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सत्ता चिन्तामणिः
जो ज्ञान अपने आप अपने को नहीं जानता है, वह दूसरे वादियों के स्वीकार करने मात्रसे मी इष्ट तत्त्वोंका ज्ञापक नहीं होता है।
यदि नैयायिकोंके सदृश माप चार्वाक यों कहेंगे कि प्रकृत ज्ञान दूसरेसे और दूसरा ज्ञान तीसरे ज्ञानसे संविदित होता हुआ यों वह इष्ट तत्त्वकी चतिका साधक हो जावेगा, आपका यह कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि शानका स्वयंसे वेदन न मान कर दूसरे सीसरे चौक शानोंसे ज्ञप्ति माननेमै अनवखा दोष आता है । स्वयं अन्धेरेमें पड़ा हुआ ज्ञान अपने विषयोंका प्रकाशक नहीं हो सकता है । इसी बातको प्रसिद्ध कर दिखलाते हैं।
संवेदनान्तरणेव विदिताबेदनाथदि खेष्टसिद्धिरुपेयेत तदा स्यादनवस्थितिः ॥ १०५ ॥ प्राच्यं हि वेदनं तावन्नार्थ वेदयते ध्रुवम् । यावन्नान्येन बोधेन बुद्धव्यं सोऽप्येवमेव तु ॥ १० ॥ नार्थस्य दर्शनं सिद्धयेत् प्रत्यक्षं सुरमन्त्रिणः ।
तथा सति कृतश्च स्यान्मतान्तरसमाश्रयः ॥ १०७ ॥
यवि विवक्षिस ज्ञानका तीसरे ज्ञानसे जान लिये गये ही दूसरे शानद्वारा ज्ञान हो जानेपर उससे अपने इष्ट तस्वकी शप्ति होना स्वीकार करोगे तो भूलका क्षय करनेवाला अनवस्था दोष हो जावेगा; जब तक पहिला ज्ञान दूसरेने और दूसरा तीसरेसे तथा तीसरा चौबेसे इसी मकार आगेके भी शान उतरवर्ती ज्ञानोंसे ज्ञात न होंगे तब तक अपकाशित ज्ञान प्रकृत विषयोंका प्रकाशन नहीं कर सकेंगे। देखिये पहिला ज्ञान तब तक निश्चित रूपसे अर्थकी शशि कथमपि नहीं कर सकता है, जब तक कि वह दूसरे छानसे स्वयं विदित न हो जाय । इसीपकार आगेके वे शान भी भविष्य दूमरे ज्ञानोंसे ज्ञात होकर ही विषयके ज्ञापक हो सकते हैं । इसपकार तो अनवसा हो आनेसे बृहस्पति ऋषिके अनुयायी चावीकके मतम माना गया पृथ्वी आदि पदार्थोंको देखनेवाला अकेला प्रत्यक्ष प्रमाण भी सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह मत्यक्ष स्वयं अपनेको जानता नहीं है मौर प्रत्यक्षको जाननेवाला दूसरा ज्ञान चार्वाकने इष्ट नहीं किया है । जो ज्ञान स्वयं जाना नहीं गया. है वह दूसरोंका शापक नहीं होता है। यदि वैसा होनेपर दूसरे ज्ञानोंसे पहिले ज्ञानको ज्ञात मानोगे तो आपको नैयायिकके मतका बदिया सहारा लेना पड़ा।
अर्थदर्शन प्रत्यक्षमिति बृहस्पतिमत परित्यज्यैकार्थसमवेतानन्तरज्ञानवेयमर्पज्ञानमिति हृवाणः कथं चार्वाको नाम ।