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तवाचिन्तामणिः
न साध्यसनोमयं नानुभयमन्यद्वा वस्तु, किं तर्हि १ वस्स्वेव सकलोपाधिरहितवातथा वक्तुमशक्तेरवाच्यमेवेति चेत्, कथं वस्त्वित्युच्यते १ सकलोपाधिरहितमवाच्यं वा १ वस्त्वादिशब्दानामपि तत्राप्रवृत्तेः ।
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यहां कोई एकांतरूपसे वस्तुको अवक्तव्य कहनेवाला बौद्ध अपना मत यों कह रहा है कि वस्तु सत्रूप भी नहीं है और असत्रूप भी नहीं है तथा सत् असत्का उभयरूप भी नहीं है । एवं सत् असत् दोनोंका युगपत् निषेधरूप अनुभव स्वरूप मी नहीं हैं अथवा अन्य धर्म या घर्मीरूप मी नहीं हैं। तब तो कैसी ? क्या वस्तु है ? इसपर हम बौद्धोंका यह कहना है कि वह वस्तु वस्तु ही है | संपूर्ण विशेषण और स्वमायसे रहित होने के कारण जिस तिस प्रकार से वस्तुको कहने के लिये कोई समर्थ नहीं है । वस्तु किसी शब्द के द्वारा नहीं कही जाती है। कोई भी शब्द वस्तुको स्पर्श नहीं करता है, अतः वस्तु अवाच्य ही है । यहि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो हम जैन पूंछते हैं कि वस्तु सर्वथा ही अवाच्य हैं तो " वस्तु " इस शब्दके द्वारा भी वह कैसे कही जा सकेगी ? और वह सम्पूर्ण स्वभावों से रहित है । अवाच्य है, आदि इन विशेषणों का प्रयोग भी वस्तुमें कैसे छागू होगा ! बताओ । तथा अवाच्य इस शब्दसे भी वस्तुका निरूपण कैसे कर सकोगे ? क्योंकि सर्वथा अवाच्य माननेपर तो वस्तु, अवाच्य, स्वभावरहित, सत् नहीं, उभय नहीं है, आदि शब्दोंकी भी प्रवृत्ति होना वहां वस्तुमै नहीं घटित होता है ।
सत्यामपि वचनागोचरतायामात्मादितच्चस्योपलभ्यताभ्युपेया । सा च स्वरूपेणास्ति न पररूपेणेति सदसदात्मकत्वमायातं तस्य तथोपलभ्यत्वात् । न च सदसभ्वादि धर्मैरप्यनुपलभ्यं वस्त्विति शक्यं प्रत्येतुं खरश्रृंगादेरपि वस्तुत्वप्रसंगात् ।
आमा, स्वलक्षण, विज्ञान, आदि तत्त्वोंको बचनों के द्वारा अवाच्य माननेपर भी वे जानने योग्य स्वभाववाले हैं, यह तो बौद्धोंको अवश्य ही मानना चाहिये । अन्यथा उनका जगत् सद्भाव ही न हो सकेगा । ज्ञानके द्वारा ही ज्ञेयोंकी व्यवस्था होना सब ही ने इष्ट की है। ऐसी प्रमेय हो जानेकी दशा आत्मा आदि तत्त्व अपने अपने स्वभावोंसे ही जाने जायेंगे । ज्ञानको बहिरंग स्वलक्षण रूपसे नहीं जाना जा सकता है। और ऐसा निर्णय हो जानेपर वह आत्मा आदि तत्वोंकी जाने-गयेपनकी योग्यता अपने स्वरूपसे हैं और दूसरे पदार्थों के स्वरूप से नहीं है । इस प्रकार आपके मंतव्य से भी सदात्मक और असदात्मक तत्व मानना जाया । क्योंकि उन आत्मा मादि तत्त्वोंका तिस ही प्रकारसे जानागयापन सिद्ध होता है । सत्र, असत्व, उमय और अनुभव तथा अन्य स्वकीय स्वभायोंसे भी जो जानने योग्य नहीं है, वह वस्तु है। ऐसा भी नहीं प्रतीत किया जा सकता है। क्योंकि सम्पूर्ण घर्मो से रहितको मी यदि वस्तु समझ लिया जावेगा तो खरविषाण, ध्यापुत्र, आदिको भी वस्तुपना निर्णीत किये जानेका प्रसंग होगा। जो कि बौद्धोंको इष्ट नहीं है।