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________________ तत्त्वार्थचिंतामणिः विषयोंको मिलाकर संक्षेपसे प्रतिपादन करनेवाले मूलमन्थको दर्शन कहते हैं। त्रियोग द्वारा किये गये, कहे या विचारे गये प्रत्येक कर्तव्यके समय उस दर्शन ग्रन्थका अपनी आत्मा बुद्धिचक्षुसे दर्शन करते रहने वाले दार्शनिक विद्वान् कहलाते हैं। श्री महावीरस्वामीके मोक्ष-गमनके पश्चात् कतिपय शताब्दियों के बीत जानेपर विदेहक्षेत्र में जाकर श्री सीमन्धर स्वामीका प्रत्यक्ष दर्शन करने वाले उपज्ञज्ञानधारी श्रीउभास्वामी आचार्यने तत्वज्ञान अन्थों के सारभूत जैनदर्शन तत्त्वार्थ-मोक्षशास्त्रकी रचना की। अल सूत्रोंमें त्रिलोक त्रिकालकी तत्त्वमालाको अक्षुण्ण निरूपण करनेवाला यह मूलमन्थ अतीव .गम्भीर है। अति विस्तर उदार अर्थको इङ्गित मात्रसे अत्यल्प शब्दोंके द्वारा व्यक्त करनेवाले पद समुदायको सूत्र कहते हैं । इस जैनदर्शनके गूढार्थ प्रकाशनके लिये स्वामी समन्तभद्राचार्य-उदयाचलसे ८४००० चौरासी हजार श्लोकोंमें गन्धहस्तिमहाभाष्य-ग्रन्थ-सूर्य प्रगट हुआ। स्वामी समन्तभद्रकी सिंहगर्जनासे अनेक प्रतिवादियोंके बुद्धि कुयुक्तिगर्भगत अर्थ स्खलित होजाते हैं तथा उन्हीं समन्तभद्राचार्यसे विस्तारित जैनधर्म ध्वजाकी शीतल छाया आश्रय पाकर आसन्न भव्य जीव इष्ट तत्वार्थको प्राप्तकर चारों ओरसे कल्याण पात्र बन जाते है । तथार्थसूत्रको विद्यविद्य श्री भट्टाकलक देवने श्रुतझानाधिका मथन कर उद्धार किये गये तत्वार्थराजबार्सिक अमृतसे सिञ्चित किया। सूत्र बार्तिक और भाध्यका यह योग रत्नत्रयके समान संसिद्धिमें आवश्यक है। उक्त दोनों अन्य जैन शास्त्र में आकर ( खानि ) ग्रन्थ माने जाते हैं । श्री समन्तभद्राचार्य रचित गन्धहस्तिमहाभाष्यके मङ्गलाचरणस्वरूप देवागमस्तोत्रका श्रवणकर श्रीविद्यानन्द आचार्य प्रबुद्ध हुए और तत्क्षण सम्यग्दर्शन तथा अखण्ड सम्याज्ञान और त्रयोदशविध चारित्रको स्वीकार कर विद्यानन्द स्वामीजीने शास्त्रार्थ और शास्त्र-लेखन द्वारा अक्षुण्ण जैनधर्मकी प्रभाबमा की। उस समय भारतवर्षकी चारों दिशाओं में जैनधर्मका पटइनिनाद व्याप्त था। न्याय विद्या के अग्रगुरु श्री समन्तभद्राचार्य भगवान के भावाको विद्यानन्दस्वामी गुरु रूपसे मानते थे । अतएव अटसहस्री ग्रन्थ के मंगलाचरण श्लोक स्वामीजीने समन्तभद्राचार्यकी वन्दना की है। अन्य मतावलम्बियों के पोच और युक्तिरहित आपातरम्य कुतोंसे जिनागम रहस्यको बाल बालाम रूपसे भी अखण्डित होनेके उद्देशसे अथवा प्रत्युत महावीर स्वामी के निकट शालार्थ करनेके लिये गये गौतमगणीके अनुसार या अहिक्षेत्र पार्श्वनाथके मन्दिर, जैनोंको पराजित करनेके अभिप्रायसे गये हुए स्वयंके ( अपने ) समान, शास्त्रार्थ करने के लिये आये हुए परवादियोंको जैनधर्ममें दीक्षित करने के अभिमायसे विद्यानंद आचार्यने तत्त्वार्थसूत्रके ऊार तत्वार्थ श्लोकार्तिक ग्रन्थकी रचना की । पूर्वोक्तभाव, उनकी लेखनशैली और खंडनमंडनध्यवस्थासे विचारशीको 'सहज प्रगट हो सकता है। पूज्यपाद विद्यानन्द समीनीने इस ग्रंथ, अत्यंत कठिन जैनसिद्धांतके प्रायोंको सुयुक्तियोंसे सिद्ध कर दिया है। प्रत्येक स्थल पर परवा दियोंको स्थपा समर्थन करनेकेलिये पर्याप्त
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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