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________________ तथा चिन्तामणिः विज्ञान भी सुगतज्ञानके अवलम्बन कारण हैं। जैसे बुड्डे मनुष्यको गमन कराने में लठियाका सहारा है । चलनेकी प्रेरकशक्ति सो धूढमें विद्यमान है वैसे ही घटका अवलम्ब लेकर घटज्ञान होजाता है उपादान कारणों के साथ एकसतान होनेका नियम है । उन अवलम्ब कारणोंकी कार्यके साथ एक संतान बन जाना नहीं होता है। अतः बुद्धदेवकी संसारीजीवों के साथ एक संतान नहीं है । आचार्य बोलते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो ज्ञानके विषय होवेंगे उनको केवल अवलम्ब ( सहारा) देनेवाला कहोगे और उनके साथ ज्ञानकी एक संतान न मानोगे तो बुद्धके स्वकीयज्ञानों के साथ भी सुगतकी एकसंतान होजाना न बन सकेगा, कारण कि इतर पदार्थोके समान सुगलके पूर्वज्ञानक्षण भी सुगतज्ञान विषय पड़ चुके हैं । अतः वे अवलम्ब कारण है कोई अंतर नहीं है । अन्यथा सुगत अपने पूर्ववर्ती ज्ञानोंको न जान सकेगा तभा च फिर भी बुद्धको सर्व पदार्थों का ज्ञासापन न हुआ । समनन्तरप्रत्ययस्वात् स्खपूर्वचित्तानां तेनैकसंतानतेति चेत, कुतस्तेषामेव समनन्तरप्रत्ययत्वं न पुनः सकलचित्तानामपीति नियम्यते ? तेषामेकसंतानवर्तित्वादिति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रया, सत्येकसतानत्वे पूर्वापरसुगचित्तानामव्यभिचारी कार्यकारणभावस्तस्मिन्सति तदेकसंतानत्वमिति । सुगतके पूर्वज्ञानक्षणों में जैसे आलम्पन कारणपन है । उसी प्रकार अव्यवहित पूर्ववर्ती होने के कारण उपादानकारणपन भी है । उस कारण सुमनका अपने सम्पूर्ण पूर्वचित्तक्षणों के साथ एक संतापनपना बन जावेगा । ग्रंथकार कह रहे हैं कि यदि आप बौद्ध ऐसा पहेंगे तो हम पूंछते हैं कि जब अव्यवहित पूर्ववर्ती होकर जैसे सुगतके पूर्वज्ञानक्षण कारण बन गये हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंके ज्ञान भी नियमसे व्यवधानरहित पूर्वक्षणवर्ती होकर युद्धज्ञानके कारण बने है । तो फिर उन सुगतके क्षणों को ही अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती होने के कारण उपादानता मानी जावे किन्तु फिर सम्पूर्ण प्राणियोंके चित्तोंकी भी आदानता न मानी जावे । इस प्रकार पक्षपातमस्त आप कैसे नियम कर सकते हैं। यदि आप इसका उपाय यह करें कि वे सुगतके पूर्वउत्तरवर्ती ज्ञानरूपक्षण एक सन्तानमें पड़े हुए हैं। अतः उनकाही परस्परमै कार्यकारणपन है। संसारी जीवों के चित्रों के साथ व्यवधानरहित कारणपना नहीं है ऐसा बौद्धोंके कहनेपर सो यह वही प्रसिद्ध अन्योन्याश्रय दोष है। जब एक सन्तानपन सिद्ध हो जावे, तब तो सुगत के आगे पीछे होनेवाले चित्तोंकाही व्यभिचाररहित कार्य कारणभाव सिद्ध होवे और जब सुगतचित्तों काडी वह अन्यभिचारी कार्यकारण भाव सिद्ध हो चुके, तब कहीं उनही में एक संतानाना सिद्ध होवे, इस प्रकार परस्परमें एकको दूसरेका आसरा पकड़ने के कारण परस्पराश्रय दोष हुआ। ताली गृहके भीतर रह गई और विना तालीकेही वाला पाइरसे लगा दिया। अब गुजराती ताला कब खुले ? जब ताली मिल जावे मौर ताली कम मिले ? जब ताग खुल जाय । यही दशा यहां हुई।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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