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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः 1 नहीं मानते हैं । जैन, नैयायिकों के स्वीकार किये गये प्रमाण आदि पदार्थोंसे उन्हींके आत्मा, परलोक, ज्ञान, आदि तत्वोंका खण्डन करते हैं । हम चैतण्डिक हैं, बादी नहीं, वितण्डा करनेवाला केवल परपक्षका खंडन करता है । अपने पक्षकी सिद्धि नहीं, "स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा " ( गौतम सूत्र ) इस प्रकार शून्यशदीके इस मन्तव्यपर हम जैन पूंछते हैं कि वह दूसरोंका प्रमाण, आत्मा आदि तत्वोंका स्वीकार करना यदि आपके मतानुसार घोडेके सींग के समान अलीक शून्यरूप है, तब तो उन दूसरोंके प्रमाण आदिले उनके ऊपर आपका दोषारोपण करना उचित नहीं है। असत् वस्तु मे सत् या असतके ऊपर भषात नहीं होता है । इ- २१९ यदि दूसरों के स्वीकार करनेको आप ठीक ठीक, शून्यरहित, तथा प्रमाण सिद्ध वस्तु मानते हो तब तो आपको वह अपने आप इष्ट कैसे नहीं हुआ ? अर्थात् अन्योंका माना हुआ वस्तुभूत पदार्थ आपने भी इष्ट कर लिया । परोपगमान्तरादनुपप्लुतो न स्वयमिष्टत्वादिति चेत् । तदपि परोपगमान्तरमुपप्लुतं न स्थनिषूतः पर्यनुयोगः । सुदूरमपि गत्वा कस्यचित्स्वपामेष्टौ सिद्धमिष्टतन्त्र व्यवस्थापनं स्वसंविदितं प्रमाणमन्वाकर्षत्यन्यथा घटादेखि तद्बयवस्थापकत्वायोगात् । शून्यवाद कह रहा है कि दूसरे जैन, नैयायिक, आदिकों के प्रमाण आदि तत्वोंके स्वीकार करनेको अन्य मीमांसक आदिकोंने वस्तुभूत ठीक स्वीकार किया है। अतः हम शून्यवादी भी उसको स्वीकार कर लेते है किंतु दमको वह स्वयं घरमें इष्ट नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम पूछते हैं कि वह आस्तिकोंके प्रमाण प्रमेय आदिको स्वीकार करनेवाले दूसरोंके मन्स आपने शून्यरूप माने हैं! या वस्तुभूत ठीक माने हैं ! बसाओ। इन दोनों पक्षों में दोषारोपण न कर सकना, और स्वयं इष्टतत्त्वकी सिद्धि होना ये दोनों दोष आयेंगे। इन दोषोंके वारण करनेके लिये आप फिर तीसरे चौथे वादियोंके मन्तव्योंकी शरण पकडेंगे, वहां भी हमसे ये ही पूर्वोक्त दो पक्ष उठाये जायेंगे और उक्त दोनों दोष आपके ऊपर संक्रम होते चले जावेंगे । " तुम डार बार हम पात पात " इस लोकरूढिके अनुसार हमारा कटाक्ष करना रुक नहीं सकेगा । बहुत दूर भी आकर " अन्धसर्पके मिलप्रवेश " न्याय से यदि आप किसी एक वस्तुभूत तत्वकी सिद्धि स्वयं होना इष्ट करेंगे तो आप शून्यवादीको अभीष्ट तत्त्वकी व्यवस्थापना करना सिद्ध हुआ । उस अभीष्ट तत्त्वमे सबसे प्रथम और प्रधान स्वको जाननेवाला स्वसंवेदन प्रमाणज्ञान ही पीछे लगे er आकर्षित होता है अन्यथा यानी यदि प्रमाणको स्वसंवेदी नहीं माना जायेगा तो जड हो रहे घट, पट अदिकसे जैसे तस्यव्यवस्था नहीं हो सकती है वैसे ही उस जड ज्ञानसे भी किसी तकी व्यवस्था न हो सकेगी ! जगत्का कोई भी तत्व निर्णीत न हो पावेगा । न हि स्वयमसंविदितं वेदनं परोपगमेनापि विषयपरिच्छेदकम्, वंदनान्तरविदिसं दिष्टसिद्धिनिबन्धनमिति चेन्न, अनवस्थानात्, तथाहि---
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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