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________________ २९६ सत्यार्थचिन्तामणिः जिस कारण से उक्त कथनानुसार यो अध्यवहितकाल, देशका अभेद और पर्यायोंकी समानता आदि स्वरूप देश, काल, भाव प्रत्यासत्तियोंसे एकसमानरूप मानी गयी स्वलक्षणपर्ययका मी परस्परमें व्यभिचारसंहित कार्यकारणभाव व्यवस्थित नहीं हो पाता है इस कारण से ही तो इस प्रकार प्रत्यासतिसे ही उपादान उपादेयका नियम परिशेषन्याय से सिद्ध है। पर्यायोंमें परस्पर चार प्रकार के संबंध हैं । उनमें क्षेत्र, काल और भाव इन तीन संबंधो में तो व्यभिचार दोष आता है । शेष रह गया द्रव्यसंबंध, उसीसे उपादान उपादेगकी व्यवस्था ठीक बैठेगी। इसी बात को स्वयं आचार्य महाराज दिखलाते है I एकद्रव्यस्वभावत्वात्कथञ्चित्पूर्वपर्ययः । उपादानमुपादेयश्चोत्तरो नियमात्ततः । १८८ ॥ उस द्रव्यप्रत्यासचि अनुसार एक अखण्ड अनि द्रव्यका स्वभाव होनेके कारण पूर्वकालमै होनेवाली पर्याय तो किसी अपेक्षा से उपादान कारण हैं और उससे उत्तरकालम होनेवाली पर्याय नियमसे उपादेय है । देवदत्त जिनदत्तका अखण्ड जीवद्रव्य उसकी हर्ष, विवाद, आदि और पूर्व उत्तर जन्मोंकी असंख्य पर्यायों में अन्वितरूपसे व्यापक है और पुन्नलद्रव्य अपने मिट्टी, अन्न, खात आदि अवस्थाओं में अनादिसे अनंत फालतक ओतप्रोत देखा जा रहा है। वस्तुके प्रमाणों से प्रतीत होरहे इन स्वभाव में कुचोधरूप सर्कणायें नहीं चलती हैं। सिंधुनदीकी धार गंगाकी घारमै अत्र नहीं हो सकती है। जिनदत्तकी कुमार अवस्था देवदत्तकी वृद्ध अवस्थामें संकलित नहीं की जा सकती है। इसी कारण सिद्ध भगवान् के केवलज्ञान आदि गुण सिद्धलोकमे विद्यमान कार्माणवर्गणाओंके रूप, रस, आदिकके साथ एकीभावको प्राप्त नहीं हो सकते है और सिद्धक्षेत्र विद्य मानवात काय के जीवों में लगे हुये कुमतिज्ञानके साथ भी तदात्मक नहीं होते हैं क्योंकि प्रत्येक द्रव्यका अपनी पर्यायोंके साथ ही अमेदसम्बन्ध है ॥ विवादापनः पूर्वपर्ययः स्यादुपादानं कथञ्चिदुपादेयानुयायिद्रव्य स्वभावत्वे सति पूर्व पर्यायत्वात् यस्तु नोपादानं स नैवं यथा तदुत्तरपर्यायः, पूर्वपूर्व पर्यायः कार्यश्व आत्मा वा तदुपादेयाननुयायिद्रव्यस्वभावो वा सहकार्यादिपर्यायी वा । प्रतिवादी विचार में पड़ा हुआ कोई भी पूर्वकालमै रहनेवाला विवक्षित पर्याय ( यह पक्ष है ) कथञ्चित् उपादानकारण है ( यह साध्य है ) क्योंकि किसी अपेक्षासे उपादेय पर्यायोंके पीछे पीछे चलनेवाले द्रव्यका स्वभाव होते संते वह पूर्वकाळकी पर्याय है ( यह हेतु है ) जो उपादान कारण नहीं है। वह तो इस प्रकार उपादेयके अनुयायी द्रव्यका स्वभाव होता हुआ पूर्वपर्यायस्वरूप भी नहीं है। जैसे कि उससे मी उत्तरकाली में होनेवाली पर्याय ( व्यतिरेक दृष्टांत ) अर्थात् विवक्षित
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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