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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १.१ शीतं जलमित्याधुपदेशेनाक्षापेक्षेणावितथेन व्यभिचारोऽनुपचरिततत्साक्षात्कर्टपूर्वकस्वस्य साध्यस्याभावेऽपि भावाद वितथत्वस्य हेतोपचारतस्त्रात्साक्षात्कर्टपूर्वकत्वसाधने स्वसिद्धान्तविरोधात्, तत्सामाम्यस्य साधने स्वाभिमतविशेषसिद्धौ प्रमाणान्तरापेक्षणात्यकतानुमानवैयपित्तिरिति न मन्तव्यमक्षानपेक्षत्वविशेषणात् ।। सर्वज्ञके साधक हेतुमें पड़े हुए इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले हेत्वंशके प्रयोगकी सफलता दिखलाते हैं कि जल ठण्डा है, पौण्डा मीठा है, फूल सुगन्धित है, वस्तु शुक्ल है इत्यादि उपदेश भी इंद्रियोंकी अपेक्षा रखते हुए सत्य हैं किन्तु मुख्यप्रत्यक्षरूप केवलज्ञानसे जानकर उनका उपदेश नहीं दिया गया है । अतः पहिले मुख्यपत्यक्षसे उनका साक्षात् कर पुनः उपदेश देना-स्वरूप साध्यके न रहनेपर भी हेतुके रह जामसे व्यभिचार दोष है । यदि जैन लोग व्यभिचारके दूर करनेके लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्षसे जाननेवाले धक्ताको कारण मानकर ठण्डा पानी दि उपदेशमि साध्यको सिद्ध करोगे तो जैनोंके सिद्धान्तसे विरोध हो जावेगा । कारण कि इस अनुमानमें साध्यदलमें मुख्य प्रत्यक्षके द्वारा जानकर सूक्ष्म आदिक पदार्थोके उपदेश देनेका सिद्धान्त किया गया है । इंद्रियमत्यक्षसे जानकर उपदेश देने में वह सिद्धान्त बिगडता है। अर्थात् सर्वज्ञके भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका प्रसंग आता है जो कि जैनोंको अनिष्ट है । यदि उन इंद्रियप्रत्यक्ष और मुख्यप्रत्यक्षमें रहनेवाले सामान्य प्रत्यक्षसे जानकर वक्ता उपदेश दे देता है अर्थात् साध्यके शरीरमें पडे हुए प्रत्यक्षका खुलासा न कर सामान्य प्रत्यक्षसे जानकर उपदेश दे देनेकी सिद्धि इष्ट करोगे तो एसे सामान्य साध्यसे सामान्यरूपसे प्रत्यक्ष करनेवाले वक्ताकी ही सिद्धि हो सकती है किन्तु आपको अपने केवलज्ञानी सर्वज्ञ, रक्ताकी सिद्धि इष्ट है । इसके लिए दूसरा प्रमाण कहना अपेक्षणीय पड़ेगा। प्रकरणप्राप्त अभीका दिया हुआ सामान्य प्रत्यक्षसे जानकर उपदेश करनेको साधनेवाला अनुमान व्यर्थ पडेगा । इसपर प्राचार्य कहते हैं कि हमारे हेतुमें इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं रखनारूप विशेषण पड़ा हुआ है और शंकाकारने इंद्रियोंके द्वारा हुए प्रत्यक्षको कारण मानकर उत्पन्न हुए उपदेशमें हेतुको रखकर साध्यका न रहनारूप व्यभिचार दिया था यों वह व्यभिचारका प्रसंग नहीं मानना चाहिए, क्योंकि यहां हेतुका अज्ञानपेक्षत्व विशेषण नहीं घटा है । अतः मुख्यपत्यक्षसे जानकर उपदेश दनापन साध्य भी नहीं है । साध्य भी न रहा, हेतु मी नहीं ठहरा व्यभिचार दोष टल गया । सर्वज्ञविज्ञानस्याप्यक्षजत्वादसिद्धं विशेषणमित्यपर!, सोऽप्यपरीक्षक, सकलार्थसाधाकरणस्याक्षजज्ञानेनासम्भवात्, धर्मादीनाम:रसंबन्धात्, स हि साक्षान युक्तः पृथिध्यायनयविवत् , नापि परम्परया रूपरूपत्वादिवत् स्वयमनुमेयत्ववचनात् । यहां अन्यबादी अलौकिक सन्निकर्ष के द्वारा योगिप्रत्यक्षको माननेवाला नैयायिक कहता है
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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