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________________ ५३० तत्त्वायचिन्तामणिः है ? बतलाइये | ग्रंथकार समझाते हैं कि यह नहीं कहना। क्योंकि उस समय बारहवे गुणस्थान में वैसे विशेषकालका असम्भव है, जो कि उस चारित्रस्वभावको निश्वयसे अपेक्षणीय है। इस ही प्रकारसे तेरहवे गुणस्थानका केवलज्ञान मी उस चारित्रके स्वभावको उत्पन्न नहीं कर सकता है। क्योंकि उसका भी सहायक होरहा कालविशेष उस अवसरमे नहीं है। अपनी पूर्ण सामग्री के बिना अकेले एक दो कारण विचारे कार्यको करते हुए कभी नहीं देखे जाते हैं । फालादिसामग्रीको हि मोहाय स्तदूपाविर्भावहेतुर्न केवलस्तथाप्रतीतेः । काल, क्षेत्र, आत्मीय परिणाम, केवळिसमुद्घात आदि सामग्री की अपेक्षा रखता हुआ ही मोहनीय कर्मका क्षय उस चारित्र के स्वभावको प्रगट करनेका कारण है। अकेला मोहनीय कर्मका क्षय ही चौदह गुणस्थानके अंत में होनेवाले स्वभावको उत्पन्न नहीं कर सकता है । वैसी ही प्रमाणोंसे प्रतीति होरही है। और केवलज्ञान मी अकेला दिना सामग्रीके उस स्वभावको उत्पन्न नहीं कर पाता है । पहिले महीनेका गर्भ नवमें महीनेकी गर्भअवस्थाका जनक नहीं है । हां 1 दूसरे, तीसरे, आदि महीनोंकी और उनमें होनेवाले परिणमनों की अपेक्षा रखता हुआ वह पूर्ण साङ्गोपाङ्ग बालको उत्पन्न करसकता है । अतः प्रत्येक कार्यमें काल आदिकी अपेक्षा होती है। I क्षीणेऽपि मोहनीयाख्ये कर्मणि प्रथमक्षणे । यथा क्षीणकषायस्य शक्तिरन्त्यक्षणे मता ॥ ८९ ॥ ज्ञानावृत्यादिकर्माणि हन्तुं तद्वदयोगिनः पर्यन्तक्षण एव स्याच्छेषकर्मक्षयेऽप्यसौ ॥ ९० ॥ इस प्रकार बारहवें क्षीणकषाय नामक गुणस्थान के पहिले क्षण में ही चारित्र मोहनीय नामक कर्म नष्ट होचुका है। फिर भी उस क्षीणकषायकी ज्ञानावरण आदि चौदह कर्म प्रकृतियोंके नष्ट करने के लिये शक्तिका विकास तो बारहवें गुणस्थानके अंतसमय में मुनिमहाराजके उत्पन्न होता है । अन्तर्मुहूर्त क्षीणकषायके पक परिणमन होते रहने चाहिये, वैसे ही उस चारित्रकी क्षेत्र बचे हुए तीन अघातिया कर्मोंके क्षय करने के निमित्त उस शक्तिका प्रादुर्भाव अयोग केवळीके चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समयमें ही माना गया है। उस अन्त्यसमय के अनन्तर दूसरे समय में मोक्ष है, जो कि गुणस्थानोंसे परे है। कर्मनिर्जरणशक्तिर्जीवस्य सम्यग्दर्शने सम्यग्ज्ञाने सम्यक्चास्त्रेि चान्तर्भवेचतोन्या वा स्यात् । तत्र न तावत् सम्यग्दर्शने ज्ञानावरणादिकर्म प्रकृतिचतुर्दश कनिर्जर पणशक्तिरन्तर्भवत्यसंयतसम्यग्दृष्ट्या यत्रमचपर्यन्तगुणस्थानेष्वन्यतमगुणस्याने दर्शनमोहश्याचदाविर्भावप्रसक्तेः।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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