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________________ तपासवासालगिः ६२७ अवगाहन, आदि क्रियाओंसे पहिले ज्ञानका अबाध्यपना मान किया जाता है। यदि शीत वायुके सर्शन प्रत्यक्षके या फूलोकी गंधके प्राणजप्रत्यक्षके अबाधितपने ही संशय हो जावे, उस तीसरे ज्ञानसे इनका अबाधितपना निणींस कर लिया जावेगा, जिसका कि अबाधितपना स्वयं निर्णीत हो चुका है । अतः वहां दूसरोंसे अबाधितपना निर्णय करनेमें अनवस्था नहीं है । पयोंकि प्रमाणज्ञानके पैदा करनेवालोंको तीसरी, चौथी, कोटीमें स्वयं अबाधित ज्ञान मिल जाता है। ऐसा कोई ठलुआ नहीं बैठा है जो कि निश्चयके लिये व्यर्थ ही संदिग्ध ज्ञानोंको उठाता फिरे | 6मा स्नान, पान, अवगाहन, आदि क्रियाओंसे जलझानमें अबाधितपना नाना आये और स्नान आदिकके ज्ञानमें जलझानसे अबाधितपना जाना जावे, इसप्रकार वहां अन्योन्याश्रयदोष देना भी ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तरकालमें होनेवाली अर्थक्रियाओंसे पूर्वकाल के ज्ञानका अबाधिसपना जाना जा रहा है। उन अर्थक्रियाओं में भी यदि संशय हो जावे तो उन क्रियामों में अबाधितपना अन्य संवादकोसे निर्णीत कर लिया जाता है। और जब जानोंमें अभाषितपनके निश्चय हो रहे हैं, सब वे कार्य ही अन्योन्याश्रय और अनवसा दोषोंका खण्डन कर देते हैं । फिर कार्य होते हुए भी व्यर्थ अनवस्था आदिक दोषोंका उठाना अपने आप ही अपनेको ठगना है। बाधारहितोऽस्वमो माध्यमानस्तु वम इति तयोर्भेदोन्वीक्ष्यते, नान्यथा । जो बाधाओंसे रहित है, वह अस्वम है और जो बाध्यमान है, वह तो स्वप्न है। इस प्रकार उन दोनों में भेद भली रीतिसे देखा जा रहा है। दूसरे प्रकारोंसे उनका भेद नहीं हो सकता है । अतः संवेदनाद्वैतवादियोंको अनेकांत मतानुसार ही संवृत्तिपना और वास्तविकपना स्वीकार करना पडा, अन्यथा व्याघात दोष होगा। ननु चास्वमचानस्याबाध्यत्वं यदि अत एव निश्चीयते तदेतरेतराश्रयः, सत्यवाघ्यस्वनिश्चये संवेदनस्यास्वमकृनिश्चयस्तसिन सत्यवाध्यत्वनिश्चय इति परतोऽस्वमवेदनाचस्थावाध्यत्वनिश्चये तस्याप्यबाध्यत्वनिश्चयोन्यस्मादस्वमवेदनादित्यनवस्थानाम कस्यचिदपाध्यत्व निश्चय इति केचित् । तदयुक्तं । कचित्स्वतः कचित्परतः संवेदनस्याषाध्यत्वनिधयेऽन्योन्याश्रयानवस्थानवतारात् । यहां स्वपक्षका अवधारण करते हुये कोई अबाधितपने निश्चयम जैनोंके ऊपर दोष उठा रहे हैं कि जागृत अवस्थामे होनेवाले अस्वप्नज्ञानके अबाधितपनेका यदि इस ही अस्वल संवेदनपनेसे निश्चम किया जायेगा तब तो अन्योन्याश्रय दोष है। जैसे कि--संवेदनको अबाधितपनेका निश्चय होनेपर तो अस्वममें किये गयेपनका निश्चय होवे और उस अस्वममें किये गपेपनका निश्चय से जानेपर अबाधितपने का निश्चय होपे, इस प्रकार परस्पराश्रय दोष हुआ। बदि मकरणमें पड़े हुए उस अस्थम वेदनके अबाध्यपनेका दूसरे भस्वमवेदनसे निश्चय करोगे तो उसके भी अबाधितपनेका
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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