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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नस्य चानन्तत्वप्रसक्तिरिति प्रतीतिविरुद्धं सत्येतरबानपौर्वापर्यदर्शननिराकरणमायातम् । द्वितीयकल्पनायां तु सत्यज्ञानोत्पत्तेः पूर्व सकलज्ञानशून्यस्यात्मनोनात्मत्वानुषको दुर्निवार• स्वस्योपयोगलक्षणत्वेन साधनात् । स चानुपपन्न एवात्मना प्रसिद्धेरिति मिथ्याशानपूबैंकमपि सत्यज्ञानं किंचिदभ्युपेयम् । तद्वत्सम्यग्दर्शनमपि इत्यनुपालम्मः।
जो प्रतिवादी सत्यज्ञानको मिथ्याज्ञानके अव्यवहित उत्तर कालमें उत्पन्न होता हुआ नहीं भानेंगे, उनसे हम जैन पूछते हैं कि सबसे पहिले उत्पन्न हुए सत्यज्ञानको सत्यज्ञानके पश्चात् होता हुआ मानेंगे या सत्यज्ञान और असत्य झानसे रहित केवल आत्मा ही सत्यज्ञानको उत्पन्न करदेगा, स्वीकार करेंगे ! बताओ । यदि पहिले पक्षकी कल्पना करोंगे, तब तो सस्यज्ञानको अनाविपनका प्रसंग आता है । क्योंकि पहिला सत्यज्ञान उसके पहिलेके सस्यज्ञानसे उत्पन्न होगा और वह भी उससे मी पहिसके सत्यवानसे होगा, इस हमेध्याही जीवोंके भी अनादि कालसे सम्यग्ज्ञानके होनेका प्रसंग आता है । तथा दूसरा दोष यह भी होगा कि मिथ्याज्ञानकी सन्तानरूप पाराको मनन्तपनेका प्रसंग हो जावेगा। क्योंकि जैसे सत्यज्ञान ही भविष्यमें सत्यज्ञानको पैदा करते हैं, वैसे ही मिय्याज्ञान मी मविष्यमै मिथ्याज्ञानको ही पैदा कर सकेंगे। मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञानको उत्पन्न तो कर नहीं सकेगा। मतः कोई भी मिथ्यादृष्टिजीव अनन्त कालतक सम्यग्ज्ञानी नहीं बन सकेगा, इस प्रकार सत्यज्ञान और मिथ्याज्ञानके पूर्व उत्तर कालमै रहना रूप कार्यकारण भावको माननेयाले नैयायिक, जैन आदिके दर्शनोंका खण्डन होना प्राप्त होता है, जो कि प्रमाणसिद्ध प्रतीतियोंसे विरुद्ध है।
यदि दूसरा पक्ष लोगे यानी सबसे पहिला सम्यग्ज्ञान आत्मामें सत्य और मिथ्या किसी मी ज्ञानसे उत्पन्न नहीं हुआ है, इस कल्पना तो सत्यज्ञानकी उत्पत्तिके पहिले संपूर्ण ज्ञानोंसे रहित माने गये आत्माको जडपनेका प्रसंग आता है। जिसको कि आप अत्यंत कष्ट से दूर कर सकेंगे, जब कि उस आत्माका ज्ञान और दर्शनोपयोग स्वरूपसे साधन हो चुका है। अतः ज्ञानोंसे रहित आमाका वह मानना असिद्ध ही है । क्योंकि सर्वदा किसी न किसी ज्ञानसे युक्त होरहे आस्माकी प्रसिद्धि होरही है | इस कारण समी प्रतिवादियोंको इसी उपायका अवलम्ब करना पडेगा कि मिध्यादृष्टि जीवके सबसे पहिले उत्पन्न हुआ कोई कोई सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञानपूर्वक भी है। उसी सत्यज्ञानके समान पहिला सम्यग्दर्शन भी मिथ्याज्ञानपूर्वक होजाता है । इस प्रकार जैनोंके ऊपर कोई भी उलाहना नहीं है।
क्षायोपशमिकस्य क्षायिकस्य च दर्शनस्प सत्यज्ञानपूर्वकत्वात्सत्यज्ञानं दर्शनादभ्यहितमिति च न चोद्यम्, प्रथमसम्यग्दर्शनस्यौपशमिकस्य सस्यवानाभावेऽपि भावात् | नै किचित्सम्पग्वेदनं सम्यग्दर्शनाभावे भवति । प्रथमं भवत्येवेति चेत् न तस्थापि सम्पन्दर्शनसहचारिस्वात् ।