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________________ वस्था चिन्तामणिः फौकी निर्जरा करनेकी शक्ति का जीवके सम्यग्दर्शन गुण या सम्यग्ज्ञानमें अथवा सम्यक् चारित्रमें अन्तर्भाव किया जावेगा : या उस शक्तिको उन गुणोंसे भिन्न ही माना जावेगा ! बताओ। यदि इन प्रश्नों के उसरमें कोई यो कहे कि पहिले सम्यग्दर्शन गुणमे ज्ञानावरण कर्मकी पांच और अन्तराय कर्मकी पांच तथा दर्शनावरणकी चार एवं चौदहों प्रकृतियों के नाश करने की शक्तिका गर्म हो जाता है, यह कहना तो ठीक नहीं पड़ता है। क्योंकि असंपतसम्यादृष्टि नामक चौधे गुणस्थानसे लेकर अपमच नामक सातवें गुणस्थान तक किसी भी एक गुणस्थानमें दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय हो जानेसे सायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है। अतः चौथेसे सातवें तक ही किसी गुणस्थानमें ज्ञानावरण पाद कौकी निरा करनेवाली उस शक्तिका पादुर्भाव हो जाना चाहिये और ऐसा होनेपर सात गुणस्मानमें ही केवलज्ञान हो आनेका प्रसंग आवेगा । जो कि अनिष्ट है। शाने सान्तर्भवतीति चायुक्त, क्षायिकेणैतदन्तर्भावे सयोगकेवलिना केवलेन सहाविभौवापचे। थायोपश्चमिके तदन्तोंवे तेन सहोत्पादप्रसक्तेः। यदि बारहवें गुणस्थानके मन्तमें क्षय होनेवाली चौदह प्रकृतियोंके नाश करनेवाली शक्तिको ज्ञानमें अन्तर्भूत करोगे, या मी युक्त नहीं है। क्योंकि ज्ञानोमसे यदि क्षायिकज्ञानके साथ इस शक्तिका अन्तर्भाव माना जावेगा तब तो तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेचलीके केवलज्ञान के साथ साथ उस शक्तिके मगट होनेका प्रसंग होता है। किंतु वह कारण शक्ति तो केवलज्ञानके पहिले ही बारहवेके अन्तमें प्रगट हो चुकी है । तभी तो दूसरे क्षण प्रतिबन्धकोंके नष्ट हो जानेपर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। यदि ज्ञानोमेसे क्षयोपशमजन्य चार ज्ञानों में उस शक्तिका अन्तर्भाव करोगे तो उन ज्ञानों के उत्पन्न होने के साथ ही उस शक्तिका उत्पाद हो जाना चाहिये । भावार्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तथा देशावधि चौथेसे बारहवे गुणस्थान तक पाये जाते हैं और परमावधि, सर्वावधि और मन:पर्यय छठेसे पारहवे तक उत्पन्न हो सकते हैं। अतः यही कहीं इस शक्तिका प्रादुर्भाव हो जाना चाहिये था। ऐसी दशाम चौधे पांचौ, छठे या सातमें गुणस्थानमें भी केवलज्ञान उत्पन्न हो जानेका प्रसंग है। थायोपशमिके चारित्रे तदन्तर्भावे तेनैव सह प्रादुर्भावानुषंगात् । क्षायिक तदन्तर्भावे क्षीणकषायस्य प्रयमे क्षणे तदुद्भुतेनिंद्राप्रचलयोऊनावरणादिप्रकृतिचतुर्दशकस्य च निर्जरणप्रसक्तेर्नोपान्त्यसमये अन्त्यक्षणे च तन्निर्जरा स्यात् । - यदि उस निर्जरा शक्तिका चारित्र अन्तर्भाव करोगे, यहां क्षायोपशमिक चारित्रमें यदि उस शक्तिका गर्भ किया जायेगा, तब तो पांचवें, छठ, सातवे गुणस्थानमें होनेवाले उस क्षायोपमिक चारित्रके साथ ही इस शक्तिकी उत्पत्ति हो जानी चाहिये थी । और पदि क्षायिक पारिश्रमे उस
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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