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________________ १७२ तस्वाचिन्तामणिः चेम, दर्शनोत्पत्तेः पूर्व श्रुतज्ञानस्य मत्यवधिज्ञानयोरू अनाविर्भावात् मत्यज्ञानभुतासानविभङ्गज्ञानपूर्वकत्वात् प्रथमसम्यग्दर्शनस्य, न च तया तस्य मिथ्यात्वप्रसङ्गः सम्यग्ज्ञानस्यापि मिथ्याज्ञानपूर्वकस्य मिथ्यात्वप्रसक्तः। . यहां आक्षेपककी शंका है कि इस प्रकार पूर्ण श्रुतज्ञान या मनःपर्यय ज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञानके कारण बन जानेसे भी दर्शनको ज्ञानकी अपेक्षासे पूज्यपना मानोगे, तब तो विशिष्ट सम्यम्दर्शनका कारण बन जानेसे भी ज्ञानको दर्शाती लपेक्षा गप्न मागो। योनि पापोत्रो जलन हुभा सम्यग्दर्शन श्रुतज्ञानरूप कारणसे उत्पन्न हुआ है और स्वभावसे (परोपदेशातिरिक्त कारणोंसे) होनेवाला सम्यग्दर्शन भी अपनी आत्मा विद्यमान होरहे मतिज्ञान और अवषिशान रूप कारणसे उत्पन्न हुआ है । अत: फिर मी ज्ञानको पूज्यता आती है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहो सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके पहिले श्रुतज्ञान अथवा मतिज्ञान या अवधिज्ञान ये मगट ही नहीं होते हैं। मति, श्रुत और अवधि ये तीनों सम्यग्ज्ञानके भेद है। पहिले ही पहिले भन्यजीवको जो सम्यग्दर्शन होता है वह कुमति, कुश्रुत अथवा विभङ्गज्ञान पूर्वक ही होता है। सम्यग्दर्शनके प्रथम होनेवाली जानकी पर्याय मिथ्यादर्शनके सहचारी होने के कारण मिथ्याज्ञान रूप हैं। एतावता कोई यों कहे कि तब तो उस प्रकार मिथ्याज्ञान पूर्वक उत्पन्न हुए उस निसर्गर और अधिगमज सम्यग्दर्शनको मी मिथ्यापनका प्रसंग आठा है, सो कहना भी युक्त नहीं है । क्योंकि यो तो मिथ्याज्ञानपूर्वक हुए सम्यग्ज्ञानको भी मिथ्यापनका प्रसंग हो जावेगा। जब कमी प्रथम ही प्रथम सम्याज्ञान हुआ है, उसके पहिले मिथ्याज्ञान अवश्य था । असिद्ध अवस्थासे ही सिद्ध अवस्था होती है । चौदहवें गुणस्थानके अंतिमसमयवाले सकर्मा जीथ ही एक क्षण बाद अकर्मा हो जाते हैं। मूर्ख ही विद्वान् बन जाते हैं। कीचसे कमल होता है और अशुद्ध खातसे शुद्ध अन्न फल आदि उत्पन्न हो जाते हैं । अतः मिथ्यावर्शन और मिथ्याज्ञान ही कारण मिलनेपर अग्रिम क्षणमे सम्म. ग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप परिणत हो जाते हैं, कोई बाधा नहीं है। . सत्यज्ञानजननसमन्मिध्याज्ञानात्सत्यज्ञानत्वेनोपचर्यमाणादुत्पनं सत्यशानं न मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते मिथ्यात्वकारणादृष्टाभावादिति चेत्, सम्यग्दर्शनमपि तास्मान्मिथ्याशानादुपजातं कथं मिथ्या मसज्यते, तत्कारणस्य दर्शनमोहोदयस्याभावात् । देखिये, मिथ्याज्ञान दो प्रकारके हैं। एक उत्तरक्षणमे मिथ्यात्वको पैदा करनेवाले और दूसरे उत्तरक्षणेम सम्यग्ज्ञानको पैदा करनेवाले । जो सम्याज्ञानको पैदा करनेवाले हैं उन मिथ्याज्ञानोंको उपचारसे सम्यग्ज्ञानपना माना जाता है। कार्यके धर्म कारणमै आरोपित कर दिये जाते हैं। चौदहवें गुणस्थानको अन्तिम सर्भ अवस्था भी अकर्मरूप व्यवद्धृत होती है। पण्डित और वकीलका मूर्ख पिता भी व्यवहार, पण्डित और कुशल कहा जाता है। अत: सस्प
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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