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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १०५ लिखी गयी ग्रहणज्ञानके उपयोगी संख्याके अक्षरोंकी विलक्षण पंक्तिको भविष्यका सूर्यग्रहण स्ना देता है, आचार्य कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि भविष्यमे होनेवाले पदार्थको वर्तमान कार्यका कारणपना सिद्ध नहीं हो सकता है। जैसे कि जो कारण अत्यंत दूर भविष्यमें होवो, वे पूर्वकालीन पदार्थोंके जनक नहीं हैं। क्योंकि कार्य करनेके समय वे सर्व प्रकारसे विद्यमान नहीं है। जो कार्यकालमै रहकर कार्यको उपसि कराने .ना है, जो कारण कहते हैं किंतु जो कार्य कालमें सर्वथा भी नहीं है, यह कारण नहीं है । जैसे कि अस्यंत दूरवर्ती भूतकालमें हो चुका कारण विद्यमानकार्यका जनक नहीं है । भविष्यका शंख राजा, भूतकालके ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीको उत्पन्न नहीं कर सकता है । पडबाबाको नाती उत्पन्न नहीं कर पाता है । और इसी प्रकार बहुत समय पहिले हो चुके त्रिपृष्ठ पीछे होनेवाले लक्ष्मणके जनक नहीं हो सकते हैं । किंतु कार्यके अव्यवहित पूर्व समयमें रहकर कृति करनेवालेको ही कारण माना गया है, वाप शब्दके प्रयोग करानेमें बेटा कारण मी हो सकता है। किंतु यहां व्यपदेशका कारण तो माना जा रहा है, मुख्य कारणका विचार हो रहा है, जो कि पहिले नहीं किंतु अब हो रहे कार्यका सम्पादक है। वदन्वयव्यतिरेकानुविधानाचस्यास्तत्कारणत्वमिति चेत्र, सस्यासिद्धेः। न हि र्यादिप्रहृष्णाकारभेदे भाविनि विशिष्टाङ्कमालोत्पद्यते न पुनरभाविनीति नियमोस्ति, तत्काले तता पश्चाच्च तदुत्पत्तिप्रतीते। उस आमालाका ग्रहणके आकारविशेषोंके साथ अन्वय और व्यतिरेक्षका अनुविधान घर जाता है । इस कारण अंकमाला कार्यहेतु हो जावेगी, यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस अन्वयव्यतिरेकका घट जाना सिद्ध नहीं है। सूर्य, चन्द्रमाके ग्रहणका भिन्न भिन्न आकार भविष्यमें होनेवाला है। ऐसा होनेपर ) वह विशिष्ट अंकमाला पट्टीपर लिखी जाकर उत्पन्न होगयी है। किंतु फिर यदि आकारभेद होनेवाला न होता तो ऐसे विशिष्ट अंकोंकी आधली पट्टीपर नहीं उत्पन्न हो सकती थी । इस प्रकारका कोई नियम बनता नहीं है । उस सूर्यग्रहणके कालमें और उससे बहुत पीछे मी लिखने पर पट्टी में यह अंकमाला उत्पन्न हुयी प्रमाणोंसे देखी गयी है, जो कारण है वह अपने समयमै तो कार्यको पैदा नहीं करता है किंतु उत्तरक्षणमे करता है और बहुत देर पीछे मी कार्यको नहीं करता है । अतः यहां अन्नय व्यभिचार और न्यतिरेकव्यभिचार दोष लग जाते हैं । कस्थाश्चिदेकमालायाः स भाविकारण कस्याश्चिदतीतकारणमपरस्याः खसमानकालवर्तिन्याः कारणकार्यमेकसामग्यधीनत्वादिति चेत् , किमिन्द्रजालमभ्यस्तमनेन सूर्यादिग्रहणाकारभेदेन, यतोऽयमतीतानागतवर्तमानाखिलांकमालाः स्वयं निर्वतयेत् । बह ग्रहणका आकार भेद किसी किसी अंकमालाका तो भावी कारण है और किसीका भूत . कारण है तथा याने सनान का होनेवालो अन्य अंकमालाका बह वर्तमान कारण है। यहां
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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