती है। कोक में भी एक आदमी का दूसरे आदमी से कहने और दूसरे का तीसरेके कथन करनेसे विश्वास कर लिया करते हैं। उसी प्रकार शास्त्रों के प्रमाणपने का दूसरे दूसरे प्रामाणिक शास्त्रों से निर्णय कर लेते हैं। यहां कोई कहे कि -
ऐसा करने से अनवस्था दोष आवेगा क्यों कि प्रकृत शास्त्र को दूसरे से, दूसरे को तीसरे से और तीसरेको चौथे शास्त्र से प्रमाणपना मानने से मूलको क्षय करनेवाली अनवस्था होगी, तथा यदि विवक्षित आगमको दूसरे शास्त्र से प्रमाणीकपना माना जाय और दूसरे आगम को विवक्षित आगम से, यानी श्लोकवार्तिकका प्रमाणीकपना गोम्मटसारसे और गोम्मटसार का
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
लोकवार्तिकसे प्रमाणपना माना जाय तो अन्योन्याय दोष भी वे कार कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि ये दोनों दोष स्याद्वादियों को नहीं लगते हैं, हमने अपने ग्राम संबन्धी तालाबके जलज्ञान या अन्धेरेमें अपने घरके टेड़े नीचे, ऊंचे, सोपान (जीना) के समान परिचित विषयों के ज्ञान प्रामाण्यका निश्चय स्वतः माना है। इस कारण अनवस्थादोष निवृत्त हो जाता है। तथा ग्रामान्तरमे जलज्ञान के प्रामाण्य का संशय होने पर स्नान, पान, अबगाइन रूप अर्थक्रियाके ज्ञान से निर्णय होना माना है। अतः अन्योन्याश्रय दोष भी नहीं रहता है। पूर्वके अनभ्यस्त विषयको जाननेवाले ज्ञान का अभ्यस्त विषय को जाननेवाले ज्ञानान्तर से प्रमाणपना प्रतीत किया जाता है। अर्थक्रियाके ज्ञान में भी प्रामाण्यका संशय होने पर तीसरे ज्ञान से निर्णय कर लिया जाता है । अत्यन्त विवादस्थल में भी तीन, चार ज्ञानोंसे अधिक की आवश्यकता नहीं होती है। अन्तका ज्ञान स्वतः प्रमाणात्मक है, अतः आकांक्षा शान्त होजाती है ।
तथानुमानमूलमेतद्वाक्य, स्वयं स्वार्थानुमानेन निश्चितस्यार्थस्य परार्धानुमानरूपेण प्रयुक्तत्वात्.
जिस प्रकार आदि वाक्यको आगममूलक सिद्ध किया जा चुका है, वैसे ही विद्यानन्द स्वामी का प्रयोजन बताने वाले इस आदिवाक्य का प्रमेय अनुमान प्रमाण के मी आश्रित है। क्योंकि विद्यानन्द स्वामीने स्वयं व्याप्ति ग्रहण कर किये गये स्वार्थानुमानसे निश्चित अर्थको परार्थानुमानरूप बना कर प्रयोग कर दिया है। स्वयं व्यासिको ग्रहण कर अपने लिये किये गये अनुमानको स्वार्थानुमान कहते हैं और स्वयं अनुमान से साध्यका निश्चय कर दूसरे को समझाने के लिये जो वचन बोला जाता है, उसको परार्थानुमान कहते हैं। यहाँ गुरु के ज्ञान का कार्य होने से और शिष्य के ज्ञान का कारण होने से वचन को भी उपचार से प्रमाण मान लिया गया है । वस्तुतः शिष्य का ज्ञान परार्थानुमान है. ।
समर्थनापेक्षसाधनवान प्रयोजनवाक्यं पराथोंनुमानरूपम्, इति चेन्न ।
यहाँ किसी का पूर्व पक्ष है कि-"विद्यास्पदल" हेतु अपने समर्थन कराने की अपेक्षा रखता है। अतः फल बताने वाला बाक्य परार्थानुमानरूप नहीं हो सकता. जो अनुमान समर्थन की अपेक्षा नहीं रखता है, वही परार्थानुमान है। जैसे कि स्वयं वहि के साथ धूमकी व्यामि नाननेवालेको धूम दिखा कर विना समर्थन किये ही अमि का ज्ञान करा दिया जाता है, वह परार्थानुमान कहा जाता है। हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति विखलाकर हेतु के पक्षमें रहने को समर्थन कहते हैं, ऐसा समर्थन जहाँ होता है, वहाँ परार्थानुमान नहीं माना जाता है।
आचार्य कहते हैं कि ऐसा तो नहीं कह सकते हो । क्योंकिः
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तत्त्वार्थचितामणिः
स्वष्टानुमानेन व्यभिचाराम , न हि तत्समर्थनापेक्षसाधनं न भवति प्रतिवादिविप्रतिपसौ तद्विनिवृत्तये साधनसमवस्वादश्वपित्वात कांचिदसमर्षितसाधनवचने असाधनांगवचनस्यष्टेः।
जो समर्थन की अपेक्षा करता है, यदि वह परार्थानुमान न माना जाय तो हर एक वादी को अपने अभिप्रेत अनुमान से व्यभिचार हो जावेगा। क्योंकि प्रत्येक वादी अपने अभीष्ट साधन को सिद्ध करने के लिये प्रतिवादीके प्रति व्याप्ति को दिखलाते हुए ही साधनका प्रयोग करता है। कचित् स्पष्ट रूप से यदि समर्थन नहीं करता तो उसका अभिपाय यह नहीं है कि यहाँ समर्थन है ही नहीं। तभी तो हेतुके साथ साध्यकी व्याप्ति को दिखला कर पझमें हेतु के रहने रूप समर्थन यदि प्रतिवादीको विवादास्पद [संशयग्रस्त ] हो जाय तो उस संशयके परिहार के लिये हेतु का समर्थन करना बादीको अत्यावश्यक हो जावेगा। समर्थन कर देनेसे वह वादी का दिया हुआ अनुमान परमार्थानुमान नहीं है यह नहीं समझना । जो कोई धादी विना समर्थन किये हुए केवल पंचमी विभक्त्यन्त साधन वचन कह देते हैं, उनके ऊपर "असाधनांगवचन " नाम का निग्रहस्थान दोष देना हम दृष्ट करते हैं। बादी को उचित है कि अपने साध्य को सिद्ध करने के लिये व्याप्ति, समर्थन और शान्त रहना, इन सभी गुणो को हेतु में दिखलाने। उक्त गुणों को न कह कर केवल साधनका कहना बादीके लिये असाधनांग बचन नाम का दोष है.।
प्रकृतानुमानहेतोरशक्यसमर्थनत्वमपि नाशंकनीयं, सदुत्तरग्रन्थेन तद्धेतोसमर्थननिश्चयात् . सकलशास्त्रव्याख्यानात्तद्धतुसमर्थनप्रवणातवार्थश्लोकवार्तिकस्य प्रयोजनववसिद्धेः ।
बुद्धिका समागम और कर्मों का नाश इन दोनो प्रयोजनोंको अनुमान से सिद्ध करने वाले प्रकरणप्राप्त विद्यासदत्व हेतुका समर्थन हो ही नहीं सकता यह शंका भी न करना चाहिये। क्योंकि स्वामीजीने आगे के श्लोकवार्तिक ग्रन्थके द्वारा उस विद्यास्पदत्य हेतुका निश्चित रूपसे साध्य के साथ समर्थन किया है। प्रसिद्ध होरहे तत्वार्थसूत्रका. व्याख्यान करने वाला सम्पूर्ण श्लोकवार्तिक ग्रन्थ इस बियास्पद हेतुके समर्थन करने में ही तत्पर है। इस कारण तत्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थको प्रयोजनसहितपना सिद्ध हुआ। अबतक ग्रन्थको फलसहित बताने वाले प्रकरणका उपसंहार कर दिया गया है।
प्रागेवापार्थक प्रयोजनवचनमिति चेत्, तर्हि स्वेष्टानुमाने हेत्वसमर्थनप्रपंचाभिधानादेव साध्यार्थसिद्धेस्ततः पूर्व हेतूपन्यासोपार्थकः किन भवेत्।
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
औद्ध शङ्काकार कहता है कि ग्रन्थका फलवान्पना तो हम मान चुके, किन्तु प्रन्थका पहलेसे ही प्रयोजन कह देना व्यर्थ है। क्योंकि इसमें छोटापन प्रतीत होता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि ऐसी शंका करोगे तो आपके अभिप्रेत सत्त्व हेतुसे क्षाणिकत्त्व को सिद्ध करने वाले अनुमानमें हेतुके लिये [के अर्थ ] समर्थन की सामग्री के कहने से ही साध्यरूप प्रयोजन की सिद्धि हो जावेगी तो आपका मी उसके पहलेसे ही हेतु का कथन करना व्यर्थ क्यों न होगा । बताओ!
साधनस्यानभिधाने समर्थनमनाश्रयमेवेति चेत् , प्रयोजनवच्चस्थावचने तत्समर्थन फथमनाश्रयं न स्यात् ।
साधनके न कहने पर समर्थन करना आश्रयरहित हो जायेगा, अतः समर्थन के अवलम्ब के लिये साधनका प्रयोग करना आवश्यक है यदि शंकाकार ऐसा कहेंगे तो हम भी कहते हैं कि ग्रन्थकी आदि में यदि फल-बत्तानेवाला वाक्य न कहा जावेगा तो उत्तर ग्रन्ध से प्रजोजन का समर्थन करना विना चलनामा पनों न हो जायेगा। भावार्थ - आदिमें प्रयोजनका सूत्र बाक्य करने पर ही भविष्य के श्लोकवार्मिक ग्रन्थ से फल का स्पष्ट करना ठीक समझा जावेगा। विना फल बताए लम्बा, चौडा विवरण करना असंगत होगा। फलका उद्देश न करके मतिमन्द भी प्रवृत्त नहीं होता है, फिर विचारशील तो कैसे प्रवृत्त हो सकता है ! अतः प्रयोजन बताने में तुच्छता नहीं, प्रत्युत प्रवृत्ति करानमै दृढता आजाती है।
ये तु प्रतिज्ञामनभिधाय तत्साधनाय हेतूपन्यासं कुर्वाणाः साधनमभिहितमेव समर्थयन्ते ते कथं स्वस्थाः ।
जो पण्डित पक्षने साध्यके रहने रूप प्रतिज्ञा को न कह कर उस प्रतिज्ञाको सिद्ध करने के लिये केवल हेतुका पचन करते हुए कहे हुए साधन का ही समर्थन करते हैं, वे बुद्धमतानुयायी तो किसी भी प्रकार निराकुल नहीं हैं। क्योंकि पक्ष के बिना कहे समर्थन कहाँ किया जायेगा । कहिले,
पक्षस्थ गम्यमानस्य साधनाददोष इति चेत्प्रयोजनबत्तसाधनस्य गम्यमानस्य समर्थने को दोषः संमाध्यते ?
अनुक्त पक्ष भी प्रकरण और अभिप्रायसे समझ लिया जाता है, उस पक्षमे हेतुका समर्थन कर दिया जावेगा यदि इस प्रकार शंकाकार पुनः कहेगा तो उसी प्रकार हमको भी आदि वाक्यके कथन मात्रसे बिना कहे हुए प्रकरणसे ही जाने गये प्रयोजनवान्पनको बताने वाले विद्यास्पद हेतुके समर्थन करने में कौन दोष संभावित है ! ! अर्थात् कोई क्षति नहीं पड़ती है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सर्वत्र गम्यमानस्यैव तस्य समर्थन सिद्धेः प्रयोगो न युक्त इति चेत्संक्षिप्तशास्त्र - प्रवृत्तौ सविस्तरशास्त्रप्रवृत्तौ वा १ प्रथमपक्षे न किंचिदनिष्टं सूत्रकारेण तस्याप्रयोगात् । सामर्थ्याद्गम्यमानस्यैव सूत्रसंदर्भेण समर्थनात् । द्वितीयपक्षे तु तस्याप्रयोगे प्रतिज्ञोपनयनिगमनप्रयोगविशेधः ।
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पुनरपि शंकाकार यों कहता है कि प्रयोजन बतानेवाले साधनक कहनेकी आवश्यकता नहीं, विना कहे हुए भी अर्थापत्ति जाने हुए प्रयोजनवाक्यका समर्थन होना सिद्ध है, इस कथनपर आचार्य दो पक्ष उठाते हैं कि शंकाकारका यह उक्तकथन संक्षेपसे शास्त्र कहनेवालोंकी प्रवृत्ति घटता है अथवा विस्तारसहित शास्त्र लिखनेवालोंको प्रवृत्तिमं भो?, यदि पहिला पक्ष मानोगे तो हमको कोई बाधा नहीं है, क्योंकि सूत्रकार उमास्वामी महाराजने प्रयोजनवाक्य का कण्ठोक्त प्रयोग नहीं किया है किन्तु भविष्य के सूत्रोंकी रचना करके प्रकरण की सामर्थ्य से जाने हुए प्रयोजनका ही समर्थन किया है। और यदि तुम दूसरा पक्ष ग्रहण करोगे अर्थात् विस्तृतशास्त्रों में भी प्रयोजनवाक्यका प्रयोग न करना स्वीकार करोगे तब तो पक्षमें साध्यको कहनारूप प्रतिज्ञा तथा व्याप्तिको दिखलाये हुए हेतुका पक्षमे उपसंहार करने स्वरूप उपनय और साध्या निर्णय कर पक्ष कथन करनरूप निगमन इन तीनोंका भी प्रयोग करना विरुद्ध पड़ेगा ।
प्रतिज्ञानिगमनयोरप्रयोग एवेति चेत्, तद्वत्पक्षधर्मेोपसंहारस्यापि प्रयोगो मा भूत् । यत्सर्वं क्षणिक मित्युक्ते शब्दादौ सच्चस्य सामर्थ्याद्गम्यमानत्वात् ।
पुनः भी बुद्धमतानुयायी शंकाकारका कहना है कि प्रतिज्ञा और निगमनका कण्ठसे प्रयोग करना तो हम सर्वथा नहीं मानते हैं यो अवधारण करनेपर तो आचार्य कहते हैं कि तुम्हारे यहाँ प्रतिज्ञा और निगमनके समान पक्षमै व्याप्तियुक्त हेतुके रखने का उपसंहाररूप उपनयका भी प्रयोग नही होना चाहिये, आप बौद्धोंने जो जो सत् हैं, वे वे सम्पूर्ण पदार्थ द्वितीयक्षण में नष्ट हो जाते हैं ऐसी व्याप्तिका कथन कर चुकनेपर सत्त्वहेतुका शब्द, बिजली आदिमें उपसंहार किया है, यह उपनय भी बिना कहे हुए अनुमानके प्रकरण से जाना जा सकता था, फिर आपने क्यों व्यर्थ ही कहा ? बताओ ।
I
तस्यापि कचिदप्रयोगोऽभीष्ट एव
सविस्तर
विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवल " इति वचमात्, गम्यमानस्यापि सिद्धः प्रयोगः संक्षिप्तप्रवृत्तावेव तस्याप्रयोगात् ।
यदि शंकाकार पुनरपि ऐसा कहेगा कि कहीं कहीं उस उपनयका प्रयोग न करना भी हमको अच्छा - इष्ट है, क्योंकि हमारे बौद्धग्रन्थों में लिखा हुआ है कि “विद्वानोंके प्रति केवल हेतु
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तत्त्वार्धचिन्तामणिः
ही कहना चाहिये "। इस पर आचार्य कहते हैं कि सम तो विस्तृत टीकाप्रन्थों में मूलकारसे न कहे हुए प्रयोजनवाश्यका भी प्रकरणसे जान कर हमको भी प्रयोग करना तुम्हारे कहनेसे ही सिद्ध हुआ | हाँ ! संक्षेपसे शास्त्र लिखनेकी प्रवृत्तिमें उसका प्रयोग न करना ठीक है । यही आपका भी अभिप्राय है।
ततः क्वचिद्गम्यमानं सप्रयोजनस्वसाधनमप्रयुक्तमपि सकलशास्त्रव्याख्यानेन समयते, कचित्प्रयुज्यमानमिति नैकान्तः स्याद्वादिनामविरोधात्।
___ उस कारण अब तक यह सिद्ध हुआ कि संक्षिप्त मन्थोमें बिना कहे हुए अर्थात् प्रकरणसे ही जाने गये प्रयोजनसहितपनको बतानेवाल साधनवाक्यका और कहे हुए वाक्यका भी अभिम सम्पूर्ण शास्त्रके व्याख्यानद्वारा समर्थन किया जाता है, तथा विस्तृतग्रन्थों में कण्ठोक्क प्रयोजनवाक्यका ही पूरे ग्रन्थसे समर्थन (पोषण) किया जाता है, इस प्रकार अनेकान्तपक्षको स्वीकार करनेपर स्याद्वादियों के मतमें कोई विशेष नहीं है, पूर्वमें कहा हुआ आप बौद्रोका एकान्त ठीक नहीं है, उसमें विरोध आता है ।
सर्वधैकान्तवादिना तु न प्रयोजनवास्योपन्यासो युक्तस्तस्याप्रमाणत्वाद् ।
सर्वथा एकान्तपक्षका आग्रह करनेवाले बौद्ध, मीर्मासक, नैयायिकोंके शास्त्रोम तो प्रयोजनवाक्यका कथन करना युक्त ही नहीं है. क्योंकि प्रयोजनवाश्यको ये लोग प्रमाण नहीं मानते हैं ।
तदागमः प्रमाणमिति चेत् सोऽपौरुषेयः पौरुषेयो वा न तावदाधपथकक्षीकरणं, "अथातो धर्मजिज्ञासेति प्रयोजनवाक्यस्यापौरुषेयत्वासिद्धः। स्वरूपेर्थे तस्य प्रामाण्यानिदेशान्यथातिप्रसंगापौरुषेय एवागमः प्रयोजनवाक्यमिति चेत् । कुतोऽस्य प्रामाण्यनिश्चयः ? स्थत एवेति चेत् न, स्वतः प्रामाण्यकान्तस्य निराकरिष्यमाणत्वात् । परत एवागमस्य प्रामाण्यमित्यन्ये, तेषामपि ने प्रमाण सिद्धयति, परतः प्रामाण्यस्यानवस्थादिदोपक्षितत्वेन प्रतिक्षेप्यमानत्वात्प्रतीतिविरोधात्।
कोई पण्डित कह रहा है कि प्रयोजन कहनेवाले वचनको हम लोग आगमप्रमाणरूप मानते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम तुम्हारे ऊपर दो पक्ष उठाते हैं कि आपका यह आगम किसी पुरुषका न बनाया होकर अनादि है या किसी पुरुषविशेषका बनाया हुआ सादि है ! पताओ, उन दोनोंसे पहला पक्ष स्वीकार करना मीमांसकोंको उचित नहीं है क्योंकि मीमांसादर्शनमे धर्मका ज्ञान हो जानारूप प्रयोजनको बतलानेवाला पहला सूत्र है "अथातो धर्मजिज्ञासा" जिसका कि अर्थ इसके अनन्तर यहाँसे धर्मके जाननेकी इच्छा है, ऐसा होता है ! अनादिस्त थ शब्द नहीं बोला जाता है। ऐसे प्रशेजन कहनेशले वाक्यको
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atedयता सिद्ध नहीं है। मीमांसकोंने भी इस सूत्र को बनानेवाले जैमिनि ऋषि माने हैं. मीमांसक लोग ज्योतिष्टोमयज्ञादि कर्मकाण्ड के प्रतिपादक वेदवाक्योंको ही प्रमाण मानते हैं । अद्वैतस्वरूप अर्थ निमस हो रहे विधिको कहनेवाले या प्रयोजनको कहनेवाले वाक्योंकी प्रमाणता उनको इष्ट नहीं है । अन्यथा यानी यदि मीमांसक लोग कर्मके कहनेवाले वाक्यों के अतिरिक्त वाक्य को भी प्रमाण मानेंगे तो अद्वैतवादके प्रतिपादक "एकमेवाद्वयं ब्रह्म नो नाना " अथवा सर्वज्ञको सिद्ध करनेवाले " यः सर्वज्ञः स सर्ववित्" इत्यादि अर्थवादवाक्य भी प्रमाण मानने पडेंगे | अतिप्रसंग हो जायेगा ।
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यदि प्रयोजनवाक्यको नैयायिकों के मतानुसार विशिष्ट पुरुषके द्वारा बनाये हुए पौरुषेय आगमस्वरूप ही मानोगे तो उस नैयायिक बने हुए आगमको मापने का निश्चय कैसे किया जावेगा ? अपने आपहीसे आगनमें प्रमाण वनेका निश्चय कर लिया जाता है यह कहना ठीक नहीं । क्योंकि ज्ञानसामान्य जाननेवाले ही कारणोंसे प्रामाण्यका भी निश्चय स्वतः कर लिया जाता है, इस प्रकार मीमांसकों के एकान्सका भविष्यमै खण्डन कर दिया जावेगा और आप नैयायिक लोग तो ज्ञान स्वतःही प्रमाणपनेका निश्चय होना मानते भी नहीं हैं. अन्यथा अपसिद्धान्त हो जायगा ।
पदों का ज्ञान, संकेतग्रहण, शब्दका प्रत्यक्ष आदि आगमके सामान्य कारणों के अतिरिक्त आसति, आकांक्षा, योग्यता और तात्पर्यरूप कारणसे परतः ही आगममे प्रामाण्यका निर्णय होता है, इस प्रकार अन्य नैयायिक मान बैठे हैं, उन नैयायिकों के मतमें भी प्रयोजन शक्य आगमप्रमाणरूप सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि प्रकृत जलके ज्ञानको दूसरे ठंडी वायु आदि के ज्ञानसे प्रमाणपना आवेगा। और ठंडी वायु आदिके ज्ञानको तीसरे ज्ञानसे प्रामाण्य माना जायेगा, जबतक उत्तरज्ञान से पूर्व ज्ञानोंको प्रमाणपना न आवेगा तब तक आकांक्षा शांत न होनेसे उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी धारा चलेगी, क्योंकि जो दूसरेका ज्ञापक है, वह किसी न किसी ज्ञानसे ज्ञान होना चाहिये । इस तरह अवस्थादोष आता है । द्वितीय ज्ञानको प्रथम ज्ञानसे प्रामाण्य मानोगे और प्रथम ज्ञानको द्वितीय ज्ञान से प्रमाणपना लावोगे तो अन्योन्याश्रयदोष भी आयेगा | एवं संवाद, प्रवृत्ति और प्रमाणपना इन तीनोंसे प्रमाणभनेका निश्चय माना जाय तो चक्रकदोप मी आता है।
इत्यादि दोषोंसे दूषित हो जानेके कारण नैयायिकों के परतः प्रामाण्यका भविष्य में विस्तारसं खण्डन करेंगे | तथा परतः प्रानाम्यवाद लोकप्रसिद्ध प्रतीतिस भी विशेष आता है। सभी लोग अभ्यासदशा मे ज्ञान होनेके समग्रही उसके प्रामाण्यको भी जान लेते हैं। }
परार्थानुमानमादौ प्रयोजनवचनमित्यपरे तेऽपि न युक्तिवादिनः साध्यसाधनयोर्ध्याशिप्रतिपत्तौ तर्कस्य प्रमाणस्याऽनभ्युपगमात्प्रत्यवस्थानुमानस्य वा तत्रासमर्थत्वेन साथ
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यिष्यमाणत्वात्। ये स्वप्रमाणकादेव विकल्पज्ञानाच्योर्व्याप्तिप्रतिपचिमाहुस्तेषां प्रत्यक्षानुमानप्रमाणत्वसमर्थनमनर्थकमेवाऽप्रमाणादेव प्रत्यक्षानुमेयार्थप्रतिपत्चिप्रसंगात् ।
अन्धकारको उस ग्रन्थके प्रमेयोंके ज्ञानसे स्वयं तो कुछ प्रयोजन सिद्ध करना ही नहीं है क्योंकि ग्रन्थकर्ताको तो ग्रन्थरचनाकं पूर्वमें ही भावग्रन्थसे प्रबोध और कर्महानिरूप फल प्राप्त हो चुका है । भविष्य शिष्यों के लिये उस फलकी प्राप्ति हो इस परोपकार बुद्धिसे प्रेरित होकर अन्धके आदि शास्त्रकारका फल बतलाना उपयोगी है | अतः स्वयं अपनी आत्मारूप दृष्टान्तमै निश्चित किये हुए अविनाभाव रखनेवाले विद्यास्पद हेतुसे सज्ज्ञानकी प्राप्ति और कमौका नाश रूप साध्यका ज्ञान करानारूप प्रयोजनका प्रतिपादक वाक्य परार्थानुमानस्वरूप है, ऐसा कोई न्यारे वृद्धवैशेषिक कहते हैं, और साथ अपने ग्रन्थोंके प्रारम्भ में " द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावानां सप्तानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्यज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः । इत्यादि प्रयोजन वाक्यों को भी परार्थानुमान रूपही सिद्ध हुआ मानते हैं। आचार्य " कहते हैं कि उन वैशेषिकका कमी युक्तिवाद से रहित है क्योंकि साध्य और साधनकी व्यासिका ग्रहण तर्कज्ञानसे ही हो सकता है । सब देश और काल में उपसंहार करके साध्य और साधनके संबन्धको जाननेवाले तर्करूप ज्ञानको वैशेषिक प्रमाण नहीं मानते हैं । तर्क मिथ्याज्ञानका भेद माना है, उनके यहाँ प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने गये हैं, उक्त दोनों प्रमाण उस सर्व देशकालोपसंहारवाली व्याप्सिको ग्रहण करने में असमर्थ हैं इसको भविष्य में सिद्ध करेंगे।
"
जो बौद्ध लोग साध्य और साधन के संबन्ध ( वस्तुतः संबन्ध नहीं है) की कल्पना करनेवाले प्रभागरूप सर्विकल्पक व्याप्तिज्ञानसे उन ही हेतु और साध्यके अविनाभाव संबन्धका विकल्पज्ञान होजाना कहते हैं, उन बौद्धोंको अपने माने गये प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञानको भी प्रमाण की समर्थनपूर्वक सिद्धि करना व्यर्थ पडेगा । क्योंकि अमभागरूप तर्कज्ञानसे जैसे अविनाभावका ज्ञान हो जाता है उसी प्रत्यक्ष और अनुमानसे जानने योग्य पदार्थोंका अप्रमाणरूप प्रत्यक्ष और अनुमानसे भी ज्ञान हो जानेका प्रसंग आ जायेगा, व्यर्थ ही प्रमाणत्वका बोझ वय लावा जावे ? |
I
ततो न प्रयोजनवाक्यं स्याद्वादविद्विषां किंचित्प्रमाणं ममाणादिव्यवस्थानासंभवाच्च न तेषां तत्प्रमाणमिति शास्त्रप्रणयनमेवासंभवि विभाव्यतां किं पुनः प्रयोजनवाक्योपन्यसनम् ।
,
+1
उस कारण अबतक सिद्ध हुआ कि स्याद्वाद सिद्धान्तसे द्वेष करनेवाले मीमांसक, वैशेषिक, नैयायिक, और बौद्धों के शास्त्रोंकी आदिमें लिखे हुए प्रयोजन बतानेवाले यतो ऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्मः " जिससे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है, वह धर्म है इत्यादि वाक्य किसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमप्रमाणरूप नहीं हैं. ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अन्यमतावलम्बियोंके माने हुए प्रमाण, प्रमेय, आदि पदार्थ ही जब युक्तियों से व्यवस्थित नहीं हो सकते हैं सब प्रमाण आदिकी व्यपरथाका असम्भव हो जानेसे उनके यहाँ प्रयोजन वाक्य भी किसी प्रभाणस्वरूप कैसे सिद्ध हो सकता है ? और ऐसी अव्यवस्था प्रयोजनवाक्य लिखना तो भला दूर रहा किन्तु ऐसे लोगोंका तो शास्त्र बनाना ही असंभव है यह विचार लेना चाहिये, फिर प्रयोजनवाक्यके कथनकी तो बात ही दूर है।
श्रद्धाकुतूहलोत्पादनार्थ तदित्येके तदप्यनेनैव निरस्तं तस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वपक्षयोस्तदुत्पादकत्वायोगात् ।
शिष्योंको ग्रंथ सुनने में श्रद्धा ( विश्वास ) पैदा हो और कौतुक उत्पन्न हो इस प्रकार भोताओंके चित्तको आकर्षित करनेके लिये ग्रन्थकी आदिमें प्रयोजनवाक्य लिख दिया जाता है, ऐसा किसी एक सम्प्रदायको माननेवाले पण्डित कहते हैं, आचार्य महाराज आदेश करते हैं कि
उनका कथन भी इस पूर्वोक्त विचारसे ही खण्डित हो जाता है क्योंकि प्रयोजनवाश्यक प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व इन दोनोमसे किसी भी पक्षको ग्रहण करनेपर प्रयोजनवाक्यको उन उन श्रद्धा और कुतूहलका उत्पादकपना नहीं बन सकता है अर्थात् प्रमाण मानने में अनवस्था, प्रामाण्यका निश्चय न होना, व्याप्ति न बनना, आदि दोष आवेंगे और अप्रमाण माननेसे तो प्रमाणपनेका विचार ही संसारसे नष्ट हुआ जाता है ।
अर्थसंशयोत्पादनार्थ तदित्यप्यसार क्वचिदर्थसंशयात्प्रवृत्ती प्रमाणव्यवस्थापनानर्थक्यात, प्रमाणपूर्वकोऽर्थसंशयः प्रवर्तक इति प्रमाणव्यवस्थापनस्य साफल्ये कथमप्रमाणकास्प्रयोजनवाक्यादुपजातोऽर्थसंशयः प्रवृत्यंगं । विरुद्धं च संशयफलस्य प्रमाणत्वं विपर्यासफलवत् खार्थव्यवसायफलस्यैव ज्ञानस्य प्रमाणत्वप्रसिद्धः।
.फोई संशयालु कह रहा है कि ग्रंथकी आदिमें प्रयोजनका लिखना अन्यके वाच्य अर्थ में संशय पैदा करने के लिये है क्योकि अर्थ में संशय होनेपर ही जनता भविष्यमें उस ग्रंथको सुनेगी । इस शंकाकारका यह हृद्य प्रतीत होता है कि " एकांतनिश्चयावर संशयः " अनिष्ट बासके निर्णयकी अपेक्षा उसका संशय बना रहना कहीं अच्छा है, इस नीतिके अनुसार ग्रंथके सुननेमें जिनको कुछ भी फल नहीं दीखता, उनको अथकी आदिमें प्रयोजन बतानेसे फलप्राप्तिका कमसे कम संशय तो अवश्य हो जावेगा, जिससे कि वे फलकी संभावनासे सो ग्रंथ सुनने में प्रवृत्ति करेंगे । अर्थशब्दका अर्थ प्रयोजन भी होता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहनेमें भी कुछ सार नहीं है क्योंकि, अर्भके संशयसे ही कहीं प्रवृत्ति होने लगे तो प्रमाणतत्त्वकी व्यवस्था मानना व्यर्थ पडेगा । यदि तुम ऐसा कहोगे कि प्रत्येक संशयको हम प्रवर्चक नहीं मानेंगे किन्तु प्रमालज्ञानसे उत्पन्न हुआ
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अर्थक विशेष विशेषांशोको जाननेवाला संशयज्ञान प्रन्थ सुनने में प्रवृत्ति कराता है, ऐसा माननेपर प्रमाणतत्त्वकी व्यवस्थापना करना भी सफल है । पण्डितोंके साथ वाद, संवाद करनेसे विशिष्ट तत्त्वोंका ज्ञान होता है यह सिद्धांत भी विशेषांशमें संशय करनेवाले के ही लिये लागू है, केवलज्ञानीके लिये नहीं । अब आचार्य बोलते हैं कि इस प्रकार तुम्हारे कहने पर प्राभाविक प्रयोजनवारय शो अले ही प्रवृत्तिका कारण हो जाय किंतु अप्रमाणरूप प्रयोजनवाक्यसे उत्पन्न हुआ अर्थका संशय तो श्रोताओंको प्रन्थ सुनने प्रवृत्तिका कारण कैसे भी नहीं हो सकता है । एक मात यह भी है कि रस्सीम सर्पका ज्ञान करनारूप विपर्ययज्ञानका फल जैसे प्रमाणरूप नहीं है उसी प्रकार संशयके फलको भी प्रमाणस्वरूप मानना विरुद्ध है । अपना और अपने विषयका निश्चयरूप फलको करनेवाले ज्ञानको ही प्रमाणता प्रसिद्ध हो रही है, तथा च अर्थमें संशय उपजानेवाला आपका प्रयोजन याश्य कैसे मी श्रोताओंकी प्रवृत्तिका कारण नहीं हो सकता है । फलसंभावना-रूप संशयसे बालजन भले ही प्रवृत्ति कर ले। किंतु विचारशील विद्वान् निश्चयात्मक प्रमाणसे ही प्रवृत्ति करते हैं।
ये स्वाहुनिष्प्रयोजनं तमारंभषीयं यथा काकदन्तपरीक्षाशास्त्र, निष्प्रयोजनं चेदं शाखमिति ब्यापकानुपलब्ध्या प्रत्यवतिष्ठमानान्प्रति व्यापकानुपलब्धेरसिद्धृतोद्भावनार्थ प्रयोजनवाक्पमिति ।
यहां जो कोई ऐसा कहते हैं कि व्याप्यसे व्यापकका ज्ञान होता है और ब्यापकके अभावसे तो व्याप्सका अभाव प्रतीत हो जाता है, यहाँ कार्यका आरम्म करना ( धूमके समान ) न्याप्य है
और प्रयोजनवान्पना (अग्निके समान) व्यापक है, तथा प्रयोजनरहितपना (वहिके अभावसमान) ब्याप्य है और कार्यके आरम्भका न होना (धूमामावके सभान ) व्यापक है, ऐसा व्याप्यव्यापकभाव सिद्ध हो जाने पर कोई असत्य उत्तररूप जातिनामका दोष उठाते हैं कि जो जो प्रयोजनरहित है, वह वह शास्त्र सद्वक्ताओंको आरम्भ करने योग्य भी नहीं है, जैसे कि काकके दातोंकी परीक्षा करने वाले शास्त्रको कोई नहीं बनाता है, इसके समान प्रयोजनसहितपना-रूप व्यापकके ज्ञान न होनेसे अंथके आरम्भ-रूप अपशस्तन्यापकका भी अभाव होना चाहिये, इस प्रकार जातिदोष उठानेवालोंके प्रति प्रयोजनके नहीं होने की असिद्धिको प्रगट करनेके लिये प्रयोजनवाक्य कह दिया गया है । भावार्थ--सद्वक्ताओंके आरंभ करने योग्य यह ग्रंथ प्रयोजनसहित है।
आचार्य कहते हैं कि समाधान करनेवाले ये लोग भी चारों ओरसे अच्छी तरह देखनेवाले परीक्षक नहीं हैं।
सेऽपि न परीक्षकाः स्वयभप्रमाणकेन तदसिद्धृतोद्भावनाऽसंभवात् तत्प्रमाणत्वस्य । पैरन्यवस्थापयितुमशक्तः।
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कारण कि जब तक आदिके प्रयोजन वाक्यको प्रमाणपना सिद्ध नहीं तो फिर स्वयं अप्रमाणरूप प्रयोजनवाक्यसे जातिवादीके उठाये हुए दोषकी असिद्धि कैसे हो सकती है ? केवल प्रयोजनका उच्चारण कर देनसे आप लोग उसकी प्रमाणताका निर्णय कैसे भी नहीं कर सकते हैं, प्रमाणोंसे सिद्ध किये हुए वास्य ही दूसरों के दोष हटानेमें समर्थ होते हैं, और अभीतक प्रयोजनबायकी प्रमाणसा दूसरों के द्वारा ही व्यवपित की जा सकी है।
सकलशास्त्रार्थोद्देशकरणार्थमादिवाक्यमित्यपि फल्गुणायं तदुदेशस्याप्रमाणात्प्रतिपशुमशक्तस्तल्लक्षणपरीक्षावत् ।।
" आगेके सम्पूर्ण शास्त्रके प्रतिपाद्य-विषयका संक्षेपसे नाममात्र कथन करनेके लिये पहिला वाक्य लिखा जाता है, " यह भी आदिवाक्यका फल बताना बहुभागमें व्यर्थ है, क्योकि अप्रामाणिकवाक्यसे संक्षिप्त अर्थके कथनका भी निर्णय नहीं हो सकता है, जैसे कि प्रमाणरहित-वाक्यसे किसी यस्तुका लक्षण और परीक्षा नहीं की जाती है उसी प्रकार मन चाहा बोला हुआ वाक्य उद्देश करनेवाला भी नहीं होता है। बात यह है कि उद्देश्य, लक्षणनिर्देश, और परीक्षा तो मामाणिक वाक्यसे ही किये जाते हैं । यही सर्व दार्शनिकोंको इष्ट है।।
ततो नोद्देशो लक्षपा परीक्षा चेति त्रिविधा व्याख्या व्यवतिष्ठते ।
उस फारणसे उद्देश, लक्षण और परीक्षाको प्रमाणताके निर्णय किये विना ग्रंथका नाम मात्र कथन करना, मिली हुयी वस्तुओं मेंसे पृथक् करनेका कारणरूप लक्षण बोलना और अनेक युक्तियोंकी सम्भावना प्रबलता और दुर्बलताके विचाररूप परीक्षा इन तीनों प्रकारसे व्याख्यान करना व्यवस्थित नहीं हो सकता है।
समासतोऽर्थप्रतिपत्त्यर्थमादिवाक्यं व्यासतस्तदुत्तरशास्त्रमित्यप्यनेनैव प्रतिक्षिप्तमप्रमाणाद्वयासत इव समासवोऽप्यर्थप्रतिपत्तेरयोगात् ।।
कोई वादी आदिके वाक्यका प्रयोजन यह बतलाते हैं कि ग्रंथका संक्षेपसे ज्ञान करने के लिये आदिका वाक्य है और विस्तार रूपसे अर्थ की प्रतिपत्ति करानेके लिये भविष्यका पूरा ग्रंभ है, ग्रंथकार कह रहे हैं कि यह इनका विचार भी पूर्वोक्तकथनसे खण्डित हो जाता है, क्योंकि जब तक पूरे प्रथम प्रमाणता सिद्ध नहीं है, तब तक विस्ताररूपसे अर्थका ज्ञान जैसे नहीं हो सकता है उसी प्रकार ग्रंथके अप्रामाणिक पहिले वाक्यद्वारा संक्षेपसे भी पदार्थका निर्णय नहीं हो सकता है, अतः आप लोगोंको प्रयोजन कहनेवाले बाक्यकी प्रमाणताका निर्वाय करना आवश्यक है।
स्याद्वादिनान्तु सर्वमनवचं तस्यागमानुमानरूपत्वसमर्थनादित्यलं प्रसंगेन ।
स्याद्वादरूपं सिद्धांतको माननेवाले जैनोंके मत में तो सर्व पूर्वोक्त कथन निर्दोष सिद्ध है, क्योंकि आनिके प्रयोजन वाक्यको आगमप्रमाणस्वरूपपने और अनुमानप्रमाणरूपपनेका अच्छी तरह
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समर्थन कर दिया गया है, इस प्रकार आदिवाक्यके कथनपर बहुत विचार करनेपर भी वही हमारी कही हुयी पूर्वोक्त सफलता सिद्ध हुयी । अब अधिक इस प्रकरणको बढानेसे कुछ तत्त्व नहीं सधता है।
अब यहां दूसरी और तीसरी बात्तिकोंके अवतरण करने का उत्थान किया जाता है।
ननु च तत्वार्थशास्त्रस्यादिसूत्रं तावदनुपपन्न प्रवक्तृविशेषस्याभावेऽपि प्रतिपाद्यविशेषस्य च कस्यचित्प्रतिपित्सायामसत्यामेव प्रवृत्तत्वादित्यनुपपत्तिचोदनायामुत्सरमाह ।
___ यहां शंका है कि उपर्युक्त प्रयोजनवाक्यका अनुमान और आगमरूपपना तभी माना जा सकता है, जब कि तत्वार्थसूत्र ग्रन्थकी सिद्धि हो जाय। हम तो कहते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रका पहिला " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " सूत्र ही सिद्ध नहीं है क्योंकि सच्च वक्ताके न होते भी और किसी विशेष समझनेवालेकी जाननेकी इच्छा न होनेपर ही इस सूत्रको बोलनेकी प्रवृति हो गयी है ! कोई अच्छे वक्ताके द्वारा श्रद्धापूर्व सुननेवाले शिष्योंकी प्रगाढ इच्छा होनेपर ही जो वाक्य बोला जाता है, वह प्रमाणसिद्ध माना जाता है । जब कि पहिले सूत्रकी ही असिद्धि है तो फिर पूर्ण तत्त्वार्थसूत्र या उसकी टीका श्लोकार्तिक और उसके आदिवाक्यको प्रामाणिक बताना विना भित्तिके चित्रलेखनसमान अनुचित है । इस प्रकार आदिसूत्रके विषयमें ही शंकाकारद्वार असिद्धिकी प्रेरणा होनेपर श्रीविद्यानंद स्वामी उत्तर कहते हैं।
प्रयुद्धाशेषतत्त्वार्थे साक्षात्प्रक्षीणकल्मषे सिद्धे मुनीन्द्रसंस्तुत्ये मोक्षमार्गस्य नेतरि ॥ २ ॥ सत्यां तत्प्रतिपित्सायामुपयोगात्मकास्मनः
श्रेयसा योक्ष्यमाणस्म प्रवृसं सूत्रमादिमम् ॥ ३ ॥ कल्याणमार्गके अभिलाषी अनेक शिष्योंकी मोक्षमार्ग जाननेकी इच्छा होनेपर ही " मोक्षमार्गस्थ नेतारं भत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां बंद तद्गुणलब्धये " इस अच्छी तरह सिद्ध किये गये मंगलाचरण की भित्तिपर ही उमास्वामी महाराजने पहिला सूत्र लिखा है। केवलज्ञानद्वारा प्रत्यक्षरूपसे अच्छी तरह जान लिये हैं सम्पूर्ण पदार्थ जिन्होंने, और नष्ट कर दिये हैं ज्ञानावरणादि घातिकर्म जिन्होंने, तथा मोक्षमार्गको प्राप्त करने और करानेवाले मुनि श्रेष्ठोंके द्वारा भले प्रकार स्तुति करने योग्य नीजिनेन्द्रदेवके सिद्ध होनेपर ही तथा ज्ञानदर्शनोंपयोग-स्वरूप और मोक्षसे भविष्यमें युक्त होनेवाले शिष्यकी मोक्षमार्गको जाननेकी तीन अभिलाषा होनेपर यह पहिला सूत्र " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ उमास्वामी आचार्यने प्रचलित किया है।
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तेनोपपन्नमेवेति तात्पर्य, सिद्धे प्रणेतरि मोक्षमार्गस्य प्रकाशकं वचनं प्रवृतं तत्कायस्वादन्यथा प्रणेतृव्यापारानेपक्षत्वप्रसंगात् ।
उस शरण यह सासर्य नियस हुआ कि मोक्षमार्गका प्रणयन करनेवाले श्रीसर्व जिनेन्द्रदेवके सिद्ध होनेपर ही मोक्षमार्गका प्रकाश करनेवाला वचन प्रवर्ता है। क्योंकि मोक्षमार्गका प्रतिपादक वचन उस मोशमार्गके बनानेवालेका कार्य है । सर्वशके द्वारा कहा हुआ वचन सर्वज्ञका बनाया हुआ कार्य है और परिपाटीके अनुसार उमास्वामी आचाका यह " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" सूत्र कार्य है, अन्यथा यानी पदि वचनका कारण यक्ताको न मानोगे तो शब्दनिर्माताके-बोलनेवाले पुरुषके कण्ठ, ताल आदि अवयवोंके हलन, चलन-रूप व्यापारकी शब्दकी उत्पत्तिमे अपेक्षा न होगी यह प्रसङ्ग आवेगा किंतु होती है।
___ तद्वयंग्यत्वातसदपेक्षम् । यहां शब्दको नित्य माननेवाले मीमांसकोंका कहना है कि कण्ठ, ताल आदिसे शाद उत्पन्न नहीं किया जाता किंतु पहिलेसे ही विद्यमान 'शब्द कण्ठ, ताल, मृदंग आदि व्यक्त करनेवाले व्यञ्जकोंसे व्यक्त (प्रकट) किया जाता है, अतः वह वचन उनकी अपेक्षा रखता है।
शति चेन्न कूटस्थस्य सर्वथाभिव्यंग्यत्वविरोधात्तदभिव्यक्तव्यवस्थितेः ।
आचार्य कहते हैं कि मीमांसकोंका उक्त कथन ठीक नहीं है कारण कि, काठमें हद अचल गडी हुयी लोहे की निहाईके समान यदि शब्दको अपरिणामी कूटस्थ माना जावे तो एकांतपनेसे शब्दके आविर्भावपनेका विरोध आवेगा, अर्थात् नित्यपक्षम मी पूर्वकी तिरोभाव अवस्थासे ही शब्दकी अभिव्यक्ति मानी जावेगी तो कथञ्चित् नित्य अनित्यपना आया, सर्वथा ही मित्यका अभिव्यंग्यपना कैसे भी नहीं बन सकता है । अतः मीमांसकोंके मतों उस शब्दके प्रगट होनेकी व्यवस्था नहीं हो सकती है । यद्यपि जैनसिद्धांतमें लुहारकी निहाईको भी प्रतिक्षण परिणामी मान। है, निहाईमें भी अतिशयोंका आना जाना विकार होना सर्वदा चालू है, किंतु दूसरोंके मतसे कूटस्थपनेमें लुहारकी निहाईका दृष्टान्त दिया गया है ।
सा हि यदि वचनस्य संस्काराधानं तदा ततो मिन्नोऽन्यो वा संस्कारः प्रणेतृव्यापारेणाधीयते ? यद्यभिन्नस्तदा वचनमेव तेनाधीयत इति कथं कूटस्थं नाम ? भिन्नत्पूर्ववबत्तस्य सर्वदाप्यश्रवणप्रसंगः, प्रापश्चाद्वा श्रवणानुषंगः, स्वस्वभावापरित्यागात् । संस्काराधानकाले प्राच्याश्रावणत्वस्वभावस्व परित्यागे श्रावणस्वभावोपादाने च शब्दस्थ परिपामित्वसिद्धिः, पूर्वापरस्वभावपरिहारावारिस्थितिलक्षणत्वात् परिणामित्वस्य । तथा च वचनस्य किमभिव्यक्तिपक्षकक्षीकरणेनोत्पत्तिपथस्यैव सुघटत्वात् ।
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शब्दकी उत्पत्ति न मानकर अभिव्यक्ति माननेवाले मीमांसकोंके मतमें अमिव्यक्तिका क्या अर्थ है ? बतलाओ, यदि बोलनेकी पहिली अवस्थाक नहीं संस्कार किये गये शब्दोंमें कण्ठ, ताल, आदिके व्यापारद्वारा वर्तमान में कुछ संस्कार धारण करा देने की अभिव्यक्ति मानोगे तो बताओ, बतानेवाले वक्ताक व्यापारोंसे उस समय शब्दोंमें रख दिया गया संस्कार ( अतिशय ) क्या शब्दसे अभिन्न है अथवा भिन्न है ! यदि अभिन्नरूप पहिला पक्ष मानोगे तो वक्ताके तालु आदिके व्यापारने शब्दसे अभिन्न संस्कारको किया तो शब्दको ही बनाया कहना चाहिये, क्योंकि आपके मत शब्द और संस्कार दोनों एक ही हैं । ऐसी अवस्थामें भला शब्दका कूटस्थरूपसे नित्यपना कैसे बन सकता है ? यदि शब्दसे संस्कार भिन्न है ऐसा दूसरा पक्ष ग्रहण करोगे तो हमारे दिये हुए उक्त दोषका तो निवारण हो जायेगा किन्तु अन्य दोष आगे । देखिये वक्ताके व्यापारसे किया गया संस्कार यदि शब्दसे भिन्न पड़ा रहता है तो सब कालोम शब्दका श्रवण नहीं होना चाहिये क्योंकि उच्चारणके पूर्वमें जैसे शब्दका श्रषण नही होता था उसी प्रकार पीछे भिन्नरूप संस्कारके उत्पन्न होनेपर भी शब्दका सुनना न हो सकनेका प्रसंग आवेगा । क्या भिन्न स्थान पर पड़ा हुआ घटका संमार्जनरूप संस्कार और सर्वथा भिन्न पटका प्रक्षालनरूप संस्कार कार्यकारी हो सकता है ! नहीं। यदि भिन्न पड़े हुए संस्कारसे भी वर्तमान काली शब्दका सुनना मानोगे तो भूत और भविष्यकालों भी शब्दके सुननेका प्रसंग आवेगा; क्योंकि वर्तमानका शब्द. जैसे संस्कारसे भिन्न होकर सुनाई दे रहा है उसी प्रकार नित्यरूपसे विद्यमान वही शब्द उसी संस्कारसे भूत, भविष्यमें भी सुनायी पडना चाहिये, कारण कि संस्कारसे भिन्न पड़ा हुआ स्वतंत्र शब्द अपनी प्रकृति [आदत को कभी छोड नहीं सकता है।
यदि आप ऐसा कहोगे कि वक्ताफे द्वारा बनाये गये संस्कारोंको धारण करते समय शब्द अपनी पूर्वकालकी नहीं सुनाई पडने की टेव ( आदत ) को छोडकर वर्तमान कालमें सुने जानेकी प्रकृतिको ग्रहण करता है तो ऐसा माननेपर शब्दको परिणामीपना सिद्ध होता है क्योंकि पूर्वके स्वभावोंको छोडना, उत्तर स्वभावोंको प्राप्त करना, और द्रव्यस्वभावसे स्थित रहना ही परिणामीपनका रक्षाण है और तैसा होनेपर फिर आपको शब्दकी अभिव्यक्तिपक्षकै स्वीकार करनेसे क्या लाभ हुआ आपके उक्त कथनसे तो शब्दकी उत्पत्तिपक्षका ही अच्छी रीतिसे घटन हो जाता है ।
शब्दाद्भिन्नोऽभिन्नश्च संस्कारः प्रणेतृव्यापारेणाधीयत इति चेन्न सर्वथा मेदाभेदथोरेकत्वविरोधात् ।
यदि शब्दको बनानेवालेके व्यापारद्वारा जो शब्दमें संस्कार किया जाता है, वह शब्दसे भिन्न है और अभिन्न भी है, ऐसा कहोगे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वथा भेद और अभेद
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मानने संस्कार और शब्दके एकपनेका विरोध हुआ जाता है। सर्वथा भेद माननेपर अभेद नहीं मान सकते हो और सर्वथा अभेद माननेपर भेद मानना विरुद्ध है । भेद और और अभेद दोनों धर्म एक नहीं होसक्ते हैं। तुल्यवल विरोध है ।
यदि पुनः कथञ्चिदभिन्नो भिन्नश्च शब्दात्संस्कारसस्य वेनाधीयत इति मतं तदा स्यात्पौरुषेयं तत्वार्थशासनमित्यायातमहेन्मतम् ।
विरोध और विप्रतिषेध दोषको दूर करनेके लिये यदि आप मीमांसक लोक शब्दसे कथञ्चित भिन्न और किसी अपेक्षासे अभिन्न संस्कार का बनानेवालेके व्यापारसे शब्दमे स्थापन करना मानोगे, तब तो तत्वार्थोकी शिक्षा करनेवाले तत्त्वार्थसूत्रमन्थके वर्ण, पद, वाक्यों, का भी कथञ्चित् पुरुषसे बनाया जाना अभेदपक्षमें आपके द्वारा ही सिद्ध होगया यों जैनसिद्धांत आगया । यद्यपि प्रवाह रूपसे ज्ञानरूप ग्रन्थ सर्वदासे चला आया है किंतु इस ज्ञानके अनुसार शब्दयोजना करके ग्रंथ बना देना ग्रंथकारका स्वायत्त कार्य है इस ही कारण वक्ताके शब्दोंको जैनसिद्धांतमें पौरुषेय माना गया है, यह श्रीजिनेन्द्रदेवका कहा हुआ मन्तव्य आपको भी मानना पड़ा।
अनु र नाकारोऽभिव्यक्तिस्तदावारलवाय्वपनयनम् घटाद्याधारकतमोऽपनयनवचिरोभावश्च तदावारकोत्पचिर्न चान्योत्पपिविनाशौ शब्द स्य तिरोभावाविर्भावौ कौटस्थ्यविरोधिनी येन परमतप्रसिद्धिरिति चेत्
यहां फिर मीमांसककी ओरसे यह अपने ऊपर आये हुए दोषोंके निवारण करते हुए आईसके कहे हुए मतके माननेमें शंका है कि हम वर्गों के संस्कारको ही शब्दकी अभिव्यक्ति मानते हैं, वक्ताके व्यापारके पूर्व उस शब्दकी सुनायी पडने प्रतिबंध करनेवाला कारण विशेषतायु माना गया है, उस वायुका दूर हो जाना ही शब्दका संस्कार है, जैसे कि घरमें रखे हुए घटका आवरण करनेवाले अन्धकारका दूर हो जाना ही घटकी अभिव्यक्ति है। तथा शब्दको न सुनने देनेवाले वायुका उत्पन्न हो जाना ही शब्दका तिरोभाव ( वर्तमान होते भी छिप जाना ) है, जब कि भिन्न माने गये वायुकी उत्पत्ति और विनाश ही शब्दके आविर्भाव ( प्रगट होना ) और तिरोभावरूप हैं तो वायुकी उत्पत्ति और नाश होनेसे वायुफा ही परिणामपन सिद्ध हुआ। न्यारी वायुके उत्पाद और नाशसे शब्दकी कूटस्थनित्यताका कुछ भी विरोध नहीं हो सकता है, जिससे कि आप जैनोंकामा सिद्ध माना जाये । अर्थात् हम शब्दको पौरुषेय मानवे नहीं हैं यदि ऐसा कहोगे ?
तर्हि किं कुर्वन्नावारकः शब्दस्य वायुरुपेयते ? न तावत्खरूपं खण्डयन्नित्यैकान्तत्रवि रोधात् । तद्बुद्धि प्रतिनभिति चेत्तत्यविधाते शब्दस्योपलभ्यता प्रतिहन्यते वान वा प्रतिहन्याने चेत्सा शब्दाभिन्ना प्रतिहन्यते न पुनः शह इति प्रलापमात्रम् । ततोऽसौ भिन्नैवेति
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सर्वदानुपलभ्यतास्वभावः शब्दः स्यात् । तत्संबंधादुपलभ्यः स इति चेत् कस्तया तस्थ संबंध ः १ धर्मधर्मिभाव इति चेन्नात्यन्तं भिन्नयोस्तयोस्तद्भावविरोधात् । मेदाभेदोपगमादविरुउद्भाव इति वेज चाहे मेनननोपलभ्यता ततः प्रतिहन्यते तेन शब्दोऽपीति raja focusat |
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इस प्रकार कहने पर मीमांसकोंसे आचार्य पूँछते हैं कि तो बताओ ? वायु क्या करता हुआ शब्द सुननेका आवरण करता माना गया है ? आवरण करनेवाले पदार्थ दो प्रकार के होते हैं । एक तो रूपका ही नाश करदेनेवाले जैसे कि शुक्ल कपडेको नीले रंग से रंग देनेपर वस्त्रकी शुक्लताका धंस हो जाता है । या ज्ञानावरण कर्मसे ज्ञानका नाश हो जाता है। दूसरे आवरण करनेवाले ये कहे जाते है जो पदार्थका तो नाश नहीं करते किन्तु उसके ज्ञान होनेका प्रतिबंध करदेते हैं । जैसे चंद्रमा नीचे बादलोंका आ जाना, या भित्तिसे व्यवहित हो रहे घटके प्रत्यक्ष करनेमें घटज्ञानको रोकनेवाली मित्ति |
I
?
यदि आप पहिला पक्ष लोगे यानी आवरण करनेवाला वायु शब्दके स्वरूपका खण्डन करदेता है तो शब्द एकान्त से नित्यश्नेका विरोध हो जायेगा। और यदि दूसरा पक्ष लोगे तो शब्दकी नित्यता के विरोधका प्रसंग तो निवृत्त हो जावेगा किंतु अन्य दोष आ जायेंगे । सुनिये, उस शब्द के जाननेका प्रतिबन्ध करनेवाले दूसरे पक्ष में वायुके द्वारा शब्दके ज्ञानद्वारा जानने योग्यपने स्वभावका नाश होता है अथवा नहीं बताओ, देखिये प्रत्येक पदार्थमें अपने स्वभावोंके अतिरिक्त दूसरे पदार्थों की ओर से आनेवाले भी स्वभाव रहते हैं। जैसे कि अनामिका अंगुली में बीचकी अंगुलीकी अपेक्षा छोटापन और कनिष्ठा अंगुलीकी अपेक्षासे मडापन है। दूसरी दो अंगुलियों से आनेवाले छोटापन और बड़ापन ये दोनोंही स्वभाव अनामिका के स्वरूप ही हैं। इसी प्रकार घट, पट, शब्द आदि पदार्थों में भी ज्ञानके द्वारा जाननेपर जाने गयेपनेकी योग्यतारूप - स्वभाव माना गया है । ऐसेही घटको प्रत्यक्ष से जाननेपर प्रत्यक्ष योग्यता, अनुमानसे जाननेपर अनुमेयता, आगमसे जाननेपर आगमगम्यता ये तीनों स्वभाव भी घटकी घरू सम्पत्ति है । अब प्रकृतको विचारये कि यदि वायुके द्वारा शब्दकी बुद्धि होनेका प्रतिघात हुआ माना जायेगा तो शब्दसे अभिन्न होरही शब्द के जानने की योग्यताका भी नाश होजावेगा । जब शब्दके उस उपलभ्यतारूप स्वभावका नाश हुआ तो उससे अभिन्न शब्दका भी नाश मानना पडेगा ऐसी दशा में भी शब्दका किसी भी प्रकारसे नाश न मानना मीमांसा केवल वाद है । शब्दसे अभिन्न हो रही उपलभ्यताका ध्वंस हो जानेपर फिर शब्द का नाश नहीं होता है ऐसा मानना यह उन्मत्तरोदन है । यदि वायुके द्वारा उपलम्यता के नष्ट हो जाने पर भी शब्द अक्षुण्ण नित्य बना रहे इसलिए आप शब्दकी ज्ञानसे ज्ञेयनेकी उस योग्यता को उस शब्दसे भिन्न ही मानोगे तब तो सदा शब्दका स्वभाव ज्ञानसे नहीं जानने योग्य रूपही होगा । जो जानने
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ओग्य स्वभावोंको धारण नहीं करते हैं उन पदार्थाका किसीको ज्ञान भी नहीं हो पाता है। जैसे घोढेके सींग, कछुएके रोम आदिका । इसी प्रकार आपके मतानुसार उपलभ्यता रूप स्वभावके शब्दसे सर्वथा भिन्न पड़े रहनेपर शब्दका भी कभी ज्ञान नहीं होना चाहिये ।
उक्त दोषके परिहारके लिये उपलभ्यताको भिन्न मानकर भी शब्दके साथ उसका संबंध हो जाने से वह शब्द जानन यान्य हो जाता है, जैसे कि उष्णताके समवायसंबंधसे अग्नि उष्ण है । यदि आप ऐसा मानोगे, तो कहिये कि आपने उपलभ्यताके साथ शब्दका कौनसा संबंध माना है ? बताओ, यदि धर्मधर्मिभाव संबंध है अर्थात् शब्द तो धर्मी है और और उपलभ्यता उसका धर्म है, यह संबंध मानना तो ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वथा ही मिन्न पदार्थों में धर्मधर्मिभाव नहीं होता है जैसे कि सहापर्वत और विंध्याचलका । तथाच सर्वथा भदपक्षेम पुनः उपलभ्यता और शब्दके धर्मधभिभावसंबंध होने का विरोध है । यदि इस दोषके परिहारके लिये आप भेद, अमेद इन दोनों पक्षोंको स्वीकार करेंगे, जिससे कि इस धर्मधर्मिभावपने का विरोध हो सके ऐसा कहने पर भी तो अभेदपक्षमें जिस अंशसे अमिन उपलभ्यताका उस वायुके द्वारा नाश होगा, उस स्वभावपनेसे तो शब्दका भी नाश हो ही जायेगा, ऐसी दशा में भला शब्द एकांतरूपते नित्य कैसे माना जा सकता है ! यों वह शब्द एकांतरूपसे नित्य नहीं है।
द्वितीयविकल्पे सत्यप्यावारके शब्दस्योपलब्धिप्रसंगस्तदुपलभ्यतायाः प्रतिघाताभावात, तथा च न तद्धिप्रविघाती कश्चिदावारकः कूटस्थस्य युक्तो यतस्तदपनयनमभिव्यक्तिः सिद्धयेत् ।
शब्दसे भिन्न और अभिन्न उपलभ्यताका घायुके द्वारा नाश होता है, इस प्रथम पक्षका खण्डन हो चुका । अब आप मीमांसक दूसरा विकल्प उपलभ्यताके नाश न होमेका मानोगे तो आवरण करनेवाले वायुके होनेपर भी शब्दका ज्ञान सर्वदा होते रहना चाहिये, क्योंकि वायुके द्वारा शब्दको उपलभ्यताका घात तो हुआ नहीं है, भौर उस कारण " शब्दकी बुद्धिको नष्ट करने वाला कोई विशेष वायु कूटस्थपनेसे नित्य हो रहे शब्दका आवारक है ।" यह युक्तिसे सिद्ध नहीं हो सकता है जिससे कि मीमांसकोंके मतमें आवारक वायुको दूर करनारूप शब्दकी अभिव्यक्ति सिद्ध होती अर्थात् शब्दकी अभिव्यक्ति सिद्ध नहीं हो सकती है।
एतेन शब्दस्योपलब्ध्युत्पसिरभिव्यक्तिरिति ब्रुवन् प्रतिक्षितः, तस्यां तदुपलम्यतो. सत्यनुत्पत्योः शदस्योत्पत्यप्रतिपचिप्रसंगात् , न हि शब्दस्योपलब्धेरुत्पनौ तदभिभोपलभ्यतोत्पद्यते, न पुनःशब्द इति ब्रुवाणः स्वस्थः । तस्यास्ततो भेदे सदानुपलभ्यस्वभावतापर्धर्मर्मिभावसंबंघायोगात् । तत्संबंधादप्युपलभ्यत्वासम्भवाद्भेदाभेदोपगमे कथं
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चिदुत्पत्तिप्रसिद्धेरेकां तनित्यताविरोधात् । शब्दस्योपलब्ध्युत्पत्तावप्युपलभ्यतानुत्पत्तौ स्यादप्रतिपत्तिरिति व्यर्थाभिव्यक्तिः ।
इस पूर्वोक्त कथनसे शब्दकी ज्ञप्तिकी उत्पत्तिको शब्दकी अभिव्यक्ति कहनेवाले का मंतव्य मी ण्डित हुआ सग बाहिये। क्योंकि चन्यके उपलब्धिके उत्पन्न होजाने पर यदि शब्द के उपलभ्यतास्वभावका उत्पाद मानोगे तो उससे अमिन शब्दका भी उत्पाद मानना पड़ेगा । यदि शब्द उपलभ्यताकी उत्पत्ति न मानोगे तो पूर्वके समान शब्दका कभी ज्ञान ही नहीं होना चाहिये यह प्रसङ्ग आयेगा । जो शब्दकी उपलब्धिके उत्पन्न होनेपर उस शब्दसे अभिन्न होरही उपलभ्यताको पैदा हुआ मानता है किंतु फिर शब्दको पैदा हुआ नहीं मानता है ऐसा कहने वाला मनुष्य आपे ( होश ) मैं नहीं है। जो स्वस्थ है वह ऐसी युक्तिरहित बातें नहीं कहता है ।
यदि आप वैयाकरण लोग उस उपलभ्यताको उस शब्दसे भिन्न मानोगे तो अपने गांठके स्वभावसे शब्द के सर्वदा अनुपलम्भ ही बने रहने की आपत्ति आवेगी, तथाच शब्द का ज्ञान भी न होगा | भिन्न पड़ी हुयी उपलभ्यताका शब्दके साथ धर्मधर्मिभाव संबंध हो जाने का भी योग नहीं है, जिससे कि उस उपलभ्यता के संबंधसे भी शब्द के उपलभ्यपने की किसी भी प्रकार सम्भावना नहीं हो सकती है । भेद और अभेद दोनों पक्ष मानने पर भी उपलभ्यताकी उत्पत्ति होने पर किसी न किसी प्रकार शब्दकी उत्पत्ति होना अनिवार्य सिद्ध है, इससे आपका एकांतरूपसे शब्दको नित्य मानना विरुद्ध हुआ । शब्दकी उपलब्धिकी उत्पत्ति होने पर भी शब्द में उपलभ्यपनारूप स्वभावको पैदा हुआ न मानोगे तो त्रिकालमै भी शब्दका ज्ञान न हो सकेगा। इस प्रकार उपलPost उत्पत्तिरूप अभिव्यक्ति मानना भी नितांत व्यर्थ है ।
श्रमसंस्कारोऽभिव्यक्तिरित्यन्ये । तेषामपि श्रोत्रस्थावारकापनयनं संस्कारः शब्दग्रहणयोग्यतोत्पतिर्वा तदा तद्भावे तस्योपलभ्यतोत्पत्यनुत्पत्योः स एव दोषः ।
शब्द नित्य और सर्वत्र व्यापक है, जिस जीवकी कर्णेन्द्रियमें संस्कार हो गया है, उम्र व्यक्ति को सुनायी पडता है । इसी कारण प्रत्येक व्यक्तिको सर्व देश सर्वेदा सुनायी नहीं पड़ता है । अतः सुननेवाले के कानोंका संस्कार हो जाना शब्दकी अभिव्यक्ति है । इस प्रकार दूसरे संप्रदाय के मीमांसक मानते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि उनके यहां भी कर्णको सुनायी देनेमें आवरण करने वाले आधारकोंका दूर करना ही कणका संस्कार है ? या शब्दके ग्रहण करनेकी योग्यताका पैदा हो जाना श्रोत्रका संस्कार है ? बताओ, इन हम दोनों भी पक्षोंमें जब कर्णेन्द्रियका संस्कार हो जाता ह, उस समय शब्द में उस उपलभ्यताकी उत्पत्ति माननी पडेगी यदि उपलभ्यताकी उत्पत्ति न मानोगे तो वही पूर्व में दिया हुआ शब्दका कमी सुनायी न पडनारूप दोष या जावेगा । और जब
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आपके यहाँ कर्णेन्द्रिय आकाशरूप मानी गयी है तो आकाशको आवरण करने वाला भी कोई नहीं हो सकता है, अतः श्रोत्रके संस्कारको शब्दकी अभिव्यक्ति मानना भी आपका पोली नींव पर खंडा होना है।
तदुभयसंस्कारोऽभिव्यक्तिरित्ययं पक्षोऽनेनैव प्रतिक्षेप्तव्यः ।
जिन प्रभाकरोंने वर्ण और कर्ण दोनों के संस्कारको शब्दकी अभिव्यक्ति माना है, यह भी उनका पक्ष पूर्वोक्त प्रकरणसे ही निराकृत हुआ समझ लेना चाहिये, क्योंकि जो प्रत्येक पाहिले जोत्र माता है, वह 'एनाटकासे झोन पोरेगनने पर भी अवश्य आवमा ।
प्रवाहनित्यतोपगमादभिधानस्याभिव्यक्तौ नोक्तो दोष इति चेन्न, पुरुषव्यापारा स्पाक् तत्प्रवाहसद्भावे प्रमाणाभावात् ।
___ मीमांसक जन | आप कूटस्थनित्यपनेसे शब्दको नित्य न मानकर बीजाङ्कुरके समान धाराप्रवाहरूपसे शब्द नित्य है, ऐसे शब्दकी अभिव्यक्ति स्वीकार करने कोई भी दोष नहीं आता है, यदि ऐसा कहोगे, सो भी ठीक नहीं है । क्योंकि बोलनेवाले पुरुषके कण्ठ, तालु आदिके व्यापार से पहिले भी प्रयाहरूपसे शब्द विधमान है, इसमें कोई भी प्रमाण नहीं है, बीज और अंकुरके पूर्व में दूसरे समान जातिवाले वीज, अंकुर विद्यमान थे ।उनसे भी पूर्वकालमें अन्य बीज, अंकुर थे । किंतु शब्द तो कण्ठ, ताल, मृदंग ढोलके द्वारा सर्वथा नया गढा जाता है वह प्रकाहरूपसे पहले था ही नहीं।
प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणमिति चेत् । दर्शन और स्मरणको कारण मानकर उत्पन्न हुए पहिली और वर्तमान पर्यायको जोडरूपसे विषय करनेवाले ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे कि यह वही देवदत्त है । यह गव्य (रोझ) गौके सदृश है। इसी प्रकार यहां भी यह वही गकार है । ऐसी प्रमाणात्मक प्रत्यभिज्ञा होती है अतः उच्चारणके पहिले भी शब्द विद्यमान था । यदि आप ( मीमांसक ) ऐसा कहोगे ? तो आचार्य कहते हैं कि देखो
तत्सादृश्यनिवन्धनमेकत्वानिवन्धनं या ? 1
प्रत्यभिज्ञानके कई भेद हैं । उनमें आप सदृशपनेको कारण मानकर उत्पन्न हुए सादृश्यको जाननेवाले उस प्रत्यभिज्ञानसे शब्दकी नित्यता सिद्ध करते हैं ! या एकपनको कारण मानकर पैदा हुए " यह वही है " ऐसे एकताको जाननेवाले प्रत्यभिज्ञानसे शब्दकी प्रवाहनित्यता सिद्ध करते हैं ? बताओ
न तावदाद्यः पक्षः सादृश्यनिबन्धनात्प्रत्यभिज्ञानादेकशब्दप्रपाहासिद्धेः ।
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उन दोनों पक्षोंमें आपका माना हुआ पहिला पक्ष ठीक नहीं है । क्यों कि सरशताका अवलम्ब करनेवाले प्रत्यभिज्ञानसे यह वही शब्द है, ऐसी एकताको पुष्ट करनेवाली प्रवाहनित्यता की सिद्धि नहीं हो सकती हैं । सदृशपना तो भिन्न पदार्थों में पाया जाता है ।
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द्वितीय तु कुतस्तदेकत्व निबन्धनत्वसिद्धिः ।
यदि आप एकलप्रत्यभिज्ञानसे शन्दकी नित्यताको मानते हुए दूसरा पक्ष स्वीकार करोगे तो शब्दके पूर्वापर एकपनेको कारण मानकर उत्पन्न हुए यह वही शब्द है ऐसे प्रत्यभिज्ञानको प्रमाणपनेके कारण एकपनेकी सिद्धि कैसे होगी ? अर्थात्-यह प्रत्यभिज्ञान पहिले पिछले शब्दके एकपनेको ही कारण मानकर प्रमाणस्वरूप उपजा है यह कैसे निर्णय किया जाय ? समझाओ
स एवायं शब्द इत्येकशब्दपरामर्शिप्रत्ययस्य बाधकाभावात्चनिबन्धनत्वसिद्धिस्तत एव नीलज्ञानस्य नीलनिबन्धनत्वसिद्विषदिति चेत् ।
मीमांसक कहते हैं कि यह वही शब्द है ऐसे पहिले और पीछेके उच्चारित शब्दोंमें एकपने का विचार करनेवाले ज्ञानका कोई बाधक नहीं है । उस कारण प्रत्यभिज्ञानको प्रमाणताका प्रयोजक एकत्वरूप कारणसे ही उत्पन्न होनेपनेकी सिद्धि हो जावेगी जैसे कि पूर्व में नीले रंगकी चीज है ऐसा ज्ञान होता है। यहां भी बाधारहित प्रत्यभिज्ञानसे नील के ज्ञानमें उसी पूर्वकी नील वस्तुको कारणपना सिद्ध किया गया है । अन्धकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे ?
स्यादेवं यदि तदेकत्वपरामर्शिनः प्रत्ययस्य बाधकं न स्यात् स एवायं देवदत्त इत्याद्येकत्वपरामर्शिप्रत्यवत् अस्ति च बाधकं नानागोशब्दो बाधकाभावे सति युगपद्भिन्नदेशतयोपलभ्यमानत्वाद्ब्रह्मवृक्षादिवत् इति ।
यों इस प्रकार तब कह सकते है । कि पहिले देखे हुए देवदत्तको पुनः देखने पर यह वही 'देवदत्त ऐसा एकत्वको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान जिस प्रकार बाधारहित है, यदि उसीप्रकार पूर्वापर अवस्था में शब्द एकपनेका निश्चय करनेवाले प्रत्यभिज्ञानमें कोई बाधक उपस्थित न होता तो अवश्य ही उस प्रत्यभिज्ञानसे शब्दकी नित्यता सिद्ध हो जाती, किंतु शब्दमें नित्यताके ज्ञानका बाधक तो यह अनुमान विद्यमान है कि "नाना व्यक्तियोंके द्वारा अनेक देशों में बोले हुए गोशब्द अनेक हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि अनेकपनेका बाधक प्रमाण न होते सन्ते एक ही समय में भिन्न भिन्न देशों में स्थित हो रहे सुनायी पड रहे हैं । ( हेतु ) जो बाधासे रहित होकर एक कालमें अनेक देशों में रहते हुए दीखते हैं, वे पदार्थ अनेक हैं, जैसे कि ढाक के पेड, घट, पटादि अनेक वस्तुएँ नाना है (अन्यदृष्टान्त ) |
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-...न तावदिदमेकेन पुरुषेण क्रमशोऽनेकदेशतयोपलभ्यमानेनानैकान्तिकं, युगपद्ग्रहणात्, नाप्येकनादित्यन, नानापुरुषैः सकृद्भिनदेशतयोपलभ्यमानन, प्रत्यक्षानुमानाभ्यामेकपुरुषेण वा, नानाजलपात्रसंक्रान्तादित्यविम्बेन प्रत्यक्षतो दृश्यमानेनेति वक्तुं युक्तम्, बाधकामावे सतीति विशेषणात् । न कस्मिन्नादित्ये सर्वथा भिन्नदेशतयोपलभ्यमाने बाधकाभावः, प्रतिपुरुषमादित्यमालानुपलम्भस्य बाधकस्य सद्भावात् ।
सम्भवतः एक देववत्तको मांदरमें देखा, घण्टेभर पश्चात् बाजारमें देखा, पुनः एक घण्टे पीछे घरमें देखा, तो क्रमसे भिन्नदेशोंमें दीख जानेसे वह एक ही देवदत्तपुरुष क्या अनेक माना जावेगा! इस प्रकार हेतुके रहनेपर साध्यका न रहनारूप व्यभिचार तो हम स्याहादियांक इस हेतुम नहीं है, क्योंकि हमारे हेतुके शरीर में "युगपद विशेषणका ग्रहण है। एक समय ही जो नानादेशोंमें दीखेगा, वही अनेकरूप होगा। देवदच तो भिन्न भिन्न कालोंमें नानादेशीमें देखा गया था,अतः हेतु व्यभिचारी नहीं है । तथा और भी हेतुके विशेषणोंकी कीर्ति करनेके लिये पुनः तीन व्यभिचार उठाये जाते हैं, पहिला तो नानादेशोमें स्थित अनेक पुरुषों के द्वारा भिन्न भिन्न देशों में स्थितस्वरूप देखे गये एक सूर्यसे व्यभिचार है। अर्थात् बम्बई में बैठा हुआ मनुष्य सूर्य को अपने महलके ठीक ऊपर देखता है और कलकते बैठा हुआ अपनी कोठी पर समझता है । तथा उसी समय सहारनपुरमें अपने अपने घरोंके ऊपर सूर्य दीखता है, क्या इस प्रकार भिन्न भिन्न देशाम एकसमयमै दीख जानेसे सूर्यविमान अनेक हो आबेगे। दूसरा सम्भाव्यमान व्यभिचार यह है कि जिनदत्तने एक पुरुषको प्रत्यक्षसे ठीक स्थानपर देखा और चन्द्रदत्तने अनुमानद्वारा एक गज हटे हुए स्थानपर उस पुरुषको देखा, एतावता क्या वह पुरुष नाना होजावेगा !
तीसरा व्यभिचार इस प्रकार है कि जलके भरे हुए थोडी थोडी दूर पर रखे हुए अनेक बर्तन हैं, उन पात्रों में सूर्यके अनेक प्रतिबिम्ब पड़ रहे हैं, क्या ऐसी दशामें प्रत्यक्षरूपसे अनेक देशामें देखे हुए सूर्य के प्रतिबिम्ब अनेक हो जायेंगे ! । अथवा इन पंक्तियों का दूसरा अर्थ तीन दोष न देकर एक सूर्यमें ही व्यभिचार देना है । मीमांसक लोग सूर्य के प्रतिबिंबोंके देखनेमें भी सूर्यको ही देखना मानते हैं । कुमारिल भट्टका मत है कि चमकती हुई वस्तुसे टकराकर आखोंकी किरणे भनेक सोतरूपसे फैल जाती है, जलसे भरे हुए पात्रमे नीचेको मुख कर देखनेसे सूर्यका प्रतिबिम्ब नहीं दीखता है किंतु जलसे टकरा कर हमारी आखोंकी किरण आकाशमै स्थित सूर्यको ही देख रही हैं । इनके यहां प्रतिबिम्बको पुद्गलकी वस्तुभूत पर्याय नहीं माना गया है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारके उक्त व्यभिचार हमारे हेतुमें नहीं आसकते हैं, क्योंकि स्याद्वादियोंने हेतुमें बाघकाभाव विशेषण दे रहा है । भिन्न भिन्न देशस्थ दीखते हुए सूर्यभे सर्वप्रकारसे बाधकामाव नहीं है, अर्थात् बाधक है । क्या एक सूर्य एकसमयमें भिन्न भिन्न देशोंसे वहीं दीख सकता है। यह हमारी
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दृष्टिका दोष है कि हम उस देशके तारतम्यको दूरदेशसे जान नहीं सकते हैं। हर एक पुरुषको अनेक सूर्योकी पंक्तिका न दीखना ही सूर्योकी अनेकताका बाधक प्रमाण विद्यमान है, अतः बाधकप्रमाणसे रहित होकर जो अनेक देशों में निधनान जीखेगा, यह अनेक अवश्य है, सूर्यका अनेक देशोमें दीखना बाधित होनेसे मिथ्याज्ञान है, इसी प्रकार उक्त दो स्थलोंका व्यभिचार भी निवृत्त हो जाता है।
पर्वतादिनैकेन व्यभिचारीदमनुमानमिति चेत् न, तस्य नानावयवात्मकस्य सतो बाधकामाचे सति युगपङ्गिन्नदेशतयोयलम्यमानत्वं व्यवतिष्ठते, निरवयवत्वे तथाभावविरोधादेकपरमाणुवत् ।
प्रतिवादी कह रहा है कि एक हिमालय पहाडको किसी व्यक्तिने शिमलामें देखा दूसरेने उसी समय मंसूरीमें देखा तो क्या वे पहाड अनेक हैं ? इस प्रकार शब्दको नाना सिद्ध करनेवाला आप जैनोंके अनुमानका हेतु एक माने जा रहे पर्वत, नदी, देश आदिसे व्यभिचारी हो जावेगा, आचार्य कहते हैं कि, मीमांसकोंका यह दोष भी देना ठीक नहीं है, क्योंकि वे पर्वत, नदी, आदि अवयवी अपने अपने अनेक अंशोंसे तदात्मक-युक्त होकर ही एक समयमें भिन्न भिन्न देशोंमें स्थित चाधारहित होते सन्ते दीखते हैं, यह निर्दोष सिद्धान्त व्यवस्थित हो रहा है । अतः अपने अवयवोंकी अपेक्षासे पर्वतादि अनेक ही हैं, हेतु और साध्य इन दोनोके रहनेपर व्यभिचार नहीं हो सकता है। यदि पहाडों नदिओंको एक परमाणुके समान अवयवरहित मानोगे तो जिस प्रकार अनेक देशाम दीख रहे हैं उतने लम्बे चौडे एक अवयवीपनाका विरोध हो नावेगा । आप मीमांसक लोग बौद्धोंके समान अवयवीपदार्थका वण्डन नहीं करते हैं किंतु अवयत्रीको मानते हैं, अतः पर्वतादिकसे व्यभिचार दोष नहीं आता है।
व्योमादिना वदनैकान्तिकत्वमनेन प्रत्युक्तं,तस्याप्यनेकप्रदेशत्वसिद्धेः। खादेरनेकप्रदेशत्वादेकद्रव्यविरोध इति चेत् , न नानादेशस्यापि घटादेरेकद्रव्यत्वप्रतीतेः, न खेकप्रदेशत्वेनैवैकद्रव्यत्वं व्याप्तं येन परमाणोरेवैकद्रव्यता, नापि नानाप्रदेशत्वेनैव यतो घटादेरेवेति व्यवतिष्ठते एकद्रव्यत्वपरिणतस्यैकद्रव्यता, नानाद्रव्यत्वपरिणतानामर्थानां नानाद्रव्यतावत् ।
पुनः मीमांसकों का कहना है कि आप जैनोंका अनेकत्रको सिद्ध करनेवाला वह हेतु तो आकाश और दिशा आदिसे ज्यभिचारी है, क्योंकि वे एक होकर भी अनेकदेशी नानापुरुषों के द्वारा जाने जाते हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि यह मीमांसकोंकी मोरसे उठाया हुआ दोष भी पूर्वोक्त प्रकारसे ही निराकृत होजाता है, क्योंकि आकाश आदि द्रव्यों को अनेकप्रदेशीपना सिद्ध है । भरतक्षेत्र सम्बन्धी आकाशके प्रदेशोंसे विदेहक्षेत्रके आकाशके प्रदेश भिन्न हैं । ऊर्ध्वलोकके प्रदेशोंसे
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अपोलोकके प्रदेश न्यारे हैं, तथाच आकाशमें भी प्रदेशोंकी अपेक्षासे अनेकपना सिद्ध ही है । इस प्रकार हेतु और साध्य दोनोंके विद्यमान होनेपर व्यभिचार दोष नहीं आता है किन्तु हेतु पुष्प ही होता है।
यदि मीमांसकोंका यह कहना होय कि आकाश आदिके अनेक प्रदेश माननेसे तो आकाश आदिके एकद्रव्यपनेका विरोध हो जायगा, वह भी ठीक नहीं है क्योंकि एक हाथ भूमिमें रखे हुए घटपटाविकोंको मी आप मीमांसकोंने एकद्रव्यपना माना है, यही बात प्रामाणिक प्रतीतिओंसे सिद्ध है । जो एक ही प्रदेशमें रहता है, वह ही एक द्रव्य है ऐसी कोई व्याति सिद्ध नहीं है जिससे कि परमाणुकोही एकद्रव्यपना सिद्ध हो सके, और यह भी व्याप्ति नहीं है कि जो जो अनेक प्रदेशों में रहते हैं, वे ही एक द्रव्य है जिससे कि घट, पट, आदिकको ही एकद्रव्यपना व्यवस्थित होता. दमाः नियम पाटनमें काल पामाण, और पुद्गल परमाणुको द्रव्यपना सिद्ध न होसकेगा, तथा अनेकदेशोंमें रहनेवाले ग्राम, नगर, मेला आदिको भी एक द्रव्यपनेका अतिप्रसंग होजावेगा। मीमांसक लोग घरोंके अत्यंत निकट संयोगको ग्राम कहते हैं और इसी प्रकार नगर, मेला, सेना, आदिको भी संयोगरूप गुणपदार्थ मानते हैं, अतः एक द्रव्यपनेके पूर्वोक्त दोनो लक्षण ठीक नहीं है, एक द्रव्यपने का सिद्धान्तलक्षण यह है कि चाहे एक प्रदेशमें रहनेवाला पदार्थ हो और भले ही अनेक देशोमें स्खिप्त हो, यदि उसका द्रव्यपनेरूप अखण्ड सम्बन्धको लिये हुए परिणाम होगया है, उसको एकद्रव्य कह देते हैं, अनेक गुण या अनेक बन्ध योग पदार्थोकी कथञ्चित्तादात्य संबन्धसे होनेवाली परिणतिसे उस एकद्रव्यपनेकी व्याप्ति देखी जाती है । जैनसिद्धांतमें कर्म नोकर्मसे बंधको प्राप्त संसारी जीवको तथा सजातीय पुद्गलोंसे बंधे हुए अनेकदेशी घटपटादकोंको भी अशुद्ध द्रव्य माना है । संपूर्ण जनतामें भी यह बात प्रसिद्ध है कि अनेकदन्यपनेरूप विष्यम्भावपनेसे परिणत भिन्न भिन्न देवदत्त, जिनदत्त, सूर्य, चन्द्रमा आदिको जैसे नानाद्रव्यपना है, उसी प्रकार खण्डित एकप्रदेशमें रहनेवाले या अखण्डित अनेक देशोंमें रहनेवाले अविष्वग्भाव सम्बन्ध रूप एकत्वपरिणतिसे युक्त परमाणु, कालाणु, आत्मा, आकाश, घट, पर्वत, आदि प्रत्येक द्रव्यको भी एकद्रव्यता प्रसिद्ध हो रही है ।
स्यादेतबाधकामावे सतीति हेतुविशेषणमसिद्ध गौरित्यादिशब्दस्य सर्वगतस्य युगपबञ्जकस्य देशभेदाद्भिनदेशतयोपलभ्यमानस्य स्वतो देशविच्छिन्नतयोपलम्भासम्भवादिति, तदयुक्तम् । तस्य सर्वगतत्वासिद्धेः कूदस्थत्वेनाभिव्यंग्यत्वप्रतिषेधाच्च ।
मीमांसकोंका इस पकरणपर यह कहना सम्भव है कि जैनोंका अनेकत्वको सिद्ध करनेवाला पूर्णोक्त अनुमान घरपट आदि पदार्थों में तो ठीक है किन्तु गोशब्दरूप पक्षमें हेतुका बाधकामावके होते संते यह विशेषण नहीं दीखता है किन्तु गो, घट, आदि शब्द सर्व स्थानों में व्यापक हैं। उन शब्दोंको
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एक समयमें प्रकट करनेवाले वायुविशेष ही भिन्न भिन्न देशोंमें रहते हैं । अतः व्यापक भी एक शब्दव्यञ्जक वायुओंके अधीन होकर अनेक देशामें जाना जाता है । अखण्ड शब्दका अपने स्वरूपसे खण्ड खण्ड होकर नानादेशों में सुनायी पड़ता सम्भव नहीं है। जब बाधारहित होकर भिन्न देशो में दीखनारूहेतु शब्दमें असिद्ध है फिर बलात्कारसे [ जबर्दस्ती । जो शब्दमें अनेक एनेका बोझ क्यों लादा जाता है ? बताओ, यहांतक मीमांसकोंके कह जानेपर आचार्य कहते हैं कि वह मीमांसकोंका कथन युक्तिरहित है क्यों कि सींग और सास्वासे युक्त पशुको कहनेवाले उस गो शम्दका सर्वव्यापकपना असिद्ध है । उत्पन्न और नष्ट होते हुए अनेक गोशब्दही बाल-वृद्धोंको अनेकदशमें सुनायी पड़ रहे है । मीमांसक लोगोंने श दके कूटस्थ नित्यपना भी माना है । ऐसी दशामें वायुके द्वारा प्रकट हो जानेपनका भी निषेध करना पडेगा क्योंकि कूटस्थ पक्षमें नहीं प्रकट अवस्थासे पुनः म अवस्था जाना है।
सर्वगतः शब्दो नित्यद्रव्यत्वे सत्यमूर्चत्वादाकाशवदिन्येतदपि न शब्दसर्वगतत्वसाधनापालं जीवद्रव्येणानकान्तिकत्वात्, तस्यापि पक्षीकरणान्न तेनानैकान्त इति चेन प्रत्यक्षादि विरोधात् । श्रोत्रं हि प्रत्यक्षं नियतदेशतया शब्दमुपलभते, स्वसंवेदनाध्यक्ष यात्मानं शरीरपरिमाणानुविधायितयेति कालात्ययापदिष्टो हेतुस्तेजोनुष्णवे द्रव्यत्ववत् ।
मीमांसक लोगोंने शब्दको व्यापक सिद्ध करने के लिए यह अनुमान किया है कि शब्द ( पक्ष ) सम्पूर्ण स्थान में व्यापक है ( साध्य ) क्योंकि वह नित्यद्रव्य होकर अमूर्त है। ( हेतु) जो जो नित्यद्रव्य होकर अमूर्त यानी अपकृष्ट परिमाणवाला है वह व्यापक है, जैसे आकाश अन्वय दृष्टान्त है इस हेतुमे नित्यद्रव्य विशेषणसे घर, पर आदि अनित्य द्रव्योंमें और गुणक्रियादिकोंमें व्यापकपनेका व्यभिचार नहीं हो पाता है । तथा अमूर्त कहनेसे परमाणुओं में हेतुका ब्यमि. चार नहीं है। अन्धकार कहते हैं कि इस प्रकार मीमांसकोंका मीमांसापूर्वक दिया गया हेतु मी शब्दको सर्वगतपनेके साधन करने में समर्थ नहीं है क्योंकि जीवद्रव्यसे व्यभिचार हो जावेगा । देवदत्त, जिनदत्त आदि जीव नित्यद्रव्य है और अमूर्त भी हैं किन्तु व्यापक नहीं हैं । यदि जीव द्रव्यसे व्यभिचार न हो इसलिए जीपको भी पझकोटीमें लाकर व्यापक सिद्ध करोगे, यह तो ठीक नहीं है । क्योंकि शब्द और आत्मारूप पक्षमें व्यापकपना मानना प्रत्यक्ष और अनुमान आदिसे विरुद्ध है, कर्णेन्द्रियसे होनेवाला प्रत्यक्ष शब्दको नियत देशमें स्थितिको ही सुनता है और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष आत्माको अपने अपने शरीरके लम्बाई, चौडाई और मोटाईके अनुसार परिमाणवाला जानता है । कोई भी प्रत्यक्ष या अनुमान और आगम इन शब्द और आत्माको व्यापक नहीं जानते हैं। अतः अग्निको ठण्डापन सिद्ध करनेमें जैसे द्रव्यत्व हेतु बाधित हेत्वाभास है । उसी
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प्रकार नित्यद्रव्य होकर अमूर्तपना हेतु भी शब्दको व्यापक सिद्ध करनेमें दोनों या तीनों प्रमाणोंसे बाधित हो रहा कालात्ययापदिष्ट नामका हेवाभास है ।
___ स्वरूपासिद्धश्च सर्वथानित्यद्रव्यत्वामूर्तत्वयोधर्मिण्यसम्भवात्, तथा हि-परिणामी शब्दो वस्तुत्वान्यथानुपपत्तेः, न वस्तुनः प्रतिक्षणविवर्तेनैकेन व्यभिचारस्तस्य वस्त्वेकदेशतया वस्तुत्वाव्यवस्थितेः, न च तस्यावस्तुत्वं वस्त्वेकदेशत्वाभावप्रसंगात्, वस्तुत्वस्यान्यथानुपपत्तिरसिद्धति चेन्नैकान्तनित्यत्वादौ पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्थितिलक्षणपरिणामाभावे क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधाद्वस्तुत्वासम्भवादिति नैकान्तनित्यः शब्दः ।
और शब्द को सर्वगत सिद्ध करने में दिया गया हेतु स्वरूपासिद्ध हेल्वाभास भी है, क्योंकि शब्दरूपी पक्षमें सर्वथा ही नित्यद्रव्यपना और मूर्तिरहितपना धर्म नहीं ठहरता है असम्भव है। वास्तवमें देखा जाय तो शब्द पगलद्रव्यकी थोड़ी देर ठहरनेवाली पर्याय है और पौद्गलिक होनेसे शब्द परिमितपरिणाम या रूपादिवाला होकर मूर्त भी है । इसी बातको आचार्य अनुमान द्वारा स्पष्टरूपसे कहते हैं:- "शब्द परिणामी है क्योंकि परिणामके विना शब्दमें वस्तुपना नहीं बन सकता है" । यहां कोई दोष देता है कि प्रत्येकक्षणमें होनेवाली रूपादिकगुणों की काली, नीली एक एक पर्याय भी तो वस्तु हैं किन्तु पर्यायोमै पुनः दूसरे परिणाम तो नहीं माने गये है। अतः एक पर्याय हेतुके रहने और साध्यके न रहनेसे व्यभिचार हुआ ! आचार्य कहते हैं कि यह व्यभिचार दोष जनोंके हेतुमें नहीं है क्योंकि जैन लोग संसारी जीव, जिनदत्त, मृत्तिका, सुवर्ण आदि अशुद्ध द्रव्योंको और परमाणु, कालाणु, आदि द्रव्योंको परिपूर्ण वस्तुपना मानते हैं। उक्त द्रव्यों की एक एक समयमें होनेवाली उस केवल पर्यायको वस्तुका एकदेश मानते हैं, परिपूर्ण वस्तुपना वहाँ व्यवस्थित नहीं है, जैसे कि समुद्रके एकदेशको समुद्र नहीं माना जाता है। और असमुद्र भी नहीं कहा जाता है किंतु वह समुद्रका एकदेश है । अतः केवल एकपर्यायम हेतु और साध्य दोनोंके न रहनेसे व्यभिचार दोष नहीं है । पुनः यहाँ कोई कहे कि प्रत्येक क्षणकी काली, नीली, पर्यायोंको आप वस्तु नहीं मानते हैं तो घोडेके सींग समान उन पर्यायोंको अवस्तुपना आवेगा, यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि यदि पर्याय बंध्यापुत्रके समान अवस्तु होती तो वस्तुका एकदेश भी न हो सकती थी, स्वरविषाणके समान अवस्तुको वस्तके एकदेशपनेका भी अभाव माना गया है । क्या समुद्रका टुकडा ( बंगाल की खाड़ी) समुद्रका एकदेश नहीं है । । भावार्थ पर्यायको यदि सर्वथा अवस्तुपना माना जायेगा तो वस्तुके एकदेशपनेके अभावका भी प्रसंग हो जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है।
पश्चात् यहाँ कोई कहै कि वस्तुसहेतुकी परिणामसहितपनेके साथ साध्यके बिना हेतुका न रहना स्वरूपव्याप्ति असिद्ध है, ऐसा कहना भी तो ठीक नहीं, क्योंकि परिणामके बिना वस्तुपना
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आता ही नहीं, पदार्थमै परिणाम (विकास) न मानकर जो एकातरूपसे पदार्थको नित्य या सर्वथा अनित्य या एक, अनेक, उभय, आदि मानते हैं उनके मतमें पूर्वस्वभावका त्याग, उत्तर स्वभावोंका ग्रहण और कालांतर स्थायी पर्यायोंसे स्थित रहनारूप परिणाम नहीं बनेगा, जब उक्त सिद्धांत लक्षणवाला परिणाम ही न बनेगा, तब एक समयमे साथ होनेवाली या क्रमसे अनेक समयों में होनेवाली वस्तुकी अर्थक्रियाओं का भी विरोध होगा और जब एक समयमें या क्रमसे स्नान, पान, अवगाहन अर्थोकी परिस्पन्द और अपरिस्पन्दरूप क्रियाएँ ही न होगी तो जलादिकोंमें वस्तुपना कैसे सम्भव हो सकता है ? । अर्थात् वस्तु उसे ही कहते हैं, जो वर्तमान और भूत, भविष्यत्में अनेक अर्थक्रियाओंको करती है। अर्थक्रिया करनेमें वस्तुको पहिले क्षणिक स्वमाव छोड़ने पड़ते हैं और नयी सदृश या असदृश लते ग्रहण करनी पड़ती हैं । तथा द्रव्यरूपसे अन्वय भी बना रहता है, ये अवस्थायें सर्वथा नित्य या अनित्यपक्ष में बन नहीं सकती है अतः आप मीमांसक शब्दको एकातरूपसे नित्य नहीं मान सकते हैं।
___ नापि सर्वथा द्रव्यं पर्यायात्मतास्त्रीकरणात्, स हि पुद्गलस्य पर्यायः क्रमशस्तत्रोद्भवस्वाच्छायातपादिवत् , कथञ्चिद्व्यं शब्दः क्रियावचाब्दाणादिवत् धात्वर्थलक्षणया क्रियया क्रियावता गुणादिनानैकान्त इति चेन्न परिस्पन्दरूपया क्रियया क्रियावत्वस्य हेतुत्ववचनात् । क्रियावस्वमसिद्धमिति चेन्न, देशान्तरप्राप्तया तस्य तत्सिद्धरन्यथा बाणादेरपि निष्क्रियत्वप्रसंगान्मतान्तरपवेशाच्च ततो द्रव्यपर्यायात्मकत्वाच्छब्दस्पैकान्तेन द्रव्यवासिद्धिः ।
शब्दको सर्वगत सिद्ध करनेके लिए मीमांसकोंने नित्यद्रव्यपना अमूर्तरूप हेतुका विशेषण दिया था। उससे शब्दकी नित्यसाका तो खण्डन हो चुका । अब द्रव्यपनका भी खण्डन करते हैं कि शब्द सर्वथारूपसे द्रव्य नहीं है क्योंकि शब्द पुद्गलद्रव्यको पर्यायस्वरूप है । शब्दमें पुद्गलका पर्यायपना मी असिद्ध नहीं है । इसका अनुमान करते हैं कि "शब्द पुद्गलकी पर्याय है क्योंकि कम क्रमसे नाना विकासोको करता हुआ शब्द पुद्गलमें उपादेयरूपसे पैदा होता है, जैसे कि छाया, धूप, थोत आदिक पुद्गलकी पर्याय है" । साधारण मनुष्य समझता है कि ताली बजाते ही शीघ्र शब्द बन जाता है । नामिस्थानसे कण्ठ ताल द्वारा यायुके निकालनेपर गकार आदि शब्द बन जाते हैं और सूर्य, चन्द्रमाके निकलतेही धूप और चांदनी बन जाती है । यह उसका समझना ठीक नहीं है क्योंकि अनेक समयोंमें कारण-क्रिया-संतानके द्वारा शब्द, धूपादिकी उत्पत्ति होती है । अतः वे कारणोंसे आत्मलाभ करते हुए पर्याय हैं । सर्वथा द्रव्य नहीं है । जैनसिद्धांत में शब्दको कथञ्चिद् द्रव्य मी स्वीकार किया है क्योंकि पर्यायोंमें तो अन्य पर्यायें होती नहीं
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किंतु शब्द देश देशांतरको जाता है अतः बाण, लोष्ट आदिके समान क्रियावान् होनेसे शब्द क्रिया रूप पर्यायका धारी होता हुआ कथञ्चिद् द्रव्य भी है ।
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जो जो क्रियावान् होते हैं, वे चे कथञ्चिद् द्रव्य भी होते हैं । ऐसी व्यासि कोई व्यभिचार दोष देता है कि पीला रूप उत्पन्न होगया, मीठापन बढ गया, सुगंध स्थित है, भ्रमण करता है । इस प्रकार पद, वृधु, अस्, डुकृञ् आदि धातुओंके अर्थ स्वरूप उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति और करण रूपक्रियाएँ रूपादिगुणों में और भ्रमण आदि कम में भी विद्यमान हैं । क्रियावाची भू आदि ही धातु संज्ञक माने गये हैं | अतः गुण या कर्म रूपादिकमें किया सहितपना होनेसे द्रव्यपना हो जावेगा | यह हेतुके ठहरने और साध्यके नहीं रहने के कारण व्यभिचार हुआ | आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकरण में धातुओं के अर्थरूप क्रियाओंको द्रव्य सिद्ध, करनेमें क्रिया नहीं माना गया है किंतु देशसे देशान्तर करनेवाली हरून, चलन, कम्पन, भ्रमणरूप क्रियाओंके सहितपनेको हेतु कहा गया है निश्चल भावोंसे सत्पुरुषोंकी गादीके अभिप्राय अनुसार हेतुको समझकर पुन व्यभिचार उठाना चाहिए |
यहां कोई शब्द उक्त क्रिया से सहितपने रूप हेतुकी असिद्धि बतलावे अर्थात् पक्षमै हेतु नहीं रहता है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि शब्दका वक्ता के मुखप्रदेश से श्रोता के कानोंतक पहुंचना या मेघगर्जनका हमारे कानोंतक आना विना क्रिया के सिद्ध नहीं है। यदि क्रिया के विना मी देशसे देशान्तर हो जाय तो बाण, गोली आदिको भी क्रियारहितपनेका प्रसंग आ जायेगा । ऐसा माननेपर बौद्ध लोगों के मत - का भी प्रवेश होता है अर्थात् बुद्धमतानुयायी जन क्रियासे सहित एक अन्येता द्रव्यको तो मानते नहीं है क्षण क्षण नष्ट होनेवाली पर्यायोंको ही स्वीकार करते हैं। एक वही याण पचास गजतक नहीं जाता किन्तु पचास गज लम्बे प्रत्येक आकाशके प्रदेशपर नया नया बाण पैदा होता जाता है । वह वाणी सन्तान स्वयं क्रियारहित है । मीमांसक, नैयायिक और जैनलोग तो उक्त बौद्ध प्रक्रियाका खण्डन करते हैं । उस कारण अबतक सिद्ध हुआ कि कथञ्चिद् द्रव्य और बहुभाग पर्यायस्वरूप ही शब्द है । अतः सर्वथा द्रव्यपना शब्दमें सिद्ध नहीं हो सकता है । मा का हेतु स्वरूपासिद्ध हेखाभास है ।
अयं चासिद्धं तस्य मूर्तिमद्रव्यपर्यायत्वात् । मूर्तिमद्रव्यपर्यायोऽसौ सामान्यविशेषवच्चे सति बाह्येन्द्रियविषयत्वादातपादिवत् । न च घटत्वादिसामान्येन व्यभिचार:, सामान्यविशेषवच्चे सतीति विशेषणात्परमतापेक्षं चेदं विशेषणं । स्वमते घटत्वादिसामान्यस्यापि सदृशपरिणामलक्षणस्य द्रव्यपर्यायात्मकत्वेन स्थितेस्तेन व्यभिचाराभावात् । कर्मणानैकान्तिक इति चेन्न तस्यापि द्रव्यपर्यायात्मकत्वेनेष्टेः, स्पर्शादिना गुणेन व्यभि चारचोदनमनेनापास्तम् |
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मीमांसकोंने शब्दका व्यापकपना सिद्ध करनेके लिये नित्यद्रव्य होकर अमूर्तपना हेतु दिया था, उसमेसे शब्दरूपी पक्षमें सर्वथा नित्यत्व और व्यत्यकी असिद्धि बतला दी, अब अमूर्तत्वको भी असिद्ध करते हैं। शब्द मूर्तिरहित नहीं है क्योंकि वह स्वर्श, रस, गंध, वर्ण स्वरूप मूर्तिवाले पुद्गलद्रव्यको पर्याय है, अतः मूर्त है । शब्दको पुद्गलको पर्यायपना कोई असिद्ध न करे, इसलिये अनुमान करते हैं कि "शब्द मूर्तिमान् द्रव्यका ही परिणाम है (प्रतिज्ञा) क्योंकि सामान्यके विशेषोंसे सहित होता सन्ता बाह्य इन्द्रियोंका विषय हैं, ( हेतु ) जो जो व्यापक सामान्य मानी गमी सत्ताके व्याप्य ( अल्पदेशमें रहने वाले,) द्रव्यत्व, गुणत्व, शब्दत्व आदि विशेषजातियोंसे, सहित होकर बहिरंग इंद्रियोंसे जाने जाते है, वे अवश्य ही मूर्तिमान् पुद्गलद्रव्यकी पर्याय होते हैं, जैसे कि घाम ( धूप, ) अन्धकार आदि विकार पुद्गल व्यके हैं " ( अन्वयदृष्टान्त )
इस हेतुमे कोई नैयायिक व्यभिचार दोष उठाता है कि "येनेन्द्रियेण यद्गृह्यते तेनेन्द्रियेण तहतसामान्यमपि गृह्यते " जिस इंद्रियसे जो जाना जाता है, उसमें रहनेवाली जाति भी उसी इन्द्रियसे जानी जाती है, जैसे घटको चक्षुः इन्द्रियसे जाना तो घटमें रहनेवाली घटत्वजाति भी आंखोंसे ही जानी जावेगी, इस नियमके अनुसार बाह्य इंद्रियोंसे घटत्व, रूपत्व, रसत्व आदि जातियां भी प्रतीत होती हैं ।किंतु उनमें पुद्गलद्रव्यकी पर्यायपनारूप साध्य नहीं है । अंथकार कहते हैं कि इस प्रकारका व्यभिचार दोष हमारे हेतुमे नहीं होसकता है क्योंकि हमने हेतुका विशेषण अपरसामान्यसे सहितपना दे रक्खा है, मीमांसकों ओर नैयायिकोंने घटव आदि जातियों में रहनेवाली पुनः दूसरी कोई जाति नहीं मानी है " जाती जात्यन्तरानङ्गीकारात् । अतः पूर्ण हेतुके न घटनेसे साध्यके न रहनेपर व्यभिचार दोष नहीं है । दूसरी बात यह है कि हेतु अपरसामान्योंसे सहितपना रूप विशेषण तो दूसरे मीमांसक और नैयायिकके मतोंकी अपेक्षासे दिया है, क्योंकि ये लोग जातिमें पुनः जात्यन्तर नहीं मानते हैं, और जातिरूप सामान्यको पुदलका विकार भी नहीं मानते हैं किंतु हमारे मत अनुसार जैनसिद्धांतमें घटॉमें रहनेवाले मदृशपरिणामोंको ही घटत्व आदि सामान्य माना है । अनेक समान व्यक्तियों में रहने वाले सदृशपरिणामरूप तिर्यक्सामान्यको और अनेक कालमै एक व्यक्तिमें रहनेवाले घट आदिकी पूर्वापर काल व्यापक सदृशतारूप उर्ध्वतासामान्यको भी पुगलकी ही पर्याय माना है, हम लोग नित्य और एक होकर अनेक व्यक्तियों में समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले सामान्यको नहीं मानते हैं, अतः स्याद्वादियोंके मतसे घटत्वसामान्यों मी हेतु रह गया और साध्य भी रह गया, इस कारण व्यभिचार दोषकी सम्भावना नहीं है। सामान्य मी द्रव्यका पर्याय स्वरूप व्यवस्थित है।
अब यहां कोई शब्दको पौगलिक सिद्ध करनेवाले हेतमे पुनः व्यभिचार देता है कि गमन, भ्रमण, आकुञ्चन आदि कर्म भी सत्तासमान्यकी व्याप्य हो रही कर्मत्वजातिसे सहित है, और
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सरतेहै।
बहिरङ्ग चक्षुः स्पर्शन इन्द्रियोंसे भी जाने जाते हैं किन्तु कर्म ( परिस्पंदक्रिया ) पुद्गलकी पर्याय नहीं है, वैशेषिकोंके मतमें कर्म स्वतन्त्र पदार्थ है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह दोष भी ठीक नहीं है क्योंकि कर्मको भी जीव और पुद्गल द्रन्यकी पर्यायरूपता इष्ट की गयी है । गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है किंतु जैनसिद्धान्तमे ये सब जीव आदि द्रव्योंके पर्यायरूप अंश हैं । हेतु रहगया सो साध्य भी ठहर गया ।।
उक्त कथनके द्वारा स्पर्श, रस, आदि गुणोंकरके भी साभिमान दिया गया व्यभिचार हटा दिया जाता है कारण कि स्पर्श आदि गुण भी स्वतन्त्र तत्त्व नहीं हैं किंतु पुद्गलद्रव्यके ही विकार है । द्रव्यकी सहभावी पर्यायोंको गुण कहते हैं।
सतो हेतोरसिद्धिरेवेति नातोऽमिलापस्य सर्वगतत्वसाधनं यतो युगपद्भिन्नदेशतयोपलभ्यमानता अस्याबाथिता न भवेत्, प्रत्यभिज्ञानस्य वा तदेकत्वपरामर्शिनोऽनुमानवाधितत्वेन पुरुषव्यापारात्प्राक् सद्भावावेदकत्वाभावाचदभिव्यंग्यत्वाभाध इति तज्जन्यमेव वचन सिद्ध पर्यायार्थतः पौरुषेयम् ।
नैयायिकों या वैशेषिकोंने शब्दको गुण पदार्थ माना है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और मन इन पांच द्रव्योंको वे मूर्त मानते हैं । शब्दको अमूर्त मानते हैं । यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिकूल वायुसे शब्दका अवरोध हो जाता है। अनुकूल वायुसे शब्दके आनेमें प्रेरणा होती है । ढोलकी आवाजमे तृतीकी आवाज छिप जाती है । गुफा आदिमें शब्दका आघात होकर प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है। महान् शब्दोंसे गर्भ गिर जाते हैं । कान फट जाते हैं । उस कारणसे सिद्ध हुआ कि मूर्त शब्द मूर्तिमान पुद्गलद्रव्यकी अनित्य पर्याय है । मीमांसकोंने शब्दको सर्वत्र व्यापक सिद्ध करने के लिये नित्यद्रव्य होकर अमूर्तपना जो हेतु दिया था, वह शब्दरूप पक्षमें न रहनेसे असिद्ध हेत्वाभास ही है। इस हेतुसे शब्दका व्यापकपना जब सिद्ध न हुआ तो जैनोंकी ओरसे शन्दके नानात्यको सिद्ध करने के लिये दिये गये एक समयमै भिन्न भिन्न देशोंमें सुनायी देनेरूप इस हेतुका वाधारहितपना विशेषण क्यों नहीं सिद्ध होगा ! और जब बाधारहित भिन्नदशोमें भी उसी समय नाना व्यक्तियोंको सुनायी देनेसे शब्दमें अनेकपना सिद्ध हो गया तो मीमांसकोंका पुरुषव्यापारसे पहिले भी उसी शब्दके अस्तित्वको सिद्ध करनेवाला प्रत्यभिज्ञान प्रमाण हमारे अनुमानसे बाधित अवश्य हुआ और जब एकत्वको विषय करनेवाला मीमांसकोंका प्रत्यभिज्ञान अनेकत्वको जाननेवाले समीचीन अनुमानसे बाधित हो गया तो पुरुषके शब्दोच्चारणसे पहिले भी शब्दकी विद्यमानताका कोई प्रमाण न होनेसे उस शब्दके व्यञ्जकोंके द्वारा व्यंग्यपनेका भी अभाव हो गया । इस कारण अभिव्यक्तिबादको छोडकर शब्दको उन भाषावर्गणा, कम्ठ, साल, मृदङ्ग आदिकसे पैदा हुआ ही मानभा चाहिए । उक्त युक्तियोंसे शब्द पर्यायार्थिक नयकी अपक्षास पौरुषेयही सिद्ध हुआ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वचनसामान्यस्य पौरुषेयत्वसिद्धौ विशिष्टं सूत्र वचनं सत्प्रयोतृकं प्रसिध्द्यत्येवेति सूक्तं " सिद्धे मोक्षमार्गस्य नेतरि प्रबन्धेन तं सूत्रमादिमं शास्त्रस्येति " ।
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जब अक्षरात्मक सभी सामान्य वचनोंको पुरुषोंके प्रयत्नसे जन्यपना सिद्ध होगया तो सूत्रकारके " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " आदि विशेषवचनोंको तो सज्जन आप्तपुरुषोंके द्वारा बनाया जानापन प्रसिद्ध हो ही जाता है । इस प्रकार हमने जो पहिले वार्त्तिकमै कहा था कि मोक्षमार्ग प्राप्त करनेवाले सर्वज्ञके सिद्ध हो जानेपर तत्त्वार्थशास्त्र आदिका सूत्र प्रवृत्त हुआ अर्थात् समीचीन रचना उमास्वामी आचार्य महोदयने बनाया है । यह हमारा कहना बहुत ठीक था ।
तथाप्यन | मूलमिदं वक्तृसामान्ये प्रवृचच्चाद्दुष्ट पुरुषवचनवदिति न मन्तव्यम्, साक्षात्प्रयुद्धाशेषतत्त्वार्थे प्रक्षीणकल्मषे चेति विशेषणात् सूत्रं हि सत्यं सयुक्तिकं चोच्यते 'हेतुमचयं' इति सूत्रलक्षणवचनात् तच्च कथमसर्वज्ञे दोषवति च वक्तरि प्रवर्त्तते १ सूत्राभासत्व प्रसंगाद्ब्रहस्पत्यादिसूत्र वसतोऽर्थतः सर्वशवीतरागप्रणेतृकमिदं सूत्रं सूत्रत्वान्यथानुपपत्तेः ।
उक्त कथनसे शब्द अनित्य सिद्ध होगया, विशेष कर तत्त्वार्थसूत्र को भी पौरुषेयपना सिद्ध हो चुका । ऐसी दशा में फिर भी कोई पूर्वपक्ष करता है कि जैनों का अनित्य सिद्ध करना तो ठीक है किंतु यह तत्त्वार्थसूत्र सत्यवक्ता पुरुषोंको मूल कारण मानकर पैदा नहीं हुआ । साधारण बोलनेवाले मनुष्यने ही सूत्र को बनाकर प्रवृत्ति में ला दिया है, जैसे कि झूठ बोलनेवाले, चोरी करने वाले दोषी पुरुष अण्टण्ट बातें गढ़ दिया करते हैं । यहाँ आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पूर्वपक्षीको नहीं मानना चाहिये क्योंकि हमने मोक्षमार्गके प्राप्त करानेवाले आदिसूत्र के वकाने दो विशेषण माने हैं। प्रथम तो आदिवक्ताका गुण केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको प्रत्यक्ष कर चुकना है । तथा दूसरा विशेषण ज्ञान, दर्शन, वीर्य, चारित्र और सुख को घातनेवाले सम्पूर्ण कमका क्षय कर देना है । जब कि यह ग्रंथ तस्वार्थसूत्र है और सूत्र नियमसे वह कहा जाता है जो अका युक्तिसहित सत्यरूपसे निरूपण करे । अन्य ग्रंथोंमें भी सूत्रका यही अर्थ कहा है कि 'तर्क और हेतुवाला होकर जो यथार्थमें सत्य हो' । उक्त लक्षण से सहित तस्वार्थसूत्र ग्रंथ किस प्रकार अल्पज्ञ और दोषयुक्त वक्ता के होने पर प्रवृत्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं । असर्वज्ञ, दोषी, उत्सूत्रभाषी वक्ता द्वारा कहा हुआ वचन सूत्र न होकर सूत्राभास ( कुसूत्र ) ही होगा । बृहस्पति, स्वरपट, आदि सूत्रसमान वच्त्रार्थसूत्र को भी सूत्राभासपने का प्रसङ्ग आजावेगा अर्थात् - जैसे कि चार्वाकदर्शन बृहस्पति ऋषिने बनाया है उन्होंने स्वतंत्र आत्मा तत्र नहीं माना है । स्वर्ग, नरक, परलोक, पुण्य, पाप, नहीं माने हैं । संसारपरिपाटीको पुष्ट किया है । मोक्षमार्गका ज्ञान नही कराया और काम-पुरुषार्थको पोषनेवाले वात्स्यायन ऋषिने कामसूत्र बनाया है । उसमें उद्यानगमन, जल
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तत्त्वार्थांचन्तामणिः
क्रीडा और कामकी नाना कुचेष्टाओंका राग बढानेवाला वर्णन किया है जो कि इहलोक और परलोकका धर्मनाशक होते हुए व्यवहारसे भी अतीव निध है। खरपटने हिंसा करनेका उपदेश दिया है। तभी तो ऐसी पुस्तकोंका प्रचार न्यायी राजाने रोक दिया है। उस कारणसे सूत्रका सूत्रपना तत्त्वार्थसूत्रमें ही घटता है ।
मह तत्त्वार्थसूत्र अपने पद, वाक्यों, की रचनासे यद्यपि उमास्वामी महाराजने बनाया है किंतु इसके वाच्य-प्रमेयका अर्थ सर्वज्ञ गुरुकी ज्ञानधारासे ही चला आरहा है, अतः इस सूत्र का वाच्यार्थ सर्वज्ञ और वीतराग वक्ताके द्वारा ही बनाया गया है कारण कि अन्यथा इसमें सूत्रपनाही नहीं बन सकता है । अतः यह ग्रंथ सूत्र अवश्य है ।
गणाधिपप्रत्येकबुद्धश्श्रुतकवल्यभिन्नदशपूर्वधरसूत्रेण स्वयं सम्मतेन व्यभिचार इति चेन तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतरागप्रणेतकल्वसिद्धरई द्राषितार्थ गणधरदेवैथितमिति वचनात् । एतेन गृध्रपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता । ___ यहां पुनः शंका है कि चार ज्ञानके धारी तथा तीर्थंकर भगवान्के प्रधान शिष्य गमधरदेव और इस जन्म, तत्त्वार्थदेशनाके विना जो स्वयं ही तत्त्वज्ञानी होकर अनेक सिद्धांत शास्त्रों के रहस्यफो जाननेवाले प्रत्येकबुद्ध मुनि तथा संपूर्ण द्वादशाके जाननेवाले श्रुतकेवली महाराज एवं ग्यारह अंग और विनवाधाओंको सहकर पारंगत हुये पूर्ण दशपूर्वके धारी सम्यग्ज्ञानी ऋषि भी सूत्रोंको बनाते हैं, आप जैनोंने उन सूत्रोंको सच्चा सूत्रपना भी समीचीन माना है किंतु वे सूत्र सर्वज्ञ तीर्थकरके तो बनाये हुये नहीं है, अतः जो जो सूत्र होते हैं, वे वे सर्वज्ञ वीतरागके बनाये हुए होते हैं, इस व्याप्तिम व्यभिचार हुआ । श्राचार्य कहते हैं, कि ऐसी शंका तो ठीक नहीं है, कारण कि गणधरदेव आदिके द्वारा बनाये हुए उन ग्रंथोंका अर्थ भी सर्वज्ञ वीतराग देवके द्वारा ही बनाया गया प्रतिपादन किया जाचुका सिद्ध है, पूर्वाचायोंने ऐसा ही कहा है कि 'अर्हन्त देवके द्वारा भाषितअोंको ही गणधरदेवोंने द्वादशात ग्रंथरूपसे गूंथा है। जैसा कि कोई मालाकार पुष्पोंकी माला बनाता है । उसमें पुष्पोंकी इधर उधर योजना करना ही मालाकारका प्रयत्नसाध्य कार्य है, पुष्पोंका निर्माण करना मालाकारके हाथका कार्य महीं है । अतः अर्थकी अपेक्षासे भावसूत्रोंका बनाना सर्वज्ञ अर्हन्तका ही कार्य है । भले ही शब्दयोजना गणधर आदिकोंने की हो । इस पूर्वोक्त कथनसे दूसरे गृध्रपिच्छ नामको धारण करनेवाले मुनि उमास्वामी आचार्यपर्यंत मुनियोंके सूत्रोंसे भी व्यभिचार दोष दूर होगया अर्थात् अर्थरूपसे तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ गुरुपरिपाटीसे चला आरहा है किंतु ग्रंथरूपसे उमास्वामी महाराजने रच दिया है। और इसके पूर्वके ग्रंथ भी सर्वज्ञधारासे बनाये गये समझने चाहिये।
प्रकृतसूत्रे सूत्रत्वमसिद्धमिति चेन्न सुनिश्चितासम्भवद्वापकत्वेन तथास्य सूत्रत्वप्रसिद्धेः
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तत्त्वार्थ चिन्तामणिः
सकलशाखार्थाधिकरणाच्च । न हि मोक्षमार्गविशेषप्रतिपादकं मूत्रमस्मदादिप्रत्यक्षेण वाध्यते तस्य तदविषयत्वात्, यद्धि यदविषयं न तत्तद्वचसो बाधकं यथा रूपाविषयं रसनज्ञानं रूपवचसः, श्रेयोमार्गविशेषाविषयं चास्मदादिप्रत्यक्षमिति ।
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कोई कहता है कि इस प्रकरणपात तच्चार्थसूत्र ग्रंथ युक्तिसहित सत्य अर्थको प्रतिपादन करना रूप सूत्रका लक्षण घटता नहीं है, यों सूत्रपना असिद्ध हुआ । आचार्य कहते हैं कि यह उसका कहना तो ठीक नहीं है, जब कि इस सूत्रके वाच्य प्रमेयों में बाधकप्रमाणों के न होनेका भले प्रकार निश्चय है उस कारण इस अंथको वैसा सूत्रपना प्रमाणसिद्ध ही हुआ । सूत्रपने में दूसरा हेतु यह है के यह तत्त्वार्थसून संपूर्ण मात्र प्रतिवाद अर्थीका मूल आधार है । अथवा तत्त्वार्थसूत्रका पहिला " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " यह सूत्र मविष्यके दश अध्याय रूप पूर्ण ग्रंथका मूल आधार है, यानी पहिले सूत्रकी मितिपर ही दश अध्याय रचे गये हैं ।
अब इस सूत्र का अवाधितपना सिद्ध करते हैं कि अनेक मतावलम्बियों के अकेले ज्ञान आदिको मोक्षका मार्ग बतानेवाले अयुक्तिकवाक्योंसे असंतुष्ट हुए अनेक शिष्योंके मोक्षमार्गविषयक प्रश्नोंके उत्तरमै उमास्वामी महाराजके द्वारा सयुक्तिक सत्य कहा गया मोक्षमार्गका विशेषरूपसे प्रतिपादन करनेवाला यह सूत्र हम लोगोंके प्रत्यक्षसे तो बाधित होता नहीं है क्योंकि इस सूत्रका प्रतिपाध अर्थ उस मतिज्ञानरूप हमारे प्रत्यक्षका विषय ही नहीं है । यह व्याप्ति बनी हुई है कि जो ज्ञान जिस प्रमेयको विषय ही नहीं करता वह ज्ञान उस प्रमेयके प्रतिपादन करनेवाले वचनका बाधक नहीं होता है, जैसे कि रूपको न जानता हुआ रसनेन्द्रिय जन्य मतिज्ञान काले, नीले, रूपको कहनेवाले वचनका बाधक नहीं होता है । इसी प्रकार विशेष मोक्षमार्गको नहीं विषय करनेवाला हम लोगोंका प्रत्यक्ष भी उस सूत्रके याच्यार्थका बाधक नहीं हो सकता है ।
एतेनानुमानं तद्भाधकमिति प्रत्युक्तं तस्याननुमानविषयत्वात् श्रेयोमार्गसामान्यं हि तद्विषयो न पुनस्तद्विशेषः प्रवचन विशेषसमधिगम्यः । प्रवचनैकदेशस्तद्बाधक इति चेन्न वस्यातिसंक्षेपविस्ताराभ्यां प्रवृत्तस्याप्येतदर्थानतिक्रमस्तद्वाधकत्वायोगात् पूर्वापरप्रवचनैक देशयोरन्योन्यमनुग्राहकत्व सिद्धेश्व |
इस पूर्वोक्त कथनसे अनुमानको भी मोक्षमार्ग के प्रतिपादक सूत्रके बाधकपनेका खण्डन कर दिया गया है क्योंकि उपलम्भ और अनुपलम्भरूप मतिज्ञानसे उत्पन्न हुये व्याप्तिज्ञानके बलपर वैदा हुआ अनुमान विचारा उस अतीन्द्रिय मोक्षमार्गको विषय नहीं कर सकता है । यद्यपि अनेक हेतु ऐसे भी हैं जिनसे कि अतीन्द्रिय साध्य भी जान लिये जाते हैं, जैसे कि श्वास आदिके चलने से आत्माका ज्ञान, या लोक, अलोकके विभागसे धर्म, अधर्म द्रव्यका ज्ञान हो जाता है, तो भी उक्त
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अनुमानोंके द्वारा सामान्यरूपसे ही साध्यों का ज्ञान होता है। यहां भी किसी अविनाभावी हेतुसे मोक्षमार्गका सामान्यरूपसे ही ज्ञान तो हो सकता है, विशेषरूप से ज्ञान नहीं हो सकता है अतः सामान्यरूपसे मोक्षमार्गको जाननेवाला अनुमान प्रकृतका बाधक नहीं है प्रत्युत साधक ही है । जो कि विशेष मोक्षमार्ग, सर्वज्ञाम्नात विशेष आगमसे ही अच्छा जानने योग्य है । पुनः किखीका आक्षेप है कि कितने ही शास्त्र ऐसे हैं, जो सम्यग्ज्ञानका ही प्रधानरूप से निरूपण करते हैं, जैसे कि. न्यायशास्त्र | और कोई कोई शास्त्र चारित्रको ही प्रधान मानकर प्ररूपण करते हैं, जैसे कि श्रावकाचार यत्याचार | तथा कोई सम्यग्दर्शनकी मुख्यतासे ही प्रमेयका प्रतिपादन करते हैं, जैसे कि निश्चय सम्यग्दर्शन का समयसार, पंचाध्यायी आदि । व्यवहारसम्यग्दर्शनका कतिपय प्रथमानुयोगके अन्य और भक्तिप्रधान स्तोत्र । ऐसी दशा में किसी किसी शास्त्रके द्वारा जाने गये और शास्त्र के एक देश अर्थात् कतिपय लोक में प्रतिपादन किये गये केवल सम्यग्दर्शन को या उत्तम क्षमा, ब्रह्मचर्य, अनेकान्त ज्ञानको ही मोक्षका मार्ग बतानेवाला आगम " चारितं खलु धम्मो " दंसणभट्टा ण सिज्यंति " बादि तो उन तीनोंको मोक्षमार्ग बतानेवाले वचनका बाधक हो जावेगा ! ग्रंथकार कहते हैं कि यह शंका तो ठीक नहीं हैं, सुनिये, समझिये ।
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जैन सिद्धांत अनेकान्तात्मक हैं, तीनोंको मोक्षमार्ग प्रतिपादन करनेसे सात भंग हो जाते हैं । केवल सम्यग्दर्शन १, सम्यग्ज्ञान २, सम्यकूचारित्र ३, सम्यग्दर्शन ज्ञान ४, सम्यग्दर्शन चरित्र ५, सम्यग्ज्ञान चारित्र ६, और सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ७ । अभेद संबन्धसे इन सातोंको मोक्षमार्गपना है । जिस समय सम्यग्दर्शन है उस समय आत्मोपलब्धि या भेदविज्ञान अवश्य है । साथमै स्वरूपाचरण चारित्र भी हैं । जब देखोगे तीनोंका जुद ही मिलेगा । दर्शनप्राभृत आदि ग्रन्थोंके " सम्मत्तविरहियाणं हु वि उग्गं सर्व चरंताणं । ण लहंति वोहिलाई अचि वाससह स्सकोडीहिं, दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं " " न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् " इत्यादि सम्यग्दर्शनको प्रधानता कहनेवाले वाक्य, तथा "बोधिलाम एव शरणम्" "चारित्रमेव पूज्यम्” “केवलज्ञानिनोऽपि पूर्णचारित्रमन्तरा न परममुक्तिः " इत्यादि ज्ञान या चारित्रको मुख्यता देनेवाले मी वाक्य तीनों अविनाभावको ही पुष्ट करते हैं । ध्वचित् अत्यंत संक्षेप से भले ही उस एक गुणका वर्णन किया है किंतु शेष गुण भी गतार्थ हो जाते हैं। कर ( सूँड) युक्तको करी ( हाथी ) कहते हैं । इस कथनमें हाथी के पैर, पेट, पूंछ आदि अंगोपांग भी गम्यमान हैं और कहीं अधिक विस्तारसे एक गुणकी ही व्याख्या करनेके लिए शास्त्रोंके प्रकरण रचे गये प्रवृत्ति में आ रहे हैं। ये सभी इस मोक्षमार्ग के त्रिवरूप अर्थका उल्लंघन नहीं करते हैं । अतः स आगमके कोई भी वाक्य यहां बाधक नहीं है । शास्त्र आगे पीछेके एक एक देशविषयको निरूपण करनेपर वे परस्पर में अनुग्रह करनेवाले ही सिद्ध होंगे। एक दूसरेके बाधक नहीं हो सकते हैं, इस कारण सम्यग्दर्शन आदि
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तीनोंको मोक्षमार्ग बतानेवाला पहिला सूत्र प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमनाधित नहीं हैं।
__ यथा बाधुनात्र चास्मदादीनां प्रत्पशादि न तद्बाधक तथान्यत्रान्यदान्येषां च विशेषामावादिति सिद्धं सुनिश्चितासम्भवद्वाधकत्वमस्य तथ्यतां साधयति, सा च सूत्रत्वं, तस्सर्पशवीतरागप्रणेतकयमिति निवद्यम् प्रणेतुः साक्षात्पद्धाशेषतत्वार्थतया प्रक्षीणकल्मषतया च विशेषणम् ।
ऐसी व्यवस्था होनेपर कोई कहै कि आज कल यहाँके मनुष्यों के प्रत्यक्ष आदिक भले ही त्रित्वम बाधक न हों किंतु देशांतर कालांतरके विशिष्ट पुरुषोंके प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तो मोक्षमार्गके पावक होजाग श्रीशिवानंद स्वामी कहते है कि यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार इस देशमै तथा इस कालमें हम लोगों के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण उस सम्यग्दर्शन आदि त्रिकके मोक्षमार्गपनेमे बाधक नहीं है उसी प्रकार भिन्नदेश, भिन्नकालके अन्यजनोंके भी प्रत्यक्ष भादिक प्रमाण उस त्रित्वके वाधक नहीं हैं । क्योंकि इस काल, इस देश के, हम लोगोंसे, उस काल, उस देशके जानने वाले मनुष्यों का मोक्षमार्ग जानने में कोई अंतर नहीं है। देश, कालके बदल जाने से प्रत्यक्ष आदिक ज्ञानकी जातियोंमें फेर फार नहीं होता है । इस प्रकार सूत्रमें बाधकप्रमाणों के असम्भव हो जानेका निश्चय सिद्ध होता हुआ इस सूत्रको सत्यपनेकी सिद्धि करा देता है। और जब सूत्र सत्य सिद्ध हो चुका तो सत्यतासे वह सूत्र सर्वज्ञ, वीतराग का बनाया हुआ है यह भी ज्ञात हो जाता है । इस प्रकार आदिसूत्रको बनानेवाले मोक्षमार्गके नेताका केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण तत्त्वोंका प्रत्यक्ष आन चुकना और पाति फौका नाश कर चुकना थे दोनों विशेषण पूर्व वातिको दिये हुए दोषरहित सिद्ध हैं क्योंकि कमौका क्षय करनेवाले सर्वज्ञ वीतराग ही अर्थरूपसे सत्यसूत्रों को बना सकता है।
मुनीन्द्रसंस्तुत्यस्वविशेषणं च विनेयमुख्यसेव्यतामंतरेण सतोऽपि सर्वज्ञवीतरागस्य मोक्षमार्गप्रणेतृत्वानुपपत्तेः । प्रतिग्राहकामावेऽपि तस्यं तत्प्रणयने अधुनायावत्प्रवननानुपपरे।
तथा गम्भीर अर्थ के प्रतिपादक सूत्रको बनानेवाले सर्वज्ञका मुनीन्द्रोंसे भली प्रकार स्तवन किये जानारूप विशेषण भी निर्दोष सिद्ध है। क्योंकि प्रधान शिष्योंसे सेवा किये गये बिना वीतराग भी होकर परमगुरु सर्वज्ञदेव मोक्षमार्गका प्रणयन नहीं कर सकते हैं। भगवान्के उपदेश को झेलनेवाले विनीत बुद्धिमान् शिष्योंके न होते हुए भी यदि भगवान् उस मोक्षमार्गके प्रणयन करनेवाले सूत्रका उपदेश दे देते तो धाराप्रवाहसे उपदेशका आज तक प्रवर्तन हो नहीं सकता था, अर्थात् विना ठीक ग्रहण करने वाले शिष्योंके उस उपदेशको आज तक कोई
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भी नहीं ला सकता है । बडे बडे मुनींद्र जब सर्वज्ञकी स्तुति करते थे तभी मगवान् मोक्षमार्गका उपदेश निर्माण करते थे।
तत एवोपयोगात्मकस्यात्मनः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य विनेयमुख्यस्य प्रतिपिरसायां सूत्रं प्रवृत्तमित्युच्यते ।
उसही कारणसे हमने पूर्ववार्तिकमे कहा है कि ज्ञानदर्शनापयोगी आमाको कैवल्यप्राप्तेरूप मोक्षसे भविष्यमें संयुक्त होनेवाले शिष्यजनोंमें प्रधान गणघरदेवकी तत्त्वोंके जाननेकी बलवती इच्छा होनेपर यह सूत्र प्रवृत्त होता है । अर्थात् शिष्योंकी जानने, सुननेकी विशेष इच्छा होनेपर ही तीर्थकर सर्वज्ञने यथार्थ सत्य सूत्रका अर्थरूपसे प्रतिपादन किया है।
सतोऽपि विनयमुख्यस्य यथोक्तस्य प्रतिपित्साभावे श्रेयोधर्मग्रतिपत्तेरयोगात् प्रतिप्राइकत्वासिद्धेरिदानी यावत्सूत्रप्रवर्त्तनाघटनात् । प्रवृत्तं चेदं प्रमाणभृतं सूत्रं तस्मात्सिद्धे यथोक्त प्रणेतरि यथोदितप्रतिपित्सायाञ्च सत्यामिति प्रत्येयम् ।।
भविष्यमें कल्याणसे युक्त होनेवाले ज्ञानोपयोगात्मक प्रधान शिष्योंके विद्यमान होनेपर भी यदि उनकी समझनेकी इच्छा नहीं है तो उनको कल्याणकारी मोक्षसाधक धर्मका अद्धान नहीं हो सकता है । ऐसी दशा ये उपदेशको ग्रहण करनेवाले भी सिद्ध नहीं होते जाते हैं और विना इच्छाके जब उन्होंने भगवान् का उपदेशही ग्रहण नहीं किया तो आज इस समय तक इस सूत्ररूप उपदेशका प्रवर्तन भी नहीं बन सकेगा, किन्तु सूत्रका उपदेश बराबर आ रहा है । अतः उक्त व्यतिरेकन्याप्तिसे यह सिद्ध हुआ कि आज तक यह प्रमाणभूत सत्यसूत्र धाराप्रवाहसे चला आ रहा है । उस कारण वातिक उक्ति अनुसार पहिले कहीं गयी। यह सूत्र मुनींद्रोंसे स्तवनीय हो रहे सर्वज्ञ, वीतराग तीर्थकरका ही बनाया हुवा है । और तीर्थकरने भी पहिले कही गयी मोक्षमार्गके चाहनेवाले विनीत शिष्यजनोंकी जाननेकी प्रबल इच्छा होनेपर ही अपनी दिव्यभाषासे उस सूत्रका प्रणयन किया है । यह दृढरूपसे निश्चय रखना चाहिये ।
नन्वपौरुषेयाम्नायमूलत्वेऽपि जैमिन्यादिसूत्रस्य प्रमाणभूतत्वसिद्धेर्नेदं सर्वज्ञवीतदोषपुरुषप्रणेतकं सिद्धयतीत्यारेकायामाह ।
यहां मीमांसकोंका आक्षेपसहित कहना है कि मोक्षमार्गफे निरूपण करनेवाले " अथातो धर्म व्याख्यास्यामः " “यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" इत्यादि जैमिनि आदि ऋषियोंके सूत्र मी अनादि आम्नायसे चले आ रहे अपौरुषेयवेदको आधार मानकर ही बनाये गये हैं । तभी उनमें प्रमाणिकपना सिद्ध है । अतः आप जैनोंके इस सूत्रका सर्वज्ञ वीतराग तीर्थकर पुरुषसे बनाया जानापन सिद्ध नहीं हो पाता है। यदि आप अपने सूत्रको प्रमाणभूत सत्य सिद्ध करना चाहते हैं तो
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
इसका भी मूलकारण वेदही मानना चाहिये । ऐसी आशंका होनेपर विद्यानन्द आचार्य उत्तर देते है:-- नैकान्ताकृत्रिमाम्नायमूलत्वेऽस्य प्रमाणता, तव्याख्यातुरसावश्ये रागित्वे विप्रलम्भनात् ॥४॥
आपके द्वारा एकान्तरूपसे अनादिनिधन माने गये ऋग्वेद आदिको मूल मानकर बताये गये अथातो" आदि इस सूत्रको प्रमाणता नहीं है, क्योंकि उस वेदका व्याख्यान करनेवाला असर्वज्ञ और रागी ही माना जावेगा । मीमांसक लोग सर्वज्ञको तो मानते नहीं है, अतः रागी द्वेषी अज्ञानी वक्ताओंके द्वारा वेदके अर्थका भिन्न भिन्न विपरीतप्रकारसे भी प्रतिपादन और प्रवर्तन कराया जावेगा, तथा च अप्रमाणपना आवेगा, श्रोताजनोंको धोका होजायगा ।
सम्भवनपिचकृत्रिमानायो म स्वयं स्वार्थ प्रकाशयितुमीशस्तदर्थे विषतिपस्यभावानुषंगादिति तयाख्यातानुमन्तव्यः। स च यदि सर्वत्रो वीतरागश्च स्याचदानायस्य तत्परतन्त्रतया प्रवृत्तेः किमकृत्रिमत्वमकारणं पोष्यते, तयाख्यातुरसर्वज्ञत्वे रागित्वे वाश्रीयमाणे तन्मूलस्य सूत्रस्य नैव प्रमाणता युक्ता, तस्य विप्रलम्भनात् ।
यद्यपि वर्णपदवाश्यात्मक वेद कैसे भी नित्य सिद्ध नहीं है, फिर भी अस्तुतोषन्यायसे वेदको सम्भवतः अकृत्रिम भी मान लिया जाय तो भी वह बेद अपने आप तो अपने अर्थका प्रकाशन करने में समर्थ नहीं है । यदि उच्चारण मात्रसे ही वेद अपने निणीत अर्थको प्रतिपादन करा देता तो श्रोताओंको उसके भावना, विधि, नियोग आदि नाना अर्थों में विवाद पैदा न होता किंतु अनेक मतावलम्बी वेदसे ढंच तानकर अपने मन चाहे अर्थों को निकाल रहे हैं । अद्वैतवादी वेदके लिङ् लकारका अर्थ विधिरूप सत्ता करते हैं, तथा मीमांसको भट्ट उसका भावना अर्थ मानते हैं, प्रभाकर नियोग अर्थ मानते हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञको कहनेवाली " यः सर्वज्ञः स सर्ववित् ।। आदि श्रुतियोंसे नैयायिक लोग ईश्वरको सर्वज्ञताका अर्थ निकालते हैं और मीमांसकलोग उसको कर्मकाण्डकी स्तुति करनेवाला अर्थवाद वाक्य मानते हैं। यदि वैदिक शब्द स्वयंही अपने अर्थको कह दिया करते तो यह विवाद क्यों पड़ता है । अतः आपको चेदके शब्दोंका व्याख्यान करनेवाला कोई पुरुष अवश्य मानना पडेगा, यदि वह व्याख्याता सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष करनेवाला और रागद्वेषरहित है, तब तो वेद उसके अधीन होकर ही प्रवृत्त होगा, ऐसी दशा में विनाकारण वेदका किसीसे न बनाया जानापन क्यों पुष्ट किया जाता है ! उसे सर्वक्षसे बताया हुआ मानना ही अच्छा है । मीमांसकोंका विचार है कि प्रायः वक्ता रागी, द्वेषी, अज्ञानी, होते हैं । सराम वीतरागके निर्णयके लिये हमारे पास कोई कसौटी नहीं है, अतः सब ज्ञानोंके आदि कारण वेदको अनादि, अकृत्रिम माना गया है, यह मीमांसकोंका विचार ठीक नहीं है क्योंकि उनको वेदका व्याख्यान करनेवाला तो सर्वज्ञ माननाही पड़ेगा उसकी अपेक्षा तो सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित वेदको कृत्रिम माननाही अच्छा है ।
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यदि बेदका व्याख्यान करनेवाला असर्वज्ञ और रागी है ऐसा पक्ष ग्रहण करोगे तो उस वेदको मूल मानकर बनाये गये मीमांसकोंके दर्शनसूत्रोंको उचित प्रमाणता नहीं आसकती है, कारण कि दोषी, रागी, अज्ञानी के वेदव्याख्यानसे श्रोताओंको धोखा होजाता है । जिसका व्याख्याता असर्वज्ञ है, उसके बाद या नि गरे गेङ्गालो भत्ति मानकर बनाया गया सूत्र भी विपरीतप्रवृत्ति करानेवाला होगा।
दोषवव्याख्याकस्यापि प्रमाणत्वे किमर्थमदुष्टकारणजन्यत्वं प्रमाणस्य विशेषणम् । यथैव हि खारपटिकशास्त्रं दुष्टकारणजन्यं तथाम्नायव्याख्यानमपीति तद्विसंवादकत्व सिद्धेर्न तन्मूलं वचः प्रमाणभूतं सत्यम् । ___यदि दोषकाले अल्पज्ञ पुरुषोंसे व्याख्यान किये गये वेदको भी प्रमाण मान लोगे तो आपने " तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं वाधवर्जितं । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ।” यहां प्रमाजका निर्दोष कारणों से पैदा होना रूप विशेषण किसलिये दिया है ! बताओ, जैसे कि खरपटमतके शामें लिखा हुआ है कि स्वर्गका प्रलोभन देकर जीवितही धनवान्को मार डालना चाहिये, एतदर्थ काशीकरवत, गङ्गाप्रवाह, सतीदाह आदि कुत्सित क्रियाएं उनके मतमें प्रकृष्ट मानी गयी हैं। किंतु हम और आप मीमांसकलोग उक्त खरपटके शासको रागी, द्वेषी, अज्ञानी वक्ता रूप दुष्ट कारणसे जन्य मानते हैं अतः अप्रमाण है, वैसेही आपके वेदका द्वेषी, अज्ञानीसे किया गया व्याख्यान भी सफल प्रवृत्तिका कारण होकर विपरीत मार्गभ प्रवृत्त करादेने वाला सिद्ध हुआ अतः ऐसे वेदको मूल मानकर बनाया गया कोई भी वचन प्रमाण होकर सत्य नहीं हो सकता है।
अब अगली वार्तिकका अवतरण करते हैं । कोई शक्का करता है कि
सर्वज्ञवीतरागे च वक्तरि सिद्धे श्रेयोमार्गस्याभिधायकं वचनं प्रवृचं न तु कस्यचिस्पतिपित्सायां सत्याम् । चेतनारहितस्यात्मनः प्रधानस्य वा बुभुत्साया तत्प्रवृत्तमिति कश्चित्तं प्रत्याहः
___ अबतक यह बात तो सिद्ध हुयी कि सर्वज्ञ वीतराग वक्ताके सिद्ध होने पर ही मोक्षमार्गका कथन करनेवाला सूत्र प्रचलित हुआ है, अतः यह सूत्र सर्वज्ञप्रतिपादित होनेसे सादि है किंतु जैनोंने पूर्वमें कहा था कि प्रधान शिष्योंकी जाननेकी तीन अभिलाषा होनेपर ही सर्वज्ञने उक्त सूत्र कहा है, ठीक नहीं प्रतीत होता है। अतः बौद्ध कहते हैं कि किसीकी भी समझनेकी इच्छा न होते हुए अकस्मात् यह सूत्र बोल दिया गया है। और नैयायिक कहते हैं कि इच्छा होनेपर तो सूत्र कहा गया है किंतु भिन्न चेतनागुणको समवाय सम्बन्धसे रखनेवाले वस्तुतः चेतनारहित आत्माकी जाननेकी इच्छा होनेपर सूत्र बोल दिया गया है। तीसरे कपिलमतानुयायी कहते हैं कि सत्वगुण,
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साविलागिः
रजोगुण और तमोगुणकी साम्य अवस्थारूप प्रकृतिकी जिज्ञासा होनेपर सूत्र बनाया गया है । इन तीनोंके मंतव्योंको हृदयम रखकर आशंका करनेवाले शंकाकारके प्रति आचार्य उत्तर देते हैं।
नाप्यसत्यां बुभुत्सायामात्मनोऽचेतनात्मनः।
खस्येव मुक्तिमार्गोपदेशायोग्यत्वनिश्चयात् ॥ ५॥ किसीकी नहीं जाननेकी इच्छा होनेपर यह सूत्र प्रवृत्त नहीं हुआ है और न चेतनारहित जडस्वरूप आत्माकी इच्छा होनेपर यह सूत्र प्रवर्तित हुआ है, तथा प्रधानकी भी इच्छासे सूत्रका बनाना नहीं हो सकता है क्योंकि नैसे सर्वज्ञदेव इच्छारहित अचेतन आकाशको उपदेश नहीं देते हैं, उसी प्रकार उक्त तीनों प्रकाराम भी मोक्षमार्गके उपदेश प्राप्त करनेकी आयोग्यताका निश्चय है।
नैव विनेयजनस्य संसारदुःखामिभृतस्य बुभुत्सायामप्यसत्यां श्रेयोमार्गे परमंकारुणिकस्य करुणामात्रात्तत्प्रकाशकं वचनं प्रवृत्तिमदिति युक्तं, तस्योपदेशायोग्यत्वनिर्णीतेः ।
संसारके दुःखोंसे सताये गये शिष्यजनोंकी मोक्षमार्गविषयमें जाननेकी इच्छा न होनेपर इत्कृष्ट करुणाके धारी भी भगवान्का केवल करुणासे ही मोक्षमार्गके प्रकाश करनेवाला वचन प्रवर्तित हो गया है, यह उचित नहीं है, क्योंकि " महिष्यग्रे वीणावादनवत् " जाननेकी इच्छाके विना कोई भी पुरुष सद्वक्ताके उपदेशग्रहणके योग्य नहीं है, ऐसा निर्णय हो रहा है।
नहि तत्प्रतिपित्सारहितस्तदुपदेशाय योग्यो नामातिप्रसंगात्, तदुपदेशकस्य च कारुणिकत्वायोगात् । ज्ञात्वा हि बुभुत्सां परेषामनुग्रहे प्रवर्त्तमानः कारुणिकः स्यात् ।। कचिदप्रतिपित्सावति परप्रतिपित्सावति वा तस्प्रतिपादनाय प्रयतमानस्तु न स्वस्थः ।
जो श्रोता तत्त्वज्ञानको समझनेकी अभिलाषा नहीं रखता है, वह उपदेशके लिये सर्वथा योग्य नहीं है । यदि बिना इच्छाके ही आचार्य उपदेश देते फिरें तो उनको कीट, पतङ्ग, पशु, पक्षी, सुप्त, उन्मत्त पुरुषोंके लिये भी उच्च सिद्धान्तका उपदेश दे देना चाहिये, यह अति प्रसङ्ग हो जायगा।
जो पात्रका विचार न करके कोरी दयासे उपदेश दे देते हैं, उन उपदेशकोंको काणायुक्त नहीं कहना चाहिये, अर्थात् अविचारितपनेसे की गयी दया कहीं कहीं हिंसासे बढकर है, वस्तुतः वह दया ही नहीं है दयाभास हैं । जैसे कि अभिसे भुरसे हुए के ऊपर ठण्डा पानी डाल देना या आतुर रोगीको अपथ्य दही, ककडी, आदि दे देना, उसही प्रकार अनाकांक्षा होनेपर भी उपदेश देनेवाला भी दयावान् नहीं है । अन्धे कुएर्भ आहार या रुपया डालनेसे कोई दानी नहीं हो सकता है । दूसरोकी तत्त्वग्रहण करनेकी इच्छाको समझकर ही परोपकारमें प्रवृत्ति करनेवालेको दयावान्
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कहा है। जो उपदेशक विना इच्छा रखते हुए पुरुषों के निमित्त प्रतिपादन कर रहा है वह आपेमें नहीं है, तथा देवदत्तकी इच्छा होनेपर जिनदत्तको उपदेश देने के समान कपिलमतानुयायियों के मतमें प्रकृतिकी इच्छा होनेपर आत्माके लिये उपदेश देनेका प्रयत्न करना मी आपे ( होश ) में रहनेवाले विचारक मनुष्यका कार्य नहीं है।
परस्य प्रसिपिरसामन्तरेणोपदेशप्रवृत्तौ तत्प्रश्नानुरूपप्रतिवचनविरोधश्च ।
जो वक्ता दूसरे सुननेवालेकी इच्छाके विना उपदेश देवेगा । वह श्रोताके प्रभोंके अनुकूल वर्चन बोलेगा यह बात विरुद्ध है । अर्थात् वक्ताका बोलना तभी सफल है जबकि वह श्रोताके प्रश्नों के अनुसार भाषण करै । यदि श्रोता विना इच्छाके दूंठ सा बैठा हुआ है तो ऐसी दशामें उपदेश देनेका ही विरोध है । अथवा बया पक्षीका वन्दरके प्रति उपदेश देनेके समान बह दुष्फलका वीज होगा यह अर्थ भी चब्दकरके समुच्चित कर लिया जाता है।
योऽपि चाशवान स्वहितं प्रतिपित्सते तस्य हि तत्प्रतिपित्सा करणीया ।
यहाँ कोई कहे कि सत्त्वज्ञानके जाननेकी इच्छा या मोक्षमार्गके समझनेकी अभिलाषा जीवको तभी हो सकती है जबकि उसको हेयोपादेय समझनेकी कुछ योग्यता होवे । जब कि यह निपट ग़ार मूर्ख पशुके समान है जो अज्ञान होनेसे अपना हित ही नहीं समझना चाहता है ऐसे पुरुषको उसकी इच्छाके विना भी उपदेश दे देना दयावानोंका कार्य है। इस पर आचार्योका कहना है कि जो पुरुष मूर्खतावश अपने हितको नहीं समझता है या समझना नहीं चाहता है उसको प्रथम तत्त्वज्ञान जाननेकी इच्छा पैदा करानी चाहिये । हितमार्गका उपदेश पीछे दिया जायेगा।
न च कश्चिदात्मनः प्रतिकूल घुमुत्सते मिथ्याज्ञानादि, स्वप्रतिकूले अनुकूलाभिमानादनुकूलमहं प्रतिपित्से सर्वदेनि प्रत्ययात् । तत्र नेदं भवतोऽनुकूलं किंस्विदमित्यनुकूलं प्रतिपित्सोत्पाद्यते । समुत्पन्नानुकूलप्रतिपित्सस्तदुपदेशयोग्यतामात्मसात् कुरुते । ततः श्रेयोमार्गप्रतिपित्सावानेवाधिकृतस्तत्प्रतिपादने नान्य इति सूक्तम् ।।
कोई भी जीव अपने लिये अनिष्ट पडनेवाले पदार्थको जानना नहीं चाहता है। यद्यपि कभी कभी तीव्र क्रोधके वश होकर जीब अपना घात कर लेता है, विषको खा लेता है, कुएँ में गिर पड़ता है इत्यादि. किंतु इन कार्योंको भी अपने लिये इष्ट समझता हुआ उत्साहसहित अनुकूल ही मान रहा है । मिथ्याज्ञानके वश उसको सदा यही विश्वास रहता है कि यह विषभक्षण ही मेरा इष्टसाधन करनेवाला है । मैं अपने लिये ठीक ही कार्य कर रहा हूँ। यों मिथ्याज्ञानसे भी अपने प्रतिकूल कर्तव्य मे अनुकूल पडनेका अभिमान हो जानेसे मैं सदा अपने अनुकूलको समझ
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तत्त्वार्थे चिन्तामणिः
ऐसी दशा में उस मूर्खको यह इच्छा पैदा करा देनी चाहिये कि यह विषभक्षण आदि तुमको अनुकूल नहीं है किन्तु यह जीवित रहना और पुरुषार्थ करना ही तुन्हारे लिये योग्य है । इस प्रकार इष्टसाधन करनेवाली क्रियाओंको समझा कर जब उसको अपने समीचीन इष्टके जाननेकी अभिलाषाएँ अच्छी पैदा हो जायेंगी । तब वह उपदेशकी योग्यता को भी अपने अधीन कर लेगा । बादमें तत्रज्ञान और मोक्षमार्गके जाननेकी भी तीव्र इच्छाएँ उसके हृदयमें पैदा हो जायेंगी उस कारणसे हमने पहले यह बहुत ठीक कहा था कि मोक्षमार्गके जाननेकी अभिलाषा रखता हुआ विनीत शिष्यही तत्त्वार्थ सूत्र के प्रतिपादन करते समय सुननेका अधिकारी है । दूसरा कोई नहीं प्रधानस्यात्मनो वा चेतनारहितस्य बुभुत्सायां न प्रथमं सूत्रं प्रवृतं तस्याप्युपदेशायोग्यत्वनिश्चयात् खादिवत् ।
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कारका बोलनेके पूर्व दूसरा, तीसरा आक्षेप यह भी था कि सांख्य आत्माको चेतन मानते हैं और अचेतन प्रकृतिमें इच्छा होना मानते हैं । नैयायिक चेतनाको चौबीस गुणोंमेंसे एक बुद्धिरूप गुण मानते हैं। और गुणगुणीका सर्वथा भेद स्वीकार करते हैं तथा आत्मामें चेतनाका समवाय संबंध मानते हैं। ऐसी दशामें प्रकृतिको इच्छा होनेपर अथवा चेतनारहित आत्माकी जानने की इच्छा होनेपर पहिले सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है । यह उनका कहना ठीक नहीं है क्योंकि आकाश, बट, आदि के समान उस स्वयं जडरूप प्रकृति और नैयायिककी स्वतः अचेतन आत्माको भी उपदेश प्राप्त करनेकी अयोग्यताका निश्चय है ।
चैतन्यसम्बन्धाचस्य चेतनतोपगमादुपदेशयोग्यत्वनिश्चय इति चेन तस्य चेतनासम्बन्धेऽपि परमार्थतश्चेतनतानुपपत्तेः शरीरादिवत् । उपचाराचु चेतनस्योपदेशयोग्यतायामतिप्रसङ्गः शरीरादिषु वनिवारणाघटनात् ।
यदि नैयायिक यों कहेंगे कि चेतना ( बुद्धि ) गुणके सम्बन्धसे आत्मा को भी हम चेतनपना स्वीकार करते हैं और कापिल कहेंगे कि चेतन आत्मा के सम्बन्धविशेषसे जड प्रकृति भी चेतन बन जाती है । अतः दोनोंको उपदेश प्राप्त करनेकी योग्यताका निश्चय है । मन्थाकर कहते हैं कि यह उनका विचार तो ठीक नहीं है कारण कि स्वयं जडस्त्ररूप प्रकृति और आत्माको भिन्न चैतन्यका सम्बन्ध होते हुए भी वास्तव में चेतनापना सिद्ध नहीं हो सकता है। यों तो कापिलोंने चेतन आत्माका संबंध शरीर इंद्रिय आदिमें भी माना है और नैयायिकोंने भी स्वाश्रयसंयोग संबंघसे चेतनाका सम्बन्धीपन शरीर, मन और चक्षु आदि इंद्रियोंमें स्वीकार किया है, क्या एतावता जडशरीर, सुन, पुण्य, पाप, आदि भी उपदेशके योग्य हो जावेगे !
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तत्त्वार्यावन्तामणिः
जपापुष्पके सम्बन्धसे स्फटिकम वस्तुतः ललाई नहीं आती है, केवल उपाधिजन्य क्रियाका व्यवहार होजाता है, इसी तरहसे नैयायिककी आत्मा और सांख्योंके प्रधानमें चेतनपनेका व्यवहारमात्र हो सकता है। यदि व्यवहारसे नाममात्रके चेतमको उपदेशकी योग्यता मानोगे तब तो अनेक जह पदार्थों में भी उपदेशकी योग्यताका अतिक्रमण करनेवाला प्रसंग आवेगा, अर्थात् शरीर, प्रतिबिम्ब ( ससवीर ) आदिकोंमें भी उस योग्यताका निषेध नहीं कर सकोगे।
सत्संबन्धविशेषात्परमार्थतः कस्यचिश्चेतनत्वमिति चेत्, स कोऽन्योऽन्यत्र कथञ्चिच्चेतनावादाल्यात् ।
यदि आप नैयायिक या कापिल लोग इन शरीर, इन्द्रिय आदिको न रहनेवाले ऐसे किसी विशेषसनंबसे योग करके किसी आत्मा और प्रधानको वस्तुतः चेतनपना मानोगे वो वह चेतनाका संबंध कथञ्चिचादात्म्यसंबंधके सिवाय दूसरा क्या होसकता है ? अर्थात् वस्तुतः इच्छा और चेतनाका तादाम्य रखनेवाला जैनोंसे माना गया आत्मा ही उपदेशके योग्य सिद्ध हुआ।
ततो ज्ञानाशुपयोगस्वभावस्यैव श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य श्रेयोमार्गप्रतिपित्सायां सत्यामिदं प्रकृतं सूत्रं प्रवृत्तमिति निश्चयः ।
उस कारणसे अब तक यह निर्णीत हुआ कि ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभाववाले और कल्याणमार्गसे निकट भविष्यमें मुक्त होनेवाले ही आत्माकी मोक्षमार्गके जाननेकी अभिलाषा होनेपर प्रकरणप्राप्त यह पहिला सूत्र प्रवृत्त हुआ है।
ममाणभूतस्य प्रबंधन घृतेः श्रोतृविशेषाभावे वकृविशेषासिद्धौ विधानानुपद्यमानत्वात् ।
___ वार्तिक में पड़े हुए प्रवृत्त शब्दका यह अर्थ है कि प्रमाण होकर सत्यस्वरूप यह सूत्र ( वृत्त ) सर्वज्ञने अपनी रचनासे प्रवर्ताया है कारण कि विशिष्ट { बढिया) श्रोताओंके न होने पर विशिष्ट वक्ताकी भी असिद्धि है । और जब प्रकाण्ड वक्ता ही न होगा तो सत्य सूत्रोंका बनाना भी सिद्ध नहीं होसकता है अतः यह प्रमाणात्मक सूत्र उत्तम शिष्योंकी गाढी इच्छाके होनेपर ही अर्थरूपसे वीतराग सर्वज्ञदेवने बनाया है।
किं पुनः प्रमाणमिदमित्याहअब आगेकी बार्तिकोंका अवतरण देते हैं कि जैनोंने सूत्रको प्रमाणरूप माना है तो क्या वह सूत्र प्रत्यक्ष प्रमाणरूप है या अनुमान प्रमाण अथवा आमम प्रमाणरूप है ! ऐसी शंका होनेपर आचार्य उत्तर देते हैं।
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शुम्पदायाच्यक छेद विशेषादधुना नृणाम् । सद्गोत्राथुपदेशोऽत्र यद्वत्तद्विचारतः ॥ ६॥ प्रमाणभागमः सूत्रमाप्तमूलत्वसिद्धितः ।
लैङ्गिकं चाविनाभाविलिंगात्साध्यस्य निर्णयात् ॥ ७ ॥ आज तकके मनुष्योंको गुरुपरिपाटीके अनुसार विरोधरहित चले आये हुए उस सूत्रके अर्थका विच्छेद नहीं हुआ है, जिस प्रकार कि वृद्धपरम्परापूर्वक पंच लोगोंके विचारसे निश्चित होकर चली आयी हुई समीचीन अग्रवाल, खण्डेलवाल, पद्मावतीपुरवाल आदि जातियोंके या पाटणी, सिंह, कासालीवाल आदि गोत्रोंके उपदेश माननेमें यहां कोई बाधा नहीं है, उसी प्रकार प्रकृत सूत्रके भी नहीं टूटी हुई समीचीन प्राचीनधारासे चले आनमें कोई विरोध नहीं है । यह सूत्र प्रामाणिक सत्यवत्ता पुरुषोंको आधार मानकर प्रसिद्ध हुआ है, उस कारण आगम प्रमाणरूप है, और यह सूत्र हेतुसे उत्पन्न हुआ अनुमान प्रमागरूप भी है, क्योंकि समीचीन व्याप्तिको रखनेवाले मोक्षमार्गख-हेतुसे सम्यग्दर्शन आदि तीनोंकी एकतारूप साध्यका निश्चय किया गया है। वैसे तो शब्दरूप सूत्र पौद्गलिक है किंतु उस शब्दसे अनादि-संकेतद्वारा पैदा हुआ क्ता और श्रोताका ज्ञान चैतन्यपदार्थ है। यद्यपि शब्द और ज्ञानमें जड तथा चेतनपनेसे महान् अंतर है, फिर भी ज्ञानके पैदा करनेमे शब्दही प्रधान कारण है, अतः शब्द और ज्ञानका धनिष्ट संबंध है । प्रकृत, सूत्रके ज्ञानरूप भावसूत्रको अनुमान, आगम, प्रमाणरूप माना है।
प्रत्यक्ष प्रमाण यद्यपि शब्दयोजनासे रहित है, फिर भी दूसरों को समझानेके लिए उस ज्ञानका स्वरूप शब्दके द्वारा कह दिया जाता है, जैसे 'यह घट है। यह प्रत्यक्षज्ञानका उल्लेख है । इसी प्रकार ज्ञानरूप पदाथार्नुमानको भी शब्दके द्वारा कहना पडता है। आगममें तो अनेक अंशोमें शब्दयोजना लगती ही है। मावार्थ-सूत्र तो ज्ञानरूप ही है, चाहे केवलज्ञानियोंके प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरूप हो या गणधर आदि ऋषियों के अनुमानप्रमाण और आगमप्रमाणरूप होवे, किन्तु ज्ञानको ज्ञानसे साक्षात् जानना सर्वज्ञका ही कार्य है, संसारी जीवोंको शब्दकी सहायता लिये विना कठिन प्रमेयका समझना और समझाना अशक्यानुष्ठान माना गया है । उक्त वार्षिकोंका विद्यानन्द स्वामी अब भाष्य करते हैं।
प्रमाणमिदं सूत्रमागमस्तावदाप्तमूलत्वसिद्धेः सद्गोत्राद्युपदेशवत् ।
प्रथमही पक्ष, हेतु, दृष्टान्तरूप अवयवोंसे अनुमान बताकर सूत्रको अपमप्रमाणपना सिद्ध करते हैं, यह सूत्र आगमप्रमाण है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि आप्तपुरुषोंको मूलकारण मानकर आजतक
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सिद्ध होरहा है, ( हेतु ) जैसे कि सच्चे गोत्र, वर्ण, जाति, वंशके वृद्ध परिपाटीसे चले आये हुए उपदेश आगम प्रमाणरूप हैं ( अन्वयदृष्टान्त )।
कुतस्तदातमूलत्वसिद्धिरिति चेत् सम्प्रदायाव्यवच्छेदस्याविरोधात् तद्वदेवेति ब्रूमः ।
सूत्रको आगमप्रमाण मानने आप्तको मूल कारण मानकर प्रवृत्त होना हेतु दिया है, वह हेतु सूत्रनामक पक्षमें कैसे सिद्ध है ! अर्थात् वह हेतु असिद्धहेत्वाभास है, ऐसी शंका करोगे तो उसका उत्तर हम ग्रंथकार इस प्रकार स्पष्टरूपसे देते हैं, कि गुरुपरिपाटीके न टूटनेका कोई विरोध नहीं है, कारण कि सर्वज्ञसे लेकर आजतक अव्यवधानरूपसे चली आयी हुयी गुरुपरिपाटीका प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे कोई विरोध उपस्थित नहीं हुआ है। जैसे कि वही जाति, गोत्र, वंश, आदिके कथनव्यवहार आजतक विना किसी रोक टोकक प्रामाणिक पद्धतिसं चले आरहे हैं।
कथमधुनातनानां नृपा तत्सम्प्रदायाव्यवच्छेदाविरोधः सिद्ध इति चेत् ? सगोत्राापदेशस्य कथम् ? । विचारादिति चेत् । मोक्षमार्गोपदेशस्यापि तत एव । कः पुनरत्र विचारः? सदोबाधुपदेशे क ? प्रत्यक्षानुमानागमः परीक्षणामत्र विचारोऽभिधीयते सोमवंशः क्षत्रियोऽ यमिति हि कश्चित्प्रत्यक्षतोऽतीन्द्रियादध्यवस्यति तदुच्चै!त्रोदयस्य सद्गोत्रव्यवहारनिमित्तस्य साक्षात्करणात्, कश्चित् कार्यविशेषदर्शनादनुमिनोति । तथाऽऽगमादपरः प्रतिपद्यते ततोऽप्यपरस्तदुपदेशादिति संप्रदायस्याव्यवच्छेदः सर्वदा तदन्यथोपदेशाभावात् । तस्याविरोधः पुनः प्रत्यक्षादिविरोधस्यासम्भवादिति, तदेतन्मोक्षमार्गोपदेशेऽपि समानम् ।
यहाँ मीमांसक कहते हैं कि अभी आजकल पर्यन्तके मनुष्योंतक उस आचार्यपरम्पराका विरोधरहित न टूटना कैसे सिद्ध मानोगे ? इस पर जैन कटाक्ष करते हैं कि यदि आप ऐसा कहोगे तो आप ही बतलाइये कि श्रेष्ठ माने गये गर्ग, काश्यप, रघुवंश आदि गोत्रों या जाति आदिके कथनमें भी आपने सम्प्रदायका न टूटना कैसे माना है ? बताओ, यदि आप मीमांसक इसका उत्तर ग्रह देंगे कि श्रेष्ठ गोत्रोंके उपदेशका प्राचीनपुरुषोंकी सम्मतिसे निर्णयात्मक विचार होता हुआ चला आरहा है, तो हम जैन भी कहते हैं कि मोक्षमार्गका उपदेश भी प्राचीन आचार्योके विचारते रहनेके कारण न टूटता हुआ चला आरहा है । यदि मीमांसक अब यह कहेंगे कि मोक्षमार्गके उपदेशमें प्राचीन पुरुषोंने क्या विचार किया है ? यतलाइये, तो हम जैन भी आप मीमांसकोंके प्रति कहेंगे कि आपके पुरिखाओंने सनाढ्य, गौड, माहेश्वर आदि सच्चे गोत्र, जातियोंके उपदेशमें क्या विचार किया है । इसपर आप यही कह सकते हैं कि प्रत्यक्ष, अनुमान और भागम प्रमाणों
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तत्त्वाचिन्तामणि
करके समीचीन परीक्षा करना ही गोत्र आदिके उपदेश में पूर्वपुरुषोंका विचार कहा जाता है वही हम कहते हैं कि कोई मुनिमहाराज अपने अतीन्द्रिय प्रत्यक्षसे ही इस प्रकार निर्णय कर लेते हैं कि यह सोमवंश है । यह नाथवंश है । यह काश्यप गोत्र है । अमुक पुरुष क्षत्रिय वर्णका है । यह वैश्य वर्णका है इत्यादि । जाति और वंश पहिरिन्द्रियों के विषय नहीं हैं क्योंकि उत्तमवंशोंके व्यवहारका निमित्त कारण उहाँत्रकर्मका उदय है और आत्मामै फल देनेवाले उस उच्च गोत्रकर्म का प्रत्यक्ष करना अतींद्रिय प्रत्यझसे ही हो सकता है, अतः प्रत्यक्षदर्शी तो गोत्र, जाति, वर्णका साक्षात्प्रत्यक्ष कर लेते हैं। और कोई कोई तो जो प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं, वे उन गोत्र, जाति, वर्गों के विनाभावी विशेष विशेष (खास खास ) झापाके देखनेसे गोत्र आदिका अनुमान कर लेते हैं। कारण कि मिन्न भिन्न जाति, या काश्यप, खण्डेलवाल, अग्रवाल आदि वंशीमें कोई कोई ऐसा वैयक्तिक कार्य होसा है कि विचारवाले पुरुष उन कृत्योंसे उनकी जाति, व का शीघ्र बोध कर लेते हैं । भावार्थ-भिन्न भिन्न कुलोंमें कुछ न कुछ विलक्षणपना देखने में आता है । गहरा विचार करनेवालोंसे यह बात छिपी हुई नहीं है । कोई तुच्छ पुरुष अच्छा पदस्थ या विशिष्ट धन मिल जानेपर भी अपनी तुच्छता नहीं छोडता है। और उदात प्रकृतिका पुरुष दैवयोगसे निर्धन और छोटी वृत्ति भी आजाय तो मी अपने पडम्पनको स्थित, कायम, रखता है। ऐसे ही अग्रवाल या पद्मावतीपुरवाल आदि उत्तम बातिओंके समुदित मनुष्योंमें भी कुछ कुछ सूक्ष्म कार्योंमें विशेषता है । जिससे कि आत्मामें सन्तानऋमसे आचरणरूप रहनेवाले गोत्र, जाति, वर्णीका अनुमान हो सकता है । घोडे और कुत्तों में इस सजाति सम्बन्ध और जातिसंस्कारसे अनेक गुणदोष देखे गये हैं । अतः निर्णीत हुआ कि बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञानवालोंको विशिष्ट कार्योंसे जाति गोत्र और वर्णोका अनुमान हो जाता है । तया अनेक कार्योंमें हमे आगमकी शरण लेनी पड़ती है । यह ही तेरा पिता है । इसमें सिवाय मातृवाश्यके और क्या प्रमाण हो सकता है । उस मातृवाक्यको भिति मानकर आगे भी पिता पुत्र व्यवहारका सम्प्रदाय-सिलसिला चलता है, ऐसे ही अन्य कोई कोई जीव सच्चे शास्त्रोंसे जाति, गोत्र आदिको जान लेते और योंही उनके उपदेशसे दूसरे लोगोंके ज्ञान करनेकी धारा चलती है । इस प्रकार सच्चे वक्ताओंका आम्नाय कभी टूटती नहीं है । अन्यथा यानी यदि गोत्र आदिके उपदेशकी धारा टूट गयी होती तो आजतक सर्वदा उनका उपदेश नहीं बन सकता था । जब कि उक्त प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण उस उपदेशके साधक है । बाधक नहीं हैं तो फिर सम्प्रदायके न टूटने प्रत्यक्ष आदिकसे कोई विरोध नहीं है । उसी प्रकार मोक्षमार्गके उपदेशमै भी यह पूर्वोक्त संपूर्ण कथन समानरूपसे घट जाता है । अर्थात् मिन्न भिन्न जीव मोक्षमार्गको भी तीनों प्रमाणोंसे जान सकते हैं ।
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सत्वार्थचिन्तामणिः
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तथोप्येवंविधविशेषाक्रान्तानि सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्ग इत्यशेषतोऽतीन्द्रियप्रत्यक्षतो भगवान् परममुनिः साक्षात्कुरुते, तदुपदेशाद्गणाधिपः प्रत्येति, तदुपदेशादप्यन्यस्तदुपदेशाच्चापर इति सम्प्रदायस्याव्यवच्छेदः सदा तदन्यथोपदेशाभावात्, तस्याविरोधश्च प्रत्यक्षादिविरोधस्याभावात् ।
जिस प्रकार जाति, वर्ण, गोत्र आदि जानने के लिये जो कुछ विशेषताएं हम लोग देखते हैं और उन विशिष्ट कार्योंसे भिन्न भिन्न कुलोंका अनुमान भी कर लेते हैं, उसी प्रकार मोक्षके मार्ग सम्यदर्शन आदि जीवों के कायोंमें भी शांति संवेग, आस्तिक्य भेदविज्ञान और स्त्ररूपाचरणकी विशेषतायें आजाती हैं। उन विशेषताओंले सम्यग्दर्शन आदिको मोक्षमार्गपनेका अनुमान करलेते हैं। • तथा साधुओं में सर्वोत्कृष्ट सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान् अपने केवलज्ञान द्वारा पूर्ण रूपसे सम्यग्दर्शन आदि मोक्षके मार्ग हैं, ऐसा प्रत्यक्ष करलेते हैं । और तीर्थकर जिनेंद्रके उपदेशले गणधर देव आगमप्रमाण द्वारा निश्चय करलेसे हैं । तथा गणधर देवके उपदेशसे अन्य आचार्य आगमज्ञान करलेते हैं और अन्य आचार्यो प्रवचन शिष्यपरिपाटीले अद्यावधि चळे आरहे हैं । इस प्रकार मोक्षमार्गके उपदेशका सम्प्रदाय न टूटना सिद्ध है। इसके बिना माने दूसरे प्रकार से आजतक सबै वक्ताओंका उपदेश हो ही नहीं सकता था। किंतु मोक्षमार्गका सच्चा उपदेश प्रवर्तित होरहा है । तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे इसमें कोई विशेष आता नहीं है । अतः गोत्र आदिके उपदेश के समान मोक्षमार्ग के उपवेशकी सम्प्रदाय न टूटने में भी कोई विरोध नहीं है। यहांतक मोक्षमार्ग के उपदेशकी आम्नायका न टूटना सिद्ध हुआ ।
गोत्राद्युपदेशस्य यत्र यदा यथा यस्याव्यवच्छेदस्तत्र तदा तथा तस्य प्रमाप्पत्वमपीष्टमिति चेत् मोक्षमार्गोपदेशस्य किमनिष्टम् ९ केवलमत्रेदानीमेवमस्मदादेस्तद्वयवच्छेदाभावात्प्रमाणता साध्यते ।
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यदि यहां मीमांसक ऐसा कहेंगे कि सधे खण्डेलवाल, अग्रवाल, पद्मावती पुरवाल, सेठी, पाटनी, शिरोमणि, आदि गोत्रोंकी जिस स्थानपर जिस कालमें और जिस प्रकारसे जिसकी सम्प्रदायका व्यवधान नहीं हुआ है उस जगह उस कालमै उस प्रकारसे उस गोत्र आदिकी प्रमाता मी हम इष्ट करते हैं, यदि ऐसा कहोगे तो मोक्षमार्गके उपदेशकी क्या प्रमाणता अनिष्ट है ! अर्थात् मोक्षमार्ग के उपदेशका मी विदेहक्षेत्रमै सर्वदा विद्यमान होरहे चतुर्थकालमे श्री १००८ तीर्थकरों के निरंतर उपदेश से मोक्षमार्गका व्यवधान नहीं हुआ है और इस मरतक्षेत्र में की अवसर्पिणीके चतुर्थ दुःषम सुषमा कालमै तथा उत्सर्पिणीके तृतीय दुष्षम सुषमा कालमें होनेवाले चौबीस
१. तत्रापि इति मुद्रित पुस्तके.
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तत्त्वावचिन्तामणिः
चौवीस नायक की आम्नायसे मोक्षमार्गका उपदेश अटूट सिद्ध है। हां, आप्तमूलत्व हेतुसे सूत्रको आगमप्रमाणरूप सिद्ध करनेवाले पूर्वोक्त अनुमानसे हम केवल इतना ही सिद्ध करते हैं कि इस भरत क्षेत्रमें आज कल पंचमकाल दुःषमामे हम लोगोंको भी वह गुरुपर्वक्रमसे चला आया हुमा गोक्षमार्गका उपदेश भागम प्रमाण रूप है । अन्य क्षेत्रों में अब भी और यहां भी अन्य कालों में मोक्षक उपदेशका व्यापक रहना सिद्ध है, किंतु प्रकृत अनुमानसे यहां आज कल हम लोगोंके लिये ही सूत्रका आगमप्रमाणरूप सिद्ध करना उपयोगी है।
कपिलायुपदेशस्यैवं प्रमाणता स्यादिति चेत् न, तस्य प्रत्यक्षादिविरोधसद्भावाद ।
यहां भीमांसक कहते हैं कि इस प्रकार गुरुओंकी धारासे ही यदि मोक्षमार्गके उपदेशको प्रमाणपना मानोगे तो कपिल, जैमिनि, कणादके उपदेश भी इसी प्रकार प्रमाण हो जायेंगे । वे भी अपने सूत्रोंको गुरुधारासे आया हुआ मानते हैं । आचार्य कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि उन कपिल आदिके उपदेशोंको प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम आदि प्रमाणोंसे विरोध है । भावार्थ उपदेशोंको आप्तमूलत्व सिद्ध करनेमें सम्प्रदायके अव्यवच्छेदका विरोध न होना रूप हेतु है । वह कपिलादिक उपदेशाम घटता नहीं है | यों तो चोरी आदिके उपदेश भी चोर डॉकुओंके उस्तादोद्वारा चले आ रहे हैं । एतावता क्या वे आप्तमूलक हो जायेंगे ! कभी नहीं ! जिस प्रकार आखेट, धूत आदिके उपदेश प्रत्यक्ष, अनुमानोंसे विरुद्ध हैं तथा अतिप्राचीन होकर भी मिथ्या है, उसी प्रकार जैमिनि, कपिल आदिके पशुवधपूर्वक यज्ञ करना, क्षुधित अवस्था दूसरोंका धन बलात्कारसे जबरदस्ती छीनलेना, मोक्षकी अवस्थामे ज्ञान न मानना, आत्माको कूटस्थ या व्यापक स्वीकार करना आदि उपदेश भी प्रमाणविरुद्ध हैं।
नन्याप्तमूलस्याप्पुपदेशस्य कुतोऽर्थनिश्चयोऽसदादीनाम् ? न तावत्स्वत एव चैदिकबचनादिवत्पुरुषव्याख्यानादिति चेत्, स पुरुषोऽसर्वशो रागादिमांश यदि तदा तव्यारुपानादर्थनिश्चयानुपपचिरयथार्थाभिधानशंकनात्, सर्वक्षो वीतरागश्च न सोडदानीमिष्टो पतस्तदर्थनिश्चयः स्यादिवि कश्चित् ।
यहां कोई प्रतिवादी पंडित शंका करता है कि आसको मूल कारण मानकर वह उपदेश प्रवर्तित हुआ है, यह बात माननेपर मी उस आप्तके सूत्ररूप उपदेशसे हम लोगोंको उसके अर्थका निश्चय कैसे होगा ! यदि जैनोंकी ओरसे इसका उत्तर कोई इस प्रकार कहेंगे कि उस सूत्रसे विना किसीके समझाये अपने आप ही श्रोताओंको अर्भका बोध होता चला जाता है, यह उत्तर ठीक
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं पड़ेगा। क्योंकि हम मीमांसकोंने असे 4६ कहा था कि वेदक पाय भी अपवार अर्थज्ञान करा देते हैं, उस समय जनोंने हमारा खण्डन कर दिया था कि यही ( भावना ) हमारा अर्थ है
और यह ( नियोग या विधि) हमारा अर्थ नहीं है, इस बातको शद्ध स्वयं तो अपने आप ही कहते नहीं है । कारण कि शब्द जड हैं। उसी प्रकार आपके " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " ये जडसूप वाक्य मी स्वयं अर्थनान नहीं करा सकते हैं । गौको ले जाओ । घरको साओ, ये लौकिक वाक्य भी बिना संकेतके अर्थबोध स्वयं नहीं करा सकते हैं। अन्यथा दो महिनेके बच्चेको भी शब्द सुनकर अर्थज्ञान होजाना चाहिये था, अथवा यह शंका मीमांसककी तरफसे न होकर किसी सटस्थकी ओरसे है । वह बेदके वाक्योंको भी स्वतः अर्थज्ञान करानेवाला नहीं मानता है। यदि स्याद्वादी आप यो कहेंगे कि हम लोगों को विद्वान पुरुषों के व्याध्यान करनेसे प्राचीन उपदेशरूप सूत्रोंके अर्थका निर्णय होजाता है। ऐसी दशा में पूछता हूँ कि वह व्याख्याता पुरुष यदि सर्वज्ञ नहीं है और रागी, द्वेषी है, तब तो उसके व्याख्यानसे अर्थका निश्चय होना असिद्ध है। कारण कि श्रोताओंको रागी और अज्ञानीके कपनमें सत्यार्थकी शंका बनी रहती है । अनेक पुरुष राग और अज्ञानके वश होकर झंठा उपदेश देते हुए देखे जारहे हैं । इस दोष निवारणार्थ यदि आप उस सूत्रका व्याख्यान करनेवाला सर्वज्ञ और वीतराग जिनेन्द्र देवको मानोगे तो आपने इस देशमें आजकल जिनेन्द्रदेवका वर्तमान रहना अपनी इच्छासे स्वीकार नहीं किया है। जिससे कि उस सूत्रार्थका निश्चय होसके, यों सूत्रके अर्थका निश्चय कैसे हो सकेगा । बताओ। यहांतक किसी प्रतिवादीकी शंका है।
तदसत् । प्रकृतार्थपरिज्ञाने तद्विषयरागद्वेषामाचे च सति तद्याख्यातुर्विप्रलम्भनासम्भवात्तयाख्यानादर्थनिश्चयोपपत्तेः ।
तब आचार्य कहते हैं कि किसीकी वह उक्त शंका ठीक नहीं है।
क्योंकि-यधपि यहां इस समय केवलज्ञानी नहीं हैं फिर भी प्रकरणमें प्राप्त मोक्षमार्गरूपी अर्थको पूर्ण रूपसे जाननेवाले विद्वान् धाराप्रवाइसे विद्यमान हैं और उस मोक्षमार्ग विषयक बताने उनको राग, द्वेष मी नहीं है। ऐसे व्याख्यान करने वालोंके द्वारा वञ्चना या धोका करना सम्भव नहीं है। प्रत्युत गम्भीर व्याख्यातासे अर्थका निश्चय हो जाना ही सिद्ध है । जो जिस विषयमें रागी, द्वेषी, अहानी नहीं है ऐसा होते ते उस व्याख्याताके व्याख्यानको स जन प्रमाणरूपसे ग्रहण कर लेते
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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है। जैसे कि चतुर वैद्यके उपदेशको रोगी सत्यार्थरूपसे समझ लेता है या छलरहित जौहरीके उपदेशसे अनाडी पुरुष भी रनको जान लेता है।
अपौरुपेशागमा निश्चय हृदस्तु, मन्नादेस्तव्याख्यातुनदर्थपरिज्ञानस्य तद्विपयरागद्वेषाभावस्य च प्रसिद्धत्वादिति चेत् न ।
यहां मीमांसक कहते हैं कि यों तो हमारे किसी पुरुषके द्वारा नहीं बनाये हुए अनादि कालीन वेदरूप आगमके अर्थका निश्चय भी उसी प्रकार विद्वान् व्याख्याताओंके द्वारा हो जावेगा। क्योंकि उस वेदके अर्थका व्याख्यान करनेवाले मनु, याज्ञवरुक, व्यास आदि ऋषियोंको उस वेबके अर्थका पूर्ण ज्ञान था और उनको वेदके विषयमें राग द्वेषका अमाव भी प्रसिद्ध है । ग्रंथकार कहते हैं कि आपका यह कहना तो ठीक नहीं है ।
प्रथमतः कस्यचिदतीन्द्रियवेदार्थपरिच्छेदिनोऽनिष्टेरन्धपरम्परातोऽर्थनिर्णयानुपपत्तेः।
कारण कि यदि आपने आद्य अवस्थाम इंद्रियोंसे अतिक्रांत वेदके अर्थको जाननेवाला सूक्ष्म आदि पदार्थाका प्रत्यक्षदर्शी कोई सर्वज्ञ इष्ट किया होता तब तो उस सर्वशको मूल कारण मानकर मनु आदिको भी वेदके अर्थका ज्ञान परम्परासे हो सकता था। किंतु आप मीमांसक आदि समयमें सर्वज्ञ मानते नहीं हैं; अतः ऐसी अंधपरम्परासे अर्थका निर्णय हो जाना बन नहीं सकेगा। एक अधेने दूसरे अंधेका हाथ पकडा दूसरेने तीसरेका हाथ पकडा ऐसी दशाम उन सब ही अंधोंकी पंक्ति एक सूझतेके विना क्या अभीष्ट स्थान पर पहुंच सकती है। किंतु नहीं। और यदि मूलरूपसे एक सर्वज्ञ आदिमें सबको मार्ग दिखलानेवाला मान लिया जाय तो अनेक विद्वान् धारामवाहसे आगमके अर्थको आजतक जान सकते हैं।
ननु ध व्याकरणाद्यम्यासाल्लौकिकपदार्थनिश्चये तदविशिष्टवैदिकपदार्थनिश्चयस्य खतः सिद्धेः पदार्थप्रतिपत्तौ च तद्वाक्यार्थप्रतिपत्तिसम्भवादश्रुतकाव्यादिवन वेदार्थनिश्चयेऽतीन्द्रियार्थदर्शी कश्चिदपेक्ष्यते, नाप्यन्धपरम्परा यतस्तदर्थनिर्णयानुपपत्तिरिति चेत् न ।
यहां मीमांसकका कहना है कि व्याकरण, कोष, व्यवहार आदिसे शब्दोंकी वाच्यार्थ शक्तिका ग्रहण होता है। जो विद्वान् पुरुष व्याकरण, न्याय आदिके अभ्याससे लोकमें बोले जायं ऐसे गौ, घट, आत्मा, आदि पदोंके अर्थका निश्चय कर लेते हैं। ऐसा होनेपर उन्ही आज कल परसरमें बोले हुए पदोंके समान ही वेदों में भी " अमिमीडे पुरोहितम् यजेत " आदि पद पाये जाते
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सस्वार्थचिन्तामणिः
हैं। अतः वेदके पदोंका अर्थ भी व्युत्पन्न विद्वानको अपने आप ज्ञात हो जावेगा । पदोंके अर्थको जान लेने पर उन पदोंक समुदायरूप वाक्योंका अर्थ जान लेना सरल रीतिसे सम्भव है। जैसे कि हम दो चार काव्य ग्रंथोंको पढकर अभी तक न सुने हुए नवीन काव्योंको भी अपने आप लगा लेते हैं या गणितके नियमों को जान कर नवीन नवीन गणितके प्रश्नोंका स्वतः ही झट उत्तर देदेते हैं, इसी प्रकार व्याकरण आदिकी विशेष व्युत्पत्ति बढानेसे ही वेदके अर्थका निश्चय हो जावेगा । इसके लिये मूलमै किसी अतीन्द्रिय भोंके देखनेवाले सर्वज्ञकी हमें कोई अपेक्षा नहीं है और विद्वानोंके द्वारा जब हम अर्थका निर्णय होना मान रहे हैं, ऐसी दशाम अंघोंकी परम्परा भी नहीं है। जिससे कि अंघोंकी धाराक समान वेदके अर्थका मी निर्णय न हो सके । अब आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकोंका वक्तव्य उचित नहीं है । सुनिये ।
लौकिकवैदिकपदानामेकत्वेऽपि नानार्थत्वावस्थितेरेकार्थपरिहारेण व्याख्यांगमिति वस्यार्थस्य निगमयितुमशक्यत्वात् । मकरणादिभ्यस्तभियम इति चेन्न, तेषामप्यनेकपा प्रवृत्तेः पंचसंधानादिवदेकार्थस्य व्यवस्थानायोगात् ।
लोक आज कल हम लोगोंसे पोले हुए पद और वेदमें लिखे हुए पद यद्यपि एक ही है किंतु उन पदोंके अनेक अर्थ भी व्यवस्थित हो सकते हैं । अतः एक अर्थको छोड कर दूसरे इष्ट अर्थमें ही कारण बताकर उसकी व्याख्या करनी चाहिये, अन्य अर्थमें नहीं । इस प्रकार शब्दोंके उस अर्थका अवधारण (नियम ) करना अशक्य है । मावार्थ-जैसे लोक सैन्धव शब्दके घोडा और नमक दोनों अर्थ हैं. इसी तरह वेदमें भी अनेक अर्थीको धारण करनेवाले पद पाये बाते हैं। जैसे कि अज शब्द का अर्थ नहीं उगनेवाला तीन वर्षका पुराना जो होता है और बकरा भी होता है। ऐसी अवस्थामै मनु आदिक अस्यज्ञ विद्वानोंसे एक ही अर्थका निश्चय करना अशक्य है। यदि आप शहकी अनेक अयोंकी योग्यता होनेपर प्रकरण, बुद्धिचातुर्य, अभिलाषा, आदिसे उस विवाक्षित अर्थका नियम करना मानोगे सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि कहीं कहीं प्रकरण आदि भी अनेक प्रकारसे अर्थोके उपयोगी पवर्त रहे हैं, जैसे कि कोई रईस सज्जीमूत होकर माहिर जानेके लिये तैयार बैठा है और ककडी खारहा है। ऐसी दशा " सेंधव लाओ " ऐसा कहने पर सैंधवके घोडा और नाक दोनों अर्थ उस प्रकरणमें प्राप्त हैं। द्विसन्धान काव्यमें एक साथ ही प्रत्येक शद्धके पाण्डव और रामचन्द्र के चरित्र पर घटनेवाले दो दो अर्थ किये गये हैं। ऐसे ही पंचसन्धान, सप्तसंधान, चतुर्विंशतिसन्धान काव्यों में भी एक एक शहके अनेक अमेिं प्रयुक्त किये जानेके प्रकरण हैं। अतः अल्पज्ञ लौकिक विद्वान् प्रकरण आदिके द्वारा अनेक अर्थोको प्रति पादन करने वाले पैदके शद्रों की ठीक ठीक एक ही प्री व्यवस्था नहीं कर सकता है।
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यदि पुनः वेदवाक्यानि सन्निबंधनान्येदानादिकालप्रवृतानि न व्याख्यानांतरापेक्षाणि देशभाषावदिति मतं, तदा कुतो व्याख्याविमतिपत्तयस्तत्र भवेयुः।
यदि आप मीमांसक यह मानोगे कि लौकिक वाक्य भले ही हम लोगोंकी संचातानीसे मिन्न मिन्न अर्थोको प्रतिपादन करे, किन्तु वेदके वाक्य अपने निरुक, कल्प, छन्द, व्याकरण, ज्योतिष, और शिक्षा इन छह अंगों के द्वारा अनादिकालसे अपने नियत अर्थको लेकर ही प्रवृत्त हो रहे हैं | अतः भिन्न भिन्न न्यारे व्याख्यानोंकी वेदवाक्योंको आकांक्षा नहीं है । जैसे कि शब्दोंकी आनुपूर्वी एकसी होनेपर भी संस्कृतभाषामें सन्का अर्थ वर्तमान है। इंगलिश् भाषामें सन् का अर्थ सूर्य है और नागरी माषामै सन् का अर्थ रस्सीको बनानेवाली छाल है। एतावता क्या मिन्न भाषाओं के बोलनेवाले पुरुष अभीष्ट अर्थको नहीं आमते हैं ! किंतु उस शब्दसे अवश्य ज्ञान करलेते हैं । इसी प्रकार देशभाषाके समान वेदके वाक्य भी अपने अर्थको लेकर अनादि कालसे चले आरहे हैं । आचार्य कहते है कि यदि आप ऐसा कहोगे तो उन वेदके अर्थोके व्याख्यानमें क्यों विवाद होरहे है । बतायो । कोई कामधेनु समान हो रहे वेदसे कर्मकाण्ड अर्थ निकालते हैं और चार्वाक " अन्नाद्वै पुरुषः " आदि श्रुतियोंसे अपना मत पुष्ट करते हैं। अद्वैतवादी उन ही मंत्रोंका परब्रह्म अर्थ करते हैं। आप मीमांसक मी नियोग और मावनारूप अर्थमें परस्पर विवाद करते हैं। यदि वेदका अर्थ प्रथमसे निर्णीत होता तो इतने हिंसापोषक और हिंसा निषेधक तथा केवल बड़वाद या केवल आत्मवादरूप विरुद्ध व्याख्यानोंके द्वारा क्यों झगडे देखे जाते है।
प्रतिपत्तुर्माद्यादिति चेत् केयं तदर्थसंमतिपत्तिरमन्दस प्रतिपत्तुर्जातुचिदसम्भवात् ।
यदि आप कहोगे कि वेदके अर्थोंको जानने वाले पुरुषोंका ज्ञान मंद है जिससे कि वे नाना विवाद खडे करते हैं। प्रतिभाशाली पुरुष झगडोंको छोडकर वेदका एक ही अर्थ करते हैं, ऐसा कहने पर हम जैन आप मीमांसकोंसे पूछते हैं कि वेदके वास्तविक अर्थका पूर्ण ज्ञानशाली, मंदबुद्धिरहित, सर्वज्ञको तो आपने कमी माना नहीं है। असम्भव कहा है। जब कोई सर्वज्ञ ही नहीं है सो अनादि कालसे अब तकके सम्पूर्ण मनुष्य मंदबुद्धिवाले ही समझे जावेगे। ऐसी दशामें भला उस वेदके अर्थका यह निर्णय कहां कैसे हो सकता है ! अर्थात् कहीं नहीं। . सातिशयप्रज्ञो मन्वादिस्तत्प्रतिपत्ता संप्रतिपत्तिहेतुरस्त्येवेति चेत्, कुतस्तस्य वाया प्रचाविषयः ।
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तत्त्वार्ज चिन्तामणिः
यदि मीमांसक यों कहें कि परोक्षरूप से भूत, भविष्यत्, देशांतरकी वस्तुएं, और पुण्य, पाप आदिको जान लेनेरूप चमत्कारको धारण करनेवाली बुद्धिसे युक्त होरहे मनु, याज्ञवल्क आदि ऋषि वेद अर्थको जानते थे, वे ही ऋषि आजतक इम लोगोंको वेदका समीचीन अर्थ निर्णय करानेमें बाराप्रवाहसे कारण हैं ही। इसपर हम जैन पूंछते हैं कि उनकी बुद्धिमें पैसा सूक्ष्म, मूत विष्यत् अर्थोके जानने रूप चमत्कार कहांसे आया ! बताओ ।
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श्रुत्यर्थ स्मृत्यतिशयादिति चेत्, सोऽपि कुतः ?
यदि आप यह कहोगे कि वेदके अर्थोका पूर्णरूपसे स्मरण रखनेकी विशेषता उनमें थी उससे प्रज्ञाका अतिशय हुआ, तभी तो उन्होंने वेदके स्मरणरूप मनुस्मृति, याज्ञवल्कस्मृति आदि ग्रंथ बनाये हैं। यहां पर हम जैन पूंछते हैं कि मनु, याज्ञवल्क अनादि कालके पुरुष तो हैं ही नहीं, उन्होंने भी कभी न कमी जन्म लिया है। फिर विना गुरुके वेदके अर्थका पूर्णरूपसे वह स्मरण करनारूप अतिशय उनके कैसे कहा जाय ! विना गुरुपरिपाटीके स्वतः ही वेद अर्थका स्मरण मानने पर गली में घूमने वाले आदमियोंको भी उसका स्मरण मानना पडेगा । अतः बताओ कि मनु आदिको अनुभवके विना स्मरण करनेकी विशिष्टता कहांसे ? |
पूर्वजन्मनि श्रुत्यभ्यासादिति चेत्, स तस्य खतोऽन्यतो वा १ स्वतश्चेत् सर्वस्य स्थात् तस्यादृष्टविशेषाद्वेदाभ्यासः स्वतो युक्तो, न सर्वस्य तदभावादिति चेत् कुतोऽस्यैवादृष्टविशेषस्ताङग्वेदार्थानुष्ठानादिति चेत्, तर्हि स वेदार्थस्य स्वयं ज्ञातस्यानुष्ठाता स्यादज्ञातस्य वापि, न तावदुत्तरः पक्षोऽतिप्रसंगात्, स्वयं ज्ञातस्य चेत्, परस्पराश्रयः सति वेदार्थस्य ज्ञाने तदनुष्ठानाददृष्टविशेषः सति वादृष्टविशेषे स्वयं वेदार्थस्य परिज्ञानमिति ।
मनु आदिक ऋषियोंने अपने पूर्व जन्ममै वेदका अच्छी तरहसे अभ्यास किया है, अतः इस जन्म में उनको वेदके अर्थका चमत्कार स्मरण है यदि आप मीमांसक ऐसा कहोगे सो हमारा प्रश्न है कि मनु महाराजने पूर्वजन्म में वेदका अभ्यास स्वयं अपने आप किया था ! या अन्य किसी गुरुकी सहायता से बताओ । यदि स्वतः ही अभ्यास किया मानोगे तो सभी मनुष्यों को वेदका स्मरण मानना पड़ेगा | स्वतः ही वेदका अध्ययन तो सब जीवोंको विनामूल्य ( सस्ता ) पडता है, अतः सभी वेदज्ञ माने जायेंगे, एक मनु आदिमें ही क्या विशेषता है ? स्वतः प्राप्त हुआ पदार्थ आकाश के समान सर्वत्र केवलान्वयी है। यदि आप मीमांसक यह कहोगे कि मनु, याज्ञवल्क, जैमिनि ऋषियोंको अपने पूर्व जन्म में विलक्षण पुण्य प्राप्त था । अतः उनको ही अपने आप वेदका पूर्ण अभ्यास पुण्यवश हुआ | इतर सर्व जीवोंको तादृश पुण्यविशेष न होनेसे वेदार्थका ज्ञानाभ्यास
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सवाचिन्तामणिः
नहीं होता है। अनेक विद्यार्थियों में कोई कोई छात्र अपने अदृष्टके अनुसार ग्रंथके अन्तस्तलपर पहुंचते हैं, समी नहीं। ऐसा कहनेपर हम जैन पंछते हैं कि वेदज्ञानके अभ्यासका कारण वैसा विशिष्ट पुण्य इन मनु आदिको ही क्यों प्राप्त हुआ ! अन्य लोगोंको प्राप्त हो जाय इसमें क्या कोई पाषा है ! यदि आप यहां यह कहोगे कि अपने पूर्वके जन्मों में मनु, जैमिनि, ऋषियोंने ही वैसा वेदके अर्थोका अनुष्ठान किया भा अर्थात् वेदकी बतलायी हुयी यज्ञ, पूजन, होम आदि क्रियाओंका आचरण किया था, अतः उनको ही वैसा पुण्य प्राप्त हुआ । सब जीवोंने वेदज्ञानके उपयोगी उन काँका आचरण नहीं किया था, अतः पूर्वजन्ममें उपार्जित पुण्य न होनेसे वे वेदार्थके ज्ञाता न बन सके । इसपर हम जैन आपके ऊपर दो पक्ष उठाते हैं कि पूर्व जन्मों में उन चुने । खास ) ऋषियोने वेदके अर्थको जानकर वेदविहित मोतियोग, गायन, आणि कौल अनुष्ठान किया था, या विना जाने हुए भी वेदके अर्थका अंटसंट अनुष्ठान किया था ? बताओ । विना जानकर वेदमें विधान किये गये कर्मोंका आचरण करनारूप दूसरा पक्ष तो आपका युक्त नहीं है । क्योंकि वेदके विना जाने चाहे जैसे कर्म करनेवालेको विशिष्ट. पुण्य मिल जाय, तब तो हर एकको सुलमरूपसे वह पुण्य प्राप्त हो जावेगा । यह मर्यादित अर्थको अतिक्रमण करनेवाला अतिप्रसंग दोष हुआ । इस दोषके दूर करनेके लिये आप पहिला पक्ष स्वीकार करेंगे अर्थात् वेदके अर्थको अपने आप जानकर ही मनु, जैमिनि बादि ऋषियोंने वेदम लिखे हुए कमाका इष्ट साधन अनुष्ठान किया था। अतः उनसे उनको पुण्य मिला । आपके इस पक्षमें तो अन्योन्याश्रय दोष आता है । जैसे कि एक गुजराती ताला है, वह विना तालीके भी लग जाता है। किंतु ताली बिना खुलता नहीं है। यदि ताशी मकानके भीतर पड़ी रही और किसी भद्रपुरुषने बाहिरसे ताला लगा दिया, अब ताला कैसे खुले ! यहां अन्योन्याश्रय दोष है कि साला कब खुले ! जन कि ताली मिल जाय और ताली कब मिले जब ताला खुल जाय । ताला खुलना ताली मिलनेके अधीन है और साली मिलना ताला खुलनेके अधीन है। इसी प्रकार यहां परस्पराश्रय दोष है कि जब वेदके अर्थका ज्ञान होजाय तब तो वेदको जानकर यज्ञ आदि काँका अनुष्ठान करके विलक्षण पुण्य पैदा हो और जब विलक्षण पुण्य हो जाय, तब उस विशिष्ट पुण्यसे मनु आदि ही वेदके अर्थका स्वयं ज्ञानाभ्यास करे, अर्थात् वेदके जाननेमें पुण्य विशेषकी आवश्यकता है और पुण्य की प्राप्तिमें वेदके जाननेकी जरूरत है। ऐसे अन्योन्याश्रय दोषवाले कार्य होते नहीं हैं। ____मन्वादेर्वेदाभ्यासोन्यत एवेति चेत् , स कोऽन्यः १ ब्रह्मेति चेत् , तस्य कुतो वेदार्थज्ञानम् ? धर्मविशेषादिति चेत् स एवान्योन्याश्रयः । वेदार्थपरिज्ञानाभावे तत्पूर्वकानुष्ठानजनितधर्मविशेषानुत्पती वेदार्थपरिज्ञानायोगादिति ।
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तत्त्वार्षचिन्तामणिः
मीमांसकोंसे पूर्वम हमने पूंछा था कि मनु आदिकको पूर्व जन्म श्रुतियोंका अभ्यास अपने आप था या अन्य गुरुओंसे प्राप्त हुआ था ! उनको प्रथमपसका मुण्डन किया जाचका है। अब यदि आप दूसरा पक्ष लोगे कि असर्वज्ञ मनु आदि मुनिओंको चारों वेदोंके ब्राह्मणभाग और उपनिषद् अंशोंका ज्ञान अन्य महात्माओंसे ही हुआ है, यहां हम पूंछते हैं कि वह अन्य महात्मा कौन है ? यदि आप चतुर्मुख ब्रह्माको मनु आदिका गुरु मानोगे तो फिर हम जैन कहेंगे कि उस ब्रह्माको ऊनादिकालीन वेदोंके अर्थका ज्ञान किससे हुआ ? बताओ, यदि ब्रह्माको अतिशययुक्त पुण्यसे वेदका ज्ञान विना गुरुके स्वतः ही मानोगे यों तो पूर्वके समान घुनः वहीं अन्योन्याश्रयदोष लगेगा, क्योंकि वेदके अर्थको पूर्ण रूपसे जाने बिना उस ज्ञानपूर्वक यज्ञ आदि अनुष्ठानोंसे पैदा होनेवाला पुण्यविशेष उत्पन्न न होगा और जब पुण्य पैदा न होगा तो उस पुण्यके विना वेदने अर्थका ब्रह्माको परिज्ञान नहीं हो सकेगा। यहांतक आचार्योने मीमांसफकी मीमांसाका निराकरण कर दिया। ' स्यान्मत सहस्रशाखो वेदः स्वर्गलोके ब्रह्मणाधीयते चिरं, पुनस्ततोऽवतीर्य मत्यै मन्दादिभ्यः प्रकाश्यते, पुनः स्वर्ग गत्वा चिरमधीयते, पुनर्मोवतीर्णेभ्यो मन्वादिभ्योऽ बतीर्य प्रकाश्यत इत्यनाधनन्तो ब्रह्ममन्दादिसन्तानो वेदार्थविप्रतिपत्तिनिराकरणसमर्थोऽन्धपरम्परामपि परिहरतीति वेदे तव्याहत। सर्वपुरुषाणां अतीन्द्रियार्थज्ञानविकलत्वोपगमाद्रखादेरतीन्द्रियार्थज्ञानायोगात् ।
उक्त प्रकार मीमांसकोंका पक्ष गिरनेपर वे यह कहकर संभलना चाहते हैं कि हमारा मत ऐसा है। सो यह भी आपका मन्तव्य होय कि यद्यपि वेद एक है किंतु उसकी हजारों शाखाएं है, स्वर्ग असा वेदको बहुत दिनतक पढते हैं फिर वहाँसे अवतार लेकर वे मनुष्यलोकमें मनु आदि भाषिओं के लिये वेदका प्रकाशन किया करते हैं फिर ब्रा वर्गको चले जाते हैं और वहां हजारों वर्षसक वेदका स्मरण, चिंतन, अभ्यास, करते हैं । पुनः स्वर्गसे उतर कर मनुष्यलोकमे पुनः अवतार हेनेवाले उन्हीं मनु आदि ऋषिओंको वेदज्ञानका प्रकाश करते हैं। वे मनु आदि ऋषीश्वर उन उन समयों में अनेक जीवोंको वेदज्ञान करा देते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मा और मनु आदि ऋषियोंकी धारा अनादिकालसे अनंत काल तक चली जाती है। वह उन समयमि होनेवाले वेदार्थके विवादोंको भी दूर कर देने में समर्थ हैं और ऐसा माननेसे वेदमें अंधपरम्परा-दोषका भी वारण होजाता है। अब आचार्य कहते हैं कि, मीमांसकोंके उसकथनमें वदतो व्याघातदोष आता है, जैसे कोई मनुष्य नोरसे चिलाकर कहे कि मैं चुप बैठा है उसके वक्तव्यमें उसीके कयनसे बाघा पहुंचती है, इसी प्रकार मीमांसक वेदका अध्यापन, प्रकाशन सर्वज्ञके द्वारा मानते नहीं है, विना कारण विवादोंका दूर करना और अन्धपरम्पराका निवारण करना वेदमे स्वीकार करते हैं, इस कथनमें अपने आपही बाधा डालनेवाला कोर है, आप मीमांसकोंने सर्व ही पुरुषोंको अतीन्द्रिय पदार्थोके ज्ञान से रहित माना है। ब्रह्मा,मनु,
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तत्वार्थ चिन्तामणिः
बृहस्पति, जैमिनी आदिको भी सूक्ष्म आकाश, पुण्य, पाप, परमाणुओंका ज्ञान होना नहीं बन सकता है, तो फिर स्वर्ग में क्या पढा किससे पढा ! कथानक है कि की स्वर्ग चली जाय तो वहां भी धान ही कूटेगी ।
चोदनाजनितमतीन्द्रियार्थज्ञानं पुंसोऽभ्युपेयते चेत्, योगिप्रत्यक्षेण कोऽपराधः कृतः । याज्ञिक कहते हैं कि यजेत, पचेत्, जुहुयात् अर्थात् पूजा करे, पकावे, हवन करे ऐसे व्याकरण विधिलिङ् लकारका अर्थ प्रेरणा होता है, ऐसे प्रेरणा करनेवाले वेदके अनेक वाक्योंसे उत्पन्न हुआ मनु आदि पुरुषोंके इन्द्रियोंसे न जाने जावें ऐसे परमाणु, पुण्य पाप, स्त्रर्न, मोक्ष आदि अर्थोका ज्ञान हम मानते ही हैं, आगमसे अतीन्द्रिय पदार्थोंका जानना हमको इष्ट है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि आप मीमांसक यह कहेंगे तब तो योगियोंके प्रत्यक्षने कौन अपराध किया है ? ज्ञानमें आगमद्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों के जाननेका अतिशय तो आपको मानना ही पड़ा है, वैसे ही सर्वज्ञ भी अपने केवलज्ञानरूपी प्रत्यक्षसे इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिसे रहित अतीन्द्रिय अथको भी जान लेते हैं, यह मान लेना चाहिये ।
तदन्तेरणापि हेयोपादेयतध्वनिश्वयात् किमस्यादृष्टस्य कल्पनयेति चेत् ब्रह्मांदेखीन्द्रियार्थज्ञानस्य किमिति दृष्टस्य कल्पना ?
अब मीमांसक कहते हैं कि अभक्ष्यभक्षण, पाप, व्यभिचार, मिथ्याज्ञान आदि छोडने योग्य पदार्थोंका और भेदविज्ञान, सत्य ज्योतिष्टोम यांग, स्वर्ग, मोक्ष आदि ग्रहण करने योग्य तत्वोंका ज्ञान हमको आकांक्षित है। उस सर्वज्ञके बिना भी ऐसे हेय और उपादेय पदार्थों का निश्चय हमको वेदके द्वारा हो ही जाता है फिर किसीको भी कमी देखने में न आवै ऐसे सर्वज्ञके इस केवलज्ञानकी कल्पनासे क्या लाभ है ? अंधकार समझते हैं कि यदि मीमांसक यह कहेंगे तो हम कहते हैं कि आपने ब्रह्मा, मनु आदिको अतीन्द्रियज्ञान माना है। यह क्या आपने देखे हुए अतीन्द्रि ज्ञानकी कल्पना की है ? भावार्थ - यह भी तो अष्टपदार्थकी ही कल्पना है ।
सम्भाव्यमानस्य चेत् योगिप्रत्यक्षस्य किमसम्भावना ? यथैव हि शास्त्रार्थस्याक्षाद्यगोचरस्य परिज्ञानं केषांचिद्दृष्टमिति ब्रह्मादेर्वेदार्थस्य ज्ञानं तादृशस्य सम्मान्यते तथा केवलज्ञानमपीति निवेद यिष्यते ।
यदि आप मीमांसक यहां यह कहोगे कि मनु आदिके अतींद्रियज्ञानकी देखे हुए की कल्पना न सही किन्तु अर्थापत्ति प्रमाणसे जिसकी संभावना की जा सके ऐसे ज्ञान को हमने माना है भावार्थ-सम्भावित पदार्थको हम स्वीकार करते हैं यों कहनेवर तो यहां हम कहते हैं कि केवलज्ञानियोंके अतीन्द्रिय प्रत्यक्षकी क्या सम्भावना नहीं हैं ? अर्थात् मनु आदिके ज्ञानमें जैसे आगम
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तत्त्वाचिन्तामणिः
द्वारा परोक्ष अर्थोके जाननेका अलिश है । उसी प्रकार सर्वज्ञके ज्ञानमें स्वतः ही त्रिकाल त्रिलोक पदार्थों का प्रत्यक्ष कर लेना रूप चमत्कार है इस बात को हम भी अनुमानसे जानते हैं । जैसे ही कि आप मानते हैं कि इंटिय, हेतु, अर्थापत्ति और अभाव प्रमाणसे न जानने में भावे ऐसे शाखोमें कहे गये अतीन्द्रियपदार्थोंका बढ़िया आगमज्ञान किन्हीं किन्हीं तैसे विद्वानों में देखा गया है । अतः आविगुरु ब्रह्मा, मनु, आदिको भी इन्द्रियप्रत्यक्ष, अनुमान, अर्थापति और अभावप्रमाणोंसे न जाने जावें ऐसे वेदविषय उन सदृश पदार्थोंका ज्ञान अवश्य सम्भावनीय है । भावार्थ - अर्थीपत्ति प्रमाणसे आप अतीन्द्रियज्ञानीको सिद्ध करेंगे, उसी प्रकार इम जैन भी कहते हैं कि अनेक आचार्य और विद्वानोंको पुण्य, पाप, स्वर्ग, मोक्ष, आत्मा, मेदविज्ञान, सुमेरुपर्वत आदिका ज्ञान है, ह आदि उन पदार्थों के प्रत्यक्षदर्शी सर्व के विना नहीं हो सकता है । अतः केवलज्ञान भी मानना चाहिए अर्थात् अनुमान प्रमाणसे हम भी केवलज्ञानीको सिद्ध करते हैं । इस बातको भविष्य अधिक स्पष्टरूप से आपके प्रति निवेदन कर देवेंगे । विश्वास रखिये ।
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ततः सकलागमार्थविदामिव सर्वविदां प्रमाण सिद्धत्वान्नानुपलभ्यमानानां परिकल्पना, नापि तैर्विनैव हेयोपादेयतत्त्वनिर्णयः, सकलार्थविशेषसाक्षात्करणमन्तरण कस्यचिदर्थस्या क्षूणविधानायोगात् ।
उस कारण अबतक सिद्ध हुआ कि आगमप्रमाण के द्वारा संपूर्ण पदार्थों के जाननेवाले श्रद्मा, मनु आदि विद्वान् जिस तरह आपके यहां प्रमाणसे सिद्ध हैं, उन्हींके समान सर्व प्रमेयोंको केवलज्ञानसे जाननेवाले सर्वज्ञ भी पुष्ट प्रमाणोंसे प्रसिद्ध हैं । अतः अतींद्रिय प्रत्यक्षसे सर्वको जाननेशले सर्वज्ञका मानना निश्चित किये हुओंका ही हैं। प्रमाणसे नहीं जाने गये हुओं की कल्पना नहीं है । जैनविद्वान् नहीं जानने योग्य पदार्थों को स्वीकार नहीं करते हैं और विना उन सर्वेज्ञके माने हो आत्मा, पुण्य, पाप, नरक, स्वर्ग आदि हेय और उपादेय पदार्थों का निश्चय भी नहीं हो सकता है, क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थोंका विशेष विशदरूपसे प्रत्यक्ष किये बिना आत्मा, परमात्मा परमाणु, अद्दष्ट, आदि किसी भी अर्थका निर्दोष रूपसे विधान नहीं हो सकता है । वीतराग, हितोपदेशक, सर्वज्ञ ही तत्रोंकी विधि करता है ! अन्यके यह योग नहीं है ।
सामान्यतस्तच्वोपदेशस्याक्षूणविधानमाम्नायादेवेति चेत् तनुमानादेव तथाtrafa किमागमप्रामाण्यसाधनायासेन ।
मतिबादी कहता है कि अनुमान और आगम प्रमाणोंसे पदार्थों का ज्ञान विशब्दरूप से नहीं होता है किंतु सामान्यरूप से होता है। जैसे कि अभिको आवाश्य या धूमसे जाननेपर अभिके त्र, खैर, आमकी लकड़ीकी यह आग है, इतनी लम्बी चौड़ी है आदि विशेष अंशोंको हम नहीं
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वयार्थचिन्तामणिः
जान सकते हैं। विशेष अंशोंका विशदरूपसे ज्ञान होना प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही मानते हैं किंतु संपूर्व अतीन्द्रियदाको प्रत्यक्षरूपसे जाननेवाले जीव संसारमें नहीं है । हम किसी भी पुरुषके न चनाये हुए वेदको अनादि मानते हैं। आकाश, आत्मा, पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरकके सामान्य रूपसे जानकी हमको आकांक्षा है । अनादिकालीन वेदके द्वारा ही सामान्यरूप से अतीन्द्रियतत्त्वों के उपदेशका निर्दोष सम्पूर्ण विधि विधान होता है । ग्रंथकारका निरूपण है कि यदि मीमांसक ऐसा करेंगे तो हम कहते हैं कि तब तो आप वेदको आगमप्रमाणरूप साधनका परिश्रम भी क्यों करते हैं । अनुमानसे उन अतीन्द्रिय पदार्थोंका ऐसा समान्यरूपसे ज्ञान हो जावो, “सम्पूर्ण पदार्थ अनेकांतात्मक हैं सत्स्वरूप होनेसे । तथा सर्व चराचर वस्तुएँ प्रकृति और पुरुष स्त्ररूप हैं प्रमेय होनेसे " । इत्यादि अनुमानोंके द्वारा हम सर्व जीवादि पदार्थों को जान ही लेते हैं । अतः सामान्य रूपसे जानने में वेदकी कोई उपयोगिता सिद्ध नहीं है ।
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प्रत्यक्षानुमानाविषयत्व निर्णयां नागमाद्विनेति तत्प्रामाण्यसाधने प्रत्यक्षानुमानागमाविषयत्वविशेष निश्चयोऽपि न केवलज्ञानाद्विनेति तत्प्रामाण्यं किं न साध्यते ।
यदि आप मीमांसक यह कहेंगे कि जिन प्रमेयों को हम लोगों के प्रत्यक्ष और अनुमान नहीं जान सकते हैं ऐसे स्वर्ग, अदृष्ट, देवता आदि पदार्थोंका जानना वेदरूप आगमके विना नहीं होवेगा । इस कारण वेदरूप आगमका प्रमाणपना हम सिद्ध करते हैं ऐसा कहनेपर हम जैन भी कहते हैं कि जिन अत्यंत परोक्षतत्वों में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणोंकी गति नहीं है ऐसे धर्मद्रव्य, कालाणुएँ, सूक्ष्म पर्यायें, और अत्रिभाग प्रतिच्छेद आदि विषयोंका निर्णय करना भी केवलज्ञान के बिना नहीं होसकता है । अर्थात् अत्यंत सूक्ष्म तत्वोंके जानने में हमारी इन्द्रियाँ भी समर्थ नहीं हैं तथा उन तत्वोंके साथ अविनाभाव रखनेवाला कोई हेतु भी नहीं है और किसी वक्त के द्वारा संकेतग्रहण करके शब्दद्वारा जाननेका भी प्रकरण प्राप्त नहीं है ऐसे सूक्ष्म, देशांतरित और कालांतरित पदार्थोंको जाननेवाले केवलज्ञानको प्रमाणपना क्यों नहीं सिद्ध किया जावेगा ? अर्थात् अवश्य सिद्ध किया जावेगा ।
न हि तृतीयस्थानसंक्रान्तार्थ भेद निर्णयासम्भवे ऽनुमेयार्थनिर्णयो नोपपद्यत इत्यागमगम्यार्थ निश्चयस्तत्त्वोपदेशहेतुर्न पुनश्चतुर्थस्थानसंक्रान्तार्थनिश्वयोऽपीति युक्तं वक्तुं तदा केवलज्ञानासम्भवे तदर्थनिश्चयायोगात् ।
इसपर मीमांसक यदि यह कहेंगे कि हमारे यहां यद्यपि प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थात और अमान ये छत्र प्रमाण माने हैं किन्तु उनमें तीन प्रथमके प्रधान हैं । तिनमें प्रत्यक्षगम्य घट, पर, गृह आदिकको तो हम पहिले प्रत्यक्षप्रमाणसे जानना मानते हैं और धूमहेतुके
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वार्थचिन्तामणिः
द्वारा वह्नि तथा प्रत्यभिज्ञानके विषयपनेसे शब्दका नित्यत्व आदिको दूसरे अनुमानप्रमाणसे सिद्ध करते हैं तथा स्वर्ग, देवता, अदृष्ट आदिको तृतीयस्थान में पडे हुए आगमप्रमाण से सिद्ध करते हैं। अनेक पर्यायोंको आगमके द्वारा जानकर पश्चात् तर्क लगाकर अनुमानसे भी निर्णय कर लिया जाता है । ऐसी दशा उस अनुमेयका मूलज्ञापक कारण आगमप्रमाण ही माना जाता है। तीसरे स्थान पढे हुए आगमसे जानने योग्य भिन्न भिन्न पदार्थोंके निर्णय किये विना किसी किसी अनुमानसे जानने योग्य - लायक, उन अतीन्द्रिय अथका निश्चय होना नहीं बन सकता है । इस कारण वेदरूप आगमसे जानने लायक अर्थका निश्चय करना तो तत्वोंके उपदेशकी प्राप्तिमे कारण है किन्तु जैनोंसे माने गये प्रत्यक्ष अनुमान और आगमप्रमाणसे अतिरिक्त केवलज्ञानहीसे जानने योग्य चौथे स्थान प्राप्त हुए अत्यन्त परोक्ष अर्थोंका निश्चय करना तत्त्वोपदेश की प्राप्ति में कारण नहीं है इस प्रकार मीमांसकोंका कहना उचित युक्तिसहित नहीं है । ( पहिले नाहीका अन्वय युक्तके साथ है ) क्योंकि आपके कथनानुसार जैसे तीसरे आगमप्रमाणके द्वारा अर्थका निर्णय किये विना परमाणु आदि अनुमेय अर्थोका निश्चय नहीं हो सकता है, उसी प्रकार चौथे केवलज्ञानके न स्वीकार करनेपर पुण्य, पाप, स्वर्ग, मोक्ष, सुमेरु, राम, रावण आदिक आगमसे जानने योग्य पदार्थोंका भी निर्णय नहीं हो सकेगा अर्थात् जैसे आप अनुमानका मूल कारण अपौरुषेय आगम - वेदको मानते हैं उसी प्रकार आपको अनुमान और आगम प्रमाणका मूलकारण सर्वज्ञका प्रत्यक्ष मानना पडेगा ।
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न च चोदनाविषयमतिक्रान्तश्चतुर्थस्थानसंक्रान्तः कश्विदर्थविशेषो न विद्यत एवेति युक्तम्, सर्वार्थविशेषाणां चोदनया विषयीकर्तुमशक्तेस्तस्याः सामान्यभेदविषयत्वात् ।
यदि मीमांसक यहां यह कहे कि तीन लोक और तीनों कालके सम्पूर्ण पदार्थ प्रेरणा करनेवाले वेदके लिङन्त वाक्योंसे ही ज्ञात हो जाते हैं, केवलज्ञानसे जानने योग्य इनका अतिक्रमण कर चुका चौथे स्थानमें पड़ा हुआ कोई पदार्थ ही विद्यमान नहीं है, जो कि वेदके विषयसे अतिरिक्त माना जावे अर्थात् तीसरे आगमसे जानने योग्य पदार्थों में ही सम्पूर्ण पदार्थ गर्भित हो जाते हैं, सर्वज्ञ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से जानने योग्य कोई पदार्थ बचा हुआ नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकोका प्रतिवाद मी युक्ति शून्य है। उनका यह कथन समुचित नहीं है कारण कि सम्पूर्ण पदार्थोंके विशेष विशेषांशोंका वेदवाक्योंके द्वारा विशदरूपसे निश्चय करना शक्य नहीं है। क्योंकि विधिलिङ् लकारकी क्रियावाले वेदवाक्योंसे अतीन्द्रियपदार्थों का सामान्यरूपसे ही भिन्न भिन्न ज्ञान होता है, सम्पूर्ण अर्थपर्यायोंसे सहित पदार्थोंका विशद ज्ञान नहीं हो पाता है ।
ततोऽशेषार्थविशेषाणां साक्षात्करणभ्रमः प्रवचनस्याद्यो व्याख्याताभ्युपेयस्तद्विनेय
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सस्वार्थचिन्तामणिः
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.............naurum.05.-
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मुख्यश्च सकलागमार्थस्य परिच्छेदीति तत्संप्रदायाव्यवच्छेदादविरुद्धात्सिद्धोऽस्मदादेरागमार्थनिश्चयो न पुनरपौरुषेयागमसंप्रदायाव्यवच्छेदाचसूक्तमागमः प्रमाणमिदं मूत्रमिति।
___ उस हेतुसे अब तक सिद्ध हुआ कि गुण,पर्याय, अविभागप्रतिच्छेदवाले सम्पूर्ण पदार्थोके विशेष विशेषांशोंको विशदरूपसे प्रत्यक्ष करनेमें समर्थ और शास्त्रों के प्रमेय अर्थका आदिकालमै विधाता होकर व्याख्यान करना चाहिये, और वहीं उस समयमै होनेवाले अनेक गणधर आदिक प्रतिपाद्य ऋषियोंका मुखिया है, तथा सम्पूर्ण आगमके अर्थका उपज्ञ ' आद्यज्ञान ) ज्ञान धारी है । इस प्रकार ऐसे उस सर्वज्ञकी आम्नायके न टूटनेमें आज तक कोई विरोध नहीं है, इस कारण हम आदिक लोगोंको भी उस सर्वज्ञसे कहे गये आगमके अर्थका निर्णय सिद्ध होचुका । किंतु फिर मीमांसकोंसे माने गये किसी पुरुषके द्वारा न किये हुए वेदरूप आगमकी आम्नाय न टूटनेसे अंधपरम्पराके समान विद्वानोंको आज तक अर्थका निर्णय नहीं होसकता है। तभी तो हमने पहिले बहुत अच्छा कहा था कि यह " सम्बन्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " सूत्र आगमप्रमाणस्वरूप है । यहां तक मीमांसकोंके साथ विचार होचुका है।
ननु च सन्नप्याप्सः प्रवचनस्य प्रणेसास्येति ज्ञातुमशक्यस्तन्यापारादेय॑भिचारित्वाद, सुरागा अपि हि वीतरागा इव चेष्टन्ते वीतरागाश्च सरागा इवेति कश्चित् ।
अब आगमको पमाण न माननेवाले बौद्धोंकी शंका है कि जैनों के कहनेसे थोडी देरके लिये यदि आस मान भी लिया जाय किंतु वह आस इस शास्त्रका अर्थरूपसे बनानेवाला है, यह तो कैसे भी नहीं जाना जासकता है, क्योंकि सर्वज्ञ वीतरागके साथ अविनाभाव रखनेवाले व्यापार, वचन, और चेष्टा आदि हेतुओंका व्यभिचार देखा जाता है। देखिये संसारमें अनेकरागवान् बकभक्त पुरुष दिखाऊ वीतरागोंके समान आचरण करते हैं, और कोई कोई रागद्वेषरहित भी सज्जन रामियोंकेसमान चेष्टा करते हुए देखे गये हैं, अतः वीतराग सर्पज्ञको जानने के लिये कोई कसौटी हमारेपास नहीं है, ऐसा कोई बुद्धमतानुयायी कह रहा है ।
सोऽप्यसम्बन्धप्रलापी, सरागत्ववीतरागत्वनिश्चयस्य कचिदसम्भवे तथा वक्तुमशक्तेः, स्रोऽयं वीवरागं सरागवच्चेष्टमानं कश्चिनिश्चिन्वन् वीतरागनिश्चयं प्रतिक्षिपतीति कथमप्रमत्तः ।
उक्त शंका करनेवाला वह बौद्धभी विना संबंध के बकवाद कर रहा है, स्वयं अपने वक्तव्य के पूर्वापरविरोधका मी इसको विचार नहीं है । जिस पुरुषको सरागपने और वीतरागपनेका कहीं भी निश्चय संभव नहीं है, वह सिलबिल्ला ऐसा मनुष्य उस प्रकार इस बातको नहीं कह सकता है कि रागीजन भी बीतराम साधुओंकीसी चेष्टा करते देखे गये हैं और वीतराग मुनि भी शिष्योंके
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तत्त्वाणचिन्तामणिः
प्रायश्चित्त देने तथा पढानेमें और कभी धर्मप्रभावनाके समय रागियोंकीसी क्रियाएं करते हैं, जो ईस और सारसके भेदको जानता है, वहीं इनकी कुछ समान क्रियाओंका निरूपण कर सकता है, जब कि यह बौद्ध किसी भी तरह यह निश्चय कर रहा है कि रागरहित महात्मा भी रागीके समान चेष्टा करता है, तो इस बौद्धको शुद्ध वीतरागका निश्चय अवश्य है, यदि ऐसी दशा में भी वीतरागके निश्चय करनेका यह छलसे खण्डन कर रहा है तो इसको मद्यपायीके समान प्रमादी क्यों न कहा जाय ।
स्वयमात्मानं कदाचिद्वीतरागं सरागवञ्चेष्टमान संवेदयते न पुनः परमिति चेत्, कुतः सुगतसंवितिः कार्यानुमानादिति चेत् न, तत्कार्यस्य व्याहारादेव्यभिचारित्ववचनात् ।
___ यहाँ बौद्ध कहता है कि मैं स्वयं कभी कमी रागरहित अवस्थामें अपनेको रागीके समान चेष्टा करता हुआ जानता हूं अतः मैंने अपनेमें व्याप्ति ग्रहण कर वीतरागको सरामके समान चेष्टा करता हुआ कह दिया था किन्तु हमारे पास दूसरे अतीन्द्रिय आत्माओंके जाननेका कोई उपाय नहीं है। इस कारण धीतराग आत्माका निश्चय नहीं हो सकता है । बौद्धोंके ऐसे कहनेपर हम जैन पूंछते हैं कि आपको अपने इष्टदेवता बुद्धका ज्ञान कैसे होता है ? इताओ यदि ज्ञानसन्तानरूप बुद्धके उपदेश देना, भावना भाना, आदि कार्यका ज्ञापक हेतुसे कारणस्वरूप बुद्ध साध्यका अनुमान करोगे ! यह तो ठीक नहीं है क्योंकि उस बुद्धके चेष्टा, वचम बोलना उपदेश देना, जीवोंपर कृपा करना आदि माने गये कार्योंका भी व्यभिचार हुआ कहा जाता है। आपके कथनानुसार ही बुद्धको उक्त क्रियाएँ रागी मूखोंमें भी देखी जाती हैं, एसी मोली बुद्धपनेकी प्रकृतिवाले पुरुष तो रत्न, फाच और पीतल सुवर्णका भी निर्णय नहीं कर सकेंगे।
विप्रकृष्टस्वभावस्य सुगतस्य नास्तित्वं प्रतिक्षिप्यते बाधकामावान्न तु तदस्तित्वनिश्चयः क्रियत इति चेत् कथमनिश्चितसशाकः स्तुत्यः प्रेक्षावतामिति साचये नश्वेतः ! कथं वा सन्तानान्तरक्षणस्थितिस्वर्गप्रापणशक्त्यादेः सत्तानिश्चयः स्वभावविप्रकृष्टस्य क्रियेत ? तदकरप्पे सर्वत्र संशयान्माभिमतत्वनिश्चयः ।
हम बौद्ध सुगतको सिद्ध करनेवाले अनुमानसे हम लोगोंके प्रत्यक्षसे न जानने आवे ऐसे अतीन्द्रिय व्यवहित स्वभाववाले सुगतकी सत्ता सिद्ध नहीं करते हैं, किन्तु अनुमानके द्वारा साध्य विषयों पढे हुए नास्तित्वकी ओर झुकानेवाले संशय, विपर्यय और अज्ञानरूप समारोपका केवल वडन किया जाता है । प्रकृतमें भी कालका व्यवधान पड जानेके कारण सुगतका न होना लोग मान लेते हैं, अतः उस सुगतकी सत्ताका कोई बाधक प्रमाण न होनेसे बुद्धफे नास्तिस्वपनेका हम अनुमान द्वारा खण्डन कर देते हैं । उस सुगतके अस्तिपनेका निश्चय अनुमानसे नहीं किया जाता है
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कारण कि अनुमान प्रमाण परमार्थभूत वस्तुको जानता नहीं है, क्षणिकत्व, सुगतसत्ता, आदि में पडे हुए समारोपोंको केवल दूर करता रहता है, आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो हम पूंछते हैं कि जिस सुगलकी सत्ता काही निश्चय नहीं है विचारशील पुरुष ऐसे असत् पदार्थकी स्तुति कैसे करते हैं ? इस बातका हमारे चित्तमें बड़ा भारी आश्चर्य है । भावार्थ - अनेक बौद्ध विद्वानोंने आदि अद्याप अनिर्णीत सुगत देवताकी स्तुति क्यों की है ? तथा यदि आप बौद्ध दम लोगों के प्रत्यक्ष, अनुमान से न जानने योग्य ऐसे सूक्ष्म परमाणु, देशान्तरित, और कालान्तरित, पदार्थों का निश्चय नहीं कर सकते हैं तो स्वयं मानी हुयी देवदत्त, जिनदत्त आदिकी ज्ञानसन्तानों को तथा पदार्थोंकी क्षणिकत्वशक्ति और अहिंसा, दान करनेवालोंकी स्वर्ग में पहुंचने की शक्ति आदिकी सत्ताका निश्चय कैसे कर सकोगे ! वे उक्त पदार्थ भी तो अतीन्द्रिय स्वभाववाले हैं और इसी प्रकार कहीं भी निश्चय न करनेपर तो सम्पूर्ण पदार्थों में आपको संशय रहेगा अतः ऐसी दशामें आप सौत्रान्तिकोंको अपने अभीष्ट स्वलक्षण, विज्ञान, क्षणिकत्व, आदि तत्त्वों का निश्चय भी न हो सकेगा !
संवेदनाद्वैतमत एव श्रेयस्तस्यैव सुगतत्वात् संस्तुत्यतोपपत्तेरित्यपरः ।
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यहां योगाचार बौद्ध कहता है कि बहिरंग घट, पट, स्वलक्षण, संतानान्तर आदि पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकते हैं । इसीसे तो हम समीचीन ज्ञानपरमाणुओंका ही अद्वैत मानते हैं । जैसे स्वम मिथ्यावासनाओं के कारण समुद्र, नगर, घन आदिके ज्ञान होते हैं किंतु वहां ज्ञानके सिवाय पदार्थ कोई वस्तुभूत नहीं माना हैं । उसी प्रकार जागते समय घट, पट, आदिके ज्ञान भी कल्पित पदार्थों को विषय करते हैं। वस्तुतः संवेदनके अतिरिक्त संसार में कोई वस्तु नहीं है। वही अकेले संवेदना मंतव्य मानना कल्याण करनेवाला है और वही वास्तवमें बुद्ध भगवान् है इस कारण ग्रंथोंकी आदिमें सुगत शब्दसे संवेदनकी भले प्रकार स्तुति करना सिद्ध माना गया 1 इस प्रकार दूसरे योगाचार बौद्धका मत है ।
सोsपि यदि संवेद्याद्याकाररहितं निरंशक्षणिकवेदनं विप्रकृष्टखभावं क्रियाचदा न तत्सचासिद्धिः स्वयमुपलभ्यस्वभाव चेन तत्र विभ्रमः ।
बौद्धोंके चार मेद है, सौत्रान्तिक, योगाचार, वैभाषिक और माध्यमिक ये सर्व पदार्थों को क्षणनाशशील मानते हैं । बाहिरके स्वलक्षण आदि और अंतरंगके ज्ञान, इच्छा, आदि तत्वोंको सौत्रांतिक वस्तुभूत परमार्थ मानते हैं। योगाचार बहिरंग तत्त्वोंको न मानकर कल्पित पदार्थों के ज्ञान और वस्तुभूत ज्ञानके ज्ञानको स्वीकार करते हैं । वैमाषिक निरंश शुद्ध ज्ञानकोही स्वीकार करते हैं और माध्यमिक परिशेषमें शून्यवादपर झुक जाते हैं। यहां योगाचारने
अकेले संवेदन कोही तत्व
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
माना है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यदि बह योगाचार ज्ञानको जानने योग्य संवेद्य आकार तथा जाननेवाले संदः अंश और जाननामक संवित्ति अंश इन तीनों आकारोंसे रहित मानेगा और ऐसा क्षणभै नाशको प्राप्त होनेवाला अंशोंसे रहित वह संवेदन, प्रत्यक्ष, अनुमानसे जानने योग्य स्वभावोंसे दूरवर्ती रहता हुआ यदि किया जावेगा तो उस समय उस संवेदनकी सत्ता सिद्ध नहीं होसकती है । यदि योगाचार उस संवेदनको अपने आप जानने योग्य स्वभाववाला बतावेगा तो किसीको भी उसके ज्ञानमें भ्रांति नहीं होनी चाहिये ।
स्वयमुपलब्धस्यापि निश्चयाभावाद्विभ्रमः स्यादिति चेत्, कथमनिश्चित स्वतः सिद्ध नाम ? येन वरूपस्य खतो गतिर्व्यवसिष्ठतेति कार्य विष्ठेद्विप्रकृष्टसंशयवादी ? .. यदि योगाचार यहां यों कहें कि स्वयं जानने योग्य पदार्थका भी हम लोगोंको निर्विकल्पक ज्ञान हुआ है, निश्चयात्मक ज्ञान पैदा नहीं हुआ इस कारण लोगोंको भ्रम होजाता है । यों कहनेपर तो हम पूछते हैं कि जिस वस्तुका निश्चय नहीं है वह अकेली अपने आप ज्ञात होकर सिद्ध होजाती है यह कैसे कहा जाय ? जिससे कि आपके यहां संवेदनके स्वरूपका अपने आप ज्ञान होजाता है । यह ग्रंथका वाक्य व्यवस्थित होवे, अर्थात् जब ज्ञान ही का निश्चय नहीं है तो भला ज्ञानके स्वरूपकी बिना कारण अपने आप सिद्धि भी नहीं होसकेगी ऐसी अवस्थामे सराग और वीतरागका बौद्धोंको निर्णय नहीं है । परमाणु, आकाश, भूत, भविष्यत् कालकी वस्तुये और देशान्तर की चीजोंमें भी जिसको संशय ही है ऐसा सभी विप्रकृष्ट पदार्थो संशय बोलते रहनकी रेवको स्खनेवाला विचारा बौद्ध कहां ठहर सकता है ! जो संशयबादी खाद्य, पेय, पदामि तथा निकटवर्ती भूमि, पुत्र, गुरु, आदिकी शक्तियों में भी चलाकर अनिष्ट शक्तियोंका संशय करेगा। ऐसी दशामें क्षणिकवादीका क्षणमे नाश होना अनिवार्य है। . अनायविद्यातृष्णाक्षयादद्वयसंवेदने विभ्रमाभावो न निश्चयोत्पादात् सकलकल्पनाविकलत्वात्तस्येति चेत
बौद्धोंका सिद्धांत है कि ज्ञानाद्वैतके ज्ञान ध्रन न होने देनेका कारण अनादि कालसे लगे हुए मिथ्याज्ञान और तृष्णारूपी दोषोंका क्षय है । ज्ञान के विषय निश्चय उत्पन्न होनेसे संवेदन की सिद्धि हम नहीं मानते हैं क्योंकि निश्चयज्ञान निर्विकश्यक प्रत्यक्ष प्रमाणरूप नहीं है, अप्रमाण झानोंसे वस्तुभूत ज्ञानाद्वैतका बेदन और भ्रान्तिरहित व्य स्थापन नहीं होसकता है कारणकि वह परमार्थभूत अद्वैतसंवेरन संपूर्ण कल्पनाओंसे रहित है, अतः ज्ञानाद्वैतका ज्ञान भी निर्विकल्पक है। जैसा कारण होगा वैसा ही कार्य उत्पन्न होसकेगा, आचार्य कहते हैं कि यदि आप बौद्ध ऐस कहेंगे
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तत्वार्थचिन्तामणिः
सा विद्या तृष्णा च यद्युपलभ्यस्वभावा तदा न संवेदनाद्वैतं, तस्यास्ततोऽन्यस्याः प्रसिद्धेः । सानुपलभ्यखभावा चेत्, कुतस्तद्भावाभावनिश्चयो यतो द्वयसंवेदने विभ्रमाविभ्रमव्यवस्था |
तो हम आपसे पूंछते हैं कि वे आपकी मानी हुयी अद्वैतसंवेदन के जाननेमें बाधा डालनेवाली अविद्या और संकल्पविकल्पोंको करनेवाली वाञ्छाएँ यदि जानने योग्य स्वभावोंको धारण करती हैं, तब तो आपका केवल अकेले संवेदनकाही मानना नहीं होसकता है, कारण कि संवेदन समान अविद्या और तृष्णा भी दूसरे तीसरे पदार्थ संवेदनसे भिन्न सिद्ध होगये, क्योंकि वे भी जाने जारहे हैं ज्ञात हो रहे पदार्थका सद्भाव मानना पडता है | यदि आप अविद्या और तृष्णाको जानने योग्य स्वभाववाली नहीं मानोगे तो अविद्या और तृष्णा के सद्भाव तथा अभावका निर्णय कैसे होगा ? आपने अविद्या और तृष्णारूप दोषोंसे ज्ञानाद्वैतके जानने में भ्रान्ति होना माना है और अविद्या तृष्णाके विध्वंस होजानेपर ज्ञानाद्वैतकी भ्रांतिरहित जानने की व्यवस्था स्वीकार की है, जबकि वे दोनों दोष ज्ञानसे जानने योग्य ही नहीं हैं तो उनकी सत्ता और असत्ताका निर्णय कैसे हो सकता है ? जिससे कि संवेदनके जानने में झूट या सत्यकी व्यवस्थाकी जावे ।
निरंशसंवेदनसिद्धिरेवाविद्यातृष्णानिवृत्ति सिद्धिरित्यपि न सम्यक, विप्रकृष्टेरस्वभावयोरर्थयोरेकतरसिद्धावन्यतरसद्भाव सद्भाव सिद्धेरयोगात् कथमन्यथा व्याहारादिविशेषोपलम्भात्कस्यचिद्विज्ञानाद्यतिशयसद्भावो न सिद्धयेत् ।
बौद्ध कहते हैं कि जानने योग्य घट, पट, स्वलक्षण, परमाणु आदिका सम्बन्धी ग्राह्य अंश और जाननेवाला प्रमाण, प्रमातारूप ग्राहक अंश तथा ज्ञप्ति, प्रमितिरूप संवित्ति अंश इन तीनोंसे रहित शुद्ध संवेदन एक तत्वकी सिद्धि हो जाना ही अविद्या और तृष्णाके अभावकी सिद्धि है । जैसे घटरहित अकेले भूतलका जानना ही घटाभावका ज्ञान है । मन्थकार कहते हैं कि यह भी बौद्धों का कहना अच्छा नहीं है । कारण कि अत्यन्त परोक्ष और प्रत्यक्ष स्वभाववाले दो पदार्थो मैसे एककी सिद्धि होनेपर शेष दूसरेकी सच्चा या असता सिद्ध नहीं हो सकती है, जैसे परमाणु और घटमेंसे एकके जाननेपर शेष बच रहे दूसरेकी सत्ता या असत्ताका निश्चय नहीं हो सकता है, अन्यथा यदि आप संवेदनाद्वैत के जाननेसे ही अविद्या और तृष्णाका अभाव सिद्ध कर दोंगे अर्थाद अविनाभावी एक हेतुसे दूसरे अतीन्द्रियसाध्यका अनुमान कर लोंगे तो विशिष्ट वचनोंका उच्चारण, चेष्टा आदि कार्यों के जानने से किसी आत्मा के विज्ञान और वीतरागता आदि चमत्कारोंका विद्यमान होना क्यों नहीं सिद्ध होगा | जैनोंका अभीष्ट तत्त्व अवश्य सिद्ध हो जावेगा ॥
तदयं प्रतिपसा स्वस्मिन् व्याहारादिकार्ये रागित्वारागित्वयोः संकीर्णमुपलभ्य परत्र
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सत्वार्थचिन्तामणिः
रागित्वनियमाभावं साधयति न पुनररागित्वं रागित्वं चेति ब्रुवाणः परीक्षकत्वमभिमन्यत इति किमपि महाद्भुतम्।
उस कारण मदनकी सत्ता और अविद्या बाले लामाको मह बौद्ध अच्छी तरह जान रहा है और सराग वीतरागोंके जाननेमें संशय करता है, अपने अनुभव किये हुए वचन चेष्टा आदि कार्योंको रागसहितपने और वीतराग सहितपनेसे मिला जानकर पुनः दूसरे पुरुषोंमें केवल रागीपनेके नियमका अभाव तो सिद्ध करता है किन्तु वीतरागपन और रागीपनेके सद्भावका नियम नहीं मानसा है यों उक्त कहनेवाला बौद्ध अपने परीक्षकपनका अभिमान करता है, हमें तो यह कुछ भी एक बडा भारी आश्चर्य है।
यथैव हि रागित्वायतीन्द्रियं तथा सदनियतत्वमपीति कुतश्चित्तत्सायने वीतरागिस्वायतिशयसाधनं साधीयः । ततोऽयमस्य मवचनस्य प्रणेताप्त इति ज्ञातुं शक्यत्वादासमूलत्वं तत्प्रामाण्यनिबन्धनं सिद्धयत्येव ।
जब कि जिस ही प्रकार रागीपन और वीतरागपन बहिरंग इन्द्रियोंसे जानने योग्य (लायक) नहीं हैं, उसी प्रकार उनके अभावका नियम करना भी अतीन्द्रिय है ।जो पदार्थ इन्द्रियोंके अगोचर है उनका अभाव भी इन्द्रियोंका विषय नहीं है। यों फिर भी किसी कारणसे मनुष्यों में सरागपनेके नियमकी सिद्धि करोगे तो सर्वज्ञता, वीतरागता, तीर्थकरता आदि अतिशयोंका साधन करना भी बहुत अच्छी तरहसे हो सकता है । उस कारणसे अब तक सिद्ध हुआ कि हम सर्वज्ञ वीतरागताका निर्णय कर सकते हैं और यह भी जान सकते हैं कि यह सर्वज्ञ यथार्थ वक्ता ही इस शास्त्रका अर्थरूपसे बनानेवाला है इस कारण इस सूत्रको कारणरूपसे आतमूलक होनेसे आगमप्रमाणपना सिद्ध हो ही जाता है जो कि इसकी प्रमाणताका कारण है । यहांतक सूत्रको आगमप्रमाणपना सिद्ध करनेके प्रकरणका उपसंहार कर दिया गया है। ___अथवानुमानमिदं सूत्रमविनामाविनो मोक्षमार्गत्वलिंगान्मोक्षमार्गधर्मिणि सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकत्वस्य साध्यस्य निर्णयात । तथाहि, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गो मोक्षमार्गत्वान्यथानुपपत्तेः, न तावदत्राप्रसिद्धो धर्मी हेतुर्वा मोक्षवादिनामशे. पाणामविप्रतिपतेः। मोक्षाभाववादिनस्तु प्रति तत्सिद्धेः प्रमाणतः करिष्यमाणत्वात् ।
__ अब सूत्रको अनुमानप्रमाणरूप सिद्ध करनेका प्रकरण चलाते है । श्रीविद्यानन्दी आचार्य प्रत्येक पदार्थको समीचीन तद्वारा अनुमानसे सिद्ध करते हैं। पूर्व में इस सूत्रका आगमप्रमाणपना भी अनुमान बनाकर सिद्ध किया था। अब सूत्रको अनुमानपना सिद्ध करनेके लिये भी अनुमान बनाते हैं। अथवा यह सूत्र अनुमानप्रमाणरूप है। क्योंकि समीचीनब्यासिवाले मोक्षमार्गस्व-हेतुसे साध्यधर्म
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
बाले मोक्षमार्गरूप पक्षमै सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र इन तीनोंकी एकता रूप साध्य का निश्चय किया है, इसी बात को स्पष्ट कर समझाते हैं कि मोक्षका मार्ग सम्यदर्शनज्ञानचारित्ररूप है, ( प्रतिज्ञा ) अन्यथा उसको मोक्षमार्गपना नहीं बन सकेगा, ( हेतु ) पहिले तो इस अनुमानमें मोक्षमार्गरूपी पक्ष और हेतु अप्रसिद्ध नहीं है कारण कि संपूर्ण मोक्ष मानने वाले वादियोंने सामान्यरूपसे मोक्षका मार्ग विवादरहित स्वीकार किया है, और जो चार्वाक, शून्यवादी, आदि मोक्षको सर्वेयाही नहीं मानते हैं, उनके प्रति तो मोक्षकी सिद्धि आगे चलकर प्रमाणोंसे कर दी जायेगी, संतोष रखिये, अतः उनको भी वह मोक्षका मार्ग स्वीकार करना अनिवार्य होगा ।
प्रतिज्ञार्थकदेशो हेतुरिति चेत्
साध्य और पक्षके कहनेको प्रतिज्ञा कहते हैं, हेतुका साध्यके साथ समर्थन और पक्षमें रहना सिद्ध करने के पूर्वमें उक्त प्रतिज्ञावाक्य सिद्ध नहीं समझा जाता है, इस अनुमानमें जैनोंने प्रतिज्ञा एक देश होरहे पक्षको ही हेतु बना दिया है, ऐसी दशा जब प्रतिक्षा जसिद्ध है तो उसका एक देश माना गया हेतु भी असिद्ध ही है यदि आप बौद्ध ऐसा कहोगे तब तो ।
कः पुनः प्रतिज्ञार्थस्तदेकदेशो वा १
यहां हम पूछते हैं कि उस प्रतिज्ञा के वचनका वाच्य अर्थ क्या है ? और क्या उस प्रतिज्ञा अर्थ ( विषयका ) एक देश है ? जिसको कि शंकाकार असिद्ध कर रहा है, बताओ ।
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साध्यधर्मधर्मिसमुदायः प्रतिज्ञार्थस्तदेकदेशः साध्यं धर्मो यथाऽनित्यः शब्दोऽनित्यत्वादिति, धर्मी वा तदेकदेशो यथा नश्वरः शब्दः शब्दत्वादिति, सोयं हेतुत्वेनोपा दीयमानो न साध्यसाधनायालं स्वयमसिद्धमिति चेत् ।
I
यहां शंकाकार कहता है कि साध्यरूपी धर्मं और पक्षरूपी धर्मीका समुदाय ही प्रतिज्ञावाक्यका विषय है । उसका एक देश साध्यधर्म है। उस प्रतिज्ञाविषयका एक देश कहे गये साध्यरूपी धर्मको यदि हेतु कर लिया जायेगा तब वह हेतु साध्य सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है । जैसे कि शब्द अनित्य है अनित्य होनेसे यहां साध्यको ही हेतु करलिया गया है । तथा कहीं प्रतिज्ञाके एकदेश माने गये धर्मीको हेतु बतानेपर भी साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है । जैसे कि शब्द नाशस्वभाववाला है शब्द होनेसे । इस अनुमान स्वयं शब्दख ही जब असिद्ध है तो वह हेतुपनेसे अनुमानमे ग्रहण किया गया होकर साध्यके सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है। यदि आप सौगत ऐसा कहोगे ? | तब तो-
कथं धर्मिणोऽसिद्धता 'प्रसिद्धो धर्मीति' वचनव्याघातातू ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यहां आचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञाके एकदेश पक्षको हेतुरूपसे ग्रहण कर लिया गया है तो भी स्वयं सिद्ध नहीं है जिससे कि वह साध्यको सिद्ध न कर सके, भला धर्मी नसिद्ध कैसे होसकता है ? यदि साध्य के समान धर्मको भी असिद्ध मानोगे तो " धर्मी प्रसिद्ध होता है" इस माणिषयनंदी आचार्य सूत्ररूप वचनका व्यापात हो जावेगा अथवा धर्मीको असिद्ध कहनेवालेको इस सूत्र से विशेष हो जावेगा ।
सत्यं प्रसिद्ध एव धर्मीति चेत् स वर्हि हेतुत्वेनोपादीयमानोऽपि न स्वयमसिद्धो यतो न सायं साधयेत् ।
प्रतिवादी शाकार - आचार्यों का कहना बिल्कुल ठीक है कि वादी प्रतिवादियों को जो प्रसिद्ध है वहीं धर्मी होता है । यदि शंकाकार ऐसा कहेगा तो हम कहते हैं कि ऐसे प्रसिद्ध धर्मीको यदि हमने हेतुरूपसे अनुमानमें ग्रहण किया है तब तो वह स्वयं असिद्ध नहीं है जिससे कि साध्यको सिद्ध न कर पावे, अर्थात् साध्यको अवश्य सिद्ध कर देवेगा ।
सहेतुरनन्वयः स्यात् धर्मिणोऽन्यत्रानुगमनाभावादिति चेत् सर्वमनित्यं सन्वादिति धर्मः किमन्वयी येन स्वसाध्यसाधने हेतुरिष्यते १
यहां शंकाकर बौद्ध कहता है कि यदि आप पक्षको ही हेतु करोगे तो अन्यदृष्टान्त नहीं मिल सकेगा, अतः अनन्वयदोष है । क्योंकि धर्मीके सिवाय दूसरी जगह हेतु रहेगा नहीं, जैसे कि जहां जहां धूम है, वहां वहां अभि है, यहां रसोईघर दृष्टान्त है किंतु जहां मोक्षमार्गपना है वहां वहां रत्नत्रयका समुदायपना है, इस अन्वयव्यासिका पक्षके सिवाय कोई दूसरा दृष्टान्त मिलता नहीं है। यदि आप ऐसा कहोगे तो यहां आचार्य बौद्धसे पूंछते हैं कि संपूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं सत् होनेसे, इस आपके माने गये प्रसिद्ध अनुमानमें क्या सस्त्र हेतु अन्वयदृष्टान्त रखता है ? जिससे कि क्षणिकपनेरूप अपने साध्यके सिद्ध करनेमें अच्छा हेतु माना जावे, अर्थात् यहां भी सम्पूर्ण पदार्थोंको पक्षकोटि ले रखा है, अतः आपके अनुमानमें भी अन्य दृष्टान्त न मिलनारूप अनन्वय दोष है । साहित्यवालोंने आकाश आकाशके समानही लम्बा चौडा है, समुद्र समुद्र के समान गंभीर है इन वाक्यों अनन्वय नामक अलङ्कार माना है । बौद्धोंने इसको दोष माना है, जैन न्यायहैं। अनन्वय न तो दोष है और न गुण है ।
सच्त्वादिधर्मसामान्यमशेषधर्मिव्यक्तिष्वन्वयीति चेत् तथा धर्मिसामान्यमपि, दृष्टान्तधर्मिण्यनन्वयः पुनरुभयत्रेति यत्किंचिदेतत् ।
यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे कि क्षणिकत्व सिद्ध करनेके लिये दिये गये सत्त्व, कृतकत्व, उत्पत्तिमत्त्व आदि हेतु तो सामान्यपनेसे सम्पूर्ण पक्षरूप व्यक्तियोंमें रहते हैं, अतः अन्यदृष्टान्त बन जावेगा,
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तो उसी प्रकार हम भी कहते हैं कि हमारे अनुमानमें भी मोक्षमार्गलरूपी हेतु सामान्यरूपसे में भी पाया जाता है, पक्षके एक देशने भी अन्वयव्याप्तिका बनना इष्ट किया गया है । तथा विशेषरूपको पक्ष बनाकर और सामान्य अंशको हेतु माननेवालोंको कोई दोष नहीं आता है । aft aौद्धका यह आग्रह है कि पक्षसे बहिर्भूत ही अन्ययदृष्टांत होना चाहिये अन्यथा अनन्वय दोष होगा, तब तो ऐसा अनन्य दोष फिर हमारे और आपके दोनों अनुमानोंमें समान है, फिर यह कुछ भी कहनामात्र है, तत्त्व कुछ नहीं निकला । यानी आपके उक्त कथनका कुछ भी फल नहीं निकलता है। पक्ष के अंतरंग में भी व्याप्ति बनायी जाकर सद्धेतुओं की व्यवस्था मानी गयी है, जैसेकि सर्वज्ञकी सिद्धि करने में सम्पूर्ण पदार्थोंको पक्ष कर एकज्ञानसे जाने गयेपनको साध्य किया है और अनेक हेतु दिया है, इस अनुमानमें जो जो अनेक होते हैं वे वे एक ज्ञानके विषय होजाते हैं, जैसेकि पांचों अंगुलियां ऐसी अन्वयव्याप्ति बनाकर पांचों अंगुलियों को अन्त्रयदृष्टांत माना है, जो कि पक्षमें अंतर्भूत हैं । दूसरी बात यह है कि अन्ययदृष्टांतमें रहना हेतुका प्राणस्वरूप लक्षण नही है । विना अन्वय दृष्टांतके भी प्राणादिमत्त्व हेतुसे आत्मासहितपनेको और कृतिकोदयसे मुहूर्तके बाद रोहिणी नक्षत्र के उदयको सिद्ध किया गया है । तीसरी बात यह है कि कविलोगोंने अनन्वयको दोष न मानकर अलंकार ही माना है, जैसे कि जिनेन्द्र देव जिनेन्द्रदेव ही हैं, यहां कोई दूसरा उपमान नहीं मिलता है ।
साध्यधर्मः पुनः प्रतिज्ञार्थकदेशत्वाच हेतुर्धर्मिंगा व्यभिचारात् किं तर्हि स्वरूपासिद्धत्वादेवेति न प्रतिज्ञार्थैकदेशो नाम हेत्वाभासोऽस्ति योऽत्राशक्यते ।
श्रीमाणिक्यनन्दी आचार्यने वह्निवाला पर्वत है, इस अनुमानमें अभिको साध्य माना है और कहीं कहीं अभिसहित पर्वतको भी साध्य माना है । इसी प्रकार प्रकृतमें भी " मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन आदि त्रयात्मक " है, यहां साध्यकी कुक्षिमें पडे हुए दो धर्म हैं, उन दोनोंको प्रतिक्षावाक्य विषयका एकदेशपना है, वहां पक्ष अंश तो प्रसिद्ध ही है । साध्य अंश अप्रसिद्ध माना गया है, अतः प्रतिज्ञाषा एकदेश होनेसे सद्धेतुपने में दोष आवेगा, यदि ऐसा नियम करोगे यह ठीक नहीं, तब तो पक्षसे व्यभिचार हो जायेगा क्योंकि पक्ष भी तो प्रतिज्ञाका एकदेश है, तब तो फिर क्या करें ? इसका उत्तर यह है कि यदि प्रतिज्ञा के विषय असिद्ध है तो वहां स्वरूपासिद्ध नामके हेत्वाभाससे असिद्धता उठानी चाहिये, पक्षमें देतुके न रहनेको स्वरूपासिद्ध कहते हैं । असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर ये चार हेत्वामास हैं, जिसकी आप यहां शंका कर रहे हैं, या जो दोष यहां उठाया जा रहा है, वह प्रतिज्ञार्थैकदेशा सिद्ध नामका तो कोई हेत्वाभास ही नहीं है।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
श्रावणत्वादिवसाधारणत्वादनैकान्तिकोऽयं हेतुरिति चेन्न असाधारणत्वस्यानैकान्तिकत्वेन व्याप्त्यसिद्धेः ।
नैयायिक लोग अनेकान्तिक हवामासको तीन प्रकारका मानते हैं, साधारण, असाधारण और अनुपसंहारी । सपक्ष और विपक्षमें रहनेवाले हेतुको साधारण कहते हैं, जैसे कि पर्वत अमिवाला है। प्रमेय होनेसे, इस अनुमानमें प्रमेयत्व हेतु रसोई घर और तालाप रह जानेसे साधारण अनैकाकान्तिक हेत्वाभास है । और जो हेतु सपक्ष, विपक्ष, दोनों में नहीं रहता है उसको असाधारण कहते हैं । जैसे कि शब्द अनित्य है क्योंकि कर्णेन्द्रियसे ग्राह्य है, कानोंसे जाना गयापन हेतु तो घट आदि सपक्ष और आत्मा आकाश आदि विपक्षमें नहीं रहता है। अतः असाधारण है और केवलान्वयी पक्षवाले हेतुको अनुपसंहारी कहते हैं, जैसे कि 'सर्व पदार्थ जानने योग्य हैं प्रमेय होनेसे यहां सर्व पदार्थोको पक्ष कर लिया है, अतः अन्वयदृष्टान्त और व्यतिरेकदृष्टान्त नहीं मिलते हैं।
आचार्यके माने गये मोक्षमार्गलहेतुको प्राचीन नैयायिकके मतानुसार बौद्ध असाधारण हेत्वाभास बता रहा है। जैसे कि श्रावणल हेतु अनित्य माने गये घट, पट, आदि सपक्षों में नहीं रहता, है तथा नित्य हो रहे आकाश, आत्मा, आदि विपक्षोमे भी नहीं वर्तता है इस कारण असाधारण है । उसी प्रकार यह मोक्षमार्गत्व हेतु भी पक्षके अतिरिक्त सपक्ष और विपक्षम न रहनेसे असाधारण हेवाभास है | ग्रंथकार कहते हैं कि यह नैयायिकोंका विचार ठीक नहीं है । क्योंकि नो जो असाधारण होता है । वह वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है ऐसी व्याप्ति सिद्ध नहीं है ।तभी तो नव्यनैयायिकोंने असाधारण हेत्वाभासका प्रत्याख्यान कर दिया है । और जैन भी असाधारण नामका हेस्वाभास नहीं मानते हैं।
सपक्षविपक्षयोहि हेतुरसत्त्वेन निश्चितोऽसाधारणः संशयितो वा ? निश्चतश्चेत् कथमनैकान्तिकः १ पक्षे साध्यासम्भवे अनुपपद्यमानतयास्तित्वेन निश्चितत्वात् संशयहेतुवाभावात् । न च सपक्षविपक्षयोरसत्त्वेन निश्चिते पक्षे साध्याविनाभारित्वेन निश्चेतुमशक्या सर्वानित्यत्वादौ सत्वादेरहेतुत्वप्रसंगात् , न हि सत्वादिविपक्ष एवासवेन निश्चिता सपक्षेऽपि तदसत्त्वनिश्चयात् । ____ हम जैन आप वृद्ध नैयायिकोंकी पक्षवाले नौद्धोंसे पूछते हैं कि आप सपक्ष विपक्षमें न रहने वाले हेतुको असाधारण कहते हैं तो जैसे आपने साधारण व्यभिचारके दो भेद किये हैं, विपक्षमें हेतुके निश्चितरूपसे रहनेपर निश्चित व्यभिचार होता है और विपक्षमे हेतुके रहनेका संशय होनेपर संदिग्ध व्यभिचार होता है । इसी प्रकार क्या सपक्ष और विपक्षम हेतुके निश्चयरूपसे न रहनेको असाधारण कहते हैं ! या संशयरूपसे न रहनेको असाधारण मानते हो ! बताओ यदि आप पहिला
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पक्ष लोगे कि सपक्ष और विपक्षमें न रहनेका निश्चय होनेसे निश्चितासाधारण हेत्वाभास होता है। तब तो असाधारणको अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं कहना चाहिए क्योंकि जो हेतु साध्यके साथ अविनाभाव रखता हुआ और साध्यके न रहनेपर विपक्ष में निर्णीतरूपसे नहीं वर्तमान होता हुआ केवल पक्ष वर्तमानपनेसे निश्चित है वह तो अच्छी तरहसे सद्धेतु है | चाहे वह सपक्षमै भले ही न रहे । यक्षमें न रहने के संशयका कोई कारण नहीं है। जिसका सपक्ष, विपक्षमें अवृत्तिपनेका निश्चय है वह पक्ष भी साध्य के साथ अविनाभावी रहकर निश्चय नहीं किया जा सके यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त नियम माननेपर सबको अनित्यपना सिद्ध करनेमें दिये गये सच, कृत आदि हेतुओंको मी असिद्धपनेका प्रसंग आवेगा । सत्त्व, कृतकत्व आदि हेतु विचारे विपक्ष में ही अवृत्ति होकर निश्चित है । इतना ही नहीं बल्कि सपक्षमें भी वे सत्त्व आदि हेतु अवर्तमानपसे निश्चित हो रहे हैं ।
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सपक्षस्याभावात्तत्र सर्वानित्यत्वादौ साध्ये सच्चादेरसच्वनिश्चयान्निश्चयहेतुत्वं न पुनः श्रावणत्वादेस्तद्भावेऽपीति चेत् । ननु श्रावणत्वादिरपि यदि सपक्षे स्यात्तदा न्यायादेवेति समानांतर्व्याप्तिः ।
यहां बौद्ध कहते हैं कि सबको अनित्य सिद्ध करनेमें दिया गया सत्त्व हेतु असाधारण नहीं होसकता है क्योंकि सबको पक्षकोटि में लेलिया है । अतः कोई सपक्ष शेष रहता ही नहीं है । और शब्द अनित्य है श्रवण इंद्रियसे जानने योग्य होनेसे । इस अनुमानमें घट, पट आदि पक्षोंके विद्यमान होनेपर भी श्रावण हेतु उनमें नहीं रहता है । अतः श्रावण हेतु तो असाधारण लाभास है किंतु सत्त्व, कृतकथ आदि हेतुओंका सपक्ष सर्वथा बिल्कुल नहीं है । सपक्ष के सर्वथा न होनेसे सत्त्व आदि हेतुओंका सपक्षमें न रहना स्वतः ही निश्चित होगया । इस कारण सत्त्व आदि हेतु सद्धेतु हैं किंतु फिर श्रावणत्व आदि हेतु तो सद्धेतु नहीं होसकते हैं क्योंकि वहां सपक्ष घट, पट, आदि विद्यमान हैं और उनमें श्रावणस्य हेतु रहता नहीं है । ऐसा कहनेपर सो हम मी बौद्धोंसे कह सकते हैं कि आवणत्व आदि हेतु भी यदि सपक्षमें रहते होते तो उस समय अवश्य सपक्षमै रहनेवाले साध्यको व्याप्त कर लेते । अतः जैसे आप सर्वरूपी पक्षके भीतर बिजली, बबूला आदिमें सत्त्व और अनित्यत्वकी व्याप्सि बनाकर सत्त्व, कृतकत्वको सद्धेतु कहते हैं । उसी प्रकार शब्द से ककार, मृदंगध्वनि आदि पक्षके एकदेशीय शब्दों में श्रावणत्व और अनित्यत्वकी व्याप्ति बनाकर श्रावणस्त्रको भी संद्धेतु बनाया जा सकता है। पक्षके भीतर भी साध्य और हेतुकी व्याप्ति बनाना इष्ट किया गया है। यह हमको और आपको समानरूपसे माननी पड रही है ।
सति विपक्षे धूमादिश्चासत्वेन निश्चितो निश्चयहेतुर्मा भूत्, विपक्षे सत्यसति
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वाऽसत्त्वेन निश्चितः साध्याविनाभावित्वाद्धतुरेवेति चेत् सपक्षे सत्यसवि वा सत्वेन निर्णीतो हेतुरस्तु तत एव ।
यदि सपक्षके सर्वथा न होनेपर तो सपक्षमें न रहनेको गुण माना जाय और सपके होनेपर सपक्षावृत्तिवको दोष माना जाय तब तो विपक्ष तालाव आदिके विद्यमान रहनेपर धूम आदि हेतुके न रहनेका निश्चय भी धूम आदिकके निश्चयरूपसे सद्धेतुपनेको सिद्ध न कर सकेगा, कारण कि
आपका सत्व हेतु भी तो विपझमें नहीं रहता है, जब सबका ही पक्ष कर रखा है, ऐसी दशा विषक्ष कोई नहीं है । इसपर बौद्ध यदि यह कहेंगे कि विपक्ष होवे चाहे न होवे, उसमें अवृत्तिपनेसे निश्चित जो हेतु है, वह साध्य के साथ अविनाभावसंबन्ध रखता है, इस कारण सद्धेतु ही है, ऐसा कहनेपर हम जैन भी कह सकते हैं कि उस ही कारण सपक्ष होबे चाहे न होवे, उसने ( पक्षके भीतर भी) वृचिपनसे निर्णय किया गया श्रावणत्व हेतु भी साध्यके साथ अविनाभावरूप व्याप्ति रखनेसे ही समीचीन हेतु होना चाहिये, भले ही यह पक्षसे बहिर्भूत सपक्षमै न रहे । इस प्रकरणमे अन्यवादियोंका आग्रह यह है, कि पझसे सर्वथा भिन्न ही सपक्ष होना चाहिये किन्तु हमारा मत है कि पक्षका अन्तरा भी सपक्ष हो सकता है ॥
सपक्षे तदेकदेशे वाऽसन् कथं हेतुरिति चेत्, सपक्षे असम्भव हेतुरित्यनवधारणात् । विपक्षे तदसत्वानवधारणमस्त्वित्ययुक्तं साध्याविनामावित्वव्याघातात् । नैवं सपक्षे तदसदाननधारणे. व्यापाता कश्चित् ।।
बौद्ध कहते हैं कि निश्चितसाध्य वाले संपूर्ण सपोमे या उसके एकदेशरूप किसी दृष्यान्तमें न रहता हुआ हेतु कैसे अच्छा हेतु होसकता है ? इसपर आचार्य कहते हैं कि सपक्षमें हेतु नहीं ही रहना चाहिये, ऐसा तो नियम किसीने नहीं किया है अर्थात हेतु सपक्षमें रह जाय तो अच्छा और यदि न रहे तो भी हानि नहीं है। "ऊपरके देशमै पानी वर्ष चुका है क्योंकि नीचेके प्रान्त नदीका प्रवाह बढ गया है। इस अनुमानका हेतु पक्ष, सपक्ष, दोनों में नहीं रहता है तथा "जीवित पुरुषोंके शरीर आत्मासे, सहित है, श्वासउच्छ्वास और शरीर, इन्द्रिय आदिमें विशिष्ट चेष्टा होनेसे" इस अनुमान हेतु सपक्षमें सर्वथा बिल्कुल नहीं रहता है, क्योंकि पूर्व अनुमानमें कानपुर पक्ष है, बनारसमें गमाका पूर बढना हेतु है, वृष्टि होना साध्य है । यहां बरसते समय गृहकी छत, गली आदि सपक्ष हैं यहां हेतु नहीं रहता है । दूसरे अनुमानमें सर्व ही जीवितशरीरोंको पक्ष बना रखा है। "पर्वत आगवाला है घूम होनेसे। यहां हेतु पक्ष सपक्ष दोनोंमें रहता है । उक्त तीनों हेतु सद्धेतु माने गये हैं, अतः सपक्षमै न रहनेका ही नियम करना आवश्यक नहीं है । यदि यहां कोई इस प्रकार कहे कि साध्यके अभाववाले विपक्षमें भी हेतुके अवर्तमानपनेका नियम मत करो आचार्य कहते हैं
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कि यह कहना युक्तिसे रहित है, क्योंकि विपक्षमें म रहनेका यदि नियम नहीं किया जायेगा तो साध्यके बिना न रहनेरूप हेतुके गुणका नाश हो जायेगा और सपक्षभे हेतुकी असत्ताका नियम न करनेपर हेतुका रत्तीभर भी कोई गिाड होता नहीं है।
इति तत्र सनसन् वा साध्याविनाभावी हेतुरेव श्रावणत्वादिः सञ्चादिवत्, तद्वन्मोक्षमार्गत्वादिति हेतु साधारणत्वादगमकः,साध्यस्य सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकत्वस्यामावे ज्ञानमात्रात्मकवादी सर्वथानुपपन्नत्वसाधनात् ।
इस कारण यह सिद्ध हुआ है कि उस सपक्षमें हेतु विद्यमान रहे अथवा न रहे । यदि वह सायके साथ अविनाभाव संबंधरूप व्याप्ति रखता है तो वह अवश्य सहेतु है। आपने सत्व, कृतकय आदिकको जैसे सद्धेतु माना है उसी प्रकार श्रावणस्त्र आदि भी सद्धेतु हैं और सपक्षमै न . रहनेपर भी मोक्षमार्गव हेतु सत्व आदि हेतुके समान सद्धतु है । असाधारण हेवामास होनेसे साध्यको नहीं ज्ञापन करनेवाला है यह कटाक्ष ठीक नहीं है। किन्तु अविनाभाव-संबंधके होनेसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनोंकी एकतारूप साध्यका साधक ही है । जहां तीनोंकी तदात्मक एकता नहीं है ऐसे अकेले ज्ञान या कोरी श्रद्धा, भक्ति, तथा कुज्ञान आदिमें सभी प्रकारोंसे मोक्षमार्गव हेतु सिद्ध नहीं माना गया है ।
यदि पुनः सपक्षविपक्षयोरसत्त्वेन संशयितोऽसाधारण इति मतं तदा पक्षप्रय चितथा निश्चितया संशयितया वानैकान्तिकत्वं हेतोरित्यायातम्, न च प्रकृतहतो सास्तीति गमकत्वमेव ।
पूर्वमें असाधारण हेत्वाभासका लक्षण करते समय दो पक्ष उठाये थे, उनमें सपक्ष और विपक्ष न रहनेपनेसे निश्चित किये गयेरूप असाधारण हेत्वामासके लक्षणका खण्डन हो चुका । अब सपक्ष और विपक्षमें नहीं रहने के संशयको प्राप्त हुआ हेतु असाधारण हेत्वाभास है, यदि ऐसे दूसरे पक्षकारका मत ग्रहण करोगे, तब तो अनैकान्तिक हेत्वाभासका यह लक्षण आया कि पक्ष, सपक्ष
और विपक्ष निश्चतरूपसे विद्यमान रहनेवाला और संशयरूपसे रहनेवाला हेतु अनैकान्तिक हेवाभास है । निश्चितरूपसे तीनों पक्षोभ रहना तो साधारण हेलाभासका लक्षण आप मानही चुके हैं और अब तीनों पक्षों संशयरूपसे रहना असाधारणहेत्वाभासका लक्षण मान रहे हैं, अतः समुदित रूपसे यह अनेकान्तिकका लक्षण अच्छा है । हम भी व्यभिचारके संदिग्ध और निश्चित दो भेद मानते हैं, किन्तु प्रकरणमें प्राप्त हुये मोक्षमार्गव हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्षमें संशयरूपसे रहनापन तथा तीनों पक्षोंमें निश्चितरूपसे विद्यमानपन नहीं है, इस कारण निर्दोष होमेसे मोक्षमार्गस्त हेतु अपने साध्यका शायक ही है अनैकान्तिक नहीं है ।
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विरुद्धतानेन प्रत्युक्ता विपक्षे बाधकस भावाच ।
व्यभिचार और विरुद्ध हेतुका भाईचारेका नाता है, अन्तर इतना पड जाता है कि व्यमिचारी हेतु सपक्षमें रहकर विपक्षमें रहता है और विरुद्ध हेतु सपक्षमें न रहकर विपक्षमे रह जाता है। जब इन दोनोंमें समानता है तो अनैकान्तिकता दोष के हटानेवाले उक्त प्रकरणसे मोक्षमार्गस्व-हेतुके विरुद्ध हेत्वभासपनकी शंकाका भी खण्डन हो जाता है क्योंकि हेतुके विपक्षमें रहनेका प्रबल बाधक विद्यमान है । अर्थात् अकेले सम्यग्दर्शन आदिमें या कुज्ञान, असहाचा हेतु सर्वथा नहीं रहता है। विपक्षमें बाधक प्रमाण होनेसे प्रत्येक वस्तुकी सत्ताका दृढ निश्चय होता है ।
न चैवं हेतोरानर्थक्यं ततो विधिमुखेन साध्यस्य सिद्धेरन्यथा गमकत्वविती तदापत्तेः।
यहां कोई कहे कि जिसको विपक्षमै बाधक प्रमाणका निश्चय है उसको साध्यका निश्चय भी अवश्य है ऐसी दशाम हेतु बोलना सर्वथा व्यर्थ है । ग्रन्धकार कहते हैं कि इस प्रकार कल्पना ठीक नहीं है । कारण कि उस हेतुके द्वारा साध्यकी सिद्धि विधिको मुख्य कर की जाती है और विपझम हेतुके न रहनेस साध्यकी सिद्धि निषेधको लेकर हुयी थी अन्यथा यानी यदि ऐसा न होता तो हेतुके गमकानेके जाननेपरही वह साध्यका ज्ञान होगया होता, किन्तु देखते हैं कि अविनाभावी हेतुके जाननेपर भी बादमें व्यासिस्मरण, पक्षवृत्तित्वज्ञान, तथा कहीं कहीं समर्थन, दृष्टांत, और उपनयके अनंतर साध्यका निर्णय होता है ।
ततः सूक्तं लैंगिकं वा प्रमाणमिदं सूत्रमविनामाविलिङ्गात्साध्यस निर्णयादिति ।
उस कारण हमने पहिले बहुत अच्छा कहा था कि "अथवा यह सूत्र तो लिङ्गजन्य अनुमानप्रमाणरूप है क्योंकि इसमें अविनाभाव रखनेवाले मोक्षमार्गत्व हेतुसे रत्नत्रयकी एकतारूप साध्यका निश्चय किया गया है । इस प्रथम सूत्रको आगमप्रमाण और अनुमान-प्रमाणरूप सिद्ध करनेका प्रकरण यहां तक समाप्त हुआ।
प्रमाणत्वाच्च साक्षात्प्रबुद्धाशेषतस्वार्थे प्रक्षीणकल्मषे सिद्धे प्रवृत्तमन्यथा प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः।
और जब यह सूत्र आगमज्ञान और अनुमानज्ञानरूप है तो प्रमाण होनेके कारण इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको जान चुके और कौके क्षय कर चुके वीतराग सर्वज्ञके सिद्ध होनेपर उपचारसे वचनरूप किंतु वस्तुतः ज्ञानरूप यह सूत्र आतधारासे प्रतर्ता हुआ चला आरहा है । इसके बिना माने दूसरे प्रकारसे सूत्रमें प्रमाणता सिद्ध नहीं हो सकती है।
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__ “नेदं सर्वशे सिद्धे प्रवृत्तं तस्स बायकानुपलम्भादभावसिद्धे" रिति परस्य महामोहविचेष्टितमाचष्टे
यहां किसीका नवीन पूर्वपक्ष है कि "यह सूत्र सर्व पदार्थोका प्रत्यक्ष करनेवाले सर्वज्ञके सिद्ध होनेपर प्रवृत्त हुआ है यह जैनोंका कहना ठीक नहीं है कारण कि उस सर्वज्ञका ज्ञान करानेवाला कोई प्रमाण माना नहीं गया है। अतः ज्ञापक प्रमाण नहीं दीखनेसे सर्वज्ञका अभाव सिद्ध है। इस प्रकार दूसरे सर्वज्ञाभाववादी मीमांसकका कहना अत्यंत गाढमोहसे प्रेरित होकर चेष्टा करना है । इसी बातको आचार्य कहते हैं
तत्र नास्त्येव सर्वज्ञो ज्ञापकानुयलम्भनात् ।
व्योमाम्भोजवदित्यतत्तमस्तमविजृम्भितम् ॥ ८ ॥ उस प्रकरणों कोई कहता है कि "आकाशके कमलके समान सर्वज्ञका ज्ञापकमाण न होनेसे कोई भी सर्वज्ञ नहीं है " । इस प्रकार का यह अयुक्तबकवाद केवल बढे हुए कु-ज्ञान और मिथ्यात्व नामक अन्धकारकी कुचेष्टा ( हरकत ) है।
"नास्ति सर्वज्ञोज्ञापकानुपलब्धेः खपुष्पवत् इति नुवन्नात्मनो महामोहविलासमावेदयति।"
"सर्वज्ञ नहीं है (प्रतिज्ञा) क्योंकि उसको सिद्ध करनेवाला कोई ज्ञापक प्रमाण नहीं दीलता है ( हेतु ) जैसे कि आकाशके फूलका (अन्वयदृष्टान्त)" इस प्रकार कहनेवाला अपने महाभूढपनेमे होनेवाली चेष्टा करनेकी सूचना दे रहा है।
यस्मादिदं ज्ञापकमुपलभ्यत इत्याह;
सर्वज्ञामाववादीके द्वारा सर्वज्ञके नास्तिस्य सिद्ध करनेमें दिया गया ज्ञापक प्रमाणका न दीखनारूप हेतु विचारपक्षमें न रहनेसे असिद्ध हेत्वाभास है, जिस कारणसे कि सर्वज्ञका ज्ञान करानेवाला यह अनुमान प्रमाण देखा जा रहा है । इसी बातको आचार्य विशदरूपसे कहते हैं
सूक्ष्माधर्थोपदेशो हि तत्साक्षात्कतपूर्वकः । परोपदेशलिंगाक्षानपेक्षावितथत्वतः ॥९॥
आकाश, परमाणु, धर्म-द्रव्य आदि सूक्ष्म पदार्थोंका और क्षीरसमुद्र, सुमेरुपर्वत आदि देशव्यवहित वस्तुओंका तथा महापद्म, रामचन्द्र, शंख, भरतचक्रवर्ती प्रभृत्ति वर्तमानकालसे व्यवहित पदार्थीका यथार्थ उपदेश करना तो उन संपूर्ण पदार्थोंके विशवरूपसे प्रत्यक्ष करनेबारे सज्ञको कारण मानकर प्रवृत्त हुआ है । प्रतिज्ञा ) क्योंकि दूसरोंके उपदेश, अविनाभावी हेतु, औ इंद्रियोंकी अपेक्षा न रखता हुआ वह उपदेश सत्यार्थ है। ( हेतु)
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
१.१
शीतं जलमित्याधुपदेशेनाक्षापेक्षेणावितथेन व्यभिचारोऽनुपचरिततत्साक्षात्कर्टपूर्वकस्वस्य साध्यस्याभावेऽपि भावाद वितथत्वस्य हेतोपचारतस्त्रात्साक्षात्कर्टपूर्वकत्वसाधने स्वसिद्धान्तविरोधात्, तत्सामाम्यस्य साधने स्वाभिमतविशेषसिद्धौ प्रमाणान्तरापेक्षणात्यकतानुमानवैयपित्तिरिति न मन्तव्यमक्षानपेक्षत्वविशेषणात् ।।
सर्वज्ञके साधक हेतुमें पड़े हुए इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले हेत्वंशके प्रयोगकी सफलता दिखलाते हैं कि जल ठण्डा है, पौण्डा मीठा है, फूल सुगन्धित है, वस्तु शुक्ल है इत्यादि उपदेश भी इंद्रियोंकी अपेक्षा रखते हुए सत्य हैं किन्तु मुख्यप्रत्यक्षरूप केवलज्ञानसे जानकर उनका उपदेश नहीं दिया गया है । अतः पहिले मुख्यपत्यक्षसे उनका साक्षात् कर पुनः उपदेश देना-स्वरूप साध्यके न रहनेपर भी हेतुके रह जामसे व्यभिचार दोष है । यदि जैन लोग व्यभिचारके दूर करनेके लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्षसे जाननेवाले धक्ताको कारण मानकर ठण्डा पानी
दि उपदेशमि साध्यको सिद्ध करोगे तो जैनोंके सिद्धान्तसे विरोध हो जावेगा । कारण कि इस अनुमानमें साध्यदलमें मुख्य प्रत्यक्षके द्वारा जानकर सूक्ष्म आदिक पदार्थोके उपदेश देनेका सिद्धान्त किया गया है । इंद्रियमत्यक्षसे जानकर उपदेश देने में वह सिद्धान्त बिगडता है। अर्थात् सर्वज्ञके भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका प्रसंग आता है जो कि जैनोंको अनिष्ट है । यदि उन इंद्रियप्रत्यक्ष और मुख्यप्रत्यक्षमें रहनेवाले सामान्य प्रत्यक्षसे जानकर वक्ता उपदेश दे देता है अर्थात् साध्यके शरीरमें पडे हुए प्रत्यक्षका खुलासा न कर सामान्य प्रत्यक्षसे जानकर उपदेश दे देनेकी सिद्धि इष्ट करोगे तो एसे सामान्य साध्यसे सामान्यरूपसे प्रत्यक्ष करनेवाले वक्ताकी ही सिद्धि हो सकती है किन्तु आपको अपने केवलज्ञानी सर्वज्ञ, रक्ताकी सिद्धि इष्ट है । इसके लिए दूसरा प्रमाण कहना अपेक्षणीय पड़ेगा। प्रकरणप्राप्त अभीका दिया हुआ सामान्य प्रत्यक्षसे जानकर उपदेश करनेको साधनेवाला अनुमान व्यर्थ पडेगा । इसपर प्राचार्य कहते हैं कि हमारे हेतुमें इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं रखनारूप विशेषण पड़ा हुआ है और शंकाकारने इंद्रियोंके द्वारा हुए प्रत्यक्षको कारण मानकर उत्पन्न हुए उपदेशमें हेतुको रखकर साध्यका न रहनारूप व्यभिचार दिया था यों वह व्यभिचारका प्रसंग नहीं मानना चाहिए, क्योंकि यहां हेतुका अज्ञानपेक्षत्व विशेषण नहीं घटा है । अतः मुख्यपत्यक्षसे जानकर उपदेश दनापन साध्य भी नहीं है । साध्य भी न रहा, हेतु मी नहीं ठहरा व्यभिचार दोष टल गया ।
सर्वज्ञविज्ञानस्याप्यक्षजत्वादसिद्धं विशेषणमित्यपर!, सोऽप्यपरीक्षक, सकलार्थसाधाकरणस्याक्षजज्ञानेनासम्भवात्, धर्मादीनाम:रसंबन्धात्, स हि साक्षान युक्तः पृथिध्यायनयविवत् , नापि परम्परया रूपरूपत्वादिवत् स्वयमनुमेयत्ववचनात् ।
यहां अन्यबादी अलौकिक सन्निकर्ष के द्वारा योगिप्रत्यक्षको माननेवाला नैयायिक कहता है
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कि सर्वज्ञका विशदज्ञान भी इन्द्रियोंसेही जन्य है, अतः इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखना यह हेतुका विशेषण पक्षमें न रहनेसे असिद्ध है। आचार्य कहते हैं कि वह ऐसा कहनेवाला भी परीक्षक नहीं है । क्योंकि इन्द्रियोंसे पैदा हुए ज्ञानके द्वारा त्रिलोक, त्रिकालके संपूर्ण पदार्थाका स्पष्टरूपसे प्रत्यक्ष नहीं होसकता है, असम्भव है । सुनिये धर्मद्रव्य, पुण्य, पाप, क्षौर समुद्र, रामचंद्र आदिके साथ आधुनिक पुरुषोंकी इन्द्रियोंका सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि आपके मतानुसार इन्द्रियोंके द्वारा उसी पदार्थका प्रत्यक्ष माना गया है, जिसके साथ इन्द्रियोंका विना व्यवधान लिये हुए साक्षात् संबंध हो या व्यवधान डालकर परम्परासे संबन्ध हो । तिनमें यहां धर्मादि पदार्थो के साथ इन्द्रियोंका वह साक्षात् संबन्ध तो युक्तही नहीं है । जैसे कि घट, पट, मूमि, वायु, जल, आत्मा आदिक द्रन्य पदार्थोसे चक्षुइन्द्रियका साक्षात् संयोगसंबंध माना है क्योंकि आपके मतभे इंद्रियां द्रव्यरूप मानी गयी हैं । पर्शनेन्द्रिय वायुकी, रसना जलकी, प्राण पृथिवीद्रन्यकी और आंखे तेजोद्रव्यकी बनी हुई हैं । कर्ण आकाश व्यरूप है तथा प्रत्येक आत्माके पास परमाणुके बराबर मनइंद्रिय स्वतंत्र नौमां द्रव्य है । और द्रव्यका दूसरे द्रव्यसे संयोगसंबंध इष्ट किया है । पृथ्वी आदिक अवयवी द्रव्योंके समानधर्म, परमाणु आदिका इंद्रियोंसे साक्षात्संबन्ध होना युक्त नहीं है । और रूपके साथ आपने संयुक्त समवाय सन्निकर्म माना है, चक्षुस संयुक्त घट है, और घट रूप समायसंबंधसे वर्तमान है, अत: चक्षु इंद्रियका रूपके साथ संयुक्तसमवायसंबंध है यह परम्परासंबंध है । तथा रूपत्वके साथ चक्षुका आपने संयुक्तसमवेतसमवाय संबंध माना है, यहां भी चक्षुका रूपत्वके साथ दूसरोंकी परम्परा लेकर संबंध है । चक्षुसे घटसंयुक्त है, भटमें समवायसनधसे रूप रहता है, और रूपमें रूपवजाति समवायसंबंधसे रहती है, अतः चक्षुका रूपत्वके साथ संयुक्तसमवेतसमवाय संबंध है। यों चक्षुका रूप, रूपत्वके समान धर्म आदिकके साथ इंद्रियोंका परम्परासे भी संबंध नहीं है क्योंकि आप नैयायिकोंने पुण्य, पाप, परमाणु आदिको अनुमानप्रमाणसे जानने योग्य कहा है, वे बहिरंग इंद्रियोंके गोचर नहीं हैं । प्रत्यक्षके उपयोगी चक्षु संयुक्त उद्धृतरूपसे अवच्छिन्न और महत्वावच्छिन्न विशेषण आपने दे रक्ख हैं धर्भ आदिमें उद्भूतरूप नहीं है । और परमाणुनै महत्त्व नहीं है।
योगजधर्मानुगृहीतान्यक्षणि सूक्ष्माद्यर्थे धर्मादौ प्रवर्तन्ते महेश्वरस्येत्यप्यसारं, स्वविषये प्रवर्त्तमानानामतिशयाधानस्यानुग्रहत्वेन व्यवस्थितेः, सूक्ष्माद्यर्थेऽशाणामप्रवर्तनाचदपटनात् । यदि पुनस्तेषामविषयेऽपि प्रवर्तनमनुग्रहस्तदैकमेवेन्द्रियं सर्वार्थ ग्रहीप्यताम् ।
वैशेषिक कहता है कि चित्तकी वृत्तिको एक अर्थमें रोकनारूप समाधिसे पैदा हुए पुण्य विशेषको सहकारी कारण लेकर महान ईश्वरकी चक्षुरादिक इन्द्रियाँ पुण्य,पाप, परमाणु, स्वर्ग, राम, रावण, सुमेरु आदि सूक्ष्म, व्यवहित आदि अथोंके जानने प्रवृत्ति करती हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह भी वैशेषिक, नैयायिकका कहना साररहित है क्योंकि अनुग्रह करनेवाला सहकारी कारण वह
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निर्णीत किन गया है, जो किसी विषय प्रति करनेवाले कारणों में कुछ विशेषताओंको स्थापन कर देवें, जैसे कि छोटे छोटे अक्षरोंके पढनेमें चक्षुका अनुग्रह करनेवाला उपनेत्र ( चश्मा ) होता है, अन्धे मनुष्यको चश्मा सहकारी कारण नहीं है, तथा रूपकी तरह रसको भी जानने में चक्षुका सहकारी चश्मा नहीं हो सकता है, कारण कि रस, गन्ध, आदि चक्षुक विषय ही नहीं है। इसीपकार परमाणु, पुण्य, पाप, भूत भविष्यत् कालके पदार्थ तो इन्द्रियोंके विषय नहीं हैं, अतः अविषयमें प्रवृत्ति करनेके लिये योगसे पैदा हुआ पुण्यविशेष विचारा महेश्वरकी इन्द्रियों में सहकारी कारण होकर कुछ विशेषताको नहीं ला सकता है, यों वह बात घरित नहीं होती है। यदि आप फिर महेश्वरकी उन इन्द्रियोंका अपने विषयोंसे बाहिर भी प्रवर्तन करना समाधिसे पैदा हुए पुण्यविशेषसे सहकृत अनुग्रह है ऐसा मानोगे, तब तो सम्पूर्ण रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, सुख, दुःख, आदिको ग्रहण करनेवाली एक ही इन्द्रिय इष्ट कर लो, उसमें अनेक कारणोंसे अतिशय पैदा होता जावेगा, अकेली चक्षुइंद्रिय ही उस अतिशयके बलसे अपने विषय नहीं ऐसे रस, गन्ध, आदिको भी प्रवृत्ति कर लेनेगी, अतः आप नैयायिक पांच छह इन्द्रियोंकी कल्पना भी क्यों करते हैं ! ।
सत्यमन्तःकरणमेकं योगजधर्मानुगृहीतं युगपत्सर्वार्थसाक्षात्करणक्षममिष्टमिति चेत्, फथमणोर्मनसः सर्वार्थसंबन्धः सकृदुपपद्यते ? दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ सकृच्चक्षुरादिभिस्तत्संबन्धप्रसक्ते, रूपादिज्ञानपंचकस्य क्रमोत्पत्तिविरोधात् । क्रमशोऽन्यत्र तस्य दर्शनादिह क्रमपरिकल्पनायो सार्थेषु योगिमनासम्बन्धस्य क्रमकल्पनास्तु ।
नैयायिक कहते हैं कि आप जैनोंका कहना ठीक है, हम नैयायिक चित्तकी एकाग्रतासे उत्पन्न हुए पुण्यसे सहकृत अन्तरंगकी इन्द्रिय-मनको एक समयमें सम्पूर्ण अर्थोके प्रत्यक्ष करनेमें समर्थ मानते ही है। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम जैन आपसे पूंछते हैं कि परमाणुके बराबर छोटेसे मनका एक ही बादमें त्रिलोक, त्रिकाल के सम्पूर्ण पदार्थोके साथ सम्बन्ध कैसे सिद्ध हो सकता है ? बताओ जहां साधारण लोगोंकों पांचों इन्द्रियोंके ज्ञानकी योग्यता है ऐसे ( स्वस्ता) कचौडी, तथा पके हुए पान आदिके खाते समय भी पांचों ही ज्ञान एक समयमें नहीं माने गये हैं, ( खस्ता ) फचौड़ी या पापड खाते समय उसफा रूप आखाँसे दीखता है, रसना इन्द्रियसे रस चखा जा रहा है, नाकसे उसकी सुगन्ध आरही है, स्पर्शन इन्द्रियसे उष्ण स्पर्श जाना जाता है तथा कर्णेन्द्रियसे कुरकुर मनोहर शब्द भी सुनायी पड़ता है। ऐसी दशामे भी हम और आपने एक समयमै वहां पांचों ज्ञान नहीं माने है किन्तु क्रमसे शीघ्र पैदा हुए पांच ज्ञान पांच समयोंमें माने हैं। यों एक साथ उनके सम्बन्ध हो जानेका प्रसङ्ग आवेगा यदि आप परमाणुके यरोबर आकारबाले छोटेसे मनका अनेक अर्थों के साथ एक समयमें साक्षात्संबन्ध मान लोगे तो कचौडी खाते समय
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भी पांचों इंद्रियोंसे पांचों ज्ञान एक समयमें हो जाने चाहिए । तब आपके माने गये ज्ञानोंके क्रमसे पैदा होनेका विरोध हो जावेगा । इस विरोधके दूर करने के लिए यदि आप यह कहेंगे कि अन्य स्थलोंपर घट, वह्नि, आम्र आदिके रूप, रस, आदिका वह ज्ञान क्रमसे ही होता देखा गया है। अतः यहां कचौडी खाने में भी पांचों ज्ञान क्रमसे होते हुए माने जायेंगे कारण कि छोटेसे मनका अनेक इंद्रियोंके साथ कमसे ही संबंध होना सभा, ऐसी अटपटी कल्पना करनेपर तो समावियुक्त मोगियोंके मनका संपूर्ण अर्थाने सम्बन्ध करना मी क्रमसे ही मानना पड़ेगा।।
सर्वार्थानां साक्षात्करणसमर्थस्येश्वरविज्ञानस्थानुमानसिद्धत्वातरीशमनसः सुकृत्संबन्धसिद्धिरिति चेत् । रूपादिज्ञानपञ्चकस्य कचिद्योगपधेनानुभवादनीशमनसोऽपि सकृतक्षुरादिभिः सम्बन्धोऽस्तु कुतश्विद्धर्मविशेषात्तथोपपत्तेः ।
पुनः नैयायिक कहते हैं कि ईश्वरका ज्ञान संपूर्ण भूत, भविष्यत् , वर्तमान, व्यवहित, पदाथोंके प्रत्यक्ष करनेमें समर्थ है, यह बात धर्म आदि किसी आत्माके प्रत्यक्षके विषय है क्योंकि वे प्रमेय हैं इस अनुमानसे सिद्ध हो चुकी है, अतः ईश्वरके मनका संपूर्ण पदार्थोके साथ एक समयमें संबंध होजाना उक्त अनुमानसे गम्य है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि आप ऐसा कहोगे तो जो ईश्वरसे भिन्न हैं ऐसे सामान्य मनुष्यों के मनका भी कहीं कचौडी खति समय युगपद् रूपसे पांचों ज्ञान होना मत्यक्ष सिद्ध हैं, अतः साधारण मनुष्योंके मनका भी चक्षुरादिक अनेक इंन्द्रियोंसे संबंध होजाना एक समयमें मानलो, ईश्वरक पुण्य विशेषसे जैसे ईश्वरके मनका संपूर्ण अर्थोंसे साक्षात्सबन्ध होजाता है, इसी प्रकार किसी एक धर्मकर्मस पैदा हुए छोटे पुण्यविशेषसे साधारण मनुष्यको कई इंद्रियोंके साथ भी एक समयमें मनका इस प्रकार संबंध बन सकता है। ___तादृशो धर्मविशेषः कुतोऽनीशस्य सिद्ध इति चेत् , ईशस्य कुतः १ सकत्सर्वार्थज्ञानातत्कार्यविशेषादिति चेत् , तर्हि सकद्रूषादिज्ञानपंचकात कार्यविशेषादनीशस्य तद्धेतुधर्मविशेषोऽस्तीति किं न सिद्धयेत् ?
नैयायिक पूंछते हैं कि एक समय पांचों इंद्रियों के साथ संबंध का कारण छोटा पुण्यविशेष साधारण मनुष्य के पास है, यह कैसे सिद्ध हुआ ! बताओ ऐसे कहने पर हम जैन भी नैयायिकसे पूछते हैं कि सम्पूर्ण अर्थोसे एक समयमै सम्बन्धका कारण पुण्यविशेष ईश्वरके पास है यह भी आपने कैसे जाना ? यदि इसका उत्तर आप नैयायिक यह दोगे कि ईश्वर सम्पूर्ण पदार्थोको एक समयमें जानता है, उस कार्यविशेषसे उसके कारणविशेष पुण्यका मानना आवश्यक है तब तो हम भी कहते हैं कि साधारण मनुष्यको भी कौडी खाते समय रूप आदिकके पांचों ज्ञान एक साथ होते हैं । इस विशेषकार्यको देखकर यह अनुमानसे क्यों नहीं सिद्ध होगा कि
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साधारण मनुष्य के पास भी पांचों इंद्रियोंसे एक समयमें मनके उस संबंध होने का कारण छोटा पुण्य विशेष है।
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तथा सति तस्य रूपादिज्ञानपञ्चकं नेन्द्रियजं स्यात् । किं तर्हि धर्मविशेषजमेवेति चेत्, सर्वार्थज्ञानमप्येवमीशस्यान्तःकरणजं माभूत् समाधिविशेपोत्थधर्मविशेपजत्वात् ।
यहां नैयायिक कटाक्ष करते हैं कि यदि सामान्य मनुष्यके छोटे पुण्यके द्वारा पैदा हुए पांचों ज्ञान एक समयमें मानोगे तो तैसा होनेपर उसका ज्ञान इंद्रियोंसे जायमान नहीं कहा जावेगा, किंतु विशेष पुण्यसे पैदा हुए पांच ज्ञान कड़े जायेंगे । इसके उत्तर में हम जैन कहते हैं कि एक समय में ईश्वरको होनेवाला सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान भी मन इंद्रियसे जन्य न होसकेगा क्योंकि आपने चित्तकी एकाग्रतारूप विलक्षण समाधिके द्वारा उत्पन्न हुए पुण्यविशेषसे पैदा हुआ ईश्वरका ज्ञान माना है ।
तस्य मनोsपेक्षस्य ज्ञानस्यादर्शनाद दृष्टकल्पना स्यादिति चेत् । मनोऽपेक्षस्य वेदनस्य सकृत्सर्वार्थसाक्षात्कारिणः कचिद्दर्शनं किमस्ति येनादृष्टस्य कल्पना न स्यात् ?
सब जीवोंके ज्ञान मनकी अपेक्षा रखते हुए पैदा होते देखे गये हैं, विना मनको कारण माने कोई ज्ञान पैदा नहीं होता है । प्रत्येक आत्माके पास अणुरूप एक एक मन माना गया है । यदि ईश्वरके सम्पूर्ण अर्थोका ज्ञान मनकी नहीं अपेक्षा करके अकेले पुण्यसे पैदा हुआ माना जायेगा तो यह बिना देखे हुए नये कार्यकारणभावकी कल्पना समझी जायेगी। यदि आप नैयायिक ऐसा कहोगे तब तो हम जैन पूछते हैं कि मनकी अपेक्षा रख रहे और एक समयमै सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञानका क्या कहीं दर्शन हो रहा है ? जिससे कि मनका अनेक पदार्थोंसे युगपत् संबन्ध करना बिना देखे हुए पदार्थकी एक मनगढंत न समझी जावे ?
सर्वार्थज्ञानं मनोऽपेक्ष ज्ञानत्वादसदादिज्ञानवदिति चेत् न, हेतोः कालात्यापदिष्टत्वात् पक्षस्यानुमानबाधितत्वात् । तथाहि - सर्वज्ञविज्ञानं मनोऽखानपेक्षं सकृत्सर्वार्थपरिच्छेदकत्वात् यन्मनोऽक्षापेक्षं तत्तु न सकृत्सर्वार्थपरिच्छेदकं दृष्टं यथास्मदादिज्ञानं, न च daeति मनोऽपेक्षत्वस्य निराकरणात् ।
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यहां नैयायिक अनुमान करते हैं कि "ईश्वर के सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें मन इन्द्रियकी अपेक्षा रखता है क्योंकि वह ज्ञान है, जैसे कि हम संसारी जीवों के ज्ञान मनकी अपेक्षा रखते हैं " । आचार्य कहते हैं कि यह नैयायिकोंका अनुमान ठीक नहीं है क्योंकि सर्वज्ञके ज्ञानको मनकी नहीं अपेक्षा करके पैदा होना सिद्ध हो चुकनेके बाद आपने मनकी अपेक्षा रखनेवाला अनुमान किया है | अतः आपके प्रतिज्ञावाक्यकी इस वक्ष्यमाण अनुमानसे बाधा हो जाने से आपका ज्ञानस्वहेतु कालात्ययापदिष्ट नामका हेत्वाभास है । हम आपके साध्यकी बाधा करनेवाले अनुमानको
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motamannam-2004-01
स्पष्ट कहते हैं । सुनिये “सर्वज्ञका एक समयमें जाननेवाला संपूर्ण पदार्थोंका ज्ञान ( पक्ष ) अंतरंग मन इन्द्रियकी और बहिरंग चक्षुरादिक इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं करता है । ( साध्य } क्योंकि यह ज्ञान एकसमयमें संपूर्ण अर्थाको विशदरूपसे जाननेवाला है। ( हेतु ) इस अनुमान व्यतिरेक व्याप्तिको दिखलाते हुए दृष्टान्त देते हैं कि जो ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें चक्षुरादिक और मन इन्द्रियकी अपेक्षा रखता है वह ज्ञान तो एक समयमें संपूर्ण अाँको स्पष्टरूपसे जाननेवाला नहीं देखा गया है ! जैसे कि हम सरीखे साधारण लोगोंका ज्ञान इन्द्रियोंकी अपेक्षा रखता है, तभी तो संपूर्ण अाँका प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है किंतु यह सर्वज्ञका ज्ञान इस प्रकार संपूर्ण अर्थोंको न जाननेवाला नहीं है, अर्थात् संपूर्ण अर्थोको जाननेवाला है । ( उपनय ) इस कारण इन्द्रियोंकी सहकारिता नहीं चाहता है" । (निगमन ) इस कहे हुए अनुमानसे नैयायिकोंके मनकी अपेक्षाको सिद्ध करनेवाले अनुमानका खण्डन हो जाता है।
नन्वेवं "शकुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपञ्चक मनोऽक्षानपेक्षं सकट्ठपादिपञ्चकपरिच्छेदकरवाद्यभव तन्नैव दृष्टं यथान्यत्र कमशो रूपादिज्ञान, न च तथेदमतोऽक्षमनोनपेयम् " इत्यप्यनिष्टं सिद्धयेदिति मा संस्थाः साधनस्यासिद्धत्वात्, परस्यापि हि नैकानेन शष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपंचकस्य सद्रूपादिपंचकपरिच्छेदकत्वं सिद्धम्, सोपयोगस्यानेकज्ञानस्यैकत्रात्मनि क्रमभावित्ववचनात्, शक्तितोऽनुपयुक्तस्य योगपद्यस्य प्रसिद्धेः ।
यहां नैयायिक पुनः शंका करते हैं कि जैनोंने जिस प्रकार अनुमान द्वारा सर्वज्ञके अनेक अर्थों को जाननेवाले ज्ञान इंद्रियों की नहीं अपेक्षा रखना सिद्ध कर दिया है, उसी प्रकार यह भी अनुमान हो सकता है कि "खस्ता, कचौडी खाने, पापड, चवाने आदिमें पांचों इंद्रियों से रूप, रस, आदिकके जो पांच ज्ञान होते है, बे चक्षु मन आदिकी अपेक्षा नहीं करते हैं (प्रतिझा ) क्योंकि एक समयमें रूप, रस, गन्ध, आदि पांचों विषयों को जान रहे हैं। (हेतु, हम भी व्यतिरेक दृषांत देते हैं कि जो इन्द्रियों की नहीं अपेक्षा रखनेवाला नहीं है, वह एक समयमें अनेकरूप आदि विषयों को जाननेवाला भी नहीं देखा गया है । जैसे कि अन्यस्थलों पर कोमल वस्त्र,मोदक, इत्र, वृक्ष, मृदंगका शब्द आदि दूसरे दूसरे विषयोम कमसे होनेवाले वर्श, रूप, आदिके ज्ञान, अर्थात् ये सब ज्ञान इंद्रियोंकी अपेक्षा रखते हैं । ( उदाहरण ) कचौडी खाते समय होनेवाले ये पांचों ज्ञाम इस प्रकार कम क्रमसे जाननेवाले नहीं है । ( उपनय ) इस कारण पांचों इंद्रिय और मनकी अपेक्षा रखनेवाले भी नहीं हैं" ( निगमन ) इस अनुमानसे उक्त अनिष्टकी भी सिद्धि होजावेगी अर्थात् सर्वज्ञसंबंधी ज्ञानके समान कचौडी खाते समय पांचों ज्ञानोंकी उत्पत्तिमें भी इंद्रियां सहकारी कारण न होसकेगी। यह बात हम तुम दोनोंको अनिष्ट हैं । इस पर आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं मानना चाहिये क्योंकि पापड, कचौड़ी, खाते समय होनेवाले पांचों ज्ञानरूप पक्षमें युगपत्
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वर्वनिनागमिः
रुप आदि पांच विषयोंको जाननेवाला हेतु रहता नहीं है, अतः नैयायिकोंका आनष्टको आपादन करनेवाला हेतु असिद्ध नामका हेत्वाभास है । दूसरे हम लोगोंके यहां कचौडीके खाने आदिमें रूपादि पांच विषयोंको जाननेवाले एक समयमेंट्टी रूप आदिके पांच ज्ञान होना मानना एकांतरूपसे सिद्ध नहीं हैं । जैनोंका सिद्धांतवचन है कि एक समयमें दो उपयोग नहीं होते हैं, आठ ज्ञानोपयोग
और चार दर्शनोपयोग ये चेतना गुणकी यारह पाये हैं । एक समयमें एक गुणकी एकही पर्याय होती है । रासन प्रत्यक्ष, चाक्षुष प्रत्यक्ष ये सब मतिज्ञानके भेद हैं । अतः एक आत्मामें एक समयमें उपयोगरूप अनेक ज्ञान नहीं हो सकते हैं । पर्याय भी परिवर्तनसे होनीवाली क्रमसही होसकेंगी। प्रथम कहीं कहीं दो तीन और चारतक भी ज्ञान एक समयमें स्वीकार किये हैं। वह शक्तिकी अपेक्षासे कथन हैं, जैसे कि अंधे पुरुषमै चाक्षुषप्रत्यक्षावरणका क्षयोपशम होनेसे लब्धिरूप चाक्षुष प्रत्यक्ष है। किंतु अन्धेके उपयोगरूप चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं है । अथवा अष्टसहस्री ग्रंथको जाननेवाले विद्वान्के पढते पढाते समय अष्टसहस्रीका ज्ञान उपयोग रूप है । खाते, सोते, खेलते, समय और इष्टवियोगके अवसर पर उपयोगरूप उसका ज्ञान नहीं है । क्षयोपशम होनेसे केवल शक्तिरूप है, इसी प्रकार बड़ी कचोडी खाते समय उपयोगरूप पांचों ज्ञान नहीं है किंतु चक्रके घूमने के समान अत्यंत शीर उत्तरक्षणमे पैदा होजाते हैं, अतः एक समयमें होते हुए सरोखे दीखते हैं। पांचों ज्ञानोंके आवरण करनेवाले ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम अवश्य है, अतः उपयोग रहित अर्थात् लब्धि रूप पांच ज्ञान क्या पचास मतिज्ञान भी अनेक व्यक्तियोंके जाननेकी शक्तिकी अपेक्षा युगपत् पाये जा सकते हैं । उपयोगरहित ज्ञानोंका शक्तिरूपसे युगपत् हो जाना प्रसिद्ध है।
प्रतीतिविरुद्ध चास्याममनोऽनपेक्षत्वसाधनं तइन्वषव्यतिरेकानुविधायितया तदपेक्षस्वसिद्धेरन्यथा कस्यचित्तदपेक्षत्वायोगात् । ततः कस्यचित् सकृत्सूक्ष्माद्यर्थसाक्षात्करणमिच्छता मनोऽक्षानपेक्षमेपितव्यमिति नाक्षानपेक्षत्वविशेषण सूक्ष्माधर्थोपदेशस्यासिद्धम् ।
और मैयायिकोंकी ओरसे यह हमारे ऊपर कटाक्ष सिद्ध करना कि "कचौडी खाते समय होनेवाले ये पांच ज्ञान भी इंद्रियों की अपेक्षा न रख सकेंगे "। यह आपादान लोकमतीतिसे मी विरुद्ध है। क्योंकि इंद्रियोंके होनेपर पांच ज्ञानोका होना और न होनेपर न होना ऐसे अन्वय व्यतिरेकको रखनेके कारण उन झटिति क्रमसे होनेवाले ज्ञानोंको इंद्रियों की अपेक्षा सिद्ध होजाती है । अन्यथा अन्वय व्यतिरेक रखते हुए भी यदि ज्ञानोंको इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं मानोगे तो किसी भी यानी कमसे होनेवाले अन्य अकेले रूप आदिके ज्ञान में भी उन इंद्रियोंको कारण नहीं मान सकोगे । तिस कारणसे अब तक सिद्ध होता है कि यदि आप किसी पुरुषके एकसमबम सूक्ष्म, व्यरहित, विपकृष्ट, अर्थोका प्रत्यक्ष करना इष्ट करते हो तो वह ज्ञान इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला ही आपको मानना चाहिये । इस प्रकार नौमी चार्तिकमें कहे गये अनुमान दिया गया हेतुका अक्षान
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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पेक्षत्व यह विशेषण सिद्ध होगया । विशेषणसे युक्त हेतु सूक्ष्म आदिक अर्थोके उपदेशरूपी पक्षने रह गया । अतः असिद्धत्वामास भी नहीं है ।
सिद्धमप्येतदनर्थकं तत्साक्षात्कर्तुपूर्वकत्व सामान्यस्य साधयितुमभिप्रेतत्वान्न बा सर्वज्ञवादिनः सिद्धसाध्यता, नापि साध्याविकलत्वादुदाहरणस्यानुपपत्तिरित्यन्ये ।
कोई कह रहे हैं कि हेतुका इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा न रखनारूप विशेषण सिद्ध हुआ । यह ठीक है, किंतु कुछ भी लाभ न होनेसे व्यर्थ ही है। कारण कि पूर्वोक्त अनुमानद्वारा सूक्ष्म आदिक पदार्थों के उपदेश सामान्यरूपसे प्रत्यक्ष करनेवालेको कारणपना सिद्ध किया गया है। जब किसी भी प्रत्यक्ष से जान लेना साध्य कोटि में माना है, ऐसी दशा में उक्त प्रत्यक्षका इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखना रूप विशेषण व्यर्थ ही है । साध्यकी कुक्षिमें समान निवेश करनेपर यदि हम मीमांसक लोग सर्वज्ञको सिद्ध करनेवाले जैनके ऊपर सिद्धसाध्यता दोष उठावे कि सामान्य रूप से प्रत्यक्ष करना। तो हम मानते ही हैं फिर सिद्ध पदार्थको चर्चित चर्वण समान साध्य क्यों किया जाता है ? यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि हम मीमांसक लोगोंने सूक्ष्म परमाणु धर्म आदिका सामान्यप्रत्यक्षसे भी जानना इष्ट नहीं किया है । हम तो पुण्य, पाप, परमाणु, आदिके जाननेमें वेदवाक्योंका सहारा लेते हैं । अतः जैनोंके ऊपर सिद्धसाध्यता दोष नहीं लागू होसकता है तथा सामान्यप्रत्यक्षके द्वारा जाननेवालेको साध्य कोटिमें डालनेसे आप जैनोंको दूसरा लाभ यह भी है कि अन्वयां भी बन जावेगा। इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले मुख्य प्रत्यक्ष से जाननारूप साध्य जहां पाया जाय ऐसा प्रसिद्ध उदाहरण कोई नहीं मिल सकता है और सामान्य प्रत्यक्ष से जानकर afs, पुस्तक आदिका उपदेश होता है । इस उदाहरणमें साध्यका सहितपना मिल जाता है। अतः साध्यसे रहित न होनेके कारण उदाहरणका न सिद्ध होना रूप दोष भी जैनोंके ऊपर लागू नहीं होता है ऐसा कोई दूसरे महाशय मीमांसकों की पक्ष लेकर कह रहे हैं ।
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तेऽपि स्वमतानपेक्षं ब्रुवाणा न प्रतिषिध्यन्ते परानुरोधात्तथाभिधानात् स्वसिद्धान्वानुसारिणां तु सफलमक्षानपेक्षत्वविशेषणमित्युक्तमेव ॥
अब आचार्य कहते हैं कि वे मी अन्य महाशय अपने माने हुए तत्वोंकी नहीं अपेक्षा करके यदि कह रहे हैं तो हम उनका निषेध नहीं करते हैं क्योंकि उनका सिद्धान्त जैनोंके विचारानुसार है, दूसरे जैनोंकी अनुकूलतासे उन्होंने वैसा कहा है । किन्तु योग, वेदाध्ययन आदिसे संस्कारको प्राप्त हुथीं इंद्रियोंके द्वारा ही सूक्ष्म अर्थोका ज्ञान हो जाता है ऐसे अन्यवादियोंके अनुरोध करनेपर ही सूक्ष्म आदिके उपदेशमें इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखना रूप विशेषण हमने कहा है । जो मीमांसक परमाणु आदिका प्रत्यक्ष होना ही नहीं मानते हैं और अपने वैदिक सिद्धान्त के अनुसार चलते हैं ।
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उनके प्रति इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखनारूप विशेषण तो अवश्य सफल है । इसलिए हमने हेतुमे कह दिया ही है । और यह नैयायिककी ओरसे आये हुए सिद्धसाधन दोषका भी प्रतीकार है।
तदनुमातृपूर्वकसक्ष्माद्यपदेशेनाक्षानपेक्षावितथत्वमनैकान्तिकमित्यपि न शंकनीय लिङ्गानपेक्षत्व विशेषणात् , न चेदमसिद्धं परोपदेशपूर्वके सूक्ष्माघर्थोपदेशे लिझानपेक्षाविसथत्वप्रसिद्धः॥
अब सर्वज्ञको सिद्ध करनेवाले अनुमानमें दिये गये हेतुके लिंगकी नहीं अपेक्षा रखनारूपविशेषणकी सफलताको सिद्ध करते हैं कि परमाणु, पुण्य पाप, आदिका अनुमान करनेवाले वक्ता भी इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखते हुए परमाणु आदिका सत्य उपदेश देते हैं किन्तु वहां मुख्य प्रत्य. क्षसे जाननेवालेके द्वारा उपदेश देनारूप साध्य नहीं है अत. आपका हेतु व्यभिचारी है । प्रन्थकार कहते हैं कि यह भी शंका नहीं करना चाहिये क्योंकि लिंगकी अपेक्षा न रखनारूप विशेषण हेतु दिया गया है। यदि यहां कोई यों कहे कि अविनाभावी हेतुकी नहीं अपेक्षा रखता हुआ सत्य उपदेश कोई है ही नहीं, अतः जैनोंका हेतु असिद्ध हेल्वाभास है । यह तो ठीक नहीं है क्योंकि आगमले जाने हुए पदार्थोंका अपनी आत्मामें अनुभव करके दूसरे सत्यवक्ता उपदेष्टाके द्वारा जहां सूक्ष्म आदिक पदार्थो का उपदेश हो रहा है उस उपदेशमै इंद्रियों और हेतुकी नहीं अपेक्षा रखते हुए सत्य उपदेशपना प्रसिद्ध है।
तेनैध व्यभिचारीदमिति चेत्, न परोपदेशानपेक्षत्वविशेषणात्।।
जब आप किसी निष्णात विद्वान्के उपदेशमें हेतु और इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षा करके यथार्थ उपदेशपना मानते हो तो आप जैनोंका हेतु इस विद्वान् के उपदेशसे ही व्यभिचारी हो गया । ऐसा कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि हेतुमें हमने दूसरोंके अपदेशकी नहीं अपेक्षा रखना पन भी विशेषण दिया है, अतः पूर्ण हेतुके न रहनेसे साध्य मी न रहा, ऐसी दशा, व्यभिचार दोष नहीं है । इस कारण अब तक सिद्ध हुआ कि वर्तमानमें सच्चे जैन आगमोंके द्वारा सूक्ष्म आदि पदार्थोके जो उपदेश दूसरों के उपदेश इंद्रियों और हेतुओंकी नहीं परवाह करके यथार्थ हो रहे हैं वे अवश्यही अपने उपदेश्य विषयको प्रत्यक्ष करनेवाले सत्यवक्ता सर्वशके द्वारा ही पूर्वमें उपन्न हुए हैं। बादमें भले ही आगमदर्शी या अनुभवी विद्वान् सर्वज्ञके उस उपदेशका स्वयं उपदेश देवें ।
सदसिद्ध धर्माशुपदेशस्य सर्वदा परोपदेशपूर्वकत्वात् , तदुक्तं " धर्मे चोदनैव प्रमाण नान्यत् किञ्चनेन्द्रिय " मिति कश्चित् ।
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__ यहां कोई मीमांसक कहता है कि जैनोंका हेत धर्म आदिकके उपदेशरूप पक्षम नहीं रहता है । अतः असिद्ध हेवाभास है क्योंकि हमारे यहाँ सूत्रग्रन्थों में लिखा हुआ है कि पुष्प, पापके जानने में लिङ्, लोट, तव्य प्रत्ययवाले वेदवाक्य ही प्रमाण हैं । दूसरा कोई ज्ञापक नहीं है। इन्द्रियां, हेतु, और अतींद्रिय प्रत्यक्षसे पुण्य नहीं जाना जाता है । हम लोग जो पुण्य, परमाणु, आदि सूक्ष्म अर्थों को जान लेते हैं। वह वेदविद्वानोंके उपदेश द्वारा ही जान सकते हैं । अतः धर्म आदिकके उपदेशमै परोपदेशकी अपेक्षा होनेसे परोपदेशकी नहीं अपेक्षा रखनारूप-विशेषण नहीं घटता है । अतः असिद्धहेत्वाभास है।
तत्र केयं चोदना नाम ? क्रियायाः प्रवर्तकं वचन मिति चेत् तत्पुरुषेण व्याख्यात स्वतो वा क्रियायाः प्रवकं श्रोतुः स्यात् १ न तावत्स्वत एवाचार्यचोदितः करोमीति हि इस न वसगडे दिग्ध हानि।
यहां आचार्य पूंछते हैं कि जिन प्रेरणावाश्योंसे परोपदेशद्वारा आप धर्म आदिकको जानते हैं, वह वेदका प्रेरणावाश्म भला क्या पदार्थ है ? बताओ यदि यज्ञ करना, भावना करना, नियुक्त होना आदि क्रियाओम प्रवृत्ति करा देनेवाले वचनको प्रेरणावाक्य कहोगे तो हम पूछते है । कि वह वचन पुरुषके द्वारा व्याख्यान किया गया होकर श्रोताकी क्रिया में प्रवृत्ति करावेगा या विना व्याख्यान किये उच्चारणमात्रसेही अपने आप श्रोताको क्रिया करनेमें प्रेरित कर देवेगा ! बतलाइये, यदि यहां दूसरा पक्ष लोगे अर्थात् वह वेदवाक्य अपने आपही प्रवृत्ति करा देवेगा यह पक्ष तो ठीक नहीं है । क्योंकि अच्छा व्याख्यान करनेवाले आचार्यके द्वारा प्रेरित होकर में पूजा कररहा हूं, ऐसा सब स्थानोंपर सब जगह, देखा जाता है किंतु केवल बचन सुनकर ही इस कार्यमें प्रेरित हुआ हूं ऐसा नहीं आना जाता है। .
नन्धपौरुषेयावचनात्मवर्तमानो वचनचोदितः करोमीति प्रतिपद्यते, पौरुषेयादाचार्यचोदित इति विशेषोऽस्त्येवेति चेत् स्यादेवं यदि मेघवानवदपौरुषेय बचन पुरुषप्रयत्ननिर. पेक्ष प्रवर्तके क्रियायाः प्रतीयेत, न च प्रतीयते, सर्वदा पुरुषव्यापारापेक्षत्वात्तत्स्वरूपलामस्य. पुरुषप्रयलोऽभिव्यञ्जकस्तस्येति चेन्नैकान्तनित्यस्याभिव्यक्त्यसंभवस्य समर्थितत्वात् ।।
स्वपक्ष अब धारण करते हुए यहां मीमांसक कहते हैं कि लौकिकवचन और वैदिकवचनोंके उपदेशमें यह अंतर है ही कि किसी पुरुषके द्वारा न बनाये हुए वेदके वचनोंको सुनकर प्रवृत्ति करनेवाला यह विश्वास करता है कि मैं पवित्रवचनोंसे मेरित होकर इस वेदविहित क्रियाको कर रहा हूं और पुरुषोंके द्वारा बनाये हुए वचनोंको सुनकर समीचीन क्रिया करता हुआ श्रोधा
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यह जानता है कि मैं विद्वान् आचायोंके व्याख्यानद्वारा प्रेरित होकर दान, पूजा आदि कर्म कर रहा हूं, आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकों का कहना तब हो सकता है जब कि किसी पुरुषके न बनाये हुए वचन पुरुषोंके प्रयत्न किये बिना ही किसी क्रियामें प्रवृत करानेवाले प्रतीतिसिद्ध हो
किन्तु नहीं प्रतीत हो रहे हैं। क्या बादलोंका गर्जना अपौरुषेय भी होकर अपने वाच्यार्थको रखता हुआ उसमे प्रवृत्ति करा देता है ! किन्तु नहीं | भावार्थ::- जब अपौरुषेय वचन कुछ भी अपने वाच्य अर्थको नहीं रखते हैं, तब प्रवृत्ति क्या करायेंगे ? पदार्थोंके कहनेवाले उन वचनोंकी उत्पत्ति यानी अपने स्वरूपकी प्राप्ति तो सदैव पुरुषोंके व्यापारकी अपेक्षा रखती है। यदि मीमांसक यहां यों कहेंगे कि वेदके वचन तो नित्य हैं, किसी पुरुषने बनाये हुए नहीं हैं । पुरुषका कण्ठ, तालु, आदिका व्यापार पूर्वसे विद्यमान हो रहे उन शब्दोंको केवल प्रकट कर देता है। प्रन्यकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि एकान्तपनले कूटस्थ नित्य शब्द की अभिव्यक्ति नहीं बन सकती है, असम्भव है। इस बातको हम पूर्वप्रकरण में अच्छी तरहसे सिद्ध कर चुके हैं।
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रुनः प्रवर्तकमिति चेत्, स पुरुषः प्रत्ययितोऽ प्रत्ययितो वा ? न तावत्प्रत्ययितोऽतीन्द्रियार्थज्ञानविकलस्य रागद्वेषवतः सत्यवादितया प्रत्येतुमशक्तेः
मीमांसकके ऊपर आचार्यने दो पक्ष उठाये थे । उनमेंसे दूसरे पक्षका खण्डन होगया । अब पहिले पक्षका खण्डन करते हैं कि पुरुषके द्वारा व्याख्यान किया गया अपौरुषेयवेदका वचन श्रोताको यागक्रियामै प्रवृत्ति करा देता है । यदि यह पक्ष ग्रहण करोगे तो हम जैन पूछते हैं कि वह व्याख्यान करनेवाला पुरुष विश्वस्त है या विश्वास करने योग्य नहीं है ? यदि पहिला पक्ष लोगे कि वह व्याख्याता विश्वास करने योग्य है सो ठीक नहीं है, क्योंकि इंद्रियोंके अगोचर सूक्ष्म आदिक अर्थों के ज्ञानसे रहित और रागद्वेषवाले व्याख्याताके सत्यवादीपनका विश्वास नहीं किया जासकता है। निर्णय भी नहीं हो सकता है ।
स्यादयीन्द्रियगोचरेऽर्थेऽनुमानगोचरे वा पुरुषस्य प्रत्ययिता न तु तृती स्थान सङ्क्रान्ते जात्यन्धस्येव रूपविशेषेषु ।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्षसे जानने योग्य इंद्रियोंके विषयभूत अर्थ में और हमारे अनुमानसे जानने योग्य अनुमेय पदार्थों उन विषयोंके व्याख्यान करनेवाले पुरुषका विश्वास भी किया जासकता है किंतु जो पदार्थ अनुमान और प्रत्यक्षसे सर्वथा न जाने जाय, केवल तीसरे प्रमाणस्थानपर होरहे आगमसे ही जानने योग्य हैं उन पदार्थों के व्याख्यान करने वाले में विश्वास कैसे भी नहीं किया
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जासकता है। यदि आप सर्वज्ञको मानते होते तब तो उसके व्याख्यानकी आम्नायसे आज तक के व्याख्याता विद्वानोंका विश्वास किया जाता, किंतु आप सम्पूर्ण व्याख्याताओंके आदिगुरु सर्वज्ञको मानते नहीं हैं। अतः जन्मसे अन्धे पुरुषका रूपगुणके विशेष हो रहे काले, नीलेपनका और उनकी तरतमताके व्याख्यान करनेमें जैसे विश्वास नहीं किया जाता है, उसी प्रकार आपके वेद व्याख्याताओंका भी विश्वास नहीं किया जा सकता है।
न च ब्रह्मा मन्वादिर्वातीन्द्रियार्थदर्शी रागद्वेषविकलो वा सर्वदोपगतो यतोऽस्मातात्ययिताच्चोदनाव्याख्यानं प्रामाण्यमुपेयादित्युक्तं प्राक् ।
आपने अक्षा तथा मनु आदि ऋषियोंको वेदका व्याख्याता तो माना है किंतु अतीन्द्रिय अोंका देखनेवाला और रागद्वेषसे रहित ऐसा कोई भी ब्रह्मा, मनु, आदि पुरुष सब कालों में नहीं स्वीकार किया है, जिससे कि सर्वज्ञ, वीतरागपनेसे विश्वासको प्राप्त इस ब्रह्मा आदिकसे किया गया वेदवाक्योंका व्याख्यान प्रमाणपनेको प्राप्त होवे । यह सब विषय हम पहिले प्रकरणमे कह
स्वयमप्रत्ययितात्तु पुरुषात् तध्याख्यानं प्रवर्गमानभसत्यमेव नद्यास्तीरे फलानि संतीति लौकिकवचनवत् ।
यदि आप मीमांसक दूसरा पक्ष लेंगे कि बिना विश्वास किये गये पुरुषसे भी वेदका व्याख्यान प्रवर्तित होजाता है, तब तो बह व्याख्यान झूठा ही समझा जावेगा । जैसे कि कार्य करनेवाले एक पुरुषको छोकरोंने हैरान किया । लडफोंको भगानेकी अभिलाषासे वह पुरुष यह लौकिक वचन बोल देता है कि नदीके किनारे अनेक फल पड़े हुए हैं। इस वाक्यको सुनकर आतुर लड़के नदीके किनारे भाग जाते हैं । किंतु नदीके किनारे वृक्षोंके न होनेसे उनको फल नहीं मिलते हैं । अतः उस साधारण मनुष्यके ऊपर उन लडकोका विश्वास नहीं रहता है । जैसे इस काम करनेवाले लौकिक पुरुषके वचन झूठे हैं उसी प्रकार श्रोताको जिस वक्ताके कथनका विश्वास नहीं है उसका व्याख्यान भी झूठा ही है।
न चापौरुषेयं वचनमतथाभूतमप्यर्थ ब्यादिति विप्रतिषिद्धं यतस्तव्याख्यानमसत्यं न स्यात् ।
पूरी पूरी शक्तियाले अनेक विरुद्ध पदार्थोके विरोध करनेको विप्रतिषेध कहते । विप्रतिषेधवाले दो पदार्थ एक जगह रह नहीं सकते हैं। जहां घट है वहां घटाभाव नहीं, और जहां घटामाव है वहां पट नहीं । एककी विधिसे दूसरेका निषेध उसी समय हो जाता है और दूसरे की विधि से एफका निषेध तत्काल हो जाता है । इस प्रकारका विप्रतिषेध मीमांसक दे रहे हैं कि अपौरुषेय
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वेदका वचन असत्य अर्थको कैसे भी ( बिलकुल ) न कह सकेगा अर्थात जो वेदका वाक्य है वह झूठे अर्थका प्रतिपादक नहीं और जो असत्य अर्थमा वानक है बह अपौरुषेय वेदका वाक्य नहीं है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यहां विप्रतिषेध नामका विरोध नहीं है जिससे कि वेदका व्याख्यान असर्वज्ञ रागियों के द्वारा किया गया होकर झूठा न हो सके । अर्थात् अपौरुषेय वचन भी असत्य अर्थको कह सकते हैं। एक पक्षी । काला तीतर) ने गटरगट ऐसा अव्यक्त शब्द बोला था । किसीने “ खुदा तेरी कुदरत " और दूसरेने " रामचन्द्र दशरथ " तीसरे मल्लने दंड कुस्तीकसरत अर्थ निकाल लिया था । रागी, अज्ञानी व्याख्याता वेदवाक्योंसे मनचाहा चाहे जैसा झूठा अर्थ निकाल लेते हैं और वेद मी सर्वज्ञोक्त न होनेसे अनेक चार्वाक, ( जडवाद ) अद्वैत ( सात्मवाद ) एवं सांख्य, नैयायिक तथा हिंसा अहिंसा और कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड आदि विरुद्ध मंतव्योंको पुष्ट कर रहा है।
लौकिकमपि हि वचनमर्थं ब्रवीति, बोधयति, बुध्यमानस्य निमित्तं भवतीत्युच्यते विवधार्थाभ्यधायि च दृष्टमविप्रतिषेधात् , तपथार्थ ब्रवीति न तदा वितथार्थाभिधायि, यदा तु बाधकप्रत्ययोत्पत्तौ वितथार्थाभिधायि न तदा यथार्थ ब्रवीत्यविप्रतिषेधे, वेदवचनेऽपि तथा विप्रतिषेधो मा भूव ।
इस लोकमै साधारणजनताके वचन भी अर्थको कहते हैं अर्थात् उन शब्दोंसे अर्थका ज्ञान कराया जाता है । इस कथनमें भी यह तात्पर्य कहना चाहिए कि उच्चारण करनेवाले मनुष्यों के शब्द श्रोतासे जाने गये अर्थके निमित्त कारण हो जाते हैं । अनेक गोत्रस्खलम आदि प्रकरणों में कहा कुछ जाता है और मिन्न अर्थ समझा जाता है । इस कारण सिद्ध हुआ कि शब्दकी सत्यार्थ वाचकताके निमित्तपनेके नियमका व्यभिचार है, और तभी तो वे शब्द झूठे अर्थके कहनेवाले देखे गये हैं । अतः साधारण पुरुषके वचनके समान असत्य अर्थ कहनेमें वेदवाक्योंका कोई तुल्यबल वाला विरोध नहीं है।
यदि यहां मीमांसक यह कहे कि लौकिकमनुष्यों के बचन ठीक उच्चारण करते समय जब अर्थको कह रहे हैं उस समय ये ठीक ही ठीक अर्थक बाचक हैं । झूठे अर्थको कुछ भी बिल्कुल, नहीं कहते हैं । और जब यह पदार्थ वह नहीं है जो कि वचनके द्वारा कहा गया था ऐसे राधक शानके उत्पन्न हो जानेपर वे शब्द झूठा अर्थ कह रहे हैं उस समय तो वे वचन वास्तविक अर्थको नहीं कहनेवाले माने गये हैं । इस प्रकार यदि विप्रतिषेध दोषका वारण किया जाय तब वेदफे शब्दोंमें भी उस प्रकार अर्थ कहनेपर भी विप्रतिषेध-नामका विरोध न हो सकेगा, अर्थात् बेदके शब्द भी जब ठीक अर्थको कह रहे हैं तब झंठे अर्थको नहीं कह रहे हैं और जब बाधकज्ञानके
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
होजानेपर पूर्व वाक्योंके वाच्यको झूठा कर दिया गया है तब वे शब्द मी अर्थको कहाँ कर रहे हैं ? उक्त प्रकार मीमांसकों का कहना तो प्रसिद्धार्थख्याति माननेवालोंकासा ही है । जो कि कोसों तक फूले काँसामे या चमकते हुए वाल रेत. ( मरीचिकाचक्रमे ) जलकी भ्रांति होनेपर यह मानते हैं कि जलके ज्ञान होते समय बालू रेतमै अश्य जल भरा हुआ था किंतु वहां पहुंचनेपर बह जल बिजलीकी तरह झट नष्ट होगया । शब्दके सत्य अर्थ प्रतिपादन करनेमें भी निकटतम ( लगभग ) मीमांसकोंका इसी प्रकारका सिद्धांत माना जारहा है। भले मनुष्योंको यह तो विचारना चाहिये कि पीछे वहां पहुंचनेपर कुछ भी कीच या गीलापन बहा जलचिन्ह दीखता ॥
तत्र बाघकप्रत्ययोत्पत्तेरसम्भवाद्विपतिपेध एवेति चेत्, ने, अग्निहोत्रात्स्वर्गो भवतीति चोदनायां बाधकसद्भावात् । तथाहि "नामिहोत्रं स्वर्गसाधनं हिंसाहेतुत्वात्सधनवधवत् । सधनधो वा न खर्गसाधनस्तत एवाग्निहोत्रवत् "।
___ यदि मीमांसक यहाँ यह कहेंगे कि लौकिक वचनों बाधक ज्ञानोंके उत्पन्न होजानसे असत्यार्थपना भले ही होजाय किंतु वाक्योंके अर्थमें बाधा देनेवाला कोहे ज्ञान पैदा नहीं होसकता है । असम्भव है । इस कारण नेदके वाक्य होकर असत्य अर्थक प्रतिपादन करनेवाले हों, यह अवश्व ही तुल्यबल माला विरोध है अर्थात् वेदके वात्रय सत्यार्थ ही है हैं, यह तो उनका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अग्निहोत्र नामके यज्ञ. फरनेसे स्वर्ग मिल जाता है इस प्रेरक वेदवाक्यमें बाधक प्रमाण विद्यमान हैं । इसी बातका आचार्य अनुभानको बाधक प्रमाण बनाकर स्पष्टीकरण करते हैं कि, " अमिहोत्र नामका भाग स्वर्गका साधक नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह पशुओंकी हिंसाका कारण है। ( हेतु ) जैसे कि धनवान् पुरुषको मार डालना चाहिये ऐसे जीव हिंसापूर्वक किये गये कर्म सद्गतिके कारण नहीं हैं । अथश स्वरपटमतके अनुयायी यदि धनवानों के मारडालनेमें भी स्वर्ग बतलायें तो इसका भी बाधक प्रमाण यह है कि धनवान्का काशीकरवत, गंगाप्रवाह, शिवपिण्डीके सामने मस्तक चढाने आदि उपायोंसे मार डालना स्वर्गको प्राप्त करानेशला उपाय नहीं है, इसही कारणसे यानी क्योंकि वह भी अग्निहोत्रके समान हिंसाके कारणोंसे पैदा हुआ है। अतः स्वर्गका साधक नहीं होसकता है " ।
विधिपूर्वकस्य पश्वादिषधस्य विहितानुष्ठानत्वेन हिंमाहेतुत्वाभावात् असिद्धो हेतुरिति चेत्. तर्हि विधिपूर्वकस्य सधनवधस्य खारपटिकानां विहितानुष्ठानत्वेन हिंसाहेतुत्वं मा भूदिति सधनवथात्स्वर्गो भवतीति वचने प्रमाणमस्तु ।
प्रतिवादी बोलता है कि कर्मकाण्डके विधान करनेवाले शास्त्रों में लिखी हुई वैदिकविषिके अनुसार किया गया पशुओंका वथ हो शासोक क्रियाओंकाही अनुष्ठान है, लौकिकहिंसाके समान
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तत्वार्थ चिन्तामणिः
हिंसाका कारण होकर पापको पैदा करनेवाला नहीं है । अतः जैनोंका दिया गया हिंसाका कारणपनारूपहेतु अभिहोत्र - रूपपक्ष में नहीं रहने से असिद्ध हेत्वाभास है, यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तब तो इम जैन आपादन करते हैं कि खरपटमतके अनुयायिओंने धनवानके विधिपूर्वक मार डालनेको भी शास्त्रों में लिखी हुयी क्रियाकाही अनुष्ठान माना है, अतः धनीका मार डालना भी हिंसाका कारण न होवे | यों धर्मका प्रलोभन देकर की गयी धनिकोंकी हिंसासे स्वर्ग होजाता है इस प्रकारका धवन भी आप मीमांसक लोगोंको प्रामाणिक होजाओ ।
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तस्याप्यैहिकप्रत्यवायपरिहारसमर्थेतिकर्तव्यता लक्षण विधिपूर्वकत्वाविशेषात् । न हि वेदविहितमेव विहितानुष्ठानं, न पुनः खरपटशास्त्रविहितमित्यत्र प्रमाणमस्ति ।
अनेक पुरुषों का ऐसा अनुभव है कि संसारमें प्रायः धनवान पुरुष ही अनर्थ करते हैं । हिंसा करना, द्यूत खेलना, मद्यपान करना, वेश्या परस्त्रीगमन करना, परिग्रह एकत्रित करना, अन्यायों से गरीब, दीन, अनाथ, विधवाओंका घोर परिश्रमसे पैदा हुए पैसको हडप जाना, कुरीतियां चलाना आदि धनवानोंके ही कुकर्म हैं । धनिक पुरुषही अनके मदसे अन्धे होकर दीन, दुःखी, साधारण मनुष्यों को नाना प्रकार क्लेश पहुंचाते रहते हैं। पूंजीपतियों को कोई अधिकार नहीं है कि वे अकेले ही उसका उपयोग करें, धन सर्व पुरुषों को सार्वजनिक सम्पत्ति है। वह सब पुरुष यथायोग्य बांट देना चाहिये । जो घनो पुरुष उक्त क्रियाको न करे, उसका वचतक कर दिया जाय, इस प्रकार करनेसे इस लोक संबंधी अनेक पापाचार भी दूर होजायेंगे तथा अभिमान, दूसरोंपर घृणा करना, लोम आदि कुकर्मों के दुर होजाने से सहानुभूति, वात्सल्य, सबके प्रति सौहार्दभाव, सजातीयता, समानता आदि गुणोंकी वृद्धि होकर संसार-दुनियां में गानन्द अमन चमन रहेगा, इन पूर्वोक युक्तियों से वह धनिकों का वध भी कर्तव्यपनेको प्राप्त होता हुआ अनेक पापोंको हटाने में समर्थ हैं । यह धनिक वध खरपट मतानुयार्थियोंकी विधिके अनुसार ही है । वे यह मानते हैं कि बकरा, घोडा आदिको मारकर होमदेना चाहिये, इन वाक्यों में और " हन्ते को हनिये घनिकको मारिये इत्यादि वाक्यों में कोई अन्तर नहीं है | यदि आप मीमांसक यहां कहें कि वेद लिखी हुई हिंसा के करनेसे, या युद्धमें मरनेसे सर्ग वश्य होता है अतः ये ही कर्म तो शास्त्रोक्त क्रियायें हैं किन्तु फिर स्वरपट मतानुयायिओं के शास्त्री विधिलिड्से लिखी हुयी क्रियाएँ वेदोक्त नहीं हैं, इस आपके हमें कोई प्रमाण नहीं हैं। दोनों ही समानरूपसे हिंसाके कारण हैं । दोनों भी प्रमाण होंगे या एक साथ अपमान हो जायेंगे ।
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यागः श्रेयोऽर्थिनां विहितानुष्ठानं श्रेयस्करत्वान्न सवनबधस्तद्विपरीतत्वादिति चेत् । तो मागस्य श्रेयस्करत्वम् ?
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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यहां मीमांसक कहते हैं कि "अग्निष्टोम, ज्योतिष्टोम, विश्वजित आदि यज्ञही कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंके लिये शास्त्रोक्त विधिविहित कर्म हैं। क्योंकि वे कर्म ही इष्ट पदार्थोकी प्राप्तिरूप कल्याणको करनेवाले हैं किंतु धनिकोंका मारना देवमें लिखा हुआ कर्म नहीं हैं। क्योंकि वह उससे विपरीत है, दुःखका कारण है" । यदि आप मीमांसक यह कहोगे तब तो जैन पूछते हैं कि पशुओंके वध आदि अनेक कुकर्मोसे सम्पन्न हुआ यज्ञ भला कल्याणकारी कैसे है ! बताओ।
धर्मशब्देनोच्यमानखात्, यो हि यागमनुतिष्ठति तं " धार्मिक " इति समाचक्षते । यश्च यस्य कर्ता स तेन समाख्यायते यथा याचको लावक इति । तेन यः पुरुष निःश्रेयसेन संयुनक्ति स धर्मशब्देनोच्यते, न केवलं लोके, वेदेऽपि । “ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धीपि प्रथमायासमिति । यअधि' शब्दवाच्य एवार्थे धर्मशब्दं समामनन्तीति 'शबराः ॥
हिंसामार्गके पोषक मीमांसादर्शनका भाष्य बनानेवाले शबरमुनि वेदसे भी कई गुनी हिंसाका पोषण करते हुए अपन बनाये भाष्यमें यज्ञोंका कल्याणकारीपन इस प्रकार सिद्ध करते है कि संसारमै और मीमांसकदर्शनमें यह प्रसिद्ध है कि धर्मसे ही सर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है, वेदवाक्योंसे प्रेरित होकर किये गये ज्योतिष्टोम, अजामेघ, कुक्कुटमेध, भैसेका आलमन आदि अनेक यज्ञ ही धर्म शब्दसे कहे जाते हैं। जो पुरुष निश्चयसे यज्ञोंको करता है उसको सभी पुरुष धर्मात्मा कहते हैं। धर्मके करनेवालेको धार्मिक कहना भी ठीक है क्योंकि जो जिसको करता है, वह उस कर्मके द्वारा व्यवहार नाम पाता है । जैसे कि मांगनेवालेको याचक कहते हैं और काटनेवालेको लायक कहते हैं और पवित्र करनेवालेको पावक कहते है । इस कारणसे यह सिद्ध हुआ कि जो पदार्थ पुरुषको स्वर्ग, मोक्ष आदि कल्याणके मार्गसे संयुक्त कर देता है, वह पदार्थ धर्म शब्दसे कहा जाता है। यह बात केवल लोकमै ही नहीं है किंतु वेदमें भी यह नियम चला आरहा है कि "अनेक देवता यज्ञकी विधिसे यज्ञ रूपी पूजा करते भये । अतः वे यज्ञ ही सबसे पहिले प्रधान धर्म थे" । इस प्रकार लोक और बेदके नियमसे सिद्ध होता है कि यज़ धातुके यज्ञरूप वाच्य अर्थमें ही धर्म शब्द अनादिकालकी प्राचीन ऋविधारासे प्रयुक्त किया हुआ चला आ रहा है अतः यज्ञ ही धर्म है । इस प्रकार शबर ऋषिका मत है।
सोऽयं यथार्थनामा शिष्टविचारबहिर्भूतत्वात्, नहि शिष्टाः क्वचिद् धर्माधर्मव्यपदेशमात्रादेव श्रेयस्करत्वमश्रेयस्करत्वं वा प्रनियंति, तस्य व्यभिचारात् । कचिदश्रेयस्ककरेऽपि हि धर्मव्यपदेशो दृष्टो यथा मांसविक्रयिषो मांसदाने । श्रेयस्करेऽपि वाऽधर्मव्यपदेशो, यथा संन्यासे स्वघाती पापकर्मेति तद्विधायिनि कैश्चिद्भाषणात् ।
यहां आचार्य कहते हैं कि यह प्रसिद्ध शबर नाममात्रसे ही म्लेच्छजातीय या भील नहीं
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है किंतु जैसा इसका नाम है तदनुसार वैसा ही इसका अर्थ भी इसमें घट जाता है । जंगली मनुष्य ही हिंसाका पोषण कर सकते हैं, सज्जनपुरुषों के व्यवहारसे इन हिंसकोंका आचार सर्वथा विपरीत है, बाहर फेंकने योग्य है । समीचीन आगमोंकी शिक्षासे अलंकृत होकर विचार करनेवाले सज्जन मनुष्य चाहे जिस क्रियामे केवल धर्मके नामसे ही कल्याणकारीपन और अधर्म शब्दके कहनेसे ही किसी भी अच्छी क्रिया में अमंगलकारीपनका विश्वास नहीं करलेते हैं, क्योंकि अविचारी पुरुषोंके द्वारा उन्चारण किये गये धर्मशब्दको कल्याण करने के सश्र और अपशब्द बोलनेसे दुःखकारीपनेकी व्याप्ति नहीं है, इस उक्त नियममें व्यभिचार देखा जाता है। कहीं कहीं पाप करनेवाले कमैंमें भी धर्म शब्दका प्रयोग देखा गया है, जैसे कि मांस, मद्य, बेचनेवालोंके यहां महापापके कारण मांसका देना भी धर्म कह दिया जाता है। उसी प्रकार शिकार खेलनेवाले, वेश्यासवन करनेवाले, डांका डालनेवाले, पापियोंने भी अपने इष्ट व्यसनोंको धर्मका रूप दे रखा है, और कहीं कहीं अच्छे पुण्यवर्धक कार्योंको भी लोग अधर्म शब्दसे कह देते हैं, जैसे समाविमरण करनेवाला आत्मघात करता है अतः पापी है, बुरा काम करता है । शठके साथ सज्जनता करना, हिंसकपशुफे साथ दयाभाव करना भारी अपराध है, इत्यादि पकारसे भी कोई कोई भाषण करते है । उन अच्छे कर्जाको कर रहे व्यक्तियोंमें पाप करना शब्द प्रयुक्त होरहा है यह व्यभिचार हुआ । इस कारण हिंसा पोषक यज्ञ केवल थोडेसे आदमियों के द्वारा धर्म कहे जानेसे वास्तव कल्याणकारी नहीं होसकता है ।
सर्यस्य धर्मव्यपदेशः प्रतिपद्यते स श्रेयस्करो नान्य इति चेत् । तर्हि न यागः श्रेयस्करस्तस्य सौगतादिभिरधर्मस्वेन व्यपदिश्यमानत्वात् ।
यदि यहां मीमांसक यह कहें कि सम्पूर्ण जीव जिसको धर्मशब्दसे व्यवहार किया हुआ जानते हैं वह अवश्य कल्याणकारी है, अन्य डाका डालना आदि नहीं 1 क्योंकि डांका डालनेको सभी लोग धर्मकार्य नहीं कहते हैं । आपके इस प्रकार माननपर तो आपका यज्ञ भी कल्याणकारी नहीं हो सकता है। क्योंकि बौद्ध, चार्वाक, जैन आदि मतानुयायियोंने इस यज्ञको अधर्म शब्दसे निरूपण किया है । अतः सबके द्वारा धर्म शब्दकी प्रवृत्ति यझमें नहीं हुई।
सकलैदवादिभिर्यागस्य धर्मत्वेन व्यपदिश्यमानत्वाच्छ्रेयस्करत्वे सर्वैः खारपटिकैः सधनवधस्य धर्मत्वेन व्यपदिश्यमानतया श्रेयस्करत्वं किं न भवेत् , यतः श्रेयोर्थिनां स विहितानुष्ठानं न स्यात् ।
पुनः यदि मीमांसक यहां यों कहेंगे कि वेद के अनुसार चलनेवाले मीमांसक, वैशेषिक,शाक्त भैरवमक्त और पौराणिक सब ही विद्वानोंने यज्ञको धर्मरूपसे प्ररूपण किया है, अतः यज्ञ कल्याण करनेगला धर्म है । ऐसा होते सन्ते तो इसपर हम जैन भी कहते हैं कि खरपटमतके अनुयायी
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
सर्व ही पण्डों, डांकू और बोलशेविकोंने घनिकों [ कृपण ] और हिंसक क्रूर सिंह, सर्प, व्याघ्र आदि प्राणियोंका मारना मी धर्मरूपसे कहा है इस कारण फिर उक्त क्रियाएँ कल्याण करनेवाली क्यों न हो जायें । जिससे कि कल्याणको चाहनेवाले पुरुषोंके लिए वह धनिकों का मारना आदि ओक अनुधन नहोस, वर्धा के सहरा धनिकोंका मारना आदि भी कल्याण
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कारी हो जावेगा । यह आपादन हुआ ।
लोकगर्हितत्वमुभयत्र समानम् ।
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यदि आप मीमांसक धनिकोंके वधको लोकसे निंदनीय समझकर धर्म न कहोगे तो पशुवध मी लोक निंदनीय है । अतः यह भी धर्म नहीं हो सकता है। लोकमै निंदित होना तो दोनों स्थलपर समान है । वास्तव में देखा जाय तो क्षमा, दया, अहिंसा, ही सज्जनोंके प्रधान कर्तव्य है । परस्त्रीसेवन, डाँका डालना, मांस खाना, पशु-पक्षियों को मारना आदि अनन्त संसारके कारण ही हैं। स्कार्थी कषायी और इंद्रियलोलुप वञ्चकोंने मोले जीवोंको पापमागने फँसने और फंसने के लिए अनेक कुकर्मों को कर्तव्यकर्म बतलाया है । यह केवल धर्मकी आड महापापरूप शिकार खेलता है । कहीं पशुओंके वध करनेसे भी मला धर्म हो सकता है ? यदि ऐसा ही हो तो यजमान अपने इष्ट पुत्र, माता, पिता आदिका होम क्यों नहीं करता है ? जैसे यजमानको और उसके बालबच्चोंको मरनेका दुःख है उससे भी कहीं अधिक पशुओंको सरनेमें दुःख है । अतः ऐसे हिंसक यजमानको और हिंस्य पशुओंको कैसे भी अच्छी गति प्राप्त नहीं हो सकती है । धनिकों के मारने में भी लोगोंका गहरा स्वार्थ है । वे परोपकार और वात्सल्यका तो उपदेश देते हैं किन्तु अनेक अनथका मूल कारण धनिकोंका वधरूप कार्य करते हैं। क्या पुण्यपापरूप व्यवस्था संसारसे नष्ट हो सकती है ? कोई धनी है तथा अन्य दरिद्र है, एक विद्वान है दूसरा मूर्ख है, एक रोगी है दूसरा मीरोग | इसी प्रकार कोई स्त्री है, अन्य जीव पुरुष हैं, तीसरे प्रकारके पशु जीव हैं. अनेक बालक हैं, कई युवा है, बहुतसे बुढ्ढे हैं, कोई जह हैं, कोई अन्धा है, कितने ही चेतन T· इत्यादि प्रकार पुण्यपापके फलरूप संसारकी व्यवस्था है । केवल धनिकों को मार डालने से उक्त प्राकृतिक नियमका क्षय करना अपने पैरों में कुल्हाडा मारना है । संसारभर भेद स्वाभाविक है अर्थात् स्वात्मभूत अगुरुलघु गुणके द्वारा प्रत्येक वस्तु संपूर्ण परपदार्थों से भिन्न स्वरूप है । सर्वज्ञ और इन्द्र, चक्रवर्ती आदि भी आकर वस्तुओंके केवलान्वयी होकर पाये जा रहे हैं भेद भानको मिटा नहीं सकते हैं। किसी न किसीका प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव, या अत्यन्ताभाव, सर्व वस्तुओं में पाये जाते हैं । धनवान् होना भी विशिष्ट पुण्यका कार्य है । सातावेदनीय आदि शुभ कर्मों के उन्हबसे यह जीव घन, पुत्र, आदि त्रिमूर्तिको प्राप्त करता है और पुण्यके न होनेसे अनेक दुःख झेला है, अतः स्वरपटके मत और मीमांसक मतके अनुसार चलने में लोकनिंदा होना बराबर है ।
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केषाञ्चिदगर्हितत्वश्चेति ।
विचारशील पुरुष तो पशुओंकी हिंसा और धनिकोंकी हिंसाकी बराबर निन्दा करते हैं। hat is यहां निन्दा न होना भी दोनों में एकसा है । स्यात् शायद मीमांसक यह कहे कि कालीदेवीके उपासक या यज्ञ करनेवाले कर्मकाण्डी पुरुष यज्ञमें होनेवाले पशुवधकी निंदा नहीं करते हैं: -- - इसका उत्तर सुनिये यों तो डाकेवाले या धर्मके नामपर धन और प्राणों को लेनेवाले खारपटिक लोग भी धनिकोंके मारने में निंदा नहीं समझते हैं । तथा च इस प्रकार कतिपय इंद्रियलोलुप जीवोंकी अपेक्षासे निंदा न होना तो पशुऔर after दोनों में समान है ।
aat न सघनवधाग्निहोत्रयोः प्रत्यवायतरसाधनत्व व्यवस्था ।
"इस कारण से मीमांसकों की मानी गयी धनिकों के मारनेमें पाप और उससे न्यारी पशुबध पूर्वक किये गये अमित्र यज्ञं स्वर्गप्राप्तिके सिद्ध कराने की पुण्यव्यवस्था ठीक नहीं है अर्थात् asia a यदि सदोष है तो यज्ञ भी सदोष है । यदि यज्ञ निर्दोष है तो निका भी निर्दोष है ।
प्रत्यक्षादिप्रमाणचा नाग्रिहोत्रस्य श्रेयस्करत्व सिद्धिरिति नास्यैव विहितानुष्ठानत्वं, तो हिंसात्वाभावाद सिद्धो हेतुः स्यात् ।
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प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणोंके बलसे तो अभिहोत्र यज्ञका कल्याणकारीपन सिद्ध हो ही नहीं सकता है। इस प्रकार इस धनिकोंके को टालकर केवल अमित्रके ही शास्त्रोक्त अनुष्ठानपना नहीं है, जिससे कि हिंसाका कारणपना न होनेसे हम जैनोंकी ओरसे अभिहोत्रको स्वसाधनता के अभावको सिद्ध करनेमें दिया गया हिंसाका कारणपनारूप हेतु असिद्ध होवे, अर्थात् हमारा हिंसाहेतुत्व " अभिहोत्र पक्षमें रह जाता है । अतः सद्धेतु है । असिद्ध हेत्वाभास नहीं है, जो कि मीमांसकने दोष उठाया था ।
तन्न प्रकृतचोदनायां बाधकभावनिश्चयादर्थतस्तथाभावे संशयानुदयः पुरुषवचनविशेषवदिति न तदुपदेशपूर्वक एव सर्वदा धर्माद्युपदेशो येनास्य परोपदेशानपेक्षत्वविशेपचमसिद्ध नाम |
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इस कारण यह सिद्ध हुआ कि प्रकरणमें प्राप्त हो रहे वेदके लिङ्, लोट, तव्य प्रत्ययान्त प्रेरणावाक्य बाधकप्रमाणकी सत्ताका निश्चय है | अतः वस्तुतः सत्य अर्थ के कहनने संशयका अनुत्पन्न होना नहीं है । साधारण मनुष्यों के विशेष वचनोंके समान वैदिक वचनों में भी
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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यथार्थ वस्तुके कहनेका संशय पैदा हो जाता है । " इस प्रकार पुरुषों के द्वारा व्याख्यान किये गये अपौरुषेय वेदके उपदेशको कारण मानकर ही सदा धर्म, परमाणु, आकाश आदिकका उपदेश होता है " यह मीमांसकोंकी बात सिद्ध नहीं हुई । जिससे कि सर्वज्ञके सिद्ध करनेवाले अनुमानमें दिये गये इस हेतुका परोपदेशकी नहीं अपेक्षा करनारूप विशेषण नाममात्रसे भी असिद्ध हो जाय । अर्थात् सूक्ष्म आदिक पदार्थोके सर्वज्ञ द्वारा दिये गये आदिकालीन उपदेशमें दूसरे छापोंके उपदेशकी अपेक्षा कैसे भी नहीं है । अतः पूर्ण हेतुका शरीर पक्षमें रह गया भला ऐसी दशा असिद्ध दोष कहां? ॥
न च परोपदेशलिंगाक्षानपेक्षावितथत्वेऽपि तत्साक्षात्कर्टपूर्वकत्वं सूक्ष्माद्यर्थोपदेशस्य प्रसिद्धस्य नोपपद्यते तथाविनामावं संदेहायोगादित्यनवधं सर्वविदो ज्ञापकं तत् । अथवा ।
परोपदेश, लिंग और इंद्रियोंकी अपेक्षा रखते हुए भी सूक्ष्म आदिक अर्थोक पहिलेके सत्मार्थ उपोह में इनके विशद प्रत्यय करनेवाले सर्वज्ञके द्वाराही उपदेशपूर्वक होनापन प्रसिद्ध है। उक्त हेतुकी साध्यके साथ व्याप्ति नहीं है यह नहीं समझना चाहिये, क्योंकि हेतुका इसी प्रकार साध्यके साथ अविनाभाव संबंध होना संदेह रहित सिद्ध हो चुका है । अतः अबतक सर्वजको सिद्ध करनेवाला ज्ञापक प्रमाण निर्दोष सिद्ध होगया है।
__ अथवा सर्वज्ञ साधक दूसरा अनुमान यह भी है जोकि सर्वाङ्ग निर्दोष है अर्थात् हिंसाफे पोषक होनेसे वैदिक वचनोंकी अप्रमाणता सिद्ध हो चुकी है, फिर भी मीमांसकोंके हृदयमें परमाणु, पुण्य, पाप, आदिके उपदेशकी वेदद्वारा ही प्राप्ति होनेकी धुन समा रही है, वे विचारते हैं कि अनेक चिकित्साशास्त्रों में जीवोंके मांस, रक्त, चर्म, और मल मूत्रोंके, गुण, दोष, लिख पाये आते है, अभक्ष्य भक्षणका त्यागी भले ही मधु, मासके सेवन में प्रवृति न करे, एतावता वैद्यक प्रथके संपूर्ण अभि अप्रमाणता नहीं आसकती है । बात, पित, कफ, संबंधी दोषोंके निरूपण करनेमें तथा अर्श, अतीसार, अपस्मार ( मृगी) आदि रोगोंकी चिकित्सा बतलानेमें उन वैद्यकविषयक ग्रंथोंको ही प्रमाणता मानी जाती है, इसी प्रकार पशुवघकी पातको रहने दीजिये किंतु पुण्य, पाप, आकाश, स्वर्ग, और नरकके उपदेश तो वेदके द्वाराही प्राप्त होरहे हैं । अतः परमाणु, पुण्य, पाप, के उपदेश देनेवालेका लक्ष्य कर सर्वज्ञके ज्ञान कराने के लिये दिये गये आपके पूर्वोक्त अनुमानमें हमको अरुचि है। इस अस्वरसको दूर करते हुए आचार्यमहाराज मीमांसकोंके प्रति सर्वज्ञको सिद्ध करानेवाला दूसरा अनुमान कहते हैं।
सूक्ष्मायॉपि वाध्यक्षः कस्यचित्सकलः स्फुटम् । श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वान्नदीद्वीपाद्रिदेशवत् ॥ १० ॥
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Shawaniamsuwm..
हमारा पूर्वोक्त अनुमान तो ठीक है ही और यह भी अनुमान युक्तियुक्त है कि "सूक्ष्म होरहे परमाणु, आकाश, और देश कालसे व्ययहित माने गये स्वर्ग, सुमेरु, रामचन्द्र, आदि भी संपूर्ण पदार्थ ( यह पक्ष है) किसी न किसी आत्माके पूर्ण स्पष्टरूपसे होनेवाले प्रत्यक्षज्ञानके विषय है ( यह साध्य है ) क्योंकि वे पदार्थ श्रुतज्ञानसे जानने योग्य है । ( यह हेतु है ) जो जो पदार्थ हम लोगोंको शास्त्रोंसे या इतिहाससे जानने योग्य होते हैं वे किसी न किसी तद्देशीय या तत्कालीन पुरुषों के द्वारा अवश्य ही प्रत्यक्षरूपसे जाने जाते हैं । जैसे कि गंगा, सिधु, आदि नदियां, जम्बूद्वीप या लंका, अमेरिका, एशिया, आदि उपद्वीप, हिमवान, नील अथवा हिमालय, विन्ध्याचल, आदि पर्वत तथा भारतवर्ष, यूरोप, पंजाब, बंगाल, मालव, आदि देश, ये संपूर्ण पदार्थ किसी न किसीके प्रत्यक्ष हैं " ( यह अन्वय दृष्टान्त है )
धर्माधर्माचेच सोपायहेयोपादेयतत्वमेव वा कस्यचिदध्यक्ष साधनीयं न तु सकलोऽर्थ इति न साधीयः, सकलार्थप्रत्यक्षत्वासाधने तध्यक्षासिद्धः।
यहां मीमांसक कहते हैं कि "आप जैन उक्त अनुमानमें संपूर्ण पदार्थोको पक्ष करके किसी न किसीके प्रत्यक्षमे विषय होना सिद्ध मति करो, आपको केवल पुण्य, पापको ही अथवा उपायसहित छोडने योग्य और ग्रहण करने योग्य तत्त्वों यानी उनके कारणों और उनको ही पक्ष करके किसी न किसी के प्रत्यक्षसे जाना गयापन सिद्ध करमा चाहिये । ग्रंथकार कहते हैं कि यह मीमांसकोंका कहना कुछ अच्छा नहीं है। क्योंकि सकल पदार्थोंका प्रत्यक्षसे जाने गयेपनको सिद्ध न करनेपर कुछ थोडेसे विवक्षित उन पुण्य, पाप, और हेय, उपादेय, अतीन्द्रिय तत्त्वोंका भी प्रत्यक्ष करलेना बन नहीं सकता है, अर्थात् जो पुग्यपायको प्रत्यक्षसे जान लेगा, वह संपूर्ण पदार्थोका जाननेवाला अवश्य है क्योंकि सब पदार्थोके जानने पर ही अत्यन्त सूक्ष्म पुण्य, पाप, आकाश, आदि पदाथोंका प्रत्यक्ष हो सका है।
संवत्या सकलार्थः प्रत्यक्षः साध्य इत्युन्मत्तभाषितं स्फुट तस्य तथाभावासिद्धौ कस्यचित्प्रमाणतानुपपचे।
यदि यहां कोई यों कई कि " केवल करिपतव्यबहारमें प्रशंसा करनेके लिये ही सर्वज्ञके सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष करनापन साध्य किया जाता है । वस्तुतः सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष करनेवाला ही कोई नहीं है । यह कहना तो पागडोंकी बकवाद है। क्योंकि सम्पूर्ण पदाका केवलज्ञानद्वारा विशवरूपसे उस प्रकार प्रत्यक्ष होना यदि सिद्ध न करोगे तो सूक्ष्मपरिणमनोंसे सहित किसी भी पदार्थके जानने प्रमाणता नहीं आसकती है । यः सर्वज्ञः स सर्वचित् इत्यादि श्रुतियोंका मीमांसक लोग ज्योतिष्टोन आदि. यज्ञों की प्रशंसा ( तारीफ) करना ही अर्थ करते हैं कि हे ज्योतिष्टोम |
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तुम सपको जानते हो, तभी तो यष्टाको स्वर्गमें पहुंचा देते हो और हे पुत्रेष्टियाग ! तुम भी सबको जानते हो । तभी तो नानायोजनाओंसे पुत्रको पैदा करा देते हो । इसी प्रकार हिंसा, झूठ बोलना, आदिस जन्य पापकर्म भी नरक, तिर्यञ्चों के स्थान और कारणोंको जानते हैं। तभी तो वे जीवोंको उन कुगतियोंमें पहुंचा देते हैं । अनेक बादियोंको इस प्रकार कर्मकी स्तुति करनेवाले वेदके सर्वज्ञ जोधक वाक्यों के अर्थमे जैसे संशय है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष किये विना सूक्ष्म पदार्थोके जाननेमे मी संशय ही रहेगा। उस वेदसे सूक्ष्म आरिके ज्ञान प्रमाणता नहीं आसकती है । सम्भवतः पुण्य पापको कहनेवाले वाक्य भी अर्थवाद यानी स्तुतिवाक्य हों ।।
न हेतोः सर्वथैकांतैरनेकांतः कयञ्चन । श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वात्तेषां दृष्टष्टबाधनात् ॥ ११ ॥ स्थानत्रयाविसंवादि श्रुतज्ञानं हि वक्ष्यते । तेनाधिगम्यमानत्वं सिद्धं सर्वत्र वस्तुनि ॥ १२ ॥
यदि कोई कह बैठे कि सर्व प्रकारसे कूटस्थ नित्यरूप या क्षणिकत्वरूप ही धर्मके एकांत तथा सर्वथा एक अनेकपनेरूप एकांताभ भी हम मीमांसक और बौद्ध आदिके द्वारा अभिमत होरहे शाखोंके ज्ञानसे जाना गयापनरूप हेतु विद्यमान है, किंतु जैनों के मतानुसार वे असत् एकांत किसी न किसीके प्रत्यक्ष नहीं है । अतः हेतुके रह जानेसे और साध्यके वहां न रहनेसे आपके सर्वसाधक अनुमानमें व्यभिचार दोष हुआ । ऐसा कहनेपर आचार्य कहते हैं कि हमारे अनुमानमें किसी भी प्रकार व्यभिचार नहीं है। क्योंकि आपके माने हुए शास्त्रों के द्वारा जो नित्यत्व आदिक एकांत धर्म पुष्ट किये जाते हैं वे सम्पूर्ण एकांत बिचारे प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणोंसे बाधित हो जाते हैं अतः वे वस्तुभूत पदार्थ नहीं हैं। वास्तवमें सचे श्रुतज्ञानका लक्षण हम आगेके प्रथम यह कहेंगे कि जो सीनों स्थानों में विसंवाद करनेवाला न हो अर्थात् जिसको जाने उसी प्रवृत्ति करे और उसीको प्राप्त करे ऐसे ज्ञानको अविसं गदी ज्ञान कहते हैं । स्वभाव, देश और कालसे व्यवहित होरहे परमाणु आदि पदार्थोंको निदोषरूपसे श्रुतज्ञान जानता है। ऐसे श्रुतज्ञानके द्वारा परोक्षरूपसे जाना गयापन हेतु सम्पूर्ण वस्तुभूत पदार्थे में ठहर रहा सिद्ध हो जाता है। अपरमार्थभूत सर्वथा एकांत धमें हेतु रहता नहीं है।
ततः प्रकृतहेतोरव्यभिचारिता पक्षव्यापकता च सामान्यतो बोद्धध्या ।
इस कारणसे श्रुतज्ञानसे जाना गयापन हेतु व्यभिचारी नहीं है। अब कि सर्वथा एकान्त कोई यस्तुभूत पदार्थ नहीं है तो घोडोंके सींगके समान वे अविसंवादी श्रुतज्ञानसे नहीं जाने जा सकते हैं अतः हेतुके न रहनेसे साध्यके न रहनेपर व्यभिचारी नहीं हुआ। और श्रुतज्ञान द्वारा जानामयापन हेतु
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तत्त्वार्भचिन्ताममिः .
Joineran ..............
सूक्ष्म परमाणु, देशव्यवहित सुमेरु आदि, पदार्थोरूप पक्षमें सामान्यरूपसे व्याप्त होकर रह जाता है, यह भी समझ लेना चाहिये जिससे कि असिद्ध आदि दोषोंकी सम्भावना नहीं है।
पवाजलाधनमनवद्यम् । ततोऽसिद्धं परस्यात्र ज्ञापकानुपलम्भनम् ॥ नाभावसाधनायालं सर्वतत्त्वार्थवेदिनः ॥ १३ ॥
जिस कारणसे कि इस उक्त प्रकारसे दिया गया सर्वसाधक हमारा अनुमान निर्दोष सिद्ध हो चुका है उस कारण इस सर्वज्ञके अभावको सिद्ध करनेके लिए दिया गया दूसरे मीमांसकोंका सर्वशके ज्ञापक प्रमाणोंका नहीं दीखनारूप हेतु सर्वज्ञरूप-पक्षम नहीं रहता है अतः असिद्ध हेत्वाभास है । वह हेतु सर्व तत्यरूप पदार्थों को जाननेवाले सर्वज्ञके अभावको सिद्ध करनेके लिए समर्थ नहीं है । जब कि सर्वज्ञकी सिद्धि कर रहे निर्दोष अनुमान प्रमाण विद्यमान है ।
स्वयं सिद्धं हि किश्चित्कस्यचित्सापकं नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् ॥
जो कोई हेतु वादीको स्वयं सिद्ध हो चुका है वह तो नियमसे किसी न किसी साध्यका साधक हो सकता है । अन्यप्रकार नहीं, जैसे कि धूम अग्निको सिद्ध कर देता है । किंतु जो स्वयं सिद्ध नहीं है वह साध्यको सिद्ध नहीं कर सकता है । यदि नहीं सिद्ध किया गया हेतु भी साध्योंको सिद्ध करने लगे तो अतिप्रसंग हो जावेगा । अर्थात स्वरविषाण आदि हेतु भी साध्योंको सिद्ध करने लगेंगे, या चाक्षुषस हेतु भी शब्दको अनित्यत्व सिद्ध कर देवेगा। किंतु यह अन्याय है।
सिद्धमपि।
आप मीमांसकोंके कथनमात्रसे ज्ञापक प्रमाणोंका ने दीखनारूप हेतुको कथञ्चित् थोडी देरके लिए सिद्ध मान भी लेवें तो ( देखिये कितने दोघ आते हैं)
स्वसंबधि यदीदं स्याव्यभिचारि पयोनिधेः ॥
अम्भःकुम्भादिसंख्यानैः सद्भिरज्ञायमानकः ॥ १४ ॥ हम जैन आप मीमांसकोंसे पूंछते हैं कि सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण केवल आपको ही नहीं प्रतीत होता है ! अथवा सब जीवोंके पास सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण नहीं है ? यदि केवल आपको अपनी ही आत्मा समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले ज्ञापक प्रमाणोंका न दीखनारूप हेतु सर्वज्ञके अभाधका साधक माना जायेगा तो आपका यह हेतु व्यभिचारी हेताभास है, क्योंकि समुद्र के सम्पूर्ण
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
पानीका घडा, पुरु, लोटा, गिलास आदि वर्तनास मापनको संख्याका परिमाण हो सकता है किन्तु आपको तो यह ज्ञान नहीं है कि पूरे समुद्र में कितने घडे पानी है । अतः पानीकी घड़ों के द्वारा विद्यमान परन्तु नहीं जानी जारही संख्या में ज्ञापकानुपलम्भन हेतु रह गया और नास्तित्व साध्य तो वहां नहीं है । अर्थात् समुद्र के पानी में घडोंकी संख्याका परिमाण है किंतु आपके पास उनका ज्ञापक प्रमाण नहीं है, इस कारण आपका हेतु व्यभिचारी है ।
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न हि पयोनिधेरम्भः कुम्भादिसंख्यानानि स्वयं परैरेज्ञायमानतयोपगतानि न सन्ति येन तैर्व्यभिचारि ज्ञापकानुपलम्भनं न स्यात् । समुद्राम्भः कुम्भादिसंख्यानं बहुम्भस्त्वात् कूपाम्भोवदित्यनुमानात् न तेषामज्ञायमानतेति चेत्, नातो विशेषेणासिद्धेस्तत्संख्या समात्रेण व्यभिचाराचोदनात् ।
I
समुद्र के जलकी घडोंसे मापने की संख्याको आप मीमांसकोंने स्वयं नहीं जानने योग्य ( लायक) पसे स्वीकार किया है। इतने स्वीकार करने मात्र से समुद्र के जलकी घडोंसे संख्या नहीं हो सकती है, यह नहीं मानना चाहिये । जिससे कि आपका ज्ञापकानुपलम्भन हेतु घडोंकी संख्याअसे व्यभिचारी न हो सके, आपका न जानना किसीके अभावका साधक नहीं हो सकता है 1 स्यात् (शायद) आप अनुमान द्वारा यह कहे कि समुद्रका जल वडे आदिककी मापसे गिना जा सकता है क्योंकि उसमें बहुतसा पानी है जैसे कि कुएंका जल घडोसे या पुरोंसे मापा जाता है । इस अनुमानसे समुद्र के जलका घडोंसे माप किया जा सकता है अतः हमारे पास समुद्रके जलकी संख्या करने का अनुमानरूप ज्ञापक प्रमाण है । न आनागयापन नहीं है । इस कारण हमारा हेतु व्यभिचारी नहीं है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यह आपका कहना ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वोक्त अनुमानसे आपने केवल घडोंकी सामान्य संख्याको सिद्ध किया है। विशेषरूपसे संख्या सिद्ध नहीं हुयी है। हमने आपके ज्ञापकानुपलम्भन हेतुका समुद्रके जलकी विशेष रूपसे ठीक ठीक ( अन्यूनातिरिक्त संख्याओंसे व्यभिचार दिया था, सामान्य घडोंकी केवल अटकल पच्चूकी संख्यास प्रेरित व्यभिचार नहीं दिया था । इस कारण आपका केवल अपनी आत्मा सर्वज्ञज्ञापक प्रमाणोंका न जाननारूप हेतु व्यभिचारी ही हुआ । गणितके जाननेवाले घडेकी लम्बाई, चौडाई, ऊंचाईका घनफल निकालकर और समुद्रका घनफल निकालकर विशेषरूपसे भी समुद्र के पानी की घढोंसे संख्या कर लेते हैं । लवणसमुद्रके पानीकी घडोंसे क्या किन्तु ( बल्कि ) रोमाओसे भी ठीक ठीक संख्या निकाली जा सकती है किन्तु लालसमुद्र, बंगालकी खाडी आदि उपसमुद्रकी ऊंची arat भूमियोंका तथा लहरोंकी या पानीकी ऊंचाई नीचाईका आप ठीक ठीक स्वासफल नहीं निकाल सकते हैं । अतः आपकी ठेकेदारीमें पडा हुआ ज्ञापकानुपलम्भन हेतु समुद्रके जलकी विशेष
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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करके मडोंकी ठीक ठीक संख्याओं में चले जानेसे और वहां नास्तित्वरूप साध्यके न रहने से व्यमिचारी हुआ ही।
एतेनार्थापत्त्युपमानाभ्यां ज्ञायमानता प्रत्युक्ता, चोदनातस्तत्प्रसिद्धिरिति चेत्, न, तस्याः कार्यार्यादन्यत्र प्रमाणतानिष्टेः परेषां तु तानि सन्तीत्यागमात्प्रतिपत्तेर्युक्तं तैर्व्यभिचारचोदनम् ।
"
अर्थापति और उपमानप्रमाणसे समुद्रजलके घडोंकी संख्याओंका ज्ञान होता है, अतः लापकममाणका उपलम्भ है । मीमांसककी यह बात भी इसी पूर्वोक्त कथनसे खण्डित होजाती है। क्योंकि समुद्रजलका विशेषरूपसे घडोंके द्वारा संख्या ज्ञात करना अर्थापत्ति और उपमान प्रमाणसे नहीं हो सकता है ।
यदि आप मीमांसक कहेंगे कि विधिलिङ्गले बागम गरूप केवल समुद्रके चल की घडोके द्वारा माप प्रसिद्ध होजावेगी, यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि आपने ज्योतिष्टोम यज्ञ, आदि कर्मकाण्डरूप अर्थ सिवाय बेदके प्रेरकवाक्योंका प्रमाणपना स्वीकार नहीं किया है । नहीं तो वेदमें 'सर्वज्ञबोधक भी प्रेरक वाक्य है । और दूसरे हम जैनोंके यहां तो सर्वज्ञद्वारा कहे
आगमसे यह निश्चित कर लिया जाता है कि अमुक समुद्रकी लम्बाई, चौडाई और गहराई इतनी है । अथना इस समुद्रमें इतने घडे पानी है, इतनी पढोंकी संख्यायें हैं । यह बात सत्यवक्ता पुरुषोंके द्वारा भी निर्णीत हो जाती है । अतः सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करने में दिये गये मीमांसhi ज्ञापक प्रमाणा न दिखनारूप हेतु समुद्रजलकी घडोंसे ठीक ठीक संख्याओं करके हमारी तरफसे व्यभिचारदोषकी प्रेरणा करना युक्तही है ।
सर्वसम्बन्धि तद्बोध्नुं किञ्चिद्बोधैर्न शक्यते ॥
सर्वोद्वास्ति चेत्कश्चित्तद्बोद्धा किं निषिध्यते ? ॥ १५ ॥
यदि आप मीमांसक दूसरा पक्ष लेंगे कि सर्वसंसारके जीयोंके पास सर्वज्ञको शापन करनेवाला प्रमाण नहीं है । इसपर हम जैन कहते हैं कि थोडेसे ज्ञानवाले पुरुषोंके द्वारा यह बात नहीं जनी जा सकती है कि सब जीवों के पास सर्वज्ञका कोई ज्ञापक प्रमाण नहीं है । सम्भव है किसी के पास सर्वज्ञसाधक प्रमाण होय जैसा कि जैन, नैयामिक, वैशेषिक मानते हैं। यदि आप किसी जीवको ऐसा मानते हो कि वह सब जीवोंका प्रत्यक्ष ज्ञान कर यह समझ लेता है कि सबके पास सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण नहीं पाया जा रहा है तब तो सबको जाननेवाले सर्वज्ञका आप निषेध क्यों करते हैं ? जो सब जीवोंको जानता है और उन जीवोंके सर्वज्ञको न जाननेवाले प्रत्यक्ष आदि प्रमाणका प्रत्यक्ष कर रहा है वही तो सर्वज्ञ है ।
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तत्वार्षचिन्तामणिः
सर्वसम्मन्धि तदनातासिद्ध, किंचि ज्ञातुमशक्यत्वात्, न च सर्वक्षस्तरोद्भास्ति तत्प्रतिषेपविरोधात् ।
मीमांसकोंका सब जीवों के सम्बन्ध होरहे ज्ञापक प्रमाणका न दीखनारूप हेतु वादी प्रतिवादीके द्वारा जाना नहीं जा सकता है। अतः अज्ञात होकर असिद्ध हेखाभास है । कुछको जानने काले अस्पज्ञ संसारी जीवोंके द्वारा सब जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले ज्ञापकोंका अनुपलम्म जाना नहीं ना सकता है । यदि आपने सब जीवोंके प्रमाणोंका प्रत्यक्ष करनेवाला कोई ज्ञाता माना है, यह सो ठीक नहीं है क्योंकि इससे तो सर्वज्ञ सिद्ध हो जाता है और आप सर्वज्ञको मानकर फिर उसका निषेध करेंगे तो आपके वचोंमें पूर्वापरविरोध हो जावेगा।।
षभिः प्रमाणैः सर्वज्ञो न वार्यत इति चायुक्तम् । यसात्
यदि मीमांसक यों कहें कि प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, अर्थापत्ति, उपमान और अभाव इन छह प्रमाणोंसे सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञान करनेवाले सर्वज्ञका खण्डम इम नहीं करते हैं । अनुमान या आगमसे अनेक विद्वान् परोक्षरूपसे सम्पूर्ण पदार्थोंको जान लेते हैं यह कोई कठिन बात नहीं है, किंतु एक मुख्यप्रत्यक्षद्वारा युगपत् सर्व जगत्को विशदरू से प्रत्यक्ष करनेवाले सर्वज्ञको हम नहीं मानते हैं । आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकका कहना युक्तियोंसे रहित है । कारण कि
सर्वसम्बन्धिसर्वज्ञज्ञापकानुपलम्भनम् । न चक्षुरादिभिर्वेयमत्यक्षत्वाददृष्टवत् ॥ १६ ॥
एक केवलशानरूप प्रत्यक्षके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोके प्रत्यक्ष करनेवाले सर्वज्ञका नास्तिपन सिद्ध करनेके लिये दिया गया सब जीवोंके पास ज्ञापकप्रमाणोंका अनुपलम्मरूप हेतु विचारा चक्षु, मन आदि इंद्रियोंसे तो जाना नहीं जाता है। क्योंकि सर्वज्ञके झापकोंका नहीं दीखना अतीन्द्रिय विषय है। जैसे कि पुण्य, पाप, इंद्रियोंसे नहीं दीखते हैं । अतः आप मीमांसकोंके हेतुकी सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो हो नहीं सकती है, विना हेतुके जाने साध्यको नहीं जान सकते हैं।
नानुमानादलिंगत्वात्कार्थापत्त्युपमागतिः । सर्वस्यानन्यथाभावसादृश्यानुपपत्तितः ॥ १७ ॥
आपके ज्ञापकानुपलम्मन हेतुको कोई अनुमान से भी नहीं जान सकता है क्योंकि उस हेतुको साध्य बनाफर जानने के लिये अबिनाभाव रखनेवाला कोई दूसरा हेतु नहीं है। अतीन्द्रिय साध्यके साथ व्याप्तिका ग्रहण करना कठिन है । जब ज्ञापकानुपलम्भन हेतु अनुमानसे ही नहीं
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तत्वायचिन्तामणिः
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जाना गया तो अर्थापति और उपमान प्रमाणसे तो क्या जाना जावेगा । जिसके विना जो न हो सके, ऐसे अदृष्ट पदार्थ के जाननेको अर्थापत्ति कहते हैं। जैसे कि मोटे पुष्ट देवदत्तको देखकर दिनमै खानेकी बाधा उपस्थित होजानेपर रात्रि में भोजन करना अर्थापतिसे जान लिया जाता है तथा सदृश पदार्थके देखनेपर सादृश्यज्ञानका स्मरण करते हुए इसके सदृश वह है ऐसे ज्ञानको आपने उपमान प्रमाण माना है, जैसेकि रोझकी सदृशता गौ में है । जबकि यहां संपूर्ण जीवोंको अन्यथा न होनेवाले
और सदृशता रखनेवाले पदार्थोकी सिद्धि नहीं है । ऐसी दशामें अतीन्द्रिय हेतुको जाननेके लिये अर्थापत्ति और उपमानप्रमाणकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है ।
सर्वप्रमातृसम्बन्धिप्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यं च कथं मीमांसकस्य तत् ? ॥ १८ ॥
" ज्ञापकानुपलम्मन " हेतुके जानने में सम्पूर्ण प्रमाताओं के संबंधी होरहे ( सम्बन्धः षष्ठ्यर्थः ) प्रत्यक्ष, अनुमान, अर्थापति और उपमान प्रमाणोंकी प्रवृत्तिका निवारण होगया तो मीमांसकोंके यहां केवल आगमसे उस ज्ञापकानुपलम्भका जानना कैसे सिद्ध होसकेगा ! । कारण कि
कार्येऽर्थे चोदनाज्ञानं प्रमाणं यस्य संमतम् ।।
तस्य स्वरूपससायो तन्नैवातिप्रसंगतः ॥ १९ ॥ जिन मीमांसकों के यहां प्रेरक वेदवाक्यसे जन्य ज्ञानको कर्मकाण्डके प्रतिपादन करनेरूप अर्थमें ही प्रमाण-ठीक माना है, उन मीमांसकोंने स्वरूपकी सत्तारूप परबमके कहनेवाले वेदवाक्योंको भी प्रमाण नहीं माना है, क्योंकि " एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म " ब्रह्माद्वैतवादियोंके अतिप्रसंग दोष होजायगा । “एकही ब्रह्म है दूसरा कोई नहीं है " ऐसे वेदवाक्योंको यदि मीमांसक प्रमाण माने तो " अन्नाद्वै पुरुषः " "अन्नसे पुरुष पैदा होता है। ऐसे वेदगक्योंको भी प्रमाण मानना पडेगा। तथाच चार्वाकमतका प्रसंग हो जायगा । अतः कर्मकाण्डके प्रतिपादक वाफ्योंको ही मीमांसक प्रमाण मानते हैं । ज्ञापकानुपलम्भनके सिद्ध करनेवाले वेदवाक्योंको ये प्रमाण नहीं मानते हैं। अतः आगमसे भी ज्ञापकानुपलम्भन हेतुकी सिद्धि नहीं हुयी, जोकि उनने सर्वज्ञाभावको साधनेमें मयुक्त किया था ।
तज्ञापकोपलम्भस्याभावोऽभावप्रमाणतः ।
साध्यते चेन्न तस्यापि सर्वत्राप्यप्रवृत्तितः ॥ २०॥ यदि मीमांसक अभाव प्रमाणसे उस सर्वशके ज्ञापक प्रमाणोंके उपसम्मका अभाव सिद्ध
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
करेंगे, वह मी ठीक नहीं है क्योंकि उस अभाव प्रमाणकी भी समी सानों (जगह) में प्रकृति नहीं होती है।
गृहीत्वा वस्तुसदा स्मृत्वा सरप्रतियोगिनम् ।
मानसं नास्तिताज्ञानं येषामक्षानपेक्षया ॥ २१ ॥ जिन माट्ट मीमांसकोंने छट्टा अभाव प्रमाणके प्रवर्द्धनकी यह योजना बतलायी है कि अमाके आधारभूत वस्तुके सद्भावको जानकर और जिसका अभाव सिद्ध किया गया है उस प्रतियोगिका स्मरण करके बहिरंग इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षासे केवल अंतरग मन इन्द्रियके द्वारा नास्तिपनका ज्ञान होता है। जैसे कि मूतलमें घटका अभाव जाना जाता है । इस समय मूतलका चक्षुसे या स्पर्शन इन्द्रियले प्रत्यक्ष है ही और पहिले देखे हुए घटका स्मरण है ऐसी दशाम मन इन्द्रियसे घटामावका ज्ञान हुआ है।
तेषामशेषनृज्ञाने स्मृते तज्ज्ञापके क्षणे । जायते नास्तिताज्ञानं मानसं तत्र नान्यथा ॥ २२ ॥
जैनसिद्धांत और नैयायिकोंके यहां तो अभावका ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे हो जाता है । मीमांसकोंकी उक्त सामग्री अभावके जानने अपेक्षणीव नहीं है । किन्तु मीमांसक लोग अमावके जाननेमें निषेध करने योग्य ( लायक) पदार्थका स्मरण और निषेधके आधारवस्तुका प्रत्यक्ष करना या दूसरे प्रमाणोंसे निर्णीत कर लेना आवश्यक मानते हैं । उन मीमांसकोंको सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाणोंके उपलम्मका नास्तित्व मन इन्द्रियसे तभी ज्ञात हो सकेगा जब कि वहां आधारभूत सम्पूर्ण मनुष्योंका ज्ञान किया जाय और उस समय ज्ञापकप्रमाणोंका स्मरण किया आय । इसके सिवाय दूसरी तरह से आप ज्ञापक प्रमाणोंकी नास्तिताका ज्ञान कैसे भी नहीं कर सकते हैं।
न वाशेषनरज्ञानं सकृत्साक्षादुपेयते । नक्रमादन्यसन्तानप्रत्यक्षत्वानभीष्टितः ॥ २३ ॥
मीमांसकोंके अभाव प्रमाणकी उत्पत्तिम अधिकरणका जानना आवश्यक है। प्रकृती सम्पूर्ण मात्माओमें ज्ञापकप्रमाणके उपलम्भका अमात्र जानना है, अतः अमावके आधारभूत सम्पूर्ण आत्मामोंका एक बार ही एक समय में प्रत्यक्ष हो जाना तो आप स्वीकार नहीं करते हैं और क्रम क्रमसे भी अन्य सम्पूर्ण आत्माओंका प्रत्यक्ष होना आपको अभीष्ट नहीं है। क्योंकि अपनी आत्माके सिवाय अन्य आत्माओंका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है । सर्वज्ञको भाप मानते हैं।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
यदा च कचिदेकत्र तदेतन्नास्तिता मतिः ।
नैवान्यत्र तदा सास्ति चैवं सर्वत्र नास्तिता ? ॥ २४ ॥
जिस समय किसी एक आत्मामें इस ज्ञापकोपलम्मकी नास्तिलाका ज्ञान होगा उस समय दूसरी आत्माओं में उसके नास्तिपनका आपको ज्ञान नहीं हो सकेगा । ऐसी अवस्था सभी आत्मापोपलम्भका नास्तिपन कहां सिद्ध हुआ ? | क्रम क्रमसे जिस आत्मा को जानते जावोगे उसीमें नास्तिपन सिद्ध कर सकोगे ।
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प्रमाणान्तरतोऽप्येषां न सर्व पुरुषग्रहः । ताल्लेङ्गादेरसिद्धत्वात् सहोदीरितदूषणात् ॥ २५ ॥
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इन मीमांसकों के यहां ज्ञापकोपलम्भरूप निषेध्य के आधारभूत सम्पूर्णं पुरुषोंका ग्रहण अन्य अनुमान, अर्थापति आदि प्रमाणोंसे भी नहीं हो सकता है क्योंकि उनके अविनाभाव, सादृश्य आदि ret रखनेवाले हेतु आदिक सिद्ध नहीं हैं । अनेक पुरुषको क्रमसे प्रत्यक्ष जाननेमें जो दूषण आते हैं वही दोष उन पुरुषोंको जाननेमें जो हेतु या सादृश्य दिये जायेंगे उनमें भी साथ साथ आयेंगे । अर्थात् अनेक पुरुषोंके साथ व्याप्ति रखनेवाला निर्दोष कोई हेतु आपके पास नहीं है, सादृश्य आदि भी नहीं हैं ।
तज्ज्ञापकोपलम्भोऽपि सिद्धः पूर्वं न जातुचित् ।
यस्य स्मृतौ प्रजायेत नास्तिताज्ञानमञ्जसा ॥ २६ ॥
मीमांस
है
अभावप्रमाणकी उत्पत्ति प्रतियोगीका स्मरण करना भी आपने कारण माना है। कोंके मत सर्वज्ञके उन ज्ञापकप्रमाणका उपलम्भ होना पहिले कभी सिद्ध नहीं हो चुका जिसका कि स्मरण करनेपर ज्ञापकोपलम्भकी नास्तिताका ज्ञान ठीक ठीक हो जावे । अर्थात् पूर्वकालमै जाने हुएका ही हम वर्तमान में स्मरण कर सकते हैं। मीमांसकों को ज्ञापकप्रमाण ज्ञात ही नहीं हैं तो अभाव जानते समय उनका स्मरण भी नहीं हो सकता है ।
तदेवं सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकवदभावप्रमाणमपि न सर्वज्ञज्ञापकोपलम्भस्य सर्वप्रमासंबंधितो संभवसाधनं, तत्र तस्योत्थानसामग्य भावात् ।
उस कारण इस प्रकार अब तक सिद्ध हुआ कि पदार्थोंकी सत्ताको जाननेवाले प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, और अर्थापति इन पांच प्रमाणोंकी प्रवृत्ति ज्ञापकानुपलम्भन हेतुके जानने जैसे सिद्ध नहीं हुई उसी प्रकार अभावनर्माण भी सम्पूर्ण ममाताओं ने सम्बन्धित होरहे सर्वज्ञ
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तत्त्वार्थैचिन्तामणिः
ज्ञापक प्रमाणोंके उपलम्भके अभावको सिद्ध नहीं कर सकता है--असम्भव है । क्योंकि अभावप्रमाण के उत्पन्न होने आधारका और प्रतियोगीकारण है, उसकी सामग्री वहां है नहीं । अर्थात् सम्पूर्ण मनुष्यों का ज्ञान और सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणोंका स्मरण है नहीं, विना कारणके कार्य कैसे उत्पन्न हो सकता है ! |
ननु च विवादापवशेषप्रमातृषु तदुपगमादेव सिद्धः सर्वज्ञापकोपलम्भो नास्तीति साध्यते ततो नाभावप्रमाणस्य तत्रोत्थानसामय्यभाव इत्यारेकार्या परोपगमस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वयोदूषणमाह ।
यहां मीमांसक और भी स्वपक्षकी अवधारणा करते हैं कि सर्वशको माननेवाले बौद्ध, जैन, नैयायिक आदि हैं और सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसक, चार्वाक आदि हैं। जब कि विवादमें पढे हुए जैन और नैयायिक सर्वज्ञके ज्ञापकप्रमाणोंका उपलम्भ करते हैं तो उनके मन्तव्य के अनुसार सर्वज्ञापकके उपलम्भको हम थोडी देरके लिये कल्पनासे सिद्ध मानते हैं। बाद प्रामाणिक अमात्र प्रमाणसे झापक प्रमाणों के उपलम्भका उन ही विवादमस्त सम्पूर्ण आत्माओं में अभाव है ऐसा सिद्ध कर देते हैं । उस कारण से वहां अभावप्रमाणकी उत्पचि करानेवाली सामग्रीका अभाव नहीं है । सर्वज्ञवादियोंने जिन आत्माओं में सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणों का उपलम्भ माना है उनके स्वीकार करनेसे ही हमने निषेध्यके आधार सम्पूर्ण आत्माओंका ज्ञान कर लिया है और उनके जाने हुए ज्ञापकोपलम्भका स्मरण भी अभाव प्रमाणको उत्पन्न करते समय हमको होजाता है । हल प्रकार मीमांसकोंकी शंका होनेपर दूसरे सर्वज्ञवादियोंका मन्तव्य मीमांसकों को प्रमाण है या अप्रमाण ! ऐसा पक्ष उठाकर उनमें आचार्य महाराज स्पष्टरूपसे दूषण कहते हैं ।
परोपगमतः सिद्धस्स चेन्नास्तीति गम्यते ।
व्याघातस्तत्प्रमाणत्वेऽन्योऽन्यं सिद्धो न सोऽन्यथा ॥ २७ ॥
यदि आप मीमांसक हम दूसरे सर्वज्ञयादियोंके स्वीकार करनेसे सर्वज्ञ शापक प्रमाणोंको सिद्ध मानकर पुन: ज्ञापकोपलम्भका नास्तिपना अभावप्रमाणसे यों जान लेते हो तब वो ऐसी दशा में हम पूंछते हैं कि उन (हम) सर्वज्ञवादियों के ज्ञापकोपलम्भका स्वीकार करना यदि आपको प्रमाण है तब तो आपके कथनमें परस्पर में व्याघातदोष है । अर्थात् सर्वेशवादीके मतको प्रमाण माननेपर आप ज्ञापकोपलम्भका नास्तिपन सिद्ध नहीं कर सकते हैं और यदि ज्ञापकोपलम्भनका नास्तिपन सिद्ध करते हो तो सर्ववाके अभ्युपगमको प्रमाण नहीं मान सकते हैं। दोनों के माननेमें वदतोव्याघात दोष है । भावार्थ-न सन् और न असन् समान उस पूर्वापर विरुद्ध या तुल्यबल विरुद्ध मातको बोलनेवालेका अपने से ही अपना घात हुआ जाता है । अन्यप्रकारसे यदि सर्वज्ञवादियोंके मन्तव्यको
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आप प्रमाण नहीं मानेंगे तो संपूर्ण आत्माओंका ज्ञान और ज्ञापकोपलम्भनका स्मरण होनारूप साममी न होनेसे उस अभावप्रमाणका उत्थान नहीं हो सकता है। एवं च अभावप्रमाणसे ज्ञापकानुपलम्भन-हेतुको जब न जान सके तब सर्वज्ञका अभाव भी अनुमानसे सिद्ध नहीं कर सकते हो ||
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नहि प्रमाणात्सिद्धे सर्वज्ञज्ञापको पलम्मे परोपगमोऽसिद्धो नाम यतस्तचास्थिता साधनेऽन्योन्यं व्याघातो न स्यात् प्रमाणमन्तरेण तु स न सिद्धयत्येवेति तत्सामम्न्यभाव एव ।
जब कि सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणोंकी उपलब्धि प्रमाणसे सिद्ध हो चुकी है। ऐसी दशा में दूसरे सर्वज्ञवादियोंका अनेक आत्माओं को सर्वज्ञ स्वीकार करना मीमांसकोंके लिये कैसे भी असिद्ध नहीं है, जिससे कि उस सर्वज्ञका नास्तिपन सिद्ध करने में मीमांसकों के परस्पर पूर्वापरविरुद्ध यच व्याघात दोष न हो सके । अर्थात् हमारे कहने के अनुसार सर्वज्ञ - आत्माओं को आपने थोडी देर के लिये कल्पित माना था। जब वह प्रमाणसे सिद्ध हो चुका तब उसके विरुद्ध स्वयं बोलने में मीमांसकोंके ऊपर व्याघात हो जाता है । प्रमाणके विना तो सर्वज्ञके ज्ञापकोंका उपलम्भ सिद्ध होता नहीं है किन्तु जब होगा प्रमाण से ही होगा | इस प्रकार मीमांसकों के यहां अभावप्रमाणके उत्पन्न होनेकी कारणकूटरूप सामग्रीका अभाव ही हैं। प्रमाणके विना आपका ज्ञाप कानुमान हेतु भी सिद्ध नहीं होता है । अतः सर्वज्ञका अभाव तो सिद्ध नहीं हुआ किंतु उलटा अभावमा सामग्रीका अभाव होगया " सेयमुभयतः पाशा रज्जुः " रस्सी में दोनों तरफ फांसे हैं, इस न्यायसे मीमांसकोको दोनों तरहसे सर्वज्ञ मानना पडता है । सर्वज्ञका नास्तिपन अभाव प्रमाणसे सिद्ध करें तो भी सर्वज्ञ मानना पडता है और सर्वज्ञका अभाव न करें तब तो सर्वज्ञ स्वयं सिद्ध है ही ।
I
नन्वेवं सर्वथैकान्तः परोपगमतः कथम् ।
सिद्धो निषिध्यते जैनैरिति चोद्यं न धमिताम् ॥ २८ ॥
यहां मीमांसक शंका करते हुए कटाक्ष करते हैं कि, जैनोंने सर्वथा एकान्तका निषेध किया है वह कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि स्याद्वादी विद्वान् भी सर्वप्रकारसे कूटस्थ नित्यपन या एकक्षण पैदा होकर द्वितीयक्षणमे सर्वथा ध्वंस हो जानारूप अनित्यपन- एकांतीका अभाव मानते हैं। वह मी तो आप दूसरे सांख्य, बौद्ध, आदिके स्वीकार किये गये ही एकांतोंका अभाव सिद्ध करते हैं । हम भी यहां कह सकते हैं कि यदि सांख्य, बौद्धोंका मन्तव्य आपको प्रमाणसे सिद्ध है। और फिर आप जैन उनके माने हुए एकांतोंका अभाव सिद्ध करते हो तब तो आपके कथन में भी परस्परव्याघात दोष हुआ और यदि आप सांख्य, बौद्ध आदिके मन्तव्योंको प्रमाण नहीं मानते हैं तो विना एकान्तोंकी विधिके उनका निषेध कैसे कर सकते हैं !' ' संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रति
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तस्वार्थचिन्तामणिः
पेयादृते कचित् " आपके यहां भी प्रतिषेध्यके बिना संज्ञीका निषेध हो जाना नहीं माना है । भावार्थ -- हमारे सर्वज्ञके निषेध न कर सकने के समान आप जैन भी सर्वथा एकान्तोंका निषेध नहीं कर सकते हैं। यहां आचार्य कहते हैं कि मीमांसकों का यह प्रेरित कटाक्ष प्रतिभाशाली स्याद्वा दियोंके ऊपर नहीं चलता है। क्योंकि एकान्तोंके अभावको हम अनेकान्त नहीं मानते हैं किंतु अनेक भावरूप पदार्थ हैं, एकके समान अनेक शब्द मी भावों को कह रहा है । अनेक धर्मवाले पदार्थ प्रत्यक्ष - आदिप्रमाणोंसे ही सद्भावरूप सिद्ध हो रहे हैं। अशेषका अर्थ मूलरूपसे सम्पूर्ण होता है ।
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न हि स्वोपगमतः स्याद्वादिनां सर्वर्थकान्तः सिद्धोऽस्तीति निषेध्यो न स्यात् सर्वज्ञज्ञापकोपलम्भवत् । तदेतदचोधस् ।
Aries द्वारा सर्वज्ञ अभाव सिद्ध करने में दिया गया ज्ञापकानुपलम्भन हेतु अभावरूप है और साध्य भी अभावरूप है । अतः साध्यके और हेतुके जाननेमें जिसका अभाव किया जाय ऐसे निषेध्यरूप प्रतियोगीके जाननेकी आवश्यकता है। किंतु स्वयं स्याद्वादियों के मतसे सर्वथा एकान्तों के निषेधसे अनेकान्त सिद्ध नहीं होता है जिससे कि निषेध करने योग्य न होता, यानी यदि ऐसा होता तो सर्वज्ञज्ञापकोंके उपलम्भकी तरह सर्वथा एकान्तका भी निषेध नहीं कर सकते थे । स्याद्वादी विद्वानोंने दूसरोंके माने हुएको स्वयं स्वीकार करके सर्वथा एकान्त की सिद्धि मानी नहीं है। जो वस्तु सर्वथा है ही नहीं, उसके निषेध करने या विधि करनेका किसी माता पास अवसर नहीं है, सर्वज्ञके द्वारा भी जो कुछ ज्ञात होरहा है वह अनेक धर्मात्मकही है अश्वविषाण के समान एकान्तोंका निषेध करना हमको आवश्यक नहीं है । इस कारण जैनों के ऊपर मीमांसकों का यह कुचोद्यरूपी दोष नहीं है।
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अतः
प्रतीतेऽनन्तधर्मात्मन्यर्थे स्वयमबाधिते ।
को दोषः सुनयैस्तत्रैकान्तोपप्लवबाधने ॥ २९ ॥
मैं दाह करना, पाक करना, शोषण करना आदि धर्म पाये जाते है । इसी प्रकार जीव. पुद्गल आदि सम्पूर्ण पदार्थ अनेक धर्मो के आधारस्वरूप निर्वाध होकर अपने आप प्रमाणसे सिद्ध प्रतीत होरहे हैं। ऐसी दशा में श्रेष्ठ प्रमाणनयकी प्रक्रिया, और सप्तभंगीकी घटनाको जाननेवाले विद्वानोंके द्वारा सर्वथा एकान्तोंके तुच्छ उपद्रवको बाधा देने में क्या दोष संभावित है। अर्थात् कोई दोष नहीं है । जैसे तीव्र आतपसे सन्तप्त पुरुषको छायामें स्फुलिंग दीखते हैं, निषेध कर दिया जाता है। यानी शुद्ध छायाका प्रत्यक्ष होना दी दृष्टिदोषले हुये अनेक असत् धर्मीका निषेध करना है । वास्तव वहां निषेध कुछ नहीं, केवल शुद्ध छायाका विधान है ।
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उनका
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सुनिश्चितासंभव द्वाधकप्रमाणेऽपि नेकान्तात्मनि वस्तुनि दृष्टिमोहोदयात्सर्वथैकाताभिप्रायः कस्यचिदुपजायते स चोपप्लवः सम्यगध्यते इति न कश्चिद्दोषः प्रतिषेध्यात्रिकरणाप्रतिपत्तिलक्षणः प्रतिषेध्यासिद्धिलक्षणो वा ?
यह है कि सम्पूर्ण वस्तुएँ ( पक्ष ) परमार्थरूपसे, यथार्थ सिद्धांतनिश्चयसे अनेक धर्म स्वरूप है ( साध्य ) क्योंकि अनेक धर्मोकी सिद्धि करने का होना अच्छ तरहसे निश्चित है | ( हेतु ) इस प्रकार प्रमाणसे सिद्ध होनेपर भी दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे किसी एक मिध्यादृष्टि जीव सर्व प्रकारोंसे नित्यल या अनित्यपनरूप एकधर्म के माननेका आग्रह उत्पन्न हो जाता है और स्याद्वादी विद्वान् लगे हाथ समीचीननयोंसे उस उपद्रवका बाधन कर देते हैं । जैसे कि प्रचण्ड (सेज) धूप से चले आये हुए पुरुषको मकानमें चमकते हुए पीले पीले तिलमिले दीखते हैं किंतु विश्रांति लेनेसे समीचीनदृष्टि हो जानेपर उस चकाचा निषेध कर दिया जाता है । इसी प्रकार प्रकृतमें भावस्वरूप अनेकांत सिद्ध करने में भी कोई दोष नहीं है । यदि सर्वथा एकांतोंका अभावरूप अनेकांत माना जाता तब तो एकांतोंके अभाव जाननेमें निषेध करने योग्य, ( लायक ) एकांतोंके अधिकरणोंका म जाननास्वरूप अथवा प्रतियोगी के स्मरणार्थ करने योग्य सर्वथा एकांत की असिद्धिस्वरूप दोन सम्भावित था, किंतु अनेकांतसिद्धिमें उक्त वार्चा है नहीं ।
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मध्यास्तदधिकरणस्य वचनाद्यनुमान सिद्धिसद्भावात्तदभिप्रायस्य च तदनुपलम्भनानिषेधे साध्ये कुतो न दोष इति न वाच्यम् ।
मीमांसक कहते हैं कि जिस आत्मामें सर्वथा एकांत माना जा रहा है उस कल्पित एकांतोंके अधिकरणरूप मिध्यादृष्टीकी हम कुगुरु, कुदेव, कुतत्त्वों श्रद्धानसे या मिथ्यात्वप्रयुक्त वचनों आदि अनुमानद्वारा सिद्धि कर लेते हैं और मिध्यादृष्टियोंके स्वीकार करनेसे उनके अभि प्रेत एकांतोंकी भी कल्पना कर लेते हैं, किंतु उन सर्वथा एकांतोंका वस्तुतः उपलम्भन न होने से निषेध सिद्ध कर दिया जाता है । अतः एक प्रकार से अभाव जाननेकी सामग्री भी बन गयी, ऐसा होनेपर एकांतोंके अनुपलम्भसे एकांतोंका अभाव सिद्ध करने में आप जैनोंके ऊपर वह दोष कैसे नहीं होता है ? जैसे कि आपने हम मीमांसकोंको दोष दिया था वह दोष तो आपको भी लगेगा । आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकों को कहना नहीं चाहिये कारण कि
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अनेकान्ते हि विज्ञानमेकान्तानुपलम्भनम् ।
द्विधस्तनिषेधश्च यतो नैवान्यथा मतिः ॥ ३० ॥
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सत्यार्थचिन्तामणिः
जैन सिद्धान्त नैयायिकों का माना गया तुच्छ अभाव नहीं इष्ट किया है। एकान्तोंके न दीने सर्व एकान्तका अभाव हम नहीं मानते हैं किंतु वस्तुभूत अनेक धर्माने विज्ञान हो जाना ही एकान्तोंका न दीखना है। इसी प्रकार अनेक धर्मोंका जो विधान है वही एकान्तोंका निषेध माना गया है। नैयायिक या मीमांसकोंके समान दूसरे प्रकारोंसे अभावका ज्ञान होना हम नहीं मानते हैं । समझे ।
अनेकान्तोपलब्धिरेव हि प्रतिपतुरेकान्तानुपलब्धिः प्रसिद्धैव स्वसम्बधिनी सा चैकान्ताभावमन्तरेणानुपपद्यमाना तत्साधनीया ।
वस्तु तादात्म्यसम्बन्धसे रहनेवाले अनेक धर्मोका सर्वेदा ज्ञान होते रहना ही सर्वथा एकान्तोका अनुपलम्भ है, यह बात प्रमाता विद्वानको अपनी आत्मामें सम्बन्धित हो रही अच्छी तरहसे प्रमाणसिद्ध हो चुकी है। जैसे कि केवल भूतलका ही दीखना घटका अनुपलम्भ है । मात्र ते भूतलका उपलम्भ घटाभाव के विना सिद्ध नहीं हो सकता है । उसी प्रकार वस्तु वह अनेकघर्मो का उपलम्भ होना भी एकान्ताभाव के विना सम्पन्न नहीं होता है । इस अविनाभावसे उन एकान्तोंका अभाव सिद्ध कर लेना चाहिये । व्ययन निषेध्यके यापारका ज्ञान या निषेध्यके स्मरकी आवश्यकता नहीं है ।
नन्वने कान्तोपलम्भादेवानेकान्तविधिरभिमतः स एव चैकान्तप्रतिषेध इति नानुमानतः साधनीयस्तस्य तत्र वैयर्थ्यात्, सत्यमेतत् कस्यचित्तु कुतश्चित्साक्षात्कृते ऽप्यनेकान्ते विपरीतारोपदर्शनासवच्छेदोऽनुपलब्धेः साध्यते, ततोऽस्याः साफल्यमेव ।
मीमांसा प्रश्न है कि आप जैन सर्वथा एकान्तों के अभावसे तो अनेकान्तका उपलम्भ मानते नहीं हैं किंतु आप जैनियोंने वस्तुभूत बहुतसे धर्मो के देखनेसे ही अनेकान्तका विधान इष्ट किया है। उस अनेकान्तके विधानको ही आपने सौथा एकान्तोंका निषेध स्वीकृत किया है ! ऐसी दशा आपको एकान्सोका निषेध अनुमानसे सिद्ध नहीं करना चाहिये। क्योंकि जब वे दोनों एक ही हैं तब एकान्तके जाननेमें अनुमान करना व्यर्थ है । इसपर आचार्य कहते हैं कि आपका कहना ठीक है किंतु किसी एक मनुष्यको किन्हीं अनेक अर्थक्रियाओंके द्वारा वस्तुमें अनेक धमका प्रत्यक्ष होनेपर भी उन अनेक धर्मोसे प्रतिकूल एकान्तपनेकी कल्पना कर लेना देखा जाता है अतः ऐसी दशा में सर्वथा एकान्तोंका न दीखनारूप हेतुले उस विपरीत कल्पनाका निवारण दिया जाता है जैसे कि केवल भूतलका देखना ही घटाभावका ज्ञान है। फिर भी कोई खामी ( बहमी ) पुरुष Test संभावना कर बैठता है तब इस भूतलमें घट नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह नहीं दीखता
है। हेतु ) इस अनुमानसे घटका निषेध कर देते हैं । इसी प्रकार यहां भी झूटी कल्पना करने
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तत्त्वार्थेचिन्तामणिः
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वाले पुरुषोंके लिये एकान्तोंका अभाव सिद्ध कर दिया है जिस कारण इस अनुपलब्धि हेतुसे किया गया अनुमान सफल ही है ।
प्रमाण संप्रवोपगमाद्वा न दोषः ।
एक अर्थको अनेक प्रमाणोंसे विशेषविशेषांशों करके जानना रूप प्रमाणर्सल भी हम जैनोंने स्वीकृत किया है, अतः अनेकांतों को प्रत्यक्ष जान लेना भी एकांतोंके निषेधका ज्ञान है और अनुपलब्धि हेतुसे एकांतोंका अभाव जानना भी दूसरा इसी विषयको जाननेवाला अनुमान प्रमाण हैं। इस कारण अनुमानसे दुबारा सिद्ध करनेमें कोई दोष नहीं है ।
परस्याप्ययं न्यायः समानः,
यह मीमांसक कहते हैं कि इसी प्रकार हम भी सर्वज्ञके अभावको सिद्ध कर लेवेंगे जैसे आपने एकांतोंका अभाव सिद्ध कर दिया है । व प्रतियोगी के स्मरण और निषेध्यसम्बन्धी आधारके प्रत्यककी जिस प्रकार आपको आवश्यकता नहीं पडी है । यही तर्कणारूप न्याय दूसरे हमको सर्वज्ञाभाव सिद्ध करने में भी समान है, न्यायमें पक्षपात नहीं होना चाहिये ।
इति चेत्:
इस प्रकार मीमांसकों के कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि:नैवं सर्वस्य सर्वज्ञज्ञापकानुपदर्शनम् । सिद्धं तद्दर्शनारोपो येन तत्र निषिध्यते ॥
३१ ॥
मीमांसकोंका उक्तकथन ठीक नहीं है। कारण कि जैसे हमको सब वस्तुओं ( जगह ) अनेकांतोंकी उपलब्धिरूप एकांतोंका अदर्शन सिद्ध है । इस कारण यदि किसीको भ्रमवश एकांत की कल्पना भी हो जाती है तो वह ग्वण्डित कर दी जाती है। उसी प्रकार सब पुरुषोंके सर्वज्ञज्ञापक प्रमाणोंका न दीखना आपको सिद्ध नहीं है जिससे कि वहां वस्तुतः निषेध कर देते । भावार्थ - यदि न दीखना सिद्ध होजाता तो एक दो मनुष्योंको सवज्ञज्ञापकके कल्पित उपलम्भ करनेका आप निषेध भी कर सकते थे । किन्तु सर्वज्ञके ज्ञापकप्रमाणोंका अभाव आप नहीं कर सकते हैं। भला हमारा और आपका अर्थपरीक्षणस्वरूप न्याय समान कहां रहा !
सर्वसन्धिनि सर्वज्ञज्ञापकानुपलम्भे हि प्रतिपत्तुः स्वयं सिद्धे कुतश्चित्कस्यचित्सर्वशज्ञापकोपलम्भसमारोषो यदि व्यवच्छेद्येत तदा समानो न्यायः स्याम चैवं सर्वज्ञाभाववादिनां तदसिद्धेः ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
यदि ज्ञाता मीमांसकको सम्पूर्ण पुरुषों में सम्बन्धित होरहे सर्वज्ञके ज्ञापकममाणोंका अनुपलम्भ अपने आप सिद्ध होता और बादमें किसी एक आध सर्वज्ञवादी व्यक्तिको किसी कारण से उसके विपरीत सर्वज्ञके ज्ञापकका उपलम्भरूप आरोप ( कल्पना ) हो जाता, पुनः इस आरोपको आप निवारण करते तब तो हमारे प्रकान्ताभावका और आपके सर्वज्ञाभावका न्याय समान होता किन्तु इस प्रकार सर्वज्ञाभाववादियोंके मतमे सम्पूर्ण आत्माओंमें सर्पज्ञके उन झापक प्रमाणोंका नहीं दीखना सिद्ध नहीं है । और हमारे यहां अनेकान्तोंका दर्शनरूप एकान्तोंके ज्ञापकका अजुपलम्भ सिद्ध है। अतः हमारा ओर आपका न्याय सहश नहीं है।
आसन् सन्ति भविष्यन्ति बोद्धारो विश्वदृश्वनः । मदन्येऽपीति निर्णीतिर्यथा सर्वज्ञवादिनः ॥ ३२ ॥ किंचिज्ज्ञस्यापि तद्वन्मे तेनैवेति विनिश्चयः । इत्ययुक्तमशेषज्ञसाधनोपायसंभवात् ॥ ३३ ॥
सम्पूर्ण पदार्थों के प्रत्यक्ष कर चुकनेवाले सर्वज्ञको जाननेवाले मेरेसे अतिरिक्त दूसरे पुरुष पहिले यहां हो चुके हैं उस समय मी अन्य क्षेत्रों में प्रत्यक्ष करनेवाले और यहां आगम, अनुमानसे जाननेवाले सर्वज्ञवेत्ता पुरुष वर्तमान हैं तथा भविष्यकालमें भी सर्वज्ञको जाननेवाले अनेक होयेंगे इस प्रकारका निर्णय जैसे सर्वज्ञवादीको है, उसीक समान मुझ मीमांसकको भी अच्छी तरह इस पातका विशेषरूपेस निश्चय है कि पहिले कालोंमें भी सम्पूर्ण लोग अल्पज्ञ थे और इस समय भी अल्पज्ञ हैं तथा अब आगे भी सम्पूर्ण जन अश्पज्ञ रहेंगे सर्वज्ञ और सर्वज्ञको जाननेवाला न कोई था, न है न होगा । सम्पूर्ण मनुष्य अल्मझोंको ही जाननेवाले थे, है, और होंगे भी। आचार्य कहते है कि इस प्रकार मीमांसकका कहना युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि सर्वज्ञके सिद्ध करनेका समीचीन उपाय विद्यमान है । प्रमाणसे सम्भव रही वस्तुका असम्भव कहते रहना उचित नहीं है।
स्वयमसर्वज्ञस्यापि सर्वविदोबोद्धारो वृत्ता वर्तन्ते मत्तोऽन्येऽपीति युक्तं वका, तत्सिध्युपायघटनात्। न पुनरसर्वज्ञवादिनस्ते पूर्व नासन्न सन्ति न भविष्यन्तीति प्रमाणामावात् ।
इस समय स्वयं अल्पज्ञ होकर भी हम जैन इस घातको युक्तिसहित कह सकते हैं कि हमसे अतिरिक्त पुरुष भी भूतकालमें सर्वज्ञके जाननेवाले थे, हैं, और वर्तमान में भविष्यों होंगे। क्योंकि उस सर्वज्ञकी सिद्धिका उपाय अनुमानप्रमाण चेष्टासहित बना हुआ है। किंतु सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसकोंके यहां सर्वह न थे, न हैं, और न होंगे इस घातका कोई प्रमाण नहीं है।
कपम् ।।
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तत्त्वार्थी चन्तामणिः
सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण हम असर्वज्ञ लोगोंको किस प्रकार है यह दिखलाते हैं ।
यथाहमनुमानादेः सर्वज्ञं वेद्मि तत्त्वतः तथान्येऽपि नराः सन्तस्तद्वोद्धारो निरंकुशाः ॥ ३४ ॥
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जैसे कि मैं अनुमान, आगम, आदि प्रमाणोंसे सर्वज्ञको वास्तविकरूपसे जान लेता हूं उसी प्रकार दूसरे विचारशील सज्जन पुरुष भी बाधक प्रमाणोंसे रहित होकर उस सर्वज्ञको जान लेते हैं ।
*:
सन्तः प्रशस्याः प्रेक्षावन्तः पुरुषास्ते मदन्येऽप्यनुमानादिना सर्वज्ञस्य बोद्धारः प्रेक्षाaara यथाहमिति ब्रुवतो न किंचिद्राधकमस्ति । न च प्रेक्षावच्वं ममासिद्धं निखयं सर्वविद्यावेदकप्रमाणवादित्वात् । यो हि यत्र निरवद्यं प्रमाणं वा स तत्र प्रेक्षावानिति सुप्रसिद्धम् ।
लोकें सगुणों से जो पूज्य हैं वे सज्जन हैं अर्थात् मुझसे अतिरिक्त जो विचारशील पुरुष हैं वे भी अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा सर्वज्ञ को जान रहे हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वे पुरुष समीचीन तर्कणा से हिताहितको विचारनेवाले हैं, ( हेतु ) जैसे कि मैं विचारवाला होकर प्रमाणोंसे सर्वज्ञको आन रहा हूं | ( अन्वयद्दष्टान्त ) इस प्रकार कहते हुए मुझ सर्वज्ञवादीके अभिमत का कोई बाधक नहीं है | मुझको विचारशालिनी बुद्धिसे सहितपना असिद्ध नहीं हैं। क्योंकि मैं निर्दोषरूपसे संपूर्ण विद्याओंके ज्ञान करानेवाले प्रमाणों को स्वीकार करनेवाला वादी हूं। जो वादी जिस विषयमें निर्दोषरूपसे निश्चय करके प्रमाणोंको कह रहा है वह वादी उस विषयमें अवश्य विचारशील सत्पुरुष माना जाता है जैसे कि सच्चा वैद्य, यह व्याप्ति लोकमें अच्छी तरहसे प्रसिद्ध है ।
यथा मम न तज्ज्ञप्तेरुपलम्भोऽस्ति जातुचित् । तथा सर्वनृणामित्यज्ञानस्यैव विचेष्टितम् ॥ ३५ ॥ हेतोर्न रत्व कायादिमत्त्वादेर्व्यभिचारतः । स्याद्वादिनैव विश्वज्ञमनुमानेन जानता ॥ ३६ ॥
यहां मीमांसक कहता है कि जैसे मुझको उस सर्वज्ञ की ज्ञप्तिका उपलम्भ कभी नहीं होता
। उसी प्रकार सम्पूर्ण मनुष्यों को भी सर्वज्ञका ज्ञान नहीं हो सकता है। इस प्रकार मीमांसकोंका कहना अज्ञानपूर्वक ही किया करना है कारण यह है कि आप सम्पूर्ण मनुष्योंको सर्वज्ञका ज्ञान नहीं है। इसका यही अनुमान करेंगे कि " सम्पूर्ण मनुष्यों में कोई भी मनुष्य सर्वज्ञको नहीं जानते
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तत्त्वालिन्यामणिः ।
हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वे सभी पुरुष है ( हेतु ) या वे सभी शरीर, इन्द्रिय आदिसे विशिष्ट हैं। ( दूसरा हेतु ) अथवा वे वक्ता हैं । ( तीसरा हेतु ) जो जो पुरुष हैं या शरीर आदिके धारी हैं तथा व्याख्याता है ये वे कोई भी सर्वज्ञको नहीं मानते हैं। जैसे कि में, (अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमानमें दिये गये मनुष्यत्व, शरीरित्य आदि हेतुओका अनुमानके द्वारा सर्वज्ञको जाननेवाले जैन स्याद्वादी विद्वानसे ही व्यभिचार है अर्थात् स्याद्वादी विद्वान् पुरुष हैं, शरीरधारी है और अच्छे वक्ता मी है किंतु वे सर्वज्ञको भली प्रकार जानते हैं । हेतु रह गया और साध्य नहीं रहा, अतः आप मीमांसकोंके हेतु व्यभिचारी हैं।
मदन्ये पुरुषाः सर्वज्ञापकोपलम्भशून्याः पुरुषत्वात्कायादिमस्या यथाहमिति वचस्तमोविलसितमेव; इतोः स्याद्वादिनानेकान्तात् ।
उक्त दो वार्तिकोंका अर्थ यह है। मीमांसक यदि यह कहे कि "मेरेसे अतिरिक्त संसारके मनुष्य सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणोंसे रीते हैं पुरुष होनेसे, या शरीर आदिका धारीपना होनेसे जैसे कि मैं इस अनुमानमें मीमांसकेन अन्वयदृष्टान्त बनाने के लिये अपनेसे अतिरिक्त सर्व जीवोंको पक्षकोटिमें डाला है और हमारत पाने कि बाप को मारा है। ग्योंकि अन्वयदृष्टान्त पक्षसे मित्र हुआ करता है। ये मीमांसकोंके वचन अत्यन्त गाद अन्धकारके कोरे खिलवार ही हैं। क्योंकि उन हेतुओंका स्थाबादी विद्वान्से व्यभिचार है।
सस्य पथीकरणाददोष इति चेत्, न, पक्षस्य प्रत्यक्षानुमानबाघप्रसता सर्वतवादिनो हि सर्वज्ञापकमनुमानादि स्वसंवेदनप्रत्यक्ष प्रतिवादिनच सद्वचनविशेषोत्वानुमानसिद्ध सर्वपुरलाणां सफलवित्साधनानुभवनशून्यत्वं बाधते हेतुबावीतकाला स्यादिति नास:वादिनों सर्वविदो बोद्धाशे न केचिदिति वक्तुं युक्तम् ।
यहां मीमांसक यह कहे कि, अमितारस्थल माने गये स्याद्वादी-लोगों को भी पक्षकोटिमें कर लिया जावेगा इस कारण कोई दोष नहीं है । अर्थात् स्याद्वादियोंको मी सर्वक्षका ज्ञान नहीं है, वे झूठी दम भरते हैं ।ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि तब तो आपके पक्षको प्रत्यक्ष और अनुमानप्रमागसे पाधा होनेका प्रसंग हो जावेगा । कारण कि सर्वज्ञवादीने सर्वज्ञका ज्ञान करानेवाल अनुभाब आदि प्रमाण स्वसंवेदनपत्यास मान लिये हैं और प्रतिवादीको उन पूर्वापर अविरुद्ध वचनविशेषोंसे पैदा हुए अनुमानके द्वारा सर्वज्ञके शापक प्रमाणोंका ज्ञान करा दिया जाता है । अतः स्वसंवेदन और अनुमानसे सिद्ध किये वे सर्वज्ञके ज्ञापकप्रमाण मीमांसकों के बनाये हुए उक्त अनुमानको बाधा देते हैं अतः सम्पूर्ण पुरुष सर्वसाधक अनुभवोंसे रहित हैं। इस अनुमानमें दिया गया हेतु बाधित हेत्वाभास होजाता है क्योंकि सर्वज्ञके साधक अनुमयों के सिद्ध
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तत्त्वान्तिामणिः
होआनेपर पात्कालमें आपका अनुमान घोला गया है । इस प्रकार सर्वज्ञको जाननेवाले कोई नहीं हैं यह असर्वशवादी मीमांसक नहीं कह सकते हैं अर्थात् सर्वज्ञका या सर्वज्ञको जाननेवालोंका निषेध करना उचित नहीं है।
ज्ञापकानुपलम्भोऽस्ति तन्न तत्प्रतिषेधतः । कारकानुफ्लम्भस्तु प्रतिघातीष्यतेऽग्रतः ॥ ३७ ॥
हेत दो प्रकार के होते हैं । एक ज्ञापक हेतु, दूसरे कारक हेतु, जैसे कि अमिका धूम ज्ञापक हेतु है और धूमका कारक हेतु अमि है। यहां मीमांसकों करके कहा गया सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणोंका अनुपसम्म तो सिद्ध नहीं हुआ है क्योंकि हमने सर्वज्ञके ज्ञापकममाणोंको सिद्ध करके उस अनुपरुम्मका निषेध कर दिया है और सर्वज्ञको बनानेवाले कार कोतुओंके अनुपचम्म होनेका भी आगे विधात करनेवाले हैं। अर्थात् तपस्या, समाधि, पूर्ण श्रुतज्ञान आदिके द्वारा ज्ञानावरण आदि काँके क्षबसे सर्वपन बनना इष्ट है । भावार्थ-कौके क्षयसे विशुद्ध आत्माम स्वाभाविक केवलज्ञान प्रगट होजाता है अतः कारमा अनुपम भी नहीं है।
तदेवं सिद्धो विश्वतत्वाना शावा, तदमावसाधनस्य शापकानुपलम्मस्य कारकानुपलम्भस्य च निराकरणात् ।
इस कारण इस प्रकार अब तक सिद्ध हुआ कि सम्पूर्ण पदार्थों का एक साथ प्रत्यक्ष करनेवाला सर्वज्ञ अवश्य है । क्योंकि उस सर्वज्ञके अमावको सिद्ध करनेके लिये मीमांसकोंकी ओरसे दिये गये ज्ञापकप्रमाणोंके अनुपलम्मका और कारककारणोंके अनुपलम्भका खण्डन कर दिया गया है। दूसरी कारिकामें कहे गये प्रमेयको पुष्ट करने के लिये-सर्वज्ञताको सिद्ध कर नुकनेपर अब पापोंका क्षय करना प्रसिद्ध करते हैं सुनिये।
कल्मषप्रक्षयश्चास्य विश्वज्ञत्वात्प्रतीयते ।
तमन्तरेण तद्भावानुपपत्तिप्रसिद्धितः ॥ ३८॥
इस सर्वज्ञके ज्ञानावरण आदि पापकर्मोका क्षय हो जाना तो सम्पूर्ण पदार्थोके ज्ञातापनसे ही निर्णीत कर लिया जाता है। क्योंकि उसके विना यानी पापोंका क्षय किये विना उप्तके सद्भाव यानी सविताकी सिद्धि नहीं होती हैं । यह प्रमाणसें सिद्ध है ।
सर्वतत्वार्थज्ञानं व कस्यचित्स्यात् कल्मषप्रक्षयश्च न स्यादिति न शंकनीयं तनाव एव तस्य सद्भावोपपचिसिद्धेः ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
दूसरी वार्दिक सम्पूर्ण तत्रार्थोंके ज्ञानरूप कार्यको हेतु बनाया है और कमोंके सरूप कारणको साध्य बनाया है । उस प्रकरणका यहां उपसंहार किया जा रहा है । यहां कोई शंका करे कि आपके उक्त अनुमानमें अनुकूल तर्क नहीं है अर्थात् किसी एक अनादि ईश्वरके सम्पूर्ण तत्त्वार्थीका ज्ञान हो और सदा हो रहे श्रम न हो इसमें क्या बाधा है ? अन्धकार कहते हैं कि यह शंका तो नहीं करनी चाहिये। क्योंकि उस पापोंके क्षय होनेपर ही उस आत्माको सब पदार्थोंका जानना अन सकता है। जैसे कि वहिसाधक प्रसिद्ध अनुमानमे कोई शंका करे कि धूम हो और वह्नि न हो तो इसमें क्या आपत्ति है ? इसका उत्तर यही है कि कार्यकारणभावका भंग हो जायेगा । विना कारणके धूम नहीं हो सकता है । उसी तरह से यहां भी कायकारणभावा भंग न होना ही उक्त शंकाका बाधक है ।
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जायते तद्विधं ज्ञानं स्वेऽसति प्रतिबन्धरि । स्पष्टस्वार्थावभासित्वान्निर्दोषनयनादिवत् ॥ ३९ ॥
सम्पूर्ण पदार्थोंको हस्तामलकवत् युगपत् जाननेवाला वैसा ज्ञान ( पक्ष ) अपने विन कर रहे ज्ञानावरण आदि प्रतिपक्षियोंके नष्ट हो जानेपर ही पैदा होता है ( साध्यदल ) क्योंकि वह स्पष्ट पाण्डु, रूपसे सम्पूर्ण अपने विषयोंको प्रकाश कर रहा है ( हेतु ) जैसे कि चाकचक्य, कामल आदि दोषोंसे सहित चक्षु आदि इन्द्रियां अपने विषयोंका स्पष्ट प्रकाश करती हैं । (अन्वय दृष्टान्तं ) इस अनुमान द्वारा सर्वज्ञके ज्ञानका आवरण करनेवाले फर्मोंका विनाश सिद्ध किया है ।
सर्वज्ञविज्ञानस्य स्वं प्रतिबन्धकं कल्मषं तस्मिन्नसत्येव तद्भवति स्पष्टस्वविषयावभा सित्वात् निर्दोषचक्षुरादिवदित्यत्र नासिद्धं साधनं प्रमाणसद्भावात् ।
पूर्व सर्वज्ञ विज्ञानका स्वाभाविकशक्तिसे बिगाडने वाला अपना पापकर्म था, उस पापके ध्वंस होनेपर ही सबको जाननेवाला वह विशद ज्ञान पैदा होता है क्योंकि वह स्पष्टरूपसे अपने विषयोंका प्रकाशक है । जो स्पष्टरूपसे अपने विषयोंके प्रकाशक होते हैं वह अपने प्रतिबन्धकोंके नष्ट होनेपर ही उत्पन्न होते हैं । जैसे कि काच कामक आदि दोषोंसे रहित चक्षु आदिक इन्द्रियां या उन इंद्रियोंसे पैदा हुए घट, पटके प्रत्यक्ष ज्ञान। यों इस अनुमानमें हेतु असिद्ध नहीं है । क्योंकि पक्ष हेतुका रहना सिद्ध करनेवाले अनुमान और आगमप्रमाण विद्यमान हैं ।
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नन्वामूलं कल्मषस्य क्षये किं प्रमाणमिति चेदिमे श्रमहे
किसीकी यहां शंका है कि हम लोगोंके ज्ञानावरण आदि कर्म कुछ नष्ट भी हो जाते हैं और अनेक कर्म आत्मामें विद्यमान रहते हैं किन्तु आपने सर्वज्ञके ज्ञानावरण आदि कमका सम्पूर्णरूपसे
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क्षय माना है । अत्रः कर्मोके जडसे ही पूरी तरह क्षय हो जाने में क्या प्रमाण है ! बताओ, ऐसी शंका होनेपर यहां ये हम जैन सहर्ष यह कहते हैं किः
क्षीयते क्वचिदामूलं ज्ञानस्य प्रतिबन्धकम् । समग्रक्षयहेतुत्वालोचने तिमिरादिवत् ॥ ४० ॥
आत्माके स्वाभाविक ज्ञानगुणका आचरण करनेवाला प्रतिबन्धक कर्म (पक्ष ) किसी न किसी आत्मामें मूलसे शिखा तक पूरी तरहसे नष्ट हो जाता है ( साध्य ) क्योंकि उस आत्मामें ज्ञानावरणकर्म के पूर्णरूपसे क्षय होनेके कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र उत्पन्न हो गये हैं (हेतु) जैसे कि अञ्जन, सुरमा, ममीरा आदि कारणोंसे नेत्रमें तमारा, चकाचौंध, कामल, आदि दोष सर्वथा नष्ट हो जाते हैं । ( अन्वय दृष्टान्त )
समग्रक्षयहेतुकं हि वक्षुषि तिमिरादि न पुनरुद्भवष्ट वद्वत्सर्वविदो शानप्रतिबन्धकमिति।
जैसे कि तमारा, रतौंध आदि दोषोंके सर्वश्रा नाश करनेवाले कारणों के उपयोग करनेपर नेत्रमें तमारा आदि दोष फिर पैदा होता हुआ नहीं देखा गया है । उसीमकार एकत्ववितर्क अवीचार नामके ध्यानसे सम्पूर्ण घातियों का क्षय हो जानेपर सर्वज्ञके केवलज्ञानको आवरण करनेवाला कर्म पुनः उत्पन्न नहीं हो पाता है। - ननु क्षयमात्रसिद्धावप्यामूलक्षयोऽस्य न सिद्धयेत् पुनर्नयने तिमिरमुद्भवदृष्टमेवेति चेन्न, सदा तस्य समप्रक्षयहेतुत्वाभावात, समग्रक्षयहेतुकमेव हि विमिरादिकमिहोदाहरण नान्यत्, न चानेन इतोरनैकान्तिकता, तत्र तदभावात् ।
मीमांसकोंकी ओरस नेत्रके दृष्टांतको लेकर यहां शंका है कि पूर्वोक्त अनुमानसे फौका फेवल क्षय सिद्ध हुआ। फिर भी जडमूलसे इन कोका क्षय तो सिद्ध नहीं होता है क्योंकि नेत्रोंमें एकवार तमारे आदिके नष्ट होजानेपर फिर मी तमारा, रतोंघ आदि दोष पैदा होते हुए देखे गये हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञके भी पुनः ज्ञानावरणदोषका बन्ध होना सम्भव है । आचार्य कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि संसारी जीवों के ज्ञानावरण आदि कर्माका पूर्णरूपसे ना करनेवाला रलत्रय उत्पन्न नहीं हुआ है। इस कारण कतिपय काँका क्षयोपशम होजाता है । पुनः पन्ध मी होजाता है । किंतु सर्वज्ञके कर्मोंका अनन्त काल तक के लिये क्षय करनेवाले कारण पूर्ण संबर और निर्जरा होगये हैं । इसी प्रकार नेत्रों में एक बार उपशम होनेपर भी पुनः तमारा, रतोंध दोष पैदा हो जाता है। वहां भी उस दोषका पूर्णरूपसे क्षय करनेके कारण अञ्जन आदिफका
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उस समय सेवन नहीं किया है। हमने यहां सम्पूर्णरूप से दोषोंके नाश करनेवाले कारणोंसे सर्वथा नष्ट हो चुके तमारा आदि दोषोंको ही दृष्टान्त किया है। कुछ देरके लिये दब गये अन्य स्तोष आदिको दृष्टान्त नहीं बनाया है । इस कारण कुछ दिनके लिये उपशमको प्राप्त हुये इस समारा दोषसे हमारे हेतुका व्यभिचार नहीं है। क्योंकि वहां दबे हुए कामल आदि नेत्रदोषों में “ सम्पूर्ण रूपसे क्षय करनेका कारण विद्यमान है " वह हेतु रहता नहीं है । फिर व्यभिचारदोष कैसा ! !
किं पुनः केवलस्य प्रतिबन्धकं यस्यात्यन्तपरिक्षयः कचित्साध्यत इति नाशेप्तव्यम् ।
यहां किसीका उपहास करते हुए आक्षेप है कि मेत्रके दृष्टान्त से दोषोंका सम्पूर्ण रूपसे क्षय हो जाना मान भी लिया जाय, फिर भी आप यह मा प्रतिवन्म करनेवाला दोष कौन है ? जिसका कि अनन्त कालतक के लिये पूर्ण रूपसे नष्ट होजाना किसी एक आत्मामें सिद्ध किया जा रहा है । अन्धकार कहते हैं कि इस प्रकार आक्षेप नहीं करना चाहिये । कारण कि-----
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मोहो ज्ञानeगावृत्यन्तरायाः प्रतिबन्धकाः ।
केवलस्य हि वक्ष्यन्ते तद्भावे तदनुद्भवात् ॥ ४१ ॥
मोहनीय, तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, ये पौङ्गलिक कर्म केवकज्ञानके निश्वय फरके प्रतिबन्धक है । मूलसूत्रकार इस बातको आगे दशमें अध्याय में कहेंगे उन कमौके होने पर व केवलज्ञान नहीं पैदा होता है । यहां अन्वयव्याप्ति है । कि—
यद्भावे नियमेन यस्यानुद्भवस्ततस्य प्रतिबन्धकं यथा तिमिरं नेत्रविज्ञानस्य, मोहादिभावोऽस्मदादेश्चक्षुर्ज्ञानानुद्भवश्च केवलस्थेति मोहादयस्तत्प्रतिबन्धकाः प्रवक्ष्यन्ते, ततो न धर्मिणोऽसिद्धिः ।
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जिसके विद्यमान रहनेपर जो नियमसे पैदा नहीं होता है, वह उसका प्रतिबन्धक माना जाता है । जैसे कि नेत्रोंके द्वारा ठीक ठीक विज्ञान होने का प्रतिबन्ध करनेवाले समारा, काम आदि दोष हैं। हम आदि लोगोंके मोहनीय कर्म और ज्ञानावरण आदि कर्म विद्यमान हैं। जैसे तिमिरादि - दोष के विद्यमान होनेपर पूरा चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं पैदा होता है। इसी प्रकार चारित्रमोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के होनेपर केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो पाती है। इस हेतुसे मोहादिक कर्म उस केवलज्ञानके आवरण करनेवाले सिद्ध होते हैं । केवलज्ञानके बिगाड़ने वाले कमौका विरूपण अन्तिम अध्याय में करेंगे, इस कारण ज्ञानके प्रतिबन्धक कर्म (पक्ष) किसी
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तत्त्वाचिन्तामणिः
आत्मा में भूलसे नष्ट हो जाते हैं ( साध्य ) पूर्णरूपसे क्षयका कारण विद्यमान होनेसे ( हेत ) इस अनुमानमें प्रतिमन्धक कर्म-रूपी धर्मी ( पक्ष ) की असिद्धि नहीं हुयी ।
का पुनरेतत्क्षयहेतुः समग्रो यद्भापादेतसिद्धिरिति चेत् ।
फिर यहां प्रभ है कि मोहनीय आदि मौके पूर्णरूपसे क्षयका कारण कौन है ! जिसके विद्यमान होनेस जैनोंका हेतु सिद्ध कहा जाये बताओ, यदि ऐसा कहोगे तो आचार्य उत्तर देते हैं कि
तेषां प्रक्षयहेतु च पूर्णे संवरनिर्जरे । ते तपोतिशयात्साधोः कस्यचिद्भवतो ध्रुवम् ॥ ४२ ॥
उन मोहनीय आदि कोके वर्तमान और भविष्यके भी सम्बन्धको रोकते हुए बढिया क्षय करनेके कारण वे पूर्ण संवर और निर्जरा किसी किसी निकटसिद्ध साधुके उत्कृष्ट तपके माहात्म्यसे निभव कर पैदा होजाते हैं।
तपो झनागताघोघप्रवर्तननिरोधनम्। तज्जन्महेतुसंघातप्रतिपक्षयतो यथा ॥ ४३ ॥ भविष्यत्कालकूटादिविकारौघनिरोधनम् । मंत्रध्यानविधानादि स्फुटं लोके प्रतीयते ॥ १४ ॥ जिस तपके द्वारा संवर और निर्जर। दोनों हो जाते हैं, उस तपके उत्पन्न होने के कारण सो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, और चारित्र है । बहिरंग, दीक्षा, तपस्या, कायक्वेश आदि मी हैं । वह तप ही भविष्यमे आनेवाले पापोंके समुदायकी प्रवृतिको रोकता रहता है तथा वर्चमानकालेम भी उस पापका सम्बन्ध नहीं होने देता है। कर्मोके उत्पन्न होनेका कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगोंका समुदाय है। उसको सम्यग्दर्शन आदि सामग्रीसे नाश करता हुआ म. किसी साधुके उत्पन्न होजाता है । जैसे कि यह बात लोकमें स्पष्टरूपसे प्रतीत होरही है कि कादे हुए या जहर खानेवाले मनुष्यके शरीरमें विषका प्रभाव मन्त्रसे और ध्यानकी विधि आदिने वर्तमान में भी वष्ट कर दिया जाता है और भविष्यकालमें भी उस तीक्ष्ण विष या पावले कुवेके काटने, और पागल श्रृगालके काटनेके विकारोंके समुदाय रोक दिये जाते हैं । इसी प्रकार सपके घारा वर्तमान और भविष्यके लिये कर्मबन्ध नष्ट कर दिये जाते हैं।
नृणामप्यघसम्बन्धो रागद्वेषादिहेतुकः दुःखादिफलहेतुत्वादतिभुक्तिविषादिवत् ॥ ४५ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
दर्तमान संहारी जीवोंके भी नाग, द्वेष,- अज्ञान, प्रमाद, आदि कारणोंसे पापोका सम्बन्ध अवश्य है (प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह दुःख, अज्ञान, उत्साहका न होना, परतन्त्र होना, आदि फलोका कारण है ( हेतु ) जैसे कि मूखसे अत्यधिक खानेपर या विष, कच्चा पारा आदि मक्षण करनेसे उस पुद्गलके सम्बन्ध द्वारा आत्मामें नाना क्लेश उत्पन्न हो जाते हैं। (अन्वयदृष्टान्त) उसी प्रकार संसारीमनुष्यों के विचित्र प्रकारके आधि, व्याधि, उपाधिरूप अनेक दुःख देखे जाते हैं । इससे प्रतीत होता है कि आत्माके विभावभावका कारण विजातीय पुदल पापद्रव्यका सम्बन्ध हो रहा है।
तद्विरोधि विरागादिरूपं तप इहोच्यते ।
तदसिद्धावतजन्मकारणप्रतिपक्षता ॥ ४६ ॥
जिन रागद्वेष, अज्ञान आदि विभाओंसे कमाका बन्ध होता है, उन रागादिकोसे विरोध करनेवाले वैराग्य, आत्मज्ञान, भेदविज्ञान, स्वाध्याय, कायकेश, धर्मध्यान आदि स्वरूप यहां प्रकरणमें तप कहा जाता है । क्योंकि धर्मध्यान, वैराग्य आदि तपके सिद्ध न होनेपर उन पापोंकी उत्पत्ति के कारण हो रहे अविरति, कषाय आदिका विरोध करना नहीं बनता है । इसकारण वीतराग विज्ञान आदि ही ज्ञानावरण आधि पौलिककौके और रागद्वेष भादि भावकों के विरोधी सिद्ध हो जाते हैं।
तदा दुःखफलं कर्म संचितं प्रतिहन्यते कायक्लेशादिरूपेण तपसा तत्सजातिना ॥ ४७ ॥ खाध्यायादिस्वभावेन परप्रशममूर्तिना। बद्धं सातादिकृत्कर्म शक्रादिसुखजातिना ॥ ४८ ॥
जिस समय मुनिमहाराजके उत्कृष्ट तप हो जाता है उस समय दुःख, रोग, संक्लेश है फल जिनके ऐसे पूर्व जन्ममें इफ किये गये कर्म सो प्रतिपक्ष हो रहे कायक्लेश, प्रायश्चित्त उपवास. प्युसर्ग आदि तोके द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं। और इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती आदिके सुखोको प्राप्त करानेवाले या उसी जातिके दूसरे नीरोगता, सत्कुलीनता, यशस्विता, राजलोकमान्यता, जयशालिनी विद्वता आदि लौकिक सुखोको देनेवाले सातावेदनीय, उच्चगोत्र, यशस्कीति, सुभग, आदि कौकिक सुखसाताको करनेवाले पुण्यकर्मको आत्मामें बंधे हुए हैं। उन शुभकाँका विनाश तो परम उत्कृष्ट शान्तिकी मूर्ति स्वरूप स्वाध्याय, शुक्लध्यान, आदि आत्माके स्वाभाविक परिणामरूप तपसे हो जाता है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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केवलप्रतिबन्धकस्यानागतस्य संचितस्य वात्यन्तिकायहेतु समग्रौ संवरनिर्जरे तपोड तिशयात् कस्यचिदवश्यं भवत्त एवेति प्रमाणसिद्धं तस्य समग्रक्षयहेतुत्वसाधनं यत:
केवलज्ञानका प्रतिबन्ध करनेवाले भविष्यके कर्म और पूर्व जन्मके एकत्रित कौका अत्यंतरूपसे क्षय करनेके कारण पूर्ण संवर तथा पूर्ण निर्जरा किसी न किसी विशुद्ध साधुके तपके माहात्म्यसे अवश्य उत्पन्न हो जाते ही हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त शंकाकारको मोहनीय आदि समग्र कर्मों के पूर्णरूपसे क्षयके हेतुका विद्यमान रहनारूपी ज्ञापक साधन-प्रमाणोंसे सिद्ध कर दिया गया है, जिस कारणले कि काँके क्षय करनेवाला हेतु सिद्ध होगया ।
ततो निःशेषतत्वार्थवेदी प्रक्षीणकल्मषः । श्रेयोमार्गस्य नेतास्ति स संस्तुत्यस्तदार्थभिः ॥४९॥
इस कारणसे यह भी सिद्ध हो गया कि जिसके सम्पूर्ण पाप प्रकृष्टपनेसे ध्वस्त हो गये हैं वह पुरुष ही सम्पूर्ण पदार्थोके जाननेका स्वभाववाला है और वही मोक्षमार्गका प्राप्त करानेवाला पथप्रदर्शक नायक है। तथा वही उस मोक्षके अभिलाषी भन्यजीवों करके अच्छा स्तवन करने योग्य है । यहां तक दूसरी बार्तिकके संदर्भका उपसंहार हुआ !
ननु निःशेषतत्वार्थवेदित्वे प्रक्षीणकल्मषत्वे च चारित्राख्ये सम्यग्दर्शनाविनाभाविनि सिद्धेऽपि भगवतः शरीरित्वेनावस्थानासंभवान श्रेयोमार्गोपदेशित्वं, तथापि तदवस्थानेशरीरित्वाभावस्य रत्नत्रयनिबन्धनत्वविरोधाद तद्भावेऽप्यभावात्। कारणान्तरापेक्षायां न रत्न त्रयमेव संसारक्षयनिमित्तमिति कश्चित् ।
यहां किसी की शंका है कि स्याद्वादियोंके कथनानुसार जिनेन्द्र भगवान्के सम्यग्दर्शन गुणके साथ व्याप्ति रखनेवाले सम्पूर्ण पदार्थोंका जानलेनापन तथा चारित्रमोहनीय आदि चार धातिकमाका बढिया क्षय होजानारूप चारित्रनामके गुणके सिद्ध होजाने पर भी रत्नत्रयवाले भगवान् - का शरीरसहित होकर ठहरना सम्भव नहीं है, क्योंकि तीनों गुणों के पैदा होजानेपर वे शीघ्र ही न्यकर्म, भाककर्म और नोकर्भसे विमुक्त होकर सिद्धलोक को प्राप्त हो जायेंगे । अतः मोक्षमार्गका उपदेशदायकान नहीं बन सकेगा, फिर भी रत्नत्रय हो जानेपर आप उन जिनेन्द्र भगवान् का संसारमै उपदेश देनेके लिये स्थूलशरी-सहित स्थित रहना मानोगे तो आत्माके शरीरसहितपने के भभावरूप मोर्शी रस्तत्रयकी कारणताका विरोध होगा अर्थात् रत्नत्रयसे आत्माके स्थूल, सूक्ष्म शरीरोंका अभाव न हो सका, क्योंकि रत्नत्रयके उत्सन्न होनेपर भी उपदेशार्थ ठहरना पड़ा शरीरका अभाव नहीं हुआ है। यदि शरीरका उपाकि नाश करने के लिये रत्नत्रयके अतिरिक्त दूसरे कारणों
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सत्त्वाचिन्तामप्रिः
की अपेक्षा करोगे तो पूर्ण रस्तत्रयही ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म, या अज्ञान, क्रोध, राग आदि मात्र कर्म, और शरीर, इन्द्रिय, आदि नोकर्मस्वरूप संसारके क्षयका कारण है । यह सिद्धान्तवचन न बन सकेगा | कारणले कार्य होनाही चाहिये। कार्यकारणभाव कोई बच्चों का खेल नहीं है, चाहे जहां कार्य कर किया और कहीं कार्य न होसका । इस प्रकार किसी एक नैयायिक मतके अनुसार चलनेवाले वादीका कुचोद्य है ।
सोऽपि न विपश्चित् यस्मात् -
ग्रन्थकार कहते हैं कि वह शंकाकार भी विचारशाली पण्डित नहीं है। जिस कारण से कितस्य दर्शनशुद्धयादिभावतोपात्तमूर्तिना । पुण्यतीर्थंकरस्येन नान्मा संश्रियः ॥ ५० ॥ स्थितस्य च चिरं स्वायुर्विशेषवशवर्तिनः । श्रेयोमार्गोपदेशित्वं कथंचिन्न विरुध्यते ॥ ५९ ॥
उस जिनेन्द्रदेवने पूर्वजन्म में या इस जन्म दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंके भावनेसे अत्यंत पुण्यशालिनी पौलिक नामकर्मकी तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया है तथा उस तीर्थंकरप्रकृति के साथ नियमरूपसे होनेवाली अनेक पुण्यप्रकृतियोंका ग्रहण किया है । उन पुण्यकृतियों के उदय आनेपर सम्पादित हुई समवसरण आदि बहिरंगलक्ष्मीको प्राप्त करनेवाले जिनेंद्रदेव उत्कृष्टपसे कुछ अन्तर्मुहुत अधिक पौनेनौ वर्ष कमती एक फोटी पूर्ववर्ष और अधन्यपनेसे कतिपय अन्तर्मुहूर्त अपने विशेष आयुष्यकर्मके अधीन होकर वर्ताव करनेवाले भगवान् बहुत देर तक या बहुत वर्षोंतक संसारमें ठहरते हैं। यों चार अवातिया कर्मों के अधीन संसार में स्थित रहनेवाले अनन्तचतुष्टयधारी भगवानके तीर्थंकर प्रकृतिके उदय होनेपर मोक्षमार्गका उपदेश देनापन किसी भी तरहसे विरुद्ध नहीं हैं ।
तस्य निःशेषतच्चार्थवेदिनः समुद्भूतरत्नत्रयस्यापि शरीरित्वेनावस्थानं स्वायुर्विशेषवशवर्तित्वात् न हि तदायुरपवर्तनीयं येनोपक्रमवशात् क्षीयेत, तदक्षये च तदविनाभावि - नामादिकर्मत्रयोदयोऽपि तस्यावतिष्ठते, तसः स्थितस्य भगवतः श्रेयो मार्गोपदेशित्वं कथमपि न विरुध्यते ।
सम्पूर्ण तत्त्वार्थके जाननेवाले उस प्रसिद्ध जिनेन्द्र भगवान् के रत्नत्रय भले ही प्रगट हो गये हैं फिर भी अपनी विशेष आयुके अधीन होनेसे जिनेन्द्र देवका उपदेशके उपयोगी शरीरसे - साहित
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होकर संसारमै ठहर आना बन जाता है। तीर्थंकर भगवानकी आयु विष, वेदना, रक्तक्षय, आदि कारणों से मध्य में ही हिन होनेके योग्य है नहीं, जिससे कि उपक्रम के अधीन आयुः कर्मकी उदीरणा होकर औपक्रमिक निर्जरा हो जाती । अर्थात् साधारण कर्मभूमियां मनुष्य तिर्योंकी या गुरुदरा, पाण्डव आदि सामान्यकेवलियों या अन्तकृत केवलियोंकी भी आयुका अपवर्तन हो जाता किंतु तीर्थंकरोंकी आयुका मध्यमे किसी कारण से क्षय नहीं हो पाता है । वे भुज्यमान पूर्ण आयुष्यको भोगते हैं और जब उस आयुष्यकर्म का क्षय नहीं हुआ तो उससे अविनाभाव रखनेवाले नाम, गोत्र, तथा वेदनीय इन तीन कमका उदय भी तीर्थकर जिनेंद्रदेवले विद्यमान रहता है, तिस कारण चार अघातिया कर्मोंके वशवर्ती भगवान् संसार में ठरहते हैं और अपने अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, तीर्थंकरल, स्वरनामकर्म तथा मन, वचन, कायके योग तथा मध्यजीवोंके पुण्यविशेको निमित्त पाकर मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं । यह बात कैसे भी विरुद्ध नहीं पड़ती है ।
कुतस्तर्हि तस्यायुःक्षयः शेषाधातिकर्मक्षयश्च स्याद्यतो मुक्तिरिति चेत्
यहां शंकाकार पूंछता है कि तो फिर उन भगवान्के आयुकर्मका क्षय तथा बाकी बचे हुए वेदनीय, गोत्र और नामकर्मका क्षय किस कारणसे होगा ? बताओ जिससे कि सम्पूर्ण कमों के क्षय होनेपर भगवान् को मोक्ष होसके, ऐसा कहनेपर तो आचार्ये उत्तर देते हैं । सुनिये ।
फलोपभोगादायुषो निर्जरोपवर्णनादया विकर्मत्रयस्य च शेषस्याधिकास्थितेर्दण्डकपाटादिकरण विशेषाद पकर्षणादिकर्मविशेषाद्वेति ब्रूमः ।
आयुष्य कर्मकी निर्जरा तो संसारमै उतने दिनतक ठहरना रूप उसके फलके उपभोग करनेसे ही मानी गयी है और बाकीके तीन अघातिया कर्मोकी स्थिति यदि आयुकर्मके बराबर है, तब तो आयुकर्मके साथ साथ उन तीनों कमौका भी फल देकर क्षय होजाता है । किन्तु आयुसे वेदी आदि की स्थिति यदि अधिक है तो दण्ड, कपाट, मतर और लोकपूरणरूप विशेष क्रिया करने से या आलीयपरिणामोंसे होनेवाले अपकर्षणविधान आदि क्रियाविशेषसे निर्जरा कर दी जाती है ऐसा हम जैन साटोप कहते हैं । मात्रार्थ जैसे कि नींद कम आनेपर जंभाईसे शरीका आलस्य कम होजाता है, जंभाई अकडनके लिये हम चलाकर प्रयत्न नहीं करते हैं। उसी प्रकार बिना इच्छा, मयत्नके जिनेन्द्र देवके आयुकर्मके बराबर शेष तीन कर्मोकी स्थिति करने के लिये केवल मुद्धात होता है । उसमें सात समय लगते हैं । प्रथम समयमै आत्मा के प्रदेश दण्डके समान हो जाते हैं । पूर्वमुख या उत्तरमुख पद्मासन बैठे हुए था खड़े हुए केवलीके शरीर विन्यास के अनुसार शरीरबराबर मोटी सात राजू लम्बी आत्मा हो जाती है । दूसरे समय are आकार होकर सात राजू लम्बे, सात राजू चौंडे और शरीरकी मोटाईके अनुसार मोटे होकर
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वे प्रदेश कि
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तस्वार्थचिन्तामणिः
फैल जाते हैं। तीसरे समयमै वातक्लयोंको छोडकर सर्व लोकमें वे मदेश व्याप्त हो जाते हैं और चौथे सभयमें वातबलय भी भर जाते हैं इसको लोकपूरण कहते हैं । आत्मा लोकाकाशके बराबर हो जाता है, यह प्रसारणविधि है। बादमें पूर्वके समान संकोचन होता है । पांचवे समयमें प्रतर और छेडेमें पुनः कपाट फिर दण्डके अनुसार प्रदेशरचना होकर आठवे समयमें पूर्वशरीरके अनुसार आत्मा हो जाता है । इस केवलिसमुद्धातसे तीन अघाती कोंकी स्थिति आयु के बराबर हो जाती है । इसके कई अन्य भी लौकिक दृष्टांत हैं ।
न चैवं रलत्रयहेतुता मुक्ताहन्यते निश्चयनयादयोगकेवलिचरमसमयवर्तिनी रलत्रयस्य मुक्तहेतुत्वव्यवस्थिते ।।
कोई आक्षेप करे कि इस मकार माननेपर तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रको मोक्षकी कारणसाका व्याघात होता है क्योंकि चौथेसे सात तक किसी भी गुणस्थानमें क्षयोपशम सम्यग्दर्शनके विद्यमान होनेपर करणत्रय करके अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन हो जानेपर पुनः करणत्रयस दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय हो जानेसे क्षायिकसम्यक्त्व हो चुका है, और दशमे गुणस्थानके अंतमें चारित्रमोहनीयका अविकलध्वंस हो जानेपर क्षायिक चारित्रगुण भी बारहवें गुणस्थानके आदि समयमें प्रकट हो चुका है, तथा बारहवें गुणस्थानके अंतमें ज्ञानावरणके नाश हो जानेस तेरहवेकी आदिमें क्षायिक केवलज्ञान भी उत्पन्न हो गया है, फिर क्या कारण है कि रत्नत्रय होनेपर भी मोझ नहीं होपाती है ! ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि व्यवहारनयसे यद्यपि तीनों रत्न पूर्ण हो चुके हैं, फिर भी चारित्रगुण अघातिकाँके निमित्तसे आनुषंगिक दोष आ जाते हैं ! परमावगाढ सम्यग्दर्शन चौदहवे गुणस्थानके अंतमें माना है तथा पूरा चारित्र व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान भी चौदहवेंके अंतसमयमें माना है। निश्चयनयसे चौदहवे गुणस्थानके अंतसमयमै योगरहित केवलज्ञानीके होनेवाले रक्षत्रयको मोक्षका कारणपना व्यवस्थित किया गया है । तब वे एक क्षण भी संसारमें नहीं ठहरते हैं ! चौदहवेंके अंतमें रत्नत्रयकी पूर्णता कर उसके उत्तरक्षणम स्वाभाविक ऋजुगतिसे ऊर्ध्व गमन कर लोकके सबसे ऊपर तनुवातबलयमें स्थित पैतालीस लाख योजन लम्बे चौडे और पांच सौ पच्चीस धनुष ऊंच थालीके आकार गोल सिद्धलोकमें वे अनंत काल तकके लिये विराजमान हो जाते हैं।
- ननु स्थितस्याप्यमोहस्य मोहविशेषात्मकवितक्षानुपपत्तेः कुतः श्रेयोभार्गवचनप्रयसिरिति च न मन्तव्यम्। तीर्थकरत्वनामकर्मणा पुण्यातिशयेन तस्यागमलक्षणतीर्थकरवश्रियः सम्पादनाचीर्थकरत्वनामकर्म तु दर्शनविशुद्धयादिभावनावलभावि विभावयिष्यते ।
यहां शंका है कि जिनेन्द्र भगवान् आयुकर्मके अधीन होकर संसारमें स्थित रहते हैं यह तो ठीक है किंतु जब भगवान्के मोहनीय कर्मका नाश पहिले ही होगया है तो विशेष मोहनीय
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कर्मके उदयसे होनेवाली बोलनेकी इच्छा तो मोहरहितभगवान्के बन नहीं सकती है, फिर कैसे इच्छाके विना भगवानके मोक्षमार्गके प्रतिपादन करनेवाले वचनोंकी प्रवृत्ति होसकेगी ? बताओ। आचार्य कहते हैं कि यह नहीं मानना चाहिये, क्योंकि तीर्थकरत्वनामका नामकर्म अत्यंत चमत्कारी पुण्य है । उस बहिरंगकारणके द्वारा उस अनंतचतुष्टयघारी भगवान्ने द्वादशांग आगमरूप तीर्थ धनानेकी लक्ष्मीको प्राप्त किया है । अर्थात् अनेक दुःखोंसे निकालकर भव्यजीवोंको मोक्षधाममें पहुंचानेके लिये श्रेष्ठ आगम द्वादशांग वाणीरूपी घाट संसारसमुद्रसे पार होनेके लिये बना दिया है। वह आगमरूपी पाटके बनानेमे निमित्त कारण तीर्थंकर त्रसंज्ञावाला नामकर्म तो दर्शनविशुद्धि
आदि सोलह कारण भावनाओंके बलसे भन्यजीवोंके चौथे गुणस्थानसे लेकर आठवेके छठे माग तक बधको प्राप्त हो जाता है। इस बातका भविष्यग्रंथमें अच्छी तरहसे विचार कर निर्णय कर देवेगे।
न च मोहति विवक्षानान्तरीयकत्वं वचनप्रवृत्चेरुपलभ्य प्रक्षीणमोहेऽपि तस्य तत्पूर्वकत्वसाधनं श्रेयः, शरीरित्वादेः पूर्वी सर्वज्ञत्वादिसावनानुगात, चौविमानान्तरीयकत्वासिद्धेश्चेति निरवध सम्यग्दर्शनादित्रयहेतुकमुक्तिवादिनां श्रेयोमार्गोपदेशित्वम् ।
मोहयुक्त संसारी जीवोंमें बोलनेकी इच्छाके विना न होनेवाली अर्थात् बोलनेकी इच्छपूर्वक ही होनेवाली वचनप्रवृत्तिको देखकर मोहरहित जिनेन्द्रदेवके भी उन वचनोंका विवक्षापूर्वकपन सिद्ध करना अच्छा नहीं है । अन्यथा यों तो केवलज्ञानीके शरीरधारीपन, वक्तापन आदि हेतुओंसे पूर्वके समान असर्वज्ञता भी सिद्ध हो जावेगी," अर्हन असर्वज्ञः शरीरधारित्वात् , वक्तृत्वात्, अध्यापकवत्, " मिट्टीका विकार होनेसे घटफे समान सर्पकी वामी भी कुम्हारकी बनाई हुयी नहीं सिद्ध होती है। " वक्ष्मीकै कुम्भकारकृतं मृद्रिकारवाद घटवत्," उसी प्रकार सामान्य संसारीजीवोंके वचनेमि बोलनेकी इच्छाको कारण देखकर सर्वज्ञदेवके वचनोंके अव्यवहित पूर्वमें मी बोलनेकी इच्छाका सिद्ध करना ठीक नहीं है । तथा वचनका विवक्षाके साथ अविनाभावीपन सिद्ध मी नहीं है। क्योंकि सोते समय और मूर्छा आदिमें विवक्षाके बिना मी वचन बोल दिये जाते हैं । कमी कमी बोलनेकी इच्छा अन्य होती है और मुखसे दूसरा ही शब्द निकल जाता है। ऐसे गोत्रस्खलनमें इच्छाके नहीं होते हुए भी शब्दप्रवृत्ति हो जाती है, “ न अन्तरे भवतीति नान्तरीयकः " इसका अर्थ अविनाभान होता है। विवक्षाका और वचनप्रवृत्तिका अविनामावसम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार अब तक निर्दोष रूपसे यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनको मोक्षका कारण माननेवाले स्याद्वादियोंके मतमै सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके स्वांशोम पूर्णता होनेपर भी तथा चारित्रके अंशोमें पूर्णता होनेके पहिले जिनेन्द्रदेवके मोक्षमार्गका उपदेशकान बन जाता है।
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तस्वार्षचिन्तामणिः
ज्ञानमात्रात्तु यो नाम मुक्तिमभ्येति कश्चन । तस्य तन्न ततः पूर्वमज्ञत्वात्पामरादिवत् ॥ ५२ ॥ नापि पश्चादवस्थानाभावावावृत्त्ययोगतः ।
आकाशस्येव मुक्तस्य क्वोपदेशप्रवर्तनम् ॥ ५३ ॥
जो कोई कपिलमतानुयायी भला तीनको मुक्तिका कारण न मानकर अकेले ज्ञानसे ही मोक्ष होना स्वीकार करता है, उसके मतमें यह मोक्षमार्गका उपदेश कैसे भी नहीं यन सकता है। क्योंकि उस पूर्णज्ञान उत्पन्न होनेके प्रथम तो बह अज्ञानी है । अतः गंवार, छोकरा, आदिके समान मोक्षका उपदेश नहीं दे सकता है और पूर्ण ज्ञान उत्पन्न होने के पीछे वह शीघ्र ही मोक्षम चला जावेगा । संसारमें ठहरता नहीं है क्योंकि, कारणसे तत्काल कार्यका होना आवश्यक ( जरूरी है " कारणविलम्बादि कार्याणि विलम्बन्ते । कारणोंकी देरीसे कार्य उपजनेमे देर हो सकती है अन्यथा नहीं। इस कारण उसके वचनोंकी प्रवृत्तिका होना सम्भव नहीं है । जब पूर्ण ज्ञान होनेपर उत्तरक्षणमें मोक्ष हो जाती है तो शरीर, कण्ठ, तालु आदिसे रहित मुक्त आस्माके मोक्षमार्गके उपदेश देनेमें प्रवृत्ति करना हो सकता है ! जैसे कि आकाश उपदेश नहीं दे सकता है । वैसे ही मुक्त आत्मा भी शरीर आदि कारणोंके विना उपदेशरूप वचन नहीं बोल सकता है । यो मुक्तजीवको उपदेश देनेमें प्रकृति कहां हुई !
साधादशेषतत्त्वज्ञानात्पूर्वमागमज्ञानवलाद्योगिनः श्रेयोमार्गोपदेशित्वमविरुद्धमन्नत्वासिद्धेरिति न मन्तव्यम्, सर्वज्ञकल्पनानर्थक्यात्, परमतानुसरणप्रसक्तेश्च ।
___ यदि सांल्यमतानुयायी यह कहे कि सम्पूर्ण पदार्थोके प्रत्यक्षज्ञानसे पहिले योगीको पूर्ण शास्त्रका ज्ञान हो जाता है, उस शास्त्रज्ञानके क्लसे योगीके मोक्षमार्गका उपदेश देना बन जावेगा, इसमें कोई विरोध नहीं है । जब उसके पूर्ण श्रुतज्ञान है तो गंवार, या छोकरोंके समान अज्ञानीपन मी सिद्ध नहीं है । बादमें पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान होनेपर वह साधु तत्काल मोक्षको चला जावेगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार कापिलोंका मानना ठीक नहीं है। क्योंकि जब श्रुतज्ञानसे ही मोक्ष आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान हो जायेगा तो सर्वज्ञकी कल्पना करना ही व्यर्थ है । आगमके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का उपदेश देना माननेपर आप सांख्यको दूसरे मीमांसकमतके अनुसरण ( नकल करने ) का प्रसंग आ जायेगा। जो कि आपको अनिष्ट है । प्रत्यक्ष किये विना शास्त्रों में प्रमेय लिखा नहीं जा सकता वचनरूप आगम कोई नित्य नहीं है ।
योगिज्ञानसमकाले तस्य तदित्यप्यसारं उच्चज्ञानपूर्वकत्वविरोधासदुपदेशस्य तत्वशानात्पश्चासु मुक्तेः खस्येव वाग्वृत्त्यघटनात् शरीरित्वेनावस्थानासंभवारे सन्मार्गोपदेशः ।
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उक्त दोष परिहारकी इच्छा से आप सांख्य यदि यह कहोगे किं पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानके समान कालमें ही यह योगी उस मोक्षमार्गका उपदेश देता है। यह भी आपका विचार साररहित है क्योंकि वह मोक्षमार्गका उपदेश सर्वज्ञतापूर्वक होता है। यदि आप सर्वज्ञता उत्पन्न होनेके ठीक उसी समय मोक्षका उपदेश मानेंगे तो सम्पूर्ण तत्त्वोंका प्रत्यक्षज्ञान होनेपर पश्चात् ( बादमे ) मोक्षका उपदेश हुआ करता है इस सिद्धान्तका विरोध हो जावेगा, कार्यकारणभाव पूर्वापर- क्षणवर्ती पदार्थों में होता है । टेडे और सीधे गौके सींग समाचसमयवालों में नहीं होता है । सर्वज्ञ ज्ञानके पीछे अव्यवहित उत्तर क्षण तो मुक्त होनेवाला है । क्या एक ही समय मोक्षमार्गका उपदेश दे देखेंगे ऐसे उपदेशको सुनने के लिये कौन कहांसे आयेगा, और एक समयमै उपदेश भी क्या हो सकेगा ! तथा प्रत्यक्ष तत्त्वज्ञानके पीछे शीघ्र ही मुक्ति हो जायेगी तो आकाश के समान शरीररहित मुक्तजीवके Earth प्रवर्तन होना भी नहीं बन सकता है। क्योंकि शरीरधारीपनसे अवस्थित रहना जब sana है तो श्रेष्ठ मार्गका उपदेश देना तो बहुत दूरकी बात है ।
I
संस्कारस्याक्षयात्तस्य यद्यवस्थानमिष्यते ।
राक्षये कारणं वाच्यं राज्ञानात्परं त्वया ॥ ५४ ॥
यदि आप यह कड़े कि जैसे जैनलोग केवलज्ञान होने पर भी आयुकर्मके अधीन होरहे सर्वज्ञकी संसार में स्थिति मानते हैं । उसी प्रकार हम भी पूर्वके आयु नामक संस्कार का क्षय न होनेसे उस कपिल ऋषिका संसार में स्थित रहना और स्थित होकर सज्जनोंको मोक्षमार्गका उपदेश देना इष्ट करते हैं। आचार्य कहते हैं कि ऐसी दशा में तुमको उस संस्कारके क्षय करने में तत्वज्ञानसे निराला कोई अन्य कारण कहना पड़ेगा, तभी तो मोक्ष हो सकेगा ।
न हि तत्त्वज्ञानमेव संस्कारक्षये कारणमवस्थानविरोधस्य तदवस्थत्वात् ।
तत्त्वज्ञानको ही आयु नामक संस्कारके क्षयका कारण आप सांख्य नहीं मान सकते हैं । क्योंकि तत्त्वज्ञान नामक कारण होनेपर उससे अतिशीघ्र आयुका भी नाश हो जावेगा, सब तो संसारमें कुछ दिन ठहरनेका फिर भी विरोध बना ही रहेगा अर्थात् उपदेश देनेके लिये वे संसार में नहीं ठहर सकेंगे ।
संस्कारस्यायुराख्यस्य परिक्षयनिबन्धनम् ।
धर्ममेव समाधिः स्यादिति केचित्प्रचक्षते ॥ ५५ ॥ विज्ञानात्सोऽपि यद्यन्यः प्रतिज्ञाव्याहृतिस्तदा । स चारित्रविशेषो हि मुक्तेर्मार्गः स्थितो भवेत् ॥ ५६ ॥
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
-AAMAMI.AWA-..hdNAMunawware....
___“ यहां चित्तका एक अर्थमें कुछ देरतक स्थिर रहनारूप समाधि नामका धर्म ही आयु संज्ञक संस्कारके पूर्ण क्षयका कारण है " ऐसा कोई सांख्य विद्वान् स्पष्टरूपसे कह रहे हैं । अन्थकार कहते हैं कि वह समाधि यदि--प्रकृति पुरुष भेदज्ञान-स्वरूप तत्त्वज्ञानसे भिन्न है, तब तो आपकी अकेले तत्वज्ञानसे मोक्ष प्राप्त होनेकी प्रतिज्ञाका व्याघात होता है क्योंकि एक तो तत्त्वोंका प्रत्यक्षज्ञान
और दूसरा वही समाधिरूप विशेष चारित्र इन दोनोंको मोक्षका मार्गपन आपके कथनानुसार स्थित हो सका है।
तत्त्वज्ञानादन्यत एव संप्रज्ञातयोगात्संस्कारक्षये मुक्तिसिद्धिस्तत्त्वज्ञानान्मुक्तिरिति प्रतिज्ञा हीयते, समाधिविशेष पारिनविशेष सदादिली सनिमार्गो व्यवस्थितः स्यात् ।
सांख्य लोगोंने दो प्रकारके योग मानें हैं । एक संप्रज्ञात, दूसरा असंप्रज्ञात । पूर्णज्ञानकालमै साधुके संप्रज्ञातयोग होता है। इच्छापूर्वक विषयोंका ज्ञान होता रहता है । तब तक आयु वर्तमान रहती है और बादमें होनेवाले निर्बीज समाधिरूप असंप्रज्ञातयोगसे आयु का भी क्षय हो जाता है उस समय मोक्ष हो जाती है । यदि सांख्य लोग तत्त्वज्ञानसे भिन्न मानी गयी संप्रज्ञात समाधिसे संस्कारका क्षय होनेपर मुक्ति की प्राप्ति मानेंगे तो ज्ञानसे ही मोक्ष होती है, यह उनकी एकान्तप्रतिज्ञा नष्ट होती है । हां, स्याद्वादियोंने व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामके ध्यानविशेषको पूर्ण चारित्र माना है। आपको भी उस प्रकार मुक्तिका मार्ग व्यवस्थित करना पड़ा । सम्यग्दर्शन तो ज्ञानका सहमावी ही है, तथाच सभ्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रको ही मोक्षमार्गपना निर्णीत हो सकता है।
ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति चेन्मतम् । तस्य प्रधानधर्मत्वे निवृत्तिस्तक्षयायदि ॥ ५७ ॥ तदा सोपे कुतो ज्ञानादुक्तदोषानुषंगतः । समाध्यन्तरतश्चेन्न तुल्यपर्यनुयोगतः ॥ ५८ ॥ तस्य पुंसः स्वरूपत्वे प्रगेव स्यात्परिक्षयः।
संस्कारस्यास्य नित्यत्वान्न कदाचिदसंभवः ॥ ५९ ॥ यदि आप तत्त्वज्ञानसे समाधिको भिन्न नहीं मानकर बहुत देर तक एकसे स्थिर रहनेवाले ज्ञानको ही समाधि मानोगे तो हम पूछते हैं कि वह स्थिर हुआ ज्ञान क्या सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी साम्यअवस्थारूप प्रकृतिका धर्म है ? बताओ। यदि उस प्रकृतिके विकारसे आयु नामक संस्कारका क्षय मानोगे तब तो आपके यहां मोक्ष नहीं हो सकती है। क्योंकि आपने सर्वज्ञ कही गयी प्रकृतिका संसर्ग छोडकर केवल उदासीनता, चैतन्य, भोक्तापन को ही प्राप्त कर लेना आस्माकी मोक्ष मानी है । अतः
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जिस स्थिर ज्ञानरूप प्रकृतिसे आयुष्य संस्काररूप प्रकृतिका नाश हो जाता है उस स्थिर ज्ञानरूप प्रकृतिका नाश करना भी आवश्यक है। वह किस ज्ञानसे होगा? और उस स्थिरीभूतः प्राकृतिक ज्ञान के संसर्गका भी नाश करनेके लिए आपको अन्य तीसरे आदि समाधिरूप धर्मका अवलम्ब करना पडेगा । उसमें भी पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग आता है। क्योंकि चौथे, पांचम, ज्ञानकी धारा... मानते हुए पूर्वके समान ही चोद्य होता चला जावेगा एवं अनवस्था होगी । अतः उन ज्ञानोंसे प्रधानके सम्बन्धका क्षय करना नहीं मान सकते हो, अथवा समाधिको प्रकृतिका धर्म मानोगे तो प्रकृति क्षयसे मोक्ष प्राप्ति हो सकेगी, उस ज्ञानरूप प्रकृतिका क्षय मी अन्यज्ञानरूप या अज्ञानरूप प्राकृतिक विचार से ही माना जायेगा तो समान चोय और वही उत्तर, पुनः चोथ और पुनः उत्तर ऐसे होते रहने से अनवस्था दोष आवेगा । क्या अपने ही आप कोई अपना नाश कर सकता है ? कभी नहीं। यदि उस स्थिरज्ञानको प्राकृतिक न मानकर आत्माका स्वरूप मानोगे तब तो आयु नामके संस्कारका क्षय पहिलेसे ही हो जाना चाहिये था। क्योंकि आत्मा अनादि कालसे नित्य है। उस आत्मासे तादात्म्य संबन्ध रखनेवाले इस स्थिरज्ञानरूप विरोधीके सदा उपस्थित रहनेपर कभी भी आयुनामको संस्कार उत्पन्न ही नहीं हो सकता है । तथा च आत्माकी सर्वदासे ही मोक्ष हो जानी चाहिये ।
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आविर्भावतिरोभावावपि नात्मस्वभावगौ । :
परिणामो हि तस्य स्यात्तथा प्रकृतिवच्च तौ ॥ ६० ॥ ततः स्याद्वादिनां सिद्धं मतं नैकान्तवादिनाम् वहिरन्तश्च वस्तुनां परिणामव्यवस्थितेः ॥ ६१ ॥
सांख्यमतः उत्पाद और विनाश नहीं माने गये हैं वे सत्कार्यवादी है। कार्य अनादिसे हैं I कारणमे विद्यमान हैं । कार्य नष्ट हो जाता है इसका अर्थ है कि कारणमें यह कार्य छिप जाता कार्ये उत्पन्न हो गया इसका अभिप्राय यह है कि कारणमैसे कार्य प्रगट होगया है जो कि पहिलेसे विद्यमानं ( मौजूद ) था । अतः वे आविर्भाव और तिरोभावको ही परिणाम मानते हैं । प्रकृत में आचार्य महाराज कापिलोंके प्रति कहते हैं कि, स्थिर ज्ञान और आयु नामक संस्कार के आविर्भाव, तिरोभावको भी आप आत्मा के स्वभाव प्राप्त हुए नहीं मानते हैं । यदि वे छिपना और प्रकट होना भी आत्मा के स्वभाव हो जायेंगे तो प्रकृतिके समान आमा मी दोनों परिणाम, होना स्वीकार करना पडेगा। तिस कारण से प्रकृति और आत्माको भी परिणामी माननेपर स्याद्वादि - खोंका सिद्धान्त ही प्रसिद्ध होता है। आला या पदार्थों को सर्वथा नित्य ही एकान्त मे कहनेवाले कापिलोंका म सिद्ध नहीं हो पाता है। क्योंकि बहिरंग घट, पट, पृथ्वी, आकांश द और अन्तरंग -
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तत्वार्थाचे सामणिः
अहंकार, आत्मा, मन आदि पदार्थों का परिणामीपन युक्तियोंसे निर्णीत हो जाता है । जो कि कबचित् नित्यानित्यात्मक अर्थोको माननेपर ही सिद्ध होता है ।
न स्थिरज्ञानात्मकः संप्रज्ञातो योगः संस्कारक्षयकारणमिष्यते यतस्तस्य प्रधानधर्मस्वाच्चत्श्यान्मुक्तिः स्यात् । सोपि च तत्क्षयो ज्ञानादज्ञानाद्वा समाधेरिति पर्यनुयोगस्य समानत्वाद नवस्थानमाशंक्यते, नापि पुरुषस्वरूपमात्रं समाधिर्येन तस्य नित्यत्वानित्यं मुक्तिरापाद्यते, तदाविर्भावतिरोभावादन्यथा प्रधानवत्पुंसोऽपि परिणामसिद्धेः सर्वः परिष्णामीति स्याद्वादाश्रयणं प्रसज्येत, किं तर्हि १ विशिष्टं पुरुषस्वरूपमसंप्रज्ञातयोगः संस्कारक्षयकारणम् । न च प्रतिज्ञान्याघातस्तश्वज्ञानाज्जीवन्मुक्तेरास्थानान्तकाले वस्वोपदेशघटनात्परमनिश्रेयस्य समाधिविशेषात्संस्कारक्षये प्रतिज्ञानात् ।
स्याद्वादियोंकी उक्त पांच कारिकाओके अन्तिम निकाले हुये मन्तव्यको स्वीकार करने में कपिल मसानुयायी आनाकानी करते हैं। उनका कहना है कि हम स्थिरज्ञानस्वरूप संप्रज्ञात योगको आयु नामक संस्कार क्षयका कारण नहीं मानते हैं। जिससे कि उस संप्रज्ञात योगको प्रधानका विपना हो जानेके कारण उस प्राकृतिक संप्रज्ञानके क्षय हो जानेसे मोक्ष होना माना जावे और प्रधानकी पर्यायरूप उस संप्रज्ञातयोगका क्षय भी प्रकृतिके ज्ञान अथवा अज्ञानरूप समाधिपरिणामसे क्षय होना स्वीकार करते करते इसी प्रकार चोबकी समानतासे आकांक्षायै बढनेपर अनवस्था दोषकी शंका की जावे, तथा हम उस समाधिको केवल पुरुषस्वरूप भी नहीं मानते हैं । जिससे कि पुरुषके कूटस्थ अनादि नित्य होनेसे मोक्षके नित्य होने का भी हम पर आपादन ( कटाक्ष ) किया जावे तथा हम आत्माके आविर्भाव और सिरोमानको भी नहीं मानते हैं । अन्यथा यानी यदि मानते होते तो प्रकृति के समान पुरुषके भी पर्यायोंका होना सिद्ध हो जाता " और सब पदार्थ परिणामी हैं " ऐसे स्याद्वादियोंके कपनको स्वीकार या आश्रय करने का भी प्रसंग हमारे ऊपर जब दिया जाता, तब तो तुम्हारा मत क्या है ? कुछ कहो भी, उसका उत्तर यह है कि आलाका विलक्षण स्वरूप ही असंप्रज्ञात योग है। जैसे कि जैन लोग चौदहवे गुणस्थान में होनेवाले विशिष्ट आत्मा के व्युपरत क्रियानिवृतिरूप परिणामको मोक्षका कारण मानते हैं। उसी प्रकार हम भी तेरहवें गुणस्थानके समान संप्रज्ञात योगके बाद होनेवाले असंप्रज्ञात योगको आयु नामक संस्कारके क्षयका कारण मानते हैं, ऐसा माननेपर ज्ञानसे ही मोक्ष होती है, इस हमारी प्रतिज्ञाका बात नहीं होता है क्योंकि तत्त्वज्ञान से जीवन्मुक्तिका होना हमको नितांत इष्ट है । मोक्ष दो प्रकारकी है एक अपर मोक्ष, दूसरी परमोक्ष, । प्रथम - अपर मोक्ष यह है कि सर्वज्ञ होकर थोडीसी प्रकृतिका संसर्ग रहते हुए संसार में जीवित रहना और दूसरी परममुक्त यह है कि सर्वथा प्रकृतिका संसर्ग छूट
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वस्वाचिन्तामणिः
जानेपर आल्लाका केवल चैतन्यश्वमादमें स्थिर हो जाना। तत्त्वज्ञानसे जब जीवन्मुक्ति हो जाती है उस समय योगी संसारमै कुछ दिनोंतक ठहरते हैं जक्तक ठहरते हैं। तबतक मोक्ष के उपयोगी तत्वोंका उपदेवा देना बन जाता है और जीवन्मुक्तिके अंतसमयमें अतिशययुक्त समाधिसे आयु, शान, विचार, आदि संस्कारोंका नाश होजानेपर परममोक्षको प्राप्त हो जाते हैं। यह हमारी तत्त्वशानसे मोक्ष होनेकी प्रतिज्ञाका अर्थ है । यही हमारा विश्वास है।
इति वदभन्धसर्पविलप्रवेशन्यायेन स्यावादिदर्शने समाश्रयतीत्युपदर्यते ।
पूर्वोक प्रकारसे कहता हुभा सांख्य " अन्धसर्प-विलपवेश " स्पायसे स्याद्वादियों के मसे सिद्धान्तका ही आश्रय लेगहा है अर्थात् जैसे कि अन्धा साप इन्द्रियलोलुपतासे इधर उधर घूमना चाहता है किन्तु घातक जीवोंके भयसे शीघ्र ही अपने बिलमें प्रवेश कर जाता है । यदि वह सूझता होता तो इधर उधर कोई निष्कण्टक मार्ग भी दीख जाता, अतः निदोष और भयरहित अपने विलके समान उस सर्पको दूसरा अवलम्बमार्ग ही नहीं है । उसी प्रकार ज्ञान और समाधिरूपचारित्रसे ही मोक्ष माननेपर सांख्यको भी रत्नत्रयकी शरण लेना आवश्यक हो जाता है। इसी बातको विखलाते है।
मिथ्यार्थाभिनिवेशेन मिथ्याज्ञानेन वर्जितम् । यत्पुंरूपमुदासीनं तच्चेद्वयानं मतं तब ।। ६२ ॥ . हन्त रत्नत्रयं किं न ततः परमिहेष्यते ।
यतो न तन्निमित्तत्वं मुक्तेरास्थीयते त्वया ॥ १३ ॥
सांख्यके शोधन किये गये उक्तकथनसे यह बात प्रतीत होती है कि पदार्थों के मिथ्याश्रद्धान. से और मिथ्याज्ञानसे रहित होरहा जो उपेक्षा स्वरूप उदासीन पुरुषका धर्म है वहीं समाधिरूप ध्यान है । यदि तुम्हारा यह मन्तव्य है तर तो खेदके साथ कहना पडता है कि अकेले तत्त्वज्ञादसे ही मोक्षके होनेका आग्रह आपने व्यर्थ पकड रखा है । आपके उक्तकयनसे तो ज्ञानसे अतिरिक्त अद्वान और चारित्र भी कारण बन जाते हैं । इस प्रकार यहां उत्कृष्ट रलत्रय ही मोक्षका मार्ग सिद्ध होता है । अतः आप रत्नत्रयको ही मोक्षका मार्ग क्यों नहीं अभीष्ट करते हैं ! जिससे कि तुम्हे उस रत्नत्रयके निमित्तसे मुक्तिको श्रद्धा स्वीकार न करनी पड़े अर्थात् रत्नत्रय ही मोक्षका कारण व्यवसित हुआ यह आपको विश्वासमें लाना चाहिये ।
ननु च विध्यार्थाभिनिवेशेन वर्जितं पुरुषस्य स्वरूप न. सम्यग्दर्शनं तस्य तवार्थबधानलक्षणत्वात् । नापि मिथ्याज्ञानेन वर्जितं तत्सम्यग्ज्ञानं तस्य स्वार्थावायलक्षणत्वात् ।
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उदासीनं बन पुरूषसम्मकारिता गुतिसमितिबतभेदस्य बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषो. परमलक्षणत्वात् येन तथाभूतरनत्रयमेव मोक्षस्य कारणामस्माभिराखीयते । मिथ्याभिनिवेशमिथ्याज्ञानयोः प्रधानविवर्ततया समाधिविशेषकाले प्रधानसंवर्गाभावे पुरुषस्य तद्वार्जितत्वेपि स्वरूपमावावस्थानात् । तदुक्तं " तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ” इति कथित् ।
यहां कपिलमतानुयायी सांख्य जनोंके उक्त कथनका अनुवाद करते हुए अपनेही आमहको पुष्ट करते हैं कि हम आपके माने हुए सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्रको आत्मस्वरूप नहीं मानते हैं। के तो प्रकृतिकी पर्याय है। अतः अर्थोके मिथ्याश्रद्धानसे रहित हो रहा पुरुषका स्वरूप आपके माने हुए सम्यग्दर्शनरूप नहीं पड़ता है क्योंकि उस सम्यग्दर्शनका लक्षण लो तत्त्वार्थोकी श्रद्धान करना है । तस्यायोंकर श्रद्धान करना प्रकृतिका काम है आत्माका नहीं, और मिथ्याज्ञानसे सहित हुआ पुरुषका स्वभाविक वह चैतन्य स्वरूप भी हमने आपके द्वारा माने हुए सम्यग्ज्ञानरूप वहीं इष्ट किया है क्योंकि आपके सभ्यग्ज्ञानका लक्षण अवनको और अर्थको निश्चित कर लेना है। यह काम भी मनतिका ही है। इसी तरह हमारी आत्मस्वरूप मानी हुयी उदासीनता भी आपके सम्यक्चारित्ररूप नहीं है। क्योंकि आपने उस चारित्रके गुप्ति, समिति और महाव्रत ये भेत माने हैं। तथा बहिरंग और अन्तरंग विशेष क्रियाओंके त्यागको चारित्रका लक्षण माना है यह भी प्राकृतिक है । जिससे कि इस प्रकारका रत्नत्रयही मोक्षका कारण हम लोगों से व्यवस्थित किया जाता, अर्थात् जब ये सम्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों आत्माके स्वरूप ही नहीं है तो इन तीनों को ही मोक्षका कारणपना हम कैसे विश्वस्त कर सकते हैं - मिथ्या श्रद्धान और उसके पर्युदासनिषेधसे किया गया सम्यग्दर्शन ये दोनों ही भाव हमारे यहां प्रकृतिके माने गये हैं। मिध्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञान भी प्रकृतिके परिणाम हैं। हां, असंप्रज्ञात नामक विशेष समाधिके समय प्रकृतिका संसर्ग सर्वथा छूट जाता है । ऐसा होनेपर प्रसज्यनिषेधसे उन मिश्या अंधान और मिथ्याज्ञानसे रहितपना पुरुषका स्वरूप है। किसी प्राकृतिकभाव-पदार्थरूप नहीं, तथापि 'मुक्तावस्थामें आत्मकी केवल अपने स्वरूपमे स्थिति रह जाती है। जब कि वैसा हमारे दर्शनसूत्रमें लिखा हुआ है कि मोक्षावस्थाम बैतयिता द्रष्टा आत्माका अपने स्वभामि अवस्थान हो जाता है । इस प्रकार कोई कपिलमत्तानुयायी कह रहा है। . ; तदसत् संप्रज्ञातयोगकालेऽपि तादृशः पुंरूपस्य भावात्परमनिःश्रेयसमसक्तेः। .
आचार्य कहते हैं कि उसका कहना प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हुए संप्रज्ञात समाधिके समयमें भी मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञानसे रहित होरहा - पुरूषके स्वरूपका सद्भाव है ही। कारण कि मिथ्याश्रद्धान, ज्ञानोंसे सहितपना या सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदिसे
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सहितपना प्रकृतिका धर्म है । कूटस्थ नित्य आत्मा तो सदासे ही मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञानोंसे रहित है। यदि प्रकृतिके संसर्गसे आनुषक्लिक मिथ्यादर्शनज्ञानसहितपना आत्मामें कुछ कुछ आभी जाता था अब तो प्रकृतिकी सर्वज्ञता होनेपर वह भी आनुषङ्गिक मिध्यादर्शनसहितपना . आत्मामें नहीं आसकता है । अतः संपज्ञात-योगकालमै ही पुरुषका मिथ्यादर्शन आदिसे रहितपना स्वरूप पन गया है तो उसी समय आत्माकी परम मोक्ष हो जानी चाहिये थी।
सदा वैराग्यतत्त्वज्ञानाभिनिवेशात्मकप्रधानसंसर्गसद्भावानासंग्रज्ञातयोगोऽस्ति, यतः परममुक्तिरिति चेचहि रत्नत्रयाजीवन्मुक्तिरित्यायातः प्रतिक्षाव्यापाता।। . .. यहां कापिल कहते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थोंको अच्छी तरह जाननेवाले जीवके उस संप्रज्ञात समाधिके समयमें वैराग्य, तत्त्वज्ञान और तत्त्वश्रद्धान स्वरूप प्रकृतिका संसर्ग आत्माके साथं विद्यमान हो रहा है । इस कारण उस समय निर्धाज समाधिरूप प्रकृतिका उपयोगरहित अभिन्न ज्ञान, श्रद्धान, चारित्रस्वरूप असंप्रज्ञात योग नहीं है। जिससे कि परममोक्ष प्राप्त हो जावे. अर्थात असंप्रज्ञातयोग परम मुक्तिका कारण है। राज्य, तत्वज्ञान, और तत्त्वश्रद्धानरूप प्रकृतिका संसर्ग जब तक है तब तक जीवन्मुक्ति है, परममुक्ति नहीं । आचार्य कहते हैं कि यदि आप ऐसा कहोगे सत्र तो आपके कहनेसे ही सिद्ध होता है कि रत्नत्रयसे ही जीवन्मुक्तिकी प्राप्ति होती है। यों तो अकेले तत्त्वज्ञानसे ही मोक्ष प्राप्त होजानेकी आपकी प्रतिज्ञाका व्याघात आगया । तीनोंसे मोक्षकी प्राप्ति होना यह जैन सिद्धांत है ।
परमतप्रवेशात् तच्चार्थश्रद्धानतत्त्वज्ञानवैराग्याणां रत्नत्रयत्वात्ततो जीवन्मुक्तेराहत्यरूपायाः परैरिष्टत्वात् । .....वैराग्य, तत्त्वज्ञान और तत्स्वाभिनिवेशरूप प्रधान के संसर्गसे जीवन्मुक्ति माननेवाले आप सांख्योंके " पोतकाक " न्यायसे जैनमतमें प्रवेश करना ही न्याय्यप्राप्त होता है। क्योंकि तत्त्वाथाका श्रद्धान और जीव आदि तत्त्वोंका ज्ञान तथा इष्ट, अनिष्ट पदार्थो रागद्वेष न करना रूप . वैराग्यको ही जैनमत रलत्रय माना गया है। उन तीन रत्नोंसेही अनन्तचतुष्टय, समवसरण आदि लक्ष्मीसे युक्त मोक्षके उपदेष्टा तीर्थकर भगवानकी अर्हन्त अवस्थारूप जीवन्मुक्तिका उत्पन्न होना दूसरे स्याद्वादियोंने स्वीकार किया है। : यदपि द्रष्टुरात्मनः स्वरूपेऽवस्थानं धानं परममुक्तिनिवन्धनं तदपि न रत्नत्रयास्मकता व्यभिचरति, सम्यग्ज्ञानस्य पुंरूपत्वात्, तस्य तत्वार्थश्रद्धानसहचरितत्वात्, परमौदासीन्यस्य च परमचारित्रत्वात् ।
और जो आपने अपने दर्शनसूत्रका प्रमाण देकर यह कहा था कि द्रष्टा आत्माका अपने स्वरूपमें स्थित हो जानारूप ध्यान परममुक्तिका कारण है। वह आपका कहना भी भात्माके
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सयाचिन्मामनिः
रत्नत्रय-स्वरूपका व्यभिचार नहीं करता है किन्तु अविनाभावी है । सूत्रमें द्रष्टुः स्वरूपे, और अवस्पान, ये तीन पद हैं। वहां पुरुषका स्वरूप ज्ञानचेतनामय ही है । द्रष्टा कहनेसे सम्बदृष्टिपन प्राप्त होजाता है और अवस्थितिसे आत्मामें स्थितिरूप चारित्र आभाता है अर्थात् तत्त्वार्यश्रद्धानके साथ रहने वाला सम्यग्ज्ञान आत्माका अभिन्न स्वरूप है और उत्कृष्ट उदासीनता ही परमचारित्र है तया च मोक्ष अवस्या, आत्माकी तीनों रूप हो जाना परिणति है।
पुरुषो न शानखमाव इति न शक्यव्यवस्थम् । तथाहि,
सांख्य लोग ज्ञानको प्रकृतिका विकार मानते हैं। आत्मा बैतन्य मानते हैं जो कि ज्ञानसे भिन्न है। अतः वे कहते हैं कि आत्माका स्वमाव ज्ञान नहीं है । इसपर आचार्यका कहना है कि उक्त बातको आप अच्छी तरह प्रमाणोंसे निर्णीत नहीं कर सकते हैं, इसका स्पष्टीकरण आगेकी बार्तिकमे कहते हैं।
यद्यज्ञानस्वभावः स्यात्कपिलो नोपदेशकृत् । सुषुप्तवत्प्रधानं वाऽचेतनत्वाद् घटादिवत् ॥ ६४ ॥
आपका माना हुआ कपिल ऋषि यदि ज्ञानस्वभाववाला नहीं है तो गाढ सोते हुए पुरुषके समान मोक्षका उपदेश नहीं कर सकता है तथा कपिलकी आत्मासे सम्बन्धको प्राप्त हुई प्रकृति भी उपदेश नहीं कर सकती है क्योंकि वह अचेतन है । जैसे कि घट, पट आदि अचेतन पदार्थ उपदेश नहीं देते हैं।
यव हि सुषुप्तपचवज्ञानरहितः कपिलोऽन्यो वा नोपदेशकारी परस्य घटते तषा प्रधानमपि स्वयमचेतनत्वात्कृटादिवत् ।
जैसे ही सोते हुए मनुष्यके समान तत्त्वज्ञान और वक्तृत्वकलासे रहित कपिल या दूसरे कोई बाचसतिमिश्र, ईश्वरमट्ट, आदि विद्वान् मी मोक्षके उपदेश करनेवाले आप दूसरे सांस्यों के यहां नहीं घटित होते हैं । उसी प्रकार जड प्रकृति भी उपदेश नहीं कर सकती है । क्योंकि वह अपने मूलस्वभावसे अचेतन मानी गयी है । जैसे कि घट, पट, मृतशरीर आदि स्वयं अचेतन होकर व्याख्यान नहीं कर सकते हैं । जो स्वयं चेतन होकर स्वाभाविक ज्ञानके तादात्म्यवाला है वहीं उपदेष्टा हो सकता है। किन्तु सांख्योंके यहां विधम घटना है उनका आत्मा चेतन तो है। शानवान् नहीं और प्रकृति ज्ञानवती मानी है किन्तु चेतनात्मक नहीं।
वलहानसंसर्गाचोगी शानखमाव इति चेत् ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यदि कापिल यों कई कि " प्राकृतिक तत्त्वज्ञानके साथ सम्बन्ध होनेसे योगविशिष्ट आत्मा मी ज्ञानस्वभाव हो जाता है " ऐसा कहने पर तो,
ज्ञानसंसर्गतोऽप्येष नैव ज्ञानस्वभावकः व्योमवत्तद्विशेषस्य सर्वथानुपपतितः ॥ ६५ ॥
यह आपका माना हुआ अतिशयोंसे रहित कूटस्थ आस्मा अन्य सम्बन्धी ज्ञानके संसर्गसे भी ज्ञानस्वभाववाला नहीं माना जा सकता है । जैसे कि प्रकृतिके बने हुए ज्ञानके मात्र संसर्गले आकाश विचारा ज्ञानी नहीं हो जाता है। आपके यहां प्रकृति व्यापक ( व्यापिका) मानी गयी है । उसका सम्बन्ध जैसा ही आत्माके साथ है वैसा ही आकाशके साथ भी है। सभी प्रकारोंसे यानी किसी भी प्रकारसे प्रकृतिके साथ होनेवाले आत्मा के सम्बन्धर्मे और आकाशके साथ हुये उसके सम्बन्धमें आप विशेषता ( फर्क ) को सिद्ध नहीं कर सकते हैं ।
यस्य सर्वथा निरतिशयः पुरुषस्तस्य ज्ञानसंसर्गादपि न ज्ञानखभावोऽसौ गगनबत् । कवमन्यथा चैत पुरुषस्य स्वरूपमिति न विरुध्यते १ ततो न कपिलो मोक्षमार्गस्य प्रणेता येन संस्तुत्यः स्यात् ।
जिस सांख्यके यहां आत्मा सर्वथा निरतिशय माना गया है अर्थात् वात्मोअनाधेयाप्रदेयातिक्षय है अर्थात् कूटस्थ नित्य है सर्वदा वह का वही रहता है, दूसरोंके सम्बन्ध होनेपर मी न कुछ विशेषताओंको लेता है और न अपनी पुरानी विशेषताओंको छोडता ही है, परिणामी नहीं है, उस सांख्यके यहां ज्ञानके सम्बन्धसे भी ज्ञानस्वभाववाला वह आत्मा नहीं हो सकता है। जैसे कि सर्वथा जडस्वरूप आकाश ज्ञानस्वभावी नहीं है। अन्यथा यानी यदि आप आत्माको ज्ञानस्वभाव मान लोगे तो " पुरुषका स्वरूप चैतन्य है " इस ग्रंथका विरोध कैसे नहीं होगा ? अवश्य होगा, तिस कारणसे स्वयं ज्ञानरहित कपिल ऋषि मोक्षमार्गका प्रणयन करनेवाला नहीं सिद्ध होपाता है । जिससे कि शिष्यजनोंके द्वारा भले प्रकार उसकी स्तुति की जावे, अर्थात् जो मोक्षमार्गका विधान नहीं करता है उसकी प्रशंसा स्तुति भी कोई नहीं करता है I
एतेनैवेश्वरः श्रेयःपथप्रख्यापनेऽप्रभुः ।
व्याख्यातोऽचेतनो ह्येष ज्ञानादर्थान्तरत्वतः ॥ ६६ ॥
अपने से भिन्न पढे हुए प्राकृतिक ज्ञानके सम्बन्धसे ज्ञानी होकर भी जैसे कपिल मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं दे सकते है, उसी प्रकार उक्त कथनसे ही यह भी व्याख्यान कर दिया गया है कि अपने से सर्वथा मित्र ज्ञानका सम्बन्ध रखनेवाला नैयायिक, वैशेषिकोंके द्वारा माना हुआ. यह
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संस्थार्थचिन्तामणिः
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ईश्वर भी मोक्षमार्ग निरूपण करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि ज्ञानसे सर्वथा भिन्न होजानेके कारण ईश्वर भी अचेतन ही है । घट, पट आदिके समान अचेतन पदार्थ क्या उपदेश देवेगा
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नेश्वरः श्रेयोमार्गोपदेशी स्वयमचेतनत्वादाकाशवत् । स्वयमचेतनोऽसौ ज्ञानादर्थान्तरत्वात् तद्वत्। नात्राश्रयासिद्धी हेतुरीश्वरस्य पुरुषविशेषस्य स्याद्वादिभिरभिप्रेतत्वात् । नापि धर्मिग्राहकप्रमाणबाधितः पक्षस्तद्ा हिणा प्रमाणेन तस्य श्रेयोमार्गोपदेशित्वेनाप्रतिपत्तेः ।
ईश्वर ( पक्ष ) मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाला नहीं है ( साध्य ) क्योंकि वह अपने स्वभावसे स्वयं अचेतन है (हेतु ) जैसे कि आकाश | ( अन्यष्टान्त ) यहां कोई नैयायिक अचेतनपन हेतुको असिद्ध ( स्वरूपासिद्ध हेत्वाभासं ) करता है । उसको दूर करनेके लिये आचार्य दूसरा अनु मान करते हैं कि आपका माना हुआ वह ईश्वर अचेतन है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि ज्ञानगुणसे ईश्ध-., रामरूप गुणी आपने सर्वथा भिन्न माना है ( हेतु ) उसी आकाशके समान १ ( अन्वय उदाहरण ). यानी जैसे कि आकाश ज्ञानसे भिन्न होनेके कारण अचेतन है जब कि जैनजन स्रष्टा, गोप्ता, हर्ता, ईश्वरको नहीं मानते हैं और फिर ईश्वरको पक्ष बनाते है तो उनका हेतु आश्रयासिद्ध हो जायगा इस कटाक्ष पर आचार्य महाराज कहते हैं कि उक्त अनुमानमें ईश्वररूपी पक्ष असिद्ध नहीं है, जिससे कि हमारा हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास होआवे, जबकि हम स्याद्वादी विद्वान किसी विशिष्ट पुरुषको ईश्वर स्वीकार करते हैं । हां महान् देव माने गये उस पुरुषमें मोक्षमार्गके उपदेश देनेका अभाव सिद्ध करते हैं । यदि यहां कोई नैयायिक कहें कि जिस प्रमाणसे आप ईश्वरको जानेंगे, उस प्रमाणसे मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाला ही ईश्वर सिद्ध होगा । तथाच ईश्वररूप पक्ष जानते समय ही उसके मोक्षमार्गका उपदेशकपन भी ज्ञात हो जाता है । पुनः आपका मोक्षमार्गके उपदे-शका अभाव सिद्ध करना पक्षके ग्राहक प्रमाणसे ही बाधित हो जावेगा और तब तो आपका हेतु बाधित नामका हेत्वाभास बन बैठेगा। आचार्य कहते हैं कि यह भी नैयायिकों का कहना ठीक नहींहैं। क्योंकि श्रेयोमार्ग के उपदेश देनेवाले उस ईंश्वरका अद्यापि निर्णय नहीं हुआ है । केवल सामान्य मनुष्योंके समान अथवा कुछ लौकिक विद्याओं और चमत्कारोंसे युक्त महादेव, ऋक्षा, ईश्वर, कृष्ण, व्यास, परशुराम, कपिल, बुद्ध आत्माओंको हम स्वीकार करते हैं किंतु उस ईश्वरको व्यापक, कर्ता, हर्त्ता, भर्चा, मोक्षमार्गका उपदेष्टा, सर्वज्ञ आदि विशेषणोंसे सहित नहीं मानते हैं । अतः हमारा अचेतनत्व हेतु बाधाओंसे रहित होकर सद्धेतु है ।
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परोपगमतः साधनाभिधानाद्वा न प्रकृतचोद्यावतारः सर्वस्य तथा तद्वचनाप्रतिक्षेपात् ।
अथ दूसरी बात यह है कि अन्य नैयायिकोंके मन्तव्यके अनुसार हमने ईश्वरको पक्ष स्वीकार कर लिया है और उसमें उनसे माने हुए अचेतन हेतुसे मोक्षमार्गके उपदेशी पनका अभाव सिद्ध कर दिया है। इस कारण यह इस समय प्रकरणमै दिये गये नैयायिकोंके कुत्सित दोष नहीं।
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तत्याचिन्तामणिः
जाते हैं, यदि अपने अपने मसके अनुसार माने गये धर्मीके ग्राहकप्रमाणोंसे ही साध्यकी माषा उपस्थित की गयी तब तो कोई वादी दूसरे प्रतिवादीके प्रति अनुमानसे नई बातको सिद्ध न कर सकेगा। जैसे किशब्दको अनित्य सिद्ध करनेवाले नैयायिकके प्रति मीमांसक कह देवेगा कि जिस प्रमाणारे गैमासिक गन्दको जाती इस पमाणसे नित्यतासहित ही शब्द जाना जावेगा । अतः धर्मीके प्राइक प्रमाणसे ही साध्यकी बाधा उपस्थित हो जावेगी । तथाच नैयायिक शब्दको अनित्य सिद्ध नहीं कर सकेंगे। इस मकार सर्व ही वादी वैसे ही उन प्रतिवादियोंके वचनका खण्डन न कर सकेंगे, किंतु खण्डनमण्डन व्यवहार प्रसिद्ध है। अतः दूसरोंके मन्तव्यको लेकर ही सब लोग पक्ष और हेतुको बोल सकते हैं, कोई दोष नहीं है।
विज्ञानसमवायाच्वेच्चेतनोऽयमुपेयते । तत्संसर्गात्कथं न ज्ञः कपिलोऽपि प्रसिद्धयति ॥ ६७ ॥
यदि नैयायिक यहां यह कहे कि मिन्न होनेपर मी गुणगुणीका तो समवायसम्बन्ध हो जाता है इस कारण बुद्धिरूप चेतनाके समवायसम्बन्धसे यह ईश्वर मी चेतन मान लिया जात, है । ग्रंथकार कहते हैं कि ऐसा स्वीकार करनेपर तो सांख्यके मतमें मी प्रकृतिकी बनी हुगी उस बुद्धिके संसर्गसे कपिलदेव भी ज्ञाता (शान-स्वभावबाले ) क्यों नहीं प्रसिद्ध हो जायेंगे ! । न्याय समान होना चाहिये। ____ यथेश्वरो ज्ञानसमवायाच्चेतनस्तथा मानसंसर्गात्कपिलोऽपि शोऽस्तु। तथापि तस्याक्षत्वे कथमीश्वरश्चेतनो यतोऽसिद्धो हेतुः स्यात् ।
जिस प्रकार नैयायिकोंके मत मिम छानके समवायसे ईश्वरको चेतन माना जाता है उसी प्रकार सर्वथा भिन्न झानके संसर्गसे सांख्योंका कपिल भी ज्ञानस्वरूप ज्ञाता हो जाओ । यदि फिर वैसा ज्ञानका संसर्ग होनेपर भी उस कपिलको अज्ञ मानोगे तो आपका ईश्वर भी दूसरेके संसर्गसे कैसे चेतनात्मक हो सकता है :, जिससे कि हमारा हेतु असिद्ध हो जावे अर्थात् ईश्वरको मोक्षमा.
के उपदेशकत्वका अभाव सिद्ध करनेमें दिया गया अचेतनत्व हेतु सिब ही है । न्यायमार्गमें पक्षपात नहीं करना चाहिये।
प्रधानाधयि विज्ञानं न पुंसो ज्ञत्वसाधनम् । यदि भिन्नं कथं पुंसस्तत्तथेष्टं जडात्मभिः ॥ ६८ ॥
यदि यहां नैयायिक यह कहे कि सांस्योंके मतसे आधारभूत प्रधानमें रहनेवाला विज्ञान तो सर्वथा मिल होकर पुरुषका ज्ञातापन सिद्ध नहीं कर सकता है तो हम जैन भी नैयायिकोंके
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प्रति कहते है कि स्वभावसे जडस्वरूप आत्माको माननेवाले जड नैयायिकोंने उस अपनी द्रव्य स्वरूप आत्माको सर्वथा भिन्न होरही गुणस्वरूप बुद्धिके संसर्गसे कैसे चेतन मान रखा है ! बताओ।
प्रधानाश्रितं ज्ञानं नात्मनो ज्ञत्वसाधनं ततो भिन्नाश्रयत्वात्पुरुषान्तरसंसर्गिज्ञानपदिति चेत्, तर्हि न ज्ञानमीश्वरस्य बत्वसाधनं ततो भिन्नपदार्थत्वादनीश्वरज्ञानवदिति किं नानुमन्यसे ? ____ कपिलमसका खण्डन करने के लिये नैयायिकका यह अनुमान है कि " आश्रय रूप प्रकृतिका आधेय होकर रहता हुआ विज्ञानरूप परिणाम तो आत्माका ज्ञातापन सिद्ध नहीं कर सकता है। क्योंकि वह ज्ञान उस आत्मासे सर्वथा भिन्न होरही प्रकृतिका आश्रित धर्म है। जैसे कि दूसरे पुरुष यानी देवदत्तमें रहनेवाला सिद्धांतविषयका ज्ञान जिनदत्त सम्बन्ध नहीं कर सकता है और जिनदत्तको स्वयं अपने रूपसे सिद्धांतज्ञानी भी नहीं बना सकता है।" । आचार्य कहते हैं कि यदि आप नैयायिक ऐसा कहोगे तब तो हम भी कपिलमतकी तरफसे कह सकते हैं कि "ज्ञान भी ईश्वर गो झार सिद्ध नहीं क संवा है, पयोंकि यह ज्ञानगुण उस ईश्वरसे सर्वथा भिन्न पदार्थ है। जैसे कि ईश्वरसे न्यारे अन्य साधारण जीवका ज्ञान सर्वथा भिन्न होने के कारण ईश्वरको अपने समवायसे अल्पज्ञानी नहीं बना पाता है "। इस बातको तुम ही क्यों नहीं मानते हो । कुत्सित हटको छोड देना चाहिये।
ज्ञानाश्रयत्वतो वेधा नित्यं ज्ञो यदि कथ्यते । तदेव किं कृतं तस्य ततो भेदेपि तत्त्वतः ॥ ६९ ॥
यदि नैयायिक यह कहेंगे कि ईश्वर अनादिकालसे ज्ञानका आधार होनेसे नित्यज्ञाता है, किसी समय बाहिरसे ज्ञान आवे फिर ज्ञानसमचायी मने ऐसा नहीं है । तो हम जैन आपसे पूछते. है कि वास्तवम उस ज्ञानसे सर्वथा भिन्न होने पर भी उस ईश्वरके वह नित्य-ज्ञातापन आपने किस तरहसे हुआ सिद्ध किया है ! इसका उत्तर दीजिये ! - स्रष्टा ज्ञो नित्यं ज्ञानाश्रयत्वात् । यस्तु न ज्ञः स न नित्यं झानाथयो यथा व्योमादिः, न च तथा स्रष्टा ततो नित्यं ज्ञ इति चेत् । किं कृतं तदा सानाश्रयत्वं ज्ञानाद्भेदेऽपि वस्तुत इति चिन्त्यम् ।
उक्त कारिकाकी व्याख्या करते हैं । पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, शरीर, इंद्रिय आदिका बनाने घाला ईश्वर, (पक्ष ) सर्व पदार्थोंका ज्ञाता है ( साध्य ) क्योंकि यह अनादिसे अनन्त काल तक नित्य ही ज्ञानका अधिकरण है। (हेतु ) जो ज्ञाता स्वरूप नहीं है वह सर्वदासे ज्ञानका आधार
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भी नहीं है । जैसे आकाश, काल आदि ये व्यतिरेकद्रष्टांत हैं। नित्य ही ज्ञानका आश्रय न eta ऐसा आकाश आदिके समान सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है ( उपनय ) तिल कारणसे नित्य ही ज्ञाता है | ( निगमन) इस अपन सिद्ध करोगे
तब तो आप इस बातका दीर्घकाल तक विचार करे कि वह परमार्थरूपसे ज्ञानसे भेद होने पर भी सृष्टिनिर्माता ईश्वर ही ज्ञानका आश्रय कैसे कर दिया गया है ? आकाश, घट, पट आदि भी ज्ञानाधार क्यों न बन जायें ?, ईश्वर में ही क्या विलक्षणता है ? जिससे कि यही ज्ञानका आधार माना जाता है। ऐसी दशांने तुम्हारा हेतु संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास हो जाता है इस बातका आप बहुत दिन तक सोचकर उत्तर देना ।
समवाय कृतमिति चत् समवायः किमविशिष्टो विशिष्टो वा ? प्रथविकल्पोऽनुपपन्नः कस्मात् -
यदि नैयायिक यह कहें कि समवायसम्बन्ध होनेसे ईश्वरके ही ज्ञानकी आश्रयता कर दी जाती है तो हम जैन पूंछते है कि वह समवाय क्या विशेषतारहित सामान्य समवाय ही लिया है ? या ईश्वर में रहनेवाला कोई विलक्षण समवाय है ? बताओ, यदि आप पहिला पक्ष लोगे, तब तो ईश्वर में ही ज्ञानकी अधिकरणता सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि ---
समवायो हि सर्वत्र न विशेषकृदेककः ।
कथं खादीनि संत्यज्य पुंसि ज्ञानं नियोजयेत् ॥ ७० ॥
आपने सब जगह एक ही समवाय माना है, वह शुद्ध अकेला किसीके साथ पक्षपात करके कोई विशेषता नहीं कर सकता है । अतः एक वही समवाय निकटवर्ती आकाश, काल आदिको नितान्त छोडकर उस भिन्न पढे हुये ज्ञानगुणका आत्मामें ही संबन्ध करा देने में नियुक्त होजाय, यह कैसे हो सकता है ? विधारिये ।
यस्मात् “ सर्वेषु समवायिष्क एवं समवायस्तच्चं भावेन व्याख्यातम् " इति वचनात् । तस्मासेषां विशेषकृन्न नाम येन पुंस्थेव ज्ञानं विनियोजयेदाकाशादिपरिहारेण इति बुद्धयामहे ।
जिस कारण से कि योगोंने रूप, रस, शब्द, ज्ञान, परिणाम, आत्मल, घटल, इलन, चलन आदि गुण, जाति, क्रियाओंके समवाय - सम्बन्धवाले पृथ्वी, आत्मा, आकाश आदि सम्पूर्ण समवायि तत्त्वरूपसे एक ही समवाय माना है । तभी तो आपके कणाद ऋषिके बनाये हुए वैशेषिक दर्शन में परमार्थरूप तत्वदृष्टिसे या सत्ताके एकपन सिद्ध करनेसे एक ही समवायतत्त्वका
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व्याख्यान किया है । उस कारणसे उन पदार्थों में रहनेवाले समवायकी विशेषता करनेवाला मला कोई अतिशय नहीं है जिससे कि आकाश, आदिको छोड़कर वह अतिशयधारी समवाय आत्मामें ही ज्ञानका सम्बन्ध करा देता, इस बातको हम भले प्रकार समझते हैं ।
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सत्तावदेकत्वेऽपि समवायस्य प्रतिविशिष्टपदार्थविशेषणतया विशेषकारित्वमिति वेत् तर्हि विशिष्टः समवायः प्रतिविशेष्यं सत्तावदेव इति प्राप्तो द्वितीयः पक्षः तत्र चः
नैयायिक या वैशेषिक बोलते हैं कि जैसे सत्ताजाति एक है फिर भी वह भिन्न भिन्न द्रव्य, गुण, कमी रहती हुयी द्रव्यकी सच्चा, गुणकी सत्ता, कर्मकी सत्ता इस प्रकार विशेषता कर देती है । उसी प्रकार समवायके एक होनेपर भी प्रत्येक विशिष्ट पदार्थों में रहनेवाला "विशेष्यके भेद होने से विशेषण में भी भेद हो जाता' " इस नियमके अनुसार मेद रखता है । वह भाकाश आदिको छोडकर ईश्वर ही ज्ञानका सम्बन्ध करा देना रूप विशेषताको कर देता है। जैन कहते है कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे तब तो सामान्यसे समवाय मानना यह आपका पहिला पक्ष गया । प्रत्येक विशेष्य जाति समान विशिष्टप्रकारका समवाय है। इस प्रकार आपने दूसरे पक्षका मालम्बन किया है और उसमें हमारा यह कहना है सुनिये -
विशिष्टः समवायोऽयमीश्वरज्ञानयोर्यदि ।
तदा नानात्वमेतस्य प्राप्तं संयोगवन्न किम् ॥ ७१ ॥
नैयायिक यदि ईश्वरका और ज्ञानका विलक्षण प्रकारका यह दूसरा विकल्परूप समवाय सम्बन्ध मानेंगे तब तो संयोगसम्बन्धके समान समवायको भी मानापन क्यों नहीं प्राप्त होगा ? देखिये, मूतलमें घटका संयोग न्यारा है, पटका संयोग न्यारा है। इसीके समान घटके साथ रूपका समवाय भिन्न है और आकाशके साथ शब्दका समवाय पृथक् है । तथा आमाका ज्ञानके साथ समवायसम्बन्ध अतिरिक्त है। एवं अनेक समवायसम्बन्ध हुए जाते हैं । इस तरह अपने सिद्धान्तके विरुद्ध कहने पर आपको अपसिद्धान्त नामका निमहस्थान प्राप्त होता है ।
न हि संयोगः प्रतिविशेष्यं विशिष्टो नाना न भवति दण्डपुरुषसंयोगात् पटधूपसंयोगस्या भेदाप्रतीतेः ।
आचार्य संयोग नामक दृष्टान्तको पुष्ट करते हैं । प्रत्येक विशेष्यमें विलक्षण होकर विद्यमान संयोगसम्बन्ध अनेक नहीं होता है यह कथमपि नहीं समझना चाहिये अर्थात् संयोगसम्बन्ध अनेक हैं । पुरुषका दण्डके साथ संयोग न्यारा है और कपडे में बंधी हुयी सुगन्धित धूपका कपडेसे संयोग निराला है । वे दोनों संयोग एक नहीं दीख रहे हैं। इस देवदहका छत्री के साथ हो रहे
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संयोगसे जिनदत्तका पगडीके साथ हो रहा संयोग सम्बन्ध भिन्न है । दण्डपुरुषके संयोगसे पट और धूपका संयोग अभिन्न नहीं प्रतीत हो रहा है 1
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संयोगत्वेनाभेद एवेति चेत्, तदपि ततो यदि भिनमेव तदा कथमस्यैकत्वे संयोगयोरेकत्वम् ? तनाना संयोगोऽभ्युपेयोऽन्यथा स्वमतविशेषात् ।
अनेक संयोगगुणे में रहनेवाली संयोगत्वजाति एक है। यदि उस जातिकी अपेक्षाले संयोगका अमेदही मानोगे तो भी सम्पूर्ण संयोग एक नहीं हो सकते हैं। क्योंकि उन संयोग नामक गुणोंमें रहनेवाली वह संयोगत्वजाति भी यदि आपने आधारभूत उन संयोगोसे सर्वथा भिन्न ही मानी है। तब तो उस मिन्त्र जातिके एक होनेपर भी इन दो संयोगमें या अनेक संयोगों में एकपना कैसे आ सकता है? बताओ। इस कारणसे संयोग अनेक मानने चाहिये और संयोगोंको अनेक मानते भी हैं। यदि न मानोगे तो आपका अपने सिद्धान्तसे विरोध हो जावेगा। क्योंकि आपके दर्शन में संयोगगुण अनेक माने गये हैं। दान्तको मिगानेके लिये अभीष्ट दृष्टान्तको बिगाडने चले हैं। जलं वावदूकतया ।
तद्वत्समवायोऽनेकः प्रतिपद्यताम्, ईश्वरज्ञानयोः समवायः, पटरूपयोः समवाय इति विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तेः ।
बस, उन संयोगोंके समान समवायसम्बन्ध भी अनेक मानने या समझ लेने चाहिये । ईश्वर का ज्ञान से समवायसम्बन्ध भिन्न है तथा पटका और रूपका समवाय मिराका है इसी प्रकार नीबूसे रसका समवाय अतिरिक्त है, इत्यादि विलक्षण ज्ञानोंके होनेसे समवाय भी अनेक सिद्ध होजाते हैं । यह युक्तियोंसे साधा गया सिद्धान्त है ।
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समवायिविशेषात्समवाये विशिष्टः प्रत्यय इति चेत् तर्हि संयोगिविशेषात्संयोगे विशिष्टप्रत्ययोऽस्तु । शिथिलः संयोगो, निचिडः संयोग इति प्रत्ययो यथा संयोगे तथा नि समवायः कदाचित्समवाय इति समवायेऽपि ।
नैयायिक कहता है कि प्रतियोगितासम्बन्धसे समवायसम्बन्धके आधार, रूप, ज्ञान, रस आदि अनेक हैं और अनुयोगिता संबन्ध से समवायके अधिकरण मी घट, आत्मा, नीबू आदि अनेक हैं। अतः उन समवायवाले आश्रमोंके अनेक हो जाने से उनमें रहनेवाले एक समवाय में भी क्लिक्षण विलक्षण रूपके ज्ञान होजाते हैं। जैसे कि मेघजलके एकसा होनेपर भी उसकी तदाश्रय अनेक वृक्षों में भिन्न भिन्न परिणति होजाती है। इसी तरह समवायवालोंकी विशेषतासे ज्ञान नाना हो जाते हैं किन्तु समवाय एक ही है । मन्यकार कहते हैं कि यदि आप नैयायिक ऐसा कहोगे तबतो संयोगसम्बन्धको भी एक ही मान लेना चाहिये। वहां भी प्रतियोगितासम्बन्धसे संयोग के आश्रय
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होरहे दण्ड, छत्र, धूम आदि अनेक हैं और अनुयोगितासम्बन्धसे संयोगके अधिकरण पुरुष, देवदत्त वन, आदि बहुत हैं । अतः संयोगालों के भिन्न भिन्न होनेसे ही संयोगमें भी विलक्षणताको जाननेपाला ज्ञान उत्पन्न हो जावेगा। संयोगगुण- लाधन होनेसे एक ही मान लिया जाये। यदि आप वैशेषिकोंका यह भाव होय कि देवदत्तके गलेमें जंजीरका ढीला संयोग है और अंगुलीमें अंगूठीका कडा संयोग है, चटाईमें तृणोंका शिथिल संयोग है और किवाडों में गर्भकीलकका घनिष्ठ संयोग है। इस तरह संयोगकी प्रतीतियां तो अनेक प्रकारकी देखी जाती है, तो हम जैन भी कहते हैं कि आत्माका परिमाणके साथ और आकाशका एकत्वसंख्याफे साथ नित्य ही समवाय है तथा घटका काले, लाल रूपके साथ और जीवात्माका घटज्ञान पटज्ञानके साथ कभी कभी होनेवाला समवाय है। इस प्रकार समवायसम्बन्धमें भी अनेकपन दीखरहा है, तो फिर समवाय सम्बन्ध भी अनेक मान लेने चाहिये । न्यायप्राप्त पुनः विपरीत पक्षपात नहीं करना चाहिये ।
समवायिनोनित्यत्वकादाचित्कवाभ्यां समवाये तत्प्रत्ययोत्पत्तौ संयोगिनोः शिथिलत्वनिविडत्वाभ्यां संयोग तथा प्रत्ययः स्यात् ।
समवायसम्बन्धके आधारभूत आकाश, आत्माके नित्य होनेसे समवायमें भी वह नित्यपन कल्पिस जान लिया जाता है और समवायी माने गये ज्ञान, काळा, लाल, रूपके अनित्य होनेसे समवायमें भी अनित्यपनका ज्ञान उपज जाता है । ऐसा नैयायिकोंके कहनेपर हम जैन भी कह सकते हैं कि संयोग सम्बन्धबाले चटाई, किवाड, कील, रुई आदिके दीले, कडे हो जानेसे संयोगमें भी ढीले, कठिनका इस प्रकार व्यवहारज्ञान कर लिया जायगा, किन्तु संयोगको एक ही मानो । . . स्वतः संयोगिनोनिविडले संयोगोऽनर्थक इति चेत्, स्वतः समकायिनोनित्यत्व समवायोऽनर्थकः किं न स्यात् ।
___ संयोगियोंको. अपने आप ही कडा, दीला माननेपर तो संयोगसम्बन्ध मानना व्यर्थ पडता है। क्योंकि भिन्न भिन्न प्रकारके संयोगोंने ही उन संयोगियोंको कडा, ढीला बना दिया था और अब आप संयोगियोंको स्वतः ही कडा, ढीला मानते हो फिर संयोग माननेकी क्या आवश्यकता है ! यदि आप वैशेषिक यों कहोगे तत्र तो स्वयं मूलमै समवाथियों के नित्य और कभी कभी होनसे आपका समवाय भी व्यर्थ पड़ेगा। कारण कि समवायके द्वारा ही सदा ( हमेशा ) समवेत रहना और कभी कभी समवेत रहना परिणाम, ज्ञान, रूप, आदिकमि माना गया था किंतु जब आप समवाययोंको समावसे हो नित्यपना और अनित्यपना मानते हैं तो आपका समवाय भानना भी व्यर्थ क्यों न होगां! उत्तर दो।
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: इहेदं समवेतमिति प्रतीतिः समवायस्यार्थ इति चेत्, संयोगस्येहेदं संयुक्तमिति प्रतीतिरर्थोऽस्तु । ततो न संयोगसमवाययोविशेषोऽन्यत्र विष्वग्भावाविष्वम्भावस्वभावाभ्यामिति तयो नात्वं कथंचित्सिद्धम् ।
वैशेषिक कहते हैं कि इसमें यह समवायसम्बन्धसे विद्यमान है। जैसे कि आत्मामें ज्ञान और घटमें रूप समवेत है, इस प्रकार प्रतीति कराना ही समवायका प्रयोजन है। अत: समवाय व्यर्थ नहीं है। ऐसा कहनेपर तो हम ( जैन ) भी कह सकते हैं कि संयोग गुणका फल ढीला, कड़ा करना नहीं है । संयोगवाले पदार्थ अपने आप पहिलेसे ही केड, ढोले हैं । किंतु यह यहां संयुक्त है । जैसे कि पुरुषमै दण्ड, किवाडमे फील संयुक्त हो रही है इत्याकारक प्रतीति कराना ही संयोगका प्रयोजन हो जाओ, इस कारणम्चे अब तक सिद्ध कर दिया कि संयोग और समवायमे इस वक्ष्यमाणके अतिरिक्त कोई अंतर नहीं है । यदि संयोग अनेक होंगे तो समवाय भी अनेक हो जावेंगे, तथा समवाय एक होगा तो संयोगके भी एक माननेसे सब काम चल जावेगा। हां अंत, इतना ही है कि पृथक् मूत पदार्थों का परिणाम या स्वभाव तो संयोग होता है और कथंचिद अपू. थक् पदायाँका समवाय होना धर्म है यों प्रतीति के अनुसार पदार्थों की व्यवस्था माननेपर उन संयोग
और समवाय दोनोंको ही किसी न किसी अपेक्षासे अनेकपन सिद्ध होता है। वस्तुतः व्यवस्था यह है कि संयोगके एकपनेका तो हमने आपके ऊपर आपादन किया था, किंतु एक संयोग हम स्याद्वादी मानवे नहीं हैं । और न संयोगको गुणरूप पदार्थ मानते हैं। गुण उनको कहते हैं जो वस्तुकी आत्मा होकर अनादिसे अनंत काललक रहै, अतः दो आदि पदार्थोके मिल जानेपर उनके प्रदेशोंकी प्राप्ति होना संयोगरूप पर्याय है। असंयुक्त अवस्थाको छोडकर संयुक्तावस्थारूप पदार्थकी परिणतिको हम संयोग मानते हैं वे अनेक हैं। दो आदि द्रव्यों में रहनेवाली परणतियां दो, तीन, आदि होंगी एक नहीं। जैन सिद्धांत पदार्थों का भीतर घुसकर विचार किया है केवल ऊपरसे नहीं रटोला है।
समवायस्य नानास्त्रे अनित्यत्तप्रसंगः संयोगादिति चेत्, न, आत्मभिव्यभिचारात्, कथेचिदनित्यत्वस्येष्टत्वाच्च ।
पुनः वैशेषिक कहता है कि जो जी अनेक होते हैं वे ये घट, पट आदिके सदृश अनित्य होते हैं । यदि समबायको आप जैच लोग अनेक मानेंगे तो समायको संयोगके समान अनित्यपनेका प्रसंग आवेगा। ग्रन्थकार कहते है कि इस प्रकार नैयायिकका कहना तो ठीक नहीं हैं क्योंकि जो अनेक होते हैं. वे जनित्य होते हैं। इस व्याप्तिका आत्माओं करके व्यभिचार होगा । आपने आत्माएं अनेक मानी है किंतु अनित्य नहीं मानी हैं । परमाणूयें भी अनेक है किंतु आपने उनको नित्य माना है, नित्य . .मन भी. अनेक माने गये हैं। दूसरी बात यह है कि कथंचित
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.....
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-.-..-.-AAMANAMANNAWAAMAN..........AM-Marwar.raneer--
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mamvomkammunimernamanna
तादात्म्य सम्बन्धरूप समबायका अनित्यपना हम इष्ट करते हैं । आत्मामें घटज्ञान होनेपर घटज्ञानका समवाय उत्पन्न होता है | बादमें पटज्ञान होनेपर पहिले घटज्ञानका समवाय पर्यावरूपसे नष्ट हो जाता है और अबके पटज्ञानका समवाय कथंचित् उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार कचित् सादाम्य सम्बन्धरूप अनेक समवायोंमें उत्पादविनाशशालीपना जैनसिद्धान्तमे स्वीकार किया गया है समवायके अनित्य हो जानेसे हम आपके समान डरते नहीं है । म आत्मा, आकाश, परमाणु, मन आदि द्रव्योंको भी पर्यायार्थिक नयसे अनित्य मानते हैं। सभी पदार्थ उत्पाद, व्यय, भौव्यस्वरूप परिणतियां कहते हैं।
तथा आपका माना गया समवायसम्बन इस युक्तियों से भी सिद्ध नहीं होता है। सो और भी सुनिये।
अनाश्रयः कथं चायमाश्रयैर्युज्यतेऽअसा । तद्विशेषणता येन समवायस्य गम्यते ॥ ७२ ॥
आपने सम्बन्धको द्विष्ठ माना है । जो दूसरे सम्बन्धसे दो आदि अनुयोगी, प्रतियोगियों में रहे वह सम्बन्ध है । और आपने अन्य सम्बन्धसे विशेषण के विशेष्यमें रहनेपर ही उनका विशेष्य विशेषणभाव सम्बन्ध माना है ऐसा आप नैयायिकोंका मन्तव्य होनेपर यह आपका माना हुआ आश्रयमें नहीं ठहर रहा नित्य, एक, स्वतन्त्र, समवाय किसी अन्य सम्बन्धसे नहीं वर्तता संता विचारा आस्मा, ज्ञान, आदि आश्रयोंके साथ कैसे सीधा ही सम्बद्ध होजाता है बताओ। जिससे कि समवायसंगषकी उन समयायियोंमें विशेषणता मानी जावे क्योंकि दण्ड और पुरुषों विशेषणविशेष्यमा तब ही है जबकि संयोग सम्बन्धसे दण्ड पुरुषमै विद्यमान है। भूतरूम घटामाव स्वरूपसम्बन्धसे है । दूसरे सम्बन्धसे आश्रयमें सम्बद्ध हुए विना विशेषणविशेष्यमाव सम्बन्ध नहीं बनता है । जो विशेष्यको अपने रूपसे अबुरंजित करे वही विशेषण कहा जाता है। विशेषण यों विशेष्यमें प्रयमसे ही सम्बद्ध है।
येषामनाश्रयः समवाय इति मतं तेषामात्मज्ञानादिभिः कथं संवम्यते १ संयोगेनेति चेन । तस्याद्रव्यस्वेन संयोगानाश्रयस्वात् समवायेनेति चायुक्तम् । स्वयं समवायान्तरानिष्टेः
जिन नैयायिक, वैशेषिकोंके मप्तमें समवाय सम्बन्ध आश्रयसे रहित माना गया है उनके यहाँ प्रतियोगिता, अनुयोगिता सम्बन्धसे समवायवाले आत्मा, ज्ञान, और घट, रूप आविके साथ समाष किस तरहसे समषित होगा ! बसाओ। यदि आत्मा, ज्ञान आदिमे संयोगसम्बन्ध करके
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समवायका रहना मानोगे । यह तो ठीक नहीं है, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें संयोग सम्बन्धसे रहा करता है । जैसे कि भूतल में घट या देवदत्तमें कुण्डल अर्थात द्रव्यका अन्यद्रव्य के साथ संयोगसम्बन्ध होता है । जब कि समवाय स्वयं द्रव्य नहीं है तो वह संयोगसम्बन्धसे किसी आश्रयमे ठहर नहीं सकता है । संयोगसम्बन्ध तो द्रव्यमें ही रहता है । समयायपदार्थ संयोगका आश्रय नहीं है । यदि समवायका अपने आधारोंमें रहना समवायसंबन्धसे मानोगे, वह भी मानना युक्तियोंसे रहित है । क्योंकि द्विष्ठसम्बन्ध आदेव और आधार दोनोंमें स्थित रहता है जैसे कि समवायसम्बन्धसे ज्ञान आत्मामें रहता है। यहां समवायसम्बन्ध प्रतियोगी ज्ञानमें भी है और अनुयोगी आत्मा भी है। तभी तो वह दोनोंको मिला देता है। इसी प्रकार वैशेषिकोंके यहां गुण माने गये संयोगसम्बन्धी कुण्डल आधेय और देवदत्त आधारमें समवाय सम्बन्धले वृत्ति है तभी तो दोनोंको संयुक्त कर देता है। प्रकरण में समवायसम्बन्धर्मे रहनेवाला दूसरा समवाय कोई आपने माना नहीं है । फिर भला समवाय सम्बन्धसे समवाधकी आत्मा, ज्ञान आदिमें कैसे वृत्ति हो सकती है ? आपने समवायसम्बन्धवाले द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष ये पांच पदार्थ माने हैं । समवाय और अमाव इन दोनों में समवायसम्बन्ध नहीं स्वीकार किया है ।
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विशेषण मावेनेति चेत्, कथं समवायिभिरसंबद्धस्य तस्य तद्विशेषणभावो निश्चीयते ?
वैशेषिकमत के औलक्ष्यदर्शनमें समवाय और अभावका विशेष्यविशेषणता सम्बन्ध माना गया है । आचार्य कहते हैं कि यदि आप सनवायियोंके साथ समवायका विशेषणविशेष्यभावसम्बन्ध मानोगे यों तो समवायीरूप विशेष्योंके साथ किसी अन्यसम्बन्धसे नहीं सम्बन्धित होता हुआ यह समवाय उन समवायिओंका विशेषण है यह कैसे निश्चित किया जावे ! बताओ, दूसरे सम्म से विशेष्य में विशेषणका सम्बन्ध निश्चय किये विना विशेष्यविशेषणभाव नहीं बनता है । जैसे कि दण्ड और पुरुषका संयोग होने पर ही पीछेसे विशेषणविशेष्यभाव-सम्बन्ध माना जाता है |
समवायिनो विशेष्याः समवायो विशेषणमिति प्रतीतेर्विशेषणविशेष्यभाव एक सम्बन्धः समवायिभिः समवायस्येति चेत् स तर्हि ततो यद्यभिभस्तद्वा समवायिनां तादात्म्यसिद्धिरभिन्नादभिन्नानां तेषां तद्वद्भेदविरोधात्. ।
कणाद के अनुयायी कहते हैं कि "समवायवाले द्रव्य आदिक पांच पदार्थ तो विशेष्य है और उनमै रहनेवाला एक समवाय विशेषण है " इस प्रकार सम्पूर्णजनोंको प्रतीत हो रहा है । अतः दूसरे सम्बन्धके बिना भी समवाथियोंके साथ समवायका विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्ध सिद्ध ही है । यदि वैशेषिक ऐसा कहेंगे ऐसी दशामें तो हम जैन पूंछते हैं कि वह विशेष्यविशेषणसम्बन्ध उन
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अपने सम्बन्धी समवाय और समचायवाले आत्मा, ज्ञान आदिसे यदि अभिन्न है तब तो समवायवाले उन ज्ञान, आत्मा आदिका भी उस विशेष्यविशेषण सम्बन्धके समान तादात्म्यसंबन्ध सिद्ध हो जावेगा क्योंकि अभिन्नसे जो अभिन्न है उनका भेद होना विरुद्ध है । अर्थात् समवाय और समवाययाले ज्ञान, आत्मा आदि पदार्थों के बीच पड़ा हुआ विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्ध अपने दोनों सम्बन्धियोंसे अभिन्न है तब तो उन दोनों सम्बन्धियोंका भी अभेद ही कहना चाहिये । अभिन्न विशेष्यविशेषणभावसे उसके सम्बन्धी अभिन्न ही हैं । अतः सम्बन्धियों में भी अभेद मानना पडेगा । यही जैन सिद्धांत है ।
भिन्न एवेति चेत् कथं तैर्व्यपदिश्यते १ परसाद्विशेषेणविशेष्यभावादिति चेत्, स एव पर्यनुयोगोऽनवस्थानं च सुदूरमपि गत्वा स्वसंबन्धिभिः सम्बन्धस्य तादात्म्योपगमे परमतप्रसिद्धेर्न समवायिविशेषणत्वं नाम ।
यदि आप उस विशेष्यविशेषभावको उसके सम्बन्धियले भिन्न हो मानोगे यों तो " यह विशेष्यविशेषणभाव उन सम्बन्धियोंके साथ है " यह व्यवहार कैसे होगा ? बताओ। क्योंकि सर्वथा भेद में " उसका यह है, यह व्यवहार नहीं होता है, जैसे सह्यपर्वतका विन्ध्यपर्वत है या बम्बईका कलकता है, यह व्यवहार अलीक है । कथंचिद् भेद होनेपर ही षष्ठीविभक्ति उत्पन्न होती है। यदि आप वैशेषिक अपने विशेष्यविशेषणभाव और समवाय तथा समवायवान् इन सम्बन्धियों में मिन पडे हुए उस विशेष्यविशेषणभाव का फिर दूसरे विशेष्यविशेषणभाव से सम्बन्ध मानोगे तो वह दूसरा माना गया विशेष्यविशेषणसम्बन्ध भी अपने सम्बन्धियोंसे भिन्न पड़ा रहेगा, वहां भी " उनका यह है " इस व्यवहार के लिये तीसरा सम्बन्ध मानना पडेगा, उसको भी अपने सम्बन्धियों में रहना आवश्यक होंगा, अन्यथा वह सम्बन्धद्दीन बन सकेगा । इस तरहसे वही चौथे, पांचमे आदि सम्बन्धोंकी कल्पनाका चोद्य बढता जावेगा और परापरसम्बन्ध मानते हुए आकांक्षा शान्त न होगी, अतः आपके ऊपर अनवस्था दोष आवेगा। कहीं सैकड़ों, हजारों, सम्बन्धोंकी कल्पनाके बाद बहुत दूर जाकर भी उस सम्बन्धका अपने सम्बन्धियों के साथ यदि तादात्म्यसम्बन्ध मानोगे तो दूसरों के मत यानी जैन सिद्धान्तकी प्रसिद्धि हो जावेगी, अति निकटमें ही तादालय क्यों न मान लिया जावे, भेद पक्ष लेकर इतना परिश्रम क्यों किया जारहा है ? | इस प्रकार सिद्ध समवायियों में विशेषणता सम्बन्धसे भी समवाय नाममात्रको भी आश्रित नहीं हो जिससे कि उनका विशेषण होसके ।
हुआ कि सकता है ।
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विशेषणत्वे चैतस्य विचित्रसमवायिनाम् । विशेषणत्वे नानात्वप्राप्तिर्दण्डकटादिवत् ॥ ७३ ॥
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तत्त्वार्थ चिन्तामणिः
यदि इस समवायको आपके कहनेसे नाना प्रकारके आत्मा, आकाश, रूप, घटल, चलना, फिरना आदि समवायियोंका विशेषण होना मान भी लिया जाये तब तो उस समवायरूप विशेषret अपना प्राप्त होता है, जैसे कि पुरुष, भूतल, देवदत्त आदि संयोगियोंके विशेषण होनेसे दण्ड, चटाई, कुण्डल आदि अनेक हैं और इनके संयोगसम्बन्ध भी अनेक हैं | इनहीके समान समवाय भी अनेक हो जायेंगे ।
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सत्यपि समवायस्य नानासमवायिनां विशेषणत्वे नानात्वप्राप्तिर्दण्डकटादिवत् ।
अनेक समवायियोंका विशेषण हो जाना होते हुए भी समवायको अनेकत्र अवश्य प्राप्त हो जाता है। जैसे कि वक्त है । यहां दण्ड चटाईरूप विशेषण अनेक हैं। क्योंकि
न हि युगपन्नानार्थविशेषणमेकं दृष्टम् सचं दृष्टमिति चेन्न तस्य कथञ्चिनानारूपस्वात्, तदेकत्वैकान्ते घटः सन्निति प्रत्ययोत्पत्तौ सर्वथा सत्वस्य प्रतीततत्वात् सर्वार्थसच्वप्रतीत्यनुषंगात्कचित्सचा संदेहो न स्यात् ।
एक ही समय अनेक पदार्थोंका जो विशेषण है वह अनेक है, एक नहीं देखा गया है। यदि यहां वैशेषिक यह कहें कि देखो, सत्ताजाति एक समयमै द्रव्य आदि अनेक पदार्थों में रहती है किंतु वह सत्ता एक ही है। ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रकार कहना ठीक नहीं है। क्योंकि जैन सिद्धांतमेंद्रस्वरूपसे तीनों कालोंमें विद्यमान रहनारूप परिणामोंको सत्ताजाति माना है । वह जाति भनेक पदार्थों में तादात्म्य संबंध से रहती हुयी कथंचित् अनेक है यह प्रमाणसिद्ध है । यदि उस सत्ताको एक माना जायेगा तो सत्तावाला घट सत्रूप विद्यमान है । ऐसे ज्ञानके उत्पन्न हो जाने पर सर्व प्रकार से सचाकी प्रतीति हो ही चुकी है। क्योंकि आपकी मानी हुई सत्ता एक ही है । एक घटकी सत्ता के जाननेपर पूरी सत्ताका ज्ञान होना स्वाभाविक है । तथा च संपूर्ण पदार्थों की साके जान लेनेका प्रसंग आवेगा । एक पदार्थके सद्रूपसे जानलेने पर सभी सर्वज्ञ हो जायेंगे | अतः किसीको किसी पदार्थमें सत्ताका संदेह नहीं होना चाहिये | किन्तु अनेक पदार्थोंके सन्देह होते देखे जाते हैं । अतः सत्ता जाति एक नहीं है ।
स सर्वात्मना प्रतिपन्नं न तु सर्वार्थास्तद्विशेष्या इति तदा कचित्सतासन्देहे घटविशेषणत्वं सश्वस्यान्यदन्यदर्थान्तरविशेषणत्वमित्यायातमनेकरूपत्वम् |
यदि यहां कोई कहे कि विशेषणरूप सत्ता नामकी जातिको हमने पूर्णरूपसे जान लिया है किंतु उस जाति आधारभूत सम्पूर्ण विशेष्य अर्थोंको नहीं जान पाया है। इस कारण उस
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समय किसी किसी पदार्थम सताका सन्देह हो जाता है ऐसा माननेएर तो सत्ताको अनेकरूपत्व अच्छी रीतिसे ( तरह ) आजाता है । देखिये घरमै रहनेवाली सचाका घटमें विशेषणपना भिन्न है
और दूसरे पदार्थोंमें रहनेवाली सत्ताका अर्थान्तरके साथ विशेषणपना निराला है । गुण या क्रिया में रहनेवाली सत्ता न्यारी है इस प्रकार अनेक धर्मवाली सत्ता नानारूप सिद्ध होती है।
नानाविशेषणात्वं नाना न पुनः सत्वं तस्य ततो भेदादिति चेत् तर्हि घटविशेपणत्वाधारस्वेन सवस्य प्रतीतो सर्वार्थविशेषणत्वाधारत्वेनापि प्रतिपत्तेः स एव संशयापाय: सर्वाविशेषणत्वाधारत्वस्य ततोऽनन्तरत्वात् ।
सत्ता में रहनेवाले नाना अोंक विशेषणपन ही अनेक है किंतु फिर सत्ता अनेक नहीं है क्योंकि वह सत्ता अपने उन विशेषणोंसे सर्वथा भिन्न है। धर्म धर्मासे भिन्न होता है। यदि वैशेषिक ऐसा कहेंगे तब तो घटविशेषणत्व-धर्मके आश्रयपनसे सत्ताको जान लेनेपर सम्पूर्ण अोंके विशेषणपनके आधाररूपसे भी सत्ताको प्रतीति हो चुकी है। क्योंकि सत्ता तो एक ही है और निरंश है। मत: एक सत्ताके जानलेनेपर सम्पूर्ण पदार्थोंका जानना सिद्ध हो गया तो वहका वहीं, कहीं भी संशयका न रहनारूप दोष तदवस्य रहा, कारण कि सत्ताके उस घटविशेषणत्वका आधारपन धर्मसे सर्वामि विशेषणत्वका आधारपना धर्म भिन्न नहीं है, एक ही है।
तस्यापि नानारूपस्य सत्वानेदे नानार्थविशेषणत्वामानारूपादनर्यान्तरस्वसिद्धेः सिद्ध नानाखमा सवं समानार्थविशेषणम्, तद्वत्समवायोऽस्तु ।
यदि वैशेषिकसचाफे उन अनेक धर्मोको भी सत्तासे भिन्न होरहे मानेंगे सो नाना अर्थोके विशेषणत्वरूप जो नाना स्वरूप हैं उनसे नाना रूपोंका अभेद सिद्ध हो जायेगा क्योंकि सर्वथा मिलसे जो भिन्न है वह प्रकृतसे अभिन्न होता है। इस तरह नानारूपोंसे सत्ताका अमेद सिद्ध हुआ। तथाच एकवारमें नाना अोंमें विशेषणरूपसे विधमान होरहा सत्ता अनेफस्वभावशाली ही सिद्ध होती है । उस सत्ताके समान समवायको भी आप अनेक मान लेवें यही हितमार्ग है।
द्रव्यत्वादिसामान्यं द्विस्वादिसंख्यान, पृथक्त्वाद्यवयविद्रव्यमाकाशादि विशुद्रव्यं च. स्वयमेकमपि पुरा यदनेकार्थविशेषणमित्येतदनेन निरस्तम् । सर्वौकस्य तथाभावविरोध सिद्धेरिति न परपरिकल्पितस्वभावः समवायोऽस्ति, येनेश्वरस्य सदा ज्ञानसमवायितोपपत्तेईस्वं सिद्धयेत् ।
नैयायिक और वैशेषिक सत्तासे अतिरिक्त निम्न लिखित पदार्थों को भी एक होकर अनेक पदार्थों में रहनेवाला मानते हैं। जैसे कि द्रव्यत्व नामकी जाति एक है किन्तु पहिलेसे ही पृथ्वी,
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अप् , तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन, इन नौ द्रव्योंमें एकदम रहती है। एक गुणवजाति लप, रस आदिक चौवीस गुणों में वर्तती है। कर्मस्वजाति भी उत्क्षेपण आदि पांच काँमें ठहरती है इत्यादि । तथा दो द्रव्योंमें रहनेवाली द्विस्वसंख्या तथा तीनमें रहनेवाली त्रिलसंख्या, चार द्रव्यों में रहनेवाली चतुष्ट संख्या आदि भी एक एक होकर पर्याप्ति नामक सम्बन्धसे अनेकोंमें रहती हैं। पृयवस्व, संयोग, और विभागगुण भी एक होकर अनेकोंमें रहते हैं। इसी तरह एक घट अवयवी द्रव्य दो कपालोमे निवास करता है तथा एक पट अवयवी द्रव्य अनेक तन्तुओमे रहता है। तथा आकाश, काल, आस्मा, दिशा ये चार व्यापक द्रव्य स्वयं अकेले अकेले होकर भी यत्तिताके अनियामक संयोगसम्बन्धसे घट, पर आदि अनेक देश, देशान्तरोंके पदार्थोंमें विद्यमान रहते हैं । अन्यकार कहते हैं कि उक्त प्रकार वैशेषिकका मंतव्य अच्छा नहीं है । हमारे इस पूर्वोक्त कथनसे समवाय और सत्ताको अनेकपना सिद्ध करनेसे वैशेषिकोंका यह उक्तमन्तव्य स्खण्डित हो जाता है । भावार्थ- आकाश, आत्मा, आदि सर्वथा एक नहीं हैं, प्रदेशोंकी अपेक्षासे अनेक है। जो आकाशके प्रदेश बर्माईमें हैं वे कलकत्ता में नहीं है। जो मस्तकमै आत्माके प्रदेश है। वे पांवोंमें नहीं है नहीं तो बम्बईमें कलकत्ता घुस पडेगा । माथेमें पांव लग बैठेंगे समझे । सर्व प्रकारसे जो एक है उसका इस प्रकार एक समयमै पूर्णरूपसे अनेकोंमें ठहरनेका विरोध सिद्ध हो चुका है। इस दंगसे दूसरे वैशेषिकोंका अपनी रुचि करके कल्पना किया गया नित्य और एक ऐसा समवाय पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता है । जिस समवाय सम्बन्धसे कि ईश्वरका ज्ञानके साथ सदासे ही समवायीपना सिद्ध हो जाता, और ईश्वरको ज्ञानस्वभावयाला ठहराया जाता, अर्थात् उस असिद्ध समवायसे ईश्वर में विज्ञता नहीं आ सकती है।
कीरशस्तहिं समवायोऽस्तु ?
थक कर वैशेषिक पूछते हैं कि तब तो आप जैन लोग ही बतलाइये कि समवाय कैसा होवे ? जो कि वह मान लिया जावे इसपर आचार्य अपना सिद्धांत कहते हैं।
ततोऽर्थस्यैव पर्यायः समवायो गुणादिवत् । तादात्म्यपरिणामेन कथंचिदवभासनात् ॥ ७४ ॥
इस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि रूप, रस, काला, नीला, खट्टा, मीठा, संयोग, चलना, फिरना, आदि गुणक्रियाएँ जैसे अर्थकी ही पर्याय हैं उसी प्रकार समवाय संबंध भी परिणामी द्रव्यकी पर्यायविशेष है क्योंकि कर्यचित् तादाम्य परिणामसे परिणमन करता हुआ जाना जा रहा है।
प्रान्त कथंचिद्रव्यामेदेन प्रतिमासमानं समवायस्येति न मन्तव्यं, संवेदैकान्तस्य ग्राहकाभावात्। न हि प्रत्यक्षं तद्वाहकं तत्रेदं द्रव्यमयं गुणादिरयं समवाय इति मेदप्रतिभा
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साभावात् । नाप्यनुमानं लिंगाभावात्, इहेदामिति प्रस्पयो लिंगमिति चेत्, न, तस्य समायिवादालम्पस्वभावसमवायसाधकत्वेन विरुद्धस्वात्, निस्पसर्वगतैकरूपसमवायेनानासरीयकत्वात्।
द्रव्यसे समवाय पदार्थ सर्वथा मिल दीख रहा है अतः समवायका दन्यसे कथंचिद् भेदाभेदस्वरूप परिणाम करके जैनोंको ज्ञान भ्रम पूर्ण है ऐसा तो वैशेषिकोंको नहीं मानना चाहिये क्योंकि द्रव्यसे उस समवायको एकांतरूपसे भिन्न ग्रहण करनेवाले प्रमाणका अभाव है । देखों उन प्रमाणों में पहिला प्रत्यक्ष प्रमाण तो समवाय और समवायीके भेदका ग्राहक नहीं है । कारण कि उस प्रत्यक्षसे यह द्रव्य है, ये गुण, किया, जाति, आदि हैं, इनके बीच पडा हुआ यह समवाय संबन्ध निराला है, इस प्रकार अंगुलीसे निर्देश करने योग्य भेदका ज्ञान होता नहीं है । और दूसरा प्रमाण अनुमान भी अर्थसे भिन्न समवायको जानता नहीं है। क्योंकि उसका उत्पादक अविनामावी हेतु यहां नहीं है । यदि " इस आत्मा आदिकमै यह ज्ञान आदि हैं।" इत्यादिकारक प्रतीतिको हेतु मान करके समयायको सिद्ध करोगे, सो यह तो ठीक नहीं है क्योंकि वह हेतु समवायियों के साथ तावात्म्यसम्बन्धस्वरूप समवायका साधक है, नित्य एक समवायका नहीं। अतः आपके अमिमेत होरहे समवायसम्बन्ध-स्वरूप साध्यस विरुद्धके साथ व्याप्ति रखनेके कारण आएका हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है। " इसमें यह है ।" इत्याफारफ पतीतिरूप हेतु आपके माने हुए नित्य, ज्यापक, और एकरूप समवायके साथ अविनाभावी महीं है । यह हेतु अनित्य, अनेक, संयोगोंको भी सिद्ध कर देता है । नान्तरीय शब्दकी न अन्तरे भवति इति नान्तरीयकः न नान्तरीयक इति अनान्तरीयकः ऐसी निरुक्ति कीजाय ।
गुणादीनां द्रव्यात्कयश्चित्तादात्म्याभासनस्य द्रव्यपरिणामस्वस्य चाभावात्साधनशून्य साभ्यशून्यं च निदर्शनमिति चेन, अत्यन्सभेदस्य ततस्तेषामनिश्चयासदसिद्धेः ।
महा वैशेषिक कहते हैं कि गुणादिदृष्टान्तमें द्रव्यसे कथंचित् तदात्मकरूपसे प्रकाशन होनारूप हेतु और द्रन्यका परिणाम होना रूप साध्य नहीं विद्यमान है । इस कारण आप जैनोंका गुणादि दृष्टान्त तो हेतु और साध्यसे रहित है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह उनका कहना कथमपि अच्छा नहीं है। क्योंकि उस द्रव्यसे उन गुणादिकोंके अत्यन्त भेदका अभीतक निश्चय नहीं हुआ है। अतः आपके उस सर्वथाभेदकी सिद्धि नहीं है । तथा च हेतु और साध्य दोनों ही गुणादि नामक दृष्टान्तमें पाये जाते हैं।
गुणगुणिनी, क्रियातद्वन्तौ, जातिवद्वन्तौ च परस्परमत्यन्त भिन्नौ भिन्नप्रतिभासत्वात् घटपटवदित्यनुमानमपि न त दैकान्तसाधनम् । कथाश्चिद्भिन्नप्रतिभासत्वस्य हेतोः कथाश्चिपझेदंसाधनतया विरुद्धत्वात्, सिद्धधभावात् ।
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नैयायिक अत्यंत भेदको सिद्ध करनेके लिये अनुमान प्रमाण देते हैं कि रूप, रस आदिक गुण, और पृथ्वी, जल, घट आदि गुणी द्वन्य, तथा हलन, चरून आदि किया, और उस किया वाले बादल, घोडा आदि क्रियावान् पदार्थ, एवं घटत्व, द्रव्यत्व आदि जातियां और उन जातियोंसे युक्त पट, आत्मा, गुण आदि पदार्थ (ये सम्पूर्ण पक्ष हैं ) परस्परमें सर्वथा भिन्न है ( साध्य ) क्योंकि इनका भिन्न भिन्न ज्ञान होरहा है । ( हेतु ) जैसे कि घर, पट, पुस्तक आदिको भिन्न भिन्न ज्ञान होनेसे ही भित्र मानते हो ( अन्वय दृष्टान्त ) उसी प्रकार घट पृथक् दीख रहा है और उसका रूपगुण निराला दीख रहा है, घोडेसे दौडना अतिरिक्त दीख रहा है । यहां आचार्य कहते हैं कि आपका यह उक्त अनुमान भी उन गुण, गुणी आदिके सर्वथा भेदको सिद्ध नहीं करपाता है। आत्मा शार, घटसे सा, बोडे दीडता और घटसे पक सर्वथा अतिरिक्त तो दीखते नहीं हैं। हां ! कथंचिद् भिन्न दीख रहे हैं । जैसे कि आत्मा नहीं बदलता है किंतु घटज्ञान, पटज्ञान अनेक होते रहते हैं । घट घही रहता है किंतु पकानेपर कालेसे लालरूप हो जाता है, चलना छोरकर घोडा खडा होजाता है । इस प्रकारका कथंचिद् भेष प्रतिभासनरूप हेतुसे उनमें परस्पर कथंचिद्भेद ही सिद्ध होगा । जो कि आपके सर्वथा भेदरूप साध्यसे विपरीत है । अतः आप वैशेषिकोंका हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है । उससे सर्वथा भेदकी सिद्धि नहीं होती है।
न हि गुणगुण्यादीनां सर्वथा भेदप्रतिभासोऽस्ति कचिचादात्म्यप्रतिभासनात् । तथाहि-गुणादयस्तखतः कथंचिदभिन्नास्ततोऽशक्यविवेचनत्वान्यथानुपपत्तेः । ___गुण गुणी, क्रिमा क्रियावान्, विशेष और नित्यद्रव्य आदिका सर्वथाभेदरूपसे प्रकाशन नहीं होता है किंतु कथंचित् तादाम्यरूपसे ही प्रतिमासन हो रहा है । जैसे कि रूप, रस, आदि गुण तो घटकी आत्मा हो रहे है । शान आत्मामे ओतप्रोत तत्स्वरूप हो रहा है। इसी बातको स्पष्ट कर कहते हैं कि गुण, जाति, आदि पदार्थ गुणादिवानोंसे कथंचिद् अभिन्न हैं ( प्रतिज्ञा ) अन्यथा यानी यदि अभिन्न न होते तो उनका पृथक् पृथक् करना अशक्य न होता ( हेतु ) अर्थात् आत्मासे ज्ञान खींचकर अलग नहीं रख दिया जाता है। ऐसे ही घटसे रूप भी निकालकर पृथक् नहीं दिखाया जासकता है यों इस हेतुसे गुण, गुणी आदि किसी अपेक्षासे अभिन्न हैं । ।
किमिदमशक्यविधेचनत्वं नाम ? विवेकेन ग्रहीतुमशक्यत्वमिति चेदसिद्ध गुणादीनां द्रव्याद्भेदेन ग्रहणात्, तबुद्धी द्रव्यस्याप्रतिभासनात्, द्रव्यबुद्धौ च गुणादीनामप्रवीतेः। देशभेदेन विवेचयितुमशक्यत्वं तदिति चेत्, कालाकाशादिभिरनैकान्तिकं साधनमिति कश्चित् ।
यहां किसी वैशेषिकका कटाक्ष है कि जैनोंका माना हुआ गुणगुणियोंका परसर पृथक्भाव न कर सकना मला इसका भाव क्या है । बताओ यदि जैन लोग यह कहें कि गुण आदिकोंको
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तविशिष्टोंसे भिन्न भिन्न होकर ज्ञानसे ग्रहण करनेकी अशक्यता है । यह आप जैनोंके हेतुका अर्थ है, तब तो अशक्यविवेचनत्व हेतु अपने गुण, गुणी, आदि पक्षमे रहता नहीं है। अतः स्वरूपासिद्ध हेवाभास है । क्योंकि गुण, क्रिया आदिकोंका द्रव्यसे मिन्न होकरके ग्रहण हो रहा है। ज्ञानके द्वारा उन गुण आदिकका प्रतिभास होनेपर द्रव्यका प्रतिमास नहीं होता है और द्रव्यको जाननेवाले ज्ञानमै गुण आदिककी प्रतीति नहीं होती है । दालमें नीबूके रसका प्रत्यक्ष हो जानेपर भी रसवान् द्रव्यको प्रतीति नहीं है और आंखसे देखे हुए पत्यरमै उसके रसका ज्ञान नहीं हो पाता है । यदि आप स्याद्वादी उस अशक्यविवेचनत्व हेतुका यह अर्थ करोगे कि गुणसे गुणीका देश भिन्न नहीं कर सकते हैं और गुणीसे गुण भी भिन्न देशमें नहीं किया जा सकता है । इसी प्रकार घट घटव आदिका भी देश भिन्न नहीं है, इस कारण गुण, गुणी आदि अभिन्न हैं । ऐसा माननेपर तो आप जैनोका हेतु काल, आकाश, दिशा, आदिसे व्यभिचारी हो जावेगा। जिस देशमें काल है उसी देशमे आकाश, वायु, आतप ( घूप) पुद्गलवर्गणायें भी विधमान हैं एतावता क्या वे सब अभिन्न हैं ! कथमपि नहीं, इस प्रकार कोई वैशेषिक कह रहा है । अब अन्धकार कहते हैं कि___तदनवबोधविजृम्भिवम् । स्वाश्रयद्रव्याद्रव्यान्तरं नेतुमशक्यत्वस्याशस्यविवेचनस्वस्य कथनात् । न च तदसिद्धमनैकान्तिकत्वं साध्यधर्मिणि सद्भावाविपक्षाब्यावृतेश्च । तम गुणादीनां कयंचिद् द्रव्यतादात्यपरिणामेनावभासमानमसिद्धम्, नापि द्रव्यपरिणामवं, येन साध्यशून्यं वा निदर्शनमनुमन्यते, समवायो वार्थस्यैव पर्यायो न सिद्धयेत् ।
वैशेषिकका वह उक्त कथन तो बैन सिद्धान्तको न जानकर व्यथकी चेष्टा करना है । सुनिये।
हमारे यहां अशक्यविवेचनत्र हेतुका यह अर्थ कहा गया है कि गुण आदिकोंकी अपने आधारभूत द्रव्यसे दूसरे द्रव्यपर लेजानेके लिये अमक्यता है । देवदत्तका ज्ञान यजदच की आत्मामै नहीं प्रविष्ट होता है, गुरुके द्वारा पढानेपर शिष्यका ज्ञान ही उसकी आत्मामें विकासको प्राप्त होता है । कोटि प्रयत्न करनेपर भी गुरुका ज्ञान शिष्यकी आत्मामें नहीं पहुंच पाता है । अन्यथा पंडितोंके लडके विना प्रयत्नके पंडित बन जाये। पुद्गलका रूप, रस, गुण आत्मामें नहीं प्राप्त कराया जाता है
और आस्माके ज्ञान, सुख पुन लगन्यमें नहीं रखे जासकते हैं। प्रत्येक ज्ञान, रूप, आविक गुणों (पक्ष ) में उक्त प्रकारका अनक्यविवेचनख हेतु स्थित है, अतः असिद्धहेत्वाभास नहीं है क्योंकि वह साध्यधर्मवाले पक्षमें विद्यमान है । और वह अशक्यविवेचनत्व हेतु सर्वथा भिन्न होरहे दण्ड, छत्र, कुण्डल आदि विपझोंमें वृत्ति नहीं है, यों विपक्षसे व्यावृत्ति होरही है, इस कारण व्यभिचारी
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हेवाभास भी नहीं है । इससे सिद्ध हुआ कि गुण आदिकोका अपने आधारभूतद्रव्योंसे कथंचित् तदात्मकरूप-परिणतिसे प्रकाशन होना असिद्ध नहीं है और उस हेतुका साध्य माना गया द्रव्यका ‘पर्यायपना मी असिद्ध नहीं है । जिससे कि उदाहरण, साध्य अथवा साधनसे रहित माना जाता, तथा समवायसम्बन्ध मी अर्थकी पर्याय सिद्ध न हो पाता । भावार्थ-गुण, क्रिया, आदि दृष्टांतके समान समयाय भी सदात्मक-परिणतिरूप प्रतीति होनेसे व्यका ही परिणाम सिद्ध होता है । युक्तियोंसे जच गयी चातको विचारवान मान लिया करते है हठ नहीं रखते हैं।
सिद्धेऽपि समवायस्य द्रव्यपरिणामत्वे नानात्वे च किं सिद्धमिति प्रदर्शयति---
कुछ परिझान कर वैशेषिक कहते हैं कि समवाय सम्बन्धको द्रव्यका तदात्मक परिणामपना सिद्ध हो गया और अनेकपना भी सिद्ध हो गया। एतावता प्रकृतमें क्या बात सिद्ध हुयी ? मताओ इसका सुन्दर उचर आचार्य स्वयं दिखाते हैं।
तदीश्वरस्य विज्ञानसमवायेन या ज्ञता। सा कथंचित्तदात्मत्वपरिणामेन नान्यथा ॥ ७५ ॥ तथानेकान्तवादस्य प्रसिद्धिः केन वार्यते । प्रमाणबाधनानिन्नसमवायस्य तद्वतः ॥ ७६ ॥
इस कारण वैशेषिक लोगोंने विज्ञानके समवायसम्बन्ध करके ईश्वरको जो सर्वज्ञता सिद्ध की थी वह कथंचित् तदात्मकरवपरिणामसे ही सिद्ध होसकती है । भिन्न पडे हुए समवाय, या विशेपणविशेष्य, इन दूसरे प्रकारोंसे नहीं बन सकती है । तया इस प्रकार ज्ञान और आत्माका तादास्यसम्बन्ध सिद्ध हो जानेसे अनेकान्त कहनेवाले स्याद्वादियोंका सिद्धान्त प्रसिद्ध होजाता है। उसको कोई रोक नहीं सकता है। सर्वथा भिन्न माने गये समवायसम्बन्धसे ज्ञानको आत्मामे रखना प्रमाणोंसे बाधित है । अतः उस समवायवाले इष्ट किये गये दोनों सम्बन्धियोंसे बीच भिन्न होकर समयका रहना प्रमाणसे सिद्ध नहीं होसका है | इस बातको हम पहिले कह चुके हैं। ससुभाम पानी डालनेस लिबलियापन उत्पन्न होकर विशिष्ट रस और बन्ध विशेष होजाता है यह रस और बन्धरूप तदात्मपरिणति सत्तुओं की ही है, उनसे सर्वथा भिन्न कोई पदार्थ नहीं।
तदेवं समवायस्य तद्वतो भिन्नस्य सर्वथा प्रत्यक्षादिषावनात्सदबाधितद्रव्यपरिणामविशेषस्य समवायप्रसिद्धीनसमवायात् शो महेश्वर इति कथंचिचादात्म्पपरिणामादेवोक्ता स्यात् ।
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इस कारण अबतक इस प्रकार सिद्ध हुआ कि अपने सम्बन्धी समवायियोंसे सर्वथा भिन्न कास्पित किये गये समवायके माननेमें प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे बाधा होती है, और उस द्रन्यका तदात्मक विशेष परिणामको स्वीकार करनेसे कोई बाधा उपस्थित नहीं है । अतः तादात्म्यसम्बन्धरूप समवायकी प्रसिद्धि हुयी । ज्ञानके समवायसे आप अपने ईश्वरको विज्ञ कहते हैं इसका अमिमाय यही निकला कि वह ईश्वरके साथ कथंचित् तादात्म्यपरिणाम होनेसे ही सर्वज्ञ हो सकता है। अन्यथा नहीं।
स च मोक्षमार्गस्य प्रणेतेति भगवानहनेव नामान्तरेण स्तूयमानः केनापि वारयितुमशक्यः । परस्तु कपिलवदशो न तत्प्रणेता नाम।
और आत्मस्वरूप ज्ञानसे तादात्यसम्बन्ध रखता हुआ वह महेश्वर मोक्षमार्गको आध अवखामे प्रगट करनेवाला है । यह तो दूसरे शब्दोंमें आपने भगवान् जिनेन्द्रदेव अर्हत् परमेष्ठीकी ही स्तुति की जा रही है। अर्हन्तको सर्वज्ञपनेका किसीके द्वारा रोकनेपर भी निवारण नहीं हो सकता है । बलात्कारसे ज्ञानात्मक जिनेंद्रदेवकी स्तुति आपके मुखद्वारा निकर पडती है । हां, दूसरा कोई नैयायिक, या वैशेषिकके द्वारा कल्पित किया गया कर्ता, हर्ता, सर्वशक्तिमान, व्यापक, ईश्वर तो उस मोक्षमार्गका भतानेवाला नहीं सिद्ध हो सकता है । क्यों कि जैसे कपिल, बहस्पति आदि ज्ञानसे भिन्न होने के कारण अज्ञ है । उसी सरह नैयायिकोंका ईश्वर मी ज्ञानसे सर्वया भिन्न होने के कारण अज्ञ है, और अज्ञानी आत्मा भला लोष्ठ के समान कैसे क्या उपदेश देवेगा ! कुछ नहीं। इस प्रकार नैयायिकोंके मतका निराकरण हो चुका । प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थोंको नैयायिक मानते हैं और द्रव्य, गुण, कर्म, आदि सात पदार्थ वैशेषिकके यहां माने गये हैं। हाँ सत्त्वप्रणाली एकसी है। इसतरह नैयायिक और वैशेषिकमतमें प्रायः समानता देखी जाती है । इस कारण हमने भी दोनोंको ईश्वरवादमें या गुणगुणीके भेदपादमें एकसा मानकर दोनोंका मिलाकर निराकरण कर दिया है । इसके आगे बौद्धोंके बुद्धदेवका विचार करते हैं ।
सुगतोऽपि न मार्गस्य प्रणेता व्यवतिष्ठते । तृष्णाविद्याविनिर्मुक्तेस्तत्समाख्यातख़ानिवत् ॥ ७७ ॥ विषयोंकी आकांक्षा करना तृष्णा है और अनात्मा, क्षणिक, दुःख अशुचि होरहे पदार्थों में आत्मा, नित्य, सुख, पवित्ररूपताका अभिमान करना अविद्या है । इन दोनोंके पूर्णरूपसे सदाके लिये नष्ट होजानेपर बुद्ध भगवान् मोक्षमार्गका प्रगट करनेवाला सिद्ध है। यों यह सौगतमन्तव्य मी प्रमाणोंसे व्यवस्थित नहीं है । जैसे कि बौद्धोंके यहां भले प्रकार विचारप्राप्त होगया खड़ी मोक्षमार्गका शासक नहीं है।
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योऽप्याह " अविधातृष्णान्या विनिर्मुक्तत्वात्प्रमाणभूतो जगद्धितैषी सुगतो मार्गस्य शास्तेति " सोऽपि न प्रेक्षावान् तथा व्यवस्थित्यघटनात् ।।
इस कारिकाका भाष्य ऐसा है कि जो भी कोई बुद्धमतानुयायी वादी यह कहता है कि "अनेक जीवोंके द्वारा विश्वासको प्राप्त प्रमाणभूत और जगत्के सम्पूर्ण प्राणियोंका हित चाहनेवाला बुद्ध भगवान् ही अविद्या तथा तृष्णाके वाल वाल सर्वधा दूर हो जानेसे मोक्षमार्गका शिक्षण करनेवाला है।" ग्रंथकार कहते हैं कि वह भी बौद्धमती हिताहितका विचार करनेवाला नहीं है। क्योंकि वैसे माने गये के अनुसार बुद्धकी व्यवस्था घटित नहीं हो सकती है । सुनियेः
न हि शोभनं सम्पूर्ण वा गतः सुगतो व्यवतिष्ठते, क्षणिकनिरास्त्रवचित्तस्य प्रज्ञापारमितस्य शोभनत्वसंपूर्णत्वाभ्यामिष्टस्य सिद्ध्युपायापायात् ।
सुगत शब्दके निरुक्तिसे तीन अर्थ होते हैं। पहिले " सु" उपसर्गके प्रकृतमें शोभन, सम्पूर्ण, सुष्ठ, ये तीन योत्य अर्थ हैं । तिनमें प्रथमके दो अर्थ तो बुद्धमै घटते नहीं हैं । परिशेष तीसरा अर्थ ही मानना पड़ेगा। यानी फिर लौट कर न आनारूप अनावृतिसे बुद्ध चला गया, वह या उसका चित्त पुनः नहीं उत्पन्न होगा अर्थात् शून्ययादमें प्रवेश समझिये । प्रथमके दो अर्थो का भी अब विचार करते हैं। देखिये आप बौद्धोंके विचार अनुसार--
सुगत शब्दको अर्थ यदि यह किया जाय कि "सु" यानी शोभायुक्त होकर " गतः " माने प्राप्त हो गया। भावार्थ-संसार अवस्थामै क्षणिकझानकी सन्तान अनेक पूर्वासनाओंसे वासित होती हुयीं उत्पन्न होती रहती हैं। किंतु सुगतकी ज्ञानसन्सान तो अविद्या और तृष्णाकी वासनाओंके आसवसे रहित होकर अच्छी तरह क्षणिक उत्पन्न होती रहती है और मोक्षावस्था भी उस चित्तको सन्तान बराबर पैदा होती रहती है । अथवा सुगतका दूसरा अर्थ यह किया जाय कि "सु" माने सम्पूर्णरूपसे " गतः " यानी पदार्थोंका जाननेवाला सुगत है। भावार्थ-सर्वपदार्थों के प्रत्यक्ष करनेवाले सर्वज्ञप्रत्यक्षसे स्वलक्षण, क्षणिक, दुःख, शून्यरूप चार आर्यसत्योंको जानता है । और वह सुगत मविष्य भी इनको जानता रहेगा । गत्यर्थक “ गम् " धातुके ज्ञान, गमन, प्राप्ति और सर्वथा चला जाना ( मोक्ष ) ये अर्थ माने गये हैं। यों उक्त दोनों ही तरहसे सुगतकी व्यवस्था नहीं हो सकती है क्योंकि आस्रवरहित क्षणिकचित्तोंके उत्पादकको आपने शोभनफ्नसे इष्ट किया है और भूत, वर्तमान, भविष्यत् पदार्थोंके सम्पूर्णपने जाननेवाली बुद्धि के पारको प्राप्त हो जाना अर्थ माना है, जब कि इनकी सिद्धिका उपाय आपके पास नहीं है ।
___ भावनाप्रकर्षपर्यन्तस्तसिद्ध्युषाय इति चेत्, न, भावनाया विकल्पात्मकत्वेनातपथविषयायाः प्रतर्षपर्यन्तप्राप्तायास्तत्वज्ञानवैतृष्ण्यस्वभावोदयविरोधात् ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्ध पुनः कहते हैं कि " हम किसीके नहीं और हमारा कोई नहीं है " तथा " सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं आत्मारूप नहीं हैं " इस प्रकारकी भावनाओंको बढाते, बढाते, अन्तमें जाकर शोभनपना और सम्पूर्णपना प्राप्त हो जाता है। यह उसे सुगत होनेकी सिद्धिका उपाय है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा बौद्धों का कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि आपने श्रुतमयी और चिन्तामयी भाव - नाओंको विकल्पज्ञानात्मक माना है और विकल्पज्ञान आपके यहां वस्तुको छूनेवाला न होने के कारण झूठा ज्ञान माना गया है । जब भावनाएं वस्तुरूपतस्त्रोंको विषय नहीं करती हैं तब ऐसी असत्य भावनाओंके अन्तिम उत्कर्ष बढ जाना प्राप्त होजानेपर भी समीचीन तत्त्वोंका ज्ञान और तृष्णा का अभावरूप वैराग्य इन स्वभावोकी उत्पत्ति होनेशा विशेष है अर्थात् को हुए भी झूठे व ज्ञानसे बुद्धके ज्ञान वैराग्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । मिथ्याज्ञानोंसे वीतराग विज्ञान नहीं
है
न हि सा श्रुतमयी तश्वविषया श्रुतस्य प्रमाणत्वानुषंगात्, तच्वविवक्षायां प्रमाणं सेति चेत् तर्हि चिन्तामयी स्यात् तथा च न श्रुतमयी भावना नाम, परार्थानुमानरूपा श्रुतमयी, स्वार्थानुमानात्मिका चिन्तामयीति विभागोऽपि न श्रेयान्, सर्वथा भावनायास्तस्वविषयत्वायोगात् ।
वह आपकी मानी हुमी श्रुतमयी - भावना तो वास्तविकतत्त्वों को नहीं जान सकती ह यदि श्रुतमयी भावना से शास्त्रोक्त तत्वोंका चिन्तन करोगे तो शास्त्रज्ञानको तीसरा प्रमाण माननेका प्रसङ्ग आवेगा, किन्तु आप बौद्धोंने प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण माने हैं। यदि आप ऐसा कहोगे कि निर्विकल्पक ज्ञानके विषयभूत वास्तविक तत्वोंको शास्त्र के द्वारा कहनेकी इच्छा होने. परश्रुतमयी भावनाको भी हम परार्थानुमान प्रमाण मानते हैं, तब तो वह परार्थानुमानरूप श्रुतमयी भावना नहीं रही किन्तु दूसरोंके लिए बनाये गये अनुमानरूप शास्त्र के वचनोंकी भावना करते करते चिन्तामयी भावना पैदा हो गयी है । क्या अप्रामाणिक वचनोंसे परार्थानुमानरूप श्रुतमयी भावना और स्वार्थानुमानरूप चिन्तामयी भावना उत्पन्न हो सकती है ? कभी नहीं। चूहोंसे उत्पन्न किये गये मी हे ही होते हैं। झूठे ज्ञानोंसे सच्चे ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं। इस कारण परार्थानुमानरूप श्रुतमयी और स्वार्थानुमान चिन्तमय का भेद करना भी अच्छा नहीं है। क्योंकि आपके यहां शब्दोंकी योजनासहित ज्ञानको भावना माना है। ऐसी अवस्तुको विषय करनेवाली भावना द्वारा ठीक ठीक तत्त्वोंको जानलेना आपके मतसे ही नहीं बनता है ।
तत्त्वप्रापकत्वाद्वस्तु विषयत्वमिति चेत्, कथमवस्त्वालंबनासा वस्तुनः प्रापिका १
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बौद्ध कहते हैं कि निर्विकल्पक ज्ञान ही परमार्थभूत वस्तुको विषय करता है । सविकल्पक ज्ञान वस्तुको छूता नहीं, केवल मिध्यावासनाओंसे पैदा होकर अपना संवेदन करा लेता है, किन्तु कोई कोई मिथ्याज्ञान भी तत्त्वोंकी प्राप्ति कराने में कारण पडते हैं, अतः परम्परासे वस्तुको विषय करनेवाले कहे जाते हैं । जैसे कि पर्वतमे वह्निका संशय होनेपर अनुमान ज्ञान उत्पन्न होता है, इस कारण वह्निकी प्राप्ति कराने में वह संशयज्ञान भी दूरवर्ती कारण होजाता है । उसी तरह भावनाज्ञान भी तवोंका प्रापक है। पूर्व में शप्ति होती है, पुनः अर्थ में प्रवृत्ति होती है, पश्चात् प्राप्ति होती है, प्रासिकालतक वह क्षणिक निर्विकल्पक ज्ञान तो ठहरता नहीं है । इच्छाओं द्वारा सविकल्पक ज्ञान उपजा लिया जाता है, अतः प्राप्तिकालमें सविकल्पक ज्ञान है । यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो हम जैन पूंछते हैं कि अपरमार्थभूत अवस्तुको जाननेवाली वह मिथ्याज्ञानरूप भावना सच्ची वस्तुको प्राप्त कराने में कैसे कारण हो जावेगी ? क्या सीपमें पैदा हुए चांदी के ज्ञान से यथार्थ. चांदीकी प्राप्ति हो सकती है ? नहीं ।
तदध्यवसायातत्र प्रवर्त्तकत्वादिति चेत् किं पुनरध्यवसायो वस्तु विषयीकुरुते यतोस्य तत्र प्रवर्त्तकत्वम् १
यदि बौद्ध ऐसा कहें कि सीपमें पैदा हुआ चांदीका ज्ञान चांदीका निश्चय न करानेके कारण प्रवर्तक नहीं है, किंतु भावनारूप ज्ञान उन परार्थानुमानरूप शास्त्र के विषयोंका निश्चय करानेवाला है इस कारण उस वस्तु प्रवृत्ति करा देवेगा। बौद्धोंके ऐसा कहनेपर तो हम जैन आपादन करते हैं। कि आपने निश्चयज्ञानको सविकल्पक ज्ञान कहा है और सविकल्पक ज्ञान आपके मतर्फे झूठा ज्ञान है । ऐसी दशामें क्या फिर वह निश्चयरूप मिथ्याज्ञान यथार्थभूत वस्तुको विषय कर लेता है ! बताओ। जिससे कि निश्चयज्ञानसे वस्तुएँ प्रवृत्ति हो जाये । भावार्थ – निश्चयात्मक ज्ञान भी आपके मतसे ठीक वस्तु प्रवृत्ति करानेवाला सिद्ध नहीं होता है ।
स्वलक्षणदर्शन वशप्रभवोऽध्यवसायः प्रवृत्तिविषयोपदर्शकत्वात्प्रवर्तक इति चेत्, प्रत्यक्ष पृष्ठभावी विकल्पस्तथास्तु |
वस्तुत स्वलक्षणसे उत्पन्न हुए निर्विकल्पक प्रत्यक्षके अधीन होकर पैदा हुआ निश्वयज्ञान प्रवृत्तिके विषयको दिखलानेवाला होनेसे प्रवर्तक माना जाता है " यदि आप बौद्ध ऐसा कहोगे तो प्रत्यक्ष ज्ञानके पीछे होनेवाला चाहे कोई विकल्पज्ञान भी प्रवृत्तिके योग्य विषयको प्रदर्शन करने वाला होनेसे प्रवर्तक हो जाओ । जैन सिद्धान्त में प्रमाणज्ञानसे ज्ञप्ति, प्रवृत्ति और प्राप्ति होती हुई मानी गयी है । इसका भाव यही है कि ज्ञान, प्रवृत्ति और प्राप्तिके विषयको जता देता है । प्रवृत्ति, नितिया प्राप्ति करना ज्ञाताको इच्छा और प्रयलसे संबन्ध रखती हैं। क्या सूर्य चन्द्रमाके ज्ञान, सूर्य
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चन्द्रको हाथमें प्राप्त करा देते हैं ! इसी तरह अनेक उपेक्षणीय पदार्थोंके ज्ञान हमें लाखों, करोडों, होते रहते हैं, किंतु उन उदासीन विषयों में प्रवृत्ति या प्राप्ति नहीं कराते हैं। मक्कृत यह है कि जैसे वस्तुभूत स्वलक्षणको जाननेवाले दर्शन के पश्चात् उत्पन्न हुआ निश्चयज्ञान प्रवर्तक है । उसी प्रकार प्रत्यक्ष पीछे पैदा हुआ विकल्पज्ञान भी उस प्रकार परम्परासे वस्तुको छूने वाला होनेसे प्रवर्तक हो जाओ, कोई निवारक नहीं है ।
समारोपयवच्छेदकत्वादनुमानाभ्यवसायस्य तथाभावे दर्शनोत्थाध्यवसायस्य किमतमाभाषस्तदविशेषात् ।
बौद्धलोग परमार्थभूत वस्तुको जाननेवाले अकेले निर्विकल्प प्रत्यक्षको ही बढ़िया प्रमाण मानते हैं । विकल्पस्वरूप अनुमान भी उन्होंने क्षणिकपना और दान करनेवाले मनुष्यकी स्वर्ग को प्राप्त करानेवाली शक्ति तथा हिंसककी नरक जानेकी शक्तिको जाननेवाला होनेसे प्रमाण माना है । वह अनुमान किसी नयी वस्तुको विषय नहीं करता है किन्तु क्षणिकपन आदि विषय में उत्पन्न हुए संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानरूप समारोपोंको दूर करता रहता है। वस्तुस्वरूप क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति आदिका ज्ञान तो प्रत्यक्ष प्रमाणकरके निर्विकल्पकरूप पहिले ही हो जाता है। यदि प्रणिकत्व आदि प्रत्यक्ष प्रमाणसे न जाने गये होते सो वे वास्तविक नहीं ठहर सकते थे । किन्तु क्या करें, वस्तुभूस क्षणिकत्व आदिमें मिध्याज्ञानी शीघ्र विपर्यय, संशयरूप समारोप कर लेते हैं । उसको दूर करनेके लिये अनुमानप्रमाणका उत्थान किया जाता है । इस कारण हम बौद्धलोग समारोपका व्यवच्छेद करनेवाला होनेसे अनुमानरूपनिश्वयज्ञानको बैसा होनेपर प्रवर्तक मानते हैं। ऐसा बौद्धोंके माननेपर हम जैन कहते हैं कि निर्विकल्प प्रत्यक्षको कारण मान कर उत्पन्न हुए निश्चयरूप विकल्पक उस प्रकार ज्ञानको अनुमानके समान क्या प्रवर्तक पना नहीं है ! बताओ। दोनों निश्चयात्मक उन ज्ञानों में हमारी समझसे कोई अन्तर नहीं है । इन्द्रिय और अर्थके योग्यक्षेत्रमै अवस्थित होनेपर उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञानके बाद पैदा होनेवाले "सैकड़ों ईहा, अवाय, ज्ञान अपने अपने विषयोंमें प्रवृत्ति करानेवाले देखे जाते हैं ।
प्रष्टस्थारोपस्य व्यवच्छेदकोऽध्यवसायः प्रवर्तको न पुनः प्रवर्तिष्यमाणस्य व्यवच्छेदक इति ब्रुवाणः कथं परीक्षको नाम १ ।
अनेक लोगोंको पदार्थों के कालान्तरतक स्थायीपनेका पूर्वसे ही मिध्याज्ञान है । किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञानके समय किसी समारोपकी सम्भावना नहीं है । इस कारण पूर्वकालसे ही प्रवृत्त हुए समारोपोंका व्यवच्छेद करनेवाला क्षणिकपनेका अनुमानरूप निश्चयज्ञान प्रवर्तक कहा जाता है । किन्तु भविष्य में पैदा होनेवाले संशय आदिकोंको सम्भाव्यरूपसे दूर करनेवाले उन प्रत्यक्षोंके बाद उत्पन्न हुए
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विकल्पज्ञानोंको हम प्रवर्त्तक नहीं मानते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार पक्षपात के अधीन बोलनेवाला बौद्ध मला परीक्षक कैसे हो सकता है ? नहीं अर्थात् क्या पूर्वमें किये गये चोरी, इंठको छुडानेवाले उपदेश अच्छे हैं और भविष्य में चोरी झूठका त्याग करानेवाले उपदेश प्रमाण नहीं माने जावेंगे ? प्रत्युत उत्पन्न दोषोंके दूर करनेमें कुछ तत्त्व भी नहीं है, सांपके निकल जानेपर लकीर को पीटने के समान व्यर्थ है । भविष्य दोषोंका निवारण ही किया जाता है । इस तरह भूत, भविष्यत् वर्तमान तीनों कालमें संशय आदिकके दूर करनेवाले विकल्पों को भी प्रवर्तक मानना चाहिये | पक्षपातसे बोलनेवाले पुरुष न्यायकर्ता परीक्षक नहीं कहे जाते हैं ।
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araार्थवासनाजनिताध्यवसायस्य वस्तुविषयतायामनुमानाध्यवसायस्यापि सेोते तदात्मिका भावना न तत्त्वविषयातो न विद्याभूतिहेतुरविद्या तो विद्योदयविरोधात् ।
ज्ञानोंके बाद उत्पन्न होने वाली संस्काररूप वासनायें दो प्रकारकी हैं। एक तो शानद्वारा ठीक ठीक वस्तुको पीछेसे भी जताने के लिये कारण हैं वे तत्त्वार्थवासनाएं कही जाती है और जो दृष्ट, अनिष्ट आदि झूठी कल्पनाएं कराने वाली हैं, वे मिथ्या वासनाएं हैं। वस्तुग्राही प्रत्यक्षसे वास्तविक अर्थोको जानकर उनसे पैदा हुयी वासनाएं सच्चे अध्यवसायको पैदा करती हैं। इस कारण वह निश्चय ज्ञान अपने विषय होरहे वस्तुओंकों जानता है। ऐसा बौद्धों द्वारा नियम करनेपर अनुमानरूप निश्वय भी वस्तुभूत क्षणिकत्वको जाननेवाला इष्ट किया है। इस प्रकार वह भावना स्वरूप ज्ञान भी वस्तुस्वरूप को ही विषय करनेवाला मानना चाहिये | अपरमार्थमूत अतत्वोंको जाननेवाला आपका माना गया अध्यवसायात्मक भावनाशान तो ठीक नहीं है । इस कारण यदि भावनाको मिथ्याज्ञानस्वरूप अविद्या माना जावेगा तब तो वह सर्वज्ञतारूप विद्याको उत्पन्न करनेवाली कारण न हो सकेगी क्योंकि अविद्यासे विद्या उदय होनेका विशेष है ।
नन्वविद्यानुकूलाया एवाविद्याया विद्याप्रसवनहेतुत्वं विरुद्धं न पुनर्विद्यानुकूलायाः सर्वस्य तत एव विद्योदयोपगमादन्यथा विद्यानादित्वप्रसक्तेः संसारप्रवृच्ययोगात् ।
शंकाकार पदस्थ प्राप्त होकर बौद्ध अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि भविषा दो तरकी है। प्रथम तो सम्यग्ज्ञानकी सहायकरूप अविद्या है और दूसरी मिथ्याज्ञानके सहकारिणी अविद्या है। मिथ्या ज्ञानके अनुकूलआचरण करनेवाली अविद्यासे ही विद्याकी उत्पत्तिको हेतुताका विरोध है। किंतु फिर विद्याकी सहकारिणी अविद्यासे विद्याकी उत्पत्तिका विशेष नहीं है । सब लोग अविद्या पूर्वक ही विद्याकी उत्पत्ति मानते हैं। आप जैनियों के यहां भी सम्यग्दर्शन के उस पूर्ववर्त्ती मिथ्याज्ञानसे ही सम्यग्ज्ञान होना माना है ।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
सब लोग मूर्ख अवस्थासे ही पण्डित बनते हैं । अस्पज्ञतासे ही सर्वज्ञता होती है अन्यथा यानी यदि ऐसा मानोगे तो आप जैनोंको सम्यग्ज्ञान अनादिकालीन मानना पड़ेगा । सर्वज्ञपना भी सर्वदासे स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि सम्याज्ञान और सर्वज्ञतासे ही आपके यहां भविष्य, सम्यग्ज्ञान और सर्वज्ञता पैदा होगी । तथाच संसारकी प्रवृत्ति भी न हो सकेगी सर्वजीव अनादिसे सर्वज्ञ हो जावेगे | अतः विद्याके अनुकूल पडनेवाली अविद्यासे विद्याकी उत्पत्ति मानियेगा ।
इति चेन्न । स्यावादिना विद्याप्रतिबन्धकामावाद्विद्योदयस्येष्टेः । विद्यास्वभावो ह्यात्मा तदाबरणोदये स्वादविद्याविवर्तः स्वप्रतिबन्धकामावे तु स्वरूपे व्यवतिष्ठत इति नाविधैवानादिविद्योदयनिमित्ता।
अब राम करते हैं कि पौधोका ६ मा सो या नहीं है । क्यों कि
हम स्यावादियों के यहां अविद्यासे विद्याकी उत्पत्ति नहीं मानी है, किन्तु विद्या अर्थात ज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मों के क्षयोपशम या क्षयरूप अमावसे विद्याकी उत्पत्ति स्वीकार की है । ज्ञान आत्माका स्वभाव है। पूर्व बन्धे हुए ज्ञानावरण कर्मके उदय होनेपर आत्मा मिथ्याज्ञान या अज्ञानरूप पर्यायोंको धारण करता है और जब उस ज्ञानके अपने प्रतिबन्धक कौंका अभाव हो जाता है, तब तो वह आस्मा अपने स्वभावरूप केवलज्ञानमें व्यवस्थित होकर परिणमन करता रहता है। क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थोका जानना उसका स्वायत्त धर्म है। इस प्रकार अनादिकालीन अविद्याही विद्याकी उत्पत्तिका कारण नहीं है । प्रत्युत कर्मोके नाशसे और अविद्या के अमावसे आत्मामें स्वाभाविक विद्या उत्पन्न हो जाती है।
सफलविधामुपेयामपेक्ष्य देशविद्या तदुपायरूपा भवत्यविद्यैवेति चेत् न देशविद्याया देशतः प्रतिबन्धकाभावादविद्यात्वविरोधात् ।
यहां बौद्ध यह कहे कि आपने अन्तिम फलस्वरूप प्राप्त करने योग्य पूर्ण केवलज्ञानकी अपेक्षा करके एकदेश अल्पज्ञानको उसका कारण हो जाना माना ही है । अर्थात् श्रुतज्ञानसे या अवधि, मनःपर्यय झानके पश्चात् केवलज्ञान पैदा होता है । वह श्रुतज्ञान अल्पज्ञान है तथा सम्पूर्ण अर्थपर्यायोंका ज्ञान न करनेवाला होनेसे अज्ञानरूर भी है । बारहवे गुणस्थानमें केवलज्ञानावरणके उदय होनेसे अज्ञानभाव माना है । इस कारण वह अविधा या अज्ञान ही प्राप्तव्य केवलज्ञानका उपाय है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो बौद्धोंका कहना उचित नहीं है क्यों कि श्रुतज्ञान, अवधिधान या मनःपर्ययज्ञान ये अविद्यारूप नहीं है । अपने अपने आवरण काँके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए हैं। अतः उनको अविद्यापनका विरोध है। खोटे ज्ञान या अज्ञान ही अविद्या कहे जा सकते हैं।
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तथाच विद्यारूप श्रुतज्ञान आदि अल्पज्ञानोंको अविद्या नहीं कह सकते हैं तब तो विद्यासे ही पूर्ण ज्ञान हुआ, अविद्यासे नहीं । विशेष बात यह है कि क्षपकश्रेणीमें भले ही किन्ही मुनिमहाराज के सर्वोवधि या मन:पर्ययज्ञान हो चुका हो किंतु उनके उपयोगात्मक श्रुतज्ञान ही है । श्रुतज्ञानोंका | अतः बारहवें गुणपिंड शुक्लध्यान है। इसमें मति, अवधि, मनःपर्ययका रंचमात्र प्रकाश नहीं स्थानम पूर्ण श्रुतज्ञान है, उस परोक्षरूप पूर्णज्ञानसे ही परिपूर्ण केवलज्ञान हुआ है ।
या तु केनचिदर्शन प्रतिबन्धकस्य सद्भावादविद्याऽऽत्मनः, सापि न विद्योदयकारणं, सदभाव एव विद्यापतेरिति न विद्यात्मिका भावना गुरुणोंपदिष्टा साध्यमाना सुगतत्वहेतुर्यतः सुगतो व्यवतिष्ठते ।
कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले श्रुतज्ञान आदिमें देशघातिप्रकृतिका उदय होनेसे आत्मामें कुछ अज्ञानका अंश रहता है। इस कारण उस अंशरूप अविद्यासे विद्याका उदय माना जावा तो बौद्ध सिद्धान्तको सहकारिता प्राप्त हो भी जाती, किन्तु जो भी वह अज्ञानका अंश है
तो का कारण नहीं माना है। प्रत्युत ( बल्कि ) उसके विपरीत जैनसिद्धान्त में उस अविया अंशों का पूर्णरूप से अमार हो जानेपर ही विद्याकी उत्पत्ति मानी गयी है । सम्मम्दर्शन के साथ होनेवाले सम्यग्ज्ञानमें भी हम उसके पूर्व में हुए मिथ्याज्ञानको कारण नहीं मानते हैं। बल्कि ज्ञानका कारण ज्ञान ही है । ज्ञानमै सम्यकूपनेके व्यवहारका कारण दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय, उपशम या क्षयोपशम है तथा ज्ञानमै मिध्यापन के कथन करनेका कारण मिध्यात्वकर्मका उदय है । यद्यपि सम्यग्ज्ञानके पूर्वमें मिथ्याज्ञान था और अज्ञानभाव भी पूर्णज्ञानके प्रथम था । किन्तु अज्ञान या मिथ्याज्ञान ये सम्यग्ज्ञान या पूर्णज्ञानके कारण नहीं हैं। हां उनका अभाव ही विद्याका कारण होता है । इस प्रकार स्वयं अविद्यारूप किन्तु भविष्य में विद्याका कारण ऐसी गुरुओंके द्वारा परार्थानुमानरूप उपदेशी मयी और पूर्णरूप से अन्तपर्यन्त साधी गयी ( अभ्यास की गयी ) आपकी मानी हुई श्रुतमयी और चिन्तामयी भावना तो सुगत के पूर्णज्ञान उत्पन्न करने में कारण नहीं हो सकती है, जिससे कि बुद्धका सर्वज्ञवन सिद्ध होकर कुछ दिन संसार में उपदेश के लिए ठहरना
स्थित बन सके ।
भवतु वा सुगतस्य विद्यावैतृष्ण्यसंप्राप्तिस्तथापि न शास्त्रत्वं व्यवस्थानाभावात्, तथाहि - "सुगतो न मार्गस्य शास्ता व्यवस्थानविकलत्वात् खड्गवत्, व्यवस्थान विकलो 5सावविधातृष्णाविनिर्मुक्तत्वाचद्वत् " ।
अथवा आपके कथनमा बुद्धदेवको सर्वज्ञता और तृष्णारहित वैराग्यकी समीचीन प्राप्ति हो जाना मान भी लिया जाय तो भी बुद्ध सज्जनोंको मोक्षमार्गके उपदेशकी शिक्षा नहीं कर सकते
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
हैं। क्योंकि पूर्णज्ञान और वैराग्यके होनेपर शीघ्र ही उनकी मोक्ष हो जावेगी। वे संसारमै ठहर न सकेंगे। इसी बातको अनुमान द्वारा स्पष्ट कहते हैं। " सुगत ( पक्ष ) मोक्षमार्गका शिक्षक नहीं है ( साध्य ) क्योंकि वह संसारमें व्यवस्थित रखनेवाले कारणोंसे रहित होगया है ( हेतु ) जैसे कि बौद्धोंका माना गया खड्गी (अन्वयदृष्टान्त) आप बौद्धोंने मुक्तावस्थामें मुक्त खड्गी जीवोंका उपदेश देना कार्य नहीं माना है । वे मुक्तावस्था संसारकी वासनाओंके आस्रवरहित होकर क्षणिक ज्ञानरूप है " । उत्तः अनुसनो दिने गरेको सिद्ध करने " कि आपका माना हुआ वह बुद्ध ( पक्ष ) संसारमें स्थित रहनेवाला नहीं है ( साध्य ) क्योंकि उसी खड्गी मुक्तात्मा (अम्बयदृष्टान्त) के समान संसारस्थितिके कारण अविद्या और रागद्वेषोंसे पूर्णरूपसे सर्वदाके लिये वह मुक्त होगया है " ( हेतु)।
जगद्वितैषितासक्तेर्बुद्धो यद्यवतिष्ठते । तथैवात्महितैषित्वबलात् खड्गीह तिष्ठतु ॥७८ ॥
यदि आप बौद्ध ऐसा कहेंगे कि संसारभरके पाणियोंको हित प्राप्त करानकी तीन अभिलाषामै आसक्त होजानेसे सर्वज्ञ बुद्ध कुछ दिनसक संसारमें ठहर जाते हैं, तब तो आत्माको हिसस्वरूप शान्तियुक्त निर्वाण प्राप्त करानेकी अभिलाषाके यलसे खड्गी मुक्तात्मा मी इस ही प्रकार यहां संसारमें ठहर जाओ। भावार्थ-जैनमतमें जैसे अन्तकृत् केवली होते हैं, उसी प्रकार नौद्धोके यहां तलवार आदिसे घातको माप्त हुए कतिपय मुक्तात्मा माने गये है वे बिना उपदेश दिये ही शान्तिरहित निर्वाणको प्राप्त होजाते हैं। आत्माको शान्त करनेकी उनको अभिलाषा बनी रहती है।
"बुद्धो भवेयं जगते हिताये।, ति भावनासामर्थ्यादविद्यावृष्णाप्रक्षयेऽपि सुगतस्व व्यवस्थाने खड्गिनोप्यास्मान शमयिष्यामीति भावनाबलाचवस्थानमस्तु विशेषाभावात् ।
पूर्व जन्म या इस जन्ममे बुद्धने यह भावना भायी थी कि मैं जगत्का हित करने के लिये सर्वज्ञ बुद्ध हो जाऊं, इस भावनाकी शक्ति से अविद्या और तृष्णाके सर्वथा क्षय होनेपर भी सुगतकी स्थिति संसारमै उपदेश देने के लिये हो जाती है । ऐसा स्वीकार करनेपर इम भी आपादन करते हैं कि आत्माको शान्तिलाम कराऊंगा, ऐसी पूर्वजन्मकी या इस जन्मकी भावनाकी सामध्येसे खङ्गीका भी संसारमै अवस्थान हो जाओ, बुद्ध और खड्गीका संसारमै ठहरने और न ठहरनेमें नियामक कोई विशेष नहीं है ।
तथागतोपकार्यस्य जगतोऽनन्तता यदि । • सर्वदावस्थितौ हेतुर्मतः सुगतसन्ततः ॥ ७९ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
खड्गिनोप्युपकार्यस्य स्वसन्तानस्य किं पुनः । न स्यादनन्तता येन तन्निरन्वयनिर्वृतिः ॥ ८ ॥ स्वचित्तशमनात्तस्य सन्तानो नोत्तरत्र चेत् । नात्मानं शमयिष्यामीत्यभ्यासस्य विधानतः ॥ ८१॥ न चान्स्यचित्तनिष्पत्तौ तत्समातिर्विभाव्यते । तत्रापि शमायेष्याभीत्येष्यांच्चत्तव्यपक्षणात् ॥ ८२ ॥
क्षणिक विज्ञानरूप सुगतको सन्तानके सर्वदा स्थित रहनेमें यदि यह हेतु माना जाये कि बुद्धके द्वारा उपकृत होनेवाला जगत् अनन्त कालतक धारामाहसे स्थिर रहेगा। इस कारण बुद्ध भी सन्तानरूपसे अनन्त झालतक सदा संसारमें बने रहेंगे तो हम जैन भी कटाक्ष करते है कि खड्गिकी अपनी ज्ञानसन्तान भी स्वगिके द्वारा शान्तिलामसे उपकृत होती हुई अनन्तकाल तक रहेगी, फिर क्यों नहीं खगिकी संसारमें स्थिति मानी जाती है। जिससे कि उस खगिकी निरम्क्य मोक्ष होगयी मानी जाय। आपने दीपके के जुझने के समान सर्वथा अन्वयरहित होकर खगिकी मोक्ष मानी है, सो नहीं बन सकती है।
यदि आप बौद्ध यों कहें कि उस खटिङ्गक अपने ज्ञानरूप आत्माका सर्वदाके लिये शमन हो जाता है, सर्वथा अन्नय टूट जाता है, इस कारण उत्तरकाल भविष्यमै खगिके चित्तकी सन्तान नहीं चलती है। यह आपका कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि खड्गिके चित्तका शमन नहीं हुआ है। आत्माको मैं सदा शान्तिमार्गपर ले जाऊंगा । इस प्रकार भावनाका अभ्यास खड्गि बराबर कर रहा है।
___ यदि आप यह कहे कि भावना करते करते अन्तिमचित्तके उत्पन्न हो जानेपर खड़गिक उस ज्ञानसन्तानकी समाप्ति होना विचारपूर्वक मानी जाती है, सो यह मानना ठीक नहीं है क्योंकि जिसको आप अन्तमे होनेवाला चित्त कहते हो उस समय भी " आत्माको शमन करूंगा, ऐसी भावना करना खगिक अभ्यासमै आरहा है, अत: उसकी अपेक्षासे आगे भी चित्तकी सन्तान चलेगी। इस प्रकार दीपकलिकाके समान निरन्श्य होकर ज्ञानसन्तानका नाश हो जानारूप मोक्ष खड्गिके नहीं पन सकती है। मुगतके समान स्वगिकी भी ज्ञानधारा अनन्त काल तक चलती रहेगी अतः वह भी संसारमै ठहर सकता है।
चित्तान्तरसमारम्भि नान्त्यं चित्तमनास्त्रत्रम् । सहकारिविहीनस्वात्ताहग्दीपशिखा यथा ॥ ८३॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
इत्ययुक्तमनैकान्ताद्बुद्धचित्तेन तादृशा । हितैषित्वनिमित्तस्य सद्भावोऽपि समो द्वयोः ॥ ८४ ॥
चरमत्वविशेषस्तु नेतरस्य प्रसिद्धयति । ततोऽनन्तरनिर्वाणसिद्ध्यभावात्प्रमाणतः ॥ ८५ ॥
" खड्गिके अन्तका आसवरहित चित्त ( पक्ष) दूसरे भविष्यचित्तोंको धारारूपसे उत्पन्न नहीं करता है ( साध्य ) क्योंकि वह सहकारीकारणोंसे रहित है ( हेतु ) । जैसे बत्ती, सैलसे रहित अन्तकी दीपशिखा पुनः दूसरी कलिकाओंको पैदा नहीं करती है " (दृष्टान्त)। आचार्य कहते है कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना युक्तिरहित है । उक्त हेतुका उस प्रकारके सहकारी कारणोंसे रहित होरहे बुद्धके चित्तसे ही व्यभिचार हो आवेगा । अर्थात् सहकारीरहितपना बुद्धफे चित्तमें है। किंतु दूसरे चित्तोंको नहीं पैदा करमारूप साध्य नहीं है । आपने बुद्धकी ज्ञानसन्तानको अनन्तकाल तक मसवशील माना है ।
यदि संसारी जीवोंके लिये हिप्तके चाहनेकी इच्छाको भविष्यमै ज्ञानसन्तान चलनेका निमित्त कारण मानोगे तो वह भी दोनोंके समानरूपसे विद्यमान है । जैसे बुद्धके जगत्के हित करनेकी अभिलाषा है । वैसी ही स्वगिक आत्माको शान्ति करनेकी अभिलाषा भी वर्तमान है । अतः दोनों की विज्ञानधास चलेगी। दूसरे खगिक विज्ञानमें अन्तमे होनेवाला यह विशेष भी सिद्ध नहीं है । क्योंकि बुद्धके समान खड्गि भी तो वस्तु है और वस्तु अनन्त काल तक परिणमन करती है । इस कारण अकेले खड्गिका ही निरन्वय नाश माना जाय और बुद्धको अनन्तकाल तक सन्तानझमसे स्थायी माना जाय, यह पक्षपात ठीक नहीं है । उस कारणसे आप प्रमाणोंके द्वारा अन्यसहित ज्ञानसन्तानका नाश हो जानारूप शान्त मोक्षको सिद्ध नहीं कर सकते हैं। अथवा दीपकके धन्सोंका भविष्य जैसे अन्तर नहीं है वैसा अन्तररहित अनन्तध्वन्सरूप मोक्ष नहीं कर सक्ता है। ___"खड्गिनो निरामवं चिसं चितान्तरं नारभते जगद्धितैषित्वाभावे चरमत्वे च सति सहकारिरहितत्वात् ताग्दीपशिखावदित्ययुक्तम्, सहकारिरहितत्वस्थ हतोबुद्धचिनानैकान्तात्, तद्विशेषणस्य हितैषित्वाभावस्य चरमत्त्वस्य चाऽसिद्धत्वात्, समानं हि तावद्धिवैषित्वं खगिसुगतयोरात्मजगद्विषयम् ।
__ ग्रन्थकार अपनी उक्त बार्तिकोंकी टीका करते हैं कि "खड्गिनामक मुक्तामाका मोक्ष होनेपर पूर्वज्ञानोंके संस्कारोंसे आनवरहित चित्त है । वह चित्त भविष्यमें दूसरे चित्तोंको पैदा नहीं करता है ( प्रतिज्ञा । क्योंकि खगिका चित जगत्का हितैषी न होकर और अन्तिम होता हुआ सहकारी
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कारणों से रहित है | ( हेतु ) जैसे कि बैंड, बती आदि सहकारी कारणोंसे रहित और दूसरोंका हित नचाहनेवाली सबसे पिछली दीपकी शिखा उत्तरवर्ती शिखाओं को पैदा नहीं करती है किन्तु उसी समय शान्त हो जाती है ( अन्वयदृष्टान्त ) इसी तरह खड्गीका चित्त भी मुक्ति अवस्था प्राप्त करनेपर अतिशीघ्र समूल नष्ट हो जाता है " ग्रन्थकार कहते हैं कि यह बौद्धका कहना भी युक्तिशून्य है, क्योंकि उक्त अनुशन में दिये गये सहकारी रहितपने हेतुका बुद्ध के ज्ञानरूप चितसे व्यभिचार है । बुद्धका चित्त सहकारीकारणोंसे रहित है, किंतु भविष्य के अन्यचित्तोंको उत्पन्न करता रहता है । और उस हेतु हितैषी न होना तथा अन्तिमपना ये दो विशेषण भी खङ्गिरूप पक्षमें नहीं घटते हैं । इस कारण तुम्हारा हेतु असिद्ध हेत्वाभास भी है कारण कि आत्माके शमनकी अभिलाषा और जगत् हितकी अभिलाषारूप हितैषिता तो मसे खड़गि और सुगलमें समानरूपसे रहती है । और सन्तानरूपसे सर्वदा रहेगा, अतः अनन्त है ।
सर्वविषयं हितैषित्वं खड्गिनो नास्त्येवेति चेत्, सुगतस्यापि कृतकृत्येषु तदभावात् तत्र तद्भावे वा सुगतस्य यत्किञ्चनकारित्वं प्रवृतिनैष्फल्यात् ।
यदि बौद्ध यों कहें कि " हमारे दिये गये हेतुका जगत्की हितैषिताका अभावरूप विशेषण खड्गमें घट जाता है, अर्थात् स्वगिक सम्पूर्ण जीवों में हितैषिता नहीं ही है, अपनी आत्माकी शान्तिका ही स्वार्थ लगा हुआ है ", इस प्रकार बौद्धोंके कहने पर हम जैन कहेंगे कि जो आत्माएँ कृतकृत्य हो चुकी हैं, उनके प्रति वह सुगतकी भी हितैषिता नहीं है, तो सुगतकी भी सब जीवोमे हितैषिता कहां सिद्ध होती है ? यदि मुक्तिको प्राप्त हो चुके उन कृतकृत्य जीवोंमें भी सुगतकी उस हितैषिताका सद्भाव मानोगे तो सुगतको चाहे जो कुछ भी व्यर्थ कार्य करते रहनेका प्रसंग आवेगा । जैसे कि बनियेने अपने ashat लिखाया था कि " मुख है तो बोल, माहक नहीं हैं तो ठाली बैठा चांटों को तोल " इस लोकोक्ति के अनुसार सुगत भी व्यर्थके कार्य करनेवाला सिद्ध होगा । जिन आत्माओं ने अपना सम्पूर्ण कर्तव्य कर लिया है उनके प्रति किसी भी हितैषीका प्रवृत्ति करना व्यर्थ है, निष्फल है ।
"
यत्तु देशतोऽकृतकृत्थेषु तस्य हितैषित्वं तत्खङ्गिनोपि स्वचित्तेषूत्तरेष्वस्तीति न जगद्वितैषित्वाभावः सिद्धः ।
यदि गती हितैषिता। आप जो यह अर्थ करोगे कि जो क्षणिकविज्ञानरूप आत्माएँ कुछ अंशों में अपने कर्तव्यको कर चुके हैं और कुछ अंशोंमें कृतकृत्य नहीं हुए हैं उनमें गुगलकी हित करनकी इच्छा है तब तो इसपर हम जैन कहते हैं कि ऐसी कुछ हि हितैषिता तो खड्गी भी है । खड्गी भी अपने उत्तरकालमें होने वाले विज्ञानरूप चितोंमें प्रशान्त करने की
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ffer] रखता है इस प्रकार आपका जगत्के हितकी अभिलाषा रखनारूप हेतु खड्गी में सिद्ध नहीं है । जगत्के भीतर खड्गी भी आगया है । जिस जंगलका हित करना है, उन जीवोमें अकृतकृत्य ही जीव लिये जायेंगे ।
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'नापि चरमत्वं प्रमाणाभावात् ।
खड्गीका चित्त दूसरे चित्तको उत्पन्न नहीं करता है। इस आपकी प्रतिज्ञामें दिये गये हेतुका अन्तिमपना विशेषण भी सिद्ध नहीं है। क्योंकि खड्गीके चितोंका कहीं अन्त होजाता है, इसमें कोई प्रमाण नहीं है । जब कि सब ही पदार्थ अनन्तकालतक परिणमन करनेके स्वभाववाले है । घट, पट, आदिके स्वलक्षण और बुद्धोंके चित्र अनन्तकाललक परिणमन करेंगे तो खड्गीके चितकी भी उत्तरोतर धारा उत्पन्न होती रहेगी, दीपककी कलिका भी काजलको उत्पन्न करती है और काजलसे उत्तरोत्तर काजल, वर्गणा, परमाणु, आदि पर्यायें होती रहती हैं । अतः दीपकलिकाका दृष्टान्त विषम है। कलिका और काजल तत्वान्तर नहीं हैं किन्तु रूप, रस आदिवाले पुल द्रव्यकी पर्यायें हैं। पीले रंगसे काला रंग होगया है । उष्णस्पर्शसे शक्तिस्पर्श होगया है किन्तु पुद्गलतत्त्व नहीं बदला है।
चरमं निरास्रवं खड्गचितं स्वोपादेयानारम्भकत्वाद्वर्तिनेहा दशून्य दीपादिक्षणवदिति चेत्, न अन्योन्याश्रयणात् । सति हि तस्य स्वोपादेयानारम्भकत्वे चरमस्वस्य सिद्धिस्तत्सिद्धौ च स्वोपादेयानारम्भकत्व सिद्धिरिति नाप्रमाणसिद्ध विशेषणो हेतुर्विपक्षवृत्तिश्च । खड्गि सन्तानस्यानन्तप्रतिषेधाया लं येनोत्तरोत्तरैष्यच्चित्तापेक्षयात्मानं शमयिष्यामीत्यभ्यासविधानात्स्वचित्तकस्य शमनेऽपि तत्सन्तानस्यापरिसमाप्तिसिद्धेर्निरन्वयनिर्वाणाभावः सुगतस्येवानन्तजगदुपकारस्य न व्यवतिष्ठेत तथापि कस्यचित्प्रशान्तनिर्वाणे सुगतस्य तदस्तु ।
द्ध इस अनुमानसे चरमपना सिद्ध करेंगे कि " खङ्गिका आसवरहित चिच अन्तिम है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उसके सबसे अन्तका चित्त स्वयं उपादानकारण बनकर किसी दूसरे उपादेयोंको उत्पन्न नहीं करता है ( हेतु ) जैसे कि अन्त ( आखीर ) की दीपकलिका बक्षी, तैल, और पात्रसे रहित होकर दूसरे कलिकारूप स्वलक्षणोंको उत्पन्न नहीं करती है। या बिजली और बबूला उत्तरवर्ती बिजली, बबूल रूप पर्यायोंको नहीं बनाते हैं " ( अन्वय दृष्टान्त ) आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अनुमान बनाना ठीक नहीं है । इसमें परस्पराश्रय दोष है। क्योंकि अभीतक खङ्गिके चितका अन्तिमपना और अपने उपायको न उत्पन्न करना ये दोनों ही सिद्ध नहीं है । इस कारण अति कम सिद्ध हो ? जब कि वह चित्त अपने उपादेयकार्यको पैदा न करे और अपने उपायोंका उत्पन्न न करना कब सिद्ध हो ? जब कि पहले हेतुका चरमपना सिद्ध हो जाय । अतः
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आपके पूर्व अनुमान और इस अनुमानमें परस्पराश्रय दोष हुआ, इस प्रकार पूर्व अनुमानमें दिये गये हेतुके हितैषिताका अभाव और अन्तिमपना ये दोनों विशेषण प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं हैं और आपका तु बुद्ध चित्तरूप पक्षों में वर्तमान है अतः व्यभिचारी भी है । इस कारण वह सहकारीरहितत्व हेतु खड्गी के चित्तसन्तानकी अनन्तताका निषेध करने के लिये समर्थ नहीं है, जिससे कि चित्तसन्ततियोंका अन्ययसहित सर्वथा ध्वंस होजानारूप मोक्ष सिद्ध होता, खङ्गिके आगे आगे भविष्य में आने वाले चित्तोंकी अपेक्षासे अपनेको शान्त करूंगा, इस प्रकार मावनाका अभ्यास बना रहता है । उससे वर्तमान में अपने चित्तका शमन होजाने पर भी उस खड्गीकी सन्तानकी पूर्णरूप से समा से होजाय, यह सिद्ध नहीं है । अतः अन्वयरहित तुच्छाभावरूप मुक्ति नहीं बनती है तथा च अनन्त जगत् के उपकार करनेवाले सुगतके समान खड्गीकी भी संसारमे स्थिति न होवे, यह बात नहीं है तथापि यानी इस प्रकार सुगल और खड्गीके पूर्णरूप से समानता होनेपर भी किसी अकेले खड्गीकी ही तुच्छ अभावरूप शान्त मुक्ति मानोगे तो बुद्धकी भी बुझे हुए दीपकके समान चित्तधाराका सर्वथा नाश होजाना रूप वह मोक्ष होजाओ। दोनों में अन्तर कुछ नहीं है ।
I
सुक्तः स च कर्ष मार्गस्य प्रणेता नाम ।
वाष्टगत
उस कारण से अब तक यही सिद्ध हुआ कि सुगत शब्दका अच्छी तरह चले जाना अर्थात् अपना सर्वथा खोज खो देना ही अर्थ है। पूर्व में सुगतके तीन अर्थ कड़े थे। उनमें " पुनरनावृत्या गतः " फिर लौट कर न आना रूप ही अर्थ आप बौद्धों के कथन से निकला, अब बतलाइये कि ऐसा अपगत मोक्षमार्गका पथप्रदर्शक मला कैसे हो सकता है ? कथमपि नहीं ।
मा भूत्तच्छान्तनिर्वाणं सुगतोऽस्तु प्रमात्मकः । शास्तेति चेन्न तस्यापि वाक्प्रवृत्तिविरोधतः ॥ ८६ ॥
वैभाषिकका दीपक बुझने के समान वह शान्त निर्वाण न सिद्ध हो यह बात हम योगाचार मानते हैं । हमारे यहां बुद्धदेव प्रमाणज्ञानस्वरूप माना है। वह बुद्ध मोक्षमार्गका शिक्षण करनेवाला सिद्ध है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह भी तो मानना ठीक नहीं है । क्योंकि उस ज्ञानस्वरूप बुद्ध के भी उपदेश देनेके लिये वचनोंकी प्रवृत्ति होनेका विरोध है । क्या शरीर, कण्ठ, तालु, और इच्छाके विना शब्द कहे जा सकते हैं ? अर्थात् नहीं ।
4
न कस्यचिच्छन्तनिर्वाणमस्ति येन सुगतस्य तद्वत्तदापाद्यते निरास्रवचिनोत्पादलक्षणस्य निर्वाणस्येष्टत्वात्, ततः शोभनं सम्पूर्ण वा गतः सुगतः, प्रमात्मकः शास्ता मार्गस्पेति चेत्, न तस्यापि विधूतकल्पना जालस्य विवक्षाविरहाद्वाचः प्रवृत्तिविरोधात् ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उक्त वार्तिकका व्याख्यान करते हैं कि किसी खड्गी या उपसर्गीमुक्तात्माका हम सर्वथा मटियामेट हो जानारूप शान्त निर्वाण नहीं मानते हैं जिससे कि उस खड्गीके समान बुद्धको मी वैसी ही मोक्ष प्राप्त करनेका आपादन किया जाय, जबकि हमारे यहां सांसरिक वासनाओंके आसबसे रहित होरहे शुद्ध चित्तका अनन्त काल तक उत्पन्न होत रहाऐसा निर्वाण माना गया है । उस कारणसे " सुष्टु गतः " यानी मिरुकुल नाशको प्राप्त हो गया है, यह सुगतका अर्थ हम नहीं मानते हैं, किंतु ज्ञान, वैराग्यसे शोमायुक्तपनको प्राप्त हो गया या पूर्ण ज्ञानीपनको प्राप्त हो गया, ऐसा ज्ञानस्वरूप ही सुगत है और वह मोक्षमार्गका आध प्रकाशक है, शिक्षक है। आचार्य कहते हैं कि यह योगाचारका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस सुगतका कल्पना करनेका जंजाल सर्वथा नष्ट हो गया है तो बोलनेकी इच्छारूपकल्पना भी उसके उत्पन्न न होगी। इस कारण इच्छाके विना वचनोंका बोलना नहीं बन सकेगा । यचनकी प्रवृत्ति के लिये कारणकूटकी आवश्यकता है । उनमें बोलनेकी इच्छा प्रधान कारण है जो कि सुगतके है नहीं, तब मोक्षमार्गका उपदेश नहीं दे सकता है ।
विशिष्टभावनोद्भुतपुण्यातिशयतो ध्रुवम् ।। विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिः सुगतस्य चेत् ॥ ८७॥
बोलने के लिए इच्छाके विना भी " अगत्का उपकार करूं।" इस बढिया भावनाके पलसे उत्पन्न हुए पुण्यों के चमत्कारसे बुद्धदेवकी भी वचनप्रवृत्ति यथार्थरूपसे हो जावेगी यदि आप बौद्ध ऐसा कहोग--
. बुद्धावनोत्तत्वाबुद्धत्वं, संवर्तकाद्धर्मविशेषाद्विनापि विवक्षाया बुद्धस्य स्फुर्ट वाग्वृत्तिर्यदि तदा स सान्वयो निरन्वयो वा स्यात् ? किचात:
इसकी व्याख्या यह है कि मैं जगत्को मुक्तिमार्ग बतलानेवाला युद्ध हो आऊं इस प्रकार बुद्धपनेको बनानेवाली माकनासे एक विलक्षण पुण्य पैदा होता है । उस विशेष धर्भ माने गये पुण्य करके इच्छाके विना भी बुद्ध भगवान्के स्पष्टरूपसे वचनोकी प्रवृत्ति हो जावेगी। यदि ऐसा कहोगे तो इस पर हम जैनोंका थोड यह पूंछना है कि वह बुद्ध क्या द्रव्यरूपसे अनादि अनन्त काल तक स्थिर रहनेवाला अन्वयी है ! अथवा प्रतिक्षण नष्ट होनेवाला अन्वयरहित होकर केवल उत्पाद, न्यय, स्वभाववान् है । बताओ। सम्भव है कि आप हमारे पूछनेपर यह कहें कि आप जैन लोग इस पूंछनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध करोगे तो हम जैन कहते हैं कि
सिद्धं परमतं तस्य सान्वयत्वे जिनत्वतः मतिक्षणविनाशवे सर्वथार्थक्रियाक्षतिः ॥ ८८ ॥
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सत्त्वाविन्सामाणः
प्रथम पक्षके अनुसार बुद्धको द्रव्यरूपसे अनादिसे अनन्त कालप्तक अन्वयसहित-रूप माननेपर तो जैनमत ही सिद्ध हो जाता है क्योंकि उस पुण्यविशेषसे अलंकृत और द्रव्यरूपसे अनादि अनन्त कालतक व्यापक तथा विवक्षाके विना ही मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाला बुद्धदेव हमारा जिनेन्द्रदेव ही तो है । यदि द्वितीयपक्षके अनुसार उस बुद्धको आप प्रत्येकक्षणमें विनाशशील मानोगे यानी अन्वयरहित होकर सर्वप्रकारसे नष्ट हो जाता है तब तो ऐसी दशाम वह क्षणिक बुद्ध कथमपि कुछ भी अर्थक्रिया न कर सकेगा। कालान्तरस्थायी तो आत्मा उपदेश दे सकता है। जो एक क्षण ही हरता है वह अपने आत्मलाभ करनेके समयमें कोई भी अर्थक्रिया नहीं कर सकता है । जब दूसरे क्षणमें कुछ कार्य करनेके योग्य होता है तब उसका आपके मतसे सत्यानाश हो जाता है। असत् पदार्थ क्या कार्य करेगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं ।
न सान्वयः सुगतो येन तार्यकरत्वमावनोपाचातीर्थकरत्वनामकर्मणोऽतिशयवतः पुण्यादागमलक्षणं सीथे प्रवर्तयतोऽहतो विवक्षारहितस्य नामान्तरकरणात् स्वादादिमत सिद्धयेत्, नापि प्रतिक्षणविनाशी सुगतः क्षणे शास्सा येनास्य क्रमयोगपयाभ्यामक्रियाक्षतिरापाधते, किं तर्हि ? सुगतसन्तानः शास्तति यो ब्याव
बौद्ध कहते हैं कि न तो हम सुगतको द्रव्यरूपसे अन्वयसहित मानते हैं जिससे कि यानी यदि हम ऐसा मानते होते तो जबर स्याद्वादियोंका यह मन्तव्य सिद्ध होजाता कि धर्मतीर्थ का किया जानारूप तीर्थकर प्रकृतिका आस्रव करानेकी कारण सोलह कारण भावनाओं के बलसे. बांधे हुए तीर्थकरव-नामकर्मरूप माहात्म्य रखनेवाले पुण्यसे बोलनकी इच्छाके बिना मोक्षमार्गका प्रतिपादक आगमरूपी तीर्थकी प्रवृत्ति कराते हुए अर्हन्त देवका ही दूसरा नाम बुद्ध कर दिया गया है और इस ही कारण हम क्षण क्षण नष्ट होते हुए सुगतको एक ही क्षणमें मोक्षमार्गका शिक्षक भी नहीं मानते हैं। जिससे कि आप हमारे ऊपर क्षणिकपा क्रमसे और युगपत्से अर्थक्रिया की क्षति होजानेका आपादन करे, तब तो हम क्या मानते हैं इस बातको सुनिये हम सुगतकी उत्तर कालतक होनेवाली ज्ञानसन्तानसे मोक्षमार्गका शासन होना स्वीकार करते हैं । अब अन्धकार कहते हैं कि इस प्रकार जो कोई बौद्ध कहेगा तो
तस्यापि स सन्तानः किमवस्तु वस्तु वा स्यात् ? उभयत्रार्थक्रियाश्चतिपरमतसिद्धी तदवस्थे।
उस बौद्धके मतमें भी वह ज्ञानको सन्तान क्या अपरमार्थमूत है ? अथवा क्या वस्तुस्वरूप परमार्थ है ! बताओ, पहिला पक्ष माननेपर आस्तुसे अर्थक्रिया न हो सकेगी तथा दूसरा पक्ष होने पर दूसरे मत यानी स्याद्वादियों के सिद्धान्तकी सिद्धि हो जायेगी । यो इन दोनों पक्षों में हमारा पूर्वोक्त कथन वैसाका वैसा ही ठीक रहा यानी दोनों बातें अवस्थित रहीं।
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तत्त्वावचिन्तामणिः
तथाहिइसी बातको पुनः स्पष्ट कर कहते हैं।
सन्तानस्याप्यवस्तुत्वादन्यथात्मा तथोच्यताम् ।
कथञ्चिद्व्यतादात्म्याद्विनान्यस्याप्यसम्भवात् ॥ ८९ ॥ . जबकि एक क्षणस्थित रहनेवाले ज्ञानोंकी धारारूप सन्तान भी अवस्तु है क्योंकि अनेक क्षणों में रहनेवाले पदार्थोका कालिक प्रत्यासत्तिसे समूह बन सकता है किन्तु बिजली या दीपकलि काके समान क्षणध्वंसी पदार्थके परिणामोंकी घारा कोई वस्तु नहीं है, स्वयं बौद्रोंने सन्तानको वस्तुभूत नहीं माना है।
यदि क्षणध्वंसी न मानकर उस धाराको कालान्तरस्थायी पदार्थ मानोगे तब तो सन्तान शब्दसे उस प्रकार आत्मा द्रव्य ही कहा गया समझो। आत्माका पूर्वापर क्षणोंके साथ द्रव्यरूप करके कथंचित् तादात्य सम्बन्ध है। उस तादात्म्य सम्बन्धके विना वह सन्तान उन ज्ञानोंकी है यह बात नहीं बन सकती है
एक द्रव्यमें अनेक परिणामोंको तादात्म्यसम्बन्ध ही मिला सकता है क्योंकि तादाम्यके विना पूर्वापर परिणामोंके मिलानेमें संयोग, समवाय आदि अन्यसम्बन्धोंका असम्भव है।
स्वयमपरामष्टमेदाः पूर्वोत्तरक्षणाः सन्तान इति चेत् तर्हितस्यावस्तुलादर्यक्रियापतिः सन्तानिभ्यस्तत्वातचाभ्यामवाच्यवस्थावस्तुत्वेन व्यवस्थापनात् ।
बौद्ध कहते हैं कि प्रत्येक क्षणवी परिणामों में परस्पर अस्यंत भेद है किंतु हम लोगोंकी मोटी दृष्टि से उस भेदका विचार नहीं हो पाता हैं इस कारण नहीं विचारा गया है भेद जिनका ऐसे आगे पीछेके क्षणिक परिणामों के समुदायको सन्तान मान लेते हैं । यदि आप बौद्ध ऐसा कहोगे तो हम जैन कहते हैं कि वह सन्तान अवस्तु हुयी, क्योंकि जो पदार्थ सर्वथा विद्यमान ही नहीं है उसकी धारा मी क्या बन सकती है ! हिमालयसे लेकर समुद्रतक गंगाकी धारा बहती है तब तो उस जलकी सन्तान मानी जाती है किंतु बिंदु जलकी नहीं विद्यमान पूर्वोपर पर्यायोंको कस्पित करके धारा नहीं बनती है तथाच आपकी मानी हुयी सन्तान तुच्छ अवस्तु होने से कुछ भी अर्थक्रियाको न कर सकेगी यों अर्थक्रियाकी क्षति हुई। एक एक क्षण रहनेवाले सन्तानियोंसे भिन्न या अभिन्न होकर जो तद् अतद्रूपसे नहीं कहा जाता है वह अवस्तु माना गया है । ऐसी निर्णायक विद्वानों ने व्यवस्था की है ॥ .. ... ... .. . . .
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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सन्तानस्य वस्तुत्वे वा सिद्धं परमतमात्मनस्तथाभिधानात् कथंचिद्द्रव्यतादात्म्येनैव पूर्वोरक्षणानां सन्नासि सत्यामन्तरस्य व्याभिचारात्, तात्विकतानभ्युपगमाथ ।
यदि आप बौद्ध सन्तानको वास्तविक मानोगे तब तो दूसरे वादीके मन्तव्य यानी जैन मतकी सिद्धि हो जावेगी क्योंकि इस कारण पूर्वापर परिणामों में अखण्ड द्रव्यरूपसे रहनेवाले का नाम ही आपने सन्तान रख दिया है । एक देवदत्तके आगे पीछे होनेवाले ज्ञानपरिणामोंका संतान हो जाना कथंचित् तादात्म्य संबंध करके ही सिद्ध हो सकता है । द्रव्यप्रत्यासत्तिके अतिरिक्त क्षेत्रप्रत्यासत्ति आदि मानने से व्यभिचार आता है, कारण कि एक क्षेत्रमें पुद्गल आदिक छडों द्रव्य रहते हैं। क्षेत्रिक संबंध होनेस उन सबकी भी एक संतान बन जायेगी इसी तरहसे एककालमें अनेकद्रव्यों के परिणाम होते रहते हैं । उन भिन्न द्रव्योंके परिणामोंका भी परस्पर कालिकसंबंध है। किंतु उन सब परिणामोंकी एक अखण्ड धारारूप सन्तान नहीं मानी है । समान ज्ञानवाले भिन्न भिन्न देवदत्त, जिनवच आदिकी भावप्रत्यासत्ति है किंतु उन भिन्न आत्माओंके ज्ञानोंका परस्पर में सांकर्य नहीं है और संयोग सम्बन्धसे मी एक सन्तानकी सिद्धि नहीं है । तथा क्षेत्रसम्बन्ध, कालिकसम्बन्ध आदि वास्तविक माने भी नहीं गये हैं ये तो औपाधिक है तात्विकरूप से नहीं स्वीकार किये गये हैं । अतः संतानि -
का एक द्रव्यमें कथंचित् तादात्म्य संबंध से अन्वित रहने पर ही संतान वस्तुभूत और अर्थक्रियाकारी बन सकेगी। हां अखंडित अनेक देशवाले द्रव्यका विष्कम्भकमसे माना गया स्वक्षेत्र वास्तविक है और पूर्वापर कालोंकी अनेकपर्याय ऊर्ध्वता सामान्यसे स्वकाल हो जाती हैं किंतु आकाश और व्यवहारकाल तो सर्वथा बहिरंग हैं, जीव पुद्गलोंका निज स्वरूप नहीं है ।
पूर्वकालविवक्षातो नष्टाया अपि तत्त्वतः ।
सुगतस्य प्रवर्तन्ते वाच इत्यपरे विदुः ॥ ९० ॥
बौद्ध लोग चिरकाल प्रथम नष्ट होचुके तथा भविष्यमें उत्पन्न होनेवाले पदार्थों को भी वर्त 'मानाका कारण मान लेते हैं। जिनके यहां असत् की उत्पत्ति और सदका सर्वथा नाश मान लिया गया है । वे असत् पदार्थको कारण मी मानें तो क्या आश्चर्य है ? विवक्षाके बिना सुगतके वचन कैसे प्रवृत्त होंगे? इस कटाक्षको दूर करते हुए बौद्ध कहते हैं कि पहिले कालमै कभी लगत के . इच्छा हुयी थी, वह इच्छा वस्तुतः नष्ट होगयी है। फिर भी नष्ट हुयी इच्छा को कारण मानकर बुद्ध वास्तविक रूपसे वचन प्रवृत्त हो जायेंगे इस प्रकार दूसरे सौत्रान्तिक बौद्ध मानते हैं ।
यथा जाग्रद्विज्ञानान्नष्टादपि प्रबुद्धविज्ञानं दृष्टं तथा नष्टायाः पूर्वविवक्षायाः सुगतस्य वाचोऽपि प्रवर्त्तमानाः संभाव्या इति चेत
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__ आचार्य उनके मतका वर्णन करते हैं कि बौद्ध लोग भालयविज्ञान और प्रवृतिविज्ञान इस प्रकार ज्ञानकी दो धाराएं मानते हैं। सोते समय आलयविज्ञानकी धारा चलती रहती है और जागते समय प्रवृत्तिविझानकी सन्तान चलती है। आज प्रातःकाल छह बजे हम सोकर उठे हैं। रातको दस बजेसक जागेंगे और दस बजे सोकर कल सुबह फिर उठेगे, तथा कल मिति रातको दस पजे सोवेंगे। यहां आजके दस बजेतक होनेवाला प्रवृत्तिविज्ञान आज रातको दस बजे नष्ट होजावेगा । फिर भी नष्ट हुआ प्रवृत्तिविज्ञान फल प्राप्तःकाल छह बजेके प्रवृत्तिविज्ञानका उपादान कारण मान जाता है। तथा आज रातके दस बनेके बादसे पैदा हुआ भालयविज्ञान कल प्रातःकाल छह बजे तक सर्वथा नष्ट होजावेगा । ज्ञानोंकी धारा भी टूट जावेगी फिर भी नष्ट हुआ आलयविज्ञान कल रातको दस बजे बाद सोते समय होनेवाले आल्यविज्ञानका कारण है । भविष्यमें होनेवाले पुत्र या आगे होनेवाला श्रीवियोग, धनलाभ, मरण आदि पहिलेसे ही हाथमें रेखाएं बना देते हैं, या शरीरमें तिल, मसा, लहसन, आदि बना देते हैं। इनके मतसे मरे बाबा भी गुड खालेते है ऐसी कहावत ठीक है । अस्तु
ये बुद्धि के समूहरूप बौद्ध जो कुछ कहे सो सुनिये ! बौद्ध कहते हैं कि जैसे नष्ट होचुके भी पहिले दिनकी जागृत अवस्थाके ज्ञानसे दूसरे दिनकी जागृत अवस्थाका विज्ञान उत्पन्न हुआ देखा गया है। उसी प्रकार नष्ट हुयी पूर्वकालकी विवक्षासे भी बुद्ध भगवान्के वचनोंकी प्रवृत्ति होना भी सम्भव है । यदि पौद्ध ऐसा कहेंगे तो आचार्य कहते हैं कि
तेषां सवासनं नष्टं कल्पनाजालमर्थकृत् । कथं न युक्तिमध्यास्ते शुद्धस्यातिप्रसंगनः॥ ९१ ॥
उन बौद्धोंके यहां जीवन्मुक्तदशामें ही बुद्धके संस्कारोंसे सहित होकर नष्ट होगया विवक्षारूप कल्पनाओंका समुदाय भला कैसे अर्थोको करेगा ? अर्थात् कोई भी कार्य नहीं कर सकता है। यदि कल्पना नष्ट भी होगयी होती और उसकी वासना बनी रहती तो भी कुछ देरतक अर्थक्रिया होसकती थी किन्तु विवक्षानामक कल्पनाओंके संस्कारसहित ध्वंस होजानेपर पूर्वकालकी विवक्षासे वर्तमानमै बुद्धके वरनकी प्रवृत्ति कैसे भी युक्तिको प्राप्त नहीं होसकती है।
यवि कल्पनाओंसे रहित शुद्ध पदार्थके भी वचनोंकी प्रवृत्ति मानोगे तो आकाश, परमाणु आदिके भी वचनप्रवृत्ति होजानी चाहिये । यह अतिप्रसंग होगा।
यत्सवासनं नटं तम कार्यकारि यथात्मीयाभिनिवेशलक्षणं कल्पनाजालम्, सुगतस्य सुवासन नष्टै च विवक्षारयाकसनाजालमिति न पूर्वविवक्षातोश्स्य वाग्वृत्तियुक्तिमधिषसति ।
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বজিবিলিঃ
अनन्तानुबन्धी कवायकी वासना अनेक वर्षातक चलती चली जाती है । एक झटकेदार प्रचण्ड क्रोध कर दिया जाय तो उसका संस्कार संख्यात, असंख्यात और अनन्त जन्मोंतक रहता है । इसी प्रकार अप्रत्याल्पानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनका छद्द महीने, पन्द्रह दिन और अन्तर्मुहूर्त तक उत्तरोत्तर पर्याय परिणत होनेका संस्कार रहता है। तथा किसी धारणास्वरूप ज्ञानसे किसीको एक घण्टेतक मरण होता रहता है, किसीसे एक वर्ष, दस वर्ष तथा कई जन्मोंतक भी संस्कार बना रहता है। भूलता नहीं है । भावार्थ-जैसे बन्दूककी गोलीमें हजार गज तक जाते हुए वेग नामका संस्कार बना रहता है और प्रत्येक आकाशके मदेशपर उसका वेग उत्पत्तिकमसे न्यून होता जाता है । सर्वथा वेगके नष्ट होजानेपर गोली गिर पडती है। ऐसे ही एक वस्तुका ज्ञान होनेपर दस वर्ष तक उसकी स्मृति रहती है । इसका भाव यह है कि दस वर्षतक होनेवाले असंख्यात ज्ञानों में उसका संस्कार चलता रहता है, यदि देवदत्तने जिनदत्तसे कहा कि तुम दिल्ली जाओ तो हमारे लिये पांच सेर बादाम लेते आमा । उस समयसे लेकर जिनदसके दिल्ली पहुंचने तक दस घण्टेमे जितने घट, पट आदिफके असंख्यात ज्ञान हुए हैं। उन सब झानोंमें अध्यक्त रूपसे यह संस्कार घुसा हुआ है कि देवदत्तके लिये पांच सेर बादाम लाना है। यदि शानके समान संस्कार भी सुनने के बाद नष्ट हो गया होता तो दिल्ली पहुंचनेपर स्मृति कैसे भी नहीं होसकती थी। हम लोगोंके झानगुणकी प्रतिक्षण एक पर्याय होती है । उसमें प्रगररूपसे एक, दो, चार पदार्थ विषय पड़ते हैं किंतु भमकटरूपसे उन ज्ञानाम अनेक पदायाँके संस्कार चले आरहे हैं। किंचिर उद्बोधकके मिलने पर शीध पूर्वके ज्ञासपदार्थकी स्मृति हो जाती है । यह तो जैन सिद्धांत के अनुसार वासनाका तत्व है । बौद्ध लोग भी ऐसी बासना मानते होंगे । अंतर इतना है कि उनके यहां पूर्वपर्यायका उत्तरपर्यायमै द्रव्यरूपसे भन्वय नहीं माना गया है। अतः बालकी नींव पर बने हुए महलके समान उनका वासनाका मानना ढह जाता है । अनुमान बनाकर प्रकृतमें (हेतु) यह कहना है कि " जो वासनासहित नष्ट हो गया है वह कुछ मी कार्य नहीं कर सकता है ( साध्य ) जैसे कि धन, पुत्र, कलत्र आदि अनात्मीय पदार्थोमे " ये मेरे हैं। ऐसा हर श्रद्धान स्वरूप अतत्तश्रद्धान मूलसहित नष्ट हो गया है। अतः जीवन्मुक्त अवस्थामै वह कल्पित मिथ्याश्रद्धान पुनः उत्पन्न नहीं होता है। ( अन्वयदृष्टांत ) बुद्धके विषक्षा नामक कल्पनाओंका समुदाय वासनासहित नष्ट हो गया माना है ( उपनय ) इस कारण पूर्णरूपसे नष्ट हो गयी पूर्व विवक्षासे सुगतके वचनोंकी प्रवृत्तिका होना यह प्रयोजन साधना युक्तिसंगत नहीं है।" (:निगमन )
जाग्रद्विज्ञानेन व्यभिचारी हेतुरिति चेत्, न सवासनग्रहणात् । तस्य हि वासनाप्रबोधे सति स्वकार्यकारित्वमन्यथातिप्रसंगात् । सुगतस्य विवक्षावासनाप्रयोगोपगमे तु विवधोत्पत्तिप्रसक्तेः कृतोऽत्यन्त कल्पनाविलयः ?
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तत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्ध कहते हैं कि जो नष्ट हो गया है वह कार्यकारी न माना जायेगा तो फल रातको जो दस बजे सर्वथा नष्ट हो गया है वह जागती अवस्थाका ज्ञान आज प्रातः काल सोतेसे उठते समय के ज्ञानका कारण कैसे हो जाता है ! बताओ इस कारण आप जैनोंका माना गया हेतु व्यमिचारी है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना ठीक नहीं है क्योंकि हमने हेतुका विशेषण वासनासहितपना दे रखा है। कल रातके दस जेके पहिले होनेवाला ज्ञान यद्यपि नष्ट हो गया है तो भी उसकी वासना सोते समय रही है । अतः उस वासनाके बलसे आज प्रातःकालके जागते समयका ज्ञान उत्पन्न हो गया था । वासनाका उद्घोष हो जानेपर पूर्वका ज्ञान भी अपने फार्यको कर देता है यह अनुमान हमने सुगत सिद्धान्त के अनुसार बौद्ध के माने गये हेतुसे बनाया है । जैन सिद्धांत में सोते और जगाते समय एक ही ज्ञानधारा मानी है केवल क्षयोपशमका वैयार है एकही ज्ञानगुणकी अनेक पयोंये होती रहती है ।
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अन्यथा यानी ऐसा न मानकर अन्य प्रकारसे मानोगे अर्थात् यदि बौद्ध वासनाओंके नष्ट हो आनेपर वासनाओंके प्रकट हुए बिना भी पूर्व ज्ञानको कार्यकारी मानेगे तो पूर्व जन्मोंके धन, पुत्र, कलत्र आदि उत्पन्न हुए, मिथ्याज्ञान भी जीवन्मुक्त अवस्थामें अकेले मिथ्याज्ञानों को पैदा कर देवेगे किंतु बुद्ध आपने एक भी मिथ्याज्ञान नहीं माना है । यों अतिप्रसंग दोष बन बैठेगा ।
यदि आप बुद्धके पूर्वकालीन विवक्षा नामक कल्पनाओं की वासनाका उद्घोष होता मानोगे तब तो सुगतके विवक्षास्वरूप विकल्पज्ञानोंकी उत्पत्तिका प्रसंग आजावेगा । ऐसी दशा में सम्पूर्ण रूपसे कल्पनाओंका नाया हो जाना लुगसके कैसे सिद्ध हुआ ! | कथापि नहीं ।
स्यान्मर्त, " सुगतवाचो विवक्षापूर्विका वाक्त्वादसदादिवाग्वत् । सद्विवक्षा च बुद्धदशायां न सम्भवति, तत्सम्भवे बुद्धत्वविरोधात् । सामर्थ्यात् पूर्वकालभाविनी विवक्षाबाग्वृत्तिकारणं गोत्रस्खलनवदिति " |
पौद्धका मत यह भी रहे कि “ सुगतके वचन ( पक्ष ) बोलने की इच्छापूर्वक उत्पन्न हुए हैं ( साध्य ) क्योंकि वे वचन हैं । ( हेतु ) जैसे कि हम आदि लोगों के वचन इच्छापूर्वक ही उत्पन्न होते हैं (दृष्टांत ) इस अनुमानसे वचनोंका बोलनेकी इच्छा को कारणपना आवश्यक सिद्ध होता है किंतु बुद्ध अवस्थामे वचनोंका कारण इच्छारूप कल्पनाज्ञान सम्भव नहीं है ।
यदि उन कल्पना ज्ञानका सम्भवना जीवन्मुक्त अवस्था में भी माना जावे तो बुद्धपनेका विरोध आता है । बुद्ध निर्विकल्पक है और वचनोंके पहिले इच्छा मानना भी लप्त है। अतः कार्यकारणकी शक्ति के अनुसार पहिले कालमें होनेवाली विवक्षा बुद्धकी वचन प्रवृत्तिका कारण है। जैसे कि गोत्र वनमै प्रायः देखा जाता है। कभी कभी हम बोलना कुछ चाहते हैं और मुलसे अन्य दी
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तालाई मिसाल
शब्द निकल जाता है । रक्षित वाणीका बिना इच्छाके असमयमें च्युत होजाना इसको गोत्रस्खलन कहते हैं । देवदत्त शब्दके कहने की इच्छा होनेपर मुखसे जिनदत्त शब्द निकल गया । यहाँ पहिले कभी हुयी जिनदत्तके कहनेकी इच्छा इसका कारण मानी जाती है क्योंकि इस समय तो देवदत्त पोलनेकी इच्छा है जिनदत्त कहनेकी इच्छा नहीं है किन्तु जिनदत्त शब्द मुस्वसे निकल गया है। विना इच्छाके हमारे वचन हो नहीं सकते हैं । अतः दस दिन पूर्वकी इच्छा भी कारण हो सकती है । नष्ट हुए पदार्थ या भविष्यके गर्भमें पड़े हुए असत्यपदार्थोंको भी हम कारण मान लेते हैं। यहां तक सौगत कह चुके हैं अब आचार्य कहते हैं कि
तदयुक्तम् । गोत्रस्खलनस्य तत्कालविवक्षापूर्वकत्वातीतेः, तद्धि पद्मावतीतिवचनकाले वासवदत्तेतिवचनम् । न च वासवदचाविवक्षा तवचनहेतुरन्यदा च तदूचनमिति युक्तम् । प्रथमं पद्मावतीविवक्षा हि वत्सराजस्य जाता तदनन्तरमावात्यन्ताभ्यासववादासवदताविवक्षा तद्वचनं चेति सर्वजनप्रसिद्धम् । कथमन्यथान्यमनस्केन मया प्रस्तुतातिक्रमेणान्यदुक्तमिति संप्रत्ययः स्यात् । तथा च कथमतीतविवक्षापूर्वकल्वे सुगतवचनस्य गोत्रस्वलनमुदाहरणं येन विवक्षामन्तरेणैव सुगववाचोनप्रवर्तेरन् सुषुप्तवचोवत् प्रकारान्तरासमावात्।
उक्त प्रकार बौद्धोंका कहना युक्तियोंसे रहिस है कारण कि गोत्रस्खलनमें होनेवाली वचनप्रवृत्तिका उसी कालमै अव्यवहित पूर्व होनेवाली विवक्षाको कारणपना प्रतीत हो रहा है। उस गोत्रस्खलनका कथासरित्सागरमें उपाख्यान प्रसिद्ध ही हैं, चन्द्रवंशी वत्सराज नामक राजाके पद्मावती बोलते समय वासवदत्ता यह शब्द निकल गया था । बौद्धोंके कथनानुसार पूर्वकालकी वासवदता कहने की इच्छा वासवदत्ता शब्द बोलनेमे कारण होवे और वचनप्रवृत्ति पीछे होवे । इस तरह भिन्नकालीन पदार्थाका कार्यकारणभाव मानना युक्त नहीं है । यह बात सम्पूर्ण मनुष्योम प्रसिद्ध है कि वत्सराजके पद्मावती कहनेकी पहिले इच्छा हुयी उसके बाद शीघ्र ही अत्यन्त अभ्यासके बस कासवदत्ता कहनेकी इच्छा उत्पन्न हो गयी । उस समयकी इच्छासे ही वह वासवदत्ता शब्द कहा गया है। यदि ऐसा न मानकर अन्य प्रकारसे माना जावे सो लोगोंको यह अच्छा निर्णय कैसे हो जाता कि मेरा चित्त दूसरी तरफ रूम गया था इस कारण मैंने प्रस्तावप्राप्त प्रकृत विषयका अतिक्रमण करके दूसरी ही बात कह दी है । इससे सिद्ध होता है कि जो शब्द निकलते हैं। उनकी इच्छा शीन ही अव्यवहित पूर्वकालमें उत्पन्न हो चुकी है। तभी तो अनुल्यवसाय हुभा । ऐसा सिद्ध होनेपर सुगतकी वचनम्वृत्तिका भूतकालीन इच्छाको कारण माननेमें गोत्रस्खलनका उदाहरण केसे घटित हुआ ! यानी यह दृष्टांत ठीक नहीं है। जिससे कि विवक्षाके विना मी सुगतके वचन मवर्तित न हो सकेंगे अर्थात् सोते हुए पुरुषके वचन विना इच्छाके जैसे पैदा हो जाते हैं उसी प्रकार विना इच्छाके सुगतके वचन मी प्रवृत्त हो जाते हैं । यह मान लेना चाहिये । दूसरा कोई उपाय सम्ममता नहीं है। . .
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तत्त्वाचिन्तामणिः
नहि सुषुप्तस्य सुषुप्तदशायां विवक्षासंवेदनमस्ति तदभावप्रसंगात् ।।
सोता हुआ पुरुष कभी कभी अंटसंट बडबडाने लगता है। उस समय उसके बोलनेकी इच्छा नहीं है । यदि बोलनेकी इच्छा होती तो अवश्य उस इच्छाका ज्ञान होता । आत्माके सुख, दुःख, इच्छ, ज्ञान आदि परिणाम, संवेदनात्मक है। जैसे कि घट, प, आदिक होनपर भी उनके जाननेमे हम विलम्ब करलेते हैं या नहीं भी जानते हैं। उस प्रकार दुःखके जाननेमें आत्मा विलम्ब नहीं करता है अथवा नहीं जानना चाहे सो भी नहीं, दुःख उत्पन्न हो जाय और आत्मा यह विचारे कि हे दुःख ! तुम ठहर जाओ। हम तुमको घंटेभर बाद जानेंगे। यह अशक्य है । सुख दुःख आदिक उत्पन्न होते ही अपना ज्ञान करा देते हैं । इच्छा मी अपना शान करानेचाही पर्याय है । इच्छाके उत्पन्न होते ही उसका ज्ञान अवश्य हो जाता है किन्तु गादनिद्रासे सोते हुए मनुष्यके सोती हुयी अवस्थामै बोलनेकी इच्छाका ज्ञान नहीं है । इस कारण हम जानते हैं कि उस समय इच्छा नहीं ही है । यदि इच्छा होती तो उसका ज्ञान अवश्य हो जाता और इच्छाके ज्ञान होनेपर वह सुप्तावस्था नहीं बन सकेगी। इच्छाका वेदन करना जागती अवस्थाका काम है । सचेतन होते रहना और सोजानेका विरोध है।
पथादनुमानान्तरविवक्षासंबेदनमिति चेत्, न, लिंगाभावात् वचनादिलिंगमिति चेत्, सुषुप्तवचनादिजाँग्रवचनादिवा १ प्रथमपक्षे च्याप्स्यसिद्धिः, स्वतः परतो वा सुषुप्तवधनादेविवक्षापूर्वकत्वेन प्रतिपत्तुमक्तेः ।।
शथनके पीछे उठनेपर दूसरे अनुमानोंसे उस समयकी बोलनेकी इच्छाका अच्छा ज्ञान होना मानोगे, सो तो ठीक नहीं है क्योंकि सोते हुए जीवकी वचनप्रवृत्तिको अनुमानप्रमाणसे इच्छापूर्वकपना सिद्ध करनेवाला कोई अच्छा हेतु नहीं है।
यदि चौद्ध मन, वचन और शरीरकी चेष्टा आदिको इच्छा सिद्ध करनेके लिये हेतु मानेंगे तो हम पूंछते हैं कि " सोते हुए पुरुषके वचन आदिको हेतु मानोगे या जागते हुए पुरुषके वचन अथवा चेष्टाको हेतु स्वीकार करोगे" ? बताओ पहिला पक्ष स्वीकार करनेपर व्याप्तिकी सिद्धि नहीं है क्योंकि सोते हुए पुरुषके वचन आदिक सो विवक्षापूर्वक ही होते हैं । इस व्याप्तिको अपने आप अथवा दूसरेके द्वारा कोई समझ नहीं सकता है कारण कि सोता हुआ जीव उक्त व्याप्तिको कैसे प्रहण करेगा ? वह तो सो रहा है और जागता हुआ मनुष्य मी सोते हुए की वसन प्रकृतिका इच्छ पूर्वक होना कैसे जान सकता है ? वहतो व्याघात दोष है जिससे कि वह पीछेसे सोते हुए को कह देवे कि तुम्हारे सोते समय वचन इच्छापूर्वक निकले थे | यह तो वैसी ही विषम समस्या है कि जैसे कोई मनुष्य यह विचार करे कि मेरी मृत्यु के बाद घरकी व्यवस्था कैसी रहती है। इस पातको में अपनी जीवित अवस्थामै ही जान आऊं।
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जाद्वचनादिस्तु न सुषुप्तविवक्षापूर्वको दृष्ट इति तद्गमक एव सन्निवेशादिबज्जगत्कृतकत्वसाधने यादृशामभिनवकूपादीनां सन्निवेशादिधीमत्कारणकं दृष्टं तादृशामदृष्टधीमत्कारणानामपि जीर्णरूपादीनां तद्गमकं नान्यादृशां भूवरादीनामिति ब्रुवाणो ta जाग्रदादीनां विवचापूर्वकं वचनादि दृष्टं तादृशामेव देशान्तरादिवर्तिनां तचगमकं नाम्यायां सुषुप्तादीनामिति कथं न प्रतिपद्यते १ ।
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यदि दूसरा पक्ष लोगे कि " जागृत अवस्थाके वचन और चेष्टा से सोते हुए के वचन भी इच्छापूर्व सिद्ध कर लिये जावेंगे "। यह आप बौद्धोंका हेतु भी उस साध्यका गमक कैसे भी नहीं है क्योंकि क्या जागते हुए वचनादि गाढ सोते हुए पुरुषकी विवक्षापूर्वक देखे गये हैं! अर्थात् नहीं, अतः व्याप्ति नहीं बनी और आपका जागती हुयी अवस्थाका वचनरूप हेतु तो सोती हुयी दशाकी इच्छा सिद्ध करनेमें व्यधिकरण है । जैसे कि कोई कहे कि हवेली घौली ( सफेद ) है 1 क्योंकि कौवा काला है । यह अप्रशस्त है ।
यदि इसी प्रकार ऊटपटांग अनुमान बनाये जायेंगे तब तो सोते हुए पुरुषके इच्छा सिद्ध करने के समान नैयायिकों की ओरसे ईश्वरको जगत्का कर्तापन सिद्ध करने में दिये गये विशिष्ट सनिबेश, कार्यत्व और अचेतनोपादानत्व हेतु भी समीचीन होजायेंगे देखिये ।
नैयायिक कहते हैं कि जैसे नवीन कुएं, कोठी, किले आदिको देखकर पुराने महल, कुएं आदिका भी बुद्धिमान् कारीगरोंके द्वारा बनाया जाना सिद्ध कर लेते हो, उसी प्रकार पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, पहाड, बन, आदि सबका बनानेवाला भी ईश्वर है क्योंकि पृथ्वी आदि कार्य हैं तथा इनके उपादान कारण अचेतन परमाणु हैं । वे परमाणु किसी चेतन प्रयोक्ता के विना समुचित कार्य नहीं बना सकते हैं और सूर्य, शरीर आदि में चेतनके द्वारा की गयी विलक्षण रचना देखी जाती है । इस प्रकार नैयायिक माने गये उक्त तीन हेतुओंको आप बौद्ध गमक नहीं मानते हैं । प्रत्युत ( उल्टा ) जगत्के कर्तापनका आप इस प्रकार खण्डन करते हैं कि जिस प्रकारके नवीन कूप, गृह आदिका कार्यपना या रचनाविशेष इस असर्वश, शरीरी बुद्धिमानके द्वारा किया गया देखा है । उसी प्रकारके और नहीं दीख रहे है बुद्धिमान् कर्ता जिनके ऐसे पुराने कुएं, खण्डहर आदिकोंका भी रचनाविशेष हेतु शट उस बनानेवाले चेतन कर्ताकी सिद्धि करा सकता है किन्तु जीर्ण कुएं आदि से सर्वथा अन्य प्रकार के विसदृश शरीर, पर्वत, आदिके चेतन कर्ता को कैसे भी सिद्ध नहीं करा सकता है ?
उक्त प्रकार नैयाfasth खण्डनमें बोलता हुआ बौद्ध इस बातको क्यों नहीं समझता है कि जिस प्रकार जागते हुए, शास्त्र बांचते हुए या स्तोत्र पाठ करते हुए मनुष्योंके वचन आदि कार्य
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विवक्षापूर्वक देख्ने गये हैं । वे जागृतके वचन उसी प्रकारके देशान्तर कालान्तर आदिमें होनेवाले स्तोता, व्याख्याताओंके उन वचनोंको भी उस इच्छा पूर्वक सिद्ध कर सकते हैं किन्तु उनसे सर्वथा भिन्न होरहे नितान्त सोते हुए, मूच्छित पागल, अपस्मारी मनुष्योंके वचनोंको इच्छापूर्वक सिद्ध नहीं कर सकते हैं।
तथा प्रतिपनी च न सुगतस्य विवक्षापूर्विका वाग्वृत्तिः साक्षात्परम्परया वा शुद्धस्य विवक्षापायादन्यथातिप्रसंगात् ।
यदि इस प्रकार हमारे समझानेसे आप सोते हुए पुरुषों के वचनोंको इच्छाके विना भी उत्पन्न हुए स्वीकार करते हैं तो सुगतके वचनोंकी प्रवृत्ति भी न तो साक्षात् इच्छापूर्वक हुयी है और न पूर्वकालको इच्छारे परम्परा इच्छापूर्वक सुयी है ३६ करना पड़ेगा। आप यह मी तो समझिये कि शुद्ध बुद्ध भगवान्के बोलनेकी संकल्प विकल्परूप इच्छाएं कैसे उत्पन्न हो सकती हैं !। शुद्ध आत्मामे भी इच्छा मानी जावेगी तो मुक्तजीवके और आकाशके भी इच्छा होनेका प्रसंग आवेगा । जो कि आपको इष्ट नहीं है । यह अतिप्रसंग हुआ।
सान्निध्यमात्रतस्तस्य चिन्तारलोपमस्य चेत् । कुट्यादिभ्योपि वाचः स्युर्विनेयजनसम्मताः ॥ ९२ ।।
बौद्ध कहते हैं कि “ सुगतके वचन इच्छापूर्वक नहीं हैं, सुगतके केवल निकट रहनेसे ही बचन अपने आप बुल जाते हैं । जैसे कि चिंतामणि रत्नके समीप रहने मात्रसे रनकी इच्छा न होनेपर उसके सन्निघानमात्रसे मनुष्यको अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त हो जाती है " । आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध, ऐसा मानेंगे तो सुगतके पास रहनेसे झोंपड़ी, मिति, स्तम्भ आदिसे मी विनययुक्त शिष्यजनोंके उपयोगी सम्मानित वचन निकलने चाहिये ।
सत्यं न सुगतस्य वाचो विवक्षापूर्विकास्तत्सभिधानमात्रात् कुट्यादिभ्योऽपि यथातियत्तुरभिप्राय सदुद्भुतेश्चिन्तारनोपमत्वात्सुगतस्य, तदुक्तम् " चिन्तारत्नोपमानो जगति विजयते विश्वरूपोऽप्यरूपः" इति केचित् ।
इस कारिका भाष्य यों है कि सुगतके वचन, बोलनेकी इच्छापूर्वक नहीं है यह ठीक है। उस सुगत के विद्यमान रहने मात्रसे समझनेवाले शिष्यजनोंके अभिप्रायके अनुसार कुटी, मिति आदिसे भी वे वचन निकल पडते हैं। क्या हुआ ? क्योंकि सुगत भगवान् चिन्तामणि रत्नके सदृश है। चिंतामणि रन मांगनेवालोंके अभिप्रायानुसार केवल अपनी विद्यमानतासे ही दिमा इच्छाके छप्पर से भी अभीष्ट पदार्थों को निकाल देता है। वही हमारे प्रथामें लिखा है कि "वह बुद्ध
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तत्त्वार्थमितामणिः
चिंतामणि रलके समान होता हुआ जगतमें जयवंत है । सम्पूर्ण अनेक रूप होनेपर भी स्वयं रूपरहित है अर्थात् स्वयं इच्छारहित है किंतु संसारवर्ती प्राणियोंको उनकी इच्छानुसार शुभ फल देनेबाला है। ऐसा कोई बुढ्ढे बौद्ध कहते हैं ।
ते कथमीश्वरस्यापि सन्निधानाजगदुद्भवतीति प्रतिषेछ समर्थाः, सुगतेश्वरयोरनुषकारकत्यादिना सर्वथा विशेषाभावात् तथाहि
वे बौद्ध " ईश्वरके भी निकटमै विद्यमान रहने मात्रसे जगत् उत्पन्न हो जाता है।" इस प्रकार नैयायिकोंके सिद्धांतका खण्डन करनेके लिये कैस समर्थ हो सकते हैं ? बताओ सुगतके उदासीन रूपसे विद्यमान होनेपर उपदेश हो जाता है यह अन्वय ईश्वरके होनेपर जगत् उत्पन्न हो जाता है यहां भी विद्यमान है । सुगतका जगत्के प्राणियोंके साथ उपकृत-उपकारक मात्र नहीं है । वैसा ही नित्य कूटस्थ ईश्वरका भी जगतके साथ कोई उपकार्य-उपकारक भाव नहीं है क्योंकि प्राणियोंकी तरफसे आये हुए उपकारको सुगतसे भेद माननेपर या सुगतकी तरफसे गये हुए पाणियोंके ऊपर उपकारका भेद माननेपर अनवस्था दोष आता है । स्वस्वामि सम्बन्धकी विवक्षा भिन्न उपकारोंकी आकांक्षा बढ़ती जावे । और अभेद माननेपर सभी प्राणी सुगतके कार्य हुए जाते हैं । यही बात ईश्वरमै भी लागू होती है । अतः उपकारक न होकर बिना इच्छाके ही ईश्वर जगत्को बना देवेगा । यह मान लो, तथा सुगतके द्वारा उपदेशको देने में और ईश्वरके द्वारा जगत्की उत्पत्ति करनेमें आपके मंतव्यानुसार सभी प्रकारोंसे कोई अन्तर नहीं है। इसी बातको मसिद्ध कर दिखलाते हैं । सुनिये,
किमेवमीश्वरस्यापि सांनिध्याज्जगदुद्भवत् । निषिध्यते तदा चैव प्राणिनां भोगभूतये ॥ ९३ ॥
कण्ठ, ताल, व्यापार और इच्छाके बिना ही केवल सुगतकी निकटतामात्रसे ही वचन प्रवृत्ति मानोगे तब तो इसी प्रकार ईश्वरकी समीपतासे जगत् उत्पन्न हुआ क्यों न माना जावे ? देखिये 1 संसारवर्ती प्राणियों के पुण्य, पाप बिना फल दिये हुए नष्ट हो नहीं सकते हैं और पुण्य पापके नाश किये विना मोक्ष नहीं हो सकती है इस कारण भोग भुगवाने के लिये ईश्वर उस समय प्राणियोंके शरीर इंद्रियां, स्वामीपन, दरिद्रता आदिको बनाता है । नित्य ज्यापक ईश्वरके होनेपर कार्यसमुदाय होता रहता है इस अन्ययसे प्रसिद्ध होरहे ईश्वरका फिर आप निषेध क्यों करते हैं ? आपने सुगतको चिन्तामणि रत्नकी उपमा दी है किंतु ईश्वरवादियोंने कार्यकारणभावकी कुछ रक्षा करते हुए ये दृष्टांत दिये हैं कि जैसे हजारों गज लम्बे तंतुओंको एक चावल बरावर भकडी उत्पन्न कर देती है या एक रुपयाभरकी चंद्रकांवमणि चंद्रोदय होनेपर हजारों मन पानी निकाल
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सस्वाचिन्तामणिः चित्रायद्वैतवादे च दूरे सन्मार्गदेशना ।
प्रत्यक्षादिविरोधश्च भेदस्यैव प्रसिद्धितः ॥ ९८ ॥
चित्र विचित्र आकारवाले अकेले ज्ञानोंको ही माननेवाले चित्राद्वैतवादी हैं । एवं ग्राह्य, ग्राहक, कार्य, कारण आदि भावोंको रखते हुए क्षणिक ज्ञानोंको माननेवाले विशिष्टाद्वैतवादी हैं । तथा ग्राह्यग्राहकमाव आदिसे रहित होकर शुद्ध ज्ञानका ही प्रकाश माननेवाले. शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी हैं । ज्ञान, शेय आदि सबका लोप करनेवाले शून्यवादी हैं। इन चित्र आदिकके अद्वैतवादमै श्रेष्ठ मार्गका उपदेश देना तो लाखों कोस दूर है क्योंकि अद्वैतवादमे कौन उपदेशक है और कौन उपदेश, सुनने वाला है ! क्या शब्द है इत्यादि व्यवस्था नहीं बनती है। और प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रभागोंसे घट, पट, देवदत्त, जिनदत्त, इहलोक, परलोक, पुण्य, पाप, बंथ, मोक्ष आदि अनेक पदार्थ जब भेद रूपसे ही लोकमें प्रसिद्ध होकर प्रतीत होरहे हैं तब आपके अद्वैतवादका प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे ही विरोध आता है । भेदकी जगत्पसिद्ध प्रतीति होना प्रामाणिक है।
परमार्थतश्चित्राद्वैतं तावन्न संभवत्येष चित्रस्याद्वैतच्चविरोधात लदहिरर्थस्याप्य न्यथा नानकस्वसिद्धेः।
वास्तवमें विचारा जावे तो सबसे पहिले चित्रका अद्वैत ही नहीं बन सकता है असम्भव है। विधवाका विवाह होना जैसे असंगत है । उसी प्रकार नाना आकारके पदार्थाका एक अद्वैत नहीं होसकता है । जो नाना है वह अद्वैत नहीं, अद्वैतफा अनेकपनसे और चित्रपनेका अद्वैत होनेसे विरोध है । उसीके समान बहिरंग घट, पट, सह्य, विन्ध्य आदि भी द्वैतपदार्थ भिन्न भिन्न हैं। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकारसे मानोगे तो अनेक पदार्थ एकपनरूप सिद्ध होजायेंगे, अर्थात् स्वतन्त्र सत्तावाले एक एक होकर जीव, पुद्गल आदि अनेक पदार्थ है, जोकि प्रथमसे ही प्रसिद्ध हैं।
स्पान्मतं चित्राकाराप्'का बुद्धि चित्रविलक्षणत्वात् । शक्मविवेचनं हि पार्स चित्रमशपविवेचना स्वबुद्धीलाथाकारा इति । तदसत् ।
चित्राद्वैतवानियोंका यह भी मन्तव्य होसकता है कि अनेक आकारोंको धारण करनेवाली चित्रबुद्धि भी एक ही है क्योंकि बुद्धि के भिन्न भिन्न आकार तो चित्रपट, इन्द्रधनुष्य, तितली आदिके बहिरंग विचित्र आकारोंसे विलक्षण है । चित्रपट आदिके बहिरंग आकार नियमसे पृथक पृथक् किये जा सकते हैं किन्तु बुद्धिके अपने नील, पीत आदि आकार न्यारे न्यारे नहीं किये जासकते हैं। यहांतक बौद्ध कह चुके हैं। अब आचार्य कहते हैं कि यह चित्राद्वैतवादियोका कहना झंठ है प्रशंसनीय नहीं है। कारण कि
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स्वाचिन्तामणिः
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बाह्यद्रव्यस्य चित्रपर्यायात्मकस्याशक्यविवेचनत्वाविशेषाश्चित्रैकरूपतापतेः यथैव हि ज्ञानस्याकाशस्ततो विवेचयितुमशक्यास्तथा पुद्रलादेरपि रूपादयः ।
बहिरंग द्रव्योंमें मी अनेक रूप, रसके साथ तादात्म्य रखनेवाले चित्रपर्याय - स्वरूप पदार्थ हैं। जैसे कि पानी में धुले हुए काले, पीले, नीले रंगों का आकार भिन्न नहीं किया जाता है तथा ठण्डाई में दूध, मिश्री, काली मिर्च, बादाम के रसोंके आकारका भेदीकरण नहीं होता है, यों विवेचन नहीं कर सकना बहिरङ्ग, अन्तरङ्ग दोनों में समान है, इस कारण यहां भी चित्राद्वैत रूप से या चित्राद्वैतरससे एकपनका प्रसंग हो जायेगा | यह बौद्धोंके ऊपर आपादन है जैसे ही चित्रज्ञानके आकार ज्ञानसे भिन्न भिन्न रूप होकर नहीं जाने जाते हैं या न्यारे नहीं किये जा सकते हैं । उसी प्रकार पुद्गलद्रव्य के रूप, रस आदिक और आत्मद्रव्यके चेतना, सुख, उत्साह आदि भी पृथक् नहीं किये जा सकते हैं, कोई अन्तर नहीं है । एतावता क्या इनका चित्राद्वैत बन जायेगा ? किंतु नहीं ।
नानाtrait बा पद्मरागमणिरयं चन्द्रकान्तमणिश्वायमिति विवेचनं प्रतीतमेवेति चेत्, सर्हि नीलाद्याकारैकज्ञानेऽपि नीलाकारोऽयं पीताकारश्चायमिति विवेचनं किम प्रतीतम् ? !
यदि चित्राद्वैतवादी यों कहें कि बहिरंग पदार्थों में तो न्यारे न्यारे आकार जान लिये जाते हैं देखिये, नाना रंगकी मणियोंके एक स्थानमै विद्यमान ( मौजूद ) रहनेपर यह लाल लाल पद्मराग areer प्रकाश है और यह पीला पीला चन्द्रकान्तमणिका प्रतिभास है । तथा यह हरा हरा पलाका आभास है, इसी प्रकार ठण्डाईं पेय द्रव्यमे मिर्च अधिक हैं, मीठापन कम है आदि आकार पृथक् पृथक् प्रतिभासित हो ही जाते हैं। ऐसा कहनेपर तो हम जैन भी कहेंगे कि तब तो समूहालम्बन ज्ञानमें या नील, पीत आदि आकारवाले एक चित्रज्ञानमें भी यह नीलका आकार है। ज्ञानमें इतना मेश पीत आकारका है, ज्ञानमें इतनी हरितकी प्रमिति है, क्या यह पृथक् रूपसे विचार करना ज्ञानमें नहीं प्रतीत हुआ है ? अर्थात् चित्रज्ञानमें भी भिन्न भिन्न प्रतीति हो रही हैं ।
चित्रप्रतिभासकाले तन्न प्रतीयत एव पश्चात्तु नीलाद्या मासानि ज्ञानान्तराण्यवियोदयाद्विवेकेन प्रतीयन्त इति चेत्, तर्हि मणिराशिप्रतिभासकाले पद्मरागादिविवेचनं न प्रतीयत एव, पश्चात्तु वत्प्रतीतिरविद्योदद्यादिति शक्यं वक्तुम् ।
बौद्ध बोल रहे हैं कि नाना आकारवाले चित्रज्ञानके प्रतिमास करते समय वह पृथक् पृथक् आकारोंका विवेचन प्रतीत नहीं होरहा ही है, हां पीछे तो मिथ्या, वासनाओं से जन्य अविधा के उदय होनेपर नील, पीत, आविकको जाननेवाले दूसरे झूठे झूठे ज्ञान भिन्न भिन्न रूपसे उन आकारों को
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वाप-ताश
जानते हुये प्रतीत होरहे हैं। प्रमाणात्मक सन्चा ज्ञान तो अनेक आकारोंका अभिन्न रूपसे ही जानता है। आमा कहते हैं कि यदि आप बौद्ध ऐसा कहोगे तो माणिक, पन्ना, नील, हीरा आदि मणियोंका समुदाय रूपसे प्रतिभास करते समय यह पनराग मणीकी लाल प्रभा भिन्न है, यह नीली कान्ति न्यारी है आदि इस प्रकार भेदज्ञान नहीं प्रतीत होता है किन्तु यहां भी अनेक रूपोंकी संकीर्ण पर्यायों में पीछेसे अविधाके उदय होनेपर उस भेदविज्ञानको प्रतीत कर लिया जाता है। ऐसा हम भी कह सकते हैं। हम जैनोंका आपादन आपके ऊपर ठीक जम गया है।
मणिराशेर्देशभेदेन विभजनं विवेचन मिति चेत् भिन्मज्ञानसन्तानराशेः समम् ।
मणियोंकी राशिका तो भिन्न देशकी अपेक्षासे विभाग करनारूप विवेचन हो सकता है आप बौद्ध पदि ऐसा कहोगे सो भिन्न भिन्न देवदत्त, जिनदत्तके ज्ञानसन्सानसमुदायका मी देशभेदसे विभाग हो सकता है । दोनों समान है फिर आपका चित्राद्वैत कहां रहा ।
एकज्ञानाकारेषु तदभाव इति चेत् एकमण्याकारेष्वपि ।
पुनः भिन्न ज्ञानसंतान में देश. भेद भले ही हो जाय किंतु एक ज्ञानके आकाम तो मेव नहीं हुआ यदि आप यों कहेंगे तो हम भी कहते हैं कि अनेक मणियोंके संसर्ग होनेपर या सूर्य
और दीपकके निकट होनेपर अनेक पैलवाली एक मणिके परिणत हुए नाना आकार में भी पृथक भाव नहीं है । परस्पर सन्निधान होनेपर निमित्त नैमित्तिक भावसे एक मणिकी भी इंद्रधनुष के समान अनेक दीप्तियां हो आती हैं।
मप्पेरेकस्य खण्डने तदाकारेषु तदस्तीति चेत् । ज्ञानस्यैकस्य खण्डने समानम् ।
एक मणिके टुकड़े करनेपर उसके नाना आकार में यह भेदीकरण हो जाता है । यदि ऐसा कहोगे ता तो एक चित्रज्ञानके खण्ड करनेपर " यह नील आकार है" और यह पीत आकार है। यह भी भेद किया जा सकता है। मणिका दृष्टांत समान है ।
पराण्येव ज्ञानानि तत्खण्डने तथेति चेत् । पराग्येव मणिखण्डद्रव्याणि मविखण्डने तानीति समानम् ।
फिर भी यदि आप बौद्ध यों कहेंगे कि उस चित्रज्ञानका खण्ड करनेपर तो दूसरे दूसरे अनेक ज्ञान इस पकार वैसे उत्पन्न होगये हैं तो हम भी कहते हैं कि मणिके खण्ड करनेपर भी ये मिन्न मिन्न मणिद्रव्यके खण्ड दूसरे ही बन गये हैं । यों फिर भी समानता ही रही ।
नन्वे विचित्रज्ञानं विवेचयनर्थे पवतीति तदविवेचनमिति चेत्, सहि एकत्वपरिणतट्रध्याकाराने विवेचयमानाद्रध्याकारेषु पत्तीति तदविवेचनमस्तु, ततो यथैकक्षानाकाराणा
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सस्वाचिन्तामणिः
मशक्यविवेचनत्वं तथैकपुलादिद्रव्याकाराणामपीति ज्ञानवहालमपि चित्रं सिद्धयत्कर्थ प्रतिषेध्य येन चित्राद्वैत सिद्धयेत् ।
यहां चित्राद्वैतवादीका स्वपक्षके अवधारण पूर्वक कहना है कि इस प्रकार विचित्र आकारवाले एक ज्ञानका टुकडा किया जावेगा तो वह खण्ड करना ज्ञान के विषयमत अर्थों में पड़ता है। क्या घट, पट, पुस्तकको एकदम जाननेवाले समूहालम्बन ज्ञानके टुकडे हो सकते हैं ? यदि कोई आहार्य बुद्धिसे टुकडे करेगा भी तो समूहालम्बनके विषयोंपर वह भेद करना पडेगा । इस कारण चित्रज्ञानके आकारों में भी भेदकरण नहीं होता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि तब तो इस प्रकार माणिके अवयवोंसे एकत्वरूप बन्धनको प्राप्त होरहे मणिद्रव्यके आकारोंका भी विवेचन करना, उसी प्रकार मणिखण्डरूप नानाद्रव्योंके आकारों में पड़ेगा। इस कारण एक मणिके उन आकारोंका भेद करण नहीं हो सकता है। अतः मणिका भी विवेचन न होओ। इस कारण एक ज्ञानके आकारोंका जैसे भेद करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार एक पुद्गल या एक आत्मा आदि द्रव्यके रूप, रस आदिक या ज्ञान सुख आदि आकारोंका भी यों भेदकरण नहीं हो सकता है । तथा च अतरंग ज्ञानके चित्राद्वैतके समान बहिरंग रूपाद्वैत, रसाद्वैत, शहाद्वैत, भोजनाद्वैत आदि भी चित्र सिद्ध होजावेगे, एवं च सिद्ध होते होते अनेक अद्वैतोंके सिद्ध होने पर द्वैतवादका आप कैसे निषेध करोगे ? जिससे कि आपका चित्राद्वैत सिद्ध होजावे ।
न च सिद्धपि तस्मिन् मार्गोपदेशनास्ति, तत्त्वतो मोक्षतन्मार्गादेरभावात् ।
यदि चित्राद्वैत आपके मतानुसार सिद्ध भी मानलिया जाये तो भी मोक्षमार्गका उपदेश नहीं हो सकता है क्योंकि अद्वैतवादमै वास्तविक रूपसे मोक्ष और उस मोक्षका मार्ग तथा उपदेशक, उपवेश्व आदिका अभाव है।
संवेदनाद्वैसे तदभावोऽनेन निवेदितः ।
इस चित्राद्वैत पक्षमे मोक्ष और उसके मार्ग तथा उपदेशका निराकरण करनेसे शुद्ध ज्ञानादैतमें भी उस भोक्षमार्गके उपदेशका अभाव निवेदन करदिया है । शुद्ध ज्ञानाद्वैतवादी ज्ञानके ग्राह्याकार, ग्राहकाकार, नीलाकार, पीताकार आदि कोई भी अंश नहीं मानते हैं, “ विचिर पृथकभावे" धातुका अर्थ है न्यारा न्यारा करना और “ विचल विचारणे " का अर्थ विचार करना है, विशिष्टाद्वैतवादी ग्राह्य आकारोंका विचार करना अर्थ लेते हैं और शुद्धाद्वैतवादी पृथक् करना अर्थ प्रहण करते हैं, एवं अद्वैतवादमें मोक्ष और मोक्षमार्गकी व्यवस्था कथमपि नहीं बनती है।
प्रत्यक्षादिभिर्भेदप्रसिद्धः तद्विरुद्धं च चित्रायद्वैतमिति सुगतमतादन्य एवोपशमविर्भार्गः सिद्धः ततो न सुगपत्तत्प्रणेता ब्रह्मवत् ।
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तस्वाचिन्तामणिः
सपा प्रत्यक्ष, अनुमान, आदि प्रमाणोंसे घट, पट, देवदस, जिनदत, सह्य, विन्ध्य आदि भेद प्रसिद्ध हो रहे हैं, अतः आपका बह चित्राद्वैत और संवेदनाद्वैत आदिका प्रतिपादन प्रमाणोंसे विरुद्ध है । इस प्रकार सुगतमतसे मिन्न ही कोई दूसरा शान्तिविधानका उपाय सिद्ध हुआ । अर्थात अर्हन्तदेव ही सांसारिक दुःखोंकी शान्तिका मार्ग उपदिष्ट करते हैं । इस कारण अब तक सिद्ध हुआ कि बुद्ध उस मोक्षमार्गका प्रणयन करनेवाला नहीं है । जैसे कि ब्रह्माद्वैतवादियोंका सत्तारूप परब्रह्म मोक्षमार्गका उपदेष्टा नहीं है।
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च मोचकः । न बन्धोऽस्ति न वै मुक्तिरित्येषा परमार्थता ॥ ९९ ॥ न ब्रह्मनादिम सिद्धा निशाना तदररवयम् । नित्यसर्वगसैकामाप्रसिद्धेः परतोऽपि वा ॥ १० ॥
प्रमाद्वैतवादी भी तो यही कहते हैं कि न किसीका नाश है और न किसीकी उत्पत्ति है, न कोई जीव बन्धा हुआ है और न कोई दूसरा जीव मोक्ष प्राप्त कर रहा है। न पन्ध है और न मोक्ष । उक्त प्रकार भेदोंका निषेध करना ही वास्तविक पदार्थ है। इस प्रकार ब्रह्माद्वैतवादियोंके मतमें विज्ञानाद्वैतवादियोंके समान परमार्थपना नहीं बन सकता है क्योंकि वह नित्य, सर्वव्यापक, एक, सत्तारूप, परब्रह्म अपने आप तो स्वत: प्रसिद्ध नहीं है और न अद्वैतवादियोंके मतमे दूसरे अनुमान, हेतु आदि परपदार्थसे आत्माऽद्वैतकी प्रसिद्धि हो सकती है । क्योंकि वे आत्मासे अतिरिक्त दूसरा पदार्थ स्वीकार नहीं करते हैं ।
___ न हि नित्यादिरूपस्य ब्रह्मणः स्वतः सिद्धिः क्षणिकानंशसंवेदनवत्, नापि परसस्तस्यानिष्टेः अन्यथा द्वैतप्रसक्तेः।
न तो निस्य व्यापक एक ब्रह्मकी अपने आपही ज्ञाति हो सकती है, जैसे कि बौद्धोंके क्षणिक और अंशोंसे रहित ज्ञानाद्वैतकी अपने आप सिद्धि नहीं होपाती है । और दूसरोंसे भी ब्रह्म की ज्ञप्ति नहीं होती है। कारण कि ब्रह्मातिवादियोंके मतमें वह परपदार्थ इष्ट नहीं किया गया है, अन्यथा यानी अन्य प्रकारसे यदि दूसरे पदार्थको साधक मानोगे तो द्वैतवादका प्रसंग आजावेगा।
कल्पितादनुमानादेः तत्साधने न तात्विकी सिद्धिर्यतो निरोधोपनिषद्धमोचकरधमुक्तिरहितं प्रतिभासमात्रमास्थाय मार्गदेशना द्रोत्सारितेवेत्यनुमन्यते ।
यदि अद्वैतवादी थोड़ी देरके लिए अनुमान, हेतु और वेदवाक्यों आदिकी भिन्न स्वरूप कल्पना करके उस कल्पित अनुमान आदिसे उस प्रलाद्वैतकी सिद्धि करेंगे ऐसी दशामें तो नमकी
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वस्वार्थचिन्तामणिः
वास्तविक सिद्धि न हो सकेगी। कस्थित धूमस परमार्थ अमिकी सिद्धि नहीं होती है। जिससे कि उत्पाद, व्यय, बद्ध बन्धक, मोचक, बन्ध और मोक्षमे रहित हो रहे, केवल प्रतिभास सामान्यकी श्रद्धासे मोक्षमार्गके उपदेशोंका दूर फेंकना ही यो स्वीकार कर लिया जावे । अर्थात् बन्ध, मोक्ष आदिसे रहित केवल पतिमास चैतन्यकी वास्तविक सिद्धि होगवी होती तब तो द्वैतवादमें होनेवाले मोक्षमार्गके उपदेश देनेका भी दूर फैंक देना मान लिया जाता, किन्तु जब अद्वैत की सिद्धि ही नहीं हुयी तो द्वैतवादियोंके यहां मोक्षमार्गका उपदेश वास्तविक सिद्ध होजाता है ।
तदेवं सस्वार्थशासनारम्भेऽहंध स्याद्वादनायकः स्तुतियोग्योऽस्तदोषत्वात् । अस्तदोषोऽसौ सर्ववित्वात् । सर्वविदसी प्रमाणान्वितमोक्षमार्गप्रणायकत्वात् ।
इसलिये अबतकके उक्त प्रकरणसे इस प्रकार सिद्ध होता है कि तत्वार्थशास्त्रके आरम्ममें स्यावाद श्रुतज्ञान सिद्धांतका बनानेवाला पथपदर्शक, नायक श्रीअर्हन्तदेव ही स्तवन करने योग्य है, क्योंकि वह अज्ञान, रागद्वेष आदि भावदोषोंसे और ज्ञानावरण आदि द्रव्य दोषोंसे रहित है। जिनेंद्र देवने तपस्या नामक प्रयत्नसे इन दोषोंका विनाश कर दिया है। इस अनुमान दिये गये हेतुको सिद्ध करते हैं कि वह जिनेंद्र ( १क्ष ) देव दोषोंको नष्ट कर चुका है ( साध्य ) क्योंकि वह युगपत् सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है ( हेतु ) इस हेतुको भी पुष्ट करते हैं कि वह जिनेद्र देव सर्वज्ञ है (प्रतिज्ञा) क्योंकि वह प्रमाणोंसे युक्त मोक्षमार्गका प्रणयन करानेवाला है ( हेतु) उक्त तीनों अनुमानोंसे " मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्वानां वंदे तद्गुणलब्धये " इस श्लोकके तीनों विशेषण सिद्ध कर दिये हैं।
ये तु कपिलादयोऽसर्वशास्ते न प्रमाणान्वितमोक्षमार्गप्रणायकास्तत एयासर्वज्ञत्वाभास्तदोषा इति न परीक्षकजनस्तवनयोग्यास्तेषां सर्वथेहितहीनमार्गस्वान् सर्वथैकान्तवादिना मोक्षमार्गव्यवस्थानुपपत्चेरिस्युपसंहियते ।।
उक्त अनुमानों में व्यतिरेक दृष्टान्त दिखलाते हैं कि जो कपिल, बुद्ध, ईश्वर आदि तो सर्वज्ञ नहीं है, वे प्रमाण-प्रतिपादनपूर्वक मोक्षमार्गके पनानेवाले मी नहीं हैं। और उस ही कारणसे जब वे मोक्षमार्गके बनानेवाले नहीं है उससे अनुमित होता है कि चे सर्वज्ञ भी नहीं है। सर्वज्ञ न होनेसे वे दोषोंके ध्वंस करनेवाले भी नहीं हैं। इस कारण ' परीक्षाप्रधानी पुरुषोंके स्तुति करने योग्य नहीं हैं । समव्याप्तवाले साध्य हेतुओंको उलटा सीधा कर सकते हैं। उक्त तीनों अनुमानो में दिये गये हेतु ज्ञापक हेतु है। धूम अनिके समान उलटा कर देनेसे ये कारक हेतु बनजाते हैं। जैसे कि अमिका धूम ज्ञापक हेतु है। किन्तु घूमका अमि कारक हेतु है । वैसे ही वोपहितपनेका सर्वज्ञस्य ज्ञापक हेतु है, किन्तु सर्वज्ञत्वका दोषरहितपना कारक हेतु है। ऐसे ही अन्यत्र समझ
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तत्वार्थचिन्तामणिः
लेना | जब कि वे कपिलादिक अपने अभीष्ट मार्ग से सर्व प्रकार स्वयं च्युत होरहे हैं, क्यों कि सर्वथा क्षणिक, नित्य ज्ञानाद्वैत आदि एकान्तोंको प्रतिपादन करनेवालोंके मतमें मोक्षमार्ग की समीचीन व्यवस्था सिद्ध नहीं होती है। अतः इस प्रकरणका अब उपसंहार किया जाता है ।
ततः प्रमाणान्वितमोक्षमार्गप्रणायकः सर्वविदस्तदोषः । स्याद्वादभागेव नुतेरिहाहैः सोऽईन्परे नेहितहीनमार्गीः ॥ १०१ ॥
उस कारण से प्रमाणों के द्वारा निर्णीत हुए मोक्षमार्गका आद्य निर्माणकर्ता, सर्वज्ञ, दोषोंसे रहित और स्याद्वाद सिद्धान्तका धारी अधिपतेि वह श्री जिनेन्द्रदेव अर्हन्त ही विचारशील साधुओंको इस ग्रन्थ स्तवन करने योग्य है । दूसरे कपिल, सुगत आदिक तो अपने अभीष्ट मार्गसे अपने आप स्खलित हो रहे हैं । बुद्ध आदिके मलमे उनके मतानुसार ही संसारके दुःखोंसे मुक्त होनेका उपाय नहीं बनता है।
I
इति शास्त्रादौ स्तोतव्यविशेषसिद्धिः ।
इस प्रकार तत्त्वार्थशास्त्रकी आदि में कहेंगये मंगल छोकद्वारा स्तवन करने योग्य विशिष्ट अर्हत की सिद्धि कर दी है।
एक
·
इस प्रकार आचार्य महाराज के द्वारा प्रतिपादन की गयी दूसरी वार्त्तिकका इस एक सौ मी वार्त्तिकतक व्याख्यान करके संकोच किया गया है । अर्थात् सुगत आदि स्तुति करने योग्य नहीं हैं, किन्तु उनसे विशिष्टताको धारण करनेवाले श्रीअर्हन्त परमेष्ठी ही विद्वान् मुनीश्वरोंकी स्तुतिकों धारण करने योग्य हैं, जोकि द्वितीय वाचिकमें कहा गया था। पूर्वोक्त प्रकरणों में इसी बात को भासहित सिद्ध कर दिया है। उन्गस्वामी महाराजको " मोक्षमार्गस्य नेतारं " इत्यादि मंगलाचरण अभीष्ट है यह मी इससे ध्वनित होता है ।
स्वसंवेदनतः सिद्धः सदात्मा बाधवर्जितात् ।
तस्य क्ष्मादिविवर्तात्मन्यात्मन्यनुपपत्तितः ॥ १०२ ॥
अब तीसरी वार्तिक के अनुसार श्रेयोशले युक्त होनेवाले आत्माको साधते हैं सो सुनिये । जो ज्ञान सकल बाधकोंसे रहित है, वह प्रमाण है। प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका
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| प्रत्यक्ष दो भेद हैं। सांव्यवहारिक और मुख्य | वहां सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष प्रमाणका एक भेद स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी है । संसारी जीवोंका आत्मा तथा उसके ज्ञान आदि पर्यायें स्वसंवेदन प्रत्यक्षके विषय हैं । जब सर्दा बाघकोंसे रहित स्त्रसोइन प्रत्यके द्वारा आस्मा स्वयं सिद्ध होरहा है,
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तस्वाचिन्तामणिः
तप उस आरमाको पृथ्वी, अप, तेज, वायु इन चार भूसोंका परिणाम स्वरूप कहना चार्वाकोंका अनुचित है। क्योंकि यदि पृथ्वी आदि चार तत्त्वोंका परिणाम आत्माको माना जावेगा तो ऐस जड आत्मामें स्वसंवेदन प्रस्यक्ष बन नहीं सकता है । पृथिवी आदिकके पर्याय घटादिकोंका पहिरिन्द्रिय जन्य और बाहिरकी तरफ जाननेवाला प्रत्यक्ष होता है। अन्तरंग तत्वोंके उन्मुख होकर आत्म सम्बन्धी पदार्योंको जाननेवाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष पृथ्वी आदिके पने हुए जब आत्मा नहीं होसकेगा।
हित्यादिपरिणामविशेषश्चेतनात्मकः सकललोकप्रसिद्धमूर्तिरात्मा ततोऽन्यो न कश्चित् प्रमाणाभावादिति कस्य सर्वज्ञत्ववीतरागत्वे मोक्षो मोक्षमार्गप्रणेतृत्वं स्तुत्यता मोक्षमार्ग प्रतिपित्सा वा सिद्धयेत् । तदसिद्धौ च नादिसत्रप्रवर्तन श्रेय इति योप्याक्षिपति, सोऽपि न परीक्षकः स्वसंवेदनादात्मनः मिन्नत्वात् । बसंवेदन, भान्नमिनि नेत, न तस्य सर्वदा माधवर्जितस्वात् । प्रतिनियतदेशपुरुषकालवाधव जितेन विपरीतसंवेदनेन व्यभिचार इति म मन्तव्यम्, सर्वदेति विशेषणात् ।
न च क्ष्मादिविवर्तात्मके चैतन्यविशिष्टकायलक्षणे पुसि स्वसंवेदन संभवति, येन ततोर्थान्तरमात्मानं न प्रसाधयेत् ।
चार्वाकका मन्तव्य है कि गुह पानी, पिठी, महुआके प्रयोग द्वारा मिश्रण विशेष होनेपर जैसे उन्मत्तता पैदा करनेवाली मदिरा नवीन बन जाती है, उसी प्रकार पृथिवी, अम्, तेज, वायु, के उचित रूपमें मिलनेपर विवर्त होते होते चेतन स्वरूप आत्मा उत्पन्न हो जाता है । जैतन्य शक्तिसे युक्त मूर्तिवाला शरीर ही सम्पूर्ण संसारमें आत्मा प्रसिद्ध है। उस जीवित शरीरसे मिन्न कोई भी आत्मा नहीं हैं । शरीरसे निराले अमूर्त आत्माको जाननेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है । इस प्रकार जैनोंके द्वारा माना हुआ आत्म: कोई है ही नहीं, तो किसकी सर्वज्ञता और वीतरागता गुणों के उत्पन्न होनेपर मोक्ष मानते हो, और कौन मोक्षमार्गका प्रणेता है तथा कौन मुनीन्द्रों के द्वारा स्तवनीय है : अथवा किसके मोक्षमार्गको जाननेकी इच्छा बन सकती है ! अर्थात् आत्माकी असिद्धि होनेपर उक्त सर्वज्ञता आदि धर्म किसीके सिद्ध हो नहीं सकते हैं । जब धर्मी ही नहीं है तो उसके धर्म कहां और मोझ तथा मोक्षमार्गके जाननेकी बह इच्छा ही सिद्ध नहीं हुयी तो उमास्वामी महाराजका “ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । इस तत्त्वार्थ शास्त्रके पहिले सूत्रका प्रवर्तन करना भी योग्य नहीं है। इस प्रकार जो भी कोई आक्षेप करता है, यह बृहस्पति मतानुयायी चार्वाक मी तत्त्वोंकी परीक्षा करनेवाला नहीं है। क्योंकि शरीरसे अतिरिक्त आत्मा स्वसंवेदन-प्रत्यक्षसे सिद्ध होरहा है।
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सस्वाचिन्तामणिः
यदि चार्वाक यों कहे कि आत्माको अन्तरंग तत्त्वरूपसे वेवन करनेवाला आपका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भ्रान्त है, सो उसका यह कहना तो ठीक नहीं क्योंकि आत्माको जाननेवाला वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सर्वकालमें वाषा रहित है । बाधाओंसे रहित ज्ञान कभी भ्रान्त नहीं होता है।
चार्वाक हेतुमे दोष उठाता है कि दौडती हसी रेलगाड़ी में बैठे हुए पुरुषको दूर्वीं कांस या बाल रंसमे जलका ज्ञान हो जाता है और वहां कोई बाधक ज्ञान भी उत्पन्न नहीं होता है। एसावता क्या यह जलज्ञान प्रमाणीक हो जावेगा !
दूसरा व्यभिचार यह है कि किसी संभ्रान्त सीप, चांदीका ज्ञान होगया और मृत्यु पर्यंत प्रयोजन न होने के कारण उस व्यक्तिको जन्मभर कोई पायक ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ, इतनेसे ही क्या वह ज्ञान अभ्रान्त प्रमाण हो जावेगा !
सरा व्यभिचार यह है कि एक आततायी पुरुषको रस्सीम सर्पका ज्ञान होगया, उस समय उसको बाधक प्रमाण भी उत्पन्न नहीं हुआ, इतनेसे ही बह ज्ञान प्रत्यक्ष पमाण नहीं माना जाता है । इस कारण जैनोंके बापवर्जितपने हेगुका कोई एक विशेष देश और विशिष्ट पुरुष तमा नियतकाल सम्बन्धी बाधाओस रहित उक्त तीन भ्रांत ज्ञानोंसे व्यभिचार हुआ। ग्रंथकार कहते हैं कि
यह चार्वाकोंका अभिप्राय समीचीन नहीं है। क्योंकि हमारे मापवर्जित हेतु " सर्वदा । यह विशेषण लगा हुआ है। सम्पूर्ण पुरुषोंको, सम्पूर्ण देशोमै, तथा सम्पूर्ण कालोंमें , बाधाओंसे रहित जो ज्ञान है, वह अभ्रांत प्रमाण है । चावार्कके दिये गये तीन व्यभिचार किसी देशों, किसी पुरुषको, किसी कालमें भले ही बाधा रहित होवें, फितु सर्वकालमें बाधाओंसे शून्य नहीं है। बालू रेसमें जलका झान निकट पहुंचने पर भ्रांत सिद्ध हो जाता है । सीपमें उत्पन्न हुए चांदी के ज्ञानको अन्य परीक्षकजन बाधित कर देते हैं। रस्सी में सर्पका ज्ञान भी कालांतरमै सबाध सिद्ध हो जाता है अर्थात् जो सर्वदा बाधा रहित होगा, वह ज्ञान प्रमाणीक है । सर्वदा कहनेसे सर्वत्र सर्वस्य भी उपलक्षणसे आजाते हैं ।
यदि भूमि भादि पानी पृथ्वी, अप् , तेज, वायुका परिणाम स्वरूप और चैतन्य शक्ति युक्त इस दृश्यमान शरीरको ही आत्मा मानलिया जायेगा तो ऐसे शरीररूपी आत्मामें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना नहीं संभवता है । जिससे कि वह होता हुआ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष उस शरीरसे भिन्न आत्माको सिद्ध न कर सके, मावार्थ- स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा आत्मा शरीरसे भिन्न स्वयं सिद्ध हो जाता है।
स्वसंवेदनमसिद्धमित्यत्रोच्यते ।
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.. सत्त्वाचिन्तामणिः
यदि यहां प्रतिवादी चार्वाक यों कहे कि आमाका स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा जान लेना सिद्ध नहीं है । इस पर आचार्य उत्तर कहते हैं कि:
स्वसंवेदनमप्यस्य बहिःकरणवर्जनात् ।
अहंकारास्पदं स्पष्टमबाधमनुभूयते ॥ १०३ ॥ इस अन्तरंग आत्माका बहिरंग पांच इन्द्रियोंसे रहित, तथा “ में मैं " इस प्रकार की प्रतिति का स्थान, और बाधारहित, विशद रूपसे स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना भी अनुभवमें आरहा है। बाल, वृद्ध, पामर, बनिता आदि सभी जीव न्यारे आत्माका अनुभव कररहे हैं ।
न हीदं नीलमित्यादि प्रतिमासनं स्वसंवेदनं बाह्येन्द्रियजत्वादनहंकारास्पदत्वात् , न च तथाई सुखीति प्रतिभासनमिति स्पष्टं तदनुभूयते ।
यह कम्बल नीला है, यह पुष्प पीला है, इत्यादि ज्ञान आस्मा और आत्मीय तत्त्वोंके जानने वाले स्वसवेदन प्रत्यक्ष रूप नहीं है। क्योंकि नील, पीत भादिकके ज्ञान तो बहिरंग चक्षुराविक इन्द्रियोंसे जन्य है । बाह्य इन्द्रियोंसे जन्य है। तभी तो नील आदिके ज्ञान में मैं इत्याकारक अहं आकार ( अर्थविकल्प ) को करनेवाली बुद्धि के स्थान नहीं है । किन्तु मैं सुखी हूं, मैं ज्ञानवान् हूं, इस प्रकारके वे वेदन तो विशद रूपसे अनुभवमें आरहे हैं। ये ज्ञान बाह्येन्द्रियोंसे जन्य नहीं है तथा अई अहं इत्या कारक प्रतीतिके आधार भी हैं। अतः स्वसंवेदन रूप है, यह सिद्ध हुआ।
गौरोहमित्यवभासनमनेन प्रत्युक्त, करणापेक्षत्वादह गुल्मीत्यवभासनवत् ।
अहंपनेको अवलम्ब लेकर तो मैं गौरा है मैं स्थल है यह भी ज्ञान होता है । इस कारणसे मैं इस प्रतीतिका आधार शरीर मानना चाहिये । इस मकार चार्वाकका कहना भी, जो " बहिरंग इन्द्रियोंसे जो जन्य है, वह स्वसंवेदन नहीं है ।" इस पूर्वोक्त अनुमानसे ही खण्डित हो जाता है। क्योंकि बैसे कि मैं फोडेवाला हूं, मैं तिल्लीवाला हूं, मैं गूगडेवाला ई, यह ज्ञान बहिरंग इन्द्रियोंकी अपेक्षा होनेसे अहं बुद्धिका आधार होता हुआ भी स्वसंवेदन नहीं है, वैसे ही मैं गौरा हूं, मैं काला हूँ, मैं मोटा ई. से ज्ञान भी पर्शन, चक्षुरिन्द्रियों की अपेक्षा रखनेवाला होनेसे स्वसंवेदनरूप नहीं है । वस्तुतः विचारा जाय तो यहां शरीस्म शब्दकी प्रवृत्ति उपचारसे है । जैसे कि अस्यन्त मिय पुरुषको यह मेरी आंख है, ये. मैं ही हूं, यह कहना कल्पनामात्र है। शरीरमें आत्माका मोहअन्य प्रियपना है।
करणापेक्षं हीदं शरीरान्तःस्पर्शनेन्द्रियनिमित्तत्वात् । मुख्यहमित्यवभासनमिति तथास्तु तत एवेति चेत्, न, तस्याहंकारमात्राश्रयत्वात्, भ्रान्तं तदिति चेत्र, माधत्वात् ।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
किसी वातविकारसे शरीरमै आम, स्वरबूजा सरीखा उठा हुआ गूमडा बन जाता है । उसको गुल्म कहते हैं । मैं गुल्मवाला हूं, पतला हूं यह ज्ञान (पक्ष ) इन्द्रियों की अपेक्षा रखता है ( साध्य) क्योंकि हाथोंसे टटोलनेपर शरीरके भीतर रहनेवाली स्पर्शन इन्द्रियको कारण मानकर उत्पन्न हुआ है । यो दृष्टान्त हेतुको रस्वदिया है । तब तो व्याप्तिवाले साध्यको पक्षमै साघ देगा।
चार्वाक कहता है कि उस ही कारणसे " मैं सुखी हूं" यह ज्ञान भी उसी प्रकार इन्द्रियोंको निमित्त मानकर उत्पन्न होनेसे ही इन्द्रियोंकी अपेक्षा रखनेवाला मानलिया जावे, अन्धकार कहते हैं कि यह चावाकका कहना तो उचित नहीं है । क्योंकि मैं सुखी हूं ऐसा वह वेदन तो केवल अहं करानेवाली प्रतीतिको आश्रय मानकर उत्पन्न हुआ है । इसमें चक्षुरादिक इन्द्रियां और बहिरंग विषय कारण नहीं पडे हैं।
पुनः भी चार्वाक यो कहें कि " मैं सुखी हूं " वह ज्ञान तो भ्रांतिरूप ही है । यह भी उसका कथन ही ठीक नहीं हैं। कारण कि मैं सुखी हूं इस ज्ञानमें कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती है। बाधारहित ज्ञान प्रमाण ही होता है । भ्रम नहीं ।
नन्वहं सुखीति वेदनं करणापेक्षं वेदनत्वादहं गुल्मीत्यादिवेदनवदित्यनुमानपावस्य सद्भावात्सबाघमेवेति चेत्, किमिदमनुमान करणमात्रापेक्षवस्य साधक बहिःकरणापेक्षस्वस्य साधकं वा ? प्रथमपक्षे न तत्साधकं स्वसंवेदनस्यान्तकरणापेक्षस्येष्टत्वात् । द्वितीयपक्षे प्रतीतिविरोधः खतस्तस्य पहिःकरणापेक्षत्वाप्रतीतः ।
यहां बाधवर्जितपनको बिगाडनेकी इच्छासे अनुमान बनाकर चार्वाक बाघा उपस्थित करते है कि " मैं मुखी ई ". यह ज्ञान ( पक्ष ) इंद्रियों की अपेक्षासे उत्पन्न हुआ है (साध्य ) क्योंकि वह ज्ञान है, जैसे कि मैं गुल्मवाला ई, मैं काला हूं इत्यादि ज्ञान इंद्रियोंकी अपेक्षा रखते हैं। ( अन्वय दृष्टान्त ) इस अनुमानसे आप जैनोंके पूर्वोक्त अनुमानमें बाधा विद्यमान है। इस कारण अर्हतोका हेतु बाधित हेत्वाभास है। वह मैं सुखी हूं इस ज्ञानको अभ्रान्त सिद्ध नहीं कर सकता है। आचार्य कहते हैं कि यदि चार्वाक यह कहेंगे तो हम पूछते हैं कि आपका दिया हुआ यह अनुमान क्या इंद्रियमात्रकी अपेक्षा रखनेपनको सिद्ध करता है अथवा सर्शन अलिक बहिरंग इंद्रियोकी अपेक्षाको सिद्ध करता है ! बताओ।
यदि पहिला पक्ष लोगे तब तो यह अनुमान हमारे अनुमानके बाधक होनेका उद्देश्य रखकर अपने साध्यको सिद्ध नहीं कर सकता है। क्योंकि मनरूप अन्तरंग इन्द्रियकी अपेक्षा रखनेवाला स्वसदन प्रत्यक्ष है, यह हमने इष्ट किया है । सिद्धसाधन दोष तुमपर लगा। तथा यदि दूसरा पक्ष कोगे कि मैं सुखी है यह ज्ञान बहिर्भूतइन्द्रियों की अपेक्षा रखता है तो प्रतीतियों से विरोध होगा।
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होगा । कारण कि अपने आप ज्ञात होनेवाले उस स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के बहिरंग इन्द्रियोंकी अपेक्षा रखना प्रतीत नहीं होरहा है ।
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स्वरूपमा परामशित्वाचथा न स्वसंवेदन पहिःकरणापेक्ष स्वरूपमात्रपरामर्शित्वात्, यन तथा तन तथा नीलवेदनं स्वरूपमात्रपरामर्शि चाहं सुखी त्यावेदनमित्यनुमानादपि तस्य तथाभावा सिद्धेः ।
तथा "मैं सुखी हूँ" इत्याकारक ज्ञान उस प्रकार आत्मा और ज्ञानके स्वांशोंको ही अवलम्ब करता है। यहां यह अनुमान है कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ( पक्ष ) अपनी उत्पतिमें बहिरंग इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं करता है ( साध्य ) क्योंकि वह केवल अपने स्वरूपका ही विचार करनेवाला है ( हेतु ) यहां व्यतिरेकदृष्टांत है कि जो उस प्रकार साध्यवाला नहीं है अर्थात् पहिरंग इंद्रि योंकी अपेक्षा रखता है । वह जैसा अन्तस्तत्त्वको ही विषय करनेवाला होवे, यह नहीं है। जैसे कि नीळा, मीठेका, और ठण्डेका ज्ञान है । मैं सुखी हूं यह ज्ञानस्वरूप मात्रकी ही विशदज्ञप्ति करानेवाला है ( उपनय ) उस कारण बहिरङ इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं रखता है (निगमन) यहां परामर्शका अर्थ विचार करना रूप श्रुतज्ञान नहीं है किंतु विलक्षण क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ अतरंग आत्मीयतरत्रोंकी विशिष्ट क्षप्ति होना है। इस प्रकार अनुमानसे भी उस स्वसंवेदन को वैसा होना यानी इंद्रियोंकी अपेक्षा रखना सिद्ध नहीं होता है ।
स्वात्मनि क्रियाविरोधात् स्वरूपपरामर्शनमस्यासिद्धमिति चेत् ।
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चार्वाक कहते हैं कि किया अपने कर्ता या कर्ममें रहती है। जैसे कि देववच सोता है । यहां शमनक्रिया देवदर्शने रहती है। जिनदत्त भात पकाता है। यहां पचनक्रिया मासमें रहती है। अकर्मक सपना स्वयं शयनमें नहीं रहती है और सकर्मक पाकक्रिया अपने आप पाकमे नहीं ठहरती है अर्थात् पाखमें पाक नहीं होता है। शयन स्वयं नहीं सो जाता है। इस तरह जानना रूप किया स्वयं ज्ञानमें नहीं रह सकती है। स्त्रसंवेदन में ज्ञानका ज्ञान करके ज्ञान होना नहीं बनता है । अतः स्वास्मा क्रियाका विरोध हो जानेसे इस संवेदन प्रत्यक्षका अपने रूपमें ही विशि करना भसिद्ध है। ग्रंथकार करते हैं कि यदि चार्वाक यों कहेंगे तो सुनोः
तद्विलोपे न में किंचित्कस्यचिद्व्यवतिष्ठते । स्वसंवेदन मूलत्वात्स्वष्टतत्त्वव्यवस्थितेः ॥ १०४ ॥
उस अपने आपको जाननेवाले झानका लोप हो जानेपर किसी भी वादीका कोई भी सत्वस्थित न हो सकेगा। क्योंकि सर्ववादियों को अपने इष्टतत्वोंकी व्यवस्था करना स्वसंवेदन ज्ञान की नींवर अति होरहा है। अर्थात् परमकाशक ज्ञानके द्वारा ही अमीष्ट तत्वोंकी सिद्धि
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तस्वाचिन्तामणिः
हो सकती है । ज्ञानका स्वके द्वारा वेदन होना अनिवार्य है। दूसरा कोई उपाय नहीं है । अतः ज्ञानका स्वयं अपनेसे ही ज्ञप्ति होना न स्वीकार करनेपर कोई भी दर्शन सिद्ध नहीं हो सकता है । पदार्थों की व्यवस्था ज्ञानसे और ज्ञानकी अपने आप व्यवस्था होना न्याय है ।
पृथिव्यापस्तेजोवायुरिवि तत्वानि, सर्वमुपप्लवमात्रमिति वा स्वेष्टं तवं व्यवस्थापयन् स्वसंवेदनं स्वीकर्तुमहत्येव, अन्यथा तदसिद्धेः ।
चार्वाक के मतमे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु यों ये चार सत्त्व माने है तथा शून्ययादीके मतमे सम्पूर्ण पदार्थ केवल शून्यरूप असत् स्वीकार किये हैं। इस प्रकार अपने अभीष्ट तत्त्वोंको जो व्यवस्थापित कर रहा है वह वादी ज्ञानका अपने आप वेवन होना इस तत्वको भी स्वीकार करनेकी योग्यता रखता ही है। अन्यथा अर्थात्--
यदि झानका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना न मानोगे तो उक्त उस इष्ट तत्त्वकी सिद्धि नहीं होसकेगी, क्योंकि संसारमै एक ज्ञान ही पदार्थ ऐसा है, जो स्वयं समझने और दूसरेके समझाने में प्रधान कारण है । उस ज्ञानका सूर्यके समान स्वपरप्रतिमासन मानना अत्यावश्यक है । जग्वादी चार्वाको मतमे तथा शून्यवाद भी स्वसंवेदी भान अनन्यगतिसे स्वीकार करना पड़ेगा।
परपर्यनुयोगमात्र कुरुते न पुनस्तत्वं व्यवस्थापयतीति चेत्, व्याहतमिदं तस्यैवेष्टस्वात् ।
यहां चार्वाक कहता है कि भूतचदृष्टयवादी या शून्यवादी पण्डित वितण्डावादी बनकर दूसरे आस्तिस्यादियोंके ऊपर प्रश्नोंको उठाते हुए केवल दोषोंका आरोपण करते हैं, किन्तु फिर अपने किसी अभीष्ट तत्वको सिद्ध नहीं करते है। आचार्य महाराज कहते हैं कि चार्वाकोंके ऐसे कहने तो स्वयं व्याघातदोष है, जैसे कि कोई जोरसे चिल्लाकर कहे कि मैं चुप है यहां पदसो ज्याघात दोष है। वैसे ही चार्वाक अपने आप ही अपने वक्तव्य विषयका पात कर रहा है, अब कि जयका उद्देश्य लेकर परपक्षके खण्डन करने जो प्रवृत्त है, वही उसका इष्ट तत्त्व है, फिर वह चार्वाक या शून्यवादी कैसे कह सकता है कि मैं किसी तत्त्वकी व्यवस्था नहीं कर रहा हूँ।
परोपगमात् परपर्यनुयोगमात्रं कुरुते न तु स्वयामिष्टे, येन तदेव तावं व्यवस्थापित भवेदिति चेत्, स परोपगमो यधुपप्लुतस्तदा न ततः परपर्यनुयोगो युक्ता सोऽनुपप्लुतश्चेत्कथं न स्वयमिष्टः ।
शून्यबादी कहता है कि दूसरे जैन, नैयायिक आदि आस्तिक लोगोंके माने गये स्वसंवेदन, आत्मा आदि तत्त्वों में उनके स्वीकार करनेसे इम उनपर दोषोंका केवल उद्धापन करते हैं परंतु अपन माने हुए किसी विशेष सत्त्वमें ऊहापोह नही करते हैं। जिससे कि दूसरेका खण्डन करना वही हमारी तत्त्वव्यवस्था हुई बों मान लिया जाय । भावार्थ-इम अपनी गांठका कोई मी उत्त्व
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं मानते हैं । जैन, नैयायिकों के स्वीकार किये गये प्रमाण आदि पदार्थोंसे उन्हींके आत्मा, परलोक, ज्ञान, आदि तत्वोंका खण्डन करते हैं । हम चैतण्डिक हैं, बादी नहीं, वितण्डा करनेवाला केवल परपक्षका खंडन करता है । अपने पक्षकी सिद्धि नहीं, "स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा " ( गौतम सूत्र ) इस प्रकार शून्यशदीके इस मन्तव्यपर हम जैन पूंछते हैं कि वह दूसरोंका प्रमाण, आत्मा आदि तत्वोंका स्वीकार करना यदि आपके मतानुसार घोडेके सींग के समान अलीक शून्यरूप है, तब तो उन दूसरोंके प्रमाण आदिले उनके ऊपर आपका दोषारोपण करना उचित नहीं है। असत् वस्तु मे सत् या असतके ऊपर भषात नहीं होता है । इ-
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यदि दूसरों के स्वीकार करनेको आप ठीक ठीक, शून्यरहित, तथा प्रमाण सिद्ध वस्तु मानते हो तब तो आपको वह अपने आप इष्ट कैसे नहीं हुआ ? अर्थात् अन्योंका माना हुआ वस्तुभूत पदार्थ आपने भी इष्ट कर लिया ।
परोपगमान्तरादनुपप्लुतो न स्वयमिष्टत्वादिति चेत् । तदपि परोपगमान्तरमुपप्लुतं न स्थनिषूतः पर्यनुयोगः । सुदूरमपि गत्वा कस्यचित्स्वपामेष्टौ सिद्धमिष्टतन्त्र व्यवस्थापनं स्वसंविदितं प्रमाणमन्वाकर्षत्यन्यथा घटादेखि तद्बयवस्थापकत्वायोगात् ।
शून्यवाद कह रहा है कि दूसरे जैन, नैयायिक, आदिकों के प्रमाण आदि तत्वोंके स्वीकार करनेको अन्य मीमांसक आदिकोंने वस्तुभूत ठीक स्वीकार किया है। अतः हम शून्यवादी भी उसको स्वीकार कर लेते है किंतु दमको वह स्वयं घरमें इष्ट नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम पूछते हैं कि वह आस्तिकोंके प्रमाण प्रमेय आदिको स्वीकार करनेवाले दूसरोंके मन्स आपने शून्यरूप माने हैं! या वस्तुभूत ठीक माने हैं ! बसाओ। इन दोनों पक्षों में दोषारोपण न कर सकना, और स्वयं इष्टतत्त्वकी सिद्धि होना ये दोनों दोष आयेंगे। इन दोषोंके वारण करनेके लिये आप फिर तीसरे चौथे वादियोंके मन्तव्योंकी शरण पकडेंगे, वहां भी हमसे ये ही पूर्वोक्त दो पक्ष उठाये जायेंगे और उक्त दोनों दोष आपके ऊपर संक्रम होते चले जावेंगे । " तुम डार बार हम पात पात " इस लोकरूढिके अनुसार हमारा कटाक्ष करना रुक नहीं सकेगा । बहुत दूर भी आकर " अन्धसर्पके मिलप्रवेश " न्याय से यदि आप किसी एक वस्तुभूत तत्वकी सिद्धि स्वयं होना इष्ट करेंगे तो आप शून्यवादीको अभीष्ट तत्त्वकी व्यवस्थापना करना सिद्ध हुआ । उस अभीष्ट तत्त्वमे सबसे प्रथम और प्रधान स्वको जाननेवाला स्वसंवेदन प्रमाणज्ञान ही पीछे लगे er आकर्षित होता है अन्यथा यानी यदि प्रमाणको स्वसंवेदी नहीं माना जायेगा तो जड हो रहे घट, पट अदिकसे जैसे तस्यव्यवस्था नहीं हो सकती है वैसे ही उस जड ज्ञानसे भी किसी तकी व्यवस्था न हो सकेगी ! जगत्का कोई भी तत्व निर्णीत न हो पावेगा ।
न हि स्वयमसंविदितं वेदनं परोपगमेनापि विषयपरिच्छेदकम्, वंदनान्तरविदिसं दिष्टसिद्धिनिबन्धनमिति चेन्न, अनवस्थानात्, तथाहि---
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सत्ता चिन्तामणिः
जो ज्ञान अपने आप अपने को नहीं जानता है, वह दूसरे वादियों के स्वीकार करने मात्रसे मी इष्ट तत्त्वोंका ज्ञापक नहीं होता है।
यदि नैयायिकोंके सदृश माप चार्वाक यों कहेंगे कि प्रकृत ज्ञान दूसरेसे और दूसरा ज्ञान तीसरे ज्ञानसे संविदित होता हुआ यों वह इष्ट तत्त्वकी चतिका साधक हो जावेगा, आपका यह कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि शानका स्वयंसे वेदन न मान कर दूसरे सीसरे चौक शानोंसे ज्ञप्ति माननेमै अनवखा दोष आता है । स्वयं अन्धेरेमें पड़ा हुआ ज्ञान अपने विषयोंका प्रकाशक नहीं हो सकता है । इसी बातको प्रसिद्ध कर दिखलाते हैं।
संवेदनान्तरणेव विदिताबेदनाथदि खेष्टसिद्धिरुपेयेत तदा स्यादनवस्थितिः ॥ १०५ ॥ प्राच्यं हि वेदनं तावन्नार्थ वेदयते ध्रुवम् । यावन्नान्येन बोधेन बुद्धव्यं सोऽप्येवमेव तु ॥ १० ॥ नार्थस्य दर्शनं सिद्धयेत् प्रत्यक्षं सुरमन्त्रिणः ।
तथा सति कृतश्च स्यान्मतान्तरसमाश्रयः ॥ १०७ ॥
यवि विवक्षिस ज्ञानका तीसरे ज्ञानसे जान लिये गये ही दूसरे शानद्वारा ज्ञान हो जानेपर उससे अपने इष्ट तस्वकी शप्ति होना स्वीकार करोगे तो भूलका क्षय करनेवाला अनवस्था दोष हो जावेगा; जब तक पहिला ज्ञान दूसरेने और दूसरा तीसरेसे तथा तीसरा चौबेसे इसी मकार आगेके भी शान उतरवर्ती ज्ञानोंसे ज्ञात न होंगे तब तक अपकाशित ज्ञान प्रकृत विषयोंका प्रकाशन नहीं कर सकेंगे। देखिये पहिला ज्ञान तब तक निश्चित रूपसे अर्थकी शशि कथमपि नहीं कर सकता है, जब तक कि वह दूसरे छानसे स्वयं विदित न हो जाय । इसीपकार आगेके वे शान भी भविष्य दूमरे ज्ञानोंसे ज्ञात होकर ही विषयके ज्ञापक हो सकते हैं । इसपकार तो अनवसा हो आनेसे बृहस्पति ऋषिके अनुयायी चावीकके मतम माना गया पृथ्वी आदि पदार्थोंको देखनेवाला अकेला प्रत्यक्ष प्रमाण भी सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह मत्यक्ष स्वयं अपनेको जानता नहीं है मौर प्रत्यक्षको जाननेवाला दूसरा ज्ञान चार्वाकने इष्ट नहीं किया है । जो ज्ञान स्वयं जाना नहीं गया. है वह दूसरोंका शापक नहीं होता है। यदि वैसा होनेपर दूसरे ज्ञानोंसे पहिले ज्ञानको ज्ञात मानोगे तो आपको नैयायिकके मतका बदिया सहारा लेना पड़ा।
अर्थदर्शन प्रत्यक्षमिति बृहस्पतिमत परित्यज्यैकार्थसमवेतानन्तरज्ञानवेयमर्पज्ञानमिति हृवाणः कथं चार्वाको नाम ।
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तस्याचिन्ताममिः
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इस पंचमकालमै चावीक मतके सबसे आदिमें पचपदर्शक बृहस्पति नामके ऋषि हुए हैं। उनका यह मत है कि पट, पट, रूप, रस, आदिक पदार्थों का बहिरंग इन्द्रियोंसे जानलेना प्रत्यक्ष है, प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है । बहिरंग इन्द्रियोंसे अमाहा आस्मा, इच्छा, आदि तत्वोंको चार्वाक स्वीकार नहीं करते हैं । अतः इनका ज्ञान होना भी वे नहीं मानते हैं। इस अपने मतको छोड़कर चार्वाक यदि ज्ञानकी भी दूसरे ज्ञानसे ज्ञप्ति मानेगे तो नैयायिककर मत अंगीकृत करना पडेगा, नयायिक ही क्ट को जाननेवाले ज्ञानका उसी एक भामा पदार्थमें समवायसंबन्धसे उत्पन्न हुए अव्यवहित उत्तरवर्ती दूसरे ज्ञानके द्वारा वेदन होना मानते हैं। ज्ञानका प्रत्यक्ष होना बृहस्पति मतानुयायी मानते नहीं हैं, तभी तो अर्थरूप विषयोंके दर्शनको प्रत्यक्ष कहा है।
जानकी उसी आत्मामें पैदा हुए दूसरे ज्ञानसे जति मानेंगे तो चार्वाकको अपसिद्धान्त दोष लगेगा । बहिरंग अधोंका ही प्रत्यक्ष करना रूप चार्वाकपन भला कैसे सिर रहेगा: फिर सो वह नैयायिक बन जायेगा। उक्त रीतिसे नैयायिकके प्रतको कहनेवालेको किस प्रकार चार्वाक कहा जाय !
परोपगमाचथावचनमिति चेन । स्वसंविदिवज्ञानवादिनः परस्वाद । ततो मतान्तरसमाश्रयस्य दुर्निवारत्वात् । न च तदुपपममननस्थानात् ।
दूसरे, नैयायिक, जैन, बौद्ध, लोग ज्ञानको ज्ञप्ति होना स्वीकार करते हैं, इससे हम चार्वाक भी इसी प्रकार कह देते हैं, यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि आपके विचारोंसे शानका अपने आप ही वेवन हुआ माननेवाला जैनवादी ही यहां दूसरा है। फिर मी आपको नैयायिक नहीं सही दूसरे जैन मतका ही पदिया आश्रम लेना अनिवार्य हुआ। किन्तु वह दूसरेका तीसरेसे और तीसरे ज्ञानका चौथे ज्ञानसे ज्ञापन मानते हुये पूर्वमें नैयाबिकका सहारा ना सो आपका युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि एक शानका दूसरेसे और दूसरेका तीसरेसे तथा तीसरेका चौयेसे कान होते होते मनवस्सा हो जावेगी।
___ इति सिदं स्वसंवेदनं बाधवर्जितं सुख्यहमित्यादिकायातवान्तरणयात्मनो मेर्द साधयतीति किं नचिन्तया ।
इस प्रकार अबतक सिद्ध हुमा कि " में सुखी हूं, में ज्ञानी ई. में इस प्रकारके उल्लेखको धारण करनेवाले बाघारहित स्वसंवेदन मत्यक्ष ही शरीरसे भिन्न तत्त्वरूप करके आत्माका यों भेद सिद्ध कर रहे हैं। फिर हम अधिक चिन्ता क्यों करें : जिसका पत्यक्ष सहायक है, उसमें मी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है तो फिर दूसरे प्रमाणके ढूंढनेकी क्या आवश्यकता है । इस प्रकार यहां तक एक सौ दोमी वार्तिकका उपसंहार किया है।
विभिन्नलक्षणत्वाञ्च भेदश्चैतन्यदेहयोः । तत्त्वान्तरतया तोयतेजोवदिति मीयते ॥ १९८ ॥ ..
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तत्वार्थचिन्तामणिः
चार्वाके प्रति और भी कहते हैं कि देह और चैतन्यका भिन्न भिन्न विशेष लक्षण होने से मिन तत्त्व होकर पृथक् भाय हैं। जैसे कि आप बार्वाक मतमें जल और अभितत्त्व निराले माने गये हैं । इस प्रकार अनुमान से भी शरीर से भिन्न आश्मा सिद्ध होता है ।
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चैतन्यदेह सच्चान्तरत्वेन मिश्र मिश्रलक्षणत्वात् तोयतेजोवत् । इत्यत्र नासिदो हेतुः स्वसंवेदनलक्षणत्वाच्चैतन्यस्य, काठिन्यलक्षणत्वात् खित्यादिपरिणामात्मनो देहख, वयोर्मिनलक्षणत्वस्य सिद्धेः ।
ज्ञान और शरीर ( पक्ष ) अलग अलग पदार्थ होते हुए भिन्न हैं ( साध्य ) क्योंकि उन दोनोंका लक्षण व्यारा न्यारा है ( हेतु ) जैसे कि ठण्डा और गर्म स्पर्शवाले जछ और तेजस्तत्त्व आपने न्यारे माने हैं (अन्वय हृष्टांत ) यों इस अनुमानमें भिन्नलक्षणपना हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि पक्ष हेतु ठहरता है । क्योंकि चैतन्यका स्वके द्वारा स्वको जान लेना लक्षण है और पृथ्वी, जल, तेज, वायुका समुदित पर्याय रूप शरीरके कठिनपना, भारीपन, काला गोरापन आदि लक्षण हैं । इस कारण उन शरीर और चैतन्यका भिन्न भिन्न लक्षण युक्तपना सिद्ध है। हम जैनोंका हेतु निर्दोष है। परिणामपरिणामभावेन भेदसाधने सिद्धसाधनमिष पचान्यस्वमेति सा
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देवचैतन्ययोः तत्त्वान्तरतया भेदसाधनमस्ति विशेषणात् ।
यदि चार्वाक यहां यों कहें कि शरीर परिणामी है और शरीरका परिणाम चैतन्य है । जैन लोग परिणाम और परिणामी रूपसे शरीर और शानका यदि उक्त अनुमानद्वारा भेव सिद्ध करते हैं तो आपने हमारे सिद्ध किए हुए पदार्थका ही साजन किया है । अतः जैनोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष लगा। आचार्य कहते हैं कि यह चार्वाकका कहना युक्तियोंसे रहित है, क्योंकि हमने तस्वान्तररूपसे य साध्य के पेटमै भिनत होकर ऐसा भेदका विशेषण दिया है अर्थात् देह और सम्म का भिन्नपदार्थ रूपसे भेद सिद्ध करना इसको अभीष्ट है । परिणामी भावसे नहीं ।
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टपटायां भिमलक्षणाभ्यां तवान्तरत्वेन भेदरहिताभ्यामनेकान्त इति चेत्र । यत्र परेषां भिनलक्षणत्वासिद्धेरन्यया चत्वार्येव तस्वानीति व्यवस्थानुपपत्तेः ।
अनुमानमै चार्वाक यभिचार देता है कि मोटा बडा पेट, छोटी शंखकीसी श्रीवा तथा जलधारण कर सकना मे घडे के लक्षण हैं और आतान वितानरूप तन्तुवाला तथा शीतबाधाको दूर कर सकना ये कपडा के लक्षण हैं। यहां पट और पटमै मिलक्षणपना हेतु विद्यमान है । किंतु तत्त्वान्तररूपसे भेदस्वरूप साध्य यहां नहीं है ये सब पृथ्वीतत्त्व के त्रिवर्त हैं । ग्रंथकार कहते हैं किइस प्रकार हमारे देतुमें व्यभिचारदोष देना तो ठीक नहीं है। क्योंकि दूसरे चार्वाक लोगों के मसानुसार भी मिन्न लक्षणपना हेतु घट और पटमै सिद्ध नहीं है।
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तस्वाचिन्तामणिः
मन्यथा यानी यदि भिन्न लक्षणपना घट, पट आदिक में मी माना जावेगा सो पृथ्वी, अम्, तेज, वायु ये चारही तत्त्व है यह व्यवस्था नहीं बन सकेगी। पर, पट, पुस्तक, गृह मुकुट, शकट आदि अनेक तत्त्व स्वीकार करने पड़ेंगे।
कुटपटादीनां मिमलक्षणत्वेऽपि तत्त्वान्तराभावे क्षित्यादीनामपि तत्त्वान्तराभावाद ।
जब कि घट, पट आदिकोंका मिक लक्षण होते हुए भी यदि आप मिलतत्तपना न मानोगे तो पृथ्वी, जल, तेज, वायुको मी न्यारा म्यास तल नहीं मानना चाहिये । नोके ऊपर स्यभिचार पुष्ट करते हुए पाकिको अपने पार तत्वोंको भी एक पुद्गल तत्त्वरूप माननेके लिये बाध्य होना पड़ेगा।
धारणादिलक्षणसामान्यभेदापा तत्वान्तरत्वं न लक्षणविशेषभेदायेन घटपटादीनां तस्प्रसंग इति चेत्, हिं स्वसंविदिसत्वेवरत्वलक्षणमामान्यभेदानन्ययोजनान्तरलसाधनात् कर्थ कुटपटाभ्यां तस्य व्यभिचारः । स्यावादिना पुनर्विशेषलक्षणभेदाढ़ेदसाधनेऽपि न साभ्यामनेकान्तः, कपञ्चित्तवान्तरतया तयोर्भदोपगमात् ।
यदि चार्वाक यों कहे कि पृथ्वीका सामान्य लक्षण पदायाँको धारण करना है आदि यानी जलका लक्षण द्रवरूप बहना है, भमिका लक्षण उष्णता है और वायुका सामान्य लक्षण गमन, कम्पन, रूप ईरण करना है। सामान्यलक्षणोंके भेदसे वे तत्त्व भिन्न माने जाते हैं। किंतु विशेष लक्षगोसे तत्त्वों में भेद नहीं होता है जिससे कि घटपट आदि करके उस व्यभिचार दोषका प्रसङ्ग होवे विशेष लक्षणवाले तो एक तत्त्वके व्याप्य है । अतः घट, पट, पुस्तक आदिक एक पृथ्वी तत्त्वके परिणाम है। इस विशेषकक्षण के भेद होनेसे घट, पट आदिकोंको मिन्न तत्व होनेका पसंग नहीं है। इस प्रकार पाक्किी सामान्य लक्षणोंके भेदसे मिन्न तत्वोंकी व्यवस्था होनेपर तब तो इम जैन भी कहते हैं कि शरीर और चैतन्यमें मी सामान्यरूपसे लक्षणोंका भेद है । चेतना स्वसंवेदन रूप है स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जानी जाचुकी हैं। और न्यारा शरीर इससे सर्वथा मिल पहिरिन्द्रियोंसे माहा है । इस प्रकार हमने पूर्वोक्त अनुमानसे सामान्यलक्षणोंके भेदरूप हेतु शरीर और पैतन्यका भिन्न तत्व होकर भेद सिद्ध किया है फिर चार्वाक लोग हमारे अनुमानमें उस विशेषलक्षणके भेदद्वारा हेतु और घट, पटसे कैसे व्यभिचार उठा सकते हैं । अर्थात् कथमपि नहीं।
दूसरी बात यह है कि विशेष लक्षणों के भेदसे भी भेदसाधन करनेमें स्याद्वादियों के यहां तो उन पर, पटसे व्यभिचार नहीं है। क्योंकि शरीर और चतन्यके समान घट सभा एटमें मी कश्चित् तत्स्वान्तर रूपसे हम मेदको स्वीकार करते हैं। अन्तर इतना ही है कि शहर और भामा इम्बलपसे भेद है और घट, पट में भावरूपो भेद है।
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तवाचिन्तामणिः
सुश्वादिसामान्यलक्षणमेदे हेतुरसिद्ध इति चेन्न कथमन्यथा क्षिस्यादिभेदसाधनेऽपि सोऽसिद्धो न भवेत् ? असाधारणलक्षणमेदस्य हेतुत्वाचैवमिति चेत्, समानमन्यत्र, सर्वथा विशेषाभावात् ।
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चाक हमारे हेतुमें असिद्ध नामका दोष उठाते हैं कि सत्पना या प्रमेयपना आदि यह देह और चैतन्यका साधारण रूपसे रहनेवाला सामान्य लक्षण है । देह, या चैतन्यरूप पक्ष सत्त्व आदि रूप सामान्य लक्षणोंका भेदरूप हेतु नहीं विद्यमान है ! इस कारण जैनोंका हेतु पक्षमें न रहनेसे असिद्ध है। मंथकार कहते हैं कि यह स्वरूपासिद्ध हेत्वामास उठाना तो ठीक नहीं है। अन्यभा सत्त्व, शेयत्व आदि सामान्य लक्षण तो पृथ्वी जल आदिकमें भी पाये जाते हैं। उनको तत्वान्सर सिद्ध करते समय आपका वह सामान्यसे लक्षणभेद हेतु भी असिद्ध हेत्वाभास क्यों नहीं होगा! | पताओ ।
यदि आप असिद्ध दोष न होवे इस कारण पृथ्वी आदिकमे भेद सिद्ध करनेके लिये विशेष लक्षणोंका भेद इस प्रकार हेतु दवेंगे तो दूसरी जगह भी यही बात समान रूपसे छागू होगी । अर्थात् हम भी वेद और चैतन्यके निराले तत्त्वरूप से भेदको सिद्ध करनेके लिये विशेष विशेष कक्षणोंके मेदको हेतु मनायेंगे। सभी प्रकारसे हमारे और आपके तत्त्वमेद सिद्ध करने में कोई अन्तर नहीं है। न्याय समान होता है। पक्षपात करना ठीक नहीं है। स्वाद्वावसिद्धान्त सामान्य लक्षण और विशेष लक्षण इन दोनोंसे देह और चैतन्यकी द्रव्यपस्यासचि नहीं है अर्थात् दोनों मिल द्रव्य हैं। अथवा जीव और पुत्रद्रव्यकी पर्याय हैं 1 भिन्नप्रमाणवेद्यत्वादित्यप्येतेन वर्णितम् । साधितं वहिरन्तश्च प्रत्यक्षस्य विभेदतः ॥
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इस उक्त कमनके द्वारा यह भी वर्णन कर दिया गया है कि देह और चैतन्य भिन्न हैं क्योंकि वे दोनों भिम प्रमाणों से जाने जाते हैं। बहिरंग इन्द्रियोंसे जन्य मरक्षके द्वारा शरीर जाना
उपयोगस्वरूप चैतन्य जाना जाता है । अनुमानद्वारा भेद सिद्ध कर दिया
जाता है और उससे भिनं अन्तरंग स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे इन भिक्ष मिन दोनों प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे देह और चैतन्यमें गया है, यो प्रत्यक्ष विशेष मेदोंसे यह साधा गया है। अतः यह हेतु पुष्ट होगया है ।
बहिरन्तर्मुखाकारयोरिन्द्रियजस्वसंवेदनयोर्भेदेन प्रसिद्ध सिद्धमिदं साधनं वर्णनीयं देहचैतन्ये भने भित्रप्रमाणवेद्यत्वादिति, करणजज्ञानवेद्यो हि देहः स्वसंवेदनवेयं चैतन्यं प्रतीतमिति सिद्धं साधनम् ।
बहिरंग पदार्थों का उल्लेल करके वाहिरकी तरफ झुके हुए इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष है और मलरंग पदार्थों का उल्लेख कर भीतरी तत्वोंको लक्ष्य कर जाननेवाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है । इन दोनों
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प्रस्पक्षोंके मिनरूपसे प्रसिद्ध होनेपर, यह हेतु भी यो सिम हुआ कहना चाहिम, जय शिवह
और चैतन्य भिन्न है। क्योंकि वे दोनों भिन्न प्रमाणोंसे जाननेयोग्य हैं। स्पर्शन इंद्रियसे जन्य सार्शनप्रत्यक्ष और चक्षुरिन्द्रयसे जन्य चाक्षुष प्रत्यक्षसे शरीर माना जाता है, या जानने योग्य है तथा स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे चैतन्यकी प्रतीति सभी बाल गोपालोंको हो रही है । इस प्रकार भिन्न प्रमाणों से जाना गयापन हेतु सिद्ध हो गया। ___ स्वयं स्वसंवेदनवेद्येन पौग्नुमेयेनामिन्नेन चैतन्येन व्यभिचारीति न युक्तम्, खसंवेधानुमेयखमानाभ्यां तस्य भेदात् ।
यहां कोई हेतुमे व्यभिचार दोष देवे कि देवदत्तके चैतन्यको देवदत्तने अपने स्वसंवेदनपत्यक्षसे जाना और जिनदत्त इंद्रदत्त आदिने उसी देववत्तके चैतन्यको अनुमानप्रमाणसे जाना । अतः भिन्न प्रमाणोंसे जाना गया होकर भी वह चैतन्य अभिन्न है। इस कारण छैनोंके हेतुमें न्यमिघार घोष हुआ, अंधकार कहते है कि यह कहना तो युक्त नहीं है क्योंकि उस देवदत्तके चतन्यौ न्यारे न्यारे अनेक स्वभाव माने गये हैं। जैसे कि एक ही अभिम दाह करना, पाक करना, सोलना, फफोला उठा देना, उबालना, चावलों में क्रिया करना आदि अनेक स्वभाव हैं। वैसे ही भषेक शेयमें नाना ज्ञानोंसे जानने योग्य भी भिन्न भिन्न अनेक स्वभाव है । परमाणु बहिरंग इंद्रियोंसे जन्य ज्ञानके द्वारा जाननेका स्वभाव नहीं है। तभी तो अवधि ज्ञानी और केवलज्ञानी मी परमाणुभोको इंद्रियोंसे नहीं जान पाते है । प्रकृत चैतन्यमें स्वसंधेधपना और अनुमेयपना ये दोनों मिन मित्र स्वभाव विद्यमान हैं। तिन स्वमात्रोंसे देवदत्तके तन्यका भेद भी है अतः हेतुके रहते हुए साध्यके रह जाने पर हमारा हेतु व्यभिचारी नहीं है।
सस एवैकस्य प्रत्यक्षानुमानपरिच्छेयेनाग्निना न तदनकान्तिकम्, नापि मारणशस्पारमाविषद्रव्येण सकृत्ताहशा पाक्तिशक्तिमतोः कथचिनेदप्रसिद्ध
इस ही कारणसे एक एक देवदत्त, जिनदत्तके द्वारा प्रत्यक्ष और अनुमानसे योग्यतानुसार जानी गयी अभिन्न उसी अभिके द्वारा भी हमारा वह हेतु व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि अनिमें प्रमेयस्य नामक गुण है। उसके उन उन व्यक्तियों के द्वारा भनेक प्रमाणोंसे जानने योग्य अनेक स्वमावोंको लिये हुए परिणमन होते रहते हैं। इस कारण अमिमें भी अनेक स्वभावोंकी अपेक्षा मिसपना रूप साध्य रह गया। तथा विषद्रवसे भी व्यभिचार नहीं है, क्योंकि विषद्रव्यमै मी एक साथ वैसी मारनेकी और जीवित करनेकी शक्तियां विद्यमान है । किसी कार्यकी मपेक्षा अशक्तियां भी हैं।
एक लौकिक दृष्टान्त है कि एक मनुष्य गलितकुष्ट रोगसे अत्यंत पीडित था। उसने अनेक धुरम्बर पैचोंसे चिकित्सा करायी, किंत कमात्र मी लाभ नहीं हुआ। ज्यों ज्यों दा की गयी उस
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तत्वार्थचिन्तामणिः
त्यों त्यों रोग बढसा ही गया। अंतमें वह एक सुचतुर अनुभवी वैद्यके निकट पहुंचा। वैद्यने कष्टसाध्य रोगका " काकतालीय ॥ न्यायके सदृश असम्भव नहीं किंतु अशक्य, औषषिका सेवन करना पत्र पर लिखकर रोगीको व्यवस्थापत्र दे दिया और कह दिया कि रोग दूर होना अशक्य है। मूर्ख, दरिद्र, रोगी भी हताश होकर शीघ्र मृत्युको चाहता हुआ बन की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर देखता है कि एक नरकपालमें तत्काल की वर्षा के भरे हुए पानीको काला भुजा पी रहा है । कोढीने मृत्युका बढिया उपाय समझकर भयंकर विषरूप उस खोपडीके पानीको पी लिया, किंतु उसी समयसे वह रोगी चंगा होने लगा और कुछ दिनमै हृष्ट पुष्ट होकर उस अनुभवी वैधके पास गया और कहने लगा कि आपने मेरी चिकित्सा करनेकी उपेक्षा की थी किंतु मैं आपके सामने नीरोग, बलवान्, खडा हुआ हूं । तर वैद्यने उससे अपनी औषधिका लिखा हुआ पत्र निकलवाया । उसमें वही काले सर्पके द्वारा खोपडीमें पिये गये पानी पीनेका औषधिसेवन लिखा पाया गया तथा वर्तमानमें भी उप्रवीर्यवाली औषधियां संलिया, हरताल, अहिफेन भादिसे पनायी जाती हैं । पारा, चंद्रोदयं, मकरध्वज यदि कच्चे रह जायें तो प्राण हरण कर लेते हैं तथा परिपूर्ण सम्पन्न होनेपर अनेक सिद्धियोंके कारण बन जाते हैं । अतः मारनेकी शक्तिस्वरूप विषद्रन्यसे भी व्यभिचार नहीं है । मारनेकी अशक्ति वाले वैसे विषद्रव्य न्यारे न्यारे हैं । इस कारण कथञ्चिद्भेद सिद्ध है। हेतु रह गया साध्य भी ठहर गया, चलो अच्छा हुआ।
सर्वथा भेदस्य देहचैतन्ययोरप्यसाघनत्वात्, तथा साधने सहव्यवादिना भेदप्रसक्तेभयोरपि सत्वद्रव्यत्वादयो व्यवतिष्ठेरन् । यथाहि देहस्य चैतन्यात् सत्वेन घ्यावती सत्वविरोधस्तथा चैतन्यस्यापि देहात् । एवं द्रव्यत्वादिभियावृसौ चोर्छ ।
हम जैनबन्धु प्रकृत अनुमानसे देह और चैतन्यमें भी किसी अपेक्षासे ही मेद सिद्ध करते है। सर्व प्रकारसे भेदको साधन नहीं करते हैं। यदि देह और चैतन्यमै उस प्रकार सर्वथा ही भेव सिद्ध करना प्रतिज्ञात किया जाय तो सत्त, द्रव्यत्व, वस्तुल और प्रमेयत्र आदिरूपसे मी भेव सिद्ध करनेका प्रसंग भावेगा । तथा च दोनों में से एक या "चालिनीन्याय " से दोनों ही असत्, अद्रव्य, अवस्तु और अज्ञेय हो जावेंगे । दोनों में भी सत्पने और द्रव्यपने आदिकी व्यवस्था न बन सकेगी । इसी बासको इस प्रकार पक्ष्यमाणरूपसे स्पष्ट करते हैं:- जैसे सद्रूप यानी विधमानपनेसे देहका चैतन्यसे भेद मानकर व्यावृत्ति मानी जावेगी तो शरीरको सत्यपनेका विरोष भावेगा । अर्थात् देह खरविषाणके सदृश असत् हो जावेगी। वैसेही चैतन्यका मी देहसे सत्वरूप करके पृथाभाव माना जावेगा वो चैतन्य वन्भ्यापुत्रके समान असत् हो जावेगा। इसी प्रकार द्रव्यपने
और वस्तुपने आदिसे भी भेद माननेपर दूसरको खर्कद्वारा अद्रव्यता और भवस्तुताको चापति हो जावगी, जिस स्वरूपसे भेद माना जावेगा उस स्वरूपकी दूसरे पदार्थमै व्यावृत्ति माननी पडेगी
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- तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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यही मेदकी परिभाषा है । इस कारण हम जैन लोग एक द्रव्यके नाना स्वभावोंके समान देह और चैतन्यर्ने भो सर्वथा भेद नही मानते हैं किंतु कथञ्चिद् भेद मानते हैं।
भिन्नप्रमाणवेद्यत्वादेधेत्यवधारणाद्वा न केनचिदन्यभिचारचोदना हेतोः सम्भवति , येन विशेषणमेकेनेत्यादि प्रयुज्यते ।
अथवा इतुमे नियम करनेवाला एवकार डाल दिया जाये तो मी देतुकी किसी करके व्यभिचार होजानेकी आपत्ति सम्भव नहीं है जिससे कि एक पुरुष करके इत्यादि विशेषण प्रयुक्त किये जाय।अर्थात् " जो भिन्न प्रमाणोंसे ही जानने योग्य है, वह अवश्य भिन्न है ।" ऐसी व्याप्ति बनाने पर एक पुरुषकरके एक समयमै जो भिन्न प्रमाणोंसे वेद्य है, वह भिन्न है । इस प्रकार विशेषणों के प्रयोगकी आवश्यकता नहीं होती है । इन विशेषणोंका प्रयोजन केवल एवकारसे सब जाठा है।
संदिग्धविषक्षव्यावृत्तिकत्वमपि नास्य शङ्कनीयम्, कुत्रचिदभिन्नरूपे भिन्नप्रमाणवेचत्वासम्भवात् । सादृशः सर्वस्यानेकखभावत्वसिबेरन्यथार्थक्रियानुपपत्तेरवस्तुवप्रसक्तेः।
आपको इस भिन्न प्रमाणोंसे जानेगयेपन रूप हेतुकी अभिन्न एकरूप माने गये विपक्षमें न रहना रूप ब्यावृत्ति संदेहमाप्त है यह भीशंका नहीं उठानी चाहिये, क्योंकि कहीं भी अभिन्नरूप एक पदार्थका या एक स्वभावमै भिन्न प्रमाणोसे जानने योग्यपन नहीं है-असम्भव है।
___ यदि एक पदार्थको भी दस जीवों या अनेक प्रमाणोंने जाना है तो वहां भी अपने अपनेसे जानने योग्य स्वभाववाले पदार्थको इसने जाना है। एक एक परमाणु और एक एक कण, अनंतानंत स्वभाव भरे हुए हैं। भिन्न प्रमाणोंसे जानने योग्य वैसे संपूर्ण पदार्थ तादात्म्यसंबंघसे अनेक स्वभावयुक्त सिद्ध हैं यदि ऐसा न मानकर अन्य प्रकार माना जावेगा तो कोई भी पदार्थ अर्थक्रिया न कर सकेगा । “ परित्राट्कामुकशुनामेकस्यां प्रमदातनौ । कुणपः, कामिनी, मक्ष्य, इति तिस्रो विकल्पनाः" एक युवतीके मृत शरीरको देखकर साधु, कामुक और कुत्तेको संसारस्वरूपका विचार, इंद्रियलोलुपता और भक्ष्यपनेकी तीन कल्पनाएं भी निमित्त बननेवाले युवतिशरीरमै विद्यमान स्वभावोंके अनुसार ही हुयी हैं। नीलाञ्जनाके परिवर्तित शरीरके नृत्य वैराग्य और रागभाव दोनोंको पैदा करानेकी निमित्त शक्तियां हैं । इसी प्रकार अनेक स्वभाव माननेपर ही नवीन नवीन अर्थक्रियाएं पदार्थों में बन सकती हैं। यदि वस्तुमें अनेक स्वभाव न होंगे तो पदार्थ क्रियाएं न करेगा और अर्थक्रिया न होनेसे अवस्तुपनेका प्रसंग आवेगा । एक समयमें ही पूर्वस्वभावोंको छोड़ना और नवीन स्वभावोंका ग्रहण करना तथा कतिपय स्वभावोंसे ध्रुव रहना ये तीनों अवस्थाएं विद्यमान हैं । उत्पाद, व्यय, भौव्य होना ही परिणामका सिद्धांत लक्षण है। श्री माणिक्यनदी आचार्य ने परीक्षामुखमें ऐसा ही कहा है।
यदप्यभ्यधायि
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स्वार्थचिन्तामणिः
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और भी जो चार्वाको आत्माको भिन्न तत्र निषेध करनेके लिये कहा था किक्षित्यादिसमुदायार्थाः शरीरेन्द्रियगोचराः । तेभ्यश्चैतन्यमित्येतन्न परीक्षाक्षमेरितम् ॥ ११० ॥
बृहस्पति ऋषिने चार्वाकदर्शनमें ये तीन सूत्र बनाये हैं- पृथ्वी, अप्, तेज और वायु ये चार तत्त्व हैं। इन चारों तत्त्वोंके समुदायरूप शरीर, इंद्रियां और विषय ये पदार्थ बन जाते हैं तथा उन शरीर, चक्षुरादिक इंद्रिय, और रूप, रस, आदिक विषयोंसे चैतन्य हो जाता है आचार्य कह रहे हैं कि इस प्रकार यों चात्रकों का कथन भी परीक्षा करनेको सहन नहीं कर सकता है । यों प्रेरणा की जा चुकी है ॥
पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तचानि, तत्समुदाये शरीरेन्द्रिय विषयसंज्ञाः तेभ्यचैतन्यमित्येतदपि न परीक्षाक्षमेरितम्, शरीरादीनां चैतन्यव्यञ्जकत्व कारकत्वयोरयोगात् कुतस्तदयोगः १ ।
तीन सूत्र यों हैं कि चावकिमतानुयायी पृथ्वी, अप्, तेज और वायु इस प्रकार चार तत्र मानते हैं । उन तत्वों के योग्यरूपसे मिश्रणात्मक समुदाय होनेपर शरीर, इंद्रियां, और विषय नामके पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं । और उनसे उपयोगात्मक चैतन्य होता है, यों यह का साहसपूर्वक कहना परीक्षा झेलनेको समर्थ नहीं समझा गया है। क्योंकि शरीर, इंद्रिय और विषयोंको चैत्यका प्रकट करनेवाला अभिव्यञ्जक हेतु माननेपर तथा शरीर आदिकको चैतन्यका उत्पादक कारण मानने पर दोनों ही पक्षमें उनसे चैतन्य होने का योग नहीं है ।
चैतन्य होने का उन व्यञ्जक या कारक दोनों पक्षों में कैसे योग नहीं है ! इस प्रश्नका उत्तर स्पष्ट कहते हैं—
व्यञ्जका न हि ते तावञ्चितो नित्यत्वशक्तितः । क्षित्यादितत्ववज्ज्ञातुः कार्यत्वस्थाप्यनिष्ठितः ॥ १११ ॥
- पहिले पक्ष के ग्रहण अनुसार वे शरीर, इन्द्रिय और घट, रूप, रस, आदिक विषय तो तन्यशक्ति के प्रगट करनेवाले निश्चयसे नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर पृथ्वी आदिक तत्वोंके समान ज्ञाता आत्माको मी व्यय रक्षमे नित्यपनेका प्रसंग आता है। अभिव्यक्तिपक्षमें आपने आमाको कार्य भी इष्ट नहीं किया है। तथा च आत्मा भी पृथिवीपरमाणुओंके सदृश एक स्वतन्त्र तत्व सिद्ध होता है ।
नित्यं चैतन्यं शश्वदभिव्यंग्यत्वात् क्षित्यादिवच्ववत, शश्वदभिव्यंग्यं तत्कार्यतानुपगमात् कदाचित्कार्यवोपगमे वाभिव्यक्तिवादविरोधात् ।
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क्षणार्धचिन्तामणिः
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है (
) क्योंकि यह सर्वदा व्यञ्जकों के द्वारा योग्यतानुसार प्रगट होता
है (हेतु ) जैसे कि पृथ्वी, जल, आदि ये मूळ तत्त्व नित्य हैं ( दृष्टान्त ) यहां हेतुको दूसरे अनुमानसे सिद्ध करते हैं कि वह चैतन्य सर्वदा ही व्यञ्जकोंसे प्रगट करने योग्य है क्योंकि वह कार्य नहीं माना गया है इस हेतु अन्यथानुपपत्तिको दिखलाते हैं कि यदि चावक लोग किसी भी समय आत्माको कारणों से बना हुआ कार्य मानेंगे तो चैतन्यके अभिव्यक्ति कहने के पक्षका परिग्रह करना चावकोंको विरुद्ध पडेगा ।
वदभिव्यक्तकाल एतस्याभिव्यङ्ग्यत्वं नान्यथेत्यसिद्धं सर्वदाभिव्यङ्गयत्वं न मंतव्यस् अभिव्यक्तियोग्यत्वस्य हेतुत्वात्, तत एव न परस्य घटादिभिरनैकासिकं तेषां कार्यत्वे सत्यमिव्यंग्यत्वस्याशाश्वतिकत्वात्, स्याद्वादिनां तु सर्वस्य कथंचिन्नित्यत्वान्न केनचिव्यभिचारः ।
" गर्भकी आय अवस्था में या ज्ञान होते हुए उस अभिव्यक्ति के समय ही इस चैतन्यको प्रगट होने योग्य हम चर्वाक स्वीकार करते हैं । अन्य प्रकारसे दूसरे समय में चैतन्यको भ्रमिम्यंग्य नहीं मानते हैं । इम असत्कार्यवादी हैं। जो की पिठी और महुआ पहिले जैसे मादक शक्ति नहीं है, परंतु पुनः नयी प्रकट हो जाती है। वैसे ही चैतन्य भी नवीन दीयासलाई से आगके समान प्रगट हो जाता है। इस प्रकार जैनोंका चैतन्यको नित्य सिद्ध करने के लिये दिया गया सर्वदा अपना हेतु तो पक्षमें न रहने के कारण असिद्ध हेत्वाभास है " ग्रंथकार कहते हैं कि यह चाकों को नहीं मानना चाहिये क्योंकि "हम जैनोंने चैतन्यमे सदा ही प्रगट होनकी योग्यताको हेतु होना इष्ट किया है । चैतन्यमें प्रगट होनेकी योग्यता सर्व कालम विद्यमान है। इस ही कारण से हमारे हेतुमें दूसरे चाक लोग घट, पट आदिकोंसे व्यभिचार भी नहीं दे सकते हैं क्योंकि उन भट, पट आदिकोंको कार्यपना होते हुए प्रगट होनापन सदा विद्यमान नहीं है। शिवक, स्वास, कोष, कुशल इन अवस्थाओंमें ही घटके प्रगट होनेकी योग्यता है। उससे पहिले और पीछे नहीं है। किंतु ज्ञान सदा ही प्रगट होनेकी शक्तिसे सम्पन्न है । अतः चैतन्य नित्य है । घट आदिक नित्य नहीं हैं । "
" दूसरी बात यह है कि हम स्याद्वादियों के मत्तनें तो द्रव्यार्थिक नय से सम्पूर्ण पदार्थ कश्चित् नित्य माने गये हैं । अतः किसीसे भी व्यभिचार नहीं होता है । द्रव्य रूपसे घट, पट आदिकको भी हम नित्य माननेके लिये सन्नद्ध हैं। "
कुम्भादिभिरनेकान्तो न स्यादेव कथञ्चन ।
तेषां मतं गुणत्वेन परैरिष्टः प्रतीतितः ॥ ११२ ॥
इस प्रकार कालांतरस्थायी घट, पट आदि से भी किसी ही तरह व्यभिचार दोष नहीं है क्योंकि उन रूपाद्वादियोंके मंतव्यको प्रतीतिके अनुसार गौणरूपसे दूसरे चावकोंने हुए किया है।
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वत्साचिन्तामणिः
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प्रतीतिका अपलाप कोई नहीं कर सकता है । घट आदिकों में व्यक्त होनापन सिद्ध नहीं है । षट आदि पर्याय नवीन उत्पन्न हुयी हैं।
न ह्येकांवनश्वरा घटादयः प्रदीपादिभिरभिव्यंग्या नाम नाशकांतेऽभिव्यंग्याभिव्यजकभावस्य विरोधानित्यैकांतवत्, जात्यन्तरे तस्य प्रतीयमानत्वादिति प्रतिपक्षापेक्षया न घटादिभिरनेकांता साधनस्य ।
__ यदि पीडकि सदृश चावकि मी एकातहठसे घट, पट आदिकोंको सर्वथा नाशशील मानेंगे सो अन्धेरेमें रखे हुए घट, पट आदि पदार्थ कैसे मी पदीप, अभिज्वाला, चंद्रिकासे अभिव्यंग्य न हो सकेंगे, क्योंकि नहीं विद्यमान कार्यके स्वरूप निर्माण करनेवालेको कारकहेतु कहते हैं और पहिलेसे विद्यमान पदार्थक प्रगट करनेवाले हेतुको व्यञ्जक कहते हैं ।
__ यदि घट एक क्षण में ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जावेगा तो विनाशके एकांसपक्षमै प्रगट होना और प्रगट कर देनापन यह व्यंग्यव्यंजकभाव नहीं बन सकेगा उसमें विरोध होगा । जैसे कि घरको एकांत रूपसे कूटस्थनित्य माननेमें व्यंग्यन्यंजकमाव नहीं बनता है, क्योंकि भनभिव्यक्त अवस्थाको छोड़कर घर अभिव्यक्त अवस्थाको धारण करे, तब कहीं प्रकट होवे । एवं सर्वथा नित्य और सर्वथा भनित्य पक्षके अतिरिक्त कालान्तरस्थायी कथंचित् नित्यानित्यरूप तीसरी जातिवाले पक्षमें ही वह व्यंग्यव्यङ्घकभाव प्रतीत हो रहा है । इस प्रकार चार्वाकोंके प्रतिकूल हो रहे जैनसिद्धांतके मन्तव्यकी अपेक्षासे हमारे हेतुका घट, पट आदिसे व्यभिचार नहीं है।
ततः कथंचिच्चैतन्यनित्यताप्रसक्तिभयान शरीरादयश्चिचाभिव्यंजकाः प्रतिपादनीयाः।
उक्त समीचीन अनुमानसे चैतन्यस्वरूप आत्मतत्व द्रव्यदृष्टिसे नित्य हो जाता है किन्तु बैतन्यका निस्यरूपसे सिद्ध होना आपको इष्ट नहीं है। उस कारणसे चैतन्यको कथञ्चित नित्यताके प्रसंग होनेके डरसे आपको अपना पहिला पक्ष हटा लेना चाहिये अर्थात् " शरीर, इन्द्रिय
और विषय ये मिलकर चेतन आत्मतत्वको प्रगट करनेवाले हैं, यह नहीं समझ बैठना चाहिये " किन्तु यों कहना चाहिये कि
शब्दस्य ताखादिवत् तेभ्यश्चैतन्यमुत्पाद्यत इनि क्रियाध्याहाराव्यज्यत इति क्रियान्याहारस्य पौरन्दरस्यायुक्तत्वात् । कारका एव शरीरादयस्तस्येति चानुपपन्नम्, तेषां सहकारित्वेनोपादानत्वेन वा कारकत्वायोगादित्युपदशेयवाह
कण्ठ, वाल, ओष्ठ, भाषाणा आदिक जैसे शब्दफे कारक हेतु है । उसी प्रकार उन शरीर इन्द्रिय और विषयोंसे चैतन्म उत्पन्न कराया जाता है। सूत्रमें तेभ्यश्चतन्य “ उनसे चैतन्य " यह क्रियारहिव वाक्य पड़ा है। यहां उनने चैतन्य प्रगट होता है। इस प्रगट होना रूप क्रियाका
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सस्था चिन्तामणिः
मध्याहार करना बृहस्पतिमतके अनुयायी चार्वाफको अयुक्त है । हां उनसे चैतन्य पैदा होता है इस उत्साविरूप मियाका उपस्कार करमा भाग लिदानो उमुचित है। अतः शरीर आदिक उस चैतन्यके कारक हेतु ही हैं। इस प्रकार चार्वाकोंका द्वितीय पक्ष ग्रहण करना भी युक्तियोंसे सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि हम पूछते हैं कि आप चार्वाक उन शरीर आदिकको चैतन्यका सहकारी कारण मानते हैं या उपादान कारण मानते हैं ! बताओ दोनों पक्षमै किसी मी ढंगसे शरीर भाविकको कारकपना नहीं बनता है । इस बातको विशद रीतिसे दिखलाते हुए भगवान् विषानंदी आचार्य बार्तिक कहते हैं।
नापि ते कारका वित्तेर्भवन्ति सहकारिणः ।
खोपादानविहीनायास्तस्यास्तेभ्योऽप्रसूतितः । ॥ ११३ ॥ द्वितीय पक्षके अनुसार चैतन्यके वे शरीर, इंद्रिय और विषय सहकारी कारण होकर कारक मी नहीं है क्योंकि विना अपने उपादानकारणके उस चैतन्यकी केवल उन शरीर आदि सहकारी कारणोंसे उत्पत्ति नहीं हो सकती है। उपादानकारणके विना जगत्मे कोई भी कार्य नहीं बनता है।
खोपादानरहिताया वित्तेः शरीरादयः कारकाः शब्दादेस्ताखादिवदिति चेन्न असिद्धत्वात् तथाहि
___चार्याक कहता है कि शब्द, बिजली, दीपकलिका जैसे विना उपादानकारणके केवल कण्ठ, ताल, बादलोंका घर्षण, दीपशलाका आदि निमित्त कारणोंसे उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार अपने उपादानकारणके विना उत्पन्न हुए. चैतन्यके भी शरीर आदि सहकारीकारक हो जानेगे । आचार्य कहते हैं कि चार्वाकका यह कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि पिना उपादानकारणके किसी मी पदार्थकी उत्पत्ति होना सिद्ध नहीं है । इस बातको प्रसिद्ध कर कहते हैं।
नोपादानाद्विना शब्दविधुदादिः प्रवर्तते । कार्यत्वाकुम्भवयद्यदृष्टकल्पनमत्र ते ॥ ११४ ॥ क काष्टान्तर्गतादग्नेरग्न्यन्तरसमुद्भवः ।
तस्याविशेषतो येन तत्त्वसंख्या न हीयते ॥ ११५ ॥ - उपादानकारणके विना शब्द, बिजली आविक नहीं प्रवर्तते यानी उत्पन्न नहींहोते हैं (मतिज्ञा) क्योंकि वे कार्य हैं ( हेतु ) जैसे कि मिट्टीके बिना षडा उत्पन्न नहीं होता ( अन्वयदृष्टांत ) इस अनुमानसे शब्द आदिके चर्मचक्षुओंसे नहीं दीखनेवाले भी भाषावर्गणा और शब्दयोग्य पुद्गलस्कन्ध उपादानकारण सिद्ध कर दिये जाते हैं। यहां तुम पाकिका हमारे ऊपर यह फटाक्ष होसकता है
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तस्वार्थचिन्तामणिः
कि शब्दादिकके उपादानका अनुमान करना जैनोंकी नहीं देखे हुए पदार्थकी व्यर्थ कल्पना है। घटमे तो मिट्टी उपादान देखी जाती है किंतु शब्दमें कोई उणदान नहीं देखा जाता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि चार्वाक यो कहेगे तो हम कहते हैं कि काठके जलनेपर अमि होनेकी अवस्था चार्वाक लोग काठरूप पृथिवीतत्त्वके भीतर अमितत्त्वसे ही दूसरी अनिके उत्पन्न होजाने रूप क्यों अष्टकी कल्पना करते हैं ! ताओ । जैनसिद्धांतके अनुसार काष्ठरूप पुद्गल ही अमिरूप परिणत हो जाता है । ऐसा देखा हुआ ही पदार्थ क्यों न माना जावे अर्थात् शुक्ल, शुष्क, ठण्डा, कठिन, पौरालिक काष्ठ ही उष्ण, लाल, नर्म, चमकता हुआ अमिरूप बन गया है। जिससे कि अमितत्त्व सिद्ध न होनेसे चार्वाकोंके तत्वोंकी संख्या क्यों नहीं नष्ट होजावेगी! तीन दो और परिशेषमें विचार करते हुए एक पुद्गल तत्त्व ही रह जावेगा, यदि काष्ठमें नहीं दीखनेमे आवे ऐसे ममिसत्यकी कल्पना करोगे तो उसीके समान होनेसे शब्द आदिकोंके उपादान कारण भी अनिवार्य मानने पडेंगे । जहवाय ( साइन्स ) भी विना उपादानके कार्यों का विकास होना नहीं मानता है। आपके काठके भीतर अमितत्त्वको अदृष्टरूपस मानने और हमारे शब्दके अदृष्ट उपादान कारणों के मानने कोई अंतर नहीं है।
प्रत्यक्षतोऽप्रतीतस्य शब्दाशुपादानस्सानुमानात्साधने परस्य पबदृष्टकल्पनं तदा प्रस्थक्षतोऽप्रवीवारकाष्टान्तर्गवादझेरनुमीयमानाम्न्यन्वरसमुद्भवसाधने तदाष्टकल्पने कपन स्याभूतवादिनः सर्वेया विशेषाभावात् ।
यदि शब्द, बिजली, आदिफे इंद्रियपत्यक्षसे नहीं जानने आवे ऐसे उपादान कारणों को अनुमानसे सिद्ध करनेमें दूसरे वादी जैनोंके ऊपर आप अदृष्ट पदार्थकी कश्पना करने का उपालम्भ देंगे सब तो काष्ठके भीतर प्रत्यक्षसे लेशमात्र भी नहीं देखने में आये ऐसे कारणस्वरूप वूसरे तत्तसे अनुमान द्वारा अग्निकी समीचीन उत्पत्ति सिद्ध करनेमें मूतवादी चार्वाकको सर्वथा नहीं देखी हुयी की कल्पना करनासपी वह दोष क्यों नहीं लागू होगा ! अवश्य लगेगा | अनुमानके द्वारा अदृष्टततकी कल्पना करनेमें हमसे तुममें किसी भी प्रकारसे अंतर नहीं है ।।
काष्ठादेवानलोत्पत्ती क तवसंख्याव्यवस्था, काष्ठोपादेयस्यानलस्य काष्ठेतरवामावात् पृथिवीत्वप्रसक्तः। पार्थिवानां च मुक्ताफलानां स्त्रोपादाने जलेऽन्तर्मावाजलखापरोजलस्य च चंद्रकांवादुद्भवतः पार्थिवत्वानविक्रमात् ।
यदि काठसे ही अमिकी उत्पत्ति मानोगे और काटके भीतर अदृष्ट अमितत्त्व नहीं स्वीकार करोगे, सो बार संख्यावाले तत्वोंकी व्यवस्था कहां रही! पृथ्वीरूप काष्ठको उपावन कारण स्वीकार कर उत्पन्न हुयी उपादेय अमिको पार्थिवकाष्ठसे भिन्नपनेका अभाव हो जानेके कारण पूच्चीपचेकर पसंग हो जायेगा । तथा इसी प्रकार पृथ्वीके विकारस्वरूप कठिन, भारी और गन्ध
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तस्यार्थचिन्तामणिः
वाले मोतियोंका अपने उपादानकारण जलमै अन्तर्भाव होजानेक कारण मोतियोंको जलपनेका आपादन हो जावेगा, क्योंकि विशेष नक्षत्र भाविके योग होनेपर सीपमें पड़े हुए जलकाही कालान्तरमें मोतीरूप परिसन्न हो जाता है : तग. मागले नहर होनेपर पृथ्वीतत्वका विकार मानी गयी चन्द्रकान्तमणिसे जल उत्पन्न हो जाता है तो उस जलको भी पाभियपनेका अतिक्रमण न होगा, अर्थात् जल भी अपने उपादान चन्द्रकान्तमणिरूप पृथ्वीतत्त्वम गर्मित हो जावेगा। इस प्रकार आपके माने हुए पृथ्वी, अप, तेज, वायु इन चार तत्त्वोंकी व्यवस्था न हो सकेगी। क्योंकि चनेसे पेटमै वायु, वायुसे आकाशमै जल, जलसे वृझमें काष्ठ, काष्ठसे जलने पर अमि और अमिसे राख इत्यादि संकरपनेसे उपादान उपोदय भाव होरहा है ।
यदि पुनः काष्ठादयोऽनलादीनां नोपादानहेतवस्तदानुपादानानलाद्युत्पत्तिः कल्पनीया, सा च न युक्ता प्रमाणविरोधात् ।
यदि आप फिर काठ, जल और चंद्रकांतको आग, मोती और जळका समवायिकारण नहीं मानोगे तक तो विना उपादानकारणके अग्नि, मोती, आदि की उत्पत्ति कपित करनी पड़ेगी और वह कल्पना करना तो ठीक नहीं है क्योंकि बिना उपादान कारण के कार्योंकी उत्पत्ति मानने प्रमाणोंसे विरोध है। सर्व बाल गोपाल इष्ट कार्योंके सम्पन्न करने के लिये प्रथम ही उपादान कारगोंको ढूंढते हैं । समवायीकारण ही कार्यस्वरूप परिणत होता है।
ततः स्वयमदृष्टस्यापि पावकायुपादानस्य कल्पनायां चितोऽप्युपादानमवश्यमभ्युपेयम्।
इस कारण आप काष्ठके भीतर निजरूपसे नहीं दीखते हुए भी अमि तत्त्वको दृश्यमान अनिके उपादान कारणकी कल्पना करोगे तो उसीसे चैतन्यका भी उपायान कारण मामा आपको अवश्य स्वीकार करना चाहिए । न्यायमार्ग सबके लिए एकसा होता है ।
सूक्ष्मो भूतविशेषश्चेदुपादानं चितो मतम् ।
स एवात्मास्तु चिजातिसमन्वितवपुर्यदि ॥ ११६ ॥
स्थूल पृथ्वी आदिकमें रहनेवाला विलक्षण प्रकारका अत्यंत सूक्ष्मभूत यदि चैतन्यका उरादान कारण आपने माना है तो यदि उस सूक्ष्ममूतका डील अनाधनंत अन्वितरूप करके पैतन्यशक्तिसे सहित है, तब तो वहीं चेतना नामक नित्य सदृश्परिणति-स्वरूप शरीरका धारी आमा तत्त्व होओ, आपने उस चित् शक्तिवाले तत्वका नाम सूक्ष्मभूत रख लिया है। हम उसको जीव या आस्मा कहते हैं। हमारे और आपके केवल शब्दों में अंतर है अर्थमें नहीं।
तद्विजातिः कथं नाम चिदुपादानकारणम् । भवतस्तेजसोऽभोवत्तथैवाष्टकल्पना ॥ ११७ ॥
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बत्त्या चिन्तामणिः
यदि आप चार्वाकके मतमें अन्वितरूप चैतन्यशक्तिवालेसे विभिन्न जातिवान सूक्ष्ममूत जास्वरूप स्वीकृत किया है तो वह भला चैतन्यका उपादान कारण कैसे हो सकता है ! असत्य मात है। जैसे कि तेजका उपादान जल नहीं होता है । उसी प्रकार विजातीय अहसे चैतन्यकी उत्पत्ति माननमे आपकी मनमानी गयी पुक्ति५ अपदाथको कल्पना है। जो कि आजतक किसी परीक्षकने नहीं की है।
सत्वादिना समानत्वाच्चिदुपादानकल्पने । क्ष्मादीनामपि तत्केन निवार्वेत परस्परम् ॥ ११८॥ येन नैकं भवेत्तत्त्वं क्रियाकारकघाति ते । पृथिव्यादेरशेषस्य तत्रैवानुप्रवेशतः ॥ ११९ ॥.
जड और चेतनका सत्पने, द्रव्यपने, और वस्तुपने प्रमेयत्व आदिसे सजातीयपना मानकर भूतोंको चैतन्यका उपादानकारण होजानेकी कल्पना स्वीकार करोगे, यों तो सत्त्व, द्रव्यत्वसे पृथ्वी, जल आदिमे भी सजातीयता है। तब पृथिवी, जल आदिके भी परस्परमें उपादान उपादेयपनेको कौन रोक सकता है ! कोई भी नहीं, जिससे कि तुम्हारे मतमें एक ही तत्त्व सिद्ध न हो जावे । जो कि क्रिया, कारक को नष्ट करनेवाला है । पृथ्वी, जल आदिक सम्पूर्ण पदापोंका उस ही एक तत्त्वमें पूर्णरीत्या प्रवेश हो जावेगा । भावार्थ---उत्कृष्ट सामान्यरूपसे व्यापक होरहे सस्त, द्रव्यत्व और वस्तुस्वघोंसे यदि सजातीयपना व्यवस्थित किया जावेगा तो कार्यकारणभाव, कर्मक्रियाभाव नहीं बन सकेंगे। क्योंकि जैसे कार्य सत् है वैसे ही कारण मी सत् है तथा कार्य ही कारणका कारण क्यों न पन जावे । अतः इतने बड़े पेटवाले धर्मसे उपादान उपादेय व्यवस्था नहीं होसकती है किंतु एक द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप स्वभावसे ही उपादान उपादेय व्यवस्था है पैतन्य और भूत जमे अन्धितरूपसे एक द्रव्यपत्यासत्ति नहीं होनेसे उपादान उपादेय भाव नहीं है । हां जैन सिद्धांतमें क्रियाकारक भाव सब बन जाते हैं। एकही तत्त्व मानने पर ये सब नहीं बन पाते हैं।
सूक्ष्मभूतविशेषश्चैतन्येन सजातीयो विजातीयो वा तदुपादाने मवेत् १ सजातीयथेदात्मनो नामान्तरेणामिधानात् परमवसिद्धिः। विजातीयश्चेत् कथमुपादानमग्नेर्जलवत् । सर्वथा विजातीयस्याप्युपादानवे सैवाष्टकल्पना ।
उक्त वार्तिकोंकी टीका करते हैं कि परमाणुस्वरूप विशेष रीतिसे माना गया सूक्ष्मभूत आप चार्वाकके मतमें चैतन्यकी जातिवाला होकर ज्ञानीका उपादान कारण है अथवा विजातीय होकर चैतन्य उपादान कारण है । बताओ। यदि पहिला पक्ष सजातीयका लोगे तो दूसरे सूक्ष्मभूत शब्दोंसे आफ्ने आत्माको ही कह दिया है। अतः दूसरे वादिओके मतकी जैनमतकी सिद्धि हो जावेगी।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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यदि भिन्नजातिवाला दूसरा पक्ष लोगे तब तो अमिका जलके समान विजातीय भूत उस चैतन्यका उपादान कारण कैसे बन सकता है ? अर्थात् जैसे अमिका उपादानकारण जल नहीं है वैसे ही विजातीयमूत भी आत्माका उपादान न हो सकेगा । यदि सर्वप्रकारसे विजातीय पदार्थको भी उपादान कारण मानोगे तो फिर भी चावकोंने वही अदृष्ट पदार्थोंकी कल्पना की जो कि प्रतीतिभसे विरुद्ध है ।
गोमयादेविकस्योत्पत्तिदर्शनामा इष्टकल्पनेति चेत् न वृश्चिकशरीरगोमययोः पुगलद्रव्यत्वेन सजातीयत्वात् तयोरुपादानोपादेयतापायाच्च । वृश्चिकशरीरारम्भका हि पुलास्तदुपादानं न पुनर्गोमयादिस्तस्य सहकारित्वात्
यदि चार्वाक यों कहें कि गोबर, दही, आदिसे बिच्छू पैदा होते हुए देखे गये हैं । अतः खडसे चैतन्यकी उत्पत्ति माननेमें हमारी अदृष्टकल्पना नहीं है। आचार्य कह रहे हैं कि इस प्रकार तो मति नहीं ) कहो — क्योंकि विच्छूका शरीर और गोवर दोनों ही पुद्द्रकद्रव्य होने की अपे{ क्षासे समान ज्याशिवाले हैं। अतः उन शरीर और गोवरका उपादान उपादेयभाव है । बिच्छूकी आत्मा और गोबरका उपादान उपादेयमात्र सर्वथा नहीं है ।
दूसरी बात यह है कि जैन सिद्धांतकी सूक्ष्म गवेषणा करनेपर गोमयको शरीरका उपादान कारणपना भी सिद्ध नहीं हैं किंतु गोबर में अदृश्यरूपसे विद्यमान होरही सूक्ष्म आहारवर्गणाएं ही बिच्छूके शरीरको बनानेवाली उपादानकारण हैं, जिनको कि गोवरमें आया हुआ विच्छ्रका जीव अपने योगसे प्रसिक्षण कुछ देस्तक ग्रहण करता है मोटा दृश्यमान गोबर आदि तो सहकारी कारण हैं। अतः आपका दृष्टांत विषम है। वास्तवमे पौलिक शरीरकी गोवर, दही, वर्गणा आदि उत्पत्ति है, चैतन्यकी नहीं हो। शरीर, इंद्रियां, मस्तक और छाती के छोटे छोटे अवयव या नाभी, बादाम, आदि पुद्गल उस चेतन आत्मासे उपादेय होरहे ज्ञानके निमित्त कारण बन जाते हैं ।
सवेन त्वादिना वा सूक्ष्मभूतविशेषस्य सजातीयत्वाच्चेतनोपादानत्वमिति, तत एव क्ष्मादीनामन्योऽन्यमुपादानत्वमस्तु निवारकाभावात् ।
चाक कहते हैं कि जड़भूत भी सद्रूप है और चैतन्य भी सद्रूप विद्यमान है । इसी प्रकार अचेतनमूल भी द्रव्य है और आत्मा भी द्रव्य है तथा भूत और चैतन्य दोनों अभिषेय, ज्ञेय, वस्तु, पदार्थ है । यों सत्त्व और द्रव्यपने आदि चेतनका सजातीय होनेसे विशिष्ट परिणामो में मिला हुआ सूक्ष्म भूत हमारे यही चेतनका उपादान कारण हो जावेगा ग्रंथकार कहते हैं कि ऐसा मानोगे तो तिस ही कारण पृथ्वी आदिकोंका भी परस्पर में उपादान उपादेय भाव हो जाये। क्योंकि कोई रोकनेवाला नहीं है । सत् और द्रव्यपनेसे पृथ्वी आदि भी समान जातिशले हैं फिर पृथ्वी ज आदि चार तत्त्र थकू क्यों माने जाते हैं ? एक ही तत्व (पुद्गल ) मानलो |
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सत्यार्थचिन्तामणिः
तथा सति तेषां परस्परमनन्तविस्तदन्तर्भावो वा स्यात् १ प्रथमपक्षे चैतन्य स्थापि भूतेष्वन्तर्भावाभवात् तत्त्वान्तरस्वसिद्धिः। द्वितीयपक्षे तत्त्वमेकं प्रसिद्धयेत्, पृथिव्यादेः सर्वस्य तत्रैवानुप्रवेशनात, तच्चायुक्त क्रियाकारकघातित्वात् ।।
यदि पृथ्वी आदिकोंका आप परस्परमें उपादान उपादेय भाव इष्ट कर लोगे तो तैसा होनेपर हम जैन आपसे पूंछते हैं कि उन पृथ्वी आदि तत्वोंको पृथक् पृथक् मानते हुए परस्परमें अंतर्भाव न करोगे अथवा एकका दूसरे में अंतर्भाव कर लोगे ? बनाओ।
यदि आप चार्वाक प्रथम पक्ष लोगे तब तो पृथ्वी में जल आदिकका गर्भ न होनेके समान चैतन्यका भी भूतों में अंतर्भाव न होगा। एवं च भूतोंसे अतिरिक्त चैतन्य भिन्न तत्व सिद्ध होता है।
यदि आप दूसरा पक्ष लेगे अर्थात् एकका दूसरेमें गर्भ कर लोगे तो चैतन्य भले ही भूतमे अन्त:प्रविष्ट हो जाय किंतु साथमैं पृथ्वी आदिक चारों तत्व भी एक तत्व हो आवेगे सभी पृथ्वी आदिक चारोंका एक ही प्रवेश हो जायेगा।
यदि शाप दूसरे के भाकुन नाले हि "तिकाछेद । न्यायसे चैतन्य भिन्न तत्व सिद्ध न हो जाये, इस लिये पृथिवी, जल, आदिकों को भी एक ही तत्व स्वीकार कर लोगे तो यह भी मानना युक्तियोंसे शून्य है। क्योंकि ऐसा माननेसे क्रियाकारकभाव नष्ट हो जाता है। अझावतवादियों की तरह सब पदायाँको एक ब्रह्मतत्व अंतर्भाव करनेसे क्रिया, फर्ता, कर्म नहीं हो सकते हैं। क्या वही एक आप ही अपनेसे स्वयं बन जाता है। नहीं, इस प्रकार एक तत्व के माननेसे चार्वाकको अपसिद्धांत भी होगा। परिशेषमें आत्माको ही चैतन्यका उपादानकारण माननेपर बैन मिल सकता है। "
तस्माद्रव्यान्तरापोढस्वभावान्वयि कथ्यताम् ।
उपादानं विकार्यस्य तत्त्वभेदोऽन्यथा कुतः ॥ १२० ॥
तिस कारण उपादानकारण माननेका यह नियम करना चाहिये कि जो स्वपर्यायवाले प्रकृत दृष्यस अतिरिक्त दूसरे द्रव्योंसे व्यावृत्त स्वभाववाला है और यह वही द्रव्य है । इस प्रकार अन्वयज्ञानका जो विषय है वही विकारको प्राप्त हुये उस कार्यका उपादानकारण है। यदि ऐसा न मानकर अन्यपकारसे मानोगे सो पृथिवी, जल आदि तत्वोंका भी भेद कैसे होगा। बताओ को सही । बगले क्यों झांकते हैं । सिद्धांत यह है कि जैसे क्षुद गंगानदीकी धारा गंगोतरी पर्वतसे लेकर कलकत्ता पर्यंत बह रही है । हरिद्वार, कानार, बनारस, पटना आदिमें भिन्नदेशवाली पर्यायोंको धारण करनेवाली वही एक गंगा है। इसी प्रकार अनादि कालसे अनंत काल
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तत्वार्थचिन्तामाणः
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तक पर्यायोंको धारण करता हुआ अखण्ड एक द्रव्य पूर्व उत्तरवर्ती पर्यायोंके द्वारा उपादान उपादेयस्वरूप होरहा है । दूसरा सजातीय या द्रव्य उसकी पर्यायोंका उपादान कारण नहीं है।
तत्वमुपादानत्वं विकार्यत्वं च तद्भदो द्रव्यान्तरण्याचेन स्वभावेनान्वयित्वे सत्युपादानोपादेययोयुक्तो नान्यथातिप्रसंगादित्युपसंहर्तव्यम् ।
यहाँ उपादानव्यवस्थासंबंधी नियमक प्रकरणका वक्ष्यमाण इस तरह संक्षेपमें संकोच करना पाहिए कि उपादान कारण और उसके विकारको प्राप्त हुए उपादेय कार्य दोनों एकही सच हैं। उन उपादान और उपादेयका केवल कार्यकारणरूपसे मेद है। निराले मित्र तत्त्वोंकी अपेक्षामे मेद नहीं है क्योंकि वे दोनों ही दूसरे द्रव्यों के स्वभावोंसे पृथामत स्वकीय स्वमावोंकरके धाराप्रवाह रूपसे एक दूसरे शृङ्खलाबद्ध अन्वित हो रहे हैं। सभी उपादान उपादेयभाव उचित पडता है जो पर्याय अखण्ड त्रिकाल्गोचर द्रव्यमें अन्वित नहीं हैं उनमें उपादान उपादेवपना भी नहीं है। यदि ऐसा नियम न माना जावेगा तो अन्य प्रकार होनेपर अतिपसंग हो जावेगा । अर्थात् कोई भी चेतनद्रव्य जडका और आपके मतानुसार पृथ्वीतत्व जसका भी उपादान बन बैठेगा, हम तो अनंतानंद पर्यायोंको टांकीसे उकेरे गये न्यायसे द्रव्यमै शक्तिरूपसे विषमान मानते हैं। अतः न कोई पाल बरावर परता है और न रत्ती भर पड़ता है सब अपने अपने स्वभावों में रमे रहते हैं।
यदि द्रव्यप्रत्यासति न रखनेवाले किसी भी तत्त्वसे चाहे कोई भी उपादेय बन जायेगा सो मोहम्मद-मतानुयायियोंके खुदाके यथावश्यक विचारानुसार अनेक रूहों ( आत्माओं) की उत्पति कर देनेके समान असंख्य नवीन पदार्थ उत्पन्न हो जायेंगे। अश्वके मस्तकमे भी सींग निकल आवेंगे, चनासे गेहूंका अंकुर भी उपज जायगा जो कि किसीको इष्ट नहीं है ।। .
तथा च सूक्ष्मस्य भूतविशेषस्याचेतनद्रव्यव्यापत्तस्वभावेन चैतन्यमनुगच्छतस्तदुपा• दानत्वमिति वर्णादिरहितः स्वसंवेद्योऽनुमेयो वा स एवात्मा पंचमतस्वमनात्मज्ञस्य परलो. कप्रतिषेधासम्भवव्यवस्थापनपरतया प्रसिद्धयत्येवेति निगद्यते ।
वैसा होनेपर इस कारणसे यह बात प्रसिद्ध हो ही जाती है कि अचेतन जब इन्यों के स्वभावोंसे पृथग्भूत स्वभावों करके सर्वदा चेतनपनेका अनुगमन करनेवाला आला ही सूक्ष्ममूत विशेष है और वही ज्ञानका उपादान कारण है जोकि पृथ्वी आदिकके स्वभावोंसे सर्वथा रहित है। इस प्रकार रूप, रस, आदिकसे रहित हो रहा और अपने स्वयं स्यसंवेदनप्रत्यक्षका विषय तथा दूसरे वचन चेष्टा, आदि द्वारा अनुमान करने योग्य वह सूक्ष्मभूत ही हमारा आत्मा है। आत्माको नहीं जानने वाले चाकको पांचवा नेउन तत्व अगत्या स्वीकार करना पड़ेगा । चावीकने अनाथ
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तवाचिन्तामणिः
नन्त आत्माको स्वीकार न करते हुए स्वर्ग, नरक, त्रेत्यभाव, परलोककी व्यवस्था नहीं मानी है किंतु जब स्वसंवेदन के योग्य सूक्ष्मभूतको मानलिया है तो परलोकके निषेधका सम्भव न होने की व्यवस्था करने चार्वाक स्वयं तत्पर होरहा है । इस कारण उक्त निर्णय प्रमाणोंसे सिद्ध होजाता ही है। इसी बातको आचार्य महाराज वार्तिकों द्वारा पुनः स्पष्ट कर कहते हैं-
सूक्ष्मो भूतविशेषश्च वर्णादिपरिवर्जितः । स्वसंवेदनवेयोऽयमनुमेयोऽथवा यदि ॥ १२१ ॥ सर्वथा पंचमं भूतमनात्मज्ञस्य सिद्धयति । स एव परलोकीति परलोकक्षतिः कथम् ॥ १२२ ॥
चैतन्यशक्तिको वारण करनेवाला विलक्षण प्रकारका सूक्ष्मभूत है जो कि रूप, रस, गंध, स्पोंसे रहित है । यह स्वयं अपनेने स्वसंवेदन - प्रत्यक्षसे जाना जाता है अथवा दूसरे में अपने द्वारा और अपने में दूसरोंके द्वारा उसका अनुमान भी किया जाता है। यदि चार्वाक यों मानेंगे तो आत्मतत्वको नहीं माननेवाले चार्वाकको सभी प्रकारसे चार भूतोंके अतिरिक्त पांचवा भूतस्वरूप आत्मा तत्त्व सिद्ध होजाता है । वह आत्मा ही परलोकको धारण करनेवाला है। ऐसी दशामें एक एक आत्मा के पूर्व पीछे हुये अनादि, अनंत, परलोकोंकी क्षति कहां हुई ? अर्थात् चार्वाकजन परखोका निषेध कैसे कर सकते हैं : बतलाइये अर्थात् नहीं ।
नेशो भूतविशेषचैतन्यस्योपादानं किन्तु शरीरादय एव तेषां सहकारित्वेन कारकत्व पक्षानाश्रयादिति चेत् ।
चाक कहते हैं कि पूर्वोक्त रीतिसे स्वसंवेद्य और वर्णादिकोंसे रहित ऐसे सूक्ष्मभूत विशेष को हम चैतन्यका उपादान कारण नहीं मानते हैं किन्तु शरीर, इन्द्रिय और विषयों को ही चैतन्य का उपादानं कारण इष्ट करते हैं। हमने जो यह पक्ष लिया था कि चैतन्यके सूक्ष्मभूत उपादान कारण हैं वे शरीर, इन्द्रिय तथा विषय तो सहकारी कारण होकर कारक हैं सो अब इस पक्षका हम आश्रय नहीं लेते हैं । भावार्थ - शरीर आविकको निमित्त कारण न मानकर हम उनको ही चैतन्यका उपादान कारण मानते हैं । यदि चार्वाक ऐसा कहेंगे तब तो आचार्य कहते हैं कि
शरीरादय एवास्य यद्यपादानहेतवः ।
तदा तद्भावभावित्वं विज्ञानस्य प्रसज्यते ॥ १२३ ॥ व्यतीतेऽपीन्द्रियेऽर्थे च विकल्पज्ञानसम्भवात् । न तद्धेतुत्वमेतस्य तस्मिन्सत्यप्यसम्भवात् ॥ १२४ ॥
The
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तत्वानिन्सामणिः
शरीर आदिक चैतन्यके निमित्तकारण न होकर यदि उपादान कारण माने जावेगे सब तो उन शरीर, इन्द्रिय तथा विषयों के होनेपर ज्ञानका होना और शरीर आदिकके न होनेपर ज्ञानका न होना बों विज्ञानको इस अन्वयव्यतिरेकमाव होनेका प्रसंग आवेगा किन्तु यहां अवयव्यभिचार और व्यतिरेकव्यभिचार देखा का है। मुनिये, शनियों के व्यापार और अर्थ विना मी विचारस्वरूप अन्तरंग संकल्प विकश्परूप अनेक ज्ञान होते रहते हैं। इस कारण व्यतिरेकम्ममिवार हो जानेसे इस चैतन्यके थे शरीर आदिक उपादान कारण नहीं हो सकते है और यहां अन्वयम्यभिचार भी है । अन्यमनस्क मूछित, या मरे हुए जीवके उन शरीर और इन्द्रियोके होनेपर मी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है । तथा उपादेय अवस्था कार्यस्वरूपसे उपादानका रहना आवश्यक है किन्तु चैतन्यके होनेपर भी ध्यान या विचार की अवस्थामै उपादान माने गये शरीर और इन्द्रियोंका उपादेय परिणामस्वरूप होकर विद्यमान रहना देखा नहीं जाता है। घट अवसाने मिट्टी और कपडेकी दशामें सूत तो देखे जाते हैं
कायश्चेत्कारणं यस्य परिणामविशेषतः। सद्यो मृततनुः कस्मात्तथा नास्थीयतेमुना ।। १२५ ॥ वायुविश्लेषतस्तस्य वैकल्याच्चेन्निबन्धनम् ।
चैतन्यमिति संप्राप्तं तस्य सद्भावभावतः ॥ १२६ ॥
बिस चावकिके मत विशिष्ट मिश्रणरूप परिणतिसे पुक्त शरीरको चैतन्यका उपादान कारण इष्ट किया है यों तो हम पूंछते हैं कि मरनेके कुछ काल पहिले जो शरीर पैतन्यका कारण हो रहा था बह शरीरका विशेष परिणमन मरते समय भी विद्यमान है। अतः शीन मरा हुआ शरीर भी वैसा पूर्वकी मकार इस चैतन्यस्वरूप व्यवस्थितरूपसे परिणति क्यों नहीं करता है। अर्थात् मुर्दाको जीवित हो जाना चाहिये और जीवित होकर उसे बहुत दिनोंतक करना चाहिये। __ यदि आप यों कहेंगे कि मरनेपर प्राणवायु निकल जाती है अतः उस आवश्यक वायुसे रहिस होरहे केवल पार्थिव, जलीय, तैजस विशिष्ट परिणाम न रह सकनेके कारण उस चैतन्यका कारण नहीं होता है। ऐसा कहनेपर तो यों चैतन्यकी वायुको ही उपादानकारणता मले प्रकार मात हुथी क्योंकि उस वायुका सद्भाव होनेपर चैतन्यका अस्तित्व और वायुके न रहनेपर चैतन्मका अभाव आपने अभी मामा है।
सामग्री जनिका नैकं कारणं किंचिदीक्ष्यते। विज्ञाने पिष्टतोयादिर्मदशक्ताक्वेिति चेत् ॥ १२७ ।।
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तत्त्वायचिन्तामणिः
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संयुक्त सति किन्न स्पारमादिभूतपाष्टथे।
चैतन्यस्य समुद्भूतिः सामध्या अपि भावतः ॥१२८ ॥
गृहस्पति मतवाले कहते हैं कि जैसे मदशक्तिके उत्पन्न करनेमें पिठीका पानी, गुढ महुआ आदि कारणोंकी पूर्णतारूप सामग्री कारण है । अकेही पिठीसे मदशक्तिवाला मय पैदा नहीं होता है। उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा इनके विशेष विशेष परिमाणमें होनेवाले परिणामरूप कारणकूटसे विज्ञान उत्पन्न होता है। एक एक करके कोई भी वायु या पृथ्वी उपादानकारण नहीं देखा जाता है, कारणोंकी समग्रता कार्यको करती है । अकेला कारण नहीं । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि चार्वाक यह कहेंगे तब तो कसैंडी या भगौना दाल, भात पकाते समय पृथ्वी, अप्, तेज और वायु इन चारों मूतोंके मिश्रण होजाने पर धूल्हाके ऊपर कसैंडीमें चैतन्यकी बहिया उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती है। मताओ; चार्वाकोंके मतानुसार कारणसमुदायस्वरूप सामग्री भी यहां विधमान है । न्यायशास्त्रका कार्यकारणभाव पका होता है। कारणों के मिल जानेपर कार्य अवश्य हो जाना ही चाहिये।
तद्विशिष्टविवर्त्तस्यापायाच्चेत्स क इष्यते । भूतव्यक्त्यन्तरासंगः पिठिरादावीक्ष्यते ॥ १२९ ॥ कालपर्युषितत्त्वं चेपिष्टादिवदुपेयते । सत्किं तत्र न सम्भाव्यं येन नातिप्रसज्यते ॥ १३० ।।
यदि आप चार्वाक यह कहेंगे कि कसैंडीमें उन पृथ्वी आविकका अतिशयघारी विशिष्ट प्रकारका परिणाम नहीं है । अत: चैतन्य नहीं बनता है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन आपसे पूंछते हैं कि वह अतिशयधारी परिणाम आपके यहां कौनसा माना गया है !
बताओ, यदि आप दूसरे दूसरे मूतव्यक्तियों के आकर मिलजानेको विशिष्ट पर्याय स्वीकार करेंगे तो यह विशिष्ट परिणाम तो कसैंडी भगोना आदि पाकमाण्डों में भी देखा जाता है। अतः यहां चैतन्य उत्पन्न होजाना चाहिये ।
तमा यदि पिठी, महुआ आदिकके समान कुछ समय तक सडना, गलनारूप विशिष्ट परिणाम मानोगे ऐसा स्वीकार करनेवर तो हम माईत पूछते हैं कि क्या यह परिणाम उन कसैंडी मादिमे सम्भावित नहीं है। जलेबीके लिये बोले हुए चूनके समान कसैंडी में भी देर तक पृथ्वी, जल आदिक भी वासे किये जाते हैं जिससे कि फिर क्यों नहीं वहां चैतन्यकी उत्पत्रिका अतिप्रसंग होगा। । अर्थात् चाहें कहीं भी भूतोंके दो, तीन दिनतक परे रहनेसे वासे हो जानेपर चाहे
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तत्त्वादिसामणिः
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लहा बैतन्य उत्पन्न हो जावेगा। चून आदिके सहाये जानेपर समर्छन द्वीन्द्रिय, त्रींद्रिय या निगोराशि जीव उत्पन होजाते हैं किंतु मनुष्य घोडे, गाय, भैंस ये जीव उपजने चाहिये जैसे कि मासाके पेटम सत्त्व उपअसे हैं। यह आपादन है वस्तुतः चूनसे जीवोंका देह ही बनता है चैतन्य नहीं।
भूतानि कति चित्किञ्चित्कर्तुं शक्तानि केन चित् । परिणामविशेषेण दृष्टानीति मतं यदि ।। १३१ ॥ तदा देहेन्द्रियादीनि चिद्विशिष्टानि कानि चित् । चिद्विवर्तसमुद्भूतौ सन्तु शतानि सर्वदा ॥ १३२ ॥
चार्वाक बोलते हैं कि "जैसे वर्षा ऋतुके जल और मिट्टी से तथा द्रव्यपरिवर्तनस्वरूप व्याहारकालसे असंरूप मेंढक, गिंदोरे, गिंजाई, पतझा, इंद्रगोप आदि जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, सब स्थानाम और सप तुम नहीं होते है। इसी प्रकार कितने ही बार कोई कोई विशेष मूतचतुष्टय ही किसी विशेषपरिणामसे किन्हीं विशेष जीवोंको उत्पन्न करनेमें समर्थ देखे गये है। गर्भ या भन्य योनियों में मिले हुए भूतचतुष्टय चैतश्यको उत्पन्न कर देते हैं थाली, कसैंमें नहीं। भावार्थ कहते हैं कि यदि तुम्हारा ऐसा मन्तब्य है तब तो आपने प्रामाणिक प्रतीति के अनुसार कार्यकारण-व्यवस्था स्वीकार की इससे हमें मसलता हुई। इस तरह तो चेतन आस्मासे संयुक्त हो रहे कोई विलक्षण शरीर, इंद्रिय आदिक ही उस गर्म भादिकके समय सन्यपर्यायको परिया उत्पन्न करनेमें सर्वदा समर्थ हो जावो । यह स्वीकार कर लेना चाहिए । अर्थात् छिपे हुए चैतन्यस्वरूप उपादानकारणसे और शरीर, इंद्रियां, क्षयोपशम, उत्साह आदि निमित्तकारणोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति होती है । जबसे जड शरीर ही बनता है चेतन नहीं । दाल, अमरूद आदिके सडनेपर जो कोट आदि उपस हो जाते हैं उनका शरीर ही दाल आदिसे बनता है अनादि आत्मा नहीं। आत्मा तो इधर उपरसे वहां जन्म ले लेता है, असंख्य आस्मायें प्रतिक्षण अन्मते, मरते, हैं ।
तथा सति न दृष्टस्य हानि दृष्टकल्पना । मध्यावस्थावदादौ च चिदेहादेश्चिदुद्भवात् ॥ १३३ ॥ ततश्च चिदुपादानाच्चेसनेति विनिश्चयात् । न शरीरादयस्तस्याः सन्त्युपादानहेतवः ॥ १३४ ॥
उस प्रकार ऐसा कार्य, कारण, माननेपर प्रत्यक्ष और अनुमानसे देखे जाने हुए पदार्थकी हानि नहीं हुयी अर्थात् मध्य अवस्थामै अप्रिसे अग्नि या दीपकसे दीपकलिकाकी उत्पत्ति होने के 31
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तत्वार्थचिन्तामणिः
I
समान आध अवस्थामें भी चेतनमय पिंडसे ही चेतन उत्पन्न हुआ माननेपर उपादेय उपादानके कार्यकारणभावका भंग नहीं होता है। बांस या पत्थर के रगडनेसे पथिककी पहिली आगकी उत्पत्तिसमान बिना आवरण के उत्पन्न होनेकी अदृष्टकल्पनाका भी प्रसंग नहीं है । क्योंकि मध्यकी अवस्था के समान आदिमें भी चेतन आत्मद्रव्यसे या सुख, चारित्र, सम्यषव आदि ज्ञानशरीरी जीवित पिण्डसे ही वैसा चैतन्य उत्पन्न होता है। बिना उपादान के चैतन्य पैदा नहीं होता है उस कारण से अब तक चेतन उपादानसे ही ऐसी चेतनाकी उत्पत्तिका निश्चय हो जानेसे चेतनाके शरीर, इन्द्रिय और विषय या अन्य सूक्ष्मभूत आदि उपादान कारण नहीं हैं यह सिद्ध हुआ । बांस तो पुद्गलद्रव्य है वहीं रगड़ खाजानेपर अभिपर्यायको धारण कर लेता है । वांसके जलनेपर मध्यमें भी तो वांस ही अभिस्वरूप परिणत हुआ है। वांसमें भीतर कोई अभि घुसी हुई नहीं है। दाद होनेपर सम्पूर्ण वांस आममय होजाता है।
तदेवं न शरीरादिभ्योऽभिव्यक्तिवदुत्पतिश्चैतन्यस्य घटते सर्वथा तेषां व्यञ्जकत्ववत्कारकत्वानुपपत्तेः ।
इस कारण इस प्रकार पूर्वोक्त युक्तियोंसे यह घटित कर दिया है कि शरीर, इंद्रिय आदिकोंसे चैतन्य के प्रगट होने के समान उनसे चैतन्यकी उत्पत्ति भी नहीं घटित होती है। क्योंकि उन शरीर, इंद्रिय और विषयोंको चैतन्यके अभिव्यञ्जकपने के सदृश सभी प्रकारोंसे कारकपना मी सिद्ध नहीं होता है । भर्थात् शरीर आदिक या सूक्ष्मभूत ये चैतन्यके व्यञ्जक अथवा कारक हेतु नहीं हो सकते हैं ।
एतेन देहचैतन्यभेदसाधनमिष्टकृत् ।
कार्यकारणभावेनेत्येतद्ध्वस्तं निबुद्धयताम् ॥१३५॥
आचार्य महाराजने मिनलक्षणपना हेतुसे चैतन्य और देहका भेद सिद्ध किया था । उस समय चाकने परिणामपरिणाम - भावसे अथवा कार्यकारण भावसे चैतन्य और देहका भेद हम भी मानते हैं इस प्रकार अचार्यों के ऊपर सिद्धसाधन दोष उठाया था किंतु इस उक्त प्रकरणके द्वारा यह कार्यकारण भावसे देह और चैतन्यका दृष्ट किया गया यार्वाकोंका भेद सिद्ध करना भी खण्डित कर दिया गया समझ लेना चाहिये ।
निरस्ते हि देवचैतन्ययोः कार्यकारणभावे व्यंग्यव्यञ्जकभावे च तेन तयोर्भेदसाधने सिद्धसाधनमित्येतन्निरस्तं भवति तच्चान्तरत्वेन तद्भेदस्य साध्यत्वात् । न च यद्यस्य कार्य ततततवान्तरमतिप्रसङ्गात् ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
२४३
देह और चैतन्य कार्यकारणभाव तथा व्यायव्यञ्जक भावके पंक्की तौरसे प्रतिविधान ( खडन ) ही जाने पर इससे ही उन दोनोंके भेद सिद्ध करनेमें उठाया गया यह सिद्धसाधनदोष भी खण्डित होगया है क्योंकि भिन्न तत्त्वरूपसे उन देह और चैतन्यके भेदको हमने साध्य किया है । न्याय यह है कि जो जिसका कार्य होता है, वह उससे वास्तविक भिन्नता नहीं होता है। ऐसा न मानकर यदि किसीके कार्यको भी उससे विजातीय भिन्न तत्त्व मान लोगे तो असंख्य तत्त्व बन बैठेंगे । यह तत्त्वोंकी संख्या के अतिक्रमणका मसँग होगा । अर्थात् मिट्टी, दण्ड, घट, और तुरी, तंतु, पट, इस प्रकार न्यारे न्यारे असंख्याते तत्त्व हो जायेंगे। कोई नियत निर्णीत तत्त्वव्यवस्था नहीं बन सकेगी।
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नापि स्वात्मभृतं व्यंग्यं तत एवं व्यञ्जकाद्भिनं तत्तच्चान्तरमिति चेन, अस्यो रसनस्य तद्भावप्रसङ्गाव, रसनं हि व्यंग्यमद्भ्यो भिन्नं च ताभ्यो न च तवान्तरं तस्याप्तत्वेऽन्तर्भावात् ।
तथा इस ही कारण से जो स्वयं निज व्यंजककी आत्मा स्वरूप हो रहा है, वह व्यंग्य भी तत्त्वान्तर नहीं होता है । अन्यथा यहां भी असंख्य व्यंग्य तत्व भिन्न भिन्न माननेका अतिप्रसङ्ग हो जावेगा । अर्थात् व्यञ्जक प्रदीपके व्यंग्य हो रहे घर पर आदि सर्व ही पदार्थ म्यारे न्यारे तत्त्व बन जावेंगे जो कि तुमको भी अनिष्ट हैं । हम भिन्न तत्त्वपनेसे देह और चैतन्यका भेद सिद्ध कर रहे हैं। अतः चार्वाक अभिन्न तत्वोंमें केवल व्यङ्ग्यव्यंजकपने से भेद मानकर हमारे ऊपर सिद्धसाधन दोष नहीं उठा सकते हैं क्योंकि चैतन्य और देहका तत्त्वान्तर होकर भेद सिद्ध किया आ रहा है इसके समझकर दोष उठाना चाहिए । बालकपन अच्छा नहीं ।
यदि चार्वाक यों कहेंगे कि वह प्रगट करने योग्य चैतन्य तो अपने व्यञ्जक माने गये पृथिवी व्यादिकसे भिन्न है इस कारण दूसरा तत्त्व है, सो यह कहना तो समुचित नहीं है क्योंकि ऐसा माननेपर तो जसे रसना इंद्रिय व्यंग्य हो जाने के कारण तत्त्वान्तर होनेका प्रसंग आता है। देखिये जलतत्वसे बनी हुयी रसना इंद्रिय निश्चय करके जलसे व्यंग्य है और जलोंसे भिन्न भी है किंतु उसको आपने मित्र नहीं माना है कारण कि रसना इंद्रियको जलतत्त्व गर्भित किया है । नैयायिकों के समान चाक भी नासिका इंद्रियको पृथ्वीस्वरूप और रसनाको जलसे बनी हुयी तथा चक्षुः इंद्रियका तेजस् तत्त्व से उत्पन्न होना एवं स्पर्शन इंद्रियको वायवीय स्त्रीकार करते हैं ॥
कार्यकारणयोः सर्वथा भेदात्तद्विशेषयोर्व्यग्यव्यञ्जकयोरपि भेद एवेति चेम, कोविदभेदोपलब्धेः कथमन्यथा चैतन्यस्य देहोपादनत्वेऽपि तत्वान्तरता न स्यात्, देहाrिoid वा, येन कार्यकारणभावेन देहचैतन्ययोर्भेदे साध्ये सिद्धसाधनमुद्भाव्यते ।
यदि तुम चाकि यह कहोगे कि हम नैयायिकके समान कार्य और कारणको सर्व प्रकार से भिन्न मानते हैं । अतः कार्य कारण नाव व्याप्यरूत्र होरहे हयंग्य - व्यञ्जकोंका भी भेद ही है ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जो सामान्य में धर्म रहता है वह उसके विशेषो में अवश्य पाया जाता है । प्रन्यकार कहते हैं कि यह पाका कथन ठीक नहीं है क्योंकि किन्हीं किन्हीं कार्य और कारणोंमै तन्तु, पटके समान या मिट्टी घटके समान अभेद भी देखा जाता है तथा प्रदीप और घटके समान कई व्यंग्यव्यञ्जकोंमैं भी पौलिकपने से अभेद देखा जाता है यदि आप ऐसा न स्वीकार कर अन्य प्रकार मानेंगे तो शरीररूपकारणको चैतन्य स्वरूप कार्यका उपादानपना होते हुए भी कारकपक्षमें मित्रतत्रपना क्यों नहीं होगा ? अथवा चैतन्यकी देह से प्रगटता माननेपर भी व्यञ्जकपक्षमै सत्त्वान्तररूपसे भेद क्यों न होगा ? बताओ ! जिससे कि कार्यकारणरूप करके देह और चैतन्यका मेद स्वीकार करनेपर आप चार्वाक हमारे तत्वान्तररूप से मदेकों साध्य करने में सिद्धसाधन नामका क्षेत्र उठा सर्के । अर्थात् आपके मतानुसार कार्यकारणरूपसे भेद मानने पर सस्त्रान्तररूपसे भेद सिद्ध करना आपको पहिले इष्ट नहीं था और वैनिकका अनुकरण करनेपर तत्त्वान्तररूप से मेद मानना आपको आवश्यक हुआ । अतः आप हमारे ऊपर सिद्धसापन दोष नहीं उठा सकते है प्रत्युत आपके ऊपर अपसिद्धान्त दोष है ।
२४४
देवस्य च गुणत्वेन बुद्धेर्या सिद्धसाध्यता ।
भेदे साध्येतयोः सापि न साध्वी तदसिद्धितः ॥ १३६ ॥
चैतन्यको शरीरका गुण माननेपर भेद साध्य करनेमें गुणगुणी भावसे भेद इष्ट होनेका जो चावकों द्वारा सिद्धसाध्यतारूप दोष उठाया जाता है वह भी अच्छा नहीं है क्योंकि देह और चैतन्यका गुणगुणिभावसे भेद होना सिद्ध नहीं होता है अर्थात् शरीरका गुण चैतन्य सिद्ध नहीं हो सकता है अतः चैतन्यको देवका गुणवन साधने हेतुकी प्रसिद्धि है।
कथं देहगुपत्वेन बुद्धेरसिद्धिर्यतो बुद्धिदेहयोर्गुणगुथि मावेन मेदसाधने सिद्धसाधनमसाधीयः स्यादिति ब्रूमहे ।
चाक कहते हैं कि चैतन्यको देहका गुणपना कैसे असिद्ध है ? बताओ जिससे कि बुद्धि और देहका गुणगुणिरूपसे भेद स्वीकार करनेपर हमारी तरफसे दिया गया सिद्धसाधन दोष अधिक चोखा न होवे | इस चार्वी कके कटाक्षपर अब हम जैन इस प्रकार आरोपसहित बोलते हैं। सुनिये:
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न विग्रहगुणो वोधस्तत्रानध्यवसायतः ।
स्पर्शादिवत्स्वयं तद्वदन्यस्यापि तथा गतेः ॥ १३७ ॥
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तस्वाचिन्तामणिः
शरीरका गुण चैतन्य नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उन शरीरमें जैसे बिना किसी स्वटकाके हमको अपने आप सर्श, रूप, गंध आदिका निर्णय होरहा है ( दृष्टांत ) वैसा शरीरमें चैतन्यके रहनेका निर्णय नहीं है ( हेतु ) यदि किसीके गुणको दूसरेका मान लेंगे तो उसी तरह अन्य घट, पर आदिकका गुण भी चैतन्य उस प्रकार सिद्ध हो जावेगा । तथा गंधगुण जसका और वायुका रूपगुण भी बोला जायेगा जो कि आप चाकको या नैयायिकको अभीष्ट नहीं है ।
न हि यथेह देहे स्पीदय इति स्वस्य परस्य वाध्यवसायोऽस्ति तथैव देहे बुद्धिरिति येनासौ देहगुणः स्थाय।
जैसे कि इस देहम स्पर्श, रूप, रस और गंध गुण विद्यमान हैं इस प्रकार हमको और दूसरोंको निश्चय हो रहा है। उसी तरह " देइमें चतन्य है " ऐसा निर्णय हमको और दूसरोंको नहीं होता है जिससे कि यह चैतन्य देहका गुण माना जावे । प्रतीतियोंसे बाधित होरहे पदार्थको कोई नहीं मानता है।
प्राणादिमति काये चेतनेत्यस्त्येवाव्यवसायः कायादन्यत्र सदभावादिति चेत् न तस्य नराधकसद्भावात्सत्यवानुपपत्तेः । कथम् -
यदि चार्वाक यों कहें कि " प्राणस्वरूप श्वास उच्छास लेना, बोलना, चेष्टा करना, पहना, पढाना आदिसे सहित होरहे शरीरमै चेतना विद्यमान है इस प्रकारका निर्णय सबको हो रहा है।
और प्राण आदिसे युक्त देखे गये शरीरसे अतिरिक्त घट, पट आदिकमें उस चेतनाका अमाव प्रतीत हो रहा है। इस कारण शरीरमै ही पेतना मानना चाहिये। अंथकार कहते हैं कि यह चावाकोंका मैतव्य ठीक नहीं है क्योंकि शरीरमें चेतना है ऐसे भ्रांत ज्ञानका पाधक प्रमाण विद्यमान है अतः उस ज्ञानको प्रामाणिकपना सिद्ध नहीं हैं। वह कैसे ! सो सुनिये ।
तद्गुणत्वे हि बोधस्य मृतदेहेऽपि वेदनम् । भवेत्त्वगादिवबाह्यकरणज्ञानतो न किम् ॥ १३८ ।
यदि चैतन्यको उस भौतिकवेइका- ही गुण मानोगे तो मृतशरीरमें भी चैतन्यका ज्ञान होना चाहिये । जैसे मुर्दा शरीरमै स्पर्शन आदिक इंद्रियोंसे स्पर्श, रूप आदिकका ज्ञान हो रहा है उसी प्रकार यदिरंग इंद्रियोंसे अन्य हुये ज्ञानके द्वारा हम तुमको मृतशरीरमें चैतन्यका ज्ञान मी क्यों नहीं होता है ! बताओ, क्योंकि आपके मतमे चैतन्य भी रूपरसके समान शरीरका गुण है और वे पहिरंग इंद्रियोंसे ग्राह्य हैं।
नाणेन्द्रियज्ञानप्राशो पोधोऽस्तु देहगुणत्वात् स्पर्शादिवद्विपर्ययो वा।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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उक्त अनुमानकी व्याख्या करते हैं कि चैतन्य मी पक्ष ) बहिरङ्ग इंद्रियोंसे जन्य ज्ञानके द्वारा प्राह्य हो जाओ ( साध्य, क्योंकि आप चार्वाकोंके मतानुसार वह शरीरका गुण है (देतु) जैसे कि शरीरके गुण स्पर्श, रूप, रस ये बहिरंग इंद्रियोंसे जाने जाते हैं । अन्वमदृष्टांत ) दूसरी यह है कि अथवा विपरीत ( उल्टा ) हो जाये अर्थात देहका गुण चैतन्य जैसे पहिरन इंद्रयोंसे नहीं जाना जाता है। उसी प्रकार देवके गुण माने गये स्पर्श, रूप आदिक भी बहिरङ्ग इंद्रि योंसे नहीं जाने जाने ऐसा नहीं देखा जाता हूँ । अतः चार्वाकके हेतु में अन्यथानुपपत्ति गुण नहीं है जो कि हेतुका प्राण है ।
न च बोधस्य बाह्यकरणज्ञानवेद्यत्वं दृष्टमितीष्टं वा संशयानुत्पचित्र संगामापि स्पर्शादेरामकरणज्ञानवेद्यत्वमित्यतिप्रसङ्गविपर्ययो देहगुणत्वं मुद्देवधिते।
चैतन्यका माझ इंद्रियजन्य ज्ञानसे जाना गयापन आज तक न सो देखा गया है और न अनुमान आदि प्रमाणोंसे इष्ट किया है। यदि ऐसा सिद्ध हो गया होता तो चैतन्यको देहका गुण होनेमें किसीको संशय ही उत्पन्न नहीं हो जानेका प्रसंग आता, अर्थात् सभी बाल गोपाल शट चैतन्यको देहका गुण निर्णय कर लेते। अतः चैतन्यको बहिरंग इंद्रियोंसे जाननेका अतिप्रसंग होना मति मानो, और यह विपर्यय भी नहीं मानो कि स्पर्श आदिक गुण मी चैतन्य के समान बहिरंग इंद्रियजन्य ज्ञानोंसे जानने योग्य नहीं हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त दोनों अतिप्रसंग और विपर्यय दोष होना बुद्धिको देके गुणनेका बाघन कर रहे हैं । अतः " देह बुद्धि है " इस ज्ञानको बाधक प्रमाण उत्पन्न होनेसे सत्यता सिद्धः नहीं होती है तथा च शरीरका गुण चैतन्य नहीं है । यह हमारा प्रतिज्ञावाक्य सिद्ध हुआ ।
सूक्ष्मत्वान्न कचिद्वाह्यकरणज्ञानगोचरः ।
परमाणुवदेवायं बोध इत्यप्यसंगतम् ॥ १३९ ॥ जीवत्कायेऽपि तत्सिद्धेरव्यवस्थानुषङ्गतः । स्वसंवेद्नतस्तावद्बोधसिद्धो न तद्गुणः ॥ १४० ॥
जैनोंने कहा था कि यदि चैतन्य शरीरका गुण है तो स्पर्श, रूप आदिके समान बहिर्भूत इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य होना चाहिये । इस पर हम चाकोंका कहना है कि अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे परमाणु और उसके रूप, रस आदि गुणोंके समान यह चैतन्य कहीं भी बहिरंग इन्द्रियों से जन्य हुये ज्ञानद्वारा गृहीत नहीं होता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार चार्वाकों का कहना भी स्वकीयमतके निर्वाह करनेकी संगतिसे रहित हैं क्योंकि यदि चैतन्यको परमाणु के समान अत्यंत छोटा मानोगे तो जीवित हो रहे शरीर में भी चैतन्यको सिद्ध करनेकी व्यवस्था नहीं बन सकने का
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तयापिन्समानः
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प्रसंग होगा और, जब कि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे तो चैतन्यकी सिद्धि हो रही है, ऐसी दशाम वह चैतन्य शरीरका गुण सिद्ध नहीं हो पाता है कारण कि भौतिकशरीरके एक भी गुणका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं होता है।
न कचिरोधो बाधकरणज्ञानविषयः प्रसन्यता देहगुणत्वात् तस्य देहारम्भकपरमागुरूपादिभियभिचारातेषां पहिाकरपात्वाविषयत्वेऽपि देहगुणात्वस्य भावात् । न च देहावयवगुणा न भवन्ति सर्वथावयवावयविनोमैदाभावादित्यसङ्गगतम् ।
उक्त वार्तिकोंका भाष्य करते हैं कि देहका गुण होनेसे कहीं भी चैतम्यको पहिरन इन्द्रियजन्य ज्ञानों के द्वारा ग्राह्यपनेका प्रसङ्ग नहीं होगा क्योंकि जो जो देह के गुण है, वे थे। बहिरङ्ग इन्द्रियों से ग्राह्य हैं। इस व्याधिसे युक्त होरहे उस हेतुका शरीरको बनानेवाले परमाणुओंके रूप, रस आदि गुणोंसे व्यभिचार हो जाता है । देखिये, उन परमाणुओंके रूप आदि गुणों में पहिरन इंद्रियोंसे ग्राह्यपना में होते हुए मी का भुगतान हिपमान है। देहके अवयव माने गये परमाणुगोंके जो गुण हैं वे शरीरके गुण नहीं होते हैं यह नहीं कहना चाहिये क्योंकि अवयव और अवयवी सर्व प्रकारोंसे भेद नहीं स्वीकार किया गया है इस प्रकार चावाफका कहना पूर्वापरसङ्गतिसे रहित है।
जीबदेहेऽपि तत्सिद्धयवस्थाभावानुषंगात् । तत्र तव्यवस्था हि इंद्रियजहानात्वसंवेदनाद्वा ? न वावदाधः पक्षो, पोधस्यायामकरणज्ञानगोचरत्ववचनात् द्वितीयपक्षे तु न बोधो देहगुणः स्वसंवेदनवेद्यवादन्यथा स्पोदीनामपि स्वसंविदितत्वप्रसङ्गात् ।।
परमाणुसम्बन्धी रूपके समान यदि चैतन्यको सूक्ष्म अवयवोंका गुण मानोगे हो जीवित शरीरमें भी ज्ञान सिद्ध करनेकी व्यवस्था नहीं हो सकनेका प्रसङ्ग आजावेगा । परमाणु चाहे स्वर्गमें हो या सिद्धलोकमें हो उसके गुण पहिरक इंद्रियोंसे नहीं जाने जाते हैं । उस जीवित शरीरमें उस चैतन्यकी व्यवस्था क्या आप चावाक इंद्रियजन्य ज्ञायसे मानोगे अथवा स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे करोगे ! बताओ । उनमें पहिला पक्षग्रहण करना तो ठीक नहीं है क्योंकि चैतन्यको बाह्य इंद्रियजन्य ज्ञान का विषय आपने भी नहीं कहा है और दूसरे पक्ष में तो देहका गुण चैतन्य सिद्ध नही होता है। कारण कि वह स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे जानने योग्य है। अन्यप्रकारसे यानी यदि देहके गुणोंको स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे वेध मानोगे तो स्पर्श, रूप आदि गुणोंका भी स्वसंवेदनप्रत्यक्ष होजानेका प्रसंग आवेगा । रूप, रस आदिकका स्वसंवेदनप्रत्यक्ष आज तक किसीको हुआ नहीं है।
यत्पुनर्जीवत्कायगुण एव पोधो न मृतकायगुणो येन तत्र बालेन्द्रियाविषयवे जीवस्कायेऽपि बोधस्य तविषयत्वमापयेवेति मतम्, तदप्यसत्, पूर्वोदितदोषानुपशात् ।
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सत्ताविसामान
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जैनोंके दूसरे दोष देनेमें चार्वाकका जो फिर यह मन्तव्य है कि हम चैतन्यको जीवित शरीरका ही गुण मानते हैं, मरे हुए शरीरका गुण नहीं, जिससे कि वहां चैतन्यमें पायेन्द्रिमों के द्वारा अग्राह्यता होते हुए जीवित शरीरमें भी ज्ञानको उन बहिरक इंद्रियोंका विषषपना आपादन किया जाय । मावार्थ-चैतन्यको न हम मृतशरीरका गुण मानते हैं और बाहिरङ्ग इंद्रियोंसे प्राध भी नहीं मानते हैं फिर हमारे ऊपर व्यर्थ ही कटाक्ष क्यों किया जाता है | ग्रंथकार कहते हैं कि चार्वाकोंका जो मतम्य है वह भी प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि यहां मी पहिले कहे हुए दोषोंका ही प्रसंग आ जाता है अर्थात् चैतन्यकी ज्ञप्ति कसे भी नहीं, हो सकेगी | आप स्वसंवेदनप्रत्यक्षको मानते नहीं हैं और बहिरंग इंद्रियोंसे चैतन्य जाना नहीं जाता है। फिर चैतन्यके जाननेका आपके पास क्या उपाय है ! बताओ !
अभ्युपगम्योज्यसे। चार्वाकके मनको कुछ देर के लिये स्वीकार कर आचार्य कहते हैं कि
जीवस्कायमणोऽप्येष यद्यसाधारणो मतः । प्राणादियोगवन्न स्यात्तदानिन्द्रियगोचरः ॥ १४१ ॥
पाकिसे हम पूछते हैं कि यह चैतन्य क्या जीवित शरीरका असाधारणगुण है, मा साधारण गुण है ! बताओ । यह चैतन्य यदि पाणवायु, इन्द्रिय, वचन और आयुष्य कर्मके संयोगके समान जीवितशरीरका ही अन्य न मिल सके ऐसा असाधारण गुण माना है सब तो वह चैतन्य अन्तरंग मन इंद्रियसे माह्य नहीं होना चाहिये क्योंकि मौतिकशरीरके असाधारण कहे गये प्राणवायु, उदरामि, लार, शुक आदिके संयोगरूप गुण अभ्यन्तर मनके द्वारा गृहीत नहीं होते हैं।
जीवस्काये सत्युपलम्भादन्यत्रानुपलम्माभायमजीवत्कायगुणोऽनुमानविरोधात् किं तहि यथा प्राणादिस्योगो जीवत्कायस्यैव गुणस्तथा गोषोऽपीति चेत्, तदेवेन्द्रियगोचरः स्मात् । न हि प्राणादिसंयोगा स्पर्शनेन्द्रियागोचरः प्रतीतिविरोधात् । ।
शरीरके जीवित रहनेपर चैतन्य देखा जाता है और इसके अतिरिक्त लोष्ठ या शव चैतन्य नहीं देखा जाता है । इस हेतुसे यह चैतन्य मृतकायका गुण नहीं हैं अन्यथा उक्त अनुमानसे विरोध भावेगा, तो क्या है ! इस पर हम चार्वाक कहते हैं कि जैसे प्राण, वचन, हस्त, पित्चामि आदिके संयोग जीवित शरीरकेही गुण हैं उसी प्रकार चैतन्य भी जीवित शरीरका एक असाधारण गुण है। यदि इस प्रकार चार्वाक कहेंगे तो हम अन कहते है कि प्राणवायु, वचन, भाविके संयोगके समान ही चैतन्य भी बाह्य इन्द्रियोंका विषय हो जावेगा मनका विषय
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तत्त्वार्थ चिन्तामणिः
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न हो सकेगा । देखो ! शरीरके असाधारण गुण जो प्राण आदिकके संयोग माने हैं क्या वे स्पर्शन इंद्रिय विषय नहीं है ? किंतु अवश्य हैं।
यदि आप प्राणको स्पर्शन इन्द्रियका और वचनको कर्ण इन्द्रियका विषय न मानोगे तो बाल गोपाल सबसे जानी गयी प्रतीतिस विरोध होगा । अर्थात् सब कोई शरीर के गुणोंको स्पर्शन आदिक इंद्रियोंसे जान रहे हैं। नाडी चलना, फेफड़ाकी गति ये क्रियायें मी चक्षु, और स्पर्शनसे जानी जाती हैं ।
कश्विदाह नाये जीवच्छरीरस्यैव गुणस्ततः प्रागपि पृथिव्यादिषु भावादन्यथात्यन्तासस्तोपादानायोगाद्गनाम्भोजवत्, साधारणस्तु स्यात्तदोपाभावादिति तदसत् ।
यहाँ कोई कहता है कि यह चैतन्य जीवितशरीरका ही असाधारण गुण नहीं है क्योंकि शरीर बनाने के पूर्व भी बट, पट आदिकोंको बनानेवाले पृथ्वी, जल, तेज और बायु तत्वों में चैतन्य विद्यमान था अन्यथा यानी यदि ऐसा न माना जावे तो आकाश कमलके समान अत्यंत रूप से असत् हो रहे चैतन्यका उन पृथ्वी आदिक तत्वोंमें उपादानकारणपना न हो सकेगा उशदान कार णोंमें कार्य शक्तिरूपसे विद्यमान रहते हैं। हां। जीवितशरीरका चैतन्य अन्यस्थानों में भी पाया जाने ऐसा साधारण गुण होय तो इसमें कोई दोष नहीं है। बाह्य इंद्रियोंसे ज्ञात हो जानेका वह प्रसङ्ग तो परमाणुगुणोंके ज्ञाव न होनेसे निवारित हो जाता है अतः साधारण गुण माननेपर वह दोष नहीं आता है। आचार्य कहते है कि इस प्रकार चार्वाक एकदेशीयका यह कहना भी असत्य है, प्रशंसनीय नहीं है। कारण कि -
साधारणगुणत्वे तु तस्य प्रत्येकमुद्भवः ।
पृथिव्यादिषु किन्न स्यात्स्पर्श सामान्यवत्सदा ॥ १४२ ॥
द्वितीय पक्षके अनुसार यदि चैतन्यको शरीरका साधारण गुण मानोगे तब तो साधारण माने गये स्पर्शके समान अकेले अकेले पृथ्वी, जल, आदिमें क्यों नहीं सर्वदा चैतन्यकी उत्पत्ति होती रहेगी ! बताओ अर्थात् स्पर्शके समान घट, पट आदिकों में भी चैतन्य पैदा हो जायेगा । नैयायिक और चार्वाक मतानुसार स्पर्श गुण तो चारों भूतों का सामान्य हैं शेष गुण ऐसे नहीं हैं । जलमें गंध नहीं, तेजमें रस, गंध नहीं, बायुमै रूप, रस, गंध तीनों भी नहीं माने हैं।
tataceterarरेण परिणतेषु पृथिव्यादिषु बोधस्योद्भवस्तथा तेनापरिणतेष्वपि स्यादेवेति सर्वदानुषो न भवेत् स्पर्शसामान्यस्येव साधारणगुणत्बोपगमात् ।
जीवित शरीर के आकार करके परिणामको प्राप्त हुए पृथ्वी आदिकर्ते जैसे ज्ञानकी उत्पत्ति 'मानते हो, वैसे ही जीवित शरीरस्वरूप से नहीं परिणमे हुए घट, पट आदि पृथिवीमें भी चैतन्य
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उत्पन्न हो जायेगा। इस प्रकार सदा ही चैतन्यकी अनुमति नहीं हो सकेगी। आपके मतमें सामान्य स्पर्शके समान चैतन्य भी पृथ्वी आदिकोंका साधारणगुण माना गया है । अर्थात् अकेले अकेले, जल, ज्योतिः, नागु, पट, घट, आदिमें चैतन्य सर्वदा उत्पन्न होता रहेगा। सामान्य गुण तो सर्वदा सम्पूर्ण अवस्थाओं में पाये जाते हैं।
प्रदीपप्रभायामुष्पस्पर्शस्यानुभूतस्य दर्शनात् साध्यशून्यं निदर्शनमितिन शनीयम, तस्यासाधारणगुणत्वात्साधारणस्य तु स्पर्शमात्रस्य प्रत्येकं पृथिव्यादि मेदेवशेषेषुद्भवप्रसिद्धः।
___ यदि चार्वाक यों कहें कि जैनोंके कहे गये जो जो पृथिवी आदिकोंका साधारण गुण है वह एक एक भी प्रकट होजाता है जैसे कि स्पर्श। इस अनुमानमें दिया गया स्पर्शदृष्टांत तो साध्यसे रहित है क्योंकि दीपककी फैल रही भी प्रकार नहीं देता उष्णस्पर्श देखा जाता है। अतः प्रगट होकर रहना रूप साध्य दीपकलिकाकी प्रभाके उष्णस्पर्शमैं नहीं रहा। ग्रंथकार कहते हैं कि यह शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि दीपकको प्रमाका वह उष्ण स्पर्श असाधारण गुण है । शीत, उष्ण, रूखा, चिकना, हलका, भारी, नरम, कठोर इन स्पर्शक भेदोंमें साधारणपनेसे न्यापक स्पर्शसामान्य तो सम्पूर्ण पृथिवी आदिकोंके प्रत्येक भेद उपभेदों में प्रगट होकर प्रसिद्ध हो रहा है। वह सामान्य दीपकी प्रभा भी है। यहां दीपकम तो उष्णस्पर्श प्रगट है ही किंतु उसकी तेजस कांतिम स्पर्श प्रकट नहीं अतः प्रभाके स्पर्शसे दोष दिया है। उसका समाधान होचुका है।
परिणामविशेषाभावात् न तत्र चैतन्यस्योद्भतिरिति चेत्, तर्हि परिणामविशिष्टभूतगुणो बोध इत्यसाधारण एवाभिमतः, तत्र चोक्तो दोषः, तत्सरिजिहीर्षणावश्यमदेहगुणो बोधोऽभ्युपगन्तव्यः ।
यदि चार्वाक यहां यों कहे कि अकेले पृथ्वी आविक चैतन्यकी उत्पत्तिका कारण माना गया विशेषपरिणाम नहीं है। अतः वहां चैतन्यकी उत्पत्ति या मकटता नहीं होती है । तब ऐसा कहनेपर तो चा कोंने विलक्षण परिणामों को धारण करनेवाले मूतोंका गुण चतन्य माना । इस तरह चैतन्य असाधारण गुण ही. इष्ट किया गया और उसमें हम दोष पहिले ही कह चुके हैं अर्थात् प्राण आदिके संबंध समान चैतन्य मी बहिरङ्ग इंद्रियोंका विषय होजाना चाहिये । उस दोषको दूर करनेकी यदि इच्छा रखते हो तो चैतन्यको देहका गुण नहीं किंतु आत्माका गुण आपको अवश्म स्वीकार करना चाहिये।
इति न देहचैतन्ययोर्गुणगुणिमावेन भेदः साध्यते येन सिद्धसाध्यता स्यात्, सवोऽनवयं तयोर्भेदसाधनम् ।
इस प्रकार हम जैनोंने गुण और गुणी स्वरूपसे देह और सन्यका भेद नहीं सिद्ध किया है। जिससे कि तुम चार्वाक इमारे ऊपर सिद्धसाधन दोष उठा सको। उस कारण असक निर्दोष
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रूपसे यह सिद्ध हो गया कि उन वेह और चैतन्यका भिन्नतत्त्वपनेसे भेद है। कार्यकारणभाव या गुणगुणिभाव तथा परिणामपरिणामिमावसे भेद नहीं सिद्ध किया जारहा है। यहां तक पूर्व प्रकरणका थोडा उपसंहार किया है।
किश्च ।
और भी चैतन्य अथवा आत्माको पृथिवी आदि पुद्गलोंसे तथा शरीरसे मिन्न तत्त्वपना सिद्ध करते हैं। सुनिये ।
अहं सुखीति संवित्तौ सुखयोगो न विग्रहे । बहिःकरणवेधत्वप्रसङ्गान्नेन्द्रियेष्यपि ॥ १४३ ॥
" में सुखी हूं" इस तरह के समीचीनज्ञानमे सुखका सम्बंध शरीरमें नहीं प्रतीत होरहा है। यदि सुस्लपर्यायका आधार शरीर होता तो बहिरंग इंद्रियोंसे जानेगयेपन का प्रसंग आता है किंतु स्पर्शन चक्षुरादिक इंद्रियोंसे सुख, दुःख आदिक नहीं जाने जाते हैं । तथा वह सुखका आधिकरणपना इंद्रियों में भी नहीं देखा जाता है विशेष यह कहना है । क्योंकि पुद्गलकी बनी हुयीं इंद्रियां अतींद्रिय है । मुख्य प्रत्यक्षके बिना हम लोग उन इंद्रियोंका प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं । जन इंद्रियां ही अतींद्रिय हैं तो उनके गुण भी अतींद्रिय ही होगे किंतु सुख, दुःख आदिकका प्रत्यक्ष होरहा है अतः वे इन्द्रियोंके गुण नहीं है । घनाकुलके संख्यात भाग या असंख्यातवें भाग आत्माके कर्ण, चक्षुः आदि नियत स्थानोंपर इंद्रियपर्याप्तिनामक पुरुषार्थद्वारा आहारवर्गणासे बनायी गयी बाह्य निर्वृत्ति ही इंद्रिय है । शेष बाह्य अंतरंग उपकरण या अभ्यंतर निर्वृत्ति अथवा भावइंद्रियां तो यहां इंद्रिय नहीं मानी गयी हैं। अन्य दर्शनिकों के यहां भी मिलती जुलती यही इंद्रिय कही गयी है । दूसरी बात यह है कि इंद्रियों के नष्ट हो जाने पर भी मुल और दुःखका सरण होता है। अतः इंद्रियोंका गुण चैतन्य नहीं है ।
कर्तृस्थस्यैव संवित्तेः सुखयोगस्य तत्त्वतः । पूर्वोत्तरविदां व्यापी चिद्विवर्तस्तदाश्रयः ॥ १४४ ॥
जबकि वास्तविकरूपसे सुखका सम्बंध अपने कर्ता (आत्मा) में ही स्थित होकर समीचीन रूपसे ज्ञात होरहा है और शरीर तथा इंद्रियोंमें सुखका सम्बंध होना दूषित होचुका है, इस कारण पूर्व और उत्तरकालमें होने वाले ज्ञान में व्यापक रूपसे रहनेवाले चैतन्यद्रव्यका धारापाहरूपसे परिणत होरहा चैतन्यसनुदाय ही उप्त सुखगुणका आधार है। अथवा चैतन्य परिणामोंसे परिणमन करनेवाला आत्मा ही " मैं सुखी हूं" इस ज्ञानका अवलम्ब ( विषय ) है ।
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्यादणी चेत् स एवात्मा शरीरादिविलक्षणः । कर्तानुभविता स्मर्तानुसन्धाता च निश्चितः ॥ १४५ ॥
यदि सुखगुणका आधारभूत कोई गुणी द्रव्य मानोगे तो वही आत्मा अन्य सिद्ध है । जो कि शरीर, इंद्रिय, विषय और पृथ्वी आदिसे सर्वथा विलक्षण है । वही सुख और ज्ञान आदिपर्यायोंका कर्ता है, अनुभव करनेवाला है, और स्मरण करनेवाला है, तथा वही आत्मा एकत्व, सादृश्य आदि विषयोंका आलम्बन लेकरं स्वकीयपरिणामोंका प्रत्यभिज्ञान करनेवाला है यह सिद्धांत निर्णीत हो गया है। शरीर इंद्रियोंके रूप, रस आदि गुणों में उक्त बातें नहीं पायी जाती हैं । न तो वे स्वयं किसीको स्वतंत्रतासे करते हैं सथा न अनुभवन करते हैं और स्मरण, प्रत्यभिज्ञान तो वे क्या करेंगे कि उक्त कर्तव्य होते हुए देखे जाते हैं कि मैं अध्ययन करता हूं, सामायिक करता हूं । तथा पर्शन इंद्रियसे जाने हुएका चक्षुः इंद्रियसे प्रत्यभिज्ञान होता है। जिसको मैंने छुआ था, उसीको देख रहा हूं । चक्षुःके नष्ट हो जानेपर मी काले नीले रूपका पीछे स्मरण होता है तथा किसी किसीको पहिले जन्मके अनुभूत विषयका जन्मान्नरमें स्मरण हो जाता है ! एसी दिनके पैदा हुए बच्चेको स्तनसे निकला हुआ दूध मेरी इष्ट सिद्धिको करनेवाला है यह ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। अतः अनेक युक्तियों से अनादि अनंत रहनेवाला आत्मा द्रन्य चार्वाकोको मान लेना चाहिए । निरर्थक आग्रह करना अनुचित है ॥
सुखयोगात्सुख्यामिति संवितिस्तावत्प्रसिद्धा, तत्र कस्य सुखयोगो न विषयस्येति प्रत्येय। ततः कर्तृरूपः कश्चित्तदाश्रयो वाच्यस्तदभावे सुख्यामिति कर्तृखसुखसवि स्पनुपपत्तेः।
" मैं सुखी हूं" इस प्रकार की प्रतीति तो सुखगुण के आधारपनेसे प्रसिद्ध हो रही है । वहाँ पहिले यह बात विचारो या निर्णय करो कि वह सुखका योग किसको है :, घट, पट, खाय, पेय, गहना, गृह आदि भोगोपभोगकी सामग्रीरूप विषयमें तो सुस्वगुण नहीं रहता है अन्यथा चमचा, कसैंडी आदिको सबसे पहिले स्वादका ज्ञान हो जाना चाहिए । रुपयोंकी प्रभुताकी अधि. पति थैली हो जावेगी, मद्यसे बोतल नाचती हुयी नहीं देखी गयी है ! तथा शरीर, इंद्रियोंका भी गुण सुख नहीं है । इसको भी सिद्ध कर चुके हैं । इस कारण सुखका कर्ता ही कोई उस सुखका आधार कहना चाहिये।
यदि उस कर्ताको आधार न माना जायेगा तो " मैं सुखी हूं " इस प्रकार में स्वरूप क में रहनेवाले सुखके आगे लगा हुआ महावीय “इन् " प्रयाका वाच्च अधिकणवरूप
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तस्वाचिन्तामणिः
कर्नामें स्थित होकर सुखसंवित्तिकी सिद्धि नहीं हो सकेगी, अतः मैं सुखी हूं, मैं ज्ञानी हूं, यहां मैंका वाच्य कर्ता घेतन आत्मा ही ज्ञान, सुखोंका आश्रय है । यह मान लेना चाहिये।
स्थान्मतं पूर्वोचरमुखादिरूपचैतन्यविवर्तव्यापी महाचिद्विवर्ती कार्यस्येव सुखादिगुपानामाश्रयः कर्ता, निराश्रयाणां तेषामसम्भवात् । निरंशसुखसंवेदने चाश्रयायिभावस्थ विरोधात्तस्य प्रांतस्वामोगात् पाधकाभावासमा मायमनिष्टेथेति । तर्हि स एवात्मा कर्ता शरीरेन्द्रियविषयविलक्षणत्वात्, तद्विलक्षणोसौ सुखादेरनुभवितृत्वात्, तत्मासौ तदनुसन्धातृत्वात, तदनुसन्धातासौ य एवाहं यत् सुखमनुभूतवान् स एवाह सम्प्रति हर्षमनुमवामीति निश्चयस्यासम्भवद्भाधकस्य सद्भावात् ।
- किसीका यह मंतव्य भी हो कि " पूर्व और उत्तर कालों में होनेवाके सुख, दुःख, इच्छा, ज्ञानस्वरूप चेतनके परिणामों में व्याप्त रहनेवाला सबसे बड़ा चैतन्यका परिणाम ही सुख आदि गुणोंका अधिकरण होकर फर्ता है जैसे कि यह अन्य जन्म मरण करना, अपने योग्य शरीर आदिको बनानारूप कार्योंका कर्ता है । विना आधारके वे सुख आदिक गुण ठहर नहीं सकते हैं । अकर्मक धातुओंकी शयन, लज्जा, वृद्धि, भय, दीप्ति आदि क्रियाएं कम ही रहती हैं। विना कर्ताके वे कहां रहे ! वैसे ही सुख मी कर्ता आत्मामै रहता है"।
" तथा यदि सुलके समीचीन ज्ञानको आधेयफ्न, क्रियापन और पर्यायपन आदि अंशोंसे रहित माना जावेगा तो इसमें आधार आधेयमाव होनेका विरोघ है। इसी कारण सुख आदि गुणोंका आधार यह महाचैतन्य भ्रांतरूप भी नहीं है । क्योंकि उसमें कोई बाधक प्रमाण उत्पन्न नहीं होता है ।
"दूसरी बात यह भी है कि उस महाचैतन्य का भ्रमरूप होना हम या अन्य कोई इष्ट भी नहीं करते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे, तब तो वह महाचैतन्य ही ( पक्ष ) कर्तास्वरूप आत्मा है ( साध्य ) क्योंकि वह शरीर, इंद्रिय, विषयोंसे सर्वथा भिन्न है ( हेतु ) इस हेतुको सिद्ध करते है कि आत्मा उन शरीर आदिसे विलक्षण है (प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह सुख, दुःख और ज्ञानका अनुमरन करनेवाला है ( हेतु ) इस हेनुको भी फिर साध्य करते हैं कि आत्मा (पक्ष ) सुखादिकका अनुभव करनेवाला है ( साध्य ) क्योंकि पीछे उनका स्मरण करता हुआ देखा जाता है । ( हेतु ) इस हेतुकी पुष्टि सुनिये कि आत्मा ( पक्ष) उन सुखादिकका स्मरण करनेवाला है ( साध्य , क्योंकि पीछे उन सुख आदिकोंका प्रत्यमिज्ञान करता हुआ जाना जाता है।। हेतु ) इस हेतुका भी पोषण इस प्रकार है कि यह आत्मा ( पक्ष ) उन सुख मादिकका प्रत्यभिज्ञान करता है ( साध्य ) क्योंकि जो ही मैं पहिले सुखका अनुभवन कर चुका है, वही मैं इस समय सुखजन्य प्रसन्नताका अनुमान कर रहा हूं (हेत , ऐसा बाधकोंसे रहित निश्चयज्ञान
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विद्यमान है । अनेक सुखोंके समन्बाहार होनेपर पीछे जो प्रसन्नता होती है उसको हर्ष कहते हैं बाषक प्रमाणोंका असम्भव होजानेसे पदार्थका निर्णय हो जाता है। सभी रुपया, गहना, सौंदर्यको कौन दिखाते फिरे ।
नन्वस्तु नाम कर्तृत्वादिस्वभावश्चैतन्यसामान्यविवर्तः कायादर्थान्तरं सुखादिचैतन्यविशेषाश्रयो गर्मादिमरणपर्यन्तः सकलजनप्रसिद्धत्वातत्त्वान्तरम्, चत्वार्येव तत्वानीत्यवधारणस्याप्पविरोधात्तस्याप्रसिद्धतत्वप्रतिषेधपरत्वेन स्थितत्वात्, न पुनरनाद्यनन्तारमा प्रमाणाभावादिति बदन्तं प्रति बमहे ।
यहां चार्वाक अब स्मरण और प्रत्यभिज्ञान करनेवाले चिरस्थायी आत्मद्रव्यमें. अनुज्ञा करते हुए अपना अंतिम सिद्धांत कह रहे हैं कि जैनोंका माना गया कर्मा, अनुमविता, सर्ता और प्रत्यभिज्ञाता आदि वह चैतन्य-सामान्यरूप-परिणामवाला आत्मा शरीरसे मिन्न है, और सुख, ज्ञान, इच्छा आदि विशेष चैतन्योंका आश्रय है । ऐसे स्याद्वादियों के माने हुये आत्माको हम भी इष्ट कर लेंगे। किंतु वह जन्म-जन्मांतरों तक ठहरनेवाला नहीं है। गर्भसे लेकर मरणपर्यत ही स्थिर रहता है। गर्मकी आदिमें सर्वथा असत् माने गये चैतन्यका विना उपादान कारणोंके केवल सहकारी कारणोंसे ही शब्दके समान उत्पाद होजाता है और मरणपर्यंत एक दीपकसे उतरवर्ती दूसरे दीपकोंके समान उपादान उपादेयभावसे अनेक चैतन्य उत्पन्न होते रहते हैं। अंतमें मरते समय उस चैतन्यका दीपकके बुझनके समान आमूलचूल सत्का विनाश हो जाता है, यह बात संसारके सर्व ही नालगोपालों में प्रसिद्ध है। अत्यंत प्रेमी और लोभी जीव भी मरने के बाद लौट कर अपने पिष पुत्र, स्त्री और धनको नहीं सम्हालते हैं। राजा, महाराजा, सम्राट् भी मरनेके पीछे फिर लौटते हुए नहीं देखे गये हैं । इस कारण गर्मसे मरणपर्यत ही चेतन आस्मा है । वह पृथिवी आदिकोंसे भिन्न तत्त्व है । उसको हम पांचवां स्वतंत्र तत्त्व इस लिये नहीं कहते हैं कि पृथिवी आदि तत्त्वोंके समान वह अनादि अनंत नहीं है किंतु उस चेतन्यको हम पृथिवी आदिक जड पदाभाम भी गर्मित नहीं करते हैं। अतः एक प्रकारसे थोडी देर ठहनेवाला वह चैतन्य मिन्न तत्व भी है। एतावता " पृथ्वी, अप, तेज, वायु ये चार ही तत्व हैं " इस नियम करनेमें भी कोई विरोध नहीं है । वह चार तत्त्वोंका नियम करना तो सर्वथा पसिद्ध नहीं ऐसे आकाश, काल, मन, धर्मद्रव्य, अर्धमद्रव्य, सामान्य, शक्ति, प्रेत्यमाव आदि तत्त्वोंके निषेध करनेमें तत्पर होकर स्थित होरहा है। किंतु फिर गर्भसे मरणपर्यंत ठहरे हुए सम्पूर्ण जीवों में प्रसिद्ध होरहे इन चेतन आत्माका वह नियम निषेध नहीं करता है। हां ! अनादिसे अनंत-कालतक माना गया जैनौका आत्मा कोई तत्त्व नहीं है। ऐसे आत्माको सिद्ध करनेवाला तुम्हारे पास कोई प्रमाण भी नहीं है। इस प्रकार कहते हुए चाफिके प्रति अब हम जैन गौरवान्वित होकर अपने इस सिद्धांतको प्रमाणसहित अच्छी तरह स्पष्ट कर कहते हैं।
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द्रव्यतोऽनादिपर्यन्तः सत्वात क्षित्यादितत्त्ववत् । स स्यान्न व्यभिचारोऽस्य हेतो शिन्यसम्भवात् ॥ १४६ ॥ कुम्भादयो हि पर्यन्ता अपि नैकान्तनश्वराः । शाश्वतद्रव्यतादात्म्याल्कथञ्चिदिति नो मतम् ॥ १४७॥
वह आस्मा (पक्ष ) द्रव्यरूपकरके अनादि कालसे अनन्त कालतक ठहरनेवाला है ( साध्य) क्योंकि वह सत्यपदार्थ है ( हेतु ) जैसे कि चाची कोंने पृथ्वी आदि तत्वोंको अनादि अनन्त माना है । ( अभयदृष्टान्त ) एकान्तरसे नाश होनेवाले पदार्थमें सत्त हेतुका विद्यमान रहना सम्भव नहीं है । अतः इस हेतुका कोई व्यभिचार दोष नहीं है अर्थात् एकांतसे सर्वथा नाश होनेवाला कोई पदार्थ संसारमै है ही नहीं, तब वहां सत्य हेतु कैसे रहेगा !, जो घट, पट, पुस्तक, गृह आदि पदार्थ नाशको प्राप्त हो रहे देखे जाते हैं वे भी एकांतरूपोंसे ना नहीं हो रहे हैं क्योंकि सर्वथा स्थित रहनेवाले युद्गलद्रन्यसे उनका फयञ्चित् तादात्म्यसम्बन्ध हो रहा है। इस प्रकार इम स्याद्वादियों का माना गया सिद्धान्त है। अतः घट आदिको सत्त हेतु गया और पुद्गलद्रव्यपनेसे अनादि अनंतफ्नरूप साध्य भी ठहर गया अतः व्यभिचार नहीं है।
यथा चानादिपर्यन्ततद्विपर्ययरूपता । घटादेरात्मनोऽप्येवमिष्टा सेत्यविरुद्धता ॥ १४८ ॥ सर्वथैकान्तरूपेण सत्त्वस्य व्याप्त्यसिद्धितः । बहिरन्तरनेकान्तं तव्याप्नोति तथेक्षणात् ॥ १४९ ॥
तथा जैसे घट, फ्ट आदिकोंको द्रव्यार्थिक नयसे अनादि अनंतपना है और पर्यायार्थिक नयसे उससे विपरीत यानी सादि सान्तपना है। वैसे ही आस्माको भी वह अनादि अनंतपन और सादि सांतपन हम इस करते हैं । इस प्रकार हमारा हेतु विरुद्ध हेत्वाभास भी नहीं है । सर्व प्रकारसे एक ही नित्यपने या अनित्यपने धर्मके साथ सत्वहेतुकी न्याति सिद्ध नहीं है । घट, पट आदिक बहिरंग पुद्गल पदार्थ और ज्ञान, इच्छा, सहित आत्मारूप अंतरंग पदार्थोंमें विधमान हो रहा यह सत्वहेतु नित्य अनित्यरूप अनेकांतधोके साथ व्याप्ति रखता है । जैसा ही संपूर्ण जोंको दीख रहा है।
द्रव्यार्थिकनयादनाद्यन्तः पुरुषः सत्वात् पृयिन्यादितत्ववदित्यत्र न हेतोस्नैकान्तिकत्वं प्रतिक्षणविनश्चरे कचिदपि विपक्षेऽनवतारात् ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उक्त वार्तिकका विवरण करते हैं कि वस्तुके नित्य अंशको जाननेवाले द्रव्यार्थिक नयसे आत्मा अनाथनंत है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह पृथिवी आदिक तत्त्वोंके समान ( दृष्टांत ) चिरकालवर्ती होकर सद्रूप है, ( हेतु ) यहां इस अनुमानमें कहा गया हेतु व्यभिचारी नहीं है। क्योंकि बौद्धोंसे कल्पित किये गये किसी मी प्रतिक्षण में नष्ट होनेकी टेत्रवाले विपक्षमें सत्त्व हेतु नहीं रहता । भावार्थ - एक क्षण में नष्ट होनेवाला बौद्धोंका माना गया कोई पदार्थ है ही नहीं, भला स्वरविषाण में सत्त्व हेतु कैसे रहेगा ! | वहां हेतु नहीं उतरता है |
कुम्भादिभिः पर्यायेरनेकान्त इति चेन्न तेषां नश्वरैकान्तत्वाभावात् । तेऽपि हि नैकान्तनाशिनः, कथञ्चिन्नित्यद्रव्यतादात्म्यादिति स्याद्वादिनां दर्शनम्, “नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानामा कस्माचदविच्छिदा, क्षणिक कालभेदात्ते बुध्यसंचरदोषतः " इति वचनात् ।
कुछ देर तक ठहरकर नष्ट होनेवाले घट, बिजली, बुदबुद, इंद्रधनुष आदि पर्यायोंसे जैनों का सत्व हेतु व्यभिचारी है । यह चार्वाकों का कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि उन घट, बिजली आदि
सर्वथा एक अनित्य धर्मके आग्रहसे बौद्ध मतानुसार एक क्षणमें ही नाश नहीं होजाता है। वै बिजली आदि भी एकांत रूपसे नाशस्वभाववाले नहीं है क्योंकि वे किसी अपेक्षासे नित्य पुनक द्रव्य के साथ स्यात एकम एक होरहे हैं । भावार्थ - द्रव्यका पर्यायोंसे अभेद है । शक्तिरूप से पर्यायें द्रव्यमे सदा विद्यमान हैं। यह स्वाद्वादियोंका दार्शनिक सिद्धांत है । पूज्यचरण श्रीसमंभद्र स्वामीने देवागम स्तोत्रमै यों प्रामाणिक वचन कहा है कि स्याद्वादन्यायके नायक तुम भईल भगवान के ममें वे सम्पूर्ण जीव आदिक तत्त्व ( पक्ष ) कथञ्चित् नित्य ही हैं ( साध्य ) क्योंकि यह वही है इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानके विषय है । ( हेतु ) यह प्रत्यभिज्ञान यों ही बिना किसी कारण नहीं होजाता है । इस प्रत्यभिज्ञानका कारण वह कालांतरस्थायी द्रव्य ही मूल भिति है । इस मत्यभिज्ञानका कोई भाधक नहीं है । अतः अन्वयका विच्छेद भी नहीं होता है अथवा द्रव्यरूपसे मध्य व्याधान न होनेके कारण वह एकत्वप्रत्यभिज्ञान समीचीन है ।
यदि प्रत्यभिज्ञानका विषय विच्छेदरहित नित्यद्रव्य पदार्थ नहीं माना आवेगा वो बुद्धिका संचार भी न होगा । भावार्थ -- अन्ययसहित पूर्वबुद्धिका नाश हो जानेसे दूसरी बुद्धियोंकी
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न्यारा
उत्पत्ति न हो सकेगी, बुद्धि के पूर्वपरिणाम ही उत्तरपरिणामरूप न हो सकेंगे । तथा सम्पूर्ण पदार्थ एक क्षण ठहरकर द्वितीयक्षण में नष्ट हो जाते हैं क्योंकि भिन्न भिन्न पर्यायोंका काल न्यारा है। जिन भावोंका काल भिन्न भिन्न है वे अवश्य पर्यायदृष्टिसे क्षणिक हैं, यदि कालमेव न माना जावेगा सो भी बुद्धिका दूसरी बुद्धिरूप संचार न होसकेगा, कूटस्थ एकरूप बनी रहेगी gas को बिगाडकर भरा बनाने में सुवर्णरूप से नित्यपना और कडे, बरा आदिरूपसे अनित्यपना प्रसिद्ध है।
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બુદ્ધ
नन्वेवं सर्वस्यानादिपर्यंतवासादिपर्यंतताभ्यां व्याप्तत्वात् विरुद्धता स्यादिति चेन, आत्मनोऽनैकांतानादिपर्यंततायाः साभ्यत्ववचनात् यथैव हि घटादेरनाद्यनंवेतररूपत्वे सति सच्यं तथात्मन्यपीष्टमिति के विरुद्धत्वम् ।
तत्त्वार्यचिन्तामणिः
यहां चार्वाक शंका करते हैं कि इस तरह सम्पूर्ण पदार्थों के सहेतुकी अनादि अनंत और सादि सांतपनेसे व्याप्ति सिद्ध हुयी तो अकेले अनादि अनंत सिद्ध करनेमें दिया गया आप जैनोंका सत्त्व हेतु विरुद्धहेत्वाभास हो जायगा । आचार्य कहते हैं, कि यह तो चाकको नहीं कहना चाहिए क्योंकि आत्माको एकांतरूपसे अनादिअनंतता साध्य नहीं कही सपना भी साथ में समझना चाहिए, कितु वह आपको पहिलेसे इष्ट है ही, इस कारण हमने कण्ठोत्तरूप से साध्य कोटिंमें नहीं डाला है । जिस हि प्रकार कि घट, पट आदिकों को अनादि अनंत और सादिसांत होनेपर ही सत्त्व रहता है वैसे ही आत्मामें भी अनादि अनंत और सादिसांत होनेपर सत्त्व इष्ट किया है। इस तरह विरुद्ध दोष कहां रहा ! अर्थात् हमारा हेतु विरुद्ध नहीं है
कथं तर्हि सत्त्वमनेकान्तैांवेन व्याप्तं येनात्मनोऽनाद्यनन्तेतररूपतया साध्यत्वमिष्यत इति चेत् सर्वथैकविरूपेण तस्य व्यास्यासिद्धेहिरंत श्वाने कांततयोपलम्भात्, अनेकांतं वस्तु सच्चस्य व्यापकमिति निवेदयिष्यते ।
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गयी है । सादि
I
प्रतिवादी करता है कि तब तो बताओ कि जैनोंके मतमे सत्त्व हेतु अनेकांत रूप इकले एकांत के साथ व्याप्ति कैसे रखता है ? जिससे कि आत्माको अनादि अनंत और सादि सांतपनेसे साध्यपना आप जैन इष्ट कर सके। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि चार्वाक ऐसा कहेंगे तो इम उत्तर देते हैं कि अनादि अनंत और सादि सांत से सर्वथा एक अकेले धर्मके साथ उस सत्त्वहेतुकी व्याप्ति सिद्ध नहीं है । सम्पूर्ण पुद्गल और आत्मसंबंधी बहिरंग अंतरंग पदार्थ अनेक धर्मोसे विशिष्ट होर ही देखे जाते हैं । अतः अनेक धर्मोसे सहित होरहा द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु ही सत्रहेतुका व्यापक है । इस बासको और भी अधिकरूप से अभिम ग्रंथ आपसे निवेदन कर देंगे। अनेकांत भी अनेकांत रूप है अर्थात् अर्पितनयसे एकांत भी हमको हृष्ट है । " अनेकांतोऽप्यनेकांसः प्रमाणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणात्रे तदेकांतोऽर्पितान्यात् " ऐसा " बृहत्स्त्वयम्भू स्तोत्र " में लिखा है ।
बृहस्पतिमतास्थित्या व्यभिचारी घटादिभिः ।
न युक्तोऽतस्तदुच्छित्तिप्रसिद्धेः परमार्थतः ॥ १५० ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
हमारे कथञ्चित् नित्यपनेको सिद्ध करनेवाला सत्त्व हेतुका बृहस्पतिमत के अनुयायी चार्वा कोंकी परिस्थिति से घट, पट, आदिकों करके व्यभिचार देना युक्त नहीं है क्योंकि वास्तविक रूप से देखा जाय तो उक्त युक्तिसे उन घट आदिकोंको कथञ्चित् नित्य अनित्यपनास्वरूप उच्छेद प्रसिद्ध हो रहा है। भावार्थ--घट आदि नाशके साथ स्थिति देखी जाती है, मृतिकाका अन्वय रहता है, रूपवत्त्व, रसवत्व बना रहता है । घटको तोड, फोड, पीस और जला दिया जाय फिर भी परमाशुओं को कोई नष्ट नहीं कर सक्ता है। केवल देशसे देशांतर या स्थानसे स्थानांतर होता रहता है। असंख्य पदार्थ नष्ट होते रहते हैं पैदा होते हैं । किंतु जगत् का बोझ एक रत्तीभर भी घटता बढ़ता नहीं है । सुकाल दुष्काल पडनेपर भी संसारभरको तोलनेवाले कांटोंकी सूई वालाम भी हटती नहीं है ।
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यतश्चैवं परमार्थतो घटादीनामपि नित्यानित्यात्मकत्वं सिद्धं ततो बृहस्पतिमतानुष्ठानेनापि न सवस्य घटादिभिव्यभिचारो युक्तस्तेन तस्याने कवेिनावाधितत्वात् ।
जिससे कि इस प्रकार घट आदिकों को भी वस्तुदृष्टिसे नित्य अनित्य स्वरूपपना सिद्ध हो चुका । तभी तो बृहस्पति ऋषिके मत के अनुसार आचरण करनेसे भी सत्त्व - हेतुका घट आदिकों से व्यभिचार देना चार्वाकको युक्त नहीं है । उस सत्त्व हेतुकी उन नित्य अनित्यरूप अनेक धर्मो के साथ व्याप्ति होने में कोई भाषा नहीं है ।
न च प्रमाण सिद्धेन परोपगममात्रात् केनचिद्धेतोर्व्यभिचारचोदने कथिद्धेतुख्यमिचारी स्यात् । वादिप्रतिवादिसिद्धेन तु व्यभिचारेन सत्त्वं कथञ्चिदनादिपर्यन्तत्त्वे साध्ये व्यभिचारीति व्यर्थमस्याहेतुकत्व विशेषणं अहेतुकत्वस्य हेतुकत्वे सत्त्वविशेषणवत् ।
केवल दूसरोंके मनमाने तत्त्वोंके स्वीकार कर लेनेसे प्रमाणों करके नहीं किसी भी पदार्थ के द्वारा सच्चे हेतुमे यदि व्यभिचार नामक कुचोद्य दिया जावेगा कोई भी हेतु अव्यभिचारी न हो सकेगा। महिमान् धूमात् " यह प्रसिद्ध हेतु मी सरोवर में निकलती हुयी भापको धुआं समझनेवाले प्रांतपुरुषके द्वारा व्यभिचारी बना दिया जा सकेगा । इस पोलको हटाने के लिये वादी और प्रतिवादियोंसे प्रसिद्ध स्थल करके हेतुको व्यभिचार देना न्याय्य होगा, तथा च हमारा इष्ट किया सस्वहेतु तो पदार्थोंकों कथञ्चित् अनादि अनंत सिद्ध करने में व्यभिचारी नहीं है । यों फिर नित्य सिद्ध करनेके लिये इस सत्त्वहेतु अहेतुकपनारूप विशेषण देना व्यर्थ है । भावार्थ- नैयायिक, चार्वाक और मीमांसकोंने घट और मागभावने अतिम्याप्सिको दूर करते हुए " सदकारणवन्नित्यं " यह नित्य पदार्थका लक्षण किया है अर्थात् जो सत् विद्यमान होकर अपने बनानेवाले कारणोंसे रहित है, वह नित्य है । घट सत् है,
I
अकारणवान् नहीं क्योंकि
सिद्ध हुए बाहे
तो ऐसी दशा में
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सत्वार्थचिन्तामणिः
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घटको बनानेवाले मट्टी कुम्हार आदि कारण हैं । प्रागभाव अकारणवान है सत् नहीं अतः नित्यका लक्षण अकारणवान् होकर सत्पना माना है। किंतु जब सर्च ही पदार्थ द्रव्य और पयाय-स्वरूपसे नित्य अनित्य रूप है तो अहेतुकस्व विशेषण व्यर्थ पडता है। जैसे कि अकेले अहेतुकपना यानी " नहीं है बनानेवारण कारण जिसका " इस लक्षणसे ही जब नित्य पदार्थ लक्षित हो जावेगा अथवा अहेतुकत्वको हेतु मान लेनेसे ही नित्यपना सिद्ध हो जावेगा तो उसमें सत्त्वविशेषण व्यर्थ है । भावार्थ-दोनोमसे सत्त्व या अहेतुकपना एक ही नित्यपनेका लक्षण माना जावे व्यर्थ दूसरा पुंछपला क्यों लगाया जाता है ।
प्रागभावेन व्यभिचारः सत्त्वविशेषणेन व्यवच्छिधत इति न तव्यर्थमिति चेत् , न, सर्वस्य तुच्छस्य प्रागमावस्याप्रसिद्धत्वात् , भावान्तरस्य भावस्य नित्यात्मकत्वाद्विपक्षतानुपपचेस्तेन व्यभिचारासम्भवात् , ततो युक्तं सत्वस्याविशेषणस्य हेतुत्वमहेतुकत्ववदिति, ततो गवत्येव साध्यसिद्धिः।
यहां नैयायिक और चार्वाकोका कहना है कि नित्यके अकेले अहेतुकत्व लक्षण करनेसे प्रागभाव करके व्यभिचार हो जावेगा, देखो प्रागभाव विना किसी कारणसे उत्पन्न हुआ अनादि कालसे चला आरहा है किंतु वह प्रागभाव सांत है कार्यके उत्पन्न होजानेपर नष्ट हो जाता है। अतः वह त्रिकालदर्ती नित्य नहीं है और जब इमने नित्यके लक्षण या हेतु, सत्वरूप विशेषण दे दिया, तष अभावरूप मागभावमें अतिव्याप्ति नहीं हुयी। अतः सत्त्वविशेषण देना व्यर्थ नहीं है । आचार्य कहते हैं कि नैयायिकोका यह कहना वो ठीक नहीं है क्योंकि बौद्ध, जैन, मीमांसक आदि सबके मतमें धर्म धर्मी, कार्यकारण आदि स्वभावोंसे रहित होरहा ऐसा तुम्हारा माना हुआ उपारव्यारहित तुच्छ प्रागभाव प्रमाणों से सिद्ध नहीं हैं वह अश्वविषाणके समान असत् है । हां पूर्वपर्यायस्वरूप दूसरे मावोंके स्वभाववाला अन्यभावरूप प्रागगाव हम सबने इष्ट किया है। वह प्रागमाव नित्य अनित्यात्मक भी है। हेतु रह गया तो साथ ही साध्य भी ठहर गया अतः यह प्रागभाव तो सपक्ष है इसको विपक्षपना सिद्ध नहीं है । विपक्षमे हेतु रहता तो व्यभिचारकी सम्भावना थी, सपक्ष होरहे उस प्रागभावमे हेतुके रहनेसे न्यभिचार नहीं है प्रत्युल हेतु पुष्ट होगया इस कारणसे महेतुकलविशेषणसे रहित केवल सत्त्वको ही अनादि अनंत सिद्ध करने हेतु बनाना हमारा बहुत ठीक समुचित प्रयत्न है । घटादिक भी द्रव्यरूपसे नित्य हैं। जैसे कि सत्त्वविशेषणसे रहित केवल अहेतुकपना रूप हेतुसे नित्यपना सिद्ध होजाता है । नहीं है हेतु जिसका ऐसे बहुव्रीहि समासमै क. प्रत्यय करनेपर पर्युदासवृत्तिसे अहेतुकका अर्थ द्रव्य नित्य ही होता है। समवायी कारण या पूर्व पर्याय पिण्डस्वरूप प्रागभाव भी कथञ्चित् नित्य है । इस प्रकार उस रिक्त सत्त्वहे तुसे प्रकरण पड़े हुए अनादि अनंतरूप साध्यकी सिद्धि हो ही जाती है ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
साध्यसाधनवैकल्यं दृष्टान्तेऽपि न वीक्ष्यते । नित्यानित्यात्मतासिद्धिः पृथिव्यादेरदातः ॥ १५१ ॥
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सत्त्व हेतुवाले अनुमानमें दिये गये पृथिव्यादि तत्त्वरूप दृष्टांत साध्य और साधनसे रहितपना भी नहीं देखा जाता है क्योंकि पृथिवी, जल आदिको निर्दोषरूप से नित्य अनिस्यात्मकपना सिद्ध हो रहा है अथवा " अशेषतः पाठ रक्खा जाय " अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी, घट आदिक पदार्थों को निस्य अनित्यपना प्रसिद्ध हो रहा है ।
न कताना धनन्तत्वमन्वस्तच्वस्य साध्यं येन पृथिव्यादिषु तदभावात् साध्यशून्यसुदाहरणम्, नापि वत्र सच्चमसिद्धं यतः साधनवैकल्यम्, तदसिद्धौ मवान्तरानुसरण - प्रसङ्गात् ।
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एक सौ चालीसवीं वार्त्तिकमें हम केवल अंतर तत्व माने गये आत्माको ही एक अनादि^ अनंतरूप धर्मसे सहिसपना साध्य नहीं करते हैं जिससे कि पृथिवी आदिकों में उस धर्मके न रहदेसे उदाहरण साध्यसे रहित होजाता । भावार्थ-अपि तु पृथिवी आदिमें भी आत्मा के समान अनादि अनंतपना विद्यमान है यों मानते हैं । तथा उन पृथ्वी आदिकों में सत्त्व हेतु भी असिद्ध नहीं है। जिससे कि हमारा दृष्टान्त साधनसे रहित हो जावा । दृष्टान्तमें ही जब उन साध्यसाधन की सिद्धि नहीं हो सकेगी तो हमें दूसरे नैयायिक और चावकों के मतोंके अनुकूल चलनेका प्रसङ्ग आता अर्थात् — इमको भी आत्माको कूटस्थ नित्य और घट आदिकको सर्वथा अनित्य मानने को बाध्य होना पडता, किन्तु जब हमारा सत्तहेतु तथा साध्य दोनों दृष्टान्त और पक्षमें विद्यमान है ऐसी दशा में नैयायिक और चार्वाकों को हमारा सिद्धांत माननेके लिये अगत्या वाध्य होना पड़ता है ।
aaोऽनवद्यमनाद्यनन्तत्व साधनमात्मनस्तच्चान्तरत्व साधनवत् ।
उस कारण से अब तक आत्माको भिन्नतत्त्वपना सिद्ध करनेके समान अनादि अनंतपना सिद्ध करना भी निर्दोषरूपसे सम्पन्न हो चुका है । यहां तक चार्वाकका खण्डन करनेके लिये मारम्भ किये गये प्रकरणका उपसंहार कर दिया गया है। श्रीविद्यानन्द स्वामी इसके आगे बौद्धमतका विचार चलाते हैं ।
सत्यमनाद्यनन्तं चैतन्यं सन्तानापेक्षया न पुनरेवान्वयिद्रव्यापेक्षया क्षणिकविता'नामन्वयानुपपत्तेरित्यपरः सोऽप्यनात्मज्ञस्तदनन्वयत्वस्यानुमानवाधितत्वात् । तथा हि
यहां नैयायिकों से भिन्न दूसरा बौद्धमतानुयायी कहता है कि वह चैतन्य अपने पूर्वीपर कारूने होनेवाले परिणामों की चारानाहरू संतानकी अपेक्षाही अनादि काल अनंत काल क
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तत्त्वावचिन्तामणिः
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अनुयायी है यह सच है। किन्तु फिर आप जैनोंके मतानुसार ध्रुवरूपसे अन्वय रखनेवाले एकद्रन्यकी अपेक्षासे चैतम्य अनादि अनंत कालतफ ठहरने वाला नहीं है क्योंकि एक क्षणमें उत्पन्न. होकर द्वितीय क्षणमें नष्ट होनेवाले विज्ञानरूप आत्माओंका उसी स्वरूपसे अन्वय चलना सत्य सिद्ध नहीं है । जैसे कि गंगाका पानी जलबिन्दुओंका समुदाय है। वहका वहीं एक बिंदु तो कानपुर, पयाग, बनारस, कलकत्ता, आदि देशोम अन्वित नहीं है। हां ! धारारूपसे उपचार स्वरूप ध्रुव भले ही कहलो हटा कहते हैं कि य कहनेगा कर मैद्ध मी अगलतत्त्वके मर्मको नहीं जाननेवाला है, कारण कि पास्मद्रष्यका पूर्वापर-पर्यायोंमें अन्वय न रहनापनकी इस भविष्य अनुमानसे बाधा आती है । इसी बातको प्रसिद्ध कर कहते हैं । चित गाकर सुनिये ।
एकसन्तानगाश्चित्तपर्यायास्तत्त्वतोऽन्विताः। प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् मृत्पर्याया यथेदृशाः ॥ १५२ ॥
भापके माने गये एक संतान प्राप्त हुए चित्त ( आमाके) सम्पूर्ण परिणाम (पक्ष ) परमार्थरूपसे एक दूसरेमें अम्बित होरहे हैं ( साध्य ) क्योंकि यह वही है इस प्रकार वे प्रत्यभिज्ञान के विषय हैं। (हेतु ) जैसे कि शिवक, स्थास, कोष, कुशूल और घट पर्यायों में यह वही मृत्तिका है इस तरह प्रत्यभिज्ञानका विषयपमा है । ( अन्वय दृष्टांत ) भावार्थ-घूमते हुए चाकपर रखे हुए मिट्टीके लोंदको शिवक कहते हैं और वहां कुलालके हाथसे फैलाई हुयी उस मिट्टीको स्वास कहते हैं । अंगुलियोंसे मिट्टीको किनारेकी ओरसे ऊपरकी तरफ उठानेको कोष कहते हैं और ओखलीके समान फिनारोंका ऊपर उठना कुशूल कहलाता है । पीछे ग्रीवा, पेटके बन जाने पर वही मिट्टी घड़ा बन जाती है। इन संपूर्ण पर्यायों में मिट्टीपना स्थिर है । इसी प्रकार बालक, कुमार, युवा, अर्षवृद्ध और वृद्ध अवस्थाओं में वही एक देवदत्त है। यहांतक कि देव, मनुष्य, नारक, तिर्यच आदि अनेक जन्मांतरोंमें भी वही देवदत्त की एक आत्मा ओतप्रोत शेकर अनुष्ठान कर रही है।
मृत्क्षणास्तवतोऽन्विताः परस्यासिद्धा इति न मंतव्यं तत्रान्वयापहवे प्रतीतिविरोषात, सकललोकसाक्षिका हि मृद्धेदेषु तथान्धयप्रतीतिः सवयं पूर्व दृष्टा मृदिति प्रत्यभिज्ञानसाविसंवादिनः सद्भावात् ।
मिट्टीके पूर्व, अपर, काली होनेवाले सम्पूर्ण स्थान आदि परिणाम परस्पर ( आपस ) में वास्तविक रूपसे अन्वित होरहे हैं । यह बात दूसरे विद्वान् पानी बौद्धोंको असिद्ध है यह नहीं मानना चाहिये क्योंकि मिट्टीके उन पूर्व अपर विकारों में स्थूल पायरूप मृचिकापनसे अन्वय होनेको यदि चुरा मोरे संसारमें प्रसिद्ध होरही प्रतीति ओंसे विरोष होगा । मिट्टीकी भिन्न भिन्न .
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বলিটিঃ
SamareeMMATHA
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पर्यायों में गवाहीरूपसे सम्पूर्ण जनोंके सन्मुख उस प्रकार अन्वयकी प्रतीति हो रही है कि यह वही मिट्टी है, जो हमने पहिले देखी थी। इस प्रकार सफल प्रवृत्तिको करनेवाला अनिसंवादी बाधारहित प्रत्यभिज्ञाप्रमाण यहां विद्यमान है । नहीं तो भट्टीका बनाया हुआ षडा चांदीका बन बैठवा और चांदीसोनेका कलश तो मट्टीका महका तैयार हो जाता । गेहूके आटेकी रोटी चनेकी नहीं बन जाती है या पहिली पिछली अवस्थाओं में अन्वय बना रहना अवश्य मानना चाहिये।
सादृश्यात् प्रत्यभिज्ञानं नानासन्तानभाविनाम् । भेदानामिव तत्रापीत्यदृष्टपरिकल्पनम् ॥ १५३ ॥
यहां बौद्ध कहते हैं कि जैसे कभी कभी देवदत्त, जिनदत्त, वीरदत्त आदि मिम मिश्न संतानों में सहशताके होनेसे यह वही है, ऐसा उपचारसे एकत्वको जाननेवाला प्रत्यभिज्ञान हो जाता है अथवा नाना मिट्टीके डेलों मेंसे बदलकर बने हुए घडोंमें भी यह उसी मिट्टीका घरा है। ऐसा एकपनेको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान सादृश्यको कारण मानकर हो जाता है । वैद्यजी यह वही पूर्ण है जो कि कक आपने दिया था, उसी प्रकार एक संतानमै रहनेवाली उन भिन्न पर्यायोंमें भी अधिक सहशताके गलसे द्रव्यरूपसे अन्क्य न माननेपर मी एकत्व प्रत्यभिज्ञान हो जाता है। प्रथकार कहते हैं कि उक्त प्रकारसे बौद्धोका मानना नहीं देखे हुए पवार्थकी यहाँ वहांसे गडकर केवल कल्पना करना है।
यथा-नानासंवानवर्तिनां मुझेदानां सादृश्यात् प्रत्यभिज्ञायमानत्वं तपैकसन्तानवर्तिनामपीति ब्रुवतामदृष्टपरिकल्पनामा प्रतिक्षणं भूयाचया तेषामस्ष्टत्वात् ।
जिस प्रकार विज्ञानस्वरूप भनेक देवदस, जिनदत्तरूप संतानों में वर्धनेवाले या खास आदिमें ओतप्रोत रहनेवाली मिट्टीके विशेषोंकी सदृशतासे एकत्व प्रत्यभिज्ञानकी विषयता है। उसी प्रकार एक संतानमें रहनेवाली मिन्न भिन्न ज्ञानपर्यायों में भी सघशताके कारण उपचारसे एकत्र प्रत्यभिज्ञान हो गया है ऐसे कहनेवाके बौखोंको प्रत्येक समयमें नवीन नवीन पदलसे हुए तथा नहीं देखे हुए पदार्थकी केवल कल्पना करनेका प्रसंग होगा। क्योंकि बैसे बौद्ध मान रहे हैं उस प्रकार पदार्थोका क्षणक्षणमें सर्वथा नाश होकर दूसरे सदृश अन्य पदार्थोका नवीन रीतिसे उत्पाद होना देखा नहीं जाता है। .
तदेकत्वमपि न दृष्टमेवेति चेन्नैतत्सत्यम् ।
यदि नौद्ध यों कहें कि पूर्व उत्तरवर्ती पर्यायों में एकपना भी तो नहीं देखा गया है इस प्रकार यह उनका कहना तो सच्चा नहीं है क्योंकि यह परानुमान सुनिये ।
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सस्ता चिन्तामणिः
२५५ ।
तदेवेदमिति ज्ञानादेकत्वस्य प्रसिद्धितः ।
सर्वस्याप्यस्खलद्रूपात प्रत्यक्षानेदसिद्धिवत् ॥ १५४ ॥
संपूर्ण प्राणियोंको समीचीन प्रमाणरूप प्रत्यभिज्ञानसे पूर्व अपर पर्यायोंमें एकपना प्रसिद्ध हो रहा है क्योंकि यह वही है इस प्रकार अविचलित स्वरूप प्रत्यभिज्ञान ठीक है। जैसे कि संशय, विपर्ययसे रहित हो रहे प्रत्यक्षके द्वारा घट, पट आदिकों में सबको भेद की सिद्धि होना मौद्ध मानते हैं। भावार्थ-प्रत्यक्षके समान प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण है अतः प्रत्पमिज्ञानका विषय एकपना यथार्थ है।
यथैव हि सर्वस्थ प्रतिपत्तुर्यस्य चास्खलितात्प्रत्यक्षाभेदसिद्धिस्तथा प्रत्यभिहानादेकत्वसिद्धिरपीति दृष्टमेव तदेकत्वम् ।
जैसे कि प्रमिति करनेवाले सम्पूर्ण जीवोंको संशय, विपर्ययसे रहित हो रहे प्रमाणस्वरूप प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम आदिसे मेवकी निश्चयात्मक सिद्धि हो रही है। वैसे ही प्रत्यभिज्ञान
और अनुमान आदिसे पूर्व, उत्तर कालमें होनेवाली पर्यायों में कम्चित् एकपना मी सिद्ध हो रहा है। इस कारण वह एकत्व प्रमाणोंके द्वारा निर्णीत ही है। कल्पना किया हुआ नहीं है।
प्रत्यभिज्ञानमप्रमाणं संवादनाभावादिति चेत्, प्रत्यक्षमपि प्रमाणं माभूत् तत एव, न हि प्रत्यभिज्ञानेन प्रतीते विषये प्रत्यक्षस्यावर्तमानात्तस्य संवादनामावो न पुनः प्रत्यक्षप्रतीते प्रत्यभिज्ञानस्याप्रवचे प्रत्यक्षस्येत्याचवाणः परीक्षको नाम ।
यदि बौद्ध यों कहें कि प्रत्यभिज्ञानके विषयमें दूसरे प्रत्यक्ष प्रमाणोंकी प्रवृत्तिरूप संवाद नहीं होने के कारण हेतु प्रत्यभिज्ञान ( पक्ष ) ममाण महीं है ( साध्य ) यों तो पौद्धोंके मतम प्रत्यक्ष मी प्रमाण न हो सकेगा, क्योंकि उस ही कारणसे, यानी क्षणिकपदार्थको जाननेवाले निर्विकल्पकप्रत्यक्षके विषयमें दूसरे प्रमाणोंका प्रवृत्त होना रूप संबावन नहीं पाया जाता है । आपने माना मी नहीं है वभी तो आपने प्रमेयके भेदसे प्रमाणका भेद माना है । प्रत्याभज्ञानके द्वारा जाने हुए एकाव, प्रत्यक्षकी प्रवृत्ति न होनेसे प्रत्यभिज्ञानको तो संवादकरनेका अभाव मान लिया जावे, किंतु फिर प्रत्यक्षसे बढ़ियां जाने हुए स्वलक्षण या क्षाणिकत्वमें प्रत्यभिज्ञानकी प्रवृत्ति न होनेसे प्रत्यक्षको संवादकपनेका अभाव न माना जावे, ऐसा कह रहा बौद्ध परीक्षक कैसे मी नहीं कहा जासकता है । वह स्वमंतव्यका कोरा पक्षपाती है ।
न प्रत्यक्षस्थ खार्थे प्रमाणांतरवृत्तिः संवादनम्, कि सर्हि १ अबाधिता संविचिरिति चेत् ।
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सत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यक्षका अपने विषयमें दूसरे प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होना रूप संवादन नहीं माना है तब तो क्या माना है ! सो सुनिये ! बाधाओंसे रहित समीचीनज्ञप्ति होजाना ही प्रत्यक्षका संवादन है आचार्य कहते है कि यदि ऐसा कहोगे तो...
यथा भेदस्य संवित्तिः संवादनमवाधिता । तथैकत्वस्य निर्णीतिः पूर्वोत्तरविवर्तयोः ॥ १५५ ॥
जैसे घट, पट, देवदत्त, जिनदत्त आदि विशेषों को जाननेवाले प्रत्यक्ष प्रमाणमें बाधक प्रमाणोंसे रहित प्रमिति होना स्वरूप ही संवादन माना जाता है वैसे ही शिवक, स्थास आदि या माल, कुमार, युवा आदि पहिले, पीछे होने वाली अनेक अवस्थाओंमें भी उन्मरूपसे एकपनेका निर्णय हो रहा है।
कथं पूर्वोत्तरविवर्तयोरेकत्वस्य संवित्तिरवाषिता या संवादनमिति चेत् , भेदस्य कथमिति समः पर्यनुयोगः।
यदि बौद्ध यों कहे कि पूर्व उत्तरवर्ती मिन्न पर्यायों में वर्तनेवाले एकपनेका निर्णय मला बाघारहित होकर कैसे उत्पन्न होगा ! जो कि संवादन कहा जावे ऐसा कहनेपर हम जैन भी बौद्धोंसे पूछते हैं कि अन्चितरूपसे रहनेवाले पूर्व अपर परिणामों में सर्वथा भेदका निर्णय मी बाधारहित कैसे होगा ! बताओ, इस प्रकार हमारा भी प्रश्नरूप कराक्ष आपके ऊपर समानरूपसे लागू होता है। जैसा कहोगे वैसा सुनोगे।
___ तस्य प्रमाणातस्त्वादतद्विषयोण बाधनासम्भवादशाधिता संवित्तिरिति चेत सकस्वस्य प्रत्यभिज्ञानविषयवस्थाध्यक्षादेरगोचरत्वाचेन बाधनासम्भवादपाधिता संवित्तिः किन्न भवेत् ?
यदि बौद्ध इस कटाक्षका उत्तर यों देंगे कि वस्तुमूत विशेषस्वरूप भेदोंको जाननेवाला वह प्रत्यक्ष प्रमाण स्वतंत्र न्यारा है । भेदके मानने प्रत्यक्षकी ही प्रवृत्ति है । दूसरे प्रमाण जब मेदको विषय नहीं करते हैं तो भेदको जाननेमें प्रत्यक्षके वाधक क्या हो सकेंगे ! उसको विषय नहीं करनेवाले ज्ञान करके बाघा देना असम्भव है । इस कारण दूसरे प्रमाणोंसे बाधारहित होकर भेवकी भली प्ति हो जाती है और प्रत्यक्षपमाण संवादी बन जाता है यदि वे ऐसा कहेंगे तब तो हम जैन भी कहते हैं कि निस्यपनेको जाननेवाले प्रत्यभिज्ञानके एकत्वस्वरूप विषयमें भी जब प्रत्यक्ष या स्मरण आदिकी प्रवृत्ति ही नहीं है तो वे एफपनेमें भाषा नहीं दे सकते हैं असम्भव है। तथा च एकखका ज्ञान भी बाधारहित क्यों न माना जावे ? अर्थात् प्रत्यभिज्ञान भी संवादयुरू है।
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कचिन्तापपिः
१५
कथं प्रत्यभिज्ञानविषयः प्रत्यक्षणापरिच्छेद्यः ? प्रत्यभिज्ञानेन प्रत्यक्षविषयः कथमिति समानम्।
बौद्ध प्रश्न करते है कि जैनौने कैसे जाना कि प्रत्यभिज्ञानका विषय प्रत्यक्षके द्वारा नहीं जानने योग्य है यानी नहीं जाना जाता है तो हम जैन भी कहते हैं कि बौद्धोरे कैसे जाना कि प्रत्यक्षका विषय तो प्रत्यमिज्ञानममाणसे नहीं जाना जाता है ! यों यह प्रश्न और उसका उत्तर मी हमारा और तुम्हारा बराबर है।
तथा योग्यताप्रविनियमादिति चेत्तर्हि--
बौद्ध कहते हैं कि उस प्रकार भेदके जाननेमें प्रत्यक्षकी ही योग्यसा प्रतीति अनुसार नियत हो रही है अतः प्रत्यक्ष विषय प्रत्यभिज्ञान नहीं चलता है और प्रत्याभज्ञानके विषयको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता है । ऐसा कहोगे तब तो ठीक है सुनिये ।
वर्तमानार्थविज्ञानं न पूर्वापरगोचरम् । योग्यतानियमात्सिद्धं प्रत्यक्षं व्यावहारिकम् ॥ १५६ ॥ यथा तथैव संज्ञानमेकत्वविषयं मतम् । न वर्तमानपर्यायमात्रगोचरमीक्ष्यते ॥ १५७ ॥
जैसे वर्तमान कालके अर्थको विशेषरूपसे जाननेवाला सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष उन पूर्व उत्तरवर्ती पर्यायोंको या उनमें रहनेवाले एकत्वको विषय नहीं करता है क्योंकि इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष शानकी योग्यता वर्तमान अर्थके जानने में ही नियमित है। उस ही प्रकार प्रत्यमिज्ञान प्रमाण भी एकत्रको विषम करने में नियमित माना है। यह केवल वर्तमान पर्यायको विषय करनेवाला नहीं देखा जाता है। अर्थात् बैसे प्रत्यक्षके विषयमें प्रत्यभिज्ञान बाधा नहीं देता है पैसेही प्रस्यमिज्ञान विषयों प्रत्यक्ष मी बाधा नहीं दे सकता है क्योंकि वह उसका विषय नहीं है । जो जिसका विषय हो नहीं है वह उसका साधक या बाधक भी नहीं हो सकता है।
यद्विषयता प्रतीयते तत्तद्विषयमिति व्यवस्थायां वर्तमानार्थाकारविषयतया समी• स्यमाणं प्रत्यक्षं तद्विषयम्, पूर्वोपरविवर्तवत्यैकद्रव्यविषयतया तु प्रतीयमान प्रत्यभिज्ञान तद्विषयमिति को नेच्छेद ?
को ज्ञान जिसको विषय करनेवाला परीक्षकजनोंको प्रतीत होवे, वह ज्ञान उस पदार्थको विषय करनेवाला माना जाये, इस प्रकार व्यवस्था माननेपर तो जैसे यह बात आपको इष्ट है कि वर्तमानकालके अर्थोको उल्लेख करके विषम करता हुआ प्रत्यक्ष प्रमाण बालक, पशु, पक्षियों
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सत्यार्थचिन्तामणिः
तक देखा जा रहा है । अतः वह प्रत्यक्ष प्रमाण वर्तमान अर्थकोही विषय करता है वैसे ही काल और उत्तरफालके पर्यायोंमें होनेवाले द्रव्यरूपसे एकपनेको विषय करता हुये स्वरूप करके तो प्रत्यभिज्ञान प्रमाण प्रतीत हो रहा है इस कारण प्रत्यभिज्ञानका गोचर एकत्त्व है इस बातको कौन नहीं इष्ट करेगा ? सर्व ही वादी प्रतिवादी न्याय्य बातको मान लेंगे। यहां यह बात विशेष समझ लेना कि ज्ञानको साकार और दर्शनको निराकार जैन सिद्धांत में माना है। आकारका अर्थ तो समझ लेना और दूसरों को समझा देनेकी योग्यता है । या स्वयं विशेषरूपसे प्रतिभासन हो जाना है। ज्ञान ही एक ऐसा गुण है जिसका निरूपण हो सकता है । सुख, दुःख, इच्छा, सम्यक्त्व, चारित्र, दर्शन, रूप, रस आदिका प्ररूपण या आख्यान नहीं होता है। यदि रूप आदिकको कोई कड़ेगा तो वह रूपज्ञानको हो कह रहा है। रूपको तो बादमें हम स्वयं श्रुतज्ञानसे जान लेते हैं। यदि रूप या सुखको ज्ञानद्वारा नहीं किंतु सीधा कह दिया जाता तो सुननेवाले सब श्रोताओंको अवश्य रूपज्ञान होजाना चाहिये कोई अत्रषि न रह सकेगा और सुन्व के कहने से सब सुखी बन जायेंगे किंतु ऐसा नहीं है । वक्ता के शब्दों से क्षयोपशमके अनुसार श्रोता ज्ञान पैदा कर लेते हैं। वह ज्ञान उसी समय ज्ञेयों के जानने में अमेमुख हो जाता है अतः समझ लो कि बक्ता अपने ज्ञानका निरूपण करता है तभी तो शिष्यको ज्ञान ही पैदा होता है। ज्ञान और शेयका निष्ठ सम्बंध होनेसे वह निरूपण ज्ञेयका बोला जाता है। ज्ञान और ज्ञेयमें तथा ज्ञान और उसके निरूपण में बादरायण संबंध है । एक पथिक, किसी महाजन के घर गया। सेठानीने उसे सेठका मित्र समझकर विशेष सत्कार किया और सेटने भी सेठानीके गांवका सम्बंधी समझ आदर किया। बात स्पष्ट होनेपर दोनोंने भी पथिकसे ही पूछा कि हमारे साथ आपके हेलमेल करनेका क्या कारण है ! पथिकने उत्तर दिया कि मेरे, घर के सामने वेरियाका पेद है और आपकी हथेली के पास मी वदरीवृक्ष है यही इमारा और आपका बादरायण सम्बंध है। "बदरी तरुब्ध युष्माकमस्माकं वदरी गृहे । वादरायणसम्बंधो यूयं यूयं क्यं वर्म " इस तरह अभ्ययीपरम्परा सम्बंध होते हैं जैसे कि वाध्यवाचक मात्र, प्रतिविम्बप्रतिविवक भाव आदि - कहां तो सिद्ध भगवान् परम विशुद्ध चेतन पदार्थ हैं और कहां उनका वाचक कण्ठतालु आदि तथा पुद्गल वर्गेणाओंसे बनाया गया अशुद्ध जड सिद्ध शब्द है। एवं कहां तो कांच और पारेसे बनाया गया प्रतिच्छाया लेनेवाला दर्पण या कागज स्यादी का तसवीर हैं और कहा सदाचारी शरीरधारी देववत चेसनद्रव्य प्रतिबिष्य है। ये सब आकाश पाताल के कुलाठोंको मिलाने के समान योजनायें हैं किंतु कार्यकारी हैं अतः सम्बंध माने गये हैं। साक्षात् सम्बंध तो संयोग, बंधन, और सादात्म्यही है अतः साक्षात् रूपसे ज्ञानको और परम्परासे ज्ञेय को समझना तथा समझा सकना ही ज्ञानकी साकारता है और अन्य सब गुण उस अपेक्षा से निराकार माने गये हैं।
यदि आकारका अर्थ खम्बाई, चौडाई, मोटाई मानी जाये तो द्रव्यका जो आकार है उतना ही उसके गुणोंका भी आकार है । एवं च दर्शन, सुख, चारित्रगुण भी साकार हो जायेंगे,
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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बौद्ध लोग ही ज्ञानको दर्पणके समान साकार मानते हैं । जैन लोग उन बौद्धोंका खण्डन कर देते हैं। साकार ज्ञान मानने पर कोई सर्वज्ञ न होगा क्योंकि इस समय मूत भविष्यत् पदार्थ ही जब नहीं हैं तो उनका प्रतिविम्बरूप आकार क्या पड़ेगा? तथा स्मरणज्ञान भी न हो सकेगा, प्रति बिम्ब तो वर्तमान पदायाँका पडता है, अविधमानों का नहीं। इस्यादि अन्यत्र विस्तारसे प्रतिपादन हैं।
नन्वनुभूतानुभूयमानपरिणामवृत्तेरेकत्वस्य प्रत्यभिज्ञानविषयत्वेऽतीतानुभूताखिलपरिणामवर्तिनोऽनागवपरिणामवानश्च तद्विषयत्वप्रसाक्तः, भिन्नकालपरिणामवर्तित्वाविशेपात्, अन्यथानुभूतानुभूयमानपरिणामवर्तिनोऽपि तदविषयत्वापचेरिति चेत् , बर्हि साम्भतिकपर्यायस्य प्रत्यक्षविषयत्वे कस्यचित्सकलदेशवर्तिनोऽप्यध्यक्षविषयता स्यादन्यथेष्टस्यापि सदभावा, साम्प्रतिकत्वाविशेषात् , तदविशेषेऽपि योग्यताविशेषात् साम्प्रतिकाकारस्य कस्यचिदेवाज्यक्षविषयत्वं न सर्वस्यति चेत्तर्हि
बौद्ध शंका करते हैं कि मूतकालमें अनुभव किये जा चुके और वर्तमानमें अनुभव किये जा रहे परिणामोंमें ठहरनेवाले एकपनेको यदि प्रत्यभिज्ञानका विषय होना मानोगे सो पूर्वकालसंवत्री अनुभव किये गये सम्पूर्ण परिणामों में रहनेवाले और सभी भविष्य परिणामों में रहनेवाले अनेक एकरवोंको भी उस पत्यभिज्ञानकी विषयताका प्रसंग आता है, क्योंकि समीप भूत और वर्तमानमें रहनेवाला एकल जैसे भिन्न कालके परिणामों में वर्दनेवाला है उसीके समान चिरभूत और लम्बा भविष्यत् परिणामों में रहनेवाला एकत्व भी है। भिन्नकालके परिणामों में रहनेकी अपेक्षासे इनमें कोई अंतर नहीं है । अन्यथा यानी यदि भिन्नकालमें रहनेवाले एकत्वको प्रत्यभिज्ञानका विषय नहीं मानोगे तो जैनोंके मतभे अनुभव किये जा चुके और अनुमवमें आ रहे कतिपय परिणामों में रहनेवाला यह एकल मी प्रत्यभिज्ञानका विषय न हो सकेगा यह आपति होगी। अब ग्रंथकार कहते है कि यदि बौद्ध यों कहेंगे रुष तो उनके प्रत्यक्षपर भी यह कटाक्ष हो सकता है कि आप पौद्ध वर्तमान कालकी पर्यायको अल्पज्ञके प्रत्यक्षका विषय मानोगे तो सम्पूर्ण देशों में रहनेवाली वर्तमान कालकी पर्यायें भी किसी भी साधारण मनुष्य के प्रत्यक्षका विषय हो जावेगी। अन्यप्रकारसे यानी पदि वर्तमानकी पर्यायोंको प्रत्यक्षका विषय न मानोगे तो आपका इष्ट किया गया प्रत्यक्ष मी उस वर्तमानकी पर्यायको नहीं जान सकेगा, क्योंकि अनेक देशों में रहनेवाली विद्यमान पर्यायों में और संमुख रहनेवाली उस पर्याय में वर्तमान कालमें विद्यमान होनेकी अपेक्षा कोई अंतर नहीं है उस कुछ अंतरके नहीं रहते हुए भी ज्ञानकी विशिष्ट श्योपशमसे होनेवाली परिमित शक्तिरूप विशेष योग्यतासे वर्तमान सन्मुख पर्याय ही किसी के प्रत्यक्षका विषय है । सम्पूर्ण देशवर्ती वर्तमान कालकी पर्याय प्रत्यक्षका विषय नहीं हैं। इस प्रकार कहोगे तब तो-दम जैन भी यों कहते हैं उसे दत्तचित्त होकर सुनिये ।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
यथैव वर्तमानार्थग्राहकत्वेऽपि संविदः । सर्वसाम्प्रतिकार्थानां वेदकत्वं न बुद्धयते ॥ १५८ ॥ तथैवानागतातीतपर्यायैकत्ववेदिका । वित्तिर्नानादिपर्यन्तपर्यायैकत्वगोचरा ॥ १५९ ॥
जिस ही प्रकार कि वर्तमानकालके अर्थोकी ग्राहकता होते हुए भी प्रत्यक्ष ज्ञानको सम्पूर्ण देशों में रहनेवाले वर्तमान कालके अनेक अर्थोकी ग्राहकता नहीं समझी जाती है वैसे ही भूत भविष्यत्की कतिपय पर्यायों में विद्यमान होरहे एकत्वको जाननेवाला प्रत्यामिज्ञानरूप मविज्ञान विचार: नादि अनंत मालकी या योग वार. एसको विषय नहीं कर सकता है । जितनी शक्ति होगी उतना कार्य किया जा सकेगा।
__ यथा वर्तमानार्थज्ञानावरणक्षयोपशमावर्तमानार्थस्यैव परिच्छेदकमक्षज्ञानं तथा कतिपयातीतानागतपर्यायैकत्वज्ञानावरणक्षयोपशमात्तावदतोतानागतपर्यायैकत्वस्यैव ग्राहक प्रत्यभिज्ञानमिति युक्तमुत्सश्यामः ।
___ जैसे थोडेसे वर्तमान अर्थोके ज्ञानको रोकनेवाले ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे वर्तमान कतिपय अओंको ही जाननेवाला इंद्रियों करके जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है उस ही प्रकार भूत, भविष्यत् कालकी कतिपय ( कुछ ) थोडीसी पर्यायों में रहनेवाले एफलके ज्ञानका प्रतिबंधक होरहे ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ प्रत्यभिज्ञान भी उतने ही भूत, भविष्यत् कालकी परि. मित स्तोक पर्यायों में रहनेवाले एकत्वका ही ग्राहक है। इस बातको हम युक्तियोंसे सहित देख रहे है, अनुभव कर रहे हैं । युक्तियोसे सिद्ध होगयो चर्चाको मान लिया करो।
तसाच्चैकसंतानवर्तिपटकपालादिमृत्पर्यायाणामन्वयित्वसिदेनॊदाहरणस्य साध्यसाधन विकलत्वं, येन चित्तक्षणसंतानव्याप्येकोऽन्वितः पुमान सिद्धयेत् ।
उस कारण अब तक सिद्ध हुआ कि एक संतानमें रहनेवाले शिवक, खास, कोष, कपाल और घट आदि मिट्टीको पर्यायों में भी मृत्तिकारूपसे ओतप्रोतरूप अन्वय भरा हुआ है । अतः एकसौ बावनवीं फारिकामें दिया गया मृत्पर्यायस्वरूप . उदाहरण तो अन्ययसहितपनेरूप साध्यसे
और प्रत्यभिज्ञानका विषयपनारूप हेतुसे रहित नहीं है। जिससे कि आत्माके ज्ञानपर्यायोंकी संतानमें व्यापकरूपसे अन्वययुक्त रहनेवाला एक आत्मा सिद्ध न होवे । मावार्थ-" सम्पूर्ण ज्ञान धाराओं में मोतियोंकी मालामे सूतके समान यह वही आत्मा है ।" इस अन्वमबुद्धिका जनक एक आत्मा द्रव्य सिद्ध होगया है ऐसे ही निजके सुख, चारित्र, अस्तित्व आदि गुणोंकी पहिली पीलेपर्यायों में आमा व्यापक है।
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तस्यापिन्सामाणः
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कथमेकः पुरुषः क्रमेणानन्तान् पर्यायान् व्यामोवि ? न तावदेकेन खभावेन सर्वे.. पामेकरूपतापत्ता नानास्वरूपैयाप्तानां जलानलादीनां नानात्वप्रसिद्धेरन्यथानुपपचे।
यहां पर बौद्ध लोग आत्माका नित्यपना उढानेके लिये कटाक्षसहित चौडा पूर्वपक्ष करते हैं कि एक ही आत्मा क्रमसे होनेवाली अनंत भिन्न भिन्न पर्यायोंको कैसे व्याप्त कर लेता है। बताओ । मदि जैन लोग एक स्वमावके द्वारा आत्माका अनेक पर्यायों में व्यापक होजाना मानेंगे वह तो ठीक नहीं है क्योंकि यों तो सम्पूर्ण पर्यायोंको एकपनेकी आपत्तिका प्रसंग होगा । जो एक स्वभावसे रहते हैं वे एक ही हैं। जैसे घट और कलश एकस्वमावसे मूतलमें रहते हैं। इस कारण दोनों घट और कलश एक ही तो हैं । जल, अमि आदिको अनेकपदार्थपना तमी प्रमाणोंसे प्रसिद्ध है जब कि वे शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, गीला करना, सुखाना, कम्पन कराना आदि अनेक स्वभावोंसे अपनी अपनी पर्यायों में व्याप्त होकर ठहरते हैं। यदि ऐसा नहीं मानकर अन्य प्रकारोंसे माना जाये अर्थात् एकस्वभावके द्वारा भी जल, ममि, आदिको अपनी पर्यायोंमें व्यापक मान लिया जावे तो अरू, अमि वायु, आदिको अनेकपना सिद्ध नहीं हो सकेगा। सर्व एक Bध्य हो जायेंगे।
सत्तायकस्वभावेन व्याप्तानामर्थानां नानात्वदर्शनात् पुरुषत्वैकस्वभावेन व्याप्तानामप्यनन्तपर्यायाणां नानात्वमविरूद्धमिति चायुक्तम्, नानार्थव्यापिन: सत्वादेरेकस्वभावस्वानवस्थितेः कथमन्यथैकस्वभावव्याप्तं किंचिदेकं सिद्धयेत् ।
यदि यहांपर नैयायिक या जैन यों कहे कि जैसे सजा, द्रव्यल आदि एक स्वभावकरके व्याप्त होरहे भी पृथ्वी, जल, वायु आदि अोंका अनेकपन देखा जाता है वैसे ही आत्मस्व मा चेतनत्व नामक एकस्वभावसे न्यास हुये भी अनंत ज्ञान, सुख आदि पर्यायोंको अनेकपना होने में कोई विरोध नहीं है । बौद्ध कहते हैं कि यह भी कहना युक्तियोंसे रहित है क्योंकि अनेक अर्थों में व्यापकरूपसे रहनेवाले सब, द्रव्यत्व, पदार्थस्य आदिको जैनसिद्धान्त, एकस्वमावपना व्यवस्थापूर्वक सिद्ध नहीं है । वे सत्त्व आदिक अनेक स्वभाववाले होकर ही अनेक पदापोंमें ठहर सकते हैं। यदि ऐसा न स्वीकार कर अन्यप्रकारोंसे माना जावेगा तो एकस्वभावसे व्याप्त होरहा कोई एक पदार्थ ही कैसे सिद्ध हो सकेगा ! बताओ। भावार्थ-अबतक एकस्वभावपनेसेही एक पदार्थ होनेकी व्यवस्था है, यही स्याद्वादियों का भी मत है किन्तु अब आप नैयायिकके मन्तव्यके अनुसार एकस्वभावके द्वारा अनेकपनकी भी सिद्धि करने लगे, सो ठीक नहीं है । यों तो पदार्थके एकत्वकी व्यवस्थाही उठ जावेगी। तथा नैयायिककी मानी गई नित्य, एक, और अनेकोंमें रहनेवाली सत्ताजाति तो अनेक दोषोंसे दूषित है।
यदि पुन नाखभावैः पुमाननन्तपर्यायान् व्यामुयात्तदा ततः स्वभावानामभेदे तस्य नानात्वम्, तेषाञ्चै सयमनुपज्येन, भेदे सम्बन्धासिद्धव्यपदेशानुपपत्तिः, संबन्धप
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सत्यार्थचिन्तामावः
नायो किमेकेन खभावेन पुमान् स्वस्वभावैः संबध्यते नानास्वभावैवी ? प्रथमकल्पनाया सर्वस्वभावानामेकतापचिः, द्वितीयकल्पनायां ततः स्वभावानामभेदे च स एव दोषा, अनिवृरा (थ) पर्यनुयोगा, इत्यनवस्थानात्, कृतोऽनन्तपर्यायतिरास्मा व्यवतिछतेति केचित् । ... अभी तक बौद्ध कहते जा रहे हैं कि द्वितीयपक्ष अनुसार यदि आप जैनजन फिर अनेक समावोंसे अनंत पर्यायोंको आत्मा व्याप्त कर लेगा, ऐसा मानेगे तो हम बौद्ध पूंछते हैं कि ये अनेक स्वभाव मामासे अभिन्न हैं या भिन्न हैं !
___ यदि अनेक स्वभावोंका उस आत्माके साथ अभेद मानोगे तो स्वभावोंके समान वह आमा भी अनेक हो जावेंगी, अथवा आत्माके समान उन स्वभावोंको मी एकपनेका प्रसंग होगा । अभेदमे ऐसा ही होता है।
यदि दूसरा पक्ष लोगे यानी उस भात्मासे उसके स्वभावोंको भिन्न मानोगे तो आस्माका और स्वभावोंका संबंध सिद्ध न होगा। संघ सिद्ध न होनेसे " आत्माके ये स्वभाव है।" इस मकारके लोकव्यवहारकी व्यवस्था न होसकेगी क्योंकि सब और बिध्यके समान सर्वथा भेद होनेपर संबंध नहीं बनता है और सह्य पर्वतका यह बिन्ध्य पर्वत है इस प्रकार व्यवहार भी नहीं होता है । अतः संबंधवाचक षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त नहीं हो सकती है।
__ यदि स्वभावों के साथ आत्माके संबंधकी कल्पना करोगे तो हम पूंछसे हैं कि आत्मा क्या अपने अनेक स्वभावों के साथ एक स्वभावसे सम्बन्षित होगा अथवा अपने अनेक स्वमावों के साथ अनेक स्वभावोंकरके सम्बद्ध हो ? बताओ यदि पहिले पक्षकी कल्पना करोगे तो आलाके उन सम्पूर्ण स्वभावोंको पूर्वके समान एकपनेका प्रसंग होता है और दूसरे पक्षकी कल्पना नाना स्वभावोंके साथ संबंध करानेवाले उन दूसरे अनेक स्वभावोंका उस आत्मासे अभेद मानोगे तो वही पहिला दोष हो जावेगा अर्थात या तो ये सब स्वभाव एक हो जावेगे या आत्मा अनेक हो जावेगी तथा उन स्वभावोंको आत्मासे मिन्न पड़ा हुआ मानोगे तो आत्माका स्वभावोंके साथ संबंध सिद्ध न होगा।
यदि पुनः संबंधकी कल्पना करोगे तो फिर एक स्वभावसे या अनेक स्वभावोंसे संबंध माननेके विकल्स उठाये जायेंगे और वे ही पूर्वोक्त दोष आते जायेंगे । इस तरह कटाक्षरूप प्रश्न, उत्तर
और विकल्प उठाना नहीं निवृत्त होगा। इस प्रकार मूलपदार्थका क्षय करनेवाला अनवस्था दोष होगा तब जैनोंका अनंत पर्यायों में अन्वयरूपसे व्यापक होरहा मला एक आला कैसे व्यवस्थित होगा ! आप बैन उत्तर दीजिये इस प्रकार कोई बौद्ध पण्डित कह रहे हैं।
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तत्वाचिन्तामणः
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तेऽपि दूषणामासवादिनः कथम्
अब आचार्य कहते हैं कि वे बौद्ध भी सच्चा दोष नहीं दे रहे हैं किंतु उनको दूषणामास कहनेकी लत पड़ी हुयी है । सो कैसे ! उसको सुनिये- ...
क्रमतोऽनन्तपर्यायानेको व्याप्नोति ना सकृत् ।
यथा नानाविधाकारांश्चित्रज्ञानमनशकम् ॥ १६० ॥
पुसल्लम गोरे : काता, शिमा, आशा, माह्यता, प्राहकता, आदि अंशोंसे रहित होरहा भी एक चित्रज्ञान नाना प्रकारके नीलाकार, पीताकार, हरिताकारोंको एकसमयमें व्याप्त कर लेता है। वैसे ही एक आत्मा भी कमसे होनेवाली अनंत पर्यायोंको एक ही बारमें व्याप्त कर लेता है। अर्थात् आत्मा अनंत मूत, भविष्य, कालकी पर्यायों में अम्वितरूपसे विषमान है । ऐसा जैन मानते हैं। बौद्धोंका दृष्टांत मिल गया।
चित्रज्ञानमनशमेकं युगपन्नानाकारान् व्यामोतीति खयमुपयन् घ्यामुवन्तमात्मानं प्रतिक्षिपतीति कर्थ मध्यस्थः । तत्र समाधानाक्षेपयोः समानत्वात् ।
. धर्मधर्मीभावसे रहित हो रहा एफ निरंश चित्रज्ञान एक समयमें अनेक आकारों को व्याप्त कर लेता है। इस बातको बौद्ध स्वयं स्वीकार कर रहा है किंतु क्रमसे होनेवाली अनंत पर्यायाम व्याप रहे आरमाका खण्डन करता है। ऐसा कहनेवाला बौद्ध पक्षपातरहित होकर म्याय करने वाला मध्यस्थ कैसे हो सकता है ! अर्थात् नहीं, जो चित्रज्ञान समाधान करोगे वैसा ही आत्माकी व्यापकताका समाधान हो जावेगा और अपनी पर्यायोम आमाके अन्चित रहनेपर जो दोषारोपण करोगे, वही दोष समानरूपसे वहां चित्रज्ञानमें भी लागू होगा, कारण कि यहां चित्रज्ञानरूप दृष्टांत सम है।
नन्वनेकोऽपि चित्रज्ञानाकारोऽशक्यविवेचनत्वादेको युक्त इति चेत्__यहां ननुका अर्थ यह है जैसे कि कोई अनिर्णीत अपराधी जजके सम्मुख प्रभकर्ता वनकर अपने दोषके निवारणार्थ उत्तरफालके फलका उद्देश्य रखकर समाधानरूप निर्दोषताका बरवान करता है वैसेही शलाकारका वेष धारण कर बौद्ध कहते हैं कि नील, पीत आदि नाना आकार अनेकही है। फिर भी उन आकारोंका पृथग्भाव नहीं किया जासकता है । अत: उन आकारोंसे मिलकर बना हुआ एक चित्रज्ञान मानना युक्त है आचार्य करते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो
यद्यनेकोऽपि विज्ञानाकारोऽशक्यविवेचनः । स्यादेकः पुरुषोऽनन्तपर्यायोऽपि तथा न किम् ॥ १६१ ॥
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स्वार्थचिन्तामणिः
यद्यपि चित्रज्ञानके अनेक आकार हैं किंतु उनका पृथक्करण नहीं हो सकता है | अतः यदि उन अनेक आकारवाले ज्ञानोंको एक माना जावेगा तो उसी प्रकार अनंत पर्यायोंमें रहनेवाला आत्मा भी पृथक् न कर सकने के कारण एक क्यों न माना जावे भ्यायं समान होना चाहिये ।
क्रमञ्जुवामात्मपर्यायाणामशक्यविवेचनत्वमसिद्धमिति मा निचैषीः यस्मात् -
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बौद्धों के प्रति आचार्य कह रहे हैं कि कम क्रमसे होने वाली आत्माकी पर्यायोंका पृथक् न कर सकनापन असिद्ध है । इस प्रकार निश्चय न कर बैठना, जिस कारण से कि
यथैकवेदनाकारा न शक्या वेदनान्तरम् ।
नेतुं तथापि पर्याया जातुचित्पुरुषान्तरम् ॥ १६२ ॥
जिस प्रकार एक विज्ञानकी लडीके आकार दूसरे ज्ञानमें ले जानेको अशक्य हैं तैसे दी देवदत्तकी आमा सुख, दु:ख आदि पर्याय भी दूसरे यज्ञसकी आत्मामें कमी नहीं प्राप्त किये जा सकते हैं अतः अशक्यविवेचनत्व हेतु दोनों में रह गया ।
ननु चात्मपर्यायाणां भिन्नकालतया वित्तिरेव शक्यविवेचनत्वमिति चेसह चित्रज्ञानाकाराणां भिन्नदेशतया वित्तिर्विवेचनमस्तीत्यशक्यविवेचनत्वं माभूत् तथाहि
बौद्ध अनुनय करते हैं कि एक आत्माकी नाना ज्ञान, सुख, आदि पर्यायोंकी मिन मिश्र काल वृद्धि होकर प्रतीति हो जाना ही उनका पृथग्भाव कर सकना है । यदि बौद्ध ऐसा करेंगे au तो चित्रज्ञान आकारोंका भी भिन्न भिन्न देशमै हुये रूपसे वेदन होना ही पृथक् कर सकना है । इस तरह चित्रज्ञानके आकारों में भी पृथक् न कर सकनापन न होगा, सो ही स्पष्ट कर अगली बाकि कहते हैं
भिन्नकालतया वित्तिर्यदि तेषां विवेचनम् ।
भिन्नदेशतया वित्तिर्ज्ञानाकारेषु किन्न तत् ॥ १६३ ॥
यदि भिन्न भिन्न कालमें वर्त ने रूपसे ज्ञप्ति होना ही आत्माकी पर्यायोंका पृथभाव करना है तो मित्र देशोंमें रहना, रूपसे जानना ही क्यों नहीं चित्रज्ञानके आकारोंका पृथक् कर सकना माना जाता है ? बताओ। भिन्ना भिन्ना देशा येषां ते भिन्नदेशास्तेषां भावो भिमदेशता, तया भिन्नदेशतया, यों निरुक्ति करना ।
न हि चित्रपटनिरीक्षणे पीवाद्याकाराश्वित्रवेदनस्य भिन्नदेशा न भवन्ति ततो बहिस्तेषां भिमदेशवाविष्ठान विरोधात् ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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किसी उद्यान या महलके प्रतिबिम्बित या चित्रित अनेक रंगवाले चित्रपटको देखने पर उस चित्रज्ञानके पीत, नील आदिक आकार भिन्न भिन्नदेश में वृद्धि रखनेवाले नहीं है यह नहीं कहना | अन्यथा उस चित्रपट ( तसवीर ) से बाहिर रखे हुए वास्तविक प्रतिविम्बक बगीचे या महलके उन नील, पीत आदिक आकारोंका भिन्नदेशवृतिरूपमें प्रतिष्ठित रहनेका विरोध हो जायेगा | अर्थात् वे एक ही ज्ञानमें भिन्न भिन्नदेशों में रहते हुए दीख रहे हैं क्योंकि बगीचे में अनेक आकार या रंगवाले फल, फूल, वृक्ष, बेल आदि भिन्न भिन्न देशों में विद्यमान हैं। तभी तो उनका प्रतिबिम्म चित्रमें वैसा पड गया है ।
न भिन्नदेशी वाद्याकारानुकारिणश्चित्रवेदनाद्भिन्नदेशपीताद्याकारो बहिरर्थश्वित्रः प्रत्येतुं शक्योऽपीताकारादपि ज्ञानात्पततीतिप्रसंगात् ।
एक ही देशमें पीठ, नील आदिक आकारका निरूपण करनेवाले चित्रज्ञान से भिन्न देशafia आदि आकारवाले बहिरंग इन्द्रधनुष, चितकबरी गाय, ततैया, तितली आदि थे चित्र विचित्र नहीं समझे जा सकते हैं, अन्यथा पीतका आकार न लेनेवाले ज्ञान से भी पीतकी समीचीन ज्ञप्ति होजानेका अतिप्रसंग आजायेगा । भावार्थ – ज्ञानके आकारों में भिन्नदेशता है तभी तो बहिरंग विषयोंमें भिन्नेदशपना निर्णय किया जाता है । इस कारण ज्ञानके आकारों में भिन्न भिन्न देशों में रहनापन सिद्ध हुआ । ऐसी दशा में आत्मा के समान ज्ञानके आकारों भी पृथकू न कर सकनापन नहीं है। अब आप बौद्ध एक चित्रज्ञानका क्या उपाय रचेंगे ! बताओ।
पीताकारादिसंवित्तिः प्रत्येकं चित्रवेदना ।
न वेदनेकसन्तानपीतादिज्ञानवन्मतम् ॥ १६४ ॥
देवदत्त, जिनदत्त आदिकी अनेक भिन्न सन्तानों में होनेवाले और नील, पीत, हरित आदिकको जाननेवाले एक एक ज्ञानव्यक्ति जैसे चित्रज्ञान नहीं है उसी प्रकार एक ज्ञानमें होनेवाले नीक, पीत आदि आकार भी अकेले अकेले चित्रज्ञान नहीं है किन्तु एक ज्ञानके समुदित आका - का चित्र बन जाता है यदि बौद्धों का यह मंतव्य है तब तो -
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चित्रपटदर्शने प्रत्येकं पीताकारादिवेदनं न चित्रज्ञानं क्रमाद्भिन्नदेशविषयस्मात्तार शाने संतानपीवादिज्ञानवदिति मतं यदि ।
उक्त कथनको बौद्ध अनुमान बना कर कहते हैं कि अनेक रंगवाले चित्रको देखने पर पीत, हरित, नील आदिक आकारको जाननेवाले अनेक आकारके ज्ञानमेंसे एक आकारवाला प्रत्येक प्रत्येक ज्ञानांश चित्रज्ञान नहीं है क्योंकि वे ज्ञान क्रमसे भिन्न भिन्नदेशों में विद्यमान रहनेवाले नील, पीत आदिको विषय करते हैं। जैसे कि देवदत्त, जिनदत आदिक भिन्नसंतानों के इस प्रकार के
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नील, पीत आदिक आकारवाले ज्ञान अकेले अकेले चित्रज्ञान नहीं हैं उन भिन्न भिन्नसंतान के ज्ञानोंका समुदाय नहीं हो पाता है किंतु एकज्ञान समुदित आकारोंसे मिश्रित होगा तब तक चित्र कहा जावेगा । इस प्रकार यदि आप बौद्धोंका मत है तो सुनिये ।
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सह नीलादिविज्ञानं कथं चित्रमुपेयते । युगपद्भाविरूपादिज्ञानपंचकवत्त्वया ॥ १६५ ॥
यदि एक आम के कमसे होने वाले ज्ञान, सुख आदि पर्याय में एक द्रव्यपने से सांकर्यरूप चित्रता नहीं मानते हो तो एक समयमें साथ होते हुए नील, पीत आदिक आकारवारले विज्ञानको चित्रज्ञान कैसे स्वीकार कर सकोगे ? जैसे कि पापड खाते समय एक समयमै रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्दके पांचों इंद्रियोंसे जन्म पांच ज्ञान साथ होते हैं। उन पांचोंका मिश्रणात्मक एक चित्र ज्ञान तुमने नहीं माना है वैसे ही नीळ, पीत आदि आकारोंका मिश्रणरूप एक चित्रज्ञान तुमको नहीं मानना चाहिये ।
शक्यं हि वक्तुं वकुलीभक्षणादौ सहभमाविहारिनामयञ्चकामिव नीलादिज्ञानं सदपि न चित्रमिति, सहभावित्वाविशेषात् ।
I
हम यों अवश्य कह सकते हैं कि कुरकुरी कचौड़ी खाते समय या रायलको सपोट कर पीने पर आदि प्रकरणों में एक साथ होनेवाले रूप, रस आदिकके पांच ज्ञान जैसे परस्परमें मिलकर एक चित्रज्ञानरूप नहीं बन जाते हैं । उसी प्रकार एक समय में होनेवाले नील, पीत आदिक आकारवाले ज्ञान मी मिलकर चित्रात्मक एक नहीं हो सकते हैं । भुरभुरी कचौडी खाने में या अनेक रंगवाले चित्रपटके देखने में अनेक आकारवाले ज्ञानोंका साथ होनापन समान है। कोई भी अन्तर नहीं है ।
तदविशेषेऽपि पीतादिज्ञानं चित्रमभिमदेशत्वा चित्रपतङ्गादौ न पुमा रूपादिज्ञानपञ्चकं क्वचिदिति न युक्तं वक्तुं तस्थाप्यभिन्नदेशत्वात् न हि देशभेदेन रूपादिज्ञानपञ्चकं सकृत् स्वस्मिन् वेद्यते, युगपज्ज्ञानोत्पत्तिवादिनस्तथानभ्युपगमात् ।
उस नील, पीत आदि ज्ञान और रूप, रस आदिक ज्ञानको एक कालमें होनेकी अपेक्षासे कुछ अंतर न होते हुए भी अनेक रंगवाले पतङ्गे, तितली, ततैया आदि या चित्रपटके नील, पीत कारवाले ज्ञानको अभिन्न देशमें होनेके कारण आप चित्रज्ञान कहें किन्तु फिर कहीं कहीं कचौडी, पापड, साम्बूलके भक्षण करनेपर साथमें होनेवाले रूप आदिकके पांच शानोंको चित्ररूप न मानें, इस प्रकार आपका पक्षपातसे कहना युक्तियों से सहित नहीं है क्योंकि रूप, रस आदिकके
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वे ज्ञान मी उम कचौडीस्वरूप अभिन्न देशमै उत्पन्न हुए हैं । कचौडी खाते समय रूप आदिके पांचों ज्ञान एक समयमै होते हुए आमामे जाने जा रहे हैं । उनमें कोई देशका भेद नहीं है। भावार्थ-पका ज्ञान किसी पदार्थ में हो और रसका जान अन्यमे हो, एवं गन्धका ज्ञान तीसरेमें हो, ऐसा नहीं है । जो एकसमयम अनेक ज्ञानोंकी उत्पत्ति होना कहते हैं उन्होंने उस प्रकार पांच ज्ञानोंका भिन्न देशमै उत्पन्न होना स्वीकार नहीं किया है किन्तु एकही वस्तुमें एक सम्यमें अनेक ज्ञान उत्पन्न हो जाते है उनकी यों कहनेकी टेव है । इस विषयमे जैनोंका सिद्धान्तमन्तव्य दूसराही है, जो कि अग्रिम प्रकरणमें प्रतीत हो जावेगा । दूसरेके मन्तव्यका खण्डन करते समय पद पद पर अपने घरकी बात कह देना हरूकापन है। संक्षेप सिद्धांन यह है कि अनेक पदार्थोंको भिन्न मिन्न रूपसे जानने वाले एक ज्ञानको समूहावलम्बन ज्ञान कहते हैं । कचौडी खाते समय भी कम कमसे पांच ज्ञान होते हैं। एक समयमें दो उपयोग नहीं हो सकते हैं । दर्शन, ज्ञान या मतिज्ञान श्रुतज्ञान अथवा अग्रह, ईहा, मवाय, धारणा या रासनप्रत्यक्ष और चाक्षुषप्रत्यक्ष ये हम लोगोंके एक समयमें दो नहीं होते हैं। लब्धिरूप चार ज्ञान भले ही हो जावे । लब्धिरूप ज्ञान प्रमितिका साक्षात् जनक नहीं है। यों तो सांधे मनुष्यले भी ललिधरूप चाक्षुष प्रत्यक्ष माना है। चित्रपट अनेक रंगोंके ज्ञानको एक चित्रज्ञान हम इष्ट करते हैं कि पौद्धोंके सदृश क्षणिक परमाणुरूप विज्ञान के अनेक नील, पीस आकारोंका मिश्रण होकर बने हुए चित्रज्ञानको हम नहीं मानते हैं। एकपदाथके अनेक ज्ञान होना और अनेक पदार्थोंका एक ज्ञान होना भी हम मानते हैं, तभी तो अंश, उपांशोंको जाननेवाले ध्यान और सर्वज्ञताकी आपत्ति होती है।
ननु चादेशत्वाचित्रचैतसिकानामभिन्नदेशत्वचिंता न श्रेयसीति चेत , कथं भिन्नदेशखाचित्रपटीपीतादिज्ञामना चित्रस्वाभावः साध्यते ? संव्यवहारात्तेषां तत्र मित्रदेशत्वासिद्ध तत्साधने तत एव शकुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानानामभिन्नदेशवासिद्धेः, सहभाविवसिद्धेश्व तत् सकृदपि पीतादिशानं चित्रमेकं माभूत् ।
बौद्ध अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि विज्ञानस्वरूप आत्माके चित्र विचित्र ज्ञानोंका अब देश हो कोई नहीं है क्योंकि वे क्षणिक विज्ञान किसी देशमें रहते हुए हमने नहीं माने है तो फिर मित्रदेशम रहनेका विचार करना कुछ अच्छा नहीं है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे . तो हम जैन कहते हैं कि आप बौद्धोंने चित्रपटके नील, पीत आदिक ज्ञानोंको भिन्न देशमें रहने के कारण चित्रपनेका अभाव क्यों सिद्ध किया है ! बताओ, आप तो भिन्नदेशपना मानते ही नहीं है।
यदि आप पौद्ध लोकके समीचीन व्यवहारसे उन ज्ञानों में भिन्नदेशपना या अभिन्न देशपना मानोगे और जहां भिन्न देशपनेका व्याहार सिद्ध नहीं है बड़ा उससे चित्रज्ञानपने का साधन
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तत्वार्थचिन्तामणिः
करोगे तो उस ही गुरभुरी . खाता कचौडी खानेपर होनेवाले रूप आदिकके पांचों ज्ञानों में भी अभिन्न देशपना सिद्ध है और इसी कारण साथमै होनापन सिद्ध है तो इस हेतुसे रूप भादिकके पांचों ज्ञानोंका मिलकर एक चित्रज्ञान क्यों न हो जाये । अथवा रूप आदिक पांच ज्ञान जिस प्रकार न्यारे न्यारे हैं, उसीके समान एक समय होनेवाले, नील, पीत आदिकके ज्ञान मी न्यारे न्यारे होंगे । एक चित्र स्वरूप न हो सकेंगे। ... . यदि पुनरेकज्ञानतादात्म्येन पीताद्याभासानामनुभवनात्तद्वदनं चित्रमेकमिति मतम्, तदा रूपादिज्ञानपञ्चकस्यैकसन्तानात्मकत्वेन संवेदनादेकं चित्रज्ञानमस्तु ।
यदि बौद्ध मतानुयायिओ, फिर तुम्हारा यह मंतव्य होय कि नील, पीत आदिक आकारस्वरूप प्रतिभासों का एक ज्ञानमें तादात्म्य रूपसे अनुभव होरहा है इस कारण उस ज्ञानको हम एक चित्रज्ञान मानते हैं, तब तो सूप, रस आदिकके पांच ज्ञानोंका भी एक संतानरूप सादात्म्यसे वेदन होरहा है अतः वे पांचों ज्ञान भी एक चित्रज्ञानरूप हो जाओ, चित्रपना बनानेके लिये दोनों स्थलों में तादात्य सम्बंध एफसा है।
वस्यानेकसन्तानात्मकत्वे पूर्वविज्ञानमेकमेवोपादानं न स्यात् ।
यदि रूप, रस आदिकके पांच ज्ञानोंको अनेफ संतानस्वरूप मानोगे ऐसा होते संते तो पहिलेका एक विज्ञान ही उनका उपादान कारण न हो सकेगा, अर्थात् जैसे देवदत्त, जिनदत्तके अनेक ज्ञानोका उपादान कारण उनके पूर्वकालमें होनेवाले ज्ञान हैं । विवक्षित आत्माके एक ज्ञानरूप उपादान कारणसे नाना आत्माओंका ज्ञान उपादेय नहीं हो पाता है। वैसेही एक आत्मामें रूप ज्ञानकी संतान पृथक् चल रही है। रसज्ञानकी संतानधारा भिन्न रूपसे प्रचलित होरही है । गंघज्ञानकी संतति मारी बह रही है। स्पर्शज्ञान स्वतंत्र होकर अपने उपादान उपादेयोंकी धारामोमें परिणत है। इसी तरह श्रोत्रजन्य शब्द प्रत्यक्षकी अन्वयसंतति अलग हो रही है। इस प्रकार आप बौद्धोंके मानने पर (सज्ञानको गंधज्ञानकी और रूपज्ञानको रसज्ञानकी उपादान कारणता जो प्रसिद्ध हो रही है सो न मनेगी। बौद्धमतसे गंधज्ञानका पूर्वकाल सम्बंधी गंधज्ञान ही उपादान कारण होगा; तथा च आत्मा अनेक उपादानकारण होने योग्य ज्ञानगुणोंके माननेका प्रसा - आता है । जो कि सिद्धांतसे विरुद्ध है।
पूर्वानेकविज्ञानोपादानमेकरूपादिज्ञानपञ्चकामिति चेत् , तर्हि भिन्नसन्तानत्वात्तस्थानुसन्धान विकल्पजनकत्वाभावः ।
यदि बौद्ध लोग आत्मामें एक समयमें अनेकज्ञानकी धाराएं चलती हुयी स्वीकार करोगे अर्थात् कचौडी खाते समय पांच रूप आदि ज्ञानोंके पूर्ववर्ती पांच ज्ञानोको उपादान कारण मानोगे
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तस्वाचिन्तामणिः
तो पूर्ववर्ती रूपज्ञानसे उत्तरेम रूपज्ञान होता है । इसी प्रकार दूसरे रसज्ञानसे रस आदिका ज्ञान होना समझ लेना चाहिये तब तो देवदत्त, जिनदत्तकी संतानोंके समान भिन्न संतान हो आनेसे उन ज्ञानोंके द्वारा परस्परमें प्रत्यमिज्ञान रूप विकल्पोंको उत्पन्न करना न बन सकेगा, जैसे जिनदत्तके देते हुए को देवदत्त स्मरण नहीं कर सकता है और न प्रत्यभिज्ञान कर सकता है । वैसे ही स्पाशन प्रत्यक्षसे जाने हुए का चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञान न कर सकेगा और प्राणज प्रत्यक्षसे जाने हुएका रासनपत्यक्ष अनुव्यवसाय न कर सकेगा, किंतु अनुसंधान ऐसा होता है कि जो मैंने छुआ था, उसीको देख रहा है, जिसको सूघा था, उसीका स्वाद लेरहा हूं, इस प्रकार भिन्न इंद्रियोंसे जाने हुए विषयका दूसरी इंद्रियोंसे अनुसंधान हो रहा देखा जाता है । अतः एक आत्मामें ज्ञामकी अनेक संताने मत मानो।
पूर्वानुसन्धानविकल्पवासना सज्जनिकेति चेत् , कुतोऽहमेवास्य द्रष्टा स्पष्टा घावा खादयिता श्रोतेत्यनुसन्धानबेदनम् रूपादिजानकावन्तरतिनियमा सम्भाव्यताम्।
बौद्ध कहते हैं कि हम लोग स्मरण और प्रत्यभिज्ञानको प्रमाण नहीं मानते हैं। जैसे अनेक मिथ्याज्ञान आत्मामे पहिलेसे बैठी हुयीं झूठी अविद्यारूप वासनाओंसे उत्पन्न हो जाते हैं। उसी मकार वे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान मी अपनी पूर्ववर्ती अविद्यास्वरूप मिथ्याविकल्पोंकी वासनासे स्वम ज्ञानोंके सदृश उत्पन्न हो जाते हैं। और रूप, रस आदिक ज्ञानोंका उपादान कारण भी पूर्ववर्ती जान नहीं है किंतु मिथ्या वासनाएं उनकी जनक हैं। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि नौद्ध ऐसा कहेंगे तो रूप आदिकके पांच ज्ञानके अव्यवहित उत्तरकालमें ही नियमसे ऐसा शेना कैसे सम्भावित होगा कि जो ही में इस पदार्थको देखता हूं सो ही मैं छू रहा हूं और बद्दी में संघ रहा है। इसका स्वाद-लेरहा हूं और उसको सुनता चला आरहा हूं पताओ। किंतु इस प्रकार भनुसन्धान स्वरूप ज्ञान होते हैं अतः इनका कारण वस्तुभूत ज्ञान मानना चाहिए। ___यदि खूठी वासनाओंसे अनुसन्धान ज्ञान हुये माने जागे तो एक ही आत्मामे उनके ठीक ठीक उत्पन्न होनेका नियम नहीं सम्भव होगा। भावार्थ-मिथ्यासंस्कारोंसे प्रत्यभिज्ञान होने लगेंगे तो अंटसंट चाहे जब हो जायेंगे। देश, काल और द्रव्यके नियतपनेसे नहीं होंगे। परंतु नियतरूपसे होरहे देखे जाते हैं ।
सस्य तद्वासनाप्रमोधकत्वादिति चेत्, कुतस्तदेव तस्याः प्रबोधकम् ? तथा दृष्टस्वादिति चेम, अन्यथा दर्शनाव, प्रागपि हि रूपादिजानपञ्चकोत्पत्तेरहमस्स द्रष्टा भविष्यामीत्याघनुसन्धानविकल्पो दृष्टः ।
अनुसन्धानके नियम करनेका बौद्ध यदि यह उत्तर देंगे कि मैं जिसको देखता ई, उसीको छूता ई, संपता है, इस अनुसन्धान के नियम करानेवाली मिथ्यासंस्कार रूप वासना आला न्यारी,
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पत्यापिन्तामणिः
पडी हुयी हैं। वे रूप आदिकके पाच शान उस वासनाको पबुद्ध करा देते हैं ! इस जगी हुयी वासना उस अनुसन्धानको उत्पन्न कर देती है, ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूछते हैं कि क्या कारण है जिससे कि वे पांच ज्ञान ही अनुसन्धान करानेवाली उस वासनाका प्रबोध करते हैं। चाहे कोई भी ज्ञान मुठी वासनाको क्यों नहीं जगा देता है ? बताओ इसके उत्तर पौद्ध यों कहे कि उस मकार होता हुआ कार्य देखा गया है । सो कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि दूसरे प्रकारोंसे मी कार्य होना देखा गया है, जब कि रूप आदिक पांच ज्ञानोकी उत्पत्तिके पहिले भी मैं इस पदार्थका देखनेवाला, चखनेवाला, होऊमा, इत्यादि प्रकार के प्रत्यभिज्ञानरूप विकरम होना देखा जा रहा है।
सत्यं दृष्टः, स तु भविष्यद्दर्शनाद्यनुसन्धानवासनात एव, तत्प्रबोधकथ दर्शनाघमिमुखीमावो न तु रूपादिज्ञानपञ्चकमिति तदुत्पत्तेः पूर्वमन्यादृशानुसन्धानदर्शनासासा नियमप्रतिनियतानुसन्धानाना प्रतिनियतवासनाभिर्जन्यत्वात्तासां च प्रतिनियतप्रबोधकात्ययायचप्रबोधत्वादिति चेत् , कथमेवमेका पुरुष नानानुसन्धानसन्ताना न स्युः !
बौद्ध कहते हैं कि रूप आदिक पांच झानोंके पूर्व में अनुसंधान होना आपने देखा है सो ठीक है । हम भी कहते हैं कि आपने अवश्य देखा होगा, किंतु उस अनुसन्धानका कारण ज्ञान नहीं है । वह विकल्पज्ञान सो उपादान कारके बिना ही भविष्यमें देखने, सूंघने, चाटने के अनुसम्भानको उत्पन्न करनेवाली दुष्कर्मजनित दूसरी वासनाओंसे ही उत्पन्न हुआ है, आत्मामे बैठी हुयी उन वासनाओंका जनानेवाला कारण तो देखन, सूंघने, सुनने के लिए सन्मुस होनापन है किंतु रूप पादिके ज्ञान उन वासनाओंके प्रबोधक नहीं हैं । इसी प्रकार उनकी उत्पविके पहिले भी दूसरे प्रकारके प्रत्यभिज्ञान होते हुए देखे जाते हैं। उन अनुसन्धानोंको नियम करके रूप रस आविमें ही नियमित करना पूर्वकी नियत हुयी वासनाओंसे जन्य हैं और वे पूर्वकी वासनाएं उनके गानेवाले नियमित ज्ञानोंके वशमै पढकर प्रबुद्ध हो जाती हैं । इस प्रकार मिथ्याज्ञान और वासना सभा उनके प्रबुद्ध होनेकी नियत व्यवस्था है। आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो इसी प्रकार एक आत्मामें अनुसंघानोंकी अनेक संतान कैसे न होंगी ! बताओ । अर्थात् अपने वासनाओं के नियमित होरहे अनेक शानोंसे ही उत्तरवर्ती अनेक भान होते हुये माने है तभा च देवदत्तके देले हुए का जिनदत्तको जैसे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान नहीं होता है वैसे ही चाक्षुष ज्ञानसे जाने हुए का पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिये । यह उक्त दोष तुम्हारे ऊपर अम भी लागू है।
प्रतिनियतत्वेऽप्यनुसन्धानानामेकसन्तानव विकल्पज्ञानत्वाविशेषादिति चेत्, किमेव रूपादिज्ञानानामेतम स्पाद ? करणज्ञानत्वाविशेषात् ।। ____ आप बौद्ध देखने, सूंघनेके अनुसंधानों के नियत होनेपर मी एकसंधानपना है क्योंकि वे तूंधने, स्वाद सेनेका अनुव्यवसाय करनेवाले प्रत्यभिज्ञान सभी एकसे विकल्पज्ञान में कोई अंतर,
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नहीं है, यदि ऐसा कहोगे जो इस पफार कमौरी पास समय होने वाले रूप, रस आदिकके ज्ञानोंको भी एक संतानपना क्यों न हो जाये क्योंकि ये भी सम्पूर्णज्ञान प्रमितिके उत्पादक करणज्ञानपना बहिरंग इंद्रियोंसे जम्ब होनेके कारण अंतररहित समान हैं फिर इनकी न्यारी न्यारी संतान क्यों मानी जारही है।
संतानांवरकरणशानेष्यभिचार इति चेत्, तवापि संसानांतरविकल्पज्ञानः कृतो न व्यभिचारा?
सौगत कहते हैं कि बहिरंग इंद्रियजन्य ज्ञान या प्रमाजनक प्रमाणाज्ञान तो देवदत्त, जिनदस, और इंद्रदत्तकी इंद्रियोंसे होनेवाले ज्ञान भी हैं । एतावता क्या उन ज्ञानोंकी भी एक संतान हो जावेगी ! तुम्ही कहो, आप नेनोंका इंद्रियअन्य ज्ञानपना या करणज्ञानपना हेतु तो संतानांतरों के मिसिजनक प्रमाण ज्ञानों करके व्यभिचारी है। अंधकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे सो तुम्हारा भी विकल्पज्ञानपना हेतु क्यों नहीं व्यभिचारी होगा! क्योंकि देवदरू, इंद्रदत्त आदि मिन चित्तों में भी देखने सूंघनेके अनेक कल्पनालकज्ञान होरहे हैं । इन करके पौद्रोंका हेतु अनेकांतिक हेत्वाभास है।
एकसामध्यधीनखे सतीति विशेषणाच्वेत् समानमन्यत्र ।
यदि आप नौद्ध एक सन्तानपनको सिद्ध करनेके लिये बोले गये अपने विकल्प ज्ञानपन हेतुमे एक सामग्रीके वश होते हुए यह विशेषण लगा दोगे तो व्यभिचार दोष दूर हो जावेगा । किन्तु उसीके समान एक सामग्रीके अधीन इस विशेषणसे अन्य स्थलपर हमारे इन्द्रियजन्य ज्ञानपने या प्रमाणज्ञानपन हेतुमें भी व्यभिचार निराकृत हो जावेगा, क्योंकि दूसरे सन्तानोंके देखने संघनेके अनुसन्धान तो मिझ सामग्रीसे उत्पन्न होते हैं, एक सामग्रीके अधीन नहीं हैं, उसी प्रकार मिश्न आस्माओंके इन्द्रियजन्य ज्ञान भी एक सामग्रीके अधीन नहीं है सबके क्षयोपशम, इन्द्रिम, आत्माएं, मिल है।
तथाक्षमनोज्ञानानामेकसन्तानत्वमेकसामग्र्यधीनत्वे सति स्वसविदिति कुतस्तेषा मिनसन्तानत्वम् येन रूपादिज्ञानपञ्चकस्य युगपद्वाविना पूर्वैकविज्ञानोपादानत्वं न सिद्धेयत् । तत्सिद्धौ च तस्यैकसन्तानात्मकत्वादेकत्वमिति यूक्त क्षणं नीलाधामासमेक चित्रज्ञानमिच्छता रूपादिज्ञानपञ्चकमप्येकं चित्रज्ञान प्रसज्येतेति।
तथा एक बात यह भी है कि एक सामग्रीसे उत्पन्न होनेवाले विकरसज्ञानोंकी जैसे आप पौद्ध एकसंतान मानते हैं उसी प्रकार पांच बहिरिन्द्रयोंसे जन्म और मनसे जन्म जानोंकी भी एकदान सन्तान मान को, इंद्रियजन्य ज्ञान और मानस ज्ञानोंकी मिन संतान प्रापमान मी से
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सकते है ! क्योंकि ज्ञान एक सामग्री के अधीन होते हुए स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के विषय है । जिस कारणसे कि उनको उसका उपादान कारणपना नहीं सिद्ध हो पाता अर्थात् इंद्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षको एक संतानपना सिद्ध होगया तो रसना इंद्रिय, चक्षु इंद्रियसे एक ही समयमै होनेवाले रूप आदिकके पांचों ज्ञानों को भी एक संतानपना सिद्ध हो ही जाता है ? इस प्रकार पूर्वसमयवती कोई भी एक रासनप्रत्यक्ष या चाक्षुष प्रत्यक्ष उत्तर कारने होनेवाले शर्शन प्रत्यक्ष या प्राण प्रत्यक्षका उपादान कारण क्यों न सिद्ध होगा ? बताओ और जब पूर्व उत्तरवर्ती चाहे किन्हीं भी ज्ञानों में वह उपादान उपादेय भाव सिद्ध हो गया तब तक संतानस्वरूप हो जाने से उन रूप रस आदिकके पांच ज्ञानों में कथञ्चित् द्रव्यदृष्टिसे एकपना भी सिद्ध हो जाता है। इस लिये हमने बहुत अच्छा दूषण कहा था कि बौद्ध लोग नील पीत आदिकके आमासोंको मिलाकर यदि एक चित्रज्ञान बनाना चाहते हैं तो उनको कचौड़ी खाते समय होनेवाले रूप आदिकके पांच ज्ञानोंका भी मिश्रण कर एक चित्रज्ञान बन जानेका प्रसंग आवेगा। इस प्रकार आपके ऊपर लगाये गये दोषको पुष्ट करनेवाला प्रकरण समाप्त होता है ।
चित्राद्वैताश्रयाच्चित्रं तदप्यस्त्विति चेन वै । चित्रमद्वैतमित्येतदविरुद्धं विभाव्यते ॥ १६६ ॥
इष्टापति करते हुए बौद्ध कहते हैं कि हम घट, पट आदिक पदार्थ या देवदत्त, जिनदत्त तथा जड, चेतन सब पदार्थों को चित्रज्ञानस्वरूप ही मानते हैं । संसारमै चित्रज्ञानरूप ही एक पदार्थ है और कुछ भी नहीं है । इस कारण चित्राद्वैतका आश्रय कर लेनेसे रूप आदिकके पांच ज्ञानोंका भी मिलकर वह एक चित्रज्ञान मन जाओ । अच्छी बात है । इसमें हमारे ऊपर कुछ मी दोष नहीं है प्रस्तुत गुण ही है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंको चित्रज्ञानका ही एकांत रूप अवधारण करना उचित नहीं है क्योंकि विचार करनेपर चित्र और अद्वैत ये दोनों निम्यसे अवरुद्ध सिद्ध नहीं होते हैं किंतु विरुद्ध ही हैं । अद्वैतका अर्थ शुद्ध एक है और चित्र अनेकों से मिलकर बनता है । चित्र और अद्वैत शब्द समास होनेकी सामध्ये ही नहीं है। जैसे कि पण्डित और मूर्ख शब्दका समास नहीं होता है । यों शब्दशक्तिका कुछ भी विचार नहीं कर नाहे जो अनर्गल कह बैठो, कोई रोकता नहीं है । परामर्श करोगे तो पता चल जायगा ।
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चित्रं ह्यनेकाकारमुच्यते तत्कथमेकं नाम ? विरोधात् ।
to कि अनेक आकारोंसे युक्त होरहे को चित्र कहते है इसकारण वह चित्र मला अद्वैत यानी एक कैसे हो सकता है ?' क्योंकि चित्रविचित्रपनेका एकपनेके साथ विरोध है ।
तस्य जात्यन्तरत्वेन विरोधाभावभाषणे । तथैवात्मा सपर्यायैरनन्तैरविरोधभाक् ॥ १६७ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
चित्र न तो एक है और न अनेक है किन्तु एक और अनेकसे न्यारी तीसरी ही जातिवाला पदार्थ है । अतः एकपने और वित्रपने में कुछ मी विरोध नहीं है, जैसे कि स्याद्वादियों के मत में कथञ्चित् भेदका कथञ्चित् अभेदसे विरोध नहीं है। बौद्धोंके इस प्रकार भाषण करनेपर तो हम जैन भी कहते हैं कि उसी प्रकार का श्री के तार विरोधको सकता है। जैसे घट और
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धारण करता है । भावार्थ - अपने से सर्वथा विपरीतके साथ विरोध हो घटाभावका, सर्वज्ञता और अज्ञताका, रूपरहित और रूपसहितपने का, एवं जीवों में बद्ध और मुक्तका तथा केवलज्ञान और क्षायोपशमिक ज्ञानका विशेष होना सम्भव है क्योंकि इन उक्त दोंके जोडोंमेंसे एकका निषेध करनेपर दूसरेका विधान या दूसरेका निषेध करनेपर पहिलेका विधान अवश्य हो जाता है | अतः दोका तुल्यबलवाला विप्रतिषेध होनेपर विरोध माना गया है किंतु जहां तीन चार कोटियां हो सकती है वहां विरोध होवे, यह एकांत नहीं हो सकता है । कथञ्चित् एकपनेका कथञ्चित् अनेकपना भाई है । हां ! सर्वथा भनेकपना विरोधी है । स्याद्वाद सिद्धात तीसरी अवस्था माननेपर पूर्वके प्रकृत दोनें विरोध नहीं सिद्ध हो सकता है । जैसे बाजीगरके द्वारा स्त्री या पुरुषसंबंधी प्रश्न करनेपर चतुर बालक अपनेको पुरुष होनेका उत्तर देता है। और मूर्ख, पण्डितपनेका प्रश्न करनेपर पण्डित होनेका उत्तर देता है, एवं मनुष्य और पशुमेंसे एकके पूंछने पर स्वयंको मनुष्य मानता है । किंतु नारकी या स्त्री तथा घोडा या हाथी इन दोनोंमेंसे तुम कौन हो ! ऐसा पूंछनेपर कुशल बालक दोनोंका निषेध कर देता है क्योंकि वह बालक उक्त दोनों अवस्थाओं से भिन्न तीसरी जातिवाली अवस्थाको धारण करता है । तुम मनुष्य है ? या जीव है, अथवा पञ्चेन्द्रिय है ! एवं स है ! ऐसा प्रश्न करनेपर चारोंका विवस्वरूप उत्तर दे देता है | अतः अनेक पर्यायों के साथ एक आत्माके रहने का कोई विरोध नहीं है ।
नैकं नायकम् किं वर्हि ? चित्र चित्रमेव, तस्य जात्यन्तरत्वादेकत्वानेकत्वाभ्या मित्यविरुद्धं चित्राद्वैत संवेदनमात्रं बहिरर्थशून्य मित्युपगमे, पुंसि जात्यन्तरे को विरोधः १ सोsपि हि नैक एव, नाप्यनेक एव, किं तर्हि १ स्यादेकः स्यादनेक इति, ततो जात्यन्तरं तथा प्रतिभासनादन्यथा सकृदप्यसंवेदनात् इति नात्मनोऽनन्तपर्यायात्मता विरुद्धा विज्ञानस्य चित्रतावत् ।
सौगत बोल रहे हैं कि चित्रज्ञान न तो एक है और न अनेक ही है तो क्या है ? ऐसा पूछने पर हम बौद्ध कहते हैं कि वह चित्रज्ञान चित्रस्वरूप ही है । एकपन और अनेकपनसे भिन्न तीसरी ही चित्रत्वजातिवाला वह चित्रज्ञान है । इस प्रकार चित्र और अद्वैत शब्दका समास भी हो जावेगा और बहिरंग घट, पट आदि भेदोंसे सर्वथा रहित होरहे केवल अकेले चित्रज्ञानका संवेदन भी विना निरोधके हो जायेगा | अंधकार कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा स्वीकार करेंगे तो आम भी तीसरी जातिका स्वभाव मानने पर क्या विशेष है ? कहो तो सही। वह आत्मा भी न
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सत्यापितामणिः
तो एक ही है और न निश्चयसे अनेक ही है तब तो क्या है ! सो उत्तर मुनिये, कवचित् दन्यरूपसे आत्मा एक है और पर्यायरूपसे आमा स्यात् अनेक है । उन सर्वषा एकांतोंसे मिल तीसरी एकानेकात्मकत्वजातिके स्वभावसे ही आमाका प्रतिमास होरहा है। अभ्य दूसरे पकांसपकारोंसे एक बार मी आमाका देवन नहीं हुआ है। इस कारण एक आमाको अनंतपयर्यायस्वरूपपना विरुद्ध नहीं है । जैसे कि बौदोंके चित्रज्ञानको अनेक नील, पीस भादिक आपारोले सहित होकर चित्र विचित्रपना विरुद्ध नहीं है । अब तक आस्माका अनंत पर्यायाम म्याप्त होना सिद्ध करने के लिये "कमतोऽनवपर्यायात् ।" इस एक सौ साठमी कारिका उदाहरणरूप दिये गये चित्रज्ञानको घटित करके अनंत सहभावी और क्रममावी पर्याय में रहनेवाग एक भरण आत्मा द्रव्य सिद्ध कर दिया है।
भ्रान्तेयं चित्रता ज्ञाने निरंशेऽनादिवासनासामादवभासेत स्वप्नादिज्ञानवद्यदि ॥ १६८ ॥ तदा भ्रान्तेतराकारमेकं ज्ञानं प्रसिद्धयति । भ्रान्ताकारस्य चाऽसत्त्वे चित्तं सदसदात्मकम् ॥ ११९ ॥ तच्च प्रवाधतेऽवश्य विरोधं पुंसि पर्ययैः।
अक्रमैः क्रमवनिश्च प्रतीतत्वाविशेषतः ॥ १७० ॥ बौद्ध कहते हैं कि वास्तवमै ज्ञान हमारे यहां कार्यता, कारणता, ग्राह्यता, प्राहकसा, आमास और आभासीपन आदि अंशोंसे रहित माना गया है । स्वम देखते समय या सन्निपात होनेपर सपा अधिक मादकवस्तुओं आदिका उपमोग करनेपर विना कारण केवळ अनाविकास के मिप्यासंतारोकी शक्तिसे यों ही झूठे अनेक नाकारवाले हान प्रतिभासित होते जाते हैं। उसी प्रकार आमते हुए भी आत्मामे अनादिकालसे बेठे हुए कुस्थित संस्कारों के पल्से शानो चित्र विचित्र साकार ज्ञात हो जाते हैं। वस्तुतः हानमें चित्रपन यह भ्रमरूप है । अब भाषा कहते हैं कि यदि शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी बौद्धोका यह मत है प तो एक कानमें स्वयं झंडे आकारों के प्रतिभास करनेकी अपेक्षासे भ्रान्तपना भाषा और अपनेको ग्रहण करनेकी अपेक्षासे अभ्रांसपना आया । इस प्रकार एक ज्ञान मियाज्ञान और प्रमाणपन यों वो विरुव भाकार प्रसिद्ध हुए। पहले एक मात्माको भनेकपायोंमें व्यापक होकर रहनेका यही रात सही।
यदि भ्रांत माकारको कम्मापुत्रके समान असत् मानोगे तो मीशानमें सकी अपेक्षा विध. मानता और भ्रांस आकारोंकी अपेक्षासे अविषमानता रह गपी अतः एक शान सवात्मक और भसरस्मक होगया । तथा यों तो वही दृष्टांत एक आस्माम अनेक पर्यागके साथ रहने विशेषको
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अवश्य वाधा दे रहा है । जैसे ज्ञानमै सत् असत्पना आपको प्रतीत होरहा है वैसे ही आलाका ऋमसे रहित होकर साय ठहरनेवाले पुणस्वरूप-पर्यायो त कमसे होनेवाले मतिज्ञान, सुल, मावि पर्यायोंके साथ रहना मी समानरूपसे प्रतीत होरहा है कोई अंतर नहीं है। पर्यायका सिद्धांतपक्षण अखण्डन्न्यके अंशोंकी कल्पना करना है। आमाके सुख, चारित्र, चेतना, मखिल, वस्तुत्व आदिक तीनों कासमें ध्रुव रहनेवाले सहभावी गुणरूप अंश है और श्रुतज्ञान, इच्छा, उत्साह, म, प्रतिक्षणपरिणति लम्बाई, चौलाई पानि कमसे होने वाली अर्थपर्याय और अंजनपर्याचे उत्पादविनाशवा अंश हैं।
चित्रातमपि माभूत् संवेदनमात्रस्य सकलविकल्पशून्यस्योपगमादित्यपरः। तस्यापि किमयारोष्यमाणो धर्मः कल्पना, मनोविकल्पमात्र था, वस्तुनः स्वभावो था ! प्रथमद्विवीयपक्षयोः सिरसाधनमित्युच्यते
यहाँ पौडका कोई एक देशमनानुयायी म्यारा विद्वान यों कह रहा है कि वित्राद्वैत भी मत हो, हम वैमाषिक सो सम्पूर्ण संकल्प विकल्पोंके कसित हुये भाकारोंसे रहित होरहे केवरू शुद्ध शानको ही स्वीकार करते हैं। भाचार्य कहते हैं कि उस एकदेशीसे हम पूंछते है कि आप कल्पनागोसे रहित शुद्ध बान मानते हैं। यहां माप कल्पनाका क्या अर्थ करते हैं ! बताओ वस्तुमे जो पर्म विधमान नहीं है उस धर्मका बोटी देर के लिये वस्तुमें भारोप करना कल्पना माना है ! या दरिद्रोंके मनोरथसमान मनके केवल संकल्पविकल्पोंको कल्पना इष्ट किया है ? अथवा वस्तुकी स्वमायकल्पना है । पहिले और दूसरे पक्षमै सिद्धसाधन बोष है यानी पहिली दो फस्पनाओंसे रहित हो रहेको हम भी समीचीन ज्ञान मानते हैं । इसी पातको वाचिकों द्वारा कहते हैं- सावधान होकर पुनिये।
निश्शेषकल्पनातीतं संचिन्मात्रं मतं यदि । तथैवान्तर्बहिर्वस्तु समस्तं तत्त्वतोऽस्तु नः ।। १७१ ॥ समस्ताः कल्पना हीमा मिच्यादर्शननिर्मिताः। स्पष्टं जात्यन्तरे वस्तुन्यप्रषाधं चकासति ॥ १७२ ॥ अनेकान्ते झपोद्धारबुद्धयोऽनेकधर्मगाः । कुतश्चित्सम्प्रवर्तन्तेऽन्योन्यापेक्षाः सुनीतयः ॥ १७३ ॥
पदि बौद्ध यह मानेंगे कि आरोपित धर्म और मानसिक संकल्परूप सम्पूर्ण कल्पनाओसे रहित हो रहा अकेला छान ही फेवक तत्व है तो इसी प्रकार हम स्याहादियोंके व मी भतरंग
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तस्वार्थचिन्तामणिः
आत्माएं और बहिरंग घट पट आदिक सम्पूर्ण वस्तुएं परमार्थरूपसे उन दो कल्पनाभों से रहित सिद्ध हो जाओ। देखो ये झूठ मूठ अनेक प्रकारकी सम्पूर्ण कल्पनाएं नियम करके अतत्त्वश्रद्धान के वशसे गढ़ ली जाती हैं। क्योंकि जब कल्पनाओंसे रहित और अनेक स्वभाववाले तथा अनेकांतपनेकी भिन्नजाति से युक्त होरहे वस्तुका ( में ) बाधारहित स्पष्टरूपसे प्रकाशन हो रहा है। ऐसा होते संत तो अपरमार्थभूत धमकी कल्पना करना मिध्यात्वपिशाचसे ग्रसित हुये जीवका बहक जाना मात्र है । सम्पूर्ण पदार्थ वास्तविक अनेक - धर्मस्वरूप हैं । उनमें मिध्यादृष्टिजनोंकी अनेक कल्पित धर्मोको आश्रय करनेवाली वस्तुसे पृथग्भूत कल्पनाबुद्धिये किसी को विध्यास फर्मके उदयसे हुयीं खून प्रवर्त रही हैं। जगत् अनेक कुमत छा रहे हैं, कोई बादी कहता है कि आत्मा अनित्य ज्ञानस्वरूप है । कोई आमाको नित्य मानता है । कोई एक और कोई अनेक, एवं अंशोंसे रहित और सहित आदि धर्मोकी गढंत ढाल रहे हैं किंतु ये सब मिथ्याज्ञानजनित कुनय हैं । यदि ये ही धर्म वस्तुकी भित्ति पर परस्परकी अपेक्षा रखते हुए माने जावें तो वे वचन या ज्ञान सुनय हो जाते हैं। क्योंकि अनेक धर्मवाली वस्तुसे पृथक् पृथक् मानकर एक एक धर्मको विवक्षावश समीचीन कल्पनासे न्यारा न्यारा जाना है। एकसे दूसरेकों अलग कर अनेक धर्मोको विषय करनेवालीं सुनयें विवक्षावश जीवों के अच्छी तरह वर्त रहीं हैं।
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यस्मान्मिथ्यादर्शनविशेषवशान्नित्याद्येकान्ताः कल्पनाः स्पष्टं जात्यन्तरे वस्तुनि निर्बाधमवभासमाने तत्वतो न सन्तीति स्वयमिष्टम्, यतश्चानेकान्ते प्रमाणतः प्रतिपन्ने कुतश्चित्प्रमातुर्विवक्षाभेदादपोद्धारकल्पनानि क्षणिकत्वाद्यनेकधर्मविषयाणि प्रवर्तन्ते परस्प रापेक्षाणि सुनयव्यपदेशभाजि भवन्ति ।
जिस कारण से कि सर्वथा एकांतोंसे रहित कथञ्चित् अनेक एकांतस्वरूप अनेकांतात्मक वस्तुका बाधारहित जब विशदरूप से प्रतिभास हो रहा है ऐसा होते सन्ते तो एकांत, विपरीत, मिथ्यादर्शने की या गृहीतमिध्यात्वविशेषको पराधीनता से उत्पन्न हुए नित्य अनित्य आदि धमके आग्रहरूप कल्पित किये जारहे एकांत वास्तविक रूपसे नहीं है । यह बात स्वयं इष्ट हो जाती है। और भी यह बात है कि जब कि प्रमाणोंसे अनेकांत सिद्ध हो रहा है प्रतीत भी कर लिया है तो प्रमिति करनेवाले किसी भी आत्माकी विवक्षा के भेदसे वस्तु न्यारे न्यारे पृथक् कर माने गये क्षणिकत्व, नित्यत्व, एकत्व, अनेक धर्मोको विषय करनेवाले भी ज्ञान प्रवर्तित होते हैं । वे सभी धर्म परस्पर अपेक्षा रखनेवाले हैं । जब उन धर्मोकी समीचीन कल्पनाएं परस्पर में अपेक्षा रखती हैं तब तो वे सुनय इस नामसे व्यवहारको घारने वाली कही जाती हैं ।
वस्मादशेष कल्पनातिक्रांतं तच्चमिति सिद्धं साध्यते नहि कल्प्यमाना धर्मास्तवं तत्कल्पनमात्र बा, अतिप्रसंगात् तेनांतहि तच्च तद्विनिर्मुकमिति युक्तमेव ।
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तत्त्वार्य चिन्तामणिः
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उस कारण हमारे यहाँ सम्पूर्ण मिथ्याकल्पनाओंसे अतिक्रांत होरहा सत्त्व सिद्ध है। आप बौद्ध पहिली दो कल्पनाओंसे रहित ज्ञानतत्वको सिद्ध करते हो । इस प्रकार आप सिद्धका ही साधन कर रहे हो । यह तुम्हारे ऊपर सिद्धसाधन दोष हुआ। कोरी कल्पनाओंसे जाने जारहे. धर्म अथवा वे केवल कल्पनाएं वास्तविक तत्त्व नहीं हो सकते हैं क्योंकि अतिप्रसंग हो जावेगा। यानी मूछोंमें लगी लौनीवाले पुरुषकी गदत या छोकरोंके रनमें राजा हो जानेकी कल्पना मी वस्तुको स्पर्श करनेवाली हो जावेगी । उस कारण आत्मा, ज्ञान, सुख आदि अंतरण तत्त्व या घट, पट, पाषाण आदि सम्पूर्ण बहिरंग पदार्थ उन वो कल्पना से सर्वाङ्गरहित हैं। यह पात युक्तियोंसे सहित ही है।
तृतीयपक्षे तु प्रतीतिविरोधः कथम्
यदि तीसरा पक्ष लोगे यानी वस्तु के स्वभावोंको कल्पना मानोगे तब तो ऐसी कल्पनाओंसे रहित ज्ञानको इष्ट करनेपर तुमको लोकपसिद्ध प्रतीतियोंसे विरोध होगा । यह केस ! सो सुनिये।
परोपगतसंवित्तिरनंशा नावभासते । ब्रह्मवत्तेन तन्मात्रं न प्रतिष्ठामियति नः ॥ १७ ॥
जैसे ब्रह्माद्वैतवादियोंका माना हुआ आधेयता, आधारता, कार्यता, कारणता और ग्राह्यता, प्राइकता बादि अंशोंसे रहित एक परब्रह्म प्रतिभासित नहीं होता है । उसीके सदृश अन्य बौद्धोंके द्वारा स्वीकार किया गया संवेद्य संवेदक और इन स्वभावरूप अंशोंसे रहित हो रहा केवल शुद्ध ज्ञान भी नहीं प्रतिमासित होता है । इस कारण कोरा शुद्ध ज्ञानाद्वैत तत्त्व भी हमारे सन्मुख प्रतिष्ठाको प्राप्त नहीं कर सकता है।
वस्तुनः स्वभावाः कल्पनास्ताभिरशेषाभिः सुनिश्चितासम्भवद्भाधामी रहित संविन्मात्र तत्वमिति तु न व्यवतिष्ठते तस्थानंशस्य परोपवर्णितस्य ब्रह्मवदप्रतिभासनात् ।
इस बार्तिककी टीका यों है कि, तीसरे पक्षके अनुसार यदि वस्तुके स्वभावोंको करूपमा मानोगे तो सम्पूर्ण बाधक प्रमाणोंके नहीं सम्भव होनेका अच्छी तरहसे निश्चय कर लिया है जिनका ऐसी उन स्वभावरूप सम्पूर्ण कल्पनाओंसे रहित केवल संवेदन ही तत्व तो इस तरह व्यवस्थित नहीं हो पाता है । क्योंकि बौद्धोंके द्वारा माना गया स्वभाव और विशेषणरूप अंशोंसे रहित उस संवेदनका ब्रह्माद्वितके समान प्रतिमास नहीं होता है और वस्तुभूत कल्पनाये निवाध्य होकर पदामि दीख रही हैं।
नानाकरमेकं प्रतिभासनमपि विरोधादसदेवेति चेत्
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ताचिन्तामणिः
यदि बौद्ध यों कहें कि अनेक आकारवाका स्थाद्वादियोंका एक प्रतिभासन मी तो नहीं दीखता है क्योंकि एक अनेकपनेका विशेष है । भतः नाना आकारवाला एक पदार्थ मी घोड़े के सींगसमान असत् ही हैं। जैनोंके ऊपर ऐसा आक्षेप करनेपर तो — आचार्यमहाराज आदेश करते हैं कि
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नानाकारस्य नैकस्मिन्नध्यासो ऽस्ति विरोधतः ।
ततो न सत्तदित्येतत्सुस्पष्टं राजचेष्टितम् || १७५ # संवेदनाविशेषेऽपि द्वयोः सर्वत्र सर्वदा । कस्यचिद्धि तिरस्कारे न प्रेक्षापूर्वकारिता ॥ १७६ ॥
विरोध दोष हो जाने
की प्रविष्ठा नहीं हो सकती है । इस कारण वह पदार्थ सत् रूप नहीं है। यों इस प्रकार बौद्धों का कहना सो सर्वधा स्परूपले उच्छुक राजाओंकी सी चेष्टा करना है। जैसे मनचके उद्दण्ड राजा, महाराजा लेग अपनी मनमानी याज्ञा चढाते हैं । कोई विचारक्षीक मन्त्री यदि तर्क, सुमन्त्रणा, युक्तियोंसे श्रेष्ठ मार्ग सुझाता है तो वे उसके साथ विरोध करते हैं। उसी प्रकार बौद्धोंकी राजाशा चल रही है। जबकि ज्ञानमें अनेक आकार और एकपना इन दोनोंका सब स्थान और सब फाक्रमे जब अर्तररहित समानरूपसे संवेदन हो रहा है तो उन दोनोंमेंसे चाहे किसीका स्वीकार और दूसरे किसी एक का तिरस्कार करनेपर faोंका विचारपूर्वक कार्य करना नहीं कहा जा सकता है। न्यायोचित संतों में पक्षपात नहीं करना चाहिये ।
नानाकारस्यैकत्र वस्तुनि नाभ्यासो विरोधादिति श्रुषाणो नानाकारं वा तिरस्कुवा ? नानाकार चेत्सुव्यक्तमिदं राजवेष्टितम्, संविन्मात्रवादिनः स्वरुच्या संबेदनमेकमनंनं स्वीकृत्य नानाकारस्य संवेद्यमानस्यापि सर्वत्र सर्वदा प्रतिक्षेपात् वस् प्रेवापूर्व कारित्वायोगात् ।
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एक पदार्थ में अनेक आकारोंके स्थित रहनेका निश्चय नहीं है क्योंकि विरोष है " इस प्रकार माटोपसहित कहता हुआ बौद्ध उन दोनों मेंसे नाना आकारोंका खण्डन करता है ! अथवा क्या वस्तुसे एकपन धर्मको निकाल कर फेंकना चाहता है ! बतावै ।
पहिला पक्ष होनेपर यदि नाना आकारोंका खण्डन करेगा तब तो मह सबके सन्मुख खुश्क म खुल्ला राजाभोंकीसी चेा करना है क्योंकि शुद्ध संवेदनके अद्वैवको कहनेवाले बौद्धने अपनी ave मनमाने fिier एक संवेदनको स्वीकार कर ज्ञानमें जाने जा रहे भी और सब देश सभा सद
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कालमै होनेवाले अनेक आकारोंका खण्डन किया है। जो वादी सब देशकाकमै अनुभव किये गये अंशोंका खण्डन करता है उसको विचारपूर्वक कार्य करनेवालापन नहीं बनता है । और दूसरे पक्ष के अनुसार एकपनेका लण्डन तो आप कर नहीं सकते हैं अन्यथा अपसिद्धान्त हो जावेगा । तस्मादबाधिता संवित्सुखदुःखादिपर्ययैः ।
समाक्रान्ते नरे नूनं तत्साधनपटीयसी ॥ १७७ ॥
उस कारण हर्ष, विवाद, शान, इच्छा आदि पर्यायोंसे पूर्णरूप से ठसाठस ब्याप्त होरहे एक आत्मामें बाधारहित प्रत्यभिज्ञान हो रहा है। वह निकाएक उन अनेक याकारोंको सिद्ध करनेके लिये बहुत अच्छा दक्ष है। श्रेष्ठ प्रमाणसे वस्तुतत्वकी सिद्धि हो जाती है।
सा
न हि प्रत्यभिज्ञानमतिः सुखदुःखादिपर्यागात्मके पुंसि केनचिद्वाभ्यते तस्तत्सापनपटीयसी न स्यात् । ततो नाशेषस्वभावशून्यस्य विन्मात्रस्य सिद्धिस्वद्विपरीतात्मप्रतीत्या पातित्वात् ।
सुख, दुःख आदि अनेक पर्यायोंके साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखनेवाले एक भस्मामें उत्पन्न हुआ पत्यमिश्रानस्वरूप मविज्ञान किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं होता है। जिससे कि मनेक गुण, पर्वाभ, धर्मो में व्यापक हो रहे उस एक वस्तु सिद्ध करनेमें बहुत बढिया कुशल न होता । उस कारण तृतीय पक्षके अनुसार पौद्रोंके द्वारा माना गया कल्पनाका अर्थ ठीक नहीं है । यों सम्पूर्ण स्वभावोंसे रहित होरहा शुद्ध संवेदन सिद्ध नहीं हो पाता है क्योंकि तुम्हारे माने गये संवेवनके सर्वथा विपरीत ऐसे अनेक धर्मालक आत्माओंकी प्रमाणसिद्ध मसीति करके तुम्हारा मन्तव्य बाधित हो जाता है।
नीलवासनया नीलविज्ञानं जन्यते यथा । तथैव प्रत्यभिज्ञेयं पूर्वतद्वासनोद्भवा ॥ १७८ ॥ सद्वासना च तत्पूर्ववासनावलभाविनी । सापि तद्वदिति ज्ञानवादिनः सम्प्रचक्षते ॥ १७९ ॥ तेषामप्यात्मनो लोपे सन्तानान्तरवासना । समुद्भूता कुतो न स्यात् संज्ञाभेदाविशेषतः ॥ १८० ॥
बौद्ध कहते हैं कि जैसे नीलका विकल्पवान आत्मामें बैठे हुए कुत्सित संस्कारोंसे उत्पन्न हो
जाता है वैसे ही जैनोंका यह प्रत्यभिज्ञान भी उसको बनानेवाले पूर्वके संस्कारोंसे उत्पन्न हो जाता
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सत्याधियादि
है और वे वासनाएं भी उनके पहिलेके संस्कारोंके बलसे उत्पन्न हो चुकी हैं और वे संस्कार मी पहिलेके मिथ्याचानजनित संस्कारोंसे उत्पन्न हुए थे, इस प्रकार उस अनादिमिय्यादृष्टिके समान ये. वासनाएं भी धाराप्रवाहसे अनादिकालको लग रही है । इस प्रकार ज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध यो ही जीव या स्वमज्ञानका दृष्टांत देकर शुद्धज्ञानका भले प्रकार निरूपण करते हैं । मंथकार कहते हैं कि उन बौद्धोंके यहाँ भी एक अम्बित आत्माफे लोप करनेपर यह दोष आता है कि भले प्रकार जगायीं गयीं देवदत्तरूप-संतानकी वासनाएं दूसरे यज्ञदत्तको प्रत्यभिज्ञान, स्मरण, आदि मिथ्याज्ञान उत्पन्न करा देने में क्यों नहीं कारण हो जाती हैं। बताओ, क्योंकि आपके मत देवदत्तकी वासनाएं जैसे अतिनिकट कितु नहीं मिले हुए क्षणिक विज्ञानोंकी पतिरूप देवदत्तसे भिन्न हैं। वैसे ही:क्षणिक विज्ञानमारास्वरूप यज्ञदतसे भी भिन्न हैं । एक ही प्रकारकी शास्त्राकार मुद्रित पुस्तकों के न्यारे न्यारे पत्र उसी प्रकारकी किसी भी दूसरी पुस्तको पलटे जा सकते हैं । इसी प्रकार बौद्धोंके मतमे देवदत्त, यज्ञदत, की आत्माएं अन्वित एक नहीं है किंतु न्यारी न्यारी बालुके कणों के समान न्यारे न्यारे ज्ञानोंका समुदाय है। अतः वासनाओंका संकररूपसे कार्यकारणभाव होनेका दूषण लागू होता है। दोनों संतानोंका भिन्न प्रत्यभिज्ञान भी एकसा है कोई अंतर नहीं है। . यथा नीलवासनया नीलविज्ञानं जन्यते तथा प्रयाभन्नेयं तघे तादृशमेतदिति वा । प्रतीयमाना प्रत्यभिज्ञानवासनयोद्धाव्यते न पुनर्वहितेनैकत्वेन सादृश्येन वा येन तद्ग्रा: हिणी स्यात् । तदासना कुत इति चेत्, पूर्वतद्वासनातः, सापि पूर्वखवासनाबलादित्यनादिस्वादासनासन्ततेरयुक्तः पर्यनुयोगः कथमन्यथा बहिरर्थेऽपि न सम्भवेत् १ तत्र कार्यकारणभावस्यानादित्वात्पर्यनुयोगे पूर्वापरवासनानामपि तत एवापर्यनुयोगोऽस्तु । कार्यकारणभाबस्यानादित्वं हि यथा बहिस्तथान्तरमपीति न विशेषः केवल बहिरोऽनः परिहतो भवेत अशक्यप्रतिष्ठत्वाचस्पति ज्ञानवादिनः ।
संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध कइसे हैं कि जैसे नीलकी वासमासे नीलविज्ञान उत्पन्न होता है उसी प्रकार यह वही है या यह उसके सदृश है इस प्रकार अनुमबद्वारा जाने गये ये प्रामज्ञान मी उन प्रत्यभिज्ञानकी वासनाओंसे उत्पन्न कराये जाते हैं । सौत्रान्तिकोंके मतमे ही ज्ञानके विषय कहे गये बहिरंग एकरस अथवा सादृश्य पदार्थ प्रत्यभिज्ञानोंके कारण माने गये है .इम योगाचारों के यहां ज्ञानका कारण विषय नहीं है । एकत्व या सादृश्य करके प्रत्यभिज्ञान नहीं उपजाता है जिससे कि प्रत्यभिज्ञान अपने उन कारणोंको विषय करनेवाला माना जावे ।
यदि कोई हम बौद्धोंसे पूँछे कि वे वासना कहाँसे आयी ! तो हम कहेंगे कि उससे भी पहिले की वासनाओसे प्रकृतं वासनायें पैदा हुयीं हैं और वे मी पहिले की वासनायें उससे भी पहिलेकी अपनी वासनामोंके बल जूतेसे उत्पन्न हुयी है । इस प्रकार वासनाओंकी सन्तति अनाषि
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तत्त्वार्थं चिन्तामणिः
२८९ से चल रही है | अतः वासनाओं की उत्पत्तिका प्रश्नरूप कटाक्ष करना हमारे ऊपर युक्त नहीं है अन्यथा यदि ऐसे ही कुत्सित कटाक्ष करते रहोगे तो घट, पट आदिक बहिरंग अर्थों में भी जैनधर्मवालों के ऊपर हमारा कटाक्ष क्यों नहीं सम्भव होगा ! अर्थात् घटका कारण माना गया कुलाल कहांसे आया ? यदि कुलाल के मापसे कुलालकी उत्पत्ति मानोगे तो बताओ : कुलालका बाप कहांसे आया ? कुलालके बाबा से उसकी उत्पत्ति मानोगे तो अनवस्थादोष होगा । यदि वहां कार्यकारणHast अनादि मानकर प्रश्नोंके अवसरको टाल दोगे तो हम बौद्ध भी पहिले पीछे होनेवाली वासनाओंके ऊपर भी चले हुए प्रश्नोंकी भरमारको हटा देवेंगे कोई कुचोप नहीं होमो । जैसे बहिरंग घट, पट, मृत्तिका, कपास, आदिका कार्यकारणभाव अनादिकाल से चला आ रहा है वैसे ही अंतरङ्गके विज्ञान पदार्थ और वासनाओं में भी अनादिकालसे धाराप्रवाहरूप कार्यकारणभाव विशेषताओंसे रहित होकर चला आ रहा है। अंतर केवल इतना ही है कि बहिरंग पट पट आदिक पदार्थ वास्तविक नहीं है, प्रयोजनसाधक भी नहीं हैं। अतः ज्ञानाद्वैतवादी हम उनका परित्याग कर देते हैं क्योंकि उन बहिरंग पदार्थोंकी प्रमाणोंके द्वारा व्यवस्थिति होना शक्य नहीं है। यहां तक ज्ञानाद्वैतवादी कह रहे हैं ।
तेषामपि नेयं प्रत्यभिज्ञा पूर्वस्ववासनाप्रभवा वक्तुं युक्तान्वयिनः पुरुषस्याभावात्, संतानांतरवासनावोऽपि तत्प्रभवप्रसंगाचमानात्वाविशेषात् !
ाब आचार्य कहते हैं कि उनका भी यह कहना युक्त नहीं है कि यह प्रत्यभिशा अपने पहिलेकी वासनाओंसे पैदा हुयी है, क्योंकि देखनेवाला और वही स्मरण, प्रत्यभिज्ञान करनेवाला इतने लम्बे काल तक अन्वितरूपसे रहता हुआ एक आत्मा तुमने माना नहीं है तो फिर यह देवदत्तके प्रत्यभिज्ञानकी वासना है, यह यज्ञदत्तके ज्ञानकी है, ऐसा नियम कैसे कर सकोगे ! पताओ। यदि यों ही अंटट कार्यकारणभाव माना जायेगा तो दूसरे देवदच, गुरुदत आदि संतानोंकी वासनाम से भी मकृत जिनदत्तको उस मत्यभिज्ञानके हो जानेका प्रसंग आबेग़ा। जिस प्रकार चांदीका रुपया सराफ, सुनार, बजाज, जमीदार और राजा इन सबका हो जाता है, वैसे ही भिन्न भिन्न संतानियोंसे न्यारी न्यारी पडी हुयीं वासनायें भी चाहे जिस संतानकी होजाने में कोई अंतर नहीं रखती हैं । भेद सर्वत्र छा रहा है, ऐसी दशा में चाहे जिसकी वासनाओंसे किसीको मी ज्ञान उत्पन्न हो जावेगा । उन वासनाओंका तो सत्र जीवोंके साथ समानरूपसे भेद है फिर अनेक संतानों में अंतररहित भिन्न भिन्न पड़ी हुई बासनाओंके नियत करानका उत्तर आपके पास क्या है ? बताओ ।
सन्तानैकत्वसंसिद्धिर्नियमात्स कुतो मतः ।
प्रत्यासत्तेर्न सन्तानभेदेऽप्यस्याः समीक्षणात् ॥ १८१ ॥
यदि यौद्ध यों है कि हमारे यहां एक संतानकी मले प्रकार सिद्धि है जैसे कि आप जैनों के यहां एक अखण्ड आत्मद्रव्यकी नियत अनादि अनंत पर्यायोंमें धारा बह रही है। अंतः
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वस्त्रार्थचिन्तामणैिः
चाहे जिस व्यक्तिकी वासनाएं अन्य दूसरे किसीके प्रत्यभिज्ञानका हेतु नहीं हो सकेंगी, इस पर आचार्य पूंछते हैं कि आप बौद्धोंने एक संतानपनेको किस नियमसे माना है ! बताओ । एकदेशमें सम्बन्ध होने से या एक काल वृत्ति होनेसे तो नियम बन नहीं सकता है क्योंकि भिन्नसंतानों में मी यह देश और कालकी अस्यासति वढिया देखी जाती है । भावार्थ जैसे देवदत्तरूप सम्तान के आगे पीछे होनेवाले पर्यायरूप सन्तानिएं जिस स्थान में हैं उसी देशमें यज्ञदत्त, जिनदत्तरूप सन्तानों की पर्यायें भी चल रही हैं। एवं जिस समय में दवेदत्तकी सन्तानीरूप पर्यायें उत्पन्न हो रही हैं, उसी समय जिनदत्त, इन्द्रदत्तकी भी पर्यायें उत्पन्न हो रही हैं। क्या एक ही समयमें जौहरीकी दुकानमें आये हुए मोती चाहे जिन भिन्न भिन्नमालाओं में नहीं पिरोये जा सकते हैं ! अर्थात् कोई भी मोती किसी भी मालामें पिरोया जा सकता है। वैसे ही समानदेश और एक कालमें होनेवाले यज्ञदत्त देवदत्तके मिश्र भिन्न परिणाम चाहे जिस सन्तानने दुलकाये जा सकते हैं तथा च विवक्षित एक सन्तानकी ठीक ठीक सिद्धि नहीं हुयी । व्यभिचार या अतिप्रसंग दोष आता है। जिन जीवों में ज्ञान या सुख आदि समान देखे जाते हैं उनमें भावप्रत्यासति है यह माननेपर भी व्यभिचार होगा । यो क्षेत्रप्रत्यासत्ति, कालप्रत्यासति और भावप्रत्यासचि तो सन्तान के एकपनका नियम नहीं करा सकती है। एक द्रव्यप्रत्यासचि ( सम्बन्धा) ही शेष रह जाती है। वही एक सन्तानकी नियामिका हम जैनोंको इष्ट है। क्षणिकशदी अनादि अनंत फालीन, द्रव्यको मानते नहीं है ।
व्यभिचारविनिर्मुक्त कार्यकारणभावतः ।
पूर्वोत्तरक्षणानां हि सन्ताननियमो मतः ॥ १८२ ॥ स च बुद्धेतरज्ञानक्षणानामपि विद्यते ।
नान्यथा सुगतस्य स्यात्सर्वज्ञत्वं कथञ्चन ॥ १८३ ॥
आप बौद्ध यदि व्यभिचारदोषसे सर्वथा रहित हो रहे कार्यकारणभाव से ही पूर्व उत्तरवर्ती संधानियों के संतान ( छडी ) हो जानेका नियम मानोगे तब तो वह निर्दोष कार्यकारणरूप संबंध इन बुद्ध सर्वज्ञ और देवद, यज्ञदत्त के ज्ञानक्षणोंका भी विद्यमान है। बौद्धोंका मंतव्य है कि जो ज्ञानका कारण होता है वही ज्ञानसे जाना जाता है । बुद्धदेव सबको जाननेवाले सर्वज्ञ हैं । बुद्धके ज्ञानमें देवदत्त जिनदसके अनेक ज्ञानसंतानिएं भी विषय हो रहे हैं । अतः बुद्धज्ञानके अनेक ज्ञानसंतानीरूप जिनदत यज्ञदत्त भी कारण हुए, जैसे बुद्धदेव के पूर्वकालमें होनेवाले अपने परिणाम कारण हैं वैसे ही जिनदत्त, यज्ञदचके ज्ञान स्वलक्षण परिणाम मी बुद्धज्ञानमें कारण हैं। अभ्यथा यानी यदि जिनदत्त यज्ञदत्तके विज्ञान बुद्धज्ञान के कारण न होते तो बुद्ध उन ज्ञानोंको नहीं जान सकते थे। एवं बुद्धको किसी प्रकार भी सर्वज्ञता नहीं प्राप्त हो सकती थी, किंतु आपने बुद्धको
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तत्वाचिन्तामभिः
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सर्वज्ञ माना है तथा च व्यमिचारदोषसे हित कार्यकारणसंबंध सुगतके ज्ञान और संसारी जीवों के ज्ञानमै भी विद्यमान है । यों तो कार्यकारणरूप दोनों संतानी ज्ञानोंकी घाराम मिल जानेसे सुगत और संसारी जीवोंकी भी एक संतान बन बैठेगी, जो कि तुमको भी इष्ट नहीं ॥
संतानैक्यात्पूर्ववासना प्रत्यभिनाया हेतुर्न संतानांतरवासनेति चेत्, कुतः संतानेक्यम् ? प्रत्यासत्तेचेत्, साप्यव्यभिचारी कार्यकारणभाव इष्टस्ततो बुद्धसरक्षणानामपि स्यात्, न च तेषां स व्यभिचरति बुद्धस्थासर्वज्ञत्वापत्तेः । सकलसवाना तदकारणत्वे हि न तद्विपयत्वं स्यानाकारणं विषय इति वचनात् ।
उक्त कारिकाओं का विवरण करते हैं कि संतान एक है इस कारण देवदत्तकी पूर्ववासनाएं ही देवदत्तमे होनेवाले प्रत्यभिज्ञानका कारण बनेगी । जिनदत्त, यज्ञदत्त आदि दूसरी भिन्नसंतानोंकी वासनाएं देवदत्त के प्रत्यभिज्ञानका कारण नहीं हो पाती हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि तुम बौद्ध पेसा कहोगे तो जैन इम पूछते हैं कि संतानका एकपन किससे सिद्ध करोगे! बताभो, अन्वितद्रव्यको नहीं माननेवालों पर यही कठिन प्रश्न है । यदि किसी विशेष एक सम्मंघसे संवान की एकता मानोगे तो देशिक सम्बंध, कालिक सम्बंध, और भावप्रत्यासत्ति के अतिरिक्त आपने वह सम्बंध मी व्यभिचासहित कार्यकारणभाव ही इष्ट किया है किंतु उस समंघसे तो बुद्ध और संसारीजीवोंके ज्ञानसंतानियोंकी भी एक संतान बन जावेगी, क्योंकि बुद्धज्ञान और उसके ज्ञेय संसारी जीवोंके ज्ञानक्षणों में कार्यकारणमाव सम्बंध विद्यमान है । उनका वह सम्मेध व्यभिचारदोषयुक्त भी नहीं हैं, यदि ऐसा होता यानी इतर जीयोंके ज्ञान बुद्धचानके कारण न पनते तो आपके बुद्ध भगवान् सर्वज्ञ ही नहीं होने पाते, अर्थात् आपके मतानुसार विज्ञानरूप सम्पूर्णजीव सुगत. ज्ञानके कारण हैं। यदि वे कारण न होते तो सुगत उनको अपने ज्ञानका विषय नहीं कर पाते, क्योंकि आपका सूत्रवचन है कि " नाकारणं विषयः " जो ज्ञानका कारण नहीं है। वह ज्ञानका विषय भी नहीं है।
सकलसच्चचित्तानामालम्बनप्रत्ययस्वात् सुगतचित्तस्य न तदेकसन्तानशेति चेम, पूर्वखचित्तैरपि सदैकसन्तानतापायप्रसक्तस्तदालम्बनप्रत्ययत्वाविशेषात् । ...
बौद्ध कहते हैं कि ज्ञानके कारण तीन प्रकारके होते हैं। उपादानकारण, निमित्तकारण और अबलम्ब कारण । उनमें पूर्वक्षणवती ज्ञानपरिणामको उत्तरक्षणवर्ती ज्ञानका उपादान कारण माना है। इंद्रियां, प्रकाश, हेतु, अविद्याक्षय, आदि निमित्तकारण हैं और ज्ञानका जानने योग्य विषय उसका अवलम्बकारण है । अवलम्य कारण कारककारणोंके समान प्रेरक नहीं है । जैसे बादल या शाखाओं में द्वितीयाके चंद्रमाको देखो! यहां बादल या वृक्षकी शाखा उस चंद्रमाके ज्ञानमें केवल भवलम्बकारण है। प्रधान कारण पूर्वज्ञान और इंद्रियां ही है। इसी प्रकार सम्पूर्ण प्राणियों के
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तथा चिन्तामणिः
विज्ञान भी सुगतज्ञानके अवलम्बन कारण हैं। जैसे बुड्डे मनुष्यको गमन कराने में लठियाका सहारा है । चलनेकी प्रेरकशक्ति सो धूढमें विद्यमान है वैसे ही घटका अवलम्ब लेकर घटज्ञान होजाता है उपादान कारणों के साथ एकसतान होनेका नियम है । उन अवलम्ब कारणोंकी कार्यके साथ एक संतान बन जाना नहीं होता है। अतः बुद्धदेवकी संसारीजीवों के साथ एक संतान नहीं है । आचार्य बोलते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो ज्ञानके विषय होवेंगे उनको केवल अवलम्ब ( सहारा) देनेवाला कहोगे और उनके साथ ज्ञानकी एक संतान न मानोगे तो बुद्धके स्वकीयज्ञानों के साथ भी सुगतकी एकसंतान होजाना न बन सकेगा, कारण कि इतर पदार्थोके समान सुगलके पूर्वज्ञानक्षण भी सुगतज्ञान विषय पड़ चुके हैं । अतः वे अवलम्ब कारण है कोई अंतर नहीं है । अन्यथा सुगत अपने पूर्ववर्ती ज्ञानोंको न जान सकेगा तभा च फिर भी बुद्धको सर्व पदार्थों का ज्ञासापन न हुआ ।
समनन्तरप्रत्ययस्वात् स्खपूर्वचित्तानां तेनैकसंतानतेति चेत, कुतस्तेषामेव समनन्तरप्रत्ययत्वं न पुनः सकलचित्तानामपीति नियम्यते ? तेषामेकसंतानवर्तित्वादिति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रया, सत्येकसतानत्वे पूर्वापरसुगचित्तानामव्यभिचारी कार्यकारणभावस्तस्मिन्सति तदेकसंतानत्वमिति ।
सुगतके पूर्वज्ञानक्षणों में जैसे आलम्पन कारणपन है । उसी प्रकार अव्यवहित पूर्ववर्ती होने के कारण उपादानकारणपन भी है । उस कारण सुमनका अपने सम्पूर्ण पूर्वचित्तक्षणों के साथ एक संतापनपना बन जावेगा । ग्रंथकार कह रहे हैं कि यदि आप बौद्ध ऐसा पहेंगे तो हम पूंछते हैं कि जब अव्यवहित पूर्ववर्ती होकर जैसे सुगतके पूर्वज्ञानक्षण कारण बन गये हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंके ज्ञान भी नियमसे व्यवधानरहित पूर्वक्षणवर्ती होकर युद्धज्ञानके कारण बने है । तो फिर उन सुगतके क्षणों को ही अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती होने के कारण उपादानता मानी जावे किन्तु फिर सम्पूर्ण प्राणियोंके चित्तोंकी भी आदानता न मानी जावे । इस प्रकार पक्षपातमस्त आप कैसे नियम कर सकते हैं। यदि आप इसका उपाय यह करें कि वे सुगतके पूर्वउत्तरवर्ती ज्ञानरूपक्षण एक सन्तानमें पड़े हुए हैं। अतः उनकाही परस्परमै कार्यकारणपन है। संसारी जीवों के चित्रों के साथ व्यवधानरहित कारणपना नहीं है ऐसा बौद्धोंके कहनेपर सो यह वही प्रसिद्ध अन्योन्याश्रय दोष है। जब एक सन्तानपन सिद्ध हो जावे, तब तो सुगत के आगे पीछे होनेवाले चित्तोंकाही व्यभिचाररहित कार्य कारणभाव सिद्ध होवे और जब सुगतचित्तों काडी वह अन्यभिचारी कार्यकारण भाव सिद्ध हो चुके, तब कहीं उनही में एक संतानाना सिद्ध होवे, इस प्रकार परस्परमें एकको दूसरेका आसरा पकड़ने के कारण परस्पराश्रय दोष हुआ। ताली गृहके भीतर रह गई और विना तालीकेही वाला पाइरसे लगा दिया। अब गुजराती ताला कब खुले ? जब ताली मिल जावे मौर ताली कम मिले ? जब ताग खुल जाय । यही दशा यहां हुई।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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4.
ततः पूर्वेक्षणाभावेऽनुत्पतिरेवोत्तरक्षणस्याव्यभिचारी कार्य रणभावो ऽभ्युपगन्तव्यः । स च स्वचिचैरिव सकलसच्च चित्तैरपि सहास्ति सुगत चिचस्येति कथं न तदेकतानापचिः ?
उस कारण इस दोषको हटानेके लिये आपको यही उपाय अङ्गीकृत करना पड़ेगा कि पूर्ववर्ती पर्यावरूप क्षणोंके विना उत्तरवर्ती पर्यायोंकी उत्पत्ति हो ही नहीं सकती है। यही व्यमिचारदोषरहित कार्यकारणभाव है । इससे अन्योन्याश्रय दोषका तो वारण हो गया क्योंकि आप बौद्धोंने एक संतानपने से कार्यकारणमात्र नहीं माना है अन्वयव्यतिरेकसे माना है। किंतु वह कार्यका रणभाव तो सुगत चित्तका अपने पूर्व उत्तरमावी चित्तोंके समान सम्पूर्ण जीवोंके विज्ञानोंके साथ भी है । फिर योगी और उन इतर जीवोंकी एकसंतान हो जानेका प्रसंग क्यों नहीं आवेगा ? इस प्रसंगका वारण आप नहीं कर सके ।
स्वसंवेदनमेवास्य सर्वज्ञत्वं यदीष्यते ।
संवेदनाद्वयास्थानादृता संतानसंकथा || १८४ ॥
इस
बौद्ध कहते हैं कि संसारी जीवोंके ज्ञानोंकी सुगतज्ञानोंके साथ एक संतान न बन जावे, लिए इस सुगतकी सर्वज्ञताका हम यह अर्थ इष्ट करते है कि बुद्ध भगवान् अपनी संतानोंको ही जानते हैं । घट, पट आदिक या देवदत्त, यज्ञदत्तके ज्ञानोंको नहीं जानते हैं । संसारी जीवोंको जानने के कारण ही संतानसंकर होनेका प्रसंग आया था किंतु हमने चोरकी नानीको हटा दिया । "< न रहेगा मांस न बजेगी बांसुरी” अब आचार्य कहते हैं कि यदि तुम ऐसा इष्ट करोगे तो अकेले ज्ञानके अद्वैतकी श्रद्धा हो जानेके कारण संतानकी समीचीन कथा करना तो उड़ा दिया गया, फिर आप पूर्वके कथनानुसार संदानकी एकता से प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होने के लिए वासनाओं का नियम कैसे कर सकोगे ? बताओ। यों तो देवदत्त, जिनदत्तकी संतान कहना तथा सर्वश मानना यह आपका ढकोसला निकला |
नये संतानो नाम लक्षणभेदे तदुपपत्तेः, अन्यथा सकलव्यवहारलोपात् प्रमाणप्रमयविचारानवतारात् प्रलापमाश्रमवशिष्यते ।
विचारो तो सही कि सर्वथा अद्वैस या अभेद माननेपर भला संतान कैसे बनती है ? भिन्न भिन्न लक्षणवाले अनेक संतानियोंके होनेपर उस संतान की सिद्धि मानी गयी है। अन्यथा यानी यदि आपस्थास, कोष, कुशूल आदि संतानियोंकी या बाल्य, कुमार, युवा, वृद्ध अवस्थारूप संततियों की एक मृत्तिका या देवदतरूप संतान न मानेंगे तो लोकप्रसिद्ध सम्पूर्ण व्यवहारोंका लोप हो जावेगा । लेना, देना, अपराधीको दंड मिलना, मातृपुत्रव्यवहार या पतिपत्नीभाव सब नष्ट हो जायेंगे | तक कि यह प्रमाण है और यह उस प्रमाणसे जाना गया प्रमेय है ये विचार भी न हो सकेंगे।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
संसारमै केवल बकवादपना छा जावेगा । समीचीन व्यवहार कोई भी शेष न रहेगा । प्रभकर्ता, उत्तरदाचा, वाद, संवाद, पुण्यक्रियायें करना आदि कोई व्यवस्था नहीं बन सकेगी।
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अभ्युपगम्य वाऽव्यभिचारि कार्यकारणभावं सुगतेतरसन्तानैकत्वापथेः सन्ताननियमो निरस्यते । तत्वतस्तु स एव मेदवादिनोऽसम्भवी केषांचिदेव क्षणानामव्यभिचारीकार्यकारणभाव इति निवेदयति
पौद्धोंने प्रथम तो अन्वयव्यभिचार और स्वीकृत किया है और जब हमने बुद्धसन्तान तथा अतिप्रसंग दिया।
वह
व्यतिरेकव्यभिचारसे रहित कार्यकारणभावको संसारीजीवोंकी संतान के एक हो जाने की नियमका खण्डन कर दिया है यह बौद्धों की व्यर्थ बकवाद है । वास्तवमे विचारा याग तो पूर्व उत्तरवर्ती पर्यायोंमें सर्वथा मेदको कहनेवाले बौद्ध व कार्यकारणभाव बनना ही असम्भव है। अब कि स्माससे कोष भिन्न है और कुशूल भी मिन है तब कुसूरुका कारण कोष ही क्यों है ? स्थास क्यों नहीं ? तन्तु है ? बताओ | इस प्रकार किन्हीं एक विवक्षितपर्यायों में ही व्यभिचाररहित संभवता है । आचार्य महाराज इसी बात को बौद्धों के प्रति निवेदन करते हैं। कथञ्चाव्यभिचारेण कार्यकारणरूपता । केषाञ्चिदेव युज्येत क्षणानां भेदवादिनः ॥ १८५ ॥
भी कारणं क्यो नहीं कार्यकारणभाव नहीं
पूर्व, अपर, कालमें होनेवाली स्वलक्षण पर्यायोंका सर्वथा भेद मानते रहनेकी देववाले बौद्धके मत किन्हीं विशिष्ट पर्यायोंका ही परस्परमें व्यभिचारदोषरहित कार्यकारणस्वरूपपना कैसे युक्त हो सकता है ? बताओं, यानी नहीं, क्योंकि घट, पट, पुस्तक आदि तथा देवदत, जिनदत मादि की पर्यायें अपनी अपनी पूर्व उत्तरवर्ती पर्यायोंसे और अन्य द्रव्योंकी दूसरी पर्यायोंसे एकसा भेद रखती हैं। सभी में सर्वथा भेद रहने के कारण नियम करनेवाला कोई नहीं है ।
कालदेशभावप्रत्यासत्तेः कस्यचित्केन चिद्भावाद्भावेऽपि व्यभिचाराच भेदेकांतवाद - नामव्यभिचारी कार्यकारणभावो नाम, तथाहि
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यद्यपि किन्हीं किन्हीं पर्यायों में पूर्ववर्ती पर्यायसे उत्तरवर्ती पर्यायका अव्यवहित उत्तरकालमै होनारूप कालिकसम्बंध है जोकि कार्य और कारणोंके लिये उपयुक्त है। तथा किन्हीं पूर्व उत्तर पर्यायोंका एक देशमें ठहरनारूप दैशिक सम्बन्ध है । एवं लम्बाई चौडाई की समानता या ज्ञान, सुख, दुःख आदिक की समानता होनेसे किन्हीं किन्हीं पर्यायों में भावरूपसम्बंध भी है । तथापि उक्त तीनों सम्बंधों का व्यभिचार देखा जाता है । विवक्षितकार्य के योगे हैं उस देशमें भी अन्य कई पर्याये उपस्थित दें । एकसा ज्ञान
पूर्वसमय में अन्य मी अनेकपया सुख भी अनेक व्यक्तियों में
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तस्वाचिन्तामानः
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देखा जाता है इस कारण सर्वथा मेवका एकांत माननेवाले बौद्धोंके मतमें व्यभिचाररहित कार्यकारण भाव कैसे भी नहीं बनता है। इसी पातको प्रसिद्ध कर फहते है-द्रव्यप्रत्यासत्तिको नहीं मानकर व्यर्थ चाहे जितना भटकते फिरो।
कालानन्तर्यमात्राचेत्सर्वार्थानां प्रसज्यते । . देशानन्तर्यतोऽप्येषा किन्न स्कन्धेषु पंचसु ॥ १८६ ॥ भावाः सन्ति विशेषाञ्चेत समानाकारचेतसाम् । विभिन्नसन्ततीनां वै कि नेयं सम्प्रतीयते ॥ १८७॥
यदि केवल काल के अध्याहिलोले पूर्वपागः परमगाः करण माहोल घटके पूर्व समयका परिणाम उसके अनन्तर उचरकालमें होनेवाले ज्ञान, सुख, पट, पुस्तक आदि सभीका उपादानकारण बन जावेगा अथवा पटका पूर्वकालवी परिणाम उत्तरकालमें होनेवाले घटका उपादान कारण हो जानेका प्रसा आवेगा, इस प्रकार आगे पीछे होनेवाले सम्पूर्ण अोंको सबके उपादान उपादेयपनेका अतिप्रसंग दोष आता है। यदि आप देशके व्यवधानसे रहित पर्यायों में परस्पर कार्यकारणभाव मानोगे तो भी एक देशमे रखे हुए रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार हन पांच स्कन्धों में भी यही परस्पर कार्यकारणभाव क्यों न हो जाये है क्योंकि इन सबका देश अमिन है । वायु, घाम, आकाश और धूल का भी आपसमें कार्यकारणमाव हो जाना चाहिये। एक आकाशके मदेशपर छहों द्रव्य विद्यमान है क्षेत्रमत्यासति होजानेका कारण उनका भी उपादान उपादेयपना हो जायेगा, जो कि आपको इष्ट नहीं है।
यदि आप विशेष ( खास ) माक्प्रत्याससिसे किन्हीं विशिष्टपयायों में ही कार्यकारण भावका नियम मानोगे सब तो एक घटको ही समान आकारधारी अपने अपने भिन्न भिन्न ज्ञानोंसे जाननेवाले देवदस, जिनदत्रके ज्ञानों में भी यह कार्यकारणभाव क्यों नहीं देखा जाता है ? परस्परमें मला जिन जिन संसानों का ज्ञान, सुख, दुःख समान है वथा जो घट, पर आदिके रूप, रस लम्बाई चौडाई आदिमें एकसे प्रतीत हो रहे हैं उनमें भी मावरूपसे संबंश विद्यमान है। अतः उनमें भी एक दूसरेकी यह कार्यताकारणता बन बैठेगी, जो कि सभीको अनिष्ट है। कार्यकारणभावकी नियत हो रही प्रक्रियाका लोप हो जावेगा।
___ यतश्चैवमन्यभिचारेण कार्यकारणरूपता देशानन्तर्यादिभ्यो नैकसन्तानात्मकत्वाभिमतानां क्षणानां व्यवतिष्ठते तस्मादेवप्नुपादानोपादेयनियमो द्रव्यप्रत्यासोरेवेति परिशेषसिद्ध दर्शयति,
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सत्यार्थचिन्तामणिः
जिस कारण से उक्त कथनानुसार यो अध्यवहितकाल, देशका अभेद और पर्यायोंकी समानता आदि स्वरूप देश, काल, भाव प्रत्यासत्तियोंसे एकसमानरूप मानी गयी स्वलक्षणपर्ययका मी परस्परमें व्यभिचारसंहित कार्यकारणभाव व्यवस्थित नहीं हो पाता है इस कारण से ही तो इस प्रकार प्रत्यासतिसे ही उपादान उपादेयका नियम परिशेषन्याय से सिद्ध है। पर्यायोंमें परस्पर चार प्रकार के संबंध हैं । उनमें क्षेत्र, काल और भाव इन तीन संबंधो में तो व्यभिचार दोष आता है । शेष रह गया द्रव्यसंबंध, उसीसे उपादान उपादेगकी व्यवस्था ठीक बैठेगी। इसी बात को स्वयं आचार्य महाराज दिखलाते है
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एकद्रव्यस्वभावत्वात्कथञ्चित्पूर्वपर्ययः । उपादानमुपादेयश्चोत्तरो नियमात्ततः । १८८ ॥
उस द्रव्यप्रत्यासचि अनुसार एक अखण्ड अनि द्रव्यका स्वभाव होनेके कारण पूर्वकालमै होनेवाली पर्याय तो किसी अपेक्षा से उपादान कारण हैं और उससे उत्तरकालम होनेवाली पर्याय नियमसे उपादेय है । देवदत्त जिनदत्तका अखण्ड जीवद्रव्य उसकी हर्ष, विवाद, आदि और पूर्व उत्तर जन्मोंकी असंख्य पर्यायों में अन्वितरूपसे व्यापक है और पुन्नलद्रव्य अपने मिट्टी, अन्न, खात आदि अवस्थाओं में अनादिसे अनंत फालतक ओतप्रोत देखा जा रहा है। वस्तुके प्रमाणों से प्रतीत होरहे इन स्वभाव में कुचोधरूप सर्कणायें नहीं चलती हैं। सिंधुनदीकी धार गंगाकी घारमै अत्र नहीं हो सकती है। जिनदत्तकी कुमार अवस्था देवदत्तकी वृद्ध अवस्थामें संकलित नहीं की जा सकती है। इसी कारण सिद्ध भगवान् के केवलज्ञान आदि गुण सिद्धलोकमे विद्यमान कार्माणवर्गणाओंके रूप, रस, आदिकके साथ एकीभावको प्राप्त नहीं हो सकते है और सिद्धक्षेत्र विद्य मानवात काय के जीवों में लगे हुये कुमतिज्ञानके साथ भी तदात्मक नहीं होते हैं क्योंकि प्रत्येक द्रव्यका अपनी पर्यायोंके साथ ही अमेदसम्बन्ध है ॥
विवादापनः पूर्वपर्ययः स्यादुपादानं कथञ्चिदुपादेयानुयायिद्रव्य स्वभावत्वे सति पूर्व पर्यायत्वात् यस्तु नोपादानं स नैवं यथा तदुत्तरपर्यायः, पूर्वपूर्व पर्यायः कार्यश्व आत्मा वा तदुपादेयाननुयायिद्रव्यस्वभावो वा सहकार्यादिपर्यायी वा ।
प्रतिवादी विचार में पड़ा हुआ कोई भी पूर्वकालमै रहनेवाला विवक्षित पर्याय ( यह पक्ष है ) कथञ्चित् उपादानकारण है ( यह साध्य है ) क्योंकि किसी अपेक्षासे उपादेय पर्यायोंके पीछे पीछे चलनेवाले द्रव्यका स्वभाव होते संते वह पूर्वकाळकी पर्याय है ( यह हेतु है ) जो उपादान कारण नहीं है। वह तो इस प्रकार उपादेयके अनुयायी द्रव्यका स्वभाव होता हुआ पूर्वपर्यायस्वरूप भी नहीं है। जैसे कि उससे मी उत्तरकाली में होनेवाली पर्याय ( व्यतिरेक दृष्टांत ) अर्थात् विवक्षित
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तस्त्वार्थचिन्तामणिः
पर्यायके उपादानकारण भविष्य में होनेवाले परिणाम नहीं हैं । अथवा पूर्वपर्यायसे भी पहिले काल में होनेवाला चिरतरमूतपूर्वका पर्याय जैसे उपादानकारण नहीं है अथवा स्वयं कार्य जैसे अपना उपादानकारण नहीं है । अथवा जो विवक्षित उपायोंमें अनुयायी न रहते हुए द्रम्योंके स्वभावों को धारण करनेवाले दूसरे उदासीन आस्मा जैसे उपादानकारण नहीं हैं अबत्रा इंद्रियां, हेतु, शब्द आदिक सहकारी कारणोंकी पर्याय जैसे उपादानकारण नहीं हैं। तभी तो ये पूर्वीच दृष्टांत उत्तरवर्ती उपादेयों में अन्वय रखनेवाले द्रव्यके स्वभाव होकर पूर्वपर्यायस्वरूप नहीं हैं ( ये सब उपतिरेक ष्टांत है) इस अनुमानमें उपनय और निगमन सुलभरीतिले बनाये जा सकते हैं ।
तथा विवादापनस्तदुत्तरपर्याय उपादेयः कथञ्चिरपूर्व पर्यायानुयायिद्रव्यस्वभावस्वे सत्युत्तरपर्यायस्वात् । यस्तु नोपादेयः स नैवं यथा तत्पूर्वपर्यायः तदुत्तरोत्तरपर्यायो वा, पूर्व पर्यायाननुयायिद्रव्य स्वभावो वा तत्स्वात्मा वा तथा घासाविति नियमात्, ततः सिद्धमुपादानमुपादेयख, अन्यथा तत्सिद्धेरयोगात् ।
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उपादान उपादेयभावको पुष्ट करने के लिये दूसरा अनुमान यह है कि विचारकाल प्राप्त हुबी उस पदार्थ की उत्तर कालकी पर्याय ( पक्ष ) उपादेय है ( साध्य ) क्योंकि पूर्वपर्मायो कथम्बित् सभ्य रखनेवाले द्रव्यका स्वभाव होती हुयी वह उत्तरपर्याय है ( हेतु ) । जो कोई उपादेय नहीं है, वह इस प्रकार कहे हुए हेतुसे युक्त भी तो नहीं है। जैसे कि उससे मी पहिले कालमै रहनेवाली पर्याय उपादेय नहीं है अथवा उस उत्तरपर्यायसे मी चिरमविष्यकाल में होने वाली उत्तर उत्तर पर्याय जैसे उपादेय नहीं है, अथवा इसकी पूर्वपर्यायोंमें अन्वय न रखनेवाला स्वभाववान् उदासीन दूसरा आत्मा, या पूर्वकी सभी पर्यायों में अन्वय रखनेवाला उस द्रव्यका निज आत्मा यानी स्वयं अकेला वही द्रव्य जैसे उपादेय नहीं है अथवा स्वयं उत्तरपर्याय ही अपना उपादेय नहीं है तभी तो पूर्वोक्त ये दृष्टांत विवक्षित पूर्वपर्यायोंने अम्बय रखनेवाले द्रव्यके स्वभाव नहीं है और उत्तरपर्याय भी नहीं हैं ( से व्यतिरेकदृष्टांत है ) । और उस प्रकार व्यासिसे युक्त हो रहे इस हेतुको धारनेवाला वह पक्ष है अर्थात् पूर्वपर्ययाने अनुयायी ब्रम्मका स्वभाव होकर उत्तर पर्यायपनेसे युक्त उत्तर पर्याय है (यह उपनय है ) । इस प्रकार नियमसे उत्तरपर्याय उपादे है ( निगमन ) | उस कारण अब तक उक्त दो अनुमानोंसे उपादान उपादेयमाव सिद्ध हुआ द्रव्यप्रत्यासत्तिके अतिरिक्त दूसरे मकारोंसे उन उपादान उपादेयोंकी सिद्धि नहीं हो सकती है।
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एकसन्तानवर्त्तित्वात्तथानियमकल्पने । पूर्वापरविदोर्व्यक्तमन्योन्याश्रयणं भवेत् ॥ १८९ ॥ कार्यकारणभावस्य नियमादेकसन्ततिः ।
ततस्तन्नियमश्च स्थानान्यातो विद्यते गतिः ॥ १९० ॥
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तत्त्वार्थीचन्तामणि :
२९८
पूर्व कालवती और उत्तरकालवर्ती पर्यायस्वरूपज्ञानका एक संतान में रहना होनेसे उस प्रकार कार्यकारणभाव नियमको फलना करोगे तो स्पष्टरीतिसे बौद्धों के ऊपर अन्योन्याश्रय दोष लागू होगा, क्योंकि कार्यकारणपनेका जब नियम हो जायेगा तब उससे पूर्वकथनानुसार एक संखानपनेका निर्णय हो सकेगा, और जब एक संतानपनेका निर्णय हो जाये तब उससे आपके इस समय के कथनानुसार यह कार्यकारणभावका निर्णय हो सकेगा। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग आपके पास नहीं है, जिसकी कि आप बौद्ध शरण ले सकें। कार्यकारणभाव लिये द्रव्यत्यासत्तिकी ही शरण लेना अनिवार्य होगा अन्य उपाय नहीं है ||
संतानेक्यादुपादानोपादेयताया नियमे परस्पराश्रयणात्यैव माभूदित्यपि न धीरष्टितम्, पूर्वापरविदोस्तत्परिच्छेद्ययोवी नियमेनोपादेयतायाः 'समीक्षणात् तदन्ययानुपपण्यावायेकद्रव्य स्थितेरिति तद्विषयं प्रत्यभिज्ञानं तत्परिच्छेदकमित्युपसंहरति ॥
बौद्ध कहते हैं कि संतानकी एकतासे उपादान उपादेय वनेका नियम माना जावेगा तब तो अन्यन्योश्रय दोष लगता है इस कारण हम शुद्ध ज्ञानाद्वैतवादी उस उपादान उपादेयभावको ही नहीं मानेंगे | इसवर आचार्य कहते हैं कि दोषोंसे भयभीत होकर अपने मनाव्यको छोड देना मी धीर वीर पुरूषका कार्य नहीं है यह तो अज्ञानी बालकोंकी चेष्टा है। जब कि पहिले और उसके अव्यवहित पीछे ज्ञानों में तथा उन ज्ञानोंके द्वारा जानने योग्य स्थास, कोष, या वरा, खडुआ आदि नियमसे उपादान उपादेय भाव अच्छी तरहसे देखा जा रहा है । इस कारण वह कार्यकारणभाव एक द्रव्यमें तादात्म्यसम्बन्धसे रहनेपन के बिना असिद्ध है । इस अविनाभाव के बलसे सिद्ध होता है कि उन पूर्वउत्तर कालवर्ती 'अनेक ज्ञानों में व्यापकरूपसे रहनेवाला गंगानदीके समान एक अन्वितद्रव्य है और उन ज्ञानों के द्वारा जानने योग्य मृतिका, सुर्ण आदिके पूर्व उत्तर काल होनेवाले स्थास, कोष, खडुआ, बाजू, चरा, उस्सी, सतलडो आदि पर्यायों में भी अतिरूपसे व्यापक एक द्रव्य व्यवस्थित है इस प्रकार उस एक द्रव्यको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान उस वरूपसे व्यापक हो रहे अखण्ड द्रव्यको जान लेता है । इस ढंग से उक्तप्रकरणका आचार्य महाराज संकोच करते हैं ।
तस्मात्स्त्रावृतिविश्लेषविशेषवशर्तिनः ।
पुंसः प्रवर्तते स्वार्थैकत्वज्ञानमिति स्थितम् ॥ १९९ ॥ सन्तानवासनाभेद नियमस्तु क लभ्यते । नैरात्म्यवादिभिर्न स्याद्येनात्मद्रव्यनिर्णयः ॥ १९२ ॥
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तत्वार्भचिन्तामणिः
इस कारणसे यह बात स्थिररूपसे सिद्ध हो चुकी कि माल्य, कुमार और युवा अवस्थाम व्यापक रहनेवाला वही एक में हूं । तथा स्थास, कोष, कुशूल और घट अवस्थाओमें वही एक मृत्तिका है । इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान अपनेको रोकनेवाले ज्ञाना रणकर्मसंबंधी विलक्षण रियोग स्वरूप क्षयोपशमके अधीन रहनेवाले पुरुषोंके अपने और एकत्वरूप अर्थको विषय करनेवाले होकर प्रवर्त रहे हैं। यह बात निर्णात हो चुकी है, आप बौद्ध जन तो एक आत्मद्रव्यको स्वीकार नहीं करते हैं प्रत्युत 'नैरात्म्यभावनाके अभ्यास करते समय आत्माक अहं भाव और ममभावका आप त्याग कराते हैं। इस पकारके आत्मतत्वको नहीं माननेकी टेववाले बौद्धोंके मतमें मिन्न भिन्न संतानोंका नियम और भिन्न भिन्न वासनाओंका नियम तो भला कहां मिलेगा ! जिस नियपसे कि आत्मद्रव्यका निर्णय न हो सके । अर्थात् नियमव्यवस्था देखी जाती है विशेष संतान ही विशिष्ट वासनाका उद्दोघ माननेपर वहीं प्रत्यभिज्ञान होता है । अतः एक अखण्ड प्रात्मा प्रत्य सिद्ध हुआ । नराम्यवादी बौद्धों करके कोई संतानका नियम नहीं किया जा सका।
तसाच द्रन्यनैरात्म्यवादिना सन्तानविशेषाद्वासनाविशेषाद्वा प्रत्यभिज्ञानप्रतिस्त नियमस्य लब्धुमशक्तेः।
इस कारणसे अखण्ड अम्बित आत्मा द्रव्यको शून्यताको माननेवाले बौद्धोंके यहां संतानविशेषसे या वासनाविशेषसे पूर्वीपरपर्यायों में रहनेवाले एकत्वको विषय करनेवाले प्रत्यमिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि यह देवदत्तकी ही संतान है या यह देवदत्तमे ही ज्ञान कराने थाली वासना है । वह बासना भी पूर्वकी नियत वासनाओंसे या नियत ज्ञानोंसे प्रबुद्ध होती है। इत्यादिरूप से वह नियम करना एक आत्मद्रव्यको माने विना कैसे भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है।
किं तर्हि १ पुरुषादेवोपादानकारणात् स एवाह तदेवेदमिति वा स्वार्थकत्वपरिच्छेदक प्रत्यभिज्ञान प्रवर्तते स्वावरणक्षयोपशमवशादिति व्यवतिष्ठते, तस्माच्च मृत्पर्यायाणामिवैकसन्तानवर्तिनां चित्पर्यायाणामपि तत्त्वतोऽन्वितस्वसिद्धेः सिद्धमात्मद्रव्यमुदाहरणस्य साध्यविकलतानुपपत्तेः।
तब तो प्रत्यभिज्ञानकी प्रवृत्ति कैसे होवेगी ? सो तुम बौद्ध सुनो ! पूर्व उत्तर पर्यायोंके उपादान कारण होरहे एक आत्मा द्रव्य से ही जो ही में पाल्य अवस्था में था, वहीं में कुमार अवस्थामें हूं, अथवा जो ही स्थास अस्था मृत्तिका है वही कुशूलपायों। मिट्टी है इत्यादि प्रकार आत्मा और बहिरङ्ग अथों एकत्यको जाननेवाले प्रत्यभिज्ञान पवर्त रहे हैं । उक्त सम्पूर्ण अवस्थायें ज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशमकी अधीनतासे आत्मा व्यवस्थित बन रही है और इस " कारणसे अब तक सिद्ध हुआ कि जैसे मृत्तिका की शिवक, छत्र, स्थास, कोष, कुशूल और पर
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सम्मानिन्तामणिः
आदि पयर्यायों में उपादान होकर मृत्तिका ओतप्रोस प्रविष्ट हो रही है। वैसे ही आला रूप एक संतानमें रहने वाले सुख, दुःख, घरज्ञान, पटज्ञान आदि पर्यायों में मी वास्तविक रूपसे आत्माका ओतप्रोत होकर अन्वितपना सिद्ध है । इस कारण मा सक आमद्रव्य सिद्ध हो चुका । एकसौ साठवीं वार्तिकम दिये गये चित्रज्ञानस्वरूप उदाहरणमे अनेक अंशों में अन्वितरूपसे व्यापक रहनापन रूप साध्य रह गया, अतः उस उदाहरणको साध्यसे रहितपना सिद्ध नहीं होता है । बौद्धोंके धरका उदाहरण मिल जानेसे प्रकृत साध्य की सिद्धि भले प्रकार हो जाती है । अब नैयायिकों के साथ शास्त्रार्थ छिडता है।
सिद्धोऽप्यात्मोपयोगात्मा यदि न स्यात्तदा कुतः ।
श्रेयोमार्गप्रजिज्ञासा खस्येवाचेतनत्वतः ॥ १९३ ॥
नित्य और अनेक पर्यायोंमें व्यापक हो रहा उपयोगस्वरूप आत्मा सिद्ध मी हो गया किंतु यदि नैयायिक लोग बात्माको ज्ञान और दर्शन स्वरूप न मानेंगे तब उस आमाके कल्याणमार्गको जाननेकी अभिलाषा कैसे होगी? क्योंकि नैयायिकोंके मत्तम आत्मा आकाशके समान भवेतन माना है। भावार्थ-जैसे चेपनास्वरूप न होने के कारण आकाशके मोक्षमार्गको बाननेकी इच्छा नहीं होती है । उसी प्रकार स्वयं भवेतन जीवात्माके भी मोक्षमार्ग जाननेकी इच्छा नहीं हो सकेगी, .जो ज्ञान और इच्छासे तदात्म नहीं है वह मोक्षमार्गको नहीं जानना चाहेगा।
मेषामात्मानुपयोगखभावस्तेषां नासौ श्रेयोमार्गजिज्ञासा वाचेतनवादाकाशवत् ।
जिन नैयायिक और वैशेषिकोंके यहां आत्मा उपयोग स्वरूप नहीं माना गया है उनके वह मोक्षमार्गको जाननेकी अभिलाषा भी नहीं हो सकेगी क्योंकि मामा तो आकाशके समान स्वयं भरतन है।
नोपयोगस्वभावत्वं चेतनत्वं किन्तु चैतन्ययोगतः, स चास्मनोऽस्तीत्यसिद्धमचेतनवं न साच्यसाधनायालमिति शंकामपनुदति
नैयायिक कहते हैं कि जैनों के समान हम उपयोगके साथ सादास्पसंबंध रखनेवारको चेतन नहीं मानते हैं किंतु बुद्धिरूप चैतन्यके समवायसंबंघसे आस्माका चेतन हो जाना मानते हैं । यह शानका समवाय आत्माके विद्यमान है। इस कारण भापका दिया गया अचेसनत्व हेतु आत्मारूप पक्ष न रहनेके कारण असिद्ध हेत्वाभास है । वह साध्य मामे गये, मोक्षमार्ग जाननेकी भमिलाषाके भभावको मापने के लिए समर्थ नहीं है । इस प्रकार नैयायिकोंकी शंका अर्थात् जैनोंका समाधान करने के लिए रखी हुयी इलयकी शल्पका अब आचार्यमहाराज निराकरण करते हैं।
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वस्वाचिन्तामणिः
चैतन्ययोगतस्तस्य चेतनत्वं यदीर्यते । खादीनामपि किं न स्यात्तयोगस्याविशेषतः ॥ १९४ ॥
चैतन्य के संबंधसे वह आत्मा चेतन है यदि नैयायिक ऐसा निरूपण करेंगे तो उस बैसम्मका समवाय तो आकाश, काल आदिकोंके मी समानरूपसे विषमान है। फिर आकाश आदिकोंको चेतनपना क्यों नहीं हो जाता है ! बताओ, ।
पंसि चैतन्यस्य समदा योगच हातिमगि समाना, समवायस्य स्वयमविविधस्यैकस्य प्रतिनियमहत्वभावादात्मन्येव ज्ञानं समवेतं नाकाशादिग्विति विशेषाव्यवसिवः।
___ जो ही चैतन्यका पुरुषमें समवाय नामका सम्बन्ध है वही समवाय माकाश, काल मादिकोंम मी कुछ अन्तर न रखता हुआ समानरूपसे विद्यमान है क्योंकि नैयायिकोंने वास्तविकपनेसे एकही समवायसम्बन्ध इष्ट किया है। विशेषताओंसे रहित यही एक समवाव अपने आप इस प्रत्येक के लिये नियमकी व्यवस्थाका हेतु नहीं हो सकता है कि "आत्मामे ही ज्ञान समवावसंबंषसे वर्तेगा आकाश आदिकों में नहीं, " जब कि समवाय एक ही है और वह भी सर्वथा भिन्न पडा हुभा है। ऐसी दशा में उक्त प्रकार विशेषरूपसे व्यवस्था नहीं हो सकती है।
मयि ज्ञानमितीहेदं प्रत्ययानुमितो नरि। ज्ञानस्य समवायोऽस्ति न खादिष्वित्ययुक्तिकम् ॥ १९५॥
नैयायिक कहते हैं कि " यहां यह है " इस प्रकारको प्रतीसि सो सम्बन्धको सिद्ध करती है । मुझ मात्माम यह शान है इस आकारवाले प्रत्यपसे भी भास्मामे ही ज्ञानके समवायका मनुमान किया जाता है। परंतु आकाश, काल आदिकमै ज्ञानके समवायका अनुमान नही हो सकता है क्योंकि भाकाश और ज्ञानका ससमी विमक्तिसे युक्त पदके साथ आकांक्षा रखनेवाला प्रथमा विमति युक्त वाक्य बनता नहीं है । अंथकार कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकोका कहना युक्तियोंसे रहित है। श्रवण कीजिये,
यह कुण्डे दधीति प्रत्ययान सत्कुण्डादन्यत्र तहघिसंयोगः शल्यापादनस्तरह मयि मानमितीहेदं प्रत्ययामात्मनोऽन्यत्र खादिषु ज्ञानसमवाय इत्ययुक्तिकमेव योगस्य ।
बस चार्तिकका विवरण यो है कि " इस कुण्डमें दही है।" ऐसी प्रतीति होनेके कारण उस कुण्डके अतिरिक्त दूसरे स्थानों उस वहींके संयोगके प्रसारका आपादन जैसे नहीं दिया जा सकता है वैसे ही " यहां मुझे ज्ञान है । इस प्रकारके " यहां यह है" इस संबपके निल
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सत्त्वार्यचिन्तामणिः
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पक प्रत्यय आत्मा अतिरिक्त आकाश आदिकों में भी ज्ञानका समवायसंबंध नहीं बन पाता है 1 इस प्रकार नैयायिकों का कहना युक्तियोंसे शून्य ही है । योगदर्शन और न्यायदर्शन ये दोनों स्वतंत्र मत हैं किंतु पदार्थनिरूपण करनेकी परिपाटी बहुभाग में दोनोंकी समान है । अतः नैयायिकको यौग भी कह देते हैं, न्यायका अभिमान करनेवालोंको पक्षपातयुक्त निरूपण नहीं करना चाहिये। हां ती अब समाधान सुनिये ।
खादयोऽपि हि किं नैव प्रतीयुस्ताव के मते ।
ज्ञानमस्मास्विति वात्मा जस्तेभ्यो विशेषभाक् ॥ १९६ ॥
गुण, गुणी और समवायका सर्वथा भेद माननेवाले तुम नैयायिकोंके मतमें आकाश, काल यदि द्रव्य भी क्यों नहीं ऐसा समझ लेने किं ज्ञान नामक गुण हम आकाश, काल, दिशाओं आदि में समवायसम्बन्धसे रहता है । इस प्रकार तुम्हारा जड आत्मा उन आकाश आदिकोंसे अंतर रखनेवाला रहा कहां ? अर्थात् ज्ञानके सम्बन्ध होनेके पूर्व आत्मा और आकाश आदि एकसे है । जपने और ज्ञानरहितपनेसे उनमें कोई विशेषता नहीं है ।
खादयो ज्ञानमस्मास्विति प्रतियन्तु स्वयमचेतनत्वादात्मवत् । आत्मानो वा मैक प्रतीयुस्तत एव खादिवदिवि ।
आकाश, काल आदिक भी ( पक्ष ) यह समझ लेवें कि ज्ञान हममें समवायसम्बन्धसे यता है ( साध्य : क्योंकि जैसे आत्मा ( दृष्टान्त ) अपने स्वाभाविकरूपसे अचेतन हैं ( हेतु ) वैसे ही आकाश, काल आदि भी स्वयं अपने डीलसे अचेतन हैं। अथवा स्वयं गांठके अचेतन होनेके कारण आकाश, काल, आदिक तुम्हारे मतानुसार जैसे यह नहीं समझते हैं कि ज्ञानगुण इममें समवेत है वैसे ही उसीसे इसी प्रकार स्वयं अचेतन होनेके कारण आत्मा भी यों नही प्रतीति करे कि ज्ञान मुझ समवायसम्बन्धसे रहता है। मेघ जैसे दरिद्र, धनवान्, मूर्ख, पण्डिल तथा राजा आदि बरं समानरूपसे चरलता है वैसे ही लक्षण भी पक्षपातरहित वर्तना चाहिये ।
जात्मवादिमते सन्नपि ज्ञानमिदमिति प्रत्ययः प्रत्यात्मवेधो न ज्ञानस्यात्मनि समवायं नियमयति विशेषाभावाद ।
जो नैयायिक सर्वथा भिन्न माने गये चेतनागुण के समवायसे आत्माका चेतन होना स्वीकार करते हैं, स्वरूपसे आत्मा भी पट पट आदिके समान जड है यों बोलने की टेव रखते हैं । उनके मसमें प्रत्येक आत्मासे जानने योग्य यह बुद्धि भर्लेही हो जाये कि मुझ आरमाने यह ज्ञान वर्तता है किन्तु यह होती हुयी बुद्धि मी पत्मामें ही ज्ञानके समवायका नियम नहीं करा सकती है क्योंकि आकाश वड, पदमादि जड पदार्थोंसे ज्ञानके सनवाय होनेकी लामै कोई विशेषता नहीं है ।
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सत्यार्थचिन्तामणिः
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नन्वि पृथिव्यादिषु रूपादय इति प्रत्ययोऽपि न रूपादीनां पृथिव्यादिषु समवायं साधयेद्यथा खादिषु तत्र वा सयं साधयेत् पृथिव्यादिष्विवेति न कचित्प्रत्ययविशेषाकस्यचियवस्था किचित्साधर्म्यस्य सर्वत्र मावादिति चेत् ।
नैयायिक पक्षका अवधारण कर उत्तर देते हैं कि यों तो यहां पृथ्वी, जल और तेजमै रूप है, पृथ्वीमें गंध है, तेजोद्रव्य में ऊष्णस्पर्श है इत्यादिक प्रत्यय मी पृथिवी आदिकोंमें रूप आदिकोंके समवायको सिद्ध न करा सकेंगे। जैसे कि वे आकाश, काल, आदिकों में रूप आदिकोंके समवायको नहीं सिद्ध कराते हैं । अथवा वे प्रत्यय जैसे "पृथ्वी आदिकोंमें रूप आदिक हैं " इस प्रकारकी समझ करा देते हैं वैसे ही वहां आकाश, काल आदिकों में भी रूप, रस आदिका सद्भाव साध कर उनके समवायका बोध करा देवें। ऐसी पोळले तो किसी भी विशेष प्रत्ययसे कहीं भी किसी धर्म के रहने की व्यवस्था न हो सकेगी, क्योंकि किसी न किसी धर्मकी अपेक्षासे चाहे जिसमे सपना सविद्यमान है ! के पास धन है, पतक है देवदत्तका यज्ञदत्तसे मनुष्य की अपेक्षा समानधर्मसहिसपना भी है। देवदत्तसे रुपया, पुस्तक, गृह मिश्र भी है फिर देवदत्त के उन रुपया पुस्तकोंसे यज्ञदत्त धनवान् और पुस्तकान् क्यों नहीं बन जाता है ! द्रव्यपन और सत्यना तो समान धर्म सर्वत्र सुलभ है । कहीं किसीसे किसीकी धर्मव्यवस्था मानने पर आत्मा ज्ञानके समवायकी भी व्यवस्था बन जावेगी फिर यह टंटा क्यों खड़ा किया जाता है ? अब आचार्य कहते हैं कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे तो—
सत्यं, अयमपरोऽस्य दोषोऽस्तु पृथिव्यादीनां रूपाद्यनात्मकत्वे खादिम्यो विशिष्टतया व्यवस्थापयितुमशक्तेः ।
ठीक है अर्थात् जब तक मैं उत्तर नहीं देता हूं तब तक ठीक है । उत्तर देनेवर तो तुम्हारे कटाक्ष के जीर्ण वस्त्र के समान सैकडों टुकडे हो जायेंगे। नैयायिकोंने कहा था " कि पृथ्वी आदिको रूप आदिकोंके रहने का भी नियम न हो सकेगा " यह सर्वथा सत्य है । जो पृथ्वी आदि द्रव्योंको रूप, रस, गंध आदिकसे तादात्म्यसंबंध रखते हुए नहीं मानता है उसके मतमें यह दूसरा दोष
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भी लागू होता है। जैसे " आत्मामें ही ज्ञानका समवाय रखनेके लिये आकाश आदिकों से कोई विशेपता नहीं है वैसे ही पृथ्वी, जल, और तेजमें ही रूप हैं तथा पृथ्वीमें ही गंध है " ऐसी व्यवस्था करनेके लिये आकाश आदिकों से विशिष्टताको रखता हुआ कोई नियम भेदवादी नैयायिक नहीं कर सकते हैं । चतुर्वेदी षड्वेदी होनेके लिये चले थे किंतु द्विवेदी ही रह गये नैयायिकोंने एक दोषवारण करनेका प्रयन किया था किंतु दूसरा और भी दोष उनके गले लगा ।
स्यान्मतम् । आत्मानो ज्ञानमस्मास्थिति प्रतियन्ति आत्मस्वात् ये तु न तथा ते नात्मानो यथा खादयः आत्मानचैतेऽहंप्रत्यय प्राह्मास्तस्माचथेत्यात्मत्वमेव खादिभ्यो.
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तर चिन्तामणिः
विशेषमात्मानं साधयति पृथिवीत्वादिवत् । पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादियोगाद्धि पृथिव्यादयस्तद्वदात्मत्वयोगादात्मान इति । तदयुक्तम्, आत्मस्वादिजातीनामपि जातिमदनात्मकत्वे तत्समवाय नियमा सिद्धेः ।
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सम्भव है कि नैयायिकों का यह मत होवै वह भी होंने दो कि " ज्ञान हममें समवायसम्बन्धसे रहता है इस प्रकार जीवात्माएं ही समझती हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वे आत्मा हैं ( हेतू ) जो पदार्थ तो अपने में उसप्रकार ज्ञानकी वृतिताको नहीं समझते हैं वे जीवात्माएँ भी नहीं है। जैसे आकाश, काल, घट आदिक जड पदार्थ है ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) मैं मैं इस आकार के ज्ञानद्वारा मे आत्मा ग्रहण किये जा रहे हैं ( उपनय ) तिस कारण से ज्ञान हममें रहता है। इसकी वे दृढ प्रतिपति कर लेते हैं ( निगमन ) ऐसे पांच अवयववाले अनुमानसे आत्मस्व-हेतुके द्वारा आत्माओंकी आकाश, काल आदिकों से विशेषता सिद्ध हो जाती है " जैसे कि पृथिवीश्व, जलत्व, तेजस्व, आदि जातिओं के द्वारा पृथिवी आदिक द्रव्य उन आकाश आदिकोंसे न्यारे न्यारे सिद्ध कर दिये जाते हैं। देखिये जब कि पृथिवीश्वजातिके सम्बन्धसेही पृथिवीको पृथिवीपना माना है । एवं जलत्वके भोग से जलको: जरूद्रव्य इष्ट किया है यों नियमितजातियोंके सम्बन्ध हो खानेके कारण द्रयोंमें संकरपना नहीं आ पाता है। वैसे ही आत्मत्वजातिके योगसे आत्मद्रव्य भी स्वतंत्र निराले सिद्ध हैं। यहांतक नैयायिक कह चुके । अभ अन्धकार कहते हैं कि इस सरह नैयामिकोंका वह प्रतिपान करना युक्तिशून्य है कारण कि आस्पत्र, पृथिवीत्व, जलस्व, बायुत्व भावि जातियों को भी उन जातिवाल आत्मा, पृथिवी, जल, वायु, आदिके साथ तदात्मक स्वरूप नहीं मानोगे तो रमासे सर्वथा भिन्न स्वीकार किये गये आत्मत्वक आत्माने ही समवायसम्बन्ध होवे और उस जलत्वजातिका जलद्रव्यमे ही समवाय होवे इस प्रकारके नियम नहीं बन सकेंगे, क्योंकि न्यायमतानुसार पृथिवी पृथिवीत्व, आत्मा आत्मस्व, अल जलस्त्र ये सब जाति और व्यक्तियां परस्परमे सर्वथा मिश्र मानी गयी हैं। ऐसी दशा में पृथिवीत्व जाति आत्मा जलको छोटकर पृथिवी द्रव्यमे ही चिपक जाय, उसका नियामक क्या है ! बताओ तथा आत्मत्वजाति इन पृथिवी, आकाशकी उपेक्षा कर आत्मद्रव्यमेडी समवेत हो जावे यह नियम बतानेका तुम्हारे पास क्या उपाय है ! जबतक आप भिडी पृथिवीलका और मात्मा आत्मत्वका तादाम्यरूप एकीभाव नहीं मानोगे तबतक ज्ञान और ज्ञानवान् के समान जाति और जातिमानकी अयवस्था मी न बन सकेगी।
प्रत्ययविशेषात सिद्धिरिति चेत्, स एव विचारवितुमारब्धः परस्परमत्यन्त मेदाविशेषेऽपि जातिवद्वतामात्मत्वजा विरात्मनि प्रत्ययविशेषमुपजनयति न पृथिव्यादिषु पृथिवीत्वादिजातयथ तत्रैव प्रत्ययमुत्पादयन्ति नास्मनीति कोऽय नियमहेतुः १
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यदि नैयायिक यों कहें कि आत्माम ही आत्मस्वजातिके रहनेका विशेषरूपसे ज्ञान हो रहा है। एवं जलमे ही जलवजातिकी वृत्तिताका बदिया ज्ञानविशेष हो रहा है। इस कारण आत्मद्रव्यमै आत्मस्वजातिके और जलद्रव्यमें जलवजातिके समवायका वह नियम सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार उत्तर कहनेपर तो हम स्याद्वादी कहते हैं कि वही सो विचार करने के लिये प्रकरण आरम्भ किया गया है. अति आत्मा ही आत्मत्यजातिके रहनेका विशेष ज्ञान किस कारण होता है ? और वही उत्तर दिया जा रहा है। यह तो वैसा ही न्याय हुआ कि हमने पूंछा, यह घोडा क्यों है ? उत्तर दिया कि क्योंकि यह घोडा है । जब कि जाति और उससे सहित जातिवालों में परस्पर अंतररहित सर्वथा भेद विधमान है तो भी वह भिन्न पडी हुयी आत्मत्वजाति " आत्मामें रहती है" इस ज्ञानविशेषको तो पैदा करे और पृथिवी, जल, आदिको आत्मत्वके रहनेका ज्ञान न करावे इसका क्या कारण है ! बताओ । एवं पृथिवीत्व, जलस्त्र आदि जातियां भी उन्ही पृथिवी, जल मादिमें ही उन ज्ञानबिशेषोंको यानी पृथिवीमें पृथिवीत्व रहता है इन ज्ञानोंको पैदा करावें, किंतु आत्मामे पृथिवीखके रहनेका ज्ञान न करावें इसमें नियम करानेवाला हेतु तुम्हारे पास क्या है ! उसे बतलाओ। ___ समवाय इति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रयः सति प्रत्ययविशेषे जातिविशेषस्य जातिमति समवायः सति च समवाये प्रत्ययविशेष इति ।।
विशेष नियम करनेका हेतु यदि आप नैयायिक या वैशेषिक समवायसम्बन्ध मानोगे तप सो यह वही अन्योन्याश्य दोष हुआ क्योंकि समवायसम्बन्ध भी तुम्हारे मतमें भिन्न पछा रहता माना गया है । अतः समवायसम्बन्धके नियम करानेके लिये ज्ञानविशेषकी आवश्यकता पड़ेगी। तथा च पृथिवीमें पृथिवीत्रका ही विशेषज्ञान होनेपर तो विशेष जाति पृथिवीवका उस जाति. वाली पृथिवीम समवायसम्बन्ध सिद्ध होवे और जब पृथिवी पृथिवीत्वका ही समवायसमन्ध सिद्ध हो जावे तब पृथिवीमें पृथिवीरवके रहनेका ज्ञान विशेष सिद्ध होवे ऐसे अन्योन्याश्रय दोषवार्क कार्य सिद्ध नहीं होते हैं। नैयायिक और वैशेषिकका इस विषय एकही मत है। अतः हम किसी भी शब्दद्वारा पूर्वपक्षीका यहां उल्लेख कर देते हैं।
प्रत्यासतिविशेषादन्यत एव तत्प्रत्ययविशेष इति चेत्, स कोऽन्योऽन्यत्र कर्यचित्तादाल्यपरिणामादिति स एष प्रत्ययविशेष तुरेपिसव्या, तदमावे तदघटनालातिविशेष स्य कचिदेव समवायासिद्धरात्मादिविभागानुपपत्तेरात्मन्येच शान समवेतमिहेदमिति प्रत्यय कुरुते न पुनः खादिष्विति प्रतिपत्तुमशक्तेन चैतन्ययोगादात्मनश्चेतनस्व सिद्धयेत् यतोऽसिद्धो हेतुः स्यात् ।
यदि अन्योन्याश्मय दोषका धारण करने के लिये किसी न्यारे दूसरे ही विशेषसम्मेधसे उस विशिष्ट जानके होने का नियम करोगे, तब तो वह विशेषसम्बंध कथंचिस् तादात्म्यसम्भव-रूप
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परिणामके अतिरिक्त और दूसरा क्या हो सकेगा ! तुम ही समझ लो इस कारण वह विशेषसम्बंध ही ज्ञान विशेषका कारण तुमको इष्ट करना चाहिये । उस तादात्यसम्बंधके न माननेपर विशिष्ट आस्मद्न्य ज्ञानके रहनेका या पृथिवीमें पृथिवीत्वकी वृसिताके उन ज्ञानविशेषोंका होना नहीं घटता है। नैयायिकमतमें जाति और समवायको भी इनके आधारोसे सर्वथा भिन्न माना गया है। अतः उस मिन्न पड़े हुए जातिविशेषका किसी विशेषद्रव्यमें ही समवाय सम्बंध सिद्ध नहीं हो पाता है। जब आत्मत्व और पृथिवीत्वका नियमित समवायसम्मघ सिद्ध नहीं है तो यह आत्मा है, यह पृथिवी है, यह आकाश है, इत्यादि द्रव्यों के विभाग सिद्ध न होवेगे, ऐसी दशामे आला ही ज्ञान समायसंबंधसे रहता है ऐसा " यह यहां है " इत्याकारक ज्ञान आत्माम ही ज्ञानके समवायको सिद्ध करे, किंतु फिर आकाश, काल, आदिकमै ज्ञानके समवायको सिद्ध न करे, यह भी नहीं समझा जा सकता है । अतः नैयायिकोंका चैतन्यके सम्बंध में आत्माको बेदनाना बि. सनी हो सकता है, जिससे कि श्रेयोमार्ग की अभिलाषाके अभावको सिद्ध करनेमें हमारी ओरसे नैयायिकोंके मति दिया गया अचेतनत्व हेतु असिद्ध होवे, अर्थात् नैयायिकोंकी मानी हुयी आत्माम अचेसन हो जाने के कारण मोक्षमार्गकी अभिलाषा होना नहीं बनता है।
प्रतीतिः शरणं तत्र केनाप्याश्रीयते यदि । तदा पुंसश्चिदात्मत्वं प्रसिद्धभविगानतः ॥ १९७ ॥ ज्ञाताहमिति निर्णीतेः कथञ्चिच्चेतनात्मताम् ।
अन्तरेण व्यवस्थानासम्भवात् कलशादिवत् ॥ १९८ ।।
यदि किसी भी नव्य नैयायिक या प्राचीन नैयायिकके द्वारा लोकप्रसिद्ध प्रतीतियोंकी शरण लेने का सहारा लिया जावे, तब तो आत्माको चेतनस्वरूपपना निदारहित निदोषरूपसे प्रसिद्ध है । मैं ज्ञाता इं इस प्रकारके निर्णय कथंचित् चेतनस्वरूप आत्माको माने विना व्यवस्थित नहीं होते हैं । जैसे कि जड घट, पर, आदिक "मैं ज्ञाता ई॥" में चेतन हूं " ऐसा निर्णय नहीं कर सकते हैं, किंतु आला." में ज्ञ हूं। ऐसा निर्णय कर रहा है। यह बात अनेक जीवों में स्वयं प्रसिद्ध हो रही है । ऐसी प्रतीतिसित मासको मान लेना चाहिये ।
प्रतीतिविलोपो हि साद्वादिभिर्ने क्षम्यते न पुनः प्रतीत्याश्रयणम्, ततो निःप्रतिद्धपयोगात्मकस्पात्मनः सिद्धेन हि जातुचिस्वयमचेतनोऽहं चेतनायोगाच्चेतनोऽचेतने च मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति खाताहमिति समानाधिकरणतया प्रतीते। - बालगोपालों तकमें भी प्रसिद्ध होरही मतीतियोंका लोपना तो हम स्याद्वादियों के द्वारा कैसे भी सहन नहीं किया जा सकता है । हां ! फिर प्रतीतिओं के अवलम्ब लेनेका हम लोप नहीं करते
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हैं । उस कारण से प्रतीक्षिके अनुसार उपयोगस्वरूप आत्मा की सिद्धि बाधारहित हो रही है। इस प्रकारकी प्रतीति कभी आज तक नहीं हुयी कि "मैं स्वयं तो मूलमें अचेतन हूं और चेतना बुद्धिके समवायसे चेतन हो जाता हूं, हां अचेतन होरहे मुझमें चेतनाका समवायसंबंध हो जाता है । " किंतु इसके विपरीत " में चेतन हूं " ऐसी प्रतीति हो रही है तथा “ मैं ज्ञाता हूं ऐसी ज्ञातापन और अपनेकी आत्मारूप समान अधिकरणमै ठहरे रहनेरूपसे प्रतीति हो रही है । इससे भी आत्मा स्वयं चेदन सिद्ध हो जाता है । चेतनपन, ज्ञालापन, आईपन ये तीनों एक ही आत्मा नामक अधिकरणमें निवास करते हैं ।
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भेदे तथा प्रतीतिरिति चेन्न कथञ्चिसादात्म्याभावे तददर्शनात् यष्टिः पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचाराद् दृष्टा न पुनस्ताविकी !
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यदि यहां नैयायिक यों कहें कि इस प्रकार समान अधिकरणपना तो भिन्न दो पदार्थोंमें हो रहा प्रतीत होता है । जैसे कि कम्बल नीला है, फूल सुगंध युक्त है। यहां कम्बल और नील का भेद है, सुगन्धसे फूल मिन्न है, ऐसे ही आमा ज्ञाता है। यहां भी भेद होनेपर ही समान अधिकरण की प्रतीति हो सकती है। निरुक्ति यों है कि समान है अधिकरण जिन दो, तीन, आदि पदार्थों का उन पदार्थोंको समानाधिकरण कहते हैं और उनका भाव समानाधिकरणता बोलीजाती है । आचार्य कह रहे हैं कि यह नैयायिकका कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि कथवितादात्म्य सम्बंध के बिना ठीक समानाधिकरणता नहीं देखी जाती है। कम्बल और नीले स्का तथा फूल और सुगंघका अभेद होनेपर ही समान अधिकरणपन है । सर्वथा भिन्न ठहर रही अयोध्या और गिरनार पत सामानाधिकरण्य नहीं है । यद्यपि कहीं कहीं भेद होनेपर भी समान अधिकरणकी प्रतीति देखी गयी है। जैसे कि ' यष्टिः पुरुषः १ कठियात्राले पुरुषको कठिया कह देना, अथवा ardhars और इक्के वालेको टोपी या इक्का से पुकारना होता है इत्यादि, किंतु यहां मेद होते संते केवल व्यवहारसे समानाधिकरणप्रतीति इष्ट को है । हां फिर परमार्थरूप से ककड़ी और ककडीवालेमै समानाधिकरणता नहीं देखी गयी है। लठियाका अधिकरण पुरुष है और पुरुषका अधिकरण
है। यों तो 'अर्माणवकः ' चंचल क्रोधी बालकको अभि कह देते हैं। बोझ ढोनेवाले पल्लेदारको बैल कह देते हैं 'गौर्शहीक: ' यह सब उपचार है । अतः कथञ्चित् भिन्न और कथंचित् अभिल होरहे पदार्थ में समानाधिकरणत्व माना गया है । आत्मा और ज्ञानमें द्रव्यरूपसे अमेद है और पर्याय, पर्यायीपनसे भेद है। यही तो समानाधिकरण होनेका प्राण है ||
I
तथा चात्मनि ज्ञाताहमिति प्रतीतिः कथञ्चिच्चेतनात्मतां गमयति, वामन्तरेणानुपपद्यमानत्वात् कलशादिवत् । न हि कलशादिरचेतनात्म को ज्ञाताहमिति प्रत्येति ।
हां तो उस कारण से आत्माने " में ज्ञाता हूं" ऐसी प्रतीति हो रही है वह कथञ्चित् चेतनात्मकताको सिद्ध करा देती है क्योंकि आत्माको पैसा चेतनस्वरूप माने बिना वह प्रतीति होना
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं बन सकता है । जैसे घट, पट आदिकने वैसी ज्ञप्ति नहीं होती है । वे घट, पट आदिक स्वयं वेतन न होनेके कारण हम ज्ञाता है " ऐसी प्रतीति नहीं करते हैं |
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चैतन्ययोगाभावादसौ न तथा प्रत्येतीति चेत्, चेतनस्यपि चेतनायोगाच्चेतनोऽमिति प्रतिपचैर्निरस्वत्वात् ।
यदि नैयायिक यों कहें " कि चैतन्यका संबंध होनेके कारण वे घट, पट आदिक अपनेको ज्ञापनकी वैसी प्रतीति नहीं करते हैं किंतु आत्मा चैतन्यके योगले ज्ञातापने की मतीति कर लेता है " ऐसा कहनेवर तो हम जैन कहते हैं कि चेतन आत्मा के भी चेतन्यगुणेक' समवाय संबंध में चेतन हूं ऐसी प्रतिपत्ति होने का हम खण्डन कर चुके हैं। चैतन्यके संबंध से चैतन्यवान् प्रतीति मर्ले दी हो जाय किंतु चेतन हूं i. " यह प्रतोति नहीं होती है। फिर आप बार बार उसी बातको क्यों दुहराते हैं । वावदूकता अच्छी नहीं लगती है।
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ननु च ज्ञानवानदमिति प्रत्ययादात्मज्ञानयोर्भेदोऽन्यथा धनवानिति प्रत्ययादपि धनवद्वतोर्भेदाभावानुषङ्गादिति कश्चित् तदसत् ।
नैयायिक सर्शक स्वपक्षका अवधारण करते हुए कहते हैं कि मैं ज्ञानवाला हूं, इस प्रकार - के निर्णयले तो आत्मा और ज्ञानने मेद प्रतीत हो रहा है । मतु प्रत्यय भेद हुआ करता है । यदि ऐसा न मानकर अन्य प्रकार मानोगे तो देवदत्त धनवाला है, इस प्रतीसिसे भी धन और धनवाका भेद नहीं हो सकनेका प्रसंग आवेगा | आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कोई एक नैयायिक कह रहा है। उसका वह कहना प्रशंसनीय नहीं है। जब कि
ज्ञानवानहमित्येष प्रत्ययोऽपि न युज्यते ।
सर्वत्र जडस्यास्य पुंसोऽभिमनने तथा ॥ १९९ ॥
सर्वथा भेद होनेपर तो मतुप् प्रत्यय भी नहीं उतरता है। तभी तो विन्ध्यपर्वतवान् सह्य पर्वत है या पुण्यवान् आकाश है, ये प्रयोग सत्य नहीं माने गये हैं। यदि इस आत्माको सर्व प्रकार से ही जड़ है यों आग्रहसहित माना जावेगा। वैसे तो मैं ज्ञानवान् हूं यह उस प्रकारकी प्रतीति होना भी युक्तिपूर्ण नहीं है ।
ज्ञानवानमिति नात्मा प्रत्येति जडत्वकांतरूपत्वाद् घटवत् सर्वथा जच्च स्थात् आरमा ज्ञानवानहमिति प्रत्येता च स्वाद्विशेवाभावादिति मा निरणपीस्तस्य तथोपपत्त्यसम्भवात् । तथाहि
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मैं ज्ञानवान हूं " इस बातको आत्मा नहीं जान सकता है क्योंकि न्यायमत घटके समान आत्माको एकांतरूपसे अस्वरूप माना गया है। वैशेषिकने आत्मा में आत्मत्वजाति और
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वयाचिन्तामानः
ज्ञानगुणका समवाय तो पीछे हुआ माना है, फिर मूलमें घटके समान आस्मा जड ही ठहरा, तुम नैयायिक पेसा निर्णय नहीं कर लेना कि आत्मा सर्वप्रकारसे जड भी बना रहे और मैं ज्ञानबान हूं" इस बासको भी समझ लेवे, क्योंकि हम मेवादियों का मंतन्य है कि जर होनेमें और समझनेवाला होनेमें कोई विरोध नहीं है । आचार्य कह रहे हैं कि उस आत्माको उस प्रकार नयायिकोंके यहां निर्णय करनेकी उपपत्ति होना नहीं सम्मव है । इसी पातको प्रसिद्ध कर कहते हैं जर आत्मा तदात्मक प्रमाण द्वारा स्व को ज्ञानवान् पनेकी प्रतीति नहीं कर सकता है।
ज्ञानं विशेषणं पूर्व गृहीत्वात्मानमेव च । विशेष्यं जायते बुद्धिज्ञानबानहमित्यसौ ॥ २०० ॥ तद्हीतिः खतो नास्ति रहितस्य स्वसंविदा ।
परतश्चानवस्थानादिति तत्प्रत्ययः कुतः ॥ २०१ ।।
विशिष्ट बुद्धिके उत्पन्न होनेके प्रथम विशेषण और विशेष्यके जाननेकी आवश्यकता है। " घटवान् - भूतल है " यह प्रत्यय घट विशेषण और भूतल विशेष्यके ग्रहण करनेपर होता है " विशिष्टबुद्धिर्विशेषमविशेष्यसंबंधविषया" विशिष्ट बुद्धि होनेका यही क्रम है । प्रकृतमें ज्ञानविशेषणको पहिके प्रण कर और आत्मा स्वरूप विशेष्यको ग्रहण कर ही " में ज्ञानवान हूं" इस प्रकारकी वह बुद्धि उत्पन्न होसकती है। अब उस ज्ञानका ग्रहण आमाके अपने आपसे सो होता नहीं है, क्योंकि आपने मात्मा और ज्ञानको स्वसंवेदनसे रहित हो रहा माना है। नेयायिकोंने आत्माका वेदन, और ज्ञानका ज्ञान, स्वसंवेदनसे अपने आप होना इष्ट नहीं किया है, ऐसी शामें जिस ज्ञानसे मात्मा विशिष्ट हो रहा है, उस झानको शानके अतिरिक्त कौन जानेगा ! यदि दूसरे ज्ञानसे विवक्षित ज्ञानका ज्ञान होना मानोगे तो अनवस्वा दोष आवेगा। क्योंकि दूसरे ज्ञानको तीसरे शानसे, और तीसरेको चौथे ज्ञानसे, जाननेपर आकांक्षा बढ़ती ही जावेगी। " नाज्ञातं ज्ञापक नाम " जो स्वयं ज्ञात नहीं हुआ है, वह दूसरे प्रमेयका ज्ञापक नहीं हो सकता है। ऐसी अवस्थाम उस ज्ञानरूपविशेषणकी प्रतीति कैसे होगी ? बताओ। जिससे कि ज्ञान और आत्माका । अहण होकर पैदा होनेवाली " मैं ज्ञानवान हूं " यह विशिष्टबुद्धि उत्पन्न हो सके।
येषां नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरिति मतं श्वेताच्छ्रेते बुद्धिरिति वचनासेषा ज्ञानवानहमिति प्रत्ययो नागृहीते झानारव्ये विशेषणे विशेष्ये चात्मनि जातूत्पयते, खमतविरोधात ।
बिन नैयायिकोंका यह माना हुआ सिद्धांस है कि विशिष्टका ज्ञान तप उत्पन्न होता है, जब कि पूर्व विशेषण और विशेष्य दोनों को जान लिया जाय, तथा विशेष्यन्नान ता होगा जब
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तत्त्वार्थचिन्तामाः
कि विशेषणका ग्रहण कर लिया जावे, विना विशेषणके ग्रहण किये विशेष्य में बुद्धि नहीं हो पाती है । उनके यहां ऐसा कहा है कि घौला कपडा है यह बुद्धि धौलेरूपको पहिले जानकर होती है, भूरे से मूरेमें ज्ञान होता है। उन नैयायिकोंके मत में " मैं ज्ञानवान् हूं” ऐसी प्रतीति भी ज्ञान नामक विशेषण और आत्मास्वरूप विशेष्य के न ग्रहण करनेपर कभी नहीं उत्पन्न हो सकती है। यदि विशेषण और विशेष्य के ग्रहण बिना भी विशिष्टबुद्धिकी उत्पत्ति मानोगे तो नैयायिकों को अपने मतसे विरोध हो जावेगा ||
३१.
गृहीते तस्मिन्नुत्पद्यते इति चेत्, कुतस्तद्गृहीतिः १ न तावत्स्वतः स्वसंवेदनानभ्युपगमात्, स्वसंविदिते धात्मनि ज्ञाने च स्वतः सा प्रयुज्यते नान्यथा संतानोतरवत् । परतशेतदपि ज्ञानांवरं विशेष्यं नागृहीते ज्ञानत्वविशेषणे ग्रहीतुं शक्यमिति ज्ञानान्तरात्तग्रहणेन भाव्यमित्यनवस्थानात्कुतः प्रकृतप्रत्ययः १ ।।
यदि नैयायिक यों कहेंगे कि उस ज्ञानस्वरूप विशेषणके ग्रहण करनेपर विशिष्टबुद्धि पैदा होती है तब तो तुम बतलाओ कि उस ज्ञानका ग्रहण किससे होगा : ज्ञानका ग्रहण अपने आप स्वयं तो हो नहीं सकता है क्योंकि आपने आत्मा और ज्ञानका अपने आप अपनेको जाननेवाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष स्वीकार नहीं किया है। यदि ज्ञान और आस्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष मानते होते सब उन दोनों का वह स्वतः ग्रहण होना कह सकते थे, अन्यथा नहीं कह सकते हो। दूसरे प्रकारोंसे मेदवादियों के मलमे संतानांतरोंके समान ज्ञान और आत्माका ग्रहण नहीं हो पाता है। मात्रार्थ - जैसे देवदत्त के ज्ञानका यज्ञदत्त प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है या देवदत्तकी आस्माका यज्ञदत्त प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है । उसीके सहश देवदत्त भी अपने ज्ञान और आत्माको नहीं जान पावेगा ।
यदि दूसरे ज्ञानसे ज्ञान और आत्माका ज्ञान होना मानोगे तो वह दूसरा ज्ञान भी विशेष्य है उसमें ज्ञानस्व विशेषण है। दूसरा ज्ञान भी अपने ज्ञानत्व विशेषणको जबतक नहीं जानेगा; तबतक प्रकृतज्ञानको ग्रहण करने में समर्थ नहीं है । यहां भी दूसरा ज्ञान और उसके ज्ञानश्वको जानने के लिये तीसरे, चौथे, पांचमे ज्ञान होते रहने चाहिये । इस प्रकार अनवस्था होती है। भला ऐसी दशा में प्रकरण प्राप्त होरहे विशेषण रूप पहिले ज्ञानका ग्रहण कैसे होवेगा ? बसाओ तो सही । भिति के बिना कहां तक कल्पित चित्रोंको लिखोगे ।
नन्वहंप्रत्ययोत्पत्तिरात्मज्ञप्तिर्निगद्यते ।
ज्ञानमेतदिति ज्ञानोत्पत्तिस्तज्ज्ञप्तिरेव च ॥ २०२ ॥ ज्ञानवानहमित्येष प्रत्ययस्तावतोदिता । तज्ज्ञानावेदनेप्येवं नानवस्थेति केचन ॥ २०३ ॥
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इस पर नैयायिक अनुनयसहित उत्तर देना चाहते हैं कि मैं मैं इस प्रकारके ज्ञानका उत्पन्न हो जाना ही आत्मारूप विशेष्यका प्रहण कहा जाता है और यह ज्ञान है, इस प्रकार जानका उत्पन्न हो जाना ही उस विशेषणस्वरूप ज्ञानका ग्रहण समझा जाता है। उतने मात्र से 'मैं ज्ञानवान् हूँ " इस प्रकारका यह विशिष्ट प्रत्यय उत्पन्न हो जाना कहा गया है । भले ही उन ज्ञानका अपने आप वेदन न होवे तो भी हमारे ऐसा कहनेपर अनवस्था दोष नहीं सम्भावित है इस प्रकार कोई एक नैयायिक कह रहे हैं । भावार्थ मैं और ज्ञानवाला हूं इन दो ज्ञानोंकी उत्पत्ति हो जानेसे ही आकांक्षा शांत होजाती है। ज्ञापकपक्ष अनवस्था दोष लगता है । कारक पक्षमै बीजाङ्कुर के समान अवस्था हो जानेको दोष नहीं माना गया है। यहां कार्यकारणभाव नहीं चल रहा है ।
ज्ञानास्मविशेषणविशेष्यज्ञानाहिव संस्कार सामर्थ्यादेव ज्ञानवानमिति प्रत्ययोत्पचेनोवस्थेति केचिन्मन्यन्ते ।
कमी पहिले समय में ज्ञानको विशेषण और आत्माको विशेष्य समझ लिया था, उसका संस्कार आत्मामें रक्खा हुआ है । उस संस्कारके बलसे ही " मैं ज्ञानवाला हूं " ऐसा निर्णय उत्पन्न हो जाता है । हमारे ऊपर अनवस्था दोष नहीं है। ऐसा भी कोई एक नैयायिक मान रहे हैं। तेऽपि नूनमनात्मज्ञा ज्ञाप्यज्ञापकताविदः ।
सर्व हि ज्ञापकं ज्ञातं स्वयमन्यस्य वेदकम् ॥
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नैयायिक भी नसे आत्माको नहीं जान पाते हैं और ज्ञाप्यज्ञापकमावके तत्त्वको भी नहीं समझते हैं जब कि सभी दार्शनिक इस बातको मानते हैं कि जो कोई भी ज्ञापक होगा यह जाना गया होकर ही दूसरेको समझानेवाला होता है। जैसे कि भूम हेतु वहिका शापक है । as चाक्षुषप्रत्यक्ष ज्ञात होकर ही अन्य वह्निको समझाता है । तथा वास्तविक रूपसे ज्ञापक देतु ज्ञात है वह स्वयं ज्ञात होकर ही अपने ज्ञेयकी ज्ञप्ति कराता है । जिसको आजतक स्वयं जाना नहीं है, उसका संस्कार भी कहांसे आवेगा ! पहिले कभी ज्ञानसे गृहीत हो चुके विषयकी ही तो धारणा कर सकते हो ।
विशेषणविशेष्ययोर्ज्ञानं हि तयोज्ञपिकं तत्कथमज्ञातं तौ ज्ञापयेत् । कारकत्वे तदयुक्तमेव तदिमे तयोर्ज्ञानमज्ञातमेव ज्ञापकं ब्रुवाणा न ज्ञाप्यज्ञापकभावविद इति
सत्यमनात्मज्ञाः ।
ज्ञानरूप विशेषणका और आत्मस्वरूप विशेष्यका ज्ञानही उन शान और आत्माका शापक माना गया हैं तो उन दोनोंका यह ज्ञान स्वयं अज्ञात होकर उन ज्ञात और आत्माको कैसे समझा देवेगा ? बतलाइये ।
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सत्तान्तिामा
यदि आप ज्ञापपक्ष न मानकर कारकपक्ष लोगे सो तो यह युक्तियोंसे रहित ही है। मला कहीं ज्ञान और ज्ञेयके प्रकरणमे क्या कोई कारकपक्ष लेता है ! आप स्वयं विचारो । अमिका धूम हेतु शापक है किन्तु कार को घूमका ही नामे कारक हेतु है । उस कारण ये नैयायिक खोग विशेष्य विशेषण के ज्ञानको अज्ञात हुये को ही ज्ञापक कह रहे हैं । अतः ये ज्ञेय शापकभात्रको न समझते हुए अवश्य ही आत्माको जाननेवाले नहीं हैं यह बात सर्वथा सच्ची है । इनके यहाँ ज्ञान अपनेको नहीं जानता है और आत्माका स्वयंको नहीं जान पाता है ।
स्यान्मतम्, विशेषणस्य शानं न ज्ञापकं नापि कारकं लिङ्गवच्चक्षुरादिवच्च, किं सहि शतिरूपं फलम् । तच्च प्रमाणाजातं चेसावतैवाकांक्षाया निवृत्तिः फलपर्यन्वत्वात्तस्या, विशेष्यज्ञानस्य ज्ञापकं तदिस्यपि वाते तस्य तत्कारकत्वात् ।
नैयायिकोंका यह मत भी होवे कि घूम हेतु जैसे वदिका ज्ञापक हेतु है वैसे विशेषणका ज्ञान ज्ञाएक हेतु नहीं है और चक्षु, पुष्य, पाप, आलोक आदि जैसे चाक्षुषप्रत्यक्षके कारक हेतु है वैसे विशेषणका ज्ञान कारक हेतु भी नहीं है । तो क्या है ! सो सुनो! हम विशेषणके शानको अविस्वरूप फल मानते हैं। विशेषणके साथ इन्द्रियों के सन्निकर्ष हो जानेको प्रमाण मानते हैं । उसका फल विशेषणका ज्ञानरूप प्रमा उत्पन्न हो जाना है । एवं वह शतिरूपी फल भो ही प्रमाणसे नहीं मी ज्ञात हो किन्तु प्रमाणसे उत्पन्न है । इतनेसे ही आकांक्षाकी निति हो जाती है। अर्थात् तीसरे, चौथे, पांचर्म, ज्ञानोंके उठानेकी आवश्यकता नहीं होती है। जिससे कि अनवखा होवे । जब तक फल प्राप्त. नहीं होता है तब तक प्रमाणोंसे झात करते रहनेकी वह आकांक्षा रहती है किंतु शतिरूप फलके उत्पन्न होते ही ज्ञानोंके जाननेकी आकांक्षा दूर हो जाती है । अतः वह नहीं जाना हुआ भी फलरूप विशेषणज्ञान अपने विशेष्यके ज्ञानका ज्ञापक हेतु शे जाता है । ग्रंथकार कह रहे हैं कि इस प्रकार नैयायिकोंका कहना भी कोरी याद है । क्योंकि आपने अपने दर्शनशासमें विशेषणके ज्ञानको विशेष्य ज्ञानका कारक हेतु इष्ट किया है । और अब फंस कर अनुपाय दशाम ज्ञापक हेतु स्वीकार कर रहे हैं । यह अपसिद्धांत नहीं तो क्या है ।।
प्रमाणत्वात्तस्य ज्ञापकं तदित्यप्यसारं साधकतमस्य कारकाविशेषस्य प्रमाणत्ववचनात् ।
पसिवादी कहता है कि विशेषणका शान यथापि. विशेषणके साथ हुये इंद्रियोंके सनिक कर प्रमाणका फल है किंतु विशेष्यकी ज्ञप्तिका कारण भी है । अतः वह विशेषणज्ञान प्रमाण हो जाने के कारण विशेष्यका ज्ञापक हेतु हो जाता है। यह भी नैयायिकोंका कहना निस्सार है क्योंकि प्रमितिको अत्यंत प्रकृष्टरूपसे साधनेवाले विशेष कारकको आपने प्रमाण होना कहा है। आपके मनसे यो विशेष्यके साथ इंद्रियोंका सनिकर्ष ही विशेष्यकी चसिका जनक हो रहा प्रमाण हो सकता है। विशेषणशान नहीं ।
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चिन्तामणिः
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नहि विशेषणज्ञानं प्रमाणं विशेष्यज्ञानं तत्फलमित्यभिदधानस्तत्तस्य ज्ञापकमिति मन्यते । किं तर्हि ? विशेष्यज्ञानोत्पत्तिसामग्रीत्वेन विशेषणज्ञानं प्रमाणमिति, तथा मन्यमानस्य च कानवस्था नामोति । तदेतदपि नातिविचार सहम्, एकात्मसमवेतानन्तरज्ञानग्राममर्थंज्ञानमिति सिद्धान्तविरोधात्, यथैव हि विशेषणार्थज्ञानं पूर्वे प्रमाणफलं प्रतिपत्तुराकाङ्क्षानिवृत्तिहेतुत्वान्न ज्ञानान्तरमपेक्षते तथा विशेष्यार्थज्ञानमपि विशेषणज्ञानफलत्वात्तस्य ।
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जैनोंके प्रति पुनः नैयायिक कहते हैं कि विशेषण के ज्ञानको प्रमाण और विशेष्य के ज्ञानको उसका फल यों कहनेवाला नैयायिक वह विशेषणज्ञान उस विशेष्यका ज्ञापक है ऐसा नहीं मान रहा है तो क्या मानता है ? इसका उत्तर सुनिये ! विशेष्मज्ञानकी उत्पत्ति एक विशेषणज्ञान भी कारणसामग्री में पड़ा हुआ है अतः सामान्य कारण होते हुए भी विशेषणज्ञान प्रमाण है । इस प्रकार ऐसे माननेवाले नैया का हुआ ! आचार्य कहते हैं। कि इस प्रकार वह नैयायिकका कहना भी परीक्षारूप विचारको अधिक सहन नहीं कर सकता है। क्योंकि नैयायिकों का सिद्धांत है कि घट आदिक अथका ज्ञान उसी एक आत्मामें समवायसम्बंचसे रहनेवाले अव्यवहित द्वितीय क्षणवर्ती ज्ञानके द्वारा ग्राह्य हो जाता है । जब कि नैयायिक विशेषणज्ञानको विशेष्यज्ञानका कारण मानते हैं और कारण अव्यवहित पूर्व समयमें रहता है । ऐसी दशा कार्य और कारणरूप दोनों ज्ञान अंधेरे में पढे हुए हैं। जिस समय आप विशेष्यज्ञान होना मानते हैं उस समय तो विशेषण ज्ञानको जाननेवाले द्वितीय ज्ञानके उत्पन्न हो जानेका अवसर है | अतः उक्त सिद्धांन्ससे विशेष आया, और जैसे ही विशेषणरूप अर्थका ज्ञान पहिले विशेषण और इंद्रिय के सन्निकर्षरूप प्रमाणका फल हो चुका है, वह ज्ञाताकी आकांक्षाओंकी निवृत्तिका हेतु हो जानेसे दूसरे ज्ञानोंकी अपेक्षा नहीं करता है, वैसे ही विशेष्यरूप अर्थका ज्ञान भी उस विशेषण ज्ञानरूप प्रमाणका फल हो जानेके कारण अपने जाननेमें दूसरे ज्ञानोंकी अपेक्षा न करेगा । ऐसा माननेपर अनवस्था दोष तो इट गया किंतु आपका यह सिद्धांत कहां रहा कि पहिला ज्ञान दूसरे ज्ञानसे अवश्य जाना जाता है। विशेष यह है कि नैयायिक लोग बीचमे पडे हुए विशेषणज्ञानको दण्ड आदिक विशेषणोंके साथ हुए चक्षुरादिक इंद्रियोंके सन्निकर्षका प्रमाणरूप फल मानते हैं और भविष्यमें होनेवाले विशेष्यज्ञानका कारण मानते हुए विशेषणज्ञानको प्रमाण भी मानते हैं।
यदि पुनर्विशेषणविशेष्यार्थज्ञानस्य स्वरूपापरिच्छेद करवाहस्वात्मनि क्रियाविरोधादपरज्ञानेन वेद्यमानतेष्टा तदा तदपि तद्वेदकं ज्ञानमपरेण ज्ञानेन बेयमिष्यतामित्यनवस्था दुःपरिहारा |
यदि नै
फिर थों कहेंगे कि विशेषणरूप अर्थ और विशेष्यरूप अर्थका ज्ञान अपने स्वरूपका ज्ञापक नहीं है क्योंकि जानने रूप कियाका जानना रूप में ही होनेका विरोध है ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
जैसे कितनी भी पैनी तलवार क्यों न हो, अपनेको स्वयं नहीं काटती है । कैसा भी सीखा हुआ नटका छोकरा हो, वह आप ही अपने कंधे पर नहीं चढ जाता है। भक्षण रूप किया स्वयं अपना भक्षण नहीं कर सकती है। इसी प्रकार ज्ञान स्वयं अपनेको नहीं जान सकता है। अतः ज्ञानका जाना गया पना हम दूसरे ज्ञानसे इष्ट करते हैं । वादी आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकों के कहने पर तो अनवस्था होती है। क्योंकि जो ज्ञान पहिले ज्ञानका ज्ञापक है वह तीसरे ज्ञानसे जाना गया होना चाहिये और वह तीसरा चौथे ज्ञानसे परिच्छेद्य होना चाहिये तब कहीं पहिला ज्ञान जाना जा सकता है । इस अनवस्थाका परिहार करना आपके लिये अत्यंत कठिन पड गया है । आपने अपने स्वयं क्रियाका विरोध दिया था सो ठीक नहीं है । देखो। अभि स्वयं अपनेको जला देती है । मैथीका शक अपनी गर्मी से अपने आप झुलस जाता है। दीपक, सूर्य स्वयं अपना प्रकाश करते हैं? अच्छा अभ्यासपद है, तभी तो अपने नवीन उत्पन्न किये अनुभवको पुस्तकमै टिप्पण कर लेता है । अनेक वैद्य स्वयं अपने आप चिकित्सा कर लेते हैं । निश्चय नयसे सम्पूर्ण पदार्थ अपने में स्वयं आप व्यवस्थित हो रहे हैं। वास्तव में क्रियावान् और क्रियामै ही क्रिया रहती हैं । अतः जानना रूप ज्ञानकिया भी ज्ञानमें आनंदके साथ रह सकती है । नट छोराकी पीठकी हड्डी मुडही नहीं, अतः वह अपने कंधे पर नहीं बैठ पाता है । गोह, गिलहरी, विच्छु, सांप अपने पिछले भागको कंधोपर घर सकते हैं। पेनी कैचीको खाकी जोरसे चलाया जाय तो स्वयं अपने को काट डालती है । दृष्टांतोंसे तत्त्व निर्णय नहीं होता है । जगतमें उदाहरण सभी प्रकारके मिल जाते हैं। सज्जनोंको सञ्जनोंके और दुर्जनों को दुर्जनोंके दृष्टान्त भरे पढे हैं।
I
नन्वर्थज्ञानपरिच्छेदे तदनन्तरज्ञानेन व्यवहर्तुराकांक्षाश्रयादर्थज्ञानपरिच्छित्तये न ज्ञानांवरापेक्षास्ति, तदाकांक्षया वा वदिष्यत एव । यस्य यत्राकांक्षाक्षपस्तत्र तस्य ज्ञानांतरापेक्षानिवृत्तेस्तथा व्यवहारदर्शनात्ततो वानवस्थेति चेत्, तर्थर्थज्ञानेनार्थस्य परिच्छितों कस्यचिदाकांक्षाक्षया तज्ज्ञानापेक्षाऽपि माभूत् ।
अनवस्था दोष परिहारके लिये नैयायिक अनुनयसहित प्रयत्न करते हैं कि पहिले अर्थज्ञानको जानने में उपयोगी उसके अव्यवहित उत्तरवर्ती दूसरे ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। बस ! उस दूसरे ज्ञानसे ही ज्ञाता व्यवहारीकी अकांक्षा निवृत्त हो जाती है। अतः उस दूसरे ज्ञानको जानने के लिए तीसरे चौथे ज्ञानों की अपेक्षा नहीं होती है। ऐसा कौन ठलुआ बैठा है ! जो व्यर्थ ही अपने ज्ञानको जाननेकी इच्छाओंको बढाता रहे। हां! यदि कोई उन तीसरे चौथे ज्ञानोंके जानने की इच्छा करेगा तो हम उन चौथे, पांचमे ज्ञानोंका उत्पन्न होना इष्ट करते ही हैं। जिस व्यक्तिको जहां कहीं जाकर आकांक्षाकी निवृत्ति हो जावेगी उस व्यक्तिके वहां तकके ज्ञापक कई ज्ञान मान लेवेंगे और तैसा व्यवहार भी हो रहा देखा जाता है। जैन लोगों को भी ज्ञानोंके जानने की आकांक्षा होनेपर सौ और पांच सौ तक भी ज्ञान मानने पडेंगे। अन्य कोई उपाय नहीं है,
फलमुख गौरव
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
दोष नहीं माना गया है। इस कारण से हमारे ऊपर अनवस्था दोष नहीं है। क्योंकि कहीं न कहीं आकांक्षा शांत हो ही जावेगी । आचार्य कहते हैं कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे तब तो पहिले अर्थ ज्ञानकरके अर्थकी ज्ञप्ति हो जानेपर इतने से ही किसी एककी आकांक्षा शांत हो जावे यों तो पहिले ज्ञानको जानने के लिए दूसरे ज्ञानकी भी अपेक्षा न होवे, क्योंकि जहां आकांक्षा टूट जावेगी, वहीं आप दूसरे ज्ञानोंका उत्पन्न होना रोक देते हैं। ऐसी दशामें अर्थका ज्ञान नवव्यहित उत्तरवर्ती ज्ञान से है इस आपके ही सिद्धांतसे आप नैयायिकोंको विशेष बना रहा ||
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तथेयत एवेति चेत्, परोक्षज्ञानवादी कथं भवता अतिशय्यते १ ।
नैयायिक कहते है कि हम ऐसा इष्ट करते ही हैं, अर्थात यदि आकांक्षा न होवे तो महिले ज्ञानको जानने के लिए भी दूसरा ज्ञान नहीं उठाया जाता है । स्वयं अन्धेरे में पढा पहिला घटज्ञान ही घटको जान लेता है, भविष्य में घटज्ञानको जानने के लिए किसी ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है । इस पर तो आचार्य कहते हैं कि ऐसी दशा में ज्ञानको परोक्ष माननेवाले मीमांसकों के साथ आपकी क्या कैसी विशेषता रही ? बतलाइए ! भावार्थ मीमांसक भी पहिले ज्ञान आदि सब ज्ञानोंका प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं। परोक्षज्ञानद्वारा ही घट आदिकका प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हैं । यदि किसीको ज्ञानके जाननेकी आकांक्षा हो जाये तो ज्ञानजन्य ज्ञाततासे ज्ञानका अनुमान होना मीमांसक इष्ट करते हैं, वैसा ही परोक्षपन आप मान रहे हैं, अतः मीमांसक और आपके मन्तव्य में कोई अतिशय नहीं रहा । पहिले ज्ञानको दोनोंने परोक्ष मान लिया है ।
ज्ञानस्य कस्यचित्प्रत्यक्षत्वोपगमादिति चेत्, यस्या प्रत्यक्षतोपगमस्तेन परिच्छिन्नोऽर्थ कथं प्रत्यक्षः १ सन्तानान्तरज्ञान परिच्छिन्नार्थवत् ।
L
नैयायिक बोलते हैं कि मीमांसकोंसे हमारे मन्तव्य में यह अधिक अतिशय है कि हम किसी किसी ज्ञानका दूसरे ज्ञानोंसे प्रत्यक्ष होना मान लेते हैं किन्तु भीमांसक दो किसी भी ज्ञानका प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं। ज्ञानोंके मत्यक्ष हो जानेके भयसे वे सर्वज्ञको भी नहीं स्वीकार करते हैं घट, पट, पुस्तक आदिकका प्रध्यक्ष भले ही हो जावे किन्तु इनको जाननेवाले ज्ञानोंका तथा मनु, जैमिनि, भट्ट, प्रभाकरोंकों मी अपने ज्ञानोंका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है । हां ! इच्छा होनेपर वे उन ज्ञानोंका अनुमान कर लेते हैं । हम नैयायिक तो घटके ज्ञानका दूसरे ज्ञानसे प्रत्यक्ष होना और सर्व ज्ञानका सर्वज्ञके दूसरे ज्ञानसे प्रत्यक्ष होना मानते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि आप नैयायिक ऐसा कहोगे तो जाननेकी आकांक्षा न होनेपर जिस ज्ञानका आपने प्रत्यक्ष होना नहीं माना है, उस ज्ञानसे जाने गये अर्थका प्रत्यक्ष कैसे होगा ? बताओ । जैसे कि अन्य संतान माने गये देवदत्तके द्वारा जाने जाचुके अर्थका जिनदत ज्ञान नहीं कर सकता है, क्योंकि जिनददेव के ज्ञानका स्वयं प्रत्यक्षज्ञान नहीं है । उसी प्रकार स्वयं देवदतके ज्ञानका देवदत्तको
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सत्यार्थचिन्तामणिः
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जब प्रत्यक्ष नहीं है तो देवदत्त अपने उस अप्रत्यक्षज्ञानद्वारा भर्थका प्रत्यक्ष कैसे कर सकता है ! यानी नहीं।
प्रत्यक्षतथा प्रतीवेरिति चेत्, तीप्रत्यक्षज्ञानवादिनोऽपि तत एवार्थः प्रत्यक्षोऽस्तु तया चानर्भिका सर्वज्ञज्ञानस्य पानान्तरप्रत्यक्षत्वकल्पना ।
अप्रत्यक्ष ज्ञानसे भी अर्थका प्रत्यक्ष हो जानेपनेसे प्रतीति होना देखा जाता है। अतः पहिले अप्रत्यक्ष ज्ञानसे भी अर्थका प्रत्यक्ष हो जाना बन जावेगा। यदि नैयायिक ऐसा कहेगे तब तो जानका प्रत्यास नहीं कहनेवाले मीमांसकके भी उसी अप्रत्यक्ष ज्ञानसे अर्थका प्रत्यक्ष करना हो जामो। और वैसा हो जानेपर फिर सर्वज्ञके ज्ञानको दूसरे ज्ञानसे प्रत्यक्षकी नैयायिककी कल्पना व्यर्थ पडेगी। नैयायिकोंने ईश्वर के दो ज्ञान माने हैं। एकके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोका प्रत्यक्ष करता है। और दूसरे ज्ञानसे उस ज्ञानका प्रत्यक्ष कर लेता है। किंतु जा नैयायिक अप्रत्यक्ष ज्ञानसे ही अर्थका प्रत्यक्ष हो जामा मानते हैं तो स्वयं अप्रत्यक्ष भी अकेला ईश्वरका ज्ञान चराचर जगत्का प्रत्यक्ष कर लेगा, प्रत्यक्ष द्वारा सर्वको जानना स्वरूप सर्वज्ञत्वको रक्षित करनेके लिये प्रथम ज्ञानका ज्ञानान्तरसे प्रत्यक्ष होते रहनेकी कल्पना व्यर्थ है । हिंदुस्थानके एक महाराजा विलायतसे पदिया गाय लाये जो कि प्रतिदिन छ। घडी दूध देती थी। उसको गर्भिणी करने और नस्लको ठीक रखनेके लिये सद्ध सांड मी लाना पड़ा, जिसका उपयोग वर्ष में मात्र एक दिन, और दैनिक व्यय गायसे भी अत्यधिक । मितव्ययीको ऐसा अपव्यय खटकता है । यों ईश्वरमें दूसरे ज्ञानको माननेकी कोई मावश्यकता नहीं है।
यत्र यथा प्रतीतिस्तत्र तथेष्टिर्न पुनरप्रतीतिकं किञ्चित्करप्यत इति चेत, स्वार्थसंवेदफवाप्रतीतितो ज्ञानस्य तथेष्टिरस्तु ।
नैयायिक कहते है कि जहां जैसा अक्सर देखा जाता है वह वैसे ही पैतरा नदल दिये जाते हैं । जिस प्रकारसे जहां अोंके और ज्ञानोके प्रत्यक्ष होनेको प्रतीति होती दीखे वहां वैसा ही हम इष्ट कर लेते हैं। हां, फिर जो कभी प्रतीतिमें नहीं आता है ऐसे किसी मी पदार्थकी हम कसना नहीं करते हैं। सर्वज्ञज्ञानको जानने के लिये दूसरे शानकी आव. श्यकता है किन्तु संसारी जीवोंके किसी किसी ज्ञानमै ज्ञानान्तरकी अकांक्षा नहीं होती है। अन्धकार कहते है कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे, तब तो प्रत्येक ज्ञानको अपने और अर्थके बदिया ज्ञापकपनेकी प्रतीति हो रही है । तो इस कारण फिर ज्ञानको उसप्रकार अर्थ और अपना दोनोंका परिच्छेदी क्यों न मान लो ! समीचीन प्रतीति के अनुसार तो आपको चलना चाहिये। बेसा इष्ट करनेको आप स्वीकार भी कर चुके हैं।
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तात्या चिन्तामणिः
ज्ञाने स्वसंवेदकताप्रतीतेः स्वात्मनि क्रियाविरोधन पायवस्पान सपरिशिश पत्, का पुनः स्वास्मनि क्रिया विरुद्धा परिस्पन्दरूपा धात्वर्थरूपा वा १ प्रथमपक्षे तस्या द्रव्यप्रतित्वेन जाने तदभावात्, धास्वर्थरूपा तु न विरुदेव भवति तिष्ठतीत्यादिक्रियायाः स्वात्मनि प्रतीतेः । कथमन्यया भवत्याकाशं, तिष्ठति मेरुरित्यादि व्यवहारः सिवयेत् ? ।
प्रतिवादी कहता है कि ज्ञानरूप स्वास्लामें जाननारूप क्रियाके विरोध करके ज्ञानमै स्वसंवेदकताकी प्रतीति जैनोंकी बाधित हो जाती है अर्थात् ज्ञानमें अपने आप जाननेकी क्रिया होनेका. विरोध है । इस कारण ज्ञान स्त्र को वेदक माननेकी प्रतीतिमें बाधा उपस्थित है। अतः उस प्रकार अपनेको और अर्यको जाननेवाला ज्ञान हम इष्ट नहीं करते हैं। ज्ञान केवल अर्थको ही जानता है ऐसा कहनेवाले नैयायिकोंसे तो पूछते हैं कि फिर भला कौनसी क्रिया अपने भाप अपनी आत्मामें रहनेका विरोध कर रही है । बताओ, क्या हलनचलनरूप किया अपने स्वरूपमें नहीं रहती है ! अथवा स्था, अस्, वृध, चकास्, आदि धातुओंके स्थित रहना, या विद्यमान रहना या पढना, प्रकाशित होना आदि अर्थरूप किया अपनी आत्मामें नहीं रहती हैं ! उत्तर कहिये ।
यदि पहिला पक्ष लोगे तो वह हलनचलनरूप क्रिया आपके और हमारे मतानुसार गुन्यों में रहती मानी गयी है । ज्ञानमें उसकी सत्ता ही असम्भव है । हा दूसरा पक्ष लेने पर धातुओंके अर्थरूप क्रियाएं तो विरुद्ध नहीं होती हैं। देखिये, गृह ठहरा हुआ है, देवदत्त बढ रहा है, दीपक प्रकाश रहा है आदि घास्वरूप क्रियाएं अपनी आस्मामें ही होती हुयीं जानी जाती है। यदि ऐसा न स्वीकार कर अन्य प्रकार मानोगे तो बताओ कि आकाश है, मेरु ठहर रहा है, वायु बह रही है, जिनदत्त जाग रहा है, इत्यादि व्यवहार किस प्रकार सिद्ध होते ! वस्तुतः क्रिया और क्रियानका भभेद है। क्रियावान्में ठहर रही क्रिया स्वयं क्रिया ही पायी जाती है । विरोध नहीं है |
सकर्मिका धात्वर्थरूपापि विरुद्धा खात्मनीति चेत्, तर्हि शान प्रकाशते चकास्तीति क्रिया न स्वात्मनि विरुद्धा?
प्रतिवादी कहता है कि अकर्मक धातुओं की क्रियाएं अपने अभिन्न काम म ही विरुद्ध न हों क्योंकि उनको दूसरा कोई शरण नहीं है किंतु किया स्वयम नहीं ठहर पायेगी। तद्वत् सक धातुओंकी अर्थरूप क्रियाएं भी तो अपनी आत्मामें रहनेका अवश्य विशेष करती हैं। जैसे देवदास मातको पकाता है । यहां पकानारूप क्रिया स्वयं अपने या देवदचमें नहीं रहती है किंतु कर्ता और क्रिया इन दोनोंसे सर्वथा मित्र हो रहे मातरूप कर्ममें ठहरती है। ऐसे ही देवदत्त मातको ला रहा है यहां खानारूर क्रिया भी स्वयं अपने आपमें नहीं रहती है। ऐसे ही जान ज्ञानको जानता है । यह सकर्मक क्रिया भी अपने आपमें नहीं रह सकती है। आचार्य कहते हैं कि यदि
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तत्त्वापिसामाणः
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नैयायिक ऐसा कहेंगे तब तो पराशन और प्रतिभागना किसानको भकक है, हाच ज्ञान प्रकाश रहा है, ज्ञान प्रतिमास रहा है, दीप प्रकाश रहा है ये अकर्मक क्रियाएं तो ज्ञानकी स्वात्मामें विना विरोधके ठहर जावेगी। अभेदपक्षमै ठीक व्यवस्था बन जाती है । वस्तुव्यवस्था और नय पद्धसिपर लक्ष्य रखो।
ज्ञानमात्मानं जानातीवि सकर्मिका तत्र विरुद्धेति चेम, आत्मानं हन्तीत्यादेरपि विरोधानुषङ्गात् ।
ज्ञान अपनेको जान रहा है, ऐसी सकर्मक ज्ञाघातकी क्रिया तो ज्ञान विरुद्ध ही है, यह आप प्रतिवादी जन नहीं कहना। क्योंकि यों तो देवदत्त अपने आपको मारता है, इंद्रदत्त अपने आपको जीवित रखता है, द्रव्य अपनेको त्रिकालमै विद्यमान रखता है इत्यादि क्रियाओंका मी अपने साथ विरोध करने का प्रसङ्ग होगा, जो कि आपको भी इष्ट नहीं है ।
कर्टवरूपस्य कर्मस्पेनोपचारामात्र पारमार्थिक कर्मेति चेत्, समानमन्धत्र, ज्ञाने करि स्वरूपस्यैव धानक्रियायाः कर्मतयोपचारात् ।
पतिवादी कहता है कि देवदत्त अपनी हिंसा कर रहा है या अपनेको जीवित रखता है। यहां वास्तविक रूपसे देवदत्त स्वयं कर्म नहीं है किंतु कर्तारूप देवदत्तको उपचारसे कर्म होजावे करके कह दिया गया है। अब आचार्य कहते हैं कि यदि तुम नैयायिक ऐसा कहोगे तो दूसरी जगह हम भी ऐसा ही समानरूपसे कह सकते हैं अर्थात् जान अपनेको जानता है यहां मी कर्ताको ही गौणपनसे कर्म बना दिया गया है । ज्ञानरूप काम आपको ही जानने रूप क्रियाका कर्मपना न्यवद्धृत कर लिया गया है। वास्तवमें देखा जाय तो ज्ञान अपनेको मुख्य रूपसे जानता है, विषयका आनना तो उसका गौण कार्य है। दीपक और सूर्यका मुख्य कर्तव्य स्वप्रकाशन है पदार्थोंका प्रकाशन होजाना तो उनका विना प्रमनके छोटा कार्य है।
ताविकमेव झाने कर्मस्वं प्रमेयत्वात्तस्येति चेत्, तथदि सर्वथा कर्तुरभियं तदा विरोधः, सर्वथा मित्रं चेत्कथं तत्र ज्ञानस्य जानातीति क्रिया स्वात्मनि स्थाधेन विरुध्येत? कथमन्यथा कर्ट करोतीति क्रियाऽपि कटकारस्य स्वात्मनि न स्यायतो न विरुध्यते ।
योग कहते हैं कि ज्ञानमें तो कर्मपना वास्तविकरूपसे ही है क्योंकि वह प्रमितिरूपक्रिया का कर्म है । तमी तो आपके मतानुसार वह स्वयं अपना प्रमेय हो सकता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम पूंछते हैं कि वह कर्मपना यदि कतैसे सर्वथा अभिन्न है तब तो नैयायिकको अपने मतसे विरोध हुमा क्योंकि भेदवादी नैयायिकोंके मतमें एक ही पदार्थ में कापन मौर मेपन नहीं माना गया है।
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तत्वार्थ चिन्तामणिः
तो
कर्म कसा भिन्न मानोगे तो ज्ञानकी जाननारूप क्रिया वहां स्वात्मामें कैसे पायी गयी ? बताओ । जिससे कि स्वामा कियाके रहने विरोन को सकर्मक धातुओंकी चटाईको बना रहा है, यह क्रिया भी चटाई बनानेवालेकी स्वात्मामें कैसे न रहेगी ! जिससे कि विशेध न हो सके । भावार्थ-- सर्वथा भेदपक्षमें तो पद पद पर क्रियाका विरोध हो जावेगा । संसारका कोई भी कार्य न हो सकेगा । सब स्थानोंमें अपने से अपना विरोध हा जावेगा । एकांत भेदपक्ष इस कार्यका यह कर्ता है, इस क्रियाका यह कर्चा है ऐसा व्यवहार भी न हो सकेगा ।
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कर्तुः कर्मत्वं कथञ्चिद्भिनमित्येतस्मिंस्तु दर्शने ज्ञानस्यात्मनो वा स्वात्मनि क्रिया दूरोत्सारितैवेति न विरुद्धतामधिवसति ।
यदि जैनोंके सदृश कर्ता कर्मपना कथञ्चित् भित्र है और कथञ्चित् अभिन्न है इस प्रकारका सिद्धांत मानोगे तब तो ज्ञानका या आत्माका अपनी आत्मामें क्रिया करना दूर फैक दिया गया ही है। अर्थात् ज्ञान अपनेको जानता है, यहां ज्ञानमें ज्ञप्ति, ज्ञापक और ज्ञेय अंश न्यारे न्यारे हैं। संवेद्य, संवेदक और संवित्ति इन तीनों अंग्रोंके पिण्डको ज्ञान माना है । अतः जानना ज्ञप्ति अंश हो रहा है। माना गयापन ज्ञेय अंश हो रहा है और जाननेका कर्ता ज्ञापक अंश है । इसप्रकार कोई भी विरुद्धपनेको प्राप्त नहीं होता है |
ततो ज्ञानस्य स्वसंवेदकता प्रतीतेः स्वात्मनि क्रियाविरोधो वाधकः प्रत्यस्तमितषाप्रतीत्यास्पदं चार्थसंवेदकत्ववत्स्वसंवेदकत्वं ज्ञानस्य परीक्षकैरेष्टव्यमेव ।
इस कारण से अब तक सिद्ध हुआ कि ज्ञान का वेदन करता है ऐसी प्रतीति हो रही है । अतः अपनी आलामें अपनी क्रियाका होना विरुद्ध है इस प्रकारका भाषक दोष पहिली निर्वाध प्रतीति अनुसार स्वयं बाधित हो जाता है। जो बाधक स्वयं माध्य होनेका स्थान है वह प्रतीतिसिद्धविषयों में क्या बाधा देगा ! यदि नैयायिक परीक्षा करके पदार्थोंकी व्यवस्था मानेगे तो ज्ञान जैसे अर्थको जानता है उसी प्रकार अपनेको जानता है । यह भी नैयायिकोंको अच्छी तरह इष्ट कर लेना चाहिए । परीक्षकों को यह बात अभीष्ट करनी पडती है कि ज्ञानका स्वसंवेकपना चारों ओरसे नष्ट कर दिये गये हैं, बाधक जिनके ऐसी प्रतीतिओंका स्थान है। इससे अधिक क्या कहा जाने !
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प्रतीत्यननुसरणेऽनवस्थानस्य स्वमतविरोधस्य वा परिहर्तुमशक्तेः ।
यदि नैयायिक लोग प्रमाणसिद्ध प्रतीतियों के अनुसार नहीं चलेंगे, किन्तु अवसरके अनुसार पैंतरा बदलेंगे तो उन्हें ज्ञानोंको ज्ञानन्तरोंसे जानते जानते अनवस्था दोष अवश्य लगेगा
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नार्धचिन्तामभिः
और सर्वथा मेrपक्ष माननेवाले नैयायिकको कर्ता और कर्मके अभेद माननेपर अपने मतसे विरोध मी न जावेगा। तथा च यह अपसिद्धान्त दोष हुआ। इन दोनोंका परिहार, नैयाबिक नहीं कर सकते हैं ।
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.वतो न जात्मवादिनां ज्ञानवानहमिति प्रत्ययो ज्ञाताहमिति प्रत्ययवत् पुरुषस्य ज्ञानविशिष्टस्य ग्राहकः ।
उस कारण ज्ञानसे भिन्न अतएव जरूप आत्मा को माननेवाले नैयायिकों के यहां "मैं ज्ञानवाला हूं" इस प्रकारकी प्रतीति तो ज्ञानसहित आत्माको ग्रहण करानेवाली नहीं है । जैसे कि मैं ज्ञाता हूं यह प्रतीति आकाश, काल आदिकको छोकर आत्माको ही ज्ञानसहितपना सिद्ध नहीं करा सकती है ।
किं चाहंप्रत्ययस्यास्य पुरुषो गोचरो यदि ।
तदा कर्ता स एव स्यात् कथं नान्यस्य सम्भवः ॥ २०५ ॥
दूसरा दोष यह भी है कि मैं मैं इस प्रतीतिका विषय यदि आत्मा माना जावेगा तो वह प्रमेय हो जावेगा, क्योंकि जो प्रतीतिका विषय होता है वह पदार्थ प्रमा करनेके योग्य प्रमेय होता है, तब तो वही आत्मा महा कर्ता कैसे हो सकेगा ? आप नैयायिकों के मत से प्रमेय और ममाता दोनों एक पदार्थ नहीं हो सकते हैं। एक आत्माके स्थानपर दूसरा आत्मा विद्यमान नहीं है जिससे कि एक आमा प्रमेय होवे और दूसरा आसमा प्रमाता सम्म हो सके । अन्य आत्मा के यह बात नहीं सम्भवती है ।
कश्चास्याप्रत्ययस्य विषय इति विचार्यैते । पुरुषश्रेत् प्रमेयः प्रभाता न स्यात् । न हि स एव प्रमेयः स एव प्रभाता, सकदेकस्यैकज्ञानापेक्षया कर्मस्वकर्तृत्वयोर्विरोधात ।
और भी कहना है कि मैं को जाननेवाले इस ज्ञानका विषय क्या है ? इस बातका विचार करते हैं । यदि मैं के ज्ञानका विषय आत्मा माना जावेगा ऐसा कहनेपर तो वह आत्मा जानने योग्य प्रमेय हो जावेगा । जाननेवाला प्रमाता न हो सकेगा । वही आत्मा प्रमेय हो जावे और वही आत्मा प्रमाता भी हो जाये, ऐसा हो हो नहीं सकता है। क्योंकि नैयायिकों के मससे एक समय एक ज्ञानकी अपेक्षासे एक आत्माको प्रमितिक्रियाका कर्मपना और कर्तापनका विरोष है। मैयायिकोंने किसी प्रकरण में प्रमिति, प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय ये चार ही भिन्न भिन्न तत्त्व माने हैं। एक में दूसरेका सांकर्य नहीं माना है ।
ततोऽन्यः कर्त्तेति चैत्र, एकत्र शरीरे आनेकात्मानम्युपगमात् तस्याध्यप्रत्ययनियस्वे ऽपरक परिकल्पनानुपङ्गादनवस्थानादेकात्मज्ञान (पेक्षायामात्मनः प्रमातृत्वानुपपत्तेब नान्यः कर्ता सम्भवति यतो न विरोधः ।
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तस्वाचिन्तामणिः
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उस पमेयरूप आत्मासे प्रमातारूप कर्ता यदि भिन्न मानोगे सो यह तो ठीक नहीं है क्योंकि नैयायिकोंने एक शरीरमें अनेक आत्माएं नहीं स्वीकार की हैं। यदि एक शरीरमें दूसरा आत्मा मानोगे तो वह आत्मा भी “ मैं मैं " इस ज्ञानका विषय होयेगा । अतः प्रमेय हुआ। तथा च उस आत्मा प्रमेयके लिए तीसरे कारूप पमाता आत्माकी कल्पना करनी पडेगी। तीसरा आस्मा मी अहं ज्ञानसे जाना जावेगा । उस प्रमेयके लिये भी चौथा न्यारा प्रमाता आत्मा कसित करना पडेगा। ऐसा करते करते अनवस्था दोष हो जानेका प्रसङ्ग आवेगा तथा जिस समय आत्मा स्वयं जाना जा रहा है उस एक आमाको अपने ज्ञानकी अपेक्षासे प्रमातापन बन नहीं सकता है । उस समय तो वह प्रमेय है | दूसरा कोई आत्मा वहां सम्भवता नहीं है जो कि कर्ता बन जावे।
और जिससे कि विरोष होना टल सके। भावार्थ--एक आत्मामें कर्ता और कांपनेका विशेष रहेगा ही, यह नैयायिकोंके लिये विषम समस्या उपस्थित है।
स्वस्मिन्नेव प्रमोत्यत्तिः स्वप्रमातृत्वमात्मनः । प्रमेयत्वमपि स्वस्य प्रमितिश्चेयमागता ॥ २०६ ॥
अपनी आत्माकी प्रमितिका अपनेमे ही उत्पन्न हो जाना अपना प्रमाणपन है एवं आत्माके स्वकी प्रमितिका कापन है, और वहीं अपनेको जानना प्रमेयपना भी है, तथा जानना यही अपनी प्रमिति भी हुयी इस तरह एक ही आत्मामै तीनों या चारों धर्म आगये यही तो जैनसिद्धांत है।
यथा घटादौ प्रमितेरुत्पत्तिस्तत्प्रमातृत्वं पुरुषस्य, तथा स्वस्मिभव तदुत्पत्तिः स्वप्रमातत्वं, यथा च घटादेः प्रमिती प्रमेयत्वं तस्वैव, तथात्मनः परिच्छित्तौ स्वस्यैव प्रमेयस्वम्, यथा घटादेः परिच्छत्तिस्तस्यैव प्रमितिस्तथात्मनः परिच्छिधिः स्वप्रमितिः प्रवीविषला दागवा परिहर्तुमशक्या ।
इस वार्तिकका भाष्य यों है कि जैसे घट, पट भाविकको विषय करनेवाली प्रमितिका उत्पन्न हो जाना ही आत्माको उसका प्रमातापन है वैसी ही अपने आप में ही अपनी प्रमितिकी उत्पत्ति हो जाना आत्माका अपना प्रमालापन है। और जैसे अपनी प्रमिति होने पर घट आदिकको प्रमेयपना है वैसे ही आस्माकी शप्ति होनेपर स्वयं उस आत्माको ही प्रमेयपना है। तीसरे जैसे घट, पट आदिकी समीचीन ज्ञप्ति होजाना ही उनकी प्रमिति है वैसे ही आत्माकी ज्ञप्ति मी आत्माकी प्रमिति है । यह बास प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतियों के बलसे प्राप्त हो जाती है । इसका कोई निवारण नहीं कर सकता है। द्रव्यार्थिक नयसे चारों धर्म एक आत्मा संघटित हैं।
तथा चैकस्य नानात्वं विरुद्धमपि सिद्धयति । न चतस्रो विधास्तेषां प्रमात्रादिप्ररूपणात् ॥ २०७॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
यो प्रतिपादन करनेपर इस कारण प्रसिद्ध हुआ कि एक पदार्थ में भी विरुद्ध अनेक स्वभाव सिद्ध होजाते हैं वास्तवमे वे विरुद्ध नहीं हैं, केवल ऊपरी दृष्टिसे विरुद्ध सरीखे दीखते हैं । अतः उन प्रमाथा आदि यानी प्रमाता, प्रमिति, प्रमेय और प्रमाण यों निरूपण करनेसे चार भेद नहीं करने चाहिये | मात्रार्थ - जिनका परस्पर में सांकर्य हो जाता है उनमें तस्वभेद नहीं होता है । यहां भी हो जाता है। गीयन आता है । प्रमिति मी प्रमाणस्वरूप है । अतः नैयायिकों को प्रमाता आदि चार तत्त्व मानना युक्त नहीं है । हां सापेक्ष चार धर्म कह सकते हो ।
प्रमात्रादिप्रकाराश्चत्वारोऽप्यात्मनो भिन्नस्ततो नैकस्यानेकात्मकत्वं विरुद्धमपि सिद्धयतीति चेत् न, तस्य प्रकारान्तरत्वप्रसङ्गात् ।
अब नैयायिक कहते हैं कि प्रमाता, प्रमिति, प्रमाण और प्रमेय ये चारों ही भेद आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं । इस कारणसे एकको अनेक विरुद्ध भी धर्मोका सादात्म्यपना सिद्धू नहीं हो पाता
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है । अंधकार कहते हैं कि यहष्टनका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस आत्माको न्यारा पांचव भेद बननेका प्रसंग आता है । भावार्थI -- जब कि आत्मासे वे चार तत्त्व भिन्न हैं तो आत्मा अवश्य ही उनमें से प्रमाता, प्रमेय आदि किसी में गर्मित न होकर पांचवा तत्त्व हुआ, आपके तत्त्वोंकी चारसंख्याका व्याघात हुआ ।
कर्तुत्वादात्मनः प्रमातृत्वेन व्यवस्थानात् न प्रकारान्तरत्वमिति चेत्, केयं कर्तृवा नामात्मनः १
आत्मा को कर्ता है इस कारण वह प्रमातारूपसे व्यवस्थित है। यों पांचवा भिन्न प्रकार होनेका प्रसंग नहीं आता है । यदि नैयायिक ऐसा करेंगे तो बताओ ? आत्माकी यह कर्तृत विचारी क्या वस्तु है ? |
प्रमितेः समवायित्वमात्मनः कर्तृता यदि ।
तदा नास्य प्रमेयत्वं तन्निमित्तत्वहानितः ॥ २०८ ॥ प्रमाणसहकारी हि प्रमेयोऽर्थः प्रमां प्रति । निमित्तकारणं प्रोक्तो नत्मैवं स्वप्रमां प्रति ॥ २०९ ॥
प्रभितिको समवायसंबंध से धारण कर लेना यदि आमाका कर्तापन है तब हो इस आमाको प्रमेयपना नहीं आ सकता है, क्योंकि प्रमेय होनेमें कारण प्रमितिक्रियाका निमित्त कारणपना है । जब कि आत्मा समवायिकारण पन गया तो प्रमेय बनने के कारण उस निमित्तपनेकी छानि हो गयी । प्रनितिक्रिया करने में जो अर्थ प्रमाणका सहकारी कारण होता है वह प्रमेय कहा
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
जाता है, किंतु इस प्रकार नैयायिकोंने आलाको अपनी प्रमितिके प्रति निमित्तकारण बिलकुल नहीं कहा है, अतः इस प्रकार आत्मामें अपना प्रमेयपना और प्रमातापन नहीं बन सकता है ।
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प्रमीयमाणो ह्यर्थः प्रमेयः प्रमाणसहकारी प्रमित्युत्पत्तिं प्रति निमित्तकारणत्वादिति वाणः कथमात्मनः स्वप्रमिति प्रति समवायिनः प्रमातृतामात्मसात्कुर्वतः श्रमेयत्वमाचचीत विरोधात् । न चात्मा स्वप्रमां प्रति निमित्तकारणं समवायिकारणत्वोपगमात् ।
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जो अर्थ निश्वयले प्रमाण के द्वारा जाना जा रहा है वह प्रमेय है क्योंकि प्रमिति की उत्पत्तिमें निमिचकारण हो जानेसे वह प्रमाणका सहकारी है । इस प्रकार कहनेवाला नैयायिक आत्माको प्रमेय मला कैसे कह सकता है क्योंकि आत्मा अपनी प्रमितिके प्रति समवायीकारण हो गया है | अतः प्रमातापनेको आत्माने अपना अधीन स्वभाव कर लिया है । जो प्रभितिका समवायी कारण बन चुका है वह उसीका निमिक्षकारण मला कैसे बन सकता है। क्योंकि विरोध है । और आस्मा अपनी प्रमिति के प्रति निमित्तकारण भी तो नहीं है । क्योंकि आपने पहिलेले ही मास्माको समवायी कारण मान लिया है ।
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यदि पुनरात्मनः स्वप्रमिति प्रति समवायित्वं निमित्तकारणत्वं चेष्यतेऽर्थं प्रमिति प्रति समवायिकारणत्वमेव तदा साधकतमत्वमप्यस्तु, तथा च स एव प्रभावा, स एव प्रमेयः, स एव च प्रमाणमिति कृतः प्रमादप्रमेयप्रमाणानां प्रकारान्तरता नावतिष्ठेत १ ।
यदि आप वैशेषिक फिर यों इष्ट करें कि आप अपनी प्रमितिके प्रति समवायी कारण है और निमित्तकारण मी है किंतु अन्य घट, पट आदिक पदार्थोंकी प्रमितिके प्रति समवायी कारण ही है, तब तो आप आत्माको अपनी प्रमितिका प्रकृष्टकारक रूप करण हो जाना भी मान लेवे । तथा च सिद्ध हुआ कि वही आत्मा प्रमाता है और यही प्रमेय है, एवञ्च वही प्रमाण भी है। इस प्रकार जब तीनों एक हो गये तो प्रमासा, प्रमेय और प्रमाणोंको तत्त्वभेद नहीं होते हुए भित्र प्रकारपना कैसे नहीं व्यवस्थित हो सकता है ? भावार्थ- प्रमाण, प्रमेय, भादि न्यारे न्यारे सत्त्व नहीं हैं । विशेष्यसे भिन्न हो रहे मात्र विशेषण हैं |
कर्तृकारकात् करणस्य भेदान्नात्मनः प्रमाणत्वमिति चेत्, कर्मकारकं कर्तुः किमभि यतस्तस्य प्रमेयत्वमिति नात्मा स्वयं प्रमेयः ।
स्वतंत्र कर्ता कारक करण कारक सर्वथा भिन्न होता है, अतः आत्माको प्रमितिका करणरूप प्रमाणपना नहीं है। ऐसा यदि कहोगे तो क्या आप नैयायिक मत कर्ता कर्म कारक अभिन्न है जिससे कि आप उस आत्माको प्रमेयपना सिद्ध कर देवें । यो भेद माननेपर आत्मा स्वयं प्रमेय मी नहीं हो सकता है । तथा च आत्माका प्रमेयपना भी गांठका चला गया। आपने गौतमसूत्र के
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सस्वार्थचिन्तामणिः
अनुसार आत्माको प्रमेय कहा है । " पामशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषोत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् ॥ प्रथम अध्याय सूत्र ९ ॥
नरान्तरममेयत्वमनेनास्य निवारितम् । तस्यापि स्वप्रमेयत्वेऽन्यप्रमातृत्वकल्पनात् ॥२१०॥ बाध्या केनानवस्था स्यात्स्वप्रमातृत्वकल्पने। यथोक्ताशेषदोषानुषङ्गः केन निवार्यते ॥ २११ ॥
इस उक्त कमनसे इस प्रकृत आत्माकर दूसरे आमाके द्वारा जाना गयापन भी निवारण कर दिया गया है। क्योंकि उस अन्य आत्माको भी स्वके प्रमेय करनेमें तीसरे चौथे आदि निराले निराले प्रमाता आत्माओंकी कल्पना करनी पड़ेगी, इस प्रकार अनश्स्था होना किसके द्वारा रोका जावेगा ?
यदि आत्मा अपना प्रमेय स्वयं हो जाता है और आत्मा अपने जाननमै स्वयं प्रमाता बन जाता है, ऐसी कल्पना करोगे तो ठीक पहिले कहे हुए सम्पूर्ण दोषोंके प्रसङ्गको कौन रोक सकेगा ! भावार्थ-भेदवादीको वे ही दोष पुनः लागू हो जावेगे।
विवक्षितात्मा आत्मान्तरस्य यदि प्रमेयस्तदास्य स्वात्मा किमप्रमेयः प्रमेयो वा ? अप्रमेयश्चेत् तात्मान्तरस्य प्रमेय इति पर्यनुयोगस्थापरिनिष्ठानादनवस्था केन बाध्यते ? प्रमेयश्चेत् स एव प्रमाता स एव प्रमेय इत्यायातमेकस्यानेकत्व विरुद्धमपि परमतसाधनं, तत् स एव प्रमाणं स्थात् साधकतमत्वोपपवेरिति पूर्वोक्तमखिलं दूषणमशक्यनिवारणम् ।
विवक्षामे पडा हुआ देवदत्त स्वरूप आत्मा यदि दूसरे अन्य आत्मा यज्ञदत्तसे जानने योग्य है तो बताओ, इस यज्ञदत्तको अपनी आत्मा क्या अप्रमेय है? या प्रमेय है ! यदि स्वयं अप्रमेय है अर्थात् दूसरेसे जानी जावेगी तब तो न्यारे यज्ञदत्तकी आत्माको जानने के लिये तीसरे जिनदत्तकी आत्मा प्रमाता माननी पडेगी। फिर जिनदतकी आरमा मी स्वयं अपनेको न जान सकेगी। अतः उसके जानने के लिये चौथे इंद्रदत्तकी आत्मा प्रमाता कल्पित की जावेगी। तब कहीं वह प्रमेय होगी। यों वह इंद्रदत्तकी आत्मा भी स्वयं प्रमेय न होगी। उसके लिये भी अन्य आत्माओंकी कल्पना करते करते पश्नरूप आकांक्षाएं बढती चली जावेगी । कहीं भी उक्त प्रश्नरूप विषय समाप्त न होगा। अतः अनास्था दोष होने में कौन बाधा दे सकता है!
द्वितीय पक्षके अनुसार यदि देवदत्तकी आमाको स्वयं अपना प्रमेय मानोगे अर्थात दूसरे, तीसरेकी आवश्यकता न होगी तो वही आत्मा प्रमाता हुआ और वही प्रमेय हो गया । इस
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तत्वार्यचिन्तामणिः
प्रकार एक पदार्थ विरुद्ध सरीखे दीखते हुए अनेक धर्मोका भी आपको मानना प्रतीतिबलसे प्राप्त हो गया और यों एक वस्तुमै अनेक धर्मोंको माननेवाले दूसरे जैनों के उत्कृष्ट स्याद्वाद सिद्धांत - मलकी मी सिद्धि हो गयी। जैसे एक आत्मा प्रमाता और प्रमेय दोनों बन जाता है उसीके समान अपनी प्रमिति साधकतम हो जानेके कारण वही आत्मा प्रमाण भी बन जावेगा । अतः नैयायिकों के ऊपर पूर्व में कहे गये अनवस्या और अपने सिद्धांत से विरोध आदि सम्पूर्ण दोष लागू होंगे । उन दोषfer निवारण कैसे भी नहीं हो सकता है ।
स्वसंवेद्ये नरे नायं दोषोऽनेकान्तवादिनाम् । नानाशक्त्यात्मनस्तस्य कर्तुत्वाद्यविरोधतः ॥ २१२ ॥ परिच्छेदकाहि प्रभातात्मा प्रकोपते । प्रमेयश्व परिच्छेयशक्त्याकांक्षाक्षयात्स्थितिः ॥ २१३ ॥
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हम स्याद्वादी जन आत्माको स्व के द्वारा वैध मानते हैं। अतः अनेकांतवादियोंके ऊपर उक्त दोष नहीं आता है जब कि आत्मा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञानरूप अनेक शक्तियों के साथ तादात्म्य रखता है तो उसको इसिका ज्ञातापन, ज्ञेयपन और कारणपना आदि माननेमें कोई भी विशेष नहीं है | आत्मा पदार्थों को स्वतंत्र रूपसे जानता है अतः परिच्छेदकशक्तिके द्वारा वह निश्वयसे प्रमाता है । और स्वयं अपनेको जानता हुआ भी प्रतीत हो रहा है अतः वह परिच्छेश स्वभावसे प्रमेय भी है । और जैसे अभि अपने दाहपरिणामसे जलाती है वैसे ही आत्मा अपने सच्चे ज्ञानपरिणामसे जानता है अतः आत्मा प्रमाणस्वरूप भी हे । बस, इतनेसे ही आकांक्षाएं निवृत्त हो जाती हैं। इस कारण अनेकांत में अनवस्था दोष नहीं आता है। यदि किसी व्यक्तिने इच्छावश आत्माको जानने के लिये दूसरा ज्ञान भी उत्पन्न किया हो वह अभ्यासदशाका ज्ञान स्वयं प्रत्यक्षरूप है । दूसरी कोटिपर ही अन्य आकांक्षा न होनेके कारण जिज्ञासुओं की स्थिति हो जावेगी । जिसको आकांक्षा उत्पन्न नहीं हुयी है, उसके लिये पहिला ज्ञान ही पर्याप्त है |
यतः
ननु स्वसंवेद्येऽप्यात्मनि प्रमातृत्वशक्तिः प्रमेयत्वशक्तिश्च परिच्छेदकशक्त्यान्यया परिच्छेद्या, सापि तत्परिच्छेदकत्व परिच्छेद्यत्वशक्तिः परया परिच्छेदकशक्त्या परिच्छेद्येत्यनवस्थान मन्यथाद्यशक्ति मेदोऽपि प्रमातृत्वप्रमेयत्व हेतुर्भाभूत् इति न स्याद्वादिनां चोधम् । प्रतिपराकांक्षाक्षयादेव कचिदवस्थान सिद्धेः । न हि परिच्छेदत्वादिशक्तिर्यावस्त्वयं न ज्ञाता तावदात्मनः स्वप्रमातृत्वादिसंवेदनं न भवति येनानवस्था स्यात् । प्रमातृत्वादिस्वसंवेदनादेव तच्छक्तेरनुमानाभिराकांक्षस्य तत्राप्यनुपयोगादिति युक्तमुपयोगा
त्मकत्वसाधनमात्मनः ।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
स्याद्वादियोंके ऊपर नैयायिक कटाक्षसहित शंका उठाते हैं कि माप आत्माको अपने आप जानने योग्य भले ही मानें तो भी तीन स्वभाववाले उस आस्मा में प्रमातापने और प्रमेयपनेकी शक्तिको स्वयं परिच्छेदकशक्ति से अतिरिक्त मानी गयी दूसरी परिच्छेदकशक्तिसे ज्ञेय मानोगे और वह आत्माकी ज्ञेयनेकी परिच्छेद्यपन शक्ति भी तीसरी परिच्छेदकशकिसे जानी जावेगी और तीसरी परिच्छेदक शक्ति न्यारी चौथी शक्तिले जानी जावेगी । क्योंकि जानने के कारण जो आम के स्वभाव होंगे, वे अभिन्न होनेके कारण ज्ञेय होते चले जायेंगे। इस तरह से अनवस्था दोष तुम्हारे ऊपर भी आता I
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यदि शक्तियों को जानने के लिये परिच्छेदकशक्तियां नहीं मानोगे तो आदिकी भी प्रमातापन और प्रमेयपनकी भिन्न दो शक्तियां क्यों मानते हो ? सब तो ये दो शक्तियां एक आत्मामें प्रमातापन और प्रमेयपन इन दो धर्मोकी कारण न हो सकेंगी। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकोंका तर्क स्याद्वादियोंके ऊपर नहीं चलता है, क्योंकि जाननेवाले प्रतिपत्चाकी आकांक्षाओंके निवृत्त हो जानेसे ही कहीं भी दूसरी, तीसरी, कोटि पर स्थिति हो जाना सिद्ध है । हम ऐसा नहीं मानते हैं कि परिच्छेदकपनेकी या परिच्छेद्यपने नादिकी शक्ति जबतक अम्बके द्वारा स्वयं ज्ञात न होगी तब तक अपने प्रमातापन या प्रमेयपन आदिका ज्ञान ही नहीं होता है जिससे कि अनवस्था दोष हो जावे। किंतु हम यह मानते हैं कि आह्माने अपनेको अपने आप जान लिया । जैसे व्यभि दाहपरिणाम करके अपने को जला रही है। दीपक स्वयंको अपनी प्रभासे प्रकाशित कर रहा है आदि इस कासे ही उन दोनों तीनों शक्तियोंका अनुमान हो जाता है । शक्तियां सम्पूर्ण अतीन्द्रिय होती हैं । अतः सामान्य जीवोंको उनका अनुमान ही हो सकता है प्रत्यक्ष नहीं। हां, जिस ज्ञाताको शक्तियों के जानने की आकांक्षा नहीं हुयी है उसको उन शक्तियोंका अनुमान करना मी व्यर्थ पडता है। शक्तियोंके ज्ञानका कोई उपयोग नहीं, यहां कारकपक्ष है। शक्तियां नहीं भी ज्ञात होकर काम को कर देती हैं। इस प्रकार स्वयं ज्ञानदर्शनोपयोग स्वरूप आत्माकी युक्तियोंसे सिद्धि कर दी गयी है । आमाका लक्षण उपयोग ही है, यह समुचित है। यहांतक नैयामिकों के साथ विचार किये गये प्रकरणकी समाप्ति कर अब मीमांसकों के साथ विचार चलाते हैं।
कर्तुरूपतया वित्तेरपरोक्षः स्वयं पुमान् ।
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अप्रत्यक्षश्च कर्मत्वेनाप्रतीतेरितीतरे ॥ २१४ ॥
भट्ट, प्रभाकर, मुरारि ये तीनों मीमांसक करणज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं । मट्टमतानुयायी आत्माका प्रत्यक्ष मानते हैं और प्रभाकर फलज्ञानका प्रत्यक्ष मानते हैं। यहां प्रकरणमें नैयायिकोंसे न्यारे किन्हीं अन्य मीमांसकों का कहना है कि कर्तारूपसे आत्माका स्वयं ज्ञान होता है। इस कारण आस्मा परोक्ष नहीं है, और कर्मरूपसे आत्माकी प्रतीति नहीं होती है। इस कारण
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सल्लावितामांकः
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आस्मा प्रत्यक्ष मी नहीं है। ऐसा कुछ जैन सिद्धान्तका अनुसरण और कुछ आक्षेप करते हुए कोई मीमांसक कहते हैं।
सत्पमात्मा संवेदनात्मका स तु न प्रत्यक्षः कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात्। न हि या नीलमहं जानामीत्यत्र नीलं कर्मतया चकास्ति तथात्मा फर्मत्वेन । अप्रतिमासमानस्य पन प्रत्यक्षत्वम् , सस्य तेन व्याप्तत्वात् !
स्याद्वादियोंसे मीमांसक कई एस आत्मा भानस्वरूप है। यह लापका पहना सब है किन्तु वह आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है। क्योंकि कर्मपनेसे आत्माकी प्रतीति नहीं होती है। जैसे में नीले कम्बलको जान रहा हूं यों यहां नीले कम्बलका कर्मपनेसे प्रतिभास हो रहा है उस प्रकार आत्माका कम्पनेसे प्रतिमास नहीं होता है । भावार्य- जाननारूप क्रियाका आमा कर्ता है, कर्म नहीं है, बो प्रतिभासनक्रियाका कर्म नहीं है, वह प्रत्यक्ष ज्ञानका कर्म या विषय भी नहीं है क्योंकि उस प्रतिभासन क्रियाके कर्म होनेके साथ उस प्रत्यक्षज्ञानके विषय होनेकी न्याति है। पतिभास्मपना व्यापक है और प्रत्यक्ष विषयपना व्याप्य है ।
आस्मानमई जानामीस्यत्र कर्मतयात्मा भात्येवेति चायुक्तमुपचारितत्वाचस्प तवा मतीते। आनातेरन्पत्र सकर्मकस्य दर्शनादात्मनि सकर्मकत्वोपधारसिद्ध, परमार्थतस्तु पुंसः कर्मत्वे का स एव वा स्यादन्यो वा ? न तावत्स एव विरोधात् । कयमन्यथैकरूपतात्मनः सिद्धयेत्, नानारूपवादात्मनो न दोष इति चेत् न अनवस्थानुषशात् । केनचिद्रूपेण कर्मत्वं केनचित्कर्तृत्वमित्यनेकरूपत्वे शात्मनस्तदनकें रूपं मत्यक्षमप्रत्यक्ष वा ! प्रत्यर्थ चेत्कर्मत्वेन भान्यमन्येन तत् कर्तुत्वेन, सत्कर्मत्वकर्तृत्वयोरपि प्रत्यक्षत्वे परेप कर्मवेन कर्तृत्वेन चावश्य भवितव्यमित्यनवस्सा।
___ मीमांसक ही कह रहे है कि आस्माको "मैं जानता है यों ऐसे प्रयोगमै कर्मपसे आस्मा प्रतिभासित हो जाता ही है। यह जैनोंका कहना भी अयुक्त है। कारण कि में आस्माको जान रहा है, यह उस आत्माकी इस प्रकारको प्रतीति तो उपञ्चरित है । वही स्वयं कर्तारूपसे जाने और स्वयं कर्मरूपसे अपनो आने यह कैसे सम्भव है ! आत्माश्रय दोष आता है। जाननारूप क्रिया अन्य षट, पट, पुस्तक आदिमें सकर्मक होकर देखी जाती है। इससे भामामे भी ज्ञान क्रियाके सकर्मकपनेका आरोप कर सेना सिद्ध है । वास्तविकरूपसे यदि आत्माको ज्ञानक्रियाका कर्म मानोगे तो ऐसी दशाम उस ज्ञानक्रियाका कर्ता वही आस्मा होगा या कोई दूसरा मामा कर्ता माना जायेगा ! बताओ, पहिला पक्ष तो ठीक नहीं है। क्योंकि यदि उसी आत्माको कर्ता मानोगे तब तो विरोष है। एक ही आत्मा कर्ता और कर्मपनेरूप होकर विरुद्धस्वभावोंको धारण नहीं कर सकता है। अन्यपा आत्माको एकधर्मस्वरूपपना कैसे सिद्ध होगा ! जो कि हम मीमांसकोंको इष्ट है।
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यदि जैन लोग आत्माके अनेक स्वभाव मानते हैं अतः कर्ण और कर्म हो जानेमें कोई दोष नहीं है। यों कहेगे तो यह जैनियोंका कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक, अनेक धर्म माननेसे अनवस्था दोष हो जानेका प्रसङ्ग आवेगा। देखिये आप किसी एक स्वरूपसे आत्माको कर्म कहोगे और अन्य किसीरूपसे आमाको कर्तापन मानोगे । इस प्रकार अनेकस्वरूप माननेपर हम जैनियोंसे पूछते हैं कि भाइओ ! वे आत्माके अनेक धर्म प्रत्यक्षित हैं अथवा अप्रत्यक्षित हैं ! बताओ। प्रथम पक्ष अनुसार यदि उन आत्माके धोका प्रत्यक्ष होना मानोगे तब तो वे धर्म अवश्य कर्म होने चाहिए और उन घमौका प्रत्यक्ष करनेवाला कर्ता भी न्यारा होना चाहिए । तथा यदि उन न्यारे अनेक कर्तृत्व, कर्मत्व धर्मों का भी प्रत्यक्ष होना स्वीकार करोगे तो फिर उन धर्मों में भी न्यारे न्यारे कर्मपन और कर्तापन धर्म अवश्य स्वीकार करने पड़ेंगे, उन कर्मस्व और कर्तृत्व धोका भी प्रत्यक्ष होना मानोगे। क्योंकि वे जैन मतानुसार आत्मासे अभिन्न हैं तो उनके लिये भी तीसरे चौथे न्यारे कर्मव कर्तृख धर्म अवश्य ही होंगे। इस प्रकार ऊंट की पूंछमें ऊंट के समान अनवस्था हो जावेगी। दूर आकर भी कहीं ठहरना नहीं हो सकेगा।
तदनक रूपममत्यक्षं चेत्, कभमात्मा प्रत्यक्षो नाम ? पुमान् प्रत्यक्षस्तत्स्वरूप न प्रत्यक्षमिति का श्रद्दधीत !
यदि जैनजन उन अनेक धोका नहीं प्रत्यक्ष होना मानेगे तो उन घाँसे अभिम आरमाका कैसे प्रत्यक्ष हो सकेगा ? भात्माका प्रत्यक्ष होना माना जावे और उसके तदात्मक धाँका प्रत्यक्ष होना न माना आवे इस प्रकार कौन परीक्षक श्रद्धान कर सकता है ! भावार्थ--ऐसी बातोंका कोरे मक्तजन भले ही श्रद्धान कर लेवे, मीमांसा करनेवाले परीक्षक श्रद्धा नहीं करेंगे । अर्धजरतीय दोषका प्रसा आ जावेगा।
यदि पुनरन्या को स्यात्तदास प्रत्यक्षोऽप्रत्यक्षो वा! प्रत्यक्षश्चेव कर्मत्वेन प्रतीयमानोऽसाविति न कसा स्याद्विरोधात् कथमन्यथैकरूपतास्मनः सिद्धयेत् । नानारूपत्वादात्मनो न दोष इति चेन्न, अनवस्थानुपात, इत्यादि पुनरावर्तत इसि महच्चक्रकम् ।
जैन लोग फिर दूसरे पक्षक अनुसार यदि उस आस्माको जानने के लिये अन्य आत्माको कर्ता मानेगे तो बताओ ! वह दूसरा आत्मा प्रत्यक्ष है अथवा अपत्यक्ष : अर्थात् उस आत्माका प्रत्यक्ष होना है या नहीं । यदि दूसरे आत्माका प्रत्यक्ष होना मानोगे तब तो वह कर्मपनेसे आना जा रहा है । इस कारण कर्ता न हो सकेगा । क्योंकि एक वस्तु कापन और कर्मपनका विरोध है। अन्यथा यानी यदि विरोध न मानोगे तो आत्माका एकरूपपना कैसे सिद्ध हो सकेगा: पताओ।
यदि जैन लोग यह कहे कि आत्मा अनेक धर्मस्वरूप है अतः कर्तापन और कर्मपन दोनों एक आत्मामें रह सकते हैं कोई दोष नहीं आता है । मीमांसक कहते हैं कि यह कहना भी ठीक
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संस्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं है । क्योंकि अनवस्था दोष आजायेगा | अर्थात् किसी स्वभावसे कर्तापन और अन्य स्वभावसे
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कपना माननेपर और पुनः उनके प्रत्यक्ष और अपत्यक्ष आदिका प्रश्न उठाते उहाले उन्हीं चोद्योंकी फिर भी बार बार आवृत्ति होगी । इस प्रकार जैनियोंके ऊपर बढा भारी अनवस्थागमित चक्रकदोष हो जानेका प्रसङ्ग आवेगा । तीन चार उत्तर प्रश्नोंके घुमाते रहने से चक्रक दोष लगता हैं और इनकी आकांक्षा बढती जानेसे अनवस्था चालू रहती है ॥
तस्याप्रत्यक्षत्वे स एवास्माकमात्मेति सिद्धोऽप्रत्यक्षः पुरुषः । परोक्षोऽस्तु पुमानिति चेत् न तस्य कर्तृरूपतया स्वयं संवेद्यमानत्वात् । सर्वथा साक्षादप्रतिभासमानो हि परोक्षः परलोकादिवन पुनः केनचिद्रूपेण साक्षात्प्रतिमासमान इत्यपरोक्ष एवं आत्मा व्यवस्थितिमनुत्रति इति केचित् ।
इस द्वितीयपक्ष के अनुसार अभीतक मीमांसक ही कहें जाते हैं कि उक्त दोषों को दूर करने के लिये जैनलोग यदि उस आत्माका प्रत्यक्ष होना नहीं मानेंगे, तब तो वहीं हम मीमांसक लोगोंका माना हुआ मी आत्मा है । इस प्रकार मीमांसकों के अनुसार अपत्यक्ष आत्मा सिद्ध हुआ ।
यदि कोई आत्माको सर्वथा परोक्ष होना ही स्वीकार करे यों तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस आत्माका कर्तापन धर्मसे स्वयं अपने प्रत्यक्षरूप संवेदन किया जा रहा है। जो वस्तु सभी प्रकारोंसे साक्षात् प्रत्यक्षस्वरूप प्रतिभासित नहीं होती है, वह परोक्ष मानी जाती है। जैसे कि आकाश, परमाणु, परलोक, पुण्य, पाप आदि हैं। इनकी ज्ञप्ति अपौरुषेय वेदसे हो सकती है, किंतु जो फिर किसी भी एक अंशसे प्रत्यक्षरूप जानी जा रही है, वह सर्वथा परोक्ष नहीं हो सकती है । आत्माका कर्त्तारूपसे प्रत्यक्ष हो रहा है, इस कारण परोक्षपनेसे रहित ही आत्मा कथञ्चित् प्रत्यक्ष रूप व्यवस्थित होनेका अनुभव करता है। इस प्रकार बडी देरसे कोई एक मीमांसक अपने मत की पुष्टि कर रहे हैं। यह मीमांसक आत्माका कर्तारूपसे प्रत्यक्ष होना इष्ट करते हैं ।
तेषामप्यात्मकर्तृत्वपरिच्छेद्यत्वसम्भवे ।
कथं तदात्मकस्यास्य परिच्छेद्यत्वानिह्नवः ।। २१५ ॥
कार कहते हैं कि उन मीमांसकों के मतने भी आत्मा के कर्तापनेका जब परिच्छेधपना ( जाना गयापन ) सम्भव हो रहा है, ऐसी दशामें उस कर्तापने अभिन्न हो रहे इस आत्माको परिच्छित्ति के कर्म बनने का कैसे छिपाना हो सकता है ! भावार्थ-मीमांसक आत्माको इसिका कर्म नहीं बनने देते हैं किंतु जब उन्होंने आत्माकी कर्तृता ज्ञेय मानी है तो कर्तृतासे अभिन्न मानी गयी आमाको भीतिका कर्म मानना आवश्यक हुआ ।
कर्तृस्वात्मनः संवेदने तत्कर्तृत्वं तावत्परिच्छेद्यमिष्टमन्यथा तद्विशिष्टतयास्य संवेदनविरोधात्, तत्सम्भवे कथं तदात्मकस्यात्मनः प्रत्यक्षत्वनिवो युक्तः ।
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सत्वार्थचिन्तामणिः
सबसे प्रथम यह बात विचारणीय है कि आप मीमांसक आत्माका कर्तापनसे संवेदन होना मानोगे तो उस कर्तापनेको परिच्छित्तिका कर्म इष्ट करना ही पडेगा । अभ्यथा अर्थात् यदि कर्तापनको परिच्छित्तिका कर्म न मानोगे तो उस कर्तापनसे सहित हो रहे इस आस्माके ज्ञान होनेका विरोध है, किंतु जब आत्मा के उस कर्तृकी परिच्छिा होना सम्भव है तो कर्तृत्वसे तादात्म्य रखते हुए आत्माको प्रत्यक्षपनका छिपाना कैसे भी युक्तिपूर्ण नहीं है ।
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ततो भेदे नरस्यास्य नापरोक्षत्वनिर्णयः ।
न हि विन्ध्यपरिच्छेदे हिमाद्रेरपरोक्षता ॥ २१६ ॥
आप मीमांसक यदि उस कर्तृत्व नामक धर्मसे आत्माका सर्वथा भेद मानोगे तो आत्माके अपरोक्षपनेका निश्चय नहीं हो सकता है, क्योंकि कर्तापनका प्रत्यक्ष कर लेनेपर भी उससे भिन्न आमाका अपरोक्षरूप से जान लेना अशक्य है । विन्ध्यपर्वत के प्रत्यक्ष कर लेने पर भी हिमालय पहाड़ की अपरोक्षता नहीं मानी आती है । अर्थात् मीमांसक आमाका कर्तापनसे संवेदन हो जानेके कारण आत्माको परोक्ष नहीं मानते हैं, किंतु कर्तृताका आत्मासे भेद होनेपर उक्त सिद्धांध नहीं ठहरता है | कर्तृताका प्रत्यक्ष हो जायेगा, एतावता आत्माका तो प्रत्यक्ष नहीं हुआ। मीमांसक आत्माका अपने डीलसे प्रत्यक्ष होना मानते नहीं हैं। हां, सर्वथा परोक्षपनका निराकरण करते हैं ।
कर्तृस्वाद्भेदे पुंसः कर्तृस्वस्य परिच्छेदो न स्याद विन्ध्यपरिच्छेदे हिमाद्रेरिवेति । सर्वश्रात्मनः साक्षात्परिच्छेदाभावात्परोक्षतापत्तेः कथमपरोक्षत्वनिर्णयः १ ततो नैकान्तेनात्मनः कर्तृत्वादभेदो भेदो वाऽभ्युपगन्तव्यः ।
मीमांसक यदि कर्तापन -- धर्मसे आत्माको सर्वथा भिन्न मानेंगे तो पुरुषकी कर्तृताका ज्ञान न हो सकेगा । आमाकी कर्तृताको वह जान सकता है जो आत्मा और कर्तृसा दोनोंका ज्ञान करे । जैसे कि विन्ध्य के जान लेनेपर उससे सर्वथा भिन्न हो रहे हिमालयकी ज्ञप्ति नहीं हो पाती है। इस प्रकार आत्माका सर्वथा प्रत्यक्ष करके परिच्छेय न हो जानेके कारण आत्माको पूर्णरूपसे परोक्ष होनेका प्रसंग आता है तो फिर आपके माने हुये आत्मा के अपरोक्षपनेका कैसे निश्चय किया जावेगा ! बताओ। इस कारण आत्माका कर्तापन से एकांत करके अभेद अथवा भेद नहीं स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि दोनों ही पक्षोंमें पूरे तौरसे प्रत्यक्ष होने का या परोक्ष होने का प्रसंग आता है ।
भेदाभेदात्मकत्वे तु कर्तृत्वस्य नरात्कथम् ।
न स्यात्तस्य परिच्छेये नुः परिच्छेद्यता सतः ॥ २१७ ॥
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तस्वामचिन्तामणिः
मदि आत्मासे कर्तृत्वधर्मका कथंचित् मेदाभेद मानोगे तो उस कर्तृत्वक परिच्छेद्य हो जानेपर विद्यमान हो रहे आत्माकी परिच्छेधता क्यों न होगी! अर्थात् आत्मा परिच्छित्ति-क्रियाका कर्म भी बन जावेगा । कर्तृत्वमें जो बाते हैं वे तदभिन्न आत्मामै भी स्वीकार करनी पडेगी ।
कथञ्चिद्भेदः कथञ्चिद भेदः कर्तृत्वस्य नरादिति चायुसमशतो नरस्व प्रत्यक्षस्वप्रसंगात् । न हि प्रत्यक्षातवाद्येनांशेन नरस्याभेदस्तेन प्रत्यक्षत्वं शक्यं निषेन्दु, प्रत्यक्षादभिन्नस्याप्रत्यक्षत्वविरोधात् ।
स्याद्वादियोंके सहश मीमांसक भी आत्मासे कर्तृताका कथञ्चित् धर्मधर्मीभावसे भेद मानेगे और द्रव्यरूपसे कञ्चित् अभेद मानेंगे सो तो उनके सिद्धांतसे अयुक्त होकर ठीक नहीं पडेगा, क्योंकि जिस अंशके द्वारा आत्माका कर्तृत्वसे अभेद माना है, उस अंशसे आत्माका विशदरूपसे प्रत्यक्ष होनेका प्रसंग आता है । प्रत्यक्षप्रमाणसे जाने जा चुके कर्तृत्वधर्मसे जिस अंश करके आत्माका अमेद है, उस स्वरूपसे आत्माके प्रत्यक्ष होनेका कोई निषेध नहीं कर सकता है । क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाणके विषय हो चुके पदार्थसे अभिन्न माने गये वस्तुका प्रत्यक्ष न होना विरुद्ध है । जिसका प्रत्यक्ष हो रहा है, उससे अभिन्नका भी अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है । " अन्धसर्पविलपदेश, न्यायानुसार आपको जैन सिद्धांत अङ्गीकृत हुआ।
प्रत्यक्षत्वं ततोऽशेन सिद्धं निह्नतये कथम् ।
श्रोत्रियैः सर्वथा चात्मपरोक्षत्वोक्तदूषणम् ॥ २१८ ॥
इस कारणसे आत्माका किसी अंशसे प्रत्यक्ष होना सिद्ध हो गया तो कर्मकाण्डी प्रमाकर मीमांसकोंके द्वारा आत्माकी प्रत्यक्षता कैसे छिपायी जा सकेगी ! आत्माको सर्वथा परोक्ष माननेपर . पूर्वमें कहे हुए दूषण लगते हैं।
ननु चात्मनः करूपता कथञ्चिदभिन्ना परिच्छिधते न तु प्रत्यक्षा कर्तरूपता, कर्मतया प्रतीयमानत्वाभावात्तन्नात्मनोऽशेनापि प्रत्यक्षवं सिवधति, यस्य निसचे प्रतीतिविरोध इति चेत्, पथभिदानी कर्तृता परिच्छिद्यते । .
प्रभाकरमतानुयायी मीमांसक कहते हैं कि आत्माका कर्तृत्वधर्म आत्मासे कथञ्चित् अभिन्न ही जाना जाता है किन्तु प्रत्यक्षरूपसे नहीं । हम जैसे आत्माका प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं उसी प्रकार उसके शति, कपन, धर्मका भी प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं क्योंकि ज्ञप्ति क्रियाके कर्भपनेसे कर्तृतकी प्रतीति नहीं हो रही है। जो कर्म होकर प्रतीत किये जाते हैं, उन घट, पर आदिकोंका प्रत्यक्ष होता है । उस कारण आत्माकी कर्तृत्व अंशसे मी प्रत्यक्षता सिद्ध नहीं होती
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सचार्थचिन्तामणिः
है, जिसके कि छिपानेपर हमको प्रतीतियों से विरोध होवे। ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तो हम स्याद्वादी पूंछते हैं कि इस अवसर में आप कर्तृताकी परिच्छित्ति कैसे करेंगें ? बताओ, जिस कर्तृलको आप सर्वेथा कर्म नहीं बनने देते हैं, आत्मा के उस कर्तृत्वधर्मकी प्रतीति कैसे भी न हो सकेगी।
तस्य कर्तृतयैवेति चेत् तर्हि कर्तुता कर्ता न पुनरात्मा, तस्यास्ततो भेदात् । न ह्यन्यस्यां कर्तृतायां परिच्छिन्नायामन्यः कर्त्ता व्यवतिष्ठतेऽतिप्रसङ्गात् ।
I
आत्मा कर्मस्वरूप नहीं है किन्तु कर्ता है । अतः उस आत्माकी कर्तृपनेसे जो प्रतीति है, वही कर्तृकी परिच्छिति है । आप प्राभाकर यदि ऐसा कहोगे तब तो कर्तृत्वधर्म ही कर्ता मन बैठा, फिर आत्मा तो कर्ता नहीं हुआ। क्योंकि उस कर्तृत्वधर्मसे वह आत्मा भिन्न पड़ा है । कर्तापन से कर्तृत्वधर्म जाना जावे और तैसा ही चुकनेपर उससे सर्वथा मित्र माना गया आस्मा कर्ता हो जाये यह बात व्यवस्थित नहीं हो सकती है । अति प्रसन्न हो जावेगा । अर्थात् यों तो चाहे जो कोई किसीका कर्ता बन जायेगा | कार्यको कोई अन्य पुरुष करे और परितोष लेनेके लिये उनसे भिन्न मनुष्य हाथ पसार देवें ऐसी अव्यवस्था हो जावेगी ।
नन्वात्मा धर्मी कर्ता कर्तृतास्य धर्मः कथञ्चित्तदात्मा, तत्रात्मा कर्ता प्रतीयत इति एवार्थः सिद्धो धर्मिधर्माभिधायिनो' शब्दयोरेव भेदाचतः कर्तृता स्वरूपेण प्रतिभाति न पुनरन्यया कर्तृतया, यतः सा कर्त्री स्यात् । कर्ता चात्मा स्वरूपेण चकास्ति नापरास्य कर्तृता यस्याः प्रत्यक्षत्वे पुंसोऽपि प्रत्यक्षप्रसङ्ग इति चेत् । तर्द्धात्मा तद्धर्मो वा प्रत्यक्षः स्वरूपेण साक्षात्प्रतिभासमानत्वान्नीलादिवत् । नीलादिर्वा न प्रत्यक्षस्तत एवात्मवत् ।
सशङ्क पक्षका अवधारण करते हुये मीमांसक कहते हैं कि कर्तृत्व से सहित हो रहा धर्मी आत्मा कर्ता है और आत्माले कथञ्चित् तादात्म्यसंबंध रखता हुआ कर्तृत्व इस आत्माका घ है । वहां आत्मा कर्ता प्रतीत होरहा है इस प्रकारकी प्रतीतिका विषयभूत अर्थ वह आत्मा ही सिद्ध हुआ । केवल घर्मी और धर्म कहनेवाले आत्मा और कर्तृत्वशब्दों में ही भेद है। अर्थ कोई भेद नहीं है । तिस कारण आत्मरूपसे ही कर्तृता प्रतीत हो रही है किंतु फिर जैनोंके पूर्व कटाक्षके अनुसार आत्मासे भिन्न कही गयी कर्तृता करके वह नहीं जानी जा रही है । जिससे कि वह कर्तृता ही इतिकी कत्री बन बैठती । तथा कर्ता आत्मा भी अपने रूपसे ही प्रकाशित हो रहा है। इस आमाकी कर्तृता भी आत्मासे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, जिसके कि प्रत्यक्ष हो जाने पर आत्माको भी प्रत्यक्षका प्रसंग हो जाता | आचार्य कहते हैं कि यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तब तो आत्म अथवा उसका धर्म कर्तृस इन दोनोंका प्रत्यक्ष हो जावेगा। क्योंकि अपने रूपसे स्पष्ट होकर उनका मजिनासन होरहा है, जैसे कि नोल, घट, पट जादिका प्रत्यक्ष हो रहा है । अथवा यदि अपने
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तस्वार्थचिन्तामणिः
रूप से प्रतिभास होनेवालोंका भी प्रत्यक्ष न मानोगे तो तिस ही कारण आत्माके समान नील कम्मल, घट, पट आदिका भी प्रत्यक्ष होना मत मानो । न्याय्य मार्ग समान होना चाहिये ।
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नीलादिः प्रत्यक्षः साक्षात् क्रियमाणत्वादिति चेत्, तत एवात्मा प्रत्यक्षोऽस्तु ।
नील, घट, पट, आदि बहिर पदार्थ तो प्रत्यक्ष के विषय हैं क्योंकि उनका विशदरूपसे प्रतिमान किया जाता है। यदि ऐसा करेंगे तो तिस ही कारण आत्माका भी प्रत्यक्ष होना मान लो | क्योंकि आत्माका भी विशदरूपसे प्रतिभास किया जा रहा ही है।
कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वान्न प्रत्यक्ष इति चेत् व्याहतमेतत्, साक्षात्प्रतीयमानत्वं हि विषयीक्रियमाणत्वम्, विषयत्वमेव च कर्मत्वम्, तचात्मन्यस्ति कथमन्यथा प्रतीयमानवास्य स्यात् ।
प्रति उपसर्गपूर्वक इण् धातुसे कर्ममै यक् विकरण कर कृदन्तमै शानच् प्रत्यय करके प्रतीयमान शब्द प्रगट होता है । प्रतीति क्रियाके घट, पट, आविक कर्म है। अतः प्रतीयमान होनेके कारण वे प्रत्यक्ष हैं | इस प्रकरणमें विषविज्ञानका प्रत्यक्षस्त्र धर्म इन घट पट आदि विषयोंमें उपचार से आरोपित कर दिया गया है । प्रतिवादी कहता है कि कर्मपनेसे आत्मा कभी प्रतीत नहीं होता है इस कारण प्रत्यक्ष नहीं है। मंथकार कहते हैं कि यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तो ऐसा कहने में व्याघातदोष आता है । जैसे कोई पुरुष अपनेको वन्ध्याका पुत्र कहे या चिल्लानेवाला अपनेको मौनव्रती कहे | उसीके सह यहां वदतो व्याघात दोष हैं । पहिले मीमांसकोंने कहा था कि आत्मा कर्ता रूप से प्रतीत हो रहा है इस ही से आत्मा प्रतीतिका कर्म बन जाता है । फिर कर्मपा निषेध कैसे कर सकते हैं जो प्रत्यक्ष से प्रतीयमान है, वह प्रत्यक्ष प्रमाणसे अवश्य विषय किया जा रहा है । इप्तिका विषयपन ही कर्मपना है और वह आत्मामें विद्यमान है । यदि यह बात न मानकर अन्य प्रकार मानी जावेगी तो इस आत्माका प्रतीतिद्वारा विषय करना भला कैसे हो सकेगा ? आप मीमांसक स्वयं सोचो तो सही ।
I
?
नात्मा प्रतीयते स्वयं किंतु प्रत्येति सर्वदा न ततो प्रतीयमानत्वात्तस्य कर्मत्वासिद्धिरसिद्धता साधनस्येति चेत्, सर्वथाऽप्रतीयमानत्वमसिद्धं कथञ्चिद्वा ? न तावत्सवैथा, परेणापि प्रतीयमानत्वाभावप्रसंगात् । कथञ्चित्पक्षे तु नासिद्धं साधनम्, तथैवोपन्यासात् ।
मीमांसक कहते हैं कि आला प्रतीत नहीं होता है किंतु सर्वदा प्रतीतिको करता है, यों कर्ता है, उस कारण से प्रतीतिका कर्म बनाकर कह देनेसे आत्मा को कर्मपनेकी सिद्धि नहीं हो सकती है। अत: जैनोंका प्रतीयमानत्व हेतु असिद्ध हो गया यानी आत्मारूपी पक्ष नहीं रहा । आचार्य कहते हैं कि यदि मोमांसक ऐसा करेंगे तो हम पूंछते हैं कि आमाको सर्वथा किसी भी प्रकार से प्रतीय
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ताचिन्तामणिः
J
मान नहीं मानते हुये असिद्ध कह रहे हो ? या कथञ्चित् प्रतीयमान नहीं मानते हो ? बताओ, यदि पहिला पक्ष लोगे यानी सर्व प्रकारसे आत्माकी प्रतीति नहीं होती है तब तो दूसरोंके द्वारा अनुमान, आगम प्रमाणोंसे भी आत्माकी प्रतीति न हो सकेगी । आत्माको जान लेनेक अभावका प्रसज्ञ आवेगा । यदि दूसरा पक्ष लोगे तो यानी कथञ्चित् आत्माकी प्रतीति नहीं होती है अर्थात् किसी अपेक्षा से आत्माकी प्रतीति हो रही है । तब तो हमारा हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि हमने भी आत्मा को उस ही प्रकार कथञ्चित् प्रत्यक्ष होनेका दी प्रकरण डाला है। मामाकी अनेक पर्यायों का तो सर्वे के सिवाय किसीको ज्ञान होता ही नहीं है । अतः अनेक अंशों में मात्मा छद्मयोंके द्वारा अप्रत्यक्ष है ।
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स्वतः प्रतीयमानत्वमसिद्धमिति चेत्, परतः कथं तत्सिद्धम् ९ विरोधाभावादिति चेत् स्वतस्तत्सिद्धों को विरोधः १ कर्तृस्वकर्मत्वयोः सहानवस्थानमिति चेत्, परतस्त सिद्धौ समानम् ।
आप मीमांसक आत्माको अपने आपसे प्रतीत हो जानेका कर्मपना असिद्ध है। यदि ऐसा कहोगे तब तो हम पूंछते हैं कि दूसरोंके द्वारा प्रतीत होनेका वह कर्म बन जाना कैसे सिद्ध है ? बतलाइये ।
यदि आप कहें कि दूसरे के द्वारा प्रतीत होने में और कर्म बनने में कोई विरोध नहीं है । इस कारण आत्मा दूसरोंके ज्ञानका विषयभूत कर्म बन सकता है। ऐसा कहनेपर इम जैन कहते हैं कि स्वतः अपने आप उस आत्माके कर्म सिद्ध हो जाने कौनसा विरोध आता है ! बहाओ | कर्तापन और कर्मपन साथ रहकर एक जगह नहीं ठहर सकते हैं, इस प्रकार सहानवस्था नामका विरोध है, यदि ऐसा कहोगे तो दूसरोंके द्वारा आत्मा के जाननेकी सिद्धि होनेपर भी वैसा ही सहानवस्थान दोष समान रूपसे लगता है । जैसे कि एक पुल उष्णस्पर्श और शीतस्पर्शका एक समयमे रहना विरुद्ध है। किसी देवदत्त जिनदत्तकी अपेक्षासे ये दोनों अविरुद्ध नहीं होसकते हैं। वैसे ही यदि दूसरे मनुष्योंके द्वारा जाननेपर आत्मा कर्म न बन सकेगा; तब तो दूसरे जीवोसे अनुमान, आगम, प्रमाणीके द्वारा भी आत्मा क्यों जाना जावेगा ? आत्मा अप्रमेय तो नहीं है ।
दैव वपर्यं प्रत्येति तदैव परेषानुमानादिनात्मा प्रतीयत इति प्रतीतिसिद्धत्वान सहानवस्थान विरोधः स्वयं कर्तृत्वस्य परकर्मस्वेनेति चेत्, तर्हि स्वयं कर्तृस्वकर्मस्वयोरप्यात्मानमहं जानामीत्यत्र सहप्रतीतिसिद्धत्वाद्विरोधो माभूद । न चात्मनि कर्मप्रती - तिरुपचरिवा, कर्तृत्वप्रतीतेरप्युपचरितत्वप्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तुं दहत्यग्निरिन्धनमित्यत्र क्रियायाः कर्तृसमवायदर्शनात्, जानात्यात्मार्थमित्यत्रापि जानातीति क्रियायाः कर्तृसमवायोपचारः ।
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तस्यार्थचिन्तामणिः
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1
I
जिस ही समय आत्मा अपने आप घट, पट आदि अर्थोंको जान रहा है उसी समय दूसरे पुरुषों से अनुमान, अर्थापत्ति और भागमप्रमाणद्वारा जाना जा रहा है । यह प्रतीतियोंसे प्रसिद्ध है । इस कारण स्वयं कर्ता भी आत्मा का दूसरोंके ज्ञानका कर्म हो जानेसे सहानवस्थाननामका विरोध नहीं है । जो देवदत्त घट, पट आदिकके जाननेका स्वयं कर्ता है वही जिनवच, इन्द्रदत्त के अनुमान, अर्थापत्तिरूप ज्ञानोंका जानने योग्य कर्म भी है । यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तब तो स्वयं अपने जानने का कर्ता और कर्म होने में भी आत्माका कोई विशेष नहीं होवे । क्योंकि मैं देवदत्त अपनी आत्माको स्वयं जान रहा हूं, मैं जीवित हूं, मैं स्वस्थ हूं, मैं विचारशाली हूं, इत्यादि प्रतीतियों में आत्मा स्वयं कर्ता और कर्म रूपसे साथ साथ सिद्ध हो रहा है। आप मीमांसक यों न कहना कि आत्मामें कर्मपनेकी प्रतीति होना व्यवहारसे आरोपित है, वास्तविक नहीं। ऐसा कहने पर तो आत्मामें कर्तापनकी प्रतीतिका भी आरोपितपना होनेका प्रसंग आता है । हम भी यों कह सकते हैं कि इंधनको अभि जला रही है । प्रतीतिमें दाइ क्रियाका अभिरूप - कर्ता में समवाय सम्बन्ध देखा जा रहा है। उसके अनुसार अर्थको आत्मा आन रहा है। यहां भी जानना रूप क्रियाका आमा - कर्ता समवायसम्बन्धसे आरोप कर लिया जाता है। क्योंकि स्वात्मा में क्रियाका ठीक ठीक रहना तो नहीं सम्भव है । अतः कर्तापनका उपचार मान लिया गया है ।
I
परमार्थतस्तु तस्य कर्तृत्वे कर्म स एव वा स्यादन्यो वार्थः स्यात् १ स एव चेद्रिरोधः कथमन्यथैकरूपतात्मनः । नानारूपत्वात्तस्यादोष इति चेन, अनवस्थानात् ।
पूंछते हैं कि वे
यदि मीमांसक वास्तविक रूपसे उस आत्माको कर्ता मानेंगे तो हम किसको कर्म कहेंगे । क्या वह आत्मा ही जाननेका कर्म है अथवा क्या अन्य कोई पदार्थ कर्म होगा ? बताओ । यदि उस आत्माको ही कर्म कहोगे तब तो विरोध है । कर्तापन और कर्मपन ये दोनों धर्म आपके सिद्धान्तानुसार एक आत्मामें एक ही समय ठहर नहीं सकते हैं अन्यथा यानी इस ढंगसे अन्य प्रकार अनुसार यदि दोनों धर्मोका एक आत्मामें ठहरना मानोगे तो आपके माने गये आत्माका एक ही धर्मसे सहितपना कैसे बनेगा ? कहिये ।
अनेक धर्म मान लेवेंगे । अतः
यदि मीमांसक यों कहें कि हम उस आत्माके एक समय कोई दोष नहीं है । सिद्धांती कहते हैं कि सो तो आप नहीं मान सकते हैं क्योंकि आपके ऊपर अनवस्था दोष आता है । जब आत्मा अपनेको जानेगा, तब अपने कर्तापन और फर्मपन धर्मको अवश्य जानेगा । उन धर्मो मी तीसरे कर्तापन धर्मको जानेगा । तब तीनों कर्म हो जायेंगे। यहां भी कर्तापन और कर्मपनका प्रश्न उठाया जावेगा । अतः आत्मासे अभिन्न अनेक धर्मोकी दृष्टि बढ
जानेके कारण अनवस्था हो जावेगी । इस तरहसे आपके पदार्थ की व्यवस्था नहीं हो सकेगी ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
यदि पुनरन्योऽर्थः कर्म स्यात्तदा प्रतिभासमानोऽप्रतिभासमानो वा १ प्रतिभासमानश्चेत् कर्ता स्यात्ततोऽन्यत्कर्म वाच्यम्, तस्यापि प्रतिभासमानत्वे कर्तृत्वादन्यत्कर्मेत्यनवस्थानाम कचित्कर्मत्वव्यवस्था ।
यदि फिर आप मीमांसक दूसरा पक्ष ग्रहण करोगे ? यानी अन्य पदार्थ कर्म है, तब तो हम पूंछते हैं कि प्रतिभास करनेवाले पदार्थको कर्म कहोगे ? या नहीं जाननेवाले पदार्थको कर्म कहदोगे ? बतलाइये | यदि प्रतिभास करनेवालेको धर्म कहोगे, तब वह कर्ता भी होगा ! कर्ता में शानच् प्रत्ययं किया गया है । तब तो उससे न्यारा कर्म दूसरा कहना पडेगा । क्योंकि आपके ममे कर्ता और कर्म एक पदार्थ माने नहीं गये हैं और फिर उस दूसरे भिन्न कर्मको भी प्रतिभास करने वाला मानोगे तो वह फिर कर्ता बन बैठेगा । तथा च उससे भी न्यारा कर्म तीसरा ही मानना पड़ेगा। वह तीसरा भी कर्म प्रतिभासमान माना जावेगा तो चौथे भिन्न कर्मकी आवश्यकता होगी। इस तरह अनवस्था हो जायेगी। कहीं भी ठीक ठीक कर्मपनेकी व्यवस्था न हो सकेगी।
यदि पुनरप्रतिभासमानोऽर्थः कर्मोच्यते तदा खरश्रृंगादेरपि कर्मत्वापत्तिरिति न किञ्चित्कर्म स्यादात्मवदर्थस्यापि प्रतिभासमानस्य कर्तृत्व सिद्धेः ।
दूसरे विकल्पके दूसरे विकल्पके अनुसार फिर यदि आप नहीं प्रतिभास होरहे अर्थको कर्म कहोगे, तब तो गधेके सींग, बन्ध्यापुत्र आदि असस्पदार्थों को भी कर्मपनकी आपत्ति हो जावेगी । इस प्रकार कोई भी पदार्थ कर्म नहीं बन पायेगा। क्योंकि आत्माके समान अर्थ मी प्रतिमास रहे हैं। अतः अर्थी को भी कर्तापन सिद्ध हो जावेगा । कर्मपना नहीं आ सकेगा ।
यदि पुनरर्थः प्रतिभासजनकत्वादुपचारेण प्रतिभासत इति न वस्तुतः कर्ता तदात्मापि स्वप्रतिभासजनकत्वादुपचारेण कर्ताऽस्तु विशेषाभावात् ।
।
फिर यदि मीमांसक यों कहेंगे कि प्रतिभासक्रियाका कर्त्ता मुख्यरूपसे आत्मा ही है । प्रतिमासका जनक हो जानेके कारण उपचारसे अर्धमतिभासक्रियाका कर्ता आरोपित कर दिया जाता है । वास्तव में अर्थ कर्ता नहीं है। तत्र तो हम जैन भी कह सकते हैं कि अपने प्रतिभासका अनक होनेसे आत्मा भी उपचारसे ही कर्ती होओ, परमार्थसे नहीं । जैसे प्रतिभासका जनक आत्मा है, वैसे ही प्रतिमासका जनक अर्थ भी है, कोई अन्तर नहीं है, तो फिर आत्माको ही कर्ता नाका पक्षपात क्यों किया जाये ?
स्वप्रतिभासं जनयश्वात्मा कथमकर्तेति चेदर्थः कथम् १ जडत्वादिति चेचत एव स्वप्रतिभास माजीजनत् । कारणान्तराज्जाते प्रतिभासेऽर्थः प्रतिभासते न तु स्वयं प्रतिभासं जनयतीति चेत्, समानमात्मनि । सोऽपि हि स्वावरणविच्छेद । ज्जाते प्रतिभा से विभासते न तनिरपेक्षः स्वप्रतिभासं जनयतीति ।
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तत्वाचिन्तामणिः
अपने प्रतिभासको ठीक तरहसे उत्पन्न करता हुआ आत्मा मला अकर्ता कैसे हो सकता है : ऐसा मीमांसकों के कहनेपर हम जैन पूंछते हैं क्यों जी ! अपने पतिभासको पैदा करता हुआ अर्थ भी अकर्ता कैसे हो सकता है ! बताओ । यदि तुम यों कहोगे कि अर्थ जड है अत: अप्तिरूप प्रतिभासका यह जनक नहीं है । इस प्रकार बतानेपर तो हम कहते हैं कि उस ही कारणसे वह अर्थ अपने प्रतिभासको नहीं उत्पन्न करे अर्थात् प्रतिभासका बह अर्थ कारण भी न बन सकेगा क्योंकि वह जड है। यदि फिर भ्याप यह कहोगे कि दुसो इंद्रिय. पुण्य, पाप, आदि अन्य कारणोसे प्रतिभासके उत्पन्न हो जाने पर अर्थप्रतिभासता है किंतु वह स्वयं अपने प्रतिभासको उत्पन्न नहीं कराता है। ऐसा कहनेपर तो आत्मामें भी यही बात समानरूपसे लागू हो जाती है कि वह आत्मा भी अपने ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रतिभासके उत्पन्न हो जाने पर स्वयं प्रकाशित हो जाता है। उन क्षयोपशम, मन आदि कारणोंकी नहीं अपेक्षा कर अपने प्रतिभासको नहीं उत्पन्न कराता है। यहां सक परपक्षनिराकरण-पूर्वक अपना सिद्धांत पुष्ट कर दिया है ।
तदेवमात्मनः कर्तृत्वकर्मत्वापलापवादिनौ नान्योन्यमतिशय्येते ।
इस कारण अबतक विनिगमनाविरहसे यह जाना गया कि इस प्रकार आत्माके कर्तृत्वका और आत्माके कर्मत्वका अपलाप करनेवाले दोनों वादी परस्परमें एक दूसरेसे कोई अधिक नहीं है। चमत्कारी आत्माके कर्तृत्व और कर्मत्वको न माननेवाले बौद्ध और मीमांसकोंमें एक भी रत्ती नहीं चढ़ती है । दोनों ही लोकप्रसिद्ध आत्माके कर्तृत्व और कर्मत्वको सिद्ध करनेवाली प्रतीतिओंका तिरस्कार कर रहे हैं।
ये तु प्रतीत्यनुसरणेनात्मनः स्वसंविदितात्मत्वमाहुस्ते करणज्ञानात्फलज्ञानाच्च भिभस्यामिन्नस्य वा भिन्नाभिन्नस्य वा।
जो भेद वादो प्रतीति के अनुसार चलने के कारण आत्माको स्वके द्वारा विदित होजानारूप स्वसंविदित कहते हैं, उनसे तो हम जैन पूंछते कि वे प्रमाणात्मक करण ज्ञानसे और ज्ञप्तिस्वरूप फलज्ञानसे मिन्न होरहे आत्माको या अभिन्न कहे गये आत्माको अशा सर्वथा भिन्नाभिन्न मानेगये आत्माको स्वसंविदितपना कह रहे है ? स्पष्ट कर बतलाये ।
भिन्नस्य करणज्ञानात्फलज्ञानाच्च देहिनः ।
खयं संविदितात्मत्वं कथं वा प्रतिपेदिरे ॥ २१९ ॥
तीन पक्षों से यदि पहिला पक्ष लोगे तो करणज्ञान और फलज्ञानसे सर्वथा भिन्न कह दिये गये आत्माका अपने ही द्वारा संविदित स्वरूपपना ये कैसे समझ सकते हैं। कहो, जो आत्मा ज्ञानोंसे
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सत्त्वाचिन्तामणिः
- सर्वथा भिन्न है वह अपना स्वयं वेदन कैसे कर सकता है ? कोई युक्ति नहीं है। सूर्यको प्रकाश से सर्वथा भिन्न मानने पर सूर्यका अपनेको प्रकाश करना कैसे भी नहीं बन सकता है ।
यदि सर्वथा सर्वस्माद्वेदनाद्भिनं तन्न स्वसंविदितं यथा व्योम तथात्मतत्वं श्रोत्रियाणामिति कथं तस्येति संप्रतिपन्नाः ।
ऐसा नियम है कि जो वस्तु सम्पूर्ण ज्ञानोंसे सर्वथा भिन्न है वह स्वसंवेदी नहीं हो सकती है, जैसे कि आकाश । इसी प्रकार प्राभाकर, मीमांसकों ने आत्मतत्त्वको ज्ञानसे मिन्न मान रखा है ! ऐसी दशा में महा यों उस आत्मा के उस स्वसंविदितपने को भी वे कैसे समझ सकते हैं ! अर्थात् कैसे भी नहीं। काजलको कालापन से यदि भिन्न मान लिया जावे तो काजल काला नहीं जाना जा सकता है ।
यदि हेतुफलज्ञानादभेदस्तस्य कीर्त्यते । परोक्षेतररूपत्वं तदा केन निषिध्यते ॥ २२० ॥ परोक्षात् करणज्ञानादभिन्नस्य परोक्षता । प्रत्यक्षाच्च फलज्ञानात्प्रत्यक्षत्वं हि युज्यते ॥ २२१ ॥
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यदि प्रमाणरूप करणज्ञान और ज्ञातिरूप फलज्ञानसे आत्माका अभेद कहोगे तो आत्माको परोपना और प्रत्यक्षपना किसके द्वारा रोका जायेगा ? अर्थात् कोई निषेध नहीं कर सकता है । मीमांसप्रमाणात्मक करणशानको परोक्ष माना है और इतिस्वरूप फलज्ञानको प्रत्यक्ष माना है । तथा च परोक्ष प्रमाणज्ञान से अभिन्न माने गये आत्माको परोक्षपन हो गया और प्रत्यक्ष कहे गये फलज्ञानसे अभिन्न आत्माको नियमतः प्रत्यक्षपना भी युक्तियों करके ठीक प्राप्त हो गया ।
परोक्षात् करणज्ञानात् फलज्ञानाच्च प्रत्यक्षादभिन्नस्यात्मनो न परोक्षता, अहमिति कतया संवेदनान्नापि प्रत्यक्षता, कर्मतया प्रतिभासाभावादिति न मन्तव्यम् दत्तोत्तरत्वात् ।
परोक्ष करणज्ञानले और प्रत्यक्ष फलज्ञानसे तादात्म्य सम्बंध रखते हुए आस्माको सर्व प्रकार से परोक्षपना नहीं आता है प्रभाकर ऐसा विश्वास रक्खें । तथा मैं जानता हूं, मैं देखता हूं, इस प्रकार कर्ता रूपले आत्माका प्रत्यक्ष संवेदन भी हो रहा है । अथवा मीमांसक यों कहें कि परोक्ष करणानसे और प्रत्यक्ष फलज्ञान से अभिन्न हो रहे आत्माका भले ही परोक्षपना न होवे, क्योंकि मैं हूं ऐसा कर्तास्वरूपसे संवेदन हो रहा है किंतु एतावता आत्मा प्रत्यक्ष मी तो सिद्ध नहीं हो पाता है। क्योंकि Renter कर्मरूपसे ग्रंथकार कहते हैं कि प्रतिभास नहीं होता है । यह मीमांसकों को नहीं मानना चाहिये। क्योंकि इसका उत्तर हम पहिले दे चुके हैं। आत्मा अपने को जाननेमें कर्म होकर किसी से प्रत्यक्षका विषय हो जाता है
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सवायचिन्तामगिः
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तथैवोभयरूपत्वे तस्यैतद्दोषदुष्टता । स्याद्वादाश्रयणं चास्तु कथञ्चिदविरोधतः ॥ २२२ ॥
इस ही प्रकार तृतीयपक्षके अनुसार उस आत्माको करणज्ञान और फलज्ञानसे सर्व प्रकार करके भेद और अभेद यों उभयरूप माना जावेगा । ऐसी दशा में तो एकातरूपसे भेद या अभेद पक्षके सदृश इनके उभयपक्षमें भी इन्हीं दोषोंसे दूषित होने का प्रसंग है । इस दोष निवारणार्थ यदि सर्वथा उभय पक्ष न मानकर कथञ्चित् भेद अभेदको स्वीकार करोगे, तब तो स्याद्वाद सिद्धांसका ही सहारा ले लिया समझो । क्योंकि प्रमाणज्ञान और प्रमितिरूप ज्ञानसे आत्माका कथञ्चित् भेद और किसी अपेक्षासे अभेदको अवलम्ब करनेपर कोई विरोध नहीं है ।
सर्वथा भिन्नाभिन्नात्मकचे करपाफलज्ञानादात्मनस्तदुभयपक्षोक्तदोषदुष्टता, कथचिनिभात्मकरवे साद्वादाश्रयणमेपास्तु विरोधाभावात् ।
करणरूप प्रमाणज्ञान और फलस्वरूप प्रमितिज्ञानसे आत्माको सर्वथा भिन्न या अभिन्न स्वरूप माना जावेगा तब तो पूर्वमें भेद और सर्वथा अभेदके एकांत पक्षामें कहे गये उन देषोंसे दूषित होना पड़ेगा । प्रत्येक एकान्तमे जो जो दोष आते हैं, उन दोनों एकांतोंके मिलनेपर भी उभय पक्षमे वे सभी दोष आ जाते हैं। हां, कथञ्चित् मिन्न और अभिन्न स्वरूप माननेपर तो अनेकांत मतका आश्रय करना ही हुआ। क्योंकि उन दोनों एकांतोंसे कञ्चित् भेद या अभेद निराली तीसरी ही अवस्था है । अत: उन दोनों एकान्तों के दोष कथञ्चित् पक्षमें लागू नहीं होते हैं। दो है अवयब जिसके उसको उभय कहते हैं। उभ शब्दका अर्थ दो है और उभय शब्दका अर्थ दोका मिलकर बना हुआ एक न्यारा पदार्थ है । तमी तो व्याकरणम उम शब्दको द्विवचनान्त माना है । और उभय शब्दको एकवचन स्वीकार किया है। कहीं कहीं उभय शब्दका बहुवचन भी इष्ट किया है । परस्परमें सर्वथा विरुद्ध ऐसे दो पदार्थोंका एकीभावरूप मिश्रण नहीं हो सकता है । दूध या पानी तथा दूध और बूरेका एकीकरण हो जाता है । दूध और पारेका मिश्रण नहीं होता है । अतः सर्वथा भेद अमेदका भी उमय बनना शब्दशास्त्र और अर्थशाखसे अनुचित है किन्तु कथञ्वित् भेद और कथञ्चित् अभेदका विरोध न होने के कारण संकलन हो जाता है। अतः प्रमाणदृष्टि से आत्माके साथ करणज्ञान और फलज्ञानका कथञ्चित् भेद और अभेद मानना न्याय्य है । एक देवदत्त पितापन, पुत्रपन, माननाएन, मायापन, आदि धोके समान अपेक्षाभेदसे भेद और अभेदमें कोई विरोध नहीं आता है।
स्वावरणक्षयोपशमलक्षणायाः शक्तेः करणज्ञानरूपायाः द्रव्याधियणादभिन्नस्यास्मनः परोसत्वम्, स्वार्थव्यवसायात्मकाच्च फलज्ञानादभिन्मस्य प्रत्यक्षत्वमिवि स्थाबादा
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सवाचिन्तामणिः
श्रयणे न किंचिद्विरोधमुत्पश्यामा सर्वथैकान्ताश्रयणे विरोधात् । तस्मादात्मा स्यात्परोक्ष स्यात्प्रत्यक्षः ।
• अपने नियत ज्ञानको रोकनेवाले ज्ञानावरण कर्भके सघाती स्पर्षकको उदयप्रकारका फल न देते हुये झड जानास्त्रप क्षय तथा भविष्य उदय आनेवाले ज्ञानावरण कर्मोंका सत्तामें अवस्थित बने रहना स्वरूप उपशम और देशघाती प्रकृतियों के उदय होनेपर जो आत्मामें विशुद्धि होती है, उसको लब्धि कहते हैं । लब्धिरूप शक्तिको प्राप्त करनेमें भविन्यमें आनेवाले कमाके उपशमकी इसलिये आवश्यकता है कि अपकर्षण न हो सके या उदीरणाके द्वारा ये कर्म उदयावली में न आ जाये तथा देशघाती प्रकृतियों के उदय बने रहने से चार क्षायोपशमिक ज्ञानाम परिपूर्णता या पूरी स्पष्टता नहीं होने पाती है। सर्थयातिप्रकृतियोंका उदयाभावी क्षय तो ज्ञानकी उत्सत्तिम प्रधान कारण है ही, ऐसे क्षयोपशम स्वरूप जाननेकी शक्तिको अन्तरंग करणास्मक ज्ञान कहते है। द्रव्यार्थिक नयका आसरा लेकर विचारा जावे तो वह लब्धि और आत्मा अभिन्न हैं । इस कारण छद्मस्थ जीवोंको लब्धिरूप करणज्ञान जब परोक्ष है तो उससे अभिन्न आस्मा भी परोक्ष सिद्ध हुआ । और अपना तथा अर्थका निश्चय करनेवाले फलज्ञानका प्रत्यक्ष होता है तो उस उपयोग स्वरूप फलज्ञानसे अभिन्न माने गये मात्माका मी प्रत्यक्षपना सिद्ध हुआ । इसपर स्याद्वादमतका सहारा लेनेसे तो हमको कोई भी विरोध नहीं दीख रहा है। हां, सर्वथा एकान्तका अवलम्प लेनेपर नैयायिक और बौद्धोको विरोध दोष लगेगा । उस कारणसे अबतक सिद्ध हुआ कि क्षयोपशम- स्वरूप लब्धिसे अभिन्न हो रहा आला कथञ्चित् परोक्ष है और उपयोगस्वरूप आलाका प्रत्यक्ष भी होता है । यो अपेक्षासे कयश्चित् लगा कर आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध हुआ।
प्रभाकरस्याप्येवमविरोधः किं न सादिति चेत् न, करणफलज्ञानयोः परोक्षप्रत्यअयोरव्यवस्थानात् । तथाहि
प्रभाकर मीमांसक कहते हैं कि स्याद्वादियों के समान हमारे मतमें भी आत्माके प्रत्यक्षपने और परोक्षपने का इस प्रकार अविरोध क्यों न हो जाये ! आचार्य करते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि मीमांसकों द्वारा माने गये करणज्ञानका परोक्षपना और फलज्ञानका प्रत्यक्षपना युक्तियोसे व्यवस्थित नहीं हो पाता है। भावार्थ-प्रामाकरोंसे माना गया करणज्ञान परोक्ष सिद्ध नहीं है। उसका सब जीवोंको स्वसंवेदनसे प्रत्यक्ष हो रहा है। यद्यपि लब्धिरूप ज्ञान परोक्ष है किंतु उसको माभाकर इष्ट नहीं करते हैं। प्रभाकर जिस फज्ञानका प्रत्यक्ष होना मानते हैं, वह करणज्ञानसे सर्वथा सिद्ध होकर व्यवस्थित होता नहीं है । इसी बातको स्पष्टतासे दिखलाते हैं... प्रत्यक्षेऽर्थपरिच्छेदे स्वार्थाकारावभासिनि । ... . किमन्यत्करणज्ञानं निष्फलं कल्प्यतेऽमुना ॥ २२३ ।।
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
होना
है तो
अपना और अर्थका उल्लेख कर प्रकाशित होनेवाले अर्थज्ञानका यदि प्रभाकर प्रत्यक्ष इससे एवं दूसरा करणजान व्यर्थ ही प्रमाकरद्वारा क्यों कल्पित किया जा रहा है ? जिसकी कि कोई आवश्यकता नहीं। यह वार्त्तिक मट्ट और ममाकर दोनोंके लिये कही गयी है ||
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अर्थपरिच्छेदे पुंसि प्रत्यक्ष स्वार्थाकारव्यवसायिनि सति निष्फलं करणज्ञानमन्यच्च फलज्ञान, तत्कृत्यस्यात्मनैव कृतत्वादिति तदकल्पनीयमेव ।
जब मट्टमतानुयायी मीमांसक अर्थको जाननेवाले एवं स्त्रको तथा अर्थको उल्लेखसहित समझने और समझानेवाले आत्माका यदि प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हैं, तब आत्मा ही अर्थोक। परिच्छेद कर लेता है, तो ऐसी दशामें करणज्ञान और उससे भिन्न एक फलज्ञान इन दोनोंका स्वीकार करना व्यर्थ है, क्योंकि उनसे होनेवाले कार्यको आत्मा ही कर देता है । इस कारण प्रमाणज्ञान और फलज्ञानकी कल्पना ही मीमांसकों को नहीं करनी चाहिये ।
स्वार्थ व्यवसायित्वमात्मनोऽसिद्धं व्यवसायात्मकत्वात्तस्येति चेत् न, स्वव्यवसायिन एवार्थ व्यवसायित्वघटनात् । तथा झात्मार्थ व्यवसायसमर्थः सोऽर्थव्यवसाय्येवेत्यनेनापास्तम्, स्वव्यवसायित्वमन्तरेणार्थव्यवसितेरनुपपत्तेः कलशादिवत् ।
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मीमांसक कहते हैं कि उस आत्माका स्वरूप ही निश्चयात्मक है। अतः निश्चय कर लेनेवापन आत्माका स्वभाव नहीं है, तभी तो वह स्वका निश्चय नहीं कर पाता है । अतः अपनेको और अर्थको निश्चय करनेवालापन आत्मा के सिद्ध नहीं है जोकि जैन कह रहे हैं । आचार्य समझाते हैं कि यह उनका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अपना निश्चय करनेवाले पदार्थ के ही अका व्यवसायीपन घटित होता है यह स्पष्ट है । इस कथनसे किसीका यह मंतव्य भी खण्डित हो जाता है कि " आला अर्थ निश्चय करने में समर्थ है, अतः वह अर्थको ही निश्वयकर जान सकता है स्त्र को नहीं " क्योंकि अपना निश्चय किये विना अर्थका निश्चय करना सिद्ध नहीं होता है। जैसे घट, पट आदिक अपनेको नहीं जानते हैं। तभी तो वे किसी अर्थका निश्चय नहीं कर सकते हैं !
सत्यपि स्वार्थ व्यवसायिन्यात्मनि प्रमातरि प्रमाणेन साधकतमेन ज्ञानेन भाव्यम् । करणाभावे क्रियानुपपत्तेरिति चेत् न, इन्द्रियमनसोरेव करणत्वात् ।
मीमांसक कहते हैं कि अच्छी बात है । अपनेको और अर्थको निश्चय करनेवाला 'प्रमाता मामा सिद्ध हुआ ऐसा होनेपर फिर भी ज्ञतिक्रियाका साधकतम यानी प्रकृष्ट उपकारक प्रमाण ज्ञान अवश्य होना चाहिये। क्योंकि करणके विना क्रिया हो नहीं सकती है । अतः हमारा करणज्ञान मानना व्यर्थ नहीं हुआ। मंथकार कहते हैं कि बद करना तो ठीक नहीं है, क्योंकि इमि
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क्वार्थचिन्तामणिः
क्रियाका आत्मा कर्ता है और चक्षुरादिक इंद्रियां तथा मन साधकतम करण विद्यमान हैं ही। मीमांaster इनसे भिन्न परोक्षज्ञानको करण मानना फिर भी निष्प्रयोजन है ।
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_तोरनत्वादुपकरणमात्रत्वात् प्रधानं चेतनं करणमिति चेत् न, भावेन्द्रियमनसो परेषां चेतनतयावस्थितत्वात् । तदेव करज्ञानमस्माकमिति चेत्, तत्परोक्षमिति सिद्धं साध्यते । लब्ध्युपयोगात्मकस्य भावकरणस्य छवस्था प्रत्यक्षत्वात् सञ्जनितं तु ज्ञानं प्रमाणभूतं नामत्यक्ष स्वार्थव्यवसायात्मकत्वात्, तच्च नात्मनोऽर्थान्तरमेवेति स एव स्वार्थय्यवसायी यदीष्टस्तदा व्यर्थ, ततोऽपरं करणज्ञानं फलज्ञानं च व्यर्थमनेनोक्तं तस्यापि ततोऽन्यस्यैवासम्भवात् ।
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मीमांसक कहते हैं कि बहिरंग इंद्रियां और मन वे तो अचेतन हैं। इस कारण करणके etad या सहायक उपकरण हो सकते हैं। प्रधान करण तो चेतन ज्ञान ही है । श्रीविद्यानन्व mer समझाते है कि मीमांसकों का यह भी कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि तुमसे भिन्न वादी arth मतमै भावस्वरूप इंद्रिय और मनको चेतनात्मक रूप से व्यवस्थित माना गया है । यहाँ मीमांसक यदि यों कहें कि वे ही लब्धिरूप इंद्रियां हमारे मतर्फे करणज्ञान इष्ट की गयी है, तद सो हम जैन कहेंगे कि उन लब्धिरूप इंद्रियोंको यदि आप परोक्ष सिद्धसान दोष है । लब्धिरूप ज्ञान उपयोग तो आलाका अंतर
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सिद्ध करते हैं तो आपके ऊपर अतीन्द्रिय परिणाम है । वह
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की मावशक्ति ही ज्ञानका अभ्यंतर करण है । सर्वज्ञके अतिरिक्त छद्मस्थ जीवोंको उस लब्धिरूप ज्ञानशक्तिका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है। लब्धिको भले ही आप मीमांसक परोक्ष मानें, हम भी मानते हैं। सिद्ध पदार्थो को क्यों साध्य किया जाता है। ऐसी बातें सुननेके लिये किसके पास अवसर है | अतः सिद्धसाधन दोष हुआ। हां ! उस लब्धिसे उत्पन्न हुआ प्रमाणभूत ज्ञान तो अत्यक्ष नहीं है क्योंकि उस ज्ञानका स्वरूप अपना और अर्थका निश्चय करना है और वह ज्ञान
से सर्वे भिन्न ही होब यों भी नहीं। ऐसा होनेपर वह आत्मा ही स्व और अर्थका निश्चय करनेवाला यदि मान लिया गया तब तो उस आत्मासे मित्र एक करणज्ञान मानना व्यर्थ ही है । इस उक्त कथनसे करणज्ञानके समान फलज्ञानका भी व्यर्थ होना कह दिया गया है। क्योंकि वह फलज्ञान भी उस आत्मासे सर्वथा भिन्न नहीं सम्भव है। उन दोनोंका कार्य अकेला आत्मा ही साथ देता है ।
अथवा प्रत्यक्षेऽर्थपरिच्छेदे फलज्ञाने स्वार्याकाराव भासिनि सवि किमतोऽन्यत्करणं ज्ञान पोष्यते निष्फलल्या चस्य ।
अब तक आश्माका प्रत्यक्ष होना माननेवाले कुमारिलभट्टके सम्प्रदायानुसार इस वार्षिक कारिकाका सूर्य किया अर्थाद अपनेको और अर्थको जाननेवाले आस्माका जब विशदरूपसे प्रत्यक्ष होना मानते हो तो उससे भिन्न करणशान और फलज्ञानको स्वीकार करना मीमांसकों का व्यर्थ है 1
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अब उसी कारिकाका द्वितीय अर्थ प्राभाकर मीमांसकोंके प्रति घटाते हैं कि अथवा स्वयंको और rest tae करनेवाले अर्थशतिरूप फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना जो प्रभाकर इए कहते हैं। तब अकेले फलज्ञानसे ही अर्थकी परिच्छित्ति होना सिद्ध है ऐसा होनेपर इस फलज्ञानसे मिस्र एक निराका प्रमाणस्वरूप करणज्ञान पर्यो पुछ किया बजट है। क्योंकि बीचका प्रमाणान मानना सर्वथा व्यर्थ है ।
तदेव तस्य फलमिति चेत्, प्रमाणादभिन्नं भिनं वा ? यद्यभि प्रमाणमेव तदिति कथं फलज्ञाने प्रत्यक्ष करणज्ञानमप्रत्यक्षम् ? भिन्नं चेन्न करणज्ञानं प्रमाणं स्वार्थव्यवसायाद - र्थान्तरत्वात् घटादिवत् । कथञ्चिदभिन्नमिति चेन्न सर्वथा करणज्ञानस्याप्रत्यक्षत्वं विरोधात्, प्रत्यक्षात्फलज्ञानात् कथंचिदभिनत्वात् ।
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प्रमाकर कहते हैं कि जैसे कि काठका फटनारूप क्रियाका करण कुठार है । कुठारके बिना छेदनारूप क्रिया किसकी कही जावे ? उसी प्रकार अर्थज्ञसिरूप क्रिया बिना करणके नहीं हो सकती है । इस कारण प्रमाणज्ञान मानना आवश्यक है, तभी तो उस ममाणज्ञानका फल वहीं अर्थ कही जाती है । जैसे वेगके साथ उठना और गिरनारूप क्रियाओंसे युक्त कुल्हाडीका फल काठका फट जाना है | आचार्य कहते हैं कि यदि प्राभाकर ऐसा कहेंगे तब तो हम पूंछते हैं कि यह अर्थज्ञतिरूपी फल प्रमाणसे भिन्न है या अभिन्न है ! बताओ ।
यदि फलको प्रमाणसे अभिन्न मानोगे तब तो वह फल प्रमाणरूप ही हो गया । मका ऐसी दशामें फलज्ञानका सो प्रत्यक्ष माना जावे और उससे अभिन्न करणज्ञानका प्रत्यक्ष न माना जावे यह कैसे हो सकता है ? अर्थात् प्रमाणका मी प्रत्यक्ष होना प्रामाकरोंको मानना पड़ेगा ।
द्वितीय पक्षके अनुसार यदि प्रमाणसे फलज्ञानको भिन्न मानोगे, तब तो करणज्ञान प्रमाण न बन सकेगा। क्योंकि अपने और अर्थके निश्चय करनेवाले फलज्ञानसे वह प्रमाणज्ञान सर्वया मित्र माना गया है । जैसे फलज्ञानेस सर्वथा भिन्न हो रहे घट, पर आदिक तटस्थ पदार्थ प्रमाण नहीं बनते हैं वैसे ही भिन्न उदासीन पड़ा हुआ करणज्ञान मी प्रमाण न हो सकेगा । उक्त दोनों दोषोंके निवारण के लिये यदि प्रमाण और फलज्ञानका कथम्बित् अभेद मानोगे, तब तो करणज्ञान सर्वया ही अप्रत्यक्ष न हो सकेगा । अभेदपक्ष लेनेपर फलज्ञानका प्रत्यक्षपना धर्म करणज्ञानमें भी प्रविष्ट हो जावेगा। फलज्ञानमे प्रत्यक्षत्व माना जावे और उससे अभिन्न प्रमाणज्ञानमें अप्रत्यक्षपना माना जावे यह बात विरुद्ध है हो नहीं सकती । प्रत्यक्ष होनेवाले फलज्ञानसे कमम्मित् अमिन हो - रहा प्रमाण भी प्रत्यक्षविषय हो जावेगा । अर्थात् स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से प्रमाण जान लिया जावेगा । कर्मत्वेनाप्रतिभासमानत्वात्करणज्ञानमप्रत्यक्षामिति वेन, करणत्वेन प्रतिभासमानस्य terature, कथञ्चित्प्रतिभासते च कर्म च न भवतीति व्यापातस्य प्रतिपादितत्वात् ।
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मीमांसफ कहते हैं कि जाननारूप क्रियाका जो कर्म होता है उसका प्रत्यक्ष होना हम इष्ट करते हैं किंत करणज्ञानको अप्तिक्रियाका कर्मपना नहीं प्रतिभासित हो रहा है । वह तो करण है। इस कारण प्रमाणज्ञानका प्रत्यक्ष होना नहीं माना जाता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि यह कोई राजाकी आज्ञा नहीं है कि जो ज्ञमिक्रियाका कर्म न होगा, उसका प्रत्यक्ष भी न हो सकेगा । उक्त नियमका भट्टके मतमें आत्मासे और प्राभाकरके मतमें फलज्ञानसे व्यभिचार होता है क्योंकि आत्मा तो ज्ञप्तिका कर्ता है और फलज्ञान स्वयं किया है । इन दोनोमसे कर्म कोई नहीं है फिर भी इनका प्रत्यक्ष हो जाना माना है, अतः प्रमाणज्ञानका कारणपनेसे प्रतिभास होते हुए भी प्रत्यक्ष होना बन सकता है, कोई बाषा नहीं है । ज्ञान अन्य पदार्थोंका प्रकाश तो करे और वह स्वयं किसी भी प्रकारसे शसिक्रियाका कर्म न हो सके इस बातमें व्याघात दोष है । इसको हम पूर्वमै कह चुके हैं। काञ्चित् प्रतिभासता है और कर्म नहीं होता है यह बोलना ही पूर्वापर विरुद्ध है। भावार्थ-जो ज्ञान पदार्थोंका प्रतिभास करता है वह अपनेको जानता हुआ अंशरूपसे इप्तिक्रियाका कर्म भी हो सकता है। कोई क्षति नहीं है। प्रदीप दृष्टान्त विद्यमान है।
कथञ्चायं फलज्ञानं कर्मत्वेनाप्रतिभासमानमपि प्रत्यक्षमुपयन् करणशान तथा नोपैति न घेयाकुलान्ताकरणः । .. हम अन्य परीक्षकोंके सम्मुख घोर गर्जना करते हुए प्राभाकरों के प्रति कटाक्ष करते हैं कि यह प्रामाकर कर्मपनेसे नहीं भी प्रतिभासित हो रहे ऐसे फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना कैसे मान लेते हैं ? बताओ, शतिक्रियाके नहीं कर्म बने हुए भी फलज्ञानको प्रत्यक्षविषय मानता है और अष्ठिक्रियाके करणको कर्म न होनेके कारण फलज्ञानके समान प्रत्यक्षगोचर नहीं मानता है। क्यों जी। इसका अन्तःकरण क्या घबडाया हुआ नहीं है ? यह अवश्य व्याकुल है । ऐसी ऑधीवाते तो आपेसे रहित मनुष्य कहा करते हैं । दार्शनिकोंको अयुक्त पक्षपात नहीं करना चाहिये ।
फलज्ञान कर्मत्वेन प्रतिभासत एवेति चेत् न, फलत्वेन प्रतिभासनविरोधात् ।
पुनः प्रामाकर कहते हैं कि फलज्ञानका ज्ञप्तिक्रियाके कर्मपनसे प्रतिमास हो रहा ही है। आचार्य कहते है कि यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि जिसका कर्मपनेसे प्रतिभास न हो रहा है, आपके मतानुसार उसका फलपनेसे प्रतिभास होनेका विरोध है । भावार्थ-एकांतवादियों के मतमें जो कर्म है वह फल नहीं हो सकता है । स्याद्वादसिद्धान्त कोई विरोध नहीं है।
. ननु च प्रमाणस्य परिच्छित्तिः फलं सा चार्थस्य परिच्छिद्यमानता, तत्प्रतीति: कर्मस्वप्रतीविरेवेति चेत् किं पुनरिय परिच्छित्तिरर्थधर्मः १ तथोपगमे प्रमाणाफलत्वविरो- पोऽयवत् प्रमादधर्मः सेति चेत् कथं, कर्मकर्तृत्लेन प्रतीते।
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सत्त्वावचिन्तामणिः
प्रामाकर अपनी पहिली शंका करते हुए अनुनय करते हैं कि प्रमाणका फल ज्ञप्ति होना है और वह शप्ति तो अर्थका जाना जा रहापन है । उस परिच्छित्तिक्रियाके द्वारा जाने गयेपनकी प्रतीतिको ही ज्ञतिक्रियाक कर्मपनकी प्रतीति कहते हैं । इस कारण फलरूप परिच्छित्तिको कर्मपना भी बन जाता है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि फिर यो बताओ कि यह इप्ति क्या अर्थका धर्म है ! या आत्माका धर्म है ! यदि आप अर्थकी ज्ञप्सिको इस प्रकार घर, पट आदि अर्थों का स्वभाव मानेंगे तब तो घट या उसके रूप, रस आदि अर्थोके समान वइ प्रमाणका फल न हो सकेगी, विशेष है । अर्थक धर्म तो प्रमाणके फल नहीं हो सकते हैं अन्यमा चेतनके फल काला, नीला, शीत, उष्ण भी हो जावेंगे !
यदि अर्थकी उस इप्तिको प्रमाता-आत्माका धर्म मानोगे, तब तो वह अर्थकी झप्ति मला कर्म कैसे हो सकेगी। क्योंकि कर्मापनेसे उसकी प्रतीति हो रही है । कर्ताके धोका कर्मपनेके साथ विरोष है।
न कर्मकारक नापि कर्वकारकंपरिच्छित्तिः क्रियात्वात्, क्रियायाः कारकस्वायोगात् । क्रियाविशिष्टस्य द्रव्यस्यैव कारकत्वोपपत्तेरिति चेत् , वहि न फलज्ञानस्य कर्मत्वेन प्रतीतियुक्ता, क्रियात्वेनैव फलात्मना प्रतीतिरिति न प्रत्यक्षत्वसम्भवः करणज्ञानवदात्मवद्वा ।
पुनः साकुल होकर प्राभाकर कहते हैं कि परिच्छित्ति न तो कर्मकारक है और न कर्ता कारक है, क्योंकि वह तो क्रिया है। क्रिया कारक थोडी ही होती है। किंतु क्रियासहित हो रहे कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण स्वरूप द्रव्यको ही कारकपना युक्तियोंसे सिद्ध है। आचार्य समझाते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तब तो फलशानकी कर्भपनसे प्रतीति होना युक्त नहीं है । आपने जो पहिले कहा था कि फलज्ञानकी कर्मपनेसे प्रतीति होती है, उस कमनको माप कौटा लीजियेगा । आपके वर्तमान कथनके अनुसार फलस्वरूप करके अर्थज्ञप्तिकी क्रियापनसे ही सब जीवोंको प्रतीति हो रही है । ऐसी दशमि तो फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना नहीं सम्भव है । जैसे कि आपके यहां प्रमाणज्ञानका और आस्माका कर्म न हो सकनेके कारण प्रत्यक्ष होना नहीं माना गया है, उसी प्रकार क्रिया हो जाने के कारण फलज्ञानका भी प्रत्यझ न हो सकेगा। कियासे सहित पदार्थको कर्मकारक कहते हैं। स्वयं क्रिया तो कर्मकारक कैसे भी नहीं हो सकती है । अत: क्रियाका प्रत्यक्ष न हो सकेगा।
तस्यापि च परोक्षत्वे प्रत्यक्षोऽर्थो न सिद्धयति । ततो ज्ञानावसायः स्यात् कुतोऽस्यासिद्धवेदनात् ॥ २२४ ॥ करणज्ञान और आत्मा के समान यदि उस फलज्ञानका मी प्रत्यक्ष होना न मानेगे अर्थात आप फलज्ञानका भी परोक्ष होना स्वीकार करेंगे तो घट, पर आदि पदार्थों का प्रत्यक्ष होना नहीं
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सिद्ध होता है और जिस ज्ञानका प्रत्यक्ष होना ही असिद्ध है, उस ज्ञानसे अपने या दूसरे ज्ञानका निर्णय भी कैसे हो सकेगा ? आप ही कहिये । जो स्वयं अंधगर्तमें पड़ा हुआ है, वह दूसरे ज्ञेय और शानोंका प्रकाशन कैसे कर सकता है ! कथमपि नहीं |
फलज्ञानमात्मा वा परोक्षोऽस्तु करणज्ञानवदित्ययुक्तमर्थस्य प्रत्यक्षतानुपपत्तेः प्रत्यक्षा स्वपरिच्छिसिमधितिष्ठन्नेव ह्यर्थः प्रत्यक्षो युक्तो नान्यथा, सर्वस्य सर्वदा सर्वथार्थस्य प्रत्यक्षत्वमसंगात् ।
अर्थपरिच्छित्तिरूप फलज्ञान और प्रमाता आत्मा भी प्रमाणात्मक करणज्ञानके समान परोक्ष रहो । अर्थात् तीनोंका स्वसंवेदनसे या ज्ञानांतरसे प्रत्यक्ष न होओ । इस प्रकार मीमांसकों का कहना भी युक्तिशून्य है। क्योंकि ऐसा माननेपर पदार्थों का प्रत्यक्ष होना नहीं सिद्ध हो पाता है। जो रंग
यं पीला नहीं है या पीला करनेकी नैमितिक शक्तिसे युक्त नहीं है, वह वस्त्रको पीला नहीं कर सकता है । अपनेको जाननेवाले ज्ञानकी प्रत्यक्षात्मक परिच्छित्ति पर आरूढ होता हुआ ही पदार्थ निश्चय कर प्रत्यक्षविषय ठीक ठीक युक्तिपूर्ण कहा जाता है । दूसरे प्रकार उपाय नहीं है अर्थात् जो अपने विषयो ज्ञानकी प्रत्यक्षरूप ज्ञप्ति होनेपर आरूद नहीं है उसका प्रत्यक्ष होना मानना अयुक्त है। यदि अपने ज्ञानकी मस्यक्षता किये बिना पदार्थों का प्रत्यक्ष हो जाना मान लिया जावे तो सब जीवोंको सम्पूर्ण कालके सभी प्रकारसे अाँका प्रत्यक्ष होने का प्रसंग आ जावेगा। भावार्थज्ञानमें प्रत्यक्षताके बिना लाये पदार्थों का प्रत्यक्ष करना माना जावे तो सम्पूर्ण जीव सर्वज्ञ बन जायेगे क्योंकि सम्यूर्ण पदार्थोकी ज्ञप्तिके अपत्यक्षरूप अंधेरै लुलभतासे सम्पूर्ण जीव बैठे हुए हैं। उनको पदार्थों का प्रत्यक्ष करना बिना परिश्रमके प्राप्त हो जावेगा । अन्य आत्माओंके ज्ञानोंका भले ही हमको प्रत्यक्ष न होय फिर भी उन ज्ञानोंसे हमें उनके देखे हुये सभी पवायोंका प्रत्यक्ष हो जाना चाहिये ।
तथात्मनः परोक्षत्वे सन्तानान्तरस्येवार्थः प्रत्यक्षो न स्यादन्यथा सर्वात्मान्तरप्रत्यक्षा सर्वस्थात्मना प्रत्यक्षोऽसौ किं न भवेत् । सर्वथा विशेषाभाचात् ।
उस प्रकार आत्माका प्रत्यक्ष न मानकर आत्माका परोक्ष ज्ञान होना इष्ट फरोगे तो अन्य दूसरी सन्तानात्मक आत्माओं के समान प्रकृत आत्माको भी सन्मुख पदार्थका प्रत्यक्ष न हो पावेगा। यदि अन्य प्रकारसे मानोगे यानी देवदत्तको अपनी आत्माके परोक्ष होनेपर मी पदार्थाका प्रत्यक्ष करना मानोगे तो संपूर्ण दूसरे जिनदत्त, यशवस, पशु, पाक्षियोंकी मिन्न आत्माओंके द्वारा जाने गये विषयोंका मी देवदत्तको प्रत्यक्ष हो जाना चाहिये । तथा देवदत्तसे जाने हुए अर्थका अन्य इन्द्रदत्त आदि सम्पूर्ण आत्माओंको वह प्रत्यक्ष क्यों नहीं होवेगा ! जब कि सम्पूर्ण आत्मा और उनके ज्ञान सर्वथा परोक्ष ही हैं तो ऐसी दशामें सभी प्रकारोंसे विशेष अन्तर डालनेका कोई
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कारण नहीं दीखता है जिससे कि विवक्षित आत्मा ही उन पदार्थोंको जान सके। दूसरे मिन्न आत्माएं न जानमे पावें। एक स्थानपर अनेक भन्धे मनुष्य बैठे हुए हैं उनको काले, पीले, नीले रंगोंके तारतम्यसे पदार्थों का विमाग करना अशक्य है। या तो सभी अन्धे काले, नीले, पीले सभी पदार्टीको एकता जानेो और प्रस्परमें एक दूसरेके ज्ञानोंका सार्य हो जायेगा। या एक भी अन्या किसी भी पदार्थको नहीं जान पावेगा क्योंकि परस्परमें कोई अन्तर नहीं है।।
ततश्चाप्रत्यक्षादर्थात् न कुतश्चित् परोक्षज्ञाननिश्चयोऽस्य वादिनः स्यात् येनेदं शोभेत ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छतीति ।
इस कारण अर्थका प्रत्यक्ष होना जब अलीक हो गया तो ऐसे किसी भी अप्रत्यक्ष अर्थसे इस मीमांसक वादीको परोक्ष ज्ञानको सत्ताका निर्णय किसी भी अनुमानसे न हो पावेगा । जिससे मीमांसकोंका यह कहना शोभा देता कि " पदार्थोके ज्ञान हो जानेपर अनुमानसे बुद्धिका ज्ञान कर लिया जाता है। " जन ज्ञानका ही निर्णय नहीं है तो ज्ञानके विषय और ज्ञाप्तपदार्थकी ज्ञाततारूप हेतुका निर्णय कैसे होगा ? और बिना हेतुज्ञानके बुद्धिरूप साध्यका अनुमान कैसे हो सकता है । कथमपि नहीं। यहां यह अन्योन्याश्रय दोष भी है कि ज्ञानका ज्ञान हो जाये तब विषयों घातता प्रतीत होवे और ज्ञातताके जाननेपर ज्ञानका अनुमान हो सके।
नाप्यसिद्धसंवेदनात्पुरुषात्तन्निश्चयो यतोऽनवस्था न भवेत, तल्लिगज्ञानस्यापि परोक्षत्वे अपरानुमानाभिर्णयातल्लिगस्याप्यपरानुमानादिति ।।
और नहीं सिद्ध है ज्ञान जिसका ऐसे आत्मासे भी मापके उस परोक्ष ज्ञानकी सत्ताका निर्णय नहीं हो सकता है जिससे कि अनवस्था दोष न होवे । भावार्थ-अज्ञात अपत्यक्ष आमासे परोक्ष ज्ञानका निर्णय करनेपर अनवस्था दोष अवश्य लगता है । क्योंकि ज्ञानको अनुमानसे सिद्ध करनेमें जो हेतु दिया गया है उस हेतुके ज्ञानको भी आप परोक्ष मानेंगे तब तो उस हेतुके ज्ञानका मी दूसरे अनुमानसे निर्णय किया जावेगा । एवञ्च दूसरे अनुमानमें पड़े हुए हेतुका ज्ञान भी तीसरे अनुमानसे जाना जावेगा। तीसरा हेतुज्ञान चौथे अनुमानसे इस प्रकार अनवस्थान्याधी पकृत परोक्षज्ञानकी सिद्धिको खा जावेगी । ज्ञापकपक्ष हेतुको बिना जाने हुए साध्यका निर्णय हो पाता नहीं है । अतः ज्ञानको जाननेकी आकाक्षाय शांत नहीं होगी, बढती ही जावेगी ।
स्वसंवेद्यत्वादात्मनो नानवस्थेति चेत् न, तस्य ज्ञानासंवेदकत्वात् , तत्संवेदकत्वे वार्थसंवेदकत्वं तस्य किन्न स्यात् ।
यदि आप मीमांसक यों कहें कि इम आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना मानते हैं । ऐसे स्वसंवेद्य आत्मासे ज्ञान का अनुमान कर लेवेगे । आकांक्षायें शांत हो जाने के कारण अनवस्था नहीं
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३.८
तत्वार्यचिन्तामणिः
हो पावेगी। ऐसा कहना तो ठीक नहीं जचता है। क्योंकि आपने उस आत्माको ज्ञानका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करनेवाला नहीं माना है। जो ज्ञानका स्वसंवेदन करता है, वही स्वका संवेदन कर पाता है। किन्तु जो ज्ञानका वेदक नहीं है, वह अपना भी संवेदक नहीं है । यदि आत्माको उस इनका संवेदक मानोगे तो ऐसी दशाम उस आत्माको अर्थका संवेदकपना भी क्यों नहीं होगा। भावार्थभास्मा और ज्ञान दोनों ही सूर्यके समान स्थको और परको प्रकाश करनेवाले पदार्थ हैं। वे स्वको और अर्थको अवश्य जानते हैं । आत्मा और ज्ञानका परोक्ष मानना अतीव प्रकाशमान दीपकका उस कोठरी में छिपाना है, जिसमें रखी हुयी उससे प्रकाशित छोटी सुई तकको हम देख रहे हैं।
स्वतोऽर्थान्तरं कश्चिद् ज्ञानमात्मा संवेदयते न पुनरर्थमिति किंकृतोऽयं नियमः ?
अपनसे किसी अपेक्षा करके भिन्न माने गये ज्ञानको आमा बदिया जान लेता है। किंतु फिर अपने से सर्वथा भिन्न हो रहे अर्थको नहीं जान पाता है ऐसा यह नियम किसने किया है। बताओ तो सही क्या सूर्य अपनी किरणोंका प्रकाश करें और गृह, नदी, पर्वत आदिका प्रकाश न करे ! ऐसे थोथे नियम बनाना क्या न्याय्य है ! अर्थात् नहीं !
संवेदयमानोपि ज्ञानमात्मा ज्ञानान्तरेण संवेदयत्ते स्वतो वा ? ज्ञानान्तरेण चेत, प्रत्यक्षेणेतरेण वा ? न तावत् प्रत्यक्षेण, सर्वस्य सर्वज्ञानस्य परोक्षस्वोपगमात् । नापीसरेण ज्ञानेन सन्तानान्तरज्ञानेनेन तेन शातुमशक्तेः । स्वयं झातेन चेत् ज्ञानान्तरेण स्वतो वा ! झानान्तरेण चेत् प्रत्यक्षेणेतरेण वेत्यादि पुनरावर्तत इति चक्रकमेतत् ।
____आपने आस्माको ज्ञानका ही संवेदन करनेवाला माना है । इस पर हम जैन आपसे पूंछते है कि ज्ञानको संवेदन करनेवाला भी वह आत्मा क्या दूसरे ज्ञानमे प्रकृतज्ञानका संवेदन करता है ! या स्वयं अपने द्वारा ही ज्ञानको जान लेता है। बतलाइये । यदि दूसरे अन्यज्ञानसे इस ज्ञानका जानना मानोगे तो यहां प्रश्न करेंगे कि वह दूसरा ज्ञान क्या स्वयं प्रत्यक्षस्वरूप है ! या परोक्षरूप ! जिस करके ज्ञान जान रहा है। कहिये, प्रथम विकास अनुसार यदि दूसरे स्वयं प्रत्यक्ष हो रहे ज्ञानसे प्रकृतज्ञानका जानना मानोगे सो तो ठीक नहीं है, कारण कि आपको अपसिद्धांत दोष होगा क्योंकि आपने सभी आत्माओंके सम्पूर्ण ज्ञानोंको परोक्ष स्वीकार किया है । द्वितीय पक्षके अनुसार यदि न्यारे परोक्षज्ञानसे ज्ञानका जानना इष्ट करोगे तो अन्यसंतान अत्माओंके ज्ञान करके जैसे उन आत्माओंसे जाने हुए पदार्थोका हम ज्ञान नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन आत्माओंके ज्ञानोंका हमको प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है । उसी प्रकार हमारे उस परोक्षज्ञानसे भी हम ज्ञान, घट आदि तन्त्रोंको जान नहीं सकते हैं।
यदि आप मीमांसक आघमें उठाये गये द्वितीय विकल्प के अनुसार स्वयं जाने हुए परोक्षशानसे आत्माको जानका मानना इष्ट करेंगे तब तो हम पुनः पक्ष उठायेंगे कि द्वितीय ज्ञानको
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सस्वाचिन्तामाणिक
आस्माने जान लिया, वह ज्ञानांतरसे जाना या स्वही करके जाना ! बताओ। यहां मी आप पूर्वमें कहे हुए के सदृश्च तृतीयज्ञानसे द्वितीयज्ञानका जानना मानोगे तो हम पुनः विकरुप उठावेंगे कि - बह तृतीय ज्ञान प्रत्यक्षरूप है या परोक्षस्वरूप है ? कहिये । इस प्रकारसे बार बार पस्कर देकर पुनः उन्हीं विकल्पोंकी आवृत्ति की जावेगी, अतः यह आपके ऊपर यह चक्रकदोष हुआ, ज्ञानांतर या स्वतः तथा प्रत्यक्ष या परोक्ष और स्वयंज्ञात इन तीनोंका चक्कर देकर अनवस्वामित चक्रकदोष है।
___ स्वतो ज्ञानमात्मा संवेदयते स्वरूपवदिति चेत् तथैव शानमर्थ स्वच्च स्वतः किन वेदयते ? यता परोक्षज्ञानवादो महामोहविजृम्भित एव न स्यात् ।।
आस्मा जैसे अपने स्वरूपको अपने आप जान लेता है वैसे ही ज्ञानका मी अपने आपसे संवेदन कर लेता है। यदि मीमांसक आप ऐसा कहोगे तब तो उस ही प्रकार ज्ञान भी अपनेको
और बहिरापदायोंको अपने आपसे क्यों नहीं जान लेवेगा ! जिससे कि मीमांसकोंके द्वारा धानका सर्वषा परोक्ष माननेका उठाया हुआ और पक्षपरिग्रहको कह रहा पूर्वपक्ष गाड मोहांधकारका ही विकार न कहा जावे । अर्थात् जैसे आत्मा अपनेको और ज्ञानको जान लेता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपनेको और अर्थको स्वशक्तिसे जान लेता है । मीमांसकोंका हठसे शानको परोक्ष कहते जाना केवल अपने आगमकी मिथ्याश्रद्धाका कुफल है। ज्ञानका स्वभाव सूर्यके समान स्व और परका प्रकाश करना है । मिथ्याज्ञान भी स्त्रको जानने में प्रमाणरूप है। क्योंकि वह सच्चे स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे स्वयं अपने आपको जान रहा है। बहिरा विषयके न ग्रहण करनेकी अपेक्षासे सीपमें चांदीके ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहा है " भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिङ्गवः " श्रीसमंतमद्राचार्य महाराज संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल इन सम्पूर्ण ज्ञानोंको स्वांशके ग्रहण करनेमें प्रमाणस्वरूप मानते हैं। झूठ बोलनेवाला यदि अपनेको असत्य बोलनेवाला कहे तो वह उस अंशम सत्य वक्ता ही है। अतः जानके परोक्षपनेका भाग्रह छोडकर मीमांसकोंको झामका प्रत्यक्ष स्वरूपस्वसेवदन होना अभीष्ट करना चाहिये । अलं वावदूक्तया ।
कथञ्चात्मा स्वसंवेयः संवित्तिर्नोपगम्यते । येनोपयोगरूपोऽयं सर्वेषां नाविगानतः ॥ २२५ ॥
आत्मा स्वयं स्वसंवेदनपत्यक्षसे जानने योग्य है, यह ममिति क्यों नहीं स्वीकार की जाती है ! जिससे कि सम्पूर्ण वादी प्रतिवादियोंको निर्दोषपनेसे यह आत्मा ज्ञानोपयोगस्वरूप सिद्ध न हो सके । भावार्थ- स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे आत्मा उपयोगस्वरूप सिद्ध हो जाता है ।
कृतः पुनरुपयोगात्मा नरः सिद्ध इति चेत्
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सत्त्वार्यचिन्तामणिः
फिर आत्मा उपयोगस्वरूप भला किस ढंगसे सिद्ध किया गया है ? बताओ, जो कि तीसरी वार्तिकने कहा है, पूंछनेपर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं
कथञ्चिदुपयोगात्मा पुमानध्यक्ष एव नः । प्रतिक्षणविवर्तादिरूपेणास्य परोक्षता ॥ २२६ ॥
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हम स्याद्वादियों के ममें आत्मा किसी अपेक्षा सर्व अंगोंमें उपयोगस्वरूप है अतः वह आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है | मानार्थ- जैसे कपूरमें या कस्तूरी में रूप, रस और स्पर्शके होते हुए भी की प्रधानता से उनको गंध द्रव्य कहा जाता है । वैसेही आत्मामें अस्तित्व, द्रव्यत्व, चारित्र आदि गुणोंके रहते हुए भी चेतनागुणका विशेषरूप से समन्वय होने के कारण आत्माको ज्ञान, चैतन्यस्वरूप और स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे गम्य इष्ट किया जाता है । आत्माके गुणों में स्वपर - प्रकाशक और उल्लेख करनारूप साकार होनेके कारण बेतनागुण प्रधान है। क्योंकि आत्माके सम्पूर्ण गुण और पर्यायोंमें चेतन, गोमो होफा बन्ति से ही है। बहते हैं । उत्साहको जान रहे हैं। चारित्रको चेत रहे हैं इस प्रकार अनेक गुणोंमें संचेतनका अनुबन्ध हो रहा है, चेतनाकी ज्ञान और दर्शन पर्याय अतिप्रकाशमान होने के कारण ज्ञानपर्याय मुख्य मानी गयी है तथा ज्ञानकी विशेष प्रत्यक्ष परोक्ष अनेक पर्यायों में प्रत्यक्षको प्राधान्य दिया गया है । उस प्रत्यक्षज्ञानसे आलाका सादात्म्य संबंध है । अतः आला प्रत्यक्षरूप उपयोगात्मक है तथा आत्मा स्वयं अपने डील्ले स्वयं प्रत्यक्ष हो रहा है । प्रत्यक्ष माननेमै अन्य भी उपपत्तियां हैं। तथा प्रत्येक समय होने वाले परिणाम, स्वभाव और विभाव आदि स्वरूपोंसे यह आत्मा परोक्ष स्वरूप भी है। प्रत्येक क्षणमें होने वाली सूक्ष्म अर्थपर्यायोंका सर्वज्ञके अतिरिक्त संसारी जीव प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं । अभिकी दाहकत्व, पाचकत्व शक्तियों का उत्तरकालमें होनेवाले वस्त्रदाह या ओदनपाक द्वारा जैसे अनुमान कर लिया जाता है वैसे ही आत्मा अनेक गुण, स्वभाव और अर्थपर्यायोंका अनुमान कर लिया जाता है । असंख्य पर्यायोंको तो सर्वज्ञोक्त आगमसे ही हम लोग जान पाते हैं । हमारा प्रत्यक्ष और देतुवाद सूक्ष्म अर्धपयाथों में पहाडसे सिर टकराने के समान व्यर्थ हो जाता है । अतः आत्मा अनेक अंशों में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ज्ञेय न बन सकने के कारण परोक्षस्वरूप भी है । इम कहांतक कहें, आत्मा के कतिपय अंश तो हम लोगों के ज्ञेय ही नहीं हैं। सर्वज्ञको छोडकर कोई भी जीव आत्मा के ar अनमिलाय अंशको प्रत्यक्ष और परोक्षज्ञानसे मी नहीं जान पाता है फिर भी अंश और अशी अभेद होनेके कारण पूरा आत्मा प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से दो व्यवहारों में नियमित कर दिया जाता है I
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स्वार्थाकारव्यवसायरूपेणार्यालोचनमात्ररूपेण च ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकः पुमान् प्रत्यक्ष एव तथा खसंविदितत्वात् । प्रतिक्षणपरिणामेन, स्वावरणक्षयोपशम विशिष्टत्वेना
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तयाचिन्तामणिः
३५१ संख्यातप्रदेशत्वादिना चानुभयः, प्रवचनसमधिगम्यश्चात्यन्तपरोक्षरूपेणेति निणेतन्य बाधकामाचात् ।
इस वार्तिकका भाष्य यों है कि अपना और बहिरा पदार्थोका समझने और समझाने योग्य उरलेल कर निश्चय करनारूप ज्ञानसे तथा पदार्थोका केवल सत्तारूप आलोचन करनेवाले दर्शनसे आत्मा ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग-स्वरूप होता हुआ स्वयं प्रत्यक्ष ही है । क्योंकि ज्ञान और दर्शनसे आत्मा सभीको अपने आप उस प्रकार विदित हो रहा है। तया प्रत्येक समयमें होनेवाले पर्यायोंसे आस्मा अनुमानका विषय है क्योंकि अनुमानके बिना एक समयमें हुए उन विशेष परिणामोंको हम न्यारे न्यारे नहीं जान सकते हैं। हां ! उनका सच्चे हेतुसे अनुमान कर लिया जाता है। अपने ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कोंके क्षयोपशमसे सहित आत्मा है इस स्वरूप करके मी आत्माका अंश अनुमानसे जाना जाता है। जैसे कि उत्तम रंगीला चित्र देखनेसे मिचिकी स्वच्छताका अनुमान कर लेते हैं । उसीके सदृश ज्ञान, दर्शन, उत्साह, भोग, उपभोग करना इन क्रियामोंसे इनके अपना अपना आवरण करनेवाले कोका क्षयोपशम अनुमित कर लिया जाता है । एवं आरमाके असंख्याप्त प्रदेशीपन, ऊर्ध्वगौरव स्वभाव, पर्याप्ति, योग आदि भावों का मी उत्तरकालके फलरूप कार्यों को जानकर उस रूपसे अनुमान कर लिया जाता है। अतः उक्त स्वभावोंसे आत्मा अनुमेयस्वरूप भी है । एवञ्च आत्मा आगमगम्य भी है। क्योंकि आत्माके ज्ञान आदि गुणों के अविभाग प्रतिच्छेद,गुरुलघुगुण, भव्यल, अमन्यत्व, अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिफरण, याख्यात चारित्र ये सही आत्माके धर्म श्रीजिनेन्द्र देव करके कहे हुए आगमसे जाने जाते हैं। इस प्रकार आस्मा किसी अपेक्षासे प्रत्यक्षगोचर है और एक अपेक्षासे अनुमानविषय है तथा अत्यन्त परोक्ष माने गये घोंसे आगमगम्य है, ऐसा निर्णय करना चाहिये । इसमें कोई बाधा नहीं दे सकता है। जिसका तर्क या हेतुसे ज्ञान किया जाता है ऐसे पर्वतमें रहनेवाली अमि या जलकी प्यासको दूर करनेकी शक्ति और अमिको बुझानेकी शक्ति आदि ये पदार्थ परोक्ष कहे जाते हैं किन्तु जिन पदार्थोके जानने के लिये इन्द्रियां, मन, हेतु, तर्क, दृष्टान, सादृश्य आदि कारण नहीं है, उन आकाश, कालाणु, धर्मद्रव्य, अविभागप्रतिच्छेद आदिको अत्यन्त परोक्ष कहते हैं, वे पदार्थ आप्तके कहे हुए आगरसे ही जाने जाते हैं, फिर मी अनेक भाव छूट जाते हैं। सर्वज्ञ ही उनका प्रत्यक्ष कर सकते हैं, अन्य जीव नहीं। यहांतक मीमांसक पतिवादियों को समझाया गया है। अब सांख्य मतानुयायीके साथ विचार चलाते हैं।
खरूपं चेतना पुंसः सदोदासीन्यवर्तिनः । प्रधानस्यैव विज्ञानं विवर्त इति चापरे ।। २२७ ॥ तेषामध्यक्षतो बाधा ज्ञानस्यात्मनि वेदनात् । भ्रान्तिश्चेन्नात्मनस्तेन शून्यस्यानवधारणात् ॥ २२८॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
आत्मा ज्ञानोपयोग स्वरूप है यह बात सांख्यको सह्य नहीं है । अतः वे कहते हैं कि सदा उदासीननेवाले सामना करना तो ठीक है। किंतु विज्ञान तो प्रकृविका ही परिणाम है । इस प्रकार जो अन्य कपिल मतानुयायी मानते हैं उनके मंतव्यमें प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही बाधा आती है। क्योंकि आत्मामें ज्ञानका समीचीन वेदन हो रहा है । अतः ज्ञान आत्माका विवर्त है, जब प्रकृतिका परिणाम ज्ञान नहीं है ।
यदि कापियों कहें कि प्रकृतिके कर्तापन आदि परिणाम आलामै प्रतिफलित हो जातें हैं और आत्मा चेतन, भोक्तापन आदि स्वभाव भ्रमवश प्रकृतिमें जाने जाते हैं। प्रकृति और आत्माका संसर्ग होनेके कारण प्रकृतिका ही ज्ञानपरिणाम आत्मा में विदित हो जाता है । उस ज्ञानको आमाका समझ लेना यह भ्रांति है, वस्तुतः ज्ञान प्रकृतिमें ही है । आचार्य कहते हैं कि यह कापि - लोका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस ज्ञानसे रहित होरहे आत्माका कभी निर्णय नहीं किया गया है । सर्वदा आत्मा ज्ञानसहित ही प्रतीत हो रहा है यदि एक बार भी आमा ज्ञानरहित प्रतीत हो गया तो स्फटिकमै जपाकुसुमसे आई हुई ललाईके समान आस्मा में भी प्रकृतिके ज्ञानका आरोप करना मान लिया जाता, किंतु ऐसा नहीं है। जैसे जपाके फूलमै ललाई उसीके घरकी है। उसी प्रकार ज्ञान गुण भी आत्माका गांठका है बाहिरसे आया हुआ नहीं है ।
यथात्मनि चैतन्यस्य संवेदनं मयि चैतन्यं, चेतनोऽहमिति वा तथा ज्ञानस्यापि मयि ज्ञानं ज्ञाताहमिति वा प्रत्यक्षतः सिद्धेर्यथोदासीनस्य पुंसश्चैवन्यं स्वरूपं तथा ज्ञानमपि, सत्प्रधानस्यैव विवर्त ब्रुवाणस्य प्रत्यक्षबाधा ।
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जैसे आत्मा चतनपनेका संवेदन हो रहा है कि मेरे में चैतन्य है अथवा में चेतन हूं, इस कारण आमा चेतन माना जाता है। उसी प्रकार आत्मामें ज्ञानका भी संवेदन हो रहा है कि मुझने ज्ञान है अथवा मैं स्वयं ज्ञाता हूं यह भी प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध हो रहा है । अतः आस्माको ज्ञानस्वरूप भी मान लेना चाहिये और जैसे सांसारिकविषयोंसे उपेक्षा करनेवाले उदासीन पुरुषका स्वरूप चैतन्य है, उसी प्रकार उदासीन पुरुषका ही ज्ञान भी स्वभाव है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होनेपर भी उस ज्ञानको सत्वरजस्तमोगुणरूप प्रकृतिका ही पर्याय कहनेवाले सांख्यको प्रत्यक्षप्रमाण से ही बाबा आ रही है।
ज्ञानस्यात्मनि संवेदनं भ्रांतिरिति चेत् न स्यात्तदैवं यदि ज्ञानशून्यस्यात्मनः कदाचित्संविदा स्यात् ।
आमा ज्ञानका संवेदन होना भ्रान्तिरूप है यह कापिलों का कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि इस प्रकार यह बात तब हो सकती थी यदि किसी भी समय मूलरूपसे ज्ञानरहित
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तत्त्वार्थश्चिन्तामणिः
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आत्माका प्रान्तिरहित संवेदन हुआ होता, किन्तु इसके विपरीत ज्ञानसहित आत्माका सर्वदा ही अभ्रान्त प्रतिभास हो रहा है ।
सर्वदा ज्ञानसंसर्गादात्मनो ज्ञानित्वसंवित्तिरिति चेत्
Ap
ज्ञानपर्यायवाली प्रकृतिसे आत्माका सदासे संसर्ग हो रहा है अतः संसर्गसे दूसरेमें भी गुण और दोष हो जाया करते हैं । इस रीति अनुसार आत्मा के ज्ञानीपनकी ज्ञप्ति हो रही है | वास्तव आत्मा ज्ञानी नहीं है यदि सांख्य ऐसा कहेंगे यों तो —
औदासीन्यादयो धर्माः पुंसः संसर्गजा इति ।
युक्तं सांख्यपशोर्वक्तुं ध्यादिसंसर्गवादिनः ॥ २२९ ॥
जो सांख्य पशुके समान आत्माको नहीं जानता है या अपनी गांठकी वस्तुको अपनी नहीं कह रहा है तभी तो वह आस्मामें बुद्धि, सुख, इच्छा, कर्तापन, परिणाम आदि को आत्माके स्वभाव स्वीकार नहीं करता है । कापिलोंके मतमें प्रकृतिके संबंध से हो जाते हुए बुद्धि, सुख, दुःख आदिक धर्म आत्मा कहे जाते हैं यों उस सांख्यको पुरुषके उदासीनता, भोकापन, चैतन्य आदि धर्म मी प्रकृति संसर्गसे उत्पन्न होकर प्रकृतिकी ओरसे आये हुए औपाधिक भाव ही कहना युक्त होगा । आत्मामें इन चार धर्मोका भौ व्यर्थ क्यों बोझ लादा जाता है ? मात्रार्थ - उदासीनता आदि धर्म भी आत्माकी गांठके नहीं ठहरेंगे । जिसको बाहर से ऋण या भीख मांगनेकी टेब पड गयी है वह सब कुछ दूसरोंसे मांग सकता है ।
ज्ञानसंसर्गतो ज्ञानी, सुखसंसर्गतः सुखी पुमान्न तु खयमिति वदतः सांख्यस्य पशोरिवात्मानमप्यजानतो युक्तं वक्तुमौदासीन्यस्य संसर्गादुदासीनः पुरुषः, चैतन्य संसर्गावेतनो भोक्तृत्वसंसर्गा:ड्रोक्ता, शुद्धिसंसर्गाच्च शुद्ध इति, स्वयं तु ततो विपरीत इति विशेषाभावात् । न हि तस्यानवबोधस्वभावतादौ प्रमाणमस्ति ।
प्रकृतिके बने हुए इनके संबंध आत्मा ज्ञानवान् है तथा सत्त्वगुणकी प्रधानता लेकर परिणत हुयी प्रकृतिके सुखरूप विवर्तका संसर्ग हो जानेके कारण आत्मा सुखी हो जाता है किंतु वस्तुतः स्वभावसे आत्मा सुखी और ज्ञानी नहीं है । इस प्रकार पशुके समान आत्मतत्वको न जानकर कहने वाले सांख्यको यों भी कहना उचित है कि अन्य किसीकी उदासीनता के संबंध आत्मा उदासीन है । दूसरेके चैतन्यके योगसे आत्मा चेतन है । किसीके भोक्ता पनकी उपाधि लग जानेसे आत्मा मोक्ता बन गया है। एवं आकाशके सनिहित होनेके कारण उसकी शुद्धिके संबंध हो जानेसे माला शुद्ध हो गया है। परमार्थसे स्वयं तो उसके विपरीत है । अर्थात् न वो
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उदासीन है और न चेतन, भोक्ता तथा शुद्ध है। यों आत्मामें जैसे ज्ञान, प्रसाद आदि स्वयं उसके घरके नहीं माने जाते हैं, वैसे ही उदासीनता आदि भी आत्माके स्वभाव नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ज्ञान, कपन, आदि धर्मोसे उदासीनता, भोवतृता आदि स्वभावों में कोई अंतर नहीं है। जिससे कि कतिपय धर्म तो आत्मा निजके मान लिये जाये और मन माने कुछ धर्म प्रकृतिकी ओरसे आये हुए माने जावे । यह " अर्धजरतीय " न्यायका अधेडपना अच्छा नहीं है । यदि सांख्य जन परीक्षक मनुष्यों के समान विचार करेंगे तो वे इस बातका निर्णय कर लेवेगे कि आत्मा, ज्ञान, सुख-स्वरूप है, उस आत्माके अज्ञान, असुल और अकती स्वभाव मानने या ज्ञान और मुखको आत्माके गुग न होनेमें कोई भी प्रमाण नहीं है । न अक्योधः स्वभावो यस्यासौ अनवबोधस्वभावस्तस्य भावः अनवबोधस्वभावता, यो विग्रह करना।
सदारमानवबोधादिखभावश्चेतनत्वतः ।
सुषुप्तावस्थवन्नायं हेतुप्प्यात्मवादिनः ॥ २३०॥ . सांख्य अनुभव बनाकर कहते हैं कि सर्वदासे ही आस्मा अज्ञानस्वभाव और असुखस्वभाववाला है। ( प्रतिज्ञा ) अर्थात् ज्ञान, सुख आदिक आत्माके स्वभाव नहीं है, क्योंकि आस्मा चेतन है। ( हेतु ) जैसे कि गहरी नींदकी अवस्थामै सोये हुए पुरुषके ज्ञान और सुख कुछ मी नहीं प्रतीत हो रहे हैं । ( अन्वयदृष्टांत ) इसी प्रकार जागृत अवस्थामें भी आरमा ज्ञान, सुख स्वभाव. वाला नहीं है । भावार्थ-आत्माके ज्ञान, सुख स्वभाव होते तो सोते समय अपश्य जाने जाते, द्रव्य अपने स्वभावोंको कभी छोडता नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कापिलोंका दिया गया यह हेतु अच्छा नहीं है। आस्माको व्यापक माननेवाले सांख्योंका चेतनत्वहेतु असिद्ध हेत्वाभास है।
स्वरूपासिद्धो हि हेतुश्यं व्याविनमात्मानं वदतः कुता
आस्माको सर्व व्यापक कहनेवाले सांख्य मतके एकदेशीय वादियों के मत यह हेतु निश्चय कर पक्षमें न रहने के कारण स्वरूपासिद्ध हेवामास है, वह कैसे है ! सो सुनो !
जीवो घचेतनः काये जीवत्वाबाह्यदेशवत् । वक्तुमेवं समर्थोऽन्यः किं न स्याज्जडजीववाक् ॥ २१ ॥
अनुमान बनाकर हम जैन भी आपके ऊपर अनिष्ट आपादन करते हैं कि शरीरमें भी जीव ( पक्ष ) निश्चयसे अचेतन है । ( साध्य) जीव होनेसे, ( हेतु ) जैसे कि शरीरके पाहिर देशमै जीव अचेतन है । ( दृष्टांत ) इस प्रकार भी दूसरा कोई वादी कहनेको समर्थ हो सकता है वश्रा
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च यो जीवको सर्वथा जह हो जानेका सिद्धांतवचन क्यों न हो जाये ! आप उत्तर क्या दोगे | भावार्थ---कायम मी जीव अचेतन हो जायगा ।
कायादहिरचेतनखेन व्याप्तस्य जीवत्वस्य सिद्धेः कायेऽप्यचेतनत्वसिद्धिरिति नानवबोषादिस्वभावत्वे साध्ये चेतनत्वं साधनमासिद्धस्यासाधनत्वात् ।
देश देशांतरों में रहनेवाले सम्पूर्ण मूर्तद्रव्योंसे आत्मा संयोग रखता है इस कारण शरीरसे बाहिर घट, पट आदिकोंमें जीवस हेतुको अचेतनत्व साध्यके साथ व्याप्ति रखनेवाला सिद्ध करलिया है । वह जीवस्व हेतु विवादमस्त शरीरमें रहनेवाली श्रात्मामें भी देखा जाता है अतः अचेतनत्वसाध्यको सिद्ध कर देवेगा। इस प्रकार आत्मा अचेतन सिद्ध हो जाता है। ऐसी दशाम यात्माके ज्ञान, सुख स्वभावरहित होना साध्यको सिद्ध करने दिया गया चेतनत्र हेतु अच्छा हेतु नहीं है, किंतु उक्त अनुमानसे आत्माको अचेतन बन जानेके कारण आत्मा चेतनत्व हेतुके न रहनेसे वह असिद्ध हेत्वामास है। स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास तो साध्यका साधक नहीं होता है।
शरीराद्वहिरप्येष चेतनात्मा नरत्वतः । कायदेशवादित्येतत्प्रतीत्या विनिवार्यते ॥ २३२॥
जैसे घट आदिको दृष्टांत कह कर शरीरमें मी आत्माको आप अचेतन सिद्ध करते हैं वैसे ही शरीरको दृष्टांत लेकर घट आदिक में मी आत्मा सचेतन क्यों न माना जावे अर्थात् आत्माको चेतन सिद्ध करने के लिये यह अनुमान हम कहेंगे कि शरीरसे बाहिर घट, पट आदि मी विद्यमान यह आत्मा चेतन है, क्योंकि वह आत्मा है । जैसे कि शरीरदेशमें विद्यमान आत्मा चेतन है । इस प्रकार यह कापिलोंका अनुमान तो प्रसिद्ध पतीतिसे रोक दिया जाता है ।
काये चेतनस्वेन व्यासस्य नरवस्य दर्शनात्ततो बहिरप्यात्मनश्चेतनस्वसिद्धेनौसिद्ध साधन मिति न मन्तव्यं प्रतीतिबाधनात् । तथाहि
' सांख्यका मंतव्य है कि शरीरमें रहनेवाले आत्मारूप दृष्टांतम चेतनस्व साध्य के साथ व्याप्ति रखता हुआ आत्मत्व हेतु देखा गया है, इस कारण शरीरसे बाहिर घट, एट, पर्वत आदिमें भी रहनेवाले आत्माको चेतनापना सिद्ध हो जावेगा । अतः हमारा, आत्माको अज्ञानस्वभाव सिद्ध करने दिया गया चेतनख हेतु असिद्ध नहीं है। अंधकार कह रहे हैं कि इस प्रकार कापिलोंको नहीं मानना चाहिये क्योंकि घट, पट, पर्वत आदिकों में आत्माकी सत्ता मानना प्रतीतिसे बाधित है। इसी बातको स्पष्ट कर दिखलाते हैं— सावधान होकर सुनिये ।
तथा च बाह्यदेशेऽपि पुंसः संवेदनं न किम् । कायदेशवदेव स्याद्विशेषस्याप्यसम्भवात् ॥ २३३ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
यदि आत्माको सर्वत्र पर्वत आदिकों में इस प्रकार व्यापक स्वीकार करोगे, तब तो शरीर से
बाहिर वर, पट, नदी, पर्वत आदि देशों में भी आत्माका संवेदन क्यों नहीं होता है ? जैसा ही कि शरीरदेश हो रहा है। शरीर में रहनेवाली और पर्वत आदिकमें रहनेवाली उस आत्मामें कोई विशेषता तो सम्भव है नहीं फिर क्यों नहीं बाहिर देशोंमें आत्माका स्वसंचेतन ( ज्ञान ) होता है ? बतलाइये |
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यस्य हि निरतिशयः पुरुषस्तस्य कामेऽन्यत्र च न तस्य विशेषोऽस्ति यतः काये संवेदनं न ततो वहिरिति युज्यते ।
जिस कापिलके यहां पुरुषको अखण्ड, कूटस्थ, सब स्थानोंमें एकसा माना गया है मात्मा के किसी भी अंश कोई अतिशय घटला पढता नहीं है । उसके उस मसानुसार शरीरमें और घट पट, पर्वत आदिमें एकस्वरूप रहनेवाली उस आत्माकी कोई विशेषता तो है नहीं, जिस विशेषता से कि आत्माका शरीरमे तो वेदन होवे और उससे बाहिर घट आदिकमे आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना युक्तिसहित न बन सके। या तो दोनों स्थलों में आत्माका ज्ञान होगा या दोनोंमेंसे कहीं भी उस आत्माका संचेतन ( ज्ञान ) न हो सकेगा । न्यायोचित अभियोगको झेलना चाहिये ।
कायाद्वहिरभिव्यक्तेरभावात्तदवेदने ।
पुंसो व्यक्तेतराकार भेदाद्भेदः कथं न ते ॥ २३४ ॥
यदि आत्माको व्यापक माननेवाले सांख्य यों कहे कि शरीर से बाहर आत्मा विद्यमान तो है किंतु वह प्रगट नहीं हो सका है। इस कारण तिरोभूत आत्माका शरीरके बाहिर संवेदन नहीं होता है। ऐसा कहनेपर तुम्हारे ( आपके मतमें आत्माका प्रगट आकार और अप्रगट आकारके भेदसे मेद क्यों नहीं हो जायेगा ? अर्थात् – एक ही आत्मा तिरोभूत और आविर्भूत दो स्वभाववाली मानी गयी जो कि आताके एक स्वभाव कूटस्थापनका विघातक है ।
कायेऽभिव्यक्तत्वात् पुंसः संवेदनं न ततो बहिरनभिव्यक्तत्वादिति ब्रुवाणः कथं तस्यैकस्वभावतां साधयेत्, व्यक्तेतराकार भेदाद्भेदस्य सिद्धेः ।
शरीरमें आत्मा प्रकट हो गयी है इस कारण आत्माका संवेदन हो जाता है किन्तु उस शरीर से बाहिर पर्यंत आदिमें आत्मा लकडीमें अमिके समान प्रगट नहीं है, अतः आमाका ज्ञान नहीं हो पाता है । इस प्रकार करनेवाला सांख्य उस आत्मा के एकस्वभावपनको कैसे सिद्ध कर सकेगा ? क्योंकि शरीर व्यक्त और पर्वत आदिकों में उससे भिन्न अव्यक्त आकार के भेदोंसे वह एक आत्मा भिन्न दो सभाववाला सिद्ध हुआ जाता है अथवा दो विरुद्धमात्र आत्माका भेर सिद्ध हो जायेगा । भावार्थ - प्रत्येक आत्मा दो हो जायेंगे ।
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यत्र व्यक्तसंस्तत्रात्मा संवेद्यते नान्यत्रेत्यप्यनेनापास्तम् | निरंशस्य कश्चिदेव व्यक्तसंसर्गस्येतरस्य वा सहृदयोगात् ।
जहां आत्मामें अव्यक्त मानी गयी प्रकृतिके विवर्तस्वरूप हो रहे शरीर, इन्द्रिय, मन, पुण्य और श्वास आदि व्यक्त पदार्थों का सम्बन्ध हो रहा है वहां आत्माका संवेदन हो जाता है किन्तु जहां शरीर आदि व्यक्तपदार्थों का संसर्ग नहीं है वहां अन्य स्थानों में आत्माका ज्ञान नहीं होता है । प्रथकार समझाते हैं कि इस प्रकार किसीका कहना भी इस पूर्वोक्त कथनसे खण्डित कर दिया गया है क्योंकि जब आपके मत में आत्मा अंशोंसे रहित माना है तो आमाके खण्ड खण्ड देश दी नहीं बन सकते हैं। ऐसी दशामें कहीं शरीरके निकटवाली उसी आत्मामें शरीर के साथ ही आत्माका संसर्ग और कहीं कहीं पर्वत आदिके पास उसी आत्मामें ही व्यक्तशरीरका नहीं संसर्ग यो एक समयमै उक्त दोनों विरुद्धस्वभाव बन नहीं सकते हैं। अंशोंसे रीते हो रहे पदार्थ के युगपद् कहीं किसीका सम्बंध अथवा क्वचित् असम्बंध हो जानेका योग नहीं है ।
सकृदेकस्य परमाणोः परमाण्वन्तरेण संसर्ग क्वचिदन्यत्र चासंसर्ग प्रतिपद्यत इति चेत् न, तस्यापि कचिदेशे सतो देशान्तरे च तदसिद्धेः ।
कापिल कहते हैं कि देखो ! अंशरहित मी एक परमाणुका दूसरे परमाणुसे संसर्ग और उसी समय किसी दूसरे देशमें अन्य परमाणुओंका असंसर्ग इस प्रकारके दो विरुद्धस्वभाव परमाणु जाने जा रहे हैं । यदि एक परमाणु सर्वागरूपसे दूसरे परमाणुसे चिपक जाता तो परमाणुके बराबर ही धणुक हो जाता, यहांतक कि मेरु और सरसों दोनों ही एक बराबर हो जाते, अतः परमाणुका दूसरे परमाणुसे एकदेशमै संसर्ग और दूसरे देशमै असंसर्ग अवश्य मानना पड़ेगा । जैसे निरंश - एक परमाणु संसर्ग और असंसर्ग दोनों स्वभावोंको एकसमयमें धारण करलेता है, वैसे ही निरंश आमा मी व्यक्त संसर्ग और असंसर्ग इन दो स्वभावको धारण कर लेवेगा । आचार्य कहते हैं कि यह कापिलोंका कहना ठीक नहीं है क्योंकि वास्तवमे विचारा जाये तो परमाणु भी निरंश नहीं है । बरफीके समान छह पहलोंको धारण करनेवाले परमाणुके शक्तिकी अपेक्षासे छह अंश हैं। प्रत्यक्ष बरफीकी चकती आठ कौने दीखते हैं किंतु वह स्थूल है। कोनोंसे दूसरी बरफीके कोने भले ही मिलजा किंतु अन्य बरफी की पूरी भींत नहीं भिंड सकती है। कोनोंको दृष्टांत न समझना क्योंकि परमाणु से छोटा कोई अंश नहीं है। किंतु पैलों को परमाणुके अंशोंका दान्त मान लेना । रफी की चौरस मीर्ते छह हैं वे ही उसके अंश हैं। यदि बरफीके सभी ओर अन्य वरफियां रख दी जावे तो बरफीकी एक एक ओर की भीतों को छूती हुयीं छह नरफियां संसर्ग करेंगी, इसी प्रकार अत्यंत छोटे परमाणुके चारों दिशा और ऊपर, नीचे, इस प्रकार छह परमाणुएं भिन्न अंशों में सम्बन्धित हो जायेंगे। तभी मेह और सरसोंकी समानताका दोषसंग मी निवृत्त हो सकेगा ।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
जैन सिद्धांतमें परमाणुको वरफोके समान षट्कोण माना है, तभी तो लोक कालाणुओंसे ठसा उस भरा है । परमाणुओंको गोल नहीं मानना अन्यथा गालक बीचमै खाली स्थान छूट आयगा। अवीसोकके सात राजूसे मध्य लोकमें आनेपर या मध्य लोकसे ब्रह्म स्वर्गके किनारे किनारे जानेपर बातबलयों में परमाणुओंके कोने निकलते रहेंगे। कोई मी रंदा उन कोनोंको चीकना सुथरा नहीं कर सकता है। क्योंकि परमाणुये नौकीली अखंड द्रव्य है । परमाणु एकातरूपमे निरंश नहीं है । निरंश पदार्थमे दो विरुद्ध धर्म एक समय नहीं रहते हैं । अतः किसी देशमें विद्यमान हो रहे उस परमाणुका भी अन्य दूसरे देशों में वह ठहरना सिद्ध नहीं होता है । इसलिये निरंश व्यापक आत्माके दो विरुद्ध धर्मोको स्वीकार करने परमाणुका दृष्टांत सम नहीं है विषम है । भावार्थ-आत्मा, परमाणु, दोनों ही सांश होकर तो संसर्ग होजाने या असंसर्ग होजाने को धारण कर सकती है। अन्यथा उपाय नहीं है ।
गगनवत्स्यादिति चेत् न, तस्यानन्तप्रदेशतया प्रसिद्धस्य तदुपपत्तेरन्यथात्मवघटनात्।
यदि कापिल यों कहे कि जैसे अंशोंसे रहित हो रहा आकाश अनेक पदार्थोसे संसर्ग रखता हुआ व्यापक है, वैसे ही निरंश आत्मा मी व्यापक हो जावेगा । अन्धकार कहते हैं कि यह भी तो ठीक नहीं है, क्योंकि वह आकाश अनंत प्रदेशवाला प्रसिद्ध है। तभी तो एक आकाशका उन अनेक देशों में रहनापन युक्तिमोंसे सिद्ध हो जाता है। अन्यथा यानी यदि आकाश अनंताक्शी नहीं माना आवेगा तो आत्माके समान माकाशका भी अनेक देशवर्ती पदार्थोसे संबंध होना न पन सकेगा। समझ लीजिये।
नन्वेक द्रव्यमनन्तपर्यायान्सकदपि यथा व्यामोति तथात्मा व्यक्तविवर्तशरीरेण संसर्ग कचिदन्यत्र वाऽसंसर्ग प्रतिपद्यत इति चेन्न, वस्तुनो द्रव्यपर्यायात्मकस्य जात्यन्तरस्वात्, व्याप्यव्यापकभावस्य नयवशात्तत्र निरूपणात्, नैवं नानकस्वभावः पुरुषो जात्यन्तरतयोपेयते निरतिशयात्मवादविरोधादिति ।
सांख्य पुनः समदृष्टांत ढूंढनेका प्रयत्न करते हुए स्वपक्षका अवधारण करते हैं कि जैसे जैनोंके मतमें एक द्रभ्य एक समय भी अनंत पर्यायोंको व्याप्त कर लेता है वैसे ही एक आत्मा व्यक्त पर्यायस्वरूप शरीरके साथ संसर्गको और कहीं दूसरे पर्वत आदि स्थानों में असंसर्गको पारण कर लेता है । भारार्य प्रतिपादन करते हैं कि कापिलोंका इस प्रकार कहना ठीक नहीं है क्योंकि स्याद्वादसिद्धांत द्रव्य और पर्यायसे तादात्म्य रखनेवाली वस्तुको द्रव्य और पर्यायसे तीसरी ही न्यारी जातिवाला कथंचित् भेद अभेद स्वरूप करके तवात्मक हो रहा पदार्थ स्वीकार किया है ऐसी वस्तुमे नयों के द्वारा विवक्षित धर्मों के वशसे वहां व्याप्यव्यापकमावका कथन कर दिया जाता है । भावार्थ-र्यायोंसे द्रव्य भिन्न नहीं है। पर्यायोंके समुदायको ही द्रव्य कहते हैं । वसमें अनेक
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स्वभाव है । अतः उन कथञ्चित् मिस्र स्वभावोंसे नित्य द्रव्यरूप अंशों में तथा अनित्य पर्यायरूप अंशों में वस्तु व्यापक रह जाता है । एक द्रव्य अनेक स्वभावसे अपनी अनंत पर्यायोंमें विद्यमान है। किंतु इसीके सदृश आपने अनेक एक एक स्वभावोंको धारण करनेवाला पुरुष तो एक और अनेकपनेसे तीसरी जातिसहितपनेसे नहीं माना है। यदि आप सांख्य मी हम जैनोंके समान आमाको कथचित् मिस्र और अभिन्न या एक, अनेक स्वरूप मान लेवेंगे तब तो आपके माने हुए आत्माके कूटस्थापनका विशेष हो जावेगा। जो बाहिरसे अतिशयोंको नहीं लेता है और अम्म निमित्तों से अपने कुछ स्वभावोंको नहीं छोड़ता है, अनाधेयामहे या तिशय ऐसा कूटस्व निरतिशय आत्मा आपने इष्ट किया है किंतु अनेकांतमत में आत्माको परिणामी नित्य माना है। वह अपने कतिपय स्वभावको छोड देता है और कवियय स्वभावोंको ग्रहण भी कर लेता है । ऐसा आस्मा परिशेषमें आपको अवश्य मानना पडेगा । यों अपने आत्माको अतिशयरद्दिस मानने के सिद्धांतसे विरोध हो जावेगा ।
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कायेऽभिव्यक्ती ततो वह्निरभिव्यक्तिप्रसक्तेः सर्वत्र संवेदनमसंवेदनं नो चेत् नानात्वापत्तिर्दुः शक्या परिहर्तुम् । ततो नैतौ सर्वगतात्मवादिनौ चेतनत्वमचेतनत्वं वा साषयितुमात्मनः समर्थों यतोऽसि साधनं न स्यात् ।
यदि आप सांख्य पंडित शरीर में आत्माकी अभिव्यक्ति हो जाना मानोगे तो उस शरीर के बाहिर घट, घटी, किवाड आदिमें भी आत्मा के प्रकट होनेका प्रसंग आता है, क्योंकि आत्मा संग स्थानों में एकसा होकर व्यापक है । अतः या तो सभी स्थानों में आत्माका ज्ञान होना चाहिये aar कहीं भी आत्माका ज्ञान नहीं होना चाहिये । यदि ऐसा न मानकर शरीरमें ही आत्माका चेदन मानोगे और घट, कडाहीं आदिमें आस्माका वेदन न मानोगे, तब तो एक आलाको अनेकपनेका प्रसंग आता ही है । जिस दोषका कि कोई कठिनवासे मी परिहार नहीं कर सकता है। एक निरंश आत्मा कहीं प्रकट है और अन्यत्र अप्रकट है ऐसी दशामें वह आस्मा अवश्य दो हैं, अथवा विरुद्ध दो स्त्रभावोंवाला है। इस कारण से अबतक सिद्ध हुआ कि आत्माको सर्वत्र व्यापक माननेवाले ये दोनों सांख्य और नैयायिक आत्मा के चैतनपनेको या अचेतनपनेको सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं है | कपिलमतानुयायी आत्माको स्वभावसे चेतन मानते हैं किन्तु पूर्वोक कमनसे उनके व्यापक आत्माका चेतनपना सिद्ध नहीं हो सका है । नैयायिक आत्माको स्वभावसे भवन मानते हैं, किंतु चतनागुणके समवायसे चेतन हो जाना दृष्ट करते हैं । यो सम्पूर्ण मूर्तद्रव्यों से संयोग रखनेवाले व्यापक माने गये आत्माका चेतन सिद्ध करना अशक्य है । जिससे कि आत्माको चेतनपना सिद्ध करनेके लिये दौसौ बसीसवीं वार्त्तिकमै दिया गया आलय हेतु असिद्ध न होवे । अर्थात् अम हेतु असिद्ध देवाभास ही है। जब कापिलोंके यहां चेतनत्वकी सिद्धि न हो सकी तो तनख हेतु आत्माका अज्ञान और असुखस्वभाव भी कैसे सिद्ध हो सकते हैं ?
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्याद्वादिनः सांख्यस्य च प्रसिद्धमेव चेतनत्वं साधनमिति चेनानवबोधाधात्मकत्वेन प्रतिवादिनश्चेतनत्वस्थेष्टस्तस्य हतुव विरुद्ध सिपिरुयो हेतुः स्यात् ।
सांख्य कहते हैं कि स्याद्वादी और हम सांख्योंके मतमें आत्माका चेतनफ्ना प्रसिद्ध ही है। अत: चेतनत्व हेतु समीचीन है। अन्धकार कहते हैं कि यह कापिलोका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि प्रतिवादी कापिलोंने अज्ञान, असुख और अकर्ता आदि स्वरूप करके आत्माके चेतनपनेको इष्ट किया है । और उस ज्ञानरूपसे प्रसिद्ध होरहे चेतनपनेको आप हेतु मानेंगे तो उस हेतुसे आपके मन्तव्यके विरुद्ध ज्ञानी आत्माकी सिद्धि हो जावेगी । अथवा चेतनत्व हेतु आपके माने हुए साध्यरूप अज्ञान, असुख स्वभावोंसे विरुद्ध समझे गये ज्ञान, सुखस्वभावोंके साथ व्याप्ति रखता है । इस कारण चेतनस्य हेतु बिरुद्ध हेत्वाभास हो जावेगा। भावार्थ-आपने चेतनत्वको अज्ञानी आरमाका धर्म माना है और वास्तवमै आत्मा ज्ञानवान है । अतः हम अपने.. जैनमतानुसार आपके चेतनव हेतुको सिद्ध मान लेवेगे तो पूर्वोक्त असिद्ध दोषका निवारण तो हो आवेगा, किन्तु दूसरा विरुद्ध दोष आपके चेतनत्व हेतुमें आजावेगा। .. साध्यसाधन विकलश्च दृष्टान्तः सुषुप्तावस्थस्याप्यात्मनश्चेतनत्वमात्रेणानवबोधादिस्वभावत्वेन चाप्रसिद्धः । कथम् -
और आपका दिया गया गाद निद्रामें सोता हुआ मनुष्यरूपी दृष्टांत तो ज्ञानी सुखी होने के कारण अज्ञान, असुख स्वभावरूप साध्यसे रहित है और पूर्वमें कहे हुए अनुसार आपकी ज्यापक आलाम चेतनपना सिद्ध नहीं हो सका है। अतः गहरा सोता हुआ मनुष्य चेतनपना रूप साधनसे मी रहित है । जिस दृष्टांत साध्य और साधन ये दोनों ही नहीं रहते हैं, उसको आपने अन्वय दृष्टांत कैसे प्रयुक्त किया है !, जब कि आप माद सोते हुए आत्माको सामान्य चेतनापनेसे
और अज्ञान असुख स्वभावीपनेसे प्रसिद्ध नहीं कर सके हैं । वस्तुतः विचारा जाय तो सोता हुआ वह आत्मा भी ज्ञानसुखस्वभाववाला है । सो कैसे ! वह सुनिये !
सुषुप्तस्यापि विज्ञानस्वभावत्वं विभाव्यते । प्रबुद्धस्य सुखप्राप्तिस्मृत्यादेः खप्नदर्शिवत् ॥ २३५ ॥
विचार कर देखा जाय तो गहरे सोते हुए मनुष्यके भी विज्ञान और सुख स्वभावसहितपना सिद्ध हो आता है। जैसे कि सोते समय स्वप्न देखनेवाले पुरुषके सुख और ज्ञान होते हुए अनुभवमै आरहे , उसीके सदृश गहरी नींद लेकर पुनः अच्छा जगे हुए मनुष्यके भी सुखकी पासि और नीदमे भोगे हुए सुखका स्मरण तथा चार छह दिन पहिले शयनकी अवस्था उत्पन्न हुए मुखका आजके शयनसुखके साथ सादृश्य प्रत्यभिज्ञान आदि हो रहा देखा जाता है । अतः
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भन्याचिन्तामणिः
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सिा है कि गाद सोती हुयी अवस्थामै भी ज्ञान और सुख विद्यमान था। तभी तो जागते समय उसका मतिफलस्वरूप सुख और ज्ञानकी लहर उठ रही है। सुखके उत्पन्न हो जानेपर कुछ देर पीछे सक भी सुखास्वादनकी स्मृतिलहरें उठती रहती है। सोकर उठनेपर भी वैसे ही सुखके पीछे होनेवाले अनुवेदनोंका अनुभव हो रहा है। सोती हुयी अवस्था, संकल्प विकल्प रूप जो सप्न आते रहते हैं, उसको खप्न अवस्था कहते हैं और सप्नरहित सुखपूर्वक गहरी नींद लेनको आरमाकी सुषुप्तावस्या कहते हैं।
स्वप्नदर्शिनो हि यया सुप्तप्रबुद्धस्य सुखानुभवनादिस्सरणाद्विज्ञानस्वभावस्व विभावयन्ति तथा सुषुप्तस्यापि सुखमतिसुपुप्तोऽहमिति प्रत्ययात् । कथमन्यथा सुषुप्तौ पुंसवेतन. त्वमपि सिदचेत् प्राणादिदर्शनादिति चेत्
स्वप्न देखनेवाले पुरुषके सोकर उठे पीछे जागृतदशामे होनेवाले सुखके अनुभव आदिका सारण करनेसे स्वप्नदर्शी आस्माका विज्ञान, सुस्व, सभावसहितपना जैसे अनुमित किया जाता है वैसे ही स्वप्नरहित गाद सोते हुए मनुष्यके मी मैंने बहुत देरसे सुखपूर्वक अधिक शयन किया ऐसी प्रतीति होनेसे गहरी अवस्थामें भी आत्माके ज्ञान और सुस्वकी सिद्धि कर ली जाती है । यदि ऐसा न स्वीकार कर अन्य प्रकार माना जावेगा तो सोती हुई अवस्थामै मनुष्यके चेतनपना मी आप कैसे सिद्ध कर सकोगे : सुख, शान आदिका संवेदन करना ही तो चेतना है, बताओ । यदि प्राणवायु लेना, नाडीका चलना, आंखोंको मीचे रहनेका आभ्यन्तर प्रयल करना, मलमूत्र पारे रहना, मांस, रकम दुर्गन्ध न आकर ताजा बनाये रखना, आदि क्रियाओंसे सोते हुए पुरुषकी चेतनाका साधन ( अनुमान ) करोगे यों तो
यथा चैतन्यसंसिद्धिः सुषुप्तावपि देहिनः । प्राणादिदर्शनात्तबद्धोधादिः किन्न सिद्धयति ॥ २३६ ॥ जाग्रतः सति चैतन्ये यथा प्राणादिवृत्तयः । तथैव सति विज्ञाने दृष्टास्ता बाधवर्जिताः ॥ २३७ ॥
जैसे श्वासोच्छ्वास चलना मादिके देखनेसे गाद सोती हुयी अवस्थामें भी आत्मा चेतनपनेकी बढिया सिद्धि मानते हो । भावार्थ-उन क्रियाओंसे जीवित रहनेके स्वभावका पता चलता है, उसीके समान सोते हुए और जागते हुए आत्माके स्वभाव जाने जा रहे ज्ञान, सुख, फापन आदि क्यों नहीं सिद्ध हो जायेगे ! दूसरी युक्ति यह है कि जागते हुए पुरुषके चैतन्यके होनेपर ही जैसे श्वासोच्छास चलना, आखोका खोलना मींचना, उठना, बैठना, शब्द बोलना आदि प्रवृत्तियां देखी आती है, वैसे ही जागते हुए मनुष्यके विशेष ज्ञान होनेपर ही वे प्रवृत्तियां देखी जाती हैं। 26
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तस्वार्थचिन्तामाणिः
ज्ञानके द्वारा उन प्रवृत्तियों के होने में कोई बाधक नहीं है। यों चे वृत्तियां भी बाघारहित होनेके कारण समीचीन हैं । मावार्थ-सोते हुए मनुष्य के जैसे चेतनपनेके कार्योको आप मानते हैं वैसे ही ज्ञानके द्वारा होते हुये कार्योको मी आत्माके कार्य मानो। वस्तुतः चेतनपने और ज्ञानमें कुछ अंतर नहीं है ।
वीरणादौ चैतन्याभावे प्राणादिवत्तीनामभावनिश्चयामिश्चितव्यतिरेकाम्यस्ताभ्यः सुषुप्तौ चैतन्यसिद्धिरिति चेत् ।
____ सांख्य कहते हैं कि कोरीके द्वारा तन्तुओंको स्वच्छ सुथरा करनेके लिये खसके बने हुए कूचेमें या तुरी, वैमा आदि चैतन्य महानगर चासोच्छीस लेना, नाडी चलना आदि प्रवृत्तियों के अभावका निश्चय हो रहा है । इस कारण निश्चित्त कर लिया है साध्यके बिना हेतुका अभाव जिनका ऐसी व्यतिरेकव्याप्तिवाली उन श्वासोछास आदिकी प्रवृत्तियोंसे गाढ सोती हुयी अवस्थामै चैतन्यकी सिद्धि अनुमानसे कर ली जाती है, किंतु ज्ञानकी सिद्धि नहीं हो पाती है, क्योंकि बैतन्य के साथ ही प्राणवायु चलने आदिको व्याप्ति है। अब आचार्य बोलते हैं कि यदि सांख्य पेसा कहो तो
प्राणादयो निवर्तन्ते यथा चैतन्यवर्जिते । वीरणादौ तथा ज्ञानशून्येऽपीति विनिश्चयः ॥ २३८ ॥
हम वैसे ही व्यतिरेकको ज्ञानके साथ घटाते हैं । सुनिये ! जैसे चैतन्यसे रहित स्वसके कूचे, तुरी, तन्तु आदिमें श्वासोच्छास चलना, नाडीकी गति, अवयवोंका फरफना आदि कर्म निवृत्त होजाते हैं वैसे ही उन कूचे, तुरी आदिमें ज्ञानरहित होनेपर भी प्राण आदिक की निवृत्ति होनेका विशेष निश्चय से रहा है, अतः वे ज्ञानके भी कार्य सिद्ध हुए। भावार्थ-ज्ञान और चैतन्य दो पदार्थ नहीं है, आत्माके एक ही गुण है। शब्दका मेद है, अर्थभेद नहीं । चेतना तीनों कालों में रहनेवाला गुण हैं और ज्ञान उसकी अमिन्न पर्याय है । अतः अन्वयव्यतिरेक द्वारा जो चैतन्यकी न्याप्ति श्वास लेने आदिके साथ बनाई है वह ज्ञानकी भी समझनी चाहिये । ज्ञान आस्माका परिणाम है प्रकृतिका नहीं।
न हि चेतनत्वे साध्ये रिक्षितन्यतिरेका माणादिवृत्तयो न पुननिात्मकतायामिति शक्यं वक्तुम् , तदभावेऽपि तासां वीरणादावभावनिर्णयात् । चैतन्याभावादेव तत्र ता न भवंति न तु विज्ञानामावादिति कोशपानं विधेयम् ।
आमाके वेतनपनेको साध्य करनेपर श्वासोच्छ्रास आदि प्रवृतियोंका व्यतिरेक निब्धय चोला हो जावे और आमाको ज्ञान-वरूप सिद्ध करनेपर, माण, अपान आदि प्रवृत्तियोंके व्यतिरकका
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तुरी आदिमें निश्चय न होवे, यह पक्षपातवाला नियम नहीं कह सकते हो, क्योंकि साध्यके न होने पर देतुके न रहने को अथवा कारणके न होनेपर कार्य उत्पन्न न होनेको व्यतिरेक कहते हैं । प्रकरण में चैतन्यके समान उस ज्ञानके मी न होनेपर उन श्वासास आदि प्रवृत्तियों के अभावका निश्चय हो रहा है । यदि सांख्य यह आग्रह करें कि उन तुरी, कुंचा आदिमें चेतनापना न होनेके कारण ही वे श्वास आदि प्रवृत्तियां नहीं होपाती हैं । किंतु जैन लोग जो ज्ञानके अभाव होनेसे वहां उन प्रवृत्तियों का निषेध कर रहे हैं सो तो नहीं है ।
इस प्रकार कापिलोंका कश्चन करना विना युक्तियोंके अपने कदाग्रह करनेकी सोगन्ध खा लेना है ! अथवा अहिफेन वाकर बौराया हुआ पुरुष जैसे अपनी मनमानी हांकता रहता है वैसे ही ये सांख्य प्राण आदिकोंको विज्ञानका कार्य न मानकर केवल चैतन्यसे होना मान रहे हैं । वास्तव में विचारा जाय तो वे विज्ञान के कार्य सिद्ध होते हैं । ज्ञानपर्यायसे परिणत होकर ही चैतन्य गुण कुछ कार्य कर सकेगा ।
सत्यम्, विज्ञानाभावे ता न भवन्ति, सत्यपि चैतन्ये मुक्तस्य तदभावादित्यपरे, तेषां सुषुप्तौ विज्ञानाभावसाधनमयुक्तम्, प्राणादिवृत्तीनां सद्भावात् तथा च न सोदाहरणमिति कुतः साध्यसिद्धिः ।
यहां सांख्यमत एकदेशीय कोई कहते हैं कि जैनियोंका कहना सत्य है । विज्ञानके हीन होनेपर श्वासोच्छ्रास आदिकी ने प्रवृत्तियां नहीं होती हैं, तभी को मुक्तजीवोंके चैतन्य के होनेपर भी उन प्राण आदि प्रवृत्तियों का अभाव है। यदि चैतन्यके कार्य प्राणादि माने जावे तो मोस अवस्था भी श्वास लेने आदिका प्रसंग आयेगा । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कोई दूसरे वादी कह रहे हैं। श्वासोवास आदि क्रियाओंको ज्ञानके होनेपर मानना तो मुखप्रदेशमें अमृत लगे हुए घटके समान सुंदर प्रतीत होता है, किंतु मोक्ष अवस्थामै ज्ञान, सुखका न मानना पेटमें विष भरे हुए घटके समान अग्राह्य है । और उन एकदेशीय कापिलोंके यहां गहरी सोती हुयी अवस्थामे विज्ञानका अभाव सिद्ध करना तो युक्त नहीं पडेगा। क्योंकि सोते हुए मनुष्य के श्वासोच्छ्वास लेना, नाडी चलना, पाचक क्रिया होना आदि प्रवृत्तियां विद्यमान हैं । तब तो आत्मामै ज्ञान, सुख स्वभाव निषेध सिद्ध करनेके लिये दिया गया वह सोती हुयी अवस्थाका दृष्टांत नहीं बन सकेगा 1 इस कारण साध्यकी सिद्धि मला कैसे होगी ! बताओ। भावार्थ – कपिलके शिष्यों के कथनानुसार ही सोती हुयी अवस्थामे ज्ञान, सुख, वाले आत्माको बना कर जागते हुए, तथा स्वप्न लेते हुए और मोक्ष प्राप्त करनेपर भी आत्मामें ज्ञान सुख स्वभावकी सिद्धि हो जाती है । अतः दो सौ सीसवीं कारिका में दिया गया सांख्योंका अनुमान सिद्ध नहीं हुआ ।
सुखबुद्ध्यादयो नात्मस्वभावाः स्वयम चेतनत्वाद्रूपी दवदित्यनुमानादिति चेत्, कुतस्तेपामचेतनत्वसिद्धिः १
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तत्वार्थचिन्तामणिः
अब सांख्यजन अपने प्रकृतको सिद्ध करने के लिए दूसरा अनुमान उठाते हैं कि मुख, बुद्धि, प्रसन्नता, कर्तापन, आदि परिणाम ( पक्ष ) आत्माके स्वभाव नहीं है ( साध्य ) क्योंकि वे सुख आदिक स्वयं अचेतन है ( हेतु ) जैसे कि रूप, रस, भादि गुण अचेतन होनेके कारण आमाके स्वभाव नहीं है । ( अन्वयदृष्टांत ) अंब आचार्य कहते हैं कि आप सांख्य इस अनुमानसे यदि अपने साध्य की सिद्धि करोगे तो हम पूंछते हैं कि उन सुख आदिकों में आपने अवेतनपने हेतुकी सिद्धि किससे की है ? बताओ । अन्यथा आपका अचेतनत्वहेतु स्वरूपासिद्ध हेस्वाभास हो जायगा ।
सुखबुद्धपाद धर्माशेतगारहिता इरे! भंगुरत्वादितो विद्युत्प्रदीपादिवदित्यसत् ॥ २३९ ॥ हेतोरात्मोपभोगेनानेकांतात्परमार्थतः । सोऽप्यनित्यो यतः सिद्धः कादाचित्कवयोगतः ॥ २४० ॥
ये सुख, ज्ञान, उत्साह, अभिमनन, आदिक धर्म ( पक्ष ) चेतनासे रहित है ( साध्यदल ) क्योंकि ये सुख आदिक थोडी देरतक ठहरकर नष्ट हो जाते हैं। या कारणों के द्वारा किये गये कार्य है अथवा उत्पत्तिमान् हैं आदि ( इत्यादि ज्ञापक हेतु है ) जो कार्य हैं, उत्पत्तिवाले हैं, और थोडी देर ठहरते हैं, वे अवश्य अचेतन है, जैसे कि बिजली, दीपालिका, बुदबुदा, इन्द्रधनुष आदि पदार्थ अचेतन हैं। ( अन्वयव्याप्तिपूर्वक दृष्टांत । ग्रंथकार कहते है कि यह सांस्योंका अनुमान समीचीन नहीं है, क्योंकि कृतकाव, भंगुरत्व आदि हेतुओंका आत्माके उपभोगसे व्यभिचार हो जाता है, सांख्याने वास्तविकरूपसे आत्माके उपभोगको कभी कभी होनारूप क्रियाके संघसे अनित्य सिद्ध किया है। सांख्यमतमै इंद्रियों के द्वारा रस आदिकका ज्ञान होनेपर आत्मासे उसका उपमोग होना माना है। और वह उपभोग करना तो आत्माका स्वभाव है ही ऐसी दशा कदाचित् होनेबालेपनके योगसे आत्माके भोगमें जब कि अनित्यपना सिद्ध हो गया और उस भोगमै अचेतनपन साध्य न रहा अत: आपके कृतकरव, उत्पत्तिमत्त्व और भंगुरव ये तीनों हेतु व्यभिचार दोपयाले हो गये । यों सारख्योंका निरूपण प्रशस्त नहीं है।
पुरुषानुभवो हि नश्वरः कादाचित्कवादीपादिवदिति परमार्थतस्तेन भंगुरत्वमनैकान्तिकमचेतनत्वे साध्ये।
जब कि आत्माके द्वारा प्राकृतिक हर्ष, अभिमान, अध्यवसाय, आदिकोंका भोग करना निश्चयरूपसे नाश होनेवाला है, क्योंकि वह भोग कभी हुआ करता है, जैसे दीपकलिका नाशस्वभाववाली है। इस अनुमानसे वास्तवमै भोगको क्षणध्वंसीपना सिद्ध हो जाता है। अतः अचेतनत्व साध्यको सिद्ध करने दिया गया भंगुरव हेतु इस आलसंबंधी भोगसे व्यभिचारी है।
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तत्वाविन्तामविक
कादाचित्कः कुतः सिद्धः पुरुषोपभोगः स्वसद्भावादिति चेत्
जैनोने पुरुषके भोगको नश्वरत्व सिद्ध करनेके लिये कमी कमी होनापन हेतु दिया मा । हम सांख्य पूंछते हैं कि जब आत्मा सर्वदा विद्यमान रहता है तो आत्माका उपभोम कमी कमी होवे, यह बात आपने किस प्रमाणसे सिद्ध कर लीनी है। समझाइये । आचार्य कहते हैं कि यदि सांख्य पेसा कहेंगे तो
कादाचित्कः परापेक्षासद्भावाद्विभ्रमादिवत् । बुद्धयध्यवसितार्थस्य शब्दादेरुपलम्भतः ॥ २४१ ॥ परापेक्षः प्रसिद्धोऽयमात्मनोऽनुभवोऽञ्जसा ।
परानपेक्षितायां तु दृष्टेः सर्वदार्शता ॥ २४२ ॥
हम जैन दूसरा अनुमान करते हैं कि वह पुरुषका भोग कमी कमी होनेवाला है (पतिज्ञा) क्योंकि भोगको दूसरेकी आकांक्षा करनेका सद्भाव बना रहता है। (हेतु ) जैसे चकाचौंध, कामल, पाकपक्य आदि दोषोंसे भ्रांतिज्ञान, संशयज्ञान कमी कमी होते हैं, वैसे ही बुद्धिके द्वारा निश्चित किये हुए शब्द, रूप, रस आदि विषयोंका आत्माको भोग होना देखा जाता है। इस कारण यह भालाका अनुमय परकी अपेक्षा रखनेवाला स्पष्ट अभ्रांतरूपसे प्रसिद्ध है । यदि पुरुषको चेतना करने या उपभोग करने में बुद्धिके अध्यवसायकी अपेक्षा हुई न मानोगे तो मारमा सर्वदशी और सर्वभोक्ता बन जावेगा । किसीके साथ दूरपना और अन्य किसीके साथ समीपपना तो रहा नहीं, भास्मा सर्वत्र व्यापक है ही।
परापेक्षितया कादाचित्कत्वं व्याप्तम्, तेन चानित्यत्वमिति तसिद्धौ तसिदिः। परापक्षिवा पुरुषानुभवस्य नासिद्धा, परस्य बुद्धथव्यवसायस्यापेक्षणीयत्वात , बुद्धधध्यवसितमर्थ पुरुषोत्तयत इति वचनात् । परानपेक्षितायां तु पुरुषदर्शनस्य सर्वदर्शितापतिः, सकलापबुद्धयध्यवसायापायेऽपि सकलार्थदर्शनस्योपपत्तेरिति योगिन इवायोगिनोऽ मुक्तस्य च सार्वज्ञमनिष्टमायातम् ।
__ वाचिकोंका भाष्य यों हैं कि दूसरे कारणोंकी अपेक्षा रखनेवालापन हेतु न्याप्य है और कमी कालमै उसन्न होनापन साध्य व्यापक है । इस कारण परापेक्षीपनसे कादाचित्कपना व्यास हो रहा है। अर्थात् जहां जहां परापेक्षीपना है, वहां वहां कादाचित्करना भी अवश्य विद्यमान है और इस साध्यको जब हेतु बना लिया तो उस कावाधिकपन हेतुसे अनित्यपना साध्य अविनामाव रखता है अर्थात् जहाँ जहाँ कादाविस्काना है, वहां वहां अनि याना भी आप है। भङ्गुरका और अनि
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तस्वाचिन्तामणिः
त्यका एक ही अर्थ है । इस प्रकार उस अनित्यपनेकी सिद्धि होनेपर आपके भरत्व हेतुसे पुरुषके उस भोगमें अचेतनपना सिद्ध हो जाता है, जो कि आपको अनिष्ट है । अतः सुख आदिकको अचेतनपना सिद्ध करनेमें दिया गया आपका भंगुरत्व हेतु व्यभिचारी है । पुरुषके उपभोगरूप पक्षको (में) परकी अपेक्षा रखनापन हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि आत्माका भोग अपनी उत्पत्तिमै बुद्धि के द्वारा किये गये निर्णयरूप दूसरे कारणकी अपेक्षा करता है आपके सांख्यदर्शनका वाक्य है कि "बुद्धिसे निीत किये गये अर्थको ही आत्मा अनुभव करता है। यदि पुरुषकी चेतना करने में दूसरे कारणकी अपेक्षा न मानी जावेगी तो आत्माको सर्व पदार्थों की चेतनारूप अनुभव करनेका प्रसंग आवेगा । आत्मा सबका द्रष्टा बन जावेगा क्योंकि सकल पदार्थोंका बुद्धिके द्वारा निर्णय न करनेपर भी आपके कथनानुसार सकलपदार्थाका अनुभव या दर्शन करना बन जाता है । इस कारण सम्प्रज्ञात योगवाले सर्वज्ञोंके समान सम्मज्ञात और असम्प्रज्ञात योगसे होरहे मुक्त जीवोंके अथवा साधारण संसारी जीवोंके भी सर्वज्ञपना प्राप्त हो जायेगा, जो कि आप सांख्योंको इष्ट नहीं है । पतञ्जलि दर्शन भी इस बातको इष्ट नहीं करता है ।
सर्वस्य सर्वदा पुंसः सिद्धयुपायस्तथा पृथा। ततो दृग्बोधयोरात्मस्वभावत्वं प्रसिद्धपतु ॥ २४३॥ कथञ्चिन्नश्वरत्वस्याविरोधान्नर्यपीक्षणात् । तथैवार्थक्रियासिद्धेरन्यथा वस्तुताक्षतेः ॥ २४४ ॥
जब कि बिना उपायके ही सम्पूर्ण जीव सर्वज्ञ हो जायेंगे तैसा होनेपर तो सब कालमें सम्पूर्ण जीवोंको सिद्धि के कारण दीक्षा, तपस्या, योग, तत्वज्ञान आदि उपायोंका अवलम्ब करना भिष्फल है । उस कारणसे हमारा कहना ही प्रसिद्ध हो जाओ कि चैतन्य और ज्ञान दोनों ही आमाके स्वभाव है, दोनों अभिन्न है । और जो आत्माको ज्ञानस्वरूप माननेसे आत्माकी अनित्यताके प्रसंगका भय लगा हुआ है । वह भय भी आप सांख्योंको हृदयसे निकाल देना चाहिये । क्योंकि घटके समान आत्मामें भी किसी अपेक्षासे अनित्यपनेका कोई विरोध नहीं है । आत्मासे तादात्यसम्बन्ध रसनेवाले परिणामोंका कथञ्चित् उत्पाद और विनाश माना है। इस प्रकार होनेपर ही तो आत्मा अर्थक्रियाकी सिद्धि देखी जाती है । आत्माकी अर्थक्रिया यही है कि मतिज्ञानका नाश और श्रुतज्ञानका उत्पाद होवे तथा बाल्य अवस्थासे कुमार अवस्था और कुमार अवस्थाका विनाश होकर युवा अवस्थाका उत्पाद होवे। इत्यादि अर्थक्रियाएं यदि आत्मा नहीं मानी जावेगी तो अन्य प्रकारों से आत्माका वस्तुपन नष्ट हो जावेगा । भावार्थ- अर्थक्रियाओंके बिना आत्मा वस्तु न अर सकेगा । एककरिश्त पदार्थ मान लिया जावेगा । '' उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" यह
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सत्याचिन्तामणिः
अखण्ड सिद्धान्त है । द्रव्यत्वगुण और कालाणुये प्रत्येक वस्तुको प्रतिक्षण नवीन पर्यायोंको धारनेके लिये उत्तेजित करते रहते हैं।
सर्वस्य सर्वज्ञत्वे च वृथा सिद्धयुपायः साध्याभावात् । सिद्धिर्हि सर्वज्ञता मुक्तिों कुश्विदनुष्ठानात्साध्यते ? तत्र न तावत्सर्वज्ञता तस्याः स्वता सिद्धत्वात् । नापि मुक्तिः सर्वत्रतापाये तदुपगमात्तस्य चासम्भवात् । परानपेक्षितायाः सर्वदर्शितायाः परानिवृत्तावपि प्रसक्तेः ।
सदा सब जीवोंको सुलभतासे ही जब सर्वज्ञपना प्राप्त हो गया सो सिद्धिका तपस्या, उपवास, वैराग्य आदिके द्वारा उपाय करना व्यर्थ है । क्योंकि मोक्षम हमको सर्वज्ञताके अतिरिक्त कोई अन्य साधने योग्य कार्य करना नहीं है । आप कापिलोंसे हम पूंछते है कि जिस सिद्धिको आप भेदविज्ञान, तपस्या, पुण्मकर्मका अनुष्ठान आदि किन्ही उपायोंसे साधते हैं, वह सिद्धि आपके यहां क्या मानी गयी है ! षताओ। केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का एक समयमें प्रत्यक्ष करना सिद्धि है। अथवा ज्ञान, सुख आदिकका नाश होकर आस्माका स्वरूपमें स्थित रहनारूप मोक्षको आप सिद्धि मानते हैं । कहिये । उन उक्त दोनों पक्षोंमें पहिली सर्वज्ञताप सिद्धि मानना तो ठीक नहीं है, क्योंकि वह सर्वज्ञता तो तपस्या, पुण्यकर्म आदि उपायोंके बिना ही अपने माप सुलभतासे सिद्ध हो जाती मान ली गयी है। आपके मतमें सर्वज्ञपना प्रकृतिका धर्म है और प्रकृतिका आत्मासे संसर्ग हो रहा है। बुद्धिसे निर्णय किये जा चुकनेपर अनुभव करनेका झगडा अभी आपने निकाल ही दिया है।
दूसरे पक्षके अनुसार आस्माकी मोक्ष हो आनेको सिद्धि मानेंगे, सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि आपने असंपज्ञात योगसे प्रकृतिको ओरसे आई हुई सर्वज्ञताका नाश हो जाने पर द्रष्टा, चेतयिता, आस्माकी उस स्वरूपमें स्थितिको मोक्ष माना है। किंतु जप सर्वज्ञता आमाको स्वतः सिद्ध प्राप्त हो गयी है तो उसका नाश करना सम्मव नहीं है। सबको देखनेवाली सर्वज्ञताको जब दूसरे कारण कहे गये बुद्धिके अध्यवसायकी अपेक्षा ही नहीं है तो प्रकृतिकी बनी हुयी बुद्धिका मोक्ष अवस्था में निवारण या अनिवारण होनेपर भी सर्वज्ञताके अक्षुण्ण बने रहनेका प्रसंग विद्यमान है । भावार्थ--- सर्वज्ञता अब आलासे दूर नहीं हो सकती है। क्योंकि दर्शनके समान ज्ञान भी आत्माका स्वभाव है स्वभावमें परकी अपेक्षा नहीं मानी गयी है।
___ स्यान्मतम् न बुख्यध्यवसितार्थालोचनं पुंसो दर्शनं तस्यात्मस्वभावत्वेन व्यवस्थितस्वादिति तदपि नावधानीयम्, बोधस्याप्यात्मस्वभावत्वोपपचेः । न सहकारामिमतार्थाध्यबसायो बुद्धिस्तस्याः पुंस्वभावत्वेन प्रतीदेवोधाभावात् इति दर्शनज्ञानयोरात्मस्वमा वखमेव प्रसिद्धचत विशेषाभावात् ।
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मार्गचिन्तामणिः
भले ही आप सांख्योंका यह भी मन्तव्य होवे कि बुद्धिके द्वारा निर्णीत किये गये अर्थका आलोचन करना पुरुषका चैतन्य करना नहीं है । क्योंकि अर्थका वह संचेतन करना या दर्शन करना तो आस्माका स्वभाव है, यह प्रमाणोंसे सिद्ध कर दिया गया है। आचार्य कहते हैं कि सो वह मन्तव्य भी सांख्योंको अपने चित्तने नहीं विचारना चाहिये, क्योंकि ऐसा मानने पर तो ज्ञानको भी आत्माका स्वभाव होना सिद्ध हो जाता है। दर्शन और ज्ञान एक ही वैलीके चट्टे बट्टे हैं । सम्पूर्ण विषयोंका में ही भोक्ता हूं, मेरे सिवाय कोई इनका अधिकारी नहीं है ऐसा अभिमानरूप "मैं मैं " इस प्रकार आत्मगौरव के साथ आत्माका अर्थनिर्णय करना तो जड प्रकृतिकी बनी हुयी बुद्धि नहीं है। प्रत्युत वह बुद्ध चेतन आत्माका स्वभाव है। ऐसा स्वयंत्रेदन प्रत्यक्ष से प्रतीत हो रहा है। इस प्रतीति का कोई बाधक प्रमाण नहीं है । इस प्रकार दर्शन और ज्ञान दोनों उपयोगोंको आत्माका स्वमावपना ही प्रसिद्ध होता है, सो आप मानलो । दर्शनको आमाको स्वाद माना जा बीर ज्ञानको प्रकृति धर्म कहा जावे आपके इस कथनमें कोई विशेषता नहीं पायी जाती है।
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ननु व नश्वरज्ञानस्वभावत्वे पुंसो नश्वरत्वमसंगो बाधक इति चेत् न, नश्वरत्वस्य नरेsपि कथचिद्विरोधाभावात् पर्यायार्थतः परपरिणामाक्रान्ततावलोकनात् । अपरिणामिनः क्रमाक्रमाम्यामर्थक्रियानुपपत्तेर्व स्तुत्वहानिप्रसंगानित्यानित्यात्मकत्वेनैव कथञ्चि दक्रियासिद्धिरित्यलं प्रपचेन । आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकस्य प्रसिद्धेः ।
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शंकाकारकी मुद्रा बनाकर स्वपक्षका अवधारण करते हुए सांख्यज्ञानको आत्माका स्वभाव सिद्ध करनेवाली प्रतीतिमै बाधक उपस्थित करते हैं कि यदि उत्पाद विनाश होनेकी लत रखनेवाले ज्ञानको आत्माका स्वभाव होना माना जावेगा तो आत्मासे अमिन माने गये ज्ञानके समान आत्माको भी नाशशील होनेका प्रसंग होवेगा । यही आमाको ज्ञानस्वभाव सिद्ध करनेवाली प्रतीतिका गावक है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि कथञ्चित् नाश होनापने स्वभावका आत्मामें मी कोई विशेष नहीं है । पर्यायार्थिक नयसे वही एक आत्मा भिन्न भिन्न दूसरी अनेक पर्याय व्याप्त होता हुआ देखा जा रहा है। आत्मा द्रव्य नित्य है । उसकी अभिन्न पर्याय उत्पाद विनाशचाली हैं । एक ज्ञान नष्ट होता है, दूसरा ज्ञान उत्पन्न होता है। युवावस्था नष्ट होती है और वृद्धावस्था उत्पन्न होती है । मनुष्यपर्ययका नाश होकर देवपर्यय उत्पन्न हो जाती है। यदि आत्माको कूटस्य अपरिणामी माना जायेगा तो उसकी क्रमसे होनेवाली और साथ होनेवाली अनेक अर्थक्रियाएं नहीं बन सकेंगी। इस कारण अर्थ किया के बिना आत्माका वस्तुपना ही नष्ट हो जावेगा। यह वस्तुस्वकी हानिका प्रसंग न होवे, इसलिये कथञ्चित् नित्य और अनित्य स्वरूपपनेसे ही आपके देखना, जानना, मोगना आदि अर्थक्रियाओंकी सिद्धि हो सकती है। आत्माको ज्ञानस्वभाव
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तत्वार्थचिन्तामणिः
सिद्ध करनेमें अच्छा विचार हो चुका । अब पुनः पुनः आप सांख्य ज्ञानस्वभावका खण्डनकरने के लिये जो युक्तियां देते हैं, वे निस्तत्त्व, पुनरुक्त और पोच हैं । अतः अधिक प्रपञ्च चढाने से आपका कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा । आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग दोनोंही आत्मीय स्वभाव है । प्रतिवादियोंका प्रत्याख्यान करते हुए अबतक यह बात विस्तार के साथ सिद्ध हो चुकी हैं।
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संसारव्याधिविध्वंसः कचिज्जीवे भविष्यति । तन्निदानपरिध्वंससिद्धेरविनाशवत् ॥ २४५ ॥ तत्परिध्वंसनेनातः श्रेयसा योक्ष्यमाणता । पुंसः स्याद्वादिनां सिद्धा नैकान्ते तद्विरोधतः ॥ २४६ ॥
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ग्रंथ के आदिमें तीसरी वार्तिकद्वारा पहिले सूत्रकी प्रवृत्तिका कारण उपयोगस्वरूप और कल्याणमार्ग से भविष्य में संसर्ग करनेवाले आलाकी समझनेकी इच्छा होना बतलाया गया 1 तिनमै पहिला यानी आत्माको ज्ञानस्वभाववाला सिद्ध कर दिया जा चुका है। अब आस्माका कल्याणमार्ग से संबंध हो जानेकी जिज्ञासाको अनुमानद्वारा सिद्ध करते हैं। किसी न किसी विवक्षित आत्मामें संसार के सर्वदुःखों का विनाश हो जावेगा ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि आदिकारण ज्ञानावरण आदि कमौका रत्नत्रय से प्रागभावका असमानकालीन परिक्षय होना सिद्ध हो रहा है ( हेतु ) जैसे कि ज्यरकुंश, कुटकी, चिरायता आदिसे ज्वरके कारणोंके नाश हो जानेपर जडसहित ज्वरका नाश हो जाता है । ( अन्वयदृष्टांत ) इस कारण उस संसारकी व्याधियोंके नाश हो जानेसे आत्माका कल्याण मार्ग से भविष्यमै सम्बन्धित हो जाना सिद्ध हो जाता है । स्वावादियों के मत परिणामी आमाके यह बात बन जाती है । नित्य एकांत या अनित्य एकांत में पहिलेके दुःखी आत्माका वर्तमान में सुखी हो जानापन नहीं बनता है क्योंकि विशेषदोष आता है। जिस सांख्यक मतमें कूटस्थ नित्य आत्मा माना है वह सर्वदा एकसा ही रहेगा। बौद्धमतेन प्रतिक्षण बदलता ही रहेगा। जो दुःखी था वही सुखी न हो सकेगा । दुःख एकका है तत्त्वज्ञान दूसरेको, और मोक्ष तीसरेको होंगी । तथा च एकांतवादियोंको जैनमतानुसार परिणामी नित्य आत्मा के माननेपर अपने मंतव्योंसे विशेष हो जावेगा ।
सन्नप्यात्मोपयोगात्मा न श्रेयसा योक्ष्यमाणः कश्चित् सर्वदा रागादिसमाक्रान्तमानसत्वादिति केचित्सम्प्रतिपद्मा तान्प्रति तत्साधनमुच्यते ।
आत्मा ज्ञानदर्शनोपयोगस्वरूप होकर विद्यमान रहता है । ऐसा होते हुए भी कोई आत्मा मोक्षमार्ग से सम्बन्धित हो जासके, यह जैनोंका सिद्ध करना ठीक नहीं है। क्योंकि सभी आत्माओं के
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अन्तःकरण राग, द्वेष, मोह आदिकसे सदा ही भरे रहते हैं । जिन आत्माओं का मन कोष, प्यार, मूढता से परिपूर्ण हो रहा है वे दूषित आत्मायें भला मोक्षमार्गसे कैसे तदात्मक बन सकेंगे, इस प्रकार कोई कोई प्रतिवादी समझ बैठे हैं। उनके प्रति जीवोंका मोक्षमार्ग में लग जानेको सिद्ध करनेवाला हेतुसहित अनुमान कहा जाता है ।
श्रेयसा योक्ष्यमाणः कश्चित् संसारव्याधिविध्वंसित्वान्यथानुपपत्तेः । श्रेयोऽत्र सकलदुःखनिवृत्तिः, सकलदुःखस्य च कारणं संसारख्याधिस्तद्विध्वंसे कस्यचित्सिद्धं श्रेयसा योक्ष्यमाणत्वम् तलक्षण कारणानुपलब्धेः ।
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कोई आत्मा ( पक्ष ) कल्याणमार्ग से युक्त होनेवाला है ( साध्य ) क्योंकि संसाररूप व्याधियोंका नाश करनेवालापन हेतु इस साध्यके व अन्यप्रकार बन नहीं सकता है । भावार्थ – संसार के दुःखोंका नाशकपना हेतु मोक्षमार्ग से युक्त होनेवाले साध्यके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखता है । इस अनुमानमें कल्याणका अर्थ शारीरिक, मानसिक, चेतन, अचेतमकृत और कर्मकृत सम्पूर्ण दुःखोंकी निवृत्ति हो जाना है तथा सम्पूर्ण दुःखोंका कारण जीवका पचपरावर्तनरूपसे संसरण करना - स्वरूप व्याधि है । उसके कारण मिध्यादर्शन, अज्ञान, 1 असंयम और कषाय है । संसारके इन प्रधान कारणोंका सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्रसे जब नाश कर दिया जाता है तो संसाररूप व्याधिका भी नाश हो जाता है । और उस संसाररूप व्याधिके नष्ट हो जानेपर किसी आत्माका सम्पूर्ण दुःखोंकी निवृत्तिरूप कल्याणसे संयुक्त हो जाना भी सिद्ध हो जाता है । उस संसारव्याधिरूप कारणकी अनुपलब्धि हो जाने से कल्याणमार्ग से हम जानारूप साध्यकी सिद्धि हो जाती है । पहिले अनुमानमें कारणके नाशसे संसारख्या विश्वरूप- कार्यका नाश सिद्ध किया है | यहां क्षयका अर्थ निषेध किया जावे तो हेतु अविरुद्ध कारणानुपलब्धि - स्वरूप है । अथवा क्षयको भावकार्यं माना जावे तो अविरुद्ध कारणोपलब्धिरूप हेतु है । और दूसरे अनुमानमें व्याधिध्वंस हेतुसे कल्याणसम्बन्धीपना सिद्ध किया है, यह हेतु विरुद्ध कारणानुपलब्धि रूप है। यदि ध्वंसको भावरूप माना जावे तो पूर्ववत् अविरुद्धकारणोपलब्धि स्वरूप है ।
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न च संसारख्याधेः सकलदुःखकारणत्वमसिद्धं जीवस्य पारतन्त्र्य निमित्तत्वात् । पारतन्त्र्यं हि दुःखमिति । एतेन सांसारिकसुखस्य दुःखत्वमुक्तं स्वातन्त्र्यस्यैव सुखत्वात् ।
संसाररूपी रोगको सकल दुःखों का कारणपमा असिद्ध नहीं है क्योंकि कनोंके आधीन चारों गतियोंमें परिभ्रमण करनारूप संसार ही जीवकी परतन्त्रताका कारण है और पराधीनता ही निम्बयसे दुःख है । इस प्रकार संसाररूप-रोग ही सम्पूर्ण दुःखों का कारण सिद्ध हुआ । इस समर्थन से संसारमें होनेवाले इंद्रियजन्य क्षणिक सुखोंको दुःखपना कह दिया गया है। क्योंकि वास्तवमै स्वतं
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चिन्तामणिः
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ता को ही सुख माना गया है। इंद्रियजन्य स्पर्श, रस आदिकके सुख स्वतंत्र नहीं है, पराधीन हैं । पराधीन अवस्था मला सुख कहां ? | वे कल्पितसुख क्षणिक हैं, वाघासहित हैं, विपक्षसहित भी हैं।
शक्रादीनां स्वातन्त्र्य सुखमस्त्येवेति चेन, तेषामपि कर्मपरतन्त्रत्वात् ।
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कोई दोष उठाता है कि इंद्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती, भोगभूमियां तथा राजा, महाराजाओं आदिको स्वाधीनतारूप सुख है ही । आचार्य समझाते हैं कि यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वे सभी शुभ और अशुभ कर्मोंसे परतंत्र हो रहे हैं, जकड़े हुए हैं। भावार्थ- हम समझते हैं कि हम स्वतंत्रता से खा रहे हैं, भोग भोग रहे हैं, पढा रहे हैं, गाना गाते या सुन रहे हैं, हंस रहे हैं, आनंद कर रहे हैं, किंतु इन सम्पूर्ण क्रियाओं में स्वतंत्रता तो अत्यल्प है और कमोंकी पराधीनता ही बहुभाग प्रधान कारण है। इस जीवको कर्मके उदयसे स्त्रीका शरीर मिलता है, तब पुरुषसे रमण करनेके भाव होते हैं और पुरुषका शरीर मिलनेवर पुंवेदका उदय होनेसे पुरुषोचितभाव होते हैं। स्वर कर्मके उदय होनेपर तथा भाषावणाके आ जानेपर गाना गाया जाता है । हास्य कर्मका उदय होनेपर हंसता है । बाल्यावस्था में खेलने कूदनेके परिणाम होते हैं। आत्माको सिंहका शरीर मिलने पर क्रूरता, शूरता के भाव हो जाते हैं। बकरीके शरीर में भय, पत्ता खाना, मैं मैं शब्दसे रोना, आदि विकार होते हैं । कोई पशु या स्त्री अपने इसे मनुष्य बननेका पुरुषार्थ करे, वह सब व्यर्थ है । अभिप्राय यह है कि जितना कुछ हम पुरुषार्थपूर्वक कार्य करना समझ रहे हैं, उनमें कमकी प्रेरणाका air afte है । चिरकालका तीव्र रोगी एक पलमें नीरोग होने का यदि प्रयत्न करे तो वह प्रयत्न निष्फल हो जावेगा । सामायिकको छोडकर आत्माके यश, काम, अर्थका उपार्जन, चलना आदि व्यापारोंमें, कठपुतलियों के नचाने में बाजीगर के समान पुण्य, पाप, कर्म ही प्रयोक्ता माना गया है । अतः सम्राट् आदिकोंका सुख पराधीन होनेसे वास्तविक सुख नहीं है । वेदनाका प्रतीकार मात्र है, बहुभाग दुःखसे ही मिश्रित है । एक जैन कविने ठीक कहा है कि " न कोऽपि कस्यापि सुखं ददाति न कोऽपि कस्यापि ददाति दुःखन् परो ददातीति कुबुद्धिरेषा स्वकर्मसूत्रप्रधितो हि जीवः ॥ " न तो कोई भी किसीको सुख देता है और न कोई किसी जीवको दुःख ही देता है। जो मनुष्य यह कहता है कि अमुक हमको सुख देता है। यह हमको दुःख देता है यह सब कुबुद्धि है क्योंकि यह संसारी जीव अपने अपने कर्मसूत्रोंसे गुथा हुआ है ।
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निराकांक्षवात्मक सन्तोषरूपं तु सुखं सांसारिकं तस्य देशमुक्तिसुखत्वात् । देशतो मोक्षयोपशमे हि देहिनो निराकाङ्क्षता विषयस्तौ नान्यथाविप्रसंगात् ।
इन्द्री आकाक्षाओंसे रहित जो संतोषसुख है, वह तो संसारका सुख नहीं है किन्तु एकदेशमोक्षका सुख है । अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण कर्मों का
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मन्नार्थचिन्तामणिः
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उदय न होनारूप एकदेश कमौकी मोक्ष हो जानेपर वह संतोषामृतसुख आत्मामे स्वभावसे प्रगट हो जाता है । मोहनीय कर्मका कुछ अंशोंसे क्षयोपशम हो जानेपर ही विषयोंकी आसक्ति में आत्मा के वीतरागता उत्पन्न होजाती है । संसार के संकल्पविकल्पोंसे रहित वीतरागी होनेका अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है । अन्यथा एकेन्द्रियजीवों को भी संन्तोषी वीतरागी बननेका अतिप्रसंग हो जायेगा । यदि नदीस्नान, बाल मुंडाना आदि बहिरंग क्रियाओंसे वीतरागी साधु बन सकें तो मच्छली, मेंढक, भेड आदि भी प्रधान वीतरागी बन आयेंगे।
तदेतेन यतिजनस्य मशमसुखमसांसारिकं व्याख्यातम् । क्षीणमोहानां तु कास्यैतः प्रशमसुखं मोहपरतन्त्रत्व निवृत्तेः ।
इस कारण इस उक्त कथनसे छठवें सातवें आदि गुणस्थानवाले मुनि ऋषियोंको जो प्रकृ शान्तिस्वरूप सुख है, वह संसारसम्बन्धी नहीं है । यह बात भी समझा दी गयी है और जिनका मोहनीय कर्म सर्वथा बन्ध, उदय और सत्त्वपनेसे क्षयप्राप्त हो गया है। उन बारहवे गुणस्थानवाले निर्ग्रन्थ और तेरहवेंवाले स्नातक साधुओंके तो सम्पूर्णरूपसे आत्मीय स्वाभा वि शान्तिका सुख है । क्योंकि मोहनीय कर्मकी पराधीनता सर्वथा नष्ट हो गयी है। तभी तो आत्माका स्वाभाविक सुख गुण व्यक्त हो गया है। जीवन्मुक्ति है ही, परममुक्ति भी अ दूर नहीं है ।
यदपि संसारिणामनुकूल वेदनीयप्रातीतिकं सुखमिति मतम्, तदप्यभिमानमात्रम् पारतन्त्र्याख्येन दुःखेनानुषक्तत्वात्तस्य तत्कारणत्वात् कार्यस्वाच्चेति न संसारव्याधि - र्जातुचित्सुखकारणं येनास्य दुःखकारणत्वं न सिद्धयेत् ।
जो भी संसारी जीवोंके सातावेदनीयका उदय होनेपर अपनी अनुकूल प्रतीतिके अनुसार वैमाविक आनंदका अनुभवन करनारूप सुख प्रतीत हो रहा है यह मंतव्य है, वह भी केवल अभिमान करना मात्र है। क्योंकि वास्तवमे संसारी जीवोंको अभीतक ठीक सुखका अनुमत्र ही नहीं हुआ है। मिश्री रससे लिपटी हुयी छुरीको चाटने के समान या दादको खुजाने के समान सांसारिक सुखका अनुकूलवेदन हो रहा है, किंतु ये सब सुखाभास हैं । वे परतंत्रतानामक - दुःखसे भरपूर होकर सन रहे हैं क्योंकि वे सब माने हुए सुख बिचारे कम की अधीनतारूप कारणोंसे दी तो उत्पन्न हुए हैं और पीछेले पराधीन कर देना भी उन सुखोंका कार्य है । माचार्य – दुःखसे ही वे सुख उत्पन्न हुए हैं और भविष्य में भी दुःखकार्यको उत्पन्न कर देते हैं । एक मनुष्यको लाल मिर्च खाना अच्छा लगता है। किसीको दूसरोंके पीटने में आनंद आता है, वह दुःखका कार्य और दुःखका कारण भी है | यही दूध पीना, भोजन करना, भोग करना आदि सुखाभासों में भी समझ छेना । इस प्रकार संसारकाव्याधि कभी सुखका कारण नहीं हो सकती है । जिससे कि संसार
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तत्त्वार्थ चिन्तामणिः
रोगको दुःखकारणपना सिद्ध न होये । अर्थात् संसारकी व्याधि, अधि, उपाधियां अनेक दुःखोंके कारण हैं । जो जीव व्याधियोंका नाश कर देता है, वह सुखके मार्गमें लग जाता है ।
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तद्विध्वंसः कथमिति चेत्, कचिन्निदान परिध्वंस सिद्धेः । यत्र यस्य निदानपरिवसस्तत्र तस्य परिध्वंसो दृष्टो यया कचिज्ज्वरस्य । निदानपरिध्वंस संसारव्याधेः शुद्धात्मनीति कारणानुपलब्धिः । संसारव्याधेर्निदानं मिध्यादर्शनादि, तस्य विध्वंसः सम्पग्दर्श नादि भावनाबलाद कचिदिति समर्थयिष्यमाणत्वान हेतोरसिद्धता शङ्कनीया ।
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उन व्याधियोंका ध्वंस कैसे होगा ! ऐसा पूंछनेपर तो हम उत्तर देते हैं कि किसी न किसी निकटमव्य आत्मा ( पक्ष ) व्याधियोंके प्रधानकारणोंका नाश सिद्ध हो चुका है ( साध्य ) जहां जिस कार्य आदिकारणका पूर्ण क्षय हो जाता है। वहां उस कार्यका नाश हो जाना देखा गया है । जैसे कि ज्वरके कारण वास, पित्त, कफके दोषोंका विनाश हो जानेपर किसी रोगी में ज्वरका नाश हो जाता है, या अभिके प्रकर्ष होनेपर जैसे शीतस्पर्शका नाश हो जाता है ( न्याप्ति पूर्वक अन्वय दृष्टांत ) इसीके सदृश संसाररोगके निदानका क्षय शुद्ध आत्मामे विद्यमान है । ( उपनय ) इस प्रकार कारणकी अनुपलब्धिसे कार्यका अमाव जान लिया जाता है । ( निगमन ) संसारव्याधि प्रधानकारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चास्त्रिका यथायोग्य परिपालन और पूर्णताकी मावना भावनेकी सामर्थ्य से उन मिध्यादर्शन आदिकोंका बढ़िया नाश किसी एक मुमुक्षु आत्मामें हो जाता है। इस बालका भविष्य में अच्छी तरह से समर्थन कर देनेवाले हैं । मतः कल्याणमार्गसे युक्त होना नामक साध्य करने में दिये गये व्याधिविध्वंसकपना हेतुके असिद्धतादोषकी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि feat freeeव्य जीव आत्मारूप पक्षमें यह हेतु विद्यमान है ।
सरसि शंखकादिनानैकान्तिकोऽयं हेतुः, स्वनिदानस्य जलस्य परिध्वंसेऽपि तस्यापरिध्वंसादिति चेन्न तस्य जलनिदानत्वासिद्धेः । स्वारम्भकपुद्गलपरिणामनिदानत्वात् शंखादे स्वत्सहकारिमात्रत्वाअलादीनाम् । न हि कारणमात्रं केनचित्कस्यचिन्निदानमिष्टं freaस्यैव कारणस्य निदानत्वात् न च तन्नाशे कस्यचिन्निदानिनो न नाश इत्यव्यभिचार्येव हेतुः कथंचन संसारव्याधिविध्वंसनं साधयेद्यतस्तत्परिष्वसनेन श्रेयसा योक्ष्यमाणः कचिदुपयोगात्मकात्मा न स्यात् ।
यहां कोई शंका करते हैं कि आप कार्यके नाशको सिद्ध करनेवाला निदानध्वरूप यह जैनोंका हेतु तो तालाब में रहनेवाले शंख, सीप आदिसे व्यभिचारी है, क्योंकि शंख, सीपका मचानकारण जल है किंतु अपने निदान माने गये जलके सर्वथा सूख जानेपर भी उन शंख और सीपका नाथ नहीं हो जाता है। वे सूखे तालाब में बेखटके पड़े रहते हैं। आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो
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तस्वार्थपिन्सामणिः
ठीक नहीं है। क्योंकि उन शंख, सीपों आदिका प्रधानकारण बलको मानना सिद्ध नहीं है। शंख आदिकोंका प्रकृष्ट कारण अपने बनानेवाले पुद्गलकी वर्गणास्वरूप पर्याये हैं अर्थात् शंख आदिक द्वीनिद्रय जीवोंके योगोंसे आकर्षित हुयीं आहार वर्गणाओंसे शंखका पौगलिक शरीर बना है। जल, कीच, शैवाल आदि तो उसके केवल सहकारी कारण हैं। उनमें शंखशरीरके योग्य आहास्वर्गणायें अधिक हैं। किसी मी कार्यके सम्पूर्ण ही कारणोंको या चाहे किसी सामन्यकारणको निदान मान लेना किसी भी वादीने इष्ट नहीं किया है। अनेक कारणोंमसे किसी विशेष उपयोगी नियत कारणको ही निदानरूपकारण माना गया है और ऐसे प्रधान कारणके नष्ट हो जानेपर किसी भी निदानसे होनेवाले कार्यका नाश न होवे यह नहीं है । इस कारण हमारा हेतु व्यभिचार दोपसे रहित ही है, वह संसारख्याधिक नाशकपनको क्यों नहीं सिद्ध करावेगा जिससे कि उस व्याधिके नाम कर. नेसे कोई न कोई ज्ञानोपयोगस्वरूप आत्मा भविष्यमै कल्याणसे युक्त न हो सके । मावार्थनिदानक्षयरूप निदोषहेतृसे मिथ्यादर्शन आदि न्याधियों का ध्वंस सिद्ध होता है और व्याधियों के ध्वंसकपने हेतुसे किसी आत्माका मोक्षमार्गमे लग जाना ज्ञात हो जाता है।
निरन्वयविनश्वरं चिचं श्रेयसा सोक्ष्यमाणमिति न मन्तव्यम् , तस्य क्षणिकत्वाविरोधात् । ___ प्रत्येक क्षणमें अन्वयसहित नष्ट होकर नहीं ध्रुवपनको रखता हुआ क्षणिकचित्त मोक्षमार्गसे युक्त हो जावेगा । इस प्रकार पौद्धोंको नहीं मानना चाहिये, क्योंकि जो कल्याणसे युक्त होनेवाला है उसको क्षणिकपनेका विरोष है। अर्थात् बिजली चमकनेके समान किसीको क्षणमात्र तो हितमार्ग प्राप्त नहीं होता है किंतु पहिलेसे ही नाना प्रयत्न करने पड़ते हैं। तब कहीं नही देर में सुघरते सुधरते आत्माके अनेक परिणामों के बाद कल्याणमार्ग मिलता है। बौद्धोंके माने हुए सर्वथा शाणिक विज्ञानरूप आमाकी कल्याणमार्गमें नियुक्ति नहीं बन सकती है।
संसारनिदानरहिताञ्चिचाञ्चित्तान्तरस्य श्रेयास्वभावस्योत्पधमानतैव श्रेयसा योक्ष्यमाणता, सा न क्षणिकत्वविरुद्धति चेन, क्षणिकैकान्वे कुतश्चित्कस्यचिदुत्पत्ययोगात् ।
बौद्ध कहते हैं कि सातिशय मिथ्यादृष्टिके जैसे चरम मिथ्यादर्शनके उत्तरक्षणमें सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है, बारहवें गुणवानकी अन्तिम अल्पज्ञतासे तेरहवेंके आदिमें सर्वशता उत्पन्न हो जाती है, जैनोंके यहां चौदह गुणस्थानके अन्ठसमयकी असिद्धतासे दूसरे क्षणमें आलाको सिद्ध भवस्या पन जाती है. वैसे ही संसारके आदिकारण मानी गयी अविद्या और तृष्णासे रहित हो गये पहिले चित्तसे कल्याणस्वभाववाले दूसरे चित्तका उत्पन्न हो जाना ही कल्याणमार्गके साथ भावी नियुक्तपना है । वह नियुक्ति हमारे माने हुए क्षणिकपनेसे विरुद्ध नहीं पड़ती है। प्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्रों का कहना ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वथा क्षणिकस्वपक्षका एकान्त
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
माननेपर किसी भी कारणसे किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । बिजली और दीपकलिका भी कई क्षणतक ठहरती है, तभी पदार्थोका पकाशन कर पाती हैं। एकक्षणमें पैदा होकर झटही नष्ट हो जानेवाली पर्यायको आत्मालाम करनेका मी अवसर नहीं मिलता है। निसने आमलाम ही नहीं किया है, वह अर्थक्रिया भी क्या करेगा और मिना अर्थक्रियाके वस्तुपना ही नहीं ठहरता है।
सन्तानः श्रेयसा योक्ष्यमाण इत्यप्यनेन प्रतिक्षिप्तम, सन्तानिव्यतिरेफेण सन्तान. स्यानिष्टे, पूर्वोत्तरक्षणा एवं परामृष्टभेदाः सन्तानस्स चावस्तुभूतः कर्य श्रेयसा योक्ष्यते ।।
बौद्ध कहते हैं कि जैसे हिंसककी एकसमयकी पर्याय हिंसा नामक लम्धे कर्मको नहीं करती है, किंतु हिंसक आत्माकी अनेकपोये हिंसाकार्यमें लगी हुयी है । वैसे ही विज्ञानकी अकेली क्षणिक पर्याय कल्याणमार्गमें नहीं लगती है किंतु भूत, भविष्यत् कालकी अनेक पर्यायोकी लहीरूपसंतति कल्याणसे संयुक्त हो जावेगी। आचार्य कह रहे हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना मी इस पूर्वोक्तकथनसे खण्डित हो जाता है। यदि आप शणिकपर्यायोमे अन्वितरूपसे रहनेवाला एक संतान मानले होते, तम वो आपका कहना ठीक हो सकता था किंतु आप पौद्धोने क्षणिक संतानियोंसे अतिरिक्त एक संतान कोई इष्ट किया नहीं है । आपका ग्रंथ है कि " पूर्वोचर क्षणों में होनेवाले संपूर्ण पर्याय वास्तवमें एक दूसरेसे सर्वथा मिन्न हैं " । भ्रांतिके वश उन पर्यायोमे यदि भेदका विचार न किया जावे तो वे अनेक परिणाम ही संतानरूप कल्पित कर लिये जाते हैं । और यथार्थमें वह संतान वस्तुभूत नहीं है। आप बौद्ध किसी भी वास्तविक संबंघको नहीं मानते हैं तो पूर्वीपरकालभावी परिणामोंका कालिकसंबंध काहेको मानने लगे। भला ऐसी अपरमार्थरूप संतान कल्याण मार्गके साथ कैसे संयुक्त हो सकेगी ! अर्थात् आपका माना गया तुच्छसंतान कल्याणमार्गी नहीं बन पाता है।
प्रधानं श्रेयसा योक्ष्यमाणमित्ययसम्भाव्यम्, पुरुषपरिकल्पनविरोधात् । तदेव हि संसरति तदेव च विमुच्यत इति किमन्यत्पुरुषसाध्यमास्ति ? प्रधानकृतस्यानुभवनं पुस: प्रयोजनमिति चेत्, प्रधानस्यैव तदस्तु । कर्तृत्वात्तस्य समेति चेत्, स्यादेवं यदि कर्तानुभविता न स्यात् ।
___ सांख्य कहते हैं कि सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूप प्रकृति ही मोक्षमार्गसे युक्त होनेवाली है। ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार कापिलोंका मन्तव्य भी सम्मवने योग्य नहीं है। क्योंकि यदि प्रकृतिका ही मुक्तिमार्गमे प्रवेश्च माना जावेगा तो आत्मतत्त्वकी कल्पना करनेका विरोष माता है। जब कि प्रकृति ही संसारमै संसरण करती है और वह प्रकृति ही विशेषरूपसे मोक्षको माप्त करती है। ऐसा सिद्धांत करनेपर फिर आत्माके द्वारा साध्य करने के लिये कौन दूसरा कार्य भव
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ફેર
सवार्थचिन्तामणिः
शिष्ट रह जाता है ? जिसके लिये कि पच्चीसवां तत्त्व आत्मा माना जा रहा है। यदि आप सांख्य यों कहेंगे कि प्रधानके द्वारा किये गये कार्योंका भोग करना आत्माका साध्य प्रयोजन है । यों तब तो हम जैन कहते हैं कि प्रकृतिके बने हुए उन सुख, दुःख, अहंकार, रासनप्रत्यक्ष आदिका भोग करना भी प्रकृतिका ही कर्तव्य मान लो, जो करे सो ही भोगे । यदि सांख्य यों कहेंगे कि वह प्रकृति तो कायोंकी करनेवाली है, अतः वह भोगनेवाली नहीं हो सकती है, ऐसा सांख्योंका कहना तो जब हो सकता था कि यदि कार्य करनेवाला उस कार्यका भोक्ता न होता। किंतु सामाविक, स्वाध्याय, अध्ययन करनेवाले और अपनी अंगुली में सुईको चुभानेवाले मनुष्य उनका सुख दुःखरूपी - फल स्वयं भुगत रहे हैं। यद्यपि कुम्हार अपने बनाये हुए सम्पूर्ण घडोंसे ठण्डा पानी नहीं पीता है और सूचांकार अपने बनायें गंध सम्पूर्ण वस्त्रोंको नहीं पहिनता है, फिर भी ये लोग अपने बनाये हुए कतिपय घट, पटोंका उपभोग करते ही हैं। तथा अतिरिक्त घट, पटोंका अन्य पुरुषोंसे परितोष प्राप्त कर उसका पूर्णरूप से उपयोग करते हैं । उपभोग करना अनेक प्रकारका है। परोपकारी सज्जन भी निस्वार्थ सेवा कर आत्मीय कर्तव्य के सुख, शांति, लाभको भोग रहे हैं । सेवावृति यानी सेवा करके आजीविका करना निकृष्ट कर्म है, किंतु सेवाधर्मं पावन कार्य है। जो अपराध करता है उसीको दण्ड भोगना पडता है और तपस्वी जीव ही मुक्ति शाश्वत आनंदका भोग करते हैं । कर्तापन और मोक्कापनका सामानाधिकरण्य है अन्यथा भुजिक्रियाका कर्ता मी भोक्ता न बन सकेगा ।
द्रष्टुः कर्तृत्वे मुक्तस्यापि कर्तृत्वप्रसक्तिरिति चेत्, मुक्तः किमकर्तेष्टः १ ।
चेतना करनेवाले या भोग करनेवाले ब्रष्टा आत्माको यदि कर्ता माना जायेगा तो मुक्त rtant मी कर्तापनका प्रसंग आवेगा । मोक्षमें बैठे हुए उनको भी कुछ न कुछ काम करना पडे तो वे कृतकृत्य कैसे माने जायेंगे ! यदि सांख्य ऐसा कहेंगे तो हम पूंछते हैं कि आपने मुक्त जीवोंको क्या अकर्ता माना है । भावार्थ यास्तवमे सिद्धांत तो यही ठीक है कि मुक्त जीव मी अपनी सुख, चैतन्य, सच्चा, वीर्य, शायिक दर्शन आदि अर्थक्रियाओंको करते रहते हैं, तभी तो वे वस्तुभूत होकर अनंतकाल तक मोक्षमें स्थित रहते हैं। उत्पाद व्यय धौव्य उनके होते रहते हैं। अर्थक्रियाकारित्र वस्तुका लक्षण है । स्वपरादानापोहनव्यवस्था सबको करनी पडती है । सोता या मूच्छित मनुष्य भी रक्त मांस आदिको ठीक बनाये रखता है, ताकि मृतके समान दुर्गंध न आ सके । स्वात्मनिष्ठा बनी रहे, कर्म संघ नहीं हो सके, क्षायिक ज्ञान, चारित्र, सम्यक्त्व द्रव्यत्वकी परिण तियां मुक्तोमें सर्वदा होती रहती हैं। हो, किक आजीविका, दान, भोजन, शयन, अध्ययन, स्नान, पूजन, आदि कृत्योंको वे कर चुके हैं। उन्हें अब करने नहीं हैं। अतः वे कृतकृत्य कह दिये जाते हैं किंतु अन्य मुक्तोपयोगी कायाँको तो अनुक्षण करते ही रहते हैं। सिद्ध निठले नहीं बैठे है ।
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मोक्ष अवस्या कोई बेहोशी, या मूर्छित या प्रदीपनिर्वाण, सारिखी नहीं है। परंतु सदा चैतन्यमय सुल, ज्ञान, अनुभाव, वस्तुत्व, द्रवण आदि परिणतियों स्वरूप हैं।
विषयसुखादेरकवेति चेत् , कुतः स तथा ? तत्कारणकर्मकर्तृवाभावादिति चेत्, तर्हि संसारी विषयसुखादिकारणकर्मविशेषस्य कर्तृत्वादिषयसुखादेः कर्ता स एव घानुभविता किन्न भवेत् ।
यदि सांख्य यो कहें कि मुक्तजीव विषयोंसे उत्पन्न हुए सुख और क्रोध, राग, शरीर, इंद्रिय, शन्द, रस आविफोंका अका ही है। इस पर तो हम जैन पूंछते है कि आपने कैसे जाना कि वह मुक्त जीव उस प्रकार शरीर, सुख आदिकका कर्ता नहीं है ! बताओ।
___ यदि आप सांख्य यों कहे कि मुक्तजीवोंमें उन शरीर, शब्द, सुख, दुःख आदिको पनानेके कारण पुण्य-पापोका फापन नहीं है, अतः शरीर भादि या सुख आदिको नहीं बना पाता है। कारणके विना कार्य नहीं हो सकता है। पुण्य, पाप के बिना अकेले मासे मी शरीर आदि नहीं बनते हैं । ऐसा कहने पर तो आपके कथनसे ही यह बात निकल पडती है कि संसारी जीवको शरीर, घट, विषयसुख, क्रोध आदिके कारण माने गये विशिष्ट पुण्यपापोंका कर्तापन है जिस कारण संसारी जीव विषयसुल आदिका करनेवाका कर्ता है, तब तो वही उनका अनुमद करनेवाला भोक्ता मी क्यों नहीं होगा ! अर्थात् वही आत्मा भोक्ता भी है, कर्तृत्व और भोक्तृतका अधिकरण समान है।
संसार्यवस्थायामात्मा विषयसुखादितत्कारणकर्मणां न कर्ता चेतनत्वान्मुक्तावस्यावदित्येदपि न सुन्दरम् , स्वेष्टविपासकारित्वात् , कथम् ? संसार्यवस्थायामात्मा न सुखादेभॊक्ता चेतनत्वान्मुक्तावस्थावदिति खेष्टस्यात्मनो भोक्तृत्वस्य विघातात् ।
सांख्य कहते हैं कि संसारमें प्रकृतिके साथ संसरण करनेवाली दशामें भी आत्मा विषय, सुख, दुःख आदिक और उनके कारण पुण्य पाप कमाका करनेवाला नहीं है । क्योंकि आस्मा सका द्रा, चेतन है जैसे कि मुक्त अवस्थामै विषयसुख, पुण्य आदिकका कर्ता नहीं है। इस प्रकार सांख्योंका यह कहना भी सुंदर नहीं है क्योंकि अपने इष्टसिद्धांतका ही विषात करनेवाला है। कैसे है ! सो सुनो ! इम भी कटाक्षरूप अनुमान प्रमाण देते हैं कि, संसरण करनेकी दशामे आत्मा सुख, दुःख, शरीर आदिका मोगनेवाला नहीं है क्योंकि वह चेतन है । जैसे कि मोक्ष भवस्थामें विषयसुख आद्रिका नहीं भोगनेवाला आत्मा आपने माना है। इस प्रकार माप सांख्योंके स्वयं इध किये गये भोत्तापनका भी विषात हुआ जाता है। पक्ष या पतिपक्षको पुष्ट करनेवाले अनुमान बनाये आसफले हैं।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रतीतिविरुद्ध मिष्टविघातसाधनमिति चेट्, कर्तृत्वाभावसाधनमपि पुंसः श्रोता प्राताहमिति स्वकर्तृत्वप्रतीतेः ।
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सांख्य कहते हैं कि हमारे इष्टका विधान सिद्ध करना आप जैनियोंको प्रामाणिक प्रतीतिओसे निरुद्ध पडेगा, क्योंकि संसार अवस्थामें आत्माका सुख, दुःख आदिकोंको भोगना सर्वको अनुभूत हो रहा है; इस प्रकार स्याद्वादी भी स्वीकार करते हैं । अब आचार्य बोलते है कि यदि आप सांख्य ऐसा कहेंगे तो तदनुसार इम भी कहते हैं कि सांख्योंको संसार अवस्थामै आस्माके कर्तापनका अमाव सिद्ध करना भी प्रतीतिओसे विरुद्ध पडेगा। क्योंकि मैं शब्दोंका श्रवण करनेवाला हूं, गंघको सूंघ रहा हूं, मैं पदार्थों का दर्शन करता हूं, मैं आत्मध्यान करता हूं, इस प्रकार आत्माके कर्तापन की परीक्षकको प्रतीति हो रही है ।
श्रीसाहमित्यादिप्रतीतेरहंकारास्पदस्वादहंकारस्य च प्रधानवित्वात्प्रधानमेव कर्तृ तया इति चेद्र तट एवम प्रधान । न हि तस्याहंकारास्पदत्वं न प्रतिभाति शब्दादेरनुभविताहमिति प्रतीतेः सकलजनसाक्षिकत्वात् ।
यदि सांख्य यों कहें कि मैं सुनता हूं, चखता हूं इत्यादिक प्रतीतियां तो अहंकार के साथ संबंध रखती हैं और वह मैं मैं करनारूप अहंकार तो त्रिगुणात्मक प्रकृतिका परिणाम है। इस कारण प्रकृति ड़ी कर्तापन से प्रतीत हो रही है, आत्मा नहीं, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि इसी कारणसे अनुभव करनेवाली भी प्रकृतिको ही मानलो, क्योंकि मोग करनेवाले के भी साथमें मैं लगा हुआ है। मोक्ताको अहंकारका समभिव्याहार नहीं प्रतीत होता है । यह नहीं समझना । में आत्मा शब्दका आनंद भोग रहा हूं, रसका अनुभव कर रहा हूं, मैं द्रष्टा हूं, मैं भोक्ता हूं इत्यादि प्रतीतियां सम्पूर्ण मनुष्यों के सन्मुख जानी जा रही हैं । बाल, वृद्ध, परीक्षक, सभी इस बात के साक्षी ( गवाह ) हैं ।
श्रान्तमनुभवितुरहंकारास्पदत्वमिति चेत् कर्तुः कथमश्रान्तम् ? तस्याहंकारास्पदस्वादिति चेत्, तत एवानुभवितुस्तद श्रतिमस्तु ।
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भोक्ता आत्माको अहंकारका समानाधिकरण जानना आपका भ्रमरूप है । सांख्योंके ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि क्योंजी ? कर्ताको अहंकारका एकार्थपना कैसे प्रामाणिक मान लिया जाये ! बताओ। इसको भी भ्रांत कहिये । यदि आप कहो कि वह कर्ता तो अहंकारका स्थान है ही, इस कारण प्रधानरूप कर्ताको अहंकारका स्थान मानना प्रमाणरूप है । इसपर हम भी कहते हैं कि उसी कारण से मोकाको भी अपना अभ्रांत मान लिया जाये । मोक्ता के साथ भी अहंकारका बाधारहित उल्लेख होता है ।
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तस्योपाधिकत्वादहंकारास्पदस्वं प्रांतमेवेति चेत्, कुतस्तदोपाधिकत्व सिद्धिः १ ।
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उस भोक्ता आत्माको अहंकार के साथ एकार्थपना तो प्रकृतिको उपाधि लग जानेके कारण भ्रांत ही है जैसे कि टेसूके फूल के संबंधसे कांच ललाई आ जाती है। यदि आप कापिल ऐसा कहोगे तब तो बताओ कि तुमने आत्माके अहंपनेको बाहिरसे आया हुआ औपाधिक भाव कैसे सिद्ध किया है ।
पुरुषस्व मावस्वाभावादईकारस्य तदास्पदत्वं पुरुषस्वभावस्यानुभक्तृित्वस्यौपाधिकमिति चेत्, स्यादेव यदि पुरुषस्वभावोऽहंकारो न स्यात् ।
सांख्य कहते है कि गके साथ यह कहना कि मैं ज्ञाता हूं, मैं कर्ता हूं, मेरे शरीर, धन भादिक हैं, इस हि अहंपरेके मनौर रोगों के भाव लामाके नहीं है, किंतु आत्माका स्वभाव तो अनुभवन करना है । इस कारण मोक्ता चेतयिता स्वरूप आत्माके अहंकारके साथ समानाधिकरणपना प्रकृतिकी उपाधिसे प्राप्त हुआ भई है। आत्माकी गांठका नहीं। अंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार सांख्योंका कहना तब हो सकता था, यदि पुरुषका स्वभाव अहंकार न होता, किंतु मैं मैं इस प्रतीतिके उलेख करने योग्य आत्मा ही है । अतः अहंकार पुरुषका स्वभाव है।
मुक्तस्याहंकाराभावादपुरुषस्वभाव एवाहंकार, स्वभावो हि न जातुचित्तद्वन्त त्यजति, तस्य निःस्वभावत्वप्रसंगादिति चेन्न, स्त्रमावस्य द्विविधत्वात्, सामान्यविशेषपर्याय भेदात् । तत्र सामान्यपर्यायः शाश्चतिका स्वभावः, कादाचित्को विशेषपर्याय इति न कादाचिका वात्पुंस्यइंकारादेरतत्स्वभावता ततो न तदास्पदवमनुभवितृत्वस्योपाधिकर, येनाभ्रोतं न भवेत् कर्तृत्ववत् ।
सांख्य कहते हैं कि पुरुषका स्वभाव अहंकार नहीं हो सकता है, क्योंकि मुक्तजीवोंके अहंकार सर्वथा नहीं है । यदि अइंकार आत्माका स्वभाव होता तो मोक्ष अवस्थामें भी अवश्य पाया जाता, कारण कि स्वभाव कभी भी उस स्वभाववान्को नहीं छोड़ता है। यदि स्वभाव अपने तदास्मक भावतत्त्वोंको छोड देते होते तो वह वस्तु विचारी स्वभावोंसे रहित हो जाती, तथाच अश्वविपाणके समान असत् बन बैठनी, अतः अहंकार आत्माका तदारमक स्वभाव नहीं है । अब भाचार्य सिद्धांतकी प्रतिपत्ति कराते हैं कि उनका यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि सामान्यपर्याय और विशेषपर्यायके मेदसे स्वभाव दो प्रकारके होते हैं। तिनमें सामान्यपर्यायरूप स्वभाव तो अनादि कालसे अनंत काल तक सर्वदा वस्तुमें रहता है । जैसे कि जीवद्रव्य चेतना और पुद्गल रूप, रस आदिक । तथा विशेषपर्याय नामक स्वभाव तो द्रव्यमे कभी कमी हो जाते है । इस कारण सादि सात है जैसे जीवके क्रोध, मतिज्ञान, आदिक स्वभाव है और पुद्गल के कालापन, मीठापन आदि । इसी प्रकार आत्माके अहंकार, अमिलाषा आदिक कर्मोदयजनित स्वभाव है। अतः आत्माम कभी कभी होने की अपेक्षासे इन अहंकार आदिको उस आत्माके स्वभाव न मानना ठीक
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नहीं है । औपशमिक आदि पांचों प्रकारके भाव आस्माके तदात्मक तत्त्व है । उस कारण सिद्ध हुआ कि भोग या अनुभवन करनेवाले आत्माका उस महंकार के साथ एकार्थपना अपद्रव्यसे माया हुआ औपाधिक भाव नहीं हैं किंतु आत्मा के घरका है। जिसके कि कर्तापनके समान अहंकारीपन भी निर्वाध होकर आत्माका स्वभाव न बने । अर्थात् प्रकरणमें अहंकारका अर्थ अभिमान करना ही नहीं है, किंतु आत्मगौरव और आत्मीय सत्ताके द्वारा होनेवाला मैं का स्वसंवेदन करना है। मैं केवलज्ञानी हूं, मैं क्षायिक सम्यग्दृष्टि हूं, मैं सिद्ध हूं, मैं मार्दव गुणवाला हूं, इस प्रकारका वेदन मुक्त जीव भी विद्यमान है । मोक्ष अवस्थामै इच्छा नहीं है, ज्ञान और प्रयत्न हैं । इच्छा मोइका कार्य है, किंतु ज्ञान और यत्न वो चैतन्य, वीर्ये, इन आत्मगुणोंकी पर्यायें हैं।
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न चाभ्रान्ताहंकारास्पदत्वाविशेषेऽपि कर्तुत्वानुभवितृत्वयोः प्रधानात्मकत्वमयुक्तम्, यतः पुरुषकल्पनमफलं न भवेत्, पुरुषात्मकत्वे वा तयोः प्रधानपरिकल्पनम् । तथाविषस्य 'चासतः प्रधानस्य गगनकुसुमस्येव न श्रेयसा योक्ष्यमाणता ।
"मैं कता हूं, मैं चेतयिता भोक्ता हूं इस प्रकार फर्तापन और भोक्तापनको भ्रांतिरहित अहंकार के समानाधिकरणकी समानता होनेपर मी दोनोंको प्रकृतिस्वरूप ही आपादन करना अयुक्त नहीं है जिससे कि सांख्यों के यहां आत्मतत्त्वकी कल्पना करना व्यर्थ न होवे | अथवा उन दोनोंको यदि पुरुषस्वरूप मान लिया जाये तो तेईस परिणामवाले प्रकृतितत्त्वकी भूमिका सहित कल्पना व्यर्थ न हो | भावार्थ — कर्तापन और भोक्तायन एक ही द्रव्यमें पाये जाते हैं । अतः प्रकृति और आमासे एक ही तत्त्व मानना चाहिये, आस्मा मानना तो अत्यावश्यक है । हम और तुम आत्मा ही सो हैं । तब आपका अहंकार, सुख, दुःख परिणति से परिणामी माना गया प्रधान ही आकाशके फूलके समान असत् पदार्थ हुआ, उस असत् पदार्थका कल्याणमार्ग से भविष्य में युक्त होनापन नहीं बन सकता है ।
पुरुषस्य सास्तु इति चेन्न, वस्यापि निरतिशयस्य मुक्तावपि तत्प्रसंगात् तथा च सर्वदा श्रेयसायमाण एव स्यात्पुरुषो न चाऽऽयुज्यमानः ।
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वह कल्याण मार्गसे युक्त होनेका अभिकापीपना आत्माके मान लिया जाये, इस प्रकार सांख्योंका कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि कापिलोंने पुरुषको कूटस्थ नित्य माना है । आस्मा कोई धर्म या अतिशय घटते बढ़ते नहीं है। वेके वे ही स्वभाव सदा बने रहते हैं ।
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यदि पुरुषकी कल्याणमार्ग से माविनी अभिलाषुकता मानोगे तो मोक्षमें भी भविष्य में कल्याण मार्ग से युक्त हो जाने की उस अभिलाषा विद्यमान रहनेका प्रसंग होगा। क्योंकि आपका आस्मा सर्वदा एकसा रहता है । सब तो आत्मा मोक्षमार्गका सदा अभिलाषी ही बना रहेगा । सब ओरसे कल्याणमार्गमें लग जाना और लग चुकनापन कभी नहीं पाया जा सकेगा । दीर्घ संसारीका कल्याण
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मार्गसे नहीं लगनापन भी नहीं बनेगा। आस्माको कूटस्थ नित्य मानने में यह बही आपति है कि जो पुंछल्ला लग गया, वह टल नहीं सकता है। हां, आत्मा कुछ अतिशयोंको छोडे और अन्योंके ग्रहण करे तब तो योक्ष्यमाण, युज्यमान, युक्त होना या नहीं युज्यमान ये बन सकते हैं। अन्यथा नहीं।
पूर्व योक्ष्यमाणः पचासेनायुज्यमान इति घायुक्तम्, निरतिशयैकान्तत्वविरोधात् ।
पहिली अवस्थामै आत्मा कल्याणमार्गसे भावी युक्त होनेवाला है और पीछे वर्तमानमें उस कल्याणसे संयुक्त हो जाता है, यह कहना भी युक्ति रहित है। क्योंकि आत्मा ज्ञातापन, कोपन भविष्यमें लगनापन, वर्तमानमें लापचुकनापन, आदि अतिशयोंसे रहित कोरा कूटस्थ है । अर्थात् कुछ चमस्कारोंको भागे पीछे लेता छोडता नहीं है। इस कदाग्रहरूप एकान्त मन्तव्यसे भापका विरोध होगा । भावार्थ-आत्माको परिणामी नित्य मानना पडेगा ऐसा माननेपर आपके पुरिखाजन स्वमतबाह्य समझाया लागले विरोग वान वेगे।
___ स्वतो भिन्नरतिशयैः सातिशयस्य पुंसः श्रेयसा योक्ष्यमाणता भवस्विति चेन्न, अनवस्थानुषङ्गात् । पुरुषो हि स्वातिशयैः सम्बध्यमानो यदि नानास्वभावैः समभ्यते, सदा तैरपि सम्बध्यमानः परैर्नानास्वभावरित्यनवस्था । स तैरकेन स्वभावेन सम्बध्यते इति चेत् न, अतिशयानामेकत्वप्रसंगात् । कथमन्यथैकस्वभावेन क्रियमाणानां नानाकार्याणामेकत्वापचेः पुरुषस्य नानाकार्यकारिणो नानातिशयकल्पना युक्तिमधितिष्ठेत् ।
सांख्य कहते हैं, कि हम आत्माको कूटस्थ नित्य मानते हैं किंतु स्वयं आत्मासे सर्वथा मिन्न माने गये अतिशयोंसे आत्माको अतिशयसहित भी मान लेते हैं । जैसे कि छडी, टोपी, कडे, कुण्ड.
से सहित देवदत्त है । ऐसे अतिशयवान आस्माको कल्याणमार्गसे भावी कालमें सहितपना हो जावेगा और वर्तमान तथा भूतकालकी युक्तता भी बन जायेगी। आचार्य कहते हैं कि यह सांख्योंका विचार मी ठीक नहीं है, क्योंकि अनवस्था दोषका प्रसंग आता है। सुनिये, आत्मा अपने सर्वज्ञपन, उदासीनता, नित्यता, होनेवाली कल्याणमार्गसे युक्तता आदि अतिशयोंके साथ संबंध करता हुआ यदि अनेक स्वमावोंसे सम्बन्धित होगा, तब तो संबंध करानेवाले उन स्वभावोंके साथ भी उनसे भिन्न अनेक स्वभावोंसे सम्बन्धित होगा और उन तीसरे · अनेक स्वभावोंको धारण करनेके लिये आत्माको चौथे न्यारे अनेक स्वभावोंकी मावश्यकता होगी। चौथोंको स्थापन करनेके लिये पाचमे स्वमावोंकी आकांक्षा होगी। इस तरह अनवस्था हुयी । यदि वह आत्मा अनेक अतिशयोंको धारण करनेवाले अनेक स्वभावोंके साथ एक ही स्वभावसे सम्बन्धित हो जाता है, यह कथन भी तो ठीक नहीं है। क्योंकि एक स्वभावसे रहनेवाले उन अनेक अतिशयोंको और स्वमावोंको एकानेका प्रसंग हो जावेगा । अन्यथा यांनो यदि ऐसा न स्वीकार कर अन्यपकार माना जावेगा तो एक स्वभाव
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द्वारा किये गये नाना कार्योंको एकपनेकी आपत्ति हो जानेके डरसे नाना कार्य करनेवाले पुरुषके नाना अतिशयोंकी कल्पना करना कैसे युक्तियोंपर आरूढ होगा ! नताओ। भावार्थ-एक स्वभावसे जैसे अनेक अतिशय धारण कर लिये जाते हैं, वैसे ही एक स्वभावसे आत्मा अनेक कार्योंको भी कर सकेगा । तीसरी कोटीपर एक स्वभाव मानने की अपेक्षा सीषे दूसरी कोटीपर ही एक स्वभाव मानने लायक है । सिद्धान्त यह है कि कारणके एक स्वभावसे एक ही कार्य होसकता है, दो कार्योंके लिये दो स्वभाव चाहिये । दूध पीना, पेडा जीमना, खीचडी सपोटना, रोटी रोषना, कचौडी खाना, चना चबाना, सुपारी खुरचना इन सब क्रियाओं में दांतोके प्रयल न्यारे न्यारे हैं। यदि कोई जवान सेखी से कहे कि मैं एक ही प्रयत्नसे इन सबको खा लेता हूं तो वह झूठा है । वह केवल एक एक ही पदार्थको स्वारहा है । यही तो जैन ( स्याद्वाद ) सिद्धान्तकी महा है। " यान्ति काया तावन्तः स्वभावमेदाः । यह अकससिद्धान्त है।
स्वातिशयैरात्मा न सम्बन्ध्यत एवेति चासम्बन्धे तैस्तस्य व्यपदेशामाबानुगात् । स्वातिशयैः कथंचित्तादात्म्योपगमे तु स्याद्वादसिद्धिः इत्यनेकान्तात्मकस्यैवात्मनः श्रेयोयोश्यमाणत्वं न पुनरेकान्तात्मनः सर्वथा विरोधात् ।
आप सांख्य यदि अपने मिन्न अतिशयों के साथ आत्मा सम्बन्ध ही नहीं करता है, इस कारण उन स्वभाव और अतिशयोंके साथ यदि उस आत्माका सम्बन्ध न मानोगे तो "ये अतिशय आत्माके हैं। इस व्यवहारके अमार हो जानेका प्रसंग आता है । जैसे कि सहाका विन्ध्य है, यह व्यवहार नहीं होता है। क्योंकि स्वस्यामिसम्बन्ध के बिना तो देवदत्तके कटक, कुण्डल हैं, यह व्यवहार भी नहीं होता है। यदि आप सांख्य अपने अतिशयोंके साथ आत्माका कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध स्वीकार करोगे, तब तो स्याद्वाद सिद्धान्तकी ही सिद्धि हो गयी । इस प्रकार अनेक धर्मस्वरूप एक आत्माके ही भविष्य कल्याणसे लगजानापन बनता है । किन्तु फिर सर्वथा कूटस्थ नित्य या क्षणिक अनित्यरूप एक धर्भवाले आत्माके कल्याणमार्गकी अभिलाषा और कल्याणमें संलग्न हो जाना एवं कल्याणको प्राप्तकर चुकना नहीं बन सकते हैं। क्योंकि एकान्त पक्षाम अनेक प्रकारोंसे विशेष आता है। यहांतक कि अपने ही से अपना विरोध हो जाता है।
कालादिलब्ध्युपेतस्य तस्य श्रेयःपथे बृहत्पापापायाच्च जिज्ञासा संप्रवर्तेत रोगिवत् ॥ २४७ ॥
काललब्धि, आसकभन्यता, कर्मभारका हलका हो जाना कषायोंकी मन्दता आदि कारणोंसे सहित आत्माके अधिक स्थिति अनुभागवाले ज्ञानावरण आदि दुष्कोर क्षयोपशम होजानेसे मोक्षमार्गको जाननेकी इच्छा भले प्रकार प्रवृत्त होती है। जैसे कष्टसाध्य चिरसेगवाले
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दुःखित जीवके नीरोग होजानेके उपायोंको जाननेकी अमिलाषा उत्पन्न होजाती है । सन्निपात या रोगके तीव्रवेग अथवा आयुष्यका अंत निकट होनेपर रोगको दूर करनेकी कारणभूत इच्छा नहीं पैदा होती है। माग्यमें टोटा चदा होनेकी अवस्था नफाके प्रकरण पर माल खरीदनेकी इच्छा नहीं उपजती है।
श्रेयोमार्गजिज्ञासोपयोगस्वभावस्यात्मनः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य कस्यचित्कालादिलब्धौ सत्यां वृहत् पापापायात् सम्प्रवर्तते श्रेयोमार्गजिज्ञासात्वात् रोगिणो रोगविनियतिजश्रेयोमार्गजिज्ञासावत् ।
करुणाकर आचार्य इसी अनुमानको भाष्य द्वारा स्पष्ट करते हैं कि कल्याणमार्गको जाननेकी इच्छा (पक्ष ) ज्ञानोपयोग स्वरूप और कल्याणसे युक्त होनेवाले किसी एक आत्माके काललब्धि, देशनालब्धि, सुकुल, योग्यदेश, शील, विनयाचार आदिके प्राप्त होनेपर बड़े ज्ञानावरण आदि पापोंके उपशम, क्षयोपशम हो जानेसे अच्छी तरह प्रवर्तती है (साध्य) मोक्ष मार्गको जाननेकी अमिलाषाफ्न होनेसे ( हेतु ) जैसे कि रोगीके रोगकी निवृति होनेपर पीछे उत्पन्न होनेवाले नीरोगता रूप कल्याणमार्गक जाननेकी इच्छा पहिले रोगअवस्थाम हो जाती है।
न तावदिह साध्यविकलमुदाहरणं, रोगिणः स्वयमुपयोगस्वभावस्य रोगविनिवत्तिजयसा योक्ष्यमाणस्य कालादिलब्धी सत्यां वृहतूपापापायात् संप्रवर्तमानायाः श्रेयो. जिज्ञासायाः सुप्रसिद्धत्वात्, तत्तत एव न साधनविकले श्रेयोमार्गजिज्ञासात्वस्य तत्र मावात् ।
प्रथम इस बातको विचार लो कि इस अनुमानमें दिया गया दृष्टांत तो साध्यसे रहित नहीं है। क्योंकि रोगी स्वयं ज्ञानस्वरूप है और रोगकी भली प्रकार निवृत्तिसे उत्पन्न हुए स्वस्थपनेके कल्याणमासे भविष्यमै छग जानेवाला भी है । उस रोगीके काललब्धि, सदेवकी प्राप्ति, आयुप्यकर्म, रोगका भोग करचुकना आदि कारणों के मिलने पर असाता वेदनीय आदि के पापोंके नाश हो जानेसे प्रवर्तित होती हुयी कल्याणमार्गके जाननेकी इच्छा अच्छी तरह प्रसिद्ध हो रही है। उस ही कारणसे वह उदाहरण विचारा हेतुसे रहित भी नहीं है। क्योंकि रोगीके कस्यामार्गकी उस इच्छा कल्याणमार्गका जिज्ञासापन विद्यमान है।
निरन्वयक्षणिकचित्तस्य संतानस्य प्रधानस्य वाऽनात्मनः श्रेयोमार्गजिन्नासेति न मंतव्यमात्मन इति वचनात्तस्य च साधितत्वात् ।
बौद्धके माने हुए अन्वयरहित होकर क्षणमें नष्ट होनेवाले आत्मभिन्न चित्तके अथवा पूर्व उत्तरक्षणों के भेदका परामर्श नहीं कर उन चित्तोंकी संतानरूप धाराके या कापिलोंके माने गये त्रिगुणस्वरूप प्रधान के जो कि आत्मा नहीं है मोक्षमार्गकी जिज्ञासा होती है, यह नहीं मानना
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चाहिये। क्योंकि उक्त तीनों ही पदार्थ जीव-द्रव्य-स्वरूप आत्मा पदार्थ नहीं हैं और हमने आस्माके मोक्षमकी जिज्ञासा होना कहा है और उस परिणामी नित्य-आत्मद्रव्यको हम सिद्ध भी कर चुके हैं। जडस्य चैतन्यमात्र स्वरूपस्य चात्मनः सत्यपि न शंकनीयमुपयोगस्वभावस्येति प्रतिपादनात् तथास्य समर्थनात् ।
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नैयायिककी मानी हुयी ज्ञानसे भिन्न जडरूप आत्माके या सांख्यकी केवल चैतन्यरूप आत्मा कल्याणमार्गको जाननेकी वह इच्छा होती है, यह भी शंका नहीं करना चाहिये। क्योंकि हमने अनुमान में उपयोग स्वभाववाली आत्माके जिज्ञासा होना बतलाया है । उस प्रकार अन्नादिसे अनंत काल तक चैतन्यसे अन्वित इस आत्माका हम युक्तियोंसे समर्थन कर चुके हैं। आत्मा सामान्यविशेष धर्मस्वरूप है । आस्माका दर्शनोपयोग सामान्यरूपसे पदार्थों का संचेतन करता है और विशेषरूपसे ज्ञानोपयोग वेदन करता है। ये दोनों आत्मा के स्वात्मभूत परिणाम हैं।
निःश्रेयसेना संपित्स्यमानस्य तस्य सेति च न चिन्तनीयस्, श्रेयसा योक्ष्यमाणस्येति निगदितत्वात् तस्य तथा व्यवस्थापितत्वात् ।
तथा कल्याणमार्ग महीं सम्पन्न होनेवाने
आती है,
गुर्द
भी नहीं विचारना चाहिये। क्योंकि कल्याणमार्ग से युक्त होनेवाले ऐसा विशेषण हमने अनुमानमें कह रखा है । उस आत्माका उस प्रकार कल्याणसे युक्त होना भी हम निर्णीत कर चुके हैं।
कालदेशादिनियममन्तरेणैव सेत्यपि च न मनसि निधेयम्, कालादिलब्धौ सत्यामित्यभिघान तथा प्रतीतेश्च ।
विशिष्ट काल और नियतदेश तथा कार्यहानि आदि नियमोंके बिना ही आत्माके कल्याणमार्ग को जाननेकी वह इच्छा हो जाती है, यह भी मनमें नहीं विचार करना चाहिये। क्योंकि काळलब्धि, सुदेश, सुकुलत्य आदि की प्राप्ति हो जानेपर, ऐसा हमने कहा है और उस प्रकार प्रतीत मी हो रहा है। बिना देश, कालकी योग्यताके आम फलते नहीं, ज्वर मी दूर नहीं होता है । यहाँतक कि प्रत्येक कार्यमें देश, काल, सम्पत्तिकी आवश्यका देखी जा रही है ।
वृहत्पापापायमन्तरेणैव सा सम्प्रवर्तत इत्यपि माभिर्मस्त, बृहत्पापापायात्तत्संप्रवर्तनस्य प्रमाणसिद्धत्वात् ।
चडे पापोंके दूर हुए बिना ही वह जिज्ञासा भली भान्ति प्रवृत्त हो जाता है । बहू भी ऐंठ सहित नहीं मानना चाहिये। क्योंकि सीव्र अनुभाग और दीर्घ स्थितिवाले पापोंके नाश हो जानेसे ही शुभमार्ग के जाननेमें बढिया प्रवृत्ति करना प्रमाणोंसे सिद्ध हो रहा है। तीन दुष्कर्मका उदय रहता है, उस समय तो मैं कौन हूं? कहांसे आधा हूं : कहां जाऊंगा ? क्या मेरा स्वभाव
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है, इस्यादि बातोंके जाननेकी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदिक जीवोंके इच्छा ही नहीं होती है। किन्तु कर्मों का मन्द उदय होनेपर ही में कौन हूं ! मेरा धर्म क्या है ! स्वभाव प्राप्त करनेका निमित्त क्या है ? ऐसी इच्छाएं संज्ञी जीवोंके होती हुयी देखी जा रही हैं।
नहि क्वचित्संशयमात्रात् कचिज्जिज्ञासा, तत्पतिबन्धपापाक्रान्तमनसः संशयमात्रेणावस्थानात् ।
किसी पदार्थ केवल संशय हो जानेसे ही किसी आत्मा जिज्ञासा होती हुयी नहीं देखी गयी है, क्योंकि जिस जीवका अंत:करण कल्याभार्गका पतिबंध करनेवाले पापोंसे घिर रहा है, वे जीव केवल संशयको लेकर बेटे रहेंगे। तीव्र पापका उदय होनेपर उनके संशयकी निवृत्ति भी नहीं हो सकती है, कल्याणमार्गको जाननेकी इच्छा होना तो बहुत दूर है ।
सति प्रयोजने जिज्ञासा तत्रेत्यपि न सम्पक्, प्रयोजनानन्तरमेव कस्यचिन्यासंगवस्तदनुपपत्तेः।
किसी पदार्थके प्रयोजन होनेपर उस पदार्थमें जाननेकी इच्छा आमाके उत्पन्न हो जाती है, यह कहना मी समीचीन नहीं है। क्योंकि किसी पदार्थका प्रयोजन होनेपर उसके अव्यवहित उत्तर कालमै ही यदि किसी एक पुरुषका चित्त इधर उधर कार्यान्तरमें लग जावे, यों तो वह जिज्ञासा नहीं बन सकती है । जैसा कि प्रायः देखा जाता है कि प्रयोजन होनेपर मी यदि चित्तवृति अन्यत्र चली जावे तो उसके जाननेकी इच्छा नहीं होने पाती है। अतः जिज्ञासाका प्रयोजन होना अन्यभिचारी कारण नहीं है । पराधीन सेवक, पशु, पक्षियों में प्रयोजन होनेपर भी आननकी इच्छा नहीं होपाती है । प्रयोजन नहीं होनेपर मी ठलुआ पुरुषोंके जिज्ञासायें उपजती रहती हैं।
"दुखत्रयाभिषाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ " इति केचित् , तेऽपि न न्यायवादिना सर्वसंसारिणां तत्प्रसंगात् , दुःखत्रयाभिघातस्य भावात् ।
___ आध्यालिक आधिदैविक, और आधिभौतिक तीन दुःखोंसे पीडित होजानेसे उन दुःखोंका नाश करनेवाले कारणोंके जाननेकी इच्छा उत्पन्न होती है । शारीरिक दुःखका रसायन जड़ी बूटी आदिके सेवनसे और मानस दुःखोंका सुंदर स्त्री, खाना पीना आदिसे तथा आधिमौतिक दुःखका नीतिशास्त्र के अभ्याससे या उपद्रवरहित स्थानपर रहने आदिसे उच्छेद हो जायगा ऐसी शंका ठीक नहीं है। क्योंकि एकातरूपसे अनन्तकाल तकके लिये दुःखोंका उच्छेद करना हमको आवश्यक है जो रसापान आदि कारणोंसे नहीं हो सकता है। इस प्रकार कोई कपिलमतानुयायी कह रहे हैं वे भी न्यायपूर्वक कहनेवाले नहीं हैं। यो तो सम्पूर्ण संसारी जीवोंके उस जिज्ञासाके होनेका प्रसंग आग है। क्योंकि तीनों दुःखोसे पीडित होना
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सबके विद्यमान है तथा च सभी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदिक जीव मुक्तिमार्गको जिज्ञासावाले या मुक्तिमार्गमें लगे हुए दीखना चाहिये । केवल भव्य ही मुक्तिमार्गमें लगे हुए क्यों दीखते है ।
आम्नायादेव श्रेयोमार्गजिज्ञासेत्यन्ये, तेषा--" मथातो धर्मजिज्ञासे" ति सूत्रेऽयशब्दस्यानन्तर्यार्थ वृत्तेरथंदमधीत्याम्नायादित्याम्ना यादधातवेदस्य वेदवाक्यार्थेषु जिज्ञासाविधिरवगम्यत इति व्याख्यानम् , तदयुक्तम् , सत्यप्याम्नायश्रवणं तदर्थावधारणेऽभ्यासे च कस्यचिद्धर्मजिज्ञासानुपपत्तेः । कालान्तरापेक्षायां तदुत्पचौ सिद्ध कालादिलब्धी तत्प्रतिय. न्धकपापापायाच्च श्रेय:पथे जिज्ञासायाः प्रवर्तनम् ।
अनादि काल से आये हुए वेदवाक्योसे ही मोक्षमार्गके जाननेकी इच्छा होती है। इस प्रकार अन्य मीमांसक कह रहे है । उनके यहां भी मीमांसादर्शनके " इसके अनन्तर यहाँसे धर्मके आननेकी इच्छा है," इस सूत्रका जो यह व्याख्यान किया गया है कि अथ शब्दकी व्यवधान रहित उत्तर क्षणमें होनेवाले अर्थमं वृधि है । प्रारम्भमें इस वेदको पढकर अर्थात् वेदवाक्योंकी धारासे इस प्रकार पढलिया है वेद जिसने, उस पुरुषके वेदवाक्यके याच्यामि जाननेकी इच्छा का विधान जाना जाता है, वह व्याख्यान करना अयुक्त हो जायेगा। भावार्थ-वेद पढने के बाद इच्छा होती बतायी है और आप पूर्व आम्नात वेदसे ही इच्छा होना मान बैठे हैं। हम देखते हैं कि परिपाटीसे प्रास वेदका श्रवण करते हैं और उसके अर्थका भी निर्णय करते हैं । ज्ञान और कियाका अभ्यास मी करते हैं। ऐसा होनेपर भी किसी किसी पुरुषके धर्म की जिज्ञासा नहीं होने पाती है।
यदि मीमांसक यों कहेंगे कि तत्काल जिज्ञासा भले ही न हो किंतु सुनते निर्णय करते और अभ्यास करते करते कुछ काल बीत जानेपर विशिष्ट कालकी सहकारिताकी अपेक्षा होनेपर बद्द जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है, ऐसा माननेसे तो हमारी बात सिद्ध हुयी ! काल, देश आदिकी प्राप्ति होनेपर और उसके पतिबंधक पारोंके दूर हो जानेसे कल्याणमार्गमे जिज्ञासाकी प्रवृति करना बना ।
संशयप्रयोजनदुःखत्रयाभिघाताम्नायश्रवणेषु सत्स्वपि कस्यचित्तदभावादसत्स्वपि भावात् कदाचिसंशयादिभ्यस्तदुत्पत्तिदर्शनात्तेषां तत्कारणत्वे लोभाभिमानादिभ्योऽपि सत्मादुर्भावावलोकनातेषामपि तत्कारणत्वमस्तु नियतकारणत्वं तु तज्जनने बृहत्पापापायसैवांतरंगस कारणत्वं बहिरंगस्य तु कालादेरिति युक्तम्, तदभावे तजननानीक्षणात् ।
___ अब तक जो जिज्ञासाकी प्रवृत्ति के कारण बतलाये हैं, उनमें अन्य व्यभिचार व्यतिरेक भ्यमिचार दोनों ही दोष आसे हैं। संशय और प्रयोजन तथा तीनों दुःखोंसे ताइन एवं आम्नायका
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सुनना, इन कारणों के होनेपर भी किसी किसीके वह जिज्ञासा नहीं होपाती है। यह अन्य व्यभिचार है और उक्त चार कारणोंके न होते हुए भी ऋचित् जिज्ञासा होना देखा जाता है। यह व्यतिरेकव्यभिचार है ।
___ यदि आप यों कहेंगे कि कमी कमी कालमें संशय आदि कारणोंसे भी उस जिज्ञासाकी उत्पत्ति देखी जाती है। अतः उनको उस जिज्ञाप्ताका कारण मानेंगे तब तो लोभ, अभिमान, हो, कीर्तिकी अभिलाषा, लौकिक ऋद्धि सिद्धियोंकी प्राप्ति आदि कारणोंसे भी उस जिज्ञासाका उपजना देखा जाता है । अत: उन लोभादिकोंको भी उस जिज्ञासाका कारणपना मान लो। बास्तवम य संशयादिक और रूम आदिक गिया कारण है । उस जाननेकी इच्छाको उपजानेमें अन्वय व्यतिरेकके नियमो कार्यको करनेवाले अंतरंग फारण तो बडे पापोंका नाश होना ही है । अर्थात ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम और वर्शनमोहनीय कर्मका उपशम आदि ही जिज्ञासाको पैदा करनेमें आभ्यंतर कारण है और जिज्ञासा उत्पन्न करनेमें नियमयुक्त बहिरंगकारण काल, देश, सुकुलता, शुद्धता आदिक हैं । यह सिद्धांत तो युक्तियों से पूर्ण है। क्योंकि उन कारणों के बिना उस जिज्ञासाका उत्पाद होना नहीं देखा जाता है ।
कालादि न नियतं कारणं बहिरंगत्वात संशयलोभादिवदिति चेत्र, तस्यावश्यमपेक्षणीयत्वात्, कार्यान्तरसाधारणखात्तु बहिरंग तदिष्यते, ततो न देतो. साध्याभावेऽपि सद्भावः संदिग्धो निश्चितो वा, यतः संदिग्धव्यतिरेकता निश्चितव्यभिचारिखा वा भवेत् ।
आक्षेपकर्ता कहता है कि काल, देश, आदि भी अन्य व्यतिरेकके नियमको लेकर नियत कारण नहीं हैं, क्योंकि वे कार्यके बहिर्भूत अङ्ग हैं । जैसे कि संशयादिक और लोभ आदिक नियत कारण नहीं हैं। आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि कार्यकी उत्पतिमें उन काल आदिकी अवश्य अपेक्षा होती है । दूसरे कार्यों में भी तो साधारण होकर वे सहायक हो रहे हैं। अतः उनको बहिरंगकारण माना जाता है। इसलिए साध्यके न रहनेपर भी हेतुके सद्भावका संदेह नहीं है, जिससे कि व्यतिरेकव्यभिचारका संशय भी हो सके। और साध्यके न रहनेपर हेतुके सद्भावका निश्चय भी नहीं है, जिससे कि निश्चयसे व्यभिचार दोष हो जावे । भावार्थ--काल आदि बहिरंग कारणों के साथ मी जिज्ञासाका समीचीन व्यतिरेक बन जाता है। जो कि कार्यकारणभाषका प्रयोजक है। अतः विपक्षमें वृत्तिानके संशय और निश्चय करनेसे आनेवाले व्यभिचार दोष यहां नहीं हैं।
ननु च स्वप्रतिबंधकाधर्मप्रक्षयाकालादिसहायादस्तु श्रेयापये जिज्ञासा, तद्वानेव तु प्रतिपाद्यते इत्यसिद्धम् । संशयप्रयोजन जिज्ञासाशक्यप्राप्तिसंशययुदासतदूचनवतः प्रतिपायत्वात् । तत्र संशयितः प्रतिपाद्यस्तत्वपर्यसाधिना प्रश्नविशेषेणाचार्य प्रन्युपसर्पकत्वात्,
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नान्युत्पमो विपर्यस्तो वा तद्विपरीतत्वाद्वालकवदस्युवदा । तथा संशयवचनवान् प्रतिपाय: स्वसंशयं वचनेनाप्रकाशयता संशयितस्यापि ज्ञातुमशक्त।
__यहां किसीकी लम्बी चौड़ी शंका है कि अपने प्रतिबंधक पापोंके अच्छी तरह नाश हो जानेसे और काललब्धि आदिको सहायतासे कल्याण मार्गम जाननेकी इच्छा मले ही हो किंतु उस जाननेकी इच्छावाला पुरुष ही तो उपदेष्टाके द्वारा प्रतिपादित किया जाता है । इस प्रकार जैनोंका कहना तो सिद्ध नहीं है । क्योंकि संशय, प्रयोचन, जाननेकी इच्छा, शक्यकी प्राप्ति, और संशयको दूर करना, इनसे युक्त तथा इनके प्रतिपादक वचनोंको बोलनेवाला पुरुष ही प्रतिपादित किया जाता है | प्रतिपाद्य शिष्यके उक्त दश विशेषणोंको शंकाकार इसप्रकार स्पष्ट करते हैं कि जिस शिष्यको संशय उत्पन्न हो चुका है, वही गुरुओं के द्वारा समझाने योग्य है । क्योंकि संशयालु पुरुष ही तत्त्वनिर्णय करानेवाले विशेष प्रश्नसे प्रतिपादक आचार्यके निकट उत्कण्ठा सहित होकर जाया करता है । जो अज्ञानी, मूर्ख, व्युत्पत्तिरहित है, यह समझाया नहीं जा सकता है । जैसे कि दो महीनका बालक, अथवा जो मिथ्या मिनिवेशसे विपर्ययज्ञानी हो रहा है, वह भी उपदेश सुननेका पात्र नहीं है। क्योंकि बह शिष्यके लक्षणसे विरहित है, जैसे कि चोर डाकू आदि। भावार्थ - दोषोंकी तीवता होनेपर इनको सत्यव्रत, अचौर्य, आदिका उपदेश देना व्यर्थ पडेगा तथा अपने संशयको कथन करनेवाले वचनोंको बोलनेवाला प्रतिपाद्य होता है। जो प्रश्नकर्ता अपने संशयको वचनों के द्वारा प्रगट नहीं कर रहा है, ऐसी अवस्था संशय उत्पन्न हुए पुरुषको प्रतिपादक जान नहीं सकता है तो वह समझावेगा किसको है। यदि दिव्यज्ञानी आचार्यने प्रश्नकर्ताका संशय निमित्तज्ञानसे जान भी लिया फिर भी अल्लड शिष्यके प्रति उत्तर कहना अनुचित है। इसमें ज्ञानकी अविनय होती है। अत: अपने संशयको विनयपूर्वक कहता हुआ शिष्य ही उपदेश्य है।
परिज्ञातसंशयोपि वचनात् प्रयोजनवान् प्रतिपाधो न स्वसंशयप्रकाशनमात्रेण विनिवृताकांक्षः, प्रयोजनवचनवांश्च प्रतिपाद्यः, स्वप्रयोजनं वचनेनाप्रकाशयतः प्रयोजनवतोऽपि निश्चेतुमशक्यत्वात् ।
पूर्वपक्षी कह रहा है कि जिस शिष्यका वचनके द्वारा संशय जान मी लिया जावे किंतु उस शिष्यको किसी कार्यकी सिद्धिका प्रयोजन है, तब तो वह समझाया जावेगा, अन्यथा नहीं समझाया जावेगा । अपने संशयको केवल प्रकाशन करके ही जो शिष्य आकांक्षाओंसे रहित हो जाता है, वह गुरुके समझाने योग्य नहीं है । भावार्थ - प्रश्नकर्ता जब उत्तर सुनने के लिए उत्कण्ठित नहीं है, ऐसी दशामें गुरुका प्रयत्न व्यर्थ जावेगा । किसी शिष्यको प्रयोजन है और उस प्रयोजनका अपने वचन द्वारा गुरुके सन्मुख प्रतिपादन कर रहा है, तब तो वह प्रतिपादन करने के लिए गुरुकी कृपाका पात्र बनेगा। किंतु जो माने प्रयोजनको वचनोंसे पकाशित नहीं कर रहा है, वह प्रयोजन
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वान् होता हुआ भी प्रयोजन सहितपनेसे निश्चय नहीं किया जा सकता है । प्रयोजनका कथन करने से विनयीपन भी व्यक्त होता है, कोरे पेटूके प्रति यदि समीचीन ज्ञान उपदिष्ट किया जावेगा तो ऐसी दशा में बैठके ज्ञानावरण कर्मका च होगा । प्रकृष्ट विद्वान् भी अपने गौरवयुक्त पूज्य ज्ञानको यों ही व्यर्थ फेंकते नहीं फिरेंगे ।
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तथा जिज्ञासावान् प्रतिपाद्यः प्रयोजनवतो निश्चितस्यापि ज्ञातुमनिच्छतः प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् तद्वानपि तद्वचनवान् प्रतिपाद्यते खां जिज्ञासां वचनेनानिवेदयतस्तद्वतया निर्णेतुमशक्तेः ।
और जानने की इच्छावाला शिष्य ही समझाया जाता है। शिष्य प्रयोजनवान् है, ऐसा निश्चित भी हो चुका है, किंतु गुरुजीसे तत्वोंको नहीं जानना चाहता है, वह बेला हितैषी गुरुके द्वारा भी नहीं समझाया जा सकता है । अमृतस्वरूप ज्ञानका व्यर्थ उपयोग करना अनुचित है । तथा उस जानने की इच्छावाला होता हुआ भी उस जानने की इच्छा को विनीत वचनोंसे कहेगा, तब तो गुरु उसको शिक्षण देंगे, किंतु जो अपनी जिज्ञासाको वचनों के द्वारा गुरुजीके सन्मुख निवेवन नहीं कर रहा है, वह जिज्ञासावान्पनेसे निर्णीत भी नहीं किया जा सकता है और उद्दण्ड अभिमानीको उपदेश देने से फल भी क्या निकलेगा ! ऐसे आत्मा मिमानियों में अवधि ज्ञानीका वह उपदेश स्कुरायमाण भी न होगा । शिष्यकी विनययुक्त जिज्ञासामें उसके वचनोंसे ही व्यक्त होनी चाहिए। तभी शिष्य की आत्मा कोमलता, धर्मोपदेश, और मोक्षमार्गपरिणतियां उपजेंगी ।
तथा जिज्ञासुनिश्चितोऽपि शक्यप्राप्तिमानेव प्रतिपादनायोग्यस्तत्त्वमुपदिष्टं प्राप्तुमशक्नुवतः प्रतिपादने वैयर्थ्यात् स्वां शक्यप्राप्तिं वचनेना कथयतस्तद्वत्तेन प्रत्येतुमशक्तेः शक्यप्राप्तिवचनवानेव प्रतिपाद्यः ।
अभीतक पूर्वपक्ष ही चल रहा है कि वह शिष्य जिज्ञासु है । यह गुरुने निर्णय मी करलिया है, फिर भी उपदिष्ट पदार्थको प्राप्ति कर सकनेवाला ही प्रतिपादन करने योग्य है । गुरुके द्वारा उपदेश दिये गये तत्त्वको जो प्राप्त नहीं कर सकता है, कन्धा डाले हुए बैलके समान जो कार्य करने में अधीर हो गया है, उसको तत्त्वका प्रतिपादन करना व्यर्थ जावेगा । उग्रवीर्य रसायन साधारण पुरुषको नहीं किंतु उसको झेलने वाले समर्थ पुरुषको ही वह दी जाती है। जो कमर कस कर तत्वप्राप्ति करने के लिये समर्थ भी है किंतु अपनी सामर्थ्यका वचनसे निरूपण नहीं कर रहा है, उसके सन्नद्धपनेको प्रतिशदक नहीं जान सकता है । जो शक्य प्राप्तिमानूपने करके नहीं जाना गया है वह शिक्षण देने योग्य नहीं हैं । अतः बोलनेकी अवज्ञा से भयमीत शिष्यको उपदेश सुनने की योग्यता नहीं है । तथा च उपदिष्ट पदार्थ के प्राप्तिकी सामर्थ्यको वचनोंसे कहनेवाला ही सरपुरुष शिक्षा के योग्य है । गुरुजीको शिष्यका उपकार करना है । स्त्रमुखसे उन वचनोंको कइरहे विद्यार्थीके क्षयोपशम, विनय, ग्राह्यता पात्रता गुग, विकसित होते हैं ।
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तथा संशययुदासवान् प्रतिपायः सकृत्संशयितोभयपक्षस्य प्रतिपादयितुमशक्तेः संशयन्युदासवानपि तद्वचनवान् प्रतिपाद्यते, किमयमनित्या शवः किं वा नित्य इत्युमयोः पक्षयोरन्यतरत्र संशयव्युदासस्यानित्यः शब्दस्तावत्प्रतिपाद्यतामिति वचनमन्तरेणावबोद्धमशक्यत्वादिति केचित् , तान् प्रतीदमभिधीयते ।।
और भी अपने संशयको दूर करनेवाला पुरुष ही समझाने योग्य है । जिसने एक समयमें दोनों ही पक्षोंका संशय कर रखा है, उसको छोडता नहीं है, वह समझाया नहीं जा सकता है। ज्ञानको ग्रहण करनेवाला समझाया जाता है । मूर्ख रहनेवाला नहीं। संशयको निवारण करने वाला मी यदि उस संशय दूर करनेको वचनसे बोलेगा, तब तो समझा दिया जावेगा । अन्यथा नहीं । जैसे कि यह शब्द क्या अनित्य है ? अथश क्या नित्य है ? इन दोनों पक्षोमसे किसी एक पक्षमें संशयको दूर करने के लिये पहिले आप शब्दकी अनित्यताको समझा दीजिये | इस प्रकारके वचनके विना आचार्य उसके अभिप्रायको समझ नहीं सकते हैं। यहांतक १ संशय, २ संशयः वचन, ३ प्रयोजन, ४ प्रयोजनवचन, ५ जिज्ञासा, ६ चिज्ञासावचन, ७ शक्यप्राप्ति, ८शक्षप्राप्तिवचन, ९ संशयव्युदास, १० संशयव्युदासवचन । इन दश घाँसे युक्त शिष्य ही गुरुके द्वारा समझाने योग्य है, ऐसा कोई शंकाकार पूर्वपक्ष कह रहे हैं। उनके प्रति आचार्यके द्वारा छोटी बूटी के समान यह उत्तर कहा जाता है-दक्षचित्त होकर सुनिये ।
तद्वानेव यथोक्तात्मा प्रतिपाद्यो महात्मनाम् । इति युक्तं मुनीन्द्राणामादिसूत्रप्रवर्तनम् ॥ २४८ ॥
यथा उक्त गुणोंवाला, कल्याण मार्गकी जिज्ञासासे युक्त और निकट भविष्यमें कल्याण लगनेवाला उपयोग स्वरूप आत्मा ही गुरुस्वरूप महान् आत्माओंके द्वारा समझाने योग्य है । इस प्रकार मुनियों में परम ऐश्वर्यको घारण करनेवाले गणधरदेव और उमास्वामीका पहिला " सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस सूत्रका प्रवर्तन युक्त है।
यः परतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गः स श्रेयोमार्गपतिपित्सावानेव, यथातुरः सदैग्रादिभ्या प्रतिपयमानव्याधिविनिवृत्तिजश्रेयोमार्गः परतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गश्च विवादापनः कश्चिदुपयोगात्मकात्मा भव्य इति । अत्र न धर्मिण्यसिद्धसत्ताको हेतुरात्मनः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्योपयोगस्वभावस्य च विशिष्टस्य प्रमाणसिद्धस्य धर्मित्वात्त हेतोः सद्भावात्, तद्विपरीते त्वात्मनि धर्मिणि तस्य प्रमाणाबाधितत्वादसिद्धिरेव ।
जो शिष्य दूसरेके द्वारा मोक्षमार्गको जान रहा है, वह अवश्य कल्याणमार्गको जाननेकी अमिलापाले सहित ही है । जैसे नीरोग होनेका अभिलाषी क्वेशित रोगी विचारा श्रेष्ठ वैद्य, मंत्रवित्,
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सत्यार्थचिन्तामणिः
तांत्रिक आदि द्वारा रोग दूर होनेसे उत्पन्न होनेवाले कल्याणके मार्गको जान रहा है । अतः ज्ञात ( अनुमित ) किया जाता है कि रोगीको कल्याणमार्गके जानने की इच्छा अवश्य है । विवादमें प्राप्त हुआ कोई उपयोग स्वरूप मध्य आत्मा दूसरोंके द्वारा मोक्षमार्गको जान रहा है । उस कारण वह कल्याणमार्गी वाला है। इस पांच अनुमानके पक्षमै हेतुकी सत्ता असिद्ध है, यह नहीं कहना। क्योंकि अतिशीघ्र कल्याणके साथ युक्त होनेवाले ज्ञान उपयोग स्वरूप विलक्षण आत्माकी प्रमाणोंसे सिद्धि हो चुकी है । यहां उस आत्माको घर्मी बनाया गया है, उसमें हेतु विद्यमान रहता है। हां, उक्त आत्मासे भिन्न प्रकार नैयायिक, कापिलोंके द्वारा माने गये आत्मारूपी धर्माने तो उस हेतुका रहना प्रमाणोंसे बाधित है । यदि उनके माने गये आत्मा साध्य की सिद्धि की जावेगी तो हेतु अवश्य असिद्ध हेत्वाभास हो ही जायेगा। इसको हम भी कहते हैं ।
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नहि निरन्वयक्षणिक चिचसन्तानः, प्रधानम् अचेतनात्मा, चैतन्यमात्रात्मा वा परतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गः सिद्ध्यति तस्य सर्वथार्थक्रियारहितत्वेनावस्तुत्वसाधनात् । नापि श्रेयसा शश्वदयोक्ष्यमाणस्तस्य गुरुतरमोहाक्रान्तस्यानुपपत्तेः ।
बौद्ध मानी गयी अन्वयरहित केवल एक क्षणमै रहकर दूसरे क्षणमै विनष्ट होनेवाले चिकी अवस्तु रूप सन्तान, या कापिलों की मानी हुयी सत्त्वरजस्तमोगुणरूप प्रकृति अथवा वैशेषिक और नैयायिकों से माना गया चेतना से भिन्न स्वयं अचेतन स्वरूप आत्मा और ब्रह्माद्वैतवादियोंसे स्वीकृत केवल चैतन्यरूप आत्मा ये चारों प्रकारके आत्मा तो दूसरे गुरुओसे कल्याणमार्गको जाननेवाले सिद्ध नहीं होते हैं । कारण कि उक्त प्रकारके वे चारों ही आत्माएं सर्व प्रकारसे अर्थक्रियाओंसे रहित हैं। इस कारण उनको वस्तुपना सिद्ध नहीं होता है । इस बातको हम पहिले कह चुके हैं। और जो आत्मा सर्वेदा कक्ष्याणमार्गेसे युक्त होनेवाला ही नहीं है, वह भी दूसरे हितोपदेष्टाओं से मोक्षमार्गको समझ नहीं सकता है। क्योंकि उसके ऊपर बड़े मारी मोहनीय कर्मके उदयोंका आक्रमण हो रहा है। ऐसे दूर भव्य या तीनमोहके प्रति कल्याणमार्गका प्रतिपादन करना प्राकृतिक नियमसे ही नहीं बन सकता है।
स्वतः प्रतिपद्यमानश्रेयो मार्गेण योगिना व्यभिचारी हेतुरिति चेत् न, परतो ग्रहणात् । परतः प्रतिपद्यमानप्रत्यवायमार्गेणानैकान्तिक इति चायुक्तम्, तत्र हेतुधर्मस्याभावात् । तत एव न विरुद्ध हेतुः श्रेयो मार्ग टिपित्सावन्तमन्तरेण क्वचिदप्यसम्भवात् । इति प्रमाणसिमेतद्वानेव यथोक्तात्मा प्रतिपाद्यो महात्मनाम्, नावद्वान्ना यथोक्तात्मा वा तत्प्रतिपादने सतामप्रेक्षावच्चप्रसंगात् ।
"
स्वयं अपने आप जान लिया है मोक्षमार्ग जिन्होंने ऐसे प्रत्येक बुद्ध मुनिराज अथवा केवलज्ञानी जिनेंद्र देवले प्रक्कत हेतु व्यभिचारी है, ऐसा तो नहीं कहना चाहिये। क्योंकि हमने बेतुके
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शरीरमें परत: ऐसा विशेषण दे रखा है । जो दूसरोंसे मोक्षमार्गको समझता है वह जिज्ञासावान् अवश्य है। जहां अभीष्ट हेतु ठहर जायगा, वहां साध्य अवश्य पाया जायगा । पुनः इस अनुमानमै व्यभिचार उठाया जाता है कि दूसरेसे पापमार्ग को जाननेवाले पुरुषसे हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि दूसरेसे पापका उपदेश सुननेवाले पुरुषमें हेतु रह जाता है और मोक्षमार्गकी जिज्ञासा रूप साध्य नहीं रहता है। आचार्य कहते हैं कि उनका यह कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि पापमार्गको जाननेवाले हमारे माने गये मोक्षमार्गको समझनारूप हेतु स्वरूप धर्मका अभाव है। भावार्थ हेतुके शरीरमें भीतर पडा हुआ मोक्षमार्गको समझनारूपी धर्म वहां नहीं घटता है । उसी कारण से हेतु विरुद्ध वामास भी नहीं है । क्योंकि कल्याणमार्ग की जिज्ञासावाले जीवके बिना दूसरोंसे मोक्षमार्गको समझने वालापन कहीं भी नहीं सम्भवता है । अर्थात् व्यभिचार दोषके दूर हो जानेसे ही प्रायः विरुद्ध दोष दूर हो जाता है । विरुद्ध और व्यभिचार दोष दोनों भाईके समान है । साध्याभाबवान देतुका न रहनारूप अन्वयव्याप्तिको व्यभिचार दोष बिगाड़ देता है और साध्यभावके व्यापकीभूत अभावका प्रतियोगीपन हेतुमें रहना रूप व्यतिरेकव्याप्तिको विरुद्धदोष विगाढ देता है, इतना ही अंतर है । कहीं व्यभिचारके स्थल और विरुद्ध स्थलों में भी अंतर पड जाता है। इस कारण यह साधन या अनुमान दूसरे प्रमाणोंसे सिद्ध है । अतः उस कल्याणमार्गकी जिला सावाका और फालधि आदिसे युक्त ज्ञानोपयोगी आत्मा ही महास्मा गुरु लोगोंको समझाने योग्य है। जो जिज्ञासावान् नहीं है अथवा जो पूर्वमें कहे गये अनुसार पापभार और मोहभारसे रहित होकर कल्याणसे युक्त होनेवाला चेतनस्वरूप आत्मा नहीं है, वह उपदेशका भी पात्र नहीं है । ऐसे मोही, दूर मध्य अथवा अभव्यों को भी यदि मोक्षमार्गका प्रतिपादन किया जावेगा तो प्रतिपादक गुरु सज्जनोंको विचारशालीपन न होनेका प्रसंग भाता है । भावार्थ- पात्रका विचार न कर जो ऊपरपनके समान उपदेश दे रहे हैं, के प्रेक्षावान् नहीं हैं। जिनवाणीकी भी तो प्रतिष्ठा रखनी है ।
परम करुणया काश्चन श्रेयोमार्गे मतिपादयतां तत्प्रतिपित्सारहितानपि नाप्रेक्षावत्वमिति चेन, तेषां प्रतिपादयितुमशक्यानां प्रतिपादने प्रयासस्य विफलत्वात्, तत्मतिपित्सासुत्पाद्य तेषां तैः प्रतिपादनात् सफलस्तत्प्रयासः इति चेत्, तर्हि तस्प्रतिपित्सावानेव तेषामपि प्रतिपाद्यः सिद्धः ।
अत्यंत बढी हुयी दयासे उस जिज्ञासा से रहित और मोही भी किन्ही किन्ही जीवोंके प्रति कल्याणमार्गको प्रतिपादन करनेवाले हितैषी गुरुओंको अविचारवानूपनेका प्रसंग नहीं होता है। यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि जो जीव शक्तिहीन हैं, उपदेष्टाओं के द्वारा समझाने के लिए समर्थ नहीं हैं, जो समझना भी नहीं चाहते हैं; उनको प्रतिपादन करने में वक्ताका परिश्रम व्यर्थ पडेगा ।
हां, यदि आप यों कहे कि उन जीवोंको कल्याणमार्गके समझने की इच्छाको उत्पन्न कराकर उन हितैषियों के द्वारा प्रतिपादन करनेसे वक्ताका वह प्रयत्न सार्थक हो जावेगा, ऐसा कहो तब वो
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संस्वार्थ चिन्तामणिः
३९३ I उस दिलमार्ग को समझने की इच्छा युक्त जीव ही हितैषी उन वक्ताओं को भी समझाने योग्य विद्यार्थी सिद्ध हुआ । वही तो हम कह रहे हैं ।
तद्वचनवानेवेति तु न नियमः सकलविदा प्रत्यक्षत एवैतत्प्रतिपित्सायाः प्रत्येतुं शक्यत्वात् । परैरनुमानाद्वास्य विकारादिलिंगजादाप्तोपदेशाद्वा तथा प्रतीतेः ।
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शंकाकार अनुज्ञा करनेवालेने पूर्वपक्षमें यह कहा था कि जिज्ञासाको वचन द्वारा प्रकाशिक्ष करनेवाला ही प्रतिपाध होता है । उनका यह नियम तो ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञानी सर्वज्ञोको प्रत्यक्ष ज्ञानसे ही शिष्योंकी इस जिज्ञासाका निर्णय करलेना शक्य है और दूसरे वक्ता या आचार्य और विद्वान् गुरुजन इस प्रतिपाद्यके विकार, जाननेकी चेष्टा, प्रश्न पूछने के लिये आना, मादिहेतुओंसे उत्पन्न हुए अनुमान प्रमाणसे जिज्ञासाको समझ सकते हैं । अथवा सत्यवक्ताओं के उपदेश से भी इस प्रकार जिज्ञासाओं का आगमज्ञानसे जानना प्रतीत हो रहा है कि अमुक पुरुष कुछ पूछना चाहता है। महाराजजी ! इसको समझा दीजियेगा ।
संशयतद्वचनवांस्तु साक्षान्न प्रतिपाद्यस्तच्चप्रतिपित्सारहितस्य तस्याचार्य प्रत्युपसर्पणाभावात् परम्परया तु विपर्ययतद्वचनवान व्युत्पत्तितद्वचनवान् वा प्रतिपाद्योस्तु विशेषाभाबातू, यथैव हि संयतद्वचनानन्तरं स्वप्रतिबन्धकाभावात्तच्च जिज्ञासायां कस्यचित्प्रतिपाद्यता तथा विपर्ययाभ्युत्पचितद्वचनानन्तरमपि ।
शंकाकारके पांच युगलने से पहिले युगलका विचार हो चुका। अब दूसरे युग्मका परीक्षण करते हैं । संशयवान् और उस संशयको प्रकाश करनेवाले वचनोंसे युक्त पुरुष तो संशय और संशय वचनको कारण मानकर अव्यवहित रूपसे प्रतिपाद्य नहीं है । भावार्थ - प्रतिपाद्य बननेमें साक्षात् कारण जिज्ञासा है । संशय और उसके वचन तो परम्परासे भले ही प्रतिपाचपने में उपयोगी हो जावे, जो संशय और उसके बचनको कहनेवाला है, किंतु समझने की अभिलाषा नहीं रखता है, वह जीव आचार्य महाराजके पास पूंछनेके लिये उत्कण्ठासहित गमन ही नहीं करता है ।
हां, यदि संशय और उसके वचनको परम्परासे कारण मानना इष्ट कर लोगे, तब तो विप-' यज्ञान और उसके वचन से युक्त अथवा अज्ञानी ( नासमझ ) और उसका शब्दसे निरूपण करनेवाला जीव भी प्रतिपाद्य बन जाओ। क्योंकि परम्परासे कारण बनने की अपेक्षासे तीनों मिथ्या शानो कोई अंतर नहीं है । जिस ही प्रकार संशय और उसके वचनके उत्तर कालमें जिज्ञासाके अपना प्रतिबंध करनेवाले ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम और मोहनीय कर्मके मंद उदय होनेसे तत्वोंकी जिज्ञासा के उत्पन्न होजानेपर ही किसी किसी जीवको प्रतिपाथपना आता है, वैसे ही विपर्यय, अज्ञान और उनके वचनके उत्तर कालमें भी जिज्ञासा के उत्पन्न होनेपर किसीको प्रतिपाद्यपना बन जाता है ।
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विपर्यस्ताच्युत्पन्नमनसां कुतश्चिदविशेषात् संशये जाते तच्वजिज्ञासा मुक्ती सि चायुक्तम्, नियमाभावात्, न हि तेषामदृष्टविशेपात्संशयो भवति न पुनस्तच्वजिज्ञासेति नियामकमस्ति ।
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यदि शंकाकार स्वपक्षका अवधारण करता हुआ यों कहें कि जिज्ञासा तो अव्यहित पूर्ववर्ती कारण है किन्तु जिज्ञासा के ठीक प्रथम यदि कोई प्रतिपाद्यनेकी पात्रताका कारण है तो वह संशय ही है । जो विपर्ययज्ञानी या अज्ञ मूढमनवाले जीव हैं, उनको अज्ञान या विपर्यय के पीछे एक पुण्यविशेषसे संशयके उत्पन्न हो जानेपर ही तत्त्वोंकी जिज्ञासा होजाती है | अतः जिज्ञासाके पूर्ववर्ती संशयको कारण मानलो ! विपर्यय और अज्ञानको कारण न मानो । आचार्य कहते हैं कि यह शंकाकारका कहना युक्त नहीं है। क्योंकि विपर्यय और अज्ञानके पीछे संशय होकर ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है। उन विपर्ययज्ञानी और अज्ञानियोंको बादमें विशेष पुण्य से संशय तो हो जाने, परंतु फिर अनंतर कालमें जिज्ञासा न होवे यह एकांत ठीक नहीं है । भावार्थ- पुण्य से एकदम सीधे जिज्ञासा तो न होवे किंतु संशय हो जावे इसका कोई नियम करनेवाला नहीं है। विपर्ययज्ञानके अव्यवहित उत्तर कालमें भी तत्त्वजिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है बहुतसे विपरीतज्ञानवाले या अन्युत्पन्न जीव जिज्ञासा रखकर गुरुके पास गये और तत्त्वज्ञान लेकर लौटे। शास्त्रोंमें ऐसे कतिपय दृष्टांत है ।
तच्चप्रतिपत्तेः संशयव्यवच्छेदरूपत्वात् संशयितः प्रतिपाद्यत इति चेत्, तम् - स्पन विपर्ययस्तो वा प्रतिपाद्यः संशयितवत् तत्वप्रतिपत्तेरन्युत्पत्तिविपर्यासव्यवच्छेदरूपस्वस्थ सिद्धेः संशयव्यवच्छेद रूपत्ववत् संशय विपर्ययान्युत्पत्तीनामन्यतमाव्यवच्छेदे तच्चप्रतिपचेर्यथार्थतानुपपत्तेः यथा वाऽविद्यमानसंशयस्य प्रतिपाद्यस्य संशयच्यवच्छेदार्थ तच्चप्रतिपादन मफलम्, तथैवाविद्यमानाव्युत्पत्तिविपर्ययस्य तद्व्यवच्छेदार्थमपि यथा मविष्यत्संशयव्यवच्छेदार्थ तथा भविष्यदव्युत्पत्तिविपर्ययव्यवच्छेदार्थमपि इति तस्प्रतिपित्सायां सत्यां त्रिविधः प्रतिपाद्यः, संशयितो विपर्यस्त बुद्धिरव्युत्पन्नश्च ।
यदि आप शंकाकार अनुनयसहित यह कहेंगे कि तत्वोंकी प्रतिपत्ति करना संशयका निवृत्त होना स्वरूप है। इस कारण जिस पुरुषको संशय उत्पन्न हो गया है, वही पुरुष प्रतिपादित किया जाता है । भावार्थ -- तत्त्वप्रतिपत्तिका कारण यदि संशय न होता तो उससे संशय दूर कैसे किया जाता ! | ऐसा कहनेपर तब तो हम कहेंगे कि यो संशयित पुरुषके समान ही अज्ञानी और विपर्ययज्ञानी भी समझाया जा सकता है । तत्वोंकी प्रतिपत्ति जैसे संशय दूर होना रूप है वैसे ही अज्ञान दूर होना और विपर्यय दूर होना रूप भी सिद्ध है । अज्ञान तीन माने गये हैं। चांदीमें रांग या चांदीका संचयकरनेवाले पुरुषका संशय जैसे चांदी के निर्णयसे दूर हो जाता है, वैसे ही चांदीका निर्णय कर
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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देनेपर निपट अचानी गंवारका अथवा चांदीको संग समझनेवाले विपर्यय ज्ञानीका अज्ञान और विपर्ययज्ञान भी अव्यवहित उत्तर कालमें निवृत्त हो जाता है । संशय, विपर्यय और अज्ञान इन तीनोंमेसे किसी एकका भी निराकरण न होनेपर तत्वोंकी प्रतिपत्तिको यथार्थपना सिद्ध नहीं है । अकेले विपर्ययज्ञानका या औदयिक अज्ञानभावके होनेपर उन अकेलों का भी निराकरण हो जावेगा। तब भी तत्त्वोंका निर्णय ठीक ठीक माना गया है । तत्त्वज्ञानसे वर्तमानके सर्व ही कुज्ञानोंका नाश हो जाता है, चाहे एक हो या तीनों हो । तथा जिस प्रतिपादन करने योग्य शिष्यके संशय विद्यमान नहीं है, उसके प्रति संशय दूर करनेके लिये कहा गया तत्त्वोंका निरूपण जैसे व्यर्थ है, उस ही प्रकार जिस प्रतिपाद्यके अज्ञान और विपरीतज्ञान विद्यमान नहीं हैं, उसके लिये भी अज्ञान और विपर्ययके निरासार्थ नत्यनिरूपण करना निरर्थक है । और यदि आपका जैसे यह विचार है कि किसी तत्वप्रतिपत्तिने वर्तमान संशयका नाश न भी किया हो किंतु उसने भविष्य कालमें होने वाले संशयोंका नाश अवश्य किया है, वैसे ही हम भी कह सकते हैं कि वर्तमान कालमें होने वाले अज्ञान और विपर्ययका नाश भले ही किसी निर्णयने न किया हो, किंतु भविष्य कालमें अज्ञान और विपर्यय न उत्पन्न हो सके, इसके लिये मी तत्त्वोंकी प्रतिपत्ति करना सफल है । सर्वथा नवीन माने गये किसी क्षेत्र, जिनालय, नदी, पर्वत, समुद्र या विद्वान्के देखनेपर मूत या वर्तमानके संशय और विपर्ययका निवारण नहीं होता है। हां ! वर्तमानके अज्ञानका नाश अवश्य हो जाता है। और भविष्यके संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानका निराकरण होजाता है । इस प्रकार शिष्यको तत्वोंके समझनेकी अभिलाषा होनेपर तीनों ही प्रकारके शिष्य वक्ताके द्वारा समझाने योग्य है। चाहे घे तत्वों में संशय करनेवाले हों या विपर्यय ज्ञानी हों और भले ही वे कोरे अब्युत्पन्न मूर्ख अज्ञानी हो। योग्य प्रतिपादक गुरु तीनोंको समानरूपसे तत्वों का निर्णय करा देवेगा।
प्रयोजनशक्यप्राप्तिसंशयव्युदासतद्वचनवान् प्रतिपाद्य इत्यप्यनेनापास्तम्, तत्प्रतिपि. त्साविरहे तस्य प्रतिपाद्यत्वविरोधात् । सत्यां तु प्रतिषित्सायां प्रयोजनाद्यभावेऽपि यथायोग्य प्रतिपाद्यत्वप्रसिद्धेस्तद्वानेव प्रतिपाद्यते । इति युक्तं परापरगुरूणामर्थतो ग्रन्थतो वा शास्त्रे प्रथमसूत्रप्रवर्तनम्, तद्विपयस्य श्रेयोमार्गस्य परापरप्रतिपाद्यौः प्रतिपित्सितत्वात् ।
पहिले शंकाकारने यह कहा था कि प्रयोजनवान् और प्रयोजनको प्रतिपादन करनेवाला, तथा तत्वोंको प्राप्त कर सकनेवाला और इस प्रमेयको बोलनेवाला; एवं संशयको दूर करनेवाला
और संशय दूर करनेको कइनेवाला ही मजन पलिपाद्य होता है, इन तीन युगलोंकी भी शिष्य बनने आवश्यकता है । ग्रन्थकार कह रहे हैं कि यह भी शंकाकारका कहना पूर्वोक्त इसी कवनसे खण्डित हो जाता है । क्योंकि तत्त्वोंको जानने की इच्छाके बिना उक्त तीनों युगलोंके होने पर भी उस शिष्यको प्रतिपाद्यपनेका विरोध है और समझनेकी इच्छा होनेपर तो प्रयोजन आदि तीन युगलों के न होनेपर भी योग्यताके अनुसार प्रतिपाद्यपना जगत प्रसिद्ध हो रहा है । अत:
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संशय आदि चार युगलोंमें अन्वयध्यमिचार और व्यतिरेकव्यभिचार दोष आते हैं। इस कारण उस तत्त्वोंके जाननेकी हच्छावाला ही विद्वान् वक्ताके द्वारा समझाया जाता है । इस प्रकार पर (उत्कृष्ट) गुरु अर्हन्तोंने और अपर-गुरु गणधर आदिकोने अर्थकी और अंथ रचनाकी अपेक्षासे शास्त्रके आदिमे पहिले “ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ सूत्रका प्रवर्तन किया है, वह युक्त ही है। क्योंकि उन गुरुओं के द्वारा प्रतिपादित किये हुए सूत्रका मोक्षमार्ग रूपी विषय उन उत्कृष्ट और अनुस्कृष्ट शिष्यों करके समझने के लिये इच्छित हो रहा है। विनीतोंमें प्रधान गणधर महाराज तीर्थक्करोंके उत्कृष्ट शिष्य हैं । और आरातीय विद्वान् अपर शिष्य हैं। इन सबको मोक्षमार्गको जाननेकी बलवती अभिलाषा हो रही है। तमी तो अर्थरूपसे श्री अन्तिके द्वारा और गणघर, धरसेन, भूतबलि पुष्पदंत, उमास्वामी आदिके द्वारा अंथरूपसे उक्त सूत्र प्रवर्तित हो रहा है यानी गुरुशिष्य परिपारीसे आम्नायपूर्वक चला आ रहा है ।
ननु निर्वाणजिज्ञासा युक्ता पूर्व तदर्थिनः ।
परिज्ञातेभ्युपेयेऽथें तन्मार्गों ज्ञातुमिष्यते ॥ २४९ ॥
यहां शंका है कि उम मोलके अभिलाषी शिष्यकी पहिले मोक्षको जानने की अभिलाषा • करना युक्त है। वह सहसा मोक्षमार्गको क्यों जानना चाहता है ! । बात यह है कि पहिले प्राप्त करने योग्य पदार्थका निर्णय हो जाने पर पीछे उसके मार्गको जानना नियमके अनुसार इष्ट किया है।
यो येनार्थी स तत्पतिपित्सावान् दृष्टो लोके, मोक्षार्थी च कश्चिद्भव्यस्तस्मान्मोक्षप्रतिपित्सावानेव युक्तो न पुनर्मोक्षमार्गपतिपित्सावान्, अप्रतिज्ञाते मोक्षे तन्मार्गस्य पतिपित्साऽयोग्यतोपपत्तेरिति मोक्षसूत्रप्रवर्तन युक्त तद्विषयस्य बुभुत्सितत्वान्न पुनरादाव वन्मार्गसूत्रप्रवर्तनमित्ययं मन्यते ।
शाकारकी ओरसे कही गयी आक्षेपक वार्तिकका भाष्य यों है कि संसारमै जो जीव जिस पदार्थ के साथ अमिलाषा रखता है, वह उसके जानने की इच्छावाला देखा गया है । कोई निकट भव्यजीव मोक्षका अभिलाषी है । उस कारणसे मोक्षके जाननेकी इच्छावाला होना ही युक्त है। परंतु मोक्षमार्गके जानने की इच्छा रखनेवाला होना तो उचित नहीं है। मोक्षके सर्वथा न जानचुकनेपर उसके मार्गके जाननेकी हच्छाकी योग्यता ही नहीं बन सकती है । इस कारण सर्वज्ञको मूल मानकर धाराप्रवाहसे मोक्षके प्रतिपादक सूत्रका प्रवर्तन होना युक्त है। क्योंकि उस सूत्रसे मोक्षरूपी विषयका जानना अभीष्ट हो रहा है । परन्तु फिर आदिमें ही उस मोक्षके मार्गको समझानेवाले सूत्रका प्रवलित रहना नहीं हो सकता है। इस प्रकार यह शंकाकार मान रहा है । अब प्राचार्य समाधान करते हैं कि
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तत्त्वार्षचिन्तामणिः
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सन्न प्रायः परिक्षीणकल्मषस्यास्य धीमतः। स्वात्मोपलब्धिरूपेऽस्मिन् मोक्षे सम्प्रतिपत्तितः ॥ २५० ॥
वह शंकाकारका कहना ठीक नहीं है । कारण कि जिस बुद्धिमान् शिष्यके बहुलसाकरके कोका भार कुछ नष्ट हो गया है, इस बुद्धिमान् शिष्यको निज शुद्ध स्वात्माकी उपलब्धि होनारूप इस मोक्षम भले प्रकार चमि हो रही है, भावार्थ-आत्माके स्वरूपकी प्राप्ति हो जाना रूप मोक्षका सामान्यपनेसे इन सब पर अपर शिष्योंको ज्ञान है । अत: मोक्षकी जिज्ञासा नहीं हुयी किंतु मोक्षमार्गको समझनेकी ही शिष्योंको अमिलाषा है।
न हि यत्र यस्य सम्प्रतिपत्तिस्तत्र तस्य प्रतिपित्सानवस्यानुषंगात् सम्मतिपत्तिय मोशे स्वात्मोपलब्धिरूपे प्रकृतस्य प्रतिपाद्यस्य मायशः परिक्षीणकल्मषत्वाव, साविशयमशत्वाच्च। ततो न तदथिनोपि तत्र प्रतिपित्सा तदर्थत्वमात्रस्य तत्मातपित्सया व्यायसिद्धेः सति विवादेऽधित्वस्य प्रतिपित्साया व्यापकत्वमिति चेन्न, तस्यासिद्धस्वात् न हि मोशेऽधिकृतस्य पतिपत्तुर्विवादोऽस्ति ।
जिस विषय जिसको मले प्रकार ज्ञप्ति हो रही है, उस विषयमे उसको जाननेकी इच्छा नहीं होती है । यदि जाने गये विषयमें भी जिज्ञासाएं होने लगे तो ज्ञात हो चुके विषयमे फिर जिज्ञासा हो जावेगी एवं चर्वितचर्वण या पिष्टपेषणके समान अनवस्थाका प्रसंग होगा। प्रकरणमें पहे हुए समी वादी, पतिवादी, और निकट भव्य इन शिष्यों को स्वास्माकी परिपाप्ति हो जाना स्वरूप मोक्षमै सामान्यपनेसे प्रायः करके इप्ति हो रही है। क्योंकि उनके ज्ञानावरण कमौके कुछ सर्वधाप्ती स्फड़कोंका और अज्ञान, व्यामोह, करनेवाले पापोंका कतिपय अंघोंसे नाश हो गया है। तथा वे निकटमव्य चमत्कारसहित बुद्धिसे युक्त भी है । उस कारण उस मोक्षके अमिसपी भी जीवकी उस मोक्षके जानने में इच्छा नहीं हो पाती है । किसी पदार्थके प्राप्त करनेकी अर्थिता मानसे उसके ही जाननेकी अभिलाषा होनेकी व्याप्ति सिद्ध नहीं है। जैसे कि मोदकको पाप्त करना है, किंतु घृत, चना आदिके जाननेकी अभिलाषा होती है । तीन मायाचारीको धन प्राप्त करना है और पहिलेसे अन्य अन्य पदार्थोंकी अभिलाषायें करता है । अतः जिसको प्राप्त करना है, उसीकी अभिलाषा होये यह व्याप्ति निगड जाती है। .
यदि शंकाकार यों कहे कि प्राप्तव्य अर्थके विवाद होनेपर उसके अर्थीपनका प्रतिपिसासे व्यापकपना अवश्य है । भाचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कह सकते हो, क्योंकि यह व्याप्ति तो ठीक है । किंतु प्रकरणमें विवाद होनेपर वह विशेषण सिद्ध (परित ) नहीं हो पाता है। क्योंकि अधिकार या प्रकरणमै प्राप्त समझनेवाले प्रतिपायोंको मोक्षके स्वरूप विवाद नहीं है, सर्व ही मोक्षको स्वीकार करते हैं।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
नाना प्रतिवादिकल्पनाभेदादस्त्येवेति चेत्
सांस्य, नैयायिक, मीनास, पंदत), बौद्ध आदि अनेक प्रतिवादियोंकी मोक्षके लक्षण नाना कल्पनाएं हैं, अतः भिन्न भिन्न कल्पनायें होनेसे मोक्षके स्वरूपमें भी विवाद है ही। फिर पहिली व्याप्तिके अनुसार मोक्षको क्यों नहीं पूंछा जा रहा है ! यदि शंकाकार ऐसा कहेंगे तो हम जैन कहते हैं कि:
प्रवादिकल्पनाभेदाद्विवादो योपि सम्भवी ।
स पुंरूपे तदावारपदार्थे वा न निवृतौ ॥ २५१ ॥
अनेक प्रवादिओंकी कल्पनाओंके मेदसे को भी मोमोमें विवाद सम्भव हो रहा है, वह आत्माके स्वाभाविक स्वरूप हैं अथवा मोक्षके आवरण करनेवाले कर्म, अविद्या, मिथ्याज्ञान आदि पदार्थों में विवाद है, किंतु आत्माकी मोक्ष होनेमें कोई विवाद नहीं है।
स्वरूपोपपलब्धिनिवृत्तिरिति सामन्यतो निवृत्ती सर्वप्रवादिना विवादोऽसिद्ध एव, यस्य तु स्वरूपस्योपलब्धिस्तत्र विशेषतो विवादस्तदावरणे वा फर्मणि कल्पनाभेदाद, तपाहि. प्रभास्वरमिदं प्रकृत्या चितं निरन्वयक्षणिकम्, अविद्यातृष्णे सत्प्रतिवन्धिके, तद. भावाभिराम्नपचित्तोत्पत्तिर्मुक्तिरिति केषाञ्चित्कल्पना ।
आत्माके वास्तविक शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हो जाना ही मोक्ष है । इस प्रकार सामान्यरूपसे मोक्ष विषयमें सम्पूर्ण मीमांसक, नैयायिक, बौद्ध आदि प्रवादियोंका विवाद करना असिद्ध ही है। हां, तो मोझमें आत्माके जिस स्वरूपकी प्रासि होती है, उसमें विशेषरूसे विवाद है अथवा उस आत्माके स्वरूपको रोकनेवाले कमोमें अनेक कल्पनाओंके भेदसे विवाद पड रहा है, इसीको पसिद्ध कर दिखलाते हैं -सुनिये ।।
यह विज्ञानस्वरूप आत्मा या चित, स्वभावसे हो अतीव प्रकाशमान है और अन्वयरहित होकर क्षण क्षणमें नष्ट होता रहता है अर्थात् पहिले समयका चित्त सर्वथा नष्ट हो जाता है और दूसरे क्षणमै सर्वथा नवीन दूसरा चित्त उत्पन्न होजाता है । स्वभावसे प्रकाशमान उस चित्तके प्रति. बन्ध करनेवाले अविद्या और तृष्णा हैं । अनित्य, असुख और अनात्मक पदार्थों में नित्य, सुख, भौर आस्मीयपना समझनेको अविद्या कहते हैं तथा सांसारिक आकांक्षाओं को तृष्णा कहते हैं । संसारी जीवोंके विकल्प बुद्धियोंके द्वारा ये दोनों दोष लग रहे हैं । अतः पूर्वकी मिथ्या वासनाओं तथा खोटे संस्कारोंके वश उत्सर कालमें भी आलब सहित चित्त उत्पन्न होते रहते हैं । किंतु इन दोनों आवरणोंका जब योगबलसे नाश हो जाता है, तब उससे आसव रहित शुद्ध प्रकाशमान क्षणिक विवको उसति होते रहने को मोक्ष कहते हैं । इस प्रकार किन्हीं सौत्रांतिक बौद्धोंकी कल्पना है।
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तत्त्वार्थीचन्तामणिः
सर्वथा निःखभावमेवेदं चितम् तस्य धर्मिधर्मपरिकल्पना प्रतिबन्धिका, तदपक्षयारसकलनैरात्म्यं प्रदीपनिर्वाणवत्स्वान्तनिर्वाणमित्यन्येषाम् ।
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यह शुद्ध विज्ञानरूप चित्त विचारा प्राह्य, ग्राहक, धर्मधर्मी आदि सर्वस्वभावोंसे सर्वथा रहित है। किन्तु संसारी जन धर्म, धर्मी, कार्य, कारण, मेरा, तेरा आदि कल्पनाएं कर लेते हैं । ये कल्पनाएं ही उस निःस्वभाव चितकी प्राप्तिमें रोक लगा रही हैं । जब उन कल्पनाओंका तत्त्वज्ञानके द्वारा ध्वंस होजाता है, तब उससे सम्पूर्ण स्वभावोंका निषेधरूप अपने कल्पित धर्मोका दूर हो जाना ही मोक्ष हैं। जैसे कि दीपककी को कहीं दिशा विदिशा में नहीं चली जाती है, केवल स्नेह (तैल) के क्षयसे वहीं शान्त होजाती है, वैसे ही मुक्त अवस्था भी नहीं कुछ रूप पदार्थ है । यहां निज आलाका अंत होजाता है । इस प्रकार दूसरे वैभाषिक बौद्ध मान रहे हैं।
सकलागम रहितं परमात्मनो रूपमद्वयस् तत्प्रतिबन्धिकानाद्यविद्या, वद्विलयास्प्रतिभासमात्र स्थितिर्मुक्तिरिति परेषाम् ।
सम्पूर्ण आगमोंसे न जाना जावे अर्थात् शब्दोंकी योजनाओंसे रहित हो रहा परमब्रझका अद्वैत ही स्वरूप है । उस ब्रह्माद्वैतका प्रतिबंध करनेवाली अनादि कालसे संसारी जीवोंके अविधा लग रही है | उस अविद्या के नाशसे चैतन्यरूप प्रतिभास सामान्य में स्थित हो जाना अर्थात् अकेले परमा लीन होजाना ही मोक्ष है । इस प्रकार अन्य वेदान्तवादियोंका सिद्धांत है ।
चैतन्यं पुरुषस्य स्त्रं रूपं तस्मतिपक्षः प्रकृतिसंसर्गस्वदपायात् स्वरूपेऽवस्थानं निःश्रेयसमित्यपरेषाम् ।
आत्माका वास्तविक अपना स्वरूप चैतन्य है। संसार अवस्थामै उसकी शत्रुता करनेवाला सत्वरजस्तमोगुणरूप प्रकृति के साथ आत्माका संबंध हो जाना है । तत्त्वज्ञान से व्यभिचारिणी स्त्रीके समान प्रकृतिका मायावित्व जाननेपर प्रकृति अपने भोग सम्पादनरूप कार्यको पुरुषके प्रति नहीं करती है । तब उस प्रकृतिके संसर्गका नाश हो जानेसे आत्माका चैतन्य, दृष्टा, उदासीन, रूपमें स्थित हो जाना ही मोक्ष है, इस प्रकार अन्य सांख्यों का मत है ।
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सर्वविशेषगुणरहितमचेतनमात्मनः स्वरूपम्, तद्विपरीतो बुद्धयादिविशेषगुणसम्बन्ध स्वत्यतिबंधक स्तत्पक्षयादाकाशवदचेतनावस्थितिः परा मुक्तिरितीतरेषाम् ।
आमा बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयक्ष, धर्म, अधर्म, भावना, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, ये चौदह गुण रहते हैं। इनमें से पहिलेके नौ विशेष गुण हैं । अर्थात् केवल आत्मद्रव्यमें ही पाये जाते हैं । इन आत्मा के सम्पूर्ण विशेषगुणोंसे रहित अचेतन हो जाना
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ही आत्माका स्वामाविक रूप है । उस स्वाभाविक रूपके विपरीत ( विरुद्ध ) होकर विगाउनेवाले बुद्धि आदि नौ विशेष गुप्पोंका आत्माके साथ समवाय संबंध हो जाना है । वह संबंध मोक्षकी प्राप्तिका प्रतिबंध कर रहा है । तत्त्वज्ञानके द्वारा मिथ्याज्ञान, दोष, प्रवृत्ति, जन्म, दुःखके नाश क्रमसे नौ गुणों के उस संबंधका सदाके लिये नाश हो जानेसे आकाशके समान अचेतन व्यापक आत्माफी स्थिति रह जाना उत्कृष्ट मुक्ति है । इस प्रकार अन्य नैयायिक और वैशेषिकों का मत है । इनके यहां जीवन्मुक्ति रूप अपर मोक्षम ज्ञान, इच्छा, प्रयल आदिका संबंध बना रहता है । ईश्वरमे भी आठ गुण रहते हैं । पहिले नौमसे ज्ञान इच्छा और प्रयत्न तथा पांच सामान्य गुण हैं। मुक्तमै ५ पांच सामान्य गुण हैं । मुक्त आत्मासे ईश्वरमै विशेषता है।
परमानन्दात्मकमात्मनो रूपम्, बुद्धयादिसंबंधस्तरतिघाती, तदभावादानन्दात्मकतया स्थिति परा नितिरिवि च मीमांसकानाम् ।
उत्कृष्ट आनंद स्वरूप रहना ही आत्माका निज-स्वभाव है, संसार दशा, आत्माके साम बुद्धि, इच्छा आदिका संबंध उस प्रकृष्ट आनंदका विघात करनेवाला है। अच्छा कर्मकाण्ड करनेपर बुद्धि आदिक संघका नाश हो जानेपर आनंद स्वरूपसे नित्य आत्माका सित रहना ही उत्कृष्ट मोक्ष है, इस प्रकार मीसांसकोंका कथन है।
नै नितिसामान्ये कल्पनाभेदो यतस्तत्र विवादः स्यात् । मोक्षमार्गसामान्येऽपि न भवादिनां विवादः, कल्पनाभेदाभावात् । सम्यम्बानमात्रात्मकत्वादावेव तद्विशेषे विमतिपत्तेः। तखो मोक्षमार्गेऽस्य सामान्ये प्रतिपित्सा बिनेयविशेषस्य मामृत इति चेत्, सत्यमेतव, निर्वाणमार्गविशेष प्रतिपित्सोत्पत्तेः । कथमन्यथा तद्विशेषमतिपादन सूत्रकारस्प प्रयुक्त स्यात् । मोक्षमार्गसामान्ये हि विपतिपत्रस्य तन्मात्रपतिपित्सायाम-'स्ति मोक्षमार्ग इति वो युज्येत, विनयप्रतिपित्सानुरूपत्वात् सूत्रकारप्रतिवधनस्य ।
अपर कहे अनुसार मोक्षके विशेष स्वरूपों में ही जैसा बौद्धादिकोंका विवाद है, इस प्रकार मोक्षके सामान्य स्वरूपमे किसीकी कल्पना मिन्न मिन्न नहीं है, जिससे कि वहां विवाद होता। आत्माके स्वामाविक स्वरूपकी प्राप्तिको मोक्ष सब ही मानते हैं। यहां कोई पूर्वपक्ष करता है कि मोक्षमार्गके भी तो सामान्य स्वरूप बौद्ध आदिक प्रवादियों का विवाद नहीं है। क्योंकि मोक्षमार्गके सामान्यस्वरूपमें भी मीमांसक आदिकोंकी मिन्न भिन्न कल्पनाएं नहीं हैं। हां ! मोक्षमार्गके उस विशेष अंशमें अवश्य झगडा है। कोई अकेले सम्याज्ञानसे ही मोक्ष होना मानते हैं। दूसरे लोग ज्ञान और चारित्रसे ही,एवं तीसरे श्रद्धान और चारित्रसे ही, चौथे अकेले श्रद्धानसे ही मोक्ष होना स्वीकार करते हैं। इत्यादि प्रकारसे मार्गके विशेष अंशों में ही अनेक विवाद हैं । तिस कारण इस विलक्षण शिष्बकी मोक्षमार्गके सामान्य मी समझनकी इच्छा न होवे जैसे कि मोक्ष सामान्पकी
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जिज्ञासा नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा पूर्वपक्ष करोगे तो आपका यह कहना ठीक है वास्तव में शिष्यकी मोक्षमार्ग विशेष ही जानने की इच्छा उत्पन्न हुयी हैं । अन्यथा यदि ऐसा होता तो सूत्रकार उमास्वामी महाराजका उस रत्नत्रयको विशेष रूपसे मोक्षमार्गका प्रतिपादन करन भला कैसे प्रकृष्ट युक्तियों से सहित माना जाता! बताओ। यदि कोई शिष्य सामान्यरूपसे मोक्षमार्ग विवाद करता पाया जाता है और उस केवल सामान्य मोक्षमार्गको जाननेकी अभिलाषा रखता है ।. ऐसी दशामें तो सूत्रकारको ( कोई न कोई ) मोक्षका मार्ग जगत्में है । इसी प्रकार कहना उचित था। क्योंकि शिष्य के जानने की इच्छा के अनुसार ही सूत्रकार के उत्तर वचन हुआ करते हैं। फिर जो सूत्रकारने मोक्षमार्गका विशेष रूप से निरूपण किया है इससे ध्वनित होता है कि मार्ग सामान्य में कोई विवाद नहीं है। मोक्षमार्गेमें हुये विशेष विवादों की निवृत्तिके लिये ही प्रथमसूत्र कहा है ।
तर्हि मोक्षविशेषे विप्रतिपत्तेस्तमेव कस्मान्नाप्रासीत् इति चेत् किमेवं प्रतिपित्सेत विनेयः सर्वत्रेकार्थस्य सम्भवात् । तत्प्रश्नेऽपि हि शक्येत चोदयितुं किमर्थं मोक्षविशेषमप्राचीन पुनस्तन्मार्गविशेषम्, विप्रतिपत्तेरविशेषादिति ।
पुनः शंकाकार कहता है कि तब तो मोक्षमार्ग के विशेष अंशके समान मोक्ष के विशेष स्वरूप में भी नाना प्रवादियों का विवाद हो रहा है। इस कारण उस शिष्यने मोक्षके विशेष स्वरूपको ही सूत्रकार से क्यों नहीं पूंछा ? बताओ । ऐसा कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि वह 'उमास्वामी महाराजले प्रश्न करनेवाला शिष्य इस प्रकार मोक्षविशेषके जानने की ही इच्छा क्यों करता है ? इस प्रकार के कुचोद्य कार्य करना सभी स्थलोंपर सम्भव हैं । देवदत्त मिष्टपदार्थ दी क्यों खाना चाहती है ? लवण व्यञ्जनों को क्यों नहीं खाता है ? | जिनदत्त न्यायसिद्धांत को ही क्यों पढना चाहता है ? ज्योतिष, वैद्यक ग्रंथोंको क्यों नहीं पढता है ! | पगडीका अभिलाषी टोपी क्यों नहीं लगाता है ! आदि अनेक स्थलों में अपनी अपनी इच्छाके अनुसार कार्य होते देखे जा रहे हैं। यदि आपके कथनानुसार शिष्य उस मोक्षविशेषका भी प्रश्न कर देता, तब भी आप बलात्कार से यह कटाक्ष कर सकते थे कि शिष्यने मोक्षविशेषको किस लिये पूंछा, किंतु फिर उस मोक्षके मार्गवि शेषको क्यों नहीं पूंछा ? क्योंकि मोक्षविशेष और मोक्षके मार्गविशेषमें विवाद होना एकसा है । कोई मी अंतर नहीं है, प्रत्युत मोक्षमार्ग पूर्ववर्ती है । यों अनेक कुत्सित कटाक्ष किये जा सकते हैं जो कि शिष्टोंका मार्ग नहीं है ।
ततः कस्यचित्क्कचित् प्रतिपित्सा मिच्छता मोक्षमार्गविशेषप्रतिपित्ता न प्रतिक्षेतण्या !
इस कारण अबतक निर्णीत हुआ कि किसी भी जीवकी किसी भी विषयमें आनने की इच्छा हो जाती है । इस सिद्धांतको यदि आप चाहते है तो शिष्यकी मोक्षमार्ग विशेष के समझने की इच्छाका खण्डन नहीं कर सकते हैं।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ननु च सति धर्मिणि धर्मचिन्ता प्रवर्तवे नासति, न च मोक्षः सर्वधास्ति येन तस्य विशिष्टत्वकारणं जिज्ञास्यत, इति न साधीयः । यसात्
यहां दूसरे प्रकारसे अनुनय पूर्वक आक्षेप उठाया जा रहा है कि धर्मीकी सिद्धि हो जानेपर धाका विचार करना प्रवर्तित होता है, धर्माके सिद्ध न होनेपर उसके अंश उपांशरूप धर्मोका विचार नहीं किया जाता है, जिस कारण कि सर्व प्रकारसे मोक्ष ही सिद्ध नहीं है तो उसके विशेष स्वरूप मोक्षमार्ग नामक कारणकी जिज्ञासा कैसे होवेगी? अर्थात् मोक्षतत्वकी सिद्धि हो गयी होती तो उसके कारणका विचार करना सुंदर,न्याय्य होता। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है । जिस कारणसे कि
येऽपि सर्वात्मना मुक्तेरपह्नवकृतो जनाः । तेषां नात्राधिकारोऽस्ति श्रेयोमार्गावबोधने ॥ २५२ ॥
जो भी चार्याक, शून्यबादी आदि अन सभी स्वरूपोंसे मोक्षका खण्डन (छिपाना) कर रहे हैं, उन नास्तिकोंका इस मोक्षमागको समझानेवाले प्रकरणमें अधिकार नहीं है। वे इस विवस्सभाके सभ्य नहीं हो सकते हैं।
को हि सर्वात्मना मुक्तेरपासवकारिणो जनान्मुक्तिमार्ग प्रतिपादयेतेषां मानधिकाराम को वा प्रमाणसिद्धं निःश्रेयसमपन्हुवीत, अन्यत्रग्रलापमात्राभिधायिनो नास्तिकात् ।
ऐसा कौन विचारशील विद्वान् होगा जो कि मोक्षका समी स्वरूपोंसे निषेध कानेवाले मूर्स जनसमाजके प्रति मोक्षमार्गका.उपदेश देवे । क्योंकि उन जीव, मोक्ष, पुण्य, पाप न माननेवाले सुरामहिमोंका इस प्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथके सुनने में अधिकार नहीं है । और ऐसा अज्ञ भी कौन होगा, जो प्रमाणोंसे प्रसिद्ध होरहे मोक्षरूप धर्मीका अपव करे, केवल बकवाद करनेवाले नास्तिकोंके अतिरिक्त । भावार्थ- कोरा मूर्ख नास्तिक ही मोक्षका अस्वीकार भले ही करे, विचारशील पण्डित किसी न किसी स्वरूपसे मोक्षको मानते ही हैं।
कुतस्तहि प्रमाणात्तनिश्वीयत इति चेत्
क्यों जी | तब तो किस प्रमाणसे उस मोक्षका निश्चय कर लिया जाता है बतादो न ? भाचार्य कहते है कि यदि ऐसा कहोगे तो खुनो !
परोक्षमपि निर्वाणमागमात्संप्रतीयते । निर्बाधाद्भाविसूर्यादिग्रहणाकारभेदवत् ॥ २५३ ॥
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तस्वार्थ चिन्तामणिः
समझिये साधारण जीवोंको मोक्षका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता है। इस कारण वह मोक्ष परोक्ष है । फिर भी वह मोक्ष बाधारहित आगमप्रमाण द्वारा ( हेतु ) सम्पूर्ण वादियोंसे अच्छी तरह निर्णीत कर लिया जाता है ( प्रतिज्ञा ) जैसे कि भविष्य फालमै होनेवाले सूर्य, चंद्रमा के ग्रहण और उनके अनेक भिन्न भिन्न आकारोंका ज्योतिषशास्त्रसे निश्चय कर लिया जाता है (अन्नमदृष्टांत )
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परोक्षोऽपि हि मोक्षोsस्माहशामागमाचः सम्प्रतीयते यथा सांवत्सरैः सूर्यादिग्रहृणाकारविशेषस्तस्य निघत्वात् न हि देशकालनरांतरापेक्षयापि बाधातो निर्गतोयमागमो न भवति, प्रत्यक्षा देवधकस्य विचार्यमाणस्यासम्भवात् नापि निर्बंधस्याप्रमाणस्वमास्थातुं युक्तम्, प्रत्यक्षाद रप्यप्रमाणत्वानुषक्तेः ।
स्थूल बुद्धि हम सरीखे पुरुषोंको मोक्ष यद्यपि परोक्ष है तो भी उस श्रेष्ठ आगमको जाननेवाले विज्ञानों द्वारा बार ये जान लिया जाता है। जैसे कि अनेक वर्षोंकी आगे पीछेकी बातोंको बतानेवाले ज्योतिषी विद्वानोंसे सूर्य, चंद्रमा ग्रहणका, लम्बाई, चौडाई, अल्पग्रास, खग्रास, पूर्व दिशासे या पश्चिम दिशासे राहू, केतुके विमानका जाना आदि विशेष आकार जान लिया जाता है, क्योंकि वह ज्योतिषशास्त्र बाधारहित होनेसे आगम पमाण रूप है । अन्य देश या भिन्न काल अथवा दूसरे मनुष्योंकी अपेक्षासे भी यह आगम बाबाओंसे रहित नहीं है, यह बात नहीं कह बैठना। क्योंकि इस आगमके प्रत्यक्ष, अनुमान प्रत्यभिज्ञा आदि प्रमाण बाधक हैं, यह बात विचार किये जानेपर असम्भव हो जाती है । भावार्थ - इस आगमका कोई प्रमाण बाधक नहीं है । और जो बाधाओंसे रहित है, उसको अप्रमाणपनेकी व्यवस्था करना मी युक्त नहीं है । अन्यथा यदि ऐसी पोल चलेगी तब तो निर्वाध प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों को श्री अप्रमाण बन जानेका प्रसंग आवेगा और ऐसी उत्क्रांतिके समय प्रमाणाभास रूप ज्ञान प्रमाणताको लूटने के लिये हाथ फैला देवेंगे !
सूर्यादिग्रहणस्यानुमानात्प्रतीयमानत्वाद्विषमोय सुपन्यास इति चेत् न, तदाकारविशेषलिंगाभावादनुमानानवतारात्, न हि प्रतिनियतदिग्वेलाप्रमाणफलतया सूर्याचन्द्रमसोर्ग्रहणेन व्याप्तं किंचिदवगन्तुं शक्यम् ।
यहां कोई कहते हैं कि मोक्षको आगमसे जाननेमें आप जैनोंने सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहणका दृष्टांत दिया, किंतु यह कथन करनेवाला आपका दृष्टांत तो विषम है। कारण कि सूर्य, चंद्रमा के ग्रहणोंका हम लोग अनुमान प्रमाणसे निश्चय कर लेते हैं और मोक्षका निर्णय आगमके विना अनुमा नसे किसी भी प्रकार नहीं होता है । अंथकार कहते हैं कि सो यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि ★ उस सूर्य ग्रहण के आकार विशेषोंको जाननेके लिये कोई अविनाभावी हेतु नहीं है । अतः सूर्य अणके विशेष आकारोंको जानने के लिये अनुमान प्रमाण नहीं उतरता है । नियत दिशा या
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नियत समय अथवा नियंत प्रमाण या फलरूपसे सूर्य, चंद्रमा के ग्रहण के साथ व्याप्ति रखता हुआ, कोई पदार्थ जाना नहीं जासकता है । अर्थात् सामान्य रूप से ग्रहण के साथ व्याप्ति रखनेवाला कोई हेतु मलें ही मिल जाये, किंतु अमुक दिवासे, अगुक गया चंद्रग्रहण होगा और अमुक राशिवालेको शुभ अथवा अशुभ फलका सूचक होगा, इन विशेष अंशोंके साथ व्याधि रखनेवाला हमारे पास कोई हेतु नहीं हैं। जिसके साथ साध्यकी व्याप्ति समझी जा सके । अतः इन विशेष आकारोंके जानने में आगम ( ज्योतिष शास्त्र ) की ही शरण लेनी पडती है । हमने केवल सूर्यमणका दृष्टांत नहीं दिया है, किंतु उसके विशेष आकारको उदाहरण बनाया है ।
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विशिष्टाङ्कमाला लिंगमिति चेत् सा न तावत्सत्स्व भवस्तद्वदु प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्, नापि तत्कार्य ततः प्राकू पश्चाच्च भावात् ।
यदि कोई यों कहे कि ज्योतिषी लोग ग्रहण के समय दिशा आदि निकालने के लिए गणित से एक, दो, तीन, चार आदि अकोंके जोड गुणा, भाग करके ठीक प्रमाण निकाल लेते हैं, वह शेष की माला ही विशेष आकारोंका ज्ञापक हेतु हो जावेगी । ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूछते हैं कि वह अंकमाला स्वभाव हेतु है या कार्यहेतु है । बताओ । उसको स्वभाव हेतु मानना तो ठीक नहीं है, क्योंकि साध्यरूप विशेष आकारोंका स्वभाव वह अंकमाला होगी तो उस आकार विशेषस्वरूप साध्यके समान प्रत्यक्षसे न जानी जा सकेगी । अर्थात् हेतुको भी अनुमेय होने का प्रसंग श्रा जायेगा, और जबतक हेतुका ही प्रत्यक्ष न होगा तो वह साध्यका
पक कैसे हो सकेगा ! | शिशपाको प्रत्यक्षसे जाननेपर ही उस स्वभाव हेतुसे वृक्षपनेका अनुमान हो जाता है अथवा उष्णताके प्रत्यक्ष होनेपर अभिका अनुमान होता है । दूसरे पक्षके अनुसार यदि satara उस ग्रहणके विशेष आकारका कार्य मानोगे सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि पट्टीके ऊपर गणित के अंकोंका लिखना ग्रहण के बहुत काल पहिले और बहुतकाल पीछे भी होता है । अनेक
के पूर्व हुए सूर्य, चंद्रग्रहण भी गणित से निकालकर बताये जाते हैं तथा दस बीस महीने पहिले ही पञ्चाङ्ग बनाकर सूर्य चंद्रग्रहण बता दिये जाते हैं । किंतु कार्य हेतु तो कारण के अव्यवहित उत्तर काल होना चाहिये | बहुत देर पहिले और वहुत देर पीछे होने वाले ग्रहणोंके आकाशका कार्य मला अंकमाला कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं |
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सूर्यादिग्रहणाकारमेदो साविकारणं विशिष्टाङ्कमालाया इति चेन, भाविनः कारणवायोगात् भावितवत् कार्यकाले सर्वथाप्यसच्चादतीततभवत् ।
यदि यहां कोई भविष्य कारणवादी बौद्ध मतके अनुसार यों कड़े कि भविष्य में होनेवाले सूर्य चंद्र ग्रहण के आकारोंका मेद ही विशिष्ट अंकमालाका भावी कारण है, अर्थात् जैसे भविष्य में होनेवाला राज्य पहिलेसे ही हथीली में हाथी मछली आदिके चिन्ह बना देता है, वैसे हो पट्टीपर
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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लिखी गयी ग्रहणज्ञानके उपयोगी संख्याके अक्षरोंकी विलक्षण पंक्तिको भविष्यका सूर्यग्रहण स्ना देता है, आचार्य कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि भविष्यमे होनेवाले पदार्थको वर्तमान कार्यका कारणपना सिद्ध नहीं हो सकता है। जैसे कि जो कारण अत्यंत दूर भविष्यमें होवो, वे पूर्वकालीन पदार्थोंके जनक नहीं हैं। क्योंकि कार्य करनेके समय वे सर्व प्रकारसे विद्यमान नहीं है। जो कार्यकालमै रहकर कार्यको उपसि कराने .ना है, जो कारण कहते हैं किंतु जो कार्य कालमें सर्वथा भी नहीं है, यह कारण नहीं है । जैसे कि अस्यंत दूरवर्ती भूतकालमें हो चुका कारण विद्यमानकार्यका जनक नहीं है । भविष्यका शंख राजा, भूतकालके ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीको उत्पन्न नहीं कर सकता है । पडबाबाको नाती उत्पन्न नहीं कर पाता है । और इसी प्रकार बहुत समय पहिले हो चुके त्रिपृष्ठ पीछे होनेवाले लक्ष्मणके जनक नहीं हो सकते हैं । किंतु कार्यके अव्यवहित पूर्व समयमें रहकर कृति करनेवालेको ही कारण माना गया है, वाप शब्दके प्रयोग करानेमें बेटा कारण मी हो सकता है। किंतु यहां व्यपदेशका कारण तो माना जा रहा है, मुख्य कारणका विचार हो रहा है, जो कि पहिले नहीं किंतु अब हो रहे कार्यका सम्पादक है।
वदन्वयव्यतिरेकानुविधानाचस्यास्तत्कारणत्वमिति चेत्र, सस्यासिद्धेः। न हि र्यादिप्रहृष्णाकारभेदे भाविनि विशिष्टाङ्कमालोत्पद्यते न पुनरभाविनीति नियमोस्ति, तत्काले तता पश्चाच्च तदुत्पत्तिप्रतीते।
उस आमालाका ग्रहणके आकारविशेषोंके साथ अन्वय और व्यतिरेक्षका अनुविधान घर जाता है । इस कारण अंकमाला कार्यहेतु हो जावेगी, यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस अन्वयव्यतिरेकका घट जाना सिद्ध नहीं है। सूर्य, चन्द्रमाके ग्रहणका भिन्न भिन्न आकार भविष्यमें होनेवाला है। ऐसा होनेपर ) वह विशिष्ट अंकमाला पट्टीपर लिखी जाकर उत्पन्न होगयी है। किंतु फिर यदि आकारभेद होनेवाला न होता तो ऐसे विशिष्ट अंकोंकी आधली पट्टीपर नहीं उत्पन्न हो सकती थी । इस प्रकारका कोई नियम बनता नहीं है । उस सूर्यग्रहणके कालमें और उससे बहुत पीछे मी लिखने पर पट्टी में यह अंकमाला उत्पन्न हुयी प्रमाणोंसे देखी गयी है, जो कारण है वह अपने समयमै तो कार्यको पैदा नहीं करता है किंतु उत्तरक्षणमे करता है और बहुत देर पीछे मी कार्यको नहीं करता है । अतः यहां अन्नय व्यभिचार और न्यतिरेकव्यभिचार दोष लग जाते हैं ।
कस्थाश्चिदेकमालायाः स भाविकारण कस्याश्चिदतीतकारणमपरस्याः खसमानकालवर्तिन्याः कारणकार्यमेकसामग्यधीनत्वादिति चेत् , किमिन्द्रजालमभ्यस्तमनेन सूर्यादिग्रहणाकारभेदेन, यतोऽयमतीतानागतवर्तमानाखिलांकमालाः स्वयं निर्वतयेत् ।
बह ग्रहणका आकार भेद किसी किसी अंकमालाका तो भावी कारण है और किसीका भूत . कारण है तथा याने सनान का होनेवालो अन्य अंकमालाका बह वर्तमान कारण है। यहां
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वस्था चिन्तामणिः
तीसरे पक्षमे कारणके द्वारा कृति करते हुए कार्यका होना लक्षण घट जाता है। उक्त तीन कालके विशेषणोंसे घिरा हुआ आकार मेद भी उसी एक सामग्री में पड़ा हुआ है । जिप्स सामग्रीके अधीन होकर अंकमाला उत्पन्न होती है। ऐसा कहनेपर तो हम कहेंगे कि क्या इस सूर्य आदिकके ग्रहण भेदने इंद्रजालका अभ्यास किया है। जिससे कि यह मूतकाल और वर्तमानकालकी होनेवाली सम्पूर्ण संख्या अक्षरोंकी लिपियोंको अपने आप बना देता है । इंद्रजालिया ( बाजीगर ) ही हस्त कौशलसे या दृष्टिबंधन करके आगे पीछे होनेवालों अनेक वस्तुओंको वर्तमान बनती हुयी दिखा देता है अथवा कार्यकारण भावका मंगकर गेहूं के बीजसे आन और बालसे सर्पकी उत्पत्ति कर दिखा देता है । भविष्य कारणसे वर्तमान कार्य करना सुझा देता है। किंतु यह सब धोका है । अन्यबाहित पूर्ववर्ती कारणके बिना कभी कार्य नहीं होसकता है। यह कार्यकारण मावका नियम अटल है।
कथं वा क्रमाक्रममाव्यनन्तकार्याणि नित्यैफस्खमावो भावः स्वयं न कुर्यात्, ततो विशेषाभावात् ।
बुद्ध सिद्धांतके अनुसार परमार्थभूत पदार्थको शब्द नहीं छूते हैं । इस कारण बौद्ध लोग आगमको प्रमाण नहीं मानते हैं । इसीलिये वे सूर्य, चंद्र प्रश्णके आकार विशेषोंका निर्णय भी अनुमान प्रमाणसे करते हैं तथा भविष्यमें होनेवाले आकार भेद रूप कारणका पट्टीपर लिखी हुयी अक्षर पंक्तिको कार्य मानते हैं । क्योजी ! चिरकालका भूत पदार्थ और दूर भविष्यका पदार्थ भी वर्तमान कार्यका यदि जनक बन जावे तो नित्य कूटस्थ एक स्वभाववाला पदार्थ भी क्रम और युगपत्से होनेवाले अनंत कार्योंको अपने आप क्यों नहीं कर लेवेगा ! इस सिद्धांतसे तो कापिलोंके नित्यपनके मंतव्यमें कोई अंतर नहीं है तथा च आपके क्षणिक बारके स्थानपर नित्यवाद भी पतिष्ठित हो जावेगा, तब तो अब आप बौद्ध नित्यवादका उक्त कुयुक्ति देकर खण्डन नहीं कर सकेंगे।
मवन् वा स तस्याः कारणम्, उपादानं सहकारि वा ? न तावदुपादानं खटिकादिकवायास्तदुपादानत्वात्, नापि सहकारिकारणमुपादानसमकालत्वाभावात् । .
" अस्तुतोष " न्यायसे वह आकारभेद उस पट्टीको अंकमालाका कारण भी हो जावे, किंतु हम पूछते हैं कि उस अंकमालाका वह आकारभेद क्या उपादान कारण है या सहकारी कारण है ! बताओ । पहिला उपादान कारण तो आप मान नहीं सकते हैं। क्योंकि खडिया, शीशलेखनी, (सिल ) मषी, गेरू, आदिसे बनायी गयी अंकमालाका वे खडिया आदि उपादान कारण है। वे ही पट्टीपर संख्या अक्षर रूपसे परिणत होते हैं । ग्रहणका आकार भेद तो उपादान कारण नहीं है, खडिया आदिकी बनाई गई बत्तीसे पट्टोपर गणितके अंक लिखे जाते हैं। और अंकमालाका आकारभेद सहकारी कारण भी नहीं हो सकता है । क्योंकि उपादान कारणके कालमें रहकर कार्य
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सस्वाचिन्ताममिः
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करनेवालेको सहकारी कहते हैं किंतु यह समान कालमै नहीं रहता है। मृत्तिकाके समान कालमें रहते हुए दण्ड, चक्र, कुलाल आदिक तो घटके सहकारी कारण माने गये हैं। किंतु अंकमाला लिखने या छापनेके बहुत देर पीछे ग्रहणका आकारभेद उत्पन्न होता है।
यथोपादानमिनदेशं सहकारिकारणं तथोपादानभिनकालमपि दृष्टत्वादिति चेत् । किमेवं कस्य सहकारि न स्यात् । पितामहादेरपि हि जनकत्वमनिवार्य विरोधाभावात् । ततो नांकमाला सूर्यादिग्रहणाकारभेदे साध्ये लिंग स्वभावकार्यत्वाभावात् ।
सौगत कहते है कि उपादान होरही मृत्तिका चाकके ऊपर रहती है। मिट्टीसे दो हाथ दूरपर कुलाल रहता है । केवल हायके सम्बन्धसे मिट्टी और कुलालका एक एक देश नहीं हो जाता है । दण्ड भी मिट्टीसे कुछ दूरपरसे चाकको घुमाता है। इसी प्रकार कपडेके उपादान . कारण तन्तुओंसे कोरिया आदि भी भिन्न देशमें रहते हैं । पुण्यवान् जीव कहीं रहता है और तदनुसार कार्य अनेक भिन्न देशों में होते रहते हैं। मालब देशमें भाग्यशाली पुरुष है, उनके पुण्य से पंजाब और काबुलमें मेवा पकती है, रक्षित होती है और अनेक निमित्तोंसे खिंचकर माछवामें पहुंच जाती है। अतः जैसे उपादान कारणसे भिन्न देशमें रहनेवाला भी सहकारी कारण हो जाता है, वैसे ही उपादान कारणके मिन्न समयमें रहनेवाला भी सहकारी कारण हो जावेगा। देखा भी जाता है कि पहिले अधिक घाम पडनेसे या लएं और आंधीके चलनेसे भविष्यमे महिने दो महिने में वृष्टि अच्छी होती है । पहिले तीस वर्षके भोगे हुए न्याय्य भोग परिहारविशुद्धि संगमके सहकारी कारण हो जाते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि पौद्ध इस प्रकार कहेंगे, तब तो इस दंगसे कौन किसका सहकारी कारण न हो सकेगा ! भावार्थ-भिन्न देश और भिन्न कालके समी पदार्थ चाहे जिस किसीके निमित्त कारण बन बैठेंगे। पितामह, प्रपितामह, ( बाबा, पडवावा, सम्पापा) आदि भी नियमसे पुत्रके जनक बिना रोकटोकके बन जावेंगे। कोई विरोध न होगा। चाहे किसी देश या किसी भी कालके उदासीन पदार्थ प्रकृतकार्यके नियत कारण बन बैठेंगे। इस कारणसे सिद्ध होता है कि सूर्य आदि ग्रहणके आकार भेदको साध्य करनेमें अंकमाला ज्ञापक हेतु नहीं है। क्योंकि साध्यका अंकमाला स्वभाव नहीं है और कार्य भी नहीं है । आप बौद्धोंने मावको सिद्ध करने के लिये दो ही प्रकारके हेतु मान रखे हैं।
तदस्वभावकार्यत्वेऽपि तदविनाभावात्सा तत्र लिंगमित्यपरे । तेषामपि कुतो व्यालेप्रह: १ न तावत्प्रत्यक्षतो, भाविनोऽतीतस्य वा सूर्यादिग्रहणाकारमेदस्यासदाधप्रत्यक्षत्वात् , नाप्यनुमानादनवस्थानुषङ्गात् । यदि पुनरागमात्तध्याप्तिग्राहस्तदा युक्त्यनुगृहीवाचदननु. गृहीताद्वा ? न तावदाद्यः पक्षस्तत्र युक्तरप्रवृत्तेस्तदसम्भवात् । द्वितीयपक्षे खतः सिद्धप्रामाण्यात् परतो वा ? न तावत्स्वतः स्वयमनम्यस्तविषयेऽत्यन्तपरोक्षे खतामामाण्यासिद्धे. रन्यथा तदप्रामाण्यस्यापि स्वतः सिद्धिप्रसंगात् ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्धोंके समान वैशेषिक भी प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानते हैं । किंतु वे हेतुके कितने ही भेद मान लेते हैं, उन न्यारे वैशेषिकों का कहना है कि आकारभेदका अंकमाला स्वभाव न सही और कार्य भी भले ही न होये । फिर भी उसके साथ अविनामाव संबंध होनेके कारण वह अंकमाला वहां आकार भेदमें ज्ञापक हेतु हो जाती है, उन वैशेषिकों के भी इस मन्तव्यपर हम पूंछते हैं कि यहां अविनामावरून व्याप्तिका ग्रहण किस प्रमाणसे होता है। बतलाइये ! प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो व्यासिका ग्रह। हो नहीं सकता है। क्योंकि भविष्य और चिर भूतकालमें होनेवाले प्रहणोंके आकारोंका भेद हम सरीखे चम्चक्षुवाले पुरुषों आदिके प्रत्यक्षका विषय नहीं है। अतः साध्य और हेतु दोनों के प्रत्यक्ष किये हिना कोनन का पवित नाम मानन्धको हम जान नहीं सकते हैं। और अनुमानसे भी च्याप्तिका ग्रहण हो नहीं सकता है। क्योंकि अनुमानका उत्थान व्याप्तिग्रणपूर्वक होगा। उस व्याप्तिको जानने के लिये भी तीसरे अनुमानकी आवश्यकता पडेगी । अतः यह भी चौथे व्यातिमहणसे उत्पन्न होगा। इस प्रकार आकांक्षाएं बढते रहने के कारण अनवस्था दोषका प्रसंग आता है। अब आप काणादोंके पास ज्याप्तिग्रणका और कोई उपाय नहीं है।
नैयायिक, सांख्य और मीमांसकोंके बलपर आगमकी प्रमाणताका अनुसरण कर आगमसे व्याप्तिका ग्रहण करना इष्ट करोगे, तब तो हम पूंछते हैं कि युक्तियोंकी कृपासे युक्त हो रहे आगमसे व्याप्तिको जान लोगे ? या युक्तियोंके कृपाभारसे रहित भी आगमसे सम्बन्धका ग्रहण कर लोगे ? बताओ । इन दोनोंमेसे पहिला पक्ष तो अच्छा नहीं है। क्योंकि अत्यंत परोक्ष विषयको प्रतिपादन करनेवाले उस आगममें युक्तियों की प्रवृति नहीं होती है । मंत्र, तंत्र, सामुद्रिक, ज्योतिष विषयके शास्त्रोंमें वे युक्तियां प्रवृत्त नहीं होती हैं । जब कि अग्निकी उष्णता, आरमाकी चेतनताको विषय करनेवाले प्रत्यक्षों में ही युक्ति चलाना पहाइसे माथा टकरामेके समान प्रत्यक्षकी अवज्ञाका कारण होकर व्यर्थ है तो मला आगमसे जानने योग्य कर्म, परमाणु, आकाश, सूर्यग्रहण, बीजाक्षरोंकी शक्ति आदि विषयों में भी युक्तियों का प्रवेश कहां? अर्थात् नहीं है।
__दूसरा पक्षग्रहण करनेपर हम आपसे पूंछते हैं कि उस आगमका प्रमाणपना स्वतः सिद्ध है ! या दूसरे कारणोंसे जाना गया है । बताइथे । मीमांसकोंके अनुसार पहिला स्वतः प्रमाणीकपना तो इन नहीं सकता है। क्योंकि जो विषय हमको स्वयं अभ्यास किये हुए नहीं हैं, उन अत्यन्तपरोक्ष माने गये पुण्य, पाप स्वर्ग आदिके प्रतिपादन करनेमें वेद स्मृति, पुराण आदि ग्रंथों को स्वतः प्रमाणीकपन सिद्ध नहीं है । अन्यथा प्रमाणताके समान अपमाणताकी भी स्वतः सिद्धि हो जानेका प्रसंग आवेगा । ज्ञान प्रामाण्यको जो स्वतः अपने आप होना मानते हैं उनको ज्ञानमें अप्रामाण्यका उत्साद भी स्वतः ही मानलेना पड़ेगा। तथा च वे व्याप्तिमइण करानेवाले शाम अपमाण हो जायेंगे ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
परतः सिद्धप्रामाण्यादागमात्तथाप्तिग्रह इति चेत्, किं तत्परं प्रवृत्तिसामर्थ्य बाघ - काभावो वा ? प्रवृत्तिसामर्थ्य चेत्, फलेनाभिसम्बन्धः सजातीयज्ञानोत्पादो वा १ प्रथमकल्पनायां किं तचाशिफलम् ? सूर्यादिग्रहणानुमानमिति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रयः । प्रसिद्धे हि आगमस्य प्रामाण्ये ततो व्याप्तिग्रहादनुमाने प्रवृत्तिस्तत्सिद्धौ चानुमानफलेनाभिसम्बन्धादागमस्य प्रामान्यमिति ।
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नैयायिकों के विचारानुसार आगममें दूसरे कारणोंसे प्रामाण्यकी उत्पत्ति मानी जायेगी और उस आगमसे व्याप्तिका ग्रहण करोगे, यों तो हम जैन पूंछते हैं कि आगम प्रमाणताका उत्पादक पदार्थ क्या है ! चाइये। वृद्धिको सान है ! अथवा क्या बाक कारणोंका उत्पन्न नहीं होना है ? कहिये ।
यदि यों कहोंगे कि जलको जानकर जलमें स्नान, पान, अवगाहनरूप प्रवृत्तिकी सामर्थ्य से जलज्ञानमें प्रमाणता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रवृति सामथ्र्यमें भी दो विकल्प हैं । पहिला फलके साथ ज्ञाताका चारों ओर सम्बम्ब होजाना और दूसरा उसी ज्ञाता में दूसरे सजातीय ज्ञानका उत्पाद हो जाना है !
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पहिली कल्पना माननेपर तो आप बतलाओ कि उस व्याप्तिका फल क्या है ? जिसके साथ सम्बन्ध करलिया जावे । यदि सूर्य, चंद्र आदिके ग्रहणका अनुमान करना यदि व्याप्तिका फल है, तब तो यह वही अन्योन्याश्रय दोष है । सो इस प्रकार है। उसे सुनिये | आगमको प्रमाणीकपना अच्छा सिद्ध हो जावे, तब तो उस प्रमाणीक आगमसे व्याप्सिग्रहण करते हुए ग्रहणके अनुमान करनेमें प्रवृत्ति होने, और जब वह अनुमानमें प्रवृद्धि होना सिद्ध हो जाये, तब व्याप्तिके अनुमानरूप फलके साथ सुंदर सम्बंध हो जानेसे प्रवृत्तिसामर्थ्य द्वारा आगमको प्रमाणता आये ।
सजातीयज्ञानोत्पादः प्रवृत्तिसामर्थ्यामिति चेत्, तत्सजातीयज्ञानं न तावत्प्रत्यक्षवोऽ नुमानतो वा अनवस्थानुषङ्गात् तदनुमानस्यापि व्याप्तिग्रहणपूर्वकत्वात् तयातेरपि तदागमादेव ग्रहणसम्भवाचदागमस्यापि सजातीयज्ञानोत्पादादेव प्रमाणत्वाङ्गीकरणास् ।
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पहिले ज्ञान के विषय से समानजातिवाले विषयका दूसरा ज्ञान उत्पन्न हो जाना यदि प्रवृचिसामर्थ्य है, ऐसा कहने पर सो पूर्वके समान दो पक्ष फिर उठाये जाते हैं कि प्रत्यक्ष से उस सजातीयका ज्ञान करोगे या अनुमानसे । बताओ, प्रत्यक्ष से ज्ञान होना मानोगे तब दो ग्रहण के आकारभेदके सडश दूसरा पदार्थ प्रत्यक्षका विषय नहीं है । अतः प्रत्यक्षसे सजातीयको नहीं जान सकते हो। और अनुमानसे सजातीयका ज्ञान होना मानोगे तो अनवस्था दोषका प्रसंग आता है 1 क्योंकि वह अनुमान भी व्याप्तिग्रहण करने के पीछे उत्पन्न होगा और उस व्यासिका ग्रहण करना मी उस आगमसे ही सम्भवे है और उस आगमको भी प्रमाणता सजातीयज्ञानके उत्पाद से ही
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्वीकार की गयी है। इस प्रकार चक्रकगर्भित अनवस्था दोष है । अतः अनुमानसे भी सजातीयका ज्ञान नहीं हो सकेगा |
Treat पर इति चेत्, तर्हि स्वतोभ्याससामर्थ्यंसिद्धाद्धा घका भावात्प्रसिद्धप्रामायादागमादं कमालायाः सूर्यादिग्रहणाकारभेदेन व्याप्तिः परिगृह्यते न पुनः सूर्यादिग्रहणाकारभेद एव इति सुग्धभाषितम्, ततो न विषमोऽयमुपान्यासो दृष्टान्तदार्शन्तिकयोरागमात्संप्रत्ययप्रसिद्धेः ।
आगमको परके द्वारा प्रमाणपना माननेवाले नैयायिक बाघकोंके नहीं उत्पन्न होनेको पर मानेंगे तब तो यह मानना कुछ अच्छा है, किंतु मकुतमें ऐसा कहना भोळेपनेकासा भाषण है । अपने बार बार अभ्यासकी सामर्थ्य से प्रसिद्ध हुए बाधकोंके रहितपनेसे जान लिया है प्रमाणपना जिसका ऐसे आगमसे अंकमालटाकी, चंद्र आदि के बाद राय नाप्ति तो ग्रहण करली जाती है, किंतु फिर एकदम सीधे सूर्य, चंद्रग्रहण के आकारोंकामेद ही नहीं जाना जाता है, ऐसी बातोंको भोली बुद्धिवाला ही कह सकता है; परीक्षक नहीं । मला विचारो तो सही कि जो पुरुष प्रमाणीक आगमके द्वारा पट्टीपर किखी हुयी अंकमालाकी महणके आकार मेदोंके साथ व्याप्तिको जान लेवें, किंतु आकारभेदको अन्तरालरहित न जान पाये, यह कहीं हो सकता है ? वह आगम द्वारा मणके आकारोंको मी अवश्य जान लेगा। इस कारण आगमसे परोक्ष मी मोक्षको निर्णय करनेके लिये दिया गया सूर्य आदिक ग्रहण के आकारभेद रूप यह दृष्टांत विषम कथन नहीं है, क्योंकि दृष्टांत ग्रहणका आकारमेद और दृष्टांतका उपमेय मोक्षरूप दान्तिकका प्रमाणीक आगमसे अच्छी तरह निर्णय करना प्रसिद्ध है ।
सामान्यतो दृष्टानुमानाच्च निर्वाणं प्रतीयते तथा हि
मोक्षको आगमसे सिद्ध कर अब अनुमानसे सिद्ध करते हैं। नैयायिकोंने तीन प्रकारके अनुमान माने हैं। १ पूर्ववत् २ शेषवत् और ३ सामान्यतो दृष्ट | उनके अनुकूल सामान्यतो दृष्ट अर्थात् अन्वयव्यतिरेकी अनुमानसे भी मोक्षकी प्रतीति हो रही है, इसीको स्पष्ट कर वाचिक द्वारा दिखाते हैं
शारीरमानसा सातप्रवृत्तिर्विनिवर्तते ।
क्वचित्तत्कारणाभावाद् घटीयन्त्रप्रवृत्तिवत् ॥ २५४ ॥
किसी आत्मा (पक्ष) शरीर संबंधी क्षुधा, शीत, रोग, भय आदि व्याधि और मनः सम्बन्धी राग, द्वेष, चिंता आदि आधियोंकी असावा आकुलतारूप प्रवृत्ति अतिशयपने से निवृत्त हो जाती है ( साध्यदल ) क्योंकि उस असाता के कारण माने गये ज्ञानावरण, वेदनीय आदि
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कमका मात्र हो गया है ( हेतु ) जैसे कि कुएं में लटकी हुयी घडोंकी मालाके बने हुए पानी निकालनेवाले यंत्रकी प्रवृत्ति उसके कारण चक्रभ्रमणसे रुक जानेसे निवृत्त हो जाती है (अभ्वयदृष्टांत )
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यथा घटीयंत्रस्य प्रवृत्तिभ्रमणलक्षणा स्वकारणस्यारगर्तभ्रमणस्य विनिष्ठुरोर्निवर्तते तथा कचिज्जीवे शारीरमानसासात प्रवृतिरपि चतुर्गत्यरगर्त भ्रमणस्य तचत्कारणं कृत इति चेत्, तद्भाव एव भावाच्छारीरमानसासात भ्रमणस्य, न हि तचतुर्गत्यरगर्तभ्रमणाभावे सम्भवति, मनुष्यस्य मनुष्यगविद्याल्यादिविवर्त परावर्तने सत्येव तस्योपलम्भात्, सद्वतियेक्सुरनारकाणामपि यथा स्वतिर्यग्गत्यादिषु नानापरिणामप्रवर्तने सति तत्तत्सम्वेदन इति न तस्य सद्कारणत्वम् ।
जैसे छोटे छोटे घडों या बल्लियोंकी बनी हुयी मालाको एक पहिएपर लटकानेवाले और उस पहिएसे मिडी हुयी लाटको इतर दो पहियोंके द्वारा बैलसे घुमाने योग्य तीन चकवाले यंत्रपर रस्सीके सहारे कुएं लटकती हुयी घटमालाकी भ्रमण करना रूप प्रवृत्ति अपने कारण होरहे कारसे संयुक्त में घूमते हुए चकाके घूमने की सर्वथा निवृत्ति हो जानेसे निवृत्त हो जाती है, वैसे ही किसी मुक्त जीवमे शरीरसंबंधी और मनःसम्बन्धी असातारूप दुःखोंकी प्रवृत्ति भी चार गति रूप के पहिये भ्रमणकी निवृत्ति हो जानेसे निवृत्त हो जाती है। जैसे घटीमालाका घुमानेवाला कारण मै घूमनेवाला चार अरोंसे युक्त चका है, वैसे ही संसारके दुःखों का कारण चारों गतियों में भ्रमण करना है । वह उसका कारण है, यह जैनियोंने कैसे जाना ? ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि यहां अन्वयव्यतिरेक घट जाता है। उस नरक आदि चार गतियों में भ्रमण करनेपर ही जीवको शरीर और मनःसंबंधी दुःखका परिभ्रमण रूप बार बार आना हो रहा है और उस बढ़ति रूप अरहट चकाके भ्रमण न होनेपर वे आधियां और व्याधियां भी जीवके नहीं होने पाती हैं। देखो ! मनुष्यों मनुष्यगतिमें होनेवाले बालक, कुमार, वृद्ध आदि अवस्थाओंके परावर्तन होने पर ही वे गर्भ, भूख, प्यास, रोग, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदिके दुःख बार बार होते हुए देखे जा रहे हैं । उसीके समान तिर्यक्चगतिमें छेदन, भेदन, भारवहन, इष्टवियोग, खाद्यपान J निरोष, शीत, उष्ण, मच्छर, पराधीनता आदि विपत्तिये तिर्यञ्चके भवों में परावर्तन करनेपर ही हुयी हैं । एवं देवोंके भी इष्टवियोग, ईष्याभाव, दूसरेकी अधीनता, माला मुरझाना आदि बाधाएं देवगति, देवआयुष्य, कर्मके वश आत्मा के देव शरीरमें ठुस जांनके कारण उत्पन्न हुयी हैं। नारकि योंके तो दिन रात दुःखों का भोगना चालू ही रहता है, उन्हें तो एक क्षणको भी दुःख भोगने से अवकाश नहीं है । और जैसे अपने पूर्व जन्मों में हो चुकी तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति आदिये अनेक अवस्थाओं परिवर्तन होनेपर उन दुःखका प्रतिकूल संवेदन होता है वैसा सम्पूर्ण संसारी जीवों में वेदन हो रहा है। इस कारण उन शरीर संबंधी आदि दुःखों का उस चतुर्मतिभ्रमणको अकारवना नहीं है, अर्थात् चारों गतियों में घूमना जीवको अनेक दुःखका कारण है ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
निवृत्तिः कुत इति चेत्, स्वकारणस्य कर्मोदय भ्रमणस्य निवृत्तेः, बलीवर्दभ्रमणस्य निवृत्तौ वत्कार्यारगर्तभ्रमणानिषु विवत् न च चतुर्गत्यरगर्तभ्रमणं कर्मोदयभ्रमणनिमित्तमित्यसिर्द्ध दृष्टकारणव्यभिचारे सति तस्य कदाचिद्भावात् तस्याकारणत्वे दृष्टकारणत्वे वा तदयोगात् ।
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उस चतुर्गतिरूप गर्त चक्र के घूमने की निवृत्ति किससे होती है ? बताओ, यदि ऐसा पूछोगे तो उत्तर सुनो! अपने कारण हो रहे मौके उदयके भ्रमणकी निवृत्ति हो जानेसे चतुर्गतिके की निवृत्ति हो जाती है, जैसे कि बैलके घूमनेकी निवृत्ति हो जानेपर उसके कार्य माने गये Tech की निवृत्ति हो जाती है । चार गतिरूप चार अरवाले गड्डे चक्रभ्रमणका निमित्त कारण कर्मों के उदयका परिभ्रमण है, यह बात असिद्ध नहीं है। क्योंकि लोक में देखे गये खाथ, पेथ, पुत्र, धन, स्त्री आदि कारणका व्यभिचार हो जानेपर, नहीं देखने में आने ऐसे सूक्ष्म ज्ञानावरण आदिम भ्रमणको ही कारण मानना पडता है । भावार्थ - सांसारिक सुख, दुःखका शरीर, पुत्र, घन आदिके साथ अन्य व्यतिरेक, नहीं है । अनेक पुरुष दृढशरीर और घनके होते हुए मी दुःखी देखे जाते हैं, और अनेक जीव शरीरसंपत्तिरहित होते हुए भी आनंद हैं। दूध यदि सुखका कारण होता तो ज्जरी और श्लेष्म रोगवालेको भी पुष्टिकर होता । विष भी अच्छी तरह प्रयुक्त किये जानेपर असंख्य प्राणियोंको नीरोग कर देता है। तपस्वी साधुओंकी घन, पुत्र आदिमें रुचि नहीं है, वे पत्थरकी शिला, वृक्षोंकी खोड़ों में ही निवास करते हैं । वृद्ध पुरुषको तरुणी विष समान प्रतीत होती है, तरुणको नहीं। शीतकालमै अभि अनुकूल हो जाती है । वही ग्रीष्म में reare पैदा करती है । वैशाख और ज्येष्ठ गर्दमको दर्ष उत्पन्न होता है। ऊंटको नीमके कडुए पत्ते अच्छे लगते हैं, आनके नहीं, इत्यादि दृष्टांतोंसे दृष्ट हो रही सामग्रीका लौकिक सुख, दुःखोंसे व्यभिचार देखा जाता है । अतः चदुर्गति भ्रमणरूप आकुलताका कारण पुण्य, पाप, कर्म ही है । पुण्य भी सोनेकी बेडियों के समान वास्तवमे आकुलताका ही कारण है। दूसरी बात यह है कि तिर्यंच आदि गतिमें होने वाले भिन्न भिन्न जातिके अनेक दुखोंको भोगते हुए वे परिभ्रमण कभी कभी होते हैं | भाग – यह जीव कभी वो तिर्यग्गतिके दुःखोंको भोगता है और कभी नरक, मनुष्य देवों की गतियों में परिभ्रमण करता है । इस कारण जो कमी होता है, वह परिभ्रमण कारणसहित अवश्य है | यदि उस सद्रूप भावका कारण न मानोगे तो वह नित्य हो जावेगा, उसका कभी कभी होना नहीं बन सकेगा । संसारमें अनेक दुःख प्रवाहरूपसे सर्वदा होते रहते हैं। किन्तु व्यक्तिरूपसे दुःख सादिसान्त है। एक दुःखका नाश होना, दूसरेका उत्पाद रहना यद्द परिभ्रमण होता है । एक समय होनेवाले अनेक दुःखोंके समुदायको भी सुखगुणकी एक सङ्कटरूप विमाव परिणति माना है अथवा जिन कण्टक, विष, दुग्ध आदि देखे हुए कारणका व्यभिचार हो रहा है, उन्हींको चतुर्गतिके भ्रमणका कारण मान लोगे तो भी नियमपूर्वक कार्य होनेका वह घन नहीं हो सकेगा ।
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तत्त्या चिन्तामणिः
तनिचिः पुनस्तत्कारणमिथ्यादर्शनादीनां सम्यग्दर्शनादिमविपक्षभावनासात्मीभावात् कस्यचिदुत्पद्यत इति समर्थयिष्यमाणत्वात् तसिद्धिः।
आए सिटी लिउन काँगे उन्या भ्रमणकी निवृत्ति भला किससे होगी ! बताओ। इसका उत्तर यह है कि उन कर्मोंके कारण हो रहे मिथ्यादर्शन, कुज्ञान, कषाय और असंयम आदिक विरोधी माने गये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और तपःकी आमाके साथ तादात्म्यसम्बंधसे समरसरूप होनेवाली भावनाके बलसे किसी आत्माके कौकी निवृत्ति होना उत्पन्न होजाता है, इस बातको हम मविष्यों समर्थन कर देखेंगे । यों अबतक पटीयंत्रको प्रतिक रोकनेका कारण अरहटके भ्रमणको निवृत्ति है और आहटके भ्रमणको रोकनेका कारण बैलके घूमनेकी निवृति होना है । दाष्टीतम इसकी सिद्धि इस प्रकार करलेना कि शरीर और मनःसबंधी भनेक दुःखोंकी निवृत्तिका कारण चतुतिमै भ्रमणकी निवृत्ति है और चतुर्गतिके भ्रमणकी निवृत्तिका कारण ज्ञानावरण मादि कर्मोके उदय पारिभ्रमणकी निवृत्ति है और ज्ञानावरण आदि कर्मोंका नाश तो रखत्रय या चार आराधनाओंसे होजाता है।
प्रकृतहेतोःकुम्भकारचक्रादिभ्रान्त्यानैकान्ता, स्वकारणस्य कुम्भकारस्य व्यापारस्य निवृत्तावपि तदनिवृत्तिदर्शनात् , इति चेत् -
कोई शंका करता है कि कारणके भ्रमणकी निवृत्ति होजानेसे कार्यके भ्रमणकी निवृत्तिको सिद्ध करनेवाले प्रकरण प्राप्त हुये हेतुका कुम्हार के चक्र आदिकी भ्रांतिसे व्यभिचार है । क्योंकि देखा जाता है कि चक्रके अपने घूमनेका कारण माने गये कुलालके हस्तव्यापारकी निवृत्ति हो जाने पर भी बह चक्रका घूमना निवृत्त नहीं होता है । भावार्थ-कुम्हारके एक बार घुमानेपर पांच या वश पल पीछेतक भी चाक घूमता रहता है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि
न कुम्भकारचक्रादिभ्रांत्यानैकान्तसम्भवः । तत्कारणस्य वेगस्य भावे तस्याः समुद्भवात् ॥ २५५ ॥
कुम्हारके पक या बच्चों के खेलनेका भौरा आदिके भ्रमण द्वारा हमारे कारण निवृतिरूप हेतृका व्यभिचार होना सम्भव नहीं है । क्योंकि उस कुम्हारके चाक और बनेके भौंरा घूमनेका कारण उनमें भर दिया गया वेग है । कुम्हार और बच्चेका व्यापार साक्षात् कारण नहीं है । जबतक वेग रहेगा तबतक वह चक्र और भौराका भ्रमण उत्पन्न होता रहेगा।
न हि सर्वाचक्रादिम्रान्तिः कुंभकारवर व्यापारकारणिका, प्रथमाया एव तस्यास्तथाभावात् , उचरोचरभ्रातः पूर्वपूर्वभ्रांत्याहितवेगकृतत्वावलोकनात , न चोचरा कातिः स्वकारणस्य वेगस्यामाचे समद्भवति, तद्भाव एव तस्याः समुद्भवदर्शनात् ततो न तया देवोयभिचारः।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
चक्र, मौरा, चकई, के आगे पीछे, बीजमे होनेवाले सब ही भ्रमण कुम्हार या बालकके हाथ के व्यापारको कारण लेकर ही उत्पन्न हुए हैं, यह नहीं समझना । किंतु सबसे पहिला ही वह भ्रमण इस प्रकार कुम्हारके हाथके व्यापारसे उत्पन्न हुआ है और चाकके आगे आगे भविष्य मे होनेवाले अनेक भ्रमण तो पहिले पहिले भ्रमणोंके द्वारा संस्कार किये गये वेगले बने हुए देखे जाते हैं। उत्तरकालमें होनेवाला वह चत्र का भ्रमण अपने कारण वेगके न होनेपर बराबर उत्पन्न होजाता है, यह नहीं समझना। क्योंकि उस वेगके होनेपर ही भविष्यके परिभ्रमणोंकी अच्छी उत्पत्ति देखी जाती है । इसकारण उस चक्र आदिके परिभ्रमणसे हमारे हेतुका व्यभिचार दोष नहीं है । भावार्थ- पत्रके पहिले घूमनेका कारण कुम्मकारका हाथ है और दूसरे, तीसरे आदि घूमका कारण परम्परासे कुम्मकार, साक्षात्कारण पूर्व घूमोंसे पैदा किया गया वेग है। प्रत्येक घूमके निकल जानेर पहिले समयका वेग न्यून होता जा रहा है । अन्तिम घूममै वह वेग इतना निर्मल पढ जाता है या नष्ट हो जाता है जिससे कि उससे आगे चाक या लट्टूमै भ्रमण पैदा नहीं होता है । अतः हमारे कार्यकारण भावकी अक्षुण्ण प्रतिष्ठा बनी रही।
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पावकापायेपि घूमेन गोपाल घटिकादि पुपलभ्यमानेनानैकान्त इत्यप्यनेनापास्तम् ।
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इन्द्रजालिया या ग्वाले घडे में अथवा रेलगाडीके निकलजानेपर मार्गमें धूम विद्यमान है किन्तु उसका कारण मंमि नहीं है । इत्यादि स्थलों में यों अभिके नहीं रहनेपर भी घूम पाया गया साध्याभाववद्वृत्तित्वं " अतः यह फिर भी आपका हेतु व्यभिचारी हुआ । इस प्रकार किसका कथन भी इसी पूर्वोक्त निर्णय कर देनेसे खण्डित हो जाता है । मावार्थ- सबसे पहिला घूम अमिसे उत्पन्न हुआ है। उसका अभिके साथ अन्वयव्यतिरेक है। उस धूमको पृथक् करके कहीं रख देनेपर धूमकी उत्तर पर्याय स्वरूप आगे होनेवाले अनेक अन्य धूम तो उस पहिले धूमकी वारा ही उत्पन्न हुए हैं। तभी हो धूमसे अभिकी सिद्धि करनेमें धुआंकी अभिसे चुपटी हुयी मूलरेखाका न टूटना धूमका विशेषण माना गया है । अभ्यथा अभिके बिना भी षडेने बन्दकर कई दिन तक धुंआ ठहर जाता है। वह घूम भी हेतु बन जाता, जो कि इष्ट नहीं है ।
शरीरमानसासातप्रवृतेः परापरोत्यतेरुपायप्रतिषेध्यत्वात्, संचितायास्तु फलोपभोगतः प्रक्षयात् । न चापूर्वधूमादिप्रवृत्तिः स्वकारणपावकादेरभावेऽपि न निवर्तते यतो व्यभिचारः स्यात् ।
शरीर और मनकी असाठा दुःखरूप प्रवृत्तियों का उत्तरोत्तर कालमें धाराप्रवाह करके उत्पन्न हो जाना भी गुप्ति, समिति, धर्म, आचरण आदि उपायोंसे निवृत्त हो जाने योग्य है । भावार्थ — द्रव्यकर्म भावकर्म और भावकर्मसे द्रव्यकर्मकी घाराका भविष्य में बहना तो मुति तप आदि उपायोंसे रोक दिया जाता है । और पहिले सञ्चित कमके उदय होनेपर होनेवाली असावा -:
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तत्त्वावचिन्तामणिः
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रूप बाधाओंका तो कोका फल भोगनेसे सर्वथा नाश होता है। तथा तपस्याके बलसे बिना फल भोगे भी सञ्चित कोका नाश हो सकता है, किन्तु जिन कार्योंका असातारूप फल देना अनिवार्य है उनका फल भोगनेसे ही नाश होगा, चाहे वे तीन कल्याणके धारी तीर्थकरके हों, बारहवें गुणस्थानतक कोई संसारीजीव पूर्ण सुखी नहीं हो पाता है। धूमके अपने कारण माने गये अग्मि या पूर्व पूर्व धूम मादिके अमाव होजानेपर भी नये नये धूम आदि की प्रवृत्ति होना निवृत्त नहीं होता है, यह नहीं कहना । अथवा चाक घूमनेके कारण कुलाल या वेमके निवृत्त हो आनेपर भी चाक घूमना बन्द न होवे, यह नहीं समझ बैठना जिससे कि हमारे हेतुमे व्यभिचार हो सके | मावार्थ-कारणके अभावसे दुःखोंका निवृत्त होना सिद्ध हो जाता है। इसमें कोई दोष नहीं है।
अतोऽनुमानतोऽप्यस्ति मोक्षसामान्यसाधनम् । - सार्वज्ञादिविशेषस्तु तत्र पूर्वं प्रसाधितः ॥ २५६ ॥
इस कारण अनुमानसे मी मोक्षसामान्यका साधन हो ही रहा है। मुक्तावस्थामें सर्वज्ञता, अनंतमुख, आठ कोका क्षय, आदि विशेषताओंको तो हम वहां पहिले प्रकरणों में सिद्ध करचुके हैं ! यहां कइना पुनरुक्त पड़ेगा।
न हि निरवद्यादनुमानात साध्यसिद्धौ संदेहः सम्भवति, निरखद्य च मोक्षसामान्येऽ नुमानं निखद्यहेतुसमुत्पत्वादित्यतीनुमानात्तस्य सिद्धिरस्त्येव न केवलमागमात् , सार्वत्वादिमोक्षविशेषसाधनं तु प्रागेवोक्तमिति नेहोच्यते । __असिद्ध, विरुद्ध, व्यभिचार आदि दोषोंसे रहिस होरहे अनुमानसे साध्यकी सिद्धि होजाने, पर ( पुनः ) साध्यमें किसी मी प्रकारका सन्देह नहीं सम्भवता है। यहां प्रकसमें मोक्षसामान्यके सिद्ध करनेमें ऊपर दिया गया अनुमान निर्दोष है । क्योंकि वह अनुमान निर्दोष हेतुमोसे अच्छा उत्पन्न हुआ है । इस कारण इस अनुमानसे उस मोक्षकी सिद्धि हो ही जाती है। केवल आगम प्रमाणसे ही मोक्षकी सिद्धि नहीं है, किंतु अनुमानसे भी मोक्ष सिद्ध है। हां ! मोक्ष जीव सर्वज्ञ हो जाता है। द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकोंसे रहित होजाता है इत्यादि मोक्षकी विशेषताओकी सिद्धिको तो पहिले ही कह चुके हैं। इस कारण यहां नहीं कही जाती है।
तसिद्धेः प्रकृतोपयोगित्वमुपदर्शयति
इस मोक्षको अनुमान और आगमसे सिद्धि करने का इस प्रकरणमें क्या उपयोग हुआ ! इस बातको आचार्य स्वयं संगतिपूर्वक दिखलाते हैं
एवं साधीयसी साधोः प्रागेवासन्ननिवृतेः । निर्वाणोपायजिज्ञासा तत्सूत्रस्य प्रवर्तिका ॥ २५७ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
इस प्रकार सम्पूर्ण वादियोंके यहां मोक्षक सामान्य सिद्धि दोजाने पर किसी निकट भव्य मोक्षमामी सज्जन शिष्यके पहिलेसे ही मोक्षमार्गके जाननेकी अभिलाषा हो जाती है। वह जिज्ञासा ही प्रथमसूत्रका प्रवर्तन करारही है । यो पहिले सूत्रका अवतार होना पुष्ट किया गया है।
सर्वस्थाद्वादिनामेव प्रमाणतो भोक्षस्य सिद्धौ तत्राधिकृतस्य साधोरुपयोगस्वभावस्यासन्ननिर्वाणस्य प्रज्ञातिराययतो हितमुपलिप्सोः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य साक्षादसाक्षादाप्रबुद्धाशेषतत्वार्थप्रक्षीणकल्मषपरापरगुरुप्रवाहसभामधितिष्ठतो निर्वाणे विपतिपत्यभावात्त. न्मार्गे विवादात् तत्प्रतिपित्साप्रतिबन्धकविध्वंसात्साधीयसी प्रतिपित्सा, सा च निर्वाणमार्गोपदेशस्य प्रवर्तिका।
सम्पूर्ण स्याद्वादसिद्धांतको माननेवाले या सर्व ही श्रेष्ठ वादियों के मतमें जब अनुमान और आगम प्रमाणसे मोक्ष तत्त्वकी सिद्धि हो चुकी तो उसमें अधिकारको प्राप्त हो रहे साधु पुरुषके मोक्षम विवाद न होने और मोक्षमार्गमें विवाद हो जानेसे मार्गकी जिज्ञासाके प्रतिबंधक कोंके नाश हो जानेके कारण मार्गको ही जाननेकी इच्छाका होना बहुत अच्छा है। क्योंकि उसका मोक्ष विवाद नहीं है । उस मोशके मार्गमें विवाद पड़ा हुआ है । जिस भव्यको जिज्ञासा होनेपर मोक्षमार्गका उपदेश दिया गया है, वह ज्ञानोपयोग स्वभाववाला आत्मा है और उसको निकट भविष्यम मोक्ष होनेवाली है । वह नवीन श्रेष्ठ तर्कणाओंके चमत्कारोंको घारण करनेवाली बुद्धिसे युक्त है, और
आत्महितको प्राप्त करना चाहता है । कल्याणमार्गसे युक्त होनेवाला है तथा केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण तवायोंको जाननेवाले तथा नष्ट हो गये हैं पातिया कर्म जिनके ऐसे उत्कृष्ट गुरु अईन्तोंकी समाम अथवा परोक्ष श्रुतज्ञानसे सम्पूर्ण तत्वार्थीको जानकर अनेक पापोंका क्षय करनेवाले गणधर आदिक अपर गुरुओंकी प्रवाहित सभामें बैठा हुआ है, और ऐसे शिष्यकी वह प्रबल जिज्ञासा मोक्षमार्गके उपदेशका मले प्रकार प्रवर्तन करानेवाली है।
सत्यामेव वस्या प्रतिपाद्यस्य तत्मविपादकस्य यथोक्तस्यादिसूत्रप्रवर्तकत्वोपपत्तेरन्यथा वप्रवर्तनादिति प्रतिपत्तव्यं प्रमाणवलायत्तत्वात् ।
ऐसे पूर्व कहे विशेषणोंसे युक्त हो रहे शिष्यकी उस प्रसिद्ध जिज्ञासाके होनेपर पहिले कहे गये आपके यथा उचित अनेक गुणोंसे युक्त, कर्मरहित, और ज्ञानवान् उसके प्रतिपादक आचार्य महाराजको मादिके सूत्रका प्रवर्तकपना ठीक सिद्ध हो जाता है । अन्यथा यानी दूसरे प्रकारोंसे मोक्षमार्गके प्रतिपादक उस सूत्रका अर्थरूपसे या ग्रंथरूपसे आज तक प्रवर्तन होना घटित नहीं होता है । यह बात विश्वास पूर्वक समझ लेना चाहिये । इस प्रकार प्रमाणोंकी सामर्थ्यके अधीन पूर्ण विचार हो जानेसे पूर्वमें कही हुयी योग्यताके मिल जानेपर अब आदिके सूत्रका अवतार करना न्याय प्राप्ठे हो जाता है। एक बार हृदय खोलकर कहिए " जैन धर्मकी अब "।
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तत्त्वाचिन्तामणिः
यहां तककी रचनाका अनुकम संक्षेपसे इस प्रकारसे हैं कि सूत्र अवतारकी आदिमें श्री विधानंद स्वामीने श्री लोकवार्तिक मंथका प्रारम्भ कर मंगलाचरण पूर्वक परमपर गुरुओका ध्यान करना आवश्यक बतलाया है। इस पर अच्छा खण्डन, मण्डन, करके अथकी सिद्धिके कारण गुरुओंका ध्यान करते हुए सूत्र, अध्याप आदिका लक्षण किया है । तथा श्लोकवार्तिक ग्रंथको आम्नायके अनुसार आया हुआ तलाकर साक्षात्कल बानका पाति और परम्परा फळ कोके नाश करने में उपयोगी कहा है। अच्छे शास्त्र तो हेतुवाद और आगमवादसे संयुक्त होते हैं ।
यह श्लोकवार्तिक ग्रंथ हेतुवादसे पूर्ण है। तर्क वितर्क करनेवाली बुद्धिको धारण करनेवाले विद्वान् इस ग्रंथसे तत्वोंको प्राप्त कर लेते हैं। आज्ञाप्रधानी, प्रतिभाशाली, श्रद्धालुओंको जानने योग्य विषय मी इस ग्रंथमें अधिक मिलेंगे । किंतु भोली बुद्धिवाले शिष्योंका इस इस अंथ प्रवेश होना दुस्साध्य है। वे अन्य उपयोगी ग्रंथोंको पढकर इस ग्रंथके अध्ययन करनेकी योग्यताको पहिले प्राप्त करते। पीछे तर्कशालिनी बुद्धिके हो बानेपर हेतुवाद और आगमवाद रूप इस ग्रंथका अभ्यास करें। अपनी योग्यताका अतिक्रमण कर कार्य करनेमें सफलता प्रास नहीं होती है। श्री विद्यानंद स्वामीने इस ग्रंथकी रचना अतीव प्रकाण्ड विद्वत्ता के साथ की है। अतः बुद्धिशाली शिष्य इस ग्रंथका बहुत विचार के साथ स्वाध्याय करें वे जितना गहरा घुसेगे उतना गम्भीर प्रमेय पावेंगे।
ग्रंथके आदिमें प्रयोजनको कहनेवाला मागम और परार्वानुमान रूप वाक्य कहना आवश्यक है। मोक्षमार्गके नेता और कर्मरूपी पर्वतके मेषा तथा विश्वतत्त्वोंके ज्ञाता ऐसे बिनेद्र भगवान के उपदेशक होनेपर मुमुक्षु भव्यों के प्रति यह सूत्र अर्थ रूपसे कहा गया है। उसी आम्नायसे आये हुए सूत्रका श्री उमास्वामी महाराजने प्रतिपादन किया है । यह सूत्ररूपी शब्द तो घारापदाइसे प्रमेयकी अपेक्षा अनादि है, किंतु पर्यायदृष्टिसे सादि है । शब्द पुद्गलकी पर्याय है, अन्यापक है, मूर्त है ऐसे पौगलिक सूत्रोंका गूंथना गणघर देवने द्वादशाङ्गमे किया है । विनीत शिष्यों के विना भगवान्की दिव्यध्वनि भी नहीं लिरती है। अत्युपयोगी वस्तु व्यर्थ नहीं जाती, तैसे ही प्रतिशवकोंकी इच्छा होनेपर सूत्र या अन्य आर्य ग्रंथ प्रवर्तित होते हैं। हिंसा आदि पापोंका निरूपण करनेवाले ग्रंथ प्रामाणिक मी नहीं है । अतः ज्ञानी वक्ता और श्रोताओंके होनेपर. समीचीन शास्त्रोंका निर्माण होता है । पहिले सूत्रको आगम और अनुमानरूप सिद्ध करते हुए अपौरुषेय वेदका खण्डन किया है। वीतराग, सर्वज्ञ, भादि हितोपदेशकका निर्णय कर लेनेपर उसके वाक्योंकी अक्षुण्णरूपसे प्रमाणता आजाती है।
मीमांसकोंने सर्वशको नहीं माना है, उनके लिये सर्व-सिद्धि सूक्ष्म आदिक अर्थोके उपदेश करनेकी अपेक्षा की गई है, जिनको हम श्रुतज्ञानसे जानते हैं, उन पदार्थोंका प्रत्यक्षकों कोई आत्मा अवश्य है। प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणोंसे सर्व पदायाँके जाननेवाळेको सर्वज्ञ नहीं कहते है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः... :
किंतु केवलज्ञानसे एक क्षणमें ही त्रिकाल त्रिलोकके पदार्थोंको जाननेवाला 'सर्वज्ञ है। सर्वज्ञताका कारण घातिया फोका क्षय हो जाना है, मूलसहित कर्मोंका भय हो जानेपर अर्हन्त देव स्वभावसे ही यावत् पदार्थोंको जान लेते हैं, प्रयत्न करनेकी आवश्यकता नहीं है । अत्यल्प कायों में प्रयत्न उपयोगी होता है। किंत आनंतानंत कार्य प्रयत्नके विना स्वभावोंसे ही हो जाते हैं । विना इच्छा और पयल के दर्पण प्रतिबिम्ब ले लेता है।
संवर और निर्जरासे घातिया काँका किसी साधुके क्षय हो जाता है। इस कारण मोक्षमार्गका नेता विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता और कमाका क्षय करनेवाला आत्मा ही उन गुणोंकी प्राप्तिके अभिलाषुक जीवोंके द्वारा स्तुत्य है । वे जिनेंद्रदेव तीर्थकर प्रकृतिके उदब हो जानेपर मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं, उपदेशकी धारा अनादि कालसे चली आ रही है । इस प्रकरणपर अकेले ज्ञानसे ही मोक्षको माननेवाले नैयायिक, सांख्य आदिका खण्डन कर रत्नत्रयसे ही मुक्तिकी व्यवस्था मानी है । ज्ञानके समायसंबंधसे आत्मा ज्ञ नहीं हो सकता है । भिन्न पड़ा हुआ समवायसंघ भी किसी गुणी में किसी विशेष गुणको संबंधित कराने का नियामक नहीं हो सकता है। समवाय संबंध तादात्य सर्वबसे भिन्न होकर सिद्ध नहीं होने पाधा है । नैयायिकोंके ईश्वरके समान बौद्धोंसे माना गया बुद्धदेव मी मुक्तिको प्राप्त नहीं कर सकता है और न मोक्षमार्गका उपदेश देसकता है। निरन्वय क्षणिक अवस्थामै संतान भी नहीं बन पाती है । अन्श्य सहित परिणाम माननेपर ही पदार्थोंमें अर्थकिया बन सकती है । वचन बोलने विवक्षा कारण नहीं है । तीर्थकर देव विवक्षाके विना दिव्य ध्वनि द्वारा उपदेश देते हैं। चित्राद्वैत मतमे भी मोक्ष और मोक्षका उपदेश नहीं बनता है। विज्ञानाद्वैत और मंझद्वितकी भी सिद्धि नहीं होसकती है । इस कारण पातिया कोसे रहित हुआ आत्मा ही उपदेशक है और ज्ञानसे तादात्म्य रखनेवाला विनीत आत्मा उपदेश सुननेका पात्र है। चार्वाकोंके द्वारा मानागया पृथ्वी, अप, तेज, वायुसे उत्पन्न हुआ आत्मा द्रव्य नहीं है । आत्मा पुद्गलका बना हुआ होता तो बहिरंग इंद्रियोंसे जाना जाता, किंतु आमाका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होरहा है । तथा आत्माका लक्षण न्यारा है और पृथ्वी आदिका लक्षण भिन्न है : पृथ्वी आदिक तत्त्व आत्माको प्रगट करनेवाले भी सिद्ध नहीं हैं । विना उपादान कारणके माने कारकपक्ष और ज्ञापक पक्ष नहीं चलते हैं। शब्द बिजली आदिके भी उपादान कारण है, जो कि स्थूल इंद्रियोंसे नहीं दीखते हैं। पिठी, महुआ आदिकसे मद शक्तिके समान शरीर, इंद्रिय आदिकसे चैतन्य शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती है । शरीरका गुण बुद्धि नहीं है। अन्यथा मृत देहमें भी बुद्धि, सुख, दुःख आदिकका प्रसंग होगा। मैं सुखी हूं, मैं गुणी हूं, मैं फर्ता हूं इत्यादिक प्रतीतियोंसे आत्मा स्वतंत्र तत्त्व सिद्ध होरहा है। जो कि अनादि कालसे अनंत कातक स्थिर रहनेवाला है। प्रध्यार्थिक नयसे आत्मा नित्य है
और पर्यायार्थिक नयसे अनित्य है । इस कारण आत्मा निस्यानित्यात्मक है। चार्वाकका माना गया पक्ष अच्छा नहीं है। नौद्धोका आत्माको क्षणिक विज्ञानरूप मानना भी ठीक नहीं है। विशेषके
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तस्त्वार्यचिन्तामणिः
समान सामान्य पदार्थ भी वस्तु दीखता है अर्थात् वस्तु भेदाभेदात्मक है । एक आत्मद्रव्य क्रमभावी और सहभावी पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है । आत्मा अपने गुण और पर्यायोंको छोड़ता नहीं है तथा अन्य द्रव्यों गुण पर्यायों को लेशमात्र भी छूता नहीं है। स्थापक कोई उपाय नहीं है । अवस्तुभूत वासनाओंसे कोई कार्य नहीं पनेको बौद्ध सिद्ध नहीं कर सकते हैं। इस कारण उपयोग स्वरूप आत्मद्रव्य के ही मोक्षमार्गको जानने की इच्छा होना सम्भव है । चेतना के समवाय और ज्ञानयोगसे ज्ञानवानूपनेकी व्यवस्था होने लगे तो आकाश, षट आदि पदार्थ भी ज्ञानवान् हो जायेंगे, कोई रोकनेवाला नहीं है । प्रामाणिक प्रतीतियों से आत्माको ही चेतनपना सिद्ध है। आत्मायें रहनेवाला ज्ञान अपनेको स्वयं जानलेता है । उसको जानने के लिये दूसरे ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है। इस बातको बहुत युक्तियों से आचार्य महाराजने पुष्ट किया है ।
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बौद्धोंके पास इसका व्यव होसकता है। एकसंतान
प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और ममिति ये चार स्वतंत्र तत्त्व नहीं हैं। प्रमाता मी प्रमेय होजाता है और प्रमाण भी प्रमेय तथा प्रमितिरूप है । अपनी आस्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ज्ञान होजाता है ।
ज्ञान और आत्मा सभी प्रकारोंसे परोक्ष यही है। मीमांसकोको धर्मके प्रत्यक्ष होजाने पर उससे अभिन्न धर्मीका भी प्रत्यक्ष होना अवश्य स्वीकार करना पडेगा ।
प्रमाण ज्ञान और अज्ञाननिवृत्तिरूप फलज्ञान ये दोनों अभिन्न हैं। हां ! प्रमाणज्ञानसे दान, उपादान, बुद्धिरूप फलज्ञान भिन्न है । द्रव्यदृष्टिसे यहां भी अभेद माना जाता । अतः मीमांकोंका परोक्षरूप से माना गया करणज्ञान व्यर्थ पड़ता है। ज्ञानके परोक्ष होनेपर अर्थका प्रत्यक्ष होना नहीं बन सकेगा, सर्व ही मिथ्या या समीचीन ज्ञान अपने स्वरूपकी प्रमिति करनेमे प्रत्यक्ष . प्रमाणरूप हैं । आत्मा उपयोगवान् नहीं, किंतु उपयोगस्वरूप ही है । इस अपेक्षा से प्रत्यक्ष है तथा प्रतिक्षण नवीन नवीन परिणाम, असंख्यात प्रदेशीपना, आदि धर्मोकर के छद्मस्थों के ज्ञेय नहीं हैं । अतः परोक्ष भी है ।
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आत्मा सांख्योंके मतानुसार, भकर्ता, अज्ञानी, सुखरहित नहीं है । गाढनिद्रामें सोती हुयी मा भी ज्ञान विद्यमान है । मत्त मूर्छित अवस्थाओं में भी आत्माके ज्ञान है । ज्ञानके अनित्य होनेसे उससे अभिन्न आत्मद्रव्य भी अनित्य हो जायेगा। इस प्रकारका भय सांख्योंको नहीं करना चाहिए | क्योंकि अनित्य भोग, उपभोगों के समान ज्ञानसे " अभिन्न होता हुआ आला मी नित्यानि - त्यात्मक है । उत्पाद व्यय और प्रौव्यरूप परिणाम हुए बिना पदार्थों का सत्व ही नहीं रह पाता है । यदि अन्य बना रहे तो नाश होना बहुत अच्छा गुण (स्वभाव) है । इस प्रकार ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगरूप परिणामोंको धारण करनेवाले किसी जीवमे संसार के कारण मोह आदि कर्मों के नाश हो जानेपर संसारका स हो जाता है। जिसका संसार नष्ट हुआ है, उसने पूर्व समय
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सवा चिन्तामणिः
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मोक्षमार्गको जाननेकी इच्छा की थी और वह जीव सिद्ध भवस्था अनंत काम तक रहेगा। यह व्यवस्था स्याद्वादसिद्धांतमें ही बनती है। अनेक अतिशयोंको छोडना और अनेक चमत्कारोंका कारण करना यह परिवर्तन आलाको अनेकांत स्वरूप माननेपर सिद्ध हो जाता है, जिस जीवके काललब्धि प्राप्त हो गयी है, काँका भार लधु हो गया है, उसके मोक्षमार्गको बाननेकी इच्छा हो . जाती है । वह विनीत भव्य जीव, महात्मा मुनींद्रपुरुषोंसे उपदेशको प्राप्त कर उसकी साधना
करता हुआ इष्ट पदको प्राप्त कर फेता है। जिज्ञासा, संशय प्रयोजन वादिसे विशिष्ट शिष्यको उपदेश दिया जाता है। किंतु उपदेश सुननेवाले के विज्ञासाका होना अस्थावश्यक कारण है।
भाचार्यने मोक्षका कथन न करके मोक्षमार्गका कथन प्रथम क्यों किया : इसपर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि प्रायः सम्पूर्ण धादियों के यहां आत्माकी शुद्ध अवस्थाका हो जाना मोक्ष इष्ट किया है। मोक्षको सबने मान्य किया है।
मोक्ष सामान्यके विषय विशेष विवाद नहीं है। अर्थात् मोक्षको मायः सर्व संप्रदायवाले इष्ट करते हैं। परंतु मोक्षके मार्गके संबंध विवाद है। कोई भक्ति से मुक्ति, और कोई शानसे मुक्ति और कोई कर्मसे मुक्ति, इस प्रकार एकांतसे मानते हैं। अतः शिष्यको मोक्षमार्गके जाननेकी इच्छा उत्पन्न हुयी है। जो शूल्यवादी या उपप्लववादी मोक्षको सर्वथा स्वीकार नहीं करते हैं, उनको इस ग्रंथके अध्ययन अध्यापन करनेमें अधिकार नहीं है । मोक्षको हम आगमसे भी आन लेते हैं। जैसे कि पञ्चाङ्ग द्वारा या गणितके नियमोंसे सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, संक्राति भाविको जान लेते हैं। आगमको प्रमाण माने विना गूंगे और बोलनेवाले कोई अन्तर नहीं है । आगमको प्रमाण माने बिना कोई भी प्रकृष्ट विद्वान् नहीं बन सकता है । पेटमसे निकलते ही कोई, पण्डिस नहीं हो जाते हैं । जिन्होंने जन्म लेते ही श्रुतज्ञानप्राप्त कर लिया है, उन्होंने मी पूर्वजन्ममें आगमका बहुत अभ्यास किया था। " यही मेरे पिता हैं । इस ज्ञानको करनेके लिये आधुनिक युगमें मातृशक्यके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है। नास्तिकोंको भी आगमकी शरण लेनी पडती है । निदोष वकासे कहा गया आगम प्रमाण है । अनुमान प्रमाणसे मी मोक्ष बाना बा सकता है । अतः निकटभव्य जीवके मोक्षमार्गको जाननेकी उस्कट भभिलाषा होनेपर सूत्रका अवतार करना अत्यावश्यक है । परोपकार करनेवाले आचार्य महाराज अनेक विवादोंका निराकरण करते हुए शिष्यकी अभिलाषाको पूर्ण करनेकेलिये “ सम्यग्दर्शनहानचारित्राणि मोक्षमार्गः " इस चिन्तामणि रस्नस्वरूप सूत्रका प्रकाश करते हैं
सिद्धान्तनास्त्रोदधिसाररला । सस्वार्थपत्रात्स्वपरात्मनीना ॥ राप्तिाचानि बुधाः प्रपछ । युजन्तु निर्वाणपयवेके ॥१॥
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वत्या चिन्तामणिः
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सूत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणे मोक्षमार्गः ॥ १॥
जीव आदिक तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और तत्वोंको कमसी, बढती नहीं, किन्तु यथार्थरूपसे जानना सम्पाज्ञान है तथा आत्माका अपने स्वभाव, आचरण करना सम्यकचारित्र है। प्रतिपक्षी कौके आघातरहित इन तीनों गुणोंकी तादात्म्य सम्बन्धसे आत्माके माय एकता हो जाना ही मोक्षका मार्ग है अर्थात् ये तीनों मिलकर मोक्षका एक मार्ग है ।
तत्र सम्यग्दर्शनस्य कारणभेदलक्षणानां वक्ष्यमाणस्वादिहोदेशमात्रमाहः
उन सीन गुणों से पहिले सम्यग्दर्शन के कारण, भेद और लक्षणोंको अग्रिम अन्बमें कहेंगे । यहां केवल नाम कहनेकी परिभाषाको कहते हैं । सुनिये।
प्रणिधानविशेषोत्थद्वैविध्यं रूपमात्मनः।
यथास्थितार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमुद्दिशेत् ॥ १॥
स्वच्छ चित्तकी एकाग्रताके विशेषसे उत्पन्न हुआ है दो प्रकारपना जिसमें ऐसा जैसेके तैसे विधमान होरहे भोंका श्रद्धान करनारूप आत्माके स्वभावको सम्यग्दर्शन कहना चाहिये ।
प्रणिधान विशुद्धमध्यवसाने, तस्य विशेषः परोपदेशानपेक्षत्वं तदपेवत्वं च तस्मादुस्था यस्प तत्प्रणिधानविशेषोत्थम् । विधे प्रकारी निसर्गाधिगमजविकल्पाघस्य तद्विविधम्, तस्य भावो द्वैविध्यम, प्रणिधानविशेषोत्थं वैविध्यमस्येति प्रणिधान विशेषोत्यद्वैविध्यम्, तच्चात्मनो रूपम् ।
इस कारिकाका समास, तद्धिप्त, वृत्तियोंसे स्पष्ट अर्थ करते हैं-प्रणिधानका मय शुद्ध निदोष रूपसे अध्यवसाय करना है। उसकी विशेषता दूसरोंके उपदेशकी अपेक्षा नहीं होनेसे और उन सचे गुरुओंके उपदेशकी अपेक्षा करनेसे दो प्रकार हो जाती है। उस विशेषतासे है उससि जिसकी वह " प्राणिधानविशेषोत्व " हुमा । स्वभावसे उत्पन्न हुए और परोपदेशसे उत्पन्न हुए भेदसे, दो हैं। विध अर्थात् प्रकार जिसके उसको द्विविध कहते हैं । उस द्विविधका जो माद अर्थात् परिणमन है, वह द्वैविध्य है । प्रणिधान विशेषसे उत्पन्न हुआ है वैविध्य इस श्रद्धानका इस कारण यह प्रदान प्रणिधानविशेषोत्पविष्य है ऐसा जो आत्माका स्वरूप है, वह सभ्यग्दर्शन है । परोपवेशके अतिरिक्त जिनमहिमदर्शन, देवऋद्धि दर्शन, वेदना, जातिस्मरण, आदि कारणोंको यहां निसर्ग शब्दसे लिया गया है। यदि निसर्गका मूल अर्थ स्वमाव पकड़ा जाय तो विना कारण समी जीवों के सम्यग् वर्शन उपब जाने का प्रसा माजावेगा ।
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तस्वाचिन्तामणिः :
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यथास्थितायस्तित्वार्थास्तेषां श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिहोद्देष्टव्यं तथैव निर्दोषवक्ष्यमाणत्वात् ।
जिस प्रकार अपने अपने गुण, पर्याय, अविभागपतिच्छेद, अर्थक्रिया आदि धर्मोसे पदार्थ ठौक स्थित हो रहे हैं, उसी प्रकार को डावे व मानार्थ हैं : हा तत्त्वार्थोका जो श्रद्धान करना है, इस प्रकरण में जैन दर्शनकी संकेतप्रणाली ( परिभाषा ) के अनुसार उसे सम्यग्दर्शनके नामसे कहना चाहिये । क्योंकि उस ही प्रकारसे सम्यादर्शनका दोषरहित निरूपण आगे करनेवाले हैं। यहां कर्मधारय, बहुव्रीहि समास और प्य प्रत्ययके द्वारा सम्यादर्शनके नाममात्रकी प्रतिपादक कारिकाका स्पष्टीकरण कर दिया है । जो कि सम्यग्दर्शन शब्दकी निरुक्तिसे ही अर्थ निकला है।
सम्यग्शानलक्षणमिह निरुक्तिलभ्य व्याचष्टेः
इस प्रकरणमें प्रकृति, धातु, और प्रत्ययसे बने हुए शब्दकी निरुक्तिसे प्राप्त होरहे सम्यग्ज्ञानके लक्षणका व्याख्यान करते हैं
स्वार्थीकारपरिच्छेदो. निश्चितो बाधवर्जितः ।
सदा सर्वत्र सर्वस्य सम्यग्ज्ञानमनेकधा ॥ २ ॥ . सब काल, सब देश और सम्पूर्ण व्यक्तियोंको बाधासे रहित होते हुए स्वयं ज्ञानको और अर्थको आकार सहित निश्चित रूपसे जानना सम्यग्ज्ञान है और वह अनेक प्रकारका है । यहां आकारका अर्थ विकल्प करना या स्वपरपरिच्छेद करना है जो कि अन्य गुणों में नहीं पाया जाकर ज्ञानगुणमै ही पाया जाता है।
परिच्छेदः सम्यग्ज्ञानं न पुनः फलमेव ततोऽनुमीयमानं परोक्षं सम्यग्ज्ञानमिति तस्य निराकरणात् ।
अपनी प्रत्यक्षरूर ज्ञाप्ति करानेवाले करणरूप ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं किंतु फिर फलरूप ज्ञानको ही सम्यग्ज्ञान नहीं कहते हैं । मीमांसकोंने ज्ञानजन्य ज्ञाततारूप फलसे परोक्ष ज्ञानका अनुमान होजाना माना है । ऐसे उस सर्वथा परोक्ष ज्ञानका जैनियोने निराकरण कर दिया है। जैनोंने स्वांशमें सम्पूर्ण ज्ञानोंका प्रत्यक्ष होना इष्ट किया है । भावार्थ-स्वग्रहणकी अपेक्षा सर्व ही ज्ञान प्रत्यक्ष हैं कोई ज्ञान परोक्ष नहीं है। " भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिङ्गवः ॥ प्रेसा श्री समंतभद्राचार्यका प्रमाण वाक्य है ।
स चाकारस्य भेदस्य न पुनरनाकारस्य किञ्चिदिति प्रतिभासमानस्य परिच्छेदः तस्थ दर्शनत्येन वक्ष्यमाणत्वात् । . . . . . ...
. और वह घट, पट आदि विशेषरूप आकारका विकल्प करते हुये परिच्छेद करना, सम्यरज्ञान है, किंतु फिर बालक या गूंगे मम्मज्ञानके समान पदार्थाका कुछ कुछ सामान्य झालोरन
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः .
करनेवाले आकाररहित चेतना करनेको सभ्याज्ञान नहीं कहते हैं। क्योंकि उस सामान्य आलोचनको आगे ग्रंथम दर्शनोपयोग रूपसे स्पष्ट कहनेवाले हैं। बालक या गूगेका देखना, चाखना, भी ज्ञान है। केवल दृष्टांत देदिया है। कुछ है, वह भी अनध्यवसाय ज्ञान है । जो कुछ विकल्प किया जायगा ज्ञान ही पड़ जायगा । निर्विकल्पक सामान्य आलोचनको दर्शन कहते हैं । वह अवाच्य है। ___ स्वाकारस्यैव परिच्छेदः सोऽर्थाकारस्यैव वेति च नावधारणीयं तस्य तनप्रतिक्षेपात् ।
कोई बौद्ध मतानुयायी योगाचार कहते हैं कि ज्ञान अपने ही आकारका परिच्छेद करता है, बहिरग विषयोंको नहीं जानता है, तथा किन्ही अन्य वादियोंका यह सिद्धांत है कि वह परिच्छेद् अर्थोके आकारका ही है । स्वयं ज्ञानको ज्ञान नहीं जान सकता है। क्योंकि अपने अपने आप क्रिया करनेका विरोध है। बलवान् पुरुष भी ठेलेपर बैठकर स्वयं ठेलेको नहीं ठेल सकता है, चक्षु स्वयं अपनेको नहीं देख सकती है, रसना इंद्रिय स्वयं अपना रस नहीं चखती है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार इन दोनों एकांतोंका निश्चय नहीं कर लेना चाहिये । श्योंकि उस अकेले ज्ञान या ज्ञेयको ज्ञानका वह विषयपना दूर हटा दिया गया है । इस जगत्में अकेला ज्ञान ही तत्त्व है या ज्ञेय ही तत्त्र है, सो नहीं है। क्योंकि दोनों तत्त्व विद्यमान हैं। इनका अविनाभाव संबंध है, एकका निषेध होनेपर दूसरेका भी निषेप हो जावेगा। तथा च शून्यवाद छाजावेगा। दीपक या सूर्य जैसे अपना
और परका प्रकाश करते है, वैसे ही ज्ञान भी अपना और परका प्रतिमास करता है, तभी तो कारिकामे अपनेको और अर्थको उल्लेख कर जाननेवाला ज्ञान कहा है। ज्ञानमें अपना और अर्थका विकल्प होता है। : संशयितोऽकिश्चित्करो वा स्वार्था कारपरिच्छेदस्तदिति च न प्रसज्यते, निश्चित इति विशेषणात् । .
। 'संशयरूपको प्राप्त हुआ अथवा कुछ भी प्रमितिको नहीं करनेवाला ऐसा अनध्यवसाय रूप ज्ञान मी अपने और अर्थके कुछ सच्चे, झूठे, आकारोंको जान रहा है, इसको उस सम्यज्ञानपनेका प्रसंग न हो जावे, इस निमित्तसे सम्याग्ज्ञानके लक्षणमें निश्चय किया गया ऐसा विशेषण दिया है। ऊपर कहे गये संशय और अनध्यवसाय ज्ञान निश्चयरूप नहीं है। यों मिख्याज्ञानोंसे भी स्वपर परिच्छित्ति हो रही मानी गयी है। - विपर्ययात्मा स तथा स्थादिति चेन्न, बाधवर्जित इति वचनात, बाधकोत्पसे। पूर्व स एव तथा प्रसक्त इति चेय, सदेति विशेषणात् ।
दो मिथ्याज्ञानोंका तो निश्चित रीतिसे वारण कर दिया। किंतु सीपमै चांदीको जानना यह विपर्ययस्वरूप झान भी अपनेको और अर्थको जानता है, इस कारण वह भी इस प्रकार सम्यग्ज्ञान हो जाबेगा, ऐसा कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि हमने सम्पज्ञान के लक्षणों " बात्राओंसे रहित "
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तत्वार्थचिन्तामणिः
ऐसा विशेषण कहा है। सीपमें चांदीको जाननेवाले ज्ञानमें उत्तर कालमें बाधा उत्पन्न हो जाती है। कि यह चांदी नहीं है किंतु मीप है ।
यदि यहां कोई इस प्रकार कहे कि सीपमे चांदीका ज्ञान या लेजने सर्पका ज्ञान भी बाघक प्रमाणों की उत्पत्ति के पहिले तो बाधकरहित होकर स्वार्थीको जानते ही हैं। भतः उन विपर्यय ज्ञानों को भी उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान बननेका प्रसंग आवेगा, सो यह कटाक्ष भी ठीक नहीं है । क्योंकि हमने सम्यग्ज्ञानके लक्षण में सदा ऐसा पद दे रखा है । इस कारण दोषका कारण हो गया, जो सर्वदा ही बाधाओंसे रहित है, वह सम्यग्ज्ञान होता है । कमी कभी बाधा नहीं होनेका कोई महत्व नहीं है । चोर या व्यभिचारी कभी कभी पाप करते हैं, सदा नहीं। किंतु तादृश माव बने रहने से वे दूषित ही समझे जाते हैं । अणुव्रती नहीं ।
कचिद्विपरीतस्वार्थाकारपरिच्छेदो निश्चितो देशांवरगतस्य सर्वेदा तद्देशमबामुवत: सदा बाघवर्जितः सम्यग्ज्ञानं भवेदिति च न शङ्कनीयम् सर्वत्रेति वचनात् ।
किसी देश में और अर्थ आकारको परिच्छेद करनेवाला निश्वयात्मक विपरीत ज्ञान हुआ और वह मनुष्य तत्काल देशांतरको चला गया तथा सर्वदा जन्मभर भी वह मनुष्य उस देशमें प्राप्त नहीं हुआ | रेलगाडीनें बैठकर चले जाते हुए देवदखको दूरवर्ती फांसो में जलका ज्ञान हुआ उस समय उसको जलकी आवश्यकता भी न भी और दौडती हुयी गाडीसे उतरना भी नहीं हो सकता था जिससे कि जलके प्रदेशमें जानेपर उसको बाधकप्रमाण उत्पन्न हो जाता । पश्चात् उसको उस मार्ग से जानेका कोई प्रसंग भी नहीं आया और न देवदत्तने किसीसे उसकी चर्चा ही की, ऐसी दशा में सर्वदा बाधकरहितपना विशेषण भी घट गया। तब तो यह भ्रमज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाना चाहिये। अंधकार कहते हैं कि इस प्रकार भी शंका नहीं करना । क्योंकि हमने सर्वत्र ऐसा लक्षणमै बोला है । इस कारण उस देशमें नाचा मर्के ही न हो किंतु दूसरे देश जानेकी सम्भावना होनेपर उस व्यक्तिको बाधकप्रमाण अवश्य उपस्थित हो जावेगा । अर्थात् सर्व स्थान बाषकका भाव नहीं रहा ।
कस्यचिदतिमूढमनसः सदा सर्वत्र नाघकरहितोऽपि सोऽस्तीति तदवस्थोऽतिप्रसङ्गः इति चेन, सर्वस्येति वचनात् तदेकमेव सम्यग्ज्ञानमिति च प्रक्षिप्तमनेकधेति वचनात् ।
मम अत्यंत मूर्खता विश्चार रखनेवाले किसी किसी भोंदू मनुष्यके किसी मिथ्याज्ञानमे सर्व काल और सर्वदेशमै बाघकरहितपना भी बन जाता है किसीके जन्मभर और सर्वत्र मिध्याज्ञान होकर उसमें बाक ज्ञान नहीं उपज पाता है। इस कारण वह विपर्ययज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जायेगा । इस प्रकार अतिप्रसन्न दोष वैसा का वैसा ही तदवस्थ रहा। यह कहना भी उचित नहीं है । क्योंकि हमने ज्ञानमें सर्वं जीवों को बाधारहिसपना ऐसा विशेषण दिया है । के आखों को
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तत्वार्थचिन्तामणिः
मींचनेपर सबके लिये अंधेरा नहीं हो सकता है । सभा कोई कोई वादी उस सम्यग्ज्ञानको एक ही प्रकारका मानते हैं। यह मंतव्य भी अनेकघा ऐसा विशेषण कहनेसे खण्डित हो जाता है । भावार्थवह सम्यग्ज्ञान प्रत्यक्ष, परोक्ष या मति श्रुत आदि भेदोंसे अनेक प्रकारका है ।
वत्र निश्चिवत्वादिविशेषणत्वं सम्यग्ग्रहणाल्लब्धम् । स्वार्थीकारपरिच्छेदस्तु ज्ञानग्रहणाव, तद्विपरीवस्य ज्ञानत्वायोगात् ।
उस मोक्षमार्गके प्रकरणमें प्राप्त हुये सूत्रमे दिये गये सम्याज्ञान शङ्कसे ही ऊपर कहा हुमा सम्पूर्ण लक्षण निकल पडता है। निश्चितपना, बाधारहितपना, आदि विशेषण तो शान के साथ लगे हुए सम्यग्पदके ग्रहणसे प्राप्त हो जाते हैं। और ज्ञान पदके ग्रहण करनेसे तो अपने और अर्थके आकारका परिच्छेद करना, यह अर्थ निकल आता है । जो उस अपने और अर्थक परिच्छेद करनेवाले ज्ञानसे विपरीत हैं। उन घट, पट आदिकोंको ज्ञानपनका योग नहीं है। यहां तक सम्यग्ज्ञान शब्दका अर्थ कर दिया गया है। .
सम्यक्चारित्रं मिलतपयलक्षाणा,... अब सम्यक्चारित्र शब्दकी निरुक्तिसे ही जाना जावे, ऐसे सम्यक्चारित्रके लक्षणको कहते हैं
भवहेतुप्रहाणाय बहिरभ्यन्तरक्रिया-1. . विनिवृत्तिः परं सम्यक्चारित्रं ज्ञानिनो मतम् ॥ ३ ॥
सम्यग्ज्ञानी जीवकी संसारके हेतु होरहे मिथ्यादर्शन, अविरति और कषायोंके सर्वथा नाच . करनेके लिये बहिरंग और अंतर क्रियाओंकी विशेषरूपसे निवृत्ति होजाना ही उस्कृष्ट सम्यक् चारित्र माना गया है।
विनिवृत्तिः सम्यक्चारित्रमित्युच्यमाने शीर्पोपहारादिषु स्वशीर्षादिष्यनिवृतिः सम्यक्त्वादिस्वगुणनिवृत्तिश्च तन्माभूदिति क्रियाग्रहणम् ।
सम्यक्चारित्रके लक्षणमे विशेष्यदल केवल विनिवृत्ति ही कह दिया जाता तो इष्टदेवीके सन्मुख शिरको काटकर चढा देने या पगडी, मुखासा ( मुकुटसा) के उतार कर फेंकने अपने सिर, पगडी आदि द्रव्योंकी निवृत्ति अथवा मिथ्यात्वंका उदय आनेपर सम्यक्त्व, प्रशम, आदि गुणोंकी निवृत्ति होजाना भी सभ्याचारित्र हो जावेगा । यह न होवे इसलिये क्रियाका ग्रहण किया है । मावार्थ-क्रियाओंकी निवृत्तिको चारित्र कहते हैं । द्रव्य और गुणोंकी निवृत्तिको नहीं।
बहिःक्रियायाः कायबाग्योगरूपायाः एवाभ्यन्तरक्रियाया एव च मनोयोगरूपाया विनिवृधिः सम्यक्चारित्रं माभूदिति क्रियाया पहिरभ्यन्तरविशेषणम् ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
शरीरके चलने, फिरने, को अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुयी आत्माके प्रदेशकम्परूप काय योग की क्रिया और आय शब्द बननेका कारण भाषावर्गणाको अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश कम्परूप वचनयोगस्वरूप क्रिया, केवल इन दोनों ही बहिरंग कियाओंकी विशेषनिवृत्ति सम्यक्चारित्र न बनावे अथवा संचित या उपार्जनीय मनोवर्गणाका अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशकम्पनरूप मनोयोगस्वरूप केवल अंतरङ्ग क्रियाकी अच्छी निवृत्ति ही चारित्र नहीं बन बैठे, इसलिये क्रियाके बहिरंग और अन्तरंग ये दो विशेषण दिये हैं। भावार्थ-बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही क्रियाओंकी निवृत्तिको चारित्र कहते हैं । मन, वचन. कायके त्रियोगकी अशुम आचरणसे निवृत्तिको सम्यक्चारित्र माना है।
लाभार्थ तादृशक्रियानिवृत्तिरपि न सम्यक्चारित्रं भवहेतुप्रहाणायेति वचनात् ।
कोई दोंगी लाभ, यश और प्रयोजनको गांठने के लिये भी वैसी बहिरंग और अन्तरंग क्रियाओंकी निवृत्ति करलेते हैं । सो भी सम्यक्चारित्र नहीं है । क्योंकि चारित्रके लक्षणमें हमने संसारके कारणोंको भले प्रकार नाश करने के लिये यह वचन कहा है। अर्थलाम और यशाकी प्राप्ति आदिके लिये किये गये योगनिरोध तो आर्ग, रौद्र ध्यान बनते हुए दीर्घ संसारके कारण हो जाते हैं । जो संसारके कारण मिथ्यात्व और कषायके नाशके लिये त्रियोगका निरोष है, वही धर्म्य, शुक्ल ध्यान या शुभ और शुद्धपरिणाम होता हुआ संसारका क्षय करदेता है। मायाचार करना अतीव निन्ध है।
नापि मिथ्याशः सा तद्भवति, ज्ञानिन इति पचनात् , प्रशस्तज्ञानस्य सातिशयबानस्य वा संसारकारणविनिवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य शानवतो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपरमस्यैव सम्यकचारित्रत्वप्रकाशनाद , अन्यथा तदाभासत्वासिद्धः।
वह वैसी क्रियाकी निवृत्ति भी मिथ्यादृष्टी जीवके नहीं हो पाती है। क्योंकि सम्यग्झानी आत्माकी क्रिया निवृत्तिको सम्यक्चारित्र कहा गया है। जिस आत्मा के प्रशंसनीय प्रमाणरूप मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान हैं या अनेक चमत्कारोको धारण करनेवाला उत्कृष्ट केवलज्ञान है और जो आत्मा संसारके कारणोंको सर्वाङ्ग नष्ट करनेके अर्थ पूर्ण उद्यम कर रहा है, उस ज्ञानवान्, मामाके बहिरण और अंतरंग क्रियाओंके विशेषरूपसे नाश हो जानेको ही सम्यक्चारित्रफ्ना पूर्वाचायोंने प्रकाशित किया है, अन्यथा यानी दूसरे प्रकारसे मानोगे तो उस चारित्रका आभासपना सिद्ध हो जावेगा । भावार्थ-मिय्याज्ञानियों का चारित्र तो चारित्रसदृश दीखता हुआ चारित्रामास है। उसमें उक्त विशेषण घटित नहीं होते हैं।
सम्यग्विशेषणादिह ज्ञानाश्रयता भवहेतुमहापाता च लभ्यते, चारित्रशब्दावहिरभ्यन्तरक्रियाविनिवृत्तता सम्पचारित्रस्य सिद्धा, तदभावे तद्भापानुपपत्तेः ।
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तत्त्वार्थे चिन्तामणिः
छोटे सम्यक् चारित्र शब्दसे इतना लम्बा चौडा लक्षणमे कहा गया अर्थ कैसे निकल पडता है ! इस अन्थिको सुलझाते हैं- देखिये, इस सम्यकूचरित्र पदमें पडे हुये सम्यक् इस विशेषण से दो अर्थ निकलते हैं । एक सम्यक्चास्त्रिका धारण करनेवाला सम्यज्ञानी जीव ही है, जो कि मले ज्ञानका आधार है तथा दूसरा अर्थ संसारके देतुओंका नाश करना यह प्रयोजन भी सम्यग्पदसे प्राप्त हो जाता है । और चारित्र शब्दसे बहिरंग और अंतरंग क्रियाओंका विशेषरूप से निवृत्ति हो जाना अर्थ निकला | इस प्रकार सम्यकूचारित्र शब्द से उक्त संपूर्ण अर्थ सिद्ध हो जाता है। उन उक्त विशेषणोंके न घटनेपर चाहे जिस क्रिया निरोधको वह सम्यक्चारित्रपना सिद्ध नहीं हो पाता है।
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सम्प्रति मोक्षशब्दं व्याचष्टेः
उद्देश्य दल पढे हुए तीनों गुणका शब्दशास्त्र के अनुसार निरुक्तिसे सिद्धान्तित अर्थ कर चुके हैं। अब इस समय विधेयदलमें पडे हुए मोक्षमार्गके मोक्षशब्दका श्रीविद्यानंद आचार्य महाराज व्याख्यानरूप अर्थ करते हैं।
निःशेषकर्मनिर्मोक्षः खात्मलाभोऽभिधीयते ।
मोक्षो जीवस्य नाभावो न गुणाभावमात्रकम् ॥ ४ ॥
बाहिरसे आये हुए सम्पूर्ण ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का बंध, उदय, सत्त्ररूप से अनन्त काल तक के लिये नाशकर स्वाभाविक आत्माके स्वरूपकी प्राप्तिको ही आत्माका मोक्ष कहा जाता है । दीपक बुझने के समान मोक्षको माननेवाले माध्यमिक बौद्ध, या शून्यवादियोंके कथनानुसार जीवका सर्वथा अभाव हो जाना, मोक्ष नहीं है । तथा ब्रह्माद्वैतवादियों के मतानुसार अपनी आत्माका खोज खोजाना भी मोक्ष नहीं है । और नैयायिक, वैशेषिकोंके अनुसार ज्ञान आदि गुणोंका नाश होकर केवल आत्माका जड होकर अस्तित्र रहना भी मोक्ष नहीं है। किंतु परद्रव्यका बंघ छूट जाने से शुद्ध चैतन्य, सुख आदि स्वरूप आत्माके स्वभावों की प्राप्ति हो जाना मोक्ष है ।
न कविपयकर्म निर्मोक्षोऽनुपचरितो मोक्षः प्रतीयते स निःशेषकर्मनिर्मोक्ष इति वचनात् । प्रायोग्यलब्धि की अवस्थामै मिथ्यादृष्टि जीवके भी कर्मभार कमी हो जाता है । सम्यग्दष्टिके तो कमौका बोझ और भी अधिक लघु हो जाता है तथा क्षपकश्रेणी अथवा बारहवें गुणस्थानके अंतमें तो कई कमौका क्षयतक भी हो जाता है, ऐसे कतिपय ( कितने ही ) कर्मों के विनाश हो जानेको मुख्यरूपसे मोक्ष नहीं कहते हैं। यह बात प्रमाणोंसे निर्णीत नहीं है। क्योंकि मोक्षके लक्षमें हमने " सम्पूर्ण आठ कर्मों के प्रागभाव के समानकाल रहित ध्वंस हो बाना वह मोक्ष है " ऐसा है । उपशमसम्यदृष्टि या बेदकसम्यग्दृष्टिके मिध्यात्व और अनंतानुबंधी के बंचका प्रागभाव विद्यमान है। चार घातिया कर्मों के नाश हो जाने पर तेरहवे गुणस्थान में जीवन्मुक्त श्रीमहंत परमेष्ठी अपर मोक्ष प्रतीत हो रहा है। मुख्रासे मोक्ष होना तो श्री सिद्धपरमेष्ठी ही में विद्यमान है !
कक्षा
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नाप्यखात्मलाभः स स्वात्मलाभ इति श्रुतेः, प्रदीपनिर्वाणवत्सर्वथाप्यभावश्चित्तसंवानस्य मोक्षो न पुनः स्वरूपलाभ इत्येतन हि युक्तिमत्, तत्साधनस्यागमकत्वात् ।
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और आत्मा स्वाभाविक स्वरूपोंका लाभ न होना भी मोक्ष नहीं है । क्योंकि वह प्रसिद्ध मोक्ष अपने आत्मीय स्वभावोंका लाम होना रूप है, ऐसा आठोपज्ञ शास्त्रों में वर्णन होता चला आ रहा है । इसपर बौद्धों का कहना है कि प्रदीपके वुझ जानेपर जैसे कलिकाका कुछ भी भाग अवशेष नहीं बचता है, सभी अंशोंका नाश हो जाता है, ऐसे ही विज्ञानस्वरूप चित्र आत्माकी ज्ञान ाराका सभी प्रकारले क्षय हो जाना रूप मोक्ष है। किंतु फिर जैनियोंका माना हुआ आत्मा के स्वरू पकी प्राप्ति होना मोक्ष नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार वह बौद्धोंका कहना तो युक्तियोंसे सहित नहीं है । क्योंकि उस आत्मा द्रव्यका सर्व प्रकारसे अमाव हो जाता है । इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई साधक प्रमाण नहीं है और जो कुछ डीला थोथा, प्रमाण आपने दिया है वह arera ar reet समझानेवाला प्रमाण नहीं है । उसमें दिया गया आपका हेतु हेत्वाभास है । साध्या गम नहीं है ।
नापि बुद्धयादिविशेषगुणाभावमात्रमात्मनः सम्वादिगुणाभावमात्रं वा मोक्षः, खरूपलाभस्य मोक्षतोपपत्तेः स्वरूपस्य चानन्तज्ञानादिकदम्बकस्यात्मनि व्यवस्थितत्वात् । और न केवल नैयायिक, वैशेषिकोंके द्वारा माना गया बुद्धि, सुख, आदि विशेष गुणोंका Aaja दो जाना भी आत्माका मोक्ष है । तथा सांख्योंके द्वारा माना हुआ सत्र आदि यानी सत्त्व गुण, रजोगुण और तमो गुणका केवल अभाव भी आत्माकी मुक्ति नहीं है। क्योंकि स्वाभाविक रूपकी प्राप्ति होनेको मोक्षपना सिद्ध है । केवल अभावको ही मोक्ष माना जावेगा तो लोष्ठ, भिति आदि भी मोक्ष होने का प्रसंग हो जायेगा । बुद्धि आदि गुणोंका अथवा सत्त्व आदि गुणोंका ध्वंस कहकर लोष्ठमै अतिव्यासिका वारण नहीं कर सकते हो। क्योंकि नैयायिकोंने ध्वंस और अत्यंतामाव दोनों को ही तुच्छ और स्वभावसे रहित अभाव पदार्थ माना है और वास्तवमें मोक्ष तो भावस्वरूप आत्माकी शुद्ध चिदानंद अवस्था है । अनंतज्ञान, अनंतसुख, क्षायिकसम्यक्त्व और अव्याबाध आदि गुणों तथा अहिंसा, क्षमा, उत्तम ब्रह्मचर्य आदि धर्मोका समुदाय आत्माका स्वरूप है। गुणीसे गुण पृथक नहीं होते हैं । अतः मोक्ष अवस्था में स्वाभाविक परिणतिले युक्त वे गुण आत्मा में व्यवस्थित रहते हैं । अनेक शुद्ध गुणोंसे युक्त आत्मा अनंत कालतक अपने स्वरूप में विराजमान रहता है।
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नास्ति मोक्षोऽनुपलब्धेः खरविषाणवदिति चेत् न, सर्वप्रमाणनिवृत्तेरनुपलब्धेरसिवादागमानुमानोपलब्धेः साधितत्वात् प्रत्यक्षनिवृतेरनुपलब्धेरनैकान्तिकत्वात्, सकलशि
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तत्त्वार्षचिन्तामणिः
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धानामप्रत्यक्षेवर्षेषु सद्भावोपगमात, तदनुपगमे स्वसमयविरोधात्, न हि सांख्यादिसमयेऽसदाचप्रत्यक्षः कश्चिदर्यो न विद्यते ।
___ मोक्ष तत्त्व सर्वथा है ही नहीं (प्रतिज्ञा ) क्योंकि यह प्रमाणोंसे नहीं माना जारहा है ( हेतु ) जैसे कि गर्दभके श्रृंग ( अन्वयदृष्टांत ), इस प्रकार कोई शून्यवादी या चावोंक कहे सो तो ठीक नहीं है। क्योंकि मोक्ष विषयमै सम्पूर्ण प्रमाणोंकी नित्ति नहीं देखी जाती है। इस कारण चाचाकोंका दिया गया अनुपलब्धि हेतु असिद्ध हेत्वाभास है । आगम और अनुमान प्रमाणसे मोक्षकी शति होनेको हम पहिले सिद्ध कर चुके हैं।
यदि आप मोक्षके निषेध करनेमें प्रत्यक्षप्रमाणकी निवृत्ति होना रूप अनुपलब्धि हेतु देगे तो अमावको साधनेके लिये दिया गया आपका प्रत्यक्षनिवृत्तिरूप हेतु व्यभिचारी हो आवेगा। क्योंकि सम्पूर्ण सज्जन वादी प्रतिवादियोंने हम लोगों प्रत्यक्षसे न जाने जावे पेसे अनुमेय और आगभगम्य पदायाँका भी सद्भाव स्वीकार किया है। जिन पदार्थाका प्रत्यक्ष नहीं होता है यदि उनका सदाव न स्वीकार करोगे तो आपको अपने सिद्धांतसे ही विरोध हो जावेगा । सूक्ष्मपरमाणु, दूसरोंकी आत्माएं, भाकाच, पुण्य, पाप आदि पदार्थों को समी स्वीकार करते हैं। सांख्य, वैशेषिक, बौद्ध मादिके सिद्धांतों में हम लोगोंके प्रत्यक्षसे जाने न जावे ऐसे कोई अर्थ है ही नहीं, यह नहीं समझना चाहिये । मावार्थ-सर्व ही सम्प्रदायों में और पदार्थविज्ञान ( साइन्स ) में मी इंद्रियोंके भगोचर होरहे शक्ति, परमाणु भादि अनेक पदार्थ माने गये हैं।
चार्वाकस्य न विद्यत इति चेत् , किं पुनस्तस्य स्वगुरुप्रभूतिः प्रत्यक्षः। कस्यधिप्रत्यक्ष इति चेत्, भवतः कस्यचित्प्रत्यक्षता प्रत्यक्षा न वा । न तावत्प्रत्यक्षा, अतीन्द्रिपत्वात् , सान प्रत्यक्षा चेत् यद्यस्ति तदा तयैवानुपलब्घिरनैकान्तिकी, नास्ति चेत् तर्हि गुर्वोदया कस्यचिदमत्यक्षाः संतीत्यायातम्, कथं च तैरनैकांतानुपलब्धिर्मोक्षाभावं साधयेचतो मोक्षोऽप्रसिद्धत्वाद्यथोक्तलक्षणेन लक्ष्यो न भवेत् ।
यहां कोई कहे कि हम लोगोंके प्रत्यक्षका अगोचर पदार्थ. चार्वाक के सिद्धांसमें विद्यमान नहीं है। चार्वाक तो अकेला प्रत्यक्ष प्रमाण और प्रत्यक्षके विषय पदायाँको ही मानते हैं। इसपर हम जैन पूंछते हैं कि क्या फिर उस चावाकको अपने गुरु बृहस्पति या माता, पिता, और बाबा, पहबाबा, इत्यादि पचासों पीढ़ियों के पुरिखाओंका प्रत्यक्ष है ! बताओ। इस प्रकार प्रत्यक्षके अगोचर पदार्थ भी चार्याकको मानने पड़ेंगे । अन्यथा वह माता पिता की उच्च आचरणवाली संतानसे रहित होकर कार्यकारण भावका भंग करनेवाला समझा जावेगा।
___यदि चार्वाक यों कहे कि हमको व्यक्तिशः अपने गुरुपरिपारी या पुरानी पीढियोंके पुरिसाओंका प्रत्यक्ष न सही, किंत उस कालमें और उस देशमें होनेवाले अनेक प्रत्यक्ष कर्ताओं को उनका
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तस्वाचिन्तामणिः
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प्रत्यक्ष था । इसपर हम जैन पूंछते हैं कि उन पुरिखाओंकी सत्ताको सिद्ध करनेवाला आपके पास कौनसा प्रमाण है ! कहिये न। उस देश और उस कालमें होनेवाले किन्ही किन्ही मनुष्योंकी प्रत्यक्षताका आफ्को प्रत्यक्ष है या नहीं ? बताओ।
पहिले पक्षके अनुसार उन पुरुषोंका प्रत्यक्ष करना आपको प्रत्यक्षरूपसे नहीं दीख सकता है। क्योंकि अन्य पुरुषों में रहनेवाला प्रत्यक्षज्ञान अतीन्द्रिय है | आपकी इन्द्रियों का विषय नहीं है। ___यदि आपके गुरु, पुरिखाओंको देखनेवाले मनुष्यों के प्रत्यक्ष करनेको वर्तमानमें आप प्रत्यक्ष रूपसे नहीं जानते हैं, यह दूसरा पक्ष लोगे तो वे प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षके विषय आपके पुरिखा यदि विद्यमान हैं, तब तो उस ही प्रकारसे आपका दिया गया प्रत्यक्षनिवृत्तिरूप अनुपलब्धि हेतु ध्यमिचारी होगया, और यदि उन पुरुषों के प्रत्यक्ष करनेको आप प्रत्यक्ष नहीं कर रहे हैं, इस कारण वे नहीं हैं, तब व्यभिचार दोष तो निवृत होगया, किंतु आपके गुरु, पावा, पटबाबा, फूफा आदि किसीके भी प्रत्यक्षगोचर नहीं है, यह कहना प्राप्त हुआ। ऐसी दशा, उन आपके गुरु माता पिताओंसे व्यभिचार दोषको प्राप्त हुयी अनुपलब्धि ( हेतु ) मोक्षके अमावको केसे सिद्ध कर सकेगी! बिससे कि प्रमाणोंसे सिद्ध न होमेके कारण ऊपर कहे हुये लक्षणसे मोक्षरूप तत्त्व लक्ष्य न मनसके। भावार्थ-पूर्व पुरुषों के समान मोक्ष मी ममाणोंसे सिद्ध है और उसका लक्षण सम्पूर्ण कर्मसि रहित होकर स्वामाविक गुणोंकी प्राप्ति होजाना है।
को पुनस्तस्प मार्ग इत्याहा
मोक्ष शब्दका निर्वचन करचुके, सो चोखा है। फिर उस मोक्षका मार्ग क्या है ? । मार्ग तो नगर, देश, पर्वत आदिकका हो सकता है। स्वरूपमासिका मार्ग कैसा है ! ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य महाराज उसका स्पष्ट उच्चर कहते हैं
स्वाभिप्रेतप्रदेशाप्तरुपायो निरुपद्रवः । सन्निः प्रशस्यते मार्गः कुमागोंऽन्योऽवगम्यते ॥ ५॥
अपने अभीष्ट माने गये प्रदेश ( स्थान ) की प्राप्तिका विघ्नरहित जो उपाय है, सज्जन पुरुषोंसे वही प्रशंसनीय मार्ग कहा जाता है। उससे मिन्न कुमार्ग समझा जाता है। यह मार्गका लक्षण नगरके मार्ग और मोक्षके मार्ग इन दोनो में घट जाता है । सत्यार्थ विचारा जाय तो मार्गका लक्षण प्रधानरूपसे मोक्षमार्गमें ही घटित होता है । अन्यत्र उपचरित है।
___ न हि स्वयमनभिप्रेतप्रदेशारुपायोऽभिप्रेतप्रदेशाप्रुपायो वा मार्गो नाम, सर्वस्य सर्वेमार्गस्वप्रसा, नापि तदुपाय एव स्रोपद्रवः सद्भिः प्रशस्यते तस्य कुमार्गत्वात् , तथा
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तत्त्वाचिन्तामणिः
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चमार्गेरन्वेषण क्रियस्य करणसाधने पनि सति मार्ग्यतेऽनेनान्विष्यतेऽभिप्रेतः प्रदेश इति मार्गः, शुद्धिकर्मणो वा मृजेर्मृष्टः शुद्धोसाविति मार्गः प्रसिद्धो भवति ।
जो स्वयं अपनेको अभीष्ट नहीं है, ऐसे प्रदेशकी प्राप्तिके उपायको अथवा जो हमको तो अभीष्ट नहीं है, किंतु अन्य लोलुपी जनोंको इष्ट है, ऐसे प्रदेशकी प्राप्तिके उपायको हम सच्चा मार्ग नहीं कहते हैं, अन्यथा यों तो सब ही को सर्व विषयोंके मार्गपनेका प्रसंग हो आवेगा । तथा उस इष्टप्रदेशकी प्राप्तिका विघ्नोंसे सहित उपाय ही सज्जन पुरुषोंसे प्रशंसनीय नहीं है, ओ उपाय बाधाओं से सहित है, वह कुमार्ग है । इस प्रकार चुरादि गणकी " मार्ग अन्वेषणे " इस ढूंढन क्रियारूप अर्थको कहनेवाली मार्गे धातुसे करण कारक अर्थको साधनेवाली व्युत्पत्तिसे करण बन् प्रत्यय करनेपर मार्गे शब्द निप्पन्न होता है । जिससे अभीष्ट प्रदेश ढूंढा जावे, यह मार्ग शब्दका अर्थ हुआ । अथवा अदादि गणकी " मृज् शुद्धौ " इस शुद्धि क्रियारूप अर्थवाली मृज् भातुसे कर्म में घञ्प्रत्यय करने पर मार्ग शब्द बनता है । इसका अर्थ है कि जो शुद्ध है, यानी फांटा, ess आदि उपद्रवोंसे रहित है, वह प्रसिद्ध मार्ग होता है ।
न चैवार्थाभ्यन्तरीकरणात्सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्ग इति युक्तम्, तस्य स्वयं मार्गलक्षणयुक्तत्वात्, पाटलिपुत्रादिमार्गस्यैव तदुपमेयत्वोपपत्तेर्मार्गलक्षणस्य निरुपद्रवस्य कान्तो ऽसम्भवात् ।
श्रीफलक देवके मतानुसार " मार्ग इव मार्गः " ऐसा इवका अर्थ सादृश्यको अंतरंग करके सम्यग्दर्शन आदि मोक्षके मार्ग है अर्थात् जैसे कांटा, कङ्करी, पथरी लुटेरे आदि दोषोंसे रहित मार्ग द्वारा मनुष्य नगर, आम, गृह, उद्यान आदि अभीष्ट स्थानको चले जाते हैं, वैसे ही मिध्यादर्शन, अचारित्र, कुज्ञान आदि दोषोंसे रहित होरहे रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग करके मुमुक्षु जीव मोक्षको चले जाते हैं । अतः रत्नत्रय तो उपमेय है और नगरतक फैला हुआ मार्ग ( पक्की सडक ) उपमान है, यह कहना युक्त नहीं है। क्योंकि वास्तवमै मार्गके लक्षण से युक्त वह स्वयं र
यही है। पटना, कालिकाता आदि मार्गों ( आदम सडक ) को ही उसका उपमेयपना सिद्ध है। पूर्णरूप से उपद्रवरहितपना रक्षत्रयमें है और थोडेसे कण्टक, चोर आदिके उपद्रवोंसे रहितपना पटनाको जानेवाली सडकमें है। जिसमें अधिक गुण होते हैं, वह उपमान होता है, जैसे कि चंद्रमा और न्यून गुणवाला उपमेय होता है जैसे मुख । उपमा अलंकार में स्वच्छ जल उपमान है और मुनिमहाराजका मन उपमेय है, किंतु " मुनिमनसम उज्ज्वलनीर " यहां प्रदीप अकारमे मुनिमद्वाराका मन उपमान है और जल उपमेय है । वास्तवमे यही ठीक भी है। पकरणमे पूर्ण रूप से उपद्रव रहितपना पटना, कानपुरको जाने वाले पंथाओं में नहीं है । असम्भव है। अधिकारियों द्वारा पूर्ण प्रबंध करनेपर भी कतिपय उपद्रव है ही। इसकारण प्रधानपनेसे मोक्षमार्ग ही उपमान है। शेष पंथा
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उस मार्गके कुछ थोडेसे सादृश्य मिल जानेसे उपमेय है। तभी तो मान्य श्रीअफलादेवने शुद्धि अर्थवाली मृजि धातुसे बनाये गये मार्ग शब्दमें अस्वरस प्रकट करके अन्वेषण ( ढूंढना ) अर्थ पाली मार्ग षानुसे मार्ग शब्द निष्पन्न किया है। उन्हें भी मोक्षमार्गको उपमान बनाना अमीष्ट है।
तदेकदेशदर्शनाचत्र तदुपमानप्रवृतेः प्रसिद्धत्वादुपमान पाटलिपुत्रादिमार्गोऽप्रसिद्धस्वान्मोक्षमार्गास्तूपमेय इति चेन, मोमगार्गस्य प्रमाणात प्रसिद्धत्वातं. समुद्रादेरसिद्धस्याप्युपमानवदर्शनात् तदागमादेः मसिद्धस्योपमेयत्वप्रतीतेः, न हि सर्वस्य तदागमादिवत्समुद्रादयः प्रत्यक्षतः मसिद्धाः।
लोकप्रसिद्ध होरहे उस मार्गका एक देश दीखनेसे वहां मोक्षमार्गरूप उपमेयमें सादृश्यको सूचित करते हुए पटना, मथुरा, आदिके मार्गरूप उपमानकी प्रवृत्ति हो रही है। इस कारण पटना, इंद्रप्रस्थ, कानपुर आदिका मार्ग लोकपसिद्ध होनेसे उपमान है और अप्रसिद्ध होनेसे मोक्षमार्ग तो उपमेय है। लोक प्रसिद्धको उपमान कहते हैं और अप्रसिद्ध उपमेय कहा जाता है। आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकार कहोगे सो मी ठीक नहीं है। क्योंकि मोक्षमार्गकी प्रमाणसे प्रसिद्धि हो रही है, बह लोक प्रसिदिसे बढकर है । और अप्रसिद्ध होरहे भी वे समुद्र, पर्वत, बृहस्पति, दुर्ग मादि उपमान होते हुए देखे जाते हैं। जैसे कि यह शास्त्र समुद्र के समान गम्भीर है, यह राया पर्वतके समान उन्नत है, यह विद्वान् बृहस्पतिके सहश है, यह प्रासाद गढके समान हद है, इत्यादि खकों पर जिन मनुष्योंने समुद्र, पर्वत, बृहस्पति, दुर्ग आदिको नहीं भी देखा है, फिर भी उनके सम्मुख ये अप्रसिद्ध पदार्थ उपमान बना लिये जाते हैं और शास्त्र, विद्वान्, कोठी, राजा आदि प्रसिद्धोको उनका उपमेयफ्ना प्रतीत हो रहा है । प्रसिद्ध आगम, विद्वान् आदिकोंके समान वे समुद्र, राजा आदिक पदार्थ समी उपमान उपमेय व्यवहार करने वाले प्राणियोंको प्रत्यक्ष प्रमाणसे प्रसिद्ध नहीं है। फिर भी वे उपमान हैं अर्थात् आगम, विद्वान् आदि उपमेय तो प्रत्यक्षसे प्रसिद्ध होरहे हैं, किंतु समुद्र बृहस्पति, आदि उपमानोंका समीको प्रत्यक्ष होनेका नियम नहीं है।
समुद्रादेप्रत्यक्षस्यापि महखापमानत्वं तदागमादेः प्रत्यक्षस्याप्युपमेयत्वमिति चेत् , ताई मोक्षमार्गस्य महस्वादुपमानत्वं युक्तमितरमार्गस्योपमेयत्त्वमिति न मार्ग इव मार्गोऽयं स्वयं प्रधानमार्गत्वात् ।
समुद्र, पर्वत आदिकोंका यद्यपि सबको प्रत्यक्ष नहीं है, फिर मी महान्, गम्भीर, उन्नत, होनेके कारण समुद्रादिकोको उपमानपना है और प्रत्यक्ष होते हुए भी भागम आदिकोंको उनका उपमेयपना है, यदि ऐसा कहोगे तब तो मोक्षमार्गको भी महान्पना हो जानेके कारण उपमानपना मानना युक्त है। शेष अन्य पेशावरसे कलकचातक जानेवाले चौडे मार्ग ( सडक ) को उपमेयपना ठीक है । इस प्रकार मगरको जानेवाले मार्गके समान यह स्लत्रय मी मोक्षमार्ग है । यो इनके
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तत्वार्थं चिन्तामणिः
अर्थ माने गये सपनेको मध्यमें डालकर मोक्षमार्ग शहूका समास करना प्रशस्त नहीं है । क्योंकि रत्नत्रय स्वयं प्रधान होकर मोक्षका मार्ग है और इसके उपद्रवरहितपनेका अल्प सादृश्य लेकर नगरके मार्ग भी उपमानसे मार्ग मान लिये जाते हैं । वास्तव में यही मार्ग आदरणीय है । उपमान है । शेष सडक गली आदि मार्ग तो इस महान् रत्नत्रयके कुछ समान होनेसे उपमेय हैं
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तत्र भेदविवक्षायां स्वविवर्तविवर्तिनोः ।
दर्शनं ज्ञानमित्येषः शङ्खः करणसाधनः ॥ ६ ॥ पुंसो विवर्तमानस्य श्रद्धानज्ञानकर्मणा । स्वयं तच्छक्तिभेदस्य साविध्येन प्रवर्तनात् ॥ ७ ॥ करणत्वं न बाध्येत वन्हेर्दहनकर्मणा । स्वयं विवर्तमानस्य दाहशक्तिविशेषवत् ॥ ८ ॥
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उन तीनों रत्नस्वरूप मोक्षमार्ग में दर्शन और ज्ञान ये शब्द तो " दृशिर प्रेक्षणे " और ज्ञा अवबोधने " इन धातुओंसे साधकतम करण अर्थको सामनेवाले युद् प्रत्यय करके बनाये
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गये हैं । दृष्टा और ज्ञाता आत्मा परिणामी है और उसके निष् परिणाम दर्शन और ज्ञान हैं। परिणाम से परिणाम सर्वथा भिन्न नहीं है, फिर भी कथञ्चित् मित्र हैं । इस कारण अपने परिणाम और परिणामी में मेदकी विवक्षा होनेपर ज्ञाता, दृष्टा, आत्मा के दर्शन और ज्ञान करण हो जाते हैं । श्रद्धान और जानना रूप क्रियासे जब आत्मा स्वयं परिणमन कर रहा है, उस समय उस आत्माकी कथञ्चित् मित्र मानी गयी वह दर्शनशक्ति और ज्ञानशक्ति उस कर्ता आत्माकी सहकारिणी होकर प्रवर्तती है। जैसे ईधनको जलानेवाली अभिकी दहनशक्तिको दाहक्रियाका करणपना बाधित नहीं है । क्योंकि स्वयं दाइक्रियासे परिणमन करने वाली अमिका विशेष गुण वह दाहक शक्ति सहकारी कारण हो रही है। वैसे ही स्वयं परिणमन कर रहे आत्मारूपी कर्त्तासे ज्ञानको और दर्शनको कथस्वित् मेदकी विवक्षा होनेपर करणपना सिद्ध हो जाता है। लोकम भी देखा गया है कि अपनी शाखाओं के बोझसे वृक्ष टूटता है । अपनी गरमीसे मैथीका शाफ अपने आप झुलस जाता है ।
यथा वन्हेर्दहनक्रियया परिणामतः स्वयं दहनशक्तिविशेषस्य तत्साविध्येन वर्तमा नस्य साधकतमत्वात् करणत्वं न बाध्यते, तथात्मनः श्रद्धानज्ञानक्रियया स्वयं परिणमतः सावियेन वर्तमानस्य श्रद्धानज्ञानशक्तिविशेषस्यापि साधकतमत्वाविशेषात् ततो दर्शनादिपदेषु व्याख्यातार्थेषु दर्शनं ज्ञानमित्येषस्तावच्छ्रद्धः करणसाधनोऽवगम्यते ।
जैसे दाइक्रियासे परिणमन करती हुयी अभिकी विशेष दाहकत्वशक्ति स्वयं उस अभिकी सहायक होकर वर्तरही है, उस दाहकशक्तिको दशक्रिया करने में प्रकर्षता करके कारण होजाने से 66
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
करणपना बाधित नहीं है, वैसे ही श्रद्धान करना और जाननारूप क्रिया करके स्वयं परिणति करते हुए आत्मा के सहकारी कारण बनकर प्रवर्त रहे श्रद्धान और ज्ञान इन दो विशेष गुणों को मी क्रियासिद्धिमें प्रकृष्ट उपकारकपना है, कुछ भी अंतर नहीं है । इस कारणसे निरुक्ति द्वारा व्याख्यान कर दिये गये हैं अर्थ जिन्होंके, ऐसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि पदोंमेंसे पहिले के दर्शन और ज्ञान ये शब्द तो व्याकरणकी रीतिसे करणमें युद्ध प्रत्यय करके साधे गये समझने चाहिये ।
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दर्शनशुद्विशक्तिविशेषसन्निधाने तत्त्वार्थान्पश्यति श्रद्धतेऽनेनात्मेति दर्शनम्, ज्ञानशुद्विशक्तिविशेषसभिधाने जानात्यनेनेति ज्ञानमिति ।
मिध्यात्र कर्मके उदयसे आत्माका सम्यक्व गुण अशुद्ध ( विभावपरिणत ) हो रहा है । दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबंधी कर्मोंके उपशम क्षय और क्षयोपशम होजानेपर वह सम्यग्दर्शन गुण शुद्ध होजाता है । तथा मिथ्यास्य कर्मके उदयकी सहचारितासे ज्ञान गुण अशुद्ध हो रहा था, सम्यग्दर्शन के प्रगट होने पर वह ज्ञानगुण भी शुद्ध होजाता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शनरूप विशेष गुणकी शुद्धिके निकट तदात्मक परिणाम हो जाने पर आत्मा स्वयं तत्त्वार्थो को स्वतंत्रता से देखता है अर्थात् श्रद्धान करता है और सम्यग्दर्शन गुण करके श्रद्धान कर रहा है। इस प्रकार फर्ता में युद्ध प्रत्यय करने पर आत्मा स्वयं दर्शनरूप है और करण युद् प्रत्यय करने पर आत्माका सम्यक्त्व गुण ही सम्यग्दर्शन है । एवं चतुर्थ गुणस्थानसे ऊपर ज्ञानरूप विशेष गुणकी शुद्धताके निकटतम सात्मीभाव हो जानेपर ज्ञानका कर्ता आत्मा ही ज्ञान है और जिससे आला वत्यार्थीको जानता है, वह चेतनगुणकी विशेष आकाररूप ग्रहण करनेकी परिणति भी ज्ञान है, यहापर ज्ञा धातुसे कर्ता और करण युट् प्रत्यय किया है । कतमें भी कचित् कश्चित् युट् प्रत्ययका विधान है। अथवा आत्मा जिस शक्ति करके श्रद्धान करे और जाने वह दर्शन तथा ज्ञान है। इस प्रकार करगर्मे युट् प्रत्यय करके दर्शन, ज्ञान, यों शब्द बनाये गये हैं। यहांतक दर्शन, ज्ञान, शब्दोंकी निरुक्ति कर दी है ।
नन्वेवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातं तच्च विरुद्धमेवेति चेत् न, स्वपरिणामपरिणामिनोर्भेदविवक्षायां तथाभिधानात् दर्शनज्ञान परिणामो हि करणमात्मनः कर्तुः कञ्चनं वन्देर्दहन परिणामवत् कथमन्यथा मिर्दहतीन्धनं दाहपरिणामेनेत्यविभक्तकर्तृकं करणमुपपद्यते ।
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यहां पूर्वोक्त निर्णयपर शंका है कि इस प्रकार तो वहीं आत्मा कती और वही करण है, ऐसा अभिप्राय आया । किन्तु यों वह उक्त कथन तो विरुद्ध ही है। जो ही कर्ता है, वहीं करण नहीं हो सकता है | बढ़ई काठको कुन्हाडेसे छेदता है। यहां तक्षक कर्ता कुठार करण न्यारा है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारकी शंका ठीक नहीं है। क्योंकि अपनी पर्याय और
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तत्वार्थ चिन्तामणिः
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पर्यायवाले परिणामीके मेदकी विवक्षा करनेपर हमारा पूर्वोक्त उस प्रकार कहना है । दर्शन और ज्ञानपरिणाम निश्चयसे करण हैं। ये वादे गम मित्र हैं जैसे कि अभिसे दाहकत्व शक्तिरूप परिणाम किसी अपेक्षा से भिन्न है । कभी कभी मणि, मन्त्र और औषधि के द्वारा अभिकी दाहक शक्ति नष्ट करदी जाती है । किन्तु अभिका शरीर पूर्ववत् स्थिर रहता है । तभी तो यह व्यवहार चला आता है कि अभि अपनी दाहकत्वशक्तिसे जलाती है । अन्यथा यानी यदि अभिको दाहकत्व शक्तिसे भिन्न नहीं माना जावेगा तो अभि ईंधनको दाह परिणामकरके जलाती है, ऐसा नहीं है, मिनकर्ताी जिसका ऐसे करणका प्रयोग करना कैसे सिद्ध हो सकता था ? घोडा अपने वेगसे दौडता है, डेल अपने गौरवसे नीचे गिरता है, ऐसे स्थलों में भी कर्ता से अभिनको ही करणपना माना गया है । घोडेसे वेग और डेलसे भारीपन पृथक् नहीं हैं ।
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स्यान्मतम्, विवादापन्न करणं कर्तुः सर्वथा भिन्नं करणत्वाद्विभक्तकरणवदिति । तदयुक्तम्, हेतोरवीतकालत्वात् प्रत्यचतो ज्ञानादिकरणस्यात्मादेः कर्तुः कथञ्चिभिन्नस्य प्रतीतेः । समवायात्तथा प्रतीतिरिति चेन्न, कचञ्चितादात्म्यादन्यस्य समवायस्य निराकरणात् । पक्षस्थानुमानवाधितत्वाच्च नायं हेतुः । तथाहि - करणशक्तिः शक्तिमतः कथञ्चिदभिन्ना तच्छक्तित्वात्, या तु न तथा सा न तच्छक्तिर्यथा व्यक्तिरन्या, तच्छतिश्वात्मादेः करणशक्तिस्तस्माच्छक्तिमतः कथञ्चिदभिन्ना ।
यहां नैयायिकका यह मत भी होने कि विवाद में पडा हुआ करण कारक तो कर्ता कारकसे सर्वथा भिन्न है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह छह कारकों मेंसे एक कारक है ( हेतु ) जैसे कि काठ छेदनका करणकारक कुठार इस कर्ता तक्षकसे सर्वथा भिन्न हैं ( अन्वय दृष्टान्त ) अंथकार समझा रहे हैं कि इस प्रकार नैयायिकका वह कहना भी उसी कारणसे भयुक्त है। क्योंकि इस अनुमान में दिया गया करण हेतु बाधित हेत्वाभास है। क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा ज्ञान, दर्शन, गौरव, दादsea आदि करण इन आस कोष्ठ और अभि आदिक कर्ताओंसे कथञ्चित् अभिन्न ही प्रतीत हो रहे हैं । अतः प्रत्यक्षप्रमाणसे अभेद ज्ञान होने पर पीछेसे आपका हेतु बोला गया है। साधन कालके व्यतीत हो जानेपर कहे गये बाधित हत्वाभासको अतीतकाल कहते हैं ।
यदि नैयायिक यों कहें कि आत्मासे ज्ञान दर्शन और अमिसे दाइकपना भिन्न हैं, किंतु समवाय हो जाने के कारण वे उस प्रकार एकमएक अभिसदृश दीख रहे हैं, जैसे कि मिश्रीसे मीठापन अभिन्न दीखता है, उसी प्रकार ज्ञानवान् दर्शनवात् आत्मा समवाय संबंध ज्ञाता दृष्टा रूपसे प्रतीत हो रहा है । वस्तुतः गुण और गुणी सर्वथा भिन्न हैं। आचार्य कहते हैं कि यह नैयायिकोका कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि कथञ्चित् तादात्म्य संबंध के अतिरिक्त कोई समवाय संबंध न्यारा है नहीं । निरय एक और अनेकों में विशेषणता संबंध से रहनेवाले ऐसे समवायका
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खण्डन कर दिया गया है । दूसरा दोष यह है कि आपके दिये हुए अनुमानका प्रतिज्ञावाक्य दूसरे अनुमानसे बाधित हो जाता है। इस कारण आपका यह करणस हेतु सद्धेतु नहीं है। किंतु सत्प्रतिपक्ष हेवाभास है। इसी बातको दिखलाते है—करणरूप शक्ति (पक्ष ) अपने शक्तिमानसे कथञ्चित् द्रव्यरूपसे अमिन्न है ( साध्य ) उसकी शक्ति होनेसे ( हेतु ) जो शक्ति अपने शक्तिमान् मावसे उस प्रकार अमिन्न नहीं है, वह तो उसकी शक्ति ही नहीं, जैसे कि अन्य दूसरी व्यक्ति । भावार्य:सर्वथा भिन्न हो जानेके कारण घटकी शक्ति पट नहीं हो सकती है, अथवा सर्वथा अभेदपक्षवादीके मतानुसार घटकी शक्ति स्वयं घट व्यक्ति नहीं हो सकती है। तभी तो कथञ्चित् द्रव्यदृष्टि से अभिन्न और पर्यायदृष्टिसे भिन्नको जैनोंने शक्ति पदार्थ माना है। और आत्मा, अमि, जक आदिको मह कालाकिनी येन शक्ति हैउपन्य ) उस कारण शक्तिमान् आत्मा आदिकोसे कथञ्चित् अभिन्न ही है ( निगमन ) इस निदोष अनुमानसे नैयायिकोंके पूर्वोक्त अनुमानका हेतु सत्सतिपक्ष है।
नन्वेवमात्मनो ज्ञानशक्तो ज्ञानध्वनिदि ।
तदार्थग्रहणं नैव करणत्वं प्रपद्यते ॥९॥
यहां कोई शंका करता है कि जैनोंने शक्तियोंको अतीन्द्रिय माना है और स्वार्थीकारग्रहणको ज्ञान स्वीकार किया है, इस प्रकार आत्माकी ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे जन्य हुयी लब्धिरूप ज्ञानशक्तिमै यदि ज्ञान शब्दकी वृत्ति है, तब तो अर्थग्रहणरूप उपयोगात्मक ज्ञान कथ. मपि करणपनको प्राप्त नहीं हो सकता है। भावार्थ-लब्धिरूप करणशक्ति ही करण बनेगी मोक्षमार्गरूपसे माना गया ज्ञान तो अब करण न हो सकेगा। क्योंकि आप इस समय करपकी सिद्धि करते हुए करणशक्ति पर पहुंच गये हैं।
न धर्थग्रहणशक्तिर्धानमन्यत्रोपचाराव, परमार्थतीर्थग्रहणस्य ज्ञानत्वव्यवस्थितो, तदुक्तमर्थग्रहणे युद्धिरिति, ततो न ज्ञानशक्तौ ज्ञानशब्दः प्रवर्तते येन तस्य करणसाधनता स्याद्वादिना सिध्येत् । पुरुषाद्भिन्नस्य तु ज्ञानस्य गुणस्यार्थप्रमितौ साधकतमत्वात् करपात्वं युक्तम्, तथा प्रतीतोंधकामावात् । भवतु ज्ञानशक्तिः करणं तथापि न सा कत! कथञ्चिदभिन्ना युज्यते । __आत्माकी अर्थोके ग्रहण करनेकी शक्तिको ज्ञान नहीं कहसकते हैं। सिवाय उपचारके, अर्थात् भवस्तुमूत व्यवहारसे भले ही शक्तिको ज्ञान कहते । वास्तधिकरूपसे अर्थके विशेषाकारोंको ग्रहण करनेवालेको ज्ञानपनेकी व्यवस्था हो रही है । वही इमारे न्यायवार्तिक आदि शास्त्रों में ऐसा लिखा हुआ है कि अर्थको ग्रहण करनेवाला गुण बुद्धि है। इस कारणसे ज्ञानशक्तिमें ज्ञान शब्दकी प्रवृत्ति नहीं है, जिससे कि स्याद्वादियोंके मत्रमें उस ज्ञान शब्दको काणसाधन युद् प्रत्यय करने
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पर सिद्धि होजाती, अर्थात् करणमै प्रत्यय करनेसे मोक्षमार्ग में पडे हुए ज्ञानका ठीक अर्थ नहीं निकलता है । और हम नैयायिकों के मत में हो आत्मा से ज्ञानगुण सर्वथा भिन्न है । इस कारण ret मिति जानेसे ज्ञानको कारणपना युक्त I इसी प्रकार प्रतीति होने का कोई बाधक प्रमाण भी नहीं है । अस्तु – जैनों के मतानुसार ज्ञानशकि करण भले ही होजाओ, तो भी वह ज्ञानशक्ति कर्ता से कथञ्चित् अभिन्न है । यह तो जैनोंका कहना युक्त नहीं है, क्योंकि—
शक्तिः कार्ये हि भावानां लान्निध्यं सहकारिणः ।
सा भिन्ना तद्वतोत्यन्तं कार्यतश्चेति कश्चन ॥ १० ॥
नैयायिक ही कहते जा रहे हैं कि कार्यकी उत्पत्ति करने में सहकारी कारणोंकी निकटताको ही हम पदार्थों की शक्ति मानते हैं। वह शक्ति उन शक्तियुक्त पदार्थोंसे और कार्यले सर्वथा भिन्न है, अर्थात् मिमें कोई स्वतंत्र दाहकत्व शक्ति नहीं है, किंतु प्रतिबंधकमण्यभाव विशिष्ट अभिको दाहके प्रति कारणता नियत होजानेसे चंद्रकांतमणिकी सत्ता अभि दाह नहीं कर सकती है, और सूर्यकांत तथा चंद्रकांत मणिके होनेपर या केवल अभिके होनेपर अभिदाह कर देती है। कारण कि उत्तेजकामाव विशिष्ट जो मणि उसका अभाव दाह करनेमें सहकारी कारण माना है, इसी प्रकार मृत्तिका में घट बनने की शक्ति भी कुलाल, चक्र, दण्ड आदि सामग्रीका मिल जाना है। इसके पतिरिक्त जैनियोंसे मानी हुयी अतीन्द्रियशक्ति कोई पदार्थ नहीं है । इस प्रकार कोई नैयायिक कह रहा है।
ज्ञानादिकरणस्यात्मादेः सहकारिणः सान्निध्यं हिशक्तिः स्वकार्योत्पत्तौ न पुनस्तद्वत् स्वभावकृता शक्तिमतः कार्याच्चात्यन्तं भिन्नत्वात्सस्या इति कश्चित् ।
ज्ञान, दर्शन, आदि हैं कारण जिसके ऐसे आत्मा, अमि, आदि पदार्थोंकी अपने कार्योंको उत्पन्न करने में सहकारी कारणोंका सान्निध्य ही शक्ति है, किंतु फिर जैनोंकी मानी हुयी उस शक्तिया पदार्थों के स्वभावरूप की गई कोई अतीन्द्रिय शक्ति नहीं है। क्योंकि वह सहकारिओंका मिल जाना रूप शक्ति अपने शक्तिमान कारणले और कार्यसे सर्वथा भिन्न है, जैसे मृतिकामै घट बननकी शक्ति दण्ड, चक्र, कुलालरूप ही है। वह शक्ति मृत्तिकासे और घटसे सर्वथा न्यारी है, इस प्रकार यहां तक कोई नैयायिक कह रहा था ।
तस्यार्थग्रहणे शक्तिरात्मनः कथ्यते कथम् ।
भेदादर्थान्तरस्येव संबन्धात् सोऽपि कस्तयोः ॥ ११ ॥
अब आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि जब शक्तिको शक्तिमान् से सर्वथा भिन्न आप नैयायिकोंने मानी है तो उस आत्माकी अर्थग्रहण करने में जो शक्ति है, वह आत्माकी शक्ति कैसे कही
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जाती है ! बताओ। क्योंकि दूसरे भिन्न पदार्थोंके समान वह शक्ति भी आत्मासे सर्वभा भिन्न है । जैसे कि सह्य पर्वतकी शक्ति बिन्ध्याचल पर्वत नहीं हो सकती है, वैसे ही आत्मा से भिन्न पड़ी हुई अों महण करनेकी शक्ति भी आत्माकी नहीं मानी जावेगी । यदि भिन्न होते हुए भी विशेष
के वश होकर वह शक्ति आत्माकी हो सकेगी तो बतलाओ कि उन शक्ति और आत्माओंका जोडनेवाला वह विशेषसंबंध भी कौन है ! । भावार्थ:- जैसे धन, पुत्र, गृह, आदि भिन्न होते हुए भी देवदत्त कहे जाते हैं, तद्वत् सहकारी कारणस्वरूप भिन्न शक्तियां भी शक्तिमानोंकी व्यवहृत हो जावेगी, इस नैयायिकके कथनपर आचार्य पूछते हैं कि वह संबंध कौन है ! स्वस्वामिभाव या जन्यजनकभाव अथवा अन्य कोई है ? सो बताओ !
न झात्मनोत्यन्तं भिन्नार्थग्रहणशक्तिस्तस्येति व्यपदेष्टुं शक्या, सम्बन्धतः शक्येति चेत्, कस्तस्यास्तेन सम्बन्धः १
आलासे अत्यंत भिन्न पड़ी हुयी अर्थको ग्रहण करनेवाली ज्ञानशक्ति उस आस्माकी है ऐसा आत्मा आत्मीय व्यवहार नहीं किया जासकता है । क्योंकि बन्ध्या और पुत्रके समान बीचमें सर्वथा मेद पडा हुआ है। यदि किसी सम्बन्धसे स्वस्वामिव्यवहार कर सकोगे तो बतलामो ! अर्थग्रहण शक्तिका आमाके साथ वह कौनसा सम्बन्ध है !
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संयोगो द्रव्यरूपायाः शक्तेरात्मनि मन्यते । गुणकर्मस्वभावायाः समवायश्च यद्यसौ ॥ १२ ॥
इस प्रकरणमें वैशेषिकोंकी गृहव्यवस्था यों है कि कायक सहकारी कारण द्रव्य, गुण और कर्म होते हैं । भावकार्योंके उपादान कारण द्रव्य होते हैं और असमवायिकारण गुण और कर्म होते हैं। अतः वैशेषिकों के मलसे द्रव्यरूप सहकारी कारणोंकी निकटता स्वरूप शक्तिका कार्यके उपादाकारण कहे गये आत्मा संयोगसम्बंध माना है। क्योंकि आपने द्रव्यका दूसरे द्रव्यसे संयोगसम्बंध होना इष्ट किया है। तथा चौवीस गुण और पांच कर्मरूप सहकारी कारणों के सान्निध्य रूप शक्तिका उपादानकारणके साथ वह सम्बंध समवाय माना गया है। आचार्य कह रहे हैं कि यदि आप वैशेषिक ऐसा कहेंगे:
चक्षुरादिद्रव्यरूपायाः शक्तेरात्मद्रव्ये संयोगः संबन्धोऽन्तःकरणसंयोगादिगुणरूपायाः समवायश्थ शब्दाद्विषयीक्रियमाणरूपायाः संयुक्तसमवायः सामान्यादेव विषथीक्रियमास्थ संयुक्तसमवेतसमवायादिदि मतः ।
उक्त वार्त्तिकका व्याख्यान यों है कि चक्षुः इंद्रिय द्वारा घटका प्रत्यक्ष करनेमें संयोग सत्रिकर्ष करणका सहकारी कारण है और आनाका तथा मनका संयोग तो अनवायो कारण होकर
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सहकारी कारण है । आत्मा समवायी कारण है । यहां तेजो द्रव्यरूप चक्षुरिन्द्रिय स्वरूप शक्तिका आत्मा द्रव्यों संयोगसम्बंध हो रहा । इस सम्बंधसे वह चक्षुःशाक्ति आत्माकी बोली गयी है। इसी प्रकार जिव्हा, प्राण आदिके सन्निकोंमें भी लगा लेना, और आरमा तथा मनका संयोग गुण पदार्थ है, इस शक्तिके साथ आत्माका समवाय सम्बंध है । गुणीमें गुण समवाय सम्बंघसे रहता है, अतः समवायके चश आत्माकी शक्ति आत्ममनःसंयोग कही जाती है । कारिका च शब्द पड़ा हुभा है । अतः उक्त दो सम्बन्धोंके अतिरिक्त संयुक्तसमवाय और संयुक्तसमवेतसमबाय आदि सम्बन्धोंका भी समुच्चय होजाता है । जिस समय आत्मा रूपको जानता है, तब अवलम्ब कारण होकर रूपके ज्ञानमें रूप भी सहकारी कारण है। इसी प्रकार रूपत्व, रसत्त्व आदि भी अपने ज्ञानों में आत्माके सहकारीकारण स्वरूप शक्ति बन जाते हैं। आत्मासे संयुक्त घट है और घटमै समय सम्बन्ध से रूप रहता है । अत: आत्माका रूपके साथ संयुक्त समवाय एम्बन्ध है और रूपमें रूपत्व समवाय सम्पन्धसे रहता है। अतः आत्माका रूपत्व के साथ संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध है । नैयायिकोने द्रव्यरूप इन्द्रियोंका भी रूप रस, घटस तथा रूपत्व, रसत्वके साथ संयुक्तसमवाय और संयुक्त समवेतसमवाय सम्बन्ध होना माना है । ऐसे ही समवाय, समवेतसमवाय और विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्ध भी शक्ति और शक्तिमान्के मोजक है, यदि नैयायिक ऐसा मानेंगे
तदाप्यर्थान्तरत्वेस्य सम्बन्धस्य कथं निजात् । सम्बन्धिनोऽवधायेंत तत्सम्बन्धस्वभावता ॥ १३ ॥ सम्बन्धान्तरतः सा चेदनवस्था महीयसी । गत्वा सुदूरमप्यैक्यं वाच्यं सम्बन्धतद्वतोः ॥ १४ ॥ तथा सति न सा शक्तिस्तद्वतोत्यन्तभेदिनी। सम्बन्धाभिन्नसम्बन्धिरूपत्वात्तत्स्वरूपवत् ॥ १५ ॥
तो भी अपने संबंधीसे इस संबंधको भिन्नपदार्थ माननेपर उसको संबंधस्वरूपपना कैसे निश्चित किया जा सकेगा? बताओ। भिन्न पढे हुए संबंधसे दो संबंधी सम्बद्ध मी न हो सकेंगे। भावार्थ ---आत्मा और चक्षुःका संयोगसंबंध आपने इष्ट किया है । वह संयोग आस्माद्रव्यरूप या चक्षुःद्रव्य रूप तो है नहीं। किंतु नैयायिकोंने उसको स्वतंत्र गुण माना है। ऐसी दशा में सर्वथा मित्र पदार्थ हो जानेसे " वह संयोग आस्माका है तथा चक्षुःका है। यह निर्णय कैसे किया जावे ! यदि दूसरे संबंधोंसे प्रकृति संबंधक स्वस्वामि-व्यवहारका निर्णय करोगे तो नही लम्बी चौडी अनवस्था होगी । अर्थात् आत्माकी शक्ति चक्षुः है, इसको संयोग संबंधने जताया और वह संयोग चक्षुःका है, इस बालको समवायने बतलाया, क्योंकि संयोगगुण चक्षुः द्रव्यमें समवाय संबंधसे रहता
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है और वह संयोगका समवाय है । इस संबंध संबंधीपनेको स्वरूपसंबंधने बतलाया | क्योंकि संयोग गुण समवाय स्वरूपसंबंध से रहता है। किंतु यह स्वरूपसंबंध भी संयोग और समवायके समान अपने संबंधियोंसे सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ है, इसकी संयोजनाके लिये भी अन्य संबंधोंकी वही आकांक्षा होती जावेगी । अतः अनवस्था दोष है। संबंध भी तो उन संबंधियोंका सभी कहा जायगा जब कि संबंध दोनों, दीनों में संबंधित हो जायगा। इस दोषके परिहारके लिये बहुत दूर भी जाकर आप नैयायिकों को संबंध हा संयोग पडेगा। इसके अतिरिक्त आपकी कोई गति नहीं है। उस कारणसे ऐसा होनेपर हमारी मानी हुयी शक्ति भी अपने शक्तिमान अत्यंत मिन्न नहीं है । क्योंकि संबंधसे अभिन्न जो संबंधी हैं उन्हीं स्वरूप वह शक्ति है, जैसे कि शक्ति से शक्तिका स्वरूप मिश्र नहीं है । हम स्याद्वादी शक्ति और शक्तिमान्का कथम्बित् तादात्म्यसंबंध मानते हैं। जैन सिद्धांतमें दो प्रकारकी शक्तियां मानी गयी हैं । द्रव्यशक्तियां और पर्यायशक्तियां। उनमें द्रव्यशक्तियां तो जीव चेतना, सुख, सम्यक्त्व तथा पुद्गलमें रूप, रस आदि हैं। ये शक्तियां अनाद्यनंत हैं और पर्यावशक्तियां सादि सांत हैं। जैसे कि जीवकी योगशक्ति संसार अवस्था में पायी जाती है, मोक्षमें नहीं । पुद्गलकी चुम्बक अवस्थामें आकर्षण शक्ति है, लोह पर्याय में नहीं है एवं नमि अवस्थामै दाहकत्व, पाचकत्व, शोषकत्व आदि शक्तियां हैं, वही अमि, जलरूप या पाषाणरूप हो जावे तो वे शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। उन उन पर्याय में दूसरी शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं । पर्याय उत्पन्न हो जाने पर भी अनेक शक्तियां निमित्तोंके द्वारा आती जाती रहती हैं, जैसे कि एक औषधि अनुपान के मेदसे अनेक रोगोंका निवारण कर देती है, ये सभ पर्यायशक्तियां हैं। पकृतमें ज्ञानशक्ति और ज्ञानका भी तादात्म्य संबंध है । इस कारण नैयायिकों का पूर्वोक्त दोष हमारे ऊपर लागू नहीं होता है ।
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- ननु गत्वा सुदूरमपि सम्बन्धतद्वतोर्नैक्यमुच्यते येनात्मनो द्रव्यादिरूपा शक्ति स्वत्सम्बन्धाभिन्नसम्बन्धिस्वभावत्वादभिन्ना साध्यते, परापरसम्पधादेव संबंधस्य सम्बन्धिताध्यप देशोपगमात् । न चैवमनवस्था, प्रतिपत्तुराकांक्षानिवृत्तेः कचित्कदाचिदवस्थानसिद्धेः प्रतीतिनिबन्धनत्वात्तत्वव्यवस्थाया इति परे ।
अनवस्था दोषको हटाने के लिये नैयायिक तादात्म्यके अतिरिक्त दूसरा उपाय रचते हैं । वे अपने पक्षका अवधारण कर कहते हैं कि बहुत दूर भी जाकर हम संबंध और उससे सहित दो रहे संबंधियोंका तादात्म्यरूप अभेद नहीं मानते हैं जिससे कि आत्माकी सहकारी कारणरूप द्रव्य, गुण, कर्म, शक्तियां आत्मा से अभिन्न सिद्ध कर दी जावे और उसमें जैन लोग यह हेतु दे सके कि उनके सम्बन्धसे अभिन्न संबंधियोंके स्वमावरूप वे शक्तियां हैं । भावार्थ- हम शक्ति और शक्तिमानका अभेद नहीं मानते हैं। किंतु संयोग, समवाय, विशेषता स्वरूप आदि उत्तरोत्तर होनेवाले अनेक संबंधोंसे ही सम्बंध के सम्बधीपनेका स्वस्वामिव्यवहार माना जाता है तथा इस
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प्रकार अनवस्था दोष हमारे ऊपर लागू हो जावे सो भी नहीं समझना। क्योंकि समझनेवाले ज्ञाताकी किसी स्वलपर कभी न कभी अवस्थिति हो ही जावेगी। अतः उसकी उत्तशेत्तर सम्बंध कल्पना करनेकी आकांक्षाएं रुक जावेंगी। फिर भी यदि कोई आग्रही अधिक आकांक्षाएं करेगा तो भी सौवीं या पांचसौवी कोटीपर अवश्य निराकांक्ष हो जावेगा अथवा दयाल ईश्वर उसकी जिज्ञासाओंको आगे नहीं बढ़ने देवेंगे, ऐसे समयपर ईश्वर कृपालुता न दिखलाये तो अनेक जीव भोकनेवाले उन्मत्त कुत्तके समान अकालमें मर मिटे होते। देखो, प्रतीतिको कारण मानकर तत्वोंकी व्यवस्था मानी जाती है । एक मनुष्य किसीके मा बाप की परम्पराको पूंछते हुए कही न कही रुद्ध हो ही जाता है । अनवस्थाके हरसे प्रतीतिसिद्ध भिन्न भिन्न तत्त्व तादात्म्य के बहानेसे नहीं टाल दिये जाते. है । अतः जैनोंको शक्तिसे शक्तिमान्का भेद मानना चाहिये, इस प्रकार दूसरे नैयायिक कह रहे हैं।
तेषां संयोगसमवायव्यवस्थैव तावन्न घटते, प्रतीत्यनुसरणे यथोपगमप्रतीत्यभावात, तथाहि
उन नैयायिकोंके यहां पहिले सो संयोग और समवायकी व्यवस्था ही नहीं बरती है, प्रतीति के अनुसार तत्वों की व्यवस्था माने यही तो हमको इष्ट है। आपने संयोग और समवायका जैसा स्वरूप माना है। उसके अनुसार उनकी प्रतीति नहीं हो रही है। इसी बातको विशद रूपसे कहते है--सो सुनो।
संयोगो युतसिद्धानां पदार्थानां यदीष्यते। समवायस्तदा प्रातः संयोगस्तावके मते ॥ १६ ॥
पृथक् पृथक आश्रयों में रहनेवाले युतसिद्ध पदार्थाका संयोग सम्बंध होना यदि आप नयायिक इष्ट करते हैं तो तुम्हारे मत समवाय सम्बंधको संयोगपना प्राप्त हो जावेगा।
कसाव समवायोऽपि संयोगः प्रसज्यते मामके मते ?
वैशेषिक या नैयायिक पूछता है कि मेरे मम समवाय सम्बंधको भी संयोगपनेका प्रसंग कैस होगा ! आप जैन आचार्य बतलाओ ! इस पर आचार्य कहते हैं
युतसिद्धिर्हि भावानां विभिन्नाश्रयवृत्तिता। दधिकुण्डादिवत्सा च समाना समवायिषु ॥ १७॥
नैयायिक मतमे पदार्थोका भिन्न भिन्न आश्रयों में वृत्ति रहना ही युतसिद्धि मानी गयी है। जैसे कि दही और कुण्डीका तथा घट और जलका युतसिद्धि होने के कारण संयोग सम्बंध है। यही युतसिद्धि तो रूप और रूपवान् तथा अवयव और अवयवी इन माने गये समवायियों मी .
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समान रूप से विद्यमान है। भावार्थ- जैसे कुण्ड अपने आधार स्व अवययोंमें रहता है और दधि भी अपने अवयवों में रहता है अथवा घट कपालमें रहता है और जल अपने अवयवों में रहता है । यहां जैसे दो आधार हैं और दो आधेय हैं, वैसे ही रूप में रहता है और पट अपने अवयव तंतुओं में रहता है या कपालोंमें घट रहता है और कपालिकाओं में कपाल रहते हैं। इन समवाय सबंधवाले सम्बंधियोंमें भी भिन्न भिन्न आश्रयोंमें रहनारूप युतसिद्धि देखी जाती है। अतः गुण, गुणी, क्रिया, क्रियावान्, जाति, जातिमान् इनका मी आवेय और आधारका भिन्न भिन्न अधिक रणोंमें रहने के कारण संयोग सम्बंध होजाओ ।
नन्वयुतसिद्धानां समवायित्वात् समवायिनां युतसिद्धिरसिद्धेति चेत् ।
tfs कहते हैं कि अतसिद्ध पदार्थोंको ही समवायीपना है। जिन दो आधार आधेय पदार्थोंसे एक पदार्थ भिन्न दूसरेको नहीं आश्रय मानकर ठहर जाता है, उन दो को अयुतसिद्ध कहते हैं । भावार्थ - - समवाय सम्बंधवालो में आधार आधेय मिलाकर तीन पदार्थ होते हैं और संयोग सम्बंधवालोंमें आधार और आधेय मिलानेसे चार पदार्थ हो जाते हैं । यतः समदायी पदार्थों की भिन्न भिन्न आश्रयमें रहना रूप युतसिद्धि सिद्ध नहीं है । अयुतसिद्धि है। आचार्य कहते हैं कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे तो
तद्वद्वत्तिर्गुणादीनां स्वाश्रयेषु च तद्वताम् ।
युतसिद्धिर्यदा न स्यात्तदान्यत्रापि सा कथम् ॥ १८ ॥
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उन दही, कुंडी, आदि संयोगी पदार्थों के समान ही गुण, क्रिया, अवयत्री, विशेष और सामान्यरूप प्रतियोगियोंकी अपने आधार माने गये गुणी, क्रियावान्, अवयव, नित्य द्रव्य और द्रव्य गुण कर्मरूप अनुयोगियों में वृद्धि है और गुणवान् गुणियोंकी अपने आश्रयों में वृत्ति हो रही है, ऐसी दशामें भी जब समवायियोंकी आप युतसिद्धि नहीं मानते हैं तो अन्य संयोगियों में भी वह श्रुतसिद्धि कैसे मानी जावेगी ! अर्थात् नहीं । विश्वासका कारण युतसिद्धिका लक्षण यहां दोनों स्थानपर घट जाता ही है । केवल तीन, चार, पदार्थ कह देने से न्यायप्रासका उल्लंघन आप नहीं कर सकेंगे। समवायी पदार्थों में भी गहरी गवेषणा करनेपर चार पदार्थ मानने पडेंगे। यद्यपि एक घट अपने रूपकी अपेक्षा आधार है और अपने अवयवोंकी अपेक्षा आत्रेय है । फिर भी वह आधेयता और आधारता धर्म घट न्यारे हैं । अतः शास्त्रमें कहा हुआ युतसिद्धिका लक्षण बराबर समवायियों में घट जाता है । प्रभुताशाली राजाकी न्याय आज्ञाका किसीके स्वीकार न करने मात्र से भंग नहीं हो सकता है। गुण्यादिषु गुणादीनां चिर्गुण्यादीनां तु स्वाश्रये वचिरिति कथं न गुणगुण्यादीनां समवायिनां युतसिद्धिः १ पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिरिति वचनात् तथापि तेषां युतसिरभावे दधिकुण्डादीनामपि सा न स्याद्विशेषलक्षणाभावात् ।
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गुणी, अवयव, आदिकों में गुण, अवयवी आदिकोंकी वृत्ति है और गुणी, क्रियावान् आदिकोंकी तो अपने अधिकरणोंमें वृत्ति है, इस प्रकार समवायसंभवाले गुण, गुणी, अवयव, अक्यमी आदिकोंकी युतसिद्धि क्यों नहीं मानी जाती है ! आपके शास्त्रमै पृथक् पृथक् आश्रयों में आधेय होकर रहनेको युतसिद्धि कहा गया है। उसपर भी उन गुण गुणी आदिकोंकी युतसिद्धिको आप न मानेंगे तो दही और कुण्ड तथा दण्ड और पुरुष आदिकोंको मी वह युतसिद्धि न हो सकेगी क्योंकि उक्त लक्षणके अतिरिक्त युतसिद्धिका दूसरा कोई विशेष लक्षण आपके पास नहीं है और वह लक्षण संयोगी तथा समवायी पदाथमि समानरूपसे घट जाता है।
लौकिको देशभेदश्चेद्युतसिद्धिः परस्परम् । प्राप्ता रूपरसादीनामेकत्रायुतसिद्धता ॥ १९ ॥ विभूनां च समस्तानां समवायस्तथा न किम् । कथञ्चिदर्थतादात्म्यान्नाविष्वग्भवनं परम् ॥ २०॥
शास्त्रमें लिखे हुए लक्षणके अनुसार युतसिद्धिको न मानकर यदि साधारण लोकमै प्रसिद्ध होरहे देशभेदको युतसिद्धि मानोगे अर्थात् लोकमै जिन पदार्थाका भिन्न भिन्न देशमै रहना, प्रसिद्ध हो रहा है, उनका परस्परम संयोग माना जावेगा और जिन पदार्थोंका साधारण जनताको मिन्न भिन्न देशों में रहना ज्ञात नहीं होता है, उनका समवाय मानोगे, ऐसा माननेपर सो रूप, रस या ज्ञान, सुख आदि गुणोंकी भी परस्पर ऐसी युतसिद्धि न होकर अयुतसिद्धि हो जाना चाहिए। क्योंकि उक्त गुण भी एक द्रव्यमें रहते हैं। घटमें जहां रूप है उसी स्थल पर रस है और आला जहां ज्ञान है, वहीं पर सुख भी है। अतः भिन्न देश न होनेके कारपा इनकी युतसिद्धि न हुई। सब तो रूप और रसका तथा ज्ञान और सुखका समवाय संबंध हो जाना चाहिये। नैयायिकोंने इनका समदाय संबंध माना नहीं है। किंतु एक अर्थमें दोनोंका समवाय होनेके कारण एकार्थसमवाय रूप परम्परासंबंध माना है। तथा उस प्रकार लक्षण करने पर आत्मा, आकाश, काल और दिशा इन सम्पूर्ण व्यापक द्रव्योंका परस्परमें समवायसंबंध क्यों न हो जावे? क्योंकि जहाँपर आत्मा है, वहींपर कालद्रव्य है और वहींपर आपने दिशा द्रव्य भी माना है। नैयायिकोंने सबका आधार काल माना है
और आकाश मी सर्व पदार्थ वृत्त्यनियामक संबंधसे रहते हुए माने हैं। अतः जनताके द्वारा मिन्न भिन्न आश्रयका न प्रतीत होनारूर अयुतसिद्धिका लक्षण यहां घट जाता है। किंतु आपने विभु द्रव्योंका अज (नित्य ) संयोग संबंध माना है। किसी किसीने तो नित्य संयोगको इष्ट नहीं किया है। कारण कि जो पदार्थ पहिले प्राप्त न थे, उनका कारणवश मिल जानेका नाम संयोग है। यह धातिपूर्वक समाप्ति रूप संयोगका लक्षण व्यापक द्रव्यों के संयोग नहीं घटता है। ये तो सर्वदासे ही
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परस्परम प्राप्त है। यदि नैयायिक सयबायका लक्षण पृथक् पृथक् न रहना रूप अविष्वाभाव करने वह भी अर्थ के साथ कथञ्चित् तदारमकपने के अतिरिक्त कोई अन्य संबंध नहीं है। जैनोंके तादाम्यसंबंघका ही दूसरा नाम अविश्वग्भार रख लिया गया है ।
लौकिको देशभेदो युतसिद्धिर्न शास्त्रीयो यतः समवायिना युतसिद्धिः स्यादित्ये तस्मिन्नपि पक्षे रूपादीनामेकत्र द्रव्ये विभूनां च समस्ताना लौकिकदेशभेदाभावाद्युतसिद्धेरभावप्रसंगात् समवायप्रसक्तिः।
शास्त्रमे लिखे हुए लक्षणके अनुसार भिन्न भिन्न देशमें रहनेको युतसिद्धि हम नहीं मानते हैं। शास्त्र की युतसिद्धि तो समवायियों में भी घट जाती है। किंतु साधारण बाल गोपाल भी कुण्डी, बेर या माम, पिटारी आदि में आधार और आधेयोंका देशभेद समझ लेते हैं। ऐसे लोकप्रसिद्ध देशभेद वाले पदार्थों की हम युतसिद्धि मानते हैं । शास्त्र के अनुसार भिन्न देशपना मानते होते तब तो समबाय वाले रूप, रूपवान् आदिकोंकी भी युतसिद्धि बन बैठती, इस प्रकार इस नैयायिकके पक्षमे मी रूप, रस, आदिकोंकी एक द्रव्यम तथा सम्पूर्ण व्यापक द्रव्योंकी साधारण लोक द्वारा माने गये देशभेदके न होनेसे युतसिद्धिके तो अभावका प्रसंग हो जावेगा। किंतु अयुतसिद्धि हो जानेसे रूप, रस आदिकोंका या विभु द्रव्योंका परस्परम समवाय सम्बंध होजाना चाहिये, जो कि प्रसन्न नैयायिकोंको इष्ट नहीं है।
अविष्वग्भवनमेवायुतसिद्धिर्षिष्वग्भवनं युतसिद्धिरिति चेत् , तत्समवायिनां कथ श्चित्तादात्म्यमेव सिद्धं ततः परस्याविष्वम्भवनस्यामतीवेः ।
दो सम्बंधियोंके पृथक् पृथक् न होनेको ही अयुतसिद्धि कहते हैं और भिन्न भिन्न हो जानेको युतसिद्धि कहते हैं । जैसे कि अमिसे उष्णता या घटसे रूप न्यारे नहीं किये जासकते हैं, इस कारण इनका समवाय है और पुरुषसे दण्ड या कुण्डसे घेर अलग किये जासकते हैं। अतः इनमें संयोगका कारण युतसिद्धि है । यदि नैयायिक ऐसा कहेगे तब तो उन समवायी पदार्थाका कथश्चित् तादात्म्य सम्बंध ही सिद्ध हुआ, उस तादात्म्य सम्बंधसे अतिरिक्त अविश्वाभाव पदार्थ कोई न्यारा प्रसीत नहीं हो रहा है। अन्घसर्पबिलप्रवेश न्यायसे आपको स्याद्वादसिद्धांतकी ही शरण लेनी पड़ेगी।
तदेवाबाधितज्ञानमारूढं शक्तितद्वतोः ।
सर्वथा भेदमाहन्ति प्रतिद्रव्यमनेकधा ॥ २१ ॥
गुण, गुणी, आदिकोंका वह कश्चित् तादात्म्य सम्बंध होना ही बाधाओंसे रहित होरहे ज्ञानमें आरूढ हो रहा है। वह शक्ति और शक्तिमानके नैयायिकोंसे माने गये सर्वथा भेदवादको
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चिन्तामणिः
चारों ओरसे नष्ट करदेता है और प्रत्येक द्रव्यमें वह सम्बंध न्यारा न्यारा होकर अनेक प्रकारका है। भावार्थ – अनेक शक्ति और अनेक शक्तिमानोंके तादात्म्य सम्बंध भी अनेक हैं। आपके कल्पित समवाय के समान तादाम्ब सम्बंध एक नहीं है ।
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कथञ्चित्तादात्म्यमेव समवाथिनामेकममूर्त सर्वगतमिहेदमिति प्रत्ययनिमित्तं समवायोsर्थभेदाभावादिति मामस्त, तस्य प्रतिद्रव्यमनेकमकारत्वात्, तथैवाबाधितज्ञानारूढस्वात्, मूर्तिमद्रव्यपर्याय तादात्म्यं हि मूर्तिमज्जायते नामूर्त, अमूर्तद्रव्यपर्यायतादात्म्यं पुनरमूर्तमेव, तथा सर्वगतद्रव्यपर्यायतादात्म्यं सर्वगतम्, असर्वगतद्रव्यपर्यायतादात्म्यं पुनरसर्वगतमेव, तथा चेतनेतर द्रव्यपर्यायतादात्म्यं चेतनेतररूपमित्यनेकधा तत्सिद्धं शक्तितद्वयो: सर्वथा भेदमाइत्येव ।
यदि नैयायिक यों मान बैठें कि जिसको जैन विद्वान् कथञ्चित् तादात्म्यसंबंध कहते हैं, वहीं हमारा समवायी पदार्थोंका समवाय एक है, अमूर्त है, सब स्थानोंपर रहता हुआ व्यापक है और " यहां यह है " अर्थात् घट रूप है, आत्मामें ज्ञान है । इस प्रकार सप्तम्यन्त और प्रथमांत समभिव्याहारकी प्रतीतियोंका निमित्त है । आप जैन भी अपने कथञ्चित् तादात्म्य संबंधको ऐसा ही मानते होंगे । अतः हमारे समवाय और आपके तादात्म्यमें कोई अर्थका भेद नहीं है, केवल शब्दभेद है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकों को नहीं मान बैठना चाहिये। क्योंकि हम वादात्म्यसंबंधको एक नहीं मानते हैं । अनेक संबंधी हो रहे द्रव्यों में रहनेवाले तादात्म्यसंबंध प्रत्येक द्रव्यमें एक एक होकर रहते हुए अनेक प्रकारके हैं । उस दी प्रकार संबंधोंकी अनेकता बाधारहित ज्ञानोंके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतीतिकी शिवरपर चढी हुयी है । जब मूर्तिवाले द्रव्योंकी पर्याय होकर तादात्म्य संबंध जाना जा रहा है, उस समय वह संबंध मूर्तिमान् ही उत्पन्न हो जाता है, अमूर्त नहीं हैं। जैसे कि घटका और रूपका एवं अभि और उष्णताका तादात्म्यसंबंध भी अपने रूप, रस, गंध, स्पर्शवाले संबंधियोंसे अभिन्न होनेके कारण मूर्त हैं, यदि संसारी जीवोंको पुल द्रव्यके गंधकी अपेक्षा मूर्त माना जावेगा तो मूर्त जीवके साथ उसके मतिज्ञान, क्रोध आदिकों का तादात्म्यसंबंध भी मूर्त है । और जब अमूर्त द्रव्योंकी पर्याय होकर वह तादात्म्यसंबंध उत्पन्न होता है, तब तो फिर वह अमूर्त ही बन जाता है, जैसे कि रूप आदिसे रहित हो रहे आत्मामें ज्ञानका एवं कालं द्रव्यमे अस्तित्व, वस्तुत्वका तादात्म्यसंबंध अमूर्त है। तथा जब सर्वत्र लोकालोक या लोकमै व्यापक sent पर्याय होकर तादात्म्य होता है, तब वह तादाम्य भी सर्व व्यापक है, जैसे कि आकाशका महापरिमाणके साथ या केवलिसमुदुघात करते समय श्री जिनेंद्रदेवका स्वकीय केवलज्ञान और अनंतसुखके साथ होनेवाला तादात्म्यसंबंध व्यापक है । और सूब स्थानोंपर नहीं रहनेवाले व्याप्यद्रव्योंकी पर्याय बनकर उत्पन्न होनेवाला तादात्म्य भी फिर असर्वगत ही होता है। जैसे कि वृक्षकी शाखामे बंदरका तो संयोगसंबंध है किंतु बंदर के साथ संयोगका वादा है। क्योंकि संयोग दो या तीन
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
चार आदि में रहनेवाला परिणाम है, या धूपघटके ऊपर देशमें उष्णस्पर्शका तादात्म्य अव्यापक है । उसी प्रकार चेतन और जब द्रव्यों का परिणामविशेष हो रहा तादात्म्यसंबंध भी चेतनरूप और जडस्वरूप है, बद्ध संसारो आत्मा के साथ कर्म नोकर्मके संबंधसे हुयो मतिज्ञान, क्रोध, मनुष्यगति, अज्ञान, लेश्या आदि पर्यायोंका वादास्य संबंध चेतन अचेतन स्वरूप है । इस प्रकार वह तादात्म्यसंबंध अनेक प्रकारसे सिद्ध है । नयायिकों के मत के अनुसार एक नहीं है और न एकांतसे अमूर्त या सर्वगत है किंतु मूर्त और असर्वगत भी है, द्रव्यों में अनेक पर्याये उत्पन्न होती रहती हैं। अतः जिस प्रकारके वे द्रव्य है, उसी ढंगके उनके तादात्म्यसंबंध भी हैं, जैसे नैयायिकों का माना हुआ नित्य, एक हो रहा और अनेकों में रहनेवाला सामान्य पदार्थ कोई स्वतंत्र तत्व नहीं है, किंतु पुगलका सदृशपरिणामरूप सामान्य पुद्गल तत्त्व है और जीवका समान परिणामरूप जीवत्व जाति जीव तत्त्व है, उसी प्रकार तादात्म्यसंबंध मी कोई स्वतंत्र छठा पदार्थ नहीं है । द्रव्य, गुण और पर्यायोंसे अतिरिक्त चौथा पदार्थ संसार मे कोई नहीं है। जिन द्रव्योंका या भावोंका जो संबंध है, वह उन द्रव्य और उन मावस्वरूप ही है । इस प्रकारका कथञ्चित् तादात्म्यसंबंध नैयायिक द्वारा माने गये शक्ति और शक्तिमान्के सर्वथा भेदको सबै प्रकारसे नष्ट कर देता ही हैं । फिर म अधिक चिंता क्यों करें।
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ततोऽर्थग्रहणाकारा शक्तिर्ज्ञानमिहात्मनः ।
करणत्वेन निर्दिष्टा न विरुद्धा कथञ्चन ॥ २२ ॥
कारण आत्माकी विकल्प स्वरूप अर्थग्रहणके संचेतनको धारण करनेवाली शक्ति ही यह ज्ञान मानी गयी है और वही शक्ति ज्ञति क्रियाका करण होकर कही गयी है किसी भी प्रकारसे वह विरुद्ध नहीं है । अर्थात् ज्ञानका और शक्तिका अभेद है तो प्रमाणज्ञान के समान ल रूप शक्ति भी प्रमितिका करण हो जाती है ।
न अन्तरङ्गबहिरंगा ग्रहणरूपाऽऽत्मनो ज्ञानशक्तिः करणत्वेन कथञ्चिन्निर्दिश्यमाना विरुष्यते, सर्वथा शक्तिवद्वतोर्भेदस्य प्रतिननात् ।
ज्ञान, सुख, आला, इच्छा, पीडा आदि अंतरंग पदार्थ और घट, पट, मिति आदि बहिरन पदार्थों को ग्रहण करना रूप आत्माकी ज्ञानशक्ति किसी अपेक्षासे करणपने करके कथन कर दी गयी विरोधको प्राप्त नहीं होती है। क्योंकि शक्ति और शक्तिमान के सर्वथा भेद माननेके पक्षका हमने खण्डन कर दिया है ।
ननु च ज्ञानशक्तिर्यदि प्रत्यक्षा तदा सकलपदार्थशक्तेः प्रत्यक्षत्वप्रसंगादनुमेयत्वविरोधः । प्रमाणभाषितं च शक्तेः प्रत्यक्षत्वम्, तथाहि -ज्ञानशक्तिर्न प्रत्यक्षासदादेः शक्ति
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तस्वाचिन्तामणिः
स्वात् पापकादेर्दहनादिशक्तिवत्, न साध्यविकलदाहरणं पावकादिदहनादिशक्तेः प्रत्यक्षत्वे कस्यचित्तत्र संशयानुपपत्तेः।
यहां मीमांसकोंका स्वपक्ष अवधारण पूर्वक आक्षेप है कि जैन लोग ज्ञानशक्तिका प्रत्यक्ष होना यदि इष्ट करते हैं, तब तो पदार्थों की सम्पूर्ण शक्तियोंके प्रत्यक्ष होजानेका प्रसंग आता है। अतः ये शक्तियां अस्मदादि छद्मयोंको अनुमानसे जानने योग्य हैं इस प्रसिद्ध सिद्धांतका विरोध हो जावेगा, तथा अतीन्द्रिय शक्तियोंका प्रत्यक्ष करखेना इस अनुमान प्रमाणसे बाधित भी है। उसी अनुमानको सष्टरीत्या कहते हैं कि आत्माकी बाननेकी शक्ति (पक्ष ) हम सरीख चर्मचक्षुवाले पुरुषोंके प्रत्यक्षगोचर नहीं है। साध्य ) क्योंकि वह शक्ति है । ( हेतु ) जैसे कि अमि, अन्न, जल आदि की दाहकत्व, पाचकत्र, भूखको दूर करने, प्यासको दूर करनेकी शक्तियां दखी नहीं जासकती हैं, ( अन्वय दृष्टांत ) किंतु दाह होना, पाक होना, मूख मिटजाना, प्यास दूर होना आदि उत्तरकालवी फलरूप कार्योसे शक्तियोंका अनुमान करलिया जाता है। अभिकी दाइकरवशक्तिरूप उदाहरण यहां प्रत्यक्ष न होना रूप साध्यसे रहित नहीं है, यदि आम, अन्न, जल आदिककी दाहकख, क्षुधा निवारकत्व आदि शक्तियोंका प्रत्यक्ष होगया होता तो किसी भी पुरुषको उनमें संशय उत्पन्न होना नहीं बन सकता था। किंतु अनेक कारणों में कार्यके उत्पन्न हो सकनेका संशय बना रहता है। अतः प्रतीत होता है कि कारणोंकी शक्तियां प्रत्यक्षप्रमाणका विषय नहीं हैं। अन्यथा सर्व ही औषधि सेवन करने वालोंको नीरोगता प्राप्त हो जाती। सभी कारण अव्यर्थ होजाते।
यदि पुनरप्रत्यक्षा सानशक्तिस्तदा तस्याः करपज्ञानत्वे प्रभाकरमतसिद्धिा, तत्र करणज्ञानस्य परोक्षस्वव्यवस्थितेः फलज्ञानस्य प्रत्यक्षलोपगमात्, ततः प्रत्यक्षं करणज्ञानमिच्छतां न तच्छक्तिरूपमेषितव्यं स्थाद्वादिभिरिति चेत् , तदनुपपन्नम्, एकान्ततोऽस्मदादिमत्यक्षत्वस्य करणज्ञानेऽन्यत्र वा वस्तुनि प्रतीतिविरुद्धत्वेनानभ्युपगमात्, द्रव्यार्थतो हि ज्ञानममदादेः प्रत्यक्ष, प्रतिक्षणपरिणामशक्त्यादिपर्यायार्थतस्तु न प्रत्यक्षम् , तत्र स्वार्थव्यवसायात्मकंज्ञानं खसंविदितं फलंप्रमाणामित्रं वदतां करणज्ञान प्रमाणं कथमप्रत्यक्षं नाम !
यदि फिर जैन लोग ज्ञानशक्तिका प्रत्यक्ष नहीं होता है, ऐसा मानेगे और उस अप्रत्यक्ष ज्ञानशक्तिको करणरूप ज्ञान मानेगे तबतो हम मभाकर मतानुमायी मीमांसकोंके मतकी सिद्धि हो गयी, क्योंकि वहां मीमांसकोंके मतमें ज्ञप्तिके करणरूप प्रमाणज्ञानको परोक्षपना व्यवस्थित किया है । प्रभाकरोंने शतिरूप फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना स्वीकार किया है उस कारणसे प्रमितिके करण होरहे प्रमाणज्ञानका प्रत्यक्ष होना साहने पाले स्याद्वादी जैनोंको वह करणवान शक्तिरूप इष्ट नहीं करना चाहिये । इस प्रकार स्थाद्वावियोंको झानशक्ति और ज्ञानका मेद मानना ही अनुरूक
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तत्वार्थचिन्तामणिः
पड़ेगा | अब आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकार मीमांसक कहेंगे तो उनका वह कहना सिद्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि अस्मदादिकों को एकांत रूपसे सर्वथा प्रत्यक्ष हो जाना करणज्ञानमें अथवा अन्य घट, पट आदि वस्तुओं में भी स्वीकार नहीं किया गया है। पदार्थों का हम लोगों को पूर्ण रीतिले प्रत्यक्ष हो जाना प्रतीतियोंसे विरुद्ध है। प्रसिद्ध माने गये घट, पट आदिकों का भी हम सर्वाङ्गीण प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं। भीतरका अंश, परलाभाग, सूक्ष्म अर्थपर्यायें और अविमागत्रतिच्छेदों को हमारी इंद्रियां विषय नहीं कर पाती हैं। मांटे द्रव्य पदार्थको दृष्टि ही ज्ञानका हम लोगोंको प्रत्यक्ष होता है। किंतु सूक्ष्मपर्याय पदार्थोंकी दृष्टिसे प्रत्येक क्षणमें परिणमन करती हुयीं शक्तियां, अविभागप्रतिच्छेद, अगुरुलघु आदिका तो हम लोगोंको प्रत्यक्ष नहीं होता है वे केवल ज्ञानके विषय हैं । उस प्रकरण में अपना और अर्थका निश्चय करना स्वरूप ज्ञान है फल जिसका, ऐसे स्वसंवेदन प्रत्यके विषय होरहे ज्ञानरूप फलको प्रमाणसे अभिन्न कहने वाले स्याद्वादियोंके मतमें करणरूप प्रमाणात्मक ज्ञान भला अप्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? भावार्थ -- फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना मानने पर उससे अभिन्न करणज्ञानका प्रत्यक्ष होना न्यायप्राप्त हो जाता है । प्रभाकर फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना माने और उससे अभिन्न होरहे करण ज्ञानका प्रत्यक्ष न मानें यह कैसे हो सकता है ! । यानी अयुक्त है ।
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न च येनैव रूपेण तत्प्रमाणं तेनैव फलम्, येन विरोधः । किं तर्हि १ साधकतमत्वेन प्रभाणं साध्यत्वेन फलम् साधकतमत्वं तु परिच्छेदनशक्तिरिति प्रत्यक्षफलज्ञानात्मकत्वात् प्रत्यक्ष शक्तिरूपेण परोक्षम्, ततः स्यात् प्रत्यक्षं स्यादप्रत्यक्ष मित्यनेकान्तसिद्धिः ।
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यदि यहां कोई कटाक्ष करे कि जिस ही स्वभावसे ज्ञानमें प्रमाणता है और उस ही स्वभावसे ज्ञानमें फलपना भी मानोगे, तब तो उन दोनों विरुद्ध स्वभावका ज्ञानमें रहने का विरोध होगा, सो यह कटाक्ष ठीक नहीं है। जैन लोग जिस ही स्वभावसे प्रमाणपना मानते हैं, उस ही स्वभावसे फलपना नहीं मानते हैं, जिससे कि विशेष होवे, तब तो क्या मानते हैं ! इसका उत्तर सुनिये, प्रमितिक्रिया के प्रति प्रकृष्ट उपकारकपनेसे ज्ञानमें प्रमाणपना है और साघने योग्य प्रयोजन की अपेक्षा से फलपना है, एक मल्ल अपने शरीरके व्यायामसे उस ही शरीरको पुष्ट करलेता है | शरीरमें पुष्ट कराने की अंग उपांगी शक्ति भिन्न हैं और फल रूप पोषण शक्ति निराली है । ज्ञानमें विद्यमान हो रही रूप को और अर्थको परिच्छेदन करने की शक्ति को ही करणपना है । वह ज्ञान, करणरूप प्रत्यक्ष प्रमाणस्वरूप है और ज्ञप्ति रूप फलज्ञान स्वरूप भी है । तहां फलज्ञानकी अपेक्षासे वह ज्ञान प्रत्यक्ष है और करणत्य शक्तिके स्वरूपसे वह ज्ञान परोक्ष है । इस कारण से वह प्रमाणज्ञान किसी अपेक्षा प्रत्यक्ष है और अन्य अपेक्षासे अप्रत्यक्ष यानी परोक्षरूप भी है । इस प्रकार अनेकांकी सिद्धि होजाती है । अनेकांस से तत्त्वकी सिद्धि होरही है । अनेकांतका सर्वत्र साम्राज्य है ।
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वार्थ चिन्तामणिः
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यदा तु ममाणाद्भिनं फलं दानोपादानोपेक्षाज्ञानलक्षणं तदा स्वार्थव्यवसायात्मकं करणसाधनं ज्ञानं प्रत्यक्षं सिद्धमेवेति न परमतप्रवेशस्तच्छतेरपि सूक्ष्मायाः परोक्षत्वात् ।
sive किसीका यह प्रश्न होसकता है, कि अज्ञाननिवृत्तिरूप अभिन्न फलकी अपेक्षा से करणज्ञानमें आपने प्रत्यक्षपना नियत किया, किंतु प्रमाणका त्याज्य पदार्थ में त्याग और ग्रहण करने योग्य उपादान तथा उपेक्षणीय पदार्थ में उपेक्षा बुद्धिरूप फल जब अभीष्ट होगा उस समय तो फलका भले ही प्रत्यक्ष होजाय। किंतु फलसे सर्वथा मित्र माने गये करण ज्ञानका कैसे भी प्रत्यक्ष न हो सकेगा। इसका समाधान इस प्रकार है कि--जब प्रमाणसे छान उपादान और उपेक्षा बुद्धिरूप भिन फल इट किया गया है, तब अपने और अर्थको निम्धय करना स्वरूप और करणमे युट् प्रत्यम करके साधा गया वह ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे प्रत्यक्षरूप सिद्ध ही है । पहिले ज्ञानशक्तिको ही परोक्ष कहा गया था ज्ञानको नहीं । यों भी सर्वथा प्रत्यक्ष मानने पर एकांतपक्ष हो जाने से स्वाद्वादियों के मतमै अन्य एकान्तवादियोंके मतका प्रवेश नहीं हो सकता है । क्योंकि उस ज्ञानकी सूक्ष्म अतीन्द्रिय शक्तियोंका सर्वज्ञके अतिरिक्त किसीको भी प्रत्यक्ष नहीं होसकता है । अतः वह व्यक्तिला ज्ञान जोश भी है।
तदेतेन सर्वे कत्रादिकारकस्वेन परिणतं वस्तु कस्यचित्मत्यक्षं परोक्षं च कत्रादिशक्तिरूपतयोक्तं प्रत्येयं ततो ज्ञानशक्तिरपि च करणत्वेन निर्दिष्टा न खागमेन युक्त्या च विरुदेवि एक्तं ।
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उस कारण इस पूर्वोक्त कथनसे यह बात भी निर्णीत हुयी समझनी चाहिए कि कर्ता कारक, कर्मकारक आदिपने परिणमन करती हुर्बी सम्पूर्ण वस्तुएं मोठे द्रव्यकी अपेक्षा से ही किसी के मी प्रत्यक्ष के विषय हैं। किंतु स्वतंत्ररूप कर्तृत्वशक्ति और बन जानारूप कर्मत्व शक्ति आदि स्वभावोंसे सर्व पदार्थ हम लोगों को परोक्ष है, इस पातको ध्यान में रखना चाहिये । सम्मुख खड़ी हुयी भीतका या चौकीका भी हमको पूर्ण रीतिसे प्रत्यक्ष नहीं है। भावार्थ - घट, पर, भित्ति व्यादि स्पष्ट प्रत्यक्ष के विषय माने गये पदार्थ मी बहुभागों में हम लोगों के प्रत्यक्ष नहीं हैं। इनकी शक्तियों और अविभाप्रतिच्छेदोका हमको अनुमान और आगमसे ही ज्ञान हो सकता है। उस कारणसे करणपने करके कही गयी आत्माकी ज्ञानशक्ति भी श्रेष्ठ सर्वोक्त आगम प्रमाणसे और अनुकूक तर्कवाली युक्तिसे सिद्ध है, विरुद्ध नहीं है। इस प्रकार हमने बहुत अच्छा कहा था कि अपने और अर्बको ग्रहण करवी आमाकी शक्ति ही ज्ञान है और वह मोक्षका मार्ग है ।
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आत्मा चार्थमहाकारपरिणामः स्वयं प्रभुः । ज्ञानमित्यभिसन्धानकर्तृ साधनता मता ॥ २३ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
'तस्योदासीनरूपत्वविवक्षायां निरुच्यते ।
भावसाधनता ज्ञानशब्दादीनामबाधिता ॥ २४ ॥
आत्मा स्वयं अर्थ सविशेष ग्रहण करनेरूप पर्यायको धारण करने में स्वतंत्र रूप से समर्थ होता है, तब वह ज्ञप्ति क्रियाको बनाने में एकाग्र लगा हुआ आत्मा ही ज्ञान है । इस प्रकार विवा होनेपर ज्ञान शब्दकी फर्ता में युद् प्रत्यय करके सिद्धि मानी गयी है । और जब उस आत्माके कर्ता, कर्म, करण पनेकी नहीं अपेक्षा कर वह ज्ञप्ति क्रिया में उदासीनरूपसे विवक्षित होता है, उस समय ज्ञान और दर्शन आदि शब्दोंकी भाव युट् प्रत्यय करके बाधारहित निरुक्ति कर दी जाती है | जाननारूप अपरिस्पंद क्रिया ही ज्ञान है और श्रद्धान करनारूप क्रिया ही दर्शन है। यह मादमै निरुक्ति करनेसे अर्थ निकलता है ।
नतु च बानातीति ज्ञायायेति विवक्षायां करणमन्यद्वाच्यं निःकरणस्य कर्तृत्वायोगादिति चेन्न, अविभक्तकर्तृकस्य स्वशक्तिरूपस्य करणस्याभिधानात् ।
हां शंका है कि कठीयुट् प्रत्यय करने पर जो अर्थों को जान रहा है, वह आत्मा ज्ञान है, ऐसी विवक्षा करने पर आपको कर्ता से भिन्न दूसरा करण कहना पडेगा। बिना करणके कर्ता किसी भी क्रियाको नहीं बनाता है | बसूला के बिना तक्षक ( बदई ) कालको छील, खुरच नहीं सकता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि यहां कर्तासे सर्वथा भिन्न नहीं ऐसे अपनी शक्तिरूप करणका कथन किया है। लोइकी लाठ अपने बोझसे स्वयं लचक रही है । वृक्ष अपने बोझसे स्वयं झुक गया है, इन स्थलोंपर कर्तासे अभिन्न भी करण हो जाते हैं ।
भावसाधनतायां ज्ञानस्य फलत्वव्यवस्थितेः प्रमाणत्वाभाव इति चेत्र तच्छतेरेव प्रमाणत्वोपपत्तेः ।
शुद्ध वात्वर्थ रूप अर्थको प्रगट करने वाले भावमें युद्ध प्रत्यय करके ज्ञान शब्दकी सिद्धि होने पर तो ज्ञानको फलपना व्यवस्थित हो जावेगा। ऐसा होने पर ज्ञानको करणरूप प्रमाणपनेपा अभाव है, यह कटाक्ष तो भी ठीक नहीं है। क्योंकि उस साधकलमपनेकी शक्तिको ही ज्ञानमें प्रमाणपना सिद्ध किया जा चुका है । ज्ञप्तिकिया के प्रतिपादन करते समय भी ज्ञानमें करणपनेकी शक्ति विद्यमान है। तीक्ष्ण तलवार काष्ठको प्रधान रूपसे काट रही है। उस समय पैनापन और कालिम्प शक्ति अप्रगट होकर करणरूपसे काम कर रही है ।
तथा चारित्रशद्वोऽपि ज्ञेयः कर्मानुसाधनः । कारकाणां विवक्षातः प्रवृत्तेरेकवस्तुनि ॥ २५ ॥
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वैसे ही चारित्र शब्दको कर्ममे "मित्र" प्रत्यब करने पर साधा गया समझ लेना चाहिये । "विवक्षातः कारकप्रवृतः " इस नियमके अनुसार पदार्थ में बक्ताकी इच्छासे अनेक कारकोंकी प्रवृत्ति हो जाती है । भावार्थ - घटको जानता है, घटका ज्ञान करता है और घटमें ज्ञान करता है। यहां ज्ञानक्रियाकी अपेक्षा से घटमें अनेक कारकोंकी प्रवृत्ति हो गयी है, गौसे दूध दुहता है, गौका दूध दुहता है, गौको दुहता है, इसी प्रकार आत्माका पर्याय रूप चारित्र गुण भी कर्ता, कर्म, करणपने साथ दिया जाता है। विवक्षा भी कोई झूठ मूंठ नहीं गढली गयी है। किंतु परमार्थ स्त्रीभिति पर विवक्षा खडी की गयी है ।
चारित्रमोहस्योपशमे क्षये क्षयोपशमे वात्मना चर्यैते तदिति चारित्रम् चर्यतेनेन 'चरणमात्रं वा चरतीति वा चारित्रमिति कर्मादिसाधनश्चारित्रशद्धः प्रत्येयः ।
चारित्रमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके होनेपर आत्मा के द्वारा जो चरण ( शुभप्रवर्तन अशुभनिवर्तन ) किया जाय वह चारित्र है । यह कर्म णित्र प्रत्यय करके चारित्र शब्द बनाया गया है अथवा आत्मा जिस करके चरण करे वह भी चारित्र है । यह करण साधन व्युत्पत्ति है। तीसरी निरुक्ति भावसाधन में इस प्रकार है कि कर्म, कर्ता आदिसे कुछ भी सम्बन्ध न रखते हुए केवल चर्या करना ही चारित्र है । अथवा चौथी निरुक्ति चर गतिमक्षणयोः गति और भक्षण अर्थको कहनेवाली स्वादि गणको नर् धातुसे कर्ताने णित्र प्रत्यय करके की गयी है अर्थात् जो स्वतन्त्ररूपसे आचरण करता है, वह आत्मा चारित्ररूप है। इस प्रकार कर्म, करण, भाव, और कर्ता में शब्दशास्त्रसे चारित्र शब्दका साधनकर दिया गया समझलेना चाहिये | भावार्थ - जैन धर्मके अनुसार प्रत्येक वस्तुमें अनेक स्वभाव और परिणाम माने गये हैं। अतः चार क्या, इससे भी अधिक धमकी योजना एक पदार्थमें बन जाती है । लेज ( रस्सी ) बैलको बांधती है । लेजसे बैल बांधा जाता है। लेज स्वयं लेजको बांध रही है। लेख स्वयं बंध रही है । एवं देवदत्त घोढेको भगाता है और घोडा देवदत्तको भगाता है; घोडा स्वयं भाग रहा है ! और उसपर लदा हुआ देवदत्त भी दौड़ा जा रहा है तथा देवदत्त स्वयं दौडता है और उसकी टांगो में फंसे हुए घोडेको देवदत्तके प्रयत्न से दौडना पडता है । वास्तवमे विचारा जावे तो घोडेकी आत्मामें देशसे देशान्तर होनेकी किया ही भाग रही है, किन्तु उस क्रिया परिणामी घोडे शरीर और जीवको मी मालगाडी में लदे हुए मालके समान भागना पडता है । इस प्रकार स्वतंत्रता और परतंत्रता से किये गये परिणामोंके अनेक दृष्टांत है।
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ननु च " भूवादिग्भ्यो णित्र " इत्यधिकृत्य " चरेर्वृत्ते " इति कर्मणि पित्रस्य विधानात् कर्त्रादिसाधनखे लक्षणाभाव इति चेत् न, बहुलापेक्षया तद्भावात् ।
asi पुनः शंका है कि व्याकरण शास्त्र के " भूवादिहम्म्यो णित्र " इस सूत्रका अधिकार लेकर अगले " चरेर्वृद्धे " इस सूत्र करके च धातुसे चारित्र अर्थ में कर्मकारकर्म णित्र प्रत्ययका
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विधान किया है और आपने अमी कर्ता, भाव और करण चारित्र शब्दको साधते हुए भी चारित्र शब्दकी निरुक्ति की है। अतः कर्ता आदि णित्र प्रत्यय करनेवाले लक्षणसूत्रका जब अभाव है तो
पका चारित्र शह कर्ता आदिको कहनेवाला साधु शब्द कैसे हो सकता है ? बताओ । आचार्य कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि बहुलता करके कर्मसे अन्य उन कर्ता आदि भी मित्र प्रत्ययका विधान है। कहीं होना, और कहाँ न होना, कपर विकल्प रूपसे होजाना, काँचत् रूपांतर बनजाना, इस प्रकार बहुलता अनेक प्रकारकी है । मतः कर्ता आदिमें भी मित्र प्रत्यय होजाना व्याकरणशास्त्र से उपपल है ।
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एतेन दर्शनज्ञानशब्दयोः कर्तृसाधनत्वे लक्षणाभावो व्युदस्तः, “ युङ्ख्या बहुलं " इति वचनात् तथा दर्शनाथ, दृश्यते हि करणाधिकरण भावेभ्योऽन्यत्रापि प्रयोगो यथा निरदन्ति तदिति निरदनम्, स्वंदतेऽस्मादिति स्पंदनमिति ।
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इस उक्त कथनसे दर्शन और ज्ञान शब्द में कतमें युट् प्रत्यय सिद्ध करनेवाला कोई सूत्र नहीं है, यह कहना भी खण्डित करदिया जाता है। क्योंकि करण के अतिरिक्त प्राय: अम्य कारकों में भी युट् प्रत्यय करनेका व्याकरण शास्त्रमें सूत्र कहा है । और वैसा अनेक प्रयोगों में देखा भी जारहा है । करण अधिकरण और भावों से अतिरिक्त कारकों में भी युद्ध प्रत्ययका प्रयोग देखा गया है । जैसे कि जो नहीं खाया जाता है उसको निरदन कहते हैं। यहाँ युद्ध प्रस्थ कर्ममें किया गया है और जिससे चहना होवे, उसको स्पंदन (रथ) कहते हैं। यहां अपादान कारकमै युट् प्रत्यय किया है अथवा जिस द्रवपनेसे ( पसलेपन) पानी, तैल आदि पदार्थ महें, वह स्वेदन गुण है । द्यनेककारकात्मकं विरोधादिति चेन्न, विवक्षातः कार
seeज्ञानादि वस्तु काणां मचेरेकत्राप्यविरोधात् ।
एक ही ज्ञान दर्शन अथवा चारित्ररूप आदि वस्तु कर्ण, कर्म, करण और भावरूप अनेक कारकस्वरूप कैसे बन सकते हैं ? क्योंकि विशेष है। जो ही कर्ता है वह करण कैसे होगा ! या फर्म कैसे हो जायेगा ! यह कटाक्ष भी ठीक नहीं है। क्योंकि एक पदार्थमें भी वक्ताकी इच्छा से अनेक कारकोंकी प्रवृत्ति हो जानेका कोई विरोध नहीं है। बांस नटको धारण करता है और नट बांसको धारण करता है। बांस करके नट लेज पर घरा हुआ है और नट करके बोस धारण किया गया है । नट के लिये बांस है और बांसके लिये नट है। नटसे बांस स्थित है और बांससे नट स्थित है । नटपर बांस है और बांसपर नट है। ये सब केवळ शब्दाडम्बर नहीं है। किंतु पदार्थोंकी परिण तिके अनुसार भिन्न भिन्न कारकोंमें वक्ताकी इच्छा होना सम्बन्धित है। दालसे रोटीको खाना और रोटीले दाल खाना भी भिन्न भिन्न परिणामोंपर निर्भर है । बुभुक्षित देवदस स्वतंत्र रूपसे दाल और रोटीको खा जाता है। किंतु कभी कभी वही देवद्रच सुंदर सचित्ररूप सरस दालसे अधिक रोटियों को
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खाता है और कभी वही देवदत्त सुंदर रोटीसे थोडे स्वादवाली अधिक दालको निबटा लेता है । या विचारावे तो भक्षण ही भक्षणको करता है। पूर्व दिनका स्वाया हुआ अन्न पिचामि और कार रूप परिणत हो चुका है । की जानेसे आग राजा है।प्रयत्न करने पर भी खाया नहीं जाता है। विशेष प्यास लगने पर एक विपलमें लोटाभर पानी खाली कर दिया जाता है। किंतु ध्यास न लगने पर एक कटोरा पानी पेटमें पहुंचाना बहुत दृढ में वाहरसे सेना पहुंचाने के समान दुस्साध्य हो जाता है । विद्यार्थी पढता है और विद्यार्थीको पढना पडता है, इत्यादि अनेक दृष्टांतोंसे कारककी प्रवृत्ति होना विवक्षाके अधीन सिद्ध होती है और चतुर यताकी इच्छा भी पदार्थोंकी विशेष परिणतियोंके आश्रय पर हुयी है । यों ही अंटसेंट नहीं उपज गयी है । पदार्थोंकी मूलभूत सामर्थ्य के विना नैमित्तिक परिणति नहीं हो पाती है ।
कुतः पुनः कस्येति कारकमा वसति विवक्षा कस्यचिदविवक्षेति चेत्---
फिर आप चैन लोग यह और बतलादीजिये कि किसकी विवक्षा किस कारण से किस कारकपर आरूढ हो जाती है और किस धर्मकी अविवक्षा किससे कब कहां हो जाती है ! ऐसा प्रश्न हो जानेपर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं
विवक्षा च प्रधानत्वाद्वस्तुरूपस्य कस्यचित् । तदा तदन्यरूपस्याविवक्षा गुणभावतः ॥ २६ ॥
वस्तु अनेक स्वभाव विद्यमान हैं, जिस समय वस्तुके प्रधान होनेके कारण किसी भी एक स्वरूपकी विवक्षा होती है, उस समय वस्तुके अन्य वर्माकी गौणरूप होजाने के कारण अविवक्षा दोजाती है । भावार्थ- जैसे पुष्प आदि सुगंधित द्रव्यमें गंध गुणकी प्रधानता है। शेष रूप, रस आदिककी अप्रधानता है । इसी प्रकार अस्तित्व धर्मकी विवक्षा होनेपर नास्तित्व आदि धर्म अविवक्षिप्त होजाते हैं और नास्तित्वकी विवक्षा होनेपर अस्तित्व गौण होजाता है। कारकपक्ष और व्यवहारके शापकपक्ष दोनों में वस्तुके स्वभावभूत धर्म कारण होते हैं । वस्तुके सामर्थ्यरूप स्वभावोंसे ही अर्थक्रियायें होती है । यह कार्यकारणभाव है और उन स्वभावका अवलम्ब लेकर ही व्यवहार किया जाता है, यह ज्ञाप्यज्ञापकभाव है ।
नन्वसदेव रूपमनाद्यविद्यावासनोपकल्पितं विवक्षेतरयोर्विषयो न तु वास्तवं रूपं यतः परमार्थसती षट्कारकी स्यादिति चेत् ।
यहां बौद्धोंकी शंका है कि वस्तुमे अनेक धर्म नहीं हैं । स्वभावोंसे रहित होकर वस्तु स्वयं निर्विकल्पक है। आप जैनोने जो धर्म विवक्षा और उससे न्यारी अविवक्षा के विषय माने हैं वे वस्तुके स्वरूप नहीं है। केवल अनादि कालसे गोहुयी मिथ्या सरूप वासनाओंसे कल्पित किये गये
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तथा चिन्तामणिः
वे धर्म असत् रूप ही है अर्थात् कुछ नहीं हैं। भला ऐसी दशामें जैनियों का माना गया छह कारकोंका समुदाय परमार्थ रूपसे सद्भुत पदार्थ कैसे हो सकेगा? बताओ। जिससे कि ज्ञानको कापना कर्मपना आदि बन सकें आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो उत्तर सुनिये ।
भावस्य वासतो नास्ति विवक्षा चेतरापि वा । प्रधानेतरतापायाद्गनाम्भोरुहादिवत् ॥ २७ ॥
असत् रूप पदा की विधवा नहीं होती है और दूसरी अविवक्षा भी नहीं है। क्योंकि प्रभानपना और गौणपना विद्यमान पदार्थामें होता है । असतके नहीं, जैसे कि भाकाशके कमल या पन्ध्यापुत्र आदिमें प्रधानपन या गौणपन अथवा अर्पितपना और अनर्पितपना नहीं बनता है। "गौर्वाहीक" यहा बोझ लादनेवाले मनुष्यमें बैलपनेका उपचार किया जाता है । शशके सींगमें नहीं।
प्रघानेतरताम्यो विवक्षेतरयोप्सित्वात् पररूपादिभिरिव स्वरूपादिभिरप्यसतस्तदभावात्तदभावसिद्धिः ।
विवक्षा और अविवक्षाकी प्रधानपने और अप्रधानपने के साथ व्याप्ति है । परम्य क्षेत्र, काल, भाव करके सर्व पदार्थ असत्रूप हैं अर्थात् नास्तिस्वधर्मसे युक्त हैं । पररूप आदिकों करके असत् के समान यदि वे अपने स्वरूप आदि स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, मावसे मी असत् होगे तो ऐसे अश्वविषाण आदि पदार्थोकी प्रधानता और अप्रघानता न होनेके कारण विवक्षा और अविवक्षाकी सिद्धि भी नहीं होती है । उस व्यापकके न होनेपर वह व्याप्य भी नहीं रहता है। विवक्षा, अविवक्षा न्याप्य हैं। प्रधानता और अप्रधानसा धर्म व्यापक हैं।
सर्वथैव सतोनेन तदभावो निवेदितः।
एकरूपस्य भावस्य रूपद्वयाविरोधतः ॥ २८ ॥ धर्मोको असत् रूप माननेवाले बौद्ध हैं और सद्रूप मानने वाले ब्रमाद्वैतवादी हैं । यदि धोको सर्वथा ही सप मान लिया जावे तो भी उस प्रघानता और भप्रधानताका अभाव समझ लेना चाहिये । यह बात उक्त कथनसे निवेदन कर दी गयी है । क्योंकि सर्वथा कूटस्थ एकधर्मस्वरूप पदार्थके प्रधानता और अप्रधानता रूप दोनों धर्मोंका रहना विरुद्ध है। एकमे दो चार धर्म रहे तब तो एक प्रधान, अन्य अपधान हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।
न हि सदेकाते प्रधानेतररूपे स्तः । कल्पिते स्त एपेति चेन्न, कल्पितेतररूपयस्य सचावविरोधिनः प्रसंगात् । कल्पितस्य रूपस्यासवादकल्पितस्यैव सचान्न रूपद्वयमिति
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घेत्ताईसतो प्रधानेतररूपे विवक्षेतरयोर्विषयतामास्कन्दत इत्यायातम्, तच्च प्रतिक्षिप्तम्। स्याद्वादिना तु नायं दोषः। चित्रैकरूपे वस्तुनि प्रधानेतररूपद्धयस्य स्वरूपेण सतः पररूपेणासतो विवक्षेतरयोर्विषयत्वाविरोधात् । - यदि भद्वैतवादी करके प्रतिभासस्वरूप सम्पूर्ण पदार्थोंका सत्तारूप एकांत माना जावेगा ऐसी दशा भी प्रधान और दूसरे गौणरूप ध वस्तु कभी नहीं रह सकते है। यदि अद्वैतवादी यो कहै कि वस्तुभूत एक ब्रझमें कल्पना किये गये दो धर्म रह ही जाते हैं। सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि दो धर्नाका कल्पितपना और उससे न्यारा परमासका अकल्पितपना ऐसे दोनों स्वभाव तो सत्तारूप अद्वैतवादके विरोधी हैं। अतः आपको द्वैतपनेका प्रसंग आवेगा।
यदि आप विधिवादी यों कह कि कल्पितस्वभाव तो असत् पदार्थ हैं। किंतु नहीं कस्पना किया गया परब्रह्म ही सार्य है । इस कारण हमको वस्तुभूत दो स्वभाव नहीं मानने पड़ेंगे जिससे कि हमारे अद्वैतका विरोध हो जावे। ऐसा कहनेपर तो यह अभिप्राय आया कि असमदार्थोके प्रधानता और अप्रधानता धर्म इन विवक्षा और अविवक्षाके विषयपनेको प्राप्त होते है। सद्वस्तुके नहीं । किंतु इसका खण्डन अभी हम कर चुके हैं अर्थात् बौद्धों के सम्मुख हमने सिद्ध कर दिया है कि सत्पदार्थोके ही प्रधानता और अप्रधानता धर्म होते हैं। और स्याद्वादसिद्धांतको माननेवाले हम लोगोंके मत तो यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि अनेक चित्र स्वभाववाले एक वस्तमें प्रधानता और अप्रघानता दो धर्म स्वके स्वरूप करके विद्यमान हैं। और दूसरोंके स्वरूपके करके वे धर्म विद्यमान नहीं है। ऐसे वे धर्म विवक्षा और अविवक्षाके विषय हो जाते है । कोई विरोध नहीं है, एक ही मनुष्य दूसरे संबंधियोंकी अपेक्षासे पिता, पुत्र और भानज्जा, मामा आदि बन जाता है। उपयोक्ताओंकी अपेक्षासे दुग्धपदार्थ पोषक, रेचक, और श्लेखमकर है।
विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधर्मिणि । सतो विशेषणस्यात्र नासतः सर्वथोदिता ॥ २९ ॥
अनंत धर्मवाले एकधर्मीरूप विशेष्य पदार्थ, विद्यमान ही विशेषणों से अभिलाषीको किसी विशेषणकी विवक्षा हो जाती है और उदासीन व्यक्तिको विद्यमान होरहे अन्य विशेष धर्मकी अविवक्षा हो जाती है, सर्वथा असत् समाकी विवक्षा और अविवक्षा नहीं होती हैं। इस प्रकरणी श्री समंतभद्र स्वामीने देवागमस्तोत्रमें ऐसा ही कहा है " विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येनन्सवमिर्माण, सतो विशेषणस्यान नासतस्तैस्तदर्थिमिः " यह आप्तमीमांसाकी पैंतीसवीं कारिका है।
न सर्वथापि सतो धर्मस्य नाप्यसतोऽनन्तधर्मिणि वस्तुनि विवक्षा चाविवक्षा च भगवद्भिः समन्तमद्रखामिभिरभिहितासिन् विचारे, किं तर्हि ? कश्चित्सदसदात्मनः एव प्रधानताया गुणतायाश्च सद्भावात् ।
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अनन्त धर्मविशिष्ट वस्तु न तो सभी प्रकारोंसे सत् होरहे धर्मकी और न सर्व प्रकारले असत् की भी विवक्षा या अविवक्षा होती है । इस विवक्षाके प्रकरण में विचार होनेपर भगवान् समंतभद्र स्वामीने यही बात कही है। तब तो कैसे धर्म की विवक्षा होती है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि कथञ्चित् सत्रूप और कथञ्चित् असदरूप तदात्मक धर्म की ही प्रधानता और गौप्णपन होजानेका सद्भाव है । जगत्मे संपूर्ण पदार्थ किसी अपेक्षासे सद्रूप और अन्य अपेक्षासे असतरूप हैं । अतः उनके धर्म भी वैसे ही है। बौद्धों का माना गया धर्मो का शून्यवाद और अद्वैतवादियों का सद्भाववाद प्रमाणपद्धतिसे खण्डित होजाता है। " सर्वे सर्वत्र विद्यते " सभी वस्तुयें सब स्थानों पर विद्यमान हैं। अंगुली के अग्रभागपर सौ हाथियों के झुंड स्थित है, यह सांख्यों का मत भी प्रत्युक्त होजाता है।
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कुतः कस्यचिद्रूपस्य प्रधानेवरता च स्याद्येनासौ वास्तवीति चेद
क्या कारण है कि विद्यमान होहे किसी प्रधानता होती है और विद्यमान अन्य रूपकाही उससे मित्र गौणपना होजाता है ! बताओ। जिससे कि यह प्रधान गौण व्यवस्था वास्तविक मानी जावे। यदि ऐसा कहोगे तो — आचार्य उत्तर कहते हैं कि
स्वाभिप्रेतार्थसम्प्राप्तिहेतोरत्र प्रधानता ।
भावस्य विपरीतस्य निश्चीयेताप्रधानता ॥ ३० ॥ नैवातः कल्पनामात्रवशतोऽसौ प्रवर्तिता । वस्तुसामर्थ्य सम्भृततनुत्वादर्थदृष्टिवत् ॥ ३१ ॥
इस वस्तु इच्छुक जीव अपने अभीष्ट पदार्थ की समीचीन प्रासिके कारण माने गये धर्मकी प्रधानता हो जाती है और उसके प्रतिकूल अपने अनिष्ट पदार्थकी प्राप्तिके कारण होरहे स्वभावकी अप्रधानता हो जाती है, ऐसा निर्णय किया जाय। इस कारण प्रधानता और अप्रधानताकी उस प्रवृत्तिको केवल कल्पनाके अधीन ही नहीं मानना चाहिये। किंतु वस्तुके स्वभावभूत सामर्थ्य से प्रधानता और अप्रधानताका शरीर ठीक उत्पन्न हुआ है। जैसे कि अर्थका दर्शन वस्तुकी मिचिपर डटा हुआ है। अर्थात् — बौद्धों के मत वस्तुभूत स्वलक्षण स्वयं कल्पनाओसे रहित है, तभी तो उसको जाननेवाला प्रत्यक्षप्रमाण भी निर्विकल्पक है । निर्विकल्पक माने गये स्वलक्षणसे जग्य अर्थका दर्शन जैसे निर्विकल्पक है, वैसे ही अनेक प्रधान अप्रधानरूप विद्यमान विशेषोंकी मिचिपर ही वक्ता प्रधानधर्मकी विवक्षा और अप्रधान धर्मकी अविवक्षा हो जाती है। दुग्धमें पोषकत्व, रेचकत्व शक्तियां हैं। तभी तो वह भिन्न भिन्न उदरोको प्राप्त होकर अपनी शक्तिके वश पोषण, रेचन कर देता है | जैन सिद्धांत वस्तुके स्वभावको माने विना कोई कार्य नहीं होता हुआ माना है । विद्यार्थीमें अध्ययन करने की शक्ति है, उसको निमित्त मानकर अध्यापक पढा सकता है। अन्यमा
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चौकी या तो भी पढा देवे, इस प्रकार पाठककी अध्यापन शक्तिके वश विद्यार्थी पढ लेता है । . अन्यथा वृक्षसे क्यों न पढ लेवे ! हां ! अनेक बाते वृक्ष, थम्म, घूरा, पृथ्वी, बादल आदि पदार्थोंसे मी मनुष्य सीख लेता है, जैसे कि पृथिवीसे क्षमा धारण की, वृक्षसे परोपकारकी, कुचेसे अल्प निद्रा लेने की शिक्षा ले लेता है । यह मी कार्य पृथिवी आदिकमै निमिचशक्ति होनेपर ही माना गया है । यदि तीर्थराज सम्मेदशिखर में भक्त मनुष्यको विशिष्ट पुण्य उत्पन्न कराने की शक्ति है तो साथ में दुष्टपापी यहां वज्रलेप दुष्कर्मो को भी बांध लेता है । तलवार से स्वरक्षा और स्वघात दोनों हो जाते हैं। मेषों में श्रृंगारभाव पैदा कराने की शक्ति है तो किसीको बादल देखकर वैराग्य पैदा करादेनेकी निमितशक्ति भी विद्यमान है । अतः ज्ञान, सुख, इच्छा आदि अनेक परिणाम वस्तुके स्वभावको अवलम्ब लेकर ही उत्पन्न होते हैं। निमित्तके मिना नैमित्तिक भाव नहीं हो सकता है ।
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कर्तृपरिणामो हि पुंसो यदा स्वाभिप्रेतार्थसम्प्राप्तेर्हेतुस्तदा प्रधानमन्यदात्वप्रधानं स्यात् तथा करणादिपरिणामोऽपि ततो न प्रधानेतरता कल्पनामात्रात्व बिठास्या वस्तुसामर्थ्याय चत्वादर्थदर्शनवत् ।
जिस समय आत्माका कार्य करनेमें स्वतंत्रतारूप कर्तृत्व परिणमन ही अपने अभीष्ट होरहे पदार्थकी प्राप्तिका कारण हो रहा है, उस समय आत्मामें कर्तापन धर्म प्रधान है, उसकी विवक्षा है और दूसरे कर्मत्व, करणस्व, धर्म तो अप्रधान हैं, उनकी विवक्षा नहीं है। उसी प्रकार अब आत्मा के क्रिया करनेमें प्रकृष्ट उपकारकरूप करण परिणाम इष्टसिद्धिके कारण हैं। तब करणपना धर्म भी sura sोकर विवक्षित है। ऐसे ही कर्मपन और भावको भी समझ लेना । उस कारण प्रधानता और इससे अन्य अप्रधानता केवळ कोरी कल्पना से नहीं प्रवर्ष रही है। किंतु वस्तुके स्वभावभूत सामथ्यों के अधीन होकर प्रवर्स रही है। जैसे कि बौद्धों के द्वारा माना गया स्वलक्षणका प्रत्यक्षप्रमाण निर्विकल्प पदार्थ अधीन ही उत्पन्न हुआ है, सभी तो वह जाति, नाम, संसर्ग आदिकी कल्पनाओंसे रहित है । चूहों की उत्पत्ति चूहोंके वस्तुभूत मा, बापों से है ।
नन्वभिप्रेतोर्थो न परमार्थः सन्मनोराज्यादिवत्ततस्तत्सम्प्रात्यप्राप्ती न वस्तुरूपे यतस्तद्धेतुकयोः प्रधानेतर भावयोर्वस्तु सामर्थ्यं सम्भूतमनुस्वं सिद्धयत् तयोस्तवतां साधयेत् इति चेत्, स्मादेवम्, यदि सर्वोऽभिप्रेतोर्थोऽपरमार्थे सन् सिद्धयेत् कस्यचिन्मनोराज्यादेरपरमार्थत्वस स्वप्रतिपतेरवाधिताभिप्रायविषयीकृतस्याध्यपरमार्थसत्वसाधने चंद्रद्वय दर्शनविषयस्यावस्तुत्वसम्प्रत्ययादवाधिताखिलदर्शनविषयस्यावस्तुत्वं साध्यतामभिप्रेतत्व दृष्टत्वहेत्वो
रविशेषात् ।
यहां पुनः बौद्धकी शंका है कि अमीलाषी पुरुषको कोई विवक्षित पदार्थ अभीष्ट है यह जैनोंने कहा, किंतु वस्तुतः विचारा जांबे तो वह इष्टपदार्थ परमार्थभूत नहीं है । जैसे कि अपने
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मनमें राजापनकी कल्पना करने से कोई यथार्थ राजा नहीं बन जाता है अथवा क्योंके खेल अनुसारं, या सतरंजी गोटों सदृश कोई मंत्री, घोडा आदि नहीं निर्णीत किया जाता है | स्वप्न, नशा आदिमें भी व्यर्थ कल्पनायें उपजती है । उस कारण इष्ट अर्थकी अच्छी प्राप्ति करना और अनिष्टकी अप्राप्ति करना भी वास्तविक नहीं है, जिससे कि उन प्राप्ति तथा अमाप्तिको प्रधानपना और अप्रधानपनेका हेतु मानकर वस्तुओंकी सामर्थ्यसे उत्पन्न हुआ प्रधानता और अप्रधानताका डील सिद्ध होता संता उनको वस्तुभूतपना सिद्ध करा देवे । यदि ऐसा कहोगे तो आचार्य कहते हैं कि बौद्धोंकी इस प्रकार शंका तब हो सकती थी, जब कि सम्पूर्ण ही अभीष्ट अर्थ अवस्तुभूत होते हुए सिद्ध हो जाते। किंतु अभीष्ट पदार्थों में बहुभाग वस्तुभूत सिद्ध हो रहा है। दूधमें स्वादु रस, अंमिमें दाइकस्वभाव, विषमें मारनेकी शक्ति, अध्यापकमें पढानेकी सामर्थ्य इत्यादि धर्म कल्पित नहीं हैं। किसी एकके मनमें राजा बन जाना या स्वममें राज्य प्राप्ति होना सीपमें रजतका ज्ञान हो जाना आदि कल्पनामको अपरमार्थभूत असत् अर्धकी भित्ति पर अवलम्बित समझ कर उसी प्रतिपत्ति के अनुसार यदि बाधारहित इच्छाओंके विषय किये गये परमार्थभूत पदायों को मी असद्भूत असतूरूपपनेकी सिद्धि करोगे, तब तो आंख अंगुली लगाके देखनेपर एक चंद्रमा दो चंद्रमाको विषय करनेवाले प्रत्यक्षको अवस्तुके विषय करनेवाला ऐसा समीचीन निर्णय हो जाने अनुसार ही सम्पूर्ण निर्वाध प्रत्यक्षोंके विषयभूत पदार्थों को भी अवस्तुपना सिद्ध कर डालो। क्योंकि मनमें राजाकी कल्पनाको दृष्टांत मानकर अभिप्रेतपना हेतु जैसे सम्पूर्ण वस्तुभूत कल्पनाओं में रह जाता है, वैसे ही चंद्रद्रय दर्शनको उदाहरण मानकर सम्पूर्ण निर्वाध प्रत्यक्षोंके विषयों में दृष्टपन हेतु भी अंतररहित विद्यमान है । दूधसे भुरस कर पुनः छाछको भी फूंककर पीना बुद्धिमानी नहीं है । सब ही ज्ञान और कल्पनाएं एकसी नहीं हैं। अनेक वस्तुभूत कल्पनायें हैं, और कुछ अपरमार्थभूत कल्पनायें भी हैं। असत् कल्पनाओंको गढने वाली अवस्तुमें हम विवक्षा और अविवक्षा होनेकी योजना नहीं मानते है । सप्तभङ्गी, स्याद्वाद सिद्धांत और व्यवहार नयकी विषय हो रहीं कल्पनायें वस्तुस्वभावों के अनुसार की गयी हैं।
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स्वसम्वेदनविषयस्य च स्वरूपस्य कुतः परमार्थसमवसिद्धिर्यतः संवेदनाद्वैतं चित्राद्वैत वा स्वरूपस्य स्वतो गतिं साधयेत्, यदि पुनः स्वरूपस्य स्वतोऽपि गर्ति नेच्छेसदा न स्वतः संवेद्यते नापि परतोस्ति च तदिति किमघशीलवचनम् ।
आप बौद्धोंने विज्ञानाद्वैतरूप स्वरूपकी अपने आप ही से ज्ञप्ति होना मानी है । यदि स्वरूपका ज्ञान भी मिथ्या वासनाओंसे उत्पन्न होकर अवस्तुको विषय करता हुआ कल्पित बन आवेगा तो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष विषय होरहे शुद्ध ज्ञानके स्वरूपकी वस्तुभूत करके विद्यमानपनकी सिद्धि कैसे होगी ? जिससे कि आप बौद्धों के माने हुए संवेदनाद्वैत या चित्राद्वैत स्वरूपकी अपने आप ज्ञ होनेको सिद्ध करावे | यदि फिर आप ज्ञानके स्वरूपकी भी अपने आप से ज्ञप्ति होना नहीं
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चाहोगे, तब तो आपका यह कहना पाप करने की लत पडजानेवाले आग्रही पुरुषके कहनेके समान है कि वह ज्ञानका स्वरूप न तो स्वयं अपनेसे जाना जाता है और न दूसरे ज्ञापकोंसे भी जाना जाता है। किंतु वह है अवश्य । मला, जिसके जाननेका कोई उपाय नहीं है, उसकी सत्ता कैसे मानी जासकती है ! यानी नहीं ।
न स्वतः संवेधते सम्वेदनं नापि परतः किं तु संवेद्यत एवेति तस्य सत्ववचने, न क्रमामित्योऽर्थः कार्याणि करोति नाप्यक्रमात् । किं तर्हि १ करोत्येवेति ब्रुवाणः कथं प्रतिक्षिप्यते १ नैकदेशेन स्वावयवेष्ववयवी वर्तते नापि सर्वात्मना किं तु वर्तते एवेति च, नैकदेशेन परमाणुः परमाण्वन्तरैः संयुज्यते नापि सर्वात्मना किं तु संयुज्यत एवेत्यपि वन प्रतिक्षेपार्होऽनेनापादितः ।
शुद्धज्ञानरूप संवेदनका स्वयं अपनेसे संवेदन नहीं होता है और न दूसरोंसे भी संवेदन होता है, किंतु उसका सम्वेदन हो ही जाता है। इस प्रकार यदि घोंसके साथ उस सम्वेदनकी सताका कथन करोगे तो अनित्यवादी आप बौद्धोंके प्रति नित्यवादी सांख्य भी यह कह सकता है कि कापिठोंके यहां माना गया अनित्य वर्ग भी न करता है और न अक
मसे, युगपत् अनेक कायको करता है तब तो क्या है ? इसका उत्तर यों है कि वह नित्यपदार्थ कायको करता ही है। भला, इस प्रकार कहता हुआ सांख्यमतानुयायी आपके द्वारा क्यों खण्डित किया जाता है ? भावार्थ – आप बौद्धोंने नित्यवादका खण्डन करते हुए यह कहा है कि सत्यकी यात अर्थक्रिया के साथ है और मर्थक्रिया कम और यौगपथके साथ व्याप्ति रखती है। सांख्योंके स्वीकृत सर्वथा नित्य पदार्थ में क्रम और यौगपद्य नहीं है। इस कारण उन क्रम यौगपद्यसे व्याप्य हो रहे अर्थक्रिया और सत्व भी उसमें नहीं है। किंतु अब आप बिना हेतुके ही संवेदन होना मानते हैं तो मौके विना नित्य अर्थ मी अनेक कायाको करलेगा । तथा च नित्य अथकी सदा मी सिद्ध हो जावेगी । इसी प्रकार बौद्ध लोग अवयवी द्रव्य भी नहीं मानते हैं। बौद्धों के यहां क्षणिक परमाणुरूप पदार्थ माने हैं । अवयवीके खण्डनके लिये उन्होंने यह युक्ति दी है कि अपने अवयवों में अवयव यदि एक देश करके वर्तेगा, तब तो पहिले ही से अवयवी में दूसरे अभ्य अवयव (देश) मानने पढेंगे, तभी एक देश कहा जा सकेगा और उन पहिलेके अवयवों में भी एकदेश करके रहेगा वो फिर सीसरे अन्य अवयव मानने पडेंगे, ऐसे अनवस्था हो जावेगी । और यदि सर्वांगरूपसे अवयत्री एक एक अवयव रहेगा तो जितने अवयव हैं, उतने अवयवी पदार्थ हो जायेंगे । अर्थात् जितने सूत (तन्तु) हैं, उतनी संख्यावाले थान बन जायेंगे । तथा परमाणु एकदेश करके दूसरे परमाणुओंसे सम्बद्ध होगी, तब तो परमाणु भी पहिलेसे अनेक देशवाली सांग्र हो जायेगी, और यदि विवक्षित परमाणु पूर्ण रूपसे दूसरे परमाणुसे मिल जावेगी तो लम्बा चौडा पिण्ड परमाणुके बराबर
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जवानिया
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हो जावेगा, ऐसी दशा सुमेरु पर्वत और सरसों भी समान परिमाणवाले हो जायेंगे। किंतु जैसे ऐठके साथ आप बौद्ध अपने संवेदनको सिद्ध कररहे हैं। उसी प्रकार नैयायिक भी अपने अपनदी चाको शिख कर कहता है कि अवषयों में अवयवी एकदेश करके भी नहीं वर्तता है, और न सम्पूर्ण अपने देशों करके रहता है, किंतु रहता ही है तथा परमाणु एकवेव करके दूसरे परमाणुओं के साथ संयुक्त नहीं होता है और न अपने सब अंशों करके संयुक्त होता है, किंतु संयुक्त हो ही जाता है, ऐसे बोलनेवाले नैयायिक भी अपाके खण्डन करनेके योग्य नहीं हो सकते हैं, इस उक्त कथम करके बौद्धोंके धूलमै लठिया. लगनेके समान सांख्योंकी ओरसे आपादन करनेसे नैयायिकोंका उक्त आपादम भी समझ लेना चाहिये । यानी नैयायिक भी बौद्धके पति पोससे अवयवी या स्कंधको सिद्ध कर देवेगा।
यदि पुनः क्रमाक्रमव्यतिरिक्तप्रकारासम्भवासतः कार्यकरणादेरयोगादेव सुवाणस्य प्रतिक्षेपः क्रियते तदा स्वपरन्यतिरिक्तप्रकाराभावान्न ततः संवेदन संवेधत एवेत्यप्रविक्षेपाईः सिद्धधेत् ।
यदि फिर बौद्ध समझकर यों कहे कि सांख्योंकी लपट घों घों नहीं चल सकती है । क्योंकि कम और अक्रमसे अतिरिक्त कार्योंके कर देनेका या पर्यायोंके प्रगट होने माविका दूसरा कोई उपाय नहीं सम्भवता है और नित्य पक्षमें कार्यका बनना या प्रगट होना सिद्ध होता नहीं है, इस कारण वस्तुको सर्वथा नित्य कहनेवाले सांख्यका हम खण्डन करते हैं। तब तो हम भी बौद्धोंके प्रति कह सकते हैं कि संवेदनके जाननेका स्वयं और दूसरे ज्ञापकोंके अतिरिक्त तीसरा कोई उपाय नहीं है । ऐसी दशामें आपका संवेदन भी खण्डन करने योग्य नहीं है, मह सिद्ध नहीं हो सकता है। जब कि आप बौद्ध यों कह रहे हैं कि ज्ञान न तो स्वयं जाना जाता है और न दूसरोंसे जाना जाता है। किंतु है ही। इस प्रकार आपकी पोल नहीं चल सकती है । सैवेदनकी स्वयंसे अति मानिये या दूसरोंसे जप्ति होना मानिये । अन्यथा आपके संवेदनकी सजा उठ जावेगी।
सम्वेदनस्य प्रतिक्षेपे सकलशून्यता सर्वस्यानिष्टा स्यादिति चेत्, समानमन्यत्रापि ।
सौगत बोले कि संवेदनकी सनाका खण्डन करनेपर सो सम्पूर्ण पदायोंका शून्यपना हो अवेगा, जो कि सम्पूर्ण वादी प्रतिवादियोंको इष्ट नहीं है । क्योंकि घट, पट आदिकी तो सयं अपनी सचा ही ज्ञानकी मित्तिपर डटी हुयी है । जब ज्ञान ही नहीं है सो संसारमें कोई पदार्थ ही नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो यह उक्त कथन दूसरे पक्षमें भी समान है। भावार्थ-~-वस्तुमे कर्तापन, करणफ्नकी प्रधानता और अप्रघानताकी विवक्षा करना भी वस्तुमूत स्वभावोंके अधीन मानना चाहिए। जैसे ज्ञानके मान विना संसारकी व्यवला नहीं हो सकती है, वैसे ही वस्तुओं की अनेक सामर्थ्य माने विना भी विवक्षा और अविवक्षा क्षेना नहीं
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बनता है, जिसका कि होना अत्यावश्यक है। तथा अवयवीके वर्तने और परमाणुओंसे स्कन्ध बन जानेमें मी यही श्रेष्ठ उपाय लग बैठेगा । यो अवयवी और स्कन्धका खण्डन कर देनेपर भी जग प्रसिद्ध शरीर, खाद्य, फल, गृह, पृथ्वी, सूर्य, नदी, किला, पर्वत आदि पदार्थोंका शून्यपन छा जायगा, जो कि सबको अभीष्ट नहीं पड़ेगा।
तता स्वयं संवेद्यस्य दृश्यस्य पा रूपादः परमार्थसत्यमुपयवाभियतस्याप्यपमियारिणस्तन मविक्षेप्तव्यम्, सर्वथा विशेषाभावात्, परमार्थसत्त्वे च स्वाभिप्रेतार्थस्य सुनयविपयस्य सत्संप्राप्त्यसंप्रासी वस्तुरूपे सिद्धे तहेतुकयोश्च प्रधानेतरभावयोवस्तुसामर्थ्य सम्भूतउनुस्खं नासिई यतस्तयोवास्तवत्वं न साधयेदिति ।
___ उस कारण स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जाने गये सम्वेदनके विषयभूत स्वलक्षण अथवा निर्विकल्पक दर्शन के विषय रूप, रस, आदिककी परमार्थरूपसे सत्ताको स्वीकार करोगे, तब तो भापके द्वारा समीचीन और म्यभिचार रहित माने गये अपने उस अभीष्ट पदार्थकी भी वस्तुतः सनाका खण्डन नहीं करना चाहिये । सभी प्रकारसे आपके और हमारे कपनमें कोई अंतर नहीं है । भावार्थआपने निर्विकल्पक संवेदन और उसके विषयभूत स्वलक्षण रूप, रस, भाविकको जैसे इष्ट किया है, वैसे ही इष्टता और भविष्टताके प्रयोजक वस्तुकी मूलभूत सामोको हम भी मानते हैं। आपको मी भिन्न अनेक कार्योंके अनुरोषसे वे स्वभाव मानने पडेंगे । जप कि समीचीन नयके द्वारा जाने हुए अपने अभीष्ट अर्थकी परमार्थ. सपसे सण सिद्ध हो गयी, तब ऐसा होनेपर उस अपने अभीष्टकी समीचीन प्राप्ति और अमाति मी वस्तुस्वरूप बन गयी और अब यह पाति और अपाप्ति वस्तुस्वरूप सिद्ध हो गयी, सब उनके कारण माने गये प्रधानपन और अप्रधानपनके शरीरको भी वस्तुके स्वमावोंसे उत्पन्न होनापन असिद्ध नहीं हुआ, जिस कारणसे कि उन पपानसा और अपधानताको वास्तविकपना सिद्ध न करा सके । अर्थात् वस्तुके आत्मभूत स्वभावोसे किसी धर्मका प्रधानपन और अन्य धर्मका अपधानपन उत्पन्न हुआ है। अतः वे प्रधानता और अप्रधानता कसित नहीं हैं। किंतु वास्तविक है। यहांतक यह तत्व पुष्ट कर दिया है।
तत्र विवक्षा चाविषक्षा च न निर्विषया येन तदशादेका वस्तुन्यनेककारकात्मकत्व न व्यवतिष्ठेत ।
उस वस्तुमे कापन या करणपनकी विवक्षा होना अथवा अविवक्षा होना वस्तुभूतसामर्थको अवलम्ब लेकर है । अपने विषयको नहीं स्पर्श करती हुयीं यों ही विना कारण विवक्षा या अविवक्षा नहीं हो गयी हैं, जिससे कि उस वस्तुमूत सामर्थ्यके वशसे अनेक कारकस्वरूपपना एक वरखम व्यवस्थित न होता । अर्थात् वस्तुको भिन्न भिन्न अनेक शक्तियोंके बलसे एकमे अनेक कारकपन बन जाता है।
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तस्वार्थपिन्सामणिः
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वृक्षस्तिष्ठति कानने कुसुमिते वृक्ष लताः संश्रिताः । वृक्षेणामिहतो गजो निपतति वृक्षाय देहयञ्जलि ।। वृक्षादानय मन्जरी कुसुमितां वृक्षस्य शाखोमणा ।
वृक्षे नीडमिदं कृतं शकुनिना हे वृक्ष किं कम्पसे ॥१॥ बनमें एक वृक्ष है (कर्ण), वृक्षको लता माश्रय कर रही हैं (कर्म ), वृक्ष करके टकराया हुआ हाथी गिर पडा ( करण), वृक्ष के लिये पानी देदो ( संपदान ), वृक्षसे फूलोंको तोड़ लामो ( अपादान ), वृक्षकी शाखायें ऊंची है ( सम्बन्ध ), वृक्षों पक्षियोंने घोंसला बनाया है ( अधिकरण ), हे वृक्ष ! तुम क्यों कांप रहे हो ( सम्बोधन ) । इस उदाहरणमें वृक्षके अनेक स्वमावोंके वश छह कारक बन गये है। कहीं कहीं क्रियाका परम्परासंबंध होनेके कारण संबंध और सम्बोधनको मी उपचारसे कारकपना मान लिया गया है। मुख्य रूपसे छह कारक माने गये हैं।
निरंशएम ब वरवल्या सर्वथा गात्तितः ।
नैकस्य बाध्यतेऽनेककारकत्वं कथञ्चन ॥ ३२ ॥
एक बात यह भी है कि बौद्धोंसे माने हुए सर्वथा निरंश सत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है। अर्थात् सम्पूर्ण स्वमावोंसे रहित कोई पदार्थ ही संसारमै नहीं है। अनेक धर्मात्मक ही असरंग और बहिरंग पदार्थ जगत्में देखे जाते हैं। इस कारण एक द्रव्यको किसी किसी अपेक्षासे अनेक कारकपना बन जाता है । कोई बाधा नहीं है। चेतनश्चेतनं, चेतनेन, चेतनाव, चेतनाद, चेतने चेतयते । यह चेतन भाला, चेतनको, चेतन करके, चेतनके लिये, चेतनसे चेसनमै चेतता रहता है।
· नात्मादितरवे नानाकारकात्मता वास्तवी तस्य निरंशत्वात् , कल्पनामात्रादेवे तदुपपवेरिति न शंकनीयम् , पहिरन्तर्वा निरंशस्य सर्वथार्थक्रियाकारित्वायोगान् ।।
बौद्ध कहते हैं कि आत्मा, वृक्ष, आदि तत्त्वों में अनेक कारक स्वरूपपना वस्तुमूत नहीं है। क्योंकि वे भात्मा आदि पदार्थ सम्पूर्ण शक्ति, स्वमाव और घाँसे रहित होसे हुए निरंश हैं। केवल कल्पनासे भले ही वह अनेककारकपना सिद्ध करलो, जैसे कि एक रुपया देवदत्तका है किंतु वह बजाज, सर्राफ, और मृत्यका होजाता है। अतः रुपये मेरा तेरापन सर्वया कल्पनारूप है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पौद्धोंको शङ्का नहीं करनी चाहिये । क्योंकि घट, रुपया, वृक्ष, आदि पहिरंग पदार्थ और ज्ञान, आत्मा, इच्छा आदि अन्तरंग पदार्थोंको यदि स्वभावोंसे रहित माना जावेगा तो सर्व ही प्रकारसे उनमें अर्थक्रियाको करनापन नहीं बन सकेगा । रुपयेमें भी हमारा भुम्हारापन स्वभाव विधमान है । तभी तो अपने रुपयेका स्वामित्व तो गुण है, और दूसरे की चोरी करना दोष है। हमारा रुपया हमारे लिये इष्ट बस्तुकी प्राति करानेवाला है, अन्यथा दूसरे सेठके
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तत्त्वावैचिन्तामणिः
रुपयोंसे हम लक्षाधिपति क्यों नहीं बन जाते हैं ! सर्व ही पदार्थ कुछ न कुछ कार्य कर रहे हैं। प्रत्येक पदार्थ सर्वज्ञ द्वारा कमसे कम अपनी ज्ञप्ति तो करा ही रहा है । यावस्पदार्थोका यह कार्य तो केवलान्धयी है । अर्थपर्यायों और व्यञ्जन पर्यायों में तो उत्साद, व्यय, धौव्य, परिणाम होते रहते हैं।
परमाणुः कथमर्थक्रियाकारीति चेन्न, तस्यापि सशित्वात् । न हि परमाणोरंश एव नास्ति द्वितीयाचशाभावानिरन्वयत्त्ववचनात् । न च यथा परमाणुरेकप्रदेशमात्रस्तथात्मादिरपि शक्यो वक्तुं सकन्नानादेशव्यापित्वविरोधात् ।
___पुनः सौगात मोले कि देखो, परमाणु अंशोंसे रहित है। फिर भी वह घणुक बनाना आदि अर्थक्रियाओंको करता है। यदि आप जैन निरंश पदार्थको अर्थक्रियाका करनेवाला नहीं मानेगे तो वह परमाणु अर्थक्रियाको कैसे कर सकेगा ! यताओ। अब अन्यकार कहते हैं कि यह बौद्धोंका कहमा ठीक नहीं है। क्योंकि उस परमाणुको भी हम अंशोंसे सहित मानते हैं। एक परमाणुमे रुप रस आदि अनेक गुण हैं और काले, पीले, सट्टे, मीठे आदि अनेक पर्यायें हैं । लम्बाई, चौडाई, मोटाई भी है । अणुक, वर्गणा, स्कंध, आदि पननेके वस्तुभूत स्वभाव मी हैं। एक कालाणु मनन्त पदार्थोको वर्तन करानेकी नैमित्तिक शक्ति है। जैसे कि आतप (धूप ) में रखा हुआ कोई पदार्थ सूख रहा है, अन्य पदार्थ पक रहा है, तीसरा पदार्थ गीला होजाता है । चौया पदार्थ कठोर होजाता है । आदि अनेक कार्योंके करनेकी शाक्त आतपमें विद्यमान है। अतः परमाणुके अंश ही नहीं है, यह नहीं मानना चाहिये । हा! जैसे व्यणुक दो परमाणुओंसे बना है । ज्यणुक तीन परमाणुओंसे या एक आणुक और एक परमाणुसे बना है । उस प्रकार परमाणु अपनेसे छोटे अवयवों के द्वारा निष्पन्न नहीं होता है । तीन लोकमे परमाणुसे छोटा टुकड़ा न हुआ, न है और न होगा। अतः पुद्गल परमाणुको परम अवयव द्रव्य माना है। एक परमाणुको बनाने वाले उससे छोटे अन्य दूसरे तीसरे आदि अंश नहीं हैं। इस कारण जैन सिद्धांत परमाणुओंको अवयवोंसे रहित कह दिया है। किंतु परमाणुमे स्वमाव गुण और पर्यायोंकी अपेक्षासे तो अनेक अंश विद्यमान है । अखण्ड व्यापक आकाशके उस परमाणुके बराबर अंशको प्रदेश कहते है अर्थात् परमाणु आकाशके एक प्रदेशको घेरता है । आकाशके एक प्रदेशमै अवगाइनशक्तिके मोगसे अनेक परमाणु समा जाते हैं । किंतु एक परमाणु आधे प्रदेशपर नहीं बैठ सकता है । पाठः आकासके फेवरू एक प्रदेशके बराबर जैसे परमाणु हैं, वैसे ही आमा, धर्मद्रव्य, सक्ष, आदि पदायों को भी केवल एक प्रदेशमें ही रहने वाले नहीं कह सकते हैं। क्योंकि उनको एक समय अनेक देशों में व्यापकरूपसे रहनेका विशेष हो आवेगा, आत्मा, आकाश आदि अस्खण्डित अनेकदेशी पदार्थ अनेक प्रदेशों में व्यापक होकर रहते हुए देखे जाते हैं । विशेष यहां यह है कि परमाणुका आकार शक्ति की अपोक्षासे छह खण्ड रखते हुए छह पैल बरफीके समान है। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अमोदिशा और ऊर्ध्वदिशासे अन्य छह परमाणुका संयोग या बन्ध हो जाता है। बरफी या ईटके आठ कोंचे नहीं पकरता। किंतु इनकी चौरस सपाट १ भीतोंको यहां परमाणुके पैलोंका दृष्टान्त कहा है। पीवीरनंदी सिद्धांतचक्रवर्तीने आचारसारमै परमाणु और अलमेकाकाशको छहः पैलवाला चौरस सिद्ध किया है। ऐसे छह पहलू परमाणुओं या ऐसे असंख्यात प्रदेशोंसे ठसाठस लोकाकाश भरा है।
तस्य विमुत्वाब तबिरोध इति चेत, व्याहतमेतत् । विमुश्कप्रदेशमात्रश्चेति न किञ्चित्सकलेभ्योऽशेम्यो निर्गतं तत्त्वं नाम सर्वप्रमाणगोचरत्वात् खरश्रृंवत् ।।
यदि यहां नैयायिक यों कहें कि वे आकाश, श्रात्मा आदि द्रव्य वो सम्पूर्ण मूर्त द्रव्यों के साथ संयोग रखते हुए व्यापक हैं, इस कारण उनको अनेक देशों में व्यापकपनेका विरोध नहीं है, ऐसा कहनेपर तो ग्रंथकार कहते है कि यह व्याघात दोष हुषा, जैसे कोई अपनेको बन्ध्याका पुत्र कहे, या बहुत चिल्लाकर अपनेको मौनव्रती है, अपना साकारको
महिमा आयेगा " ऐसी घोषणा होनेपर कोई बीन आकर और चिल्लाकर अपनेको मरा हुआ कहकर लाख रुपये मांगे, यहां जैसे आगे पीछेके उद्देश्य विधेयदलों में पदतो व्याघात दोष है, वैसा ही आला और भाकायको व्यापक मानकर केवल एक प्रदेशमै रहना मानना या अंशोंसे रहित कहना मी विरुद्ध है । इन हेतुओंसे यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि अगत्में कोई मी पदार्य या तत्त्व संपूर्ण अंशोंसे रहित नहीं है । जिस पदार्यमे कमसे कम शेयत्व अमका प्रमेयत्व धर्म न होगा, वह पदार्थ वो सर्व' प्रमाणोमसे किसी एक ममाणका भी विषय न हो सकेगा, तथा च गषेके सींगोंके समान वह अंशोंसे रहित माना गया पदार्थ अवस्तु है, असत् है।
यदा स्वंशा धर्मास्तदा वेभ्यो निर्गत वर्ष न किञ्चित्प्रतीतिगोचरतामन्चतीति सांशमेव सर्वतवमन्ययाक्रियाविरोधात् ।
और जब अंश कहनेसे धर्म पकड़े जाते हैं, फिर यदि वस्तुओको निरंश कहोगे, सब तो उन धर्मोसे रहित होकर कोई भी सल अगत्मे प्रतीतिके विषयपनेको प्राप्त नहीं होता है । इस प्रकार सिद्ध हुआ कि संपूर्ण तत्व अंगोंसे सहित ही है । इसके माने बिना अन्य प्रकारोंसे मान नेपर पक्रियाका विशेष है अर्थात् स्वमावोंसे रहिस होकर कोई भी तत्व छोटीसे छोटी मी अर्वकिपाको नहीं कर सकता है।
- तत्र चानेककारकत्वमषाधितमवषुध्द्यामहे भेदनयाश्रयणात, तथा च दर्शनादिश्चद्वानां सूक्तं कयोंदिसाधनत्वम् ।
• उपर्युक्त युक्तिओंसे हम पूर्णरीतिसे निर्णय कर लेते हैं कि उन आमा, वृक्ष, ज्ञान आदि तत्वों में अनेक कारकपना बाधाओंसे रहित होकर सिद्ध है । भेदको ग्रहण करनेवाले पर्यायायिक
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तत्वार्थचिन्तामणिः
नयका अवलम्ब लेकर ज्ञान, दर्शन आदि तत्त्वोंको अनेक कारकपना युक्त है और वैसा होनेपर दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन शब्दोंका कर्ता आदि यानी फर्ता, कर्म, करण और भावमें युट् या णित्र प्रत्यय करके कृदन्तमें साधन करना हमने बहुत अच्छा कहा था। इस प्रकार शब्दशासके अनुसार आदि सूत्रों कहे हुए शब्दोंकी निरुक्ति करके अभीष्ट अर्भको निकालनेका प्रकरण समाप्त हुआ ।
पूर्व दर्शनशब्दस्य प्रयोगोऽभ्यर्हितत्वतः ।
अल्पाक्षरादपि ज्ञानशब्दावन्द्वोऽत्र सम्मतः ॥ ३३ ॥
व्याकरणशास्त्रके अनुसार " च " के अर्थमें किये गये द्वन्द्वसमास थोडे अक्षरवाले शब्दका पहिले प्रयोग होता है अर्थात् जैसे कि एक घढेमें ज्वारके फूला, चना और ककड डालकर हिलादेनेसे अपने स्वमायोंके अनुसार नीचे भागमे काड, बीचमै चने और ऊपर फूला हो जाते हैं। उसी प्रकार शब्दकी स्वामाविक शक्तिसे पर्वत और नदीका द्वन्द्वसमास करनेपर पर्वतके पहिले नदी शब्दका प्रयोग हो जायेगा, किंतु अल्पस्वरवाले पदके प्रथम प्रयोगके इस नियमका बाधक दूसरा नियम है कि पूज्यपदार्थका सबसे प्रथम उच्चारण होना चाहिये । ऋषभदेव और गणघरका या महावीर और गौतमका द्वन्द्व समास होनेपर गदग बसाले मामाही पहिले हमारा होगा । इस कारण अन्य अक्षरवाले भी ज्ञान शब्दसे प्रथम पूज्य होनेके कारण दर्शन शब्दका प्रयोग करना ठीक है । इस सूत्रमें उमास्वामी महाराजने जिसमें पूज्य पहिले बोला जाता है ऐसा द्वन्द्वसमास यहां अभीष्ट किया है।
दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनज्ञानचारित्राणीति इतरेतरयोगे द्वन्द्वे सति बानशवस्य पूर्वनिपातप्रसक्तिरल्पाक्षरत्वादिति न चोद्यम्, दर्शनस्याभ्यहितस्वेन शानापूर्वप्रयोगस्य सम्मतत्वात् ।
च अन्मयके चार अर्थ हैं । समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग और समाहार । परस्पर में नहीं अपेक्षा रखनेवाले अनेकोंका एक अन्वय होजाना समुच्चय है। घटको लाओ, पटको मी लाओ (घटं परञ्चानय ) यहां च का अर्थ समुच्चय है । गाय, युवा, पालक, राजा, पण्डित और देवोंको भी दिन रात लेजाता हुआ यमराज ( आयुष्य कर्मका अन्तिम निषेक) तृप्त नहीं होता है (गां युधानं नावं नृपतिश्चाहरहर्नयमानो यमस्तृप्ति न याति ) यहां चका अर्थ अम्वारय है, कतिपयोमिसे कोई कोई यों ही प्रसार प्राप्त होजाय ऐसी दशामे अन्वाचय है । परस्परमें अपेक्षा रखते हुये मिलजाना इतरेतर योग है । तथा ( हस्तौ च पादौ च हस्तपाद ) हाथ पैर यहां समुदायरूप समाहार द्वन्द्व है। प्रकरणमे पहिले सूत्रका दर्शन और ज्ञान तथा चारित्र इस प्रकार परस्परमें
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तत्त्वावचिन्तामणिः
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मिलानेवाले इतरेतर योग बन्द समासके होनेपर " दर्शनज्ञानचारित्राणि " ऐसा पद बनता है। यहां अल्प अक्षर होने के कारण ज्ञान शब्दका पूर्व में निपात हो जानेका प्रसंग आता है यह कराक्ष रूप चोध करना तो ठीक नहीं है। क्योंकि ज्ञानकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनको पूज्यपना है। इस कारण दर्शनका पूर्व में प्रयोग करना अभीष्ट किया है। यह नियम शब्द शास्त्रमें भी मले प्रकार माना गया है । वैयाकरण, नैयायिक, दार्शनिक, साहित्यवित्, सभी विद्वानोंकी इसमें सम्मति है।
कुवोम्यो दर्जनस्य न पुननिस्य सर्वपुरुषार्थसिद्धिनिबन्धनस्येति चेत्
किसीका आक्षेप है कि किस कारणसे ज्ञानकी अपेक्षा दर्शन पूज्य है ! सम्पूर्ण धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थोकी सिद्धि के कारण शानको ही फिर पूज्यपना क्यों नहीं है। बताओ। ऐसी शेने पर मनाय न्हाना बना देते हैं !
ज्ञानसम्यक्त्वहेतुत्वादभ्यो दर्शनस्य हि । तदभावे तदुद्भुतेरभावाद्दरभन्यवत् ॥ ३४ ॥
शानके समीचीनपनेका हेतु हो जानेसे दर्शनको ज्ञानको अपेक्षासे अधिक पूज्यपना है। क्योंकि उस सम्यग्दर्शनके न होनेपर उस सम्पाज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होने पाती है। जैसे कि अनंत काल तक मी मोक्ष न जानेवाले दूर भन्यके मिथ्याज्ञान होते. हुए मी सम्यग्दर्शनके न होनेसे उस ज्ञानको सम्यग्ज्ञानपना नहीं आता है और निकर मन्यके अधिकसे अधिक वर्ष पुद्गरूपरिवर्तन काल मोक्ष प्राठिम अवशेष रहनेपर सम्यग्दर्शन गुणके प्रगट होते ही उस समयके विद्यमान ज्ञानको समीचीनपनेका व्यवहार हो जाता है । ज्ञानमें यह समीचीनपना कोरी कल्पना नहीं है, किंतु इस सम्यग्ज्ञानके संस्कार वश थोडे ही मवोमें वह ज्ञानी जीव और पुद्गलके मेदको निरखता हुआ देशसंयम और सकलसंयमको प्राप्त होकर निःश्रेयसको प्राप्त कर लेता है। यदि एक बार भी दर्शन मोहनीयके उपशम या झयोपशमके हो जानेपर स्वानुभूतिरूप प्रत्यक्ष हो जावे, अनन्तर मले ही वह जीव मिथ्यादृष्टी बन बावे किंतु उस ज्ञानका संस्कार उत्तरोतर शानकी पर्यायोंमें प्रविष्ट होता हुआ वह संस्कृत मिध्याज्ञानका कालान्तरमें औपशमिक और शायोपमिक सम्यक्त्यका कारण होकर क्षायिक सम्यादर्शनको उत्पन्न कर ही देवेगा । इस हेतुसे नाम कर्मकी प्रकृतियों में तीर्थहर प्रकृतिके समान मात्माके अनेक गुणोंमें सम्यग्दर्शन गुण पूज्य माना गया है।
इदमिह सम्प्रघार्य ज्ञानमात्रनिषन्धना सर्वपुरुषार्थसिद्धिः सम्यग्ज्ञाननिवन्धना वा ? न तावदायः पक्षः, संशयादिज्ञाननिवन्धत्वानुषका, सम्परज्ञाननिवन्धना घेत, तेहि ज्ञानसम्यक्त्वस्य दर्शनहेतुकरवात् तत्वार्थश्रद्धानमेवाम्पहितम्, तदभावे पानसुम्यक्त्वस्यानुम्दतेरमव्यस्थेव, न चेदमुदाहरणं साध्यसाधन विकलमुभयोः संप्रतिपचेः ।
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सत्यार्थचिन्तामणिः
इस प्रकरणमें यह बात विचार करने योग्य है कि आक्षेपकारने जो यह कहा था कि संपूर्ण पुरुषार्थीको सिद्धिका कारण ज्ञान है, भतः ज्ञान ही पूज्य होना चाहिये । वहां इम पूंछते है कि पाहे किसी भी ज्ञानसामान्पको कारण मान करके पुरुषार्थोकी सिद्धि हो जाती मानी गयी है ! भथवा संपूर्ण पुरुषायोंकी सिद्धिका कारण समीचीन ज्ञान है ! बताओ। इनमें पहिला पक्ष लेना तो अच्छा नहीं है, क्योंकि चाहे जिस ज्ञानसे पुरुषार्थोकी यदि सिदि हो आवेगी, तब तो संशय, विपर्यय और अनध्यवमायरूप कुजानोंसे भी धर्म भादिककी प्राप्ति हो जानी चाहिये । किन्तु संशय भादिकसे धर्म मोक्ष तो क्या अर्थ और कामकी भी थोडीसी प्राप्ति नहीं हो पाती है। यदि दूसरे पक्षके अनुसार धर्म आदिककी सिद्धि समीचीन ज्ञानको कारण मानोगे, तब तो ज्ञानकी समीचीनला का हेतु हो रहा तत्त्वार्थीका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ही पूज्य हुआ । यदि वह सम्यग्दर्शन गुण प्रगट नहीं हुआ होता तो दूरभन्यके शानके समान निकट भव्यजीवके ज्ञानको मी समीचीनपना प्रकट नहीं हो सकता था। साध्य साधनकी समन्याप्तिवाले इस अनुमान दिया गया दूर भव्यरूप दृष्टांत विचारा साध्य और साधनसे रहित नहीं हैं। क्योंकि दूर भन्यमै सम्यादर्शनका अमाव है और उसके शानमें समीचीनपना मी नहीं है । इस कारण सम्यग्दर्शनका न होनारूप साधन तथा शानके समीचीनपनेके अभावरूप सामान दोनोंकी इस दृष्ट विदाकात हो रही है। मथवा दोनों वादी प्रतिवादियों के यहां साध्य और साधनको धारते हुये निदर्शन की पटिया पप्ति हो रही है ।
नन्विदमयुक्त तत्वार्यश्रद्धानस्य मानसम्यक्त्वहेतुत्वं दर्शनसम्यग्नानयो सहचरत्वात्, सव्येतरगोविषाणवतुहेतुमदावाघटनात् । तस्वार्थश्रद्धानस्याविभीवकाले सम्यग्ज्ञानस्याविर्भावाचसबेतुरिति चासंगतं, सम्यग्ज्ञानस्य तत्वार्यश्रद्धानहेतुत्वप्रसंगात् । मत्यादिसम्यशानस्याविर्भावकाल एव तत्त्वार्थश्रद्धानस्याविर्भावात् । ततो न दर्शनस्य सानादम्यहितवं शानसम्यक्त्वहेतुत्वाव्यवस्थितेरिति कश्चिन्, तदसत् , अभिहितानवयोधात् । न हि सम्यखानोसचिहेतुस्वादर्शनस्याम्यर्थोऽभिधीयते, किं वर्हि ? ज्ञानसम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् , पूर्व हि दर्शनोत्पत्तेः साकारग्रहणस्य मिथ्याज्ञानव्यपदेशो मिथ्यात्वसहचरितत्वेन यथा, तथा दर्शनमोहोपशमादेर्शनोत्पत्तौ सम्यग्ज्ञानन्यपदेश इति । .
किसीकी निग्रहार्थ यहां शंका है कि सत्त्वार्थोके श्रद्धानस्वरूप सम्यग्दर्शनको ज्ञानकी समीचीनताका हेतुपना कहना, यह भयुक्त है। क्योंकि सम्पन्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों गुण एक साथ प्रगट होते हैं। एक साथ ही सदा रहते हैं। जैसे गौके एक समयमें उत्पन्न होनेवाले वाम और दक्षिण सींगों में कार्यकारणभाव नहीं घटता है, वैसे ही साथ उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन और सम्पज्ञानका कार्यकारणभाव नहीं घनसा है। पूर्वक्षणवर्ती कारण होता है और उसके अव्यवहित
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तत्वार्थचिन्तामणिः ।
उत्तर क्षणमें रहनेवाला कार्य होता है । इस नियमको प्रायः सर्व ही दार्शनिक मानते हैं । यदि आप जैन यो कहै कि सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेके समय ही सम्यग्ज्ञान प्रगट होजाता है । इस कारण वह सम्यग्दर्शन उस ज्ञानका कारण है, यह कहना मी असंगत है। क्योंकि समान फालबालोंका ही कार्यकारणभाव होने लगा तब तो सम्याज्ञान भी सम्यग्दर्शनका कारण बन सकेगा । इस प्रसंगको आप दूर नहीं कर सकते हैं । क्योंकि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदिके प्रगट होते समय ही तत्त्वार्थोंका श्रद्धान करना स्वरूप, सम्यग्दर्शन प्रगट होगया है। इस कारणसे दर्शनको ज्ञानसे पूज्यपना सिद्ध नहीं हुआ । दर्शनकी पूज्यतामें दिया गया ज्ञानकी समीचीनताका कारणपन हेतु अच्छे प्रकारसे सिद्ध नहीं हो सका है । उसके स्पष्टीय अर्थकी व्यवस्था नहीं होसकी है। इस प्रकार कोई एक आक्षेपक कह रहा है । आचार्य कहते हैं कि उसका वह कहना प्रशस्त नहीं है। क्योंकि आक्षेपकने हमारे कहे हुए. अभिपायको समझा नहीं है। हम सम्यग्दर्शनको सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण हो जानेसे पूज्यपना नहीं कहते हैं। तब तो इम क्या कहते हैं ! उसे पुनः सुनिये । हम यह मानते हैं कि पूर्वसे विद्यमान होरहे ज्ञानको समीचीनपनके व्यवहार कराने सम्बन्दर्शन कारण है। आत्मामै चेतनागुण स्वतंत्र है और दूसरा सम्यादर्शन गुण मिन्न है। अनादिकालसे बद्ध पुद्गल द्रव्यको निमित्त पाकर गुणोंके अनेक प्रकारसे विपरिणाम होरहे हैं। चेतनागुणका कुमति आदि ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे मिथ्यावानरूप परिणमन चला आरहा है। और सम्यक्सगुणकी दर्शनमोहनीयके उदयसे मिभ्यादर्शनरूप परिणति होती आरही है। जिस समय करणलब्धि होनेपर दर्शन मोहनीयका उपशम होजानेसे आत्माम सम्पग्दर्शनका स्वाभाविक परिणाम उत्पन्न होता है, उसी समयका ज्ञानपरिणाम भी समीचीन व्यवहृत हो जाता है । जैसे शुद्ध मधे हुए लेटे भरा हुआ कूप-जल शुद्ध है और अशुद्ध वर्तनमें रखा हुआ कूप-जल अशुद्ध है। एवं. मिस्याहष्टि जीवके सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके प्रथम होनेवाले अर्थोके विशेष ग्रहणरूप ज्ञानको मिथ्यादर्शनके साथ रहने के कारण जैसे मिख्याज्ञानपनेका व्यवहार किया जाता है, वैसे ही दर्शन मोहनी.. यके उपशम या क्षयोपशम आदिसे सम्यग्दर्शनके प्रगट हो बानेपर सम्यग्जानपनेका व्यवहार हो जाता है । भावार्थ--वास्तवमें देखा जाये तो मिय्यालके उदय होनेपर सम्यग्दर्शन गुणमे मिय्या स्वादुरूप जैसे मिथ्यापन है, वैसा ज्ञानमें विपरीत स्वादुरूप मिथ्यापन नहीं है। केवल दूसरे विमावमावके संसर्गसे मिथ्यापन कह दिया जाता है। वैसे तो इंद्रियोंके काच कामल आदि दोषोंसे ज्ञानमें मिथ्यापन व्यक्त रूपसे सातवे गुणस्थान तक और अव्यक्त रूपसे बारहवे गुणवान तक रहता है। पूज्य मुनिमहाराज भी पित्तदोषवश शुक्लको पीला देखते हैं। किंतु वह ज्ञान उनका सम्यग्ज्ञान ही है, और ग्यारह अंगोंका पाठी मिथ्यादृष्टि घटमें घटज्ञान कर रहा है । तब मी वह मिथ्याज्ञान ही है। स्नेहवसला माताके पुत्रपर थप्पड मारने की अपेक्षा ईर्ष्यालु सपत्नीका खिलाना कहीं चुरा है। ज्ञान . वह प्रकाशमान पदार्थ है। जिसमें केवल दूसरी उपाधियों के गश कुरिससफ्ना कर दिया जाता है और.
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तवाचिन्तामणिः
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चारित्र तथा सम्यक्स्व गुणमें विपरीत रस करा देनेवाली कडवी तुम्बीमें घरे हुये दूधके स्वाद बदल जाने के समान मुख्यरूपसे मिथ्या मोहनपना है ।
नन्वेवं सम्यग्ज्ञानस्य दर्शनसम्यक्त्व हेतुस्वाद म्यर्होस्तु मिथ्याज्ञानसहचरितस्यार्थश्रद्वानस्य मिथ्यादर्शनव्यपदेशात् मत्यादिज्ञानावरणश्चयोपशमान्मत्यादिज्ञानोत्पत्तौ तस्य सम्यग्दर्शन व्यपदेशात् । न हि दर्शनं ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशनिमित्तं न पुनर्ज्ञानं दर्शनस्य सहचारित्वाविशेषादिति चेत् न । ज्ञानविशेषापेक्षया दर्शनस्य ज्ञानसम्यक्त्वव्यपदेशहेतुत्वसिद्धेः । सकलश्रुतज्ञानं हि केवलमन:पर्ययज्ञानघत् प्रागुद्भूतसम्यग्दर्शनस्यैवाविर्भवति न. मत्यादिज्ञान सामान्यवद्दर्शनसहचारीति सिद्धं ज्ञानसम्यक्त्वद्देतुत्वं दर्शनस्य ज्ञानादम्यईसाधनम् । ततो दर्शनस्य पूर्व प्रयोगः ।
आक्षेपककी यहां पुनः शंका है कि इस प्रकार समानकालवर्ती पदार्थों में भी व्यवहार कराने armer यदि कार्यकारणभाव मान लिया जावे सो दर्शनके समीचीनपनेका कारण हो जानेसे सभ्यज्ञानको भी अच्छा पूज्यपना हो जाओ। क्योंकि पहिले मिथ्याज्ञानके साथ रहनेवाले अर्थश्रद्धानको मिथ्यादर्शनपने का व्यवहार था और जब मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानको आवरण करनेवाले कमोंके क्षयोपशमसे आत्मामें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न हो जाते हैं, तब उस अर्थको श्रद्धान सम्बन्दर्शनपनेका व्यवहार हो जाता है। यहां जैनोंका यह पक्षपात नहीं चल सकेगा कि ज्ञानकी समीचीनसा व्यवहारका कारण सम्यग्दर्शनको तो मान लिया जावे, किंतु फिर सम्यग्दर्शन की समीचीनता का कारण सम्यग्ज्ञान न माना जावे । जबकि दोनों में ही सहचारीपन अंतररहित है । मावार्थ- दर्शकी समीचीनताका कारण दीख रहा ज्ञान भी पूज्य हो सकता है। यदि टेसूके फूलके सन्निधानसे कांच का हो जाता है तो साथमें कांचकी निकटताले टेसूका फूल मी लावण्ययुक्त हो जाता है J अतः दोनों में औपाधिक भाव हैं। प्रथकार कहते हैं कि इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है 1 क्योंकि विशेषज्ञानोंकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनको ज्ञानकी समीचीनता के व्यवहारका कारणपना सिद्ध है, जैसे कि सम्यग्दर्शन के साथ सामान्य मति ज्ञान या सामान्य श्रुतज्ञान अवश्य रहता है । किंतु किसी विशेषसम्यग्दर्शन के पूर्व में सम्यग्ज्ञान अवश्य होना ही चाहिये, यह व्याप्ति भी नहीं है । प्रत्युत यह देखा जाता है कि परिपूर्ण द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान उसी जीवके उत्पन्न होगा जिसको कि पूर्व सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो चुका है। जैसे कि केवलज्ञान और मन:पर्ययज्ञान पूर्वके सम्यग्दृष्टि जीवके ही उत्पन्न होते हैं। अतः पूर्ण श्रुतज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, परमादधि, सर्वावधि और केवलज्ञान इन विशेष raint अपेक्षा सम्यग्दर्शन ही ज्ञानका कारण सिद्ध होता है । सामान्य मविज्ञान और श्रुतज्ञान आदिके साथ म ही सम्यग्दर्शन का सहचारीपन हो; किंतु पूर्ण श्रुतज्ञान आदिके पूर्व कालमें सभ्यग्दर्शन ही रहता है। इस कारण सिद्ध हुआ कि ज्ञानोंकी समीचीनताका कारण सम्यग्दर्शन ही है ।
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सातापितामविक
अबतक सम्यग्दर्शनको ज्ञानसे पूज्यपना सिद्ध हो चुका, उस कारण दर्शनका ज्ञान शब्दसे प्रथम मादि सूत्रमै मयोग किया गया है । ____कश्चिदाह-शानमम्यर्हितं तस्य प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तौ भवान्तरामावाद, नतु दर्शनं । वस्य थापिकस्यापि नियमेन भवान्तराभावहेतुत्वामावादिति । सोऽपि चारित्रस्याम्पातिवं प्रवीतु तत्पकर्षपर्यन्तमाप्तौ भवान्तराभावसिदे।
कोई फिर यहाँ कटाक्ष करता है कि दर्शनसे ज्ञान ही पूज्य है। क्योंकि शानके अस्वपिक प्रकर्षता पर्यन्त माप्त हो जानेपर अर्थात् केवलज्ञान हो जानेपर इस बीवकी उसी भवसे मोक्ष हो. जाती है। दूसरा भव धारण नहीं करना पडता है। किन्तु सम्बग्दर्शनकी प्रकर्ष सीमातक पहुंचने पर मी यानी क्षायिक सम्यग्दर्शनके उत्पन्न हो जानेपर भी नियमसे दूसरे जन्मोंको पारण न करनेकी हेतुताका अभाव है । कोई झायिकसम्बन्दष्टि जीव भहें ही उस जन्मसे मोक्ष प्राप्त करलेवे, किन्तु अन्य क्षायिकसम्यग्दृष्टि श्रेणिक राजाके समान तीसरे भवमे मुक्तिको प्राप्त करेंगे। अथवा मनुष्यायु या तिर्यगायु को पांधकर जिन मनुष्योंने केवली या श्रुतकेनलीके निकट क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है, वे भोगभूमिके सुख भोगकर देव होनेके बाद कर्मभूमिमें मनुष्य होकर मुक्ति काम करेंगे। हां, चौथे भवमें मुक्तिको अवश्य प्राप्त कर लेवेगे। किन्तु पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानी तो ससी जन्मसे सिद्ध परमष्ठी बन जाते हैं। अतः दर्शनसे जान पूज्य रखा | आचार्य कहते हैं कि ऐसा कटाक्ष करनेवाला वह शंकाकार मी चारित्रको पूज्यपना कहे तो और भी अच्छा है। क्योंकि उस चारित्रकी पूर्णता होनेपर तत्क्षणमें ही मोक्ष हो जाती है। दूसरे भवोका धारण करना तो क्या, वर्तमान मवका धारण करना मी शीन नष्ट हो जाता है, यह बात सिद्ध है। भतः किसीकी प्रकर सीमासे पूज्यपनेकी व्यवस्था करनेवाला हेतु व्यभिचारी हो गया । अतः आदिके शानको समीचीनता . देनेवाला दर्शन ही पूज्य है । कर्मभूमिके आदिमें लौकिक और धार्मिक व्यवस्थाको अक्षुण्ण बतानेवाले . भगवान ऋषभदेवका पूज्यपना जगत्पसिद्ध है । उपज्ञ शानका कारण अभ्याईत होना ही चाहिये।
केवलवानस्थानतत्वाचारित्रादभ्यहाँ न तु चारित्रस्य मुक्ती तथा व्यपदिश्यमानस्थामावादिति चेत्, व्रत एव धाषिकदर्शनस्याम्यहाँस्तु मुक्तावपि सद्भावाद अनंतत्वसिदे।
चारित्रकी अपेक्षासे केवलज्ञानको ही पूज्यपना है। क्योंकि केबसज्ञान अनंतकाल तक खिप्त रहता है। किंतु चारित्र पूज्य नहीं है, कारण कि मुक्ति चारित्रगुणकी विधमानताका कथन नहीं किया है। केवलज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व, केवलदर्शन, जीवस्व और सिद्धव इन भावोंका ही निरूपण मोक्ष अवस्थाम किया है। सिद्धोंके आठ गुणोंम भी चारित्रका नाम नहीं है। सिद्धगति १ फेवलज्ञान २ केवलदर्शन ३ क्षायिकसम्यक्त्व १ मनाहार ५ ये पाच मार्गणार्य सिद्धो मानी गई है। यहाँ मी चारित्रका कपन नहीं आया है। प्रधकार कहते है कि यदि ऐसा कहोगे सो हम कहते हैं
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सत्साचिन्तामणिः
कि उस ही कारणसे क्षायिकसम्यक्त्वको पूज्यपना हो जाओ। क्योंकि मुक्तिमें भी वह विद्यमान है । क्षायिक सम्यग्दर्शनका मोक्ष अवस्था अनन्तकालतक ठहरे रहना सिद्ध है।
साधावान्तराभावहेतुत्वाभावादर्शनस्य केवलज्ञानादनम्पहें केवलस्याप्यम्यों माभूत तत एव। नहि तत्कालादिविशेषनिरपेक्ष भवान्तराभावकारणमयोगकेवलिचरमसमयमाप्तस्य दर्शनादित्रयस्य साक्षान्मोक्षकारणत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । ततः साक्षात्परम्परया वा मोक्षकारपत्वापेक्षया दर्शनादित्रयस्याभ्यर्हितत्व समानमिति न तथा कस्यचिदेवाभ्यई व्यवस्थायेन ज्ञानमेवाभ्यहित स्थात् दर्शनात् ।
क्षामिक सम्यग्दर्शनको अन्ययहित उस ही भवसे जन्मांतर न लेनेकी मानी मोक्ष होनेकी कारणताका अभाव है । इस कारण केवलज्ञानसे सम्यग्दर्शन पूज्य नहीं हो सकता है, ऐसा कहनेपर तो उस ही कारणसे केवलज्ञानको भी पूज्यपना न होगा । भावार्थ-केवलज्ञान भी अव्यवहित उत्तर कालमें मोक्षका सम्पादक नहीं है। काल, पूर्णचारित्र, अपाहियोंका नाश आदि उन विशेष कारणोंकी नहीं अपेक्षा करता हुआ वह विचारा केवलज्ञान अन्य जन्म न लेना रूप मोक्षका कारण नहीं होपाता है। किंतु चौदहवे अयोग केवळी नामक गुणस्थानके अंतिमसमयमै प्राप्त हुए सम्पम्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों ही अव्यवहित उत्तरकालमें होनेवाली सिद्ध अवस्थारूप परम मुक्ति के साक्षात् कारण है। इस स्वरूप करके उक बासको हम अग्रिम ग्रंथम स्पष्ट रूपसे कहनेवाले हैं। उस कारण मोक्षके साक्षात् अर्थात् अम्पवहित कारण होजाने अथवा तीसरा, चौया शुक्लध्यान या अघाती कमोंका क्षय होनेको बीचमे डालकर परम्परासे कारणपनेकी अपेक्षासे दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों को पूज्यपना समान है । हायिक सम्यावर्शन चौधेसे लेकर सातवे तक किसी भी गुणस्थानमें उपजकर पूर्ण हो जाता है। ज्ञान तेरहवे गुणस्थानके आदि समयमै पूर्ण हो जाता है। और चारित्रगुण बारहवेकी मादिमें पूर्ण हो जाता है, किंतु मोक्ष होनेमें कमसे कम कई अंतहत और अधिकसे अधिक कुछ अंतर्मुहर्त अधिक आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व वर्ष अवशिष्ट बह जाते हैं। चौरासी लाख वर्षोंका एक पूर्वान होता है और चौरासी लाख पूर्वाङ्गोंका एक पूर्व है । ऐसे एक कोटि पूर्व वर्षोंकी आयु कर्मभूमिमें उत्कृष्ट मानी गयी है । आठ वर्षका मनुष्य मुनि व्रत लेकर कतिपय मंतइलाके पश्चात् फेवलज्ञान प्राप्त कर सकता है। अतः तीनों ही रत्नोंको अन्य विशेष कारणोंकी अपेक्षा रखते हुए ही मोक्षका कारणपन है। ऐसी दशाम उस प्रकार मोसके कारणपनकी अपेक्षासे तीनों मैसे किसी एकको ही पूज्यपनेकी म्यवस्था नहीं हो सकती है, जिससे कि ज्ञान ही दर्शनकी अपेक्षासे पूज्य माना जावे ।
' नन्वेवं विभिएसम्यग्ज्ञानहेतुत्वेनापि दर्शनस्प हानादभ्य सम्यग्दर्शनहेतुत्वेन ज्ञानस्य दर्षनादस्योस्तु श्रुवधानपूर्वकस्वादधिगमनसदनस्य, मत्यवधिज्ञानपूर्वकत्वाभिसर्गजस्पेति
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तस्वाचिन्तामणिः
चेम, दर्शनोत्पत्तेः पूर्व श्रुतज्ञानस्य मत्यवधिज्ञानयोरू अनाविर्भावात् मत्यज्ञानभुतासानविभङ्गज्ञानपूर्वकत्वात् प्रथमसम्यग्दर्शनस्य, न च तया तस्य मिथ्यात्वप्रसङ्गः सम्यग्ज्ञानस्यापि मिथ्याज्ञानपूर्वकस्य मिथ्यात्वप्रसक्तः। .
यहां आक्षेपककी शंका है कि इस प्रकार पूर्ण श्रुतज्ञान या मनःपर्यय ज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञानके कारण बन जानेसे भी दर्शनको ज्ञानकी अपेक्षासे पूज्यपना मानोगे, तब तो विशिष्ट सम्यम्दर्शनका कारण बन जानेसे भी ज्ञानको दर्शाती लपेक्षा गप्न मागो। योनि पापोत्रो जलन हुभा सम्यग्दर्शन श्रुतज्ञानरूप कारणसे उत्पन्न हुआ है और स्वभावसे (परोपदेशातिरिक्त कारणोंसे) होनेवाला सम्यग्दर्शन भी अपनी आत्मा विद्यमान होरहे मतिज्ञान और अवषिशान रूप कारणसे उत्पन्न हुआ है । अत: फिर मी ज्ञानको पूज्यता आती है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहो सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके पहिले श्रुतज्ञान अथवा मतिज्ञान या अवधिज्ञान ये मगट ही नहीं होते हैं। मति, श्रुत और अवधि ये तीनों सम्यग्ज्ञानके भेद है। पहिले ही पहिले भन्यजीवको जो सम्यग्दर्शन होता है वह कुमति, कुश्रुत अथवा विभङ्गज्ञान पूर्वक ही होता है। सम्यग्दर्शनके प्रथम होनेवाली जानकी पर्याय मिथ्यादर्शनके सहचारी होने के कारण मिथ्याज्ञान रूप हैं। एतावता कोई यों कहे कि तब तो उस प्रकार मिथ्याज्ञान पूर्वक उत्पन्न हुए उस निसर्गर और अधिगमज सम्यग्दर्शनको मी मिथ्यापनका प्रसंग आठा है, सो कहना भी युक्त नहीं है । क्योंकि यो तो मिथ्याज्ञानपूर्वक हुए सम्यग्ज्ञानको भी मिथ्यापनका प्रसंग हो जावेगा। जब कमी प्रथम ही प्रथम सम्याज्ञान हुआ है, उसके पहिले मिथ्याज्ञान अवश्य था । असिद्ध अवस्थासे ही सिद्ध अवस्था होती है । चौदहवें गुणस्थानके अंतिमसमयवाले सकर्मा जीथ ही एक क्षण बाद अकर्मा हो जाते हैं। मूर्ख ही विद्वान् बन जाते हैं। कीचसे कमल होता है और अशुद्ध खातसे शुद्ध अन्न फल आदि उत्पन्न हो जाते हैं । अतः मिथ्यावर्शन और मिथ्याज्ञान ही कारण मिलनेपर अग्रिम क्षणमे सम्म. ग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप परिणत हो जाते हैं, कोई बाधा नहीं है। .
सत्यज्ञानजननसमन्मिध्याज्ञानात्सत्यज्ञानत्वेनोपचर्यमाणादुत्पनं सत्यशानं न मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते मिथ्यात्वकारणादृष्टाभावादिति चेत्, सम्यग्दर्शनमपि तास्मान्मिथ्याशानादुपजातं कथं मिथ्या मसज्यते, तत्कारणस्य दर्शनमोहोदयस्याभावात् ।
देखिये, मिथ्याज्ञान दो प्रकारके हैं। एक उत्तरक्षणमे मिथ्यात्वको पैदा करनेवाले और दूसरे उत्तरक्षणेम सम्यग्ज्ञानको पैदा करनेवाले । जो सम्याज्ञानको पैदा करनेवाले हैं उन मिथ्याज्ञानोंको उपचारसे सम्यग्ज्ञानपना माना जाता है। कार्यके धर्म कारणमै आरोपित कर दिये जाते हैं। चौदहवें गुणस्थानको अन्तिम सर्भ अवस्था भी अकर्मरूप व्यवद्धृत होती है। पण्डित और वकीलका मूर्ख पिता भी व्यवहार, पण्डित और कुशल कहा जाता है। अत: सस्प
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तत्वार्थचिन्तामणिः
ज्ञानके उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य रखनेवाले और व्यवहारसे सत्यज्ञानरूप ऐसे मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न हुआ सत्यज्ञान कमी मिध्यापनको प्राप्त नहीं हो सकता है । क्योंकि ज्ञानके मिथ्यात्वका कारण माने गये अदृष्टविशेष मिथ्याज्ञानावरण कर्मका उदय उस समय नहीं है। सम्यग्ज्ञानके पूर्व समयमै सम्यग्ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम है और उसके पहिले समय मिथ्याज्ञानारणका क्षयोपशम है । क्षयोपशम ज्ञानका कारण है। अतः मध्यकी अवस्था वस्तुतः तो मिथ्याज्ञान है। किंतु वह सम्याज्ञान सरीखा है । इस कारण सम्या ज्ञानको एकांत रूपसे मिथ्याज्ञानपूर्वक कहना जैनोंको उचित नहीं है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम जैन कहते है कि उपचारसे सम्यग्ज्ञान रूप उस मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न हुये सम्यग्दर्शन को भी मिथ्यापनका प्रसग कैसे हो जावेगा : बताओ। अर्थात् सम्यग्दर्शनको भी मिथ्यादर्शनपने का प्रसंग नहीं है, क्योंकि दर्शनमें उस मिथ्यापनेका कारण दर्शनमोहनीय कर्मका उदय है । सो सम्यग्दर्शनक उत्पन्न हो जानेपर रहता नहीं है।
सत्यज्ञानं मिथ्याज्ञानानन्तरं न भवति तस्थ धर्मविशेषानन्तरभावित्वादिति चेत्, सम्यग्दर्शनमपि न मिथ्याज्ञानानन्तरभावि तस्याधर्मविशेषाभावानन्तरमावित्वोपगमात् ।
सम्याज्ञान तो मिथ्याज्ञान के अनंतर होता ही नहीं है, किंतु वह सम्यग्ज्ञान तो ज्ञानावरणका विशिष्ट क्षयोपशमरूप धर्मको कारण मानकर उत्पन्न होता हुआ स्वीकार किया गया है। यदि ऐसा कहोगे तो हम भी कहते हैं कि सम्यादर्शन गुण भी मिथ्याज्ञानके अनंतर कालमें नहीं होता है। किंतु वह सम्यग्दर्शन तो मिथ्याल, सम्ययिथ्यात्व और अनंतानुबंधीरूप विशेष पापोंका उदय न होना रूप अभावको कारण मानकर उत्पन्न हुआ माना है । वस्तुतः विचारा जाये तो सम्यग्दर्शन पर्यायका उपादान कारणरूप पूर्वपर्याय मिध्यादर्शन ही है और मिथ्याज्ञानका उपादानकारण रूप पूर्वपरिणाम मिथ्याज्ञान है । इसमें भय और लज्जाकी कौनसी बात है ! शीत तेलसे उष्ण और चमकती हुयी दीपकलिका बन जाती है तथा दीपकलिकासे ठण्डा और काला काजल पन जाता है । उत्तरपर्यायका उपादान कारण गुण होता है। उस गुणके पूर्व समयवर्ती पर्यायों में मिथ्यापन लगा हुआ है । यह मिथ्यापन उत्तर पर्यायोंके उत्पन्न होनमें प्रयोजक नहीं है । उष्ण कलिकासे उण्टा काजल होजाता है। यहां उष्णता पर्याय शीतमै कारण नहीं है । कारण तो स्पर्श गुण है। हम क्या करें । उस समय स्पर्श गुणका उur परिणाम था । मूर्खसे पण्डित हो जाता है। यहां पण्डिताईका कारण मूर्खता नहीं है । किंतु चेतनागुण है । उसका पूर्व में कुज्ञान या अज्ञान परिणाम है। विशिष्ट क्षयोपशम होनेसे वही चेतना गुण पण्डिताई रूप परिणत हो जाता है । तेल मले ही सोनके पात्रमें हो या मिट्टी के पात्रमें, कलिकाका केवल तेल के साथ उपादान उपादेय भाव है।
मिथ्यानानानन्तरभावित्वाभावे च सत्यज्ञानस्य सत्यज्ञानानन्तरमावित्वं सत्यासस्यज्ञानपूर्वकत्वं वा स्यात् ? प्रथमकल्पनायां सत्यज्ञानस्यानादित्वप्रसंगो मिथ्याज्ञानसन्ता
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नस्य चानन्तत्वप्रसक्तिरिति प्रतीतिविरुद्धं सत्येतरबानपौर्वापर्यदर्शननिराकरणमायातम् । द्वितीयकल्पनायां तु सत्यज्ञानोत्पत्तेः पूर्व सकलज्ञानशून्यस्यात्मनोनात्मत्वानुषको दुर्निवार• स्वस्योपयोगलक्षणत्वेन साधनात् । स चानुपपन्न एवात्मना प्रसिद्धेरिति मिथ्याशानपूबैंकमपि सत्यज्ञानं किंचिदभ्युपेयम् । तद्वत्सम्यग्दर्शनमपि इत्यनुपालम्मः।
जो प्रतिवादी सत्यज्ञानको मिथ्याज्ञानके अव्यवहित उत्तर कालमें उत्पन्न होता हुआ नहीं भानेंगे, उनसे हम जैन पूछते हैं कि सबसे पहिले उत्पन्न हुए सत्यज्ञानको सत्यज्ञानके पश्चात् होता हुआ मानेंगे या सत्यज्ञान और असत्य झानसे रहित केवल आत्मा ही सत्यज्ञानको उत्पन्न करदेगा, स्वीकार करेंगे ! बताओ । यदि पहिले पक्षकी कल्पना करोंगे, तब तो सस्यज्ञानको अनाविपनका प्रसंग आता है । क्योंकि पहिला सत्यज्ञान उसके पहिलेके सस्यज्ञानसे उत्पन्न होगा और वह भी उससे मी पहिसके सत्यवानसे होगा, इस हमेध्याही जीवोंके भी अनादि कालसे सम्यग्ज्ञानके होनेका प्रसंग आता है । तथा दूसरा दोष यह भी होगा कि मिथ्याज्ञानकी सन्तानरूप पाराको मनन्तपनेका प्रसंग हो जावेगा। क्योंकि जैसे सत्यज्ञान ही भविष्यमें सत्यज्ञानको पैदा करते हैं, वैसे ही मिय्याज्ञान मी मविष्यमै मिथ्याज्ञानको ही पैदा कर सकेंगे। मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञानको उत्पन्न तो कर नहीं सकेगा। मतः कोई भी मिथ्यादृष्टिजीव अनन्त कालतक सम्यग्ज्ञानी नहीं बन सकेगा, इस प्रकार सत्यज्ञान और मिथ्याज्ञानके पूर्व उत्तर कालमै रहना रूप कार्यकारण भावको माननेयाले नैयायिक, जैन आदिके दर्शनोंका खण्डन होना प्राप्त होता है, जो कि प्रमाणसिद्ध प्रतीतियोंसे विरुद्ध है।
यदि दूसरा पक्ष लोगे यानी सबसे पहिला सम्यग्ज्ञान आत्मामें सत्य और मिथ्या किसी मी ज्ञानसे उत्पन्न नहीं हुआ है, इस कल्पना तो सत्यज्ञानकी उत्पत्तिके पहिले संपूर्ण ज्ञानोंसे रहित माने गये आत्माको जडपनेका प्रसंग आता है। जिसको कि आप अत्यंत कष्ट से दूर कर सकेंगे, जब कि उस आत्माका ज्ञान और दर्शनोपयोग स्वरूपसे साधन हो चुका है। अतः ज्ञानोंसे रहित आमाका वह मानना असिद्ध ही है । क्योंकि सर्वदा किसी न किसी ज्ञानसे युक्त होरहे आस्माकी प्रसिद्धि होरही है | इस कारण समी प्रतिवादियोंको इसी उपायका अवलम्ब करना पडेगा कि मिध्यादृष्टि जीवके सबसे पहिले उत्पन्न हुआ कोई कोई सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञानपूर्वक भी है। उसी सत्यज्ञानके समान पहिला सम्यग्दर्शन भी मिथ्याज्ञानपूर्वक होजाता है । इस प्रकार जैनोंके ऊपर कोई भी उलाहना नहीं है।
क्षायोपशमिकस्य क्षायिकस्य च दर्शनस्प सत्यज्ञानपूर्वकत्वात्सत्यज्ञानं दर्शनादभ्यहितमिति च न चोद्यम्, प्रथमसम्यग्दर्शनस्यौपशमिकस्य सस्यवानाभावेऽपि भावात् | नै किचित्सम्पग्वेदनं सम्यग्दर्शनाभावे भवति । प्रथमं भवत्येवेति चेत् न तस्थापि सम्पन्दर्शनसहचारिस्वात् ।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
કબ
1
किसीका कटाक्ष है कि उपशम सम्यक्त्वके अनन्तर चार अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्व तथा सम्यग्मियात्यके उपशम होनेपर और सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय होनेपर उत्पन्न हुए क्षयोपशम सम्यक्त्वको और क्षयोपशमके ही अनन्तर होनेवाले क्षायिक सभ्यपस्वको सत्यज्ञानपूर्वकपना ही आप जनोंने इष्ट किया है । अतः सम्यादर्शन से सत्यज्ञान पूज्य है । क्योंकि सम्यस्वका कारण सम्यग्ज्ञान है । ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रकारका कुचोध करना ठीक नहीं है । क्योंकि अनादि I मिथ्यादृष्टी जीवके करणलब्धिके उत्पन्न होजाने पर उत्पन्न हुए अनन्सानुबन्धी चार और मिध्यात्व इन पांच प्रकृतियोंका अप्रशस्त प्रशस्त उपशम होनेपर पहिला औपशमिक सम्यक्स्व तो सत्यज्ञान के विना भी उत्पन्न हो जाता है तथा सादि मिध्यादृष्टि के प्रथम गुणस्थानसे भी सीधा क्षयोपशम सम्यक्व हो जाता है । अतः कोई कोई सम्यग्दर्शन तो सत्यज्ञानके पूर्व में रहे विना भी हो गया । किन्तु इस प्रकार कोई भी सम्यग्ज्ञान ऐसा नहीं है जो कि सम्यग्दर्शन के पूर्ववर्ती रहे विना उत्पन्न हो जावे। यदि आप यों कहें कि पहिला सम्यग्ज्ञान तो सम्यग्दर्शन के पूर्वमें रहे विना ही हो गया है, यह तो ठीक नहीं है। क्योंकि पहिले सम्यग्ज्ञानके पूर्वमें सम्यग्दर्शन न सही, किन्तु उसके समान कालमै साथ रहनेवाला सम्यग्दर्शन है ही । यों वह ज्ञान भी सम्यग्दर्शनका सहचारी है।
तर्हि प्रथममपि सम्यग्दर्शनं न सम्यग्ज्ञानाभावेऽस्ति तस्य सत्यज्ञान सहचारित्वादिसि न सत्यज्ञानपूर्वकत्वमव्यापि दर्शनस्थ, सत्यज्ञानस्य दर्शनपूर्वकत्ववत्, ततः प्रकृतं चोद्यमेवेति चेष प्रकृष्टदर्शनज्ञानापेक्षया दर्शनस्याभ्यर्हितत्ववचनादुक्तोसरत्वात् । न हि क्षायिक दर्शनं केवलज्ञानपूर्वकं येन तत्कृताभ्यर्हितं स्यात् । अनन्त भवप्रहाणहेतुत्वाद्वा सद्दर्शनस्याभ्यर्हः ।
शंकाकारा कटाक्ष करना फिर जम गया कि तब तो पहिला सम्यग्दर्शन भी सम्यग्ज्ञान के बिना नहीं होता है । वह प्रथमोपशमसम्यक्त्व भी सत्यञ्चानका सहचारी है अर्थात् दोनों एक सममें होते हुए साथ रहते हैं । इस प्रकार आप जैनोंने पूर्व में यह क्यों कहा था कि कोई कोई सम्यग्दर्शन सत्यज्ञान के बिना भी रह जाता है। किंतु कोई भी सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनके विना नहीं होता है | हम शंकाकार कहते हैं कि साथ रहनेसे ही यदि उसके पूर्वकपना बन जावे, तब तो दर्शनको भी सम्मानपूर्वकपना बन जावेगा । अतः सत्यज्ञानपूर्वेकपना यदि सम्यग्दर्शनका लक्षण कर दिया जाये तो आप जैनोंके कथनानुसार कोई अव्याप्ति दोष नहीं है । जैसे सम्यग्ज्ञानको आप दर्शन कपना मानते हैं और उसी कारण दर्शनको ज्ञानसे पूज्य मानते हैं वैसे ही सत्यज्ञान भी सहचारी दोनेसे सम्यग्दर्शन के पूर्व में रहता है । अतः ज्ञान भी पूज्य हो जाओ, हमको आपके उत रसे संतोष नहीं है । तिस कारण प्रकरणमें चलाया गया हमारा कटाक्ष तदवस्थ ही रहा । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार चोध करना ठीक नहीं। क्योंकि पूर्ण उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी अपेक्षासे कारणताका विचार कर दर्शनको पूज्यपना हमने कहा है और आपकी शंकाका सिद्धांत उत्तर हम पहिले भी संक्षेपमै यही कह चुके हैं । केवलज्ञान के प्रथम
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न हो चुका है, किंतु क्षायिकसम्यक्व केवलज्ञानपूर्वक नहीं है, जिससे कि उस पूर्णदर्शनकी अपेक्षा से किया गया पूर्णज्ञान पूज्य समझा जावे। और दूसरा समाधान यहां यह समझना चाहिये कि सम्यग्दर्शन ही इस जीवके भविष्य अनंत भवोंके मूलसहित नाशका कारण है । एक बार सम्यग्दर्शन के हो जानेपर अधिक से अधिक अर्ध पुद्गल परिवर्तन कालमें अवश्य ही मोक्ष हो जाती है । अनंतानंत भव में परिभ्रमण करने की अपेक्षा थोडेसे अनंत असंख्यात संख्यात भवों में परावर्तन कर मोक्ष विराजमान कर देनेका श्रेय सम्यग्दर्शन गुणके ही माঈपर लगा हुआ है। इस सम्यग्दर्शन के बलपर और अनेक गुण भी आत्मार्गे व्यक्त हो जाते हैं। इस कारण सम्यग्दर्शन ही पूज्य है ।
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विशिष्टज्ञानतः पूर्वभावाच्चास्यास्तु पूर्ववाक् ।
तथैव ज्ञानशब्दस्य चारित्रात्प्राक् प्रवर्तनम् ॥ ३५ ॥
ज्ञानावरण कर्मके क्षय होजानेपर उत्पन्न हुए विलक्षण चमत्कारक क्षायिक ज्ञानसे पूर्व में रहने की अपेक्षासे इस सम्यग्दर्शनका सूत्रमै पहिले बोलना उचित है । तैसे ही आनुषंगिक दोषोंसे मी रहित होरहे परिपूर्ण चारित्र से ज्ञान शब्दका भी आदि सूत्र पहिले प्रयोग करने में प्रवर्तना समझलो !
यद्यत्कालतया व्यवस्थितं तत्तथैव प्रयोक्तव्यमार्षान्न्यायादिति क्षायिकज्ञानात्पूर्वकालवयावस्थितं दर्शनं पूर्वमुच्यते, चारित्राच समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिध्यानलक्षणात् सकलकर्मक्षयनिबन्धनात्स सामग्री का प्राक्कालतयोद्भवत् सम्यग्ज्ञानं ततः पूर्वमिति निरवद्यो ' दर्शनादिप्रयोगक्रमः ।
जो जिस कालमें होता हुआ प्रामाणिक व्यवस्थासे सिद्ध दोरहा है, उसका उत्पत्तिके क्रमानुसार वैसे ही प्रयोग करना चाहिये । ऋषियों के सम्प्रदाय से ऐसा करना ही न्यायमार्ग है। इस कारण क्षायिक केवलज्ञानसे पूर्वकालने रहनेवाला सम्यग्दर्शन सिद्ध हो चुका है | अतः सूत्र दर्शन शब्द पहिले कहा जाता है और चारित्रसे पहिले ज्ञान शब्दका प्रयोग किया है । यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्मका क्षय होजानेसे बारहवें गुणस्थान के आदि में ही क्षायिकचारित्र होगया है । किंतु मघातिया कर्मों के निमित्तसे चारित्रमे आनुषंगिक दोष आरहे हैं । केवलज्ञानमें अघातिया कर्मों के सन्निधानसे कोई दोष नहीं आते हैं । वह तेरहवेंके आदि में ही अक्षुण्ण परिपूर्ण है। मन, वचन, कायके योगोंकी क्रिया सर्वथा नष्ट हो जानेपर पीछे उत्पन्न हुआ आत्मनिष्ठारूप चौथे शुक ध्यानस्वरूप और सम्पूर्ण कमौके क्षयका कारण तथा केवलिमुद्धात के द्वारा तीन अघातिया कर्मो की आयु के बराबर अन्तर्मुहूर्त स्थिति कर चुकना आदि सामग्री से युक्त होरहे ऐसे चौदहवे गुणस्थानके अन्य समय में होनेवाले परिपूर्ण चारित्रसे बहुत काल पहिले उत्पन्न हो चुका परिपूर्ण सम्यग्ज्ञान
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तस्वार्थचिम्सामणिः
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उस चारित्रसे पहिले कहा जावेगा । इस प्रकार सूत्रमे परिपूर्णताकी अपेक्षासे उत्पन्न हुए दर्शन, ज्ञान और चारित्रके प्रयोग करनेका क्रम सर्वथा दोषोंसे रहित है।
प्रत्येकं सम्यागितलाई परिसमाप्यते । दर्शनादिषु निःशेषविपर्यासनिवृत्तये ॥ ३६ ॥
द्वंद्व समासके आदिमें या अन्तर्भ अन्य कर्मधारय या बहुत्रीहि तथा तत्पुरुष समासोंके द्वारा मिलाये गये पदोंका द्वन्धटित सर्व ही पदोंके साथ अन्वय हो जाता है। इस सूत्रमें भी दर्शन, ज्ञान और चारित्रका द्वन्द्व समास कर पुनः सम्यक् शब्दके साथ य स ( कर्मधारय समास ) किया गया है। अतः सम्यग् इस पदको प्रत्येक दर्शन ज्ञान और चारित्र पदों में परिपूर्ण रूपसे जोडदेना पाहिये । जिस सम्यक्पद लगानेका यह प्रयोजन है कि उससे संपूर्ण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान,
और मिथ्याचारित्रकी निवृत्ति हो जावें । अतः अतिव्याप्ति दोषको दूर करनेके लिये सम्यक्षद अखण्ड रूपसे तीनों में अन्वित करदिया जाता है ।
सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यञ्चारित्रमिति प्रत्येकपरिसमाया सम्यगिति पदं सम्भध्यते, प्रत्येक दर्शनादिषु निशेिषविर्यासनिवृत्यर्थत्वात्तस्थ । तत्र दर्शने विपयार्समौढ्यादयो मिथ्यात्वमेदाः शंकादयश्चातीचारा वक्ष्यमाणाः, संज्ञान संशयादयः, सच्चारित्रे मायादया, प्रतिचारित्रविशेषमतीचाराश्च यथासम्भक्निः प्रत्येयाः, तेषु सत्सु दर्शनादीनां सम्यक्त्वानुपपत्तेः।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इस प्रकार प्रत्येक रखने परिपूर्णरूपसे समातिकर सम्यक् यह पद जोड दिया जाता है । उसका प्रयोजन यह है कि प्रत्येक दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें सम्पूर्ण विपरीतताओंकी निवृत्ति हो जावे अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिध्याचारित्र ये तीनों रत्न न बन जावें । उन तीनों में विपरीतपना इस प्रकार है। प्रथम दर्शनमें तो विपरीतपना यों है कि कुदेव आदिमें देव गुरुपनेकी मूढता करना। ज्ञान, कुल, पूआ आदिका गर्व करना, और एकांत, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान ये पांच प्रकार मिथ्याध्यवसाय करना तथा आगे सातमें अभ्यायमें कहे जाने वाले शंका, काडा आदि अतीचार ये सब दर्शनके दोष हैं और मिथ्या है । अतः सम्यग्दर्शन के सम्यक्पदसे इनका धारण हो जाता है । तथा सम्यग्ज्ञानमें समीचीन पदके लगानेसे संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय या विभंग और कुमति, कुश्रुत रूप प्रमाणाभासकी ज्यावृत्ति हो जाती है। एवं समीचीन चारित्री अनंतानुबंधी के उदयपर होनेवाले मायाचार, क्रोध, ईर्ष्या, आत्मस्थररूपमें चर्या न होना आदि विपर्यास हो सकते थे | तथा प्रत्येक देशचारित्र, सकलचारित्र, अहिंसा महावत, सामायिक आदि विशेष चारित्रों में यथायोग्य होने
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सस्था चिन्तामणिः
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वाले अतीचार भी चारित्रके विपर्यास है एवं कुमेषियोंके पंचामि तप, मुण्डन, जटा रखना, कान फार लेना आदि मी मिथ्याचारित्र समझ लेने योग्य हैं। उन सबकी निवृत्ति सम्यक् पद देनेसे हो जाती है। तीन मूढता, संशय, माया आदि विपर्यासोंके होनेपर दर्शन, ज्ञान और चारित्रको समीचीनपना सिद्ध नहीं होता है।
तदेवं सकलसूत्रावयवव्याख्याने तत्समुदायब्याख्यानात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गो वेदितव्य इति व्यवतिष्ठते ।
ति का इस प्रहार पहिले जसले मार्ग जवानोंकी व्याख्या कर देनेपर उन अवयवोंके । समुदायल्प सूत्र का मी व्याख्यान हो चुका है । अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन गुणोंकी एकता हो जाना ही मोक्षका मार्ग समझ लेना चाहिये । यहांतक उक्त सिद्धांत व्यवस्थित हो जाता है।
तत्र किमयं सामान्यतो मोक्षस्य मार्गवयात्मका सूत्रकारमतमारूढः किं वा विशेपत १ इति शंकायामिदमाह।
उक्त सिद्धांत तो हमने मान लिया । किंतु उस सूत्रके प्रकरणमे हमको यह पूंछना है कि यह मोक्षका रत्नत्रयस्वरूप मार्ग सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजके मतमें व्यवस्थित है सो क्या सामान्य रूपसे है अथवा क्या विशेषरूपसे रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है ! बताओ । इस प्रकार का होनेपर श्री विद्यानंद स्वामी यह वक्ष्यमाण उत्तर कहते हैं।
तत्सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्गो विशेषतः । सूत्रकारमतारूढो न तु सामान्यतः स्थितः ॥ ३७ ॥ कालादेरपि तद्धेतुसामान्यस्याविरोधतः ।
सर्वकार्यजनौ तस्य व्यापारादन्यथास्थितेः ॥ ३८॥
वे सम्यग्दर्शन आदि समुदित तीनों गुण तो विशेषरूपसे मोक्षमार्ग हैं । यही सिद्धांत सूत्रकारके मतव्यमें आरूढ हो रहा है। किंतु सामान्यकारणोंकी दृष्टि से रत्नत्रयको मोक्षका मार्ग नहीं कहा गया है, यह बात सिद्ध हो चुकी है। यदि सामान्य कारणोंका निरूपण किया जाना इष्ट होता तब तो काल, आकाश आदिको भी उस मोक्षके सामान्यरूपसे मार्गपनेका विरोध नहीं है । जगत्के सम्पूर्ण कार्योकी उत्पत्ति होने सामान्यकारण माने गये उन काल माविका व्यापार होता है, यों निरूपण किये विना भी सामान्य कारणोंकी दूसरे प्रकारसे मी व्यवस्था हो सकती थी। अत: विशेष रूपकर कथन करनेसे प्रतीत होता है कि रत्नत्रय विशेषरूपसे ही मोक्षका मार्ग है। काल आका
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स्वाचिन्तामणिः
शके अतिरिक्त मनुष्यजन्म, वज्रवृषभनाराच संहनन, ढाई द्वीपक्षेत्र, दीक्षा लेना आदि कारण भी मोक्षके सामान्य कारणों में गर्भित हैं । भावार्थ - विशेष रूपसे रत्नत्रय ही मोक्षका मार्ग है यही सूत्रकारकी विवक्षा है ।
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साधारणकारणापेक्षा हि सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकं मोक्षमार्गमाचक्षाणी न सकलमोक्षकारणसंग्रग्रहपरः स्यात्, कालादीनामवचनात् न च कालादयो मोक्षस्योत्पत्तौ न व्याप्रियन्ते सर्वकार्यजनने तेषां व्यापारात् । तत्र व्यापारे विरोधाभावात् । यदि पुनः सम्यग्दशनादीन्येवेत्यवधारणाभावान कालादीनामसंग्रहस्तदा सम्यग्दर्शनं मोक्षमार्ग इति वक्तव्यम् । सम्यग्दर्शनमेवेत्यवधारणाभावादेव ज्ञानादीनां कालादीनां कालादीनामिव संग्रह सिद्धेस्तत्तद्वचन | द्विशेषकारणापेक्षयायं त्रयात्मको मोक्षमार्गः सूत्रित इति बुद्धयामहे ।
मोक्षके साधारण कारणों की अपेक्षा ही रत्नत्रय स्वरूपको मोक्षमार्ग कथन करनेवाला सूत्र सम्पूर्ण मोक्ष कारणोंके संग्रहमै तत्पर नहीं कहा जावेगा। क्योंकि काळ, आकाश आदिक भी तो मोक्षके साधारण कारण हैं । उन कारणोंका सूत्रमै कथन नहीं किया गया है। यदि यहां कोई यह कह बैठे कि काल आदिक तो मोक्षकी उत्पतिमें कुछ भी व्यापार नहीं करते हैं। अतः मोक्षके सामान्य कारणको निरूपण करनेवाले सूत्रमें काल आदिकका कथन नहीं किया है । आचार्य कहते है कि किसीका यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि उन व्यवहार काल, आकाश, कालपरमाणु, भाविका सम्पूर्ण कार्यों की उत्पत्तिमें व्यापार हो रहा है । अतः उस मोक्षरूप कार्यकी उत्पत्ति भी काल आदिक व्यापार होने में कोई विरोध नहीं है। यदि शंकाकार पुनः यह कहे कि काल आदिका भी असंग्रह न होगा । क्योंकि सूत्रकारने सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्षके मार्ग हैं, ऐसा नियम तो किया नहीं है । अतः काल, आकाश आदिका भी संग्रह हो जाता है। इसपर हम जैन कहते हैं कि तब तो मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन है, इतना ही कह देना चाहिये । सम्यग्दर्शन ही मार्ग है, ऐसा नियम तो किया ही नहीं है। इस ही कारणसे काल आदिकोंके समान ज्ञान, चारित्रका भी संग्रह होना सिद्ध हो जावेगा । किन्तु सम्यग्दर्शन मोक्षका मार्ग है, ऐसा संक्षिप्त कथन नहीं किया है । तिस कारण हम यों समझते हैं कि उन विशेषकारणों की अपेक्षासे ही यह रत्नजस्वरूप मोक्षमार्ग है, ऐसा सूत्रकारने आदि सूत्रमें सूचित किया है। जो बात युक्तिसे सिद्ध हो ara | वह शंकाकारको मी हृदयंगत करलेना चाहिये ।
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पूर्वावधारणं तेन कार्यं नान्यावधारणम् ।
यथैव तानि मोक्षस्य मार्गस्तद्वद्धि संपदः ॥ ३९ ॥
उद्देश्य और विषेयदलमें कहीं कहीं दोनों ओर से अवधारण होजाता है। जैसे सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है और सम्यग्ज्ञान प्रमाण ही है। देव तथा नारकियोंके ही उपपाद जन्म होता है। देव नार
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तस्वार्थचिन्तामणिः
कियोंके उपपाद ही जन्म होता है। और कहीं कहीं कहीं पहिला ही अवधारण हो सकता है । जैसे मनुष्य भक्से ही मोक्ष होती है। यहां मनुष्य भवसे मोक्ष हो ही जाती है, ऐसा विधेय दलमें अवधारण नहीं होता है और कहीं कहीं विधेयदलमे ही अवधारण होता है । जैसे रूपवान् पुद्गल ही है। यहां पुद्गल रूपवान ही है। ऐसा नियम नहीं कर सकते हैं। क्योकि रस, गन्ध आदि गुण भी वहां विद्यमान है । की दोनों भी दलोंमें अवधारण नहीं होता है। जैसा नील कम्बल है । राजा धर्मात्मा है । यहां नीला ही कम्बल होता है या नीला कम्बल ही होता है, ऐसा नियम नहीं हो सकता है। क्योंकि कम्बल लाल शुक्ला भी होता है तथा कमल या नीलमणि, जामुन आदि पदार्थ भी नीले होते हैं। कोई कोई राजा पापी भी होते हैं तथा राजाओसे अतिरिक्त पंडित सेठ लोग भी धर्मात्मा होते हैं । अतः यहां उद्देश्य और विधेयम एवकार नहीं लगता है । एवकारके तीन भेद माने गये हैं । अन्ययोगव्यवच्छेद, अयोगव्यवच्छेद और अत्यन्तायोगव्यवच्छेद । प्रथम अन्ययोग व्यवच्छेद विशेष्य के साथ एबकार लगानेसे हो जाता है । जैसे अर्जुन ही धनुर्धारी है। यहां अर्जुनसे अतिरिक्त व्यक्तियोंमें घनुषधारीपनकी. व्यावृत्ति हो जाती है । दूसरा एवकार अर्जुन धनुर्धारी ही है अर्थात् अर्जुन तलवार, चक्र आदि शनोंको धारण नहीं करता है। यह अयोगव्यवच्छेद विशेषणके साथ एक्कार लगने अन्य धमाकी व्याधि कर देता है ।स। क्रियाके साथ एवकार लग जानेसे नीला कमक होता ही है । अर्जुन धनुषधारी है ही, यहाँ अत्यन्तायोगव्यवच्छेद है। प्रकरणमें यह विचार है कि प्रथम सूत्रके उद्देश्य विधेयदलमे एक्कार कहां लगाना चाहिये । यहाँ आचार्यमहाराजका सिद्धांत है. कि तिस कारण पहिले उद्देश्यदलम अवधारण करना चाहिये अर्थात् रलाय ही मोक्षमार्ग है। अन्य अकेला दर्शन या मुनि-दीक्षा आदि विशेषरूपसे मोक्षमार्ग नहीं है, दूसरे विधेय दलमै अवधारण नहीं करना चाहिये। यदि विधेय दलमै अबधारण किया जावेगा सो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये मोक्षमार्ग ही हैं। इस नियमसे लौकिक सम्पत्ति, स्वर्ग आदिकी समृद्धिके वे कारण न हो सकेंगे। किंतु जैसे ही वे मोक्षके मार्ग है, वैसे ही स्वर्ग, भोगभूमि, पञ्चविजयादिककी विभूतिके भी कारण है। अतः पहिला ही अवधारण करना ठीक है।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येव मोक्षमार्ग इत्यवधारणं हि कार्यमसाधारणकारणनिर्देशादेवान्यथा तदघटनात्, तानि मोक्षमार्ग एवेति तु नावधारणं कर्तव्यं । तेषां स्वर्गीधभ्युदयमार्गस्वविरोधात्, न च तान्यभ्युदयमार्गो नेति शक्यं वक्तुं, सद्दर्शनादेः स्वर्गादिमाप्तिश्र वणात् । प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तानि तानि नाभ्युदयमार्ग इति चेत् , सिद्ध तीपकृष्टानां तेषामभ्युदयमार्गवम् , इति नोत्तरावधारणं न्याय्य व्यवहारात् । निश्चयनयात्तूभयावधारणमपीटमेव, अनंतरसमयनिर्वाणजननसमर्थानामेव सद्दर्शनादीनां मोक्षमार्गदोपपत्तेः परेषामनुकूलमार्गवाव्यवस्थानात् ।
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सत्यार्थचिन्तामणिः
मोक्षके असाधारण कारणका सूत्रमै निरूपण किया है। इस ही कारणसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्षमार्ग है इस प्रकार पहिला ही एवकाररूप अवधारण करना चाहिये । अन्यथा यानी पहिला अवधारण किये विना रस्तत्रयमें वद् विशेष कारणपना नहीं घटेगा । जैसे उपयोग जीवका असाधारण लक्षण है, बदां उपयोग ही जीवका लक्षण है, इस प्रकार पहिला अवधारण करनेसे तो लक्षण असाधारणपना प्रतीत होता है। दूसरे प्रकारसे नहीं। वे तीनों मोक्षमार्ग ही है। इस प्रकार दूसरा अवधारण तो नहीं करना चाहिये । क्योंकि ऐसा करनेपर तो उनको स्वर्ग भोगभूमि, अदिके लौकिक सुखोंके मार्गपनेका विशेष हो जावेगा । भावार्थ -- स्वर्ग, मैवेयक भादि तो अपरिपूर्ण रत्नत्रयोंसे प्राप्त हो जाते हैं। यहां कोई प्रतिवादी इस प्रकार नहीं कह सकता है कि वे रनम स्वर्ग-कक्ष्मी या सर्वार्थसिद्धि विमान प्राप्तिके मार्ग नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शन भादिसे स्वर्ग, नक अनुदिशमादिकी - प्राति होना शास्त्रों में सुना गया है। जिन्होंने सम्यग्दर्शन होने के प्रथम मनुष्यायु या तिर्यगायुको बांधलिया है, वे जीव मी सम्पदर्शन के प्रताप से मोगमूमियोंमें मनुष्य और निर्म होकर अनेक प्रकार के सुखोंको भोगते हैं। और जिन जीवोंके देवायुके व्यतिरिक्त शेष तीन आयुओंका गन्ध नहीं हुआ है या किसी भी आयुका पन्ष नहीं हुआ है, वे देशनत और महामोको धारणकर कल्पवासी देव मा मैवेयक व्यादिकों में महमिन्द्र पदको प्राप्त हुए प्रामानुयोग में सुने खाते हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्ड और तत्त्वार्थशास्त्र भी इसी सिद्धान्तको प्रतिपादन करते हैं। यदि यहाँ फिर कोई बह कई कि तीनों रत्न जिस समय अपनी परिपूर्ण उत्कर्ष अवस्थाको प्राप्त हो जावेगे, सब तो वे स्वर्गके मार्ग नहीं है, किन्तु मोक्षके ही मार्ग है। अतः दूसरा विधेय दके साम अवधारण करना भी बन सकता है। तब ऐसा कहनेपर तो अत्तिसे सिद्ध हो गया कि अबतक वे परिपूर्ण अवस्थाको प्राप्त नहीं है, जघन्य या मध्यम विशुद्धिको लिये हुए निम्न श्रेणीके हैं, तब तो उनको स्वर्ग, अनुदिश आदिका मार्गपना प्रसिद्ध है। इस कारण उत्तरवर्ती दूसरा अवधारण करना म्याक्से उचित नहीं है हि कमन व्यवहार नक्की अपेक्षा है । हो, निश्वनयकी अपेक्षासे तो दोनों ओरसे एवकार लगाना हमको मभीष्ट ही है । परिपूर्ण रत्नयही मोक्षमार्ग है । रस्नत्रय मोक्षमार्ग दी है। स्वर्ग आदिकका कारण नहीं है। चोदने गुणस्थानके अन्य समयमै परमावगाढ सम्मम्दर्शन, केवलज्ञान और आनुषंगिक दोनोंसे दिव ध्युपरत क्रियानिवृति-ध्यानरूप चारित्र इन तीन अवयव वाले सम्बग्दर्शन यादि जनको मोक्षमार्गपना सिद्ध है । चौदहवेंके अंतसमयवर्ती रत्नत्रय को अव्यवहित उत्तरवर्ती फरक मोक्ष उत्पन्न कराने की शक्ति है ही । अतः दोनों ओरसे पत्रकार लगाता है। हां, दूसरे अपरिपूर्ण रत्नत्रय यो मोक्षको न उत्पन्न कर स्वर्ग आदिक के मार्ग हैं। वे अनुकूल कारण है। समर्थ कारण नहीं है। से कि याकको मामेवा कुम्हारके हाथमें लगे हुए बाको बटकार्यके प्रति फलोपधानरूप समर्थ
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तस्थाचिन्तामणिः
कारणता है और वृक्षोंकी लकडी या कौने घरे दण्डको केवल स्वरूपयोग्यतारूप अनुकूल कारणता है, वैसे ही अपूर्ण रत्नत्रय मोक्षमार्गके प्रतिकूल नहीं है । सहायक है । .. । एतेन मोक्षस्यैव मार्गों मोक्षस्य मार्ग एवेत्युभयावधारणमिष्टं प्रत्यायनीयम् ।
इस पहिले कथनसे इस सिद्धान्तका भी निश्चय करलेना चाहिये कि विषेय दलमें परे हुए मोक्षमार्गके पेटमें भी हम दोनों ओरसे अवधारण करमा इष्ट करते हैं। रत्नत्रय मोक्षके ही मार्ग है अर्थात् कुमार्ग या मोक्षके कार्य नहीं हैं।
। पूर्वावधारणेऽप्यत्र तपो मोक्षस्य कारणम् । ३न स्यादिति न मन्रायन्नं कस्य पर्यास्मफरवराः ।
यहां किसी प्रतिवादीका यह विचार है कि व्यवहार नयकी अपेक्षासे यदि पूर्वके उद्देश्य दलने एवकार लगाना मी इष्ट करोगे तो मोक्षका कारण तप न हो सकेगा। क्योंकि आप तीनको ही मोक्षका कारण मानते हैं। अन्थकार कहते हैं कि सो यह नहीं मानना पाहिये । क्योंकि वह तकं चारित्रमें गर्मित हो जाता है । भावार्थ-तप चारित्रस्वरूप है। अतः तपके होते हुए भी तीच ही मोस के मुर्म हुए।
नवसाधारणकारणानिधित्सायामपि व्यवहारनयात्सम्यग्दर्शनादीन्येव मोक्षमार्ग इत्येवधारणं श्रेयस्तषसों मोक्षमार्गत्वाभावप्रसंगात् । न च तपो मोक्षस्यासाधारणकारणं न भवति, तस्यैवोत्कृष्टस्याभ्यंतरसमच्छिन्नक्रियाप्रतिपातिध्यानलक्षणस्य कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षकारणत्वन्यवस्थितः । सम्यादर्शनशानचारित्रतपासि मोक्षमार्ग इति सूत्रे क्रियमाणे तु मुन्नेत पूर्वावधारणम्। अनुत्पन्ननारक्तपोविशेषस्य च सयोगकेवलिन समुत्पनरलायस्पापि धर्म: देशना न मिंध्यतेऽवस्थानस्य सिद्धेः। ततः सफलचोयावतारणनिहाये चतुष्टयं मोक्षमार्गो वक्तव्यः । तदुक्तम् । दर्शनशानचास्त्रितपसामाराधना भणिति केचित्, दायचोयम् । तपसचरित्रात्मकत्वेन व्यवस्थानात सहनादित्रयस्यैव मोक्षकारपत्वसिद्ध। .. । अह शंकाको ध्याख्या करते हैं कि व्यवहार नयकी अपेक्षासे मोक्षके असाधारण कारणीक काकी अमिलाका होनेपर भी सम्यग्दर्शन आदि तीन ही मोक्षके मार्ग है, इस प्रकार जैनोका निमः करना कल्याणकारी नहीं है। क्योंकि ऐसा करनेसे तपको मोक्षमार्गपने के अभावका प्रसैग होचावेगा। जैनोंकी ओर से संभव है कि कोई यों कह बैठे कि मोक्षका असाधारण कारण सप होता होनही है। यह तो नहीं कह सकते हो । क्योंकि आभ्यंतर रूपों में उत्कृष्ट माने गमे उस व्युपातक्रियानिति नामक चौथे. शुक्लध्यानरूप तपको सम्पूर्ण कोंके सर्वधा मोक्ष होजानेका कारणपना ल्यव
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स्थित है। अर्थात् मविष्यमें कर्म न आसके और वर्तमानमें गोडे मी कर्मपरमाणुन विद्यमान रहे, ऐसा मोक्ष चौदहवे गुपस्थानके अंतसम्यवर्ती सपसे होता है। संवर और निर्मक कारणामसप प्रषान है। अंतरक और बहिर तपों में अंतरंग तपप्रधान है। छह प्रकारके अंतरंग सपों में न मवान है । धार ध्यानों में शुक्लध्यान प्रकृष्ट है और चार प्रकारके शुक्लध्यानों में "समुच्छिम्मकथा पचिपाती नामक चौथा शुलध्यान. सर्वोत्कृष्ट है। अंश: मोक्षके असाधारण कारणों में सर्पको अंपाय स्थान देना चाहिये ।
__यदि जैन लोग सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यचारित्र और तप ये आर मोके मार्ग है, इस प्रकार सूत्र बनावे तब तो पहिले उद्देश्य दलमे नियम कर देना युक्त हो सकता है। अन्य प्रकार नहीं । स्त्रमें चौथे तपको लगा देनेसे दूसरा लामं यह भी है कि जबतक संयोगकेवली भगवानके उस प्रकारका नौमा शुक्क लाए निशेपटप उत्पन्न नहीं हुआ है और भले ही तीनों रन सम्पर्म 'रूपसे उत्पन्न भी हो चुके हैं, उन भगवानके धर्मका उपदेश देनां मी बन जाता है, कोई विरोध नहीं है। क्योंकि मायुःकरके अधीन होकर उनका शरीरको धारण करते हुए संसारमै टहरे रहना सिद्ध हो चुका है। तीनों रस्नोंके पूर्ण हो जानेसे तेरहवें गुणस्थानके आदिम ही फेवली मंगवानकी "सिद्ध अवस्था न हो सकेगी। हाँ ! पूर्ण सपके उत्पन्न हो जाने पर वे उत्तरकालमें परम मुक्तिको प्राप्त कर लेवेगे। तिस कारण सम्पूर्ण कुचोद्योंकी बोछार गिरनेकी निवृत्ति के लिये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारोंके समुदायको मोक्षमार्ग कह देना चाहिये। उसीको श्रीकुंदकंद आचार्यने भी कहा है कि " देसणणाणचरितं तवाणमाराहणा भगिदा " दर्शन ज्ञान चारित्र और तपकी आराधना करना श्रीगौतम गणधरने निरूपण किया है, इस कार कोई. शंकाकार, कह रहे हैं। श्राचार्य कहते हैं कि उनका वह कटाक्ष करना मी ठीक नहीं है। क्योंकि तपको चारित्रके स्वरूप अंतर्भूत करके व्यवस्थित कर दिया है। अतः सम्यग्दर्शन आदि तीनको ही मोक्षका कारणपन सिद्ध है। यों पूर्व अवधारण करना समुचित है।
..... : ... . . . . . ननु रत्नत्रयस्यैव मोक्षहेतुत्वसूचने। .. ... ... ... ...
किं वार्हतः क्षणादूर्ध्वं मुक्तिं सम्पादयेन्न तत् ॥४१॥ . ... यहां पुनः शंकाकारका कहना है कि यदि रक्षत्रयको ही मोक्षके कारणपनका सूचन करने वाला पहिला सूत्र रचा जावेगा तो केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर अहंत देवके एक क्षणके ऊपर ही वह रत्नत्रय मोक्षको क्यों नहीं पैदा करा देता है ! उत्तर दीजिये। . . . . . ... .. प्रारोवेदं घोदित्वं परिहतं च म पुनः शंकनीयमिति चेत् नपरिहारांतरोपदर्शनात्या पुनधोधकरणस्य । तयाहि---. . . . . .
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पलापिन्सामणि
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Panora
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शंकाकार अपनी शंकाको हद करनेके लिये उपाय रचता है कि सम्मय है कि कोई को कहे कि यह कुचोधरूप शंका करना तो पहिले ही हो चुका है और सभी उस काका परिहार भी कर दिया गया है। अब फिर शंका नहीं करना चाहिये, यह कहना वो ठीक नहीं है । क्योंकि पहिले समाधानसे अतिरिक्त दूसरा शंकाका परिहाररूप समाधान आचार्य द्वारा दिखाने के लिये पुनः सकटाक्ष शंका की जारही है। इस शंकाके समाधानको आचार्य महाराज सष्ट का दिखलाते हैं।
सहकारिविशेषस्यापेक्षणीयस्य भाविनः । सदैवासात्वतो नेति स्फुट केचित्रचक्षते ॥ ४२ ॥
कार्यकी उत्पतिम उपादान कारण और निमित्तकारणके अतिरिक सहकारी कारणों की भी मपेक्षा होती है । जैसे रोटी बनानेमें चून, पानी, रसोइयाके अतिरिक्त चकला, पेलन मी भावशक में । मोक्षके कारण स्नत्रय अपि तेरहवे गुणस्थानके मादिमें हो चुके हैं। किन्तु भविष कालमें चौदहवे गुणस्थानके अन्तम होनेवाला विशेष सहकारी कारण अपेक्षित हो रहा है। वह पौवा शुक्रध्यान उस समम तेरहवेके आदिमें नहीं है । अतः तब मुक्ति नहीं हो सकती है। ऐसा स्वरूपसे कोई आचार्य बडिश समाधान कर रहे हैं। अमाधान लियानन्न स्वामीको भी अभीड है।
का पुनरसौ सहकारी सम्पूर्णेनापि रत्नत्रयणापक्ष्यते । पदभावाचन्मुक्तिमईवो न सम्पादयेत्, इति चेत्
बह फिर कौनसा सहकारी कारण है जो कि समीचीन रूपसे पूर्ण हुए भी स्लाम करके अपेक्षित हो रहा है, जिसके न होनेके कारण महन्तदेव शीघ्र ही मुक्तिको प्राप्त नहीं कर पाते है भगवा वह रत्नत्रय अर्हन्तदेवको मुक्ति नहीं मिला रहा है। आचार्य कहते है कि यदि ऐसा कहोगे तो इसका उत्तर सुनो!
स तु शक्तिविशेषः स्याजीवस्याघातिकर्मणाम् । नामादीनां त्रयाणां हि निर्जराकृद्धि निश्चितः॥४३॥
नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अमातिया काँके निधयसे निर्जरा करनेवाली मामाकी वह विशेष शक्ति ही सहकारी कारण निश्चितरूपसे मानी गयी है । ध्यान, समुदात, भावनिर्जरा, संकर भौर आयुःकर्मके निषेकोका भुगाकर फल देना ये सब मामाके विशेष परिणाम हैं।
दकपाटप्रतरलोकपूरणक्रियानुमेयोऽपकर्षणपरपकविसंक्रमणहेतु भगवता खपरिणामविशेषः शक्तिविशेषः सोऽन्तरङ्गः सहकारी निश्रयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य, सदभावे
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पवाचितामणिः
नामाषपातिकमंत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेनिःश्रेयसानुत्पत्तो, आयुषस्तु यथाकालमनुभवादेव निर्बरान पुनरूपक्रमारस्वानपवर्त्यत्वात् । तदपेशं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिना प्रथमसमये मुक्तिं न सम्पादयत्येव, तदा वत्सहकारिणोऽसत्त्वाव।।
रोरा गुमास्थान के निमा मनाइने रहनेपर भायुःकर्म के बराबर तीन अघातिया कर्मोंकी स्थिति करने के लिये फेवली भगवान के स्वभावसे ही केवलिसमुद्धास होता है और किन्ही *केवली महाराजके नहीं भी होता है। पद्मासन या खलासनसे पूर्वको मुख कर या उत्तर को मुखकर विराजे हुए फेवरूझानी जिनेन्द्रदेवके शरीरके परावर लम्बे चौडे और सात गजू ऊंचे आस्माके प्रदेशोका फैल जाना दण्ड है और कोक पर्यन्त लम्बे शरीरमात्र चौडे और सात राजू, ऊंचे कपारफे समान फैल जाना कपार समुद्धात है। बाववशयोंको छोरकर लोक आलप्रदेशोका फैल जाना प्रतर है और सम्पूर्ण कोकमै आत्माका ठसाठस भर जाना लोकभूरण है। लोकपूरणकी विधि भास्माके मध्यके गोसनाकार आठ प्रदेश सुदर्शन मेहकी जड़के बीचपर आ जाते हैं। परफीके समान चारों ओर चौकोन अनंत मकोकाकाशके ठीक बीचमे लोक है। उस लोकका बहुत ठीक मध्य भाग सुदर्शन मेहकी बडेम विधमान पाठ प्रवेश है। इस लोकाकाशके पूर्व से पश्चिमतक और उत्तरसे दक्षिणतक तथा ऊयदिशासे अघोदिशा तकके प्रदेश सर्वत्र सम संख्याम हैं । दो, पार, छह, पाठ, बस भादिको सम संख्या कहते हैं और एक, तीन, पांच, सात, बादिको विषम पाराकी संस्था कहते हैं। पूर्वसे पश्चिम तक विषम रील्यावा तीन, निन्यानवे, और चाहे एक करोड एक आदि मी संख्या हो, उनका ठीक मध्य एक निकलेगा। किंतु समसंख्यावाले चार, सौ, एक कोटि आदिका मध्यभाग दो निकलेगा एवं पूर्व पब्बिम और उत्तर दक्षिण दोनों ओरसे बहां समसंख्यावाले पदार्थ हैं उनका ठीक बीच पार निकलेगा । सम संख्याका वर्गका मध्य चार होता है। किंतु जहां पूर्व, पश्चिम, उचर, दक्षिण तथा ऊपर नीचे तीनों ओरसे समसंख्यावाले पदार्थ हैं, वहां ठीक बीच माठ होगा। पाठ पाठ रुपयोंकी पर नीचे रख गडी बांधकर पूर्वसे पश्चिम तक आठ पंक्ति रख दी जावें इसी तरह उत्तरसे दक्षिण तक आठ पंति बनामी जाये इस प्रकार इन पांच सौ बारह रुपयों में ठीक पीचके रुपये पाठ होते हैं। इससे छोटी. संख्यावाला बीच नहीं निकल सकता है। क्योंकि समधाराके धनका बीच आठ होता है। आमाके प्रदेशोंका फैलनेके समान पुनः संकोचन होता है। आठवें समयमें सयोग केवलीके आत्मप्रदेश पूर्वशरीरके आकारको धारण कर लेते हैं । इस केवळीकी समुद्धात-परिणामरूप क्रियाले आस्माके मोक्ष कारण विशेषोंका अनुमान कर लिया जाता है तथा फोकी अधिक स्थितियोंका न्यून करनारूप भरकर्षण और कर्म प्रकृ. तियोंको अन्य शुभप्रतिरूप कर देना स्वरूप संक्रमणके कारण परिणामविशेष भी आत्माके विषमान हैं । वे आत्माकी विशेषशक्तियां मोक्षकी उत्पत्तिमें स्लत्रयके अंतरंग सहकारी कारण हो जाती है। यदि आमाकी उन सामयोको सहकारी कारण न माना जावेगा तो नाम, गोत्र और
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तस्वाचितामणिः .
वेदनीय इन तीन अघाती कोकी निर्भरा नहीं हो सकती थी। सिस कारण मोक्ष भी नहीं उस्पाम हो सकेगी। हां ! अधातियों में आयुःकर्मकी को अपने कामे फल देना रूप अनुमवसे ही निर्जरा होती है। किंतु फिर तीर्थकर हन्त देवके आम या पनसके समान आयुःकर्मको उपक्रम विधिसे पानी भविष्यमें आनेवाले निवेकोंको थोडे कालमें ही भोगने योग्य बनाकर आयुकी निर्जरा नहीं होती है। क्योंकि उनकी आयुःका समुद्रपात या शम्न आदिकसे अपवर्तन नहीं हो पाता है। सामान्य केवली, गुरुदत्त, पाण्डव आदिकी आयुःका अपवर्तन हो गया शास्त्रमे सुना है । अंतकृस्केवली अथवा समुद्र, मेरुगिरि शिखर, भोगभूमि, गंगा, आदिके ठीक ऊपर पैंतालीस लाख योजन के सिद्ध क्षेत्रमै वहां विराजमान सिद्ध भगवान्की पूर्वभवसंबंधी आयुःका प्रायः अपवर्तन हुआ. समझना चाहिये । गोम्मटसार कर्मकाण्डम आयुःका अपकर्मण विधान तेरहवे गुणस्थानके अंत समबतक कहा है । उदीरणा छटे तक होती है। श्रुतसागर स्वामीका मी यही सिद्धांत , है। उन कहे हुए आत्माके परिणामविशेषोंकी अपेक्षा रखनेवाका क्षायिक रलम्रय सयोग फेवली नामक तेरहवे गुपस्थानक पहिले समयमै मुक्तिको कथमपि प्राप्त नहीं करा पाला है । क्योंकि उस समय रलत्रयका सहकारी कारण वह आस्माकी शक्तिविशेष विद्यमान नहीं है । कारणकूट कार्यको करते हैं। सहकारियोंसे विकल होरहे कारण अव्यवहित उत्तरकालमें कार्यको उत्पन्न नहीं कर पाते हैं। . ..
क्षायिकत्वान्न सापेक्षमहद्रत्नत्रयं यदि । .:.::
किन्न क्षीणकषायस्य दृक्चारित्र तथा मते ॥ १४ ॥ - केवलापक्षिणी ते हि यथा तद्वच्च तत्त्रयम् ।
सहकारिव्यपेक्षं स्यात् क्षायिकत्वेनपेक्षिता ॥ ४५ ॥ ___कोई सकटाक्ष कह रहा है कि जो गुण कोके क्षयसे उत्पन्न होता है, वह अपने कार्यके करनेमें किसी अन्यकी अपेक्षा नहीं रखता है। अर्हन्त परमेष्ठीके तेरहवें गुणस्थानकी आदिमे उत्पन हुमा रत्नत्रय भी दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, और झानावरण कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआ है । अतः मोक्षकी उत्पत्ति करादेनेमें वह अन्यकी अपेक्षासे सहित नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो बारहवें क्षीण कषाय गुणस्थानके आदिमें उत्पन्न हुए क्षायिक सम्यक्स्य
और क्षायिकचारित्र ये दोनों ही उसी प्रकार मोक्षके उत्पादक क्यों नहीं माने जावें । जिस प्रकार आप यहां यही कह सकते हैं कि वे दोनों दर्शन और चारित्र तीसरे केवलज्ञानकी अपेक्षा रखनेवाले होकर तीनरूप हो जावेगे, तभी मुक्ति ( जीवन्मुक्ति ) को प्राप्त करा सकेमे, तक तो क्षायिक गुणोको भी अन्यकी अपेक्षा हुई । उसीके समान वह रलाय भी चतुर्थ शुक्लथ्यानरूप सहकारी फारषकी अपेक्षा रखता हुआ ही परममुक्तिका संपादन करा सकेगा। क्षायिकगुण किसीकी अपेक्षा नहीं रखते है। इसका अभिपाय यही है कि अपने स्वरूपको प्राप्त करानेमें वे गुण अन्य
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
गुणोंकी आवश्यकता नहीं रखते हैं। केवल कमोंके क्षयसे वे आत्मामें अनन्तकालके लिये उत्पन्न हो जाते हैं। तभी तो सिद्ध भगवान्में क्षायिकमाव सर्वदा बने रहते हैं । औदयिक और क्षायोपशमिक भाव नहीं रह पाते हैं। क्योंकि इनके बननेमें कतिपय बहिरंग सहकारी कारणोंकी अपेक्षा है और क्षायिक भावोंके उत्पन्न होने में बहिरंग पदार्थों के ध्वंसरूप अभावों की अपेक्षा तो है । किन्तु प्रधानरूपसे किसी भावात्मक गुणकी अपेक्षा नहीं है। फिर मी अतिरिक्त कार्य करने के लिये क्षायिकगुण अन्य सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखते हैं, यह बात आई ।
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न क्षायिकत्वेऽपि रत्नत्रयस्य सहकारिविशेषापेक्षणं, “ क्षायिकमावानां नामनापि वृद्धिरिति प्रवचनेन बाध्यते, क्षायिकत्वे निरपेक्षत्ववचनात् क्षायिको हि मावः सकलस्वप्रतिबंधक्षयादाविर्भूतो नात्मला मे किश्विदपेक्षते " येन तदभावे तस्य हा निस्तत्प्रकर्षे च वृद्धिरिति । तत्प्रतिषेधपरं प्रवचनं कृत्स्नकर्मक्षयकरणे सहकारिविशेषापेक्षणं कथं बाधते १ । रत्नत्रयको अपने प्रतिबंधक कमौके क्षयसे उत्पन्न होते हुए भी मोक्षरूप कार्य को करने में विशेष सहकारी कारणों सा रहता नहीं होता है कि क्षायिक भावोंकी हानि नहीं होती है और वृद्धि भी नहीं होती है अर्थात् क्षायिकमाव उसने उतने ही रहते हैं । कमती बढती नहीं होते हैं । कोई सहकारी कारण आयेगा तो क्षायिक गुणोंके अतिशयों को कमती बदली ही करता हुआ चला आवेगा । जो अपने स्वभावोको लेता देता नहीं है, वह सहकारिओं से सहकृत ही नहीं हुआ है । इस आगमका जैन सिद्धान्त के अनुकूल ही अभिप्राय है। कमोंके क्षयसे होनेवाले मावों स्वरूपमकी अपेक्षा से अन्य कारणोंसे रहितपना कहा गया है । क्षाभिक भाव अपने सम्पूर्ण प्रतिबन्धक फर्मका कम हो जानेसे प्रगट हो जाता है । अपना स्वरूप लाभ करनेमें वह अन्य किसी सहकारी कारणकी अपेक्षा नहीं करता है। जिससे कि उस सहकारी के अमाव हो जानेपर उस गुणकी हानि हो बावे और उस अपेक्षणीयके उत्कर्ष हो जानेपर गुणकी वृद्धि हो जावे । मावार्थ -गुणका स्वरूप विगाहनेवाला प्रतिपक्षी कर्म था। उस कर्म के सर्वाजीण क्षय होजानेपर उस क्षायिकभावका पूरा शरीर व्यक्त हो जाता है । अतः गुणके आत्मलाभ करने कर्मों अतिरिक्त अन्य कोई सहकारी कारण अपेक्षणीय नहीं है। अन्यकी नहीं अपेक्षा - कर बंद उत्पाद व्यय धन्य व्यात्मक क्षायिक गुण अनन्तकालतक उत्पन्न होता हुआ बना रहता
| अतः आत्मलाभ के लिये सहकारी कारणोंकी अपेक्षा के निषेध करनेमें तत्पर वह शास्त्र वाक्य विचारा अन्य विलक्षण माने गये पूर्ण कमका क्षय करना रूप मोक्षकार्यमें विशेष सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखनेको कैसे भाषा दे सकेगा ! अर्थात् नहीं ।
न च क्षायिकत्वं तत्र तदनपेक्षत्वेन व्याप्तम् क्षीणकषायदर्शनचारित्रयो। क्षायिकस्वेsपि क्युत्पादने केवलापेक्षित्वस्य सुप्रसिद्धत्वात् । ताभ्यां तद्वाषकहेतोर्व्यभिचारात् । ततोsस्ति सहकारी तद्रत्नत्रयस्यापेक्षणीयो युक्त्यागमाविरुद्धत्वात् ।
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तत्त्वामैचिन्तामणिः
क्षायिकपने हेतुकी उन सहकारी कारणोंकी नहीं अपेक्षा करना रूप साध्यके साथ उस प्रकरण व्यासि बन जाना सिद्ध नहीं है, इस व्याप्तिका व्यभिचार देखा जाता है। क्षीणकषाय नामक बारहवे गुणस्थानके आदि क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिकचारित्रको कर्मोंके क्षयसे बन्यपना होते हुए भी मुक्तिरूप कार्यी बस को तीसरे देवशज्ञानकी अपेक्षा रखनापन अच्छी तरह प्रसिद्ध हो रहा है । अतः बारहवें गुणस्थानके उन सम्यक्त्व और चारित्र करके उस सापेक्षपनेके बाधक निरपेक्षपन हेतुका व्यभिचार है । हां ! स्वांशमे निरपेक्षपनको सिद्ध करते हो तो वह सद्धेतु है । उस कारण से सिद्ध होता है कि उस तेरहवें गुणस्थान के आदिमें होनेवाले उस क्षायिक रत्नत्रय को चतुर्थ शुक्लध्यानरूप सहकारी कारणकी अपेक्षा है। इस सिद्धांत में युक्ति और आगमसे कोई मी विरोध नहीं आता है । सामग्री के पूर्ण हो जानेपर समर्थ कारणसे चौदहवें गुणस्थानके अंतमें परम मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ।
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न च तेन विरुध्येत त्रैविध्यं मोक्षवर्त्मनः ।
विशिष्टकालयुक्तस्य तत्त्रयस्यैव शक्तितः ॥ ४६ ॥
कोई यों कहे कि यदि आप जैन रत्नत्रयको अन्य सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखता हुआ मोक्षका कारण मानेंगे, तब तो मोक्षमार्गको तीन प्रकारका मानना उस कथनसे विशेषको प्राप्त हो जावेगा। क्योंकि चौथे, पांचमें, कारण मी आपने मान लिये हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि विशिष्ट काल और उसमें परिपक्व रूपसे होनेवाले अन्य परिणामों से युक्त होनेकी अपेक्षा रखता हुआ वह रत्नत्रय ही आत्मशक्तियों की अपेक्षासे मोक्षका मार्ग है । भावार्थमोक्षके अव्यवहित कारण माना गया उस आत्मशक्तिका विकास एक विशिष्ट कालमें ही होता है । जैसे कि माय अवस्थामै विद्यमान भी युवस्व शक्तिका प्रगट होना काल और उसमें होनेवाले शारीरिक परिणामों की अपेक्षा रखता है ।
क्षाकिरत्नत्रयपरिणाम झात्मैव क्षायिकरत्नत्रयं तस्य विशिष्टकालापेक्षः शक्तिविशेषः ततो नार्थान्तरं येन तत्सहितस्य दर्शनादित्रयस्य मोक्षवर्त्मनस्त्रैविष्यं विरुष्यते ।
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कर्मो के क्षयसे होनेवाले रत्नत्रय के परिणामोंसे परिणत होरहा उपादान कारण मला ही क्षाबिक रत्नत्रय है । कालविशेषकी अपेक्षासे उस आत्माके उत्पन्न होनेवाला और सम्पूर्ण कमको sde करनेवाला विशेष सामर्थ्य भी उस आत्मा और रत्नत्रयसे भिन्न नहीं है। जिससे कि मानी यदि भिन्न होता सब तो उस से सहित होकर सम्यग्दर्शन आदि तीनको मोक्षका मार्ग माननेपर तीन प्रकारपनका विशेष हो जाता, किन्तु अभेद माननेपर वह सामर्थ्य चौथा नहीं बन पाता है । जिससे कि कथमपि विरोधकी सम्भावना नहीं है ।
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तत्त्वार्थं चिन्तामणिः
तेनायोगिजिनस्यान्त्यक्षणवर्त्ति प्रकीर्तितम् । रत्नत्रयमशेषा घविघातकरणं ध्रुवम् ॥ ४७ ॥ ततो नान्योऽस्ति मोक्षस्य साक्षान्मार्गो विशेषतः । पूर्वावधारणं येन न व्यवस्थामियर्त्ति नः ॥ ४८ ॥
तिस कारण से चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिनेंद्र के अंतिम समय में होनेवाला पूर्ण रत्नयही सम्पूर्ण कम समुदायको क्षय करने में निश्चयसे समर्थ कहा गया है। उस कारण से रत्नत्रयके अतिरिक्त दूसरा कोई विशेषरूप से मोक्षका अव्यवहित पूर्ववर्ती मार्ग नहीं है । अर्थात् रत्नही मोक्षका साक्षात् कारण है। जिससे हमारा पहिले उद्देश्य दलों युवकार लकवा करन स्थाको प्राप्त न होता । भावार्थ- पहिला अवधारण करना भले प्रकार व्यवस्थित है ।
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नन्वेवमप्यवधारणे तदेकांतानुषङ्गः इति चेत्, नाथमने कोतवादिनामुपालम्भो नयार्पणादे कांतस्येष्टत्वात् प्रमाणार्पणादेवानेकांतस्य व्यवस्थितेः ।
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यहां किसीका साक्षेप शंका है कि इस प्रकार अवधारण करनेपर तो जैनोंको उस नियम करनारूप एकांत मंतव्यका प्रसंग आता है । आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसी शंका करोगे तो इम जैन कहते हैं कि यह आपका उलाहना अनेकांतवाद की टेव रखनेवाले स्याद्वादियोंके ऊपर नहीं जाता है। क्योंकि सुनयकी प्रधानतासे एकांतवादको भी हम इष्ट करते हैं। जैसे कि मुक्तजीव सर्वज्ञ ही है, सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, यथाख्यात चारित्रसे ही मोक्ष होती है । इत्यादि नय वाक्य अन्य की अपेक्षा रखते हुए समीचीन एकांतको प्रतिपादन करनेवाले माने गये हैं । हां ! प्रमाणके द्वारा ही वस्तुका निरूपण करनेकी अपेक्षासे अनेकांत मतकी व्यवस्था स्वामीने भी यही कहा है कि
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हो रही है । श्रीमंतमद्र
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अतोप्यनेकांतः प्रमाणनयसाधनः ।
अनेकांतः प्रमाणाचे तदेकवोर्पितान्यात् ॥ १ ॥
अम्य
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पदार्थाने अनेक धर्म हैं । यह अनेकांत भी एकांत रूपसे नहीं है। किंतु प्रमाण और नयकी अपेक्षासे साधा गया. अनेकांत रूप है । तुम जिनेंद्र देवके गतमै प्रमाणदृष्टिसे अनेक धर्म स्वरूप वस्तुका निरूपण है और प्रयोजनवश प्रधानताको प्राप्त हुये एक धर्मकी नयदृष्टिसे समीचीन एक धर्म स्वरूप भी पदार्थ है । भावार्थ--- अनेकांत और समीचीन एकांत ये दोनों भी हमको इष्ट हैं। की नहीं अपेक्षा रखनेवाला केवळ एकांत तो मिथ्या है ।
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तस्वाचिन्तामणिः
ज्ञानादेवाशरीरत्वसिद्धिरित्यवधारणम् । सहकारिविशेषस्यापेक्षयास्त्विति केचन ॥ ४९ ।।
यहां कोई प्रतिवादी कह रहे हैं कि सहकारीकी अपेक्षा रखने वाले रत्नत्रयको ही आप जैन मोक्षमार्ग मानते हैं। इसकी अपेक्षासे तो ऐसे नियम करनेमें लाघव है कि विशेष सहकारी कारणोंकी अपेक्षा करके सहित अकेले ज्ञानसे ही स्थूल, सूक्ष्म शरीरसे रहित हो जाना स्वरूप मोक्षकी सिद्धि हो जाओ । इस प्रकार कोई नैयायिक आदि कहते हैं।
तत्वज्ञानमेव निःश्रेयसहेतुरित्यवधारणमस्तु सहकारिविशेषापेक्षस्य तस्यैव निःश्रेयससम्पादनसमर्थत्वात् । तथा सति समुत्पन्नतच्वज्ञानस्य योगिनः सहकारिविशेपसानिधानात्पूर्व स्थित्युपपत्तेरुपदेशप्रवृत्तेरविरोधात , तदर्थे रत्नत्रयस्य मुक्तिहेतुत्वकल्पनान!षयाव, तत्कस्पनेऽपि सहकार्यपेक्षपस्यावश्यंभावित्वात् , तत्त्रयमेव मुक्तिहेतु रित्यवधारणं माभूदिति केचित् ।
यहां उक्त आक्षेपका विवरण यों है कि जीव भादिक तत्वोंका ज्ञान ही मोक्षका हेतु है। इस प्रकार पहिला अवधारण ठीक हो जावे | क्योंकि सम्यक्त्व, चारित्र और आत्मा के विशेष परिणाम रूप विशिष्ट सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखता हुआ वह ज्ञान ही मोक्षके पाप्त कराने में समर्थ है। तैसा कहने पर एक लाम यह भी हो जाता है कि सयोग केवली अईन्त मगवानके फेवलज्ञान स्वरूप सत्वज्ञानके उत्पन्न हो जाने पर भी मोक्षके उपयोगी विशेष सहकारी कारणकी उपस्थिति हो जाने के पहिले अहंसदेवका संसारमें स्थित रहना बन सकता है और हजारों वर्ष तक ठहर कर भगवान् भव्य जीवों के प्रति उपदेश देनेकी प्रवृत्ति कर सकते हैं। कोई विरोध नहीं है । उस उपदेश देनेके लिये स्नत्रयको मोक्षमार्गपनेकी कल्पना करना व्यर्थ है । क्योंकि उन तीनको भी मोक्षमार्गकी कल्पना करने पर आपको सहकारीकी अपेक्षा करनारूप कथन तो आवश्यक होने वाला ही है। इसकी अपेक्षा तो सहकारी कारणोंसे सहित एक ज्ञानको ही मोक्षका मार्ग कहना कहीं अच्छा है। अतः वे तीनों ही मोशके कारण हैं। इस प्रकार आप जैनोंका नियम करना न होवे ऐसा कोई पण्डित कह रहे हैं।
तेषां फलोपभोगेन प्रक्षयः कर्मणां मतः । सहकारिविशेषोऽस्य नासौ चारित्रतः पृथक् ॥ ५० ॥
उन प्रतिवादियों के यहां अकेले ज्ञानका विशेष सहकारी कारण यह माना गया है कि मामाको कर्मजन्य सुख, दुःखरूप फलका उपभोग कराकर आत्मासे सम्चित कौका प्रक्षय हो जाना, किंतु फलोंके भोग करके काँका क्षय हो जाना, वह सहकारी कारण तो हमारे जैनोंके माने हुए चारित्रसे भिन्न नहीं है।
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'सत्यार्थचिन्तामणिः
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स्वज्ञानान्मिथ्याज्ञानस्य सहजस्याहार्यस्य चानेकप्रकारस्य प्रतिप्रमेयं देशादिभेदादुन्द्रतः प्रक्षया सद्धेतुकदोषनिवृत्तेः प्रवृत्त्यभावादनागतस्य जन्मनो निरोधादुपा राजन्मनश्च प्राइस धर्माधर्मयोः फलभोगेन प्रक्षयणात्, सकलदुःखनिवृचिरात्यन्तिकी मुक्तिः, दुःखजन्मप्रवृतिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोचरापाये तदनन्तरापायानिःश्रेयसमिति कैश्रिद्वचनात् । केवल ज्ञानको मोक्षका मार्ग माननेवाले कतिपय प्रतिवादियोंका मन्तव्य पृथक् पृथक् है । उनमें नैयायिक तत्रज्ञान से मुक्ति होनेकी प्रकियाका निरूपण ऐसा करते हैं कि कारण विशेषोंसे प्रसन्न हुए तत्रज्ञानके द्वारा मिथ्याज्ञानका प्रक्षय हो जाता है। मिथ्याज्ञान मूलभेदसे दो प्रकारका है । एक सहज, दूसरा आदारी तिच मनुष्यों के अपने आप मिय्या संस्कारवश उत्पन्न हो जाता है, वह जैनियोंके अगृहीत मिध्यादृष्टि जीव ज्ञानसमान सहजमिध्याज्ञान है । और दूसरोंके उपदेशसे या स्वयं खोटे अध्यवसायसे इच्छापूर्वक चलाकर विपरीतज्ञान कर लिया जाता है वह आर्य है । आर्यका लक्षण नैयायिकोंने ऐसा माना है कि " बाघकालीनोत्पन्नेच्छाजन्यं ज्ञानमाहार्यम् " किसी विषय बाधकज्ञानके रहते हुए भी चलाकर इच्छा उत्पन्नकर आमहसे विपरीत ज्ञान पैदा करलेना आहार्य मिथ्याज्ञान है । इन दोनों मिथ्याज्ञानोंके अनेक भेद हैं । तत्रज्ञान उत्पन्न होने के प्रथम प्रत्येक प्रमेय देश, काल, अवस्था, सम्बन्धकी अपेक्षासे उत्पन्न हो रहे मिथ्याज्ञानोंका तत्त्वज्ञान द्वारा
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या श्रय हो जानेसे मिथ्याज्ञानजन्य दोषोंकी निवृत्ति हो जाती है और रागद्वेष स्वरूप दोषों की निवृत्ति हो जानेपर धर्म अधर्म प्रवृत्तियोंका अभाव हो जाता है। क्योंकि उन प्रवृत्तियों के कारण दोष थे। जब दोषोंका ही अभाव हो गया, तब प्रवृत्तिरूप कार्य भी नहीं हो सकते हैं । कारण के न होनेपर कार्य भी नहीं होता है । और प्रवृतिके अभावसे उसके कार्यजन्मका भी अभाव हो जाता है । यहां भविष्य में होनेवाले जन्मोंका अभाव तो प्रवृचिके न होनेसे हो गया और ग्रहण किये गये मनुष्य जन्मका तथा वर्तमानमें फल देनेवाले प्रवृतिस्त्ररूप धर्मे अधर्मका फल देनारूप भोग करके नाश हो जाता है । जब जन्म लेना तथा पुण्य पापका ही नाश होगया, तब उनके कार्य संपूर्ण दुःखोंकी मी निवृत्ति होगयी, और उसी अन्तको अतिक्रमण करनेवाली अनन्तकाल तक के लिये हुयी दुःखनिवृत्तिको ही मुक्ति कहते हैं । नैयायिकों के गौतम ऋषिका सूत्र है कि "दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान इनमें पूर्व कार्य हैं और उत्तर में कहे हुए कारण हैं। तत्त्वज्ञान उत्पन्न हो जानेपर मिथ्याज्ञानोंका जब नाश होगया तो आगे आगेवाले कारणोंका अभाव होजानेपर उनके अव्यवहित पूर्ववर्ती कार्योंका भी अभाव होजाता है । अन्तमें दुःखोंके निश्र्च हो जानेसे मोक्ष हो जाती है । इस प्रकार फलोपभोगको सदकारी कारण पकड़ता हुआ सम्यग्ज्ञान ( तत्रज्ञान ) ही मोक्षका कारण है, ऐसा किन्हीं नैयायिकों के द्वारा कहा जाता है ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
साक्षात्कार्यकारणभावोपलब्धेस्तत्त्वज्ञानाकिनःश्रेयसमित्य परैः प्रतिपादनात् ज्ञानेन चापवर्गइत्यन्यैरभिधानात् विद्यात एवाविद्यासंस्कारादिशानिर्वाणमितीतरैरभ्युपगमात् । फलोपभोगेन संचितकर्मणां प्रश्चयः सम्यग्ज्ञानस्य मुक्त्युत्पत्तौ सहकारी ज्ञानामात्रात्मकमोक्ष कारणवादिनामिष्टो न पुनरन्योऽसाधारणः कश्चित् स च फलोपभोगो यथाकालमुपक्रमविशेषाद्वा कर्मणां स्यात् ? न तावदाद्यः पक्ष इत्याह
तत्वज्ञान अव्यवहित पूर्ववर्ती होकर कारण है और मोक्ष कार्य है । किसी तप, दीक्षा, फायक्लेश आदिको सहकारी कारण माननेकी आवश्यकता नहीं है । तत्त्वज्ञान और मोक्षमे परम्पराके विना साक्षात् रूपसे कार्यकारणभाव देखा जाता है । अतः तत्त्वज्ञान से झट मोक्ष हो जाती है । इस प्रकार दूसरे मीमांसक प्रतिपादन करते हैं । तथा सांख्यका यह सिद्धांत है कि प्रकृति और पुरुषका भेद ज्ञान कर लेनारूप तत्त्वज्ञानसे मोक्ष प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार अन्य कापिलोके द्वारा कहा जाता है | तथा आत्म तत्वको वेद द्वारा सुनो, मनन करो, दृढ भावना करो, आत्मा ही परब्रह्म एक तत्र है । इस प्रकारकी विद्यासही भेदरूप अविधा के संस्कारोंका और मेरे तेरे आदि संकल्पों आदिका क्षय हो जानेसे परनामें लीन हो जानारूप मोक्ष हो जाती है । इस प्रकार निराले द्वैतवादी स्वीकार करते हैं । और बौद्ध लोग भी क्षणिक विज्ञानरूप या नैरात्म्य मानारूप विद्यासे ही अविद्या के संस्कार, तृष्णा, आदिके क्षय हो जानेसे ज्ञानसंतानका पहिली संतान से संबंध टूटकर आभवरहित हो जानारूप मोक्षको स्वीकार करते हैं.
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इस प्रकार ऊपर कड़े हुए अकेले ज्ञानस्वरूप मात्रको ही मोक्षका कारण कहनेवाले प्रतिवादियोंने मोक्षकी उत्पत्ति करनेमें सम्यग्ज्ञानका सहकारी कारण संचित कर्मोंका फल भोग करके क्षय हो जाना माना है। इसके अतिरिक्त कोई भी दूसरा फिर असाधारण कारण नहीं माना है । किन्हीं किन्हीं नैयायिक, वैशेषिक आदिने तो रात्रि कमोंके नाश करनेमें उन कमौके सुख दुःखरूप फलका भोगना अती आवश्यक बतलाया है । वे कहते हैं कि " नाभुक्तं शीयले कर्म कल्पकोटिशतैरपि "
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करोडों, अरबों, कल्पकालोंके बीत जाने पर भी बिना फल देकर कर्म आत्मासे झरते नहीं है । इस पर हमारा यह पूंछना है कि कर्मोंका वह फल भोगना क्या कर्मोके यथायोग्य ठीक ठीक समयमै उदय आनेपर फल भुगवाकर होगा ! या किसी तपस्था तथा समाधिके बलसे विशेष उप
म द्वारा अर्थात् भविष्य हजारों, लाखों वर्षों में उदय जाने वाले कमोंका थोडी देर में ही उदय लाकर उन कमका फल भोगा जा सकेगा ? बताओ। इन दो पक्षों में परिला आदिका पक्ष तो ठीक नहीं है | इस बात को आचार्य महाराज कहते हैं ।
भोक्तुः फलोपभोगो हि यथाकालं यदीष्यते । तदा कर्मक्षयः कातः कल्पकोटिशतैरपि ॥ ५१ ॥
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तत्त्वाचिन्तामणिः
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. . यदि में बंधे हुए कर्म अपने अपने यथायोग्य कालमें उदय. आकर भोगनेवाले आस्माको फलका उपभोग करा देते हैं, तब पीछे उन काँका क्षय हो जाता है, ऐसा पक्ष मानते हैं, तब तो सैकड़ों करोड कल्पकालो करके भी इस फलोपभोगसे मला कोका क्षय किस आत्मा हो सकेगा । अर्थात् कोई आत्मा भी मुक्त न होगा। क्योंकि प्रत्येक कर्म जब अपना फल देगा, उस समय आसाम राग, द्वेष, अमिलाषाएं मादि अवश्य उत्पन्न हो जावेगी और उनसे पुनः नवीन काका न्य हो जायेगा और नवीन बंध होनेपर यथायोग्य. कालमें उन काँका उदय आनेसे उपभोग करते हुये फिर भात्माके राग, द्वेष श्रादि भाव उत्पन्न होगे ही, जो कि पुनः बन्धके कारण हैं। यह क्रम कभी न टूटेगा, तथा च आत्माकी अनंत कालतक भी मोक्ष न हो सकेगी। व्यकर्मसे भाव कर्म और भावकर्मसे व्यकर्मकी धारा चलती रहेगी।
न हि वजन्मन्युपात्तयोर्धागो जन्मालानाशाहाल लोप• भोगेन जन्मान्सराहते कल्पकोटिशतैरप्यात्यन्तिकः क्षयः कर्तुं शक्यो, विरोधात् । - उस विवक्षित बम प्रहण किये गये ऐसे भविष्यके अनेक जन्म जन्मान्तरों में फल देनेकी शक्तिवाले पुण्य पाप कोका यथायोग्य कालमें फलोपभोग यदि होगा तो भविष्यमें होनेवाले दूसरे भनेक जन्मोंके बिना सैकड़ों करोड कल्पों करके भी फलों के उपभोग द्वारा उन कर्मोंका सड़ाके लिये पूर्ण रूपसे क्षय करना शश्य नहीं है। क्योंकि विरोध है । भावार्थ---एक ओर यह मानना कि बिना फल दिये हुए कमाका क्षय होता नहीं है और दूसरी ओर यह कहना कि तत्त्वज्ञानसे उसी जन्म भोक्ष हो जाती है। ये दोनों बात विरुद्ध है । मला विचारो तो सही कि तत्त्वज्ञान मुक्त जीवके तो होता नहीं है। किंतु संसारी मनुष्यों के ही होगा। उनको पहिले कालों में बांधे हुए संचित कर्म भी विधमान है। बे कर्म जब फल देंगे तभी अनेक जन्मांतरों में फल देनेवाले कर्म पुनः बंध जावेंगे। द्रव्य, क्षेत्र, आदि सामग्री न मिलनेसे या तपस्था द्वारा बिना फल दिये हुए काँका सर जाना और प; या उदीरणा, अपकर्षण आदिकी विधिसे भविष्या जानेवाले काँका वर्तमान थोडे कालमें फल देकर झहजाना इसको आप स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसी दशामें तो किसीकी मोक्ष नहीं हो सकेगी। अतः प्रत्येक कर्म यथायोग्य कालमें फल देकर ही नष्ट होते हैं । यह आग्रह समीचीन नहीं है।
जन्मान्तरे शक्य इति चेन्न, सायादुत्पत्रसकलतत्त्वज्ञानस्य जन्मान्तरासम्भवात्, न व तस्य तज्जन्मफलदानसमर्थवे च धर्माधर्मों प्रादुर्भवत इति शक्यं वकुं, प्रमाणाभावात् । तज्जन्मनि मोक्षार्हस्य कुतश्विदनुष्ठानाद्धर्माधर्मों वज्जन्मफलदानसमर्थों प्रादुर्भवतः, तज्जन्ममोबाइधर्माधर्मत्वादित्यप्ययुक्तं हेतोरन्यथानुपपत्यभावात् । यौ जन्मान्तरफलदानसमर्थों तौ न तज्जन्ममोक्षाहधर्माधर्मों, यथासदादि धर्माधौ इत्यस्त्येव साध्याभाव साधनस्थानु पपपिरिति चेत्, स्यादेवम्, यदि तज्जन्ममोमाईधर्माधर्मवं जन्मान्तरफलदानसमर्थत्वेन विरुध्येत, नान्यथा।
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सत्वार्थचिन्तामणिः
योग्य कर्म बंध गये है
प्रकार कहना कैसे भी
यदि आप वैषायिक यों कहे कि तस्यज्ञानीके जन्मान्तरमे फळ देने तो फर्म दूसरे जम्ममें फळ भोगकर नष्ट किये जा सकते हैं। यह इस ठीक नहीं है। क्यों कि जिस जीवके संपूर्ण तत्त्वोंका प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान उत्पन हो गया है। उस जीवा अन्य जम्मोंको धारण करना असम्भव है। वह तो उसी जन्मसे मोक्ष प्राप्त करेगा । यदि आप यों कहे कि उस ही जन्म मोक्ष प्राप्त करनेवाले उस प्राणीके जो नवीन धर्म अधर्म उत्पन्न होते हैं, वे उस ही जन्ममें फल देनेकी शक्तिपने करके प्रगट हुए हैं। अतः उसकी उसी एक जन्मसे मोक्ष हो जावेगी । इस प्रकार भी आप नैयायिक नहीं कह सकते हैं। क्योंकि आपके कथनमे कोई प्रमाण नहीं है। अबतक जब ही कर्मबंध हुआ है, तभी उसमें सागर, परब, और realist स्थिति ही है, ये अनेक जन्मों में ही मोगे जा सकते है । यहीं धारा अनादि कालसे तत्वज्ञान उत्पन्न होने रहिले समय अनु मंत्री रही हैं। यदि आप यह अनुमान प्रमाण बोले कि उस ही जन्ममें मोक्ष प्रासिकी योग्यता वाले तत्त्वज्ञानी जीवके जो पुण्य पाव उत्पन्न होते हैं ( पक्ष ) वे किसी समाधि या पुण्य क्रियारूप अनुष्ठानसे उस जन्ममें ही फल देनेके लिये समर्थ हैं, ( साध्यदल ) क्योंकि वे उसी जन्ममें मोक्षप्राप्ति की योग्यतावाले तत्त्वज्ञानी के धर्म अधर्म हैं (तु) इस प्रकार आपका अनुमान भी युक्तियोंसे रहित है। कारण कि आपके हेतुकी साध्य के साथ व्याप्ति साध्यके विना हेतुका न रहना ) नहीं बनती है | यदि आप यों व्याधि बनावेंगे कि जो धर्म, अधर्म, दूसरे जन्मों में फल देनेकी शक्ति रखते हैं । वे उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीवके योग्य धर्म अधर्म नहीं है। जैसे कि अनेक जन्मों में मोक्ष मात करनेवाले हम लोगों के धर्म अधर्म है। इस मकार साध्यके न रहनेपर हेतुकी उपपति ( सिद्धि ) न होना रूप व्याप्ति बन ही जाती है। ऐसा कहोगे तो हम कहते हैं कि इस प्रकार व्यापकी व्याप्ति तो तब बन सकती थी, यदि उस जन्ममें मोक्षकी योग्यतावाले जीव धर्म अथर्मोका दूसरे जन्मों में फल देनेकी शक्ति के साथ विशेष होता। दूसरे प्रकार से आपकी व्याप्ति नहीं मन सकती है। किंतु हम देखते हैं कि उसी जन्ममें मोक्ष प्राप्तिकी योग्यतावाले जीवके यदि सीघ्र पाप या पुण्यका उदय हो जाता है तो प्रधान मुनीश्वर भी द्वीपायन या सुकुमालके समान अन्य जन्म धारण कर नरक या सर्वार्थसिद्धिमें अनेक सागर पर्यंत पाप, पुण्यका फल भोगते रहते हैं ।
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तस्य तेनाविरोधे राजन्मनि मोक्षाईस्यापि मोक्षाभावप्रसंगात्, विरुध्यत एवेति चेत् न तस्य जन्मान्तरेषु फलदानसमर्थयोरपि धर्माधर्मवोरुपक्रमविशेषान् ॥ फलोपभोगेन प्रक्षये मोक्षोपपत्तेः ।
है कि आप कहै कि उसी जन्मने मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीवके उन पुण्य पापका यदि उस दूसरे जन्मे फल देनेकी योग्यतासे विरोध न होता तो उस ही जन्ममें मोक्षके योग्य भी rtent it state अभावका प्रसंग होजाता । अतः सद्भव मोक्षगामी जीवके धर्म अपने का
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दूसरे जन्मों में फल देने के साथ अवश्य विशेष है ही । भावार्थ - ओ सद्भवमोक्षगामी जीवके धर्म धर्म हैं, वे अगले अन्य भवों में फल देनेके लिये समर्थ नहीं हैं । और जो अदृष्ट दूसरे जन्म फल देनेवाले हैं, वे तद्भव मोक्षगामीके पुण्य पाप नहीं हैं। हां, इस प्रकार कहोगे सो भी ठीक नहीं पडेगा। क्योंकि भविष्य के अनेक दूसरे जन्मोंमें फल देनेकी सामर्थ्यदाले धर्म, अधर्मका भी विशेष तपश्चर्याके द्वारा विशिष्ट उपक्रमसे फलोपभोग करके नाश करदेने पर उसी भवसे उस जीवके मोक्षकी सिद्धि होजाती है । मावार्थ अन्तस्केवळी या तद्भव मोक्षमामी कतिपय मुनि महाराजों के भी अनेक उपसर्ग होना शास्त्रों में लिखा हुआ है। वे साधु महाराज उत्तर जन्मोंमें फल देनेवाले कमको उपक्रम के कारण तप या उपरमकी योग्यता मिलने पर समाधि परिणामसे उनका फल भोमकर उसी जन्म में भट कर देते हैं । यदि वे खानु शुद्ध समाधिरूप परिणाम नहीं कर पाते सो वे अवश्य जन्मान्तरोको धारण कर पुण्य पापका फल भोगते । किंतु उन्होंने इस ही जन्ममै कमकी औपक्रममिक निर्जरा कर दीनी है। विशेष बात यह है कि उसी जन्ममें डेड गुणहानि प्रमाण द्रव्यके मोक्ष करने की योग्यता तो बहुतसे मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके स्थल मामी गयी कर्मभूमिके मनुष्योंमें है। जोकि पुरुषार्थ न करनेके कारण अनेक महमें भी व्यथा नहीं हो पाती है। मोक्षकी प्रासि प्रधानता पुरुषायी है । जो सुनीश्वर कमोंके महार, उपसर्म आदिको जीतकर उकृष्ट शुक्रष्यानमै आरूढ होजाते हैं 1 वे असंख्य जन्मोंके संचित कमौका उसी समय ध्वंस करदेते हैं । यतः वैववादका आग्रह कर मोक्षकी योग्यतावाले जीवोंके पुण्य, पापके ध्वंस करनेमें कुचोय नहीं करना 1
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यदि पुनर्न यथाकालं तज्जन्ममोक्षास्य धर्माधर्मौ तज्जन्मनि फलदानसमर्थों साध्येते, किं सपक्रमविशेषादेव संचितकर्मणां फलोपभोगेन प्रक्षय इति पक्षांतरमायातम् । ffer a मैया जैन सिद्धांत के अनुसार यो मशरलोगे कि उसी में मोक्ष जाने बाळे जीवके पहिले संचित किये हुए धर्म अधर्म यथायोग्य उस जन्ममें, उदय आकर फल देने में . समर्थ है, हम यह नहीं सिद्ध करते हैं, तब तो क्या कहते हैं ! सो सुन्दो । तप या समाधिरूप विशेष उपक्रम पळसे ही पहिले इकडे हुए कर्मों का फलके उपभोग करके बच्छा नाश हो जाता है, ऐसा मानने पर तो दूसरा पक्ष आया ही कहना चाहिये । भावार्थ -- आपने कर्मोकी औपक्रमिक निर्जरा मानकर पहले ही उठाये हुए दो प्रश्नोंसे द्वितीय पक्षका ग्रहण किया है, अस्तु ।
विशिष्टोपक्रमादेवमतश्चेत्सोऽपि तत्त्वतः ।
समाधिरेव सम्भाव्यश्चारित्रात्मेति नो मतम् ॥ ५२ ॥
frक्षण प्रकार के उपक्रमसे ही कमौके का उपयोग करना यदि आपको इष्ट है, तब सो वास्तविकता विचारा जाये तो वह विशेष उपक्रम करना भी समाधिरूप ही सम्भव है, जो कि
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तत्त्वार्य चिन्तामणिः
ऐसी समाधि तो हम-त्याद्वादियों के मतमें चारित्र स्वरूप मानी गयी है । पाल देकर मामको पकाने या सुखाने के समान भविष्यमें उदय आनेवाले काँको पुरुषार्थी तपस्वी उसी जन्ममें फल भोग कर या विना फलके निर्जीण कर देता है।
यसादुपक्रमाविशेषात् अनिका कोष गोगो सोगिनोऽमिमतः स समाधिरेव तखतः सम्भाव्यते, समाधावुत्थापितधर्मजनितायामृद्धौ नानाशरीरादिनिर्माणद्वारेण संचितकर्मफलानुभवस्यष्टत्वात् । समाधिश्वारित्रात्मक एवेति चारित्रान्मुक्तिसिद्ध सिद्ध स्याहादिना मतं सम्यक्त्वज्ञानानंतरीयकत्वाचारित्रस्य ।
जिस कारणसे फि विशिष्ट उपक्रम द्वारा योगी महाराजके काँका फलोपभोग स्वीकार किया है, वह विशिष्ट उपक्रम तो समाधिरूप ही वस्तुतः सम्भव है । चित्तकी एकाग्रतारूप समाधिमें उत्पन्न हुए विलक्षण पुण्यसे बनायी गयी ऋद्धियोंके होनेपर अनेक शरीर, केवकिप्तमुद्धात यादिकी रचनाके द्वारा एहिले एकत्रित किये हुए कोंके फलका अनुभव करना इष्ट है और वह समाधि पारित्र स्वरूप ही है । केवली महाराज भी अनेक पुण्यकमाके उदय होनेपर विना इच्छाके मुखका मनुभव करते हैं। वे सुख अनंत सुखमें ही गर्मित होजाते हैं अर्थात् विष्णुकुमार मुनीश्वरने शरीर बनाया था। उस विक्रिया करने में उनके पूर्व सञ्चित पुण्यकर्मका भोग अवश्य हुआ। वादिराज मानतुङ्ग आदि महर्षियोंने अपने पुण्यका घाटा सहकर ही बिना इच्छाके लौकिक सुख प्राप्त किया था। इसी प्रकार मुनि महाराजोंके पुण्य पापके उदयानुसार सुख, दुःख होते रहते हैं । तुि समाधिपरिणामोंसे उनका ऐच्छिक वेदन नहीं होने पाता है। आधारक ऋद्धिके लेने में भी पुण्यका व्यव होता है। इस प्रकार चारित्रसे कर्मफल मोगकर . काँकी मोक्ष होना सिद्ध होता है। हां। जो पौराणिक ऐसा मानते हैं कि राजापनको भोगानेवाले कर्मोंसे मुनियों के राजा तथा अनेक रानिर्या “चाकर आदिके शरीर बनजाते हैं । वे राजा होकर रानियोंसे तपमें बैठे हुए ही भोग करते हैं। यह - सिद्धांत सो जैनोंके इन नहीं है । राज्य, चक्रवर्तीपन, इन्द्रव आदिको बनानेवाले कर्म तद्भव मोक्षगामी जीवके बिना फल दिये हुए ही झडजाते हैं। काँका विपाक द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव मिकनेपर होता है। बिना सामग्रीके धूलमें पड़ी हुयी आगके समान अनेक कर्म तो फल दिये बिना ही नष्ट हो जाते हैं । अतः स्याद्वादियोंका मंतव्य सिद्ध हो गया । क्योंकि चारित्र गुणका सम्यक्ष और ज्ञानसे अविनामावीपना है । भावार्थ-जहां सभ्यक्चारित्र होगा उसके प्रथम सम्यग्दर्शन और ज्ञान अवश्य हो चुके होगे । अथवा सम्यग्दर्शन, और सम्मानके अनंसर चारित्र हुमा करता है तथा च रलायसे ही मुक्तिकी सिद्धि हुयी।
सम्यग्ज्ञानं विशिष्टं चेत्समाधिः सा विशिष्टता । तस्य कर्मफलध्वंसशक्तिनामांतरं ननु ॥ ५३ ॥
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मिथ्याभिमाननिर्मुक्तिर्ज्ञानस्येष्टं हि दर्शनम् । ज्ञानत्वं चार्थविज्ञप्तिश्चर्यात्वं कर्महंता ॥ ५४ ॥ शक्तित्रयात्मकादेव सम्यग्ज्ञानाददेहता । सिद्धा रत्नत्रयादेव तेषां नामान्तरोदितात् ॥ ५५ ॥
यदि किसी आत्मीय स्वभावसे विशिष्ट हुए सम्यग्ज्ञानको ही समाधि मानोगे तो वह उस ज्ञानकी विशिष्ठता दूसरे शब्दों में कमोंके फलको ध्वंस करनेकी शक्ति ही समझनी चाहिये । यही हम समीचीन तर्केणा करते हैं । ज्ञानका मिष्याश्रद्धानरूप आग्रहसे रहित हो जाना ही सम्बग्दर्शन सहितपना निर्णीत है। तथा तस्वार्थीको जान सेना ज्ञानपन है और कमका नाशकरदेनापन ही ज्ञानका चारित्रपना है। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप तीनों शक्तियों के अमेदास्मक सम्यग्ज्ञानसे ही शरीररहित मुक्त अवस्था सिद्ध हो जाती है। उन तीन रत्नों को ही उन नैयायिकोंने दूसरे शब्दों से कहा है अर्थात् समाधि, फलोपभोग, आदि अन्य शब्दोंसे कहकर नैयायिकोंने रत्नत्रयको दी मोक्षका मार्ग माना है ।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः सम्यग्ज्ञानं मिध्याभिनिवेशमिथ्याचरणामाविशिष्टमिति वा न कश्चिदर्थभेदः, प्रक्रियामात्रस्य भेदानामांतरकरणात् ।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्षका मार्ग है, यह जैनोंका मन्य है और मिथ्या आग्रह तथा मिथ्याचर्या इन दोनोंके अभाव से विशिष्ट सम्यग्ज्ञान ही मोक्षमार्ग है इस प्रकार नैयायिकों का अथवा अकेले सम्यग्ज्ञानसे मोक्ष माननेवाले वादियों का कहना है । इस प्रकार केवल शब्दों में भेद है । अर्थ में कोई भेद नहीं है । घोडीसी केवल दार्शनिक प्रक्रिया के भेदसे दूसरे दूसरे नाम कर दिये गये हैं। परिशेषं रश्नमसे ही सबके मतमे मोक्ष होना अभिप्रेत हो जाता है । इन्द्रदेव नामका छात्र न्याय और व्याकरण तथा सिद्धांत इन तीन विषयको पढा है, यों कहो मा न्याय व्याकरण के साथ सिद्धांत विषयको पढता है यों कहिये अभिमाय एक ही है।
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एतेन ज्ञानवैराग्यान्मुक्तिप्राप्त्यवधारणम् ।
न स्याद्वादविघातायेत्युक्तं बोद्धव्यमञ्जसा ॥ ५६ ॥
जो अकेले तत्त्वज्ञानको हो मोक्षका कारण मानते हैं। उनको भी सहकारी कारणों की प्रक्रिया रत्नत्रयको मोक्षमार्ग मानना पडता है। इस उक्त कथन के द्वारा यह बात भी निर्दोष रूपसे कथन कर दी गयी समझनी चाहिये कि ज्ञान और वैराम्यसे ही मोक्षकी प्राप्तिका नियम करना भी स्याद्वादसिद्धांतो घात करनेके लिये समर्थ नहीं है। भावार्थ- ज्ञानमे समीचीनता सम्यग्दर्शन के
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साथ होने पर ही आती है। अतः सत्त्वज्ञानका अर्थ सम्यग्दर्शनसहित तत्त्वज्ञान है । चारित्ररूप वैराग्यको आप कण्ठोक मानते ही हैं । तथाच ज्ञान और वैराग्यसे ही मोक्षकी प्राप्ति मानना रत्नत्रयसे ही मोक्ष होना स्वीकार करना है।
तत्त्वज्ञान मिथ्याभिनिवेशरहित सदर्शनमन्वाकर्षति, वैराग्यं तु चारित्रमेवेति रत्नत्रयादेव मुक्तिरित्यवधारणं बलादवस्थितम् ।
मिथ्याश्रद्धानसे रहित ओ तत्वोंका ज्ञान होमा, वही तत्त्वज्ञान समझा जावेगा । जैसे प्रोत्र इंद्रियजन्य मतिज्ञानवाले जीवके चक्षुरिन्द्रियजन्य ज्ञानकी लब्धि होना आवश्यक है, वैसे ही तत्त्वोंका ज्ञान सम्यदर्शनका अविनाभाव रूपसे आकर्षण कर लेता है और वैराग्य सो चारित्र है ही। इस प्रकार रलायसे ही मोक्षकी प्राति है, यह नियम काना बलात्कारसे सिद्ध हो जाता है। इसमें आनाकानी नहीं कर सकते हो।
" दुःखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वा बंधकारणम् । जन्मिनो यस्य ते न स्त्रो न स जन्माधिगच्छती "त्यप्यर्हन्मतसमाश्रयणमेवानेन निगदितम् , दर्शनशानयोः कथन्धिद्भेदामतान्तराशि
जिस प्रतिवादीने ज्ञान और पैराग्यको ही मुक्तिका मार्ग माना है, उस योगका यह सिद्धांत है कि शरीर, धन, सांसारिक भोग, आदि दुःखरूप पदार्थों में सुख माननारूप विपरीत बुद्धि करना अविद्या है और भोग, उपभोगोंमें आसक्ति करना अथवा उनकी भविष्यके लिये अमिलामा करना तृष्णा है । संसारी जीवकी अविधा और तृष्णा उसके बंधका कारण है। संसारमें जन्म और मरण करनेवाले जिस जीवके ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर वे अविद्या और तृष्णा नहीं रहते हैं, वह जीव पुनः जन्म मरणको प्राप्त नहीं होता है अर्थात् मुक्त हो जाना है। इस प्रकार कहनेवाले योग मतानुयायियोंने तो श्रीत देवके प्रतिपादन किये गये मतका ही फिर माश्रय ले लिया है । इस उक्त कथनसे ऐसा ही निरूपण किया गया प्रतीत होता है। क्योंकि सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञानस्वरूप विद्याका कञ्चित् मेद है और अनेक अंशों में अभेद है। अतः विद्या कहनेसे दोनों गुण कहे गये । चारित्र उन्होंने माना ही है । अतः रलायसे ही मोक्ष होना कहा गया । एतावता स्यावाद सिद्धांत के अतिरिक्त अन्यमत्तोंकी सिद्धि नहीं होने पाती है। पोत काक न्यायसे सबको रलायकी शरण लेने के लिये ही बाध्य होना पड़ेगा। इस प्रकरणको समाप्त कर एक द्रव्यके भी शक्तिस्वरूप अनेक गुण भिन्न होते हैं, इस बातको छेडते हैं।
न चात्र सर्वयेकवं ज्ञानदर्शनयोस्तथा । कथञ्चिद्भेदसंसिद्धिलक्षणादिविशेषतः॥ ५७ ॥
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...manmaina
.vomni.mm.rrmun.xmubmisartant .....'
इस सूत्रमें पड़े हुए शान और दर्शन गुणका सर्वथा एकमना सिद्ध नहीं है। क्योंकि उसी प्रकारसे लक्षण, संझा, प्रयोजन आदिकी विशेषताओंसे ज्ञान और दर्शनमें किसी अपेक्षासे मेदकी समीचीन रूपसे सिद्धि हो रही है।
न हि भिन्नलक्षणवं भिन्नसंज्ञासंख्याप्रतिभासत्वं वा कथञ्चिद्भेदं व्यभिचरति, तेजोमसोर्मिनलक्षणयोरेकपुद्गलद्रव्यात्मकत्वेपि पर्यायार्थतो भेदप्रतीतेः ।
शक्रपुरंदरादिसंज्ञाभेदिनो देवराजार्थस्यैकत्वेऽपि शकनपूर्दारणादिपर्यायतो भेदनियात् । जलमाप इति भिन्नसंख्यस्य तोयद्रव्यस्यैकत्वेऽपि शक्त्यैकत्वनानात्वपर्यायतो भेदस्यापतिहतत्वात् ।
__ भिन्न भिन्न लक्षण होना, अथवा पृथक् पृथक् संज्ञा होना, समा विशेष विशेष संख्या होना एवं निराली निराली ऋति होना, ये हेतु कथञ्चित् भेदस्वरूप साध्यके साथ व्यभिचार नहीं करते हैं। देखिये ! अमि और जल दोनों उष्ण स्पर्श तथा शीत स्पर्शरूप भिन्न लक्षणवाले हैं। भले ही वे एक पुद्गल द्रव्यस्वरूप है तो भी पर्यायार्थिक नयसे भमि और अलमें प्रत्यक्षप्रमाणसे भेदकी प्रतीति हो रही है। पुद्गल पड़ी जब जल पर्याय न गि पर्याय नहीं है। हां ! कालांतरमें चूक्षमें अल जाकर जब काष्ठरूप परिणत हो जायेगा और जलाने पर उस काठकी अनि यन सकती है। एवं पुद्गलकी अमि पर्यायके समय जल पर्याय नहीं है। हां! अभिसे वायु फिर जल बन सकता है । इसमें देर लगेगी । अतः मिन्नलक्षणबसे पदार्थोंका भेद सिद्ध हो जाता है । प्रकृतमे तत्त्वोंका श्रदान करना सम्यग्दर्शनका लक्षण है और तत्त्वोंको नहीं कमती बढ़ती स्वरूपसे ठीक जान लेना सम्याज्ञान है। इस प्रकार भिन्नलक्षण होनेसे दोनों गुणों में भेद है।
इंद्रके वाचक अनेक शब्द हैं। शुक्र, पुरंदर, शचीपति, वज्री, सुरपति आदि. भिन्न संज्ञाये न्यार्थिक नयसे देवोंके राजारूप एक ही मघवा अर्थके वाचक है। फिर भी एक द्रव्यमे अनेक गुण और पर्याय विद्यमान रहती हैं। अतः जम्बूद्वीपको परिवर्तन करनेकी शक्तिको धारण करने वाले इंद्रको शक कहते हैं और पौराणिक सम्प्रदायसे नगरीका ध्वंस करनेवाले इंद्रको पुरंदर कहते हैं। ऐसे ही पुलोमजाके पति या वजधारण करनेसे इंद्रको शचीपति और वजी कहते हैं। ये परम ऐश्वर्य, अत्यधिकवल, वजधारण आदि पर्याय निराली हैं। तभी तो उनके वाचक शब्द भिन्न माने गये हैं। यों न्यारी पर्यायोंसे मेदका निश्चय हो रहा है । अतः भिन्न संज्ञा होना भी भेदका साधक है। वह भिन्न संज्ञापन सम्यग्दर्शन और सम्याज्ञान गुणों में भी विद्यमान हैं। अतः ये दोनों गुण भी कथञ्चित् भिन्न हैं। यह ध्यान रखना कि जिस शक्ति या पर्यायको अवलम्ब लेकर अनेक संज्ञायें रखी गयी है। द्रव्यों एवम्भूत नयके विषय वे स्वभाव न्यारे ही हैं। कल्पित या भ्रष्ट शब्दोंको छोड़
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दो । किंतु जो शब्द अनादिसे उस उस अर्षके वाचक स्वाभाविक योग्यतासे चले आ रहे हैं, उन शब्दोंकी वाचकशक्ति वाच्य भके स्वाभाविक परिणामोपर निर्भर है।
जल यह एकरस संख्यासे युक्त शब्द है और आप यह बहुत्व संख्यासे सहित शह है। भिन्न भिन्न संख्यावाले दोनों शह एक ही पानीस्वरूप द्रपके वाचक हैं। यधपि पानी द्रव्य एक है। किन्तु उस पानी में एक पिण्ड और नाना अवयवरूप पर्याय निराकी हैं। यों पर्याय दृष्टिसे पानीम भेदका होना बाधाओंसे रहित है । शद्वनय अनुसार भेदका कोई बात नहीं कर सकता है। जहां पानी के एक अखण्ड द्रव्यकी विवक्षा है, वहां एकवचनान्त जल शब्दका प्रयोग होगा और जब पानीके अनेक टुकहोंकी विवक्षा है, वहां आपः शब्द बोला जावेगा। मतः एक द्रन्पो मी रहनेवाली शक्तियां पर्यायोंके भेदसे भिन्न भिन्न मानी जाती हैं। प्रकरणमे भी सम्यादर्शन और सम्यम्ज्ञान शब्द समास न करने पर एक धनान्त रहसे हैं। मान करनेपर द्विस्व संख्यासे युक्त " सम्यग्दर्शनज्ञाने " ऐसा शब्द बन जाता है। एक ही व्यक्तिको कहने वाले घट और कलश शब्दका समास करनेपर पटौ नहीं बनता है । मतः सिद्ध होता है कि संख्याभेद मी कश्चित् भेदका साधक है । सम्यादर्शनके निसगंज, अपिगमज या सराग, वीतराग तथा व्यवहार निश्चय करके दो भेद हैं । औपचरिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक करके सीन मी मेद है। आज्ञा आविसे दश भेद भी है । तथा सम्याज्ञान प्रत्यक्ष परोक्षके भेदसे दो हैं। मविधानादिसे पार है। उनमें मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस, शुतज्ञानके अंगोंकी अपेक्षा बारह और आवरणोंसे बीस भेद हैं। अवधिके तीन
और मनःपर्ययके दो भेद है। केवलज्ञान एक ही प्रकारका है। यह मी संख्यामेद है। स्पष्टास्पष्टप्रतिभासविषयस्य पादपस्पैकरवेऽपि तथानाचस्व पर्यायादिशामानात्वव्यवस्थितेः।
एक ही वृक्षको निकटसे देखा जाये तो वृक्षका स्पष्ट प्रतिभास हो जाता है । दूरवर्ती प्रदेशोंसे वृक्षको देखनेपर अस्पष्ट प्रतिभास होता है। यपि स्पा ज्ञान और अस्पष्ट ज्ञानका विषय पह यूक्ष एक ही है। फिर भी उस प्रकार विशद ज्ञान और अविशद शानके द्वारा जाननेकी योग्यता रूप ग्राह्यस्य पर्याय भिन्न हैं। इस कारण पर्यायाबिकनयके अनुसार कपन करनेसे नानापनकी म्यवस्था हो रही है । पत्येक पदार्थ विद्यमान प्रमेवस्व गुणके परिणाम भिन्न सामग्रीके मिलने पर अनेक अविभागप्रतिच्छेदोंको लिये हुए न्यारे न्यारे हो जाते हैं । ममिको भागमवाक्य द्वारा जाननेपर उसमें
आगमगम्यतारूप स्वभाव माना जाता है। धूम हेतुसे जाननेपर अमिम भनुमेयत्व धर्म है और प्रत्यक्षसे जाननेपर अमिमें प्रत्यक्षगोचरवस्वभाव है। यधपि क्षयोपशमके मेदसे ज्ञानों में भेद हो जाता है। फिर भी विषयों में स्वभावभेद मानना आवश्यक है। बिना स्वभावभेद माने भिन्न मिन्न कार्योके होनेका नियम कैसे किया जावे !। चुम्मको आकर्षण शक्ति है। किंतु इधर लोहमे आकर्ण्य शक्तिका मानना भी अनिवार्य है। चुम्बकपालाण तमी तो चांदी, सोना, मिट्टीको नहीं खींच सकता है और
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लोहा भी चुम्बकके सिवाय अन्य पदार्थासे खिचता नहीं है। इस सिद्धांतका अष्टसहस्त्रीमें अच्छा स्पष्टीकरण किया है। पातम धानोंका स्वांशमै स्पष्टप्रतिभास होता है और सम्यग्दर्शन गुमका आत्मानुभूतिरूप उपयोग दशामें भले ही किसीको प्रतिभास हो जावे । महाविद्वान् पञ्चाध्यायीकारने इस विषयको बहुत स्पष्ट किया है । किन भयोपशम सम्यक्त्व, उपशम सम्यग्दर्शन या क्षाषिकसम्यक्सका अनुपयोग भवस्था सह प्रत्यक्ष नहीं होता है। प्रशम, संवेग, आदि कार्योंसे मनुमान कर सम्यग्दर्शनका अपक्ष प्रतिमास कर देते हैं। अतः दोनों गुणों में प्रतिमासके भेद होनेसे कवम्बित् भेद मानना चाहिये । पानके सिवाय आमाके सम्पूर्ण गुण निराकार हैं । जाति आदिका - उल्लेस करना, सम्पकत्व गुणमें नहीं सम्भवे है। मतः छमस्योंको सम्यक्त्व गुणका प्रायःकरके स्वपवेदन नहीं होपाता है।
अन्पया स्टेटसवमेदासि सर्वमेकमासज्येत, इति कचित्कस्यचित्कृतविदं साथयता लक्षणादिभेदादर्शनहानमोरपि मेदोऽभ्युपगन्तव्यः ।
सम्यमा पानी पदि उक्त प्रकार मिन अक्षण मिन्न संख्या आदि हेतुओंसे पदार्थोके भेदकी व्यवला न मानी जावेगी तो प्रत्येक वादी प्रतिवादीको अपने अपने इष्ट तत्वोम भेद मानना सिद्ध न हो सकेगा | सप तो सर्व ही पदायोको नमादेववादीके माने हुए मामा के समान एक हो जानेका प्रसंग हो बावेगा । " सर्व एकं भूयात् ।। प्रकृति पुरुष या जर चेतन और जीव पुद्गल इनका भेद न हो सकेगा। इस प्राकार किसी न किसी पदार्थमे अन्य किसी एक पदार्थका किसी नियत अपेक्षासे मेदको सिद्ध करनेवाले दार्शनिकके द्वारा पक्षण, संज्ञा, संख्या आदिके भेदसे सम्पदर्शन और सम्यग्ज्ञानमें भी भेद स्वीकार कर लेना चाहिये।
तत एव न चारित्रं ज्ञानं तादाल्यमुच्छति । पर्यायार्थप्रधानत्वविवक्षातो मुनेरिह ॥ ५८ ॥
ऊपर कहे गये इन कारणोंसे ही पारित्र और ज्ञान गुण भी तादात्मको प्राप्त नहीं हो सकते हैं। क्योंकि मात्माके चारित्र गुणकी पर्याय यथास्यासचारित्र है और आत्माके चेतना गुणकी पर्याय सम्पज्ञान है। इस मोक्षमार्गके प्रकरणमे उमास्वामी.मनि महाराजकी पर्यायाभिक नयके प्रधानताकी विवक्षा है। जैसे अभिस्वरूप अशुद्ध द्रव्यकी दाहकत्व, पापकत्व, शोषकत्व, स्फोटकत्व पर्याय न्यारी है, वैसे ही मामाके तीन गुणोंकी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र पर्याय मिल हैं।
नशान चारित्रात्मकमेव ततो मिमलक्षणत्वादर्शनवदित्यत्र न स्वसिद्धान्तविरोधः, पर्यापार्यप्रधानस्वस्येह रखे खकारेण विवक्षितत्वात् ।
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ज्ञान गुण (पक्ष) चारित्रगुण स्वरूप ही नहीं हैं। क्योंकि सम्यग्ज्ञान उस चारित्रके लक्षणसे भिन्न लक्षणवाला है ( हेतु ) जैसे कि सम्यग्दर्शनका लक्षण चारित्रसे भिन्न है ( अन्वयदृष्टान्त) ज्ञानका लक्षण तत्वोंका निर्णय करना है और आत्महत्यकी केवल स्वात्मामें स्थिति हो जाना चारित्र है। इस प्रकार यहाँ मानने हमको कोई अपने सिद्धान्तसे विरोध नहीं पड़ता है । क्योंकि इस सूत्रम सूत्रों को बनानेवाले उमास्वामी महाराजने पर्यायार्थिक नयकी प्रधानताको विवक्षित किया है। यदि द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानता विवक्षित होती तब तो कतिपय पर्यायोसे परिणत एक आत्मद्रव्य ही शुद्ध आत्माकी प्राप्तिरूप मोक्षका गर्म हो जाता रहा माझा नामका काम करना पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे ही ठीक पड़ता है।
द्रव्यार्थस्य प्रधानत्वविवक्षायां तु तत्त्वतः । भवेदात्मैव संसारो मोक्षस्तद्धेतुरेव च ॥ ५९ ॥ तथा च सूत्रकारस्य क तद्भेदोपदेशना ।
द्रव्यार्थस्याप्यशुद्धस्यावान्तराभेदसंश्रयात् ॥ ६॥
द्रव्यार्थिक नमके विषय माने गये द्रव्यरूप अर्भके प्रधानताकी विवक्षा होनेपर तो वास्तविक रूपसे आत्मा ही संसार है और भास्मा ही मोक्ष होसकता है तथा उन संसार और मोक्षका कारण मी भामा ही है। भिन्न भिन्न अनेक पर्यायोंका अविष्वग्मावपिंडरूप आत्माद्रव्य एक ही है । नयके द्वारा द्रव्यको जाननेपर भिन्न भिन्न पर्याय नहीं जानी जासकती हैं। और वैसा होनेपर सूत्र बनानेवाले उमास्वामी महाराजका उस आत्माके मिन्न भिन्न गुणोंका उपदेश देना भला कहां बन सकता है ! दूसरे द्रव्यसे वैधे हुए अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय मी महान् अमेदसे छोटे अभेदका माश्रयकर प्रवर्तता है। अतः अशुद्ध द्रव्यकी विवक्षा होनेपर भी भेदरूप गुणोंका उपदेश देना नहीं बनता है। हाँ 1 प्रमाणोंसे या पर्यायाथिक नयसे भेदकी देशना होना सम्भवे है।
यथा समस्सैक्यसंग्रहो द्रष्यार्थिक शुद्धस्तथावान्तरैक्यग्रहोप्यशुद्ध इति तद्विवक्षा संसारमोक्षतदुपायानां भेदाप्रसिद्धरास्मद्रव्यस्यैवैकस्य व्यवस्थानात्त ददेशनाव व्यवतिष्ठेत ? तता सैव पत्रकारस्य पर्यायार्थप्रधानवविवक्षा गमयति, वामन्तरेण भेददेशनानुपपचेः ।
जैसे सम्पूर्ण गुण और पर्यायोंकी अखण्डपिण्डरूप एकताको संग्रह करनेवाला शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, वैसे ही फतिपय गुण और पर्यायोंकी मध्यवर्ती एकताको ग्रहण करनेवाला नय भी अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है । इस प्रकार दोनों शुद्ध अशुद्ध द्रव्यार्थिककी विवक्षा होनेपर संसार, मोक्ष तथा उनके उपाय माने गये संसारकारण और मोक्षकारण तत्वोंका भेद करना प्रसिद्ध नहीं है।
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द्रव्यदृष्टिसे विचार जावे तो आत्मद्रव्य एक ही व्यवस्थित होरहा है । अतः उसके भेदरूपों का उपदेश देना कहां व्यवस्थित होगा ! भावार्थ- संसारी आत्मा और मुक्त आत्मामें तथा मिथ्यादर्शन, मिध्याज्ञान, प्रमाद और कषायोंसे परिणत आत्मामें और संवर, निर्जरा, व्रत, समिति, तपस्या आदि परिणामोंसे युक्त हुये आत्मामें कोई अंतर नहीं है । द्रव्यको छूनेवाली निश्चय नयसे जैसे ही एकेन्द्रिय जी की आत्मा है, वैसे ही सिद्धपरमेष्ठी की आत्मा है। किंतु सूत्रकार जब संसार, मोक्ष, सम्यग्दर्शन, कषाय आदिका भेदरूप उपदेश देरहे हैं, इस कारण उससे ही अनुमान कर लिया जाता है कि सूत्रकारको भिन्न भिन्न पर्यायरूप अर्थोके प्रधानताकी विवक्षा है। क्योंकि पर्यायरूप अर्थके प्रवानकी उस विवक्षा के बिना गुणपर्यायों के भेदका उपदेश देना बन नहीं सकता था ।
ये तु दर्शनज्ञानयोर्ज्ञानचारित्रयोर्वा सर्वथैकत्वं प्रतिपद्यन्ते ते कालाभेदाद्देशा भेदात्सामानाधिकरण्याद्वा ? गत्यन्तराभावात् । न चैते सद्धेतवो ऽनैकान्तिकत्वाद्विरुत्वाचेति निवेदयति
जो प्रतिवादी सम्यग्दर्शन और ज्ञानका अथवा सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका सर्वथा अमेद होना समझ रहे हैं, वे प्रतिवादी क्या कालके अभेदसे या देशके अभेदसे अथवा समान अधिकरण से उन गुणोंका अभेद कहते हैं ! बताओ | क्योंकि अभेद सिद्ध करने में उन तीन के अतिरिक्त अन्य कोई भी उपाय नहीं है । प्रकृतमें अभेदको सिद्ध करनेके लिए दिये गये वे तीनों हेतु तो सद्धेतु नहीं हैं। किंतु व्यभिचारी और विरुद्ध होनेके कारण देत्वाभास हैं। इसी बात को ग्रंथकार निवेदन कर देते हैं ।
कालाभेदादभिन्नत्वं तयोरेकान्ततो यदि ।
तदैकक्षणवृत्तीनामर्थानां भिन्नता कुतः ॥ ६१ ॥
उन दर्शन और ज्ञान या ज्ञान और चारित्रमें फालका अमेद हो जानेसे यदि एकांतरूपसे अभेद सिद्ध करोगे, तब तो एक समय में रहनेवाले अनेक घट, पट आदिक अर्थोंकी मित्रता कैसे होगी ? बतलाइये, भावार्थ - जिनका काल अभिन्न है, ऐसे पदार्थों को अभिन्न मान लिया जाने तो समान समयवाले अनेक पदार्थ एक हो जायेंगे । वर्तमानमै 'विद्यमान हाथी, घोडे, मनुष्य, घट, पट आदि अनेक पदार्थ एक स्वरूप हो जायेंगे । यह बड़ा मारी सांकर्य दोषका पकरण है । और हेतु व्यभिचारी है।
देशाभेदाद भेदश्चेत् कालाकाशादिभिन्नता ।
सामानाधिकरण्याच्चेत्तत एवास्तु भिन्नता ॥ ६२ ॥
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तत्त्वामचिन्तामणिः
सामानाधिकरण्यस्य कथञ्चिदिद्या विना । नीलोत्पलतादीनां जातु कचिददर्शनात् ॥ ६३ ॥
दूसरे पक्ष के अनुसार यदि दर्शने, ज्ञानमें या ज्ञान, चारित्रमे देशके अमेद दोनेसे अभेद माना जावेगा, तब तो काल आकाश, काळ जीव आदि पदार्थों की 'भिन्नता कैसे हो सकोगी ? चिन आकाश के प्रदेशोंपर जीव द्रव्य है, वहां अनेक जातिके पुगल मन्त्र भी विद्यमान हैं। कालाणु भी रखे हुए हैं। आकाश तो वहां है हो । अतः न्यभिचारदोष हो जानेसे देशका जमेद होना भी पदार्थों के अभेदका कारण नहीं है। तथा तीसरा पक्ष लेने पर समान नविकरणपनेसे अभेद मानोगे तो उस सामानाधिकरण्यसे तो भिन्नता ही भली प्रकार सिद्ध हो जावेगी, सामानाधिकरण्य हेतु तो प्रत्युत पदार्थों के भेदको सिद्ध करता है । अतः तुम्हारा हेतु विरुद्ध है। देखिये । समान है अधिकरण जिनका ऐसे दो, तीन, चार आदि पदार्थोंौको समानाधिकरण कहते है और जन समानाधिकरण दोरहे पदार्थों का जो भाव है, वह सामानाधिकरण्य है। पट और कलशंरूप एक पदार्थमै सामानाधिकरण्य नहीं बनता है। नीका कमल है। यहां नीकपने और कमरूपनेका एक फूलमें समानाधिक रणता है । तभी तो यहां व्यभिचार होनेपर कनेवार समाय न माया है। को छोटकर नीलापन जानुन, नीलमणि, कम्बल च्यादिमें भी रह जाता है और नौरूपने को छोडकर कमरूपना मी शुभ, काल, पीछे कमलों में ठहर जाता है। दोनोंका सांकर्म नील कमल में है । अतः कथम्बिद are बिना समानाधिकरणपना नील उत्पक्ष, वीरपुरुष, आदि कहीं भी कभी देखा नहीं गया है । सामानाधिकरण्य हेतुसे अमेदको सिद्ध करने चले थे, किंतु भेद सिद्ध होगया। साध्याभावके साथ व्यातिको रखनेवाला हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है
न हि नीलोत्पलत्वादीनामेकद्रम्मवृत्तितया सामानाधिकरण्यं कमञ्चिद्भेदमन्तरेपोपपद्यते येनैकजीवद्रव्यवृत्तित्वेन दर्शनादीनां सामानाधिकरण्यं तथाभेदसाधनाविरुद्धं न स्यात् ।
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नीरूपना और उत्पलपना, तथा रक्तपना सभा पटपना, एबं धूर्तपना और श्रृंगारूपना, आदि की एक द्रव्यमे वृतिता हो जानेसे समानाधिकरणता कथम्बित मेदके बिना नहीं बन सकती है । जिससे कि एक जीव द्रव्यमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणोंके विद्यमान रह जानेसे बन गया समानाधिकरणपना भी इस प्रकार मेदको सिद्ध करनेवाला होनेके कारण अभेद सिद्ध करनेमें विरुद्ध वाभास न होता । अर्थात् — सामानाधिकरण्य हेतु विरुद्ध है।
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मिथ्या श्रद्धामविज्ञानचर्याविच्छित्तिलक्षणम् ।
कार्य भिनं हगादीनां नैकान्ताभिदि सम्भवि ॥ ६४ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तथा जिनका कार्य free fमन होता है, वे सर्वथा एक नहीं होते हैं। सम्यग्दर्शनका कार्य घंटे श्रद्धान यानी मिध्यात्वका नाश करदेना है। और सम्यग्ज्ञानका कार्य मिथ्याज्ञानका स कर देना है तथा सम्यकूचारित्रका कार्य कुचारित्रको निवृत्त करना है । अतः म्यारे लक्षणोंवाले दर्शनादिकों के ये मिश्र भिन्न कार्य एकांतरूपसे अभेद माननेमें नहीं सम्भवते हैं।
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दर्शनस्य हि कार्य मिथ्या श्रद्धानविच्छित्तिः संज्ञानस्य मिथ्याज्ञानविच्छित्तिः, सच्चारित्रस्य मिथ्याचरणविच्छित्तिरिति च भिन्नानि दर्शनादीनि भिन्नकार्यत्वात् सुखदु:खादिवत् । पावकादिनानैकांत इति चेन्न तस्यापि स्वभावमेदमंतरेण दाहपाकाद्यनेक कार्यकारित्वायोगात् ।
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आला में सम्यग्दर्शन गुणके प्रगट होनेपर निश्चय करके उसका कार्य मिथ्या श्रद्धानका नष्ट हो जाना है । और सम्यग्ज्ञानका प्रयोजन मिथ्याज्ञानको दूर कर देना है । एवं समीचीन वारिका फल तो मिय्या चारित्रका मलब कर देना है। इस कारण हम अनुमान करते हैं कि दर्शन ज्ञान और चारित्र में तीनों पर्यायें ( पक्ष ) भिन्न हैं ( साध्य ) क्योंकि इनका भिन्न भिन्न कार्य देखा जा रहा है (तु) जैसे कि सुख, दुःख, दान, लाभ आदि पर्यायें निराली हैं । सुखका का अनुकूल वेदन होना है। दुःखका कार्य अनिष्ट या प्रतिकूल अनुभव है आदि ।
यदि यहां कोई यह दोष देवे कि अभि एक है वह पानीको सुखा रही है, भातको पका रही है, ईन्धनको जला रही है। अतः एकके भी अनेक कार्य देखे जाते हैं। तब तो आप जैनोंका भिकार्य हेतु अनेक कार्य करनेवाले अमि, नर्तकी, लवन आदिसे व्यभिचारी हुआ । यों यह दोष देना ठीक नहीं है। क्योंकि उस अभि, सोंठ आदिको भी अपने अनेक भिन्न भिन्न स्वभावोंके भेद हुए बिना जलाना, पकाना, सुखाना आदि अनेक कार्योंका करदेनापन नहीं बच सकेगा । मावार्थअभि यद्यपि अशुद्ध एक पुद्गल द्रव्य है। किंतु उसमें अनेक स्वमात्ररूप शक्तियां विद्यमान है । अनेक स्वभावसे ही अनेक कार्य हो सकते हैं। ऐसा जैन सिद्धांत है। चार हाथकी एक लाठीको बीचमें पकड़कर आढी उठाओ ! सब उस लाठीकी दूसरी शक्तियां कार्य कर रही हैं और उसी लाठीको तीन हाथ एक ओर और एक हाथ दूसरे छोरपर छोडकर मध्यमेसे भाडी उठाने पर लाठीके अन्य स्त्रभाव कार्यकारी है, जिन स्वभावका कार्य हमें हाथोंपर बल लानेसे प्रतीत हो जाता है। किसी भूमि पर पडी उस लाठीको केवल एक अंगुल अंतभागमै पकड कर बड़ा भारी मल भी सीधी नहीं उठा सकता है, यों लटुमें वेग या शोकके परिणाम अनेक हैं । अतः दर्शन ज्ञान और मात्रिको आमा के भिन्न भिन्न परिणाम मानने चाहिये। तभी तो उनके अनेक भिन्न कार्य दीख रहे है। अब श्रीविद्यानंद आचार्य कारणोंके भेदसे दर्शन आदिका भेद सिद्ध करते हैं ।
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तत्वार्थ चिन्तामणिः
डरोहविगमज्ञानावरणसत्तमुद्संक्षयात्मकतोश्च भेदस्तद्भिदि सिद्धयति ॥ ६५ ॥
कारणों के भेदसे भी कार्यमेद माना जाता है । सम्यग्दर्शनका कारण तो दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, क्षयोपशम और क्षय होना है तथा सम्यग्ज्ञानका कारण ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम या क्षय होना है । एवं सम्यक्चास्त्रिका चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम, उपशम और क्षय होना कारण है । इन कर्मध्वंसरूप हेतुओंके भेदसे भी कार्यों में भेद होना सिद्ध होजाता है । अतः उस कार्यभेद होने में कारणोंका भेद ज्ञापक हेतु है । कारक भी है । छन्दके दूसरे और तीसरे पाद समास होजाना या सन्धि कर देना न्यायग्रंथों के लिये सहा है ।
दर्शन मोहविगमज्ञानावरणध्वंसवृत्तमोहसंक्षयात्मका हेतवो दर्शनादीनां भेदमन्तरेण न हि परस्परं भिन्ना घटन्ते येन तद्भेदात्तेषां कथञ्चिद्भेदो न सिद्धयेत् ।
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दर्शन मोहनीय कर्मका दूर होना और ज्ञानावरण कर्मका विघट जाना तथा चारित्र मोहनी - यका अच्छा नाश हो जानास्वरूप भिन्न भिन्न अनेक कारक हेतु तो कार्यभूत दर्शन, ज्ञान, चारित्रोंके भेद बिना परस्पर भिन नहीं घटित हो सकते हैं। जिससे कि उन हेतुओंके भेदसे उन कार्योंका कथञ्चित् भेद सिद्ध न होथे, अर्थात् कारणोंके मेदसे कार्यमेद होना अनिवार्य है ।
चक्षुराद्यनेककारणेनैकेन रूपज्ञानेन व्यभिचारी कारण मेदो भिदि साध्यायामिति चेन, तस्यानेकस्वरूपत्वसिद्धेः । कथमन्यथा भिन्नयवादिवीजकारणा यवांकुरादयः सिध्धेयुः परस्परभिन्नाः ।
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हेतुभेदसे कार्यभेदका अनुमान करनेमें दी गयी व्यातिके व्यभिचार दोषको कोई दिखलाता है कि चक्षु, आलोक, आत्मा, मन, पुण्य, पाप आदि अनेक कारणोंकरके एक रूपका ज्ञान होता है । यहां कारण अनेक हैं और कार्य एक है। अतः भेदको सिद्ध करनेमें जैनकी ओर ( तरफ ) से दिया गया कारणभेद हेतु व्यभिचारी है। आचार्य कहरहे हैं कि इस प्रकार नहीं कहना चाहिये । क्योंकि एक माने गये रूपज्ञानमें भी अनेकस्वमावपना सिद्ध है । रूपके ज्ञानमें नेत्रजन्यता स्वभाव न्यारा है और आमजन्यता धर्म पृथक् है, आदि। यदि ऐसा नहीं मानकर यानी अनेक कारणजन्य एक कार्यमें भिन्न धर्म न होते तो मिन्न मिश्र जौ, गेहूं, चना आदिके बीजोंको कारण मानकर न्यारे न्यारे जौके अंकुर, गेहूंके अंकुर, जौकी बाल, गेहूंकी बाल, चनाके होरा आदि परस्पर में एक दूसरेसे भिन्न भिन्न कार्य भला कैसे सिद्ध होजाते ? बताओ । अर्थात् पृथ्वी, घाम, पानी, किसान, वायु, आदिकी समानता होते हुए भी अत्यल्प बीजके भेदसे बढे बढे वृक्षरूप कार्य भिन्न भिन्न बन जाते हैं। एक औषधि भिन्न भिन्न अनुपानोंके भेदसे नाना रोगोंका
अन्य प्रकार मानोगे,
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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प्रशम कर देती है । तैलके दीपकी कलिकाका और वृत्तदीपककी कलिकाका तथा बिजलीकी कालकाका परिणाम (वासीर) न्यारा न्यारा है । अणु ब्रह्मचारिणी भी स्त्रीके चतुर्थ स्नान के अनन्तर
कस्मात् क्रोधी या काले पुरुषके दीख जानेपर गर्भस्थ जीवकी प्रकृति, आकृतिमें, अंतर आ जाता है । सेव ( फल ) स्वाकर पेडा खाना और पेडा खाकर सेव खाना इस फाल्व्युत्क्रमसे ही रासन - प्रत्यक्षरूप अर्थक्रियाओं में अंतर आ जाता है । इन दृष्टांतोंसे सिद्ध है कि जितने कारणोंसे कार्य बना है, उन सबकी ओर से कार्य में भिन्न भिन्न स्वभाव आगये हैं। दालमें पढे हुए हल्दी, मिर्च, धनिया, जीरा, नमक ये बात, पित्त, कफके दोषोंको दूर करते हैं और पाचन शक्तिको बढाते हैं, स्वाद बदल देते हैं |
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न चैककारण निष्पाद्ये कार्यैकस्वरूपे कारणान्तरं प्रवर्तमानं सफलम्। सहकारित्वात्सफलमिति चेत्, किं पुनरिदं सहकारिकारणमनुपकारकमपेक्षणीयम् १ तदुपादानस्योपकारकं तदिति चेन, तत्कारणत्वानुषंगात्, साक्षात्कार्ये व्याप्रियमाणमुपादानेन सह तत्करणशीलं हि सहकारि न पुनः कारणमुपकुर्वाणम् । तस्य कारणकारणत्वेनानुकूलकारणत्वादिति चेत्, तर्हि सहकारिसाभ्यरूपतोपादानसाध्यरूपतायाः परा प्रसिद्धा कार्यस्येति न किञ्चिदनेककारणमेकस्वभावम्, येन हेतोर्व्यभिचारित्वाद्दर्शनादीनां स्वभावभेदो न सिध्येत् ।
यदि कार्यमें एक ही स्वभाव माना जावे और वह एक कारण के द्वारा बना दिया जावे, तब तो उस कार्य में प्रवृत्ति करनेवाले अनेक दूसरे कारण विचारे सफल नहीं हो सकेंगे । माघार्थ -- एक स्वभाववाला कार्य एक कारणसे ही बन जावेगा। फिर उसके लिये अनेक कारणोंके ढूंढनेकी क्या आवश्यकता है । किन्तु जैन, नैयायिक आदि सर्व ही वादियोंने प्रत्येक कार्यके उपादान कारण सहकारी कारण और उदासीन कारण आदि अनेक कारणोंसे उस एक कार्यकी उत्पत्ति मानी है । यदि यहां कोई यों कहे कि दूसरा कारण पहिले कारणका सहकारी है । अतः उपादानका सहायक हो जाने से सफल है । ऐसा कहनेपर तो फिर हम जैन पूंछते हैं कि यह सहकारी कारण क्या कार्यके प्रति उपकार न करता हुआ ही कार्यको अपेक्षित हो रहा है ! यताओं । यदि इसका उत्तर आप यह देवें कि वह सहकारीकारण उपादान कारणका सहायक है । साक्षात् कार्यका उपकारकर्ता नहीं है । एक स्वभावाला कार्य तो केवल एक उपादानकारण से बन जायेगा | उपादानं सहकरोति इति सहकारी " जो उपादानकारणको सहायता मदत ) पहुंचाता है, सो बह उत्तर तो ठीक नहीं है। क्योंकि तब तो वह सहकारी कारण उपादान कारणका कारण बन जायेगा | कार्यका सहकारी कारण न बन सकेगा ।
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यदि आक्षेपक आप सहकारी कारणका यह अर्थ करें कि " उपादानेन सहकरोति कार्य " जो उपादान कारणकी परम्परा न लेकर सीधां ही कामे उपादान कारणके साथ व्यापार करता
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तत्वार्थचिन्तामणिः
है । अतः उपादानके साथ उस कार्यको करनेका मणा होनेसे ही वह हमार जागा है। किंतु उपादान कारणका उपकार करनेवालेको हम फिर सहकारी कारण नहीं कहते हैं। वह उपादानका कारण तो कारणका कारण है । इस कारण कार्यका प्रतिकूल नहीं है । अतः अनुकूल कारण माना जाता है । असाधारण कारण नहीं है । ऐसा कहनेपर तब तो हमारा जैन सिद्धांत ही आ जाता है कि कार्यका सहकारी कारणसे बनाये जाने योग्यरूप स्वभाव न्यारा है और उपादान कारमसे साधा गया कार्यका स्वमाव निराला है। इस प्रकार अनेक कारणोंसे बना हुआ कार्य अनेक स्वभाववाला ही प्रसिद्ध है। एक स्वमाववाला नहीं है, जिससे कि हमारा कारणभेद हेतु व्यभिचारी हो जानेसे दर्शन, ज्ञान, चारित्रों या इसी प्रकार क्षमा, ब्रह्मचर्य, मार्दव, आदिके स्वभावभेदोंको सिद्ध न कर पाना । भावार्थ—कारणमेद हेतु अव्यभिचारी है । वह स्वभावमेदको सिद्ध कर ही देता है । विशेष यह है कि जो कार्यरूप परिणममा है, उसको उपादान कहते हैं, जैसे रोटी पनानेमें चून । और जो उपादानके साथ रहकर कार्य करनेमें सहायक होता है, वह सहकारी कारण है। जैसे कि रोटी बनाने चकला, बेलना । दूसरे प्रकारका सहकारी कारण यह भी होता है, जो कि साक्षात् कार्य करने सो सहायता न करे, किंतु कारणोंका कार्य करानेमें प्रयोजक हो जावे। जैसे कि एक मनुष्यसे रस्सीके द्वारा कुंएमेसे घड़ा नहीं खिंचता है। दूसरे मनुष्यने आकर साथ लेजुको तो नहीं खींचा किंतु लेजु पकरे हुए उस मनुष्यको खींच लिया। ऐसी दशामें दूसरा मेरक मनुष्य भी सहकारी कारण माना जा सकता है। और भी कतिपय प्रकारके सहकारी कारण होते हैं। जैसे घडेके बनानेमें बुलाल कर्तारूपसे, दण्ड चाकको घुमानेसे, और चाक मिट्टीका गोल आकार करानेसे तथा डोरा घडेसे लगी हुयी नीचेकी मिट्टीको काटनेसे, सहकारी हैं और ठण्डा पानी पीने वालोंका पुण्य या घडे के नीचे दब पिचकर हानि उठानेवाले जीवोंका पाप भी अप्राप्यकारी होकर पट बनानेमें सहकारी हैं।
तेषां पूर्वस्य लाभेऽपि भाज्यत्वादुत्तरस्य च।
नैकान्तेनेकता युक्ता हर्षामर्षादिभेदवत् ॥ ६६ ॥
दर्शन, ज्ञान और चारित्रको भिन्न सिद्ध करने में यह भी एक ज्ञापक हेत है कि उन दर्शन आदि गुणोंके पूर्ववर्ती गुणका लाम हो जानेपर भी उसका उत्तरवर्तीगुण भाज्य होता है अर्थात् सम्यादर्शन होवे तो पूर्ण सम्यान्नान होवे मी और न भी होवे। कुछ नियम नहीं। एवं दर्शन और ज्ञानक होते हुए भी पूर्णचारित्र होवे न भी होवे, यह भी भजनीय है। यदि एकान्त पनेसे तीनोंको एक माना जावेगा तो यह भजनीयपना युक्त न होगा। अतः हर्ष, क्रोध, पण्डिवाई बल आदि परिणतियोंके भेदके समान दर्शन आदिक भी मेद है । एकान्तसे अभेद नहीं है।
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सस्वाचिन्तामणिः
न चेदमसिद्ध साधनम्
भेदसिद्ध करनेमें दिया गया पूर्वके लाम होनेपर भी उत्तरवर्ती गुणकी विद्यमानताका अनियमपनरूप हेतु मसिद्ध नहीं है अर्थात् तीनी रत्लस्वरूप मान तु रह पाता है। अतः स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नहीं है।
तत्त्वश्रद्धानलाभे हि विशिष्टं श्रुतमाप्यते। नावश्यं नापि तल्लाभे यथाख्यातममोहकम् ॥ ६७ ॥
तत्त्वोका श्रद्धान करना स्वरूप सम्यग्दर्शनके लाभ हो जानेपर निश्चयकर सर्वोत्तम द्वादशांग श्रुतज्ञान अवश्य प्राप्त हो ही जावे यह नियम नहीं है। और उस सम्यग्ज्ञानके लाम हो जाने पर भी मोहनीयकर्मकी समासे रहित और आनुषंगिक दोषोंसे रहित पूर्ण यथाख्यातचारित्र मी अवश्य पाप्त हो ही जाये ऐसा निमय नहीं है। होवे भी और न भी होवे, यो विकल्पनीय है।
नो विरुद्धधर्माध्यासेऽपि दर्शनादीनां सर्वथैकत्वं युक्तमतिप्रसंगात्। न च स्याद्वादिनः किञ्चिद्विरुद्धधर्माधिकरणं सर्वथैकमस्ति, तस्य कथञ्चिद्भिनरूपत्वव्यवस्थितेः। न च सत्त्वादयो धर्मा निषिवोघोपदर्शिताः कचिदेकत्रापि विरुद्धा, येन विरुद्धधर्माधिकरणमकं वस्तु परमार्थता न सिध्येत् । अनुपलम्भसाधनत्वात् सर्वत्र विरोधस्यान्यथा स्वभावेनापि स्वभाववतो विरोधानुषंगा । ततो न विरुद्धधर्माध्यासो व्यभिचारी।
इस प्रकार अनेक विरुद्ध भोके आधार होते हुए भी दर्शन आदिकोंको सर्वथा एकपना मानना युक्त नहीं है। यदि ऐसा मानोगे तो अतिप्रसंग हो जावेगा । अर्थात् रूपसहितपना और ज्ञानसहितपना इन विरुद्ध धर्मोके होते हुए भी पुद्गल और जीवद्रव्य भी एक हो जावेगे । तथा अनेक विरुद्ध कार्योको करनेवाले घर, पट, खम्म आदि मी एक पदार्थ बन जावेगे । हम स्याद्वादियोंके यहां विरुद्ध धोका आधारभूत कोई भी पदार्थ सर्व प्रकारोंसे एक नहीं माना गया है। उसको कथञ्चित् भिन्नरूपपना ही युक्ति, आगमों द्वारा सिद्ध किया जाता है। एक अमिमें भी यदि दाहकत्व, पाचकत्व मादि अनेक धर्म है तो वह भी भिन्न भिन्न अनेक स्वमाववाली है, सर्वथा एक नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि वस्तुतः विचारा जावे तो अभिमें विद्यमान हो रहे दाहकत्व, पाचकत्व आदि धर्म विरुद्ध हैं ही नहीं, उनमें सहानवस्थान ( एक साथ न रहना) रूप विरोधका लक्षण नहीं घटता है । रूपवत्त्व और ज्ञानवत्त्व तथा गतिहेतृत्व और खिसिहेतुल एवं आकय॑स्व
और आकर्षकत्ल आदि अवश्य विरुद्ध धर्म है । जो कि एक द्रव्यमै नहीं ठहरपति हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, आदि धर्म किसी एक पदार्थ में रहते हुये भी बाधारहित ज्ञानके द्वारा देखे जा रहे हैं। अतः विरुद्ध नहीं है । जीवद्रव्य तीनों कालमै विधमान है । वह अनेक गुणोंका निवास है। वह प्रतिक्षण परिणमन करता है जिससे कि विरुद्ध सरीखे दीखते हुए अनेक धर्मोका अधिकरण एक वस्तु यथार्थरूपसे सिद्ध न होती, अर्थात् उक्त अनेक अविरुद्ध धमौकी आधार मानी गयी
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বাৰিবালিঃ
meme-mmatrimmaamananmitrmanner.manus-nama
५५ वस्तु सिद्ध हो जाती है। हां । विरुद्ध कतिपय धोका आधारमूत एक वस्तु परमार्थरूपसे सिद्ध न होगी। जो धर्म एक धर्मी में कभी किसी के द्वारा नहीं देखे जाते हैं, इस अनुपलम्भ प्रमाणसे सभी स्थानोम विरोधकी सिद्धि की जाती है। यदि ऐसा न मानोगे अर्वात दुसरे प्रकारसे कहोगे कि जिन धोका एक वस्तुम साथ साथ उपलम्भ हो रहा है, उनका भी परस्पर विशेष माना जावेगा, सब तो स्वभाववाली वस्तुका अपने स्वमावके साथ भी विरोध होनेका प्रसंग भाजावेगा । तथा च अमिका उष्णसाके साथ और आत्माका ज्ञान के साथ भी विरोध ठन जावेगा, जो कि किसीको इष्ट नहीं है । तिस कारणसे अबतक सिद्ध होता है कि विरुद्ध गुणवाले गुणी द्रव्य जैसे भिन्न भिन्न होते हैं वैसे ही एक द्रन्यके गुण और पर्याय मी अनेक विरुद्ध स्वमावोंसे युक्त होते हुए मिम हैं । अतः विरुद्ध धर्मोका अधिकरणव हेतु व्यभिचारी नहीं है,दर्शन भाविकोंके भेदको सिद्धकर ही देवेगा।
नन्वेवमुत्तरस्यापि लाभे पूर्वस्य भाज्यता । प्रासा ततो न तेषां स्यात्सह निर्वाणहेतुता ॥ ६८ ॥
यहां शंका है कि जैसे पूर्वकथित दर्शन गुणके होजानपर भी ज्ञान और चारित्रके होजानेका कोई नियम नहीं है और दर्शन, ज्ञानके होजानेपर भी चारित्र होने का नियम नहीं है। इसी प्रकार उत्तरवर्ती गुणके लाभ होजानेपर भी तो पूर्वगुणकी भाज्यता प्राप्त होती है। क्योंकि जब वे तीनों गुण स्वतंत्र हैं, उनके स्वभाव एक दूसरेसे विरुद्ध हैं, ऐसी दशा सम्भव है कि उत्तरवर्ती गुण होवे और पूर्वका गुण न होवे। देखा भी जाता है कि किसी जीवके भनेक वर्षोंसे सम्यमान है, किंतु उस जीवके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं है । एवं क्षायिक चारित्र भी होजाता है। फिर भी बारहवे गुणस्थानमें केवलज्ञान नहीं है । अतः उस भाज्यताके कारण उक्त तीनों गुणोंको साथ रइकर मोक्षका मार्गपना प्राप्त नहीं होता है । जो विरुद्ध धर्मोके आधार हैं, वे मिलकर भी एक कार्यमें अमि और जनके समान मला सहायक मी कैसे होंगे।
नहि पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरमुरारस्य तु लामे नियतः पूर्वलाम इति युक्तम्, तविरुद्धधर्माध्यासस्याविशेषाद, उत्तरस्यापि कामे पूर्वस्य भाज्यताप्राप्तेरित्यस्याभिमननम् ।
आक्षेपकार कहता है कि पूर्व गुणके प्राप्त हो जानेपर आगेका गुण भजनीय है और उत्तरवर्ती गुणके लाभ हो जानेपर तो पूर्वगुणका लाभ होना नियमसे बद्ध है, यह बेनोंका कहना युक्तिसहित नहीं है। क्योंकि वह विरुद्ध धर्मोसे आरूढ हो जाना तीनों गुणों में अन्तर रहित विद्यमान है । उत्तर गुणके लाभ हो जानेपर भी पहिले गुणको विकल्पसे रहनापन प्राप्त है। अर्थात् किसी ठाकुर के यहां हाथी रहनेपर घोडा होवे ही यह नियम नहीं, जब कि हाथी और घोडा अपनी स्वतंत्रताके साथ न्यारे न्यारे भी रहसकते हैं। किसी प्रभुके केवल झयी है और किसीके यहां अकेला घोडा है। भले ही किसी के दोनों भी होवे । ग्रंथकार कहते हैं कि इस
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तस्याचिन्तामणि
५११ प्रकार इस शंकाकारका गर्वसहित मानना है । भेद सिद्ध करनेमें हमारी ओरसे दिये गये विरुद्धधर्माध्यासरूप हेतुके प्रयोजक उत्तर गुणकी भाज्यताको बिगाड देनेका इस शंकाकारका अभिप्राय है।
तन्नोपादेयसम्भूतरुपादानास्तितागतः । कटादिकार्यसंभूतेस्तदुपादानसत्त्ववत् ॥ ६९ ॥ उपादेयं हि चारित्रं पूर्वज्ञानस्य वीक्ष्यते । तद्भावभावितादृष्टेस्तद्वज्ज्ञानदृशोर्मतम् ॥ ७० ॥
वह शंकाकारका कहना ठीक नहीं हैं। क्योंकि उपादानसे बनाये गये कार्यकी उत्पत्ति हो जानेसे उपादान कारणके अस्तित्वका ज्ञान हो जाता है । जैसे कि चटाई घर आदि कार्योंके पैदा हो जानेसे उनके उपादान कारण माने गये पटेरा, पलिंगा, तृम मिट्टी मादि कारणोंका सत्व प्रतीत हो जाता है। पूर्ववर्ती ज्ञानस्वरूप उपादान. कारणका उपादेय कार्य चारित्र देखा जाता है। क्योंकि उस ज्ञानके होनेपर चारित्रका होना और ज्ञानके न होनेपर चारित्रका न होना मह अन्वय व्यतिरेक देखा जा रहा है। उसी प्रकार ज्ञान और दर्शनमें भी उपादान उपादेय माव माना गया है । भावार्य-पहिले दर्शन होगा तभी ज्ञान हो सकेगा। यहां अभेदहष्टि या निश्चय नयसे दर्शनको ज्ञानका और ज्ञानको चारित्रका उपादानकारण मान लिया है । क्योंकि चेतनस्वरूप आत्माके कोई मी गुण अन्यगुणों में प्रतिफलन होकर कार्य करते हैं। जैसे अस्तित्वगुण स्वतंत्र है । वह अपनेको तीनों कालों में स्थित रखता है | फिर भी अस्तित्वसे अभिन्न द्रव्यख, वस्तुस्व आदि गुणों में भी अस्तित्वका प्रतिफलन (छाया) है। अतः व्यत्व आदिक मी अनादि अनंत कालतक सत्रूप सित रहेंगे। ऐसे ही द्रव्यस्व गुण स्वयं प्रतिक्षण नवीन नवीन पर्यापोंको धारण करता है। किंतु द्रव्यत्वसे अमिन अस्तित्व, अगुरुलघुत्व आदि गुणोंको भी प्रतिक्षण नवीन पर्याय धारण करनी पड़ती हैं। साझेका काम ऐसा ही हुआ करता है । अतः द्रव्यदृष्टिसे ज्ञानको दर्शनका
और चारित्रको ज्ञानका उपादेय ठहराया है। यदि प्रमाण दृष्टिसे विचार किया जावेगा तो दर्शन, जान, (चेतना) चारित्र इन तीन भिन्न गुणोंकी पूर्ववर्ती न्यारी न्यारी पर्याय उपादान कारण है और उत्तरकालमें होनेवाली पर्याय उपादेय हैं । हां, ज्ञानका दर्शन ( सम्यक्त्व ) गुण निमित्त कारण हो जाता है। उपादान कारण तो चेतना है और दर्शनका ज्ञान नैमित्तिक कार्य बन जाता है । जब कि द्रव्यलसे इन गुणों में उपादान उपोदय भाव है । तब पूर्वके लाम होनेपर उत्तर गुणको ही भाज्यता प्राप्त होगी। किंतु उत्तरवर्ती गुणके हो जानेपर पूर्व गुणकी सत्ता, तो विकल्पसे नहीं मानी जा सकेगी। कारण होय और उत्तरवर्ती कार्य न भी होय । किंतु मदि उत्तरवर्ती कार्य है वो पूर्ववर्ती कारण अवश्य हो चुका है।
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तत्त्वाचिन्तामणिः ..........---- .. ... ___ न हि तद्भावमावितायां दृष्टायामपि कस्यचित्तदुपादेयता नास्तीति युक्तम् , कटादिवत् सर्वस्यापि वीरणाधुपादेयत्वाभावानुभक्तेः न चोपादेयसम्भूतिरुपादानास्तिता न गमयति । कटादिसम्भूवेर्वीरणाधस्तित्वस्यागतिप्रसंगात, येनोचरस्योपादेयस्य कामे पूर्वलाभो नियसो न भवेत् ।
उसके होनेपर होनापनको देखते सन्ते भी किसीको उसकी उपादेयता नहीं है, यह नहीं कहना चाहिये । अन्यथा घटाई, कपडा आदिके समान सर्व ही पदार्थोंको उशीर, तृण, तन्तु आदिके द्वारा उपादेयपनेके अभावका भी प्रसंग हो जावेगा। मावार्थ-घटाई आदिके उपादान कारण अब तृण, पटेरे आदि न हो सकेंगे और ऐसे ही गृह बनाने ईट, चूना और लड्डू बनानेमें बेसन, पी आदि उपादान कारण न हो सकेंगे। उपादेय कार्यकी उत्पत्ति हो जाना पूर्वकालके उपादान कारणको मस्तिताको नहीं समझाती है, यह नहीं कह बैठना अर्थात कार्यले उपादान कारणका ज्ञान हो ही जाता है। यदि ऐसा न माना जावेगा तो चटाई, कुण्डल, मादिकी उत्सचिसे सिनका, सुवर्ण, आदि उपादान कारणोंक अस्तित्वका ज्ञान नहीं होना चाहिये था। यह अनिष्ट प्रसंग पडेगा। किन्तु ज्ञान हो ही जाता है, जिससे कि उत्तरवर्ती उपोदयके लाभ हो जानेपर पूर्ववर्ती उपादानका लाभ हो चुकना नियत न होता अर्थात् उपादेयाका काम हो जानेपर उपादानका लाभ नियत है । उक्त नियति करनेसे हमारा पहिला नियम करनेका सिद्धांत न बने, सो नहीं है। अर्थात् पूर्वका काम होनेपर उत्तरवर्ती भजनीय है।
तत एवोपादानस्य लामे नोचरस्य नियतो लामा, कारणानामवश्यं कार्यवत्वाभावात् , समर्थस्य कारणस्य कार्यत्वमेवेति चेन्न, तस्येहाविवक्षितत्वात् । तद्विवक्षायां तु पूर्वस्य लाभे नोत्तरं मजनीयमुच्यते स्वयमविरोधात् ।
इस पूर्व उत्तरवर्ती गुणोंका उपादान उपादेयभाव होजानेसे ही उपादान के लाम होजानेपर उत्तरवर्ती उपादेयका लाभ होजाना नियत नहीं है। क्योंकि कारणोंको आवश्यकरूपसे कार्यसहित पनेका अभाव है। भावार्भ-कार्य तो कारणोंसे युक्त अवश्य होते ही हैं। किंतु संपूर्ण ही कारण अपने कार्योको उत्पन्न कर ही देवे, ऐसा नियम नहीं है। सामग्री के न मिलनेसे अनेक कारण कार्योंको विना उत्पन्न किये हुए ही यों ही पड़े रहते हैं । मतः पहिले गुणके होनेपर उच्चरवर्ती कार्य हो ही, ऐसा नियय नहीं है, तथा च उत्तरवर्तीगुण विकल्पनीय है। यदि यहां कोई यो को कि सामग्रीसे युक्त होरहा समर्थ कारण तो अवश्य ही कार्यवाला है। क्योंकि प्रतिबन्धकोंके अमावसे और संपूर्ण कारणपरिकरोंसे सहित समर्थ कारण अवश्य ही उत्तरक्षणमे, कार्योंको पैदा करता है । तब तो पूर्व गुणकी मी उत्तरगुपके साथ समन्याप्ति बन आती है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना सो ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकरण में इस समर्ष कारणकी विवक्षा नहीं की
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समांचिन्तामणिः
गयी है। हां, यदि उन समर्थ कारणोंकी विषक्षा की आवेगी, तब तो पूर्वक काम होबानेपर उत्तरगुण विकल्पनीय नहीं कहा जासा है 1 ऐसी बात कहने में हमको स्वयं कोई विरोध नहीं है। भावार्थ-समर्थ सम्यग्दर्शन नियमसे पूर्ण ज्ञानको पैदा कर देवेगा और समर्थशान मी पात्रिको उत्पन्न करदेवेगा। ऐसी दशा कार्यकारणों की दोनों मोरसे समन्याप्ति है । उस समय मेदके सापक भाज्यशारूप हेतुको हम उठा लेवेंगे।
इति दर्शनादीनां विरुद्धधर्माभ्यासाविशेषेप्युपादानोपादेयमावादुपरं पूर्णस्तितानियत न तु पूर्वमुत्तरास्तित्वगमकम् ।
इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणोंको विरुद्ध भोके अन्तररहित अधिकरण होते हुए भी सामान्यपनेसे उपादान उपादेय भावकी अपेक्षासे उत्तरवर्ती गुण पूर्वगुणके अस्तित्व के साथ नियत है। किंतु पूर्वका गुण तो उत्तरवर्तीके अस्तित्वका ज्ञापक नहीं है । भावार्थ-लोकमै भवर न्मतिरेकके द्वारा व्यक्तिरूपसे कार्यकारणभावका निर्णय होना अधिक प्रसिद्ध है। सामग्रीरूप समर्थ कारणका तो कहीं कही विचार किया जाता है । क्योंकि समर्थ कारणके उत्तरकाली जब कि सालाण कार्य हो ही जाता है, ऐसी दशामें कार्यको बनाने के लिये किस किस कारण की योजना करना चाहिये, ऐसा विचार एक प्रकारसे व्यर्थ पडता है ।
ननूपादेयसम्भूतिरुपादानोपमर्दनात् । दृष्टेति नोत्तरोन्दूतौ पूर्वस्यास्तित्वसंगतिः ॥ ७९ ॥
यहां अब न्यारी शंका है कि उपादेय कार्यकी उत्पत्ति तो उपादान कारणके मटियामेट (ध्वंस ) हो जानेसे देखी गयी है, जैसे कि तैकके नष्ट हो जाने पर दीपकलिका रासावके ध्वंस हो जाने पर नाज, करम भादि अभवा कमलके उपयोगी कीपडके सर्वथा बिगड जानेपर कमक होता है। इस प्रकार उपादेय अवस्थामै उपादानका अब समूलचूल नाश हो चुका तो उच्च गुणकी उत्पति हो जानेपर उपादान कारण कहे जारहे पूर्व गुणके अस्तित्वका परिज्ञान आप जैन नहीं कर सकेंगे। क्योंकि वह पदार्थ ही नहीं रहा। " कार्योत्पादः क्षयो हेतोः ॥ ऐसा मतमद वचन है। उपादान कारणका पूर्व भाकारसे क्षय हो जाना ही कार्यकी उत्पत्ति है।
सत्यप्युपादानोपादेयभावे दर्शनादीनां नोपादेयस्य सम्भवः पूर्वस्यातिता स्वकाले गमयति, तदुपमर्दनेन तदुभतेः । अन्यथोचरप्रदीपज्वालादेरस्तिस्वासक्ति तथा च इतस्वकार्यकारणभाव। समानकालत्वात् सव्येतरगोविषाणवदित्यस्याकूतम् ।
कारिकाका भाष्य यों है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणोंका बेनों के अनुसार उपादान उपादेयमाव होते हुए भी उपादेय कार्यका उत्पन्न हो जाना पूर्वकारणकी सलको अपने कामे
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तत्वार्थाचिन्तामणिः
नहीं समझा सकता है। क्योंकि उस कारणके पटरा (चौपट ) हो जानेसे वह कार्य उत्पन्न होता है । उपादान के क्षयको आपने कार्यकी उत्पत्ति माना है " कार्योपादः क्षयो हेतोः " उपादानका क्षय ही उपादेयका उत्पाद है। यदि ऐसा न मानकर आप दूसरे प्रकारसे मानोगे तो उपादेय के समय में आगे आगे होनेवाली पहिली अनेक पर्यायोंका सत्त्व मानना पडेगा । दीपककी पहिली कलिका दूसरीको और दूसरी तीसरीको उगा कर रही हैं। यदि दूसरी फोका उत्पन्न कर चुकने पर पहिली कलिकाका नाश और तीसरी कलिका के उत्पन्न हो जानेपर दूसरी लौका नाश न हो गया होता तो एक दीपककी एक समयमें दो, तीन कलिकाएं दीख जाती । इस प्रकार हजारों कलिकाओंके दीखने का प्रसंग आता है। ऐसे ही एक ही सुवर्णक्रमसे केयूर, कुण्डल, कडे बन जानेपर पहिली अवस्थाओंका सत्त्व मानना पडेगा । और तैसा होजानेपर समान कालवाले उन परिणामका कार्यकारणभाव भी कैसे होगा ? जैसे कि गौके एक समय में उत्सन्न हुए सीधे और ढेरे सींगों में परस्पर कार्यकारणभाव नहीं है, वैसे ही एक समयनै विद्यमान होर अनेक दीपकलिकाओंका या अभिकी ज्वालाओं अथवा स्थास, कोष, कुशूल, घट, मादिका उपादान उपादेय भाव कैसे बन सकता है ? कथमपि नहीं। यहां इस प्रकार इस शंकाकारकी चेष्टा हो रही है कि ज्ञानकालमै दर्शन नहीं है और चारित्रके कालमें ज्ञान, दर्शन दोनों ही नहीं हैं । फिर भाज्यपना कैसे ? बताओ । अब आचार्य महोदय समझाते हैं ।
सत्यं कथञ्चिदिष्टत्वात्प्राङ्नाशस्योत्तरोद्भवे । सर्वथा तु न तन्नाशः कार्योत्पत्तिविरोधतः ॥ ७२ ॥ ज्ञानोत्पत्ती हि सद्दष्टिस्तद्विशिष्टोपजायते । पूर्वाविशिष्टरूपेण नश्यतीति सुनिश्चितम् ॥ ७३ ॥ चारित्रोत्पत्तिकाले च पूर्वदृग्ज्ञानयोश्च्युतिः । चर्याविशिष्टयोर्भूतिस्तत्सकृत्त्रयसम्भवः ॥ ७४ ॥
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यह शंकाकारका कहना किसी अपेक्षासे ठीक है, देखो, उत्तरपर्याय उत्पन्न हो जानेपर पहिली पर्यायका कथञ्चित् नाश हो जाना इस जैनोंको अभीष्ट है। किन्तु उस पहिली पर्यामका अन्वयसहित सर्वथा नाश हो जाना नहीं बनता है। क्योंकि ऐसे तो कार्यकी उत्पत्ति होनेका ही विशेष है । भित्ति होनेपर ही चित्र ठहर सकता है । गङ्गाकी धारन टूटने से ही गंगा नदी महती है | हम कहते हैं कि ज्ञानकी उत्पति होनेपर उस ज्ञानसे विशिष्ट नवीन सम्यग्दर्शन विषय उत्पन्न हो जाता है और ज्ञानसे विशिष्ट नहीं यानी रहित अपने पहिले स्वरूपसे सम्यग्दर्शन नह हो जाता है । उत्पाद, व्यय, धौव्य तो सत्के प्राण हैं, यह बात प्रमाणोंसे श्री समन्तभद्र आदि आचार्योंने अच्छी तरह निर्णीत कर दी है। ऐसे ही चारित्र के उत्पन्न होते समय पहिले चास्त्रिरहित
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तवाचिन्तामणिः
हो रहे दर्शन ज्ञानरूप परिणामका ध्वंस हो गया है। और चारित्र से सहित होरहे ज्ञान, दर्शन पर्यायोंकी उत्पत्ति हो गयी है । इस कारण एक समय भी उन तीनों गुणोंका विद्यमान रहना संभव है । अतः पूर्वके लाभ होनेपर उचरकी सत्ताका विकल्प होना रूप अखण्ड सिद्धांत सिद्ध हुआ ।
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दर्शनपरिणामपरिणती ह्यात्मा दर्शनम्, तदुपादानं विशिष्टज्ञानपरिणामस्य निष्पत्तेः पर्यायमात्रस्य निरन्वयस्य जीवादिद्रव्यमात्रस्य च सर्वथोपादानत्वायोगात् कूर्मरोमादिवत् ।
आत्मद्रव्यकी सम्यग्दर्शन होना एक अभिन्न परिणति है । उस परिणति से परिणमन करता हुआ आत्मा ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है। वह सम्यग्दर्शन तो आत्मा के सम्यग्दर्शन विशिष्ट सम्यज्ञानरूपं परिणामकी उत्पत्तिका उपादान कारण है । जैसे कुशूल अवस्थासे युक्त मिट्टी ही घटका उपादान कारण है। बिना अन्येता द्रव्यके केवल पूर्ववर्ती पर्याय उत्तर पर्यायका उपादान नहीं हो पाती है और पर्याय कल्पित किया गया अकेला जीवद्रव्य भी ज्ञान, दर्शन, आदिका सर्व प्रकार से उपादान कारण नहीं है। ऐसे केवल कुशूल पर्याय या अकेली मिट्टी को घटके उपादानकारण हो जानेका योग नहीं है । किंतु कुशूल अवस्था से सहित हो रही मिट्टी उपादान कारण है । जैसे कटुके बाल, आकाशका फूल आदि भसत् पदार्थ हैं, वैसे ही बौद्धोंकी मानी हुबी द्रव्यरहित पूर्वं उत्तर पर्याये और सांख्योंका माना हुआ पर्यायोंसे रहित आत्मद्रव्य भी असत् पदार्थ है, कोई वस्तुभूत नहीं है ।
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तत्र नश्यत्येव दर्शनपरिणामे विशिष्टज्ञानात्मतयात्मा परिणमते, विशिष्टज्ञानासहचा रितेन रूपेण दर्शनस्य विनाशात्तत्सहचरितेन रूपेणोत्पादात्, अन्यथा विशिष्टज्ञान सहच - रिवरूपतयोत्पत्तिविरोधात् पूर्ववत् ।
इस प्रकरणमें यह कहना है कि पहिली रिक्त दर्शन पर्यायके नाश होजानेपर ही सम्यक्त्व करके विशिष्ट होरहे ज्ञानस्वरूप से आत्मा परिणमन करता है। पूर्ण श्रुतज्ञान या केवलज्ञानके उत्पन्न होनेके पहिले सम्यग्दर्शन गुण अकेला था। विशिष्ट ज्ञान होजानेपर तो विशिष्ट ज्ञानके साथ न रद्दनेवाके स्वरूप करके, सम्यग्दर्शनका नाश होजाता है और विशिष्ट ज्ञानके साथ रहनेवाले स्वभाव करके दर्शनका उत्पाद होजाता है । अन्यथा यानी यदि पहिले असहचारीरूप से दर्शनका नाश न होगया होता तो विशिष्ट ज्ञानके सहचारीपन स्वभाव करके दर्शनकी उत्पत्ति होनेका विरोध होजाता । जैसे कि विशिष्टज्ञान उत्पन्न होनेके पहिले दर्शनगुणकी असंख्य पर्यायें ज्ञानसे असहचरपने करके उत्पन्न हो चुकीं हैं। यदि साथ न रहनेपनका नाश न मानाजावे तो पूर्वकीसी दर्शनकी ज्ञानरहित परिणतियां दी होती रहेंगी । ज्ञानसहित परिणति होजाने का अवसर न मिढ़ेगा। एक समय सहचरित और असहचरितपने से परिणतियां हो नहीं सकतीं। क्योंकि विरोध दोष है।
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साचिन्तामणिः
तया दर्शनशानपरिणतो जीगे दर्शनशाने, ते चारित्रस्योपादानम् , पर्यायविशेषारमकस्य द्रव्यस्योपादानत्वप्रतीतेर्घटपरिणमनसमर्थपर्यायात्मकमृदयस्य घटोपादानवत्ववत्, सत्र नश्यतोरेव दर्शनज्ञानपरिणामयोरामा चारित्रपरिणाममियति चारित्रासहपरिव रूपेण आयोविनाशाचारित्रसहचारितेनोत्पादात्, अन्यथा पूर्ववच्चारित्रासहचरितरूपत्वप्रसङ्गात् ।
इस ही प्रकार दर्शन और ज्ञान पर्यायोंसे परिणमन करता हुआ संसारी जीव द्रव्य ही दर्शनज्ञानरूप है। वे दर्शन और ज्ञानगुण दोनों उत्तरवर्ती चारित्र गुणके उपादान कारण हैं । विशेष पर्यायोंसे अभेद रखता हुआ द्रव्य ही उपादानरूपपनेसे प्रतीत होरहा है । जैसे कि पटरूप पर्यायको बनाने के लिये समय शिवक आदि पर्याय हैं। उन शिवक, छत्र, स्वास, कोष और कुशूल पर्यायोंसे सदात्मक होरहा मृविका द्रव्य ही घटका उपादान कारण माना गया है। यदि पूर्वसमयवर्ती अकेली पर्यायको ही उपादान कारण कहते तो गुन्यके अन्वयरहित उस पायके सर्वथा नाश होजानेसे कार्यकाम्मे उपादानकारणका दर्शन नहीं हो सकता था। किंतु जैन सिद्धांतके अनुसार प्रत्येक पर्याय इम्यका मन्वय लग रहा है। जैसे कि मोतीकी मालामे पिरोये हुए डोरेका मन्वय ओतपोत होरहा है। अकेला द्रव्य मी उपादान नहीं है । अन्यथा सर्व ही पर्यायें युगपत् होजानी चाहिये और केवल द्रव्य करश होकर पर्याय भी समों प्रारण करेगा ! अतः पर्याययुक्त द्रव्य उपादान है। देखो ! पटवानके उत्तर काळम परज्ञान उत्पन्न हुआ। यहां चेतनापरिणतिके अनुसार घटज्ञान उपादान कारण है। वह मानपनेसे नष्ट नहीं हुआ है। किंतु ज्ञानमें घटकी विषयिता नष्ट होगयी है और पटकी विषयिता उत्पन्न होगयी है । जानकी सत्ता परिणमन करती हुयी सर्वदा विद्यमान है। जैसे सूक्ष्म रूपसे परिणमन करती हुयी कलिकाके प्रकाशमें घरको दूर कर पट रखदिया जाना है। वहां प्रकाश्य पदक गया है । प्रकाशक वही है । इस प्रकरण नाशको प्राप्त होते हुए ही दर्शन और शान पर्यायोका परिणामी आत्मा ही चारित्र पर्यायको प्राप्त होता है । तब चारित्रगुणके असहचारी स्वभावसे उन दोनों दर्शन और ज्ञानका नाश हो चुका है और चारित्रगुणके साथ रहनेपनसे दर्शन, धानका उत्पाद हो गया है। यदि ऐसा उत्पाद, विनाश न स्वीकार कर अन्य प्रकारों से माना पायेगा तो पहिली अवस्थाके समान चारित्र गुणके प्रगट होनेपर मी दर्शन, ज्ञान गुणोंको चारित्रके साय न रहने स्वरूपका प्रसंग हो जावेगा जो कि इष्ट नहीं है | तभी तो चारित्रके समय तीनों गुण माने गये हैं।
इति पञ्चित्पूर्वरूपविनाशस्थोचरपरिणामोत्पत्यविशिष्टत्वात् सत्यमुपादानोपमदेनेनोपादेवस्य भवनम् । न चैव सकदर्शनादित्रयस्य सम्भवो विरुध्यते चारित्रकाले दर्शनपानयोः सर्वथा विनाशाभावात् ।
इस प्रकार पूर्वपर्यायका कथञ्चित् नाश हो जाना ही उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति है। विशेष अंतर - नहीं है। इस कारण उपादान कारणके मटियामेट हो जानसे उपादेयकी उत्पति होना यह सिद्धांत
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तपार्थचिन्तामणिः
मी ठीक बैठ जाता है। इस प्रकार माननेसे उपादान उपादेवरूपसे निश्चित किये गये दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों गुणों के एक समयमें उपज जानेका विशेष है, सो नहीं समझना । क्योंकि चारित्र उत्पन्न होने के समय उपादान कारण कहे गये दर्शन और ज्ञानका सर्व प्रकारोंसे नाश नहीं हुआ है। केवल चारित्र के साथ न रहनेपनका ही नाश हुआ है । उपादान कारण द्रव्य सो अक्षुण्ण विद्यमान है । अतः तीनों गुण एक समय में भी पाये जा सकते हैं। घटके दृष्टांत भी केवल कुशूल अवस्थाका नाश होकर घट पर्याय से युक्त मृतिका बन गयी है तभी तो पकानेसे पहिले मिट्टीकी शिवकसे लेकर घट तककी पर्यायों में वैसेके वैसे ही मृतिका के स्पर्श, रूप, रस व्यादिक बने रहते हैं । सोने चांदी घडे में तादृश रहते हैं। दां ! रहित सहितपनेका अंतर पड़ जाता है ।
एतेन सकदर्शनज्ञानद्वयसम्भवोपि कचिन विरुध्यते इत्युक्तं वेदितव्यम्, विशिष्टज्ञानक्कार्यस्य दर्शनस्य सर्वथा विनाशानुपपतेः। कार्यकालगमाप्नुवतः कारणत्वविरोधात् प्रलीनरामवद । ततः कार्योत्पतेरयोगात्यन्तरासम्भवात् ।
उक्त कवनसे दर्शन और ज्ञान इन दोनोंका एक समयमे सम्भव होना भी कहीं भी विरुद्ध नहीं होता है, यह भी कहा गया समझ लेना चाहिये । विशिष्टज्ञान है कार्य जिसका ऐसे पूर्ववर्ती सम्यग्दर्शनका सर्वे प्रकारसे नाश हो जाना युक्तिसिद्ध नहीं है। जो कारण पूर्वसमय में ही सर्वथा नष्ट हो चुकेगा वह उतरवर्ती कार्यरूप परिणत भला कैसे होगा ! जो कारण कार्य होने के समय में प्राप्त नहीं हो रहा है, उसको कारणपनेका विरोध है । भले ही वह कार्यके एक समय पहिले जीवित था। किंतु " मरे हुए बाबा गुड नहीं खाते " इस लोकन्याय के अनुसार ध्वस्त पदार्थ उसी प्रकार कार्यकारी नहीं हैं, जैसे कि सहस्रों वर्ष प्रथम नष्ट हो चुका कारण इस वर्तमान के प्रकृतकार्यको नहीं करपाता है । वैसे ही एक समय प्रथम प्रलयको प्राप्त हो चुका कारण भी कार्यको न कर सकेगा । कई दिन प्रथम मर चुका बुड्डा जैसे गुड नहीं खाता है वैसे ही एक क्षण पहिले मर चुका वृद्ध भी गुड नहीं ला सकता है। कारणोंकी सत्ता ही कार्यको करती है। कारणोंका ध्वंस कार्यको नहीं करता है। जो कारण कार्यके समय विद्यमान नहीं है उससे कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। विवाहकी पाणिग्रहण क्रिया के समय दूल्दाका रहना आवश्यक है । कारणके विद्यमान रहने के अतिरिक्त कार्य की उत्पचिका दूसरा कोई उपाय नहीं है। जैन सिद्धांत पर्यायसहित द्रव्यको उपादान कारण माना है । कार्यकालमै द्रव्य विद्यमान है। परिणतियां बदलती रहती हैं । नन्वत्र क्षायिकी दृष्टिर्ज्ञानोत्पत्तौ न नश्यति । तद्पर्यन्तताहानेरित्यसिद्धान्तविद्वचः ॥ ७५ ॥
शंका है कि आप जैन यदि ज्ञानकी उत्पत्ति हो आनेपर पूर्वदर्शन पर्यायका नाश होना मानते हो तो बताओ | इसका उपाय क्या है कि मिकसम्यग्दर्शन के पश्चात् विशिष्ट जानके
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तस्वाचिन्तामणिः
उत्पन्न होनेपर तो पहिला क्षायिकसम्यक्त्व नष्ट नहीं होता है । क्योंकि क्षायिक सम्यक्स्वको अविनाशी अनंत माना गया है । नष्ट हो जानेसे तो उस क्षायिकसम्यक्त्वके अनंतत्वकी हानि होती है, जो कि इष्ट नहीं है । ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रकार शंका कारके वचन तो बैनसिद्धांतको नहीं समझकर कहनेवाळेके कहना चाहिये।
. क्षायिकदर्शनं ज्ञानोत्पत्तौ न नश्यत्येवानन्तत्वात् क्षायिकमानवत्, अन्यथा तदपर्यन्तत्वस्यागमोक्तस्य हानिप्रसंगात् । ततो न दर्शनज्ञानयोज्ञानचारित्रयोवी कथञ्चिदुपादानोपादेयता युक्ता, इति बुदाणो म सिद्धान्तदेन्दी।
___ वार्चिकका विवरण यो है कि शंकाकारका अनुमान है कि विशिष्टज्ञान या केवलज्ञानकी उत्पति होजानेपर मी पहिला क्षायिकसम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होपाता है । क्योंकि वह अनन्तकालतक रहनेवाला है । जैसे कि ज्ञानावरणकाँके क्षयसे उत्पन्न हुआ केवलज्ञान अनन्तकालतक रहता है। अतः अविनाशी है। यदि आप जैन ऐसा न मानकर अन्य प्रकारसे क्षायिकसम्पपस्वका विनाश होना मानलोगे तो आपके आगममे कही हुयी क्षायिकसम्यक्त्वके अनन्तताकी हानिका प्रसंग होगा । जिस कारण दर्शन और ज्ञानका तथा ज्ञान और चारित्रका किसी भी अपेक्षासे उपादान उपादेय भाष मानना युक्त नहीं है। क्योंकि पूर्वगुणको उपादान कारण माननेसे ही यह नाश करानेवाली रार ( झगडा ) खडी हुयी है । इस प्रकार कहनेवाला शंकाकार तो जैन सिद्धान्तके मर्मको नहीं जान रहा है। यदि जैनसिद्धान्तको जान लेसा तो ऐसा कुचोध नहीं कर पाता । अब इसका समाधान बार्सिक द्वारा सुनिये, समझिये ।
सिद्धान्ते क्षायिकत्वेन तदपर्यन्ततोक्तितः ।
सर्वथा तद्विध्वंसे कौटस्थ्यस्य प्रसङ्गतः ॥ ७६ ॥
बैन सिद्धान्तमें उस क्षायिक सम्यग्दर्शनको अनन्तकालतक अविनाशी कहा है । यह कयन क्षयसे होनेवाले या क्षयके होनेपने में है। भावार्थ-एक पार दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय हो जानेसे शायिक सम्यक्स्व उत्पन्न होगया। फिर बार बार दर्शनमोहनीय कर्मका टण्टा नहीं रहता है । एक बारका हुअक्षय अनन्तकातक स्वामाविक परिणमनोमें उपयोगी है। हम द्रव्य मा गुणको अपरिणामी नहीं मानते हैं। यदि उन क्षायिक गुणों का सर्व ही प्रकारों से किसी भी प्रकारसे ध्वंस होना नहीं माना जावेगा तो गुणोंको कूटस्थ नित्यपनेका प्रसंग होता है । और कूटस पदार्ममें अर्थक्रिया नहीं होने पाती है । अतः अश्वविषाणके समान वह अबस्तु है।
तथोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति हीयते । प्रतिक्षणमतो भावः क्षायिकोऽपि त्रिलक्षणः ॥ ७७ ॥
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सत्यार्थचिन्तामणिः
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तथा दूसरी बात यह है कि यदि पदार्थोंका किसी भी प्रकारसे नाशरूप परिवर्तन होना नहीं माना जायेगा तो उत्पाद, व्यय और औन्यसे सहित सत् द्रव्य होता है, इस सिद्धांत की हानि हो जावेगी । इस कारण कमोंके क्षयसे होनेवाले माय मी प्रत्येक समयमै उत्पाद, व्यय और श्रव्य इन तीन लक्षणवाके हैं, तभी तो वे सत् पदार्थ हैं । क्षायिकभाव अनंतकालतक वहका वही रहता है, इसका अर्थ है कि वैसा ही रहता है । आकाश, सुमेरुपर्वत, सूर्य, चंद्रमा, सुवर्ण आदि दृढ पदार्थ भी प्रतिसमय में पूर्वस्वभावका त्याग, उत्तर स्वभावोंका प्रहण और द्रव्यपनेसे स्थिरता इन तीन लक्षपको लिये हुए हैं। परमपूज्य सिंद्ध भगवान और उनके अनंतसंख्यात्राले गुण मी उत्पाद, व्यय, व्यसे युक्त हैं । क्षायिकगुणों में अब किसी अन्य विजातीय कारणकी आवश्यकता नहीं रही है । केवल अपने स्वभावोंसे ही उत्पाद, व्यय करते हुए वे अनंतकाल तक ठहरे रहेंगे, द्रव्य परिणामी होता है। ऐसा जैनसिद्धांत है ।
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ननु च पूर्व समयोपाधितया क्षायिकस्य नावस्य विनाशादुत्तरसमयोपाधितयोत्परदात्वस्वभावेन सदा स्थानात्रिलक्षणत्वोपपत्तेः, न सिद्धांतमनबनुष्य क्षायिकदर्शनस्य areer स्थितिं ब्रूते येन तथा वचोऽसिद्धांतवेदिनः स्यादिति चेत्
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अब फिर शंकाकार कहता है कि मैंने जैन सिद्धान्तको जानकर ही शंका की थी। मैं अश नहीं है । जैनियोंके उत्पाद, व्यय, धौव्यके सिद्धान्तको जानता हूं । क्षायिक सम्यग्दर्शन के किसी प्रकारसे नष्ट न होते हुए भी आप जैनोंकी विलक्षणता बन जाती है । व्यवहार काल नष्ट होता है और उत्पन्न होता है । कालमें रहनेवाला क्षायिकगुण नाशशील नहीं है। हां! पूर्व समय रहनेवाला क्षायिकगुण दूसरे समयमै मी रहनेवाला वही नित्य क्षायिकगुण है । अन्सर इतना ही है कि क्षायिक गुणके पूर्व समय में रहनेरूप विशेषत्वणसे युक्त मावका पर्यायरूपसे नाश हो गया है, और उत्तर समयमै रहनारूप विशेषणकरके उत्पाद हो गया है। तथा अपने स्वमाव करके क्षायिकगुण सर्वदा स्थित रहता है। इस कारण त्रिलक्षणपनेकी सिद्धि हो गयी । देवदत्तका रुपया जिनदत्तके पास आगया वहां रुपया वही है । हां! स्वामित्वसम्बन्धका उत्पाद विनाश हो गया है । अतः जैन सिद्धान्त के तत्त्वको न समझकर यह मैं क्षायिक सम्यग्दर्शनकी ज्ञान के समय अक्षुण्णस्थितिको नहीं कह रहा हूं जिससे कि उस प्रकार पूर्वोक्त शंषारूपी वचन मुझे सिद्धान्तको न जाननेवालेके होते। भावार्थ — त्रिलक्षणताकी सिद्धि होते हुए भी ज्ञानके उत्पन्न होजानेपर क्षायिक सम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होता है । मला ऐसी दशा में जैनोका माना गया दर्शन, ज्ञानका या ज्ञान, चारित्रका उपादान उपादेयपन कैसे सिद्ध होगा ? यह मेरी शंका खडी हुयी है। आप जैन इसका उत्तर दीजिये ! टालिये नहीं, आचार्य बोलते हैं कि यदि शंकाकार ऐसा कहेगा सो—
पूर्वोत्तरक्षणोपाधिस्वभावक्षयजन्मनोः ।
क्षायिकत्वेनावस्थाने स यथैव त्रिलक्षणः ॥ ७८ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः '
तथा हेत्वन्तरोन्मुक्तयुक्तरूपेण विच्युतौ ।
जातौ च क्षायिकत्वेन स्थित किमु न तादृशः ॥ ७९-॥
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पूर्व समय रहना स्वभावरूप विशेषणका नाश और उत्तरक्षण रहजाना स्वभावरूप विशेषणका उत्पाद तथा प्रतिपक्षी कमौके क्षयसे उत्पन्न हो गये-पनसे सर्वदा स्थित रहना, इस प्रकार तीन लक्षण जैसे ही उन क्षायिक मावोंके आप शंकाकार मानते हैं, वैसे ही अन्य कारणोंसे रहितपने स्वमावसे नाश होना और दूसरे कारणों सहितपने करके उत्पांचे तथा क्षायिकपने से स्थिति रहना माननेवर क्यों नहीं वैसा सीन लक्षणपना माना जाता है ! अर्थात् व्यवहारफारूप विशेarter जैसे उत्पाद, विनाश माना जाता है, वैसे ही क्षायिकदर्शनमें विशिष्ट ज्ञानके असहचारीपनका नाश और विशिष्ट ज्ञानके सहचारीपनका उत्पाद तथा अपने स्वरूपछामका कारण क्षायिकपने करके स्थित रहना, ये तीनों स्वभाव भी मानने चाहिये। एक एक द्रव्यमे या उसके प्रत्येक गुण अथवा उसकी पर्यायों में भी अनेक प्रकारोंसे त्रिलक्षणता मानी गयी है । दूषका दही बन जाता है, यहां पतले या नरमपनका नाश कठिनताका उत्पाद और स्पर्शकी स्थिति है एवं मधुरताका नाश, खट्टापनका उत्पाद, स्वादु रसकी स्थिति है । बलोत्पादक शक्तिका नाश है । कफको पैदा करने वाले स्वभावका उत्पाद है। गोरसकी शक्ति स्थित है। उष्णता प्रकृति ( तासीर) का नाथ, शीतत प्रकृति ( तासीर) का उत्पाद, समान प्रकृतिपनेकी स्थिति है। दूध, दही में अनेक स्वभाव होनेसे ही यह व्यवस्था मानी गयी है। पर्यायों में मी अनेक स्वभाव होते हैं। कम किस बहिरंग निमित्तसे और अंतरऊ अगुरुलघु गुणके निमित्तसे तथा अनेक अविभाग प्रतिच्छेदों की होनाधिकता से कौन स्वभाव उत्पन्न होते हैं और कौन नष्ट होते हैं तथा कौन स्थिर रहते है, इस जैनसिद्धांतको स्याद्वादी ही समझ सकता है, अन्य जन इसके मर्मको नहीं पहुंच पाते हैं ।
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शायिकदर्शनं सावन्मुक्तेर्हेतुस्तवो हेत्वन्तरं विशिष्टं ज्ञानं चारित्रं च तदुन्मुक्तरूपेण तस्य नाशे तद्युक्तरूपेण जन्मनि क्षायिकत्वेन स्थाने त्रिलक्षणत्वं मवत्येव तथा क्षायिकदज्ञानद्वयस्य मुक्तिहेतो दर्शनशान चारित्रत्रयस्य वा हेत्वन्तरं चारित्रमपातित्रयनिर्जराकारी क्रियाविशेषः कालादिविशेषय, तेनोन्मुक्तया प्राक्तन्या युक्तरूपया चोत्तश्या नाशे जन्मनि च क्षायिकत्वेन स्थाने वा तस्य त्रिलक्षणत्वमनेन व्याख्यातमिति क्षायिको भावस्त्रिलक्षणः सिद्धः ।
उन तीनों रनोंमें दर्शनमोहनीयके क्षयसे उत्पन्न हुआ पहिला क्षायिकसम्यग्दर्शन तो मुक्ति का कारण है । उससे अतिरिक्त मुक्तिके दूसरे कारण पूर्णज्ञान और यथाख्यात चारित्र है। अकेके क्षायिक सम्यग्दर्शन के अनन्तर यदि ज्ञान और चारित्र उत्पन्न हुए, तब उस सम्यग्दर्शन गुणका
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तत्त्वाचिन्तामणिः .
पहिलेके उस ज्ञानचारित्र-रहितपने स्वभाव करके नाश हुआ और इन ज्ञान दर्शनसे सहितपनेकरके दर्शनकी उत्तरपर्यायरूप क्षायिकसम्यक्त्वका उत्पाद हुआ तथा दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआपन स्थित रहा, ऐसी दशामें सम्यक्त्वकी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप त्रिलक्षणता हो जाती ही है । उसी प्रकार मुक्ति के कारण माने गये क्षायिकसम्यक्त्व और पूर्णज्ञान इन दोनों हेतुओंको तीसरे हेतु चारित्रकी आकांक्षा है। अतः चारित्रगुण उत्पन्न होनेके अनंतर उत्तरवर्ती कालमै पहिले चारित्ररहित स्वरूपसे दर्शन और ज्ञानका नाश हुआ और पूर्णचारित्र सहितपनेसे सम्यक्त्व और ज्ञानका उत्पाद हुआ तथा मोहनीय और ज्ञानावरण कर्मके क्षयसे जन्यपना स्वभाव स्थिर रहा। इस प्रकार तेरहवें गुणस्थानके आदि समय सम्बन्धी सम्यक्त्व और ज्ञान गुणों में भी विलक्षणता आगयी। एवंच मुक्ति के कारण क्षायिक दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। इन तीनों को मी अन्य दो हेतुओंकी अपेक्षा है। उनमें पहिला तो तीन अघातिकतेकी निर्जरा करनेवाला अपरिस्पन्द-क्रियारूप आत्माका विशेष परिणाम व्युपरकियानिवृत्ति नामका चौथा शुक्ल ध्यान है, जो कि चारित्ररूप है और दूसरा सहायक इन काले, कामे, आयक्षेत्र, आयुष्य कर्मका झर जाना, आदिका समुदाय विशेष है । संहरणकी अपेक्षा अन्यकाल अन्य क्षेत्रोंसे भी मोक्ष होती है। अतः चौदहवें गुणस्थानमें उपान्त्य समयके क्षायिकसम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र इन तीनोंका परिणमन चौथे शुक्लध्यान और काल आदि विशेषोंसे रहित था। किंतु चौदहवे गुणस्थानके अंत चतुर्थ शुक्लध्यान और काल आदि विशेषसे रहितपने स्वभाव करके नाश हुआ और रलत्रयका उत्तरवर्ती क्रियाविशेष और काल आदि विशेषसहितपनेसे उत्पाद हुआ क्या दर्शनमोहनीय, ज्ञानावरण और चारित्रमोहनीयके क्षयसे जन्यपने करके स्थिति रही। अतः उस क्षायिकरनोंकी विलक्षणताका भी इस उक्त कथनके द्वारा व्याख्यान कर दिया गया है । इस प्रकार क्षायिक भाव भी उत्पाद, व्यय, प्रौव्य इन तीन लक्षणोंसे सहित होकर सद्रूप सिद्ध हो चुका । सिद्ध भगवानों में भी समयकी उपाधि अनुसार और जेयोंकी परिणतिकी अपेक्षासे अगुरुलघु गुण द्वारा त्रिलक्षणता सर्वदा विद्यमान है।
ननु तस्य हेत्वन्तरेणोन्मुक्तताहेत्वन्तरस्य प्रागभाव एव, तेन युक्तता तदुस्साद एव, न चान्यस्याभावोसादौ क्षायिकस्य युक्ती, येनैवं विलक्षणता स्यात्, इति चेत्, वर्हि पूर्वोत्तरसमययोस्तदुपाधिभूतयोनानोत्पादौ पाथं तस्य स्यातां यतोऽसौ स्वयं स्थितोऽपि सर्वतदपेक्षया विलक्षण: स्यादिति कौटस्थ्यमायातम् । तथा च सिद्धांतविरोधः परमतप्रवेशात् ।
यहां शंका है कि उस क्षायिक सम्यक्त्वका दूसरे अन्य हेतुओंसे रहितपना तो अन्य हेतुओंका प्रागभाव रूप है अर्थात् अकेले क्षायिक सम्यग्दर्शनके समय ज्ञान नहीं है । यानी ज्ञानका प्रागभाव है। थोडी देर पीछे ज्ञान होनेवाला है। और उन हेन्तरोसे सहितपना उन दूसरे हेतुओंका उत्पाद हो जाना ही है। अर्थात्-शायिक सम्यग्दर्शन तो था ही, दूसरा विशिष्ट ज्ञान और भी अधिक उत्पन्न हो गया। एतावता दूसरे अन्य हेतुओंके प्रागभाव और उत्पति होना पहिले विद्यमान होरहे
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तत्त्वाथचिन्तामणिः
इस क्षायिक भावके कहे जाने यह तो युक्त नहीं है जिससे कि इस प्रकार ऊपर कहा हुआ तीन लक्षणपना क्षायिक सम्यक्त्वमे सिद्ध हो जाये। भावार्थ – चंद्रोदयका प्रागभाव और चंद्रमाका उदय ये दोनों सूर्योदय के उत्पाद, व्यय करनेमें उपयोगी नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार दूसरे गुणोंके प्रागभाव और उत्पाद अन्य गुणोंकी त्रिलक्षणताको पुष्ट नहीं कर सकते हैं। मला विचारो तो सही कि तटस्थ या उदासीन पदार्थों के उत्पत्ति व्ययसे प्रकृतपदार्थ में कैसे परिणाम होंगे। ग्रंथकार समझाते हैं कि यदि ऐसी शंका करोगे तब तो हम कहते है कि शंकाकार के द्वारा पहिले माने गये पूर्वसमय में रहनारूप हो चुके विशेषणका नाश और उत्तर समयमें रहनारूप होरहे विशेषणका उत्पाद मे दो धर्म मला उस सम्यग्दर्शन के कैसे हो सकेंगे ! बताओ । जिससे कि यह क्षायिकमाव शंकाकारके कथनानुसार अपने आप स्वयं स्थित होता हुआ भी सम्पूर्ण इन पूर्व, अपर, उत्तर, समयों में वर्तनारूप उपाधियों की अपेक्षासे तीन लक्षणवाला बन जाता । इस प्रकार तो क्षायिक मात्रको कूटस्थ नित्यपना प्राप्त होता है । अर्थात् पूर्व समयमें रहनेपनका अभाव और रहनेपन का उत्पाद ये धर्म भी तो दूसरे पदार्थों की अपेक्षासे ही सिद्ध हो सके हैं। ऐसी
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कार हमारे मतको नहीं समझा यही कहना पडेगा । फिर व्यर्थ ही जैन सिद्धांत को समझ लेने का कोरा अभिमान क्यों किया जारहा है ? | हम जैन मानते हैं कि पूर्व समय चला गया और उत्तर समय आगया । वह भी चला जावेगा और तीसरा समय आजावेगा। यह धारा अनादि अनंतकाल तक बहेगी | लोकने प्रसिद्ध है कि गया हुआ समय फिर हाथ नहीं आता " । यहांपर विचार करना है कि व्यवहार काळ तो जीव द्रव्यसे निराळा पदार्थ है। उसके चले जानेसे हमको पश्चाताप क्यों करना चाहिये ? किंतु इसमें रहस्य है । वह यह है कि उस व्यवहारकालको निमित्त पाकर हमारे जीव पुलोंके भिन्न भिन्न परिणमन होरहे हैं। वे बीते हुए परिणमन फिर हाथ नहीं आते इसका पश्चात्ताप है । बाल्यअवस्थामै कितनी स्वच्छन्दता, कोमल अवयव कुटुम्बीजनोंका प्रेम, हृदयकी कलुषताका अभाव, बुद्धिकी स्वच्छता, सत्य बोलना ज्ञानोपार्जनकी शक्ति थी। अब वे युवा अवस्था नहीं हैं। युवा अवस्थामें आकांक्षायें, कामवासनाएं बढ जाती हैं अर्थका उपार्जन, यशोवृद्धि, संतान वृद्धिकी उत्सुकताएं बनी रहती हैं। इसके बाद वृद्धावस्था आनेपर उन ऐन्द्रियक सुखोंका अवसर भी निकल चुका 1 अनेक व्यर्थकी चिंता सताती हैं। अपने अर्जित धनपर व्यय करने निर्दय ऐसे पुत्रोंका या अन्य घरोंसे आयी हुयी गृहदेवियोंका अधिकार हो जाता है। अतिवृद्ध होनेपर तो भारी दुर्दशा हो जाती है। अतः यह जीव बीते हुए पूर्व समयके लिये नहीं, किंतु बीसी हुयी अपनी अच्छी अवस्थाओं के लिये या उस समय हम कितने समुचित कार्य कर सकते थे, इसके लिये रोता है । हमसे सर्वथा निराले समयके निकल जानेसे मला इमको क्या पछतावा हो सकता था। जिस नदी के पानीसे हमको रंचमात्र भी लाभ नहीं है उसका पानी सबका सब वह जाओ इसकी इमको कोई चिंता नहीं है। यदि पूर्वसमयके परिवर्तनोंसे हमारी शारीरिक और आत्मीय
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उत्तर समयमै दशा में आप
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सक्वार्ये बिन्तामणिः
व्यवस्थाओं के परिवर्तनका संबंध न होता तो जाते हुए समयका हम ताप न करते । प्रत्युत उस सम बमें दो लात और लगाकर प्रसन्न होते, जिससे कि वह शीघ्र ही अतिदूर चला जाता। जैनसिद्धांत यह है कि निश्चयकाल और व्यवहार काल ( द्रव्यपरिवर्तनरूप ) तो पदार्थों के परिणमन करने में सहकारी कारण हैं, जो कि पूर्व उत्तरपरिणामों के उत्पाद, व्यय करते हैं। ऐसा न मानोगे. तो आप शंका कार के द्वारा पुनः शंका उठाने से क्षायिकगुणकी कूटस्थता आती है और वैसा होने पर जैन सिद्धांत से आपके मंतव्यका विरोध होगा और दूसरे सांख्यमतका प्रवेश हो जावेगा, जो कि अनिष्ट है । प्रमाणसिद्ध भी तो नहीं है ।
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यदि पुनस्तस्य पूर्वसमयेन विशिष्टतोत्तरसमयेन च तत्स्वभावभूतता ततस्तद्विनाशोत्पादौ तस्येति मतम्, तदा हेत्वन्तरेणोन्मुक्तता युक्तता च तद्भावेन तदभावेन च विशि ष्टता तस्य स्वभावभूततैवेति तनाशोत्पादौ कथं न वस्य स्यातां यतो नैवं त्रिलक्षणोऽसौ भवेत्, ततो युक्तं क्षायिकानामपि कथञ्चिदुपादानोपादेयत्वम् ।
आप शंकाकारका फिर यदि यह मन्तव्य होवे कि उस क्षायिक भावकी पूर्व समय के साथ सहितपना और उत्तर समयसे सहितला ये दोनों उस गुणके तदात्मक होते हुए स्वभावरूप हैं । इस कारण उन स्वभावरूप धर्मोके उत्पाद और विनाश ये उसी क्षायिक भावके उत्पाद विनाश बोले जायेंगे, तब तो हम जैन कहते हैं कि उस क्षायिक सम्यग्दर्शन के दूसरे कारण कहे गये पूर्ण ज्ञान चारित्र करके रहितपना और इनसे सहितपना ये दोनों ही धर्म उसके स्वभावरूप भावकर के सहितता और उसके स्वभावरूप अभाव करके विशिष्टतारूप हैं। अतः वे विशिष्टतारूप धर्म उस क्षायिकमा आरमभूत स्वभाव ही हैं। इस प्रकार आत्मभूत स्वभावोंके नाश और उत्पाद, उस क्षायिक भाव क्यों नहीं कहे जायेंगे ! आप ही कहिये, जिससे कि वह इस प्रकार तीन लक्षण वाका न हो सके । भावार्थ-समयकी रक्षितता और विशिष्टता भी वास्तविक पदार्थ है। उन स्वमाको अवलम्ब लेकर तीन लक्षणपना सिद्ध किया है। उस कारण क्षायिक भावका भी किसी अपेक्षा से उपादान उपादेयपना मानना युक्तियों से परिपूर्ण हैं । मावार्थ - उदासीन या अनपेक्ष्य पदार्थ भी बडा कार्य करते हैं। साथमें टोसा रखनेसे मूंक कम लगती है एवं संग सवारी के रहनेपर पैदल चलने में परिश्रम ( थकावट ) कम व्यापता है। घरमें रुपया है, चाहे उसका व्यय नहीं कर रहे हैं। फिर धनसहित और धनरहितपनेके परिणमन आत्मामें न्यारे न्यारे हैं । गीली मिट्टीको सुखाकर पुनः उसमें पानी डालकर भींत मनाई जाती है। उस भीतको भी पुनः सुखाना पडता है । इन दृष्टान्तों में भिन्न भिन्न परिणामोंकी अपेक्षा मे त्रिलक्षणपना विद्यमान है । तीन लक्षवाला परिणाम सद्भूत पदार्थों में पाया जाता है ।
कारणं यदि सद्दृष्टिः सद्बोधस्य तदा न किम् | तदनन्तरमुत्पादः केवलस्येति केचन ॥ ८० ॥
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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A
तदसत्तत्प्रतिद्वन्द्विकर्माभावे तथेष्टितः ।
कारणं हि स्वकार्यस्याप्रतिबन्धिप्रभावकम् ॥ ८१ ॥
यहां कोई आक्षेपक शंका करते हैं कि कारण उसको कहते हैं, जो उत्तरक्षण में कार्यको उत्पन्न कर देवे | यदि आप जैन पूर्णज्ञानका कारण सम्यग्दर्शन गुणको मानते हैं तो उस क्षायिकदर्शन अव्यवहित उत्तर कामे केवलज्ञानकी उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती है ? बताओ । जब कि कारण है, लब कार्य होना ही चाहिये । श्रीविद्यानंद आचार्य समाधान करते हैं कि इस प्रकार किसीका वह कहना प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि कारणके लक्षण प्रतिबंधकोंका अभाव पडा हुआ है। अर्थात् जो प्रतियन्त्रकोंसे रहित होता हुआ कार्यके अव्यवहित पूर्वे समयमे रहे सो कारण है । ची, तेल, दीपशलाका, दिया इन कारणों के होनेपर भी यदि आंधी चल रही है तो दीपशलाका प्रज्वलित नहीं हो सकती है । तथा सम्पन्न सेठ के पास भोग उपभोग की सामग्री होते हुए भी असातावेदनीय या अन्तराय कर्मके उदय आनेपर रोग अवस्थामें उसको केवल मूंगके दालका पानी ही मिलता है | अतः प्रतिबन्धका अमात्र होना कार्यकी उत्पत्तिमें सहायक है । प्रकृतमें उस केवलज्ञानका प्रतिबन्ध करनेवाले केवलज्ञानावरण और अन्तराय कर्म विद्यमान हैं । अतः चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुरुस्थानतक किसी भी गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जानेपर भी प्रतिबंधकोंके माडे आजानेके कारण केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो पाता है। हां! एकत्वक्तिकैबीचार नामके द्वितीय शुध्यानद्वारा बारहवें गुणस्थानके अन्तमें प्रतिद्वन्दी कमौका अभाव हो जानेपर अनन्तर काल उस प्रकार केवलज्ञानकी उत्पत्ति होना हम इष्ट करते हैं। जब कि प्रतिबन्ध कोंसे Rita clear at कारण अपने कार्यका अच्छा उत्पादक माना गया है ।
नहि क्षायिकदर्शनं केवलज्ञानावरणादिभिः सहितं केवलज्ञानस्य प्रभवं प्रयोजयति । तैस्तत्प्रभावत्वशक्तेस्वस्य प्रतिबन्धात् येन तदनन्तरं तस्योत्पादः स्वात् । तैर्वियुक्तं तु दर्शनं केवलस्य प्रभावकमेव तथेष्टत्वात्, कारणस्याप्रतिबन्धस्य स्वकार्यजनकत्वप्रतीतेः ।
सर्व माने गये केवलज्ञानावरण कर्मका उदय और सत्त्व तथा मन:पर्यय, अवधिज्ञान, पति और श्रुतकी देशघाती प्रकृतियोंका उदय तथा इनके अविनाभावी कुछ अंतरायकी देशपात करनेवाली प्रकृतियोंका उदय बारहवे गुणस्थान तक केवलज्ञानको रोकनेवाला है | अतः केवलज्ञानावरण आदि कोंके साथ रहता हुआ क्षायिक सम्यग्दर्शन तो केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रयोजक नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान और अनंतसुखको बिगाडनेवाले उन केवलज्ञानावरण आदि कमने उन सम्यग्दर्शनकी केवलज्ञानको उत्पन्न करादेनेवाली उस शक्तिका प्रतिबंध ( रोकना ) कर दिया है जिससे कि दर्शनके अव्यवहित काळने उस केवलज्ञानकी उत्पत्ति हो सके । भावार्थ- कार्य करने के लिये कारणकी उन्मुखता होनेपर मध्य में प्रतिबंधकके आ जानेसे केवलज्ञानरूप कार्य नहीं हो पाता
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तत्वार्थचिन्तामणिः
है । हां ! उन केवलज्ञानावरण आदि कम से रहित जो सम्यग्दर्शन है, वह तो केवलज्ञानको उत्पन्न करानेवाला कारण है ही । बारहवें गुणस्थानके अंतसमयवतीं सम्यग्दर्शनको हमने उस प्रकार कारणरूप से इष्ट किया है। सर्वे ही कारण बिचारे प्रतिबंधकोंसे रहित होकर ही अपने कार्योंको उत्पन्न करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। प्रतिबंधकोंके सद्भाव ण्यन्त प्रयोजक हेतु भी क्या करें ? कुछ नहीं ।
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सद्बोधपूर्वकत्वेऽपि चारित्रस्य समुद्भवः ।
प्रागेव केवलाम्न्न स्यादित्येतच्च न युक्तिमत् ॥ ८२ ॥ समुच्छिन्नक्रियस्थातो ध्यानस्याविनिवर्तिनः । साक्षात्संसारविच्छेद समर्थस्य प्रसूतितः ॥ ८६ ॥ यथैवापूर्ण चारित्रमपूर्णज्ञानहेतुकम् ।
तथा तत्किन सम्पूर्ण पूर्णज्ञाननिबन्धनम् ॥ ८४ ॥
उक्त प्रकार से रत्नत्रयका कार्यकारणभाव हो जानेपर भी यहां किसीका पुनः प्रश्न है कि आप जैन पूर्व में समीचीन पूर्ण ज्ञान हो जानेपर पश्चात् यदि पूर्ण चारित्रकी बढिया उत्पत्ति मानेंगे तब तो केवलज्ञान से प्रथम ही क्षायिक चारित्र नहीं उत्पन्न होना चाहिये था। क्योंकि कारणके पश्चात् कालमें कार्य हुआ करते हैं । भाचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार कहना भी युक्तियोंसे सहित नहीं है। क्योंकि यद्यपि केवलज्ञान प्रथम क्षायिकचारित्र हो चुका है। फिर भी उस चारित्रमें अव्यवहित उतर: कालमें संसार के ध्वंस करने के सामर्थ्य की उत्पत्ति तो इस केवलज्ञानसे उत्पन्न होती है, जो कि चारित्र श्वासोच्छ्रास क्रिया के रुक जानेपर और योगपरिस्पन्दरूप क्रिया के नष्ट हो जानेपर तथा अ, हैं, उ, ऋ, ऌ इन ह्रस्व पांच अक्षरके उच्चारण बराबर समयोनकालके बीत जानेपर चौदहवें गुणस्थानके अंत में इस व्युपरत क्रियानिवृत्ति नामक ध्यानसे युक्त है । भावार्थ - क्षायिक चारित्र गुणकी पूर्णता संसारको ध्वंस करनेवाले चतुर्थ शक्लध्यानसे होती है और यह चौथा शुक्ल ध्यान सहकारी कारणोंसे सहित केवलज्ञान द्वारा उत्पन्न किया जाता है। अतः जैसे ही अपरिपूर्ण ज्ञानरूप हेतुसे अपरिपूर्ण चारित्र होता है, वैसे ही पूर्ण ज्ञानको कारण मानकर वह पूर्ण चारित्र क्यों न होगा ! अर्थात् --- ग्यारहवें गुणस्थानतक अपूर्ण चारित्र है। उसका कारण ज्ञानका पूर्ण न होना है । वैसा ही चौदहवेंके अंत के पूर्ण चारित्रका कारण केवलज्ञान है। मंध्यके अनेक सहकारी कारण भी पपेक्षणीय हैं । बारहवें गुणस्थानके चारित्रको क्षायिक गुण मानते हैं । किंतु हम उसको परिपूर्ण चारित्र नहीं मानते हैं। क्योंकि उसमें आनुषंगिक स्वभावसे अधिकता होनेवाली है। किंतु तेरहवें के
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तवा चिन्तामणिः
भादि समयवाले केवलज्ञानमें तथा चौदहवे गुणस्थान या सिद्धपरमेष्ठीके केवलज्ञानमें बालामका मी अंतर नहीं है। उसने ही उस्कृष्ट अनंतानंत संख्यावाले अविमाग प्रतिच्छेद सब केवलजानों में बराबर है।
तम ज्ञानपूर्वका चारित्र व्यभिचरति ।
उस कारण ज्ञानगुणका चारित्रके पूर्ववर्तीपनेसे व्यभिचार नहीं है अर्थात् पूर्ण चारित्रके पहिले पूर्ण ज्ञान रहता है । चारित्र कभी ज्ञानपूर्वकपनका अतिक्रम नहीं करता है।
प्रागेव क्षायिकं पूर्ण क्षायिकत्वेन केवलात् ।
नत्वघातिप्रतिध्वंसिकरणोपेतरूपतः ॥ ८५ ॥
पद्यपि केवलज्ञानकी उत्पचिसे पहिले ही चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयअन्य क्षायिकपने करके क्षायिकचारित्र पूर्ण हो चुका है, किन्तु वेदनीय आदि अपातिया कोके सर्वथा नष्ट करनेकी शक्तिरूप परिणामोंसे सहितपने स्वरूप करके अभी चारित्रगुण पूर्ण नहीं हुआ है। अतः तेरहवें गुणस्थानके पादिमें क्षायिक रत्नत्रयके हो जानेपर मी मुक्ति होनेमे विलम्ब है।
केवलात्तत्यामेव क्षायिक यथाख्यातचारित्रं सम्पूर्ण ज्ञानकारणमिति न शंकनीयम् । तस्प मुक्त्युत्पादने सहकारिविशेषापेक्षितया पूर्णत्वानुपपत्तेः। विवक्षितस्वकार्यकरणेन्त्पक्षणप्राप्तत्वं हि सम्पूर्ण, तच्च न केवलात्मागस्ति चारित्रस्य, ततोऽप्यूज़मघातिप्रतिध्वसिकरणोपेतरूपवयासम्पूर्णस्य तस्योदयात् ।
जिस क्षायिक चारित्रका कारण आप जैनोंने केवलज्ञानको माना है, वह चारित्रमोहनीयके क्षयसे उत्पन्न हुआ पूर्ण यथाख्यातचारित्र तो केवलज्ञानसे अन्तर्मुहूर्त पहिले ही उत्पन्न होचुका है। फिर यह बारित्रके लिये ज्ञानको कारण माननेका कार्यकारणभाव कैसा है ! बताओ ! क्या बैन लोगोंने भी बौद्धोंके समान इस सिद्धांतको मानलिया है कि कार्य पहिले उत्पन्न हो जाते हैं और कारण पीछेसे पचासों वर्षोंतक पैदा होते रहते हैं । " तालाब खुदा ही नहीं, मगर मा दा | आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शंका नहीं करना चाहिये। क्योंकि हम जैनौका यह सिद्धांत है कि कारणों में मिन्न भिन्न कार्योंकी अपेक्षासे परिपूर्णता भी न्यारी न्यारी है। मिट्टी द्वारा शिक्क, छत्र, खास, कोश, कुशूल बनकर पीले घर बनता है । छत्रको ही घटके प्रति झट कारणता नहीं है। भात पकाने के लिये चूल्हेमें आमि जलाकर उसके ऊपर बर्तनमें पानी रखकर चावल डाक दिये हैं। यहां पहिलेके अमि संयोगसे ही चावलों में पाक प्रारम्भ होजाता है। किंतु पाककी पूर्णता घडीभर बादके अंत समयवाले अभिसंयोगसे होती है। मध्यवर्ति अमिसयोग बीचमें होनेवाले अर्द्धपाकोंके कारण हैं। यदि कोई अप-पके मातको बनाना चाहे तो दे पीके मिसंयोग उस भष-पके मासके
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
समय कारण भी है। किंतु परिपकके नहीं । भातकी परिपक्वताके लिये अनेक भमि संयोगोंकी और मध्यमे होनेवाले चाबलोंके विक्लेदनोंकी सहायता अभिप्रेत है । ग्रंथों के अध्ययन करनेपर कोई विद्वान या वकील परीक्षा पास करलेता है। किंतु पूर्ण अनुभव प्राप्त करनेके लिये मनन, समय और अभ्यास तथा इनसे होनेवाले विद्वत्ताके विशिष्ट परिणमनोंकी आवश्यकता है। वैसे ही क्षायिकचारित्र भी क्षायिकपनेसे पूर्ण है। फिर भी मुक्तिरूप कार्यको उत्पन्न करानेमें उस क्षायिक चारित्रको कई विशेष सहकारी कारणोंकी अपेक्षा है । अत: चारित्रका पूर्णपना सिद्ध नहीं है। वर्तमानमें विवक्षाको प्राप्त हुए विशेष अपने कार्यको करनेमें कारणका अंतके क्षणमे प्राप्त होनापन ही संपूर्णता कही जाती है । मध्यवर्ती हजारों पयायोंके पूर्व, उत्तरभ रहनेवाली संपूर्ण पर्यायाम परस्पर यह अपने अपने कार्यके प्रति कारणका अन्त्य क्षणमें पास होनापन घट जाता है । और अभीतक वह मोक्षके लिये कारणकी संपूर्णता केवलज्ञानसे पहिले होनेवाले चारित्रके उत्पन्न नहीं हुयी है। क्योंकि उस बारहवें गुणस्थानस ऊपर चलकर भी उस पूर्णचारित्रकी भी अघातियोंको साग नष्ट करनेवाली सामर्यसे सहितपने करके वह पर्णता उत्पन्न होनेवाली है। ऐसी दशामें मला बारहवे गुणस्थानके चारित्रको हम परिपूर्ण कैसे कह सकते हैं ! कदापि नहीं।
न च " यथाख्यातं पूर्ण चारित्रमिति प्रवचनस्यैवं पाधास्ति । तस्य क्षायिकत्वेन तत्र पूर्णत्वाभिधानात् । नहि सकलमोहक्षयादुद्भवच्चारित्रमंशतोऽपि मलवदिति शश्वदमलवदात्यन्तिकं तदभिष्ट्रयते।
कोई आगमसे बाधा उपस्थित करे कि जब आप चारित्रकी पूर्णता चौदहवे गुणस्थानों बतलाते हैं। ऐसा कहनेपर तो " यथाख्यात चारित्र पूर्ण है, " इस प्रकार आगमवाक्यकी बाधा होती है । क्योंकि यथाख्यातचारित्र तो दशमै गुणस्थानके अंतमें ही होजाता है । सो यह भागमकी पापा नहीं समझना । क्योंकि उस आगममें उस चारित्रको चारित्रमोहनीयके क्षयसे जन्यपने स्वमाव करके पूर्णपना कहा गया है । जब कि सम्पूर्ण मोहनीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न होरहा क्षायिकचारित्र एक अंशसे भी मलयुक्त नहीं है । इस कारण वह क्षायिकचारित्र सर्वदा ही अत्यधिक अनंत काल तक के लिये सर्व मंगोमै निर्मलपने करके पशंसित किया जाता है।
कथं पुनस्तदसम्पूर्णादेव ज्ञानात्सायोपञ्चमिकादुत्पधमान तथापि सम्पूर्णमिति चेत् न, सकलश्रुताशेषतत्वार्यपरिच्छेदिनस्वस्योत्पत्तेः ।
कोई यहां पूंछता है कि क्यों जी ! फिर वह चारित्र क्षयोपशमसे होनेवाले अपूर्ण शानोंसे ही उत्पन्न होता हुआ तो भी सम्पूर्ण कैसे हो सकता है ? मताओ । भावार्थ-अपूर्ण ज्ञानसे तो अपूर्ण चारित्र होना चाहिये था। दशवे गुणस्थानमें पूर्ण ज्ञान नहीं है। द्वादशानका ज्ञान या सर्वावधि और विपुलमति ये पूर्ण ज्ञान नहीं माने हैं। पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है। अतः अपूर्ण ज्ञानसे
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तत्त्वार्षचिन्तामणिः
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चारित्र मी पूर्ण न हो सकेगा। फिर आपने बारहवें गुणस्थानके आदि समयवाले चारित्रको पूर्ण कैसे कादिया ! आचार्य कहते हैं कि ऐसी शंका ठीक नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण तत्त्वायाँको परोक्षरूपसे जाननेवाले पूर्ण श्रुतज्ञानसे उस चारित्रकी उत्पत्ति होती है । श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों पूर्ण हैं। अन्तर इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। श्री गोम्मटसारमें कहा है कि “सुदकेवलं च गाणं दोण्णिवि सरिसाणि होति बोहादो। सुदणाणंच परोक्वं, पच्छक्खं केवळ गाणं " ॥
पूर्ण तत एव तदस्त्विति चेन्न, विशिष्टस्य रूपस्य तदनन्तरमभावात् । किं तद्विशिष्टं रूपं चारित्रस्यांत चत, नामापातिकत्रयनिर्जरणसमर्थ समुच्छिन्नक्रियामतिपातिध्यानमित्युक्तप्रायम् ।
जब कि बारहवे गुणस्थानका चारित्रपूर्ण श्रुतज्ञानसे उत्पन्न हुआ है तो फिर उस ही कारणसे बारहवें गुणस्थानके उस चारित्रको सर्व प्रकार से पूर्ण ही क्यों नहीं कह दिया जावे । केवलज्ञानसे चारित्रमें क्या कार्य होना शेष है ? इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि अपने अंशों में तो चारित्र पूर्ण है। किन्तु उस चारित्रके कतिपय विलक्षण स्वमात्र उस पूर्ण श्रुतज्ञान के पश्चात् उत्पन्न नहीं होते। वे स्वभाव तो केवलज्ञान होनेपर ही कुछ सहकारियों के मिलनेपर उत्पन्न होते है । वह चारित्रका विशिष्ट स्वभाव क्या है ? ऐसा प्रश्न होनेपर तो इसका उत्तर यह है कि नाम आदि यानी नाम वेदनीय और गोत्र इन तीन अघाती काँकी निर्जरा करने में समर्थ ऐसा चौथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामका शुक्लध्यान है। इस बातको प्रायः पूर्वपकरणमें हम कह चुके हैं ।
तद्रूपावरणं कर्म नवमं न प्रसज्यते ।
चारित्रमोहनीयस्य क्षयादेव तदुद्भवात् ॥ ८६ ॥
उस चारित्रके अंतिम स्वभावको आवरण करनेवाला आठ कोंके अतिरिक्त कोई न्यारा कर्म होगा, इस प्रकार नवमें कर्म हो जानेका प्रसंग नहीं होपाता है। क्योंकि चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयसे ही उस स्वमावकी भी उत्पत्ति हो जाती है। कुछ विशेष सहकारी कारण और समयविशेषकी आकांक्षा है।
यद्यदात्मकं ससदावरककर्मणः क्षयादुद्भवति, यथा केवलज्ञानस्वरूप तदापरणकर्मणः क्षयात् , चारित्रात्मकं च प्रकृतमात्मनो रूपमिति चारित्रमोहनीयकर्मण एव क्ष्यादुद्भवति न च पुनस्तदावरणं कर्म नवमं प्रसज्यतेऽन्यथातिप्रसंगात् ।
यह व्याप्ति बनी हुयी है कि जो स्वभाव जिस भावस्वरूप होता है ( हेतु ) वह मी उस भावके आवरण करनेवाले कर्मकि क्षयसे ही उत्पन्न होजाता है ( साध्य ) जैसे कि आत्माका केवल
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तत्त्वार्थ चिन्तामणिः
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ज्ञान स्वभाव उस केवलज्ञानावरण कर्मके क्षयसे प्रगट हो जाता है ( अन्यदृष्टांत ) प्रकरण में आमाका स्वभाव चारित्ररूप है | चारित्रके अन्य निमित्तोंसे जन्य स्वभाव भी चारित्रस्वरूप हैं ( उपनय ) इस कारण वे चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयसे ही उत्पन्न हो जाते हैं (निगमन) उन रूपको आवरण करनेवाले फिर कोई नववे कर्मको माननेका प्रसंग नहीं होता है । यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार से मानोगे अर्थात् छोटे छोटे निमिचों द्वारा उत्पन्न होनेवाले आत्मा के या आत्मीय गुणोंके स्वभावको रोकनेवाले न्यारे न्यारे कर्मोंकी कल्पना की जावेगी, तब तो आठ कर्मों के स्थानपर अनेक जातिवाले कमौके माननेका अतिप्रसंग होगा, अर्थात् अनंत सुखको आवरण करनेवाला भी एक स्वतंत्र कर्म मानना पड़ेगा तथा सातिशय मिध्यादृष्टिके होनेवाले करणत्रयको, और अनन्तानुबन्धीका त्रिसंयोजन करने के लिये होनेवाले करणत्रयको, एवं क्षायिकचारित्रको करनेवाले अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण परिणामको रोकनेवाले कर्म भी अतिरिक्त मानने पड़ेंगे तथा केवलसमुद्घातरूप आत्मा के स्वभावको प्रतिबंध करनेवाला भी कर्म मानना आवश्यक होगा । यज्ञतिक कि बट, पट, पुस्तक, चौकी, लेखनी आदि प्रत्येक पदार्थ देखने, जानने को आवरण करनेवाले चाक्षुषप्रत्यक्षावरण भी पृथक् पृथकू मानने पढेंगे । एवं च बढा भारी आनन्त्य दोष होगा |
यदि विशिष्ट कारणोंसे आत्मा के पुरुषार्थजन्य उपर्युक्त भाव होते रहते हैं । इन स्वभावों के लिये अतिरिक्त कर्मोकी आवश्यकता नहीं मानी जावेगी, ऐसा उत्तर दोगे तो वैसे ही उस चारित्रके चौदहवे गुणस्थान में होनेवाले स्वरूपके लिये भी एक स्वतंत्र नववे कर्म मानने की आवश्यकता नहीं है । आत्मायें बाल्य, कुमार, युवा, आदि व्यवस्थाएं होती रहती हैं । पढने, लिखने, ध्यान करनेके परिणाम होते हैं । जाना, बैठना, खाना पीना आदि परिस्पंद होते रहते हैं । इन सबके लिये कमकी आवश्यकता नहीं है । यदि किसी कर्मका उदय या उपशम आदि परम्परासे सहायक भी हो तो बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वकं होनेवाले पुरुषार्थजन्य स्वरूपों में उसकी कोई गणना नहीं है । खांसना, डकार लेना, व्यायाम करना, स्वाध्याय क्रिया करना, तपश्चरण, ब्रह्मचर्य धारण, rator आदि कार्य आत्मा के स्वतंत्र हैं । सर्वत्र कर्मका बल्ला लगाना उचित नहीं ।
सिद्ध
क्षीणमोहस्य किं न स्यादेवं तदिति चेन्न वै ।
तदा कालविशेषस्य तादृशोऽसम्भवित्वतः ॥ ८७ ॥
तथा केवलबोधस्य सहायस्याप्यसम्भवात् । स्वसामय्या विना कार्यं न हि जातुचिदीक्ष्यते ॥ ८८ ॥
जब चारित्र स्वभावका भी प्रतिबंधक चारित्रमोहनीय कर्म है तो ऐसा होनेपर मोहका
क्षय करचुके बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिमहाराजके ही क्यों नहीं वह स्वभाव अवश्य उत्पन्न होजाता
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तत्त्वायचिन्तामणिः
है ? बतलाइये | ग्रंथकार समझाते हैं कि यह नहीं कहना। क्योंकि उस समय बारहवे गुणस्थान में वैसे विशेषकालका असम्भव है, जो कि उस चारित्रस्वभावको निश्वयसे अपेक्षणीय है। इस ही प्रकारसे तेरहवे गुणस्थानका केवलज्ञान मी उस चारित्रके स्वभावको उत्पन्न नहीं कर सकता है। क्योंकि उसका भी सहायक होरहा कालविशेष उस अवसरमे नहीं है। अपनी पूर्ण सामग्री के बिना अकेले एक दो कारण विचारे कार्यको करते हुए कभी नहीं देखे जाते हैं ।
फालादिसामग्रीको हि मोहाय स्तदूपाविर्भावहेतुर्न केवलस्तथाप्रतीतेः ।
काल, क्षेत्र, आत्मीय परिणाम, केवळिसमुद्घात आदि सामग्री की अपेक्षा रखता हुआ ही मोहनीय कर्मका क्षय उस चारित्र के स्वभावको प्रगट करनेका कारण है। अकेला मोहनीय कर्मका क्षय ही चौदह गुणस्थानके अंत में होनेवाले स्वभावको उत्पन्न नहीं कर सकता है । वैसी ही प्रमाणोंसे प्रतीति होरही है। और केवलज्ञान मी अकेला दिना सामग्रीके उस स्वभावको उत्पन्न नहीं कर पाता है । पहिले महीनेका गर्भ नवमें महीनेकी गर्भअवस्थाका जनक नहीं है । हां 1 दूसरे, तीसरे, आदि महीनोंकी और उनमें होनेवाले परिणमनों की अपेक्षा रखता हुआ वह पूर्ण साङ्गोपाङ्ग बालको उत्पन्न करसकता है । अतः प्रत्येक कार्यमें काल आदिकी अपेक्षा होती है।
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क्षीणेऽपि मोहनीयाख्ये कर्मणि प्रथमक्षणे ।
यथा क्षीणकषायस्य शक्तिरन्त्यक्षणे मता ॥ ८९ ॥ ज्ञानावृत्यादिकर्माणि हन्तुं तद्वदयोगिनः पर्यन्तक्षण एव स्याच्छेषकर्मक्षयेऽप्यसौ ॥ ९० ॥
इस प्रकार बारहवें क्षीणकषाय नामक गुणस्थान के पहिले क्षण में ही चारित्र मोहनीय नामक कर्म नष्ट होचुका है। फिर भी उस क्षीणकषायकी ज्ञानावरण आदि चौदह कर्म प्रकृतियोंके नष्ट करने के लिये शक्तिका विकास तो बारहवें गुणस्थानके अंतसमय में मुनिमहाराजके उत्पन्न होता है । अन्तर्मुहूर्त क्षीणकषायके पक परिणमन होते रहने चाहिये, वैसे ही उस चारित्रकी क्षेत्र बचे हुए तीन अघातिया कर्मोंके क्षय करने के निमित्त उस शक्तिका प्रादुर्भाव अयोग केवळीके चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समयमें ही माना गया है। उस अन्त्यसमय के अनन्तर दूसरे समय में मोक्ष है, जो कि गुणस्थानोंसे परे है।
कर्मनिर्जरणशक्तिर्जीवस्य सम्यग्दर्शने सम्यग्ज्ञाने सम्यक्चास्त्रेि चान्तर्भवेचतोन्या वा स्यात् । तत्र न तावत् सम्यग्दर्शने ज्ञानावरणादिकर्म प्रकृतिचतुर्दश कनिर्जर पणशक्तिरन्तर्भवत्यसंयतसम्यग्दृष्ट्या यत्रमचपर्यन्तगुणस्थानेष्वन्यतमगुणस्याने दर्शनमोहश्याचदाविर्भावप्रसक्तेः।
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वस्था चिन्तामणिः
फौकी निर्जरा करनेकी शक्ति का जीवके सम्यग्दर्शन गुण या सम्यग्ज्ञानमें अथवा सम्यक् चारित्रमें अन्तर्भाव किया जावेगा : या उस शक्तिको उन गुणोंसे भिन्न ही माना जावेगा ! बताओ। यदि इन प्रश्नों के उसरमें कोई यो कहे कि पहिले सम्यग्दर्शन गुणमे ज्ञानावरण कर्मकी पांच और अन्तराय कर्मकी पांच तथा दर्शनावरणकी चार एवं चौदहों प्रकृतियों के नाश करने की शक्तिका गर्म हो जाता है, यह कहना तो ठीक नहीं पड़ता है। क्योंकि असंपतसम्यादृष्टि नामक चौधे गुणस्थानसे लेकर अपमच नामक सातवें गुणस्थान तक किसी भी एक गुणस्थानमें दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय हो जानेसे सायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है। अतः चौथेसे सातवें तक ही किसी गुणस्थानमें ज्ञानावरण पाद कौकी निरा करनेवाली उस शक्तिका पादुर्भाव हो जाना चाहिये और ऐसा होनेपर सात गुणस्मानमें ही केवलज्ञान हो आनेका प्रसंग आवेगा । जो कि अनिष्ट है।
शाने सान्तर्भवतीति चायुक्त, क्षायिकेणैतदन्तर्भावे सयोगकेवलिना केवलेन सहाविभौवापचे। थायोपश्चमिके तदन्तोंवे तेन सहोत्पादप्रसक्तेः।
यदि बारहवें गुणस्थानके मन्तमें क्षय होनेवाली चौदह प्रकृतियोंके नाश करनेवाली शक्तिको ज्ञानमें अन्तर्भूत करोगे, या मी युक्त नहीं है। क्योंकि ज्ञानोमसे यदि क्षायिकज्ञानके साथ इस शक्तिका अन्तर्भाव माना जावेगा तब तो तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेचलीके केवलज्ञान के साथ साथ उस शक्तिके मगट होनेका प्रसंग होता है। किंतु वह कारण शक्ति तो केवलज्ञानके पहिले ही बारहवेके अन्तमें प्रगट हो चुकी है । तभी तो दूसरे क्षण प्रतिबन्धकोंके नष्ट हो जानेपर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। यदि ज्ञानोमेसे क्षयोपशमजन्य चार ज्ञानों में उस शक्तिका अन्तर्भाव करोगे तो उन ज्ञानों के उत्पन्न होने के साथ ही उस शक्तिका उत्पाद हो जाना चाहिये । भावार्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तथा देशावधि चौथेसे बारहवे गुणस्थान तक पाये जाते हैं और परमावधि, सर्वावधि और मन:पर्यय छठेसे पारहवे तक उत्पन्न हो सकते हैं। अतः यही कहीं इस शक्तिका प्रादुर्भाव हो जाना चाहिये था। ऐसी दशाम चौधे पांचौ, छठे या सातमें गुणस्थानमें भी केवलज्ञान उत्पन्न हो जानेका प्रसंग है।
थायोपशमिके चारित्रे तदन्तर्भावे तेनैव सह प्रादुर्भावानुषंगात् । क्षायिक तदन्तर्भावे क्षीणकषायस्य प्रयमे क्षणे तदुद्भुतेनिंद्राप्रचलयोऊनावरणादिप्रकृतिचतुर्दशकस्य च निर्जरणप्रसक्तेर्नोपान्त्यसमये अन्त्यक्षणे च तन्निर्जरा स्यात् ।
- यदि उस निर्जरा शक्तिका चारित्र अन्तर्भाव करोगे, यहां क्षायोपशमिक चारित्रमें यदि उस शक्तिका गर्भ किया जायेगा, तब तो पांचवें, छठ, सातवे गुणस्थानमें होनेवाले उस क्षायोपमिक चारित्रके साथ ही इस शक्तिकी उत्पत्ति हो जानी चाहिये थी । और पदि क्षायिक पारिश्रमे उस
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तस्वार्थचिन्तामणिः
शक्तिको अन्तर्भूत करोगे तो क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थानके पहिले समयमे ही वह शक्ति प्रगट हो जावेगी । तब ही सोलह प्रकृतियोंकी निर्जरा बारहवेंके आदिमें ही हो जानी चाहिये। किंतु हम देखते हैं कि निद्रा और प्रचलाको निर्जरा बारहवेंके मन्त्यके निकट पूर्ववर्ती उपान्त्य समयमै होती है और ज्ञानावरण आदि चौदह प्रकृतियोंकी निर्जर। बारहवेंके अन्त समय में होती है। सो न होसकेगी। भावार्थ -- बारहवें के आदिमें ही शेष सोलह घातिया प्रकृतियों के नाश होनेका प्रसंग आता है, जोकि सिद्धान्तसे विरुद्ध है ।
दर्शनादिषु तदनंतर्भावे तदावारकं कर्मान्तरं प्रसज्येत दर्शनमोहज्ञानावरणचारित्रमोहानां तदावारकत्वानुपपत्तेः ।
यदि दर्शन ज्ञान और चारित्र में उस शक्तिका गर्भं न करोगे अर्थात् दूसरे पक्षके अनुसार कमकी निर्जरा करने की शक्ति को अन्य स्वतंत्र गुण मानोगे तो उस शक्तिका आवरण करनेवाला नववां कर्म माननेका प्रसङ्ग आपडेगा । क्योंकि दर्शन मोहनीय, ज्ञानावरण और चारित्रमोहनीय sant उस शक्तिका कदेनापन सिद्ध नहीं है । अतः जैसे ज्ञानको रोकनेवाला स्वतंत्र ज्ञानावरण कर्म है, वैसे ही शक्तिको रोकनेवाला नौवां निर्जरणावरण कर्म होना चाहिये ।
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वीर्यान्तरायस्तदावारक इति चेन्न, तत्क्षयानन्तरं तदुद्भवप्रसंगात् । तथा चान्योन्याश्रयणम् - सति वीर्यान्तरायक्षये तन्निर्जरणशक्त्या विर्भावस्तसिंश्च सति वीर्यान्तरायक्षय इति ।
यदि कोई यों कि वीर्यान्तराय कर्म उस शक्तिका आवरण करनेवाला पहिलेसे ही बना मनायां कर्म विद्यमान है, फिर नवत्रां कर्म क्यों माना जाता है ! यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि तब तो उस वीर्यन्तराय कर्मके क्षय होने के पीछे तत्काल उस शक्तिकी उत्पत्ति हो सकेगी और ऐसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष है कि वीर्यान्तरायके क्षय होनेपर तो उन चौदह कमौके निर्जरा करनेकी शक्ति होवे और चौदह कमौके क्षय करनेवाली उस शक्तिके प्रगट हो जानेपर वीर्यान्तराय कर्मका क्षय होवे | क्योंकि चौदह प्रकृतियों के मध्यमे स्वयं दीर्यान्तराय कर्म भी तो पढा हुआ है । इस प्रकार परस्पराश्रय दोष है ।
एतेन ज्ञानावरणप्रकृतिपंचकदर्शनावरणप्रकृतिचतुष्टयांतराय प्रकृतिपञ्चकानां तनिर्जरणशक्तेरावारकत्वेऽन्योन्याश्रयणं व्याख्यातम् ।
इस उक्त कथन के द्वारा ज्ञानावरणकी पांच प्रकृतियोंको और दर्शनावरणकी पहिली चार प्रकृतियोंको तथा अंतराय की पांचों प्रकृतियोंको मी उस निर्जरण शक्तिका आवरक कर्मेपना मानने पर भी अन्योन्याश्रय हो जाता है, यह भी व्याख्यात हो चुका। अर्थात् प्रतिबंधक होरही ज्ञानावरण प्रकृतिक नाश होनेपर वह शक्ति उत्पन्न होवें और उस शक्ति के उत्पन्न हो जानेपर ज्ञानावरणका नाश होवे, ऐसा ही परस्पराश्रय दोष अन्य दो पिण्ड प्रकृतियों के प्रतिबंधक बनने में भी समझ लेना ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
नामादिचतुष्टयं तु न तस्याः प्रतिबंधकम् तस्यात्मखरूपाघातित्वेन कथनात् । न च सर्वधानावृतिरेव सा सर्वदा सत्क्षयणीयकर्म प्रकृत्य भावानुषङ्गात् ।
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तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय मे चार अघातिया कर्म तो उस कर्म-निर्जरा शक्तिका प्रतिबन्ध करनेवाले नहीं है। क्योंकि वे चार अघातिया कर्म आमाके स्वाभाविक अनुजीवी गुणोंको नहीं घात करनेवाले कई गये हैं। वे कर्म तो अमूर्तत्व ( सूक्ष्मत्व) अगुरुलघु, अवगाइन और अव्यावाच इन अमावालक प्रतिजीवी गुणोंके रोकनेवाले हैं। मात्रात्मक शक्तिको नहीं रोकते हैं। तथा इन चार कर्मों का नाश तो चौदहवे गुणस्थानके अन्तमें होता है और वह शक्ति बारहवेंके अन्तमें अपेक्षणीय है ।
यदि चौदह प्रकृतियोंकी निर्जरा करनेवाली उस शक्तिको सर्व प्रकार आवरणोंसे रहित दी मानलिया जावे, सो ठीक नहीं है । क्योंकि तब हो सदा ही उस शक्ति से क्षयको प्राप्त होने योग्य कर्म प्रकृतियों के अभावका प्रसंग हो जावेगा । भावार्थ - - जैन सिद्धांतमें उस निर्जरा शक्तिके पगट होनेपर बारहवे गुणस्थानके अंत में चौदह प्रकृतियोंका नाश होना माना है। यदि वद निर्जरणशक्ति अपने प्रतिबंधक कमसे रहित होती तो आत्मामें स्वभावसे सदा विद्यमान रहनी चाहिये थी । ऐसी चौदह प्रकृतियों का नाश आत्मामें अनादिकाल से ही हो चुका होता। दूसरी बात यह है कि उस शक्तिसे ना होने योग्य कोई कर्म ही न माना जाता । जैसे कि अस्तित्व, द्रव्यत्व, गुण आत्मामें सदैव विद्यमान है । उन्ह गुणोंके द्वारा नाशको माप्त होने योग्य कोई कर्म आस्मा नहीं है । वे सामान्य गुण भी किसी कर्मके नाशसे प्रकट नहीं होते हैं। ये तो शास्वत विकासी हैं।
स्यान्मतं, चारित्रमोहक्षये, तदा विर्भावाच्चारित्र एवान्तर्भावो विभाव्यते । न च क्षीणकषायस्य प्रथमसमये तदाविर्भावप्रसङ्गः कालविशेषापेक्षत्वात्तदाविभावस्य । प्रधानं हि कारणं मोहक्षयस्तदाविर्भावे सहकारिकारण मत्य समयमन्तरेण न तत्र समर्थम्, तद्भाव एव तदाविर्भावादिति ।
यदि किसीका मंतव्य होवे कि चारित्र मोहके क्षय होनेपर ही उस शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । अतः चारित्रगुणमें ही उसके अन्तर्भाव करनेका विचार किया गया है, सम्भव है । इसपर कोई यों कहे कि क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानके प्रथम समय में ही चारित्र प्रगट हो जाता है तो चौदह प्रकृतियोंके नाश करानेकी शक्ति भी बारहवेंके पहिले समयमै प्रगट हो जानी चाहिये और केवलज्ञान भी वहीं पर प्रगट हो जाना चाहिये सो यह प्रसङ्ग तो ठीक नहीं है। क्योंकि इस शक्तिके प्रगट होनेको कालविशेषकी अपेक्षा हैं । प्रधान कारण तो उस शक्ति के प्रगट होने में मोहनीय कर्मका क्षय ही है। किन्तु वह मोहका क्षय सहकारी कारण माने गये बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय के बिना उस शक्तिको गट करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि उस सहकारी कारण के होनेपर
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खस्वाचिन्तामणिः
ही उस शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । प्रत्येक भावकी परिपक्वताके लिये समय चाहिये । तथा विश्राम ले चुकनेपर ही यानी कारणों का पुष्ट, पक्क परिणमन हो जानेपर ही पीछे भारी कार्य किया जा सकता है। कर्मोंके क्षय करने समान कोई बड़ा कार्य नहीं है। इस पुरुषार्थी मात्माको. मध्य मध्यमे विश्राम लेना पडता है । तब कहीं योद्धा मेषके समान क्षयकी टकर दी जाती है।
___ तहि नामाघपातिकर्मनिर्जरणशक्तिरपि चारित्रेऽन्तर्भाव्यते । तन्नापि क्षायिके न थायोपशमिके दर्शने नापि ज्ञाने बायोपयमिके क्षायिकेवा वेनैव सह सदाविभावप्रसंगात् । न चानावरणा सा सर्वदाविर्भावप्रसंगात् संसारानुपपत्ते।।
अब मतिज्ञानावरण मादि चौवह मतियों के नाश करनेकी शक्ति चारित्रमें गर्मित की है और यह बारहवेंके अंतसमय तथा उस समयके परिपाक एकस्ववितर्क-वीचारको सहकारी कारण मानकर प्रगट हो जाती है, तब सो नाम आदि चार अघातिया काँकी निर्जरा करानेवाली मात्मीय शक्ति भी चारित्रगुणमें ही अंतर्भूत हो जावेगी। उस कारण क्षायिक सम्यक्त्वमें भी नहीं तथा क्षायोपथमिक सम्यक्त्वों उस शक्तिका अंतर्भाव नहीं होता है | और न क्षायिक ज्ञान अथवा क्षायोपशमिक ज्ञानोमें भी उस शक्तिका गर्म होता है। जिससे कि उन सम्यक्त्व और ज्ञानोंके साथ ही उस अघातिया कोका नाश करनेवाली शक्तिके प्रगट हो जानेका प्रसंग होवे । तभा वह अभातियों का नाश करनेवाली बात्माके स्वभावरूप शक्ति विचारी आवरण करनेवाले काँसे रहित है। यह भी युक्त नहीं है। क्योंकि यदि वह शक्ति प्रतिबंधकोसे रहित होती तो सदा ही मात्मा प्रगट बनी रहती और इस प्रकार आरमाके स्वभाव करके ही अपातियों के नाश हो जानेसे संसार ही नहीं बन सकता था । सर्व ही जीव बिना प्रयत्नके मुक्त बन जाते । अतः उस धक्ति का चारित्रम गर्भ करके चारित्रमोहनीय कर्मको उस शक्तिका प्रतिबंधक मानना चाहिये। यह मन्तव्य अच्छा है।
न जानदर्षनावरणान्तरायैः प्रतिबद्धा तेषां ज्ञानादिप्रतिबन्धकलेन तदप्रतिबंधकत्वात् ।
चारित्रमोहनीय कर्मको उस शक्तिका प्रतिबन्धक नहीं मानकर ज्ञानावरण दर्शनावरण और मन्तराय काँसे प्रतिबन्ध होना मानना भी ठीक नहीं है । क्योंकि वे तीन कर्म तो नियतरूपसे ज्ञान आदिके प्रतिवन्धक है। इस कारण उन चार अधातिया कोको नाश करनेवाली शक्तिके वे प्रतिबन्धक नहीं हो सकेंगे । अर्थात् ज्ञानावरण कर्म आत्माके ज्ञानस्वभावको रोकता है और दर्शनावरण कर्म दर्शनगुणको बिगाढ रहा है तथा अन्तरायकर्म वीर्यगुणका ध्वंस कर देता है। अतः इन कोंके अलग अलग कार्य बटे हुए हैं। किन्तु चारित्रका शरीर बहुत बड़ा है। संसार अवस्थामै भी पहिले चौथे गुणस्थानमें चारित्रगुणका विभाव अनेक संकरपर्यायस्य हो रहा है। एक ही समम आत्मामें चाहें चारों या तीनो कोष मी हैं ! अरति, शोक भी हैं। भय जुगुप्साय
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तत्वार्थचिन्तामणिः
परिणति है। वेद भी विद्यमान है। ये सब चारित्रगुणके चिन्ह या संकररूप विभावपर्याय है। एक गुणकी एक समयमें एक ही पर्याय होती है। यहाँ जटाजूट बंधगया है। चारित्रका विभाव और स्वभाव दोनों ही अनेक धर्मासे सहित हैं। अतः चारित्रमोहनीय कर्मको उस शक्तिका प्रतिबन्धक मानना चाहिये।
नापि नामाद्यपातिकर्मभिस्तत्क्षयानन्तरं तदुत्पादप्रसक्तः तथा चान्योन्याश्रयणात् सिद्धे नामाद्यपातिक्षये तन्निर्जरणशक्त्याविर्भावात्तत्सिदी नामाद्यपातिक्षयात् इति, चारित्रमोहस्तस्याः प्रतिबंधक सिद्धः।
यदि अातिया कोंके नाश करनेवाली शक्तिका प्रतिबंध होना नाम आदि अधातिया कौके द्वारा माना जाने सो भी ठीक नहीं है । क्योंकि ऐसा होनेपर तो उन नाम, गोत्र, आयु और वेदनीयके नाश हो जानेके पश्चात् उस शक्तिकी उत्पति होनी चाहिये । किंतु नाम आदिकके नाश होने के पश्रम ही उस शक्तिका उत्पाद हो जाता है। तमी तो उस शक्तिके प्रगट हो जानेपर पीछेसे नाम आदिका नाश हो सकेगा। अतः वैसा माननेपर इस ढंगसे परस्पराश्रय दोष होगा कि नाम आदि अघातिया कर्मों के क्षयके सिद्ध होनेपर उनको निर्जर करनेवाली शक्तिका प्रादुर्भाव होवे और उस निर्जराशक्तिका प्रादुर्भाव सिद्ध हो चुके तब कहीं नाम आदि चार अधातिया कोका क्षय होना बने । इस प्रकार परस्पराश्रय दोषके हो जानेसे किसी भी कार्यकी सिद्धि न हुयी । इस कारण उस शक्तिका प्रतिबंध करनेवाला चारित्रमोहनीयकर्भ ही सिद्ध होता है।
क्षीणकपायप्रथमसमये तदाविर्भावप्रसक्तिरपि न वाच्या, कालविशेषस्य सहकारिपोऽपेक्षणीयस्य तदा विरहात्। प्रधानं हि कारण मोहक्षयो नामादिनिर्जरणशक्तेन योगकेवलिगुणस्थानोपान्त्यान्त्यसमयं सहकारिणमंतरेण तामुपजनयितुमल सत्यपि केवले सतः प्राक्तदनुत्पत्तरिति । न सा मोहक्षयनिमित्ताऽपि क्षीणकपायप्रथमक्षणे प्रादुर्भवति, नापि तदावरष कर्म नवम प्रसज्यते ।
- जब कि अघातियोंकी निर्जरा करनेवाली शक्तिका प्रतिबंधक जैन लोग चारिन मोहनीयको मानेंगे तो बारहवें गुणस्थानके पहिले समयमें वह शक्ति प्रगट हो जानी चाहिये, इस प्रकारका प्रसंग हो जाना भी नहीं कहना चाहिये । क्योंकि सम्पूर्ण कार्योंके प्रति अवश्य अपेक्षा करने योग्य कालविशेष सहकारी कारण माना गया है | वनस्पति, धान्य, फल, फूल आदि पदार्थ भिन्न भिन्न समयोम ही उत्पन्न होते हैं । वनों में सैकड़ों बीज पडे रहते हैं। मिट्टी, पानी घाम (धूप ) ये सहकारी कारण भी विद्यमान हैं । किंतु समय ( व्यवहार काल ) पाकर ही चे फलते फूलते हैं । सर्वदा नहीं। वैसे ही मोहनीयके क्षय हो जानेपर भी उस शक्तिको सहकारी कारणविशेष कालकी अपेक्षा है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उस समय बारहवेक आदिमें वह सहकारी कारण माना गया विशेषकाल नहीं है । अतः उस समय वह शक्ति प्रगट नहीं हो पाती है । नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कोंकी समूल निर्जरा करने वाली शक्तिका प्रधान कारण तो मोहनीय कर्मका क्षय ही है। किंतु यह मोहक्षय अयोगकेवली नामक चौदहवे गुणस्थानके अंतिमके निकट होरहे उपान्त्य समय और अंतिम समयरूप सहकारी कारणके विना उस शक्तिको पूर्णरीत्या प्रगट करने के लिये समर्थ नहीं है | जिस शक्तिके द्वारा चौदहवेके उपांत्य समय बहत्तर प्रकृतियोंका और अन्त्य समयमे तेरह प्रकृतियोंका क्षय हो जानेवाला है । तेरहवेकी आदिमें केवलज्ञान हो जानेपर भी परिपाक समयके विना चौदहवेके उन अन्त्य, उपान्त्य समयोंसे पहिले यह शक्ति उत्पन्न नहीं होपाती है। इस कारण मोदक्षयके निमित्तसे हो जानेवाली भी वह शक्ति शीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानके पहिले समयमें प्रगट नही होती है। और उस शक्तिका प्रतिबंध करनेवाला चारित्र मोहनीय कर्म जब सिद्ध हो चुका तो उस शक्तिका आवरक बनने के लिये आठ कोसे अतिरिक्त नववे कर्म माननेको भी प्रसंग नहीं आता है।
इति स्थितं कालादिसहकारिविशेषापेक्ष क्षायिकं चारित्रं, क्षायिकत्वेन सम्पूर्णमपि मुक्त्युत्पादने साक्षादसमथे कवलाप्राकालभारि तदकारकम् । केवलोत्तरकालभावि तु साक्षान्मोक्षकारणं सम्पूणे केवलकारणकमन्यथा तद्घटनात् ।
___ इस प्रकार अबतक ऊहापोह पूर्वक सिद्ध हुआ कि मोहनीय कर्मके क्षयसे जन्य होनेकी अपेक्षासे यद्यपि क्षायिकचारित्र बारह की, आदिमें सम्पूर्ण भी हो चुका है, किन्तु अव्यवहित उचर कालमें मोक्षको प्राप्त कराने के लिये वह समर्थ नहीं है। क्योंकि सहकारी कारण कहे गये. कालविशेष आदिकी उसको अपेक्षा है। केवलज्ञानसे पहिले कालमें होनेवाला चारित्र तो कारकहेतु ही नहीं है । क्योंकि मोक्षके कारकतु तीनों रन माने गये हैं। वहां दो ही हैं। हां ! केवलज्ञानके उत्तर कालमें होनेवाला तो वह चारित्र जब अपने अंशोमें अपने आनुषक्तिक स्वभावोंसे परिपूर्ण हो जावेगा । तो चौदहवेंके अन्तर्भ साक्षात् ( अव्यवहित उत्तरकालमै ) मोक्षका कारण हो जाता है । अतः पूर्णचारित्रका कारण केवलज्ञान है । केवलज्ञान हुए विना दूसरे प्रकारसे चौदहवेके अन्त समयमें होनेवाली चारित्रकी वह पूर्णता नहीं बन सकेगी । ऐसा होनेपर केवलज्ञानके विधमान होते हुए भी पूर्ण चारित्र विकल्पनीय समझा जाता है। . कालापेक्षितया वृत्तमसमर्थं यदीष्यते ।
व्द्यादिसिद्धक्षणोत्पादे तदन्त्यं तागित्यसत् ॥ ९१ ॥ प्राच्यसिद्धक्षणोत्पादापेक्षया मोक्षवर्मनि । विचारप्रस्तुतेरेवं कार्यकारणतास्थितेः ॥ ९२ ॥
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तत्या चिन्तामणिः
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चारित्रगुण विशेषकालकी अपेक्षा रखता है। इस कारण शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करानेमें असमर्थ है । यदि ऐसा इष्ट करोगे तो चौदहके अंतमें होनेवाला पूर्णचरित्र भी सिद्ध भगवान्की दूसरे, तीसरे, चौथे आदि समयों में होनेवाली पर्यायों के पैदा करने में भी असमर्थ होगा। क्योंकि चौदवेंके अंतमें होनेवाला पूर्ण चारित्र पहिले समयकी सिद्ध पर्यायको तो बना देगा। क्योंकि उसके अव्यवहित पूर्वसमयमें समर्थ कारण विद्यमान है। किंतु दूसरे, तीसरे, आदि समयोंकी पर्यायोंको बगानेमें वह वैसा ही असमर्थ रहा आवेगा । ऐसा होनेपर दूसरे, तीसरे प्रभृति समयोंमें वे सिद्ध भगवान् मुक्त न रह सकेंगे, इस प्रकार किसीका कहना तो प्रशस्त नहीं है। क्योंकि कहीं मी कार्यकारणभावका यदि विचार होता है तो वह कार्यके पहिले समयकी पर्यायको पैदा करानेमें ही होता है। प्रकृतम मी उमास्वामी महाराजका पहिले समयकी सिद्ध पर्यायके उत्पन्न होनेकी अपेक्षासे मोक्षमार्गके प्रकरण विचार होनेका प्रस्ताव चल रहा है और ऐसा होनेसे ही कार्यकारणभावकी प्रमाणोंसे सिद्धि होती है । देखिये ! सबसे पहिली घटपर्याय उसके पूर्ववर्ती कोष, कुशूल, दण्ड, चक्र, कुलाल, मृत्तिका आदि कारणोंसे होती हुयी मानी है । घटके उत्पन्न हो जानेपर पुनः उस घटकी उत्तरवर्ती सहश पर्यायोंका कारण पूर्व समयवर्ती परिणाम या कालद्रव्य माने गये हैं। उनमें दण्ड, चक्र, कुलाल, आदिकी आवश्यकता नहीं है । वैसे ही पहिले समयको सिद्ध पर्यायका कारण सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान और परिपूर्ण चारित्र है । दूसरे, तीसरे, आदि समयों में होनेवाली सजातीय सदृश सिद्ध पर्यायोंका कारण रत्नत्रय नहीं है । किंतु काल और पूर्वपर्याय आदि हैं।
न हि यादिसिद्धक्षणैः सहायोगिकेवलिचरमसमयवर्तिनो रत्नत्रयस्य कार्यकारपभावो विचारयितुमुपांतो येन तत्र तस्यासामर्थ्य प्रसज्यते । किं तर्हि १ प्रथमसिद्धक्षणेन सह, तत्र च तत्समर्थमेवेत्यसुच्चोद्यमेतत् । कथमन्यथाग्निः प्रथमधूमक्षणमुपजनयन्नपि तत्र समर्थः स्यात् ? धूमक्षणजनितद्वितीयादिधूमक्षणोत्पादे तस्यासमर्थस्वेन प्रथमधूमक्षणोत्पादनेऽप्यसामर्थ्यमसक्तेः। तथा च न किंचित्कस्यचिस्समर्थ कारणं, न चासमर्थात्कारणादुत्पत्तिरिति केयं वराकी तिष्ठेत्कार्यकारणना ।
इस तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भ करने के प्रकरणमें दूसरे तीसरे चौथे, आदि समयोंमें होनेवाली सिद्ध पर्यायोंके साथ चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानके अंतसमयमें होनेवाले स्लत्रयका कार्यकारणभाव विचार करने के लिये प्रस्ताव प्राप्त नहीं है, जिससे कि चौदहवेक अन्त्यसमयवर्ती उस चारित्र या रत्नत्रयकी दूसरे आदि समयमि होनेवाली उन सिद्ध पर्यायोंके उत्पन्न करनेमें असमर्थताका प्रसंग दिया जावे। तब तो कैसा कार्यकारणभाव है ! सो सुनो ! पहिले क्षण की सिद्ध पर्यायके साथ रनत्रयका कार्यकारणभाव है । और वह रत्नत्रय उस पहिली सिद्धपर्यायको उत्पन्न करनेमें समर्थ ही है। इस कारण यह उपयुक्त आफ्का कुचोध करना प्रशंसनीय नहीं कहा जासकता है। यदि ऐसा 68
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५३८
सत्त्वायचिन्तामणिः
न स्वीकारकर अन्य प्रकार माना जावे अर्थात् कार्यकी पहिली पर्यायको ही पैदा करनेवाला कारण न मानाजावे और पूर्ण कार्यको सन्तनको पैदा करनेवाला कारण माना जाये तो भमिरूपी कारण पहिले समयकी धूमकी पर्यायको पैदा करता हुआ मी धूमके उत्पन्न करने समर्थ क्यों कहा जाता है ! सर्व ही उत्तरवर्ती घूमपर्यायोंको तो अग्नि पैदा नहीं करती है । पहिले क्षणकी घूम पर्यायसे उत्पन हुयी दूसरे समयकी पर्याय और दूसरे समयकी धूमपर्यायसे उत्पन्न हुयी तीसरे आदि समयकी धूमपर्यायके पैदा करने में जब अमिकी सामर्थ्य नहीं है तो इस कारण पहिले समयकी धूमपर्यायको पैदा करनेमें भी उस आमकी सामर्थ्य न हो सकनेका प्रसंग आयेगा और तब तो कोई भी कारण किसी भी कार्यका समर्थ कारण न बन सकेगा, और असमर्थ कारणसे तो कार्यकी उत्पति होती नहीं है। इस प्रकार यह विचारी कार्यकारणता कहां ठहर सकेगी ! तुम ही बताओ। इससे सिद्ध होता है कि विवक्षित समयके कारणका अव्यवहित उत्तरवर्ती एक समयकी पर्यायरूप कार्यके साथ कार्यकारणभाव है। दीपशलाका सो पहिले समयकी दीपकलिकाको उत्पन्न कर चरितार्थ होजाती है,
और आंग आगे होनेवाली कलिकार्य उन पहिली पहिली कलिकाओंसे उत्पन्न होती रहती है। उनमें दीपशलाकाकी आवश्यकता नहीं है। ___कालान्तरस्थायिनोऽग्नेः स्वकारणादुत्समो धूमः कालान्तरस्थायी स्कन्ध एक एवेति स तस्य कारणं प्रतीयते तथा व्यवहारादन्यथा तदभावादिति चेत्, तर्हि सयोगकेवालेरत्नप्रयमयोगिकेवलिचरमसमयपर्यन्तमेकमेव तदनन्तरभाविनः सिद्धत्वपर्यायस्यानन्तस्यैकस्य कारणमित्यायातम् । तच्च नानिष्टम् । व्यवहारमयानुरोधस्तथेष्टत्वात् । निययनयाश्रयणे तु यदनन्तरं मोक्षोत्पादस्तदेव मुख्यं मोक्षस्य कारणमयोगिकेवलिचरमसमयवर्ति रस्नत्रयमिति निरवयमेवचच विदामाभासते ।
पूर्व पक्षकार कह रहा है कि जहां घण्टोंसे ही लकडीकी अग्नि जल रही है और लकडियों में कुछ गीलापन होनेसे धुआं उठ रहा है, ऐसी दशा घण्टोंतक रहनेवाली अमिकी स्थूल पर्याय उत्पन्न समयसे लेकर बुझनके समय तक एक ही है। इसी प्रकार धूमकी रेखा मी न टूटती हुवी यहांसे वहांतक एक धुआंका स्कन्ध है । इस कारण देर तक ठहरनेवाले अमिरूप अपने कारणसे उत्पन्न हुआ. धुआं भी बहुत कालतक ठहरनेवाला एक ही पौगलिक पिण्ड है। अतः वह कालांचरतक ठहरी हुयी अग्नि, देरतक ठहरे हुए धूम अवयवीका कारण प्रतीत हो रही है। वैसा ही संसारमै बालकसे लेकर वृद्धोतको व्यवहार हो रहा है-- अन्यथा बानी यदि कारणकी स्थूलपायोंका कार्यकी स्थूलपर्यायोंके साथ कार्यकारणभाव नहीं माना जावेगा तो लोकप्रसिद्ध सब व्यवहार रुक जावेंगे । उनका अभाव हो जावेगा। पहिले दिनके पैदा हुए बच्चेका जनक भी बाप कहलाता है और वही उस बच्चे के युवा, वृद्ध होने तक भी वह-बाप
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सवा चिन्तामणिः
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कहा जाता है। आमका वृक्ष छोटी अमियों को उत्पन्न करता है। किंतु बडे आम्रफलको भी वही वृक्ष अमियांको बढाते बढाते पैदा कर देता है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि इस प्रकार कहोगे, तब तो प्रकृतमे भी तेरहवें गुणस्थानके सयोगकेवलीका झायिक रलत्रय और अयोगकेवली के अंतिम समय पर्यत रहनेवाला विशेष स्वभावरूप सहकारी कारणोंसे परिपूर्ण हुआ बह रलत्रय एक ही है और ऐसे ही उस बौदहवेके अंतिम रत्नत्रयसे होनेवाली प्रथम समयकी सिद्धपर्याय और उस पर्यायके पश्चात् उत्तरोत्तर अनंतकाळमुक होनेवाली मदृश अनंतानंत सिद्धपोय मी एकपिण्ड हैं । अत: वह एक ही रत्नत्रय अनंतकालतक होनेवाली सिद्ध पर्यायोंका कारण है । इस प्रकार कार्यकारणभाव प्रकृतमै भी आ गया । यह हम स्याद्वादियोंको अनिष्ट नहीं है । व्यवहार नयकी प्रथानताको विवक्षा होनेपर तदनुसार वैसा स्थूल कार्यकारणभाव हम इष्ट कर लेते हैं। हां ! निश्चय नयका अवलम्ब करनेपर तो जिस रत्नत्रयके अव्यवहित उत्तर काली पहिली मोक्षपर्याय होगी वही मुख्यरूपसे मोक्षका कारण कहा जावेगा। चौदहवे गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली महाराजके मंतिम समयमें रहनेवाला नत्रय उक्त प्रकारसे मोक्षका निर्दोषरूपसे कारण निर्णीत हुआ। यह बात तत्त्वपरीक्षक विद्वानोंको बिना खटकाके झलक रही है । मावार्थ-निश्चय नयसे अव्यवहित पूर्व समयवर्ती पर्याय कारण है और उत्तर एक समयमें होनेवाला परिणाम कार्य है । इस नयसे गर्भ स्थितिके आदि समयके पुत्रका उत्पन्न करनेवाला जनक पिता है । उसके आगे नौ महीने की गर्भावस्था या बाल, कुमार मादि अवस्थाओंका जनक पिता नहीं हो सकता है । पहिली पहिली पर्याय ही खाद्य, पेय, पोषक आदि सामग्रीसे सहित होकर उन अवस्थाओंकी अनक है। किंतु व्यवहार नयसे पूर्व समयमें होनेवाली बहुत देर तककी स्थूलपर्याय उत्तरकालवी देर तक रहनेवाले कार्यकी जनक है । इस व्यवहारनयसे पिता बूढे हो चुके पुत्रका भी बाप कहा जावेगा । प्रायः लोकोपयोगी कार्य इसी नयसे साध्य हो रहे हैं । विजली, दीप-कलिका आदि कार्योको इम क्षणिक समझते हैं। वे मी अनेक समयोंतक सदृश परिणाम लेती हुयीं कुछ देरतक ठहरनेवाली स्थूल पर्याये हैं। ऋण लेना देना, गुरुशिष्यभाव, पतिव्रतापन, गेहूंकी रोटी, मिट्टीसे घडा आदि कार्य इस व्यवहार नयकी प्रधानता ही से बनते हैं । इस प्रकार निदोष कार्यकारणभावकी व्यवस्था है।
ततो मोहक्षयोपेतः पुमानुभूतकेवलः। . विशिष्टकारणं साक्षादशरीरत्वहेतुना ॥ १३ ॥ रत्नत्रितयरूपेणायोगकेवलिनोंऽतिमे। क्षणे विवर्तते ह्येतदवाध्यं निश्चितानयात् ॥ ९४ ॥ व्यवहारनयाश्रित्या त्वेतत्प्रागेव कारणम् । . मोक्षस्थति विवादेन पर्याप्तं तत्ववेदिनाम् ॥ ९५ ॥
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अपार्थचिन्तामणिः
इसलिये मानना पड़ता है कि मोहनीय कर्मके क्षयसे युक्त होरहा और प्रगट हो गया है केवलज्ञान जिसके ऐसा आला अपने चारित्रक विशेष स्वभावसे सहित होकर अव्यवहित उत्तरकालमै मोक्षका प्रधान कारण है । वह अयोगकेवली महाराजका आत्मा ही चौदहवें के अन्त समयमे स्थूल सूक्ष्म शरीरोंसे रहित हो जानापनरूप मोक्षके कारण पूर्णरत्नत्रयरूपसे परिणमन करता है I यह बात निश्चयनये. बाघारहित होकर सिद्ध हो चुकी । यह और व्यवहारनयका आश्रय लेकर सो पहिला ही यह तेरहवे गुणस्थानका यह रत्नत्रय अनंतकाल तककी मोक्षका कारण है । अथवा चौदहवेंका रत्नत्रय अनंत सिद्धपर्यायोंका कारण है, जोकि पर्याये भविष्यमें होनेवाली है । यह बात प्रामाणीकपने से सिद्ध हो चुकी है । अतः तत्त्वोंको जाननेवाले विद्वानोंको अधिक विवाद करनेसे विश्राम लेना चाहिये । इस विषय में विवाद करनेसे कुछ लाभ न निकलेगा । बहुत अच्छा विचार होकर कार्यकारणभावका निर्णय हो चुका है । सारके निकल चुकनेपर खलका कुचलना व्यर्थ है ।
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संसारकारणत्रित्वासिद्धेर्निर्वाणकारणे ।
त्रिवं नैवोपपद्यतेत्यचोद्यं न्यायदर्शिनः ॥ ९६ ॥ आद्यसूत्रस्य सामर्थ्याद्भवहेतोस्त्रयात्मनः । सूचितस्य प्रमाणेन बाधनानवतारः ॥ ९७ ॥
यहां नैयायिककी दूसरे प्रकारसे शंका है कि मोक्षसे विपरीतता रखनेवाले संसारके कारणों को तीनपना जब असिद्ध है तो मोक्षके कारण मी तीनपना सिद्ध नहीं हो सकता है । जब कि संसारका कारण अकेला मिध्याज्ञान है या मिथ्याज्ञान और मोहजाल ये दो हैं, ऐसी दशामें मोक्षके कारण भी एक या दो होने चाहिये । ज्जरको उत्पन्न करनेवाला यदि पित्तदोष है तो औषधि भी sto fuaaोषको समन करनेवाली होनी चाहिये | आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारका न्यायसे देखनेवाले नैयायिकको ग्रह कुचोध नहीं करना चाहिये। क्योंकि यदिके सूत्रमें मोक्षका कारण तीनको बतलाया है | अतः बिना कहे हुए अर्थापत्तिकी सामर्थ्य से ही इस बातकी सूचना होजाती है कि संसारके कारण भी तीन स्वरूप है। इस सूचनाको बाधा देनेवाला कोई भी प्रमाण उतरता नहीं है ।
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'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग ' इत्याद्यत्रसामर्थ्यात्, मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि संसारमार्ग इति सिद्धेः सिद्धमेव संसारकारणत्रित्वं बाधकप्रमाणाभावात्ततो न संसारकारण त्रित्वासिद्धेर्निर्वाणकारण त्रित्वानुपपत्तिचोदना कस्यचिन्न्यायदर्शिता मावेदयति.
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों समुदित होकर मोक्षके मार्ग हैं | इस पहिले सूत्रकी सामर्थ्य से मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीन संसारके मार्ग हैं, यह
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विना कहे सिद्ध हो ही जाता है । अतः बाघक प्रमाणोंके न होनेसे संसारके कारणोंको तीनपना प्रसिद्ध ही है । इस ही कारण किन्हीं नैयायिकोंका यह कटाक्ष करना कि संसारके कारणोंमें जब तीनपना सिद्ध नहीं है तो मोक्षके कारणोंका मी तीनपना सिद्ध न होगा, यह उन नैयायिकों के न्यायपूर्वक देखनेपनको नहीं कहरहा है। वे केवल नाममात्रके नयायिक है। न्यायको जाननेवाले या न्यायपूर्वक क्रियाको करनेवाले ऐसे अर्थसे नैयायिक नहीं हैं।
विपर्ययमात्रमेव विपर्ययावैराग्यमात्रमेव वा संसारकारणमिति व्यवस्थापयितुमशक्तेने संसारकारणत्रित्वस्य वाधाऽस्ति तथाहि
अकेला विपर्ययज्ञान ही अथवा विपर्ययज्ञान और रागभाव ये दो ही संसारके कारण हैं, इसकी आप नैयायिक व्यवस्था नहीं कर सकते हैं । अतः संसारके कारणोंको तीनपना माननेकी कोई बाधा नहीं है । मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों ही संसारके कारण हैं। इसी बातको स्पष्टकर दिखलाते हैं।
मौलो हेतुर्भवस्येष्टो येषां तावद्विपर्ययः । तेषामुद्भूतबोधस्य घटते न भवस्थितिः ॥ ९८ ॥
जिन नैयायिक, सांख्य और वैशेषिकोंके मतों संसारका सब कारणोंके आदिमें होनेवाला मूलकारण विपर्यय-ज्ञान माना गया है, उन वादियोंके यहां तत्वज्ञानके प्रकट हो जानेपर उस जीवकी संसारमें स्थिति होना न बन सकेगा। क्योंकि तत्वज्ञानसे विपर्यय ज्ञानका नाश होकर उत्तर क्षण ही मोक्ष हो जावेगी । अतः तत्वोंका उपदेश देनेके लिये योगीका संसारमे ठहरना न हो सकेगा। ___अतस्मिस्तग्रहो विपर्ययः, स दोषस्य रागादेहेतुः, सद्भावे भावात्तदभावेऽभावात् । सोऽप्यदृष्टस्याशुद्धकर्मसंहितस्य, तदपि जन्मनस्तदुःस्वस्थानेकविधस्येति मौलो भवस्य हेतुर्विपर्यय एव येषामभिमतस्तेषां तावदुद्भूततत्वज्ञानस्य योगिनः कथमिह भवे स्थितिघंटते कारणाभावे कार्योत्पत्तिविरोधात् ।
जो तद्रूप नहीं है, उसमें सद्रूपपनेका ज्ञान करलेना विपर्ययज्ञान है । जैसे कि लेजुमें सांपका ज्ञान या चांदीमें सीपका ज्ञान । वैसे ही शरीर, धन पुत्र, कलत्र आदिमें मैं और मेरा इस ज्ञानको विपर्यय कहते हैं । वह विपर्यय ज्ञान राग, द्वेष, अज्ञान, आदि दोषोंका कारण है ! क्योंकि उस विपर्ययके होनेपर सग आदिक दोष होते हैं और उसके न होनेपर नहीं होते हैं । यह अन्वयव्यतिरेक घट जाता है । और वे राग आविक दोष भी अशुद्धकर्म हैं नाम जिनके, ऐसे पुण्यपापरूप अदृष्ट के कारण है । और वह पुण्यपापकर्म भी जन्म केनेका कारण है । और बह
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तस्थार्थचिन्तामणिः
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जन्मलेना अनेक प्रकारके शारीरिक, मानसिक, दुःखका कारण है । इस प्रकार संसारका जडरूप विपर्वण्याचही है. उसी से कम कारणोंकी शाखायें चलती हैं । दुःखजन्म प्रतिदोष मिथ्याज्ञानानामुतरोवरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः " ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार जिन नैयायिक आदि वादियोंने माना है, उनके यहां पहिले यह बतलाओ कि तत्त्वज्ञानके उत्पee होनेपर भला योगीका इस संसार में ठहरना कैसे बनेगा ? कारणके न रहनेपर कार्यकी उत्पत्ति होने का विरोध है, अर्थात् शरीर, आयु, जन्म धारण करना, आदि सबका मूलकारण विपर्ययज्ञान था। जब तत्वज्ञान द्वारा विपर्ययका जसे नाश हो गया तो फिर भला संसार में ठहरना कैसे होगा ? कारण नहीं है तो कार्य किस बलासे पैदा होगा 1 कहिये ।
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संसारे तिष्ठतस्तस्य यदि कश्चिद्विपर्ययः ।
सम्भाव्यते तदा किन्न दोषादिस्तन्निबन्धनः ॥ ९९ ॥
संसारमें ठहरते हुए उस योगीके यदि कोई न कोई विपर्ययज्ञान सम्भावित किया जावेगा तो उस योगी विपर्ययको कारण मानकर उत्पन्न होनेवाले दोष, पुण्य पाप, जन्म छैना, दुःख भोगना, आदि कार्य भी क्यों नहीं माने जावेगे ! समर्थ कारण अपने नियत कार्यको अवश्य उत्पन्न करेगा ।
समुत्पतत्त्वज्ञानस्याप्यशेषतोऽनागतविपर्ययस्यानुत्पत्तिर्न पुनः पूर्वमवोपात्तस्य पूर्वाधर्मनिबंधनस्य ततोऽस्य मवस्थितिर्घटत एवेति सम्भावनायां तद्विपर्ययनिबंधनो दोषस्तदोष निबंधनं चाएं, तदस्टनिमित्तं च जन्म, तज्जन्मनिमित्तं च दुःखमनेकप्रकारं किन सम्भाव्यते १
नैयायिक कहते हैं कि तत्त्वज्ञानके भले प्रकार उत्पन्न हो जानेपर भविष्य में आनेवाले विपर्ययकी उत्पत्ति होना पूर्ण रूपसे रुक गया है, किंतु फिर पूर्व जन्मों में ग्रहण किये हुए पहिले अघको कारण मानकरं उत्पन्न होनेवाले विपर्ययका उत्पाद होना नहीं रुका है, वे तो फल देकर रेंगे। विना फल दिये सञ्चित कर्म नहीं नष्ट होते हैं । अतः उस पूर्व अदृष्ट नामक कारणके द्वारा उत्पन्न किये गये विपर्यय ज्ञानोंका उपभोग करते हुए इस योगीका संसारमै कुछ दिन तक ठहरना बन ही जाता है । ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार नैयायिकों के प्रत्युत्तरकी सम्भावना होनेपर हम कहते हैं कि उस विपर्ययको कारण मानकर योगी राग आदिक दोष अवश्य पैदा हो जायेंगे और उस दोषको कारण मानकर पुण्य पाप भी उत्पन्न होगा और पुण्य पापके निमित्तसे जन्म तथा जन्मके निमित्तसे अनेक प्रकारके दुःख उस योगीके क्यों नहीं सम्भवते हैं ? अर्थात् ये कार्य भी तत्त्वज्ञानी हो जायेंगे । ऐसी दुःखित, दूषित अवस्थामै भला योगी समीचीन उपदेश कैसे देगा ? आप ही विचारो ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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न हि पूर्वोपाचो विपर्यासस्तिष्ठति न पुनस्तन्निबन्धनः पूर्वोपाच एव दोषादिरिति प्रमाणमस्ति तत्स्थितेरेव प्रमाणतः सिद्धेः ।
पहिले जन्म में प्रहण किया हुआ मिथ्या अभिनिवेश तो योगीके ठहरा रहे और उसको कारण मानकर पहिले जन्मर्भे धारासे उत्पन्न हुए ही दोष, पाप, दुःख, आदि फिर न होवें, इसमें कोई प्रमाण नहीं है । उस विपर्यासकी स्थिति से ही दोष, जन्म, आदिका होना प्रमाणसे सिद्ध होता है । कारण है तो कार्य होगा ही, अतः अकेले मिध्याज्ञानसे संसारकी व्यवस्था और अकेले तत्त्वज्ञानसे मोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकती है ।
तथा सति कुतो ज्ञानी वीतदोषः पुमान्परः ।
तत्त्वोपदेशसन्तानहेतुः स्याद्भवदादिषु ॥ १०० ॥
वैसा होनेपर तत्त्वज्ञानी भी विपर्यय और दोषोंकी जब सम्मावना है तो दोषोंसे रहित होकर उत्कृष्ट, तत्त्वज्ञानी, पुरुष मला तत्त्वोंके उपदेशकी आजतक संतान बने रहनेका कारण आप नैयायिक, वैशेषिक आदिको में कैसे बनेगा ? बताओ । इसका आप विचार कीजिये। हां ! सदैव अशा उपदेश आप लोगों प्रत्रता रहेगा ।
पूर्वोपातदोषादिस्थितौ च तत्त्वोपदेश सम्प्रदायाविच्छेद हेतोर्भवदादिषु विनयेषु सर्वक्षस्यापि परमपुरुषस्य कुतो वीतदोषत्वं येनाझोपदेश विमलम्मनशकिभिस्तदुक्त प्रतिपत्तये प्रेक्षावद्भिर्भवाः स एव मृग्यते ।
तत्त्वज्ञानीके पूर्व जन्मों में ग्रहण किये गये राग, द्वेष, आदि दोष और पाप, दुःख आदिकी स्थिति रहनेपर तत्रोपदेशकी आप लोगोंने आम्नायके न टूटनेके कारण माने गये उस परमपुरुष सर्वेज्ञको भी दोषों से रहितपना भला कैसे सिद्ध होगा ! बतायो । जिस सर्वज्ञकी आप नैयायिक, वैशेषिक आदिक विनीत होकर भक्ति करते हैं, जिससे कि विचारक विद्वानों करके उसी सर्वज्ञका अन्वेषण किया जाय । यदि आपके माने हुए सर्वेझ परमपुरुष निर्दोषपना सिद्ध होगया होता, तब तो विचारशील बुद्धिवाले आप लोगोंके द्वारा वह सर्वज्ञ ही उसके कहे हुए तत्त्वोंका विश्वास करने के लिये ढूंढा जाता। किंतु जिन विचारशीलोंको अज्ञ, सदोष, कल्पित, सर्वज्ञके आज्ञापिस उपदेश में घोला होजानेकी शंका होरही है, उनके द्वारा उस सर्वशको ढूंढने की आवश्यकता न होगी। कोई भी विचारशील वादी सदोष और प्रतिज्ञान करानेवाले पुरुषको तत्रोपदेशकी आम्नाके न टूटने कारण नहीं मानता है । भावार्थ --- सदोष ज्ञानीसे समीचीन तत्वोंके उपदेशकी सन्तान नहीं चढ़ सकती है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
यदि पुनर्न योगिनः पूर्वोपाचो विपर्ययोऽस्ति नापि दोषस्तस्य क्षणिकत्वेन स्वका थमदृष्टं निर्वयं निवृत्तेः, किं तदृष्टमेव तत्कृतमास्ते तस्याक्षणिकत्वादन्त्येनैव कार्येण विरोधित्वाचत्कार्यस्य च जन्मफलानुभवनस्योपभोगेनैव निवृत्तेस्ततः पूर्व तस्यावस्थिति. रिति मतं, तदा तवनानोत्पत्तेः प्राक्तस्मिन्नेव जन्मनि विपर्ययो न स्यात्पूर्वजन्मन्येव तस्य निवृत्तत्वात्, तद्वदोषोपीत्यापतितं, तत्कृतादृष्टस्यैव स्थितेः न चैतद्युक्तं, प्रतीतिविरोधात् ।
फिर यदि आप यों कहेंगे कि तत्त्वोंको जाननेवाले योगी पुरुषके पहिले जन्म ग्रहण किया हुआ विपर्ययज्ञान नहीं है और न उनके कोई राग आदिक दोष भी है। क्योंकि विपर्यय और दोष तो आत्माके विशेष गुण हैं । विभु द्रव्योंके प्रत्यक्ष करने योग्य ज्ञान, सुख, दुःख आदिक विशेष गुण क्षणिक होते हैं। " योग्यविभुविशेषगुणानां स्वोत्तरवर्तियोग्यविभुविशेषगुणनाश्यत्वनियमात् " इससे वे दो क्षण ठहरकर तीसरे क्षणमै नष्ट हो जाते हैं। अतः वे अपने कार्य पुण्य, पाप, को पैदा करके शीघ्र ही निवृत्त हो जाते हैं, तब तो शेष क्या रह जाता है। इसका उत्तर यह है कि उनका किया हुआ पुण्यपाप ही आत्मामें विद्यमान रहता है। क्योंकि उस पुण्य, पाप गुणको क्षणिक नहीं माना गया है । वे प्रत्यक्ष योग्य नहीं है । पहिले सञ्चित किये हुए पुण्यपापोंका अपने अंतिम कार्यके साथ विरोध है । भावार्थ-पुण्य पाप अपना कार्य कुछ दिनोंतक या देरतक करते करते जब अंतका कार्य कर चुकते हैं, उस अंतिम कार्यसे उन पुण्य पापोंका नाश हो जाता है। अतः योगीके भी पूर्वसंचित कोसे उत्पन्न हुए जन्म लेकर फल भोगनारूप उपमोगों करके ही उस पुण्यपापकी निवृत्ति हो सकेगी । अत: तत्त्वज्ञान हो जानेपर भी जबतक वर्तमान मनुष्य जन्म रहता है, तबतक उससे पहिले कालम योगीकी स्थिति बनी रहती है। और वे निदोष सर्वज्ञ शरीरवचनधारी होकर विनय करनेवाले जीवोंके लिये तत्वोपदेश करते हैं। इस प्रकार तुम्हारा मंतव्य है, तब तो हम जैन कहते हैं कि सब तो तत्त्वज्ञान की उत्पत्तिसे पहिले उस अहीत जन्ममें ही विपर्यय ज्ञान न रह सकेगा। क्योंकि वह तो पूर्वजन्ममें ही निवृत्त हो चुका है और वैसे . ही उस जन्ममें राग आदिक दोष भी नहीं बनेंगे, यह बात आपके कहनेसे आपडती है। आप तो उस जन्ममें केवल पूर्वजन्मके उन विपर्यय और रामसे किये गये अष्टकी ही स्थिति मानते हैं। किंतु यह आपका मानना तो युक्त नहीं है । पण्डिताईके पहिले मूर्खता अवश्य है । तत्त्वज्ञानसे पहिले मी विपर्यय, राग, आदि दोषोंको न स्वीकार करना यह प्रतीतियोंसे विरुद्ध है। किसी निर्णीत किये गये कार्यकारणभावका, व्यक्तिकी अपेक्षासे, भंग नहीं होता है । सेठके घरकी आग ठण्डी हो और दरिद्रके घरकी आग गरम होवे, पेसा नहीं है। सूर्य तथा चन्द्रमाको घाम और चांदनी जैसे राजाके महलों में है, वैसी ही निर्धनोंकी झोंपडियों में है। चाहे कोई मी परमपूज्य व्यक्ति क्यों न हो तत्त्वज्ञानके पहिले उसके दोष और विपर्यय अवश्य विद्यमान रहेंगे। क्योंकि
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तत्त्वाचिन्तामणिः
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आत्मामें उनका कारण बैठा हुआ है कार्यकारणमाव पक्षपात नहीं चलता है। कारण अवश्य कार्योंको उत्पन्न करेगा आप नैयायिकोंके यहां विना फल दिये कमै झडना नहीं माना गया है ।
___ यदि पुनः पूर्वजन्मविपर्ययादोषस्ततोप्यधर्मस्तस्मादिह जन्मनि मिध्यामानं चतोऽपरो दोषस्वतोप्यधर्मस्तस्मादपरं मिथ्याधानमिति वावदस्य संवानेन प्रवृत्तिवित्तत्वज्ञानं साक्षादुत्पयते इति मतं, तदा तवज्ञानकालेऽपि तत्पूर्वानन्तरविपर्यासाहोपोत्पतिस्ततोप्पधर्मवस्तोऽन्यो विपर्यय इति कुतस्तत्वज्ञानादनागतविपर्ययादिनिवतिः ।
फिर भी यदि आप यो मान कि पहिले जन्मके मिथ्याज्ञानसे राग, द्वेष, उत्पन्न होगे और उन दोषोंसे आलामे पाप पैदा होगा । उस पापसे इस जन्ममै फिर मिथ्याज्ञान होगा। उस मिय्या ज्ञानसे दूसरा दोष, उससे भी पाप, फिर उस पापसे भी तीसरा मिथ्याशान इस प्रकार तद्भवमोक्षमामीके भी तबतक संसानरूपसे मिथ्याज्ञान आदिकी प्रवृत्ति होती रहेगी, जबतक कि योगीक साक्षात् प्रत्यक्ष करनेवाला तत्वोंका ज्ञान उत्पन्न होवेगा, अर्थात् अबतक तत्वोंका ज्ञान न होगा, सबतक धारा चलेगी। पीछे संतान रुक आवेगी। आप नैयायिक ऐसा मानेगे, तब तो तत्वज्ञानके समयमें भी कार्यकारणभावसे चले आये उस अव्यवहित पूर्ववर्ती विपर्ययज्ञानसे दोषोंकी उत्पति होगी
और उन दोषोंसे मी अधर्म उत्पन्न होगा और उस अधर्मसे फिर एक निराला विपर्ययज्ञान पैवा होगा । इस प्रकारकी पास अनंतकालतक चलती रहेगी। आप बिना फल दिये हुए पापका नाश मानते नहीं है । कारण है तो कार्य अवश्य होगा। भला ऐसी दशा तत्त्वोंके ज्ञानसे भविध्यमे होनेवाले मिथ्याज्ञान, दोष, पुण्य, पाप, पुन: जन्म लेना आदि अनेक प्रकारके दुःखोंकी निधि कैसे हो सकेगी: आप नैयायिक ही इसका उसर दो ।
वितथामहरागादिप्रादुर्भावनशक्तिभृत् । मौलो विपर्ययो नान्त्य इति केचित्प्रपेदिरे ॥ १०१ ।।
कोई कोई नैयायिक यो समझे हुए हैं कि पहिला मूलभूत जडका विपर्ययज्ञान तो अखत्म तत्का झूठा शान कराना दल, राग, पाप, दुःल, जन्मलेना आदि शास्त्रारूप कार्योंके प्रकट करानेवाली शक्तिको धारण करता है। किंतु अंतमें होनेवाला विपर्ययज्ञान तो दोष, पाप, आदिको उत्पन्न नहीं करा सकता है। भावार्य---कुदेवको देव समझना, अतत्त्वको तत्व समझना आदि चगकर किये गये विपर्यास तो राग, पाप, पुनर्जन्म आदिके कारण हैं, किंतु अंतका फलरूप विपयेय ज्ञान फिर राग आदिकी संततिको नही चलाता है, जैसे कि जैनोंको भी दृट्यकर्मसे भावकर्म और मावकर्भसे द्रव्यकर्म की धाराका प्रबाह अंतमें तोडना पडता है । इस प्रकार कोई समझ बैठे हैं।
मौल एव विपर्ययो वितथाग्रहरागादिप्रादुर्भावनशक्तिविभ्राणो मिथ्याभिनिवेशात्मकं दोषं जनयति, स चाधर्ममधर्मश्च जन्म तच्च दुश्वात्मकं संसारं, न पुनरन्त्यः 69
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
क्रमादपकृष्यमाणतज्जननशक्तिकविपर्ययादुत्पन्नतज्जननानिरहितोऽपि यतनवानकाले मिथ्याभिनिवेशात्मकदोषोत्पचिस्ततोप्यधर्मादित्यचेतेति केचित्संप्रतिपनाः।
मूसमें उत्पन्न हुआ विपर्यय ज्ञान ही झूठे अमिनिवेश, राग, पाप, आदिके उत्पन्न करानेकी शक्तिको धारण करता हुआ मिथ्या ४४ करना, रागद्वेष करना रूप दोषोंको उत्पन्न कराता है और वह दोष अधर्मको पैदा करता है। अधर्म जन्मको और वह जन्म लेना तो अनेक दुःख स्वरूप संसारको पैदा करा देता है। किन्तु शक्तिहीन होरहा अन्तका विपर्ययज्ञान फिर दोष आदिककी घाराको नहीं चलाता है। क्योंकि कमसे कमती कमी हो रही है उन दोष आदिकको जन्म करानकी शक्ति जिनकी, ऐसे विपर्ययज्ञानोंसे कुछ धाराके पश्चात् अन्तम ऐसा विपर्यय भी पैदा होता है कि उन दोष विपर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिसे सर्वथा रहित है। अर्थात् जैसे कि हम गोली या रेला फेंकते हैं अथवा कुलाल चाकको घुसाता है । यहां वेगके द्वारा फिकना और धूमनारूप क्रियाओंकी धारा चलती है । किन्तु अंसका वेग क्रियाको. पैदा नहीं करता है। वहींपर डेल गिरजाना है और चाक धमजाता है । अतः सिद्ध होता है कि अंतका विपर्यय पुनः धाराको चलानेकी शक्तियोंसे रहित है । अतः पुनः दोष आदिको घारा तत्त्वज्ञानीक नहीं चलेगी। जिससे कि आप जैनलोग तत्वज्ञान के समयमें भी झूठे मामहरूप दोषोंकी उत्पत्ति और उससे भी अधर्म तथा उस अर्मसे जन्म आदि उत्पन्न होंगे, इस प्रकारका आपादन कर सके । ऐसा समझकर कोई नैयायिक विश्वास कर बैठे हैं । अब आचार्य कहते है कि:
तेषां प्रसिद्ध एवायं भवहेतुस्त्रयात्मकः । शक्तित्रयात्मतापाये भवहेतुत्वहानितः ॥ १०२ ॥
उन नैयायिकोंके यहां तो यह बड़ी अच्छी तरह प्रमाणोंसे सिद्ध हो गया कि संसारका कारण भी मिथ्यादर्शन आदि तीनरूप ही है। तीन सामर्थ्य स्वरूपपना न मानने पर तो अकेले विपर्ययमें संसारके कारणपनेकी हानि हो जावेगी।
य एवं विपर्ययो मिथ्याभिनिवेशरागायत्पादनशक्तिः स एव मवहेतुर्नान्य इति वदतां प्रसिद्धो मिथ्यादर्शनशानचारित्रात्मको भवतुर्मिथ्याभिनिवेशभरेव मिथ्यादर्शनस्वान्मिध्यार्थग्रहणस्य स्वयं विपर्ययस्य मिथ्याज्ञानस्वाद्रागादिप्रादुर्भवनसामर्थ्यस्व मिथ्याचारित्रत्वात् ।
जो ही विपर्यास ज्ञान झंठा आग्रह, रागभाव, आदिकोंके उत्पन्न करानेकी शक्तिको रखता है, वही मिख्याज्ञान संसारका कारण है । दूसरा अंतमें होनेवाला मिस्याज्ञान तो संसारका कारण नहीं है । इस प्रकार कहनेकाले नैयायिक, वैशेषिकोंके मतमें भी यह प्रमाणसे सिद्ध हो चुका कि
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तलापियामणिः
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संसारका कारण मिच्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप है। क्योंकि विपर्यासमें लगी हुयी मिथ्या अभिनिवेशरूप शक्तिको ही मिथ्यादर्शनपना है तथा झूठे अर्थोंको इटसहित जानलेना स्वयं विपर्ययरूप तो मिथ्याज्ञान है ही, और विपर्ययमें विद्यमान राग, द्वेष, आदिकको प्रगट करानेकी शक्तिको मिथ्याचारित्र कहना चाहिये । इसप्रकार अभेदको ग्रहण करनेगली द्रव्यदृष्टिस तीन शक्तियुक्त मिथ्याज्ञान ही मिथ्यावर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप है। तथा च मोक्ष और संसारका मार्ग तीन संख्यावाला सिद्ध हुआ ।
ततो मिथ्याग्रहावृत्तशक्तियुक्तो विपर्ययः । मिथ्यार्थग्रहणाकारो मिथ्यात्वादिभिदोदितः ॥ १०३ ॥
उस कारण झूठा अन्धविश्वास, झूठा मानना और झूठी क्रिया करना इन तीन शक्तियोंसे या मिथ्या, अभिनिवेश और मिथ्याचारित्र इन दो शक्तियोंसे सहित होरहा विपर्ययज्ञान ही मिय्या मतस्वरूप अभाको ग्रहण करने का उल्लेख करता हुमा पर्यायाथिक नयकी अपेक्षासे मिथ्याव आदि यानी मिय्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीन मेदोंसे कहा जाता है ।
न हि नाममात्रे विवादः स्याद्वादिनोऽस्ति कचिदेकनार्थे नानानामकरणस्याविरोधात् । तदर्थे तु न विवादोऽस्ति मिथ्यात्वादिभेदेन विपर्ययस्य शक्तित्रयात्मकस्पेरणात् । ___अकेले शब्दके मेद हो जानेसे केवल नाममें स्थाद्वादी लोग विवाद नहीं करते हैं। क्योंकि किसी एक अर्थमें भी अनेक मिन्न भिन्न प्रकारके नाम कर लेनेका कोई विरोध नहीं है। एक पदार्थका कतिपय नामोंसे वाचन हो जाता है । किन्तु उसके वाच्य अर्थमें कोई झगडा नहीं है । प्रकृतमें तीन सामोसे तवारमक होरहे विपर्ययको नैयायिकोंके द्वारा मिध्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके भेदसे ही निरूपण किया गया है। वह और अलंकारोंसे सहित देवदनका कहना और पृथकरूपसे वस्त्र, अलंकार और देवदत्त इन तीनोंका कहना एक ही प्रयोजनको रखता है । अत्यन्त सूक्ष्म अन्सरका इस प्रकरणमें विचार नहीं है । अतः प्रेरणा अनुसार तीनको संसारका मार्गपना नैयायिकोंने इष्टकर लिया समझना चाहिये ।।
तथा विपर्ययज्ञानासंयमारमा विबुध्यताम् ।
भवहेतुरतत्त्वार्थश्रद्धाशक्तित्रयात्मकः ॥ १०४ ॥
जिस प्रकार केवल मिथ्याज्ञानको संसारका कारण कहनेवालोंको अर्थापत्तिके द्वारा प्रेरित होकर तीन प्रकारसे संसारका मार्ग मानना पडता है, वैसे ही विपर्ययज्ञान और असंयम रूप दो को 'संसारका मार्ग माननेवालोंके द्वारा भी संसारका कारण अतत्त्व अर्थोकी श्रद्वारूप शक्तियुक्त दो को कारण माननेसे तीन प्रतिवरूप ही संसारका कारण माना गया समझ लेना चाहिये ।
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५.८
सत्वा चिन्तामणिः
यावेव विपर्ययासंयमौ वितयार्थश्रद्धानशक्तियुतौ मौलो तावेव भवसंतानप्रादुर्भावनसमर्थौ नान्त्यो प्रक्षीणशक्तिकाविति बुवाणानामपि भवतः यास्मकस्तथैव मत्स्येतथ्यो विशेषामावाद इत्यविवादेन संसारकारणत्रित्वसिदेन संसारकारणत्रित्वानुपपतिः।
जो ही विपर्यय और असंयम ( अवैराग्य ) झूठे अर्थोके श्रद्धान करनेकी शक्तिसे सहित होते हुए मूलकारण संसारक माने गये हैं, वे दोनों ही जब मिथ्याश्रद्धानकी शकिसे युक्त होंगे तब तो संसारकी संतानको भविष्यमे उत्पन्न कराने के लिये समर्थ है। किंतु जब उनकी शक्ति कमसे घटती घटती सर्वथा नष्ट हो जावेगी, तब अंतके विपर्यय और अवैराग्य पुनः संसार दुःस पाप आदिकी धाराको नहीं चलायेंगे । इस प्रकार कहनेवाले बौदोंको भी संसारका कारण उस ही पकारसे सीन स्वरूप निर्णय कर लेना चाहिये । क्योंकि मिथ्याश्रद्धान-युक्त दो को और मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन सीनको संसारका कारण कहने में कोई अंतर नहीं है । शाकसे पूरी, कचौडीको खाना तथा शाक, पूरी, कचौडी इन तीनको खाना ये दोनों एक ही बात हैं । इस प्रकार झगडा करनेके बिना ही संसारके कारणोंको तीनपना सिद्ध हो जाता है । इस कारण मोक्षमार्गके समान संसारकारणको भी तीनपना असिद्ध नहीं है।
युक्तितश्च भवतोस्रयात्मकत्वं साधयमाहायुक्तियोंसे भी संसारके कारणों को तीनस्वरूपपनेका साधन कराते हुए ग्रंथकार कहते हैं । मिथ्यागादिहेतुः स्यात्संसारस्तदपक्षये ।
क्षीयमाणत्वतो वातविकारादिजरोगवत् ॥ १०५॥
संसार ( पक्ष ) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन सीन हेतुओंका कार्य होना चाहिये (साध्य ) । क्योंकि उन मिथ्यादर्शन आदिके क्रम क्रमसे क्षय होनेपर संसार भी कम कमसे क्षीण होता जारहा देखा जाता है ( हेतु)। जैसे कि वात, पित्त, कफके विकारों आदिसे उत्पन्न हुए रोग अपने निदानोंके क्षय हो जानेसे क्षीण हो जाते हैं ( अन्वयदृष्टांत )।
यो यदपक्षये शीयमाणः स तदेतुर्यया वातविकारायपक्षीयमाणो वातविकारादिको रोगः मिथ्यादर्शनशानचारित्रापक्षये धीयमाणश्च संसार इति । अत्र न तावदयं वासिद्धो हेतुः मिथ्यादर्शनस्यापक्षयेऽसंयतसम्यग्दृष्टेरनन्तसंसारस्थ क्षीयमाणत्वसिद्धः संख्यातभवमात्रतया तस्य संसारस्थितेः।
यह बनी हुयी व्याप्ति है कि जिसके क्रमसे क्षय होनेपर जो क्षयको पाप्त होता नामा है, वह उसका कारण समझा जाता है। जैसे कि वायुके विकार, पित्तका प्रकोप आदि कारणों के
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ताचिन्तामणिः
क्षय होजानेसे बिगड़े हुए वात या पित्तके प्रकोप से उत्पन्न हुए पीडा, अर, लेष्म, आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रके पूर्णरीत्या क्षम हो जानेपर संसार नष्ट होता हुआ देखा जाता है । इस कारण वे तीन संसारके कारण हैं । यह पांच अवयववाला अनुमान है । पहिले यह देखना है कि इस अनुमानमें दिया गया मिथ्यादर्शन आदिके क्षय होनेपर संसारका क्षय होते जानारूप हेतु हम जैन सिद्धान्ती-वादीको असिद्ध नहीं है । स्याद्वादसिद्धान्त के अनुसार मिध्यादर्शनका चौथे गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टिजीवके उपशम, क्षय, या क्षयोपश्चमस्वरूप नाश हो जाने पर अनन्तकाल तक होनेवाले संसारका क्षय हो जाना सिद्ध हो जाता है। जिसे एक बार सम्यग्दर्शन हो गया है, वह परिवर्तन काळतक संसार में ठहरेगा । पश्चात् अवश्य मुक्तिको प्राप्त करेगा। अतः उसकी केवल संख्यात भवको धारण करने रूपसे ही संसारमें स्थिति है । अर्थात् अनन्तानन्त भवकी अपेक्षा संख्यात, असंख्यात, या छोटा अनन्तके केवळ अंगुलिपर गिनने के समान संख्यात ही समझने चाहिये | अधिकसूक्ष्म वाठोंको नहीं समझनेवाले प्रतिवादिओंके सन्मुख मोटी मोटी बातें कह दी जाती है । अन्यथा एक झगडा निर्णीत नहीं हुआ, तबतक दूसरा तीसरा और खडा हो जाय। कुतर्किओं को समझाना नितान्त कठिन है। अथवा क्षायिक सम्पदृष्टि जीव तो अधिकसे अधिक बार भने अवश्य संसारका नाश कर देता है । अतः संसारका काल अत्यन्त न्यून हो जानेसे देतु पक्षमें रह जाता है। असिद्ध स्वाभास नहीं है।
तत एव मिथ्याज्ञानस्यापक्षये सम्यग्ज्ञानिनः संसारस्य श्रीयमाणत्वं सिद्धम् ।
५०९
MI
उस ही कारण से चौबे गुणस्थानमें मिथ्याज्ञानके विघट जानेपर सम्यम्ज्ञानवाले जीवके संसारका क्षयकी तरफ उन्मुख होनापन सिद्ध है । सम्बग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ होते हैं । अतः सम्यग्ज्ञानी जीव भी जिनदृष्ट संख्यात जन्मोंसे अधिक संसारमें नहीं ठहरता है। अपूर्वकरण अवस्थाके मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिदशा से ही कमोंकी असंख्यगुणी निर्जरा होना प्रारंम्भ हो जाता है । सम्यक् चारित्रवतस्तु मिथ्याचारित्रस्यापक्षये तद्भवमा संसार सिद्धेर्मोक्षसम्प्राप्तेः सिद्धमेव संसारस्य श्रीयमाणत्वम् ।
तथा सम्यकूचारित्र वाले जीवके तो मिथ्याचारित्र के सर्वथा क्षय हो जानेपर केवल उसी जन्मका संसार शेष रहगया सिद्ध है । क्षायिक चारित्रके हो जानेपर उसी जन्म में मोक्षकी समीचीन प्राप्ति होजाती है । अतः संसारका क्षय हो जाना यहाँपर अच्छी तरहसे घट गया। इस कारण स्वाद्वादियों हेतु सिद्ध है। तीन गुणोंसे सीन दोष नष्ट हो जाते हैं और संसारका क्षय होना क्रमसे चालू होकर पूर्णताको प्राप्त हो जाता है ।
न चैतदागममात्रगम्यमेव यवोऽयं हेतुरागमाश्रयः स्यात् तद्ग्राहकानुमानसद्भावात् । तथा हि-
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तत्वार्यचिन्तामणिः
यह बात केवल जैनोंके शास्त्रों में श्रद्धा रखनेवाले यज्ञाप्रधानियों को ही समझने योग्य है । परीक्षक लोग ऐसे संख्यात जन्ममें मोक्ष जानेकी पाधपर विश्वास नहीं करते हैं, यह नहीं समझ बैठना, जिससे कि हमारा हेतु कोरे आगमकी बातें कहनेवाला होनेसे आगमाश्रम दोषसे दूषित हो जावे | युक्तियोंसे सम्वाद होते होते यदि अपने अपने माने हुए आगमोंकी बात कह दी जब और यदि उसको से पुष्ट न किया जावे तो आगमाश्रय दोष हो जाता है। किंतु हमारे उस हेतुका अनुग्रह करनेवाला दूसरा अनुमान प्रमाण विद्यमान है । अतः आगमाश्नम दोष नहीं है । उसी अनुमानको प्रसिद्ध कर दिखलाते हैं । दत्तावधान होकर सुनिये ।
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मिथ्यादर्शनाद्यपक्षये श्रीयमाणः संसारः साक्षात्परम्परया वा दुःखफलत्वाद्विषमविषभपातिभोजनादिवद, यथैव हि साक्षाद्दः खफलं विषमविषभक्षणं, परम्परयातिभोजनादि, तन्मिथ्याभिनिवेशाद्यपक्षये तवज्ञानवतः क्षीयते ततो निवृत्तेः तथा संसारोऽपि ही स्थानपरिग्रहस्य दुःखफलस्य संसारत्वव्यवस्थापनत्वात् न च किञ्चित्साक्षात्परं परया का विफलं मिग्लाघ्नयदेवदीयाएं कटं येन हेतोर्व्यमिचारः स्यात् ।
संसार ( पक्ष ) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इनके उपशम, क्षयोपशम और क्षयरूप नाश होनेपर क्षयको प्राप्त हो रहा है ( साध्य ) क्योंकि चतुर्गतियों में जन्म, मरण करना रूप संसार अव्यवहित उत्तरकालमें या परंपरासे दुःखरूप फलको उत्पन्न करने का बीज है । ( हेतु ) जैसे कि अत्यंत मगर हालाहलका भक्षण करलेना या प्राणापहारी वस्त्रोंसे कट, मिद, जाना तथा अधिक मोजन कर लेना अथवा अति परिश्रम करना आदिका फळ दुःख भोगना है । ( दृष्टांत ) अर्थात् जैसे ही बढे विषके भक्षणसे अतिशीघ्र ही घबडाना, विकल हो जाना, पीडा होना, और अंतमें बुरी तरहसे मौत हो जाना, ये दुःखरूपी फल प्राप्त होते हैं । या बाण, गोली और तलवारके लगनेसे अव्यवहित कालमें मृत्युपर्यंत अनेक कष्टरूप फल शीघ्र ही मोगने पढते हैं । तथा मुखसे कहीं अधिक भोजन करनेपर या शक्तिसे अधिक परिश्रम आदि करनेपर कुछ देर पीछे ज्वर, शरीरपीडा, आदि रोगोंका स्थान बनकर कुछ दिन बादतक परम्परासे जीवको दुःस्वरूप फल भोगने पडते हैं, यानी उस समय दुःख नहीं मी प्रतीत होय किंतु कालांतर में वे सीन दुःखके कारण हैं। किंतु इन दुःख देनेवाले हालाहल, अतिभोजन आदिका समीचीन ज्ञान, श्रद्धान हो जाने से इनका कोई माचरण नहीं करता है अर्थात् विषमक्षण आदि दुःख देनेवाली क्रियाओंका क्षय हो जाता है । दृष्टांत में हेतु रह गया; साध्य भी रह गया । जो कोई आत्मघाती क्रोधके वश विषको खा लेता है या कोई कोलुप, प्राणी मोदक आदिको अधिक स्वा लेता है, उसके मिध्याश्रद्धा और मिथ्याज्ञान है । अतः विष खानेका या अधिक खानेका उसके क्षीयमा
पना मी नहीं है, वैसे ही उन मिध्यादर्शन, कुशान और कुचारित्रकी हानि होते होते ज्ञा
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याचिन्तामणिः ,
जीवके संसार क्षयको प्राप्त हो जाता है। उन विषमक्षण आदि दोषोंसे जैसे तत्त्वज्ञानीकी निवृत्ति हो जाती है, वैसे ही उसके संसारका भी कमसे क्षय होना सिद्ध हो जाता है । अनेक प्रकारके दुःख भोगना है फल जिसका, ऐसे निकृष्टवान शरीरका ग्रहण कर लेना ही संसार है। भावार्थविद्वानोंने सम्पूर्ण दुःखोंके मूलभूत शरीरग्रहणको ही संसार हो जानेकी व्यवस्था की है। अन्यत्रहित रूपसे अथवा परम्परासे दुःवरूप फलको उत्पन्न करनेवाला ऐसा कोई भी कारण नहीं देखा गया है, जो कि मिथ्यावर्शन आदिके शनैः क्षय होनेपर क्रम क्रमसे क्षयको प्राप्त होमवाला न होवे, जिससे कि हमारे दुःखफलस्व हेतुका व्यभिचार हो जाये । अर्थात् हेतु व्यभिचार दोषसे रहित है । ज्ञानी जीव जिसको दुःख फल देनेवाला समझ लेता है, उसके कारणोंका नाश करता हुआ उसको भी शीघ्र नष्ट कर देता है।
___ गण्डपाटनादिक दृष्टमिति चेत् न, तस्य बुदिपूर्व चिकित्सेत्यनुमन्यमानस्य सुखफलत्वेनाभिम्तमा दुःखफारसिद्धः, नितीनागसिगर्वस्य दुःखफलस्यापि पूर्वोपासमिध्यादर्शनादिकृतकर्मफकत्वेन तस्य मिथ्यादर्शनाधनपक्षयेऽक्षीयमाणस्वसिद्धेः।
यदि कोई यो आक्षेप करे कि दूषित फोडे में चीरा लगवाना, पीहा देनेवाले छातको निकवाना, गल जानेपर अंगुलीका कटवाना भादिक दुःख फलवाले कारण देखे गये है। किंतु वहां साध्य नहीं है अर्थात् ज्ञानी, श्रद्धानी जीव भी वावमें चीरा लगवाना आदि कियाओंका आचरण करते हैं। यहां विषमक्षण आदि क्रियाके क्षय होजानेके समान क्षय होजाना साध्य नहीं रहा। अतः जैनोंका हेतु व्यभिचारी हुआ। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना। क्योंकि पाव चीरने पादिमे दुःखफसल नहीं है। किंतु उसका फल भविष्यमें सुख होना है। अतः हिताहितको परखने वालेकी बुद्धिपूर्वक चिकित्सा है ऐसा माननेवाले जीवके फोदा चिरवाने आदिमें सुखरूप की पाति होना अभीष्ट है। उसमें दुःखरूप फल देनापन असिद्ध है। हेतुफे न रहनेपर साध्यके न रहनेसे व्यभिचार दोष नहीं होता है । हां 1 छोटे बच्चे पशु आदि जीवोंके बुद्धिपूर्वक चिकित्साका विचार न होनेपर फोडा खोसडालने, स्वाज खुजाने आदिमें दुःखरूपी फलको देनेवामपन हेतु रहजाता है। वह पहिले जन्ममें ग्रहण किये मिथ्यास्त्र आदिसे किये गये काँका फल है। अतः उस दुःखरूप फलको मिथ्यादर्शन आदिके नहीं झर होजानेपर क्रमसे नहीं क्षीण होनापन सिद्ध है । मावार्थबचे आदिकोंके मिथ्यादर्शन आदिको हेतु मानकर दुःख भोगना फल सिद्ध है। यहां साध्य के न रहनेपर हेतुका रहना नहीं पनता है । अतः हेतुमे कोई दोष नहीं है । मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञानके क्षय होनेपर जहां दुःख फलको पैदा करनेवालेपनका ज्ञान है, वह तत्त्वज्ञानीके अवश्य नष्ट होजावेगा। पालक या पशुको फोडे चीरने आदिमें दुःख फलस्वका ज्ञान तो है। किंतु उनके मिथ्याश्रद्धा, ज्ञानका क्षय नहीं हुआ है । अतः मिथ्यावर्शनके क्षय न होनेसे उनको दुःख देनेवाले कारणका क्षम नहीं होता है । मिथ्या मध्यवसायके क्षय होनेपर तत्त्वज्ञानीको जिस क्रिया दुःख
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तस्वार्थंचिन्तामणिः
फलस्व दीखता है, वह कारण अवश्य क्षयको प्राप्त होजाता है, जैसे कि विषभक्षण, अतिभोजन, आदि क्रियाएं विचारशील पुरुषोंके क्षपको प्राप्त होजाती है।
का क्लेशादिरूपेण तपसा व्यभिचार इत्यपि न मन्तव्यं तपसः प्रशमसुखफलत्वेन दुःखफलत्वासिद्धेः तदा संवेद्यमानदुःखस्य पूर्वोपार्जितकर्मफलत्वात् तपः फलत्वासिद्धेः ।
पुनः कोई दोष उठावे कि आप जैनोके दुःखफलत्व हेतुका कायक्लेश, केशलंचन, आतपन - योग, उपवास आदि दुःखफलको उत्पन्न करनेवाले इन तपःस्वरूप कारणसे व्यभिचार होगा। क्योंकि केशलुंचन आदि क्रियाओं में दुःखरूपी फलका जनकपना ( हेतु ) है। किन्तु मिथ्यादर्शन यादिके अपक्षय होनेपर श्रीयमाणपना ( साध्य ) नहीं है । प्रत्युत मिध्यादर्शन आदिके भ्यून होनेपर विचार शादी मुनिमहाराज कायक्लेश आदि क्रियाओंको बढाते जाते हैं। अन्यकार कहते है कि यह भी नहीं मानना चाहिये। क्योंकि कृपण होरहे आमाके गुणों का विकास करनेके लिये कायक्लेश, उपवास आदि किये जाते हैं । इन कियाओंके करनेसे साधुओंको शान्तिसुखरूपी फल प्राप्त होता है । अतः दुःख फलपना असिद्ध है। इन क्रियाओं का फल दुःख भोगना नहीं है । अन्यभा चलाकर स्वयं प्रेरणा से ये क्रियाएं क्यों की जाती ! अर्थात् जैसे कि सेवा धर्म का पालन करनेवाले परोपकारी पुरुषको स्वयंकेश उठाते हुए दूसरोंके दुःख, पीडा, आदिको मेटनेसे विलक्षण अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है । मुनिमहाराजकी वैयावृत्य करनेसे मक्त श्रावक आनन्दित होजाता है। वैसे ही स्वास्मकर्तव्य में दुःख प्रतीत नहीं होता है।आजीविका या पारितोषिककी अभिलावासे सेवावृद्धि करना शूद्रकर्म है। किन्तु परोपकारके लिये सेवाधर्म पालना आत्मीय धर्म है। परोपकारी पुरुषको या आत्मोपकारी तपस्वीको आत्मीयकर्तव्य के अनुसार शरीरको क्रेश करनेवाली क्रियाओंमें दुःखका अनुभव नहीं होता है । दुःखको दुःख समझकर समता भावोंसे सह सेना जघन्य मार्ग है और दुःखको सुख समझकर सहना मध्यममार्ग है। किंतु उस दुःखका ज्ञान (वेदन ) ही न होना उत्तम मार्ग है । सुकुमाल मुनीश्वरने श्रृंगालीके द्वारा मक्षण किये जानेपर मी उस दुःखका वेदन नहीं किया था | अन्यथा उनको उपशम श्रेणी नहीं हो सकती थी । युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन इन तीन पाण्डव मुनीश्वरोंने घोर उपसर्ग सहते हुए मी उषर लक्ष्य नहीं दिया था, तभी तो क्षपक श्रेणीपर भारूड होकर केवलज्ञान प्राप्त कर किया था । दुःख, पीडा, आदिकी ओर उपयोग कगानेसे और उसमें स्मृतिमन्वाहार करनेसे ही दुःखका वेदन होता है। गर्मिणी श्रीको पुत्रके उत्पन्न करने, पोषण और मलमूत्रके घोने आदिमें मोढा लेश नहीं है किंतु महान क्लेश है। उसको क्षुषा, पिपासा, शीत, उष्ण आदिकी वेदनायें सहनी पडती है। बच्चे बीमार हो जानेपर मूंखसे कम खाना, उपवास करना, रसोंका त्यागकरना आदि मी पालन करने पडते हैं । फिर भी गर्मिणीको उन कवासे आभिमानिक सुखकी कल्पना करके अत्यधिक सुख प्राप्त होता है । अनेक वन्ध्या लिये उक्त दुःखोंको सहनेके लिये तरसती रहती हैं। व्यापारी, किसान आदिको मी
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अनेक दुःख
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सत्त्वाप चिन्तामणिः
सहने पड़ते हैं। वे घन, धान्यके उपार्जनका लक्ष्य कर मध्यमें आये दुःखोंको अज्ञात के समान भोग लेते हैं। इससे सिद्ध है कि दुःख होनेपर भी उत्तर उत्तम साध्यकी ओर लक्ष्य होने से दुःस्वका बेदन नहीं होता है तथा झूठे सङ्कल्प विकल्प करनेवाले, ठलुआ, चिन्ताशील, मनुष्योंको दुःख न होनेपर भी अनेक सम्भावित दुःख सताते रहते हैं। अतः दुःखवेदन करनेका इट अमिष्टकल्पनासे पनिष्ठ सम्बन्ध है । दुःख होना और दुःखका अनुभव करना दो आते हैं। उन मुनि महाराजोंको कायक्लेश, परीषह आदिसे होनेवाले दुःखोंसे उलटा अनुपम शान्ति मुख प्राप्त होता है । इसलिये वहां दुःखं फलख हेतुके न रहनेसे व्यभिचार दोष नहीं है । यदि किसी समय छठे गुणस्थानवर्ती मुनि महाराजके व्यथाजन्य दुःखवेदन ( अनुभव ) भी होजावे तो वह उस समय भोगा जारहा दुःख पूर्वजन्ममें इकट्ठे किये गये दुष्कर्मों का फल है । उस दुःखको कायक्लेश, उपवास, आदिरूप तपस्याका पाना असिद्ध है । अतः मा पूर्वोत्त दुःनालय हेतु निदोष है । मावार्थ-कायक्लेश, मादि तपके कार्यमें दुःखफलस्य नहीं रहता है, जिससे कि तपःक्रियाको ही क्षय कर देने का तत्त्वज्ञानीके प्रसंग आसा । जैसे विषमक्षण नहीं किया जाता है, वैसे तपः भी न किया जाता । मामिमानिक सुखको करनेवाले अनेक दुःखोंको भी जन सुख कह देते हैं तो फिर आस्मशुद्धि या मोक्षमार्गमें संलग्न करनेवाले तपश्चरणको तो दुःखहेतु कैसे भी नहीं कहा जासकता है।
मिथ्यादर्शनाधपक्षये शीयमाणश्च न स्यात् , इति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वमपि न साधनस्य शंकनीयं, सम्बग्दर्शनोत्पत्तावसंयतसम्यग्दृष्टेमिथ्यादर्शनस्यापक्षये मिथ्याज्ञानानुत्पत्तेस्तत्पूर्वकमिथ्याचारित्राभावाचनिबन्धनसंसारस्यापक्षयप्रसिद्धः, अन्यथा मिथ्यादर्शनादित्रयापक्षयेपि तदपक्षयाघटनात् ।
__ साक्षात् अथश परम्परासे दुःखफलको देनेवालापना हेतु रहजावे और मिथ्यादर्शन आदिके यथाक्रमसे शय होनेपर क्षयको प्राप्त होरहा संसार न होवे अर्थात् हेतु रहे और साध्य न रहपावे, इस प्रकार हेतुके अप्रयोजक होजानेसे हेतुकी विपक्षसे व्यावृत्ति होना संदिग्ध है । अतः जैनोंका हेतु संदिग्धन्यभिचारी है, यह भी शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होजानेपर चतुर्थ गुणस्थानवाले असंयत सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यादर्शनका हास होजाते सन्ते मिथ्याज्ञानकी उत्पति नहीं होपाती है । अतः उन मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानको पूर्ववर्ती कारण मानकर होनेवाले मिथ्याचारित्रका भी अभाव होगया है । इस कारण उन तीन कारणोंसे उत्पन्न हुए संसारका भी हास होना प्रसिद्ध है। जब कारण ही न रहा तो कार्य कहांस हो सकेगा। अमिके दूर होजानेपर उष्णता भी नष्ट होजाती है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकारोंसे माना जाता तो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीनकी हानि होते हुए भी उस संसारका क्रम हास होता नहीं बन सकता था। अतः हमारे हेतु अनुकूल तर्क है। जैसे कि धूम होवे और वहिन हो, ऐसा मापादन करनेपर कार्यकारणभावके मंग हो जानेका हर है, वैसे ही यहां 70
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तत्त्वार्थेचिन्तामणिः
मिथ्यादर्शन आदि तीनके साथ संसारका कार्यकारणभाव होना ही इतकी व्योजकता है। धीरे धीरे नाथ होते होते पूरे नाशके लिये अभिमुख हो जाना अपक्षयका अर्थ है ।
न च सम्यग्दृष्टे र्मिथ्याचारित्राभावात्संयतत्वमेव स्यान्न पुनः कदाचिद संयतत्वमित्यारेका युक्ता, चारित्रमोहोदये सति सम्यक् चास्त्रिस्यानुपपत्तेरसंयतत्वोपपत्तेः । कात्स्तो देशतो वा न संयमो नापि मिथ्यासंयम इति व्याहतमपि न भवति, मिथ्यागमपूर्वकस्य संयमस्य पञ्चाग्निसाधनादे मिथ्यासंयमत्वात् सम्यगागमपूर्वकस्य सम्यक्संयमत्वात् । ततोऽन्यस्य मिथ्यात्वोदयासच्चेऽपि प्रवर्तमानस्य हिंसादेरसंयमत्वात् ।
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यदि कोई यों आशक्का उठावे कि जैनोंके वर्तमान कथनानुसार सम्यग्दृष्टि जीवके चौथे गुणस्थानमें मिथ्याचारित्रके न रहने से संयमीपना भी हो जावे । फिर कभी भी चौथे गुणस्थानवालेको असंयतपना नहीं होना चाहिये । जब मिथ्याचारित्र न रहा तो महात्रतका धारण, समितियों का पालन, कपायका निग्रह, मन, वचन, कायकी उच्छृंखल प्रवृत्तियोंका त्याग, और इंद्रियोंका जयरूप संयमभाव हो जाना चाहिये | आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार किसीका शंका करना युक्त नहीं है। क्योंकि चौथे, पांचमे गुणस्थान में चारित्रगुण ( संयम ) का मोहन करनेवाले अमत्याख्या. नावरण और प्रत्याख्यानावरणका उदय हो रहा है। ऐसा होनेपर सम्यक्चारित्र गुण नहीं बन सकता है | अतः चौथे में इंद्रिय संयम और प्राण-संयमरूप विरति न होनेसे असंवतपना मन जाना सिद्ध है और पांच सांकल्पिक सबका त्याग हो जानेसे तथा स्थावश्वका त्याग न होनेसे "देशसंतपना है । जबतक प्रत्याख्यानावरणका ग्यारहवीं प्रतिमा भी मन्दतम उदय है, तबतक संयममात्र नहीं है। अंतः चौथे गुणस्थान में छट्ठे के समान पूर्णरूपसे संयम नहीं है और पांचवेके समान एकदेश से भी संयम नहीं है तथा पहिले गुणस्थान के समान मिथ्यासंयम भी नहीं है । इस प्रकार इन तीनोंका निषेध करनेसे व्याघात दोष भी नहीं होता है । भावार्थ- जैसे कोई कहे कि वह विशेष व्यक्ति पुरुष भी नहीं है और स्त्री भी नहीं है। यहां परिशेषसे वह जीव तीसरा नपुंसकवेदी माना जाता है । ऐसे ही संयम, देशसंयम और मिथ्यासंयम ये तीन ही अवस्थाएं होती तो दोके निषेध करनेपर तीसरेका विधान अवश्य हो जाता । युगपत् तीनोंका निषेध कर ही नहीं सकते थे। जैसे यह अमुक पदार्थ जड भी नहीं है । चेतन भी नहीं है। इस प्रकार दोनोंका निषेध करना अशक्य है। किंतु जैसे यह विवक्षित संसारी जीव देव नहीं, नारकी नहीं, सिर्यञ्च नहीं है । इन तीन निषेध करनेपर मो चौथा भेद मनुष्य रूप है, वैसे ही इन तीनों संयमोंसे रहित चौथी असंयम है । जो कि चौथे गुणस्थान में है अथवा जैसे मिध्यादर्शनमा पहिले गुणस्थान में है, सम्यक्त्र चोथे में है, मिला हुआ सम्यग्मिथ्यात्व मात्र तीसरे में है। किंतु इन तीनोंसे अतिरिक्त अनुभव ror मिथ्यात्व अवस्था दूसरे सासादन गुणस्थानमें है । वैसे ही पूर्णसंयम, देशसंयम और मियासंयमसे भिन्न मानी गयी चौथी असं रूप अवस्था चौथे गुणस्थान में है। झूठे खोटे शास्त्रोंके
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
अभ्यासपूर्वक कुमेषी, कुलिंगी, जिन संयमोंको पालते हैं वे मिध्यासंयम हैं । जैसे कि चारों दिशाओ आग जलाकर ऊपरसे सूर्य किरणों द्वारा संतप्त होकर पंच अभि तप करना, वृक्षपर उलटे लटक जाना, जीवित ही गंगा में प्रवाहित हो जाना, नख, केश बढाना आदि तो मिथ्याचारित्र है । और समीचीन सर्वज्ञोक्त आगमका अभ्यास कर उसके अनुसार अट्ठाईस मूलगुणों का धारण करना, अन्तरङ्ग तपको बढाना आदि जैन ऋषियोंके समीचीन संयम है । तथा मिध्यात्व और अनंतानुबंध का उदय न होनेपर भी प्रवृत्ति करनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टिके हिंसा करने, झूठ बोलने, आर्दिकी परिणति असंयमभाव है। यहां प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, गर्दा, निन्दा, अमूढदृष्टिता, वात्सल्य आदि गुण विद्यमान हैं । यह असंयम पहिले दोनों सम्यक् और मिध्यासंयमसे भिन्न है ।
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न चासंयमाद्भेदेन मिध्यासंयमस्योपदेशा भाषाभेद एवेति युक्तं, तस्य वातपःशलेनोपदिष्टत्वात् ततः कथञ्चिद्भेदसिद्धेः ।
feater है कि जीवके पांच भावों में औदयिक असंयत भावसे भिन्न होकर मिश्रासंयमका कहीं उपदेश नहीं है । इस कारण मिथ्याचारित्र और असंयमका अभेद ही मानना चाहिये । फिर चौथे में या तो मिथ्याचारित्रको मानो या संयमीपनको स्वीकार करो। अंधकार कहते हैं कि यह किसीका कइना युक्त नहीं है । क्योंकि असंयमसे भिन्न माने गये उस मिथ्याचारित्रका दूसरे स्थलोंपर छठे अध्याय में बालतपः शब्दसे उपदेश किया है । उस कारण मिथ्याचारित्र और असंयम किसी अपेक्षा से भेद ही सिद्ध है । दुःख, सुख, अदुःख, नोदुःख, अथवा संसार, असंसार, नोसंसार, त्रितयश्यपेत, ये अवस्थायें न्यारी न्यारी हैं ।
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न हि चारित्रमोहोदय मात्राद्भवच्चारित्रं दर्शनचारित्र मोहोदयजनितादचारित्रादभिन्नमेवेति साधयितुं शक्यं सर्वत्र कारणभेदस्य फलाभेदकत्वप्रसक्तेः । मिथ्यादृष्ट्ासेयमस्य नियमेन मिथ्याज्ञानपूर्वकत्वप्रसिद्धेः सम्यग्दृष्टेरसंयमस्य मिथ्यादर्शनज्ञानपूर्वकविरोधात, विरुद्धकारणपूर्वकतयापि भेदाभावे सिद्धांतविरोधात् ।
चौथे गुणस्थान में दर्शनमोहनीयके संबन्ध रहित होकर केवल चारित्रमोहनीयके उदयसे होता हुआ स्वरूपाचरण चारित्र तो पहिले गुणस्थानमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके उदयसे पैदा हुए मिथ्याचारित्र अभिन्न ही है, इस बातको सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं होना चाहिये । यानी कैसे भी उक्त बातको सिद्ध नहीं कर सकते है । अन्यथा सभी स्थानोंपर कारणोंका भिन्न होना कार्य भेदको सिद्ध न कर सकेगा। जिस चौथे गुणस्थानके अचारित्र ( स्वरूपाचरण ) भाव केवल चारित्रमोहनीयका उदय है और पहिले गुणस्थान के अचारित्र ( मिथ्याचारित्र ) में दर्शन मोहनीयसहित चारित्रमोहनीयका उदय है । ये दोनों भला एक कैसे हो सकते हैं ! | frevieटीका असंयम नियमसे मिथ्याज्ञानपूर्वक प्रसिद्ध हो रहा है और सम्यग्दृष्टिके असंयमको
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानको कारण मानकर उत्पन्न होनेपनका विरोध है । मे दोनों दोष चौथेमें नहीं है । अतः दोनों एक नहीं है। विरुद्ध कारणों के पूर्ववर्ती होनेपर भी उत्तर सममें उत्पन्न हुए कार्यों का यदि भेद होना न माना जायेगा तो सभी वादियों को अपने सिद्धान्तसे विरोध हो जावेगा । क्योंकि सभी परीक्षकोंने मिन्न भिन्न कारणों के द्वारा न्यारे न्यारे कार्योंकी उत्पत्ति होना इष्ट किया है। अतः पहिलेका असंयम भाव और चौधेका असंयमभाव न्यारा है। ज्ञानमें भी कुजानसे अज्ञानमाव भिन्न है । कुज्ञान दूसरे गुणस्थानतक है जब कि अज्ञान भाव बारहवे तक है।
कथमेव मिथ्यात्वादिवयं संसारकारणं साधयतः सिद्धान्तविरोधो न भवेदिति चेन्न, कालिमोहोहरे सरंगतौ सरगद्यमानयोरसंयममिथ्यासंयमयोरेकत्वेन विधक्षितत्वाच्चतुष्टयकारणत्वासिद्धेः संसरणस्य तत एवाविरतिशद्धेनासंयमसामान्यवाचिना बैधहेतोरसंयमस्योपदेशघटनात् ।
यहां किसीका तर्क है कि मिथ्या दृष्टिका असंयम और असंयत सम्यग्दृष्टिका असंयम अब भ्यारा है तो संसारके कारण चार हुए। फिर इस प्रकार मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीनको ही संसारका कारणपना साधते हुए जैनोंको अपने सिद्धांतसे विरोध क्यों न होगा ? बताइये? कारण कि चौथा असंयमभाव संसारका कारण स्त्रयं न्यारा माना जारहा है। मानार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उन दोनों भावोंका अन्तरंग कारण चारित्रमोहनीय है। उस कर्मके उदय होनेपर उत्पन्न होरहे अचारित्र और मिथ्याचारित्रकी एकरूपपनेसे विवक्षा पैदा होचुकी है ! अतः संसारके कारणोंको चारपना सिद्ध नहीं है । इस ही कारणसे तो मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगको बंधका हेतु बताते हुए आचार्य महाराजका सामान्यरूपसे कहनेवाले अविरति शब्दसे दोनों प्रकारके असंयमोंका उपदेश देना संघटित होजाता है । भावार्थ-सम्यक्चारित्र न होने की अपेक्षासे दोनों असंयम एक हैं। किंतु नका अर्थ पर्युदास
और प्रसज्य करनेपर दर्शन मोहनीयके उदयसे सहित अचारित्रको मिथ्याचारित्र कहते हैं और दर्शन मोहनीयके उदय न होनेपर अपत्याग्न्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणके उदयसे होनेवाले असंयरको अचारित्र कईदेते हैं।
सम्यग्दृष्टेरपि कस्यचिद्विपक्षणादिजनितदुःखफलस्य हीनस्थानपरिग्रहस्थ संसारस्य दर्शनान्मिध्यादर्शनज्ञानयोरपक्षये क्षीयमाणत्वाभावान कश्चिद्दाखफलत्वं मिध्यादर्शनज्ञानापक्षये क्षीयमाणत्वेन व्याप्तमिति चेन्न, तस्याप्यनागतानन्तानन्तसंसारस्य प्रक्षयसिदेः साध्यान्तःपातित्वेन व्यभिचारस्य तेनासम्भवात् ।
आक्षेपक फहता है कि किसी किसी सम्यग्दृष्टिजीवको भी विषके भक्षणसे या युद्ध शस्त्राघात हो जानेसे तथा श्रेणिक राजाका स्वयं अपघात करलेने आदिसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के
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सत्वाचिन्तामणिः
दुःख हैं फल जिसके, ऐसा हीनस्थान नारकशरीर आदिका ग्रहण करनारूप संसार होना देखा जाता है । यहां मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान के क्षय होनेपर भी संसारका क्षीयमाणपना ( साध्य ) नहीं रहा है । अतः व्यभिचार होजानेसे दुःखफलस्व हेतुकी मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानके अपक्षय होनेपर क्षीयमाणस्वरूप साध्य के साथ व्याप्ति ( अविनाभाव होना) कैसे भी सिद्ध नहीं हैं। ग्रंथकार करते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि उस सम्यग्दृष्टि के भी भविष्यमें होमेवाले अनन्तानम्त निकृष्ट खानाम जन्म मरणोंको धारण करना रूप संसारका प्रक्षय होना सिद्ध है। सम्यादृष्टि जीव भले ही शखाधात या आत्मघातसे कतिपय निकृष्ट शरीरोंको धारण करलेवे, फिर भी विषभक्षण, आत्मघात, आदिका क्षय होकर संसारका हास होते हुए संख्यात भवों में उसकी मोक्ष होना अनिवार्य है । श्रेणिक तो तीसरे भवसे ही मोक्ष प्राप्त करेंगे। अतः आपका दिया हुआ म्यभिचारका स्थल हमारे प्रतिज्ञावाक्य के अंतरंगमें प्रविष्ट होरहा है । अर्थात् वह भी साध्यकोहिमें पहा है । हेतुके रहजाने से किसी अपराधी सम्यग्दृष्टि के संसारमें भी क्षीयमाणपना रहजाता है । अतः उससे व्यभिचारका होना असम्भव है । पक्ष और पक्षसममें व्यभिचार दोष उठाना अन्याय है। अभिप्रायको नहीं समझपानेका सूचक है।
निदर्शनं परप्रसिध्या विषमविषभक्षणातिभोजनादिकमुक्तं, तत्र परस्य साध्यव्याससाधने विवादाभावात् । न हि विषमविषमक्षणेऽतिभोजनादौ वा दुाखफलत्वमसिद्ध, नापि नाचरणीयमेतत्सुखार्थिनेति सत्यज्ञानोत्पची तत्संसर्गलक्षणसंसारस्यापक्षयोपि सिद्धस्वावता च तस्य दृष्टान्तताप्रसिद्धरविवाद एव ।
हमने अपने पूर्व अनुमानमें जो तीक्ष्ण विषका खाना या भूखसे अति अधिक खाना आदि दृष्टांत दिये हैं, वे दूसरे प्रतिवादीकै घरकी प्रसिद्धिके अनुसार कहे हैं। प्रतिवादीके यहां शीघ्र दुःखरूपी फलको देनेवाले विषमक्षणमे मिथ्याभदान आदिके नष्ट होनेपर क्षीययाणपना है तथा परम्परासे दुःख देनेवाले अधिक भोजनमें भी झीयमाणपना देखा जाता है अर्थात् दुःखरूप फलको देनेवाले विषमक्षण आदि कर्म तत्त्वज्ञानीके नष्ट हो जाते हैं। वे इन क्रियाओंको नहीं करते हैं। वैसे ही संसार भी तत्त्वज्ञानीका न्यून हो जाता है। नैयायिक आदि भी अधिक भोजन या पावले कुत्ते के काटने आदिमें परम्परासे होनेवाले दुःखफलब हेतुफी क्षीयमाणत्व साध्य के साथ व्याप्ति सिद्ध करनेमे विवाद नहीं करते हैं । प्रतिकूल विषके मक्षणमै अथवा अधिक भोजन, शीतबाधा मादिसे पीडित होने दुःखफलपना असिद्ध नहीं है और सुख के अभिलाषी ज्ञानी जीवको ये विषमक्षण भादि आचरण नहीं करना चाहिए। यह साध्य भी असिद्ध नहीं है । यानी दृष्टांत रह आता है । समीचीन हितकारी ज्ञानके उत्पन्न हो जानेपर कोई जीव मयंकर विषको नहीं खाता है। और न अधिक भोजन करता है । शीत उष्णकी बाधाओंसे भी बचा रहता है। अतः तत्त्वज्ञानीके नैसे इस उपद्रयों का क्षय हो जाता है, वैसे ही मिथ्याज्ञानका नाश होकर सत्यज्ञानके उत्पन्न
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होनेपर निकृष्ट स्थानों में जन्म मरण कर दुःख भोगना या सकल दुःखोंके निदान उस सूक्ष्म स्थूल शरीरका संबंध हो जानारूप, संसारका हास होना भी सिद्ध हो जाता है । उतनेसे ही हेतु और साध्यके आधार हो जाने के कारण उन विषभक्षण आदिको दृष्टान्तपना प्रसिद्ध है । अतः वादी प्रतिवादियोंको कहे हुए निदर्शनमें कोई विवाद ही नहीं है । और प्रतिज्ञावाक्य में भी कोई झगडा नहीं रहा।
तदेवमनुमितानुमानान्मिथ्यादर्शनादिनिमित्तस्वं भवस्य सिध्यतीति न विपर्यय मात्र हेतुको विपर्ययापैराग्यहेतुको वा भनो विभाव्यते ।
उस कारण इस प्रकार अनुमित किये गये अनुमानसे संसारके कारण मिथ्यादर्शन आदिक ये तीन सिद्ध हो जाते हैं। भावार्थ-इस दूसरे अनुमानसे मिथ्यादर्शन आदिके क्षय होनेपर संसारका क्षीयमाणपनर सिद्ध किया गया है और इस दूसरे अनुमानसे जान लिये गये मिथ्यादर्शन आदिके क्षय होनेपर नीयमाणपना साध्यरूप हेतुसे संसाररूपी पक्षमें मिथ्यादर्शन, शान, चारित्र इन तीन हेतुओंकी कार्यता पहिले अनुमानसे कारिका द्वारा सिद्ध हो जाती है । इस प्रकार मिथ्याहगादि इस वार्तिकका प्रमेय सिद्ध हो जाता है | अतः केवल विपर्ययज्ञानको या विपर्यय और तृष्णा दोको हेतु मानकर उत्पन्न होनेवाला संसार है, यह नहीं विचारना चाहिये । किंतु संसारके कारण मिथ्यादर्शन आदि तीन है।
तद्विपक्षस्य निर्वाणकारणस्य त्रयात्मता। प्रसिद्धैवमतो युक्ता सूत्रकारोपदेशना ॥ १०६ ॥
जब संसारके कारण तीन सिद्ध हो गये तो उस संसारके प्रतिपक्षी होरहे मोक्षके कारणको भी तीन स्वरूपपना उक्त प्रकारसे प्रसिद्ध हो ही गया। इस कारण तत्वार्थसूत्रको रचनेवाले उमास्वामी महाराजका मोक्षके कारण तीनका उपदेश देना युक्तियोंसे भरा हुआ है।
मिध्यादर्शनादीनां भवहेतूनां त्रयाणां प्रमाणतः स्थितानां निचिः प्रतिपचभूतानि सम्यग्दर्शनादीनि त्रीण्यपेक्षते अन्यतमापाये तदनुपपत्तेः।
आचार्य विद्यानंद स्वामीजी अनुमान बनाते हैं कि संसारके कारण मिध्यादर्शन, ज्ञान, और चारित्र इन तीनकी प्रमाणोंसे स्थिति हो चुकी है । इन तीनोंकी निवृत्ति होना ( पक्ष ) अपनेसे प्रतिपक्षरूप तीन सम्पादर्शन, ज्ञान, चारित्रों की अपेक्षा करती है (साध्य ) क्योंकि तीन प्रतिपक्षियोमेसे किसी एकके भी न होनेपर वह मिथ्यादर्शन आदि तीनोंकी निवृत्ति होना न बन सकेगा (हेतु ) । इस अनुमानसे आदि सूत्रके प्रमेयको पुष्ट कर दिया है।
शक्तित्रयात्मकस्य वा भवतोरेकस्य विनिवर्तनं प्रतिपक्षभूतशक्तित्रयात्मकमेकमवरेण नोपपद्यत इति युक्ता सूत्रकारस्य त्रयात्मकमोक्षमार्गोपदेशना ।
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अथवा दूसरा अनुमान यह है कि संसार के कारण कहे गये मिथ्याभिनिवेश, अर्थोको झूठा जानना तथा राग द्वेष, अमस आदि इन तीन शक्तिस्वरूप एक विपर्ययकी ठीक निवृति होना ( पक्ष ) अपने विधास्वरूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, इन तीन शक्तिरूप एक रत्नत्रयात्मक आत्मद्रव्यके बिना नहीं बन सकता है ( साध्य ) संसार कारणोंकी सर्वथा निवृत्ति होनेसे ( हेतु ) इस प्रकार दो अनुमानोंसे सूत्रकारका तीनरूप मोक्षमार्गका उपदेश देना युक्त है ।
तत्र यदा संसारनिवृत्तिरेव मोक्षस्तदा कारणविरुद्धोपलब्धिरियं नास्ति कविसंसारः परमसम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रसद्भावादिति ।
उस अनुमानके प्रकरणमें जब संसारकी निवृद्धिको ही मोक्ष माना जाये, तब तो यह निषेधका कारण विरुद्धोपलब्धिरूप हेतु है कि किसी विवक्षित एक जीव ( पक्ष ) संसार विद्यमान नहीं है ( साध्य ) क्योंकि उत्कृष्ट श्रेणीके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र वहां विद्यमान हैं ( हेतु ) । इस अनुमानमै संसारका अभाव साध्य है । निषेध करने योग्य संसार के कारण मिथ्यादर्शन आदि तीन हैं। उनके विरुद्ध सम्यग्दर्शन आदि तीनकी उपलब्धि हो रही है, अतः यह कारण विरुद्धोपलब्धि हेतु है । प्रतिषेध्य के जो कारण उनके विरुद्धोंकी उपलब्धि होना है । यदा तु संसारनिवृचिकार्ये मोक्षस्तदा कारणकारणविरुद्धोपलब्धिः, कस्यचिदात्मनो नास्ति दुःखमशेषं मुख्य सम्यग्दर्शनादिसद्भावादिति निश्चीयते, त्यन्तिक सुखस्वभावत्वात्तस्य च संसारनिवृत्तिफलत्वात् ।
सकलदुःखाभावस्या
किंतु जब मोक्षा संसारकी निवृचिका कार्य माना जाता है, तब तो यह हेतु कारणकारणं विरुद्धोपलब्धिरूप है कि किसी न किसी आत्मा के सम्पूर्ण दुःख नहीं हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उस आत्मामें प्रधानरूपसे सम्यग्दर्शन आदि तीन गुण विद्यमान हैं ( हेतु ) यहां दुःखोंका अभाव साध्य है, दुःख प्रतिषेध्य है । दुःखका कारण संसार है और उसके कारण मिथ्यादर्शन आदि है । उनसे विरुद्ध सम्यग्दर्शन आदिकी उपलब्धि हो रही है । यों प्रकृत हेतु कारणकारण विरुद्धोपलब्धि रूप निश्चित किया जाता है । सम्पूर्ण दुःखोंके अभावको आत्यन्तिक सुख स्वभावना है और वह आत्माका अनंत कालक सुखस्वभाव हो जाना संसारकी निवृतिका फल है । नैयायिकों का माना गया दुःखध्वंसरूप मोक्ष हमको अभीष्ट नहीं है । दुःखाभाव अनंतसुखस्वरूप है । अभाव वस्तुस्त्ररूप है। वैशेषिकों का माना गया तुच्छ अमाव कुछ नहीं हैं
यदा मोक्षः क्वचिद्विधीयते तदा कारणोपलब्धिरियं कचिन्मोक्षोऽवश्यंभावी सम्यदर्शनादियोगात् इति न कथमपि सूत्रमिदमयुक्त्यात्मकं, आगमात्मकत्वं तु निरूपितमेचं सत्यलं प्रपंचेन ।
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तस्वाचिन्तामणिः
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तथा जब किसी आत्मामें सीधा मोक्षका विधान किया जायेगा, तब तो यह विधिसापक कारणोपलब्धि हेतु है कि किसी आत्मामें मोक्ष अवश्य होनेवाला है ( पतिमा) क्योंकि उसमें सम्पादर्शन आदि गुणोंका संबंध होगया है (हेतु)। वहां मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन आदि हैं। अतः छत्र हेतुसे छायाकी सिद्धि के समान कारण हेतुसे मोशकी सिद्धि होजाती है । मोक्षके सम्प. वर्शन आदि कारक हेतु हैं और ज्ञापक हेतु मी है। इस प्रकार कैसे भी उभास्वामी महाराजका यह सूत्र अयुक्तिरूप नहीं है । भावार्थ-अनेक हेतुओंसे सिद्ध होकर युक्तियों से परिपूर्ण हैं। और यह पहिला सूत्र सर्वज्ञोक्त आगम स्वरूप को है ही। इस बातका हम पहिले प्रकरणमे निरूपण करचुके हैं। ऐसे मले प्रकार सूत्रकी सिद्धि होजानेपर अब विस्तारका व्यर्थ ताण्डव बढानेसे विश्राम लेना चाहिये । कुछ अधिक प्रयोजना हि न होगा।
बन्धप्रत्ययपाञ्चध्यसूत्रं न च विरुध्यते ।
प्रमादादित्रयस्यान्तर्भावात्सामान्यतोऽयमे ॥ १०७॥ ___ जब कि आप जैनबंधु संसार और मोक्षके कारण तीन मानते हैं तो आठवें अध्यायमें कई जानेवाले बन्धके कारणोंको पांच प्रकारका कहनेवाले सूत्रसे विरोध हो जावेगा, सो नहीं समझना । क्योंकि पंधके कारणों को कहनेवाले सूत्र में पड़े हुए प्रमाद, कषाय और योग तीनोंका सामान्यरूपसे अचारित्र अन्तर्भाव हो जायेगा। इस कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याचान और मिथ्याचारित्र ये तीन ही संसारके कारण सिद्ध हुए।
त्रयात्मकमोक्षकारणसूत्रसामर्थ्यात्त्रयात्मकसंसारकारणसिद्धी युक्त्यनुग्रहाभिधाने बंधप्रत्ययपंचविधत्वं 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव ' इति सूत्रनिर्दिष्ट न विरुध्यत एव, प्रमादादित्रयस्य सामान्यतोऽचारित्रेऽन्तर्भावात् ।।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तीनोंकी एकता-स्वरूप मोक्षके कारणको निरूपण करनेवाले सूत्रकी सामथ्र्यसे तीनस्वरूप ही संसारके कारणों की सिद्धि युक्तियोंकी सहायताका कथन करनेपर मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच बंधके कारण हैं । इस प्रकार सूवमें कहे गये पके कारणोंका पांच प्रकारपना विरुद्ध नहीं ही होता है। क्योंकि प्रमाद आदि सीन पानी प्रमाद, कषाय और योगका सामान्यपनेसे अचारित्रमें गर्म हो जाता है । अर्थात् जैसे पहिले गुणस्थानका अनारित्र और चौका अचारित्र अंतरंग कारणकी अपेक्षासे एक ही है। वैसे ही चारित्र मोहनीयके उदयसे होनेवाले प्रमाद और कपाय भी एक प्रकारसे अचारित्र है । ग्यारहवे, बारहवें और मेरहवें गुणस्थान मारित्रमोहनीयका उदय न होनेसे यधपि. अधारित्रभाव नहीं है । फिर मी चारित्रकी पूर्णता जब चौदहवें गुणस्थानी मानी गयी है। इस अपेक्षासे चारित्रकी विशेष स्वमावोंने टिका अचारित्रमें अंतर्भाव हो जाता है। योग भी एक प्रकारका प्रचारित्र है।
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५६१,
तत्याच चिन्तामणिः
. विशेषतश्च त्रयस्थाचारित्रेऽन्तर्भावने को दोष इति चेत्-
यहां किसीकी शंका है कि आप जैनोंने प्रमाद आदि तीनको सामान्यप्रनेसे अवार गर्भित किया | क्यों जी ! और विशेषरूपसे तीनोंका अचारित्र में अन्तर्माव करनेपर क्या दोष आंत है ! तलाइये ! ऐसी आशंका होनेपर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं ।
विशेषतः पुनस्तस्या चारित्रांतःप्रवेशने ।
प्रमत्तसंयतादीनामष्टानां स्वादसंयमः ॥ १०८ ॥ तथा च सति सिद्धांतव्याघातः संयतत्वतः । मोहद्वादशकध्वंसात्तेषामयमहानितः ॥ १०९ ॥
यदि फिर विशेषरूप से उन तीनोंका अचारित्रके भीतर प्रवेश किया जावेगा तो छठे गुण-" स्थानवर्ती प्रमत्तसयतको आदि लेकर तेरहवे गुणस्थानी सयोगकेवली पर्यन्त आठ संयमियोंके असंयमी बन जानेका प्रसंग हो जायगा, और वैसा होनेपर जैनसिद्धांत का व्याघात होता है। क्योंकि जैन सिद्धांत उक्त आठोंको संयमी कहा गया है। अनंशानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकी चौकडी इन मोहनीय कर्मकी बारह प्रकृतियोंके क्षयोपशम, उपशम, और क्षयरूप हास हो जाने के कारण उन आठोंको असंयमीपनकी हानि है । भावार्थ - ये आठों ही संयमी माने गये हैं। प्रमाद, कषाय और योगोंको सामान्यपने के समान यदि विशेषरूप से भी अचारित्र माना जाता तो ये आठों असंयमी बन जायेंगे। इस प्रकार जैन सिद्धांतों तत्त्व बिगडता है।
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FM.M नन्वेवं सामान्यतोऽप्यचारित्रे प्रमादादित्रयस्यतर्भावात्कर्थं सिद्धांतव्याघातो न स्वाद : प्रमचसंयतात्पूर्वेषामेव सामान्यतो वा सर्वातिर्भाविवचनाद, प्रेमसंयतादीनां तु सयोग केवल्यन्तानामष्टानामपि मोहद्वादशकस्य क्षयोपशमादुपशमाद्वा सकलमोहस्य याद्वा संयतत्वप्रसिद्धेः, अन्यथा संयतासंयत्तत्वप्रसंगात्, सामान्यतोऽसंयतस्यापि तेषु भावादिति केचित् ।
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ऐसा सिद्ध करनेपर भी फिर कोई इस प्रकार शंका करते हैं कि प्रमाद आदि चीनका अचारित्र सामान्यपने से भी अन्तर्भाव करने से क्यों नहीं सिद्धांत का व्याघात होगा ? जब कि आप जैन बाटो गुणस्थानों में मोहनीयकी बारह प्रकृतियोंका ह्रास मानते हैं तो सामान्यरूपसे भी उन आठों में अचारित्र नहीं रहना चाहिए। जैन सिद्धांन्त में चारित्र नहीं रहना मामा है दोनों प्रकारसे माना है । प्रमत्तसंयतनामक उठे गुणस्थान से पहिले के प्रथमसे लेकर पांच गुणस्थान तक पांचों हीका दोनों सामान्य और विशेषरूपसे अचारित्रः - अंतर्भाव कहा देव
तो जहां मी
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तत्वावचिन्तामणिः
छठेसे लेकर तेरहवें तक तो अचारित्रमै गर्भ नहीं कहा है। प्रमत्तसंयतको आदि लेकर सयोगकेवळी पर्यत आठों मी गुणस्थानवालोंको संयमीपना प्रसिद्ध है। इनमें गारित्रमोहनीयकी पहिली बारह प्रकृतियों के क्षयोपशमसे छटे, सावन संगमीपन है । एक अपेक्षासे दशतक भी पारित्रमोहनीयका क्षयोपशम है । क्योंकि वहां देशघातियोंका उदय रहता है। और उपशमश्रेणी के भाषे, नावे, दशमें और मुख्यरूपसे म्यारहवेमें सम्पूर्ण मोहनीयफर्मका उपशम होजानेसे संयमीपना है तथा क्षपकश्रेणीके आठवे, नौवे, यशव और प्रधानरूपसे बारहवेमे सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका क्षय होजानेसे मुनिमहाराजोको संयमीपना प्रसिद्ध है | यदि ऐसा न माना जाकर दूसरे प्रकार माना जावेगा अर्थात् आप वादी जैनोंके कथनानुसार आठ गुणस्थान में सामान्यरूपसे अचारित्र भाव मी मानकिया आवेगा तो पांचये गुणस्थानके समान ये आठों बीतासं होगा। योपिकमला साट आपके कहे अनुसार सामान्यपनेसे असंयममाय मी उनमें विद्यमान है । इस प्रकार कोई श्वेतपयानुयायी कह रहे हैं। अब प्राचार्य कहते हैं कि:
तेऽप्येवं पर्यनुमोज्याः कथं भवता चतुम्मत्ययो बन्धः सिदान्तविरुदो न भवेत्तत्र तस्य सूत्रितस्वाद इति ।
उनके ऊपर भी इस प्रकार कटाक्षरूप प्रश्न उठाने चाहिये कि आपके यहां मिथ्यावर्शन, अविरति, कषाय और योग इस प्रकार बंधके चार कारण माननेपर सिद्धांतविरोध क्यों नहीं होगा। क्योंकि आपके उस सिद्धांत बंधके चार कारणोंको सूचन करनेवाला वह सूत्र कहा गया है। भावार्थ-शंकाकारको मी प्रमादका अचारित्रम गर्भ काना मावश्यक होगा।
प्रमादानां कषायेष्वन्तर्भावादिति चेह, सामान्यतो विशेषयो वा वत्र सेषामन्तर्भाव स्यात् ? न तावदुचरः पक्षो निद्रायाः प्रमादविशेषस्वभाषायाः कषायेष्वन्तर्मावयितुमशस्यत्वात् तस्या दर्शनावरणविशेषस्वात् ।
बदि आप श्वेतांवर प्रमादोका कमायोमे बनींब करोगे तो इसपर हम पूंछते हैं कि उन धमादका भाप उन कायमें सामान्यरूपसे अंतर्मान करेंगे या विशेषरूपसे अन्तर्माय होगा ! बतायो ! इन दोनों पक्षामें दूसरा पक्ष लेना तो ठीक नहीं है। क्योंकि निद्रा मी पंद्रह प्रमादोमसे चौदहवीं विशेष प्रमादरूप है । उसका कषायोंमें अंतर्भाव करना शक्य नहीं है। क्योंकि निद्राका कषायोंको उत्तम करनेवाले चारित्रमोहनीय कर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है । वह निद्रा तो दर्शनावरण कर्मकी एक विशेष प्रकृति है या उस प्रकृतिके उदय होनेपर होजानेवाला मामाका दिभाव है।
प्रमादसामान्यस्य कमायेप्यन्ताव इति चेत् न, अप्रमचादीनां बापसापरामिकाम्वाना प्रमचस्वप्रसंगाद, प्रमादेकदेवस्यैव कायस्य निद्रामात्र तत्र सद्रावात सर्वप्रमादा
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नाममात्राम अमरत्वप्रसक्किरिति चेत्, वहिं प्रमादादिप्रयास्याचारित्रेऽन्तर्भावेऽपि प्रमचसंपतादीनामधानामसंयवत्वं मा प्रापत् ।
हम विशेष विशेष प्रमादोंका कार्योंमें अंतर्भाव नहीं करते हैं किंतु प्रथमपक्ष के अनुसार अमावसामान्यका कमायो गर्भ करते हैं। इस प्रकार शंकाकारका कहना भी तो ठीक नहीं पड़ेगा। "क्योंकि सासर्वे गुणसानवाले अपमयको मादि लेकर सूक्ष्मसांपराविक गुणस्तान पर्वतके ममियोको धमापनेका प्रसंग होगा, क्योंकि कषायके उदयके वारसम्पसे होनेवाले सातवें, माठ, नौवे और दश गुणस्थानमें पंद्रह प्रमारोंके ही एकदेशरूप कषायोंका और निद्राका उन चारों गुणस्थानों उदय विधमान है । अतः ये चारों गुणस्थान छठ के समान प्रमच शेजावेंगे । यदि भाप फिर बों कहै कि सातवे आदि पार गुणस्थानाम किया, कषाय, इंद्रिय, निद्रा और स्नेह ये सम्पूर्ण प्रमाद तो नहीं है। अतः चार गुणस्यानोको प्रमत्तपनेका प्रसंग नहीं माना है। धब ऐसा कहनेपर सो हम दिगम्बर जैन मी कहते हैं कि प्रमाद आदि मानी ममाद, कषाय, योग वीनोंका सामान्यरूपसे भचारित्र गर्भ होनेपर मी छठसे लेकर तेरहवें सकके माठ संयमियोंको असंयमीपना इसी प्रकार नहीं पास होओ। फिर भाप शंकाकारने हमारे ऊपर व्यर्थ भाठोंको असंयमी होनेका विना बिचारे कटाक्ष क्यों किया । उसको आप कौटा कीजिये।
स्थाहि-पम्चदशसु प्रभादव्यक्तिषु वर्तमानस्य प्रमादसामान्यस्म कमायेचन्ता मावेऽपि न सा व्यक्तयस्त्रान्तर्भवन्ति विकथेन्द्रियाणामप्रमत्तादिग्वभावात् , कषायप्रणपनिद्राणामेव संभवात् , इति न तेषां प्रमचत्वम् । तथा मोहद्वादशकोदयकालभाविषु सत्योपशमकालभाविषु च प्रमादकपाययोगविशेषेषु वर्तमानस्य प्रमादकपाययोगसामान्मस्पाचारित्रेऽन्तर्भावेऽपि न प्रमत्तादीनामसंयतत्त्वम् ।
इसी मातको अधिक सष्ट कर आचार्य महाराज दिखलाते हैं कि आप शंकाकार पंद्रह प्रमादविशेषों में विद्यमान होरहे ऐसे प्रमादसामान्यका कषायों में अन्तर्भाव करते हुए भी यह मानते है कि सम्पूर्ण पंद्रह मी प्रसाद व्यक्तिरूपसे उस कषायम गर्भित नहीं होते हैं। क्योंकि चार किया और पांच इंद्रिय ये नौ प्रमाद अप्रमत्त मादि चार गुणस्थानों में विद्यमान नहीं है। चार सज्यरून कवाय, स्नेह और निद्रा ये छह प्रमाद ही वहां सम्भवते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण प्रमादोंके न रहा नेसे उन सातवें आदि चारोंको जैसे आप प्रमत्त नहीं मानते हैं, वैसे ही हम मी कहते हैं कि मोहनीय कर्मको बारह प्रकृतियोंके उदय के समय होनेवाले पहिले दूसरे गुणस्थानके प्रमाद, कपाय, मोग, व्यकियों में जो ही प्रमाद, कमाय, योग, सामान्य विद्यमान है, मोहनीयकी बारह प्रकृसियोक क्षयोपशमके समय होनेवाले चौथे, पांचवे, छठे और निरतिशय सातवे गुणस्थानों में रहनेवाले प्रमाद, माम, योग, व्यक्तियों में भी वही सामान्य विषमान है। अतः सामान्यरूपसे प्रमाद, कमाम
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चिन्तामणिः
योगका परियोग होते हुए आदि आठोंको असंयमीपना प्राप्त न होगा जो आपने तर्क दी है वही यहां भी लागू हो जाती है। तुम्हारी सपिल्ली और मेरा, सुंदर, मनोश, चहरासाई रुपैया है, यह पक्षपात आपको नहीं चलाना चाहिये ।
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स्यान्मतं प्रमादादिसामान्यस्यासंयतेषु संयतेषु च सद्भावादसंयमे संयमे चांतर्भावो युक्तो न पुनरसंयम एव, अन्यथा वृक्षत्वस्य न्यग्रोधेऽन्तर्व्यापिनोऽपि न्यग्रोधेष्वेवांतर्भाव - प्रसक्तेरिति ।
सम्भव हैं कि आप शंकाकारका यह भी मत होवे कि प्रमाद, कषाय और योग इन तीन सामान्यका पहिलेके चार असंयत गुणस्थानों में तो सद्भाव है ही तथा अब संयमियों में मी उनको देखिये कि प्रमाद सामान्यका देशसंयत पांचवें और छठवें संयमी गुणस्थान में सद्भाव है तथा कषाय छठे दश गुणस्थान तकके संयमियों में विद्यमान है । एवं योग छठेसे लेकर तेरहवें तकके संयमियों में पाया जाता है । इस प्रकार सामान्यरूपसे प्रमाद आदि तीन तो संयत और असंयत दोनों प्रकारके जीवों में पाये जाते हैं । तब ऐसी दशा में प्रमाद आदिका चारित्र और अचारित्र दोनों में अन्तर्भाव करना युक्त था । अकेले अचारित्र में ही उनको गर्भित करना अनुचित है । यदि ऐसा न मानकर आप जैन दूसरे प्रकारसे मानोगे यानी अनेकों में रहनेवाले सामान्य धर्मको एक ही विशेषव्यक्ति यर्मित कर लोगे तो निम्ब, वट, आम्र, जम्बू, छत्र, खदिर पेडों में रहनेवाला gure सामान्य विचारा वटवृक्षके भीतर भी व्यापक होकर विद्यमान है। अतः उस अनेकों में रहनेवाले वृक्षस्य सामान्यका भी अकेले वटवृक्षमें ही गर्मित करनेका प्रसंग हो जायेगा अर्थात् वही वृक्ष कहा जावेगा । निम्ब, जामुन, आदि पेढ न कहे जा सकेंगे, इस प्रकार शंकाकारका कहना है । अब मंथकार कहते हैं कि :
तदसत् विवक्षितापरिज्ञानात् । प्रमादादित्रयमसंयमे च यस्यान्तर्भावीति तस्य नियतत्वात्तत्रान्तभवो विवक्षितः प्रमादानामप्रमत्तादिष्वभावात् कषायाणामक पायेष्वसुम्भवात्, योगानामयोगेऽनवस्थानादिति तेषां संयमे नान्तर्भावो विवक्षितः ।
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I
वह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि हमारे कहने के अभिप्रायको आपने समझा नहीं है। जिस जैनके यहां प्रमाद, कषाय और योग ये तीनों असंयममें गर्मित हो जाते हैं उसके मटमें वे तीनों ही असंयम तो नियमसे विद्यमान हैं। इस कारण उस असंयममें गर्भित करना हमको विवक्षित है। बंधके कारणों में कदे गये मिथ्यादर्शन आदि पांचके पूर्व पूर्व कारणके रहनेपर उत्तरवर्ती. कारण. अवश्य रहते हैं। मिथ्यादर्शनको कारण मानकर जहां बंध हो रहा है, वहां शेषवारी भी विद्यमा है तथा मिध्यादनकी व्युच्छित्ति होनेपर दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थानमें अविरति निमित्तले बंध हो रहा है, वहां शेष तीन कारण भी विद्यमान हैं। एवं पांचवें छठवें में प्रमादः हेतुसे बंघ होनेपर कमाय
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वलापिन्सामणिः
.योगोंका अचारित्रमै गर्म होते हुए मी प्रमत्त आदि' आठोंको असंयमीपना प्राप्त न होगा जो आपने
ही वदी गहा भी लागो बाली है। तुम्हारी सपिल्ली और मेरा, सुंदर, मनोज्ञ, चहरासाई रुपया है, यह पक्षपात आपको नहीं चलाना चाहिये ।
. स्यान्मत, प्रमादादिसामान्यस्यासंयतेषु संयतेषु च सद्भावादसंयमे संयमे चांतर्भावो युक्तो न पुनरसंयम एव, अन्यथा वृक्षस्वस्य न्यग्रोधेऽन्तर्व्यापिनोऽपि न्यग्रोधेष्वेवांतर्भावप्रसक्तेरिति ।
सम्भव है कि आप शंकाकारका यह भी मत होवे कि प्रमाद, कषाय और योग इन तीन सामान्योंका पहिलेके चार असंयत गुणस्थानों में तो सद्भाव है ही तथा अब संयमियों में भी उनको देखिये कि प्रमाद सामान्यका देशसंयत पांच और छठवें संयमी गुणस्थानमें सद्भाव है तथा कषाय छठेसे दशवे गुणस्थान तकके संयमियों में विद्यमान है । एवं योग छठेसे लेकर तेरहवें तकके संयमियों में पाया जाता है। इस प्रकार सामान्यरूपसे प्रमाद आदि तीन तो संयत और असंयत दोनों प्रकारके जीवों में पाये जाते हैं । तब ऐसी दशा प्रमाद आदिका चारित्र और अचारित्र दोनों में अन्तर्भाव करना युक्त था । अकेले अचारित्रमें ही उनको गर्भित करना अनुचित है। यदि ऐसा न मानकर आप जैन दूसरे प्रकारसे मानोगे यानी भनेकों में रहनेवाले सामान्य धर्मको एक ही विशेषयक्तिम पर्मित कर लोगे तो निम्ब, वट, भान, जम्बू, धव, खदिर पेडों में रहनेवाला वृहत्व सामान्य विचारा वटवृक्षके भीतर भी व्यापक होकर विद्यमान है। अतः उस अनेकों में रहनेवाले वृक्षत्व सामान्यका भी अकेले बटवृक्षों ही यर्मित. करने का प्रसंग हो जावेगा अर्थात बड ही वृक्ष कहा जावेगा। निम्ब, जामुन, आदि पेड न कहे जा सकेंगे, इस प्रकार शंकाकारका कहना है । अब अंधकार कहते हैं कि:
. तदसत्, विवक्षितापरिज्ञानान् । प्रमादादित्रयमसंयमे च यस्यान्तर्भावीति तस्य वनियतत्वात्तत्रान्तर्भावो विवक्षितः, प्रमादानामप्रमत्तादिष्वभावात् कक्षायाणामकषायेष्वसम्भवात् , योगानामयोगेऽनवस्थानादिति तेषां संयमे नान्तर्भावो विवक्षितः । ... १: वह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि हमारे कहने के अभिप्रायको आपने समझा नहीं है। जिस जैनके यहां प्रमाद, कषाय और. योग ये तीनों असंयममें गर्मित हो जाते हैं उसके ममे वे सीनों ही असंयम तो नियमसे विद्यमान है। इस कारण उस असंयम गर्भित करना हमको विवक्षिप्त है। धके कारणों में कहे गये मिथ्यादर्शन आदि पांच के पूर्व पूर्व कारणके रहनेपर उत्तरवर्ती कारण अवश्य रहते हैं। मिथ्यावर्शनको कारण मानकर जहां बंध हो रहा है, वहां शेषः चारों भी विधमान हैं तया मिथ्यादर्शनकी न्युच्छित्ति होनेपर दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थानमें अविरति निमित्तासे बंध हो रहा है, वहां शेष तीन कारण मी विद्यमान है। एवं पांच छठवें में प्रमाद हेतुसे बंध होनेपर काम
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तस्वाचिन्तामणिः
और योग भी कारण हो रहे हैं और सज्वलन कयायके उदयसे सात, आठवें, नौवे, दशवें गुणस्थानमें बंध हो रहा है। वहां नौ योग भी बंधके कारण हैं । ग्यारहवे बारहवे और तेरहवे गुणस्थानमें केवल योगसे ही एक समयकी स्थितिवाले सातावेदनीयका ही बंध होता है । इस . कारण प्रमाद आदि तीनका असंयम भाव. गर्मित करना ठीक है । क्योंकि असंयममै वे पूर्णरूपसे रह जाते हैं, किंतु संयमी गुणस्थानों में प्रमाद आदि तीन पूरे तौरसे नहीं व्यापते हैं। प्रमादोका अप्रमतको आदि लेकर भागेके गुणस्थानों में अभाव है तथा सज्वलनके मंद, मंदतर, मंदतम, और सूक्ष्म लोमके उदय होनेपर होनेवाली कपायोंका, कषायोंसे रहित होरहे ग्यारहवे आदिमें सम्मव नहीं है और तेरहवें तक बंधके कारण होरहे योगोंकी योगरहित चौदहवे गुणस्थानमें स्थिति नहीं है। इस कारण उन प्रमाद, कषाय और योगोका संया अंतर्भाव करना हमको विवक्षित नहीं है । जिसको आप शङ्काकार समझ नहीं पाये हैं। . प्रतिनियतविशेषापेक्षया तु तेषामसंयमेऽनन्त वाव पञ्चविध एव संघहेतुः मोहद्वादशकक्षयोपशमसहभाविना प्रमादकषाययोगाना विशिष्टानामसंयतेष्वभावात्कषायोपशम. धयमाविनां च प्रमशकायसंयमेवप्यभावात् सर्वेषां स्वानुरूपबंधहेतुत्वामतीघातात् ।
___ हां ! उन उन छठे आदि प्रत्येक गुणस्थानों में नियत हुए विशेष विशेष रूपसे होनेवाले प्रमाद, कषाय, और योगविशेषोंकी अपेक्षा होनेपर तो उन प्रमाद आदिकोका हम असंयममें गर्भ नहीं करते हैं। क्योंकि वे असंयतों में पाये नहीं जाते हैं। इस कारण तीन प्रकार न मानकर बंधके हेतु पांच प्रकारके ही इष्ट हैं। जहां बंधके पांच हेतु बतलाये हैं, वहां मिथ्यात्वके उदय होनेपर उतरवर्ती कारण मले ही रह जाये फिर भी मिध्यादर्शन ही प्रधान है । अपिरति शब्दसे अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरणके उदयसे होनेवाले भाव ही लिये गये हैं। प्रमाद पदसे सज्वलन कषायके तीव्र उदय होनेपर होनेवाले पंद्रह प्रमाद पकड़े गये हैं। अविरत जीवोंके अनंतानुबंधी मादि तीन चौकडीके उदयके साथ होनेवाले प्रमादोंकी यहां विवक्षा नहीं है। इसी प्रकार सज्वलनके अतीव मंद उदय होनेपर कषाय हेतुवाल बंध होता है। योगोंमेसे पंद्रहों भी योगोंसे बंध होता है। किंतु ग्यारहवे बारहवे सम्भावित हुए नौ और तेरहवें गुणस्थानमें सात योगोंसे होनेवाले बंधकी विवक्षा है । अतः विशेषममाद आदिकी विवक्षा होनेपर वे असंयतों में कैसे भी गर्मित नहीं होते हैं । अनंतानुबंधी, अपत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण चतुष्टय यों बारह चारित्रमोहनीय प्रकृतियों के क्षयोपशमके साथ होनेवाले छठे आदि गुणस्थानवती विशेष विशेष प्रमाद, कषाय और योगोंका पहिले असपतके चार गुणस्थानों में सर्वथा अभाव है। क्योंकि पहिले दूसरे गुणस्थानों में मोहनीयकी बारह प्रकृतियों के उदय होनेपर साथ रहनेवाले प्रमाद कपाय और योग है तथा तीसरे, चौधेमें - मोहनीयकी उनमें से आठ प्रकृतियोंके उदयके साथ ही प्रमाद आदि तीन हैं । शुभ समाद सादिकोंका असंयतों में समावेश नहीं है और चारित्रमोहनीयकी अप्रत्याख्यानावरण आदि इक्कीस
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numan
प्रतियों के उपशमन या क्षपण होनेपर होनेवाले कपाय और योगोंका आठसे लेकर वर्ष तको संयमिमों में भाव है। हां, तथा पूर्ववर्ती छठे प्रमादी या सास कवाय युक्त संयमिभों में मी अमाव है। पहिले पांचों में मो सुलभतासे अभाव है। यह भपिका अर्थ है। उपशम या क्षय हो चुकनेर होनेवाले योगोंका छठवेसे लेकर दावे तक अभाव है। निर्णय यह है कि सर्व ही जीवोंके भपने अपने मनुकूल पहनेवाले बंधके कारणों का विरोध है। भावार्थ-जितने पंषके कारण या उनके भेद प्रमेव जिन संयमी या असममी गुणस्थानो में सम्भव हैं, विना किसी प्रतिरोधके उन गुणस्थानों में उन उन कारणों की ससा माननी चाहिये । इस कारण बंधके कारण उन विशेष नियतहेतुओंकी अपेक्षासे पांच प्रकार ही सिद्धान्तित किये हैं। इस नयकी उकिसे प्रमाव आदिका हम मचारियों गर्म नहीं करते हैं । विशेष, यह कि भारह कषायोंका क्षयोपशम इसका अभिप्राय यह है कि अनन्तानुबन्धी आदि तीनों पौकरिभोंका उदयाभावी क्षम, भविष्यमें उदय आनेवासिओका उपक्षम भौर देशपाती संज्वलनका उदय हो । यद्यपि अनन्तानुबन्धीका उदय तो सम्बस्व होजानेपर ही दूरचुका है। फिर मी चारित्रमें उसका उपशम आवश्यक है। संजालनको मिलाकर अप्रत्यास्पानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन बारहको लेनमें मी कोई विरोध नहीं है। किंतु ऐसी दशामे नौ नोकपायोंका छोरना टकसा है।
नन्वेवं पञ्चषा बन्धहेतौ सति विशेषतः ।
प्राप्तो निर्वाणमार्गोऽपि तावद्धा तन्निवर्तकः ॥ ११०॥
यहां किसीकी शंका है कि इस प्रकार विशेषरूपसे बन्धके कारणों को पांच प्रकार सिद्ध होनेपर उस कधकी निवृत्ति करनेवामा मोक्षका मार्ग भी उतनी ही संख्यावाला पांच प्रकारका होना न्यायसे प्राप्त है । फिर भापने मोक्षका मार्ग तीन प्रकारका कैसे कहा है ? उचर दीजिये ।
यथा त्रिविधे बन्धहेतौ त्रिविधी मार्गस्तथा पञ्चविधे बन्धकारणे पञ्चविधी मोक्षहेतुर्वक्तव्यः, विमिमीथकारणैः पञ्चविधवन्धकारणस्य निवर्तयितुमभक्तः, अन्यथा प्रयामा पञ्चानां वा बन्धहेतूनामेकेनैव मोघहेतुना निवर्तनसिद्धर्मोक्षकारणविध्यवचनमध्ययुक्तिकमनुषन्यतेति कश्चित् ।
जैसे कि बन्धके कारण मियादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्रके भेदसे तीन प्रकार होजानेपर मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप धीन मकार कहा है, वैसे ही बन्धके कारण जब पांच प्रकारके आपने सिद्ध करदिये हैं तो मोझके हेतु मी पांच प्रकारके कहने चाहिये। क्योंकि मोक्षके तीन कारणोंसे पके पांच प्रकार कारणोंकी निर्यात हो नहीं सकती है। अन्यथा यानी ऐसा न मानकर दूसरे प्रकारसे मानोगे अर्थात् तीनसे भी पांचों की निति होना
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मानकोगे तो तीनों या पांचों बंधके कारणोंकी मोक्षके एक ही तत्वज्ञानस्वरूप कारणसे निवृद्धि सिद्ध हो जावेगी। फिर मोक्षके कारणोंको तीन प्रकारका कहना मी जैनोंका युक्तियों से रहित है। यह प्रसंग हो जावेगा । इस प्रकार कोई शंकाकार कहता है। अब अंधकार कहते हैं कि-
तत्वार्थचिन्तामणिः
तदेतदनुकूलं नः सामर्थ्यात् समुपागतम् ।
बन्धप्रत्ययसूत्रस्य पाञ्चभ्यं मोक्षवर्त्मनः ॥ १११ ॥
इस प्रकार यह शंका तो हमको अनुकूल पडती है। इसका हमको खण्डन नहीं करना है । बन्धके पांच कारणोंका निरूपण भी सूत्रकारने ही किया है, मतः बन्धके पांच कारणोंको कहनेवाले सूत्र की सामर्थ्य से ही यह बात अच्छी तरह प्राप्त हो जाती है कि मोक्षका मार्ग मी पांच मकारका है, इसमें सन्देह नहीं । यहां किसी नयसे तीन प्रकारका कह दिया है ।
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सम्यग्दर्शनाविरस्य मादकपायायोगा मोक्षदेतच " इति पंचविधबन्धहेतुपदेशसामलभ्यत एव मोतो! पंचविधत्वं ततो न तदापादनं प्रतिकूलमस्माकं ।
?
बन्धके पांच प्रकार हेतुओंके उपदेशकी सामर्थ्यसे मोक्षके कारणको पांच मकारपना इसी म्यायसे प्राप्त हो ही जाता है कि सम्पादर्शन, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग ये पांच मोक्षके कारण हैं। इन एक एक कारणसे बन्धके एक एक फारणकी निवृत्ति हो जाती है । मस: काकारका वह आपादन करना हमें प्रतिकूल नहीं है, प्रस्युत इष्ठ है। निर्णय यह है कि विवक्षासे पदार्थों की सिद्धि होती है। जैनियोंकी नयचक्रव्यवस्था को समझ लेनेपर उक्त प्रक्रिया बन जाती है। जिन उमास्वामी महाराजने मोक्षके कारण तीन माने हैं, उनहीके अभिप्रायानुसार बन्धके कारण तीन माने जा रहे हैं और उन आचार्य होने पन्धके कारण पछि कहे हैं। अतः मोक्षके कारण मी पांच मानना उनको मभीष्ट प्रतीत होता है। यह नयप्रक्रियाकी योजनासे सुसंगत हो जाता है, जो कि हम प्रायः कह चुके हैं।
सम्यग्ज्ञानमोठदेतोरसंग्रहः स्यादेवमिति चेम, तस्य सद्दर्शनेऽन्तर्भावात् मिथ्याज्ञानस्य मिथ्यादर्शनेऽन्तर्भाववत् । तस्य तत्रानन्तर्भावे वा बोढा मोक्षकार बन्धकारणं धामिमवमेव विरोधाभावादित्युच्यते ।
आक्षेप है कि इस प्रकार पांच प्रकारके मोक्ष हेतुओं के मानने पर मोक्षके कारणोंमें अन्य दार्शनिकों द्वारा मी आवश्यक रूप से माने गये सम्यग्ज्ञानका संग्रह नहीं हो पाता है। सम्यग्दर्शन मौर सम्म चारित्र तो आचुके हैं । किन्तु प्रधानकारण कहे गये ज्ञानका संग्रह नहीं हो पाया है जिसको कि आप जैन भी मानते है । ऐसी अधिक संख्यांके निरूपण करनेसे हानिके अतिरिक कोई काम नहीं है जहां कि मूक ही छूट जाता हो । मन्त्रकार कहते है कि यदि इस प्रकार
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पन्तामणिः
कहोगे सो तो ठीक नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शनमें उस सन्यज्ञानका अन्तर्भाव हो जाता है ।" बन्धके पांच कारणोंका निरूपण करते समय भी संसारका प्रधानकारण मिथ्याज्ञान ही छूट गया है । अतः गाढसख्यके वश मिथ्याज्ञानका जैसे विध्यादर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है, वैसे ही सम्यग्ज्ञानका सम्यग्दर्शनमें अन्तर्भाव करलेते हैं । अथवा यदि स्वतन्त्र गुण होनेके कारण उस सम्यग्दर्शनमें उस सम्यग्ज्ञानका अन्तर्भाव नहीं करना चाहते हो तो मोक्षका कारण छह प्रकारका हो जायगा और इसी प्रकार मिध्यादर्शन और मिथ्याज्ञान विभावोंके स्वतन्त्र होनेपर बन्धका कारण भी छह प्रकारका ही समझा जायेगा । यह बात भी सूत्रकारको अभीष्ट ही है । क्योंकि मंथकार किसी प्रकारका विरोध न होनेके कारण तीनके समान पांच, छह प्रकारका भी मोक्षकारण इष्ट करते हैं । इसी बासको वार्त्तिक द्वारा कहते हैं ।
सम्यग्बोधस्य सदृदृष्टावन्तर्भावात्त्वदर्शने ।
मिथ्याज्ञानवदेवास्य भेदे षोढोभयं मतम् ॥ ११२ ॥
P
मिथ्यादर्शनमें मिथ्याज्ञानके अन्तर्भाव करने के समान सम्यग्दर्शनमें सम्यग्ज्ञानका यदि गर्म करोगे तो बंध और मोक्षके कारण पांच प्रकार दी है। यदि इन दोनोंका भेद मानोगे तो बंध और मोक्षके कारण दोनों ही छह प्रकारके इष्ट हैं । यही विवक्षाके अधीन होकर आचार्योंका मंतव्य है ।. श्रीकुंदकुंदाचार्यने तो चैतन्यरूपसे अभेद होने के कारण तीनों गुणोंको एक मानकर मोक्षका कारण.. एक ही माना है । और निश्चय नयसे मोक्ष और मोक्षके कारणको भी एक ही कर दिया है, कथन भी अविरुद्ध है । तत्त्वज्ञानीके अभिप्रायरूप नयको समझ लीजिये ।
यह
• तत्र कुतो भवन् भवेत्यन्तं घः केन निवर्त्यते, येन पंचविधो मोक्षमार्गः स्यादित्यधीयते-
उस प्रकरणमें आप जैन यह बसलाइये कि आपके मसके अनुसार संसारमे किस कारण से अधिक धाराप्रवाहरूप होता हुआ बंध और किस कारण से वह निवृत्त होजाता है ? जिससे कि बंधके समान मोक्षमार्ग भी पांच प्रकारका माना जाय ऐसी प्रतिवादीकी जिज्ञासा होनेपर आचार्य. महाराज उत्तर कहते हैं ।
- तत्र मिथ्यादृशो बन्धः सम्यग्दृष्ट्या निवर्त्यते । कुचारित्राद्विरत्यैव प्रमादादप्रमादतः ॥ ११३ ॥ कषायादकषायेण योगाच्चायोगतः क्रमात् । तेनायोगगुणान्मुक्तेः पूर्वं सिद्धा जिन स्थितिः ॥ ११४ ॥
ব: হরমুন
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तत्त्वाचिन्तामणिः
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उस पंच मोक्षके प्रकरणमें मिथ्यादर्शन नामक विभावके निमिउसे होता हुआ बंध तो सम्यग्दर्शन स्वभावसे निवृत्त होजाता है। और अप्रत्याख्यानाचरण, प्रत्याख्यानावरण कषायके उदय होनेपर उत्पन्न हुए कुचारित्रसे होता हुआ बंध इंद्रिय संग्रम और प्राणसंयमरुप विरति करके ही नष्ट होजाता है। तथा संज्वलनके तीब्र उदय होनेपर होनेवाले प्रमादोंसे होता हुआ बंध सातवमें अप्रमाद होनेसे दूर होजाता है। एवं सज्वलन कषायके मन्द उदयोसे होता हुआ बंध भी चारित्र मोहका उपशम या क्षयरूप अकषाय मावसे ग्यारहवे, बारहवें, सेरहवें गुणस्थानों में दूर हो जाता है। अन्तर्भ योगसे होनेवाला बन्ध चौदहवे गुणस्थानकी अयोगअवस्थासे ध्वस्त कर दिया जाता है। इस प्रकार क्रमसे पांच बंध हेतुओंके भेद प्रभेदोंसे होनेवाले बन्धोंकी पहिलेमें सोलह, दूसरेमें पचीस, चौमें दस, पांचवेमें चार, छठवेमें छह, सातवेमें एक, आठवेम छत्तीस, नौवेमें पांच, दसवमें सोलह
और तेरहवें गुणस्थानमें एक इस प्रकार बंघ योग्य १२० काँकी बंध व्युच्छित्ति होनेका नियम है । अतः अयोग गुणस्थानसे पीछे होनेवाली मुक्ति के पहिले तेरहवे गुणस्थान और चौदहवें गुणस्थानके कालमें जिनेंद्रदेवका संसारमै स्थित रहना सिद्ध हो जाता है।
मिथ्यादर्शनाद्भवन् बंधः दर्शनेन निवत्यते, तस्य वनिदानविरोधित्वात् । मिथ्यामानाद्भवन् बंधा सत्यज्ञानेन निवर्त्यत इत्यप्यनेनोक्तं, मिथ्याचारित्रागवन्सचारित्रण, प्रमादाद्भवनप्रमादेन, कपायाद्भवनकषायेण, योगाद्भवन्नयोगेन स निवर्यंत इत्ययोगगुणानन्तरं मोक्षस्याविर्भावात्सयोगायोगगुणस्थानयोर्भगषदहत स्थिसिरपि प्रसिद्धा भवति ।
पंधके पांच कारणों में पडे हुए मिथ्यादर्शनसे हो रहा बंध झट सभ्यग्दर्शनसे निवृत कर दिया जाता है । क्योंकि वह सम्यग्दर्शन तो बन्धके आदि कारण माने गये उस मिथ्यातका विरोधी है। इस कथनकी सामर्थ्यसे यह भी कह दिया गया है कि मिथ्याशानसे हो रहे षका सम्बाहानसे निवन हो जाता है । तथा मिथ्याचारित्रसे होता हुमा बंध सम्यक्चारित्रसे नष्ट कर दिया जाता है । एवं प्रमादसे होता हुआ छह प्रकृतियोंका बंध अप्रमादसे नष्ट कर दिया जाता है। और कषायोंसे होनेवाला बंध अकषायमावसे तथा योगसे होता हुआ सातवेदनीयका यह मंघ अमोगभावसे ध्वस्त कर दिया जाता है। इस प्रकार आमाके स्वामाविक परिणाम कहे गये अयोग गुणस्थानके अन्तमें होनेवाली मुक्तिके प्रगट हो जानेसे पहिले तेरहवें सयोग और चौदहवे अयोग गुणस्थान दोनों में भगवान् श्री अन्तिदेवकी उपदेश देने के लिये यहां स्थिति भी प्रसिब हो माती है। उस अधिकसे अधिक कुछ अन्तर्मुहर्त अधिक आठ वर्ष कमती एककोटि पूर्व वर्ष तक सर्वज्ञ मगवान् मन्यजीवोंके लिये तत्त्वोंका उपदेश देते हैं और कमसे कम तेरहवें गुणस्थानमें कतिपय अन्तर्मुहूर्त ठहरकर तत्त्वार्थोंका उपदेश देते हुए पञ्च लधु मक्षर प्रमाण अयोग गुणस्थानके भनंतर कालमें मुक्तिको प्राप्त कर लेते हैं।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सामग्री यावती यस्य जनिका सम्प्रतीयते । तावती नातिवत्यैव मोक्षस्यापीति केचन ॥ ११५ ॥
पुनः कोई बोले कि जिस कार्यको उत्पन्न करनेवाली जितनी कारणसमुदायरूप सामग्री अच्छी तरह देखी जारही है, यह कार्य उतनी सामग्रीका उल्लंघन कथमपि नहीं कर सकता है अर्थात् उतने सम्पूर्ण कारणोंके मिलनेपर ही विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति हो सकेगी। मोक्षरूप कार्यके लिये भी सम्यग्दर्शन आदि तथा चारित्रगुणके स्वभावोंको विकसित करनेके लिये आवश्यक कहा जारहा हवे, चौपाय, गुणस्थान में अबस्थानकाल जैसे अपेक्षित है, वैसे ही सञ्चित कर्मोका फलो पभोग होना मी हम नैयायिक और सांख्योंके मतमें माना गया है, इस प्रकार कोई फहरहे हैं। इसकी व्याख्या यों है कि
यस्य यावती सामग्री अनिका दृष्टा तस्य तावत्येव प्रत्येया, यथा यवबीजादिसामग्री यवाङ्करस्य, तथा सम्यग्ज्ञानादिसामग्री मोक्षस्य जनिका सम्प्रतीयते, ततो नैव सातिवर्तनीया, मिथ्याज्ञानादिसामग्री च बन्धस्य जानिकेति मोक्षवन्धकारणसंख्यानियमः, विपर्ययादेव बन्धो ज्ञानादेव मोक्ष इति नेष्यत एव, परस्यापि सञ्चितकर्मफलोपभोगादेरभीष्टत्वादिति केचित् ।
जिस कार्यको उपादान कारण, सहकारी कारण, उदासीन कारण, प्रेरक कारण और अवलम्ब कारणोंकी समुदायरूप जितनी सामग्री उत्पन्न करती हुयी देखी गयी है, उस कार्यके लिये उतनी ही सामग्रीकी अपेक्षा करना आवश्यक समझना चाहिये। उस सामग्रीको अपेक्षा न कर केवल एक दो कारणसे ही होता हुआ कार्य नहीं देखा गया है । इस फ्लप्त कार्यकारणमावका कोई भी शक्ति परिवर्तन नहीं करसकती है। जैसे कि जौका बीज, मिट्टी, पानी, मन्दवायु, इत्यादि कारणों के समुदायरूप सामग्री जौका अङ्गुर उत्पन्न होजाता है, वैसे ही सम्यग्ज्ञान, फलोपमोग, दीक्षा, काल आदि कारणकूट भी मोशरूपकार्यके जनक अच्छे प्रकारसे निर्णीत होरहे हैं। इस कारणसे मोक्षरूपी कार्य उस अपनी सामग्रीका उलंघन नहीं कर सकता है। और मिथ्याज्ञान, दोष, पाक्रिया करना, निषिद्ध आचरण करना, नित्य, नैमित्तिक फाँको न करना आदि कारणसमुदाय बंधके जनक है । इस प्रकार मोक्ष और बंधके कारणों की संख्याका नियम होरहा है। कोई मोल नहीं है। अकेले विपर्ययज्ञानसे ही पंघ होजाना और केवल तत्त्वज्ञानसे ही मोक्ष होजाना यह हम इष्ट नहीं करते हैं। दूसरे हम लोगोंके यहाँ भी पहिले एकत्रित किये हुए कर्मोके कलोपभोग, तपस्या, वैराग्य, आदि कारणसमुदायसे ही मोक्ष होना अच्छा इष्ट किया है। इस प्रकार कोई कापिस और वैशेषिक कहरहे हैं । इनका अभिप्राय यही है कि जब आप जैनोंको भी सामग्री
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स्वार्थचिन्तामणिः
मानना तो आवश्यक ही है, तो फिर अकेले तत्त्वज्ञानको ही मोक्ष और विपर्ययको ही संसारका कारण क्यों न मानलिया जाय ।
एतेषामप्यनेकान्ताश्रयणे श्रेयसी मतिः ।
नान्यथा सर्वथैकान्ते बन्धहेत्वाद्ययोगतः ॥ ११६ ॥ नित्यत्वैकान्तपक्षे हि परिणामनिवृत्तितः ।
नात्मा बन्धादिहेतुः स्यात् क्षणप्रक्षयिचित्तवत् ॥ ११७ ॥
ग्रंथकार समझाते हैं कि इन लोगोंका उक्त कथन ठीक है, किंतु अनेकांत मठका आश्रम लेनेपर ही उनका पूर्वोक्त मन्तव्य कल्याणकारी हो सकता है । अन्यथा नहीं। क्योंकि सर्वथा एकांत मलका अवलम्ब लेनेपर बंध, बंधका हेतु, मोक्ष, मोक्षका कारण, आदि अवस्था नहीं हो सकती है । कोई युक्ति काम नहीं देती है । देखो, जो ही आत्मा पहिले मिध्यादृष्टि था, I सम्यग्दर्शन पर्याय उत्पन्न हो जानेपर वही सम्यग्दृष्टि बन जाता है। यहां आत्मा कथञ्चित् नित्य है और उसकी ये मिथ्यादर्शन आदि तो बदलती रहनेके कति अनिस हैं ।
यदि आप सांख्य या वैशेषिक आत्माको एकांतरूपसे नित्य होना मानमेका पक्ष ग्रहण करेंगे तो अवश्य आत्मामें पर्यायें होनेको निवृत्ति हो जायेगी । अतः वह मात्मा बंध बंधके कारण, मोक्षकारण, और मोक्षरूप आदि पर्योका कारण न बन सकेगा, जैसे कि बौद्धोंसे माना गया एक ही क्षण समूल चूल नष्ट होनेवाला विज्ञानस्वरूप आत्मा विचारा बंघका हेतु नहीं होने पावा है और सर्वथा क्षणिक माने गये आत्माकी अष्टात कारणोंसे मोक्ष भी नहीं हो सकती है।
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परिणामस्याभावे नात्मनि क्रमयोगपये तयोस्तेन व्याप्तत्वात् । पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्थितिलक्षणो हि परिणामो न पूर्वोत्तरक्षणविनाशोत्पादमात्रं स्थितिमात्रं वा प्रवी त्यभावात् । स च क्रमयौगपद्ययोर्व्यापकतया संप्रतीयते । बहिरन्तश्च बाधकाभावान्ना पारमार्थि को यतः स्वयं निवर्त्तमानः क्रमयौगपद्ये न निवर्तयेत् । ते च निवर्तमाने अर्थक्रियासामान्यं निवर्तयतस्ताभ्यां वस्य व्याप्तत्वात् । अर्थक्रियासामान्यं तु यत्र निरतिशयात्मनि न सम्भवति वत्र बंधमोक्षाद्यर्थक्रियाविशेषः कथं सम्भाव्यते । येनाथं तदुपादानहेतुः स्यात्, निरन्वयक्षणिक चित्तस्यापि तदुपादानत्वप्रसङ्गात् ।
आत्मामें परिणाम होनेका अभाव माननेपर कुछ अर्थ, व्यंजन पर्यायोंका क्रमसे होनापन और कितनी ही गुणरूप सहमावी पर्यायोंका एक काटने होनापन ये नहीं बन सकते हैं। क्योंकि क्रम और यौगपद्य वे उस परिणाम करके व्याप्त हो रहे हैं अर्थात् परिणाम होना व्यापक है और उसके
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सत्यार्थचिन्तामणिः
क्रम, यौगपद्य, व्याप्य हैं। पूर्व स्वभावका त्याग करना और उत्तर कालवर्ती स्वभावका ग्रहण करता तथा स्थूलपर्याय या नही परिणामका नियत लक्षण है । बौद्धों का माना गया केवळ पूर्वक्षणवर्ती स्वभावका अन्ययसहित नाश हो जाना और उत्तर समयवर्ती सर्वथा नवीन ही पर्यायों की उत्पत्ति होना परिणाम नहीं है । अथवा सांख्योंका माना गया केवल तीनों कालमे स्थित रहना ही परिणाम नहीं है। क्योंकि प्रामाणिक परीक्षकोंको बौद्ध और कापिलों के मंतव्यानुसार प्रतीति नहीं हो रही है। किंतु वह हमारा माना हुआ तीन लक्षणवाला परिणाम ही कम और योगपका व्यापक हो करके मली रीतिसे जाना जा रहा है । घट, पट, दाल, शाक आदि बहिरंग पदार्थों में और आमा, ज्ञान, सुख आदिक अंतरंग पदार्थोंमें तीन लक्षणवाला ही परिणाम बाघक प्रमाणोंसे रहित होकर जाना जा रहा है । वह परिणाम होना वस्तुके विवर्तरूप स्वभावोंपर अवलम्बित है | अतः अवास्तविक नहीं है, जिससे कि सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मान लिये गये कल्पित पदार्थ से वह व्यापक परिणाम स्वयं निवृत्त होता हुआ अपने व्याप्य क्रम और यौगपद्यकी निवृत्ति न कर लेवे। भावार्थ — व्यापक परिणामके न रहनेपर सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक आस्मा में व्याप्यस्वरूप क्रमिक माव और युगपत् मात्र भी नहीं रहते हैं और जब एकांत पक्षों में क्रम तथा यौगपद्य निवृत हो जाते हैं तो वे निवृत्त होते हुए सामान्यरूपसे अर्थक्रियाको मी निवृत्त करा देते हैं। क्योंकि उन क्रम और यौगपद्यसे वह सामान्य अर्थक्रिया होना व्याप्त है । व्यापक निवृत्त हो आनेसे व्याप्य भी निवृत्त हो जाता है। जहां मनुष्य नहीं, वहां ब्राह्मण कहांसे आया ! | और अनेक स्वभावसे विवर्च करनारूप चमत्कारोंसे रहित जिस कूटस्थ या क्षणिक आत्मा सामान्य रूप से अर्थक्रिया करना ही नहीं सम्भवता है तो उस अपरिणामी आत्मामें बंधना, छूटना, बंधका कारण मिथ्याज्ञानरूप हो जाना और मोक्षका कारण तत्वज्ञानरूप हो जाना आदि विशेष अर्थक्रियाएं भला कैसे सम्भवित हो सकती हैं? जिससे कि यह आत्मा उन बंब आदिकोका समवायिकारण बन सके | यदि आप सांख्य या नैयायिक पूर्व अतिशयोंको न छोडनेवाले और उत्तर में अनेक चमत्कारोंको न धारण करनेवाले कूटस्थ नित्य आत्माको भी बंध, मोक्ष आदिका उपादानकारण मानेंगे तो बौद्धोंके माने गये अन्वयरहित क्षण क्षण में नष्ट होनेवाले निरन्वय क्षणिक विज्ञानरूप आत्माको भी बन्ध, मोक्ष, आदिका उपादान कारणपना हो जानेका प्रसंग आवेगा, जो किं आप लोगोंको अनिष्ट पडेगा। क्योंकि नित्य आत्मवादी तो बौद्धोंका सामिमान खंडन करते हैं ।
न चात्मनो गुणो भिन्नस्तदसम्बन्धतः सदा । तत्सम्बन्धे कदाचित्तु तस्य नैकान्तनित्यता ॥ ११८ ॥ गुणासम्बन्धरूपेण नाशद्गुणयुतात्मना ।
* प्रादुर्भावाच्चिदादित्वस्थानाल्यात्मत्वसिद्धितः ॥ ११९ ॥
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लापिन्तामणिः
सारूम और बौद्धोंके एकान्सपल का विचार करके मा शिपिकोंके निल आमाका विचार करते हैं कि आत्मासे सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ गुण उस आत्माका नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि उस गुणके साथ भास्माका सप काल में समन्ध नहीं है । जैसे कि कालपरमाणु सा रूपगुणका कभी सम्बन्ध नहीं है । अतः कालपरमाणुका रूपगुण नहीं माना जाता है। यदि आप वैशेषिक ज्ञान आदि गुणों के साथ उस आत्माका कभी कभी समवाय सम्बन्ध होना मानोगे, ता तो उस आस्माके एकान्तरूपसे नित्यपनेकी क्षति हो जावेगी। कारण कि पहिलेके गुणोंसे नहीं सम्बन्ध रखनेवाले स्वरूपसे आत्माका नाश हुआ और गुणसमवायी स्वभावसे आसाका प्रादुर्भाव हुभा तथा चैतन्य, भामस्व, द्रव्यत्व आदि घाँसे आत्मद्रव्यकी स्थिति रही। इस हेतुसे आत्माका उत्पाद, व्यय और प्रौव्य इन तीन स्वभावोसे तात्मकपना सिद्ध हुआ। एकान्त रूपसे आत्माको निस्यता न रही। एक बात यह भी है वैशेषिकोंने सववायको नित्य सम्बन्ध मान रखा है। मतः कवाचित् सम्बन्ध माननेकी बात कच्ची है। __. नापरिणाम्यात्मा तस्येच्छाद्वेषादिपरिणामेनात्यन्सभिन्नेन परिणामित्वात् । धर्माधर्मोत्पत्याख्या बन्धसमवायिकारणत्वोपपत्तेरिति न मन्तव्यं, स्वतोऽत्यन्तभिन्न परिणामेन कस्यचित्परिणामित्वासम्भवाद, अन्यथा रूपादिपरिणामेनास्माकाशादेः परिणामिखप्रसंगात् । ततोऽपरिणाम्येवात्मेति न बन्धादेः समवायिकारणम् ।
वैशेषिक कहते हैं कि कापिलोंके समान हमारा भामा सर्वथा अपरिणामी नहीं है। परिणाम जिसमें रहते हैं, उसको परिणामी कहते हैं । इच्छा, द्वेष, मुख, ज्ञान आदि चौदह गुणरूप सर्वथा मिन्न होरहे परिणामों करके वह आत्मा परिणामी है । और पुण्य पापकी उत्पत्ति है नाम जिसका ऐसे बन्धका समवापी कारणपना भी आत्माके युक्तियोंसे सिद्ध हो जाता है। अतः कापिलों के ऊपर दिये गये दूषणोंका हमारे मतमें प्रसंग नहीं है । अन्धकार कहते है कि यह वैशोषिकों को नहीं मानना चाहिये। क्योंकि अपनेसे सर्वथा भिन्न माने गये परिणामों करके किसी भी द्रव्यको परिणामी पना नहीं सम्भवसा है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार मानोगे अर्थात् सर्वथा भिन्न परिणामसे भी चाहे किसीको परिणामी कह दोगे, तब तो रूप, रस आदि परिणामोंसे पुद्गलके समान आत्मा, आकाश, काल, मन इन द्रव्योको भी परिणामी होजानेका प्रसंग आता है। यानी सर्वथा मिल ज्ञानका परिणामी पुद्गल और रूपका परिणामी आकाश हो जायगा। जैसे सस्वामिसम्बन्ध विना सर्व प्रकार भिन्न रुपयोंसे यदि कोई धनवान् बनजाये तो कोई भिखारी कोषके रुपयोंसे लक्षाधिपति बन जावेगा । इस कारणसे सिद्ध हुआ कि आत्मा भिन्न माने गये परिणामोंसे परिणामी नहीं है। अतः वह बन्ध और बन्धके कारण मिथ्याज्ञानका तथा मोक्ष और मोक्षके कारण सत्वज्ञानका उपादान कारण नहीं हो सकता है।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
नाप्यात्मान्तःकरणसंयोगोऽसमवायिकारणं, प्रागदृष्टं वा तद्गुणो निमित्तकारणं, तस्य aat भिन्नस्य सर्वदा तेनासम्बन्धात् । कदाचित्तत्सम्बन्धे वा नित्यैकान्यहानिप्रसंगात्, स्वगुणासम्बन्धरूपेण नाशाद्गुण सम्बन्धरूपे गोत्पादाच्चेतनत्वादिना स्थितेस्वत्त्रयात्मकत्वसिद्धेः ।
तथा वैशेषिक समवायिकारणमै रहनेवाले कारणको असमवायि कारण कहते हैं । आत्मामै रहनेवाला आत्मा और मनका संयोग है वह अदृष्टोकी उत्पत्तिरूप बंत्रकी या मिथ्याज्ञान और तत्त्वज्ञानों की उत्पत्तिमें असमवायिकारण माना गया है, सो भी नहीं हो सकता है। क्योंकि जब आत्मा समवायीकारण ही सिद्ध नहीं हुआ तो समवायी कारणमै रहनेवाले गुण कमोंको असमवायी कारणपना माना गया कैसे भी सिद्ध नहीं हो सकता है । और बंधरूप संसारकी उत्पत्तिमे वैशेपिकोने आत्मा के विशेषगुण पहिलेके पुण्य पापको बंधका निमित्तकारण माना है । सो मी नहीं बन पाता है। क्योंकि आमासे सर्वथा भिन्न उस पुण्यपापका उस आत्माके साथ सभी कालों में संबंध नहीं है। यदि किसी कालमै आत्मा के गुणोंका उस आत्मासे संबंध मानोगे तो आत्माके एकांत रूप से निस्यपनेकी हानि हो जावेगी । कारण कि जबतक आत्मामें विवक्षितगुण उत्पन्न नहीं हैं, उस समय आत्मामें गुणोंसे असम्बन्ध करना स्वभाव है । जब विवक्षित गुण उत्पन्न हो जाते हैं । तब उस समय गुणोंसे असम्बन्ध होना रूप अपने पहिले स्वभाव करके आत्माका नाश हुआ और नवीन गुणका सम्बन्धरूप स्वभाव करके आत्माका उत्पाद हुआ। तथा चेतनपना, आश्मपना, सपना, यदि धर्मोसे आत्मा स्थित रहा। इस कारण उस आत्माको तीन लक्षणस्वरूप परिणामीपना सिद्ध होता है । प्रत्येक द्रव्यमै उत्पाद, व्यय, धौव्य ये तीनों लक्षण विद्यमान हैं। इन तीनोंका विस्तार यों है कि स्वकीय द्रव्यत्व गुण द्वारा स्वभावसे परिणमन करते हुए द्रव्य कारणान्तरोंकी नहीं अपेक्षा करके उत्पाद आदि तीन सामान्यरूपसे सर्वदा होते रहते हैं। हां, विशेषरूपसे किसी धर्मकी उत्पत्ति आदि अन्य हेतुओंका व्यापार भी इष्ट किया है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा से उत्पत्ति होनेका इच्छुक ही आत्मा नष्ट होता है । क्योंकि पहिली दुःखरूप पर्यायका नाश होकर अपने अनेक स्वभावों में स्थिर रहनेवाला आत्मा ही उत्तरकालमें अपनेसे अभिन्न होरहीं सुख आदि पर्यायोंको पैदा करता है तथा नाशशील आत्मा ही स्थित रहता है, जो किसी प्रकार भी नाशको प्राप्त नहीं होता है। वह घोडेके सींग समान स्थिर भी नहीं है । एवं स्थितशील पदार्थ ही उत्पन्न होता है। उस कारण प्रत्येक वस्तुमें एक ही कालमें तीनों लक्षण पाये जाते हैं, तथा स्थितिरूप भाव उत्पन और विष्ट होता है तथा विनाश ही स्वभाव स्थित रहता है और उसन्न होता है एवं उत्पाद स्वभाव ही नष्ट और स्थिर होता है। इस प्रकार स्थिति आदि स्वभावों में भी त्रिलक्षणता है। द्रव्य और पर्याय स्वरूपवस्तु अभेद होनेसे विलक्षणता माननेपर कोई अनवस्था दोष नहीं है । तथा स्थितिस्वभाव ही भविष्य में स्थित रहेगा, उत्पन्न होगा, विनशेगा और स्थितस्त्रभाव ही स्थिर रहचुका है, उत्पन्न होचुका है, नष्ट होचुका है, एवं विनाश स्वभाव ही ठहरेगा, उत्पन्न होगा, नशेगा और स्थित रहचुका है, उत्पन्न
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तस्त्वार्थविभ्वामणिः
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हो चुका है, नष्ट होचुका है । तथा उत्पत्तिस्वभाव ही उत्पन्न होगा, विनशेगा, ठहरेगा और उत्पन्न होचुका, नष्ट होचुका, स्थित रहनुका है । इन स्थिति आदिक रूप वस्तु अनादिसे अनन्त कालतक विराम लिये विना परिणमन कररहा है। ऐसे ही आत्मा स्थित है, स्थित रह चुका है, स्थित रहेगा, विनश रहा है, नष्ट होचुका, नशेगा और उत्पन्न होरहा है । उत्पन्न हो चुका, उत्पन्न होवेगा । इस प्रकार तीनों काळकी अपेक्षासे इन नौ मनोंके प्रत्येकके नौ भेदोंकी अपेक्षासे इक्यासी मेदवाकी वस्तु होजाती है । ऐसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके तीनों काल और परस्पर के सांकर्यसे त्रिलक्षताके अनेक मेद प्रभेद होजाते हैं। वस्तुकी सचा अनन्तपर्यायों से युक्त । इसका विशेष विवरण श्री अष्टइसी मैथ में देख लेना । एक पुरुष वर्तमान में सत्यवती है । पहिले नहीं था और आगे भी सत्य बोलनेवाला नहीं रहेगा तथा दूसरा पुरुष पहिले सत्यवती था, अब मी है और आगे नहीं रहेगा तथा तीसरा पुरुष पहिले सत्यवती नहीं था, किंतु अब है और आगे भी रहेगा। चौथा पुरुष तीनों कालमें सत्यत्रती है। इन चारों पुरुषों में वर्तमान में सत्य बोलना बराबर है, किंतु मूत भविष्यत् के रहित, सहित, परिणामोंसे वर्तमान के सत्यत्रतमे आनुषंगिक दोष और गुण आजाते हैं । अतः वर्तमान मत पालने में भी सूक्ष्मता से चारों पुरुषोंमें मेद है । कारण कि आत्मा अन्वितद्रव्य है । पहिले पीके के अनुसार संस्कारोंको तथा स्वकीय गुणोंके अधिकारोंको लेता, देता, छोडता, रहता है। तदनुसार उसमें अनेक खोटे खरे अतिशय उत्पन्न होजाते हैं । इसी प्रकार एक मनुष्य वर्तमान में सत्यवती है और ब्रह्मचारी भी है। किंतु वह पहिले पाचारी नहीं था और जागे भी नहीं रहेगा, दूसरा सत्यवती पहिले ब्रह्मचारी था और अब भी है, किंतु आगे न रहेगा । तीसरा सत्य बोलनेवाला वर्तमान ब्रह्मचारी है, आगे भी रहेगा किंतु पहिले ब्रह्मचारी नहीं था। चौथा सबती तीनों कालों में महाचारी है। यहां दूसरे ब्रह्मचर्य के रहित सहितपनेसे या कालकी त्रिगुणटासे सत्यत्रतके सुक्ष्म अंशोंमें भेद माना जाता है । ऐसे ही अचौर्य गुणके साथ भी लगा लेना ! यदि इन गुणोंकी मनः वचन, काय और कृष, कारित, अनुमोदना तथा कालकी अपेक्षासे प्रस्तार - विधि की जावेगी तो करोडों भेद प्रभेद होजायेंगे। ये भेद कोरे कल्पित नहीं हैं। किंतु वस्तुके स्वाभाविक परिणामोंकी भित्ति पर अवलम्बित है । सीता, अंजना, गुणमाला, द्रोपदी, विशल्या आदि स्त्रियों के समान ब्रह्मचारिणी स्त्रियां अनेक हुयी हैं । किंतु अन्य अनेक गुणों के साथ त्रियोगसे त्रिकालमें अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन विशेषरूपसे इनका प्रशंसनीय है। पुरुषों में अनेक ब्रह्मचारी पुरुष हुए हैं। किन्तु वारिषेण या चरमशरीरी कामदेव सुदर्शन सेठ आदिके समान नहीं । विरोधी कारण सामग्रीके मिलनेपर अखण्ड ब्रह्मचर्य रक्षित रखना इनका प्रशंसनीय कार्य कहा है। तीर्थकर महाराजके ब्रह्मचर्य की वो अचिन्त्य महिमा है । रूप, घन विद्या, प्रभुता, और सन्तानके अन्योन्य अनुगुणसहित, रहितपनेसे तथा संकर व्यतिकरपनेसे लौकिक पुरुषोंके परिणाम न्यारे चोरी, व्यभिचार, हिंसकपन आदि दोषों में भी लगा लेना । ये सब भावोंके अनेक प्रकारसे त्रिकक्षणात्मक होनेसे ही उत्पन्न होजाते हैं ।
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न्यारे हो जाते हैं । एवं स्वभाव आत्मा के अनेक
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सत्त्या चिन्तामणिः
एतेनास्मनो भिन्नो गुणः सत्त्वरजस्तमोरूपो बधादिहेतुरित्येतत्प्रतिघ्यूई, तेन तस्य शश्वदसम्बन्धेन तद्धेतुत्वानुपपचेः । कदाचित्सम्बन्धे त्र्यात्मकत्वसिद्धरविशेषात् ।
इस पूर्वोक्त वैशेषिकके मतका स्वण्डन कर देनेसे सांख्योंके इस सिद्धांतका मी निरास हो जाना है कि आत्मासे सर्वथा भिन्न मानी गयी प्रकृतिके सत्व गुण, रजोगुण, और तमोगुणरूप माव आत्माके बंध तथा मोक्ष आदिके कारण हैं । सांख्योंने उन सत्वरजस्तमो गुणोंका उस आत्माके साथ सदासे ही संबंध होना नहीं इष्ट किया है। पुरुषको जलकमलपत्रक समान सर्वथा निर्लेप माना है। पेखी दशामें वे मित्न पडे हुए गुण विचारे आकाशके समान आत्माके उस पंध, मोक्ष, होनेमें कारण नहीं सिद्ध हो सकते हैं। यदि किसी समय तीन गुणोंका आत्मासे संबंध होना मान लोगे तो तीन स्वभावपना आत्मा विना अन्तरके सिद्ध हो जावेगा । भावार्थ-स्याद्वादिओंके सिद्धांत अनुसार उत्पाद, व्यय, प्रौव्यसे सीन स्वरूपपना जैसे आत्माम सिद्ध होगा, वैसे ही तीनपनेको धारण करते हुए सत्वरजस्तमके स्वरूप मी बन जावेंगे । तभी षंघ, मोक्ष, आदि व्यवस्था हो सकेगी। अन्यथा कोई उपाय आपके पास नहीं है।
यद्विनश्यति तद्रूपं प्रार्दुभवति तत्र यत् । तदेवानित्यमात्मा तु तद्भिन्नो नित्य इत्यपि ॥ १२० ॥ न युक्तं नश्वरोत्पित्सुरूपाधिकरणात्मना । कादाचित्कत्वतस्तस्य नित्यत्वकान्तहानितः ॥ १२१ ॥
यहां नित्य आत्मावादी कहते हैं कि उस आत्मामें ओ गुण या धर्म उत्पन्न होता है, वही अनिस्य है। आस्मा तो उन गुण और स्वभावोंसे सर्वथा भिन्न है। अतः उसका पालाममात्र मी न्यून, अधिक, नहीं होने पाता है । इस कारण आत्मा अक्षुण्णरूपसे कूटस्थ नित्य बना रहता है ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार प्रतिवादियोंका कहना मी युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि नाश स्वभाव और उत्पत्ति स्वभाववाले गुण या धोके आधार स्वरूपपने करके उस आमाको मी कमी कभी होनापन है । मतः आपके मसमें उस आस्माके नित्यताके एकांतपक्षकी हानि हो जाती है। भावार्थ-भले ही आला पटकी इच्छा नष्ट हो और. पटकी उत्पन हो अथवा रजसका ज्ञान नष्ट होवे और सुवर्णका ज्ञान होवे, किंतु ऐसी दशामें भी जो आत्मा पहिले समयमें घटकी इच्छा
और रजतके शानका अधिकरण था, दूसरे समयमें आत्मा उस अधिकरणपन स्वभावसे नष्ट हो जाता है तथा पटकी इच्छा और सुवर्ण ज्ञानके अधिकरण स्वभावसे नवीन उत्पन्न हो जाता है। मतः आत्मा भी कवञ्चित् उत्पाद विनाशोंसे सहित है। अन्यथा जैसे पूर्व था वैसा ही मना रहना चाहिये । कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिये था । रोगीसे नीरोग होना, मूर्खसे पण्डित बन आना, ये सब क्या है।
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तत्यार्थचिन्तामणिः
- कदाचिन्नश्वरस्वभावाधिकरणं कदाचिदुत्पित्सुधर्माधिकरणमात्मा नित्यैकांवरूप इति ब्रुवभ स्वस्था, कादाचित्कानेकधर्माश्रयत्वस्यानित्यत्वात् ।
जो नैयायिक आत्माको कभी तो नाश होनेवाले गुण, स्वभावोंका अधिकरण मानता है और कभी उत्पन्न होनेवाल बर्माका अधिकरण स्वीकार करता है, फिर भी उस आत्माको एकांतरूपसे कूटस्थ निस्य कई ही जाता है । इस प्रकार बोलनेवाले वैशेषिक, सांख्य या नैयायिक मालूम पडते हैं कि वे आपमें नहीं है । जो जन बातकोप या ग्रहावेशसे ग्रसित है, वह उन्मत्र ही युक्ति रहित पूर्वापरविरुद्ध बातोंको कहा करता है। प्रकृत आत्मामें कभी कभी उत्पन्न और नष्ट होनेवाले अनेक धोका आश्रयपन है । अनित्य आधेयोंके आधारसे अभिन्न भी अनित्य है तथा कमी कमी होनेवाला अधिकरणपन तो आत्मासे अभिन्न है। इस हेतुसे भी आत्मा अनित्य सिद्ध होता है। जैसे कि हरे रूप और खट्टे रसको धारण करनेवाला आम्र फल पीछे पीला रूप और मीठे रसका आधार होनेसे अनित्य माना जाता है।
नानाधर्माश्रयत्वस्य गौणत्वादात्मनः सदा । स्थास्नुतेति न साधीयः सत्यासत्यात्मताभिदः ॥ १२२ ॥
नित्य आत्मवादी कहते हैं कि आगे पीछेके नष्ट, पैदा होनेवाले अनेक धर्मोका अधिकरणपना आमाका आरोपित गौण धर्म है । फटे कुर्ताके उतारनेसे और नये कुताके पहिननेसे देवदत्त नहीं बदल जाता है । एक रुपया चला गया, दूसरा रुपया आगया, एतावता जिनदत्त विपरिणाम नहीं होजाता है । अतः अपनेसे भिन्न होरहे धर्माकी अधिकरणता आत्मामें एक कल्पना किया गया -गौण धर्म है, बहिर्भूत गौणधर्मसे आत्मा अनित्य नहीं बन जाता है । अतः सर्वदा आमाको स्थितिस्वभाववाला ही हम कहते हैं । हम उन्मत्त नहीं है । ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार कहना बहुत अच्छा नहीं है। क्योंकि सर्वदा स्थित रहनेवाले आत्मत्व, महापरिमाण, अजसंयोग, आदि धोको आप मुख्यरूप करके आत्मामें सत्यरूपसे विद्यमान मानते हैं और घटज्ञान, रजतकी इच्छा आदिकी अधिकरणतारूप धर्मोको गौण रूपसे मानते हुए वास्तवमें असत्य मानते हैं। फिर भी सत्य और असत्य स्वरूपपने करके आत्माका भेद सिद्ध होता है । अतः आमा अनित्य सिद्ध हुआ।
सत्यासत्यस्वभावस्वाभ्यामात्मनो भेदः सम्भवतीत्ययुक्तं, विरुद्धधर्माच्यासलक्षणत्वावेदस्थान्यथारमानात्मनोरपि भेदाभावप्रसंगात् ।
यदि बास्माको नित्य माननेवाले फिर भी यों कहेंगे कि सत्य स्वभाव होने और असत्यस्वमाव हो जानेसे आत्माका भेद है यानी वे सत्य और असत्य स्वमाव भी आत्मासे मिस है। 78
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तस्वार्थचिन्तामणिः
अतः उन हरमात्रों में ही भेद सम्मत्रता है । आत्मा तो कूटस्थ नित्य एक है। उनका यह कहना भी युक्तिशून्य है। क्योंकिभेदका लक्षण विरुद्ध धर्मोसे आक्रांत हो जाना ही है, ऐसा न मानकर यदि अन्यथा मानोगे यानी अधिकरणसे अधिकरणपन स्वभावको न्यारा मान लिया जायेगा तब सो आस्मा और अनाला भेद न होनेका प्रसंग हो जावेगा । कर्थात् आत्मामें ज्ञान, सुख आदिकी आदिकी अधिकरणता है । तभी तो जब और चेतनका भेद मी उठ जायेगा । अतः आरमा
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करता है और जड पृथ्वी आदिमें रूप रस चेतन भेद माना जाता है । ऐसा माने विना जड, मी मित्र समावाला होकर अनित्य है ।
असत्यात्मकतासत्वे सत्त्वे सत्यात्मतात्मनः ।
सिद्धं सदसदात्मत्वमन्यथा वस्तुताक्षतिः ॥ १२३ ॥
यात | नहीं विद्यमान किंतु गौणरूपसे आरोपित किये गये असत् स्वरूप धर्मोकी अपेक्षासे आत्माको असत् मानोगे और सर्वदा विद्यमान रहनेवाले सत्य स्वरूप स्वभावकी अपेक्षा से आत्माको सर्वदा सत् मानोगे तब तो आत्माको सत् और असत्स्वरूपपना सिद्ध हो जाता है । अन्यथा आत्माको वस्तुपनेषी ही क्षति हो जायेगी । भावार्थ-सत् असत् धर्मात्मक वस्तु होती है । स्वतुष्टयकी अपेक्षासे पदार्थ सत् है और परचतुष्टय की अपेक्षा असत् है । अन्यथा खरविषाणके समान 'शून्यपने या साकये दो जानेका प्रसंग होगा ।
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नानाधर्माश्रयत्वं गौणमसदेव मुख्यं स्थायि तु खदिति वच्चतो जीवस्यैकरूपत्वमयुक्तं सदसत्स्वभावत्वाभ्यामनेकरूपत्वसिद्धेः । यदि पुनरात्मनो मुख्यस्वभावेनेवोपचरितस्वभावेनापि समु क्रियते तदा तस्याशेपपररूपेण सच्चप्रसक्तेरात्मत्वेनैव न्यवस्थानुपपत्तिः सत्तामात्रवत्सकलार्थं स्वभावत्वात् । तस्योपचरितस्वभावेनैव मुख्यस्वभावेनाप्यसन्धे कथमवस्तुत्वं न स्यात् । सकलस्वभावशून्यत्वात् खरगवत् ।
आत्मार्गे नाना धर्मो का आश्रयपना गौण आरोपित धर्म है। अतः असत् ही है तथा आत्मव आदि मुख्यधर्म तो सर्वेदा टिकाऊ हैं। अतः सत्स्वरूप है। वास्तवमे विचारा जावे तो जीव अपने स्थायी एक सत् रूप ही है, असत् अंश उसमे सर्वथा नहीं है । अतः असतुरूपजीव किञ्चित् भी नहीं है । यह किसी नैयायिकका कहना अयुक्त है। क्योंकि सत् और असत् दोनों स्वभाव होनते जीव अनेक धर्मस्वरूप सिद्ध हो चुका है। यदि जीवको सर्व प्रकारसे सद्रूप ही माना जायेगा तो मुख्य स्त्रभावोंसे जैसे जीव का सद्रूपपना है, वैसे ही गौण कल्पित स्वमानों करके भी सत् रूपपना स्वीकार किया जावेगा, तब तो उस जीवको सम्पूर्ण जडपना, रसवान्पना, गंधवानूपना आदि दूसरोंके स्वभाव करके मी सदरूपपनेका प्रसंग जावेगा । अतः वह जीव उन जड, पृथ्वी,
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आकाश, स्वरूप बन जायेगा । तथा च पृथ्वीपने आदिको टालकर जीवकी आत्मपने करके ही. व्यवस्था होना न बन सकेगी। सब जड़ और चेतन पदार्थों का सांकर्य हो जायेगा। केवल ( शुद्ध ) सताके समान सम्पूर्ण पदार्थ सभी पदार्थों के स्वभाववाले हो जायेंगे ! यह बड़ी भारी अव्यवस्था होगी । माद्वैत छा जावेगा । पातित्रत्य, अचौर्य धर्म नष्ट हो जायेंगे । बच्चा अपनी माकी गोदको प्राप्त न कर सकेगा । चोर, ढांकू, व्यभिचारियोंको दण्ड न मिल सकेगा | अधिक कहने से क्या काम है । उक्त दोष परिहारके लिये आप नैयायियोंको परिशेषमें यही मानना पड़ेगा कि अपने स्वभावों करके पदार्थ सद्रूप हैं और अन्य के स्वभावोंकरके वस्तु असतूरूप है । तथा आप नैयायिक यदि उपचरित स्वभाव करके वस्तु जैसे असत्रूप है, वैसे ही मुख्य अपने स्वभावोंकर के भी उसको असतूरूप मानोगे तो उसको अवस्तुपना क्यों नहीं होगा ! क्योंकि परकीय स्वमासे शून्य तो वस्तु थी दी और अब आपने स्वकीय मुख्य स्वभावोंसे भी रहित मान लिया है। ऐसी दशा में सम्पूर्ण स्वभावसे शून्य होजानेके कारण गधे के सींग समान वह अवस्तु, असतूरूप, शून्य पयों नहीं हो जावेगी ! आप कुछ न कह सकेंगे, न कर सकेंगे ।
"
ये खाहुः उपचरिता एवात्मनः स्वभावभेदा न पुनर्वास्तवास्तेषां ततो भेदे तत्स्वभावानुपपतेः । अर्थान्तरस्वभावत्वेन सम्बन्धात्तत्स्वभावत्वेप्येकेन स्वभावेन तेन तस्य तैः सम्बन्धे सर्वेषामेकरूपतापत्तिः, नानास्वभावैः सम्बन्धेऽनवस्थानं तेषामध्यन्यैः स्वभावैः सम्बन्धात् ।
यहां जो निश्व आत्मवादी ऐसा लम्बा चौड़ा कथन करते हैं कि आत्माके मिन मिन वे अनेक स्वभाव कल्पना किये गये ही हैं। वास्तविक नहीं है । क्योंकि उन अनेक स्वभावको उस एक आत्मासे भेद माननेपर उनमें उस आत्माका स्वभावपना नहीं सिद्ध होता है । जैसे कि ज्ञानसे सर्वथा भिन्न माने गये गंध, रूप व्यादि गुण ज्ञानके स्वभाव नहीं होते हैं। यदि आप जैन आत्मा के उन भिन्न स्वभावका अन्य मिन मापने कर के संबंध होजानेसे आत्माके उनको स्वभावपना मानोगे तो हम नैयायिक कहते हैं कि एक उस स्वभाव करके आत्माका उन स्वमानोंके साथ संबंध माना जावेगा, तब तो उन सर्व ही स्वभावको एक होजाने का प्रसंग होगा। हाथके जिस प्रयत्नसे एक अंगुली नमें उसी प्रयत्नसे दूसरी अंगुली नम जाय तो समझ लो कि वे अंगुली दो नहीं, किंतु एक ही है। यदि वे अंगुली दो हो तो निश्चय है कि दूसरा प्रयत्न कार्यको कर रहा है, एक नहीं । पेडा, गुड, चना, सुपारीको क्रमसे खानेपर यदि जबडेका उतना ही पुरुषार्थ लगा है तो समझ लो कि आपने एक ही चीज खाई है चार नहीं । और भिन्न भिन्न नाना स्वभावसे यदि उन भिन्न स्वभावों के साथ आत्माका संगन्य माना जावेगा तो अनवस्था दोष होगा। क्योंकि उन स्वमायके साथ संबन्ध करने के लिये मी पुनः
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सीसरे चौथे पांचवे यदि अनेक स्वभावों करके सम्बन्ध मानने पडेंगे और उन तीसरों मादिके सम्बन्धार्थं चौथे आदि अनेक स्वभाव मानने पड़ेंगे । पत्र कागज ) के समान गोंदका मी दूसरे गोंद से चिपकना मानोगे तो आकांक्षा शान्त न होनेसे अनवस्था दोष हो जाता है । उन भागे आगेवाले स्वभावका भी अन्य अन्य चौथे, पांच, आदि स्वभाव करके सम्बन्ध होनेसे कहीं भव-स्थान ( रुकना ) नहीं होपाता है ।
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मुख्यस्वभावानामुपचरितैः स्वभावैस्तावद्भिरात्मनोऽसम्बन्धे नानाकार्यकरणं नानाप्रतिभासविषयत्वं चात्मनः किमुपचरितैरेव नानास्वभावैर्न स्यात् येन मुख्यस्वभावकल्पनं सफलमनुमन्येमहि ।
अभी नित्य आत्मवादी ही कह रहे हैं कि यदि जैन लोग अनवस्थाके निवारणार्थ उन अनेक मुख्यत्रभावोंका उतनी संख्यावाले मुख्य स्वभावोंसे आत्मा के साथ संबंध होना न मानेंगे, किंतु नापी गयी उतनी संख्यावाले उपचरित स्वभावोंसे ही उन मुख्य स्वभावका आत्मामें संबंध न . होते हुए भी " ये आत्मा के मुख्यस्वभाव हैं." इस प्रकारकी नियत व्यवस्था कर दी जायेगी । ऐसी दशा में आकांक्षायें न बढनेसे अनवस्था दोषका तो वारण हो गया। किंतु जैनोंका उन अनेक मुरूस्वभावका मानना व्यर्थ पडेगा | जैसे मुख्यस्वभावोंको धारण करनेके लिये पुनः आत्मामें दूसरे मुख्यस्वभाव नहीं माने जाते हैं किंतु कल्पित स्वभावोंसे ही वे मुख्यस्वभाव आत्मा के निय मिल कर दिये जाते हैं। यदि कल्पितस्वभाव मुख्यस्वभावको आत्मामें नियमित करनेकी व्यवस्था कर देते हैं तो वैसे ही उन कल्पित होरहे अनेक स्वभावों करके ही आत्मा के मुख्य स्वभावोंसे होनेवाले अनेक कार्यों को करना और अनेक ज्ञानोंका विषय हो जानारूप कार्य भी क्यों नहीं हो जायेंगे ? जिससे कि जैनों के मुख्य स्वभावोंकी कल्पना करनेको हम लोग सफल विचारपूर्वक समझे । भावार्थ - जैनोंके द्वारा वास्तविक स्वभावकी कल्पना करना व्यर्थ ही पड़ा |
नानास्वभावानामात्मनोनर्थान्तरत्वे तु स्वभावा एव नात्मा कश्विदेको भिभेम्योनर्था-न्तरस्यैकत्वायोगात्, आस्मैव वा न केचित्स्वभावाः स्युः, यतो नोपचरितस्वभावन्यनस्थात्मनो न भवेत् ।
मी वे ही कह रहे हैं कि आत्माके अनेक स्वभावोंको जैन लोग यदि आत्मासे अभिन्न मानेंगे तब तो वे अनेक स्वभाव ही मानने चाहिये। एक आत्मा द्रव्य कोई भी न माना जावे, या क्षति है ? | मिन अनेक स्वभावसे जो अभिन्न है, वह एक हो भी नहीं सकता है। भला ऐसा कौन विचारशील है जो भिन्न अनेक स्वभावोंसे एक आत्माको अभिन्न कह देवे ! | तथा दूसरी बात यह है कि स्वभावको आत्मासे अभिन्न माननेपर आत्मा ही एक मान लिया जावे, दूसरे कोई अनेक स्वभाव न माने जावे जिससे कि मुख्य स्त्रभावोंके समान आत्मा के उपचरित स्वभाव मी
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नहीं हैं। यह व्यवस्था नहीं होती । भावार्थ- आत्मा न मुख्यस्वभाव हैं और उपचरित स्वभाव ही हैं । किंतु आत्मा सम्पूर्णस्वभावोंसे रहित होकर निःस्त्रभावरूप है । कूटस्थ नित्य है
कथञ्चिद्भेदाभेदपक्षेऽपि स्वभावानामात्मनोऽनवस्थानं तस्य निवारयितुमशक्तेः । परमार्थतः कस्यचिदेकस्य नानास्वमावस्य मेचकज्ञानस्य ग्रायाकारवेदनस्य वा सामान्यविशेषादेव प्रमाणबला व्यवस्थानात्तेन व्यभिचारा सम्भवादिति ।
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अभीतक कूटस्थ आत्मवादी ही कह रहे हैं कि जैन लोग आत्मा के साथ उसके अनेक स्वभा वोका कथञ्चित् भेद और कथञ्चिद अभेद पक्षको यदि स्वीकार करेंगे तो भी अनेक स्वभावका आत्मामें अवस्थान नहीं हो सकेगा। क्योंकि भेद पक्षके अंश अन्य स्वभावोंकी कल्पना करते करते अनवस्थान हो जायेगा | जैन लोग उसका वारण नहीं कर सकते हैं। दूसरी बात यह हैं कि अनेकान्त पक्ष संशय, विरोध, वैयधिकरण्य, सक्कर व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपति, और अभाव ये आठ दोष आते हैं। अतः एक आत्मा के अनेक स्वभावोंकी व्यवस्था करना अनेकान्त मटमें अशक्य है । यदि जैन लोग दूसरे दार्शनिकोंके स्वीकृत तत्वोंको दृष्टान्त मानकर अपने कथञ्चित् भेद, अभेदकी पुष्टि करेंगे, सो भी न हो सकेगी। क्योंकि हम सांख्य उन दृष्टान्तोंकी प्रमाणों के द्वारा व्यवस्थिति होना नहीं मानते हैं। चित्राद्वैतवादी बौद्धोंने नीलाकार, पीताकार, हरिसाकार आदिक अनेक आकारोंवाला एक चित्रज्ञान माना है। वह एक होकर अनेक स्वभाववाला है। किन्तु इसकी प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं कर सके हैं। क्योंकि उनका अशक्यविवेचनस्व हेतु त्वामास है इसका विचार आप जैनोने ही पहिले प्रकरण में कर दिया है। तथा एक ज्ञानमें ग्राह्य अंश ग्राहक. अंश और संवित्ति अंश ये तीन अंश मानना भी प्रमाणसिद्ध नहीं हैं । एवं नैयायिकोंने व्यापक सता जातिको परसामान्य माना है और पृथिवीस्व, घटत्व आदिको विशेषरूप से व्याप्य अपरसामान्य कहा है। किन्तु मध्यवर्ती द्रव्य, गुणत्वको सामान्यका विशेष माना है । घटत्व, पटत्वको विशेष ( व्याप्य ) सामान्य कहा जावे तो द्रव्यत्र व्यापक सामान्यके और घटत्व, पटत्व विशेष सामान्य के मंझले पृथिवीत्व, जलव आदिको भी सामन्यका विशेष माना है। भावार्थ---द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि जैसे सामान्य होकर भी विशेषरूप हैं, वैसे ही कथञ्चित् भेदाभेदको हम जैन मानलेते हैं। सो यह मी दृष्टान्त प्रामाणिक नहीं है । क्योंकि जातियोंके पक्ष में नैयायियोंका मन्तव्य वैसा ही निर्बल है । ऐसे ही सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणस्वरूप एक प्रकृतितत्त्व या नर्तकी आदि दृष्टान्तसे मी तुम्हारे अनकांतकी सिद्धि नहीं होसकती है । अतः एक आत्मा के नाना स्वमावले रहित सिद्ध करनेके लिये दिये गये हमारे मुख्यरूपसे एकत्व हेतुका उन अनेक स्वभावरूप एक मेचकज्ञान ( चित्रज्ञान ) आदिसे व्याभिचार होना कैसे भी नहीं सम्भव है । इस प्रकार यहांतक कूटस्थ आत्मवादी कहचुके, अब आचार्य महाराज कहते हैं कि
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सेप्यनेनैव प्रतिक्षिताः, स्वयमिष्टानिष्टस्वभावाभ्यां सदसत्त्वस्वमावसिद्धेरप्रतिबंधात् । न च कस्यचिदुपचरिते सदसवे तत्वतोनुभयत्वस्य प्रसक्तेः। तच्चायुक्तं, सर्वथा व्याधाताद ।
इस प्रकार आमाको सर्वथा नित्य कहनेवाले वे भी हमारे पूर्वोक्त कथनके द्वारा ही सिरस्कृत (खण्डित ) कर दिये जाते हैं । क्योंकि अपने लिये स्वयं इष्ट माने गये स्वभाव करके आत्माको . सवस्वभाव माना जावेगा और अपने लिये अनिष्ट कहे गये स्वभावके द्वारा उसी आमाके असत्पनेकी सिद्धि की जावेगी तो एक आत्मामें सत और असत् ऐसे दो स्वभावोंकी सिद्धि होनेका कोई प्रतिबंध नहीं है। अन्यथा कूटस्थवादी अपनी आत्माको ही सिद्ध न कर पावेंगे । किसी वस्तुफे केवल उपचारसे माने गये सत्व भौर असत्व स्वभाव कुछ कार्यकारी नहीं होते हैं। यदि मुख्यरूपसे सत्व और असत्व न माने जावेंगे तो वस्तुमें यथार्थरूपसे अनुमयपनेका प्रसंग आता है और वह वो अयुक्त है। कोरा भनुमयपना तो खरविषाण आदि असत् पदार्थोंमें माना गया है। वस्तुमे सत्.
और असत्का निषेध कर सर्वथा अभयाणा आप पिक नहीं ६॥ सफरो है । पयोंकि इसमें व्याघात दोष है जिस समय सत् स्वभावका निषेध करने बैठोगे, उसी समय असत् स्वमावका विधान हो आवेगा और जिसी समय असत् स्वभावका निषेध किया जावेगा, उसी क्षणमें सत् स्वभावके विधिको उपस्थिति हो जावेगी। युगपर दोनों स्वभावोंका निषेध कभी नहीं हो सकता है। जो चुप है, वह चिल्लाकर अपने मौनव्रतका वखान नहीं करता है और जो हल्ला करके अपने मौनीपनेका ढिंढोरा पीट रहा है, वह उस समय चुप नहीं है । चुप रहकर मौन व्रतको चिल्लाकर कहना एक समय पर नहीं सकता है। इस प्रकार सर्वथा अनुभयपक्ष माननेमें यह व्याघात दोष आता है।
कथञ्चिदनुभयत्वं तु वस्तुनो नोभयस्वभावतां विरुणद्धि, कथं धानुभयरूपतया तत्वं तदन्यरूपत्या चातवमिति ब्रुवाणः कस्यचिदुभयरूपतां प्रतिक्षिपेत् ।
हां ! यदि आप किसी अपेक्षासे सत्, असत्का निषेध करनारूप अनुभय पक्ष लेंगे, तब तो वह कथञ्चित् अनुभयपना वस्तुके उभय स्वभावपनेका विरोध नहीं करता है, जैसे सर्वथा सत्का सर्वथा असत्से विरोध है । किंतु कथञ्चित्स्वरूप सत्का कथञ्चित् पररूप असत्से विरोध नहीं है । ऐसे ही सर्वथा अनुभयका सर्वथा उभयसे विरोष है, किंतु कथञ्चित अनुभयपनेका कथञ्चित् उभयपनेसे विरोध नहीं है । दूसरी बात यह है कि जो कूटस्थवादी सत् असत् स्वभावोंसे रहित अनुभवरूपपनेसे आत्मतत्वको मानरहा है, वह भी अनुमय स्वभावसे तत्त्वपना और उससे अन्य उभय, सत्त्व, आदि सभावोंसे आस्माको अतत्वपना अवश्य कहरहा है। ऐसा कहनेवाला किसी भी वस्तुको उमयरूपताका भला कैसे खण्डन करसकता है। क्योंकि स्वयं उसने उभयरूपवाको अपनी गोदमें ले रखा है।
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तवाचिन्तामणिः
न साध्यसनोमयं नानुभयमन्यद्वा वस्तु, किं तर्हि १ वस्स्वेव सकलोपाधिरहितवातथा वक्तुमशक्तेरवाच्यमेवेति चेत्, कथं वस्त्वित्युच्यते १ सकलोपाधिरहितमवाच्यं वा १ वस्त्वादिशब्दानामपि तत्राप्रवृत्तेः ।
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यहां कोई एकांतरूपसे वस्तुको अवक्तव्य कहनेवाला बौद्ध अपना मत यों कह रहा है कि वस्तु सत्रूप भी नहीं है और असत्रूप भी नहीं है तथा सत् असत्का उभयरूप भी नहीं है । एवं सत् असत् दोनोंका युगपत् निषेधरूप अनुभव स्वरूप मी नहीं हैं अथवा अन्य धर्म या घर्मीरूप मी नहीं हैं। तब तो कैसी ? क्या वस्तु है ? इसपर हम बौद्धोंका यह कहना है कि वह वस्तु वस्तु ही है | संपूर्ण विशेषण और स्वमायसे रहित होने के कारण जिस तिस प्रकार से वस्तुको कहने के लिये कोई समर्थ नहीं है । वस्तु किसी शब्द के द्वारा नहीं कही जाती है। कोई भी शब्द वस्तुको स्पर्श नहीं करता है, अतः वस्तु अवाच्य ही है । यहि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो हम जैन पूंछते हैं कि वस्तु सर्वथा ही अवाच्य हैं तो " वस्तु " इस शब्दके द्वारा भी वह कैसे कही जा सकेगी ? और वह सम्पूर्ण स्वभावों से रहित है । अवाच्य है, आदि इन विशेषणों का प्रयोग भी वस्तुमें कैसे छागू होगा ! बताओ । तथा अवाच्य इस शब्दसे भी वस्तुका निरूपण कैसे कर सकोगे ? क्योंकि सर्वथा अवाच्य माननेपर तो वस्तु, अवाच्य, स्वभावरहित, सत् नहीं, उभय नहीं है, आदि शब्दोंकी भी प्रवृत्ति होना वहां वस्तुमै नहीं घटित होता है ।
सत्यामपि वचनागोचरतायामात्मादितच्चस्योपलभ्यताभ्युपेया । सा च स्वरूपेणास्ति न पररूपेणेति सदसदात्मकत्वमायातं तस्य तथोपलभ्यत्वात् । न च सदसभ्वादि धर्मैरप्यनुपलभ्यं वस्त्विति शक्यं प्रत्येतुं खरश्रृंगादेरपि वस्तुत्वप्रसंगात् ।
आमा, स्वलक्षण, विज्ञान, आदि तत्त्वोंको बचनों के द्वारा अवाच्य माननेपर भी वे जानने योग्य स्वभाववाले हैं, यह तो बौद्धोंको अवश्य ही मानना चाहिये । अन्यथा उनका जगत् सद्भाव ही न हो सकेगा । ज्ञानके द्वारा ही ज्ञेयोंकी व्यवस्था होना सब ही ने इष्ट की है। ऐसी प्रमेय हो जानेकी दशा आत्मा आदि तत्त्व अपने अपने स्वभावोंसे ही जाने जायेंगे । ज्ञानको बहिरंग स्वलक्षण रूपसे नहीं जाना जा सकता है। और ऐसा निर्णय हो जानेपर वह आत्मा आदि तत्वोंकी जाने-गयेपनकी योग्यता अपने स्वरूपसे हैं और दूसरे पदार्थों के स्वरूप से नहीं है । इस प्रकार आपके मंतव्य से भी सदात्मक और असदात्मक तत्व मानना जाया । क्योंकि उन आत्मा मादि तत्त्वोंका तिस ही प्रकारसे जानागयापन सिद्ध होता है । सत्र, असत्व, उमय और अनुभव तथा अन्य स्वकीय स्वभायोंसे भी जो जानने योग्य नहीं है, वह वस्तु है। ऐसा भी नहीं प्रतीत किया जा सकता है। क्योंकि सम्पूर्ण घर्मो से रहितको मी यदि वस्तु समझ लिया जावेगा तो खरविषाण, ध्यापुत्र, आदिको भी वस्तुपना निर्णीत किये जानेका प्रसंग होगा। जो कि बौद्धोंको इष्ट नहीं है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
धर्मधर्मिरूपतयानुपलभ्यं स्वरूपेणोपलभ्यं वस्त्विति चेत्, यथोपलभ्यं तथा सत् यथा चानुपलभ्यं तथा तदसदिति । तदेवं सदसदात्मकत्वं सुदूरमप्यनुसृत्य वस्य प्रतिक्षेतुमशक्तेः । ततः सदसत्वस्वभाव पारमार्थिको कचिदिच्छताऽनन्तस्वभावाः प्रतीयमानास्तथात्मनोभ्युपगन्तव्याः ।
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बौद्ध कहते हैं कि धर्म और धर्मी तथा कार्य और कारण एवं आधार आधेय इत्यादि स्वभाव करके वस्तु नहीं देखी जाती है। देखने योग्य भी नहीं है। हां 1 अपने स्वलक्षण स्वरूपसे सो वह वस्तु जानने योग्य है ही । अतः जैनोंका दिया दोष हमारे ऊपर लागू नहीं होता है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा करेंगे तब तो बलात्कार से उनको अनेकांतकी शरण लेनी पडी । क्योंकि जिस स्वरूप करके जिस ढंगसे वस्तु उपलभ्य है, उस प्रकार से वह सतरूप है और जिन परकीय स्वभाव करके वस्तु नहीं जानी जा रही हैं, उन प्रकारोंसे वह असतुरूप है । इस प्रकार दोनों बातें सिद्ध हो गयी । इस कारण बहुत दूर भी जाकर बिलम्ब से आप बौद्धोंको इस प्रकार स्याद्वादका अनुसरण करना पडा । उस वस्तुके सदात्मक और असदात्मकपनाका आप खण्डन नहीं कर सकते हैं। इस कारणसे किसी भी स्वलक्षण या ज्ञानमै सत् और असत् स्वभावको वस्तुभूत मानना चाहते हो हो आत्माके उसी प्रकार प्रमाणोंसे मले प्रकार जाने जा रहे अनन्त स्वभाव भी वस्तु भूख स्वीकार कर लेने चाहिए । विना स्वभाव के वस्तु ठहर ही नहीं सकती है । वस्तुत्व भी तो एक स्वभाव ही है। वैसे ही आत्मा के आत्मत्व, ज्ञान, इच्छा, कोष, अस्तित्व, अवाच्यत्स्त्र, ज्ञेयत्व, बद्धत्व, मुक्तत्व, कर्तृत्व, भोक्तापन, बालत्व, कुमारत्व आदि अनंत स्वभाव हैं ।
तेषां च क्रमतो विनाशोत्पादौ तस्यैवेति सिद्धं ध्यात्मकत्वमात्मनो गुणासम्बन्धेवररूपाभ्यां नाशोत्पादव्यवस्थानादात्मत्वेन धौव्यत्वसिद्धेः ।
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तथा आमा प्रतिक्षण अनेक स्वभावका उत्पाद होता है और अनेक स्वभावोंका नाश होता रहता है । उन स्वभावका क्रमसे उत्पाद और विनाश होना उस आत्माका हीं किसी अपेक्षासे उत्पाद विनाश होजाना है। क्योंकि वे स्वभाव आत्मासे कथञ्चित् अभिन्न है । इस कारण उत्पाद व्यय, धौव्य, ये तीन आस्माके तदात्मक धर्म सिद्ध हो जाते हैं । पहिले प्रकरणका संकोच करते हैं कि आत्मामें सम्यग्दर्शन आदि गुणों के उत्पन्न हो जानेपर पहिली गुणोंसे असम्बन्धित अवस्थाका नाश हुआ तथा नवीन गुणोंके संबंधीपने इस दूसरे स्वरूपसे आत्माका उत्पाद हुआ और चैतन्मस्वरूप आत्मापने करके ध्रुवपना सिद्ध है । यही आत्मामें त्रिलक्षणपना व्यवस्थित हो रहा
है ।
ततोपि विभ्यता नात्मनो भिनेन गुणेन सम्बन्धीभिमन्तव्यो न चासंबद्धस्तस्यैव गुणो व्यवस्थापयितुं शक्यो, यतः " सम्बन्धादिति हेतुः स्यादि "ति सूक्तं निश्यैकाने नात्मा हि धमोक्षादिकार्यस्य कारणमित्यनवस्थानात् ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यदि कूटस्थ नित्य आत्माको कहनेवाले वादी आत्माको अनित्य हो जाने के प्रसंगकी आपचिकी कल्पना कर आत्मा उस त्रिलक्षणपनेसे भी डरते हैं, तो वे नैयायिक, वैशेषिक विचारे आमासे सर्वथा भिन्न माने गये गुणके साथ आत्माका सम्बन्ध होना कैसे भी नहीं स्वीकार कर सकते हैं। जो गुण आत्मासे सर्वथा भिन्न पडा हुआ है, वह असंबद्ध गुण उस आत्माका ही है, यह व्यवस्था भी तो नहीं की जा सकती है, जिससे कि समवाय संबंध हो जानेसे वे गुण विवक्षित आमाके नियत कर दिये जाते है। इस प्रकार उनका पूर्वोक्त हेतु मान लिया जाता | क्योंकि समवाय संबंध तो ज्ञानको आकाशमै जोड देनेके लिये भी वैसा ही है । वह तो एक ही है । इस कारण हम जैनोंने पहिले एक सौ सत्रहवीं कारिकामें बहुत अच्छा कहा था कि कूटस्थ नित्यका एकांत पक्ष लेने पर आत्मा बंध, मोक्ष, तत्त्वज्ञान, दीक्षा आदि कार्योका कारण नहीं हो सकता है। क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से अनवस्था हो जाती है । भिन्न कहे गये गुणोंका समवाय संबंध और मिन माने गये समवायका भिन्न हो रहा स्वरूपसंबंध आदि संबंध कल्पना करते करते अनवस्था है और त्रिलक्षण माने विना आपके कूटस्थ नित्य स्वीकार किये गये आत्माकी अवस्थिति ( सिद्धि ) भी नहीं हो सकती है ।
क्षणक्षयेऽपि नैवास्ति कार्यकारणताञ्जसा ।
कस्यचित्त्वचिदत्यन्ताव्यापारादचलात्मवत् ॥ १२४ ॥
कूटस्थ नित्य के समान एक क्षणमें ही नष्ट होनेवाले आत्माने भी निर्दोष रूपसे झट कार्यकारण भाव नहीं बनता है । क्योंकि एक ही क्षणमै नष्ट होनेवाले किसी भी पदार्थका किसी भी एक कार्य में व्यापार करना अत्यन्त असम्भव है । पहिले क्षणमै आत्मलाभकर दूसरे क्षण ही कोई कारण किसी कार्य में सहायता करता है । किन्तु जो आललाम करते ही मृत्युके मुखमें पहुंच जाता है, उसको कार्य करने का अवसर कहां ! अतः कूटस्थ निश्चल नित्य कारणसे विपरिणाम होनेके बिना जैसे किया नहीं होने पाती है, वैसे ही क्षणिक कारण भी किसी अर्थक्रिया को नहीं कर सकता है ।
क्षणिकाः सर्वे संस्काराः स्थिराणां कुतः क्रियेति निर्व्यापारवायां क्षणक्षयैकान्द्रे भूतिरेव क्रियाकारकव्यवहार भागिति ब्रुवाणः कथमचलात्मनि निव्यपारेपि सर्वथा भूतिरेव क्रियाकारक व्यवहारमनुसरतीति प्रतिक्षिपेत् ।
बौद्ध कहता है कि रूपस्कंध, वेदनास्कंध, विज्ञानस्कंध, संज्ञास्कंध और संस्कारस्कंध ये सबके सब संस्कार क्षणिक है। भला जो कूटस्थ स्थिर हैं, उनके अर्थक्रिया कैसे हो सकती है ! इस प्रकार अनेक, समुदाय, साधारणता, मरकर उत्पन्न होना, प्रत्यभिज्ञान कराना, अन्वित करना आदि व्यापारोंसे रहित होनेपर भी सर्वथा निरम्य क्षणिकके एकांतपक्ष में उत्पन्न होना ही किया है
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वयाचन्ामणिः
और क्षणिक पदार्थको उसका कारण कह लो ! इसके अतिरिक्त वास्तविक कार्यकारणभाव कोई पदार्थ नहीं है । असत् पदार्थकी उत्पत्ति होजाना ही क्रिया, कारक के लौकिक, व्यवहारको धारण करती है, इस प्रकार कहनेवाला बौद्ध उन सांख्योंके माने गये " सर्व व्यापारोंसे रहित कूटस्थ आत्मामें भी सर्व प्रकारोंसे विद्यमान रहनारूप मूर्ति ही क्रियाकारकव्यवहारका अनुसरण करती है " इस सांख्य सिद्धांत का कैसे खण्डन कर सकेगा? बताओ तो सही । भावार्थ - भाप दोनों ही मुख्यरूप से तो कार्यकारणभाव मानते नहीं है । केवल व्यवहारसे असत् की उत्पत्ति और सत्का विद्यमान रहना रूप मूर्तिको पकडे हुए हैं। ऐसी दशा में कल्पित किये गये कार्यकारणभावसे आप दोनोंके यहां पंघ, मोक्ष आदि व्यवस्था नहीं बन सकती है।
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अन्वयव्यतिरेकाद्यो यस्य दृष्टोनुवर्तकः ।
स तद्धेतुरिति न्यायस्तदेकान्ते न सम्भवी ॥ १२५ ॥
जो कार्य जिस कारण के अन्वयव्यतिरेकभावसे अनुकूल आचरण करता हुआ देखा गया है, कार्य उस कारण जन्य है । इस प्रकार प्रमाणोंके द्वारा परीक्षित किया गया न्याययुक्त कार्यकारणभाव उनके एकांतपक्षों में नहीं सम्भव है। क्योंकि को परिणामी और कालांतरस्थायी होगा, वही अन्वयव्यतिरेकको धारण कर सकता है । कूटस्थ नित्य या क्षणिक पदार्थ नहीं ।
नित्यैकान्ते नास्ति कार्यकारणभावोऽन्वयव्यतिरेकाभावात् न हि कस्यचिमित्यस्य सद्भावोऽन्वयः सर्वनित्यान्चयप्रसंगात् । प्रकृतनित्यसद्भाव इव तदन्यनित्य सद्भावेऽपि भावात्, सर्वथा विशेषाभावात् ।
पदार्थों के नित्यस्वका एकांत इठ मान लेनेपर कार्यकारणभाव नहीं बनता है। क्योंकि कार्यकारणभावका व्यापक अन्वयव्यतिरेक वहां नहीं है । व्यापकके अभाव व्याप्य नहीं ठहर सकता है । कार्यके होते समय किसी भी एक नियकारणका वहां विद्यमान रहना ही अन्वय नहीं है। यों तो सभी नित्य पदार्थों के साथ उस कार्यका अन्वय बन बैठेगा। ज्ञान कार्यके होनेपर जैसे आत्मा नित्य कारणका पहिलेसे विद्यमान रहना है, वैसे ही आकाश, परमाणु, काल, व्यादिका भी सद्भाव है अतः प्रकरणमै पढे हुए नित्य आत्माके सद्भाव होनेपर जैसे ज्ञानका होना माना जाता है वैसे ही उस आत्मासे अन्य माने गये आकाश आदि नित्य पदार्थों के होनेपर भी ज्ञान कार्यका होना माना जावे । आकाश, काल आदिले भात्मारूप कारणमें सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है ।
नापि व्यतिरेकः शाश्वतस्य तदसम्भवात् । देशव्यतिरेकः सम्भवतीति चेत्, न, तस्य व्यतिरेकत्वेन नियममितुमशक्तेः । प्रकृतदेशे विवक्षितासर्वगतनित्यव्यतिरेकवद विवक्षिता सर्व गत नित्यव्यतिरेकस्यापि सिद्धेः तथापि कस्यचिदन्वयव्यतिरेकसिद्धी सर्वनित्यान्वयव्यतिरेक सिद्धिप्रसंगात्, किं कस्य कार्य स्थात् १
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और सर्वथा नित्य माने गये पदार्थका कार्यके साथ व्यतिरेक भी नहीं बन सकता है। क्योंकि सर्वदा रहनेवाले कारणका " जब कारण नहीं है तब कार्य नहीं है। ऐसा वह व्यतिरेक बनना सम्भव नहीं है । यदि आप यों कहे कि नित्य पदाओंका कालव्यतिरेक न सही, किन्तु देशव्यतिरेक तो भले प्रकार बन जावेगा अर्थात् जिस देशमें नित्य कारण नहीं है, उस देशम उसका कार्य भी उत्पन्न नहीं होपाता है, यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि वास्तवमें विचारा जाये तो काल व्यतिरेकको ही व्यतिरेकपना है। उस देशव्यतिरेकको व्यतिरेकपनेकरके नियम करना नहीं हो सकता है। कुलाल या दण्ड जिस देशमें रहते हैं, उसी देशमें घट उत्पन्न नहीं होता है। कोरिया जहां बैठा है, उसी स्थानपर कपडा नहीं बुना जारहा है। दूसरी बात यह है कि आपके मतानुसार माने गये आत्मा, आकाश आदि ज्यापक द्वन्मोका देशव्यतिरेक बनता भी नहीं है। यदि अन्यापक द्रव्योंका देशव्यतिरेक बनाओगे तो प्रकरणमें पड़े हुए कार्यदेश विरक्षाको प्राप्त हुए किसी भन्यापक नित्य द्रव्यका जैसे देशव्यतिरेक बनाया जा रहा है, वैसे ही विवक्षा नहीं पड़े हुए दूसरे अव्यापक नित्य पदार्थका भी देशव्यतिरेक सिद्ध हो जावेगा । भावार्य-जैसे पार्थिव परमागुमोके न रहनेसे घट नहीं बनता है वैसे यों भी कह सकते हैं कि जलीय परमाणु या मनके न रहनेसे घट नहीं बना है। इसका नियम कौन करेगा कि घटका पृथ्वी परमाणुओंके साथ देशव्यतिरेक है, जलीवपरमाणु, तेजसपरमाणु, मन, आदिके साथ नहीं है । जो पदार्थ वहां कार्यदेशमें नहीं है उन सबका अमाव वहां एकसा पड़ा हुआ है। तैसा होनेपर मी किसी एक विवक्षित नित्य कारणके साथ ही प्रकृत कार्यका मनमाना अन्वयव्यतिरेकभाव सिद्ध करोगे तो सर्व ही नित्य पदार्थोके साथ भन्वयव्यतिरेक भावकी सिद्धि हो जानेका प्रसंग होगा। कहों जी ! ऐसी दशामें कौन किस कारणका कार्य हो सकेगा ! अव्यवस्था हो जावेगी । उस कार्यके कारणों का निर्णय न हो सकेगा।
ततोऽचलात्मनोन्वयव्यतिरेको निवर्तमानौ स्वव्याप्यां कार्यकारणता निवर्तयता तदुक्तं-- अन्वयष्यतिरेकाधो यस्य दृष्टोनुववेकः, स भावस्तस्य तद्धतुरतो भिन्नान सम्भवः" इति, न चायं न्यायस्तत्र सम्भवतीति नित्ये यदि कार्यकारणताप्रतिक्षेपस्तदा क्षणिकेपि तदसम्भवस्याविशेषात् ।
उस कारणसे सिद्ध होता है कि कूटस्थ नित्य आमासे. अन्वयव्यतिरेक दोनों निवृत्त होने हुए अपने व्याप्य होरहे कार्यकारणभावको भी निवृत्त कर देते हैं। सो ही इस प्रकार अन्यत्र कहा है कि जो कार्य जिस कारणका अवयव्यतिरेक रूपसे अनुसरण करता हुआ देखा गया है, वह पदार्थ उस कार्यका उस रूपसे कारण हो जाता है । इस कारण जो सर्वथा भिन्न है अर्थात् अपने कतिपय स्वभावोसे कार्यरूप परिणत या सहायक नहीं होता है, उस कारणसे उस कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है। किंतु यह अन्वयन्यतिरेकरूप न्याय वहां सर्वथा निस्यमें नहीं सम्भवता है। इस कारण यदि कूट सनिश्यमें कार्यकारणभावका पौद्ध लोग खण्डन करते हैं, तो उनके एकात रूपसे
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यस्वार्थचिन्तामणिः
माने गये क्षणिक पदार्थ में भी अन्वयव्यतिरेक न होनेसे उस कार्यकारणभावका नहीं हो सकना एकसा है। भावार्थ-क्षणिक और नित्यमें कार्य न कर सकने की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं है। तत्र हेतावसत्येव कार्योत्पादेन्वयः कुतः ।
व्यतिरेकश्च संवृत्या तौ चेत् किं पारमार्थिकम् ॥ १२६ ॥
बौद्धों के माने गये क्षणिक एकांत में तो पूर्वक्षणवर्ती हेतुके न रहने पर ही कार्यका उत्पाद होना माना गया | मला ऐसी दशा में अन्वय कैसे बनेगा ! देतुके होनेपर कार्यके होनेको अन्य कहते हैं। किंतु बौद्धोंने हेतुके नाश होनेपर कार्य होना माना है यह तो अन्वय बनाने का ढंग नहीं है । और बौद्धों के यहां व्यतिरेक भी नहीं बन सकता है । क्योंकि कार्यकालमै असंख्य प्रभाव पडे हुए हैं । न जाने किसके अभाव होनेसे वर्तमानमें कार्य नहीं हो रहा है। यदि वास्तविक रूपसे कार्यकारणभाव न मानकर कल्पितव्यवहारसे उन अन्वयव्यतिरेकों को मानोगे तब तो आपके यहां वास्तविक पदार्थ क्या हो सकेगा ? बताओ । अर्थात् जिसके यहां वस्तुभूत कार्यकारणभाव नहीं माना गया है, उसके यहां कोई पदार्थ ठीक न बनेगा। स्याद्वाद सिद्धांत में सर्व पदार्थों को परिणामी माना है । मतः सभी अर्थ कार्य और कारण हैं, किंतु नैयायिक या वैशेषिकोंने भी सभी पदार्थों में से किन्हीको कारणतावच्छेदक धर्मोसे भवच्छिन्न स्वरूपसे और किसनोंको कार्यतावच्छेदक घमसे अरच्छिन्न होते हुए ही सत् पदार्थ माना है। किंतु बौद्धों के यहां वस्तुभूत पदार्थोंकी व्यवस्था नहीं बन पाती है । न हि क्षपणक्ष कांते सत्येव कारणे कार्यस्योत्पादः सम्भवति, कार्यकारणयोरेककालानुषंगात् । कारणस्यैकस्मिन् क्षणे जातस्य कार्यकालेऽपि सच्चे क्षणभंग भंग प्रसंगाश्च । सर्वथा तु विनष्टे कारणे कार्यस्योत्पादे कथमन्वयो नाम चिरतरविनष्टान्वयवत् । तत एव व्यतिरेकाभावः कारणाभावे कार्यस्याभावाभावात् ।
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एक क्षण पैदा होकर दूसरे क्षणमें पदार्थ नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार क्षणिकपनेके एकान्तमें कारण होनेपर ही कार्यकी उत्पत्ति होना यह अन्वय नहीं सम्भव है । क्योंकि यों तो पहिले पीछे होनेवाले कारण और कार्योंको एक ही कालमें रहनेका प्रसंग आता है और यदि पहिले एक समयमै उत्पन्न हो चुके कारणको उत्तरवर्ती कार्यके समय में भी विद्यमान मानोगे तो आपके क्षणिकपने के सिद्धान्तका मंग होजानेका प्रसङ्ग आजावेगा । यदि क्षणिकत्वकी रक्षा करोगे तब तो सभी प्रकार से कारण नष्ट हो जानेपर कार्यका उत्पाद माना गया । ऐसी अवस्था में महा अन्वय कैले मन सकेगा ? बताओ ? । जैसे कि बहुतकाल पहिले नष्ट हो चुके पदार्थ के साथ वर्तमान कार्यका अन्य नहीं बनता है, वैसे एक क्षण पूर्व में नष्ट होगये कारणके साथ भी अन्वयन बनेगा । दूसरे आपके यहां उस ही कारणसे व्यतिरेक भी नहीं बनता है। क्योंकि कारण के अभाव होनेपर कार्यका अमर होजाना नहीं होता है। प्रत्युत कारणके नष्ट हो जानेपर ही तुम्हारे यहां कार्य होना माना जाता 1
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तत्वार्थचिन्तामणिः
स्यान्यतं, स्वकाले सति कारणे कार्यस्य स्वसमये प्रादुर्भावोऽन्वयो असति वामवनं व्यतिरेको न पुनः कारणकाले तस्य भवनमन्वयो ऽन्यदात्वभवनं व्यतिरेकः । सर्वथाप्यभिन्नदेशयोः कार्यकारणभावोपगमे कुतोऽभिधूमादीनां कार्यकारणभावो १ भिन्नदेशतयोपलम्भात् । भिन्नदेशयोस्तु कार्यकारणभावे भिनकालयोः स कथं प्रतिशिष्यते येनाresuतिरेको वा न स्थाताम् ।
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सम्भवतः बौद्धोंका यह मत भी होवे कि अन्वयव्यतिरेक मानके लिये कार्य और कारणका समानदेश तथा समानकाल होनेका कोई नियम नहीं है। कारणका अपने कालमें रहना होनेपर कार्यका अपने उचित कालमें प्रकट होजाना तो अन्वय है और अपने कालमें कारण न होनेपर कार्यका स्वकीय कालमें नहीं पैदा होना ही व्यतिरेक है । किन्तु फिर कारणके समय उस कार्यका होना यह अन्यय नहीं है तथा जिस समय कारण नहीं है, उस समय कार्य भी नहीं उपज रहा है, वह व्यतिरेक माव भी नहीं है। इसी प्रकार कारणके देशमें कार्यका होना और जिस देशमें कारण नहीं है, वहां कार्य न होना, यह अभिनदेशता भी कार्य - कारणभावमै उपयोगी नहीं है । सर्वही प्रकारसे अमिनदेशवालोंका यदि कार्यकारणभाव स्वीकार किया जावेगा तो आगे और घूम तथा कुलाल और घटका कार्यकारणभाव कैसे हो सकेगा ! क्योंकि अभि तो चूल्हे में है और धुपंकी पंक्ति गृहके ऊपर दीखती है। ऐसे ही कुलाल और ach देशमें मी एक हाथका अन्तर है। यो मिस्र मित्र देशों में वर्तरहे पदार्थों में कार्यकारणभाव दीखरहा है । कहीं कहीं तो कार्यकारणभावमें असंख्य योजनोंका अन्तर पडजाना आप जैनोंने भी माना है । दूरवर्ती सूर्य कमलों को विकसित करता है। कहां भगवान्का जन्म और कहां देवोंके स्थानों में सिंहनाद घण्टा बजना तथा नारकियों को भी थोडी देरतक दुःखवेदन न होना । एवं यहां बैठे हुए जीवोंका पुण्यपाप न जाने कहां कहां अनेक पदार्थों में परिणाम करा रहा है । इस कारण मिन्न देशपने से भी कार्यकारणभाव देखा जाता है । इस प्रकार भिन्न भिन्न देशवाले पदार्थोंका मी यदि कार्यकारणभाव स्वीकार किया जावेगा तो भिन्न भिन्न कालवाले पदार्थों का कार्यकारणभाव होना आप जैन कैसे खण्डित करते हैं। जिससे कि क्षणिक माने गये भिन्न कारूवाले पदार्थों में वैसे अभ्वय व्यतिरेक न बने । भावार्थ — भिन्न कालवालों के भी अन्वय व्यतिरेक बननेमें कोई क्षति नहीं है।
कारणत्वेनानभिमतेऽप्यर्थे स्वकाले सति कस्यचित्स्वकाले भवनमसति वाऽभवनमन्वयो व्यतिरेकच स्थादित्यपि न मन्तव्यमन्यत्र समानत्वात् । कारणत्वेनानभिमतेर्थे स्वदेशे सुति सर्वस्य स्वदेशे भवनमन्वयो असति वाऽभवनं व्यतिरेक इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । स्वयोग्यताविशेषात्कयोभिदेवार्थं योर्मित्र देशयोरन्वयव्यतिरेकनियमात्कार्यकारणनियमपरिकल्पनायां भिन्नकालयोरपि स किं न भवेत्तत एव सर्वथा विशेषाभावात् । .
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प्रस्वार्थचिन्तामणिः
अभी तक बौद्धोंका ही मत चल रहा है। कारणपनेसे नहीं भी स्वीकार किये गये अर्थके अपने कालमें होनेपर चाहे किसी भी कार्यका अपने कालमें हो जाना और उस वटस कारणके न होनेपर न होना, ऐसा अन्वय और व्यतिरेक भी बन बैठेगा । तब सो चाहे कोई मी चाहे जिस किसीका कारण बन जावेगा । कोई व्यवस्था न रहेगी। इस प्रकार जैनोंकी ओरसे किया गया कटाक्ष भी नहीं माना जावेगा। क्योंकि पाप जनों के माने हुए उस दूसरे देशव्यतिरेको भी यही अव्यवस्था समानरूपसे होगी। कार्यकारणभावम भिन्नदेशकृतिका मानना तो आपको भावश्यक है ही। सब हम मी यह कह सकते हैं कि कारणपने करके नहीं माने गये पदार्यके अपने देशमै रहनेपर पर्व ही कार्योका अपने अपने देशमें उत्पन्न होना अन्वय है और अनिच्छित कारणके न होनेपर विवक्षित कार्योंका वहां न होना व्यतिरेक है। तथा च भिन्न भिन्न कालवाले कार्यकारणों में अन्वयव्यतिरेक बनाने पर हमारे ऊपर चाहे जिस तटस्थ पदार्थको कारणपना पास हो जावेगा, यह आप जैन अतिप्रसा देते हैं। उसी प्रकार भिन्न भिन्न देशवाले कार्यकारणों में मन्वय न्यतिरेक बनानेपर आपके ऊपर भी हम सौगत यह अतिप्रसंग दोष कह सकते हैं कि चाहे जिस किसी भी भिन्न देशमें पड़ा हुआ उदासीन पदार्थ जिस किसी भी कार्यका कारण बन बैठेगा । यदि आप जैन परिशेषमें यह कल्पना करेंगे कि कोई कोई ही कारण, कार्मरूप अर्थ दोनों भिन्नदेशवाले मी होकर अपनी अपनी विशेष योग्यताके बलसे अन्वय व्यतिरेक नियमके अनुसार कार्यकारणभावके नियमको धारण करते हैं, सभी भिन्न देशवालोको या चाहे जिस किसीको कारणपनेकी योग्यता नहीं है, तब तो हम बौद्धोंके यहां भी उस ही कारण भिन्न भिन्न कालवाले किन्हीं ही विवक्षित पदार्थों का अध्यय ध्यतिरेक हो जानेसे कार्यकारणभावका वह नियम क्यों न हो जावे। मिन्न कालवाले चाहे जिस किसीके साथ कार्यकारणमाव नहीं है। योग्यके ही साथ है। आपके मिन भिन्न देशवालों में कार्यकारणमाव माननेसे हमारे मिन्न कालवालोंका कार्यकारणमाव मानना सभी प्रकारोंसे एकसा है । कोई अन्तर नहीं है।
तदेतदप्यविचारितरम्यम् । तन्मते योग्यताप्रतिनियमस्य विचार्यमाणस्थायोगान् । योग्यता हि कारणस्य कार्योत्पादनशक्किा, कार्यस्य च कारणजन्यत्वशक्तिस्तस्याः पतिनियमः, शातिबीजाङ्करयोश्च भिन्नकालस्वाविशेषेपि शालिपीजस्यैव शाल्यकुरजनने शक्तिर्न यवधीजस्य, तस्य यवाकरजनने न शालिबीजस्येति कथ्यते ।
अब आचार्य कहते हैं कि यहाँस लेकर यहां तक बौद्धोंका यह सब कहना भी विचार न करनेतक ऊपरसे सुंदर दीखता है। किंतु विचार करनेपर तो वह ढीला पोला निस्सार जचेगा। क्योंकि स्पानादियों के मतमें योग्यता पदार्थोकी परिस्थितिके अनुसार कामभूत परिणति मानी गयी है। अतः वस्तुमूत योग्यताके विशेषसे तो विवक्षित पदार्थोंमें ही कार्यकारणभाव बन जाता है। किंतु
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तत्वार्थचिन्तामणिः
पोद्धों मत ठीक ठीक विचार करनेपर विवक्षित कार्यकारणों में नियमित योग्यता नहीं मन सकसी है। क्योंकि बौद्ध लोग अपने तत्त्व कहे गये स्वलक्षणोंको औपाधिक स्वभावोंसे रहित मानते हैं । कार्यकारणभाव व्यवहारसे ही माना गया है, वास्तविक नहीं। इसका विशेष विवरण यों है कि कार्यकrararas प्रकरणमै योग्यताका अर्थ कारनकी कार्यको पैदा करनेकी शक्ति और कार्यकी कारणसे जन्यपनेकी शक्ति ही है । उस योग्यताका प्रत्येक दिवक्षित कार्य कारणों में नियम करना यही कहा जाता है कि धानके बीज और धानके अंकुरों में भिन्न भिन्न समयवृत्तिपनेकी समानता के होनेपर भी साठी चांवल के बीजकी ही धानके अंकुरको पैदा करनेमें शक्ति है। किंतु जौके बीजकी घानके अंकुर पैदा करने में शक्ति नहीं है । तथा उस जौके बीजकी जोके अंकुर पैदा करनेमें शक्ति है | दां, धानका बीज जौके अंकुरको नहीं उत्पन्न कर सकता है । यही योग्यता कही जाती है ।
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तत्र क्रुतस्तच्छक्तेस्ताच्यः प्रतिनियमः १ स्वभावत इति चेन्न, अप्रत्यक्षत्वात् । परोक्षस्य शक्तिप्रतिनियमस्य पर्यनुयुज्यमानतायां स्वभावेरुत्तरस्यासम्भवात्, अन्यथा सर्वस्य विजयित्वप्रसङ्गात्। प्रत्यक्षप्रतीत एव चार्थे पर्यनुयोगे स्वभावैरुचरस्य स्वयमभिधानात् ।
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ari कार्य, कारण, के प्रकरणमें ऊपर कही गयी उस योग्यतारूप शक्तिका वैसा प्रत्येकमे नियम आप कैसे कर सकेंगे ? बतलाइये। यदि आप बौद्ध लोग पदार्थों के स्वभावसे ही योग्यताक नियम करना मानेगे अर्थात् अभिका कार्य दाइ करना है और सूर्यका कार्य काम करना है। जरू ठण्ड को करता है, यह शक्तियोंका प्रतिनियम उन उन पदार्थोंके स्वभावसे होजाता है । अभि दाइ क्यों करती है ? इसका उत्तर उसका स्वभाव ही है, बद्दी मिलेगा । सो आपका यह कहना हो ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वोंको शक्तियोंका प्रत्यक्ष नहीं होता है । परोक्ष शक्तियों के प्रत्येक विवक्षित पदार्थ नियम करनेका जब हम क्यों करता है ! " यह प्रश्नरूप चोच उठावेंगे, उस समय आप बौद्धकी ओर से पदार्थों के स्वभावों करके उत्तर देना असम्भव है । अन्यथा यानी इसके प्रतिकूल प्रत्यक्ष न करने योग्य कार्यों में भी प्रश्नमाला उठाने पर स्वभावोंके द्वारा उत्तर देदिया जावेगा, तब तो सभी वादी प्रतिवादियोंको बीत जानेका प्रसक्त हो जावेगा, स्वभाव कहकर सभी जीत जावेंगे । अबतक सभी दार्शनिक यही मानते चले आरहे हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा जाने गये ही अर्थमें यदि तर्क उठाया जावे, तब तो वस्तुके स्वभावों करके उत्तर देना समुचित है। किंतु परोक्ष प्रमाण से अविशद जाने गये पदार्थ में प्रश्न उठानेपर वस्तुस्वभावों करके उत्तर नहीं दिया जाता है। इस बातको आप बौद्धोंने भी स्वयं कहा है। भला जिस पदार्थका प्रत्यक्ष ही नहीं है, वहां यह उत्तर कैसे संतोषजनक हो सकता है कि हम क्या करें यह तो वस्तुका स्वभाव ही है। नैयायिकके दोष वेनेपर मीमांसक कह देगा कि शब्दका नित्य होना वस्तुका स्वभाव है और मीमांसकके दोषोत्यांनपर नैयायिक कह देगा कि शब्दका मनिस्वपन वस्तुस्वभाव है | स्वभाव कहकर जीतनकी व्यवस्था होजानेपर तो व्यभिचारी मांसभक्षी, चोर आदि भी पूरा लाभ उठालेंगे ।
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
कथमन्यथेदं शोमेत, – “ यत्किञ्चिदात्माभिमतं विधाय, निरुत्तरस्तत्र कृतः परेण, वस्तुस्वभावैरिति वाच्यमित्यं तदुत्तरं स्याद्विजयी समस्तः ॥ १ ॥ प्रत्यक्षेण प्रतीतेऽर्थे, यदि पर्यनुयुज्यते, स्वभावैरुत्तरं वाच्यं दृष्टे कानुपपन्नता ॥ २ ॥ " इति ।
यदि प्रत्यक्षित कार्य होनेपर स्वभावोंसे उत्तर देना और परोक्षमें स्वभावों करके उत्तर न देना यह न्याय न मानकर अन्य प्रकारसे मानोगे तो आपका इन दो लोकों द्वारा यह कथन कैसे शोभा देगा कि जो कुछ भी सच्चा झूठा, अपनेको अभीष्ट तत्त्व है, उसका प्रतिवादीके सन्मुख पूर्वपक्ष करके पीछे प्रतिवादीके द्वारा समीचीन दोष उठानेसे यदि वादी वहां निरुत्तर कर दिया जाये तो भी वादी चुप न बैठे, किंतु ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है, ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है, इस - प्रकार से उस प्रतिवादीके दोष उत्थापनका उत्तर देता रहे, ऐसा अन्याय करनेपर तो सब ही वादी विजयी हो जायेंगे || १ || प्रत्यक्षप्रमाणके द्वारा अर्थके निर्णीत होनेपर यदि कोई चोद्य उठावे तो वस्तुस्वभाव करके उत्तर कह देना चाहिये। क्योंकि सभी बालगोपाल तथा परीक्षकों के द्वारा देखे गये स्वभावमें क्या कभी असिद्धि हो सकती है ? अर्थात् नहीं । तुम ही उन स्वभावोंके अनुसार अपने तर्क या हेतुको सम्हाल हो ! तुम्हारे तर्कके अनुसार वस्तुस्वभाव नहीं बदल सकता है ॥ २ ॥ इस प्रकार आप बौद्धोंने भी परोक्षपदार्थका स्वभावों करके नियम करना नहीं माना है । प्रत्युत परोक्ष होनेपर स्वभावोंके द्वारा उत्तर देनेवालेका " तीसमारखां " के समान विजयी हो जानेका उपहास किया है ।
शाकिबीजादेः शाल्यङ्कुरादिकार्यस्य दर्शनात्तज्जननशक्तिरनुमीयत इति चेत्, तस्य तत्कार्यत्वे प्रसिद्धेऽप्रसिद्धेऽपि वा ? प्रथमपक्षेऽपि कृतः शाल्यङ्कुरादेः शालिवीजादि कार्यत्वं सिद्धम् ? न तावदष्यक्षात्तत्र तस्याप्रतिभासनात्, अन्यथा सर्वस्य तथा निश्चयप्रसंगात् ।
सौगत कहते हैं कि शक्तियोंका प्रतिनियम करना प्रत्यक्षसे नहीं किंतु अनुमानसे तो हो जावेगा । लडके लडकी और किसान लोग छोटे छोटे शरावोमें अन्नको बोकर कुबीष्ण और सुबीअका निर्णय कर लेते हैं । धानके बीजरूप कारणसे घानका अंकुररूप कार्य और जौके बीजसे जौका अंकुररूप कार्य होता हुआ देखा जाता है | अतः उनको पैदा करनेवाली शक्तिका उन बीज में अनुमान कर लिया जाता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो हम पूंछते हैं कि उस धान अंकुरको उस घान बीजका कार्यपना प्रसिद्ध होनेपर जनन शक्तिका अनुमान करोगे ? अथवा मान अंकुरको धानवीजका कार्यपना नहीं प्रसिद्ध होते हुए भी कारणशक्तिका अनुमान करलोगे ! बताओ। यहां दूसरा पक्ष अप्रसिद्धका तो कथमपि ठीक नहीं है हां, पहिला पक्ष लेनेपर भी आप यह कि मानके अंकुर और जौके अंकुर आदिको धानवीज और जौ आदिका कार्यपना आपने
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तस्वार्थचिन्तामणिः
कैसे सिद्ध किया है। कहिये। पहिले प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो यह सिद्ध नहीं होसकता है कि धानबीजका कार्य घान अंकुर है । क्योंकि जिस क्यारी में धान, जौ, गेहूं या ज्वार, मका, बाजरा एकसाथ बोदिये गये हैं, वहां गीली मिट्टीके मीतर सब ही बीज छिपाये हैं। ऐसी दशा में किस वीजसे कौनसा अंकुर हुमा, इसका निर्णय करना बहिरिन्द्रियजन्य प्रत्यक्षका कार्य नहीं है। यों वहां प्रत्यक्षमें उस कार्यकारणका प्रतिभास नहीं होता है । अन्यथा सभी बाल गोपालोको या नागरिकोंको उसी प्रकारसे निर्णय हो जाता। ऐसे संशय करनेका प्रसंग पण्डितोंतकको नहीं आना चाहिये था कि यह अंकुर गेहूंका, पानका, या जीका है। किन्तु संशय होता देखा जाता है | अतः प्रत्यक्ष से कारणको कार्यको उत्साद करानेवाली शक्तिका और कार्यकी कारणोंसे जन्यत्व शक्तिका नियम करना जैसे नहीं बन सकता है, वैसे ही धान बीजसे ही धान अंकुर कार्य उत्पन्न हुआ है, यह भी लौकिक प्रत्यक्षसे नहीं जाना जा सकता है। एक बात यह है कि यद्यपि कमी कभी चने, जौ, गेहूं, पानमें केवल जलका संयोग होनेपर छोटा अंकुर निकला हुआ दीखता है। किन्तु वह प्रकृतमें अंकुर नहीं माना है। वह तो कुल्ला है । मिट्टी चीजके सद्ध गलजानेपर जो सीजफा उत्तर परिणाम बड्डा अंकुर हो जाता है, उसका कार्यकारणभाव यहां अभिप्रेत है। वही भविष्यमे नीज सन्ततिको उपजावेगा । एकेन्द्रिय जीवोकी संवृत यानी ढकी हुई योनि मानी है।
सद्भावभावाल्लिङ्गात्तसिद्धिरिति चेन्न, साध्यसमत्वात् । को हि साध्यमेव साधनस्वेनाभिदधातीत्यन्यत्रास्वस्थान , वद्भावभाव एव हि तत्कार्यत्वं न ततोन्यत् ।।
यदि बौद्ध जन उस धान बीजके होनेपर धान अंकुरका होना इस अन्वयरूप हेतुसे अनुमान प्रमाणद्वारा धान अंकुरमें धान बीजका वह कार्यपना प्रसिद्ध करे सो तो ठीक नहीं है। क्योंकि यह हेतु मी साध्य के समान असिद्ध होनेसे साध्यसम हेवाभास है । घानवीजके होनेपर ही धान अंकुर कार्य हुआ है। यही तो इमको साध्य करना है और इसीको आप देत बना रहे हैं। ऐसा भला कौन पुरुष है जो कि साध्यको ही हेतुपने करके कथन करें । अस्वस्थ के अतिरिक्त कोई ऐसा पोंगापन नहीं करता है । विचारशील मनुष्य असिद्धको साध्य बनाते है और प्रसिद्धको हेतु बनाते हैं। किन्तु जो आपेमें नहीं हैं या कठिनरोगसे पीडित हैं, अज्ञानी है, वे ही ऐसी अयुक्त बातोंको कहते हैं। देखो, उस धान बीजके होनेपर धान अंकुरका होना ही तो नियमसे धान पीजका घान अंकुरमे वह कार्यपना है । उससे भिन्न कोई उसकी कार्यता नहीं है।
शाकिबीलादिकारणकत्वाच्छाल्यङ्करादेस्तत्कार्यत्वं सिद्धमित्यपि ताहगेवपरस्पराश्रित चैतत् , सिद्धे शालिपीजादिकारणकत्वे शाल्यकुरादेस्तत्कार्यस्वसिदिस्तत्सिद्धौ च शालिबीबादिकारणत्वसिद्धिरिवि। ..
धान बीज, जौ, आदिक हैं कारण जिसके ऐसा जो कार्य है वह धानका या जौ आदिका अंकुर है । इस उन बीजरूप कारणोंकी उन अंकुरों में कार्यता सिद्ध हो ही जाती है । इस प्रकार 76
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तवा चिन्तामणिः
किसीका कहना मी उस पहिलेके समान ही है अर्थात् जिसीका निर्णय करना है, वही नियामक कारण बनाया जा रहा है। दूसरी बात यह और है कि उक्त कथनमें यह परस्पराश्रय दोष भी है कि धान पीज, गेहूं, जौ, मादि हैं कारण जिनके ऐसे धान अंकुर, गेई संकुर, जौ अंकुर है, इस प्रकार सिद्ध हो जानेपर तो धान अंकुर आदिको उन बीजोंकी कार्यता सिद्ध होगी और धान मादि बीजोंकी वह कार्यता जब धान आदि अंकुरों में सिद्ध हो जावेगी तन धान आदि अंकरों के धान आदि बीज कारण है, यह बात सिद्ध होगी। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष हुआ।
तदनुमानात प्रत्यक्षप्रतीने तस्य सत्कार्यवे समारोपः कस्यचिव्यवस्छियत इत्यप्यनेनापास्त, स्वयमसिद्धात्साधनात् वयवच्छेदासम्भवात् ।
बौद्ध कहते हैं कि वसुभूत पदार्थोंका प्रत्यक्ष ज्ञान ही होता है। उस अनुमान शान तो केवल संशय, विपर्यय, अनव्यवसाय और मज़ानरूप समारोपाचोदी र करता है। इतने ही अंशसे ममाण है । वैसे तो अनुमान निश्चयालक है और सामान्यको विषय करनेवाला है। इन हेतुओंसे अप्रमाण होना चाहिये । पदार्थों में क्षणिकपना सत्व हेतुसे उत्पन्न हुए अनुमान द्वारा नहीं जाना जाता है। वह वस्तुभूत क्षणिकपना को पूर्व में ही निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे ज्ञात हो चुका था। किंतु कतिपय जीवोंको पदायोंमें कुछ कालतक स्थायीपने या नित्यपनेका मिथ्याज्ञान हो जाता है। अतः उस समारोपके दूर करनेके लिये अनुमानसे क्षणिकरखका निर्णय करा दिया जाता है। इसी प्रकार प्रकृतमें मी उस धान बीजकी कारणता और पान अंकुरमें उस कारणकी कार्यता तो प्रत्यक्षप्रमाणसे ही जान ली जाती है। किंतु किसी अज्ञानीको उस प्रत्यक्षित विषयमें कदाचित् विपरीत समारोप हो जाता है तो पूर्वोक्त अनुमानसे उस समारोपका व्यवच्छेद मात्र कर दिया जाता है। कार्यता और कारणता वक्तियोंका प्रतिभास करना तथा प्रतिनिक्म करना ये सब पत्यक्षके द्वारा ही जान लिये जाते है । अतः हम बौद्धोंके कहे हुए पहिले अनुमानमें साध्यसम और अन्योन्याभव दोष लागू नहीं हो सकते हैं। ग्रंथकार कहते है कि इस प्रकार कयन करनेवाले बौद्ध भी हमारे इसी दोषोस्थापनसे निराकृत हो जाते है। क्योकि जबतक बौद्धोंका हेतु ही स्वयं उन्हें मी सिद्ध नहीं हुआ है तो ऐसे प्रसिद्ध हेतुसे उस समारोपका निराकरण करना असम्भव है।
वदनन्तरं तस्योपलम्भासत्कार्यत्वसिद्धिरित्यपि फल्गुप्राय, शारयकरादेः पूाखिलाथकार्यवासंगार । शालिबीजाभावे तदनन्तरमनुपलम्मान तत्कार्यस्त्वमिति चेत्, साईन्धनाभावेऽझारायवस्थामेरनन्तरं धूमस्यानुपलब्धेरमिकार्यस्वं माभूव, सामग्रीकार्यत्वादमस्य मामिमात्रकार्यसमिति चेत्, तर्हि सकलार्थसहितशालिपीजादिसामग्रीकार्यत्वं शास्पधुरादेरस्तु विशेषाभावात् । तया च न किञ्चित्कस्यचिदकारणमकार्य पेति सबै सर्वसादनुमीयतेति वा कुतश्चित किञ्चिदिति नानुमानास्कस्यचिच्छक्तिप्रविनियमसिद्धिर्यतोऽन्वय म्पविरकप्रतिनियमः कार्यकारणभावे प्रतिनियमनिधनः सिध्धेत् ।
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तस्यार्यविभ्यामणिः
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उस शालि बीजके अव्यवहित- उत्तरकालमै वद्र चावलोंका अंकुर पैदा होता हुआ देखा जाता है । इस अन्वयरूप हेतुसे शालि अंकुरको उस शालिबीजका कार्यपना सिद्ध हो जाता है । यह बौद्धका कहना भी बहुभागमें व्यर्थ ही है । क्योंकि यों तो शालि अंकुरके पहिले कालमै रहनेवाले संपूर्ण तटस्थ पदाको कारणता हो जावेगी । शालिबीजका और गेहूं, जौ, चना, कुलाळ, कृषक आदिका भी वही काल है । अतः शालिवीजके समान गेहूं जादिका भी वह चालि अंकुर कार्य बन जावेगा, यह प्रसंग तुम्हारे ऊपर हुआ। बंदि आप सोपान बीजके न होनेपर गेहूं आदिसे उनके अव्यवहित उत्तर फालमै धान अंकुर पैदा होता हुआ नहीं देखा जाता है, इस व्यतिरेककी सहायता से उसके कार्यपन न होनेकी सिद्धि करोगे तो गीले ईन्धनके न होनेपर अंगारा, जला हुआ कोयला, और तपे हुए लोsपिण्डकी अभिके अव्यवहित उत्तरकालमें धूम पैदा हुआ नहीं देखा जाता है, अतः धूम भी अभिका कार्य न होओ। भावार्थ- कारणके अभाव होनेपर कार्येके न होने मात्र से कार्यताका यदि निर्णय कर दिया जाये तो अमिका कार्य धूम न हो सकेगा। क्योंकि अङ्गार कोयलेकी अमि रहते हुए भी घूम नहीं हुआ। अभिके न होनेपर घूमका न होना ऐसा होना चाहिये था । तब कहीं धूमका कारण अभि बनती। यदि आप बौद्ध इसका उत्तर यों कहें कि गीला ईषन, अमि वायु, आदि कारणसमुदायरूप सामग्रीका कार्य घूम है, केवल अमिका ही कार्य नहीं है । अतः हमारा व्यतिरेक नहीं बिगड सकता है । उस अंगारे या कोयले की अभिके स्थानपर पूरी सामग्री के न होनेसे धूमका न होना ठीक ही था। आचार्य समझाते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो गेहूं, चना, मिट्टी, खेत, खात, कुलाल, कोरिया, आदि सम्पूर्ण पदार्थोंसे सहित मानबीज या जौ बीज, आदि कारण समुदायरूप arastका कार्यपना धान अंकुर, जौ अंकुर आदिमें हो जावे कोई अंतर नहीं है तथा वन तो ऐसी अव्यवस्था हो जानेपर न कोई किसीका अकारण होगा और न कोई किसीका अकार्य होगा। क्योंकि आपकी सामग्री पढे पेट कारणोंके अतिरिक्त अनेक उदासीन थोथे पोले पदार्थ प्रविष्ट हो जायेंगे । जबतक नियत कारणोंका निश्चय नहीं हुआ है, तबतक कार्यके पूर्व काल अनेक पदार्थ कारण बनने के लिये सामग्री में पतित होरहे हैं। बाप बननेके लिये भला कौन निषेध करेगा । तथा उत्तर समयवर्ती सभी पदार्थ चाहे जिस कारण के कार्म बन जायेंगे । गायकी सम्पत्ति लेने के लिये और नवजन्म धारण करनेके लिये बेटा बनना भी किसको अनिष्ट है। इस प्रकार पोल चलनेपर तो सब कार्यों में से किसी भी एक कार्यसे संग कारणोंका अनुमान किया जा सकेगा अथवा किसी भी कार्यसे चाहे जिस तटस्थ अकारणका अनुमान किया जा सकेगा । कोई भी व्यवस्था न रहेगी। अँधेर छा जायेगा। अंधेरेसे सूर्यका अनुमान और शीतवायुले अभिका मी अनुमान हो जावेगा । इस प्रकार आप बौद्धों के यहां अनुमान से भी किसी भी कार्य या कारणकी कियों का प्रत्येकरूप से नियम करना सिद्ध नहीं हो पाता है, जिससे कि आपके द्वारा पहिले कहा गया अन्त्रयव्यतिरेकका प्रतिनियम करना कार्यकारणभाव में प्रतिनियमका कारण सिद्ध होता, अर्थात्
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तत्वार्थचिन्तामणिः
आपका माना हुआ अन्वयव्यतिरेक तो कार्यकारणशक्तिरूप योग्यताका नियामक नहीं होसकता है । यहांतक स्यान्मतं " करके कहे गये बौद्धसिद्धांतके खण्डनप्रकरणका उपसंहार कर दिया है।
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तत एव सम्युत्यान्वयव्यतिरेकौ यथादर्शनं कारणस्य कार्येणानुविधीयते न तु यथातत्वमिति चेत्, कथमेव कार्यकारणभावः पारमार्थिकः ? सोऽपि संवृत्येति चेत्, कुतोऽक्रियाकारित्वं वास्तवम् । तदपि सांवृतमेवेति चेत्, कथं तल्लक्षणावस्तुतश्वमिति न किञ्चित्क्षणक्षयैकान्तवादिनः शाश्वतैकान्तवादिन हव पारमार्थिक सिध्येत् ।
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योगाचार बौद्ध कहते हैं कि उस ही कारणसे तो इस वास्तविक अन्वयव्यतिरेकोंको नहीं मानते हैं | केवल व्यवहारसे ही कार्यकारणव्यवस्था है । तात्विक व्यवस्थाका अतिक्रमण नहीं कर परमार्थसे न कोई किसीका कारण है, न कोई किसीका कार्य है | जैसा लोकमें देखा जाता है, वैसा कार्यके द्वारा कारणका अन्य व्यतिरेक ले लिया जाता है । यथार्थरूपसे वस्तु व्यवस्थाके अनुसार अन्वयव्यतिरेक लेना कुछ भी पदार्थ नहीं है । अब अन्यकार समझाते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो संसारमै बालगोपाल में भी प्रसिद्ध हो रहा यह कार्यकारणभाव ठीक ठीक वास्तविक कैसे माना जायेगा ? बताओ। क्योंकि आप तो सब स्थानोंपर वस्तु शून्य, कल्पित कोरा व्यवहार मान रहे हैं। ऐसी दशा में तिलसे तैल, मिट्टीसे घडा, अम्मिसे धुआं आदि कार्य कारणोंकी व्यवस्था जो हो रही है, वह लुप्त हो जावेगी | यदि आप उस कार्यकारणभावको मी व्यवहारसे मानेंगे यानी वास्तविकरूपसे न मानकर झूठा करेंगे तो बतलाइये कि पदार्थोंका अर्थक्रियाकारीपना वस्तुभूत कैसे होगा ! | जलसे स्नान, पान, अवगाहन आदि क्रियाएं होती हैं। घटसे जल धारण आदि क्रियाएं होती हैं, अभिसे दाद होता है इत्यादि अर्थक्रियाएं तो वास्तविक कार्यकारणभाव मानने पर ही बन सकती हैं। यदि आप उस अर्थक्रिया करने को भी कोरी व्यावहारिक कल्पना ही कहोगे यानी जलधारण करना, स्नान करना आदि कुछ भी वस्तुभूत ठीक ठीक पदार्थ नहीं हैं, यो तब तो उस अर्थक्रियाकारीपन लक्षणसे वास्तविक तत्त्वोंकी आप सिद्धि कैसे कर सकेंगे ! बतलाइये | इस प्रकार क्षणिकत्वका एकांत कहनेकी ढव रखनेवाले बौद्धोंके यहां कुछ मी तत्त्व परमार्थस्वरूप ठीक ठीक सिद्ध नहीं होगा, जैसे कि कूटस्थ नित्यको ही एकांतसे कहने की लत वाले कापिलोंके या नित्य आत्मवादी नैयायिकों के यहां कोई वास्तविक पदार्थ सिद्ध नहीं हो पाता है । तथा सति न बन्धादिहेतुसिद्धिः कथञ्चन ।
सत्यानेकांतवादेन विना कचिदिति स्थितम् ॥ १२७ ॥
और उस प्रकार एकांत पक्षके माननेपर बंध, मोक्ष आदिके हेतुओंकी सिद्धि कैसे भी नहीं हो सकती है । सत्यभूत अनेकांतवाद के बिना किसी भी मतमें बंध, मोक्ष आदिकी व्यवस्था नहीं बनती है। यह बात यहांतक निर्णीत कर दी गयी है। एक सौ सोलहवीं वार्त्तिकका निगमन हो गया
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सस्था चिन्तामणिः
५९.
म सत्योऽनेकान्तवादः प्रतीसिसद्भावेऽपि तस्य विरोधवैयधिकरण्यादिदोषोपद्रुतस्वादिति नानुमन्तव्यम्, सर्वथैकान्त एव विरोधादिदोषावताराद, सत्येनानेकान्तवादेन विना रन्धादिहेतूनां कचिदसिद्धः ।
जैनोंके द्वारा माना हुआ अनेकांतवाद थयार्थ नहीं है। क्योंकि कतिपय प्रतीसियों के होते सन्ते भी वह अनेकांत अनेक विरोध, वैयधिकरण्य, संशय, सकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव इन आठ बोपोंसे मसित होरहा है । आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार एकांतवावियोंको नितांत नहीं मानना चाहिये। क्योंकि सर्वथा एकांतपक्षमें ही विरोध आदि दोषोंका अवतार होता है। सर्व ही पदार्थ अनेक धर्मों से युक्त प्रत्यक्षसे ही आने जारहे हैं। वहां दोषोंका सम्भव नहीं है । भावार्थ-स्वदम्य, क्षेत्र, काल, भावसे पदार्थ सत् है, परन्तुष्टयसे असत् है । यदि एक ही अपेक्षास सत् असत् दोनों होते तो विरोध दोषोंकी संभावना थी। जो देवदत्त यज्ञदत्तका शत्रु है, वही जिनदत्तका मित्र भी है। देखो, जो धर्म किसीकी अपेक्षासे एक धर्मी में नहीं प्रतीत होते हैं, उनका विरोध मानाजाना है। जैसे ज्ञानका और रूपका या सर्वज्ञता और अस्पज्ञताका विरोध है। किंतु जो दीख रहे हैं, यदि उनका विरोध माना जावेगा तो पदार्थों का अपने स्वरूपसे ही विरोध हो जावेगा। सहानवस्थान, परस्परपरिहारस्थिति, वध्यघातकभावरूपसे विरोध तीन प्रकारका है। एक स्थानपर एक समय जो नहीं रह सकते हैं, उनका सहानवस्थान विरोध है । जैसे कि शीतस्पर्श
और उष्णसर्शका या सह्य पर्वत और बिन्ध्यपर्वतका। किंतु सत्व और असत्त्व दोनों एक स्थानपर देखे जाते हैं। यहां विरोध कैसा है। दूसरा विरोध तो पुरलमै रूप और रस गुण एक दूसरेसे कथञ्चित् पृथक् भूत होते हुए अपने अपने परिणामोंसे ठहरे हुए हैं। अत: परस्परपरिहार स्थिति लक्षण है। विशेष तो एक धर्मी में विद्यमान होरहे ही अनेक धर्मोंका होसकता है। जैसे कि बदनमें दो आंखोका, या हायम अंगुलियोंका । अत: यह विरोध भी अनेकांतका बिगाड करनेवाला नहीं है। . तीसरा वध्यघातकमाव विशेष भी नौला और सप तथा गौ और व्याघ्रमें देखा जाता है। किंतु ऋद्विधारी मुनिमहाराज या भगवान्के समवसरणमें जातिविरोधी जीव बड़े प्रेमसे एक स्थानपर बैठे रहते हैं । अब भी पशुशिक्षक लोग सिंह और गायको एक स्थानपर बैठा हुआ बतला देते हैं। किंतु अंसर इतना है कि मुनियों के निकट विरोधी जीरों में अत्यंत मित्रता हो जाती है। गौके पनोंको सिंहशिशु पीता है और सिंहिनीके दूधको बछडा चोखता है। जिन पदार्थोंको लोगोंने विरोष कल्पित कर रखा है, उनमें भी कुछमें तो सत्य है। किंतु बहुभागों में असत्य है। अमि दाहको करती है। किंतु दाहको शांत भी करती है । अमिसे मुरसे हुए को बल सींचनेसे हानि होती है और अमिसे सेक करनेपर लाभ होता है । विषकी चिकित्सा विष है, यानी एक विषकी गर्मीको दूसरे प्रतिपक्षी विपकी गर्मी चाट जाती है। उष्णज्वरके दूर करने के लिए उष्ण प्रकृतिवाली मौषधियां सफल होती है। एवं एवं जल भी कहीं अनिका कार्य कर देता है । जमाये हुए
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उत्साचिन्तामणिः
पाररूप पानी (बर्फ) की प्रकृति अति उष्ण है । संतप्त लमें जल डाम्नेसे अभिज्वाग पगट हो जाती है, तथा पूर्वमें उदय होनेवाला सूर्य पश्चिममें भी उदय हो जाता है। जबकि पूर्व, पश्चिम दिशाओंका नियम करना भ्रमण करते हुए सूर्यके उदय और अस्त होनेके अधीन है गे हमारे लिये बो पूर्व है, वह दूसरे पूर्व विदेहवागेके लिये पश्चिम बन बैठता है। ऐसे ही को हमारे लिए पश्चिम है, वह पश्चिम-विदेह वालिये पूर्व दिशा है। तभी तो जम्बूदीपमें चारों ओरके क्षेत्रोंसे सुमेरु पर्वत उत्तर दिशामे ही रहता हुआ माना गया है। एक जातिका पत्थर है, जो पानी में तैर जाता है, एक सकटी भी ऐसी होती है, जो पानी में डूब जाती है। " डूबसे को तिनकेका सहारा अच्छा " इस परिभाषाके अनुसार मी काम होता है और उसके विरुद्धसी दीख रही “मोस चाटनेसे प्यास नहीं बुझती है। यह परिभाषा भी अर्थ क्रियायें करा रही हैं। तमेव " बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख "ये लौकिक न्यायके साथ साथ "बिना रोये मा मी दूध नहीं पिलाती " यह न्याय भी प्रयोजनोंको साप रहा है। इन युक्तियोसे सिद्ध होता है कि अनेकांतमतमें कोई विरोष दोष नहीं है। दूसरा दोष वैयधिकरण्य मी स्याद्वादियों के ऊपर लागू नहीं हो सकता है । निषष पर्वतका अधिकरण न्यारा है और नील पर्वतका अधिकरण मित्र है । ऐसी विभिन्न अधिकरणताको वैयधिकरण्य कहते हैं। किंतु वस्तुमें जहां ही सत्पना है, वहीं असत्त्व है। जहां नित्यत्व है, वही अनित्यत्व है । दस औरपियोंको पोंटकर बनी हुषी गोलीके छोटेसे टुकडेमें भी दसों भौषषियोंका रस विधमान है। संयोग संबंधसे विधमान रहनेवाले आतप, वायु, धूल, कार्मण कंत्र, जीवद्रव्य, कालाणु, आदि पदार्थ एक स्थानमें जब मध्याइत रूपसे रह जाता है तो द्रव्यमें सादास्य संबंधसे अनेक स्वभाव तोपरी प्रसनतासे रह जायेंगे | अत: मिन मिल स्वभावोंका एक द्रन्य विभिन्न अधिकरणपना दोष नहीं लगता है। तीसरा संशय दोष सप हो सकता था, यदि चलायमान प्रतिपति होती किंतु दोनों धर्म एक धर्मी में निर्णीत रूपसे जाने जारहे हैं तो संशय दोषका अक्सर कहां ! अमि जल पादिक अपने अनेक स्वमायों करके दाह, पाक, सेपन, विध्यापन आदि किमाएं कर रहे हैं वैसे ही सत्व आदि भी अपने योग्य अर्थ क्रियाओंको करते हैं। क्या संशयापन स्वभावोंसे कोई अर्थक्रिया होती है ! यानी नहीं । भाव और अमावसे समानाधिकरण्य रखता हुआ धर्मों के नियामक भवच्छेदकोंका परस्पर मिल बाना संकर है, सो अनेकांतमे नही सम्भव है। क्योंकि अस्तित्वका नियामक स्वचतुष्टय स्वरूप तो दूसरे नास्तित्व के नियामक धर्मसे एका एक नहीं हो जाता है। पांचवां दोष व्यतिकर भी यहां नहीं है। विषयोंका परस्सरमै बदलकर चले जानेको न्यतिकर कहते हैं। सो यहां टंकोत्कीर्ण न्यायसे उत्पाद, व्यय, भौव्य या अस्तिस्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यस्व आदि धर्म और उनके व्यवस्थापक स्वभाव सभी अपने मंच उपांशों ही प्रविष्ठित रहते हैं। परिवर्तन नहीं होता है। छठवां दोप अनवस्था भी बनेकांतम नहीं पाता है। सस् धर्ममें पुनः दूसरे सत् असत् माने जावें और उस सतमे फिर तीसरे सत् असत्
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सत्यापिन्ताममिः
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माने जावे यो करते करते आकांक्षा क्षय नहीं होते हुये अनवस्था हो सकती थी। किंतु ऐसा नहीं है । एक ही सत्पन सब धर्मों में और पूरे धीमें मोसमोत होकर व्याप रहा है। यदि किसी धर्म सत् असत्का पुनः न उठ बैठे तो दूसरी सप्तभती भी बनाली जाती है। दस, बीस बिज्ञासाओं के पीछे आकांक्षा शांत हो जावेगी। काम करनेवाली अनवस्थाको गुण मान लिया गया है। सातवा दोष अमविपति है। किसी भी धर्मका ठीक ठीक निर्णय न होनेसे सामान्य जन द्विविधामें पर जाते हैं और पदार्थको नहीं जान पाते हैं। यह अमतिपत्ति है। किंतु अनेक धर्माका वस्तुमे पशु पक्षियों तकको ज्ञान हो रहा है । फिर अप्रतिपति कैसी: । आठवां दोष अभाव है। जिसका ज्ञान नहीं हुआ, उसका बडी सरलतासे और मीठेपनसे निवेष कर देना ही अभाव है। किंतु अनेक स्वभावोंका और पदायाँका प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे ज्ञान हो रहा है । अतः सस्म अनेकांसका अभाव नहीं कह सकते हो। इस प्रकार संक्षेपसे आठ दोषोंका वारण किया गया है। हमको एकांत कादियोंकी बुद्धिपर बड़ा आश्चर्य होता है। कारण कि सर्वत्र फैले हुए प्रसिद्ध अनेकांतका वे अपकाप कराई है। कोई अनेकांसको छल कहता है। कोई पागजाल बतलाता है।
और कोई संशयवाद आदि । अब विचारिये कि एक ही देवदत्त किसीका पुत्र, किसीका पिता, किसीका मामा और किसीका भानजा आदि धर्मीको धारण कररहा है। वादीके द्वारा मोका गया हेतु अपने पक्षका साधक है और प्रतिपक्षीके पक्षका बाधक है । पक्ष या सपक्षमै सबेतु रहता है और वही विपक्षमें नहीं रहता है। आदि अनेक दृष्टांत अनेकांतसे मरे पड़े हुए हैं। व्यवहारकी सत्यताको लेकर बिज्ञासाके अनुरूप पभके वशसे एक वस्तु विशेषरहित अनेक धर्मोक न्यास करनेको सप्तमी कहते हैं । सत्त्व, नित्यत्व, एकल मेद, वक्तव्यस्थ, लधुत्व, अल्पख आदि अनेक धोकी सप्तमंगियां होजाती हैं। जैसे कि वन्यकी अपेक्षासे रूपगुण नित्य है (१)। पर्यायकी अपेक्षा अनित्व है (२) कमसे कहनेपर रूपगुण नित्यानित्य है (३) एक ही समय में एक साथ दोनों धर्मोको कह नहीं सकते हैं, क्योंकि स्वाभाविक योग्यताके वश वृद्धव्यवहार के द्वारा संकेताहणपूर्वक बोला गया शब्द एक समयमें एक ही अर्भको कह सकता है। इंद्र मी वस्तुके स्वभावोंका परिवर्तन नहीं करा सकता है। अत: अवक्तव्य है (५)। नित्य होफर भी अवक्तव्य है (५)। अनित्य अंशोंसे परिपूर्ण होता हुआ भी रूपगुण अवक्तव्य है (६)। नित्य अनित्यपन दोनोंसे घिरा हुआ भी अवकम्य है (७)। इस प्रकार विवक्षा होनेपर सातभंग हो जाते हैं । ससमझीके कस्पित धर्म व्यावहारिक सत्य हैं। इनमें छह हानियां और वृदियां नहीं होती है। इन कस्सित धमों के अतिरिक्त अनुजीवी प्रतिजीवी गुण तथा अर्थपर्याय व्यवनपर्याय और अविभाग प्रतिच्छेद उत्पाद, व्यय, धौम्प ये समी धर्म भनेकातों में गर्मित है । यहाँपर अन्त माने स्वभावका है। सभी वस्तुओं के गुण पर्याय आदि स्वभाव हैं। जो गुण हैं, वे स्वभाव अवश्य है । किंतु जो स्वभाव है, वे गुण होवे नहीं भी हो। तहां अनुजीवी गुण तो प्रतिक्षण परिणमन करते हैं। अनुजीवी गुणोंकी पर्यायोंके अविभाग प्रतिच्छेदों में एक समय
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तत्त्वाचिन्तामणिः
१२ हानिवृद्धिओंमेसे एक हानि या वृद्धि होगी। शेष ग्यारह आगे पीछे समयों में होगी। किसी किसी गुणकी पर्यायोंके अविभागी अंशोंकी तो आठ या चार ही हानिवृद्धियां होती है। अनुजीवीगुणों के अतिरिक्त अन्य धर्म तो स्वमावसे ही विद्यमान रहते हैं। पर्याय शक्तियां भी स्थूलपर्याय पर्यत परिणमन करती हुयी मानी गयी है। इस प्रकार संक्षेपसे अनेकांतवादका व्याख्यान किया है। परमार्थभूत अनेकांतवादके बिना बंघ और मोक्ष आदिके हेतुओंकी किसी भी मममै सिद्धि नहीं हो पाती है, यह यहां समझाना है।
सत्यमद्वयमेवेदं स्वसम्वेदनभित्यसत् । तद्यवस्थापकाभावात्पुरुषाद्वैततत्त्ववत् ॥ १२८ ॥
यहां सम्बेदनाद्वैतवादी बौद्ध कहते हैं कि ठीक है, संघ, मोझ तथा उनके हेतु मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान आदि भले ही सिद्ध न होवे, हमारी कोई क्षति नहीं है । तमी को हम स्वयं अप
को ही बेदन करनेवाला यह अकेला शुद्धज्ञानरूप ही है, ऐसा तत्त्व मानते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् निरंश संवेदनस्वरूप है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अद्वैतवादियों का कहना भी अयोग्य है प्रशंसा योग्य नहीं है । क्योंकि अकेले उस शुद्ध ज्ञानकी व्यवस्था करनेवाला कोई प्रबलप्रमाण आपके पास नहीं है । जैसे कि ब्रह्माद्वैतवादी अपने नित्य ब्रह्मसत्त्वकी व्यवस्था नहीं कर सकते हैं।
न हि कुतश्चित्प्रमाणादद्वैतं संवेदनं व्यवतिष्ठते, ब्रमाद्वैतवत् । प्रमाणप्रमेययोर्दैव. प्रसंगात, प्रत्यक्षतस्तब्धवस्थापनेनाद्वैतविरोधः इति चेन, अन्यतः प्रत्यक्षस्य मेदप्रसिद्धः अनेनानुमानादुपनिषवाक्यावा तम्यवस्थापने द्वैतप्रसंगः माथितः।
बौद्धोंके माने गये अकेले संवेदनका अद्वैततत्त्व किसी भी प्रमाणसे व्यवस्थित नहीं हो पाता है, जैसे कि वेदान्तियोंका प्रमाद्वैत पदार्थ नहीं सिद्ध होता है। यदि अद्वतकी प्रमाणसे सिद्धि करोगे तो अद्वैत प्रमेय हुमा। इस प्रकार एक तो उसका साधक प्रमाण और दूसरा अद्वैत प्रमेय, इन दो तत्त्वोंके होमानेसे द्वैत हो जानेका प्रसंग होगा। यदि अद्वैतवादी यों कहे कि हम पस्यक्ष प्रमाणसे ही उस प्रत्यक्षरूप अद्वैतकी व्यवस्था करा देवेगे, तब तो अद्वैतका विरोध न होगा, यानी द्वैतका प्रसंग न हो सकेगा। ऐसा कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि अन्य प्रमाणों से प्रत्यक्षके मेव प्रसिद्ध हो रहे हैं । या दूसरे अनेक प्रत्यक्ष ती भेदोंको सिद्ध कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्ष और परब्रह्म या संवेदनाद्वैत एकम एक नहीं है । अतः ज्ञान और ज्ञेयकी अपेक्षासे द्वैतका प्रसंग आपके ऊपर लागू रहेगा। इस निरूपणसे यह भी कह दिया गया कि अनुमानसे अथवा वेद उपनिषद्के वाक्यसे उस अद्वैतकी व्यवस्था होना माननेपर मी वैतका पसंग होता है। अर्थात् प्राम, उद्यान ( बाग ) पर्वत, देवदत्त आवि सर्व पदार्थ ( पक्ष ) ब्रह्मस्वरूप पविभासके अंतरश होकर तप हैं ( साध्य ) क्योंकि वे सब प्रतिभास हो रहे हैं ( हेतु ) जैसे कि प्रतिभासका
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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स्वरूप, (दृष्टांत ) इस अनुमान से ब्रह्माद्वैलकी और संपूर्ण पदार्थ ( पक्ष ) क्षणिक विज्ञान संबेदनरूप हैं ( साध्य ) क्योंकि वे अपने आप जाने जारहे हैं या प्रकाश रहे हैं ( हेतु ) जैसे कि सुख सम्वेदन, (उदाहरण) इस अनुमान से संवेदनाद्वैतकी सिद्धि करनेपर, साध्य और हेतुकी अपेक्षासे द्वैतपनेका प्रसंग हो ही जाता है । तथा " एकमेवाद्वयं ब्रह्म दो नाना " सर्व मयं " एक आत्मा सर्वभूतेषु गूढः " " ब्रह्मणि निष्णातः " " परमाणि लयं श्रजेत् ” आदि वेदवाक्य या आगमवाक्योंसे अद्वैतकी सिद्धि करनेपर भी वाच्यवाचकपने करके द्वैतका प्रसंग होता है ।
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न च स्वतः स्थितिस्तस्य ग्राह्यग्राहकतेक्षणात् ।
सर्वदा नापि तद्भान्तिः सत्यसंवित्त्यसम्भवात् ॥ १२९ ॥
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तथा उस संवेदनाद्वैत की अपने आप सिद्धि होजाती है, यह बौद्धों का कहना ठीक नहीं है क्योंकि जगत् सदा ग्राह्यग्राहकभाव देखा जा रहा है । ज्ञान माइक पदार्थ है। उससे जानने योग्य पदार्थ ग्राह्य है। यों तो द्वैत ही हुआ। उस ग्राह्यग्राहक भावपने के द्वारा जानना भ्रांतिरूप है, यह मी नहीं मानना चाहिये। क्योंकि माह्मग्राहकके विना तो सत्यममितिका होना ही असम्भव 2 ज्ञानका सत्यपना दो ठीक विषयको करनेसे ही वर्णन है।
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न सम्वेदनाद्वैतं प्रत्यक्षान्तरादनुमानाद्वा स्थाप्यते स्वतस्तस्य स्थितेरिति न साधीयः सर्वथा प्राह्मग्राहकाकाराक्रान्तस्य सम्वेदनस्यानुभवनात् स्वरूपस्य स्वतो गतेरिति वक्तुमशक्ते, संविदि प्राह्मग्राहकाकारस्यानुभवनं भ्रान्तमिति न वाच्यं वद्रहितस्य सत्यस्य संविक्यभावात् सर्वदावभासमानस्य सर्वत्र सर्वेषां भ्रान्तत्वायोगात् ।
बौद्ध कहते हैं कि हम अपने संवेदन के अद्वैतको अन्य प्रत्यक्षोंसे अथवा अनुमान प्रमाणोंसे या आगम वाक्योंसे स्थापित नहीं करते हैं । किंतु उस शुद्ध अद्वैत की तो अपने आपसे ही स्थिति होरही है। आचार्य समझाते है कि इस प्रकार कहना बहुत अच्छा नहीं है । क्योंकि सदा ही ग्राह्य आकार और ग्राहकाकारोंसे वेष्ठित हुए ही संवेदनका सब जीवोंको अनुभव होरहा है । अतः ब्राह्म माइक अंशोंसे रहित माने गये संवेदन के स्वरूपकी अपनेसे ही शति होजाती है, यह कभी नहीं कह सकते हो । दीपक और सूर्य में स्वयं अपना ही प्रकाश करनेपर प्रकाश्यत्व और प्रकाशकत्व ये दोनों धर्म विद्यमान हैं। तभी तो प्रकाशनक्रिया होसकी है। यदि बौद्ध यह कहें कि ज्ञानमे माह्य आकार और ग्राहक आकारके अनुभव करनेकी मनुष्योंको भ्रांति होरही है । समीचीन ज्ञान होनेपर के आकार कपूर की तरह उड जाते हैं और शुद्धज्ञान रह जाता है। यह तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये। क्योंकि उन ग्राह्य मादक अंशोंसे रहित होकर समीचीन ममाणकी ज्ञप्ति ही नहीं हो सकती है। जैसे कि कोई अच्छा व्यापारिक स्थान प्राप्य और ग्राहकोंसे रीता नहीं है । कोई दर्शन या अमध्यवसाय के समान बालुकामय प्रदेश भले ही माह्य माइकोंसे रिक्त (खाली) हो, किंतु
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रमाणामकान तो स्व और अर्थरूपमायके ग्राहक ही देखे जाते हैं । जो पदार्थ सदा सर्व स्थानों में सर्व ही व्यक्तियों के द्वारा ठीक ठीक जाना जारहा है, उसको भ्रांत नहीं कह सकते हैं। अन्यथा समी सम्माज्ञान प्रांत होजावेंगे । दूसरोंका खण्डन करते करते अपने इष्ट की भो क्षति हो जावेगी ।
यथैवारामविभ्रान्तो पुरुषाद्वैतसत्यता। तत्सत्यत्वे च तद्धान्तिरित्यन्योन्यसमाश्रयः ॥ १३० ॥ तथा वेधादिविभ्रान्तौ वेदकाद्वैतसत्यता ।।
तत्सत्यत्वे च तद्धान्तिरित्यन्योन्यसमाश्रयः ॥ १३१ ॥
घट, पर, देवदत्त, जिनदत्त, सूर्य, चंद्रमा आदि भिन्न पर्याय भ्रांत हैं । एक ब्रह्म ही सत्य है । ऐसा कहनेवाले अमवादियों के ऊपर संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध यह अन्योन्याश्नय दोष ठीक उठाते हैं कि घट, पट, आदि अनेक मिन्न पर्यायोंका भ्रान्तपना सिद्ध होनेपर तो अमाद्वैतका सचापन सिद्ध हो और उस प्रमाद्वैतका सचापन सिद्ध होनेपर उन षट, पट आदि अनेक भिन्न पर्यायोंका भ्रांतपना सिद्ध होवे । जैसे ही यह अन्योन्याश्रय दोष ब्रह्मवादियों के ऊपर उठाया जाता है वैसे ही आपके ऊपर भी यों परस्पराश्रय दोष अच्छे ढंगसे लागू है। या वे ब्रह्माद्वैतवादी मी तुमसे कह सकते हैं कि वेध अंश, घेदक अंश, ममाणस्व अंश, घट, पट आदि अनेक भिन्न पदायोंके भ्रांतरूप सिद्ध होनेपर तो संवेदनाद्वैतका सच्चापन सिद्ध होवे । और उस अकेले संवेदनाद्वैतकी सपाई सिद्ध होनेपर उन वेष आदि भिन्न तत्वोंकी भ्रांति होना सिद्ध होवे। दोनों अद्वैतों में इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष समान है।
कथमयं पुरुषाद्वैतं निरस्य ज्ञानाद्वैत व्यवस्थापयेत् ।
यह निधारा बौद्ध पुरुषाद्वैतका खण्डन करके अपने ज्ञानाद्वैतकी व्यवस्था कैसे करा सकेगा ! बनाओ। क्योंकि दूसरेके खण्डनमें जो युक्ति दी जा रही है, वही युक्ति इस पर भी लागु हो जाती है । "काने | कानेको पलान, मियां आप ही ते जान " यह लौकिकन्याय दोनोपर एकसा घट जाता है। एक मियां साहिबके यहां एक काना घोरा था। उसका सईस मी काना था। इस पर यह बलिहारी दी कि वे मिशं भी एकाझ थे । एक दिन मियांजीने निरादरके साथ नौकरफो पोडा सजाने के लिये आज्ञा दी कि ओ काने (नौकर ) काने (घोडा) को पलान । तम नौकरने भी कटाक्षसहित उत्तर दिया कि मियांजी! आप अपनेको समझ लीजिये । ऐसे स्थलोंपर दोनों ओरसे दोनों में ही समान दोष आ जाते हैं। समाधान भी एकसा पडता है।
स्यान्मतं, न वेद्याधाकारस्य प्रान्तता सविन्मात्रस्य सत्यस्वात्साध्यते किं त्वनुमानाचतो नेतरेतराश्रयः इति तदयुक्तं, लिंगाभावात् ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
बौद्धोंका यह भी मंतव्य हो कि वेध आकार, वेदनाकार और संवित्ति आकार आदिको प्रांतपना हम केवल संवेदन (अद्वैत) की सत्यता से सिद्ध नहीं करते है। किंतु वेद्य आदिकी यांतताको अनुमानसे सिद्ध करते हैं। जिस कारण अन्योन्याश्रय दोष हमारे ऊपर लागू नहीं हो पाता है । इस प्रकार बौद्धोंका वह कहना युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि आपके पास कोई समीचीन हेतु नहीं है । जिससे कि अनुमान द्वारा बेथ आदि आकारोंको प्रांतपना सिद्ध कर डालो ।
विवादगोचरो वेद्याद्याकारो भ्रान्तभासजः । अथ स्वप्नादिपर्यायाकारवद्यदि वृत्तयः ॥ १३२ ॥ विभ्रान्त्या भेदमापन्नो विच्छेदो विभ्रमात्मकः । विच्छेदत्वाद्यथा स्वप्नविच्छेद इति सिध्यतु ॥ १३३ ॥
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इसके अनश्वर गौद्ध अपना कथन प्रारम्भ करते हैं कि विवादमै विषय पढा हुआ वे अंश आदिका भेद या वेशभेद, आकारभेद ये सब भिन्न भिन्न आकार ( पक्ष ) भ्रांत ज्ञानसे उत्पन्न हुए हैं ( साध्य ) भिन्न भिन्न ग्राह्य आदि आकारपना होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वप्न, मूच्छित, या मत अवस्था अनेक भिन्न भिन्न ग्राह्य आकारवाल भ्रांतज्ञान हो जाते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकारसे तुम बौद्ध अब अनुमानकी प्रवृत्तियां करोगे तो यह भी अनुमान सिद्ध हो जाने किविपर्यय या तज्ञानसे मेदको प्राप्त हुआ अर्थात् सच्चे प्रमाणस्वरूप विशेष स्वसंवेदन ज्ञानका क्षण क्षण बदलते हुए बीचमै व्यवधान होना भी ( पक्ष ) विश्रम स्वरूप है ( साध्य ) बिच्छेद होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वप्नका विच्छेद ( अन्वयदृष्टांत ) । इस अनुमान से विच्छेदको भी भ्रमपना सिद्ध हो जाओ, जो कि बौद्धोंको अनिष्ट है । बौद्ध जन सवेदनको मानते हुए भी संवेदन के क्षण क्षणके परिणामों में नीचमें विच्छेद पड़ जाना इष्ट करते हैं। तभी तो उनका क्षणिकत्व मन सकेगा । यदि न्यारे न्यारे विच्छेदोंका होना भी भ्रांत हो जावेगा तो ज्ञान निष्य, एक, अन्वमी, हो जावेगा । इससे तो ब्रह्मवादियों की पुष्टि होवेगी ।
न हि स्वप्नादिदशायां प्रायाकारत्वं भ्रान्तत्वेन व्याप्तं दृष्टं न पुनर्विच्छेदत्वमिति शक्यं वक्तुं प्रतीतिविरोधात् ।
I
बौद्ध लोग एकान्तरूपसे विशेषतयको मानते हैं । उनके यहां सामान्य पदार्थ वस्तुभूत नहीं माना गया है | पद्दिले क्षणका परिणाम उत्तरक्षणके परिणामसे न्यारा है । एक ही आत्मा हुआ देवदता ज्ञान यशदवज्ञान से विभिन्न है। व्यक्तियोंकी और कालकी अपेक्षासे सब परिणामों में व्यवधान करनेवाला विच्छेद माना गया है | संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध सोती हुयी या मद, मूच्छित आदि अवस्था होनेवाले ज्ञानोंके प्राह्य अंश और माइक अंशोंको भ्रमरूप समझते हैं। और इस
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तस्वार्षचिन्तामणिः
दृष्टान्तमें ग्राह्य आकारोंकी भ्रान्तपनेके साथ व्याप्तिको ग्रहणकर जागते हुए स्वस्थ अवस्थाफे ज्ञानाम भी प्रतीत होरहे ग्राह्यग्राहक अंशोको भ्रांतपना सिद्ध कर देते हैं। किन्तु हम कहते हैं कि स्वप्न आदि अवस्थाके ज्ञान परिणामामे पाये जारहे भिन्न भिन्न विच्छदका जानना भी तो भ्रमरूप है। यह नहीं कह सकते हो कि स्वप्नदशाके ज्ञान आकार तो भ्रमरूप होवे और उनके बीच बीचमै पडा हुभा विच्छेद होना फिर भ्रमरूप न होवे । ऐसा कहनेपर हो आप बौद्धोंको प्रतीतियोंसे विरोध होगा। अतः स्वप्नज्ञानके विच्छेदको भ्रमरूप निदर्शन करके परमार्थभूत संवेदनाद्वैतके परिणामोमें पड़े हुए विच्छेदका भ्रमपना सिद्ध होजावेगा, अर्थात् संवेदनाद्वैतके क्षणक्षणमें होनेवाले विशिष्ट परिणाम अनेक न बन सकेंगे। क्योंकि उन परिणामोंका अन्तरालवी विच्छेदन माना जावेगा तो संवेदनाद्वत नित्य हो जावेगा। तथा विशेषको ही एकान्तरूपसे माननेवाले बौद्धोको सामान्य माननेका भी प्रसंग आता है।
तदुभयस्य भ्रान्तस्वसिद्धौ किमनिष्टमिति चेत् ।।
बौद्ध कहते है कि ग्राह्य आकार और ज्ञानसम्बन्धी संतानियों के बीच बीचमें पड़ा हुआ विच्छेद वे दोनों ही यदि भ्रात सिद्ध होजायेंगे तो हमको क्या अनिष्ट प्राप्त होगा: निरंश संवेदनसे जितने झगडे दूर होजावे, वही अच्छा है । अर्थात् दोनोंको भ्रांत हो जानेदो ! हमको कोई भापति नहीं है। ऐसा बौद्धोंके कहनेपर आचार्य महाराज सुझाते हैं कि
नित्यं सर्वगतं ब्रह्म निराकारमनंशकम् । कालदेशादिविच्छेदभ्रांतत्वेऽकलयदुद्वयम् ॥ १३४ ॥
द्वैत पदार्थोका निरूपण नहीं करता हुआ संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध यदि कालके मध्यवर्ती व्यवघापकोंका व्यवच्छेद होना, और भिन्न भिन्न देशोंका मध्यम पड़े हुए अंतरालरूप विच्छेदका होना या विशिष्ट आकारोंके स्थापन करने के लिये ज्ञानमें माने गये आकारोंके मध्यवर्ती विच्छेद होना, आदि हनको भ्रांतरूप कहेंगे तो वह संबेदनाद्वैत विचारा परमब्रह्मके समान नित्य, सर्वव्यापक, निराकार और निरंश बन जावेगा, जो कि आपको अनिष्ट है । अयवा संवेदनकी सिद्धि करते हुये ब्रह्माद्वैत सिद्ध हो जायेगा। कालविच्छेद, देशविच्छेद, आकारव्यवधान, अंशभेदका खण्डन कर देनेसे नित्य, व्यापक, निराकार निरंश ब्रह्म अवश्य सिद्ध हो जावेगा।
कालविच्छेदस्य भ्रातत्वे नित्यं, देशविच्छेदस्य सर्वगतमाकारस्य निराकारमश । विच्छेदस्य निरंश, ब्रह्म सिद्धं चणिकाद्वैतं प्रतिक्षिपतीति कथमनिई सौगतस्य न स्यात् ।
यदि ज्ञानमें भिन्न समयके ज्ञान परिणामोंका व्यवधान करनेवाले कालविच्छेदको भ्रांत होना मानोगे तो आपका संवेदन नित्य हो जावेगा। क्योंकि कालका विच्छेद ही तो उसके क्षणिक अनित्यको बनाये हुए था। किंतु आपने उसको भ्रांत मान लिया, तब तो ज्ञान निस्य हो ही जावेगा। ऐसे ही
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तस्वार्षकिम्वामणि
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भिन्न भिन्न देशोंकी विशेषताको करनेवाले देशविच्छेदको आप भ्रांत मानेंगे तो वह संवेदन सर्वव्यापक बन जावेगा। क्योंकि आकाशके एक एक मवेशमै पसा ज्ञानका एक एक परमाणु आपने एकदेशवृत्ति अध्यापक माना है। किंतु देशका अंतराल यदि टूट जावेगा तो बंधके टूट जानेपर तालाबके समान ज्ञान व्यापक हो जावेगा, जैसे कि महास्य वर्गणाएं जगतभरमें व्यापक है । इसी प्रकार आकारों के विशेषोंको धांसरूप मानलोगे तो संवेदन निराकार होजावेगा। किंतु आपने ज्ञानको साकार माना है । ज्ञानकी साकारता ही आपके मतमें प्रमाणताका प्राण है। तथा न्यारे न्यारे ज्ञान परमाणुओंके अंशाम पड़े हुए अंशविच्छेदोंको यदि भ्रांत कहोगे तो संवेदन निरंश होजावेगा। किंतु आपने ज्ञानोंको स्वकीय स्वकीय शुद्ध अंशोंसे सांश माना है । अतः विच्छेदोंके भ्रांतपने होजानेसे असवादियोंका मत सिद्ध हुआ जाता है। क्योंकि ब्रह्मवादी अपने श्रम तत्वको नित्य, व्यापक, निराकार
और निरंश मानते हैं । अतः परममझकी सिद्धि होचाना ही आपके माने हुए क्षणिक संवेदनाद्वैतका खण्डन करदेती है । इस प्रकार बौद्धोंको क्यों नहीं अनिष्ट होगा ! । अर्थात् संवेदनाद्वैतको तो सिद्ध करने बैठे, किंतु उसके सर्वथा विपरीत ब्रह्माद्वैत सिद्ध होगया। यही तो वहा भारी अनिष्ट है। व्यर्थका गौरव आलापनेसे कोई कार्य नहीं चलता है।
नित्यादिरूपसंवित्तरभावात्तदसम्भवे। .. परमार्थात्मतावित्तेरभावादेतदप्यसत् ॥ १३५ ॥
यदि शैद्ध यों कहै कि नित्य, व्यापक, निराकार और निरंश आदि स्वरूपयाले ऐसे परम. झाकी ज्ञप्ति नहीं होती है । अतः उस ब्रह्मतत्त्वका सिद्ध होना असम्भव है । ऐसा कहनेपर तो हम भी कहदेंगे कि परमार्थस्वरूप क्षणिक अद्वैत संवेदनकी ज्ञप्ति नहीं होरही है । अतः आपका यह संवेदनाद्वैत भी शशविषाणके समान असत् पदार्थ है यानी कुछ भी नहीं है।
न हि नित्यत्वादिस्वभावे परमार्थात्मादिखभावे वा संवित्त्यभावं प्रति विशेषोऽस्ति, यतो ब्रह्मणोसत्यत्वे क्षणिकत्वे संवेदनाद्वैतस्यासत्यत्वं न सिञ्चेत् ।
जैसे आप कहते हैं कि नित्य, व्यापक होना आदि स्वभावयाले ब्रमकी ज्ञप्तिका कोई उपाय नहीं है, वैसे ही आपके परमार्थभूत, क्षणिक, साकार, परमाणुस्वरूप स्वांथ आदि स्वमाववाले संवेदनकी भी किसीको ज्ञप्ति नहीं होरही है । अतः दोनों महाशयोंके अभीष्ट होरहे परमभम और संवेदनमै समीचीन ज्ञप्ति न होने की अपेक्षासे कोई अंतर नहीं है। जिससे कि आप बौद्धके कथनानुसार प्रहातत्त्वका असत्यपना तो सिद्ध होजावे और क्षणिक होते हुए आपके माने हुए संवेदना • द्वैतकी असत्यक्षा सिद्ध न होवे। भावार्थ-हमारी दृष्टिसे दोनों भी असत्य हैं। जो तत्व प्रमाणोंसे नहीं जाना जाता है, उसके सत्वकी सिद्धि नहीं मानी जाती है।
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सस्वार्थचिन्तामणिः
न नित्यं नाप्यनित्यत्वं सर्वगत्वमसर्वगम् । नैकं नानेकमथवा स्वसंवेदनमेव तत् ॥ १३६ ॥ समस्तं तद्ववोन्यस्य तन्नाद्वैतं कथञ्चन । स्वेष्टेतव्यवस्थानप्रतिक्षेपाप्रसिद्धितः ॥ १३७ ॥
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पुनः बौद्ध कहते हैं कि संवेदन न तो नित्य है और उसे अनित्यत्व भी नहीं है, तथा as व्यापक भी नहीं है और अव्यापक भी नहीं है, अथवा वह एक भी नहीं है और न अमेक है । वह जो कुछ है सो स्वसंवेदन ही है। जो कुछ माप लोग इसके कहनेके लिये विशेषण देंगे, वह उन संपूर्ण चचनोंके वाच्यसे रहित ही है। जितने कुछ आप लोगोंके वचन हैं, वे सब कल्पित अन्य पदार्थों को कहते हैं। संवेदन तो अवाच्य है। आचार्य समझाते हैं कि वह बौद्धोंका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकार तो संवेदनाद्वैतकी सिद्धि कैसे भी नहीं हो सकेगी। कारण कि अपने इष्ट तत्त्वकी व्यवस्था करना और अनिष्ट पक्षका खण्डन करना ये दोनों तो शब्द के विना सकते हैं। ऐसी दशा में आपका सर्व प्रयास करना व्यर्थ जाता है।
स्वेष्टस्य संवेदनाद्वयस्य व्यवस्थानमनिष्टस्य भेदस्य पुरुषाद्वैतादेव प्रतिक्षेपो यतोऽस्य न कथञ्चनापि प्रसिध्यति, ततो नाद्वैतं तत्त्वं बंधहेत्वादिशून्यमास्थातुं युक्तंमनिष्टराच्यवत् ।
जिस कारण से कि इस संवेदनाद्वैतवादी बौद्धके यहां अपनेको इष्ट हो रहे संवेदनाद्वैतकी व्यवस्था करना और अपने अनिष्ट माने गये द्वैतका अथवा पुरुषाद्वैत, शहाद्वैत तथा चित्राद्वैतका खण्डन करना प्रमाणद्वारा कैसे भी नहीं सिद्ध होता है। इस कारण बौद्धोंसे माना गया अद्वैतरूपी तत्त्व विचारा, बंधके कारण, कार्य और मोक्षके कारण सम्यग्ज्ञान आदि स्वभावोंसे रहित होता हुआ कैसे भी युक्तियोंसे सहित सिद्ध नहीं हो सकता है । जैसे कि आपको सर्वथा अनिष्ट हो रहे तत्वों की आपके यहां प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं होती है । जिस दर्शनमें बंध, सम्यग्ज्ञान, I आदिकी व्यवस्था नहीं है, उसपर श्रद्धा नहीं करनी चाहिये । अतः एकसौ सत्रहवीं वार्तिके अनुसार नित्यपक्ष और क्षणिक पक्षमें आत्मा बंध, मोक्ष आदि अर्धक्रियाओंका हेतु नहीं हो पाता है, यह सिद्धांत युक्तियोंसे सिद्ध कर दिया गया है।
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नन्वनादिर विधेयं स्वेष्टेतरविभागकृत् ।
सत्येतरैव दुःपारा तामाश्रित्य परीक्षणा ॥ १३८ ॥ सर्वस्य तत्त्वनिर्णीतेः पूर्वं किं चान्यथा स्थितिः । एव प्रलाप एवास्य शून्योपप्लववादिवत् ॥ १३९ ॥
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सत्त्वाविश्वामणिः
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किञ्चिन्नितिमाश्रित्य विचारोन्यत्र वर्तते । . सर्वविप्रतिपत्तौ हि कचिन्नास्ति विचारणा ॥ १४०॥
पौद्ध फिर भी सशंक होकर स्वपक्षका अवधारण कर रहे हैं कि संसारी जीवोंके अनादि कालसे यह अविद्या लगी हुयी है उसका पार पाना अतीव कठिन है । उस अविधाके द्वारा ही सम्बेदनाद्वैत इष्ट है और पुरुषाद्वैत अनिष्ट है । क्षणिक तत्वका मण्डन करना है । नित्य ब्रह्मका खण्डन करना है । एक वादी है, दूसरा प्रतिवादी है, इत्यादि अपनेको इष्ट था अनिष्ट होरहे विभाग किये जा रहे हैं । वास्तवमें यह अविद्या असत्य ही है। किंतु उस अविद्याका आश्रय लेकर तत्त्वोंकी परीक्षा की जाती है, जैसे पटिस ही काटेका कांच करने का कापसे यूरेका कपट विचारा जाता है। सम्पूर्ण ही वादी पण्डित तत्त्वोंका निर्णय हो जानेके पहिले कल्पित भविषाको स्वीकार करते हैं। तथा निर्णय हो चुकनपर दूसरे प्रकारसे पदार्थोकी व्यवस्था कर दी जाती है। भावार्थ-हम संवेदनाद्वैतवादी तत्त्वनिर्णयके पहिले प्रमाण, प्रमेय, खाम्हन, मण्डन, इष्ट, अनिष्ट आदिकी कश्यनाको अविद्यासे कर लेते हैं । अद्वैतके सिद्ध हो जाने पर पीछेसे सबको त्याग कर शुद्ध संवेदनकी प्रतीति कर लेते हैं । आचार्य बोध कराते हैं कि इस प्रकार इन बौद्धोंका यह कहना भी शून्यवादी और तत्वोंका उपप्लव कहनेवालोंके समान प्रलापमात्र ही है । ऐसा कहनेमे सारांश कुछ भी नहीं है। केवल आग्रहमाव ही है । कुछ भी निर्णीत किये गये ममाण या देव तमा आगमका आश्रय लेफर तो अन्य विवादस्थल पदार्थ में विचार चलाया जाना है । जब कि बौदों को सब ही उपाय और उपेय तत्वों में विवाद पड़ा हुआ है अर्थात् किसी भी प्रमाण और प्रमेयका निर्णय नहीं है ऐसी दशाम तत्त्वोंकी परीक्षा करना ही कैसे हो सकता है। कहीं भी विचार नहीं चल सकता है । जिस सम्भ्रांत पुरुषको अभि, कसौटी, भारीपन, छेदकी चमक, आविका ही निर्णय नहीं है वह सुवर्णकी क्या परीक्षा कर सकता है ? । ऐसे ही शून्यवादी और तत्त्वोपप्लववादियों के समान कतिपय भी प्रमाण और प्रमेयोंका निर्णय न होनेसे सौगतके सम्वेदनाद्वैतकी सिद्धि नहीं हो सकती है । कमसे कम प्रमाण, प्रमेय, प्रतिपाद्य, प्रतिपादक, शब्द, हेतु, साध्य आदि तो अवश्य मानने चाहिये।
नहि सर्व सर्वस्यानिर्णीतमेव विचारात्पूर्वमिति स्वयं निश्चिन्वन् किञ्चित्रिीतामिष्टं प्रतिक्षेप्तुमर्हति विरोधात् ।
समी वादी प्रतिवादियोंको विचार करनेसे पहिले सभी सत्त्व अनिर्णीत ही होते हैं। इस पातको स्वयं निश्चय करता हुआ शून्यवादी या तत्त्वोफ्लक्यांदी कुछ निर्णय किये हुए इष्ट पदार्थको अवश्य इष्ट करता है । सभी प्रकारसे सबका खण्डन करने के लिये नियुक्त नहीं हो सकता है । क्योंकि विरोध है । अर्थात् जो विचार करनेसे पहिले निर्णय न होना कह रहा है, उस वादीको अन्तरंगों
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तत्त्वार्य चिन्तामणिः
कुछ न कुछ तत्र तो अभीष्ट है ही । इष्ट तत्वको माने विना खण्डन, मण्डन, किस उद्देश्यसे होगा । और शून्यवादी जब विचारसे पहिले तत्वोंका निर्णय न होना निश्चयसे जान रहा है तो यह निश्वम ज्ञान ही उसका माना हुआ तत्र कहना चाहिये । तत्त्वों का निर्णय भी तो उसको अभीष्ट है । तत्रेष्टं यस्य निर्णीतं प्रमाणं तस्य वस्तुतः ।
तदन्तरेण निर्णीतस्तत्रायोगादनिष्टवत् ॥ १४१ ॥
जिसके यहां कुछ भी इष्ट तत्त्वका निर्णय किया गया है, उसके यहां वास्तविक रूपसे कोई प्रमाण अवश्य माना गया है। क्योंकि उस प्रमाणके बिना वहां इष्ट पदार्थमें निश्चय करना ही नहीं बनता है | प्रमाणके विना अनिष्ट तत्वका निर्णय नहीं होता है। अतः प्रमाण मानना तो अनिवार्य हुआ । यो पांच अवयवाला अनुमान बना दिया गया है ।
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यथानिष्टे प्रमाणं वास्तवमन्तरेण निर्णीतिर्नोपपद्यते तथा स्वयमिष्टेऽपीति, तत्र निर्णीतिमनुमन्यमानेन तदनुमन्तव्यमेव ।
जैसे कि अपने को नहीं रुचते हुए पदार्थ में वास्तविक प्राणको माने विना अनिष्टपनेका निर्णय करना सिद्ध नहीं होता है, वैसे ही स्वयंको अभीष्ट होरहे पदार्थ में भी प्रमाण माने विना निर्णय नहीं होने पाता है । अब उस इष्ट अनिष्ट पदार्थमें निर्णय करनेको विचारपूर्वक स्वीकार करनेवाले अद्वैतवादियों करके वह प्रमाण तो अवश्य स्वीकार करलेना ही चाहिये । बौद्धोंने स्वसंवेदनको माना है। किंतु प्रमाण, प्रमेय, ग्राह्य, ग्राहक, स्वभावोंसे रहित स्वीकार किया है। ऐसे कोरे सम्वेदन से इष्ट, अनिष्ट पदार्थों का निर्णय नहीं हो सकता है ।
तत्स्वसंवेदनं तावद्यद्युपेयेत केनचित् । संवादकत्व तस्तद्वदक्षलिंगादिवेदनम् ॥ १४२ ॥ प्रमाणानिश्चितादेव सर्वनास्तु परीक्षणम् । स्वेतरविभागाय विद्या विद्योपगामिनाम् ॥
१४३ ॥
किसी उपायके द्वारा संवेदनका निर्णय करना यदि आप स्वीकार कर लेंगे और सफल प्रवृत्तिको करानेवाले सम्वादकपने से उस स्वसंवेदनको ही प्रमाण सिद्ध करेंगे, तब तो उसीके समान इंद्रियों जन्य प्रत्यक्ष ज्ञानको और हेतुसे अन्य अनुमान ज्ञानको तथा शब्दजन्य आगम ज्ञान
दिको भी प्रमाण स्वीकार करलेना चाहिये। अतः निर्णीत किये हुए प्रमाणसे ही सब स्थानोंपर तत्वोंका परीक्षण हो । यो सम्यग्ज्ञानको स्वीकार करनेवाले वादियों के यहां प्रमाणरूप विद्या ही अपने इष्ट और अनिष्टपदार्थ के विभाग करने के लिये समर्थ होती है। अविधा विचारी स्वयं तुच्छ है । वह इटिका विभाग क्या करेगी ? तलवार्थों से उसी अविद्याका विभाग ( दूरीकरण हो जाता है । अर्थात् वह स्वयं विभक्त हो जाती है ।
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तत्त्वाचिन्तामणिः
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स्वसंवेदनमपि न स्वेष्टं निर्णीत येन तस्य संवादकत्वासवतः प्रमाणत्वे तद्वदलिंगादिजनितवेदनस्य प्रमाणत्वसिद्धेनिश्चितादेव प्रमाणात सर्वत्र परीक्षण स्वेष्टेतरविभागाय विद्या प्रवर्तेत तत्त्वोपप्लववादिनः, परपर्यनुयोगमात्रपरत्वादिति कश्चित् । सोऽपि यस्किञ्चनभाषी, परपर्यनुयोगमात्रस्याप्ययोगात् । तथाहि
पदार्थोंको सर्वथा नहीं मानना, विचारके पीछे पीछे सबको शून्य कहते जाना शून्यवाद है, और विचारसे पहिले व्यवहाररूपसे सत्य मानकर विचार होनेपर सर्व प्रमाण, ममेय पदार्थोंका न स्वीकार करना तत्त्वोपप्लववाद है। तत्त्वोपप्लव्यादीकी ओरसे कोई कहता है कि हम स्वसंवेदनको भी प्रमाणस्वरूपसे इष्ट होनेका निर्णय नहीं करते हैं और अद्वैतवादियोंके मूल स्वसंवेदनको मी नहीं मानते हैं, जिससे कि आप जन लोग हमको यह कह सके कि संवादकपनेसे उस स्वसंवदेनको जब वास्तविकरूपसे प्रमाणता मान लोगे तो उसीके समान इंद्रिय, हेतु और शब्दसे उत्पन्न हुए प्रत्यक्ष, अनुमान और बागम ज्ञानोंको भी प्रमाणता सिद्ध हो ही जावेगी और निश्चित प्रमाणके द्वारा ही सब ही सलोंपर परीक्षा होकरके अपने इष्ट अनिष्ट तत्त्वोंके विमागके लिये सम्यग्ज्ञान ही प्रवगा । बंधुवर्य, यह तो आप जैनोंका कहना तब बनता, जब कि हम कोई एक भी तत्व मान लेते। किंतु हम तत्त्वोंका समूल चूल अमाव कहनेवाले उपप्लववादी एफ तत्त्वको भी इष्ट नहीं करते हैं। हम वितण्डावादी है। दूसरेके माने हुए सत्त्वों में चोथ उठाकर उनके खण्डन करनेमे ही हम तत्पर रहते हैं । स्वयं अपनी गांठका मत कुछ भी नहीं रखते हैं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कोई उपलववादीका सहायक कह रहा है। किंतु वह मी जो कुछ यों ही अण्टसण्ट निस्वस्व पकवाद करनेकी रेव रखता है। क्योंकि प्रमाणका निर्णय किये बिना दूसरे वादियोंके तत्वोंपर खण्डन करनेके लिये केवल प्रश्नोंकी भरमार या आक्षेप उठाना भी तो नहीं बन सकेगा । इसी बातको आचार्ष महाराज स्पष्ट कर दिखलाते हैं -सुनिये और समझिये ।
यस्यापीष्टं न निर्णीतं कापि तस्य न संशयः।। तभावे न युज्यन्ते परंपर्यनुयुक्तयः ॥ १४४ ॥
जिसके यहां कोई भी इष्ट तत्त्व निर्णीत नहीं किया गया है, जिसको कहीं भी संशय करना नहीं बन सकता है । भूभवनमें उपजकर वही पाला गया मनुष्य तो ढूंठ या पुरुषका अथवा चांदी या सीपका संशय नहीं कर पाता है । और जब दूसरेके तत्त्वों में कटाक्ष करने के लिये वह संशय ही यदि न बनेगा तो दूसरे वादियों के ऊपर कुचोधोंका निरूपण करना भी तत्वोपप्लववादियों का न बन सकेगा, यह प्रतिपति ( खातिर ) भण्डार ( जमा ) रखो।
कसमयभिचारित्वं वेदनस्य निधीयते ? किमदुष्टकारकसंदोहोत्याधत्वेन बाधारहि तत्वेन प्रवृत्तिसामर्थेनान्यथा वेति प्रमाणपत्वे पर्यनुयोगाः संशयपूर्वकालदमावे तदस
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तत्वार्थचिन्तामणिः
म्भवात्, किमर्थं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्यादेः पर्यनुयोगवत् । संशयच तत्र कदाचित्कविनिर्णयपूर्वकः स्याण्वादिसंशयवत्। तत्र यस्य क्वचित्कदाचिददुष्टकारकसंदोहोत्पाद्यत्वादिना प्रमाणस्वनिर्णयो नास्त्येव तस्य कथं तत्पूर्वकः संशयः, तदभावे कुतः पर्यनुयोगाः प्रवर्तेरनिति न परपर्यनुयोगपराणि वृहस्पतेः सूत्राणि स्युः ।
उपलनवादी जन अंतरंग बहिरंग प्रमाण, प्रमेय, तत्त्वोंको माननेवाले जैन, मीमांसक, नैयायिक आदिके ऊपर उपाय उपेय सत्त्वोंका खण्डन करनेके लिये इस प्रकार कुबोध उठाते हैं कि अव्यभिचारी ( मिथ्याज्ञानसे भिन्न ) ज्ञानको आप लोग प्रमाण मानते हैं | अब आप जैन, नैयायिक, आदि बतलाइये कि ज्ञानका अव्यभिचारीपन कैसे निश्चय किया जाता है । क्या निर्दोष कारणों समुदायसे ज्ञान बनाया गया है, इस कारण प्रमाण है : या शांओसे रहित हैं, अतः मीमांसकोसे मानी गया ज्ञान प्रमाण है ! अथवा जिसको जाने, उसमें प्रवृद्धि करे और उसी
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मरूपी फलको प्राप्त करे या उस ज्ञानका सदस्यक दूसरा ज्ञान पैदा करके इस प्रवृत्तिकी सामर्थ्यले नैयायिक लोग ज्ञानमें प्रमाणता होते हैं ! बतलाओ । अथवा दूसरे प्रकारोंसे अविसंवादीपन आदिसे बौद्ध लोग ज्ञानमें प्रमाणता लाते हैं ? कहिये । आचार्य समझाते हैं कि उक्त ये सब उपप्लवादियों के पर्यनुयोग उठाना संशयपूर्वक ही हो सकते हैं। उस संशय के माने विना उक्त वह प्रश्नमालाका उठाना असम्भव है, जैसे कि यह क्या स्थाणु ( ठूंठ ) है या पुरुष है ! अथवा क्या यह लेजु है. या सर्प है ! आदि प्रश्नरूप चोब उठाना संशयको माने विना नहीं बनते हैं। जहां कहीं भी किसी पदार्थका अवलंन लेकर किसीको संशय होता है। उस पदार्थ में पहले कभी न कभी किसी स्वलपर निर्णय अवश्य कर लिया गया है, जिस मनुष्यने कहीं भी स्थाणु और पुरुषका तथा सांप और लेजुका ठीक ठीक पूर्वमें निश्चय कर लिया है । वही मनुष्य साधारण घर्मो का प्रत्यक्ष होनेपर और विशेष मोका प्रत्यक्ष न होनेपर किंतु विशेषधर्मो का स्मरण होनेपर मिध्याक्षयोपशमके वश होकर स्थाणु, पुरुषका मा लेजु, सांपका संशय कर बैठता है । उस प्रकरणमें यह कहना है कि जिसको, कहीं भी कभी संशय होगा उसे किसीका पहिले निर्णय अवश्य होना चाहिये, जब कि शून्यवादी किसी भी प्रमाण व्यक्तिमें निर्दोष कारणोंसे जन्यपन और बाधारहितपने आदि प्रमाणपनेका निर्णय ही नहीं मान रहा है तो उसे नैयायिक, मीमांसकों के प्रमाण तत्वमें संशय उठानेका For अधिकार है ? और पूर्वमें उस कुछ निर्णयको मानकर हुये संशयको उठा मी कैसे सकता है ! उसको तो यही कहते जाना चाहिये कि प्रमाण नहीं है। प्रमाण नहीं हैं। विशेष धर्मोंके द्वारा संचय उठाना सामान्य प्रमाणकी स्वीकृतिको और अपने को इट होरहे विशेष प्रमाणकी स्वीकृतिको अनुमित करा देता है । संशय करनेवालेको संदिग्ध विषयोंका कहीं कभी निर्णय करना आवश्यक है । तभी तो उन विशेषोंका अब संशय करते समय स्मरण होसकता है। अब निर्दोष चक्षुरादि कारणोंसे पैदा होनापन आदि किसी प्रमाणमै नहीं जाना गया तो उसका प्रश्न उठाकर संशय करना कैसे बन
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वस्था चिन्तामणिः
सकेगा ! और जब वह सशंय नहीं बना तो प्रमाण, प्रमेय वादियोंके ऊपर उपप्लववादियोंकी पश्नमाला कैसे भागेगी । इस सादा परे अन्तिगोने वाः शिरये प्रमाण, प्रमेय पदामोंकि खण्डना बृहस्पतिके सूत्र दूसरे मतोंके ऊपर कुचोध करनेमें ही तत्पर नहीं हो सकते हैं। सम्भवतः वृइसतिने चार्वाकदर्शनका पोषण कर पछिसे सर्व तत्त्वाका उपप्लव स्वीकार किया होय ।
ओमिति ब्रुवतः सिद्धं सर्वं सर्वस्य वाञ्छितम् । क्वचित्पर्यनुयोगस्यासम्भवात्तनिराकुलम् ॥ १४५॥
यदि उपप्तववादी यों कहे कि हमारे यहां प्रमाण, 'प्रमेय, आदिका निर्णय नहीं है, भले ही संशय मत बनो ! प्रश्नोंकी प्रवृत्ति भी न हो ! बृहस्पति ऋषिके सूत्र भी दूसरों के ऊपर पर्यनुयोग न कर सके, इसमें हमारी कोई क्षति नहीं है। हम उक्त आपतियणको सहर्ष स्वीकार करते हैं। तत्त्वोंका उपप्लव हमको इष्ट है, सो विना प्रयासके सिद्ध हो रहा है। अच्छा अवसर है " यस्य देवस्य गन्तव्यं, स देवो गृहमागतः । जिस अतिथिको सेवाके लिये हम बाहिर जा रहे , वे अतिथि हमारे घरपर ही स्वयं सहर्ष आगये हैं। ऐसा कहनेवालों के प्रति आचार्य महाराज कहते हैं कि यों तो सब ही को अपने अपने अभीष्ट सर्द ही तत्व सिद्ध हो जायेंगे। कही भी प्रश्न करना नहीं सम्मच होगा । सिस कारण आकुलतारहित होकर सब अपने अपने प्रयोजनकी बातोंको सिद्ध कर लेंगे। भावार्थ-जब कि प्रमाण, प्रमेय, प्रश्न करना, संशय करना आदिकी व्यवसाय नहीं मानी जाती है तो फिर यों ही पोल चलेगी, चाहे जो कोई भी अपने मनमानी पातको पुष्ट कर लेगा ।
ततो न शून्यवादयत् तत्वोपप्लववादो वादावरव्युदासेन सिध्येत् तपानेकांचस्यैव सिदेः।
तिस कारणसे शून्यवादके समान दीखते हुए तत्वोंका अपलाप करनेवाला तत्त्वोपप्लववाद भी सिद्ध नहीं हो पाता है, जो कि यह कहता है कि हम तत्वोपप्लववादको अङ्गीकार करते हुए अन्य आस्तिकोंके यादोंका खण्डन करते हैं। भावार्थ-शून्यबादी और उपलववादी इतर वादोंका लण्डन नहीं कर सकते हैं। और उस प्रकार जैनोंके अनेकांत तत्त्वकी ही सिदि होती है । अपने इष्ट उपप्पचकी सिद्धि करना और अन्यवादोंका स्वण्डन करना यही तो अनेकात आपने मान लिया । आप भनेकांतसे बच नहीं सकते हैं।
शून्योपल्लववादेऽपि नानेकांताद्विना स्थितिः । स्वयं क्वचिदशुन्यस्य स्वीकृतेरनुपलते ॥ १४६ ॥ शून्यतायां हि शुन्यत्वं जातुचिन्नोपगम्यते। तथोपल्लवनं तत्वोपालवेऽपतिरत्र तत् ॥ १४७ ॥
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वस्वार्यचिन्तामणिः
Lalte
शून्यवाद और उपलबवादमें भी किसी वादीका स्थिर रहना अनेकांतके बिना नहीं हो सकता है। क्योंकि किसी शून्यतत्त्वमे तो शून्परद्दिपना अपने आप स्वीकार करना ही पड़ेगा । अभ्यमा शून्यवादकी सिद्धि ही न हो सकेगी। तथा कहीं न कहीं उपप्लव ( विचार करनेपर प्रमेय, प्रमाण आदि तत्त्वोंका उड़ जाना ) तत्वमें तो नहीं उड़ जानापन मानना आवश्यक है । उपप्लवको उपप्लवरहित माननेपर ही इष्टसिद्धि हो सकेगी। अतः शून्यवादियोंके शून्यपनारूप तत्त्वमे शून्यता कभी भी नहीं मानी जा सकती है। वैसे ही तत्त्वोंका उपप्कत्र मानने पर भी उपप्लवका उपप्लव (प्रलय ) हो जाना नहीं माना जावेगा । अतः शून्यपन, अशून्यपन और उपप्लव, अनुपप्लव यों अनेकांतकी शरण लेना ही आप लोगोंको आवश्यक हुआ । शून्य अशून्यपनके समान घट, प्रमाण, प्रमेय, आदि अन्य पदार्थोंमें भी वह अशून्यपना है तथा उपप्लबमें अनुपप्लव के समान दूसरे प्रमाण, प्रमेय, आदि पदार्थ मी उपप्लवरहित हैं ।
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शून्यमपि हि स्वस्वभावेन यदि शून्यं तथा कथमशून्यवादो न भवेत् । न तस्याशून्यस्वेऽनेकान्तादेव शून्यवादप्रवृत्तिः, शन्यस्य निःस्वभावत्वात् । न मानाान्यता नापि परस्वभावेन शून्यता खरा विषाणादेरिव तस्य सर्वथा निर्णेतुमशक्तेः कुतोनेकान्तसिद्धिरिति चेत्, तर्हि तवोलवमात्रमेतदायातं शून्यतश्वस्याप्यप्रविष्ठानात् । न तदपि सिध्यत्यनेकान्तमन्तरेण तच्चोपलरमात्रेनुपप्लवसिध्देः । तत्राप्युपलचे कथमखिलं तथ्वमनुपप्लुतं न भवेत् १ शून्यवादका इष्ट तत्त्व होरहा शून्य भी यदि अपने स्वभाव करके अवश्य शून्य है, तब तो अशून्यवाद क्यों न हो जावेगा ? घटके शून्यपनेसे जैसे अघटपना छा जाता है, वैसे ही शून्यके भी शून्य हो जानेसे अशून्यपना आजावेगा अर्थात् सर्व ही प्रमाणोंसे निर्णीत किये गये पदार्थ सिद्ध हो जायेंगे | और यदि निषेधरूप उस शून्यको अशून्यपना मानोगे, तब शून्यवाद तो बन
| किन्तु अशून्यपना मी आपके कहने से ही सिद्ध हो आवेगा । इस प्रकार अनेकान्सवाद से ही शून्यमतकी प्रवृत्ति हो सकेगी। यहां कोई शून्यवादी कहते हैं कि अशून्य करते हुए भी अनेकान्तसे शून्य होना हम नहीं मानते हैं। क्योंकि शून्यतत्त्व तो अखिल स्वभावोंसे रहित है। न तो उसको अपने भाव करके अशून्यपना है और न दूसरोंके स्वभावकरके शून्यपना है । जैसे कि गर्दभका सींग या संध्याका पुत्र आदि अपने आप शून्य हैं । स्वभावसे अस्थित्व और परभावसे नास्तित्व ये धर्म यहां नहीं हैं । सर्व प्रकार से रीते उस शून्यमे खरक्षिण आदिके समान शून्यपन और शून्यपन धोका निर्णय भी नहीं किया जा सकता है । उस कारण आप जैनोंके अनेकान्स मलकी सिद्धि हम शून्यवादियोंको क्यों माननी पडेगी । मात्रार्थ - इमलोग अनेकान्तको सिद्ध नहीं मानते हैं । ग्रन्थकार समझाते हैं कि ऐसा पूर्व पक्ष करनेपर तब तो यह केवल तत्त्वोंका उपप्लव करना ही प्राप्त हुआ । तुम्हारे अभीष्ट शून्यतत्वकी भी कण्ठोक्क विधिरूपसे प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है। यदि आप यों कहें कि तत्वोपप्लवकी ही सिद्धि हुयी सही, हम दोनों भाई हैं,
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सवाषिन्तमणिः
सो आपका वह तत्त्वोपप्लव भी अनेकान्तको माने विना सिद्ध नहीं होपाता है। क्योंकि उपप्सवका तो मात्र अनुपप्लव ( नहीं खण्डन करना) रूपसे सिद्ध करना आपको मानना ही पड़ेगा। यदि उस सेवा उपलदमें भी अब मानोगे अयदि आत्तिको मन्तव्य खण्डन करनेका भी खण्डन कर दोगे सो सम्पूर्ण तत्व अनुपप्लत क्यों नहीं हो जायेंगे ! भायार्थ–सम्पूर्ण प्रमाण प्रमेय पदार्थ निर्दोषपसे सिद्ध हो जायेंगे । झूठ बोलना यदि झूठ सिद्ध हो जावे, तो सस्प पदा प्रसिद्ध हो जाता है । शत्रुका शत्रु मित्र हो जाता है।
_ ननूपप्लवमात्रेऽनुपप्लव इत्ययुक्तं, व्यायातादभावे भाववत् । सथोपप्लवो न तत्र साधीयांस्तत एवाभावेऽभाववत् । ततो यथा न सन्त्राप्यसनमावा सर्वथा व्यवस्थापयितुमछतो किं सर्वभाव एव, तथा बच्चोपप्लवोपि विचारात् कृतचियदि सिद्धस्तदान पत्र केन चिद्रूपेणोपपलको नाप्यनुपप्लवोव्याघाताद, किं सोपप्लव एवेति नानेकान्तावतार इति चेत् ।
____ यहां उपप्लववादी स्वपक्षका अवधारण करता है कि केवल उपप्लवमें अनुपप्लव मनवाना जैनोंका इस प्रकार आपादन तो युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि इसमें व्याघात दोष है। उपप्लय कहनेपर अनुपप्लव कहना नहीं बनता है। और अनुपालन माननेपर उपप्लव कहनेका पात हो जाता है। जैसे कि कोई तुच्छ अभाव माननेपर उसका भाव स्वीकार करे तो उसको वदत्तो व्याघात दोष लगता है । अभाव माननेर भाव कहना नहीं बनता है और भाव मानना चाहेगा तो पहिले अभाव कहनेका पात होता है । और उस ही कारण केवल उपप्लव माननेपर उसका वहां उपप्लव मानना भी बहुत अच्छा नहीं है । क्योंकि यहां भो व्यापात दोष होता है। जैसे कि अभाव कहनेपर फिर उस अभावमें भी अभाव कहते जानेमें व्याघात दोष है। अर्थात् अभाव कहदेनेपर पुनः उसका अभाव नहीं कहा जाता है । वैसे ही उपप्लव कह देनेपर फिर उसका खण्डन करदेनारूप उपसवको हम नहीं मानते हैं । उस कारण जैसे तुच्छ अमावतत्व न रुद्रूप है और न असतस्प भी है। क्योंकि तुच्छ अभावको सभी प्रकारोंसे हम और तुम दोनों व्यवस्थापन करने के लिये अशक है। तब तो तुच्छ अमावके विषयमे हम दोनों क्या कहे ! इसका उत्तर यही है कि अमाव अभावरूप ही है। अभावमै अन्य विशेषणों के देने पर अनेक आपत्तियां आती हैं। वैसे ही तत्त्वोंका तुच्छ उपप्लव भी विचार करनेसे पीछे यदि किसी कारण सिद्ध होगया तब तो वहां किसी भी स्वभाव करके उपप्लव नहीं है और जब वहां उपप्लव नहीं है तो अनुपालन भी नहीं ठहरा । अन्यथा व्याघात दोष हो जावेगा । अर्थात् उपप्लवमै उपप्लव न होनेपर अनुपप्लवका कहना विरुद्ध है। तब सो फिर उपप्लव क्या है ! इसका उत्तर यही है कि उपप्लव उपप्लव ही है। " आप तो आप ही है । यह किंवदन्तो यहां परित हो जाती है । इस प्रकार हमको अनेकान्तवादके अवतार करनेका कोई प्रसंग नहीं है । यदि इस प्रकार तत्वोपप्लववादी कहेंगे तो आचार्य महाराज उत्तर देते हैं सावधान होकर श्रवण कीजिये।
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तस्वाचिन्तामणिः
तर्हि प्रमाणतत्वं नादुष्टकारकसन्दोहोत्पावत्वेन नापि बाधारहितत्वादिभिः स्वभावै. व्यवस्थाप्यते व्याघातात, किं तु प्रमाणे प्रमाणमेव प्रमाणत्वेनैव तस्य व्यवस्थानात् ।
सब तो इम जैन भी कहते कि प्रमाण सत्वका अव्यभिचारीपना निर्दोष कारणोंके समु. दायसे उत्पन्न करने योग्यपनकरके नहीं है और बाधारहितपन तथा प्रवृत्तिकी सामर्थ्य आदि स्वभावोंके द्वारा भी नहीं व्यवस्थित किया गया है। क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है। निश्चयनय करके घटकी घटत्वधर्मसे ही व्यवस्था हो सकती है । कुलालसे जन्यपने के द्वारा या मिट्टीके विकारपने के द्वारा नहीं । वैसे ही प्रमाण अदुष्टकारमजन्यरूप नहीं हैं, बाधारहित भी नहीं है। ये तो सब प्रमाणके एकदेशीय धर्म है। धर्मधर्मीका कथञ्चित् मेद है । और हम अपने गृहीय निमत हेतुओंसे आपके सन्मुख प्रमाण तत्त्वको सरलतापूर्वक व्यवस्था भी क्यों करे। किन्तु प्रमाण सो ममाण ही है। प्रमाणके पूर्ण शरीर माने प्रमाणपनेके द्वारा ही उस प्रमाणकी व्यवस्था हो सकती है । जैसे कि गृहकी किवाड, भीत, चौखट, छत आदिसे एकांगरूप व्यवस्था ठीक नहीं है। किन्तु गृह गृह ही है। उसी प्रकार एवम्भूत नयके द्वारा प्रमाण प्रमाण ही है। कहिये अब आप क्या कहेगे।
न हि पृथिवी किमामित्वेन व्यवस्थाप्यते जलवेन वायुखेन वांत पयनुयोगो युक्तः, पृथिवीत्वेनैव तस्याः प्रतिष्ठानात् ।
___ अग्निपने के द्वारा पृथिवीकी व्यवस्था नहीं होपाती है तथा जलपके द्वारा और वायुपने करके भी पृथिवी तत्वके ऊपर चोध उठाना युक्त नहीं है। किन्तु उस पृथिवीकी पृथ्वीपनेके द्वारा ही प्रतिष्ठा होरही है । भावार्थ-खीरका सादृश्य नक (बगुल ) पक्षीको और बगुगका उपमान कोहनीसे हाथको मोडकर पौचा झुकादेनेसे नहीं होता है। अन्धे मनुष्यके सामने ऐसी क्रिया करनेसे हायके समान कठोर वह खीर कैसे खायी जाती होगी? ऐसी प्रतारणा सुननी पड़ती है । क्षीरानका वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्श तो क्षीरानमें ही है। यानी----स्वीर खीर ही है। वैसे ही अनन्वय अलंकारके अनुसार प्रमाण प्रमाण ही है। जैसे कि आकाश आकाश ही है । आपके उपप्लके समान प्रमाणतत्व भी अपने स्वभावोंमें ही लीन है।
प्रमाणस्वभावा एवादुष्टकारकसन्दोहोत्याधत्वादयस्ततो न तैः प्रमाणस्य व्यवस्थापने व्यापात इति चेत्, किमिदानी पर्यनुयोगेन ? तत्स्वपलेन प्रमाणस्य सिद्धत्वात् ।।
उपप्लवादी कहते हैं कि निदोष कारणों के समुदायसे पैदा होजाने योग्यपन और बाधारहिसएन सथा प्रवृत्ति करानमे समर्थपन आदि ये सब प्रमाणके स्वभाव ही हैं। उस कारण उनके द्वारा प्रमाणतत्त्वकी व्यवस्था करानमें तो कोई व्याघात नहीं है । क्या अग्निकी उष्णताके द्वारा व्यवस्था करने व्यापात है। कभी नहीं। फिर आप जैनोंने हमारे उपलरके समान यह क्यों कहा था कि " बाधारहितपने आदिसे प्रमाणतत्त्वकी व्यवस्था करने में व्याघात होता है । अतः प्रमाण प्रमाण ही ह", जब व्यापात नहीं है तो उपप्लवादी आप जैन, नैयायिक, मीमांसक आदिके माने गये
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सत्यापितामणिः
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प्रमाणतत्त्रमें उक्त धर्मोद्वारा संशयपूर्वक प्रक्षमाला उठाकर विचार करते हुए प्रमाण, प्रमेय, आदितत्त्वोंका खण्डन कर देखेंगे । व्याघात नहीं है । आचार्य समझाते हैं कि यदि उपप्लववादी ऐसा कहेगे तो हम कहते हैं फिर इस समय प्रमाणतत्त्वमें क्यों आक्षेप सहित प्रश्न उठाये जा रहे हैं ! क्योंकि आपने प्रमाणतत्त्वको अपने बलबूतेसे स्वकीय स्वभावोंके द्वारा ही सिद्ध हुआ मान लिया है। हमारे परिश्रमके विना ही आपके प्रति प्रमाणतत्त्व सिद्ध होजाता है । फिर उसका खण्डन कैसा!।
___ स्यान्मतं । न विचारात्प्रमाणस्यादुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वादयः स्वभावाः प्रसिद्धार परोपगममात्रेप सेकसिदे। संशावतारालागुषोझो हुन्छ एवेति तदप्यसारं, अविचारस्य प्रमाणस्वभावच्यवस्थानप्रतिक्षेपकारिणः स्वयमुपप्लुतत्वात् । तस्यानुपप्लुतत्वे वा कथं सर्वथोपप्लवः ।
पुनः उपप्लववाविओंका यह मन्तव्य होये कि हमने निर्दोष कारणोंसे पैदा होने योग्यपन प्रमाणका स्वभाव कह दिया । इतनेसे ही आप ले उडे और हमारे सामने विना परिश्रम प्रमाण तत्त्वको सिद्ध करने के लिये आपने अपनी कृतकार्यता प्रगट कर दी। किन्तु हमने दूसरे आप लोगों के केवल स्वीकार करनेसे ही वे निर्दोष समुदित कारकोंसे पैदा होजानापन और बाधारहिसपना भादिक स्वभाव प्रभाणके मान लिये हैं। लोकव्यवहारमें प्रसिद्ध बातको योडी देरके लिये स्वीकार कर लिया जाता है। किन्तु विचार करनेपर वे प्रमाणके स्वभाव अच्छी तरह सिद्ध नहीं होपाते हैं । इस कारण उक्त चार संशयोंको उतारकर प्रमाणतत्त्वमें आप लोगोंके ऊपर हमारा कुचोध उठाना युक्त ही है । मन्मकार कहते हैं कि इस प्रकार उनका कहना मी साररहित है। क्योंकि विचारते समय आप प्रमाण प्रमेय आदि तत्त्वोंको मान लेते हैं। किन्तु विचार के पीछे अविचारको प्रमाणके प्रवृत्तिसामर्थ्य आदि स्वभावोंकी व्यवस्थाका लणन करनेवाला स्वीकार करते हैं। किन्तु वह अविचार मी तो आपने स्वयं उपप्लुत माना है अर्थात् वह अविचार खण्डनीय, शून्यरूप, द्वच्छ है । तुच्छपदार्थ किसी भी अर्थक्रियाको नहीं करता है। यदि आप उस भविचारको न कुछ, तुच्छरूप उपप्लुत न मानेंगे तो सभी प्रकारसे उपप्लव कैसे बना ! क्योंकि वस्तुभूत एक अविचारतत्त्व उपप्लवरहित सिद्ध होगया।
___ यदि पुनरुपप्लुतानुपप्लुतत्वाभ्यामवाच्योऽविचारस्तदा सर्व प्रमाणप्रमेयतवं तथ:स्त्विति न कचिदुपप्लुवैकान्तो नाम । यथा चोपप्लयोऽविचारो वा तदेतुरुपप्लुतत्वानुपप्लुतत्वाभ्यामवाल्य: स्वरूपेण तु वाया तथा सर्व तश्वामित्मनेकान्तादेवोपालुतवादे पत्तिा, सर्वथैकान्ते उदयोगात् ।
यदि आप फिर यों कहे कि विचार करने के बाद जो अविचार दशा है, वह उपप्लव सहितपने करके भी नहीं कही जाती है और अनुपप्लुत यानी वस्तुपने करके भी नहीं कही जा सकती है । अतः वह भविचार अवाच्य है । तब तो सर्व ही प्रमाण प्रमेयत्तत्त्व भी वैसे ही हो जावो ।
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तत्वार्थ चिन्तामणिः
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अर्थात् वै वस्तुभूत होते हुये भी शइसे न कहे जानेके कारण अवाच्य होवे । जैन सिद्धान्तमै पञ्चाध्यायी ग्रन्थ के अनुसार तत्त्वको निर्विकल्पक यानी शब्दयोजनासे रहित माना है । सर्व ही तत्त्व कथंचित् अवाच्य हैं। इस प्रकार कहीं भी उपप्लवका एकान्त कोई नहीं रहा । जैसे कि उपप्लव या अविचार अथवा उन दोनोंके कारण पर्यनुयोग, संशय आदि ये तुम्हारे माने हुये तत्त्व उपप्लव और अनुपप्लवरूप करके नहीं कहे जाते हैं। किन्तु फिर भी अपने स्वरूपसे तो कड़े जाते है, अतः वाच्य हैं, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कह सकते हैं कि उसी प्रकार सम्पूर्ण प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्व भी अन्य धर्मोकरके अवाच्य हैं और अपने निश्चित स्वभावों करके वाच्य हैं, इस प्रकार अनेकान्त के प्रतिपादन करनेवाले स्याद्वाद सिद्धान्त से ही आपकी उपप्लववादमे प्रवृत्ति हो सकती है । सभी प्रकारोंसे एकान्त माननेमें वह आपका उपप्लव मानना नहीं बन सकेगा । भावार्थ - उपप्लवको आपने उपप्लुत और अनुपप्लुत मान लिया तथा उपप्लवमें अवाच्यपना और वाच्यपना भी रह गया, यही तो अनेकान्त है । उपप्लववाद, संवेदनाद्वैत और शून्यवाद इन सबकी स्थिति अनेकान्तका सहारा लेने पर ही हो सकती है। अन्यथा नहीं ।
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कोयने कान्तादेव प्रवर्तेत सोप्यन्यस्मादने कान्वादित्यनवस्थानात् कुतः प्रकृताने कान्तसिद्धिः १ सुदूरमप्यनुसु त्याने कान्तस्यैकान्तात्मवृत्तौ न सर्वस्यानेप्रमाणार्पणादनेकान्त इत्यनेकान्तोप्यनेकान्तः कथमवतिष्ठते १ कान्तात् सिद्धिः । प्रमाणस्याने कान्तात्मकत्वेनानवस्थानस्य परिहर्तुमशक्तेरेकान्तात्मकत्वे प्रतिज्ञाहानिप्रसक्तेः । नयस्याप्येकान्तारमकत्वे अयमेव दोषोऽनेकान्तात्मकत्वे सेवानवस्येति केचित् ।
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यहां अनेकान्त सिद्धान्तके ऊपर किसीका आक्षेप सहित प्रश्न है कि आप ही बतलाइये ! जब सब ही तत्त्वोंकी सिद्धि आप जैन अनेकान्तसे ही होना मानते हैं तो इस प्रकार आपका अनेकांत मी अनेक अस्तिपन, नाखिपन आदि धर्मोसे ही प्रवृत्ति करेगा और वह अनेक धर्मरूप अनेकान्त भी पुनः अभ्य अनेक धर्मोको धारण करेगा तथा उस अनेकान्तके मध्यवर्ती धर्मो के लिये भी अन्य अनेकान्वोंकी मावश्यकता पडेगी । इस प्रकार अनवस्था दोष होजाने से आप जैन लोग प्रकरण पडे हुए पहिले अनेकान्तकी सिद्धि कैसे कर सकेंगे : बताओ । यो अनेकान्तोंके पीछे चलते चलते बहुत दूर भी जाकर यदि एकान्त से ही अनेकान्त की प्रवृत्ति मानोगे तो अनवस्था दोष टल गया, किन्तु सर्वकी अनेकान्त से सिद्धि होती है, यह आपका सिद्धान्त न रहा । फिर आपने जैनेन्द्र व्याकरण के आदि में " सिद्धिरने कान्तात् " यों अधिकारसूत्र बनाकर अनेकान्तसे सिद्धि होनेका घोषण व्यर्थ ही किया । यदि अनवस्थाको दूर करनेके लिये विवक्षाका सहारा लेकर यो कहें कि प्रमाणकी विवक्षासे अनेकान्त माना गया है । अस्तु ! यों ही सही । किन्तु इस प्रकार प्रमाणकी अर्पणासे माना गया अनेकान्त भी तो अनेकान्त है। ऐसा श्री समन्तभद्र आचार्यने कहा है । अनेकान्तो यनेकान्तः " ( बृद्दत्स्वयंभू स्तोत्र ) वह कैसे व्यवस्थित होगा । और प्रमाण भी तो
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तत्त्वावचिन्तामणिः
आपके यहां अनेकान्तरूपसे माना गया है। अतः उस अनेकान्तमें भी अनेकान्तोंके भारोप करनेकी जिज्ञासा बढ़ती जावेगी । इस मनवस्था दोषका भी आप परिहार नहीं कर सकते हैं। अन्योन्याश्रय दोष भी इसके गर्भ में पड़ा हुआ है। यदि आप प्रमाणको एकान्तस्वरूप मान लेवेगे तो सबको अनेकान्तरूप माननेकी प्रतिज्ञाकी हानिका प्रसंग होता है । इस प्रकार नयको भी एकान्तस्वरूप ( एकधर्म ) मानोगे तो भी यही दोष होता है अर्थात् समको अनेकान्त स्वरूप मानने की प्रतिझा नष्ट होती है। और यदि नयको अनेकान्तात्मक मान लोगे तो इस प्रकार प्रतिमा हानि दोषका तो वारण हो जावेगा, किन्तु वही अनेकान्तम अनेकान्त और उसमें भी फिर भनेकर्म मानते मानते अनवस्था दोष आजाता है । इस प्रकार कोई एकान्तवादी अपने उपप्लवकी तुलन करते हुए कहरहे हैं । अब अन्धकार महोदय समाधान करते हैं कि
तेऽप्यतिसूक्ष्मेक्षिकान्तरितप्रज्ञाः, प्रकृतानेकान्तसाधनस्यानेकान्तस्य प्रमाणात्मकत्वेन सिद्धत्वादभ्यस्तविषयेऽनवस्थाधनववतारात् ।
उन आक्षेप करनेवाले एकान्तवादियोंकी भी विचारशालिनी बुद्धि अधिक सूक्ष्म पदार्थको देखनेके कारण छिप गयी है अर्थात् जो कुतर्की बालकी खाल निकालते हुए व्यर्थ गहरा विचार करते रहते हैं, वे कुछ दिनों पोंगा बन जाते हैं। यदि ऐसे ही निस्तत्त्व विचार किये जावे तो संसारके अनेक व्यवहार लुप्त हो जायेंगे । जलसे कोई अंग शुद्ध न हो सकेगा। क्योंकि अशुद्ध अंगपर पाहिक डाला हुआ जल भी अशुद्ध ही रहा। इस प्रकार सहस बार धोनेपर मी गुह्यरंग शुद्ध नहीं हो सकता है तथा लोटेको एक बार मांजकर कुए फांस दिया ऐसा करनेपर कुएका जक लोटेके संसर्गसे अशुद्ध होगया, फिर अशुद्ध लोटेको दुबारा, तिवारा, मांजनेसे क्या प्रयोजन निकला ! यही बात हाथ मटियानेमें भी समझ लेना । एवं मुखमें ग्रास रखते ही कार मिल जाती है, थूक दन्तमल भी मिलजाता है, किसी किसी दन्तरोगीके तो मसूडोसे निकला हुआ रक्त आदि भी मिल जाते हैं। ऐसी दशाम वह भक्ष्यपदार्थ मुखमें जाकर अशुद्ध हो जाता है, तो फिर क्यों ठीक लिया जाता है, आदि कटाशोंसे शिथिलाचारी पुरुष जैसे अपनी विचार बुद्धिको भ्रष्ट करते है, वैसे ही आक्षेपकर्ताकी बुद्धिमें अन्तर पर गया है। कई बार जलसे धोना ही शुद्धिका कारण है। अन्यथा औषधि भी पेटमें जाकर रोगको दूर न कर सकेगी। कई प्रासोको खाकर भी मुख दूर न होगी । किन्तु होती है । अतः जल, अमि, भस्म, वायु, काल आदि. शोषक पदार्थ माने गये हैं। कूप स्वभावसे शुद्ध है। नदी, तालाब, कूपमें डाल दिया गया मळ मी थोडी देर पीछे निर्मल पर्यायको धारण करलेता है। जल सबका शोधक है। भक्ष्यका विचार थालीम रखे हुए पदामि है। अपने मुखमै रखी हुयी लार या यूक अभक्ष्य नहीं हैं। बाहिर निकलनेपर वे अमक्ष्य हो जाते हैं। हां ! मुस्वरोगीको रक्त आदिका बचाव अवश्य करलेना चाहिये । अन्यथा मभक्ष्य भक्षणका दोष लगेगा। अशक्यानुष्ठानमें किसीका वश नहीं है। दोष तो लगेगा ही। प्रकरण में
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Re
तवाचिन्तामणिः
पढे हुए अनेक की सिद्धि अनेकान्त से है । और प्रमाणस्वरूपपनेसे अनेकान्त सिद्ध है । मावा --- प्रमाणसे तत्वोंका विचार करनेपर अनेकान्त प्रतीत होता है। जिन विषयोंका बार बार अभ्यास हो चुका है, उनमें अनवस्था अन्योन्याश्रम आदि दोषोंका अवतार नहीं हैं। द्रव्यमें गुण रहते हैं, गुणो पर्याय रहती है, पर्यायों में अविभाग प्रतिच्छेद रहते हैं। चार पांच कोटी चलकर जिनासा स्वयमेव शान्त हो जाती है । कथञ्चित् भेदाभेदका पक्ष लेनेपर एक धर्म दूसरे धर्मो से सहित बन जाते हैं। यहां कोई कारकपक्ष या ज्ञापकपक्ष नहीं है, जिससे कि अनवस्था आदि हो सके । बालगोपालको अथि, मिट्टी सह अनेक को माननेका अभ्यास पढ रहा है। अन भ्यास दशा अन्य अभ्यस्त शीतल वायु, पुष्पगन्ध आदिले जल में जैसे प्रामाण्य जान लिया जाता है, वैसे ही अनेक धर्मवाले प्रमाणसे अनेकान्तकी सिद्धि हो जाती है।
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तथा तदेकताचनस्यैकांतस्य सुनयत्वेन स्वतः प्रसिद्धेर्नानवस्था प्रतिज्ञाहानिर्वा सम्भवतीति निरूपणात् । वतः सूक्तं 'शून्योपशववादेऽपि अनेकताद्विना स्थिति ' रिति ।
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वैसे ही उस एकांतको सिद्ध करनेवाले समीचीन एकांकी भी अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखने वाले मुनयोंके द्वारा अपने आप मले प्रकार सिद्धि हो जाती है । अर्थात् अर्पित नवसे एकांत हमको इष्ट है। भक्का एकांत ही न होगा तो अनेकांत कहांसे बन जावेगा ! | एक सो हजारों लाखों, आदि सबका पितामह है । अतः अनवस्था दोष और प्रतिज्ञाहानि हमारे ऊपर नहीं सम्मवसे हैं। प्रमाण और नयोंकी साधनासे अनेकांत भी अनेकांतस्वरूप है। इसको हम पहिले भी कह चुके हैं। प्रमाण और नम दोनों में अनवस्था दोष देनेसे आपने अपने आप ही नष्टदग्वाश्वर " इस न्याय से अनवस्थाका वारण कर दिया है। क्योंकि अनेकांत अनेक धर्मको धारण करता है । सभी सो सुनयोंके द्वारा एकांत प्रसिद्ध हो रहा है और सुनयके द्वारा निरूपण किया गया एकांत भी अनेक धर्मो के साथ रहते हुए ही मन रहा है । उस कारण हमने एकसौ छचालीसवीं वार्तिक में बहुत अच्छा ही कहा था कि शून्यवाद और उपवादमे अनेकांसकी शरण किये बिना अपनी अपनी स्थिति नहीं हो सकती है। वनमे जाकर प्रसवश एक नृपके घोडे नष्ट होगये और दूसरेका र बिगड (जल) गया । फिर उस रथमें दूसरे रथके घोडोंको जोडकर दोनों राजा सुखपूर्वक नगरमें are | यह नष्टश्वरमन्याय है I
ग्राह्यग्राहकतेतेन बाध्यबाधकतापि वा । कार्यकारणतादिर्वा नास्त्येवेति निराकृतम् ॥
१४८ ॥
जो शुद्ध संवेदनाद्वैत वादी ऐसा मान रहे हैं कि न तो कोई ज्ञानका ग्राह्य है और न कोई ग्राहका माइक है। न कोई किसीसे बाध्य है और न कोई किसीका बाधक है। तथा च न कोई किसीका कार्य है और न कोई किसीका कारण है। न कोई किसी शुद्धका वाच्य है और न कोई अभिमान किसीका
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तत्वार्थचिन्तामणिः
वाचक है | एवं न कोई किसीका आधार है और न कोई आधेय है । इत्यादि वास्तवमे विचारा जावे तो उक्त ग्राह्यग्राहकमाव आदि कोई सम्बन्ध भी खो नहीं है। कहां मिट्टीका घडा और कहां चेउन ज्ञान तथा कहां घट शह और कहां पड़ा एवं ऊर्ध्वलोक, अपोलोक ( आकाश, पाताल ) के अन्तर भी बहुत बडा अन्तर है । एवं इनका सम्बन्धी भी कोई नहीं है । इस प्रकार माननेवाला बौद्ध भी इस कहे हुए अनेकान्तकी सिद्धिसे स्खण्डित कर दिया गया है । अत् शून्यवाद, उपप्लववाद के समान ज्ञानाद्वैतकी सिद्धि भी अनेकान्तका आश्रय लेनेपर ही हो सकेगी।
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आह्यग्राहकवाध्यचाधककार्यकारणवाच्यवाचकभावादिस्वरूपेण नास्ति सम्वेदनं संविन्मात्राकारपदस्योत्यनेकान्डोमीट एवं संवेदवाइयस्य वचैव व्यवस्थितेर्ब्राह्माद्याकाराभावात्सद्वितीयतानुपपतेः सर्वथैकान्ताभावस्य सम्यगेकान्यानेकान्ताभ्यां तृतीयानुपपत्तिवत् । इति न प्रातीतिकं, ब्राह्मग्राहकभावादिनिराकरणस्यैकान्ततो ऽसिद्धेः ।
बौद्ध कहता है कि ग्रहण करने योग्य, और गृहीतिका करण, या पाधा होने मोम्य, और बाधक, तथा करने योग्य, और कारण, एवं जो कहा जावे और जिस शब्दके द्वारा कहा जावे वह शब्द, या आधार और आधेय आदि स्वभावों करके संवेदन नहीं है तथा केवळ शुद्ध संवित्तिके आकार करके सेवेदन है। इस प्रकार इमको अनेकांत इष्ट दी है। वैसा करनेपर ही अद्वैत संवेदन की व्यवस्थापूर्वक सिद्धि हो सकेगी। ग्राह्य आदि आकारोंके न होनेसे ही दूसरेसे सहितपनेकी सिद्धि नहीं हो पाती है। भावार्थ --- अनेकांत के माननेपर ग्राह्य आदि आकारोंसे रहित होकर अकेला संवेदनाद्वैत सिद्ध हो सकेगा | अनेकांतकी शरण लिये विना ग्राह्यग्राहक आदि अंशोंसे रहित संवेदन शुल्यरूप ही हो जायेगा | हमको संवेदनकी अद्वितीयता अक्षुण्ण रखनी है। द्वितीयसे सहितपने की सिद्धि नहीं रखनी है। आपके यहां जैसे कि सर्वभा एकांठोंका अभाव समीचीन एकांत और समीचीन अनेकांत से तीसरा कोई पदार्थ सिद्ध नहीं है । भावार्थ- सर्वथा एकांतों के अभाव करनेसे आपका अनेकांत बन बैठता है । वैसे ही माह्य आदिके अमावसे हमारा संवेदनाद्वैत बन जायेगा । अब आचार्य कहते हैं कि आपका एकांतसे माना हुआ ऐसा निरंश संवेदन तो प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतियों से नहीं जाना जाता है | अतः असत् है । क्योंकि सर्वथा एकांतरूपसे माझ ग्राहकमा कार्यकारणभाव आदिका निराकरण करना भी सिद्ध नहीं हो पाता है।
ग्राह्यग्राहकशून्यत्वं ग्राह्यं तदग्राहकस्य चेत् ।
ग्राह्यग्राहकभावः स्यादन्यथा तदशून्यता ॥ १४९ ॥
ग्राह्यग्राहक भावसे रहितपनेको यदि उसके प्रहण करनेवाले ज्ञानका ग्राह्य मानोगे, सब सो मामा ही भाग या अर्थात् माहाग्राहकमा वसे रहिखपना ग्राह्य, यानी विषय हो गया और उसको जाननेवाला ज्ञान, ग्राहक यानी विषय हो गया । अभ्यथा। उस मायमादक भावसे शून्यपन
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तत्वार्थचिन्तामणिः
( रहितपना ) ज्ञानमें नहीं आवेगा, तो मी आह्यग्राहकभाव बन गया । इस प्रकार लेजुमें दोनों ओर फांसे हैं। " सेयमुभयतः पाशा रज्जुः " इस नीति से आपको मामाहकभावका भी ज्ञान ग्रहण करना आवश्यक हुआ ।
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बाध्यबाधकभावोऽपि बाध्यते यदि केनचित् । बाध्यबाधकभावोऽस्ति नो चेत्कस्य निराकृतिः ॥ १५० ॥
आप बौद्धोंने दूसरा बाध्यबाधकभाव भी संवेदन में नहीं माना है । वह बाध्यबाधकभाव भी यदि किसीके द्वारा बाधा जावेगा यानी आप उसमें बाघा देंगे, तभी तो उसका खण्डन कर सकेंगे । तब तो बाध्यबा कभाव सिद्ध ही हो गया । क्योंकि बाध्यबाधकभाव तो बाध्य हो गया। आपने ज्ञानको उससे रहित माना है और शुद्ध ज्ञानका कोई स्वभाव भाव हो गया। यदि ऐसा न मानोगे तो फिर किस बाध्यबाधकभावका खण्डन करोगे ? बताओ। जब बाध्यवाचकका खण्डन नहीं हुआ तो फिर यों भी बाध्यबाधकमात्र सिद्ध हो ही गया । " दोनों हाथ लड्डू हूँ" इस कथा - नकके अनुसार आपको बाध्यबाधकभाव माननेके लिये बाध्य होना पडेगा ।
कार्यापाये न वस्तुत्वं संविन्मात्रस्य युज्यते । कारणस्यात्यये तस्य सर्वदा सर्वथा स्थितिः ॥ १५१ ॥
"
आप बौद्ध संवेदन में कार्यकारणमावको भी नहीं मानते हैं । परंतु विचारिये कि कार्यको बनाये विना केवल संवेदनको वस्तुपना ही नहीं युक्त होता है । क्योंकि जो अर्थक्रियाओंको करता है, वही वस्तुभूत अर्थ माना गया है। यदि उस संवेदनका कोई कारण न स्वीकार किया जायेगा तो वह संवेदन सभी प्रकार से सदा स्थित हो जावेगा I " सदकारणवन्नित्यम् " अर्थात् जिस सत् पदार्थका कोई कारण नहीं है, वह नित्य है। किंतु ऐसा नित्यपना ज्ञानमें आपने इष्ट किया नहीं है । अत: कार्यकारण मानना भी आपका कर्तव्य हुआ ।" दोनों अंगुली घीमें हैं " इस नीति से हमारा अनेकांत सिद्धांत पुष्ट हुआ
वाच्यवाचकतापायो वाच्यश्चेत्तद्व्यवस्थितिः ।
परावबोधनोपायः को नाम स्यादिहान्यथा ? ॥ १५२ ॥
आप बौद्धोंने अपने संवेदनको वाच्यवाचकपन अंशसे रहित स्वीकार किया है। किंतु शिष्यको या प्रतिवादीको समझाने के लिये वाच्यवाचकसे रहितपना भी शब्दोंसे ही कहा जावेगा । तब तो वाच्यवाचकभावकी व्यवस्था बन गयी । क्योंकि वाच्यवाचकसे रहिसपना तो वाच्य हो गया और वादीके द्वारा बोला गया शब्द उसका वाचक हो गया । यदि ऐसा न मानकर अन्य प्रकार से मानोगे यानी विना कहे ही अपने हृदयकी बातोंको दूसरोंके हृदयमें उतारना चाहोगे तो शब्दके
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तथा चिन्तामणिः
अतिरिक्त दूसरों को भले प्रकार समझानेका उपाय और दूसरा यहां क्या हो सकेगा? बताओ । भावार्थ---शब्द ही विशिष्ट पदार्थों को समझा सकता है। इस प्रकार " बाबा करे तो डर, न करे तो भी हर " इस किंवदंसीके अनुसार वाच्यवाचक भाव भी आपको दोनों प्रकारसे कहना पस । ऐसे ही आधार आधेयमावका जिस संवेतनमें निषेध किया जावेगा, वह संवेदन आधार बन जायेगा और आधार भाषेयभावका निषेध करना आधेय बन जावेगा । इस प्रकार निषेध करनेपर भी आपको वे ही ग्राह्यमाइकमाव आदि " पोतकाक" (जहाजका कौमा) न्यायसे हृदय में धारण करने पड़ेंगे। मनेकांतके झपाटेसे तुम बच नहीं सकते हो ।
सोयें तयोः वाच्यवाचकयोः प्रामग्राहकभावादेनिराकृतिमाचक्षाणस्तद्भाव साधय" त्येवान्यथा तदनुपपत्तेः।
सो ऐसा कहनेवाला प्रसिद्ध यह बौद्ध अपने संवेदनमें उन वाध्य और वाचकका तथा ग्राह्यमाहकभाव, कार्यकारणभाव, आदिके निराकरणको कहता हुआ उन वाच्यवाचक, और ग्राहाप्राहक, मादि भावोंको सिद्ध करा ही देता है। अन्यथा उनका निषेध करना ही सिद्ध नहीं हो सकता है। सो समझलीजिये।
संवृत्या स्वप्नवत्सर्वं सिमित्यतिविस्मृतम् । निःशेषार्थक्रियाहेतोः संवृतेर्वस्तुताप्तितः ॥ १५३ ॥ यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् ।
साम्वृतं रूपमन्यत्तु संविन्मात्रमवस्तु सत् ॥ १५४ ॥
संवेदनाद्वैतवादी कहते हैं कि हम परमार्थरूपसे ग्राह्यमाहकमाव आदिका लण्डन करते हैं। किन्तु व्यवहारसे स्वप्न के समान सबको कल्पनासिद्ध मानलेते हैं। आचार्य बोलते हैं कि इस प्रकार बौद्धोका कहना अत्यन्त भूलसे भरा हुआ है। क्योंकि संवृत्तिस्वरूप व्यवहार सभी अर्थक्रियाओंका कारण है । अतः व्यवहारको वस्तुपना प्राप्त है । व्यवहार से जीवकी मनुष्य, देव, तिर्यञ्च आदि अवस्थायें हैं तथा व्यवहारसे ही बालकपन, युवापन, बुढापा आदि दशाये है। किन्तु ये सम्पूर्ण म्यावहारिकधर्म वस्तुभूत होते हुए अर्थक्रियाओंको कर रहे हैं । स्वप्नके समान अलीक (झूठ मूठ) नहीं हैं। जो ही तत्व कीडन, रमण, आकाण, दाह, पाक आदि व्यवहारकी या केवलज्ञान आदि परमार्थकी अर्थक्रियाओंको करता है, वही वास्तविक सत् पदार्थ कहा जाता है। इससे अन्य जो अर्थक्रियाओंको नहीं करते हुए केवल उपचारसे कश्चितकर लिये गये हैं, वे स्वभाव तो वस्तुरूपसे सत् नहीं हैं। आपका माना गया केवल संवेदनाद्वैत भी अवस्तु है ! अतः असत् है अर्थात् वस्तुभूत सत् नहीं है । और जिस कार्यकारणभाय आदिको आप असत् कह रहे हैं, ये परमार्थभूत पदार्थ हैं।
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૧૨૨
सवाचिन्तामविः
" स्वभवत्सांपतेन रूपेण प्राथप्राइकमावाभावो ग्राझा पाध्यायकमावो बाध्य कार्यकारणभावोऽपि कार्यों वाच्यवाचकभावो वाच्य ॥ इति ब्रुवाणो विस्मरणशीला, स्वयमुक्तख सांबवरूपानक्रियाकारिस्वस्थ विसरणात् ।
स्वमके समान व्यवहारसे काल्पना किये स्वभाव करके ग्राह्यग्राहक मावका अभाव मी ग्राह्य हो जाता है और बाध्यापकभाव मी बाध्य हो जाता है एवं कार्यकारणभाव मी कार्य हो जाता है तथैव च्यवाचकभाव भी शब्दोंके द्वारा वाच्य हो जाता है यानी कह दिया जाता है। इस प्रकार . जो संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध कह रहा है, उसको अपने कहे हुए वचनोंको भूल बानेकी टेव पटी हुपी है। तभी हो स्वयं अपनेसे कहे जा चुके " कल्पितस्वमाव कभी अर्षक्रियाओं को नहीं करते हैं" इस बातको मूल गया है। भावार्थ-पहिले बौदोंने यह कहा था कि व्यवहारले कस्सित किया हुआ पदार्थ अर्थक्रियाओंको नहीं करता है और अब कहते हैं कि जैसे स्वममें बोल उठना, हर्ष क्षय होना, भयभीत होकर इदयमें धडकन हो जाना, आदि अर्थक्रियाएं होती है, वैसे ही जीवकी कसित की गयीं पात्प युवा, आदि अवस्थाओं में होनेवाले भावोसे भी खेलना, उपार्जन करना, श्रृंगार करना, सृष्णा करना, आदि अर्थक्रियायें हो जाती हैं। ऐसे भुल्लड बुद्ध मनुध्यकी पहिले पीछेकी कौनसी बातपर विश्वास किया जावे ! देखो जी! स्वम अवसाम भी जो अर्थक्रियायें होती हैं, वे वस्तुमूत परिणामोंसे होती हैं। वास्तव सिंहसे जैसा मय होता है कस्पितसे भी वैसा ही भय होता है। स्वममें भी कण्ठतालु मादिके व्यापारस बोलता है। अन्यथा नहीं, इत्यादि मूर्तिपूजाम भी ऐसा ही रहस्य है। कार्यकारणभावका अतिक्रमण नहीं है । स्वम, मूर्छित या सनिपात दशामें जो कार्य होरहे हैं, उनके कारण वस्तुभूत वहां विद्यमान हैं। तुमको ज्ञान न होय तो इसका उत्तरदायित्व कारणोंपर नहीं है । हां, जो स्वममे झूठी मनःकल्पनायें होरही हैं वे अवश्य निर्विषय है, असत्यार्थ हैं। उन झूठे अओंसे उनके योग्य वास्तविक प्रक्रिया नहीं हो सकती हैं।
तथा यषप्रायग्राहकसायक्रियानिमियं यत्सावचं रूपं तदेव परमार्थसत् वहिपरीतं तु संवेदनमात्रमवस्तु सदिति दर्शनांवरमायातम् ।
जैनसिद्धांसमें यह बात बहुत स्पष्ट रूपसे कह दी गयी है कि जो व्यवहारमें मान लिया गया पदार्थ, ग्राह्यमाहकमाव, कार्यकारणभाव, आदि सम्पूर्ण अर्थक्रियाओंका कारण होरहा है, वह ही वास्तविकरूपसे सत्वस्त्र है और उससे विपरीत तो तुम नौद्धोंका माना गया और कुछ भी अर्थकियाओंको नहीं करनेवाला वह केवल निरंश संवेदन वस्तुरूप सत् पदार्थ नहीं है। इस प्रकार बौद्धोंको दूसरे स्याद्वादर्शनका स्वीकार करना ही प्राप्त हुआ। अर्थात् अपने इष्ट होरहे संवेदनाद्वैतके आग्रहको छोड़कर अनेकांतदर्शनकी शरण लेना अनिवार्य रूपसे आ पड़ा। व्यवहारतुच्छ नहीं होता है । किंतु वस्तु और वस्तुके अंशोंको छूनेवाला होता है । व्यवहार और निश्धय दोनों भाईचारेके नातेसे वास्तविक परिणामोंको विषय करते हैं।
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सा
संवृतं चेत् क नामार्थक्रियाकारि च तन्मतम् । हृत सिद्धं कथं सर्वं संवृत्या स्वप्नवत्तव ॥ १५५ ॥
१२३
यदि उन बौद्धोंका यह मत होवे कि कल्पना किया हुआ पदार्थ मला कहा ठीक अर्थक्रियाओं का है १ जो कुछ आपको अर्थक्रियाएं होती हुबी दीख रही हैं, वे अर्थक्रियाएं तो ठीक ठीक नहीं हैं । किन्तु कल्पित हैं। वस्तुभूत अर्थक्रिया तो शुद्ध ज्ञप्ति होना ही है । फिर हमको मूल जानेकी ढबवाला क्यों कहा जाता है ! इसपर आचार्य महाराज कहते हैं कि हमको तुम बौद्धोंकी बुद्धिपर खेद आता है कि तुमने पहिले यह कैसे कह दिया था कि सम्पूर्ण पदार्थ व्यावहारिक कल्पनासे अर्थक्रिया करते हुए स्वमके समान प्रसिद्ध माने गये हैं । जब कि आप कल्पित अर्थक्रिया और उसको करनेवाले झूठमूठ अर्थको अवस्तु मानते हैं । फिर आपने उन सबको सिद्ध किया हुआ कैसे कह दिया था ? भावार्थ ऐसा मानने पर तो तुम व्यवहार से किसी पदार्थको सिद्ध नहीं कर सकोगे ।
ग्राह्यग्राहक भावार्थ क्रियापि सांवृती न पुनः पारमार्थिकी, यतस्तन्निमित्तं साधूचं रूपं परमार्थसत् सिभ्येत् । ताविकी त्वक्रिया स्वसंवेदनमात्र तदात्मकं संवेदनाद्वै कथमवस्तु सनाम ? ततोऽर्थक्रियाकारि साइतं चेति व्याहृतमेतदिति यदि मन्यसे, तदा कथं स्वमवत् संवृत्या सर्वे सिद्धमिति ब्रूपे ? तदवस्वत्वाच्या घातस्य सांवृतं सिद्धं चेति ।
बौद्ध कहते हैं कि ग्राह्यग्राहकभाव, बडबडाना, खेलना, आदि अर्थक्रियाएं भी यों ही कोरी कल्पित हैं, वे फिर कैसे मी वस्तुभूत नहीं हैं । जिससे कि उन अर्थक्रियाओं के कारणभूत न्यावहारिक कल्पित स्वरूपों को आप अन वास्तविक सिद्ध कर देवें। सच पूछो तो बात यह है कि वस्तुको स्पर्श करनेवाली ठीक ठीक अर्थक्रिया तो केवळ शुद्धसंवेदनकी ही अपनी शक्ति होते रहना है। उस सिरूप क्रिया से तादात्म्यसंबंध रखता हुआ संवेदनाद्वैततत्व मला वस्तु सत् नहीं कैसे हो सकता है ?, अर्थात् संवेदन सो वस्तुस्वरूप करके सत्रूप है। इस कारण जो अर्थक्रियाhet करनेवाला है, वह उपचरिख ( कल्पित ) है । इस नियममें व्याघात दोष है । भावार्थ-जो अर्थक्रियाओं को करेगा, वह परमार्थभूत है । सम्वृति ( कल्पित ) नहीं है । और जो सांकृत है, वह अर्थक्रियाओंको नहीं करता है ! हम बौद्ध इस बातपर अमे हुए हैं। अब आचार्य महाराज कहते हैं कि यदि तुम पौद्ध ऐसा मान बैठे हो सब तो " स्वमके समान सम्पूर्ण सत्य व्यवहार दृष्टिसे सिद्ध हैं " इस बातको कैसे कह सकते हो ! तुम्हारे ऊपर व्याघातदोष वैसाका वैसा ही लागू हो रहा है। जो उपचार से कल्पित है, वह सिद्ध कैसे और जो सिद्ध हो चुका है, वह कोरी कल्पनासे गढ़ा हुआ कैसे हो सकता है दीजिये, सभी ऐसे मूलेपनकी देवका मारण हो सकेगा ।
?
इसका उत्तर
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६२.
तस्वाचिन्तामणिः
स्वप्नसिद्धं हि नो सिद्धमस्वप्नः कोऽपरोऽन्यथा । संतोषकृन्न वै स्वप्नः संतोषं न प्रकल्पते ॥ १५६ ॥ वस्तुन्यपि न संतोषो द्वेषातदिति कस्यचित् ।
अवस्तुन्यपि रागात् स्यादित्यस्वप्नोस्त्वबाधितः ॥ १५७ ॥ "स्वप्नमें कल्पनासे सिद्ध करलिया गया जो पदार्थ है, वह अवश्य सिद्ध नहीं है । अन्यथा यानी स्वप्नको भी यदि वास्तविक सिद्ध मानलोगे तो दूसरा कौन अस्वप्न पदार्थ सिद्ध हो सकता है ? भावार्थ-जागृत दशाके जाने हुए तत्व भी अन्तर न होनेके कारण स्वमसिद्ध हो जावेमे । यदि बौद्ध यों कहें कि स्वम तो संतोष करनेवाला ही नहीं है । किन्तु अस्वप्न यानी जागरण कृत्य सन्तोष कर देता है, यह अंतर है। सो यह भी कल्पना करना अच्छा नहीं है। क्योंकि संतोष करने और न करनेकी अपेक्षासे जागृतदशा और स्वम अवस्था समान ही है। कमी कभी किसी किसीको द्वेषवश वस्तुभूत अनिष्ट पदार्थ भी वह संतोष होना नहीं देखा जाता है। और किसीको रागवश अवस्तु पदार्थों में भी संतोष होना देखा जाता है। इसप्रकार सतोष करने और न करनेके कारण स्वन और अस्वमकी व्यवस्था नहीं है । अन्यथा कूड़ा करकट अवस्तु हो जावेगा ओर भ्रांतवानीके दो चंद्रमा या तमारा रोगवाले पुरुषके तिलूला आदि असत् पदार्थ वस्तुभूत हो जायेंगे | एक लोमी बामणका स्वम देखते समय दक्षिणा मिली हुयी गायोंको विक्री करते हुए न्यून रुपया मिलनेपर घनसा कर जग जाना और पुनः आंख मींच कर " पांच सौ न सही जो बीस गायोंके चार सौ रुपये देते हो सो ही दे दो। ऐसा कहना, अब तो उस कहनेवाले ब्राह्मणके वे रुपये मी वस्तुभूत मन जावेंगे | क्योंकि भोडी देरके लिये वे संतोषके कारण बन चुके हैं। इस कारण अस्वामका निदोष लक्षण यही मानना चाहिये कि जो त्रिकालमें उत्तरवर्ती वाषक प्रमाणोंसे रहित है।
यथा हि खमसिद्धमसिद्ध तथा संवृत्तिसिद्धमप्यसिद्धमेव, कथमन्यथा स्वमसिद्धमेव न मवेत्तथा च न कश्चित्ततोऽपरोऽस्वमः स्यात् ।
जैसे कि जो स्वप्नमें थोड़ी देरके लिये सिद्ध मान लिया गया है, वह निश्चय कर असिद्ध ही है, वैसे ही जो असमूतव्यवहारसे कल्पितकर प्रसिद्ध मान लिया गया है, वह भी वाखविकरूपसे असिद्ध ही है। अन्यथा यानी यदि ऐसा न माना जावेगा तो स्वप्नमें प्रसिद्ध कर लिए गये समुद्र, सिंह, की, मूत आदि पदार्थ भी वस्तुरूपसे सिद्ध ही क्यों न हो जायेंगे। वैसा होनेपर तो उस स्वप्नसे मिन्न कोई दूसरा पदार्थ यानी जागती हुषी अवस्थाका तस्व भस्वप्नरूप न हो सकेगा। भावार्थ-स्वप्न के तत्व भी जब वास्तविक प्रसिद्ध हो गये तो सोते हुए और जागते हुए पुरुषके द्वारा जाने गये तस्वों में कोई असर नहीं रहा । तक तो यह किंवदंती पर जावेगी कि
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वाचिन्तामणिः
६२५
सूरदासजी कैसे सो रहे हो सपने कहा कि हम सदा ही से सोते से दीख रहे हैं। तथा च संवेदनाद्वैत- वादियों के यहां स्वप्न और अस्वप्न अवस्थायें समान हो गयीं। कोई अंतर न रहा । संतोषकार्यस्वम इति वेन स्वमस्यापि सन्तोषका रित्वदर्शनाव, कालांवरे न खम संतोषकारी इति चेत्, समानमस्व t
"
यदि बौद्ध यों कहेंगे कि जो आत्मामें संतोषको कर देता है, ऐसा खाना पीना, पढना आदि तत्त्व अस्वन ( जागते हुए के ) हैं । सो यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि स्वम भी संतोषको करनेवाला देखा जाता | स्वम देखते समय इष्ट प्रिय वस्तुके समागम होनेपर संतोष पैदा होना बराबर देखा जाता है । यदि फिर बोद्ध यों कहें कि स्वम कुछ देर के लिए तो संतोष कर देता है, किंतु पीछे काळांतरतक स्थित रहनेवाले संतोषको नहीं करता है। ऐसा कहनेपर हो हम जैन कहते हैं कि अझमें भी यही बात समानरूपसे देखी जाती है । अर्थात् जागते हुए भी खाना, पीना, सूचना, सुनना आदि क्रियाओंको करनेवाले पदार्थों से मोड़ी देर के लिए आनंद उत्पन्न हो जाता है । पीछे उस संतोषका नाम भी नहीं रहता है। तभी सो भोग्य और उपभोग्य पदार्थों का पुनः पुनः सेवन किया जाता है ।
सर्वेषां सर्वत्र सन्तोषकारी न स्वप्न इति चेत्, वागस्व मेऽपि ।
यदि बौद्ध यों कहें कि सर्व जीवोंको सर्व स्थानोंपर संतोष करनेवाला स्वम नहीं है। ऐसा कहने पर तो हम स्याद्वादी कहते हैं कि वैसा होना तो अस्वममें भी देखा जाता है। भावार्थ - जागते हुए मी रोगी मनुष्यको खाने पीनेंमें आनंद नहीं आता है। वृद्ध पुरुषको तहणी विष समान होजाती
| समुद्रके कडुए पानी में रहनेवाली मछलीको कुएंके मीठे पानी में संतोष नहीं है । अहिफेन ( अफीम ) के कीडेको मीठी मिश्री में रख देनेसे आनन्द प्राप्त नहीं होता है ।
कस्यचित्कचित्कदाचित्सन्तोषहेतोरस्वत्वे तु न कश्वित्स्वमो नाम ।
किसी भी जीवको किसी न किसी स्थानपर किसी समय में भी जो पदार्थ संतोषका कारण है, वह अस्वल है, यदि आप बौद्ध ऐसा कहेंगे, ऐसा होनेपर तो कोई भी स्वम नहीं होसकता है। खुटा लेते हुए स्वम देखनेवाले जीवके भी थोडासा संतोषका कारण बन रहा है । अतः वह भी जागृत अवस्थाका कार्य हो जावेगा । इस कारण आप बौद्धोंके पास स्वम और अस्वमके निर्णय करने की कोई परिभाषा नहीं है ।
न च सन्तोषहेतुत्वेन वस्तुत्वं व्यासं कचित्कस्यचिद् द्वेषात् सन्तोषाभावेऽपि वस्तुस्वसिद्धेः । नापि वस्तुत्वेन सन्तोषहेतुत्वमवस्तुन्यपि कल्पनारूढे रागात् कस्यचित्सन्तोषदर्शनात् । तवः सुनिश्चितासम्भवाधकोऽस्वमोऽस्तु ।
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सत्स्वाचिन्तामणिः
संतोषके हेतुपनेसे वस्तुपना व्याप्त नहीं है। अर्थात्-जो संतोषका कारण है, वही वस्तुभूत है। ऐसी कोई व्याप्ति नहीं है। क्योंकि किसी किसी जीवके किसी पदार्थमै द्वेष होबानेसे संतोष उत्पन्न नहीं होपाता है। फिर भी उस पदार्थको वस्तुपना सिद्ध है। क्या कूडा कांटा वस्तुभूत नहीं है ! रोग, दारिश्य, मृत्यु, किसीको संतोषके कारण नहीं हैं। फिर भी वे वस्तुभूत हैं । नरक, निगोद, मी वास्तविक पदार्थ सिद्ध है। और यह भी कोई व्याप्ति सिद्ध नहीं है कि जो जो वस्तुमूत है, वही संतोषका कारण है। क्योंकि अवस्तुमूतको मी कल्पनामें आरूढ रखकर रागसे किसी व्यक्तिको संसोष हो रहा देखा जाता है । मिट्टीके खिलौनोसे बच्चोंको मुख्य वस्तुके समान संतोष हो जाता है । श्मश्चनवनीतको मविष्यके विवाह, लडका होना आदिकी कल्पनासे आनंद उत्पन्न हुआ था। आकाश, पातालके कुलावे मिलानेके समान अण्ट सण्ट गढ लिये गये उपन्यासोंके अवस्तुरूप तत्वको पढकर मनुष्योको हर्ष होता है । ईसी, रडा आदिमें तो बहुभाग असत्य पदार्भ ही होते है। मनुष्यको मनुष्य कहनेसे मिलीली इंसी आती है । अतः भवस्तुभूत कल्पित पदार्थ भी अंतरंगमें रागबुद्धि हो जानेसे हर्षके कारण बन जाते हैं। इस कारणसे सिद्ध होता है कि जिस पदार्थकी विद्यमानता बाधक प्रमाणोंके असम्भव होनेका निश्चय है, वही अस्वम पदार्य होवे । परिक्षेपसे यह निकल गया कि जिस पदार्थको सत्ताका निषेध करनेवाला बाधक प्रमाण विद्यमान है, वह स्वप्नधानका विषय है । इस प्रकार स्यादाद सिद्धांतके अनुसार आपको निर्णय कर लेना चाहिये।
बाध्यमानः पुनः स्वप्नो नान्यथा तद्भिदेश्यते । स्वतःक्वचिदबाध्यत्वनिश्चयः परतोऽपि वा ।। १५८ ॥ कारणद्वयसामर्थ्यात्सम्भवन्ननुभूयते । परस्पराश्रयं तत्रानवस्थां च प्रतिक्षिपेत् ॥ १५९ ॥ जिस प्रमेयमें बाधक प्रमाणों के असम्भक्का निश्चय है, वह अस्वम है अर्थात् सत्य है। और फिर जो ज्ञेय पदार्थ फिर बाधक प्रमाणोंसे बाधित किया जारहा है, अर्थात् असत्य है । अन्य दूसरे प्रकारोंसे उन स्वम और अस्वप्नों में भेद नहीं देखा जाता है । अबाधितपन और पाषितपन जानलेना कोई कठिन नहीं है। किसी किसी प्रमाण ज्ञानमें स्वयं अपने आप ही अबाध्यपनेका निश्चय हो जाता है और किसी किसी प्रमाणज्ञानमें दूसरी अर्थक्रियाओं अथवा अनुमान या प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे मी आधारहितपनेका निश्चय हो जाता है। अंतरंग और बहिरंग दोनों कारणोंकी सामस्य॑से शानमै सम्भव होता हुआ अबाषितपनेका निश्चय होना अनुभवमें आ रहा है । अभ्यासदशाके जनजान बाषा रहिसपना का प्रमाणपना अपने आप प्रतीत हो जाता है। हां, अनभ्यास दशा में शीतवायु, फूलोंकी गंध, आदिसे जलशानके अबाधितपनेका निर्णय हो जाता है। या स्नान, पान,
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तपासवासालगिः
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अवगाहन, आदि क्रियाओंसे पहिले ज्ञानका अबाध्यपना मान किया जाता है। यदि शीत वायुके सर्शन प्रत्यक्षके या फूलोकी गंधके प्राणजप्रत्यक्षके अबाधितपने ही संशय हो जावे, उस तीसरे ज्ञानसे इनका अबाधितपना निणींस कर लिया जावेगा, जिसका कि अबाधितपना स्वयं निर्णीत हो चुका है । अतः वहां दूसरोंसे अबाधितपना निर्णय करनेमें अनवस्था नहीं है । पयोंकि प्रमाणज्ञानके पैदा करनेवालोंको तीसरी, चौथी, कोटीमें स्वयं अबाधित ज्ञान मिल जाता है। ऐसा कोई ठलुआ नहीं बैठा है जो कि निश्चयके लिये व्यर्थ ही संदिग्ध ज्ञानोंको उठाता फिरे | 6मा स्नान, पान, अवगाहन, आदि क्रियाओंसे जलझानमें अबाधितपना नाना आये और स्नान आदिकके ज्ञानमें जलझानसे अबाधितपना जाना जावे, इसप्रकार वहां अन्योन्याश्रयदोष देना भी ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तरकालमें होनेवाली अर्थक्रियाओंसे पूर्वकाल के ज्ञानका अबाधिसपना जाना जा रहा है। उन अर्थक्रियाओं में भी यदि संशय हो जावे तो उन क्रियामों में अबाधितपना अन्य संवादकोसे निर्णीत कर लिया जाता है। और जब जानोंमें अभाषितपनके निश्चय हो रहे हैं, सब वे कार्य ही अन्योन्याश्रय और अनवसा दोषोंका खण्डन कर देते हैं । फिर कार्य होते हुए भी व्यर्थ अनवस्था आदिक दोषोंका उठाना अपने आप ही अपनेको ठगना है।
बाधारहितोऽस्वमो माध्यमानस्तु वम इति तयोर्भेदोन्वीक्ष्यते, नान्यथा ।
जो बाधाओंसे रहित है, वह अस्वम है और जो बाध्यमान है, वह तो स्वप्न है। इस प्रकार उन दोनों में भेद भली रीतिसे देखा जा रहा है। दूसरे प्रकारोंसे उनका भेद नहीं हो सकता है । अतः संवेदनाद्वैतवादियोंको अनेकांत मतानुसार ही संवृत्तिपना और वास्तविकपना स्वीकार करना पडा, अन्यथा व्याघात दोष होगा।
ननु चास्वमचानस्याबाध्यत्वं यदि अत एव निश्चीयते तदेतरेतराश्रयः, सत्यवाघ्यस्वनिश्चये संवेदनस्यास्वमकृनिश्चयस्तसिन सत्यवाध्यत्वनिश्चय इति परतोऽस्वमवेदनाचस्थावाध्यत्वनिश्चये तस्याप्यबाध्यत्वनिश्चयोन्यस्मादस्वमवेदनादित्यनवस्थानाम कस्यचिदपाध्यत्व निश्चय इति केचित् । तदयुक्तं । कचित्स्वतः कचित्परतः संवेदनस्याषाध्यत्वनिधयेऽन्योन्याश्रयानवस्थानवतारात् ।
यहां स्वपक्षका अवधारण करते हुये कोई अबाधितपने निश्चयम जैनोंके ऊपर दोष उठा रहे हैं कि जागृत अवस्थामे होनेवाले अस्वप्नज्ञानके अबाधितपनेका यदि इस ही अस्वल संवेदनपनेसे निश्चम किया जायेगा तब तो अन्योन्याश्रय दोष है। जैसे कि--संवेदनको अबाधितपनेका निश्चय होनेपर तो अस्वममें किये गयेपनका निश्चय होवे और उस अस्वममें किये गपेपनका निश्चय से जानेपर अबाधितपने का निश्चय होपे, इस प्रकार परस्पराश्रय दोष हुआ। बदि मकरणमें पड़े हुए उस अस्थम वेदनके अबाध्यपनेका दूसरे भस्वमवेदनसे निश्चय करोगे तो उसके भी अबाधितपनेका
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तत्त्वाभीचन्तामणिः
निश्चय अन्य तीसरे अस्वमज्ञानसे होगा और उस तीसरेका भी अबाधितपना न्यारे चौथे अस्वभ ज्ञानसे निर्णय जाना जावेगा । जबतक ज्ञानों में अबाधितपना न जाना जावेगा तबतक वह ज्ञान निश्चायक नहीं हो सकता है । अतः आकांक्षा बढती आवेगी । इस प्रकार अनवस्था दोष हो जानेसे किसी भी ज्ञानके अबाधितपनेका निश्चय नहीं हो सकेगा | इस प्रकार जैनियोंके ऊपर दो दोष आते हैं। ऐसा कोई कह रहे हैं। अब ग्रंथकार कहते हैं कि सो उन ज्ञानाद्वैतवादियों का वह कहना युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि जो समीचीन कार्य होते हुए देखे जा रहे हैं वहां अनवस्था आदि शेष कैसे भी लागू नहीं होते हैं। किसी आत्मामें तो ज्ञानके अबाधितपनेका निश्चय स्वतः हो रहा है और कहीं स्वयं निर्णीत अवाधितपनेवाले दूसरोंसे ज्ञानमें अवाधितपना जाना जा रहा है । ऐसी दशा में अन्योन्याश्रम और अनवस्था दोष नहीं उतरते हैं। जिसमें ये दोनों दोष आ रहे हैं, वह कार्य हो ही नहीं सकता है और जहां कार्य सम्पादन हो रहा है, वहांसे ये दोनों दोष अपना मुंह मोड़ लेते हैं। या तो दोषोंका बीज ही मिट जाता है या वे दोष गुणरूप हो जाते हैं। कार्य सफल हो गया । दोष देनेवाले व्यर्थे बकते रहो, कोई क्षति नहीं पडती हैं । प्रकृत में तो उन दोषोंकी सम्भावना ही नहीं है I
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न च कचित्तविये सर्वत्र स्वतो निश्चयः परतोऽपि वा कचिनिर्णीत सर्वत्र परत एव निर्णीतिरिति चोद्यमनवयं हेतुद्रयनियमाश्चियम सिद्धेः ।
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कहीं अभ्यस्त दशामें अपने आप ही स्वसामग्री से ज्ञानके अबाधितपनेका निश्चय हो जानेपर वो सभी अभ्यास और अनम्यास स्थलों में ज्ञानके अवाध्यखका अपने आपसे निश्चय हो जावेगा, ऐसा कुतर्क करना अच्छा नहीं है । यों तो दीपक और सूर्यके अपने आप प्रकाशित होनेके सम्मान घट, पट आदिको मी अपने आप प्रकाशित होना बन जावे | अभि जैसे स्वभावसे उष्ण है, जल भी स्वभावसे उष्ण हो जाये। किंतु ऐसा नहीं होता है । अतः वह चोध उठाना प्रशस्त नहीं है | तथा अनभ्यस्तदशामें भी दूसरे कारणोंसे किसी किसी ज्ञानमें अबाधितपनेका निर्णय हो जानेपर सभी अभ्यास, अनभ्यास स्थलों में परसे ही अवाधितपना परिज्ञात किया जावेगा, यह भी कुतर्क निर्दोष नहीं है । यों तो बैलगाडी दूसरे बैलोंसे चलायी जाती है तो बैल
किन्तु इसके विपरीत जाते हैं। यों अंतरंग
भी अन्य तीसरे बैलोंसे चलाये जाने जाहिये । घट दूसरे दीपकसे प्रकाशित होता है तो दीपक भी अन्य दीपकसे प्रकाशित होना चाहिये । कोई पदार्थ तो स्वतः और अन्य पदार्थ दूसरों से परिणामी होते हुए देखे और बहिरंग दोनों कारणोंके नियमसे सभी पदार्थोंके न्यारे न्यारे प्रकार के परिणामों के होनेका नियम सिद्ध है | अतः आकाश नीरूप है तो पर्यंत मी रूपरहित हो जावे । और यदि पर्यंत स्पर्शवान् है तो आकाश भी स्पर्शयुक्त हो जाओ, ऐसे प्रत्यवस्थान उठाना ठीक नहीं है। अपने अपने उमय कारणों से पदार्थों के स्वभाव नियत हैं। " स्वभावोऽतर्क गोचरः " है ।
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तस्वाचिन्तामणिः
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स्वतस्तन्निश्चये हि बहिरंगो हेतुरभ्यासादिः, परतोऽनभ्यासादिः अंतरंगस्तु वदावरणक्षयोपशमविशेषः संमतीयते।
जब ज्ञानमें उस अबाधितपनेका अपने आपसे निश्चय हो रहा है तब पहिरंग कारण तो अभ्यास, प्रकरणसुलमला, आदि है । और अंतरंग कारण उस निश्चयको रोकनेवाले भानावरणका विशिष्ट क्षयोपशम, बुद्धिचातुर्य, कुशलता, आदि हैं । तथा अनभ्यास दशाम दूसरोसे शानमें जब भवाधितपना जाना जाता है, वहां बहिरंग दुसरा पदार्थ, अनभ्यास, स्थूलदृष्टि होना, भोपन, . अवान्तर विशेष धोका निर्णय न कर सकना, आदि हैं । और अंतरंग कारण ज्ञानावरण कर्मका साधारण क्षयोपशमविशेष, स्थूल बुद्धिपना, आदि। भले प्रकार जाने जा रहे हैं, अपने परिचित ऊंचे नीचे सोपान ( जीना, नसैनी) परसे अभ्यासवश अंधेरेमे भी मनुष्य चढ उत्तर बासा है,
और अनभ्यास दशाम सीधे, चिकने, जीने परसे चढना उत्तरना भी कठिन हो जाता है । बालक मी अपने परिचित पोखराम आंख भींचकर घुस जाता है । किंतु अपरिचित स्थलों में दक्ष मी साशंगा हो जाता है।
तदनेन स्वमस्य वाध्यमानत्वनिश्चयेप्यन्योन्याश्रयानवस्थाप्रतिक्षेपः प्रदर्शित, इति स्वमसिद्धमसिद्धमेव, तद्वत्संतिसिद्धमपीति न तदाश्रयं परीक्षण नाम ।
जैसे दोषोंका निराकरण करके अस्वम ज्ञानके अबाधितपनेका स्वतः और परस: निश्चय हो जाता है, उस ही प्रकार इस उक्त कथन करके स्वामके वाध्यभानपनेके निश्चय करनेमें भी अनवस्था और अन्योन्याश्रय दोषोंका खण्डन कर दिखाया जा चुका है। अर्थात् ज्ञानमें स्वमपनेका निश्चय कब होवे, जब कि उसमें बाधितपना जान लिया जावे और बाधितपना कम जाना जाये, जब कि स्वमपना जाना लिया जावे। यह अन्योन्याश्रय हुआ। और अन्य ज्ञानोंसे स्वमको बाधितपनेका निश्चय किया जावेगा तो उस अन्यको तीसरे, चौथे, आदिसे बाधितपना
आना जावेगा। इस प्रकार अनवस्था होती है। किंतु ये दोनों दोष अनेकांत महमें नहीं होते हैं। क्योंकि एक चंद्रमें विचंद्रज्ञान, शुक्तिमे चांदीका ज्ञान आदिको अभ्यास दशा अपने आप और अनभ्वास दशा दूसरोंसे बाधित्तपना जाना जा रहा है। यहां मी अंतरंग और पहिरंग कारणोंसे मिल २ प्रकारके ज्ञानोंका बाधिवपना निीत किया जा रहा है, इसमें कोई संशय नहीं है। इस प्रकार स्वमसिद्ध जो पदार्थ है वह असिद्ध ही है। उस होके समान झूठे व्यवहारसे कल्पना कर कोटी देर के लिये सिद्ध कर लिया गया पदार्थ भी असिद्ध ही है। इस कारण उस असिद्ध पदार्थका आश्रय करके आप संवेदनाद्वैतवादी कैसे भी परीक्षण नहीं कर सकते हैं। अतः १३८ वीं कारिकामे कपित की हुई अनादिकालकी अविद्याके द्वारा परीक्षा करनेका उपक्रम करना प्रशस्त नहीं हुआ। झूठी कसौटी या कल्पित अमिसे स्वर्णकी परीक्षा नहीं हो सकती है ।
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वस्वाचिन्तामणिः
ततो न निश्चितामानाद्विना तत्वपरीक्षणं । ज्ञाने येनाद्वये शून्येन्यत्र वा तत्प्रतन्यते ॥ १६०॥ प्रमाणासंभवायत्र वस्तुमात्रमसंभवि । मिथ्यकांतेषु का तत्र बंधहेत्वादिसंकथा ॥ १६१ ॥
तिस कारणसे सिद्ध हुआ कि निश्चित किये गये प्रमाणके विना तत्त्वोंकी परीक्षा करना नहीं बनता है, जिससे कि संवेदनाद्वैतमें अथवा शून्यवादमे या और भी अन्य उपप्लववाद, अमाद्वैत, आदि सम्प्रदायोंमें उस सत्त्वपरीक्षा करनेका विस्तार हो सके। भावार्थ-जो प्रमाणतत्वको ही नहीं मानते हैं, वे दूसरोके तत्वोंकी लम्बी, चौही, परीक्षा क्या करेंगे ? तथा बिन झूले एकांत वादोंमें प्रमाणतस्वके न होनेसे सभी वस्तुएं असंभव हो रही हैं, उन अवस्तुभूत झूठे एकान्तों में बन्ध, मोक्ष, बन्धके कारण, मोक्षके कारण, आदिकी मले प्रकार पालोचना करना भला क्या हो सकता है ? अर्थात् असवाद या शून्यवाद आदि एकान्ता प्रमाणतत्त्वको माने विना परीक्षा करना, विचार करना, शास्त्रार्थ करना और निर्णय करना, नहीं बन सकते हैं। घृत, मेवा, शकर, दुग्ध, अन्नके विना कुशल रसोइया भी मोदक आदि अनेक स्वाय व्यजनोंको नहीं ना सकता है। संसार भरमै सम्पूर्ण तत्त्वोंकी व्यवस्थाके दादागुरु प्रमाण ही है। उसको स्वीकार किये विना कोई भी कार्य या विचार नहीं सम्पादित होता है।
प्रमाणनिष्ठा हि वस्तुव्यवस्था तमिष्ठा बन्धहेत्वादिवार्ता, न च सर्वथैकान्ते प्रमाण संभवतीति वीक्ष्यते ।
वस्तुओंकी व्यवस्था करना निश्चयकर प्रमाणके' आधीन होकर स्थित है । और अब जीव, पुद्गल, आदि वस्तुपं व्यवस्थित हो जायेगी, तब उनके आश्रित होकर बन्ध, बन्धके कारण आदि तत्वोंकी श्रद्धापूर्वक चर्चा करना व्यवस्थित होगा। किन्तु सर्वथा एकान्तपक्षमे प्रमाणतत्व नहीं सम्भवता है, ऐसा देखा जारहा है । अर्थात् प्रमाण नहीं तो बस्तुएं नहीं और जब वस्तुएं ही नहीं है तो बन्ध मिथ्याज्ञान, तत्वज्ञान आदिकी कथा करना भी असंभव है । इसको आगे भी स्पष्ट कहा जावेगा।
स्यावादिनामतो युक्तं यस्य यावत्प्रतीयते।। कारणं तस्य तावत्स्यादिति वक्तुमसंशयम् ॥ १६२ ।।
- - -- -- * " वक्ष्यते " पाठ अच्छा दीखता है।
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सार्थचिन्तामणिः
६३१
इस प्रकार माणसे वस्तुभूत पदार्थों को माननेवाले स्माद्वादियोंके मत्तमें बन्ध, बन्धके कारण, मोक्ष, मोक्षके कारण इनकी व्यवस्था करना युक्तियोंसे सिद्ध हो जाता है । जिस कार्यके जितने भी कारण प्रतीत हो रहे हैं, वह कार्य उतने भर कारणोंसे उत्पन्न होवेगा । इस प्रकार संशय रहित होकर दम स्याद्वादी कह सकते हैं। यहां पहिले सूत्रका व्याख्यान समाप्त करते हुए प्रकरण का संकोच करते हैं कि जितने बन्धके कारण है, उतने ही मोक्षके कारण हैं। न तो अधिक हैं और न कमती ही हैं। एक सौ पन्द्रहवीं वार्षिकका यही निगमन है । सूत्रकारके मतानुसार मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इनका त्रय aम्बका कारण है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इनका त्रय मोक्षका कारण है । सूत्रका शह्नबोधप्रणालीसे वाक्यार्थबोध करनेपर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सहित होता हुआ सम्यक्चारित्र ही मोक्षका कारण है, यह भी ध्वनित होता है | इसलिये मोक्षके कारणों में प्रधानपना चारित्रको पूर्णताको प्राप्त है । ऐसा कहने में कोई सन्देह नहीं है ।
प्रतीत्याश्रयणे सम्यक्चारित्रं दर्शन विशुद्धिविजृम्भितं प्रवृद्धेद्धबोधमधिरूढमनेकाकारं सकलकर्मनिर्दद्दनसमर्थे यथोदितमोक्षलक्ष्मीसम्पादन निमित्तमसाधारणं, साधारणं तु कालादिसम्पदिति निर्बंधमनुमन्यध्वं प्रमाणनयैस्तत्त्वाधिगमसिद्धेः ।
प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीयोंका सहारा लेकर कार्यकारणभावका निर्णय किया जाता है । प्रकरण भी मोक्षरूप कार्यका कारणपना इस प्रकार आप लोग मानो कि सम्यग्दर्शनकी क्षाणिकपने या परम अवगाढपकी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होरहा, और अनन्तानन्त पदार्थों का उल्लेख ( विकल्प ) कर जाननेवाले बढे हुए दैदीप्यमान केवलज्ञानपर अधिकार करके आरूढ होनेवाला ऐसा सम्यक् चारित्रगुण ही सम्पूर्ण कर्मों के समूल दग्ध करने में समर्थ है और वही चारित्र आम्नायके अनुसार पहिले सूत्र में कही हुयी उस मोक्षरूपी लक्ष्मीके प्राप्त करानेका असाधारण होकर साक्षात् कारण है । भावार्थ - मोक्षका असाधारण कारण तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे युक्त पूर्ण होरहा सम्यक्चारित्र ही है। किंतु सुषम दुःषम या दुःषमसुषम यानी तीसरा या चौथा फाल, कर्मभूमिक्षेत्र, मनुष्यपर्याय, दीक्षा लेना, आदि सामग्रीरूप सम्पत्ति तो साधारण कारण है। इन मोक्षके कारणों की उक्त इतने अंथद्वारा बाधारहित होकर प्रमाणोंसे परीक्षा कर ली गयी है । ही स्वहितैषी एकांत वादियोंको अनुकूल मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए । प्रमाण और नयोंके द्वारा तत्त्वोका यथार्थ ज्ञान होना सिद्ध है । अन्य कोई भी उपाय नहीं है । भावार्थ-लोकमै पदार्थों के परिज्ञानमें प्रमाण और नय विकल्पोंका ही आश्रय लिया जाता है । अथवा पदार्थों का सम्यग्ज्ञान सफलादेश व विकलादेश के बिना अन्य प्रकारसे हो ही नहीं सकता है। इसलिए तत्वपरीक्षकों को प्रमाण नय freevi fis arrest अंगीकार करना ही पढता है ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
नाना नानात्मनी नवनयनयुतं तन्न दुर्णीतिमानं । तत्त्वश्रद्धान शुध्यध्युषिततनु बृहद्बोधधामाधिरूढम् ॥ चञ्चच्चारित्रचक्रं प्रचुरपरिचरच्चण्डकर्मारिसेनां । सातुं साक्षात्समर्थं घटयतु सुधियां सिद्धसाम्राज्यलक्ष्मीम् ॥ १ ॥
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प्रथम सूत्रका भाष्य समाप्त करते हुए श्रीविद्यानंद आचार्य सूत्रके वाच्यार्थ अनुसार मध्य जीवोंको भाशीर्वाद देते हैं कि दैदीप्यमान चारित्रगुणरूपी चक्र बुद्धिमान् भव्य जीवोंको सिद्ध पदवीका प्राप्त हो जानारूप मोक्षसाम्राज्यके चक्रवर्तीपनेकी लक्ष्मीको मिलावे कैस है, वह चारित्ररूपी चक्र ! अनेक और एक है आत्मा के हितरूप पदार्थ जिसमें । तथा भेद और अभेदको जाननेवाली नयोंके प्राप्त करनेसे युक्त हो रहा है। फिर कैसा है, वह चारित्रचक खोटे नय और खोटे ज्ञानकी जहां सम्भावना नहीं है । पुनः कैसा है वह चारित्र चक्र ! तत्वोंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनकी शुद्धिसे आक्रांत हो रहा है शरीर जिसका, तथा बढे हुए केवलज्ञानरूपी तेज समूह पर अधिकार जमाकर स्थित हो रहा है। फिर भी कैसा है चारित्र गुण कि अत्यंत व्यधिक और आस्माके चारों और फैले हुए प्रचण्ड शक्तिवाले कर्मरूप शत्रुओं की सेना को अव्यव हित उत्तरकालमे नष्ट करनेके लिये समर्थ है। इस लोक में दिये गये चारित्रगुणके विशेषण रूपकके अनुसार चक्ररलमें भी घट जाते हैं। जैसे कि सहस्रदेवोंसे रक्षित किया गया चक्रवर्तीका चक्ररश्न चक्रवर्तीपनकी लक्ष्मीको प्राप्त करा देता है, वैसे ही चारित्ररल मोक्षलक्ष्मी को मिला देता है। चक्रवर्तीका चक्र भी अनेक और एक आक्ष्मीय और आत्माका rिa करनेवाला है। राजनीतिके अनुसार ले जाना, चलना, चलाना आदिसे युक्त है। उसमें अनेक अर हैं। चक्रके सामने किसी भी राजाकी खोटी नीति और गर्व नहीं चलता है । चक्रवर्ती अपने चकपर पूरी श्रद्धा रखता है । चक्रका स्वच्छ वर्ण है। उसमें बड़ा भारी तेज हैं। वह चक्र क्रोधी शत्रुओं की सेनाको अतिशीघ्र नष्ट कर देता है । इस प्रकार ग्रंथके मध्य और पहिले सूत्र संबंधी व्याख्यानके अंतमै मङ्गलाचरण करते हुये आचार्य महाराज प्रकृतसूत्रकों कार्यमें परिणति करानेकी भावना करते हैं ।
इति तवार्थ- श्लोकवार्तिकालंकारे प्रथमाध्यायस्य प्रथममान्तिकम् ।।
इसप्रकार श्री महर्षि विद्यानंद स्वामिके द्वारा विरचित तत्वार्थ - श्लोकवार्तिकालंकार नामके महान ग्रंथमें पहिले अध्यायका पहिला आन्हिक
समाप्त हुआ
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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प्रथम सूत्रका सारांश
पहिले सूत्रके उत्तर व्याख्यानस्वरूप चार्तिकों और विवरण के प्रकरणोंको सामान्यरूपसे सूची इस प्रकार है कि प्रथम ही सम्यादीन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका निदोष अक्षण करके मोक्ष
और मार्गका स्वरूप बतलाया है। लोको पसिद्ध होरहे पटना, दिल्ली, आगरा आदि नगरोंतक पहुंचने के लिये बनाये गये सीधे चौडे मार्ग । सडक, चौडा दगडा मादि) उपमेय हैं और मोक्षमार्ग उपमान है । मोक्षमार्ग पूर्णरूपसे निष्कण्टक और निर्दोष है । उसके एकदेश सहस होनेके कारण सडकोंको भी मार्गपनेका व्यवहार करलिया जाता है। समुद्र, आकाश, आदि अप्रसिद्ध पदार्थ मी प्रसिद्ध पदाकि उपमान होनाते हैं । संसारमें महिमाका मादर है । परिणाम और परिणामीके भेदकी विवक्षा होनेपर दर्शन ज्ञान आदि शब्दोंको ज्याकरण द्वारा करण, कर्ता और भाक्मे सिद्ध कर दिया है। शक्ति वास्तविक पदार्थ है। शक्तिमानसे शक्ति अभिन्न रहती है । नैयायिकोंसे मानी गयी सहकारी कारणोंका निकट आजानारूप शक्ति नहीं है। वह शक्ति द्रव्य, गुण, कर्म या इनका संबंधस्वरूप भी नहीं है। वैशेषिकोसे माने गये अयुतसिद्ध पदार्थोका समवाय और युत्तसिद्ध पदापोंका संयोग ठीक नहीं बनता है। शक्ति और शक्तिमान्का कथञ्चित् तादाल्य संबंध है । ज्ञानको सर्वथा परोक्ष माननेवाळे मीमांसकोका खण्डन कर ज्ञानका स्वतः यानी स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ज्ञान करना सिद्ध किया है । लब्धिरूप भाव इंद्रियां साधारण संसारी जीवोंके प्रत्यक्ष ज्ञानका विषय नहीं हैं। अतः परोक्ष हैं । चारित्र शब्दको सिद्ध करके कारकोंकी व्यवस्थाको बिरक्षाके अधीन स्थित किया है। विवक्षा और अविवक्षाका संबंध वास्तविक रूपोंसे है, अर्थ कल्पित रुपोंसे नहीं। इस सानपर पौद्ध और नैयारिकों के आग्रहका खण्डन कर वस्तुको अनेक कारकपना व्यवस्थित कर दिया है। सम्पूर्ण वस्तुएं सांश हैं। एक परमाणुमें भी स्वभाव गुण और पर्यायोंकी अपेक्षासे अनेक कारकपना है । परमाणु है ( कर्ता ) परमाणुको हम अनुमानसे जानते हैं ( कर्म ) परमाणुके द्वारा एक पाकाशका प्रदेश घेर लिया है ( करण)। परमाणुके लिये अणुकका विभाग होता है (सम्प्रदान )। परमाणुसे स्कंष उत्पन्न होता है ( अपादान ) । परमाणुका द्वितीय परमाणुके साथ संबंध है। ( संबंध ) । परमाणुमे रूप, रस, आदि गुण और स्निग्ध आदि पर्याय हैं (अधिकरण ) । हे परमाणो | तुम अनंत शक्तियोंको धारण करते हो ( सम्बोधन )। परमाणुके अनेक धर्म उसके मंश ही हैं। जो अशोंसे रहित है, यह अर्थक्रियाकारी न होनेसे अवस्तु है । इसके आगे सम्यग्दर्शनकी पूज्यताको बतलाते हुए द्वन्द समासमै पहिले दर्शनका प्रयोग करना सिद्ध किया है । ज्ञानभै समीचीनता सम्यग्दर्शनसे ही आती है । पीछे भले ही वह ज्ञान अनेक पुरुषार्थीको सिद्ध करा देवे । यहां ज्ञानकी महत्ताको सिद्ध करनेवाली अनेक शहाओंका निवारण करते हुए अंतमें यही सिद्धांत 80
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किया है कि प्रकृष्ट दर्शन यानी क्षायिकसम्यक्त्व और प्रकृष्टलान यानी केवलज्ञानकी अपेक्षासे पूर्ववती होकर क्षायिकसम्यक्षको पूज्यता है । क्षायिक सम्यक्स्वके होनेपर ही क्षायिकशान हो सकता है । मविष्य में होनेवाले अनेक भवोंका ध्वंस क्षायिक सम्यग्दर्शनसे हो आता है वैसे ही पूर्ण ज्ञान भी पूर्णचारित्रसे प्रथम हो जाता है । चौदहा गुणसानके अंतमें होनेवाले व्युपरतक्रियानिवृति ध्यानके होनेपर ही पूर्णचारित्र कहलाता है । सम्यक् शब्दको तीनों गुणों में लगा देना चाहिये । इसका विशेष प्रयोजन है। सूत्रकार उमास्वामी महाराजने विशेष कारणोंकी अपेक्षासे ही मोक्षके तीन कारणों का वर्णन किया है । मोक्षके सामान्य कारण तो और भी हैं । विशेष कारण ये रसत्रय ही हैं । अतः पहिले उद्देश्य दलमे एवकार लगाना अच्छा है। चार आराधनाओं में गिनाया गया तप मी चारित्ररूप है। तेरहवे गुणवानके मादिम रखत्रयके पूर्ण हो जानेपर मी सहकारी कारणों के न होनेसे मोक्ष नहीं होने पाती है। किसी कार्यके कारणोंका नियम कर देनेपर मी शक्तिविशेष मौर विशिष्ट कालकी अपेक्षा रही आती है वह चारित्रकी विशेष शक्ति अयोगी गुणस्थान के अंत समयमें पूर्ण होती है । नैयायिकोंकी मोक्षमार्ग प्रक्रिया प्रशस्त नहीं है । सञ्चित कोंका उपमोग करके ही नाश माननेका एकांत अच्छा नहीं है। सांख्य और चौद्धोंकी मोक्षमार्गपक्रिया भी समीचीन नहीं है । दर्शन, ज्ञान, और चारित्र, गुण कथञ्चित् भिन्न भिन्न हैं। इनमें सर्वथा अभेद नहीं है। इनके लक्षण और कार्य न्यारे न्यारे हैं । पहिले गुणोंके होनेपर उत्तरके गुण माज्य होते हैं। उच्चर पर्यायकी उत्पति होनेपर पूर्वपर्यायका कथंचित् नाश होजाना इष्ट है। तीनों गुणों के परिणामोंकी धारामै पृथक पृथक् चलती हैं । इन गुणोंकी कभी विभावरूप और कभी स्वभावरूप तथा कभी सदृश स्वभावरूप पर्याय होती रहती है । एक गुणकी पर्यायोंका दूसरा गुण उपादान कारण नहीं हो सकता है। पूर्वस्वभावोंका त्याग, उत्तर-स्वभावोंका ग्रहण और स्थूलपने ध्रुव रहनेको परिणाम कहते है । कूटस्थ पदार्थ असत् है । उपादान कारण होनेपर भी सहकारी कारणों के विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होने पाती है । जैसे कि बारहवे गुणस्थानके आदिमें मोहनीय कर्मका मष होचुका है। किंतु शेष दो, और चौदह वासियों के नाश करनेकी शक्ति बारहवेक उपान्त्य और अन्तिममें ही होती है । वैसे ही बचे हुए नाम आदि कोंके ध्वंसकी शक्ति अयोगीके उपान्त्य और अन्तिम समयमे इष्ट की है। चारित्रगुणकी पूर्ण परिपकता यही होती है। सम्यग्दर्शनमें परमावगाढपना मी यहीं पर होता है । इसके आगे संसारके कारणोंको ग्रंथकारने सिद्ध किया है। मोक्षके कारण तीन हैं। इससे सिद्ध होता है कि उनसे विपरीत मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीन संसारके कारण हैं। नैयायिक, सांख्य आदिसे माना गया अकोला मिख्याजान ही संसारका कारण नहीं है। यदि मिय्याज्ञानसे ही संसार और सम्यग्ज्ञानसे ही मोक्ष मानी जायेगी तो सर्वज्ञ देव उपदेश देनेके लिये कुछ दिनोंतक संसारमें नहीं ठहर सकेंगे। इस अवसरपर नैयायिकको छकाकर संसारके कारण तीनों ही सिद्ध करदिये हैं
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युक्तियोंसे भी रोग आदिका दृष्टांत या सायको युE किया है। कापसा, गन आदि कियामि मुनियों को प्रश्नम, सुख प्राप्त होता है। असंयम और मिथ्यासंयोम मंतर है। बंधक कारण तीन है। इसीलिये मोक्षके कारण तीन हैं। मिध्यादर्शन, भविरति आदि पांच प्रकार के बंधके कारण भी सामान्यरूपसे तीनमें मभित होजाते हैं। यहां प्रमाद और कषायोंका अच्छा विवेचन किया है । बंधके कारण पांच होनेपर मोक्षके कारण मी पांच होजावे तो कोई हानि नहीं है। मेदकी विवक्षा होनेपर कोई विरोध नहीं आता है। छह भी होसकते हैं। गुणोंके प्रगट होजानेपर प्रतिपक्षी दोषोंसे उत्पन्न होनेवाले बंषोंकी निवृत्ति होजाती है। जिस कार्यको जितनी सामग्रीकी मावश्यकता है, वह कार्य उतनी ही सामग्रीसे उत्पन्न होगा यह विचार मी अनेकांत मान लेनेपर मनता है। सर्वधा एकांत माननेपर नहीं बनसकता है। सम्पदर्शन आदि गुणोंका परिणामी आत्मासे तादाम्यसंबंध हो रहा है। यहां अनेकांतमतका और उत्पाद, व्यय, धौव्यका अच्छा विचार किया है । चित्रज्ञान, सामान्यविशेष, इन दृष्टांतोंसे अनेकांतको पुष्ट करते हुए सप्तमंगीका मी विचार गर्मित कर दिया है । सर्वथा क्षणिक और कूटस्खनित्यम क्रियाकारक व्यवस्था नहीं बन पाती है । मन्यवादियोंकी मानी हुयी योग्यताका खण्डनकर सिद्धांवमें मानी हुयी कार्यकारणभावकी योग्यताका अच्छा विचार किया है। अनेकांतवादफे विना पंध, धका कारण और मोक्ष, मोक्षका कारण इनकी व्यवस्था नहीं बनती है । संवेदनाद्वैत और पुरुषाद्वैत सिद्ध नहीं हो सकते हैं । वेदांत वादियोंकी अविद्या और बौद्धोंकी संवृत्ति अवस्तुरूप है। अतः व्यवहारमें भी प्रयोजक नहीं हैं। शून्यवाद और तस्वोपप्लववादके अनुसार किसी तत्त्वकी व्यवस्था नहीं हो सकती है और न तत्वोंका रूपन ही हो सकता है । इनको भी अवश्य अनेकांतमतकी शरण लेनी पड़ेगी। सर्वत्र अनेकांत छाया हुआ है । अनेकांतम मी अतेकांत है। प्रमाणकी अर्पणासे अनेकांत है और सुनवकी अपेक्षासे एकांत है । स्याद्वादियों के मसमें यहां अनवस्था और प्रतिज्ञाहानि दोष नहीं होते हैं । ग्राह्यप्राहक आदि भावों को मानोगे तो मानने पड़ेंगे और न मानोगे तो भी वे गले पड जागे । संवेदनाद्वैत वादी स्वमके समान संवृत्तिसे सबको सिद्ध मानेंगे, उन्हें आगृत अवस्थाके पदार्थ परमार्थरूप अवश्य स्वीकार करने पड़ेंगे। जो बाधारहित ज्ञानके विषयभूत पदार्थ हैं, वे वास्तविक है। ज्ञानके बाध्यपने और अबाध्यपनेका निर्णय अभ्यास दशामें स्वतः और अनभ्यास दशा परतः हो जाता है । इस कारण मिथ्या एकांतों में बंघ, मोक्ष व्यवस्था नहीं बनती है । स्याहादियोका माना गया रत्नत्रय ही सहकारियोंसे युक्त होकर मोक्षका साधक है। इस प्रकार अनेक मिथ्या मोंका लण्डन करके श्रीविषानेद आचार्य पहिले सूत्रका व्याख्यान कर चुके हैं। अंतमे प्रसादस्वरूप पथ द्वारा आशीर्वाद देते हैं कि चारित्र गुण बुद्धिमान् वादी प्रतिवादियोंको स्नाय मोक्ष लक्ष्मीकी मासिका आयोजन कर देवे | यह प्रथम आहिकका संक्षिप्त विवरण है।
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________________ খিলালি: मुक्तिजनकतावच्छेदकत्वधर्मोपलक्ष्यवच्छिन्नात् / श्रीनिष्ठाषेयत्वप्ररूपिसाधारतां ने (ना, इ) यात् // 1 // द्रव्य पुरुष यो रनायसे मोक्षलक्ष्मीके अधिपतिपनेको मास हो जाये। अर्थात् मोक्षके कारणकी अन्य कारणोंसे व्यावृति करानेवाले रत्नत्रयत्व धर्मसे उपलक्षित रत्नत्रय प्रतिनियत कारण है। इस रलायके परिपूर्ण ओत प्रोत प्रविष्ट होआनेसे यह मनुष्य (का) मुक्ति लक्ष्मी में भवश्य ठहर रही आपेयपनके नियत आधारपनेको प्राप्त करलेवें / अर्थात्---कारण और कार्य अन्यूनानतिरिक्तपनेसे नियत होरहे हैं। रत्नत्रय नामक कारण और मोक्ष संजक कार्यमें मध्याहत एक्कार द्वारा अवधारण करलिया है। यह जीव रलायसे ही मोक्षमापको नियम पूर्वक पास करकेवे / मही इस नन्य न्यायाइपरका तात्पर्य है। PACL इति भद्रं भूयात् TA