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सत्याधियादि
है और वे वासनाएं भी उनके पहिलेके संस्कारोंके बलसे उत्पन्न हो चुकी हैं और वे संस्कार मी पहिलेके मिथ्याचानजनित संस्कारोंसे उत्पन्न हुए थे, इस प्रकार उस अनादिमिय्यादृष्टिके समान ये. वासनाएं भी धाराप्रवाहसे अनादिकालको लग रही है । इस प्रकार ज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध यो ही जीव या स्वमज्ञानका दृष्टांत देकर शुद्धज्ञानका भले प्रकार निरूपण करते हैं । मंथकार कहते हैं कि उन बौद्धोंके यहाँ भी एक अम्बित आत्माफे लोप करनेपर यह दोष आता है कि भले प्रकार जगायीं गयीं देवदत्तरूप-संतानकी वासनाएं दूसरे यज्ञदत्तको प्रत्यभिज्ञान, स्मरण, आदि मिथ्याज्ञान उत्पन्न करा देने में क्यों नहीं कारण हो जाती हैं। बताओ, क्योंकि आपके मत देवदत्तकी वासनाएं जैसे अतिनिकट कितु नहीं मिले हुए क्षणिक विज्ञानोंकी पतिरूप देवदत्तसे भिन्न हैं। वैसे ही:क्षणिक विज्ञानमारास्वरूप यज्ञदतसे भी भिन्न हैं । एक ही प्रकारकी शास्त्राकार मुद्रित पुस्तकों के न्यारे न्यारे पत्र उसी प्रकारकी किसी भी दूसरी पुस्तको पलटे जा सकते हैं । इसी प्रकार बौद्धोंके मतमे देवदत्त, यज्ञदत, की आत्माएं अन्वित एक नहीं है किंतु न्यारी न्यारी बालुके कणों के समान न्यारे न्यारे ज्ञानोंका समुदाय है। अतः वासनाओंका संकररूपसे कार्यकारणभाव होनेका दूषण लागू होता है। दोनों संतानोंका भिन्न प्रत्यभिज्ञान भी एकसा है कोई अंतर नहीं है। . यथा नीलवासनया नीलविज्ञानं जन्यते तथा प्रयाभन्नेयं तघे तादृशमेतदिति वा । प्रतीयमाना प्रत्यभिज्ञानवासनयोद्धाव्यते न पुनर्वहितेनैकत्वेन सादृश्येन वा येन तद्ग्रा: हिणी स्यात् । तदासना कुत इति चेत्, पूर्वतद्वासनातः, सापि पूर्वखवासनाबलादित्यनादिस्वादासनासन्ततेरयुक्तः पर्यनुयोगः कथमन्यथा बहिरर्थेऽपि न सम्भवेत् १ तत्र कार्यकारणभावस्यानादित्वात्पर्यनुयोगे पूर्वापरवासनानामपि तत एवापर्यनुयोगोऽस्तु । कार्यकारणभाबस्यानादित्वं हि यथा बहिस्तथान्तरमपीति न विशेषः केवल बहिरोऽनः परिहतो भवेत अशक्यप्रतिष्ठत्वाचस्पति ज्ञानवादिनः ।
संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध कइसे हैं कि जैसे नीलकी वासमासे नीलविज्ञान उत्पन्न होता है उसी प्रकार यह वही है या यह उसके सदृश है इस प्रकार अनुमबद्वारा जाने गये ये प्रामज्ञान मी उन प्रत्यभिज्ञानकी वासनाओंसे उत्पन्न कराये जाते हैं । सौत्रान्तिकोंके मतमे ही ज्ञानके विषय कहे गये बहिरंग एकरस अथवा सादृश्य पदार्थ प्रत्यभिज्ञानोंके कारण माने गये है .इम योगाचारों के यहां ज्ञानका कारण विषय नहीं है । एकत्व या सादृश्य करके प्रत्यभिज्ञान नहीं उपजाता है जिससे कि प्रत्यभिज्ञान अपने उन कारणोंको विषय करनेवाला माना जावे ।
यदि कोई हम बौद्धोंसे पूँछे कि वे वासना कहाँसे आयी ! तो हम कहेंगे कि उससे भी पहिले की वासनाओसे प्रकृतं वासनायें पैदा हुयीं हैं और वे मी पहिले की वासनायें उससे भी पहिलेकी अपनी वासनामोंके बल जूतेसे उत्पन्न हुयी है । इस प्रकार वासनाओंकी सन्तति अनाषि