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वस्त्रार्थचिन्तामणैिः
चाहे जिस व्यक्तिकी वासनाएं अन्य दूसरे किसीके प्रत्यभिज्ञानका हेतु नहीं हो सकेंगी, इस पर आचार्य पूंछते हैं कि आप बौद्धोंने एक संतानपनेको किस नियमसे माना है ! बताओ । एकदेशमें सम्बन्ध होने से या एक काल वृत्ति होनेसे तो नियम बन नहीं सकता है क्योंकि भिन्नसंतानों में मी यह देश और कालकी अस्यासति वढिया देखी जाती है । भावार्थ जैसे देवदत्तरूप सम्तान के आगे पीछे होनेवाले पर्यायरूप सन्तानिएं जिस स्थान में हैं उसी देशमें यज्ञदत्त, जिनदत्तरूप सन्तानों की पर्यायें भी चल रही हैं। एवं जिस समय में दवेदत्तकी सन्तानीरूप पर्यायें उत्पन्न हो रही हैं, उसी समय जिनदत्त, इन्द्रदत्तकी भी पर्यायें उत्पन्न हो रही हैं। क्या एक ही समयमें जौहरीकी दुकानमें आये हुए मोती चाहे जिन भिन्न भिन्नमालाओं में नहीं पिरोये जा सकते हैं ! अर्थात् कोई भी मोती किसी भी मालामें पिरोया जा सकता है। वैसे ही समानदेश और एक कालमें होनेवाले यज्ञदत्त देवदत्तके मिश्र भिन्न परिणाम चाहे जिस सन्तानने दुलकाये जा सकते हैं तथा च विवक्षित एक सन्तानकी ठीक ठीक सिद्धि नहीं हुयी । व्यभिचार या अतिप्रसंग दोष आता है। जिन जीवों में ज्ञान या सुख आदि समान देखे जाते हैं उनमें भावप्रत्यासति है यह माननेपर भी व्यभिचार होगा । यो क्षेत्रप्रत्यासत्ति, कालप्रत्यासति और भावप्रत्यासचि तो सन्तान के एकपनका नियम नहीं करा सकती है। एक द्रव्यप्रत्यासचि ( सम्बन्धा) ही शेष रह जाती है। वही एक सन्तानकी नियामिका हम जैनोंको इष्ट है। क्षणिकशदी अनादि अनंत फालीन, द्रव्यको मानते नहीं है ।
व्यभिचारविनिर्मुक्त कार्यकारणभावतः ।
पूर्वोत्तरक्षणानां हि सन्ताननियमो मतः ॥ १८२ ॥ स च बुद्धेतरज्ञानक्षणानामपि विद्यते ।
नान्यथा सुगतस्य स्यात्सर्वज्ञत्वं कथञ्चन ॥ १८३ ॥
आप बौद्ध यदि व्यभिचारदोषसे सर्वथा रहित हो रहे कार्यकारणभाव से ही पूर्व उत्तरवर्ती संधानियों के संतान ( छडी ) हो जानेका नियम मानोगे तब तो वह निर्दोष कार्यकारणरूप संबंध इन बुद्ध सर्वज्ञ और देवद, यज्ञदत्त के ज्ञानक्षणोंका भी विद्यमान है। बौद्धोंका मंतव्य है कि जो ज्ञानका कारण होता है वही ज्ञानसे जाना जाता है । बुद्धदेव सबको जाननेवाले सर्वज्ञ हैं । बुद्धके ज्ञानमें देवदत्त जिनदसके अनेक ज्ञानसंतानिएं भी विषय हो रहे हैं । अतः बुद्धज्ञानके अनेक ज्ञानसंतानीरूप जिनदत यज्ञदत्त भी कारण हुए, जैसे बुद्धदेव के पूर्वकालमें होनेवाले अपने परिणाम कारण हैं वैसे ही जिनदत्त, यज्ञदचके ज्ञान स्वलक्षण परिणाम मी बुद्धज्ञानमें कारण हैं। अभ्यथा यानी यदि जिनदत्त यज्ञदत्तके विज्ञान बुद्धज्ञान के कारण न होते तो बुद्ध उन ज्ञानोंको नहीं जान सकते थे। एवं बुद्धको किसी प्रकार भी सर्वज्ञता नहीं प्राप्त हो सकती थी, किंतु आपने बुद्धको
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