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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः वाऽसत्त्वेन निश्चितः साध्याविनाभावित्वाद्धतुरेवेति चेत् सपक्षे सत्यसवि वा सत्वेन निर्णीतो हेतुरस्तु तत एव । यदि सपक्षके सर्वथा न होनेपर तो सपक्षमें न रहनेको गुण माना जाय और सपके होनेपर सपक्षावृत्तिवको दोष माना जाय तब तो विपक्ष तालाव आदिके विद्यमान रहनेपर धूम आदि हेतुके न रहनेका निश्चय भी धूम आदिकके निश्चयरूपसे सद्धेतुपनेको सिद्ध न कर सकेगा, कारण कि आपका सत्व हेतु भी तो विपझमें नहीं रहता है, जब सबका ही पक्ष कर रखा है, ऐसी दशा विषक्ष कोई नहीं है । इसपर बौद्ध यदि यह कहेंगे कि विपक्ष होवे चाहे न होवे, उसमें अवृत्तिपनेसे निश्चित जो हेतु है, वह साध्य के साथ अविनाभावसंबन्ध रखता है, इस कारण सद्धेतु ही है, ऐसा कहनेपर हम जैन भी कह सकते हैं कि उस ही कारण सपक्ष होबे चाहे न होवे, उसने ( पक्षके भीतर भी) वृचिपनसे निर्णय किया गया श्रावणत्व हेतु भी साध्यके साथ अविनाभावरूप व्याप्ति रखनेसे ही समीचीन हेतु होना चाहिये, भले ही यह पक्षसे बहिर्भूत सपक्षमै न रहे । इस प्रकरणमे अन्यवादियोंका आग्रह यह है, कि पझसे सर्वथा भिन्न ही सपक्ष होना चाहिये किन्तु हमारा मत है कि पक्षका अन्तरा भी सपक्ष हो सकता है ॥ सपक्षे तदेकदेशे वाऽसन् कथं हेतुरिति चेत्, सपक्षे असम्भव हेतुरित्यनवधारणात् । विपक्षे तदसत्वानवधारणमस्त्वित्ययुक्तं साध्याविनामावित्वव्याघातात् । नैवं सपक्षे तदसदाननधारणे. व्यापाता कश्चित् ।। बौद्ध कहते हैं कि निश्चितसाध्य वाले संपूर्ण सपोमे या उसके एकदेशरूप किसी दृष्यान्तमें न रहता हुआ हेतु कैसे अच्छा हेतु होसकता है ? इसपर आचार्य कहते हैं कि सपक्षमें हेतु नहीं ही रहना चाहिये, ऐसा तो नियम किसीने नहीं किया है अर्थात हेतु सपक्षमें रह जाय तो अच्छा और यदि न रहे तो भी हानि नहीं है। "ऊपरके देशमै पानी वर्ष चुका है क्योंकि नीचेके प्रान्त नदीका प्रवाह बढ गया है। इस अनुमानका हेतु पक्ष, सपक्ष, दोनों में नहीं रहता है तथा "जीवित पुरुषोंके शरीर आत्मासे, सहित है, श्वासउच्छ्वास और शरीर, इन्द्रिय आदिमें विशिष्ट चेष्टा होनेसे" इस अनुमान हेतु सपक्षमें सर्वथा बिल्कुल नहीं रहता है, क्योंकि पूर्व अनुमानमें कानपुर पक्ष है, बनारसमें गमाका पूर बढना हेतु है, वृष्टि होना साध्य है । यहां बरसते समय गृहकी छत, गली आदि सपक्ष हैं यहां हेतु नहीं रहता है । दूसरे अनुमानमें सर्व ही जीवितशरीरोंको पक्ष बना रखा है। "पर्वत आगवाला है घूम होनेसे। यहां हेतु पक्ष सपक्ष दोनोंमें रहता है । उक्त तीनों हेतु सद्धेतु माने गये हैं, अतः सपक्षमै न रहनेका ही नियम करना आवश्यक नहीं है । यदि यहां कोई इस प्रकार कहे कि साध्यके अभाववाले विपक्षमें भी हेतुके अवर्तमानपनेका नियम मत करो आचार्य कहते हैं
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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