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________________ सार्थचिन्तामणिः ६३१ इस प्रकार माणसे वस्तुभूत पदार्थों को माननेवाले स्माद्वादियोंके मत्तमें बन्ध, बन्धके कारण, मोक्ष, मोक्षके कारण इनकी व्यवस्था करना युक्तियोंसे सिद्ध हो जाता है । जिस कार्यके जितने भी कारण प्रतीत हो रहे हैं, वह कार्य उतने भर कारणोंसे उत्पन्न होवेगा । इस प्रकार संशय रहित होकर दम स्याद्वादी कह सकते हैं। यहां पहिले सूत्रका व्याख्यान समाप्त करते हुए प्रकरण का संकोच करते हैं कि जितने बन्धके कारण है, उतने ही मोक्षके कारण हैं। न तो अधिक हैं और न कमती ही हैं। एक सौ पन्द्रहवीं वार्षिकका यही निगमन है । सूत्रकारके मतानुसार मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इनका त्रय aम्बका कारण है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इनका त्रय मोक्षका कारण है । सूत्रका शह्नबोधप्रणालीसे वाक्यार्थबोध करनेपर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सहित होता हुआ सम्यक्चारित्र ही मोक्षका कारण है, यह भी ध्वनित होता है | इसलिये मोक्षके कारणों में प्रधानपना चारित्रको पूर्णताको प्राप्त है । ऐसा कहने में कोई सन्देह नहीं है । प्रतीत्याश्रयणे सम्यक्चारित्रं दर्शन विशुद्धिविजृम्भितं प्रवृद्धेद्धबोधमधिरूढमनेकाकारं सकलकर्मनिर्दद्दनसमर्थे यथोदितमोक्षलक्ष्मीसम्पादन निमित्तमसाधारणं, साधारणं तु कालादिसम्पदिति निर्बंधमनुमन्यध्वं प्रमाणनयैस्तत्त्वाधिगमसिद्धेः । प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीयोंका सहारा लेकर कार्यकारणभावका निर्णय किया जाता है । प्रकरण भी मोक्षरूप कार्यका कारणपना इस प्रकार आप लोग मानो कि सम्यग्दर्शनकी क्षाणिकपने या परम अवगाढपकी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होरहा, और अनन्तानन्त पदार्थों का उल्लेख ( विकल्प ) कर जाननेवाले बढे हुए दैदीप्यमान केवलज्ञानपर अधिकार करके आरूढ होनेवाला ऐसा सम्यक् चारित्रगुण ही सम्पूर्ण कर्मों के समूल दग्ध करने में समर्थ है और वही चारित्र आम्नायके अनुसार पहिले सूत्र में कही हुयी उस मोक्षरूपी लक्ष्मीके प्राप्त करानेका असाधारण होकर साक्षात् कारण है । भावार्थ - मोक्षका असाधारण कारण तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे युक्त पूर्ण होरहा सम्यक्चारित्र ही है। किंतु सुषम दुःषम या दुःषमसुषम यानी तीसरा या चौथा फाल, कर्मभूमिक्षेत्र, मनुष्यपर्याय, दीक्षा लेना, आदि सामग्रीरूप सम्पत्ति तो साधारण कारण है। इन मोक्षके कारणों की उक्त इतने अंथद्वारा बाधारहित होकर प्रमाणोंसे परीक्षा कर ली गयी है । ही स्वहितैषी एकांत वादियोंको अनुकूल मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए । प्रमाण और नयोंके द्वारा तत्त्वोका यथार्थ ज्ञान होना सिद्ध है । अन्य कोई भी उपाय नहीं है । भावार्थ-लोकमै पदार्थों के परिज्ञानमें प्रमाण और नय विकल्पोंका ही आश्रय लिया जाता है । अथवा पदार्थों का सम्यग्ज्ञान सफलादेश व विकलादेश के बिना अन्य प्रकारसे हो ही नहीं सकता है। इसलिए तत्वपरीक्षकों को प्रमाण नय freevi fis arrest अंगीकार करना ही पढता है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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