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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः २९३ 4. ततः पूर्वेक्षणाभावेऽनुत्पतिरेवोत्तरक्षणस्याव्यभिचारी कार्य रणभावो ऽभ्युपगन्तव्यः । स च स्वचिचैरिव सकलसच्च चित्तैरपि सहास्ति सुगत चिचस्येति कथं न तदेकतानापचिः ? उस कारण इस दोषको हटानेके लिये आपको यही उपाय अङ्गीकृत करना पड़ेगा कि पूर्ववर्ती पर्यावरूप क्षणोंके विना उत्तरवर्ती पर्यायोंकी उत्पत्ति हो ही नहीं सकती है। यही व्यमिचारदोषरहित कार्यकारणभाव है । इससे अन्योन्याश्रय दोषका तो वारण हो गया क्योंकि आप बौद्धोंने एक संतानपने से कार्यकारणमात्र नहीं माना है अन्वयव्यतिरेकसे माना है। किंतु वह कार्यका रणभाव तो सुगत चित्तका अपने पूर्व उत्तरमावी चित्तोंके समान सम्पूर्ण जीवोंके विज्ञानोंके साथ भी है । फिर योगी और उन इतर जीवोंकी एकसंतान हो जानेका प्रसंग क्यों नहीं आवेगा ? इस प्रसंगका वारण आप नहीं कर सके । स्वसंवेदनमेवास्य सर्वज्ञत्वं यदीष्यते । संवेदनाद्वयास्थानादृता संतानसंकथा || १८४ ॥ इस बौद्ध कहते हैं कि संसारी जीवोंके ज्ञानोंकी सुगतज्ञानोंके साथ एक संतान न बन जावे, लिए इस सुगतकी सर्वज्ञताका हम यह अर्थ इष्ट करते है कि बुद्ध भगवान् अपनी संतानोंको ही जानते हैं । घट, पट आदिक या देवदत्त, यज्ञदत्तके ज्ञानोंको नहीं जानते हैं । संसारी जीवोंको जानने के कारण ही संतानसंकर होनेका प्रसंग आया था किंतु हमने चोरकी नानीको हटा दिया । "< न रहेगा मांस न बजेगी बांसुरी” अब आचार्य कहते हैं कि यदि तुम ऐसा इष्ट करोगे तो अकेले ज्ञानके अद्वैतकी श्रद्धा हो जानेके कारण संतानकी समीचीन कथा करना तो उड़ा दिया गया, फिर आप पूर्वके कथनानुसार संदानकी एकता से प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होने के लिए वासनाओं का नियम कैसे कर सकोगे ? बताओ। यों तो देवदत्त, जिनदत्तकी संतान कहना तथा सर्वश मानना यह आपका ढकोसला निकला | नये संतानो नाम लक्षणभेदे तदुपपत्तेः, अन्यथा सकलव्यवहारलोपात् प्रमाणप्रमयविचारानवतारात् प्रलापमाश्रमवशिष्यते । विचारो तो सही कि सर्वथा अद्वैस या अभेद माननेपर भला संतान कैसे बनती है ? भिन्न भिन्न लक्षणवाले अनेक संतानियोंके होनेपर उस संतान की सिद्धि मानी गयी है। अन्यथा यानी यदि आपस्थास, कोष, कुशूल आदि संतानियोंकी या बाल्य, कुमार, युवा, वृद्ध अवस्थारूप संततियों की एक मृत्तिका या देवदतरूप संतान न मानेंगे तो लोकप्रसिद्ध सम्पूर्ण व्यवहारोंका लोप हो जावेगा । लेना, देना, अपराधीको दंड मिलना, मातृपुत्रव्यवहार या पतिपत्नीभाव सब नष्ट हो जायेंगे | तक कि यह प्रमाण है और यह उस प्रमाणसे जाना गया प्रमेय है ये विचार भी न हो सकेंगे।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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