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________________ ५२८ तत्त्वार्षचिन्तामणिः -nommmmmmmm m mmmmmmmmmmmmmms चारित्र मी पूर्ण न हो सकेगा। फिर आपने बारहवें गुणस्थानके आदि समयवाले चारित्रको पूर्ण कैसे कादिया ! आचार्य कहते हैं कि ऐसी शंका ठीक नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण तत्त्वायाँको परोक्षरूपसे जाननेवाले पूर्ण श्रुतज्ञानसे उस चारित्रकी उत्पत्ति होती है । श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों पूर्ण हैं। अन्तर इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। श्री गोम्मटसारमें कहा है कि “सुदकेवलं च गाणं दोण्णिवि सरिसाणि होति बोहादो। सुदणाणंच परोक्वं, पच्छक्खं केवळ गाणं " ॥ पूर्ण तत एव तदस्त्विति चेन्न, विशिष्टस्य रूपस्य तदनन्तरमभावात् । किं तद्विशिष्टं रूपं चारित्रस्यांत चत, नामापातिकत्रयनिर्जरणसमर्थ समुच्छिन्नक्रियामतिपातिध्यानमित्युक्तप्रायम् । जब कि बारहवे गुणस्थानका चारित्रपूर्ण श्रुतज्ञानसे उत्पन्न हुआ है तो फिर उस ही कारणसे बारहवें गुणस्थानके उस चारित्रको सर्व प्रकार से पूर्ण ही क्यों नहीं कह दिया जावे । केवलज्ञानसे चारित्रमें क्या कार्य होना शेष है ? इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि अपने अंशों में तो चारित्र पूर्ण है। किन्तु उस चारित्रके कतिपय विलक्षण स्वमात्र उस पूर्ण श्रुतज्ञान के पश्चात् उत्पन्न नहीं होते। वे स्वभाव तो केवलज्ञान होनेपर ही कुछ सहकारियों के मिलनेपर उत्पन्न होते है । वह चारित्रका विशिष्ट स्वभाव क्या है ? ऐसा प्रश्न होनेपर तो इसका उत्तर यह है कि नाम आदि यानी नाम वेदनीय और गोत्र इन तीन अघाती काँकी निर्जरा करने में समर्थ ऐसा चौथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामका शुक्लध्यान है। इस बातको प्रायः पूर्वपकरणमें हम कह चुके हैं । तद्रूपावरणं कर्म नवमं न प्रसज्यते । चारित्रमोहनीयस्य क्षयादेव तदुद्भवात् ॥ ८६ ॥ उस चारित्रके अंतिम स्वभावको आवरण करनेवाला आठ कोंके अतिरिक्त कोई न्यारा कर्म होगा, इस प्रकार नवमें कर्म हो जानेका प्रसंग नहीं होपाता है। क्योंकि चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयसे ही उस स्वमावकी भी उत्पत्ति हो जाती है। कुछ विशेष सहकारी कारण और समयविशेषकी आकांक्षा है। यद्यदात्मकं ससदावरककर्मणः क्षयादुद्भवति, यथा केवलज्ञानस्वरूप तदापरणकर्मणः क्षयात् , चारित्रात्मकं च प्रकृतमात्मनो रूपमिति चारित्रमोहनीयकर्मण एव क्ष्यादुद्भवति न च पुनस्तदावरणं कर्म नवमं प्रसज्यतेऽन्यथातिप्रसंगात् । यह व्याप्ति बनी हुयी है कि जो स्वभाव जिस भावस्वरूप होता है ( हेतु ) वह मी उस भावके आवरण करनेवाले कर्मकि क्षयसे ही उत्पन्न होजाता है ( साध्य ) जैसे कि आत्माका केवल
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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