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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ज्ञानके उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य रखनेवाले और व्यवहारसे सत्यज्ञानरूप ऐसे मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न हुआ सत्यज्ञान कमी मिध्यापनको प्राप्त नहीं हो सकता है । क्योंकि ज्ञानके मिथ्यात्वका कारण माने गये अदृष्टविशेष मिथ्याज्ञानावरण कर्मका उदय उस समय नहीं है। सम्यग्ज्ञानके पूर्व समयमै सम्यग्ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम है और उसके पहिले समय मिथ्याज्ञानारणका क्षयोपशम है । क्षयोपशम ज्ञानका कारण है। अतः मध्यकी अवस्था वस्तुतः तो मिथ्याज्ञान है। किंतु वह सम्याज्ञान सरीखा है । इस कारण सम्या ज्ञानको एकांत रूपसे मिथ्याज्ञानपूर्वक कहना जैनोंको उचित नहीं है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम जैन कहते है कि उपचारसे सम्यग्ज्ञान रूप उस मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न हुये सम्यग्दर्शन को भी मिथ्यापनका प्रसग कैसे हो जावेगा : बताओ। अर्थात् सम्यग्दर्शनको भी मिथ्यादर्शनपने का प्रसंग नहीं है, क्योंकि दर्शनमें उस मिथ्यापनेका कारण दर्शनमोहनीय कर्मका उदय है । सो सम्यग्दर्शनक उत्पन्न हो जानेपर रहता नहीं है। सत्यज्ञानं मिथ्याज्ञानानन्तरं न भवति तस्थ धर्मविशेषानन्तरभावित्वादिति चेत्, सम्यग्दर्शनमपि न मिथ्याज्ञानानन्तरभावि तस्याधर्मविशेषाभावानन्तरमावित्वोपगमात् । सम्याज्ञान तो मिथ्याज्ञान के अनंतर होता ही नहीं है, किंतु वह सम्यग्ज्ञान तो ज्ञानावरणका विशिष्ट क्षयोपशमरूप धर्मको कारण मानकर उत्पन्न होता हुआ स्वीकार किया गया है। यदि ऐसा कहोगे तो हम भी कहते हैं कि सम्यादर्शन गुण भी मिथ्याज्ञानके अनंतर कालमें नहीं होता है। किंतु वह सम्यग्दर्शन तो मिथ्याल, सम्ययिथ्यात्व और अनंतानुबंधीरूप विशेष पापोंका उदय न होना रूप अभावको कारण मानकर उत्पन्न हुआ माना है । वस्तुतः विचारा जाये तो सम्यग्दर्शन पर्यायका उपादान कारणरूप पूर्वपर्याय मिध्यादर्शन ही है और मिथ्याज्ञानका उपादानकारण रूप पूर्वपरिणाम मिथ्याज्ञान है । इसमें भय और लज्जाकी कौनसी बात है ! शीत तेलसे उष्ण और चमकती हुयी दीपकलिका बन जाती है तथा दीपकलिकासे ठण्डा और काला काजल पन जाता है । उत्तरपर्यायका उपादान कारण गुण होता है। उस गुणके पूर्व समयवर्ती पर्यायों में मिथ्यापन लगा हुआ है । यह मिथ्यापन उत्तर पर्यायोंके उत्पन्न होनमें प्रयोजक नहीं है । उष्ण कलिकासे उण्टा काजल होजाता है। यहां उष्णता पर्याय शीतमै कारण नहीं है । कारण तो स्पर्श गुण है। हम क्या करें । उस समय स्पर्श गुणका उur परिणाम था । मूर्खसे पण्डित हो जाता है। यहां पण्डिताईका कारण मूर्खता नहीं है । किंतु चेतनागुण है । उसका पूर्व में कुज्ञान या अज्ञान परिणाम है। विशिष्ट क्षयोपशम होनेसे वही चेतना गुण पण्डिताई रूप परिणत हो जाता है । तेल मले ही सोनके पात्रमें हो या मिट्टी के पात्रमें, कलिकाका केवल तेल के साथ उपादान उपादेय भाव है। मिथ्यानानानन्तरभावित्वाभावे च सत्यज्ञानस्य सत्यज्ञानानन्तरमावित्वं सत्यासस्यज्ञानपूर्वकत्वं वा स्यात् ? प्रथमकल्पनायां सत्यज्ञानस्यानादित्वप्रसंगो मिथ्याज्ञानसन्ता . 80
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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