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________________ तस्वाचिन्तामणिः ........ ......... ......... ........ ........... सेप्यनेनैव प्रतिक्षिताः, स्वयमिष्टानिष्टस्वभावाभ्यां सदसत्त्वस्वमावसिद्धेरप्रतिबंधात् । न च कस्यचिदुपचरिते सदसवे तत्वतोनुभयत्वस्य प्रसक्तेः। तच्चायुक्तं, सर्वथा व्याधाताद । इस प्रकार आमाको सर्वथा नित्य कहनेवाले वे भी हमारे पूर्वोक्त कथनके द्वारा ही सिरस्कृत (खण्डित ) कर दिये जाते हैं । क्योंकि अपने लिये स्वयं इष्ट माने गये स्वभाव करके आत्माको . सवस्वभाव माना जावेगा और अपने लिये अनिष्ट कहे गये स्वभावके द्वारा उसी आमाके असत्पनेकी सिद्धि की जावेगी तो एक आत्मामें सत और असत् ऐसे दो स्वभावोंकी सिद्धि होनेका कोई प्रतिबंध नहीं है। अन्यथा कूटस्थवादी अपनी आत्माको ही सिद्ध न कर पावेंगे । किसी वस्तुफे केवल उपचारसे माने गये सत्व भौर असत्व स्वभाव कुछ कार्यकारी नहीं होते हैं। यदि मुख्यरूपसे सत्व और असत्व न माने जावेंगे तो वस्तुमें यथार्थरूपसे अनुमयपनेका प्रसंग आता है और वह वो अयुक्त है। कोरा भनुमयपना तो खरविषाण आदि असत् पदार्थोंमें माना गया है। वस्तुमे सत्. और असत्का निषेध कर सर्वथा अभयाणा आप पिक नहीं ६॥ सफरो है । पयोंकि इसमें व्याघात दोष है जिस समय सत् स्वभावका निषेध करने बैठोगे, उसी समय असत् स्वमावका विधान हो आवेगा और जिसी समय असत् स्वभावका निषेध किया जावेगा, उसी क्षणमें सत् स्वभावके विधिको उपस्थिति हो जावेगी। युगपर दोनों स्वभावोंका निषेध कभी नहीं हो सकता है। जो चुप है, वह चिल्लाकर अपने मौनव्रतका वखान नहीं करता है और जो हल्ला करके अपने मौनीपनेका ढिंढोरा पीट रहा है, वह उस समय चुप नहीं है । चुप रहकर मौन व्रतको चिल्लाकर कहना एक समय पर नहीं सकता है। इस प्रकार सर्वथा अनुभयपक्ष माननेमें यह व्याघात दोष आता है। कथञ्चिदनुभयत्वं तु वस्तुनो नोभयस्वभावतां विरुणद्धि, कथं धानुभयरूपतया तत्वं तदन्यरूपत्या चातवमिति ब्रुवाणः कस्यचिदुभयरूपतां प्रतिक्षिपेत् । हां ! यदि आप किसी अपेक्षासे सत्, असत्का निषेध करनारूप अनुभय पक्ष लेंगे, तब तो वह कथञ्चित् अनुभयपना वस्तुके उभय स्वभावपनेका विरोध नहीं करता है, जैसे सर्वथा सत्का सर्वथा असत्से विरोध है । किंतु कथञ्चित्स्वरूप सत्का कथञ्चित् पररूप असत्से विरोध नहीं है । ऐसे ही सर्वथा अनुभयका सर्वथा उभयसे विरोष है, किंतु कथञ्चित अनुभयपनेका कथञ्चित् उभयपनेसे विरोध नहीं है । दूसरी बात यह है कि जो कूटस्थवादी सत् असत् स्वभावोंसे रहित अनुभवरूपपनेसे आत्मतत्वको मानरहा है, वह भी अनुमय स्वभावसे तत्त्वपना और उससे अन्य उभय, सत्त्व, आदि सभावोंसे आस्माको अतत्वपना अवश्य कहरहा है। ऐसा कहनेवाला किसी भी वस्तुको उमयरूपताका भला कैसे खण्डन करसकता है। क्योंकि स्वयं उसने उभयरूपवाको अपनी गोदमें ले रखा है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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