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________________ तत्त्वार्थचिंतामणिः स्थान देने का भी औदार्थ दिखलाया है । माढ अन्धकारके प्रसारसे ही सूर्यके प्रताप, प्रकाश, आदि गुणों तथा विपुलपतिपक्ष निराकरण शक्तियोंका ज्ञापन होता है। न्यायशास्त्र और सिद्धान्त शास्त्रको दृष्टिसे यह ग्रंथ अतीव उच्चकोटि-का है। वर्तमानकालमें इस मंथका अध्ययन अध्यापन हो कप्रसाध्य होरहा है । सिसपर इस महान् ग्रंथकी टीका करना तो अंधकवतिकीय (अन्धेके हाथ बटेर ) ही कहना चाहिये । कहां यह अनेक प्रमेयोंसे भरा हुआ गम्भीर ग्रन्थ समुद्र और कहाँ मेरी छोटीसी टूटी फूटी बुद्धिरूपी नोका ! इस विषमसमस्याको घटनासंयोजनाम पञ्चपरम गुरुचरण शरणके अतिरिक्त और क्या प्रयोजक हो सकता है ? इस जगतरूप नाट्य भूमिमें अनेक प्रकारके पात्र हैं। किन्तु जलौका नीतिको हेय समझकर " हंसशीर न्याय " से उपगृहनाङ्ग का पालन ही सम्यग्दृष्टिको अनिवार्य होता है। अतः निन्दा, प्रशंसा, वादके निर्णयको साधु सज्जनोंकी विवेचना बुद्धिपर उन्मुक्त कर, स्वाभाविक पदवीका अवलम्य करता हुआ गुरुचरणरजसे अपने मस्तकको पवित्र बनाकर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्धके देशभाषारूपी कार्यमे प्रवृत्त होता ई । रत्नत्रयधारी थर्मात्मा सज्जन शुभभावोंसे मेरी आत्माको प्रबल बनावे, ऐसी पवित्र भावना है । “ॐ नमोऽहत्यामेष्ठिने "। श्रीविद्यानन्दस्वामी तत्त्वार्थश्लोकार्तिक ग्रन्धके आदिमें निर्विनरूपसे शास्त्रको परिसमाप्त्यर्य और शिष्टोंके आचारके परिपालनका लक्ष्य रख तथा नास्तिकता परिहार के लिये एवं उपकार स्मरणके योतनार्थ अपने इष्टदेव श्री १००८ वर्धमान स्वामीका ध्यान करते हुए प्रतिज्ञा श्लोकको कहते हैं । श्रीवर्धमानमाध्याय घातिसंघातपातनम् । विद्यास्पदं प्रवक्ष्यामि, तत्त्वाथे श्लोकवार्तिकम् ॥ १॥ प्रत्येक ग्रन्थनिर्माताको अपने प्रारम्भित ग्रन्थमें सम्बन्धाभिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन इन तीनों गुणोंका समावेश करना आवश्यक है । तभी बह ग्रन्थ विचारशील विद्वानों आदरणीय होता है। अपने वक्तव्य प्रमेयका ग्रन्थके शवोंसे वाचन होनेको सम्बन्धाभिधेय कहते हैं । अतएव उन्मत्तोका बकशद श्रद्धेय नहीं है । वाच्य अर्थोंमें परस्पर सम्बन्ध घटना होती रहनी चाहिये । जिस कार्यको धीमान् जन कर सकते हैं, उसको शक्यानुष्ठान कहते हैं। इस गुणके न होनेसे किसी व्यक्तिका शिरसे चलनेका, औषधिपति चन्द्रमाको घरमै लानेका तथा सर्ववरहारी तक्षक सर्पक शिरमें लगी हुयी मणिके ग्रहण करनेका उपदेश ग्राह्य नहीं होता है । प्रकृतमे स्वहितकारी, प्रयोजनसाधक यायोम इप्रयोजन गुग है। तभी तो विष-भक्षण, हिंसा, परधन ग्रहणको पुg करनेवाले बाक्यों में प्रामाण्य नहीं माना है। इस ग्रन्थमें भी ये तीनों गुण विद्यमान हैं।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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