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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः કબ 1 किसीका कटाक्ष है कि उपशम सम्यक्त्वके अनन्तर चार अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्व तथा सम्यग्मियात्यके उपशम होनेपर और सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय होनेपर उत्पन्न हुए क्षयोपशम सम्यक्त्वको और क्षयोपशमके ही अनन्तर होनेवाले क्षायिक सभ्यपस्वको सत्यज्ञानपूर्वकपना ही आप जनोंने इष्ट किया है । अतः सम्यादर्शन से सत्यज्ञान पूज्य है । क्योंकि सम्यस्वका कारण सम्यग्ज्ञान है । ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रकारका कुचोध करना ठीक नहीं है । क्योंकि अनादि I मिथ्यादृष्टी जीवके करणलब्धिके उत्पन्न होजाने पर उत्पन्न हुए अनन्सानुबन्धी चार और मिध्यात्व इन पांच प्रकृतियोंका अप्रशस्त प्रशस्त उपशम होनेपर पहिला औपशमिक सम्यक्स्व तो सत्यज्ञान के विना भी उत्पन्न हो जाता है तथा सादि मिध्यादृष्टि के प्रथम गुणस्थानसे भी सीधा क्षयोपशम सम्यक्व हो जाता है । अतः कोई कोई सम्यग्दर्शन तो सत्यज्ञानके पूर्व में रहे विना भी हो गया । किन्तु इस प्रकार कोई भी सम्यग्ज्ञान ऐसा नहीं है जो कि सम्यग्दर्शन के पूर्ववर्ती रहे विना उत्पन्न हो जावे। यदि आप यों कहें कि पहिला सम्यग्ज्ञान तो सम्यग्दर्शन के पूर्वमें रहे विना ही हो गया है, यह तो ठीक नहीं है। क्योंकि पहिले सम्यग्ज्ञानके पूर्वमें सम्यग्दर्शन न सही, किन्तु उसके समान कालमै साथ रहनेवाला सम्यग्दर्शन है ही । यों वह ज्ञान भी सम्यग्दर्शनका सहचारी है। तर्हि प्रथममपि सम्यग्दर्शनं न सम्यग्ज्ञानाभावेऽस्ति तस्य सत्यज्ञान सहचारित्वादिसि न सत्यज्ञानपूर्वकत्वमव्यापि दर्शनस्थ, सत्यज्ञानस्य दर्शनपूर्वकत्ववत्, ततः प्रकृतं चोद्यमेवेति चेष प्रकृष्टदर्शनज्ञानापेक्षया दर्शनस्याभ्यर्हितत्ववचनादुक्तोसरत्वात् । न हि क्षायिक दर्शनं केवलज्ञानपूर्वकं येन तत्कृताभ्यर्हितं स्यात् । अनन्त भवप्रहाणहेतुत्वाद्वा सद्दर्शनस्याभ्यर्हः । शंकाकारा कटाक्ष करना फिर जम गया कि तब तो पहिला सम्यग्दर्शन भी सम्यग्ज्ञान के बिना नहीं होता है । वह प्रथमोपशमसम्यक्त्व भी सत्यञ्चानका सहचारी है अर्थात् दोनों एक सममें होते हुए साथ रहते हैं । इस प्रकार आप जैनोंने पूर्व में यह क्यों कहा था कि कोई कोई सम्यग्दर्शन सत्यज्ञान के बिना भी रह जाता है। किंतु कोई भी सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनके विना नहीं होता है | हम शंकाकार कहते हैं कि साथ रहनेसे ही यदि उसके पूर्वकपना बन जावे, तब तो दर्शनको भी सम्मानपूर्वकपना बन जावेगा । अतः सत्यज्ञानपूर्वेकपना यदि सम्यग्दर्शनका लक्षण कर दिया जाये तो आप जैनोंके कथनानुसार कोई अव्याप्ति दोष नहीं है । जैसे सम्यग्ज्ञानको आप दर्शन कपना मानते हैं और उसी कारण दर्शनको ज्ञानसे पूज्य मानते हैं वैसे ही सत्यज्ञान भी सहचारी दोनेसे सम्यग्दर्शन के पूर्व में रहता है । अतः ज्ञान भी पूज्य हो जाओ, हमको आपके उत रसे संतोष नहीं है । तिस कारण प्रकरणमें चलाया गया हमारा कटाक्ष तदवस्थ ही रहा । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार चोध करना ठीक नहीं। क्योंकि पूर्ण उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी अपेक्षासे कारणताका विचार कर दर्शनको पूज्यपना हमने कहा है और आपकी शंकाका सिद्धांत उत्तर हम पहिले भी संक्षेपमै यही कह चुके हैं । केवलज्ञान के प्रथम
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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