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तत्त्वार्थचिंतामणिः
मुमुक्षुजोंके उपयोगी तत्वार्थसूत्रके प्रमेया और श्लोकार्तिकग्रन्थका वाच्यवाचकभावसम्बन्ध है । इस प्रकरण ग्रन्थके द्वारा प्रतिभासित मोक्षके कारण संवर, निर्जरा तत्त्वोंका और संसारके कारण आस्रव, बन्ध तत्वोका उपादान और हान करना संसारी जीवोंको शत्यानुष्ठान भी है तथा वक्ता एवं श्रोताको अज्ञानकी निवृत्ति और कैवल्यविद्याकी प्राप्ति होना साक्षात् और परम्परया इष्टपयोजन है। इन सम्पूर्ण विषयोंको आद्यश्लोकमें ही स्वामीजीने ध्वनित कर दिया है ।
श्लोकका अर्थ--प्रवक्ष्यामि ऐसी भविष्यकालवाचक लुट् लकारफे उत्तम पुरुषकी क्रिया होनेसे "अहं। पदका आक्षेप (अध्याहार) हो जाता है । अहं शद्ध अभिमानमयुक्त अपने औद्धत्यको भी प्रगट करता है। अत: शिष्टसम्प्रदायमै कण्ठोक्तरूपसे अहं अर्थात् मैं शब्दका कचित् उच्चारण नहीं भी किया जाता है। थोडे शब्दोंमें अधिक अर्थ लिखनेवाले विद्वानोंको क्रियासे ही कर्तृवाच्यमें प्रत्यय होनेके कारण कर्ना अर्थ स्पष्ट है । उसको पुनः लिखने में पुनक्त दोषको गन्ध भी प्रतीत होती है । अतः मनीषी आचार्य प्रवक्ष्यामि कियासे ही प्रतिज्ञा करते हैं । अर्थात् प्रकर्षेण युक्तिपूर्वक परपक्षनिराकरणेन परिभाषयिष्यामि, मैं विद्यानन्द आचार्य युक्तिपूर्वक प्रतिवादियोंके पक्षका निराकरण करता हुआ भाष्यसंकलनायुक्त स्पष्टरूपसे कहूंगा। कं (किसको) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् "नामैकदेशो नाम्नि प्रवर्तते। पूरे नामका एकदेश भी बोल दिया जाता है। जैसे सत्यभामा नामकी लडकीको सत्या या मामा कह देना । इस नियमके अनुसार उमास्वामी आचार्यसे रचे हुए तत्त्वार्थ मोक्षशास्त्रको भी तत्त्वार्थ कहदेते हैं । अत्यन्त प्रिय विषय में प्रायः आधे मामका उच्चारण होता है । विद्यानन्द आचार्यकी तत्त्वार्थसूत्र और उसका " मोक्षमार्गस्य नेतारं " इत्यादि मंगलाचरणश्लोक एवं तत्त्वार्थसूत्रके उपर रचे गये गन्धहस्तिमहाभाष्य और उसके “देवागमनभोयान " आदिमंगलापरणके श्लोकोपर अत्यन्त श्रद्धा थी। अतः ग्रन्थकार श्रद्धेय विषयोंके आद्य कारण तत्त्वार्थसूत्रके ऊपर श्लोकोंमें यानी अनुष्टुप् छंदोंमें बार्तिकोंको रचनकी प्रतिज्ञा करते हैं। श्लोकबद्ध वार्तिक । मूलग्रंथकारसे कथित तथा उनके हृदयमत गूढअर्थोंकी एवं मूल ग्रन्थकर्तासे नहीं कहे गये अतिरिक्त भी अर्थों की अथवा दो वार कहेगये प्रमेयकी चिन्तनाको वार्तिक कहते हैं । ऐसे अर्थको धारण करनेवाले तत्त्वार्थ श्लोकार्तिक नामकवृत्तिरूपसे किये गये अन्थको कहूंगा । किं कृत्वा (क्या करके ) श्री वर्धमानमाध्याय ( अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरङ्गलक्ष्मी और समवसरण आदि पाह्यलक्ष्मीसे सहित होरहे इष्टदेव श्रीवर्धमानस्वामी चौवीसवें तीर्थङ्करको मन, वचन, कायसे ध्यान करके ) कथम्भूवं श्रीवर्धमानं (कैसे हैं श्री वर्धमान भगवान् ) घातिसंघातघातन (जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन घातिकमो की सैंतालीस प्रकृतिओं तथा इनकी उत्तरोत्तर अनेक प्रकृतियोंका क्षायिक रत्नत्रयसे समूल-चूल क्षय कर दिया है)। पुनः कथम्मूतं श्रीवर्धमान ( फिर कैसे हैं वर्धमानस्वामी) विद्यास्पदं ( मुझ विद्यानन्दी आचार्यके अवलम्ब है। यहां स्वामीजीने गुरुजनोंसे प्रिय मिट सम्बोधनमें एकांश(आधे) बोले गये विद्या शब्द्वका