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________________ तत्त्वार्थ चिन्तामणिः ५२९. ज्ञान स्वभाव उस केवलज्ञानावरण कर्मके क्षयसे प्रगट हो जाता है ( अन्यदृष्टांत ) प्रकरण में आमाका स्वभाव चारित्ररूप है | चारित्रके अन्य निमित्तोंसे जन्य स्वभाव भी चारित्रस्वरूप हैं ( उपनय ) इस कारण वे चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयसे ही उत्पन्न हो जाते हैं (निगमन) उन रूपको आवरण करनेवाले फिर कोई नववे कर्मको माननेका प्रसंग नहीं होता है । यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार से मानोगे अर्थात् छोटे छोटे निमिचों द्वारा उत्पन्न होनेवाले आत्मा के या आत्मीय गुणोंके स्वभावको रोकनेवाले न्यारे न्यारे कर्मोंकी कल्पना की जावेगी, तब तो आठ कर्मों के स्थानपर अनेक जातिवाले कमौके माननेका अतिप्रसंग होगा, अर्थात् अनंत सुखको आवरण करनेवाला भी एक स्वतंत्र कर्म मानना पड़ेगा तथा सातिशय मिध्यादृष्टिके होनेवाले करणत्रयको, और अनन्तानुबन्धीका त्रिसंयोजन करने के लिये होनेवाले करणत्रयको, एवं क्षायिकचारित्रको करनेवाले अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण परिणामको रोकनेवाले कर्म भी अतिरिक्त मानने पड़ेंगे तथा केवलसमुद्घातरूप आत्मा के स्वभावको प्रतिबंध करनेवाला भी कर्म मानना आवश्यक होगा । यज्ञतिक कि बट, पट, पुस्तक, चौकी, लेखनी आदि प्रत्येक पदार्थ देखने, जानने को आवरण करनेवाले चाक्षुषप्रत्यक्षावरण भी पृथक् पृथकू मानने पढेंगे । एवं च बढा भारी आनन्त्य दोष होगा | यदि विशिष्ट कारणोंसे आत्मा के पुरुषार्थजन्य उपर्युक्त भाव होते रहते हैं । इन स्वभावों के लिये अतिरिक्त कर्मोकी आवश्यकता नहीं मानी जावेगी, ऐसा उत्तर दोगे तो वैसे ही उस चारित्रके चौदहवे गुणस्थान में होनेवाले स्वरूपके लिये भी एक स्वतंत्र नववे कर्म मानने की आवश्यकता नहीं है । आत्मायें बाल्य, कुमार, युवा, आदि व्यवस्थाएं होती रहती हैं । पढने, लिखने, ध्यान करनेके परिणाम होते हैं । जाना, बैठना, खाना पीना आदि परिस्पंद होते रहते हैं । इन सबके लिये कमकी आवश्यकता नहीं है । यदि किसी कर्मका उदय या उपशम आदि परम्परासे सहायक भी हो तो बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वकं होनेवाले पुरुषार्थजन्य स्वरूपों में उसकी कोई गणना नहीं है । खांसना, डकार लेना, व्यायाम करना, स्वाध्याय क्रिया करना, तपश्चरण, ब्रह्मचर्य धारण, rator आदि कार्य आत्मा के स्वतंत्र हैं । सर्वत्र कर्मका बल्ला लगाना उचित नहीं । सिद्ध क्षीणमोहस्य किं न स्यादेवं तदिति चेन्न वै । तदा कालविशेषस्य तादृशोऽसम्भवित्वतः ॥ ८७ ॥ तथा केवलबोधस्य सहायस्याप्यसम्भवात् । स्वसामय्या विना कार्यं न हि जातुचिदीक्ष्यते ॥ ८८ ॥ जब चारित्र स्वभावका भी प्रतिबंधक चारित्रमोहनीय कर्म है तो ऐसा होनेपर मोहका क्षय करचुके बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिमहाराजके ही क्यों नहीं वह स्वभाव अवश्य उत्पन्न होजाता 67
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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