SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः । ..: :: motamannam-2004-01 स्पष्ट कहते हैं । सुनिये “सर्वज्ञका एक समयमें जाननेवाला संपूर्ण पदार्थोंका ज्ञान ( पक्ष ) अंतरंग मन इन्द्रियकी और बहिरंग चक्षुरादिक इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं करता है । ( साध्य } क्योंकि यह ज्ञान एकसमयमें संपूर्ण अर्थाको विशदरूपसे जाननेवाला है। ( हेतु ) इस अनुमान व्यतिरेक व्याप्तिको दिखलाते हुए दृष्टान्त देते हैं कि जो ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें चक्षुरादिक और मन इन्द्रियकी अपेक्षा रखता है वह ज्ञान तो एक समयमें संपूर्ण अाँको स्पष्टरूपसे जाननेवाला नहीं देखा गया है ! जैसे कि हम सरीखे साधारण लोगोंका ज्ञान इन्द्रियोंकी अपेक्षा रखता है, तभी तो संपूर्ण अाँका प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है किंतु यह सर्वज्ञका ज्ञान इस प्रकार संपूर्ण अर्थोंको न जाननेवाला नहीं है, अर्थात् संपूर्ण अर्थोको जाननेवाला है । ( उपनय ) इस कारण इन्द्रियोंकी सहकारिता नहीं चाहता है" । (निगमन ) इस कहे हुए अनुमानसे नैयायिकोंके मनकी अपेक्षाको सिद्ध करनेवाले अनुमानका खण्डन हो जाता है। नन्वेवं "शकुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपञ्चक मनोऽक्षानपेक्षं सकट्ठपादिपञ्चकपरिच्छेदकरवाद्यभव तन्नैव दृष्टं यथान्यत्र कमशो रूपादिज्ञान, न च तथेदमतोऽक्षमनोनपेयम् " इत्यप्यनिष्टं सिद्धयेदिति मा संस्थाः साधनस्यासिद्धत्वात्, परस्यापि हि नैकानेन शष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपंचकस्य सद्रूपादिपंचकपरिच्छेदकत्वं सिद्धम्, सोपयोगस्यानेकज्ञानस्यैकत्रात्मनि क्रमभावित्ववचनात्, शक्तितोऽनुपयुक्तस्य योगपद्यस्य प्रसिद्धेः । यहां नैयायिक पुनः शंका करते हैं कि जैनोंने जिस प्रकार अनुमान द्वारा सर्वज्ञके अनेक अर्थों को जाननेवाले ज्ञान इंद्रियों की नहीं अपेक्षा रखना सिद्ध कर दिया है, उसी प्रकार यह भी अनुमान हो सकता है कि "खस्ता, कचौडी खाने, पापड, चवाने आदिमें पांचों इंद्रियों से रूप, रस, आदिकके जो पांच ज्ञान होते है, बे चक्षु मन आदिकी अपेक्षा नहीं करते हैं (प्रतिझा ) क्योंकि एक समयमें रूप, रस, गन्ध, आदि पांचों विषयों को जान रहे हैं। (हेतु, हम भी व्यतिरेक दृषांत देते हैं कि जो इन्द्रियों की नहीं अपेक्षा रखनेवाला नहीं है, वह एक समयमें अनेकरूप आदि विषयों को जाननेवाला भी नहीं देखा गया है । जैसे कि अन्यस्थलों पर कोमल वस्त्र,मोदक, इत्र, वृक्ष, मृदंगका शब्द आदि दूसरे दूसरे विषयोम कमसे होनेवाले वर्श, रूप, आदिके ज्ञान, अर्थात् ये सब ज्ञान इंद्रियोंकी अपेक्षा रखते हैं । ( उदाहरण ) कचौडी खाते समय होनेवाले ये पांचों ज्ञाम इस प्रकार कम क्रमसे जाननेवाले नहीं है । ( उपनय ) इस कारण पांचों इंद्रिय और मनकी अपेक्षा रखनेवाले भी नहीं हैं" ( निगमन ) इस अनुमानसे उक्त अनिष्टकी भी सिद्धि होजावेगी अर्थात् सर्वज्ञसंबंधी ज्ञानके समान कचौडी खाते समय पांचों ज्ञानोंकी उत्पत्तिमें भी इंद्रियां सहकारी कारण न होसकेगी। यह बात हम तुम दोनोंको अनिष्ट हैं । इस पर आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं मानना चाहिये क्योंकि पापड, कचौड़ी, खाते समय होनेवाले पांचों ज्ञानरूप पक्षमें युगपत्
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy