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________________ वत्साचिन्तामणिः anPIAN... . . .. . . . . . . . .. . . . . प्रतीतिका अपलाप कोई नहीं कर सकता है । घट आदिकों में व्यक्त होनापन सिद्ध नहीं है । षट आदि पर्याय नवीन उत्पन्न हुयी हैं। न ह्येकांवनश्वरा घटादयः प्रदीपादिभिरभिव्यंग्या नाम नाशकांतेऽभिव्यंग्याभिव्यजकभावस्य विरोधानित्यैकांतवत्, जात्यन्तरे तस्य प्रतीयमानत्वादिति प्रतिपक्षापेक्षया न घटादिभिरनेकांता साधनस्य । __ यदि पीडकि सदृश चावकि मी एकातहठसे घट, पट आदिकोंको सर्वथा नाशशील मानेंगे सो अन्धेरेमें रखे हुए घट, पट आदि पदार्थ कैसे मी पदीप, अभिज्वाला, चंद्रिकासे अभिव्यंग्य न हो सकेंगे, क्योंकि नहीं विद्यमान कार्यके स्वरूप निर्माण करनेवालेको कारकहेतु कहते हैं और पहिलेसे विद्यमान पदार्थक प्रगट करनेवाले हेतुको व्यञ्जक कहते हैं । __ यदि घट एक क्षण में ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जावेगा तो विनाशके एकांसपक्षमै प्रगट होना और प्रगट कर देनापन यह व्यंग्यव्यंजकभाव नहीं बन सकेगा उसमें विरोध होगा । जैसे कि घरको एकांत रूपसे कूटस्थनित्य माननेमें व्यंग्यन्यंजकमाव नहीं बनता है, क्योंकि भनभिव्यक्त अवस्थाको छोड़कर घर अभिव्यक्त अवस्थाको धारण करे, तब कहीं प्रकट होवे । एवं सर्वथा नित्य और सर्वथा भनित्य पक्षके अतिरिक्त कालान्तरस्थायी कथंचित् नित्यानित्यरूप तीसरी जातिवाले पक्षमें ही वह व्यंग्यव्यङ्घकभाव प्रतीत हो रहा है । इस प्रकार चार्वाकोंके प्रतिकूल हो रहे जैनसिद्धांतके मन्तव्यकी अपेक्षासे हमारे हेतुका घट, पट आदिसे व्यभिचार नहीं है। ततः कथंचिच्चैतन्यनित्यताप्रसक्तिभयान शरीरादयश्चिचाभिव्यंजकाः प्रतिपादनीयाः। उक्त समीचीन अनुमानसे चैतन्यस्वरूप आत्मतत्व द्रव्यदृष्टिसे नित्य हो जाता है किन्तु बैतन्यका निस्यरूपसे सिद्ध होना आपको इष्ट नहीं है। उस कारणसे चैतन्यको कथञ्चित नित्यताके प्रसंग होनेके डरसे आपको अपना पहिला पक्ष हटा लेना चाहिये अर्थात् " शरीर, इन्द्रिय और विषय ये मिलकर चेतन आत्मतत्वको प्रगट करनेवाले हैं, यह नहीं समझ बैठना चाहिये " किन्तु यों कहना चाहिये कि शब्दस्य ताखादिवत् तेभ्यश्चैतन्यमुत्पाद्यत इनि क्रियाध्याहाराव्यज्यत इति क्रियान्याहारस्य पौरन्दरस्यायुक्तत्वात् । कारका एव शरीरादयस्तस्येति चानुपपन्नम्, तेषां सहकारित्वेनोपादानत्वेन वा कारकत्वायोगादित्युपदशेयवाह कण्ठ, वाल, ओष्ठ, भाषाणा आदिक जैसे शब्दफे कारक हेतु है । उसी प्रकार उन शरीर इन्द्रिय और विषयोंसे चैतन्म उत्पन्न कराया जाता है। सूत्रमें तेभ्यश्चतन्य “ उनसे चैतन्य " यह क्रियारहिव वाक्य पड़ा है। यहां उनने चैतन्य प्रगट होता है। इस प्रगट होना रूप क्रियाका
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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