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________________ तत्त्वार्थं चिन्तामणिः २८९ से चल रही है | अतः वासनाओं की उत्पत्तिका प्रश्नरूप कटाक्ष करना हमारे ऊपर युक्त नहीं है अन्यथा यदि ऐसे ही कुत्सित कटाक्ष करते रहोगे तो घट, पट आदिक बहिरंग अर्थों में भी जैनधर्मवालों के ऊपर हमारा कटाक्ष क्यों नहीं सम्भव होगा ! अर्थात् घटका कारण माना गया कुलाल कहांसे आया ? यदि कुलाल के मापसे कुलालकी उत्पत्ति मानोगे तो बताओ : कुलालका बाप कहांसे आया ? कुलालके बाबा से उसकी उत्पत्ति मानोगे तो अनवस्थादोष होगा । यदि वहां कार्यकारणHast अनादि मानकर प्रश्नोंके अवसरको टाल दोगे तो हम बौद्ध भी पहिले पीछे होनेवाली वासनाओंके ऊपर भी चले हुए प्रश्नोंकी भरमारको हटा देवेंगे कोई कुचोप नहीं होमो । जैसे बहिरंग घट, पट, मृत्तिका, कपास, आदिका कार्यकारणभाव अनादिकाल से चला आ रहा है वैसे ही अंतरङ्गके विज्ञान पदार्थ और वासनाओं में भी अनादिकालसे धाराप्रवाहरूप कार्यकारणभाव विशेषताओंसे रहित होकर चला आ रहा है। अंतर केवल इतना ही है कि बहिरंग पट पट आदिक पदार्थ वास्तविक नहीं है, प्रयोजनसाधक भी नहीं हैं। अतः ज्ञानाद्वैतवादी हम उनका परित्याग कर देते हैं क्योंकि उन बहिरंग पदार्थोंकी प्रमाणोंके द्वारा व्यवस्थिति होना शक्य नहीं है। यहां तक ज्ञानाद्वैतवादी कह रहे हैं । तेषामपि नेयं प्रत्यभिज्ञा पूर्वस्ववासनाप्रभवा वक्तुं युक्तान्वयिनः पुरुषस्याभावात्, संतानांतरवासनावोऽपि तत्प्रभवप्रसंगाचमानात्वाविशेषात् ! ाब आचार्य कहते हैं कि उनका भी यह कहना युक्त नहीं है कि यह प्रत्यभिशा अपने पहिलेकी वासनाओंसे पैदा हुयी है, क्योंकि देखनेवाला और वही स्मरण, प्रत्यभिज्ञान करनेवाला इतने लम्बे काल तक अन्वितरूपसे रहता हुआ एक आत्मा तुमने माना नहीं है तो फिर यह देवदत्तके प्रत्यभिज्ञानकी वासना है, यह यज्ञदत्तके ज्ञानकी है, ऐसा नियम कैसे कर सकोगे ! पताओ। यदि यों ही अंटट कार्यकारणभाव माना जायेगा तो दूसरे देवदच, गुरुदत आदि संतानोंकी वासनाम से भी मकृत जिनदत्तको उस मत्यभिज्ञानके हो जानेका प्रसंग आबेग़ा। जिस प्रकार चांदीका रुपया सराफ, सुनार, बजाज, जमीदार और राजा इन सबका हो जाता है, वैसे ही भिन्न भिन्न संतानियोंसे न्यारी न्यारी पडी हुयीं वासनायें भी चाहे जिस संतानकी होजाने में कोई अंतर नहीं रखती हैं । भेद सर्वत्र छा रहा है, ऐसी दशा में चाहे जिसकी वासनाओंसे किसीको मी ज्ञान उत्पन्न हो जावेगा । उन वासनाओंका तो सत्र जीवोंके साथ समानरूपसे भेद है फिर अनेक संतानों में अंतररहित भिन्न भिन्न पड़ी हुई बासनाओंके नियत करानका उत्तर आपके पास क्या है ? बताओ । सन्तानैकत्वसंसिद्धिर्नियमात्स कुतो मतः । प्रत्यासत्तेर्न सन्तानभेदेऽप्यस्याः समीक्षणात् ॥ १८१ ॥ यदि यौद्ध यों है कि हमारे यहां एक संतानकी मले प्रकार सिद्धि है जैसे कि आप जैनों के यहां एक अखण्ड आत्मद्रव्यकी नियत अनादि अनंत पर्यायोंमें धारा बह रही है। अंतः 57
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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