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________________ तस्वाचिन्तामणिः १२९ स्वतस्तन्निश्चये हि बहिरंगो हेतुरभ्यासादिः, परतोऽनभ्यासादिः अंतरंगस्तु वदावरणक्षयोपशमविशेषः संमतीयते। जब ज्ञानमें उस अबाधितपनेका अपने आपसे निश्चय हो रहा है तब पहिरंग कारण तो अभ्यास, प्रकरणसुलमला, आदि है । और अंतरंग कारण उस निश्चयको रोकनेवाले भानावरणका विशिष्ट क्षयोपशम, बुद्धिचातुर्य, कुशलता, आदि हैं । तथा अनभ्यास दशाम दूसरोसे शानमें जब भवाधितपना जाना जाता है, वहां बहिरंग दुसरा पदार्थ, अनभ्यास, स्थूलदृष्टि होना, भोपन, . अवान्तर विशेष धोका निर्णय न कर सकना, आदि हैं । और अंतरंग कारण ज्ञानावरण कर्मका साधारण क्षयोपशमविशेष, स्थूल बुद्धिपना, आदि। भले प्रकार जाने जा रहे हैं, अपने परिचित ऊंचे नीचे सोपान ( जीना, नसैनी) परसे अभ्यासवश अंधेरेमे भी मनुष्य चढ उत्तर बासा है, और अनभ्यास दशाम सीधे, चिकने, जीने परसे चढना उत्तरना भी कठिन हो जाता है । बालक मी अपने परिचित पोखराम आंख भींचकर घुस जाता है । किंतु अपरिचित स्थलों में दक्ष मी साशंगा हो जाता है। तदनेन स्वमस्य वाध्यमानत्वनिश्चयेप्यन्योन्याश्रयानवस्थाप्रतिक्षेपः प्रदर्शित, इति स्वमसिद्धमसिद्धमेव, तद्वत्संतिसिद्धमपीति न तदाश्रयं परीक्षण नाम । जैसे दोषोंका निराकरण करके अस्वम ज्ञानके अबाधितपनेका स्वतः और परस: निश्चय हो जाता है, उस ही प्रकार इस उक्त कथन करके स्वामके वाध्यभानपनेके निश्चय करनेमें भी अनवस्था और अन्योन्याश्रय दोषोंका खण्डन कर दिखाया जा चुका है। अर्थात् ज्ञानमें स्वमपनेका निश्चय कब होवे, जब कि उसमें बाधितपना जान लिया जावे और बाधितपना कम जाना जाये, जब कि स्वमपना जाना लिया जावे। यह अन्योन्याश्रय हुआ। और अन्य ज्ञानोंसे स्वमको बाधितपनेका निश्चय किया जावेगा तो उस अन्यको तीसरे, चौथे, आदिसे बाधितपना आना जावेगा। इस प्रकार अनवस्था होती है। किंतु ये दोनों दोष अनेकांत महमें नहीं होते हैं। क्योंकि एक चंद्रमें विचंद्रज्ञान, शुक्तिमे चांदीका ज्ञान आदिको अभ्यास दशा अपने आप और अनभ्वास दशा दूसरोंसे बाधित्तपना जाना जा रहा है। यहां मी अंतरंग और पहिरंग कारणोंसे मिल २ प्रकारके ज्ञानोंका बाधिवपना निीत किया जा रहा है, इसमें कोई संशय नहीं है। इस प्रकार स्वमसिद्ध जो पदार्थ है वह असिद्ध ही है। उस होके समान झूठे व्यवहारसे कल्पना कर कोटी देर के लिये सिद्ध कर लिया गया पदार्थ भी असिद्ध ही है। इस कारण उस असिद्ध पदार्थका आश्रय करके आप संवेदनाद्वैतवादी कैसे भी परीक्षण नहीं कर सकते हैं। अतः १३८ वीं कारिकामे कपित की हुई अनादिकालकी अविद्याके द्वारा परीक्षा करनेका उपक्रम करना प्रशस्त नहीं हुआ। झूठी कसौटी या कल्पित अमिसे स्वर्णकी परीक्षा नहीं हो सकती है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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