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तत्त्वाभीचन्तामणिः
निश्चय अन्य तीसरे अस्वमज्ञानसे होगा और उस तीसरेका भी अबाधितपना न्यारे चौथे अस्वभ ज्ञानसे निर्णय जाना जावेगा । जबतक ज्ञानों में अबाधितपना न जाना जावेगा तबतक वह ज्ञान निश्चायक नहीं हो सकता है । अतः आकांक्षा बढती आवेगी । इस प्रकार अनवस्था दोष हो जानेसे किसी भी ज्ञानके अबाधितपनेका निश्चय नहीं हो सकेगा | इस प्रकार जैनियोंके ऊपर दो दोष आते हैं। ऐसा कोई कह रहे हैं। अब ग्रंथकार कहते हैं कि सो उन ज्ञानाद्वैतवादियों का वह कहना युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि जो समीचीन कार्य होते हुए देखे जा रहे हैं वहां अनवस्था आदि शेष कैसे भी लागू नहीं होते हैं। किसी आत्मामें तो ज्ञानके अबाधितपनेका निश्चय स्वतः हो रहा है और कहीं स्वयं निर्णीत अवाधितपनेवाले दूसरोंसे ज्ञानमें अवाधितपना जाना जा रहा है । ऐसी दशा में अन्योन्याश्रम और अनवस्था दोष नहीं उतरते हैं। जिसमें ये दोनों दोष आ रहे हैं, वह कार्य हो ही नहीं सकता है और जहां कार्य सम्पादन हो रहा है, वहांसे ये दोनों दोष अपना मुंह मोड़ लेते हैं। या तो दोषोंका बीज ही मिट जाता है या वे दोष गुणरूप हो जाते हैं। कार्य सफल हो गया । दोष देनेवाले व्यर्थे बकते रहो, कोई क्षति नहीं पडती हैं । प्रकृत में तो उन दोषोंकी सम्भावना ही नहीं है I
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न च कचित्तविये सर्वत्र स्वतो निश्चयः परतोऽपि वा कचिनिर्णीत सर्वत्र परत एव निर्णीतिरिति चोद्यमनवयं हेतुद्रयनियमाश्चियम सिद्धेः ।
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कहीं अभ्यस्त दशामें अपने आप ही स्वसामग्री से ज्ञानके अबाधितपनेका निश्चय हो जानेपर वो सभी अभ्यास और अनम्यास स्थलों में ज्ञानके अवाध्यखका अपने आपसे निश्चय हो जावेगा, ऐसा कुतर्क करना अच्छा नहीं है । यों तो दीपक और सूर्यके अपने आप प्रकाशित होनेके सम्मान घट, पट आदिको मी अपने आप प्रकाशित होना बन जावे | अभि जैसे स्वभावसे उष्ण है, जल भी स्वभावसे उष्ण हो जाये। किंतु ऐसा नहीं होता है । अतः वह चोध उठाना प्रशस्त नहीं है | तथा अनभ्यस्तदशामें भी दूसरे कारणोंसे किसी किसी ज्ञानमें अबाधितपनेका निर्णय हो जानेपर सभी अभ्यास, अनभ्यास स्थलों में परसे ही अवाधितपना परिज्ञात किया जावेगा, यह भी कुतर्क निर्दोष नहीं है । यों तो बैलगाडी दूसरे बैलोंसे चलायी जाती है तो बैल
किन्तु इसके विपरीत जाते हैं। यों अंतरंग
भी अन्य तीसरे बैलोंसे चलाये जाने जाहिये । घट दूसरे दीपकसे प्रकाशित होता है तो दीपक भी अन्य दीपकसे प्रकाशित होना चाहिये । कोई पदार्थ तो स्वतः और अन्य पदार्थ दूसरों से परिणामी होते हुए देखे और बहिरंग दोनों कारणोंके नियमसे सभी पदार्थोंके न्यारे न्यारे प्रकार के परिणामों के होनेका नियम सिद्ध है | अतः आकाश नीरूप है तो पर्यंत मी रूपरहित हो जावे । और यदि पर्यंत स्पर्शवान् है तो आकाश भी स्पर्शयुक्त हो जाओ, ऐसे प्रत्यवस्थान उठाना ठीक नहीं है। अपने अपने उमय कारणों से पदार्थों के स्वभाव नियत हैं। " स्वभावोऽतर्क गोचरः " है ।
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