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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः commar....... कि सर्वज्ञका विशदज्ञान भी इन्द्रियोंसेही जन्य है, अतः इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखना यह हेतुका विशेषण पक्षमें न रहनेसे असिद्ध है। आचार्य कहते हैं कि वह ऐसा कहनेवाला भी परीक्षक नहीं है । क्योंकि इन्द्रियोंसे पैदा हुए ज्ञानके द्वारा त्रिलोक, त्रिकालके संपूर्ण पदार्थाका स्पष्टरूपसे प्रत्यक्ष नहीं होसकता है, असम्भव है । सुनिये धर्मद्रव्य, पुण्य, पाप, क्षौर समुद्र, रामचंद्र आदिके साथ आधुनिक पुरुषोंकी इन्द्रियोंका सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि आपके मतानुसार इन्द्रियोंके द्वारा उसी पदार्थका प्रत्यक्ष माना गया है, जिसके साथ इन्द्रियोंका विना व्यवधान लिये हुए साक्षात् संबंध हो या व्यवधान डालकर परम्परासे संबन्ध हो । तिनमें यहां धर्मादि पदार्थो के साथ इन्द्रियोंका वह साक्षात् संबन्ध तो युक्तही नहीं है । जैसे कि घट, पट, मूमि, वायु, जल, आत्मा आदिक द्रन्य पदार्थोसे चक्षुइन्द्रियका साक्षात् संयोगसंबंध माना है क्योंकि आपके मतभे इंद्रियां द्रव्यरूप मानी गयी हैं । पर्शनेन्द्रिय वायुकी, रसना जलकी, प्राण पृथिवीद्रन्यकी और आंखे तेजोद्रव्यकी बनी हुई हैं । कर्ण आकाश व्यरूप है तथा प्रत्येक आत्माके पास परमाणुके बराबर मनइंद्रिय स्वतंत्र नौमां द्रव्य है । और द्रव्यका दूसरे द्रव्यसे संयोगसंबंध इष्ट किया है । पृथ्वी आदिक अवयवी द्रव्योंके समानधर्म, परमाणु आदिका इंद्रियोंसे साक्षात्संबन्ध होना युक्त नहीं है । और रूपके साथ आपने संयुक्त समवाय सन्निकर्म माना है, चक्षुस संयुक्त घट है, और घट रूप समायसंबंधसे वर्तमान है, अत: चक्षु इंद्रियका रूपके साथ संयुक्तसमवायसंबंध है यह परम्परासंबंध है । तथा रूपत्वके साथ चक्षुका आपने संयुक्तसमवेतसमवाय संबंध माना है, यहां भी चक्षुका रूपत्वके साथ दूसरोंकी परम्परा लेकर संबंध है । चक्षुसे घटसंयुक्त है, भटमें समवायसनधसे रूप रहता है, और रूपमें रूपवजाति समवायसंबंधसे रहती है, अतः चक्षुका रूपत्वके साथ संयुक्तसमवेतसमवाय संबंध है। यों चक्षुका रूप, रूपत्वके समान धर्म आदिकके साथ इंद्रियोंका परम्परासे भी संबंध नहीं है क्योंकि आप नैयायिकोंने पुण्य, पाप, परमाणु आदिको अनुमानप्रमाणसे जानने योग्य कहा है, वे बहिरंग इंद्रियोंके गोचर नहीं हैं । प्रत्यक्षके उपयोगी चक्षु संयुक्त उद्धृतरूपसे अवच्छिन्न और महत्वावच्छिन्न विशेषण आपने दे रक्ख हैं धर्भ आदिमें उद्भूतरूप नहीं है । और परमाणुनै महत्त्व नहीं है। योगजधर्मानुगृहीतान्यक्षणि सूक्ष्माद्यर्थे धर्मादौ प्रवर्तन्ते महेश्वरस्येत्यप्यसारं, स्वविषये प्रवर्त्तमानानामतिशयाधानस्यानुग्रहत्वेन व्यवस्थितेः, सूक्ष्माद्यर्थेऽशाणामप्रवर्तनाचदपटनात् । यदि पुनस्तेषामविषयेऽपि प्रवर्तनमनुग्रहस्तदैकमेवेन्द्रियं सर्वार्थ ग्रहीप्यताम् । वैशेषिक कहता है कि चित्तकी वृत्तिको एक अर्थमें रोकनारूप समाधिसे पैदा हुए पुण्य विशेषको सहकारी कारण लेकर महान ईश्वरकी चक्षुरादिक इन्द्रियाँ पुण्य,पाप, परमाणु, स्वर्ग, राम, रावण, सुमेरु आदि सूक्ष्म, व्यवहित आदि अथोंके जानने प्रवृत्ति करती हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह भी वैशेषिक, नैयायिकका कहना साररहित है क्योंकि अनुग्रह करनेवाला सहकारी कारण वह
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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