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________________ २१८ तस्वाचिन्तामणिः हो सकती है । ज्ञानका स्वके द्वारा वेदन होना अनिवार्य है। दूसरा कोई उपाय नहीं है । अतः ज्ञानका स्वयं अपनेसे ही ज्ञप्ति होना न स्वीकार करनेपर कोई भी दर्शन सिद्ध नहीं हो सकता है । पदार्थों की व्यवस्था ज्ञानसे और ज्ञानकी अपने आप व्यवस्था होना न्याय है । पृथिव्यापस्तेजोवायुरिवि तत्वानि, सर्वमुपप्लवमात्रमिति वा स्वेष्टं तवं व्यवस्थापयन् स्वसंवेदनं स्वीकर्तुमहत्येव, अन्यथा तदसिद्धेः । चार्वाक के मतमे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु यों ये चार सत्त्व माने है तथा शून्ययादीके मतमे सम्पूर्ण पदार्थ केवल शून्यरूप असत् स्वीकार किये हैं। इस प्रकार अपने अभीष्ट तत्त्वोंको जो व्यवस्थापित कर रहा है वह वादी ज्ञानका अपने आप वेवन होना इस तत्वको भी स्वीकार करनेकी योग्यता रखता ही है। अन्यथा अर्थात्-- यदि झानका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना न मानोगे तो उक्त उस इष्ट तत्त्वकी सिद्धि नहीं होसकेगी, क्योंकि संसारमै एक ज्ञान ही पदार्थ ऐसा है, जो स्वयं समझने और दूसरेके समझाने में प्रधान कारण है । उस ज्ञानका सूर्यके समान स्वपरप्रतिमासन मानना अत्यावश्यक है । जग्वादी चार्वाको मतमे तथा शून्यवाद भी स्वसंवेदी भान अनन्यगतिसे स्वीकार करना पड़ेगा। परपर्यनुयोगमात्र कुरुते न पुनस्तत्वं व्यवस्थापयतीति चेत्, व्याहतमिदं तस्यैवेष्टस्वात् । यहां चार्वाक कहता है कि भूतचदृष्टयवादी या शून्यवादी पण्डित वितण्डावादी बनकर दूसरे आस्तिस्यादियोंके ऊपर प्रश्नोंको उठाते हुए केवल दोषोंका आरोपण करते हैं, किन्तु फिर अपने किसी अभीष्ट तत्वको सिद्ध नहीं करते है। आचार्य महाराज कहते हैं कि चार्वाकोंके ऐसे कहने तो स्वयं व्याघातदोष है, जैसे कि कोई जोरसे चिल्लाकर कहे कि मैं चुप है यहां पदसो ज्याघात दोष है। वैसे ही चार्वाक अपने आप ही अपने वक्तव्य विषयका पात कर रहा है, अब कि जयका उद्देश्य लेकर परपक्षके खण्डन करने जो प्रवृत्त है, वही उसका इष्ट तत्त्व है, फिर वह चार्वाक या शून्यवादी कैसे कह सकता है कि मैं किसी तत्त्वकी व्यवस्था नहीं कर रहा हूँ। परोपगमात् परपर्यनुयोगमात्रं कुरुते न तु स्वयामिष्टे, येन तदेव तावं व्यवस्थापित भवेदिति चेत्, स परोपगमो यधुपप्लुतस्तदा न ततः परपर्यनुयोगो युक्ता सोऽनुपप्लुतश्चेत्कथं न स्वयमिष्टः । शून्यबादी कहता है कि दूसरे जैन, नैयायिक आदि आस्तिक लोगोंके माने गये स्वसंवेदन, आत्मा आदि तत्त्वों में उनके स्वीकार करनेसे इम उनपर दोषोंका केवल उद्धापन करते हैं परंतु अपन माने हुए किसी विशेष सत्त्वमें ऊहापोह नही करते हैं। जिससे कि दूसरेका खण्डन करना वही हमारी तत्त्वव्यवस्था हुई बों मान लिया जाय । भावार्थ-इम अपनी गांठका कोई मी उत्त्व
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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