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वस्वाचिन्तामणिः
ततो न निश्चितामानाद्विना तत्वपरीक्षणं । ज्ञाने येनाद्वये शून्येन्यत्र वा तत्प्रतन्यते ॥ १६०॥ प्रमाणासंभवायत्र वस्तुमात्रमसंभवि । मिथ्यकांतेषु का तत्र बंधहेत्वादिसंकथा ॥ १६१ ॥
तिस कारणसे सिद्ध हुआ कि निश्चित किये गये प्रमाणके विना तत्त्वोंकी परीक्षा करना नहीं बनता है, जिससे कि संवेदनाद्वैतमें अथवा शून्यवादमे या और भी अन्य उपप्लववाद, अमाद्वैत, आदि सम्प्रदायोंमें उस सत्त्वपरीक्षा करनेका विस्तार हो सके। भावार्थ-जो प्रमाणतत्वको ही नहीं मानते हैं, वे दूसरोके तत्वोंकी लम्बी, चौही, परीक्षा क्या करेंगे ? तथा बिन झूले एकांत वादोंमें प्रमाणतस्वके न होनेसे सभी वस्तुएं असंभव हो रही हैं, उन अवस्तुभूत झूठे एकान्तों में बन्ध, मोक्ष, बन्धके कारण, मोक्षके कारण, आदिकी मले प्रकार पालोचना करना भला क्या हो सकता है ? अर्थात् असवाद या शून्यवाद आदि एकान्ता प्रमाणतत्त्वको माने विना परीक्षा करना, विचार करना, शास्त्रार्थ करना और निर्णय करना, नहीं बन सकते हैं। घृत, मेवा, शकर, दुग्ध, अन्नके विना कुशल रसोइया भी मोदक आदि अनेक स्वाय व्यजनोंको नहीं ना सकता है। संसार भरमै सम्पूर्ण तत्त्वोंकी व्यवस्थाके दादागुरु प्रमाण ही है। उसको स्वीकार किये विना कोई भी कार्य या विचार नहीं सम्पादित होता है।
प्रमाणनिष्ठा हि वस्तुव्यवस्था तमिष्ठा बन्धहेत्वादिवार्ता, न च सर्वथैकान्ते प्रमाण संभवतीति वीक्ष्यते ।
वस्तुओंकी व्यवस्था करना निश्चयकर प्रमाणके' आधीन होकर स्थित है । और अब जीव, पुद्गल, आदि वस्तुपं व्यवस्थित हो जायेगी, तब उनके आश्रित होकर बन्ध, बन्धके कारण आदि तत्वोंकी श्रद्धापूर्वक चर्चा करना व्यवस्थित होगा। किन्तु सर्वथा एकान्तपक्षमे प्रमाणतत्व नहीं सम्भवता है, ऐसा देखा जारहा है । अर्थात् प्रमाण नहीं तो बस्तुएं नहीं और जब वस्तुएं ही नहीं है तो बन्ध मिथ्याज्ञान, तत्वज्ञान आदिकी कथा करना भी असंभव है । इसको आगे भी स्पष्ट कहा जावेगा।
स्यावादिनामतो युक्तं यस्य यावत्प्रतीयते।। कारणं तस्य तावत्स्यादिति वक्तुमसंशयम् ॥ १६२ ।।
- - -- -- * " वक्ष्यते " पाठ अच्छा दीखता है।