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________________ तत्वाचिन्तामभिः १९१ सर्वज्ञ माना है तथा च व्यमिचारदोषसे हित कार्यकारणसंबंध सुगतके ज्ञान और संसारी जीवों के ज्ञानमै भी विद्यमान है । यों तो कार्यकारणरूप दोनों संतानी ज्ञानोंकी घाराम मिल जानेसे सुगत और संसारी जीवोंकी भी एक संतान बन बैठेगी, जो कि तुमको भी इष्ट नहीं ॥ संतानैक्यात्पूर्ववासना प्रत्यभिनाया हेतुर्न संतानांतरवासनेति चेत्, कुतः संतानेक्यम् ? प्रत्यासत्तेचेत्, साप्यव्यभिचारी कार्यकारणभाव इष्टस्ततो बुद्धसरक्षणानामपि स्यात्, न च तेषां स व्यभिचरति बुद्धस्थासर्वज्ञत्वापत्तेः । सकलसवाना तदकारणत्वे हि न तद्विपयत्वं स्यानाकारणं विषय इति वचनात् । उक्त कारिकाओं का विवरण करते हैं कि संतान एक है इस कारण देवदत्तकी पूर्ववासनाएं ही देवदत्तमे होनेवाले प्रत्यभिज्ञानका कारण बनेगी । जिनदत्त, यज्ञदत्त आदि दूसरी भिन्नसंतानोंकी वासनाएं देवदत्त के प्रत्यभिज्ञानका कारण नहीं हो पाती हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि तुम बौद्ध पेसा कहोगे तो जैन इम पूछते हैं कि संतानका एकपन किससे सिद्ध करोगे! बताभो, अन्वितद्रव्यको नहीं माननेवालों पर यही कठिन प्रश्न है । यदि किसी विशेष एक सम्मंघसे संवान की एकता मानोगे तो देशिक सम्बंध, कालिक सम्बंध, और भावप्रत्यासत्ति के अतिरिक्त आपने वह सम्बंध मी व्यभिचासहित कार्यकारणभाव ही इष्ट किया है किंतु उस समंघसे तो बुद्ध और संसारीजीवोंके ज्ञानसंतानियोंकी भी एक संतान बन जावेगी, क्योंकि बुद्धज्ञान और उसके ज्ञेय संसारी जीवोंके ज्ञानक्षणों में कार्यकारणमाव सम्बंध विद्यमान है । उनका वह सम्मेध व्यभिचारदोषयुक्त भी नहीं हैं, यदि ऐसा होता यानी इतर जीयोंके ज्ञान बुद्धचानके कारण न पनते तो आपके बुद्ध भगवान् सर्वज्ञ ही नहीं होने पाते, अर्थात् आपके मतानुसार विज्ञानरूप सम्पूर्णजीव सुगत. ज्ञानके कारण हैं। यदि वे कारण न होते तो सुगत उनको अपने ज्ञानका विषय नहीं कर पाते, क्योंकि आपका सूत्रवचन है कि " नाकारणं विषयः " जो ज्ञानका कारण नहीं है। वह ज्ञानका विषय भी नहीं है। सकलसच्चचित्तानामालम्बनप्रत्ययस्वात् सुगतचित्तस्य न तदेकसन्तानशेति चेम, पूर्वखचित्तैरपि सदैकसन्तानतापायप्रसक्तस्तदालम्बनप्रत्ययत्वाविशेषात् । ... बौद्ध कहते हैं कि ज्ञानके कारण तीन प्रकारके होते हैं। उपादानकारण, निमित्तकारण और अबलम्ब कारण । उनमें पूर्वक्षणवती ज्ञानपरिणामको उत्तरक्षणवर्ती ज्ञानका उपादान कारण माना है। इंद्रियां, प्रकाश, हेतु, अविद्याक्षय, आदि निमित्तकारण हैं और ज्ञानका जानने योग्य विषय उसका अवलम्बकारण है । अवलम्य कारण कारककारणोंके समान प्रेरक नहीं है । जैसे बादल या शाखाओं में द्वितीयाके चंद्रमाको देखो! यहां बादल या वृक्षकी शाखा उस चंद्रमाके ज्ञानमें केवल भवलम्बकारण है। प्रधान कारण पूर्वज्ञान और इंद्रियां ही है। इसी प्रकार सम्पूर्ण प्राणियों के
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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