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________________ वर्वनिनागमिः रुप आदि पांच विषयोंको जाननेवाला हेतु रहता नहीं है, अतः नैयायिकोंका आनष्टको आपादन करनेवाला हेतु असिद्ध नामका हेत्वाभास है । दूसरे हम लोगोंके यहां कचौडीके खाने आदिमें रूपादि पांच विषयोंको जाननेवाले एक समयमेंट्टी रूप आदिके पांच ज्ञान होना मानना एकांतरूपसे सिद्ध नहीं हैं । जैनोंका सिद्धांतवचन है कि एक समयमें दो उपयोग नहीं होते हैं, आठ ज्ञानोपयोग और चार दर्शनोपयोग ये चेतना गुणकी यारह पाये हैं । एक समयमें एक गुणकी एकही पर्याय होती है । रासन प्रत्यक्ष, चाक्षुष प्रत्यक्ष ये सब मतिज्ञानके भेद हैं । अतः एक आत्मामें एक समयमें उपयोगरूप अनेक ज्ञान नहीं हो सकते हैं । पर्याय भी परिवर्तनसे होनीवाली क्रमसही होसकेंगी। प्रथम कहीं कहीं दो तीन और चारतक भी ज्ञान एक समयमें स्वीकार किये हैं। वह शक्तिकी अपेक्षासे कथन हैं, जैसे कि अंधे पुरुषमै चाक्षुषप्रत्यक्षावरणका क्षयोपशम होनेसे लब्धिरूप चाक्षुष प्रत्यक्ष है। किंतु अन्धेके उपयोगरूप चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं है । अथवा अष्टसहस्री ग्रंथको जाननेवाले विद्वान्के पढते पढाते समय अष्टसहस्रीका ज्ञान उपयोग रूप है । खाते, सोते, खेलते, समय और इष्टवियोगके अवसर पर उपयोगरूप उसका ज्ञान नहीं है । क्षयोपशम होनेसे केवल शक्तिरूप है, इसी प्रकार बड़ी कचोडी खाते समय उपयोगरूप पांचों ज्ञान नहीं है किंतु चक्रके घूमने के समान अत्यंत शीर उत्तरक्षणमे पैदा होजाते हैं, अतः एक समयमें होते हुए सरोखे दीखते हैं। पांचों ज्ञानोंके आवरण करनेवाले ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम अवश्य है, अतः उपयोग रहित अर्थात् लब्धि रूप पांच ज्ञान क्या पचास मतिज्ञान भी अनेक व्यक्तियोंके जाननेकी शक्तिकी अपेक्षा युगपत् पाये जा सकते हैं । उपयोगरहित ज्ञानोंका शक्तिरूपसे युगपत् हो जाना प्रसिद्ध है। प्रतीतिविरुद्ध चास्याममनोऽनपेक्षत्वसाधनं तइन्वषव्यतिरेकानुविधायितया तदपेक्षस्वसिद्धेरन्यथा कस्यचित्तदपेक्षत्वायोगात् । ततः कस्यचित् सकृत्सूक्ष्माद्यर्थसाक्षात्करणमिच्छता मनोऽक्षानपेक्षमेपितव्यमिति नाक्षानपेक्षत्वविशेषण सूक्ष्माधर्थोपदेशस्यासिद्धम् । और मैयायिकोंकी ओरसे यह हमारे ऊपर कटाक्ष सिद्ध करना कि "कचौडी खाते समय होनेवाले ये पांच ज्ञान भी इंद्रियों की अपेक्षा न रख सकेंगे "। यह आपादान लोकमतीतिसे मी विरुद्ध है। क्योंकि इंद्रियोंके होनेपर पांच ज्ञानोका होना और न होनेपर न होना ऐसे अन्वय व्यतिरेकको रखनेके कारण उन झटिति क्रमसे होनेवाले ज्ञानोंको इंद्रियों की अपेक्षा सिद्ध होजाती है । अन्यथा अन्वय व्यतिरेक रखते हुए भी यदि ज्ञानोंको इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं मानोगे तो किसी भी यानी कमसे होनेवाले अन्य अकेले रूप आदिके ज्ञान में भी उन इंद्रियोंको कारण नहीं मान सकोगे । तिस कारणसे अब तक सिद्ध होता है कि यदि आप किसी पुरुषके एकसमबम सूक्ष्म, व्यरहित, विपकृष्ट, अर्थोका प्रत्यक्ष करना इष्ट करते हो तो वह ज्ञान इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला ही आपको मानना चाहिये । इस प्रकार नौमी चार्तिकमें कहे गये अनुमान दिया गया हेतुका अक्षान
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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